REVIEW: जानें कैसी है Parineeti और Hardy की फिल्म Code Name Tiranga

रेटिंगः आधा स्टार

निर्माताः टीसीरीज और रिलायंस इंटरटेनमेंट

लेखक व निर्देशकः रिभु दासगुप्ता

कलाकारःपरिणीति चोपड़ा, हार्डी संधू, शरद केलकर, रजित कपूर, शेफाली शाह, दिव्येंदु भट्टाचार्य, शिशिर शर्मा, सव्यसाची चक्रवर्ती, दीश मरीवाला व अन्य.

अवधिः दो घंटे 17 मिनट

भारत की ‘रिसर्च एंड एनालिसिस विंग’’ अर्थात ‘रॉ’ के एजेंट पिछले एक दशक से भी अधिक समय से बौलीवुड के फिल्मकारों के लिए पसंदीदा विषय बने हुए हैं. ‘रॉ’ एजेंटो को लेकर अब तक कई फिल्में व वेब सीरीज बन चुकी हैं. अब ‘रॉ’ एजेंट के रूप में एक महिला जासूस दुर्गा सिंह को केंद्र में रखकर रिभु दासगुप्ता फिल्म ‘‘कोड नेम तिरंगा’’लेकर आए हैं, जो कि बतौर लेखक व निर्देशक रिभु दासगुप्ता की अति कमजोर फिल्म है. जिसमें न कहानी है और न ही देशभक्ति, न ही प्रेम कहानी ही है. मगर इस फिल्म को देखकर लोगो को 1975 में प्रदर्शित अशोक कुमार की फिल्म ‘‘चांरी मेरा काम’’ जरुर याद आ जाएगी.  इस फिल्म के कुछ दृश्यों को चुराकर फिल्मकार रिभु दासगुप्ता ने अपनी फिल्म ‘‘कोड नेम तिरंगा’’ का हिस्सा बना दिया है. रिभु दासगुप्ता कलकत्ता के फिल्मी परिवार से संबंध रखते हैं. 2011 में उन्होेने फिल्म ‘माइकल’ का निर्देशन कर शोहरत बटोरी थी. इस फिल्म को ‘शंघाई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ में पुरस्कार के लिए नोमीनेट भी किया गया था. फिर 2014 में टीवी सीरियल‘युद्ध’ में उन्होने अमिताभ बच्चन को निर्देशित किया था. 2016 में रहस्य रोमांच से भरपूर फिल्म ‘तीन’ का लेखन व निर्देशन किया था. इस फिल्म में भी अमिताभ बच्चन थे. यह फिल्म बाक्स आफिस पर अपनी लागत भी नही वसूल पायी थी. 2019 में रिभु दासगुप्ता ने नेटफ्लिक्स के लिए वेब सीरीज ‘बार्ड आफ ब्लड’ का निर्देशन किया, जो काफी चर्चा में रही. इसके बाद 2020 में नेटफ्लिक्स के लिए ही परिणीति चोपड़ा को लेकर ही फिल्म ‘द गर्ल आॅन द ट्ेन’ निर्देशित की, जो कि घटिया फिल्म मानी गयी. और अब वह परिणीति चोपड़ा को ही ‘हीरो’ लेकर फिल्म ‘‘कोड नेम तिरंगा’’लेकर आए हैं. जो कि अति कमजोर, कहानी व निर्देशन विहीन फिल्म है. इस फिल्म को सेंसर बोर्ड ने पारित कर दिया, यह भी आश्चर्य की बात है. क्योंकि यह फिल्म कहती है कि हमारे ‘रॉ’ के दूसरे नंबर के अधिकारी पाकिस्तान व आतंकवादियों के हाथों बिके हुए हैं.

कहानीः

फिल्म की कहानी टर्की से शुरू होती है. जहां ‘रॉ’ एजेंट दुर्गा सिंह कार्यरत है. वह एक दिन नाटकीय तरीके से एक टैक्सी में संयुक्त राष्ट् के लिए कार्यरत डाक्टर मिर्जा अली से मिलती है और उसे अपना परिचय इस्मत नामक भारतीय पत्रकार के रूप में देते हुए अपने प्रेम जाल में फांसती है. दुर्गा सिंह भारतीय संसद पर हमला कर चुके खालिद ओमार के खात्मे के मिशन पर है.  कहानी कई मोड़ों से गुजरती है. इसलिए डॉं. मिर्जा को प्रेम जाल में फांसती है. क्योंकि इलाके में होने वाली एक शादी में ओमार आने वाला है और डॉक्टर उस शादी के प्रीतिभोज के मेहमानों की सूची में शामिल है.  इसी प्रीतिभोज में रॉ एजेंट दुर्गा सिंह की असली पहचान खुलती है. डॉ. मिर्जा अली को पता चल जाता है कि वह इस्मत नहीं दुर्गा सिंह है. पर दोनो एक साथ मरने की कसमें खाते हैं. खालिद उमर के हाथों डॉ.  अली मिर्जा मारा जाता है. कहानी में कई मेाड़ आते हैं. अंततः दुर्गा, खालिद उमर को मौत के घाट उतार देती है और लोगों को बताती है कि जो भी गड़बड़ियां हो रही थीं, उसकी वजह ‘रॉ’ के दूसरे नबर के अधिकारी पाकिस्तान और खालिद ओमार के हाथों बिका होना था.

लेखन व निर्देशनः

महज नारी उत्थान के नामपर एक रॉ एजेंट को महिला के रूप में पेशकर बिन सिर पैर की कहानी गढ़ने के बाद विभु दासगुप्ता ने उसमें दूसरी फिल्मों के कुछ दृश्य चुराकर डालते हुए ‘कोड नेम तिरंगा’ के नाम से दर्शकांे को परोसते हुए सोच लिया कि दर्शक ‘तिरंगा’ के नाम पर उनकी फिल्म को सिर माथे पर बैठा लेगा. मगर वह यह भूल गए कि दर्शक को एक अच्छी कहानी चाहिए. मगर इस फिल्म में कहानी व निर्देशन दोनों का अभाव है. परिणीति चोपडा को दुर्गा सिंह के किरदार मंे लेना निर्देशक की सबसे बड़ी गलती रही. परिणीति चोपड़ा पर फिल्माए गए एक्शन दृश्य तो वीडियो गेम नजर आते हैं. इस फिल्म में न देश भक्ति है, न कोई प्रेम कहानी है. पता नही क्यों रिभु दासगुप्ता , परिणीति चोपड़ा को एक्शन स्टार बनाने के पीछे पड़ गए? क्या उन्होने  कंगना रानौट की फिल्म ‘धाकड़’ का हाल नही देखा है.

बतौर लेखक व निर्देशक रिभु दासगुप्ता परिणीति चोपड़ा व हार्डी संधू के बीच प्रेम कहानी को भी ठीक से विकसित नही कर पाए.

रिभु दासगुप्ता की परवरिश कलकत्ता में बंकिमचंद्र चटर्जी लिखित गीत  ‘‘वंदे मातरम’’ सुनते हुए हुई है. पर इस गीत को लेकर उनकी समझ यह है कि उन्होने ‘वंदे मातरम’ गीत को ‘युद्धगीत के रूप में अपनी फिल्म ‘‘कोड नेम तिरंगा’’ में पेश कर डाला.

अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है तो रॉ एजेंट दुर्गा सिंह के  किरदार में परिणीत चोपड़ा एक प्रतिशत भी खरी नही उतरती. फिल्म प्रचारक से अभिनेत्री बनने वाली और प्रियंका चोपड़ा की कजिन परिणीति चोपड़ा को अभिनय करना आता ही नही है. इस बात को वह अतीत में  ‘इशकजादे’, ‘शुद्ध देशी रोमांस’, ‘हंसी तो फंसी’, ‘दावते इश्क’, ‘किल दिल’, ‘नमस्ते इंग्लैंड’, ‘जबरिया जोड़ी’

व ‘संदीप ओर पिंकी फरार’ जैसी असफल फिल्मों में साबित कर चुकी हैं. इसके बावजूद उन्हे रॉ एजेंट के किरदार में लेना अपने आप में निर्देशक की सोच पर सवालिया निशान उठाता है. परिणीति चोपड़ा ने अपनी तरफ से इस किरदार के हिसाब से खुद को ढालने के लिए कोई मेहनत नहीं की. तनाव के दृश्यों में सिगरेट पीने भर से रॉ एजेंट स्मार्ट नहीं दिख जाता. इसके लिए एक एजेंट जैसी कद काठी,  शरीर सौष्ठव और फुर्ती भी जरूरी है. डॉ.  मिर्जा अली के छोटे किरदार में हार्डी संधू कमजोर कहानी व पटकथा के चलते अपनी अभिनय प्रतिभा को निखार न सके. सह कलाकारों में किसी का भी अभिनय प्रभावित नहीं करता.

REVIEW: जानें कैसी है शाहिद कपूर और मृणाल ठाकुर की फिल्म ‘Jersey’

रेटिंगः साढ़े तीन स्टार

निर्माताः अल्लू अरविंद, दिल राजू प्रोडक्शन, सितारा इंटरटेनमेंट

लेखक व निर्देशकः गौतम तिन्नानुरी

कलाकारः शाहिद कपूर, पंकज कपूर,  मृणाल ठाकुर, रोनित कामरा,  गीतिका महेंद्रू, शिशिर शर्मा, रूद्राशीश मजुमदार व अन्य.

अवधिः दो घंटे पचास मिनट

तेलगू फिल्मकार गौतम तिन्नानुरी लिखित व निर्देशित तेलगू फिल्म ‘‘जर्सी’’ ने 2019 में सफलता  का जश्न मनाया था, जिसमें मुख्य भूमिका तेलगू सिनेमा के सुपरस्टार नानी ने निभायी थी. गौतम तुन्नारी अपनी उसी तेलगू फिल्म का हिंदी रीमेक ‘‘जर्सी’’ लेकर आए हैं, जिसमें मुख्य भूमिका शाहिद कपूर ने निभायी है. हिंदी फिल्म के संवाद सिद्धार्थ – गरिमा ने लिखे हैं. यह हिंदी रीमेक उस वक्त आयी है, जब बौलीवुड बनाम दक्षिण सिनेमा को लेकर बहस छिड़ी हुई है. फिल्म की कहानी क्रिकेट खेल की पृष्ठभूमि में पिता पुत्र, पति व पत्नी के अलावा  क्रिकेटर व उसके कोच के बीच के रिश्तों की  भावनात्मक यात्रा है.  फिल्म की कहानी उन 95 प्रतिशत असफल लोगो को ट्ब्यिूट के तौर पर  है, जिनकी कहानी बयां करने में किसी की रूचि नहीं होती.

 

कहानीः

कहानी शुरू होती है केतन तलवार द्वारा दुकान से अपने पिता पर लिखी गयी किताब ‘जर्सी’ को खरीदने से, जो कि वह इस किताब को पढ़ने के लिए बेताब एक लड़की को उपहार में दे देता है. क्योंकि दुकानों पर किताब बिक चुकी है. फिर जब वह लड़की पूछती है कि क्या वास्तव में इस किताब के नायक अर्जुन तलवार तुम्हारे पिता हैं. तब कहानी शुरू होती है चंडीगढ़ के एक सरकारी मकान से. जहां लगभग छत्तीस वर्षीय बेरोजगार अर्जुन तलवार (शाहिद कपूर) अपनी पत्नी विंद्या(  मृणाल ठाकुर ) व आठ सात वर्ष के बेटे केतन उर्फ किट्टू(रोनित कामरा ) के साथ रहते हैं. विद्या एक होटल में रिशेप्शनिस्ट हैं. किट्टू क्रिकेट खेलता है, उसे रोज सुबह उठकर खेल के मैदान पर अर्जुन लेकर जाता है. अर्जुन को क्रिकेट से जबरदस्त प्यार है. केतन के अंदर भी क्रिकेट को लेकर जुनून है. एक दिन केतन अपने पिता से जन्मदिन पर उपहार में जर्सी की मांग कर देता है. अपने बेटे को खुद से ज्यादा चाहने वाला अर्जुन क्या करे? पता चलता है कि अर्जुन कभी पंजाब टीम के सर्वाधिक सफल क्रिकेटर थे. उनके क्रिकेट खेल को देखकर मद्रासी विंद्या को उससे प्यार हुआ था और माता पिता की मर्जी के खिलाफ जाकर अर्जुन से विवाह कर लिया था. पर 26 साल की उम्र मेंएक बड़ी वजह के चलते अर्जुन ने क्रिकेट को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया था. इससे विंद्या व उनके कोच को तकलीफ हुई थी. उसे एफसीआई में नौकरी मिली थी, पर वहां से सस्पेंडेड चल रहे हैं और मामला कोर्ट में हैं. वकील का दावा है कि अर्जुन पचास हजार खर्च करे तो उसे एक दिन के अंदर पुनः नौकरी पर रख लिया जाएगा. पर घूस देना अर्जन को मंजूर नही. इन हालातो के चलते घर पर कर्ज हो गया है. कई माह से किराया नहीं दे पाए. उधर दुकान वाले ने कह दिया कि पांच सौ रूपए की जर्सी उधर मे नही देगा. बेटे को जर्सी दिलाने के लिए पांच सौ रूपए के लिए अर्जुन को काफी अपमानित होना पड़ता है. उधर उसके व्यवहार से पत्नी विंद्या भी झुंझलाहट में ही उससे बात करती है. सारे रास्ते बंद हैं. जन्मदिन पर बेटे को जर्र्सी न दिला पाने से वह खुद को सभी की नजरों से गिरा हुआ पाता है. फिर 36 साल की उम्र में अर्जुन पुनः क्रिकेट भारतीय टीम के लिए क्रिकेट खेलने के मकसद से खेल के मैदान में उतारता है. वह बेटे को कब जर्सी दिला पाएगा? भारतीय टीम के साथ क्रिकेट खेलेगा या नहीं, इन सवालों के जवाब के लिए फिल्म देखना ही बेहतर होगा.

लेखन व निर्देशनः

बेहतरीन पटकथा है, पर फिल्म में कई जगह कसावट की जरुरत थी. एडीटिंग टेबल पर इसे कसा जा सकता था. यह उनकी निर्देशकीय प्रतिभा का ही कमाल है कि उन्होने पिता पुत्र, क्रिकेटर व कोच के रिश्तों को भावनात्मक स्तर बहुत ही बेहतरीन तरीके से फिल्म में उकेरा है. क्रिकेट के खेल में जो रोमांच व रहस्य सदैव बना रहता है,  उसे निर्देशक फिल्म में पेश करने में विफल रहे हैं. क्रिकेट का रोमांच नजर नही आता. दर्शक की निगाहें क्रिकेट के मैदान की बजाय सिर्फ शाहिद के किरदार पर ही टिकी रहती हैं, यह भी निर्देशक व पटकथा की कमजोर कड़ी है. फिल्म मे जर्सी के प्रसंग को बेवजह तीस मिनट से भी अधिक समय तक खींचा गया है, इस वजह से फिल्म की लंबाई बढ़ गयी. कुछ संजीदा दृश्यों में भावनात्मक पक्ष को बनाए रखने में निर्देशक विफल रहे हैं. लेकिन निर्देशक पिता-पुत्र के बीच अपराजेय बंधन,  एक जोड़े का चट्टानी रिश्ता और अर्जन की आंतरिक यात्रा को परदे पर सही ढंग से उकेरने में सफल रहे हैं.

अभिनयः

अर्जुन के किरदार में शाहिद कपूर ने अपने अभिनय से साबित कर दिखाया कि उनके अंदर भरपूर अभिनय क्षमता है. क्रिकेट को अलविदा कहने, बेटे को जर्सी न दिला पाने की बेबसी , प्रेमिका व फिर पत्नी संग रोमांस से लेकर दोबारा क्रिकेट के मैदान में उतरने तक के भावों को अपने अभिनय से उकेर कर शाहिद कपूर ने शानदार अभिनय किया है. एक असफल क्रिकेटर व उसके अंदर के फ्रस्टे्शन को परदे पर पेश करने में शाहिद कपूर सफल रहे हैं. लेकिन कुछ दृश्यों में उनके अभिनय में ‘कबीर सिंह’ वाली झलक नजर आती है. यानी कि वह खुद को दोहराते हुए नजर आते हैं. उनके क्रिकेट कोच के किरदार में पंकज कपूर ने भी शानदार अभिनय किया है. वैसे भी पंकज कपूर दमदार अभिनेता हैं, इससे कभी कोई इंकार नहीं कर सकता. छोटे किरदार में भी मृणाल ठाकुर अपनी छाप छोड़ जाती हैं. वैसे उनके विंद्या के किरदार में कई परते हैं. बाल कलाकार रोनित कामरा का अभिनय आश्चर्य जनक है.

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