शोभायात्रा के नाम पर प्रचारयात्रा

शहरों में आएदिन धार्मिक आयोजनों के बाद शोभायात्राएं निकाली जाती हैं. इन का उद्देश्य सिवा प्रचार के कुछ नहीं होता. इन्हें अशोभनीय यात्रा कहा जाए तो गलत न होगा. जिस शोभायात्रा से यातायात व्यवस्था चरमराए, कानून व्यवस्था खतरे में पड़े और आम आदमी की दिनचर्या बाधित हो उसे शोभायात्रा कहने का क्या औचित्य?शोभायात्राएं कई वजहों से निकाली जाती हैं. एक खास समुदाय की महिलाएं एक रंग की साडि़यां पहनें सिर पर कलश लिए सड़कों पर शोभायात्रा निकालती हैं. ये स्त्रियां पढ़ीलिखी, संभ्रांत घरानों की होती हैं. रूढि़वादी मानसिकता के चलते ये शोभायात्रा के जरिए अपने इष्टदेव को खुश करती हैं.

प्रवचनकर्ता भी जड़बुद्धि भक्तों के जरिए अपनी शोभायात्रा सड़कों पर निकालते हैं. भव्य कुरसी पर विराजमान प्रवचनकर्ता का मुख्य उद्देश्य होता है जनता का ध्यान अपनी तरफ खींचना. इस के लिए बैंडबाजों का भी सहारा लिया जाता है.

शोभायात्रा में शामिल स्त्रीपुरुष नुमाइशी सामान से ज्यादा कुछ नहीं लगते. धर्मबाजों की जयंतियों में भी शोभायात्राएं निकाली जाती हैं.

शोभायात्रा को प्रचारयात्रा कहा जाए तो गलत न होगा. कभी जब इलैक्ट्रौनिक मीडिया इतना ताकतवर नहीं था तब सिनेमा का प्रचार बड़ेबड़े पोस्टरों व बैंडबाजों के जरिए सड़कों पर चल कर किया जाता था. आज ठीक वही स्थिति शोभायात्राओं की है. इन यात्राओं का धार्मिक पक्ष सिवा आडंबर के कुछ नहीं. हकीकत तो यह है कि लोग इस से अपनी अहमियत का एहसास कराते हैं.

शोभायात्राएं भगवान की दुकान का बाजारीकरण हैं. आज जिस तरह साबुन, तेल, सौंदर्य प्रसाधनों आदि का प्रचार बिक्री बढ़ाने के लिए किया जाता है वही हाल शोभायात्राओं का है. धार्मिक कपड़ों व गहनों से लदीसजी औरतें, सड़कों पर अपने बाबाओं की जयजयकार करते हुए संदेश देती हैं कि देखो, हमारे बाबा का धंधा कितना चमचमा रहा है.

बेशर्मी तो तब होती है जब लाख कहने के बावजूद शोभायात्री भेड़ों की तरह चलते ही जाते हैं, टस से मस नहीं होते. उलटे आंखें तरेरते हैं, मानो सड़कें उन की पुश्तैनी जागीर हों. कोई अस्पताल जाते हुए रास्ते में मर जाए, किसी का साक्षात्कार छूटे, कोई समय पर आफिस न पहुंचे, इस से शोभायात्रियों का कोई मतलब नहीं. उन्हें तो दिखाना है कि वे परमभक्त हैं. बंद कमरों में हर तरह का व्यभिचार चलता है और खुलेआम सड़कों पर आस्था का पाखंड करते हैं.

प्रवचनकर्ताओं, बाबाओं, गुरूघंटालों को भी पंडालों की सीमित जगहों में अंधविश्वास फैलाने से संतुष्टि नहीं मिलती, तभी सड़कों पर उतरते हैं. भव्य कुरसी पर यों बैठते हैं मानो वे खुद ही भगवान हों. हाथ उचकाउचका कर हर गुजरने वाले को आशीर्वाद देते हैं. इनकम टैक्स, व्यभिचार, जमीन व सैक्स के पचड़ों में फंसे रहने वाले ये प्रवचनकर्ता किस मुंह से लोगों के बीच पूजनीय बनते हैं.

अब बुद्ध जयंती, रविदास जयंती, कबीर जयंती, तुलसी जयंती सभी में शोभायात्राएं निकाल कर अपनेअपने समुदाय का प्रचार किया जाता है.

काशी में अभी हाल में, कबीर- पंथियों के बीच महंत पद के लिए छीनाझपटी हुई. असली महंत दूसरे शहर गए तो नकली महंत ने उन की कुरसी पर कब्जा कर के खुद को असली महंत घोषित कर दिया. बाद में थानापुलिस हुआ, तब कहीं जा कर तथाकथित महंत ने गद्दी छोड़ी. कहा जाता है कि महंती के पीछे कबीर पंथ से जुड़ी करोड़ों की अचल संपत्ति को हथियाने का चक्कर था. बहरहाल, अब असली महंत गद्दी संभाले हुए है, वहीं नकली महंत कानूनी पचड़े में पड़ा है.

कुछ माह पहले हनुमान जयंती पर शोभायात्रा निकाली गई. सैकड़ों मवाली किस्म के युवा, बड़ेबड़े बांसों में लाल रंग के झंडे लगाए सड़कों पर हुड़दंग मचाते हुए चल रहे थे. इन्हीं हुड़दंगियों की वजह से अव्यवस्था का खतरा बना रहता है. आम आदमी की स्थिति शेर की मांद में चूहे जैसी होती है. शोभायात्रा का हुड़दंग देख कर आम आदमी डरेसहमे इधरउधर दुबक जाते हैं. शोभायात्री इतने अमर्यादित होते हैं कि गलती से कोई इन के सामने आ जाए तो बेरहमी से ढकेल देते हैं. धर्म के नाम पर यह कैसी अमानवीयता? इन्हें रास्ता चाहिए पर दूसरे कहां जाएं? शोभायात्रियों को इस से कोई मतलब नहीं, क्योंकि उन की स्थिति छुट्टे सांड जैसी होती है. साथ चलने वाले पुलिसकर्मी भी इन्हीं का साथ देते हैं. वजह, वे भी चाहते हैं कि किसी तरह शोभायात्रा सकुशल पूरी हो जाए और वे जहमत से बच जाएं.

आज की आर्थिक भागदौड़ की स्थिति में शोभायात्रा, पिछड़ेपन की द्योतक है. 1947 तक चीन, भारत से काफी पिछड़ा हुआ था पर आज स्थिति उलट है. चीन ने काफी तरक्की कर ली, वहीं हम शोभायात्राएं, धार्मिक अंध- विश्वास व कर्मकांडों में उलझे हुए हैं. सड़कों को जाम करते हैं जबकि सड़कें आवागमन का एकमात्र जरिया हैं. जब सड़कें ही जाम रहेंगी तो हम कैसे अपने काम को शीघ्र अंजाम दे पाएंगे. तरक्की कैसे होगी? अच्छी सड़कों का पहले ही अभाव है. कभी मोहर्रम शांति का त्योहार था. आज उस ने भी हुड़दंग की शक्ल अख्तियार कर ली है. ताजिया दफनाने के नाम पर सड़कों पर जम कर उपद्रव होता है. यही हाल दुर्गापूजा का है.

21वीं सदी में आने के बावजूद हमारे रंगढंग में खास बदलाव नहीं आया. हम कब तक उन तौरतरीकों को अपनाते रहेंगे जो हमारी गरीबी व पिछड़ेपन का कारण हैं और कब तक अपने अशोभनीय आचरण को शोभा समझते रहेंगे?

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