फिल्म रिव्यू : केदारनाथ

2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ मंदिर में हुई बारिश की तबाही की पृष्ठभूमि पर अभिषेक कपूर एक प्रेम प्रधान फिल्म ‘‘केदारनाथ’’ लेकर आए हैं. कमजोर कहानी,अति कमजोर पटकथा व घटिया निर्देशन के चलते यह एक अति सामान्य प्रेम कहानी वाली फिल्म बन कर रह गयी है. जिसमें न इश्क की गहराई है और न ही केदारनाथ की त्रासदी का दर्द ही है. अफसोस की बात है कि हम 2018 में यानी कि इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं, मगर लेखक व निर्देशक ने जिस तरह के घटनाक्रम रचे हैं, वह साठ व सत्तर का दशक याद दिलाते हैं.

फिल्म की कहानी उत्तराखंड के केदारनाथ में रह रहे व केदारनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी पंडित जी (नितीश भारद्वाज) यानी कि हिंदू परिवार की लड़की मंदाकिनी (सारा अली खान ) उर्फ मुक्कू और पिठ्ठू के कार्य में रत मुस्लिम युवक मंसूर (सुशांत सिंह राजपूत) की प्रेम कहानी है. मंदाकिनी और मंसूर दोनों क्रिकेट के दीवाने हैं.

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मंसूर के पिता भी इसी क्षेत्र में पिठ्ठू के रूप में काम किया करते थे. उनके नेक कारनामों के ही चलते केदारनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी ने उन्हे मंदिर में पहुंचकर घंटी बजाने की इजाजत दे रखी थी. अब मंसूर भी हर दिन ऊपर चढ़कर एक बार मंदिर की घंटी बजा लेता है. मंसूर नेकदिल युवक है. यात्रियों को सकुशल मंदिर तक पहुंचाने के साथ साथ पैसे भी कम लेता है. इससे मंसूर की मां काफी परेशान रहती है.

उधर मंदाकिनी के पिता पंडित जी ने उसकी बड़ी बहन (पूजा गौर) की शादी मंदिर से ही जुड़े कल्लू (निशांत दहिया) नामक युवक से पांच साल पहले मंगनी कर तय कर दी थी. मगर पांच साल बाद कल्लू की जिद के चलते अब मक्कू उसकी मंगेतर है. पर खुद मंदाकिनी उर्फ मक्कू को कल्लू पसंद नही है. हर माह वह अपने पिता के पास अपना हाथ मांगने के लिए किसी न किसी युवक को भेजती रहती है.

मंदाकिनी को जब भी केदारनाथ से रामगढ़ जाना होता, तो वह मंसूर को ही अपना पिठ्ठू चुनती. अल्हड़ स्वभाव की मंदाकिनी को मंसूर से प्यार हो जाता है. मंसूर अपनी तरफ से मंदाकिनी को समझाने का प्रयास करता है कि उन दोनों का मिलन संभव नहीं. मगर मंदाकिनी तो उसी के साथ पूरी जिंदगी बिताना चाहती है. यह प्रेम कहानी आगे बढ़ रही होती है, तभी मंदाकिनी की बड़ी बहन मंसूर से मिलकर कह देती है कि मंदाकिनी उसके साथ खेल खेल रही है. मंसूर, मंदाकिनी से दूरी बना लेता है. पर मंदाकिनी उसके पीछे पड़ी हुई है. एक दिन बारिश में मंसूर के घर के सामने भीगते भीगते मंदाकिनी बेहोश हो जाती है. रात हो चुकी है. मंसूर अपनी मां की आज्ञा का उल्लंघन कर उसे अपने घर ले आता है. इस बात की खबर कल्लू को लग जाती है.

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कल्लू अपने हिंदूधर्म के साथियों व मंदाकिनी के पिता गुरू के साथ मंसूर के घर पहुंचता है. मंदाकिनी के पिता उसे अपने साथ ले जाकर गंगा नदी में खड़ा कर मंत्रों से उसका शुद्धिकरण करते हैं.

उधर मंसूर, मंदाकिनी के पिता से बात करने आता है, तो कल्लू व उसके साथी उसे अधमरा कर देते हैं. दूसरे दिन सुबह सुबह मंदाकिनी व कल्लू का विवाह करा दिया जाता है. पर विदाई से पहले मंदाकिनी ब्लेड से अपने हाथ की नस काट लेती है, विदाई टल जाती है. अचानक केदारनाथ में बारिश के रूप में तबाही आ जाती है. हर घर तबाह हो जाता है. लोग नदी में बहने लगते हैं. मंसूर अपनी जान पर खेलकर मंदाकिनी, मंदाकिनी के माता पिता सहित कई हिंदुओं की जान बचाता है. पर खुद मौत के मुंह में समा जाता है.

लेखक की कमजोरी के चलते कमजोर कहानी व घटिया स्तर की पटकथा ने फिल्म को तहस नहस कर दिया. प्रेम कहानी के साथ मैलोड्रामा काफी पैदा किया गया है. लेखक ने होटल, माल्स आदि के विस्तारीकरण के साथ पर्यावरण को क्षति पहुंचाने का मुद्दा इस तरह उठाया कि वह कहीं से भी उभर नहीं पाया.

बल्कि कहानी में भटकाव ही लाता है. इंटरवल से पहले यह फिल्म किसी भी सीरियल का एक अति सुस्त एपिसोड मात्र है, जिसमें कहानी कहीं आगे नहीं बढ़ती. इंटरवल के बाद फिल्म इतनी मैलोड्रामैटिक है कि उम्मीद नही जगाती. इतना ही नहीं लेखक व निर्देशक की अपनी बेवकूफियों के चलते 2013 में केदारनाथ व उत्तराखंड ने तबाही का जो मंजर देखा था, वह भी फिल्म में उभर नहीं पाता. सच यही है कि फिल्म में न इश्क की गहराई है और न ही केदारनाथ की त्रासदी का दर्द ही है. बेमन से बनाई गयी फिल्म है. जहां तक अभिनय का सवाल है तो सैफ अली खान व अमृता सिंह की बेटी सारा अली खान की तारीफ करनी ही पड़ेगी. सारा अली खान के करियर की यह पहली फिल्म है, पर वह पूरी फिल्म में खूबसूरत लगने के साथ ही अपने बेहतरीन अभिनय के चलते छा जाती हैं. सुशांत सिंह राजपूत ने काफी निराश किया है. लेखक व निर्देशक के बाद इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी सुशांत सिंह राजपूत हैं. अमृता सिंह की प्रतिभा को जाया किया गया है.

फिल्म का गीत संगीत भी असरहीन है. फिल्म का सकारात्मक पक्ष इसकी लोकेशन है, जिसके लिए फिल्म के कैमरामैन तुषार कांति रे की जितनी तारीफ की जाए, उतनी कम है. तुषार कांति रे ने अपने कैमरे के माध्यम से हिमालय की खूबसूरती को बहुत अच्छे ढंग से चित्रित किया है.

दो घंटे की अवधि वाली फिल्म ‘‘केदारनाथ’’ का निर्माण रौनी स्क्रूवाला, प्रज्ञा कपूर, अभिषेक कपूर और अभिषेक नायर ने किया है. फिल्म के निर्देशक अभिषेक कपूर, लेखक: अभिषेक कपूर व कनिका ढिल्लों, संगीतकार: अमित त्रिवेदी, कैमरामैन: तुषार कांति रे तथा कलाकार हैं – सुशांत सिंह राजपूत, सारा अली खान, नितीश भारद्वाज, सोनाली सचदेव, अलका अमीन, पूजा गौर, निशांत दहिया व अन्य.

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