श्रीमती का रूप वर्गीकरण

श्रीमती से भला क्या शिकवा. हम जैसे स्वच्छंद व आवारा जीव को खूंटे में बांध कर कुशल पति बनाना कोई प्याज की परतें खोलने से कम अश्रुधारी जौब है क्या. हम तो उन के हर रूप पर फिदा हैं.

दुनिया में हम पर किसी ने यदि काई उपकार किया है तो वे हैं हमारी  आदरणीय श्रीमतीजी. आप कृपया इस शब्दावली को मजाक न समझें. घरेलू जिंदगी में सुखशांति का यह एक अस्त्र है. विभिन्न अवसरों पर उन के स्वरूप को महसूस कर हम नतीजा पेश कर रहे हैं. वैसे, सच तो यह है कि जब समझ में कुछ न आए तो वंदना-स्तुति से कार्य साध लेना चाहिए और हम इसी टैक्नीक से खुशहाल जिंदगी जी रहे हैं. अब मुख्य बिंदु पर आते हैं, ताकि श्रीमती के लाजवाब व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला जा सके.

समय कभी एकजैसा नहीं रहता, इसलिए खास समय पर उन के रूप की बानगी जुदाजुदा होती है. सो, मैं अकसर इस रिसर्च में जुटा रहता हूं कि आखिर उन का मूल स्वरूप कौन सा है? कभी गाय तो कभी शेरनी, कभी अप्सरा तो कभी विकराल रौद्र रूप…

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वैसे, बेसिकली हमें उन से कोई गिलाशिकवा नहीं है, हम जैसे मनमरजी के जीव, आजाद पंछी को उन्होंने निभा लिया और ट्रेंड कर कुशल पति बना दिया, यही उपकार हमारे लिए कीमती है. दिन में दसियों बार उन के ऐसे श्रीवचनों को सुन कर अब सच में हमें अपने मूलस्वरूप का ज्ञान संभव हो सका है. अपनी अल्पबुद्धि से उन के जो विभिन्न रूप समयसमय पर समझ पाया हूं वे आप से शेयर कर रहा हूं ताकि हमारे वर्गीकरणों से आप भी मूल्यांकन व आकलन का सदुपयोग कर सकें.

समससमय पर उन के मुख से निकलते शुभ वचनों पर ध्यान दें तो आप भी इस रिसर्च को आसानी से समझ सकते हैं. आप की सुविधा के लिए हम चुनिंदा रूप और संवाद की बानगी आप की सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं. गारंटी मानिए यह लेख वक्तबेवक्त आप के काम आएगा और घर की शांति में सहयोग करने वाला साबित होगा.

१. इतिहास विश्लेषक : यह रूप दिन में अकसर 10-20 बार अनुभव हो जाता है. ‘तुम्हारे सारे खानदान की हकीकत जानती हूं. मुझे सब का कच्चाचिट्ठा पता है. मुझ से गड़े मुरदे मत उखड़वाओ…’ जैसी शब्दावली उन के इतिहासपसंद व्यक्तित्व को जाहिर करती है.

२. डौन स्वरूप : जब उन का पारा ऊंचाई छृने लगता है तो यह रूप भी जाहिर हो जाता है. उस समय उन की भाषाशैली में कठोरता टपकने लगती है, ‘कान खोल कर सुन लो, अगर फिर कभी ऐसा किया तो…मैं अब और सहन नहीं करूंगी…मुझ से बुरा कोई नहीं होगा…मैं जो करूंगी, पता चल जाएगा, सबक तो सिखा कर रहूंगी आप को.’ सच पूछें तो इस रूप से बहुत तनाव, भय और डर महसूस होता है.

३. शक्की, शंकालु स्वभाव : यह उस समय प्रकट होता है जब हम मोबाइल या लैपटौप पर काम कर रहे होते हैं. व्हाट्सऐप, फेसबुक पर हमारी मौजूदगी उन्हें शंकालू बना देती है और फिर उन का यह रूप फूट पड़ता है, ‘किस सौतन से चैटिंग चल रही है… कितनी दोस्त बना रखी हैं इस उम्र में…’ स्वाभाविक है उन की दहाड़ सुनते ही हमारा औफलाइन हो जाना तय है. कारण, जब ज्वालामुखी विस्फोट के चांस सौ प्रतिशत बढ़ जाते हैं, हम तुरंत जरूरी काम छोड़ कर उन की वंदना-स्तुतिगान में जुट जाते हैं.

४. धार्मिक : यह रूप चौबीसों घंटे हावी रहता है. ‘भगवान जाने आप की क्या माया है, आप को तो ईश्वर भी नहीं समझा सकता. पाप में पड़ोगे अगर मुझ से छल करोगे…’ ऐसे संवाद उन के धर्मभीरू होने की दुहाई देते हैं और इस स्वरूप में होने पर हमें कोई परेशानी नहीं होती. यह उन का सौम्य और शांत स्वरूप है.

५. अर्थशास्त्री स्वरूप : यह रूप दिनभर दिखलाईर् पड़ता है. कारण, महंगाई और बजट के असंतुलन से उन का हिसाब गड़बड़ा जाता है. तब वे हमारे साथसाथ बच्चों को भी हिदायतें देने लगती हैं. ‘आमदनी बढ़ाए बिना मुझ से पनीर, पकवानों की उम्मीद मत करना, कोई खजाना नहीं गड़ा घर में, न कोई नोट छापने की मशीन लगा रखी है जो तुम सब के नखरेडिमांड पूरी करूं, चटनी चाटो और मौज करो.’ उन की मजबूरी को हम समझते हैं. आसमान छूती महंगाई में बेचारी क्या करें? दोष हमारा है, हम जितना उन्हें देते हैं उस से सवाया करने की टैंशन में वे हमेशा घुली रहती हैं.

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६. भविष्यवक्ता : हालांकि, उन्हें न तो ज्योतिष का ज्ञान है, न ही अंकशास्त्र और न ही भविष्यवाणी के स्रोतों का, लेकिन फिर भी सीमा पार जा कर अपनी मन की शक्ति से हमारे भविष्य को ले कर दिन में अनेकानेक बार भविष्यवाणी करती रहती हैं, तब हम उन के दिव्यस्वरूप के कायल हो जाते हैं. ‘सात जन्मों तक मेरी जैसी पत्नी नहीं मिलनी.’ यह अमर वाक्य इस घोषणा का प्रमाण है.

७. भ्रमित रूप : कभीकभी श्रीमतीजी इस अज्ञेय स्वरूप को धारण कर बैठती हैं. तब सच में हमें पता नहीं चलता कि वे हम से चाहती क्या हैं? इस रूप में ताने, व्यंग्यबाणों की बौछार से हम खुद भ्रमित हो जाते हैं. हमारी समझ पर प्रश्नचिन्ह नाचने लगते हैं. ‘आदमी हो या औरत? पजामा तो नहीं… कैसे आदमी हो, बच्चे हो क्या?’ जैसे वाक्यांश हमें भ्रमित कर देते हैं.

८. स्वार्थी स्वरूप : यह रूप टीवी चैनल बदलने, शौपिंग मौल, सैल, ज्वैलरी खरीदने, ब्यूटीपार्लर के लिए जाते समय आसानी से नजर आ जाता है. फैशनपरस्ती में वे शायद कालोनी में किसी से पीछे रहना नहीं चाहतीं, इसलिए खुद की डिमांड पूरी करवा कर ही मानती हैं. ‘हमेशा खुद की ही सोचते हो, दूसरों की जरूरत भी समझना सीखो, अरे आप की पत्नी हूं, पहला हक मेरा बनता है, कभी तो अपने पर्स का स्पर्श कर लेने दिया करो, 2 हजार रुपए देना सेल लगी है, मैं पिछले सप्ताह भी नहीं गई… इतनी कंजूसी भी ठीक नहीं.’

९. कुंठाग्रस्त रूप : ‘हाय क्या बुरे काम किए थे जो…जो घरवालों ने इस के साथ ब्याह रचा दिया, कब सुधरेंगे, कब समझेंगे, समझ नाम की चीज तो है ही नहीं.’ ऐसे वाक्यांश भी अकसर प्रतिदिन सुनने पड़ते हैं. तब हम समझ जाते हैं कि उन पर डिप्रैशन का दौरा पड़ गया है. तुरंत हम गंभीरता का लबादा ओढ़ कर उन की अदालत में पेश हो जाते हैं और उन के गुबार को कान में रुई ठूंस कर ध्यान से सुनते हैं. तब जा कर वे नौर्मल हो पाती हैं, दिमाग कूल होता है और फिर रसोई गरम.

१०. पुलिसिया रूप : इस रूप के वर्गीकरण की जरूरत नहीं. कारण, इस रूप से पति साहबानों को अकसर रूबरू होना पड़ता है. ‘फोन क्यों नहीं उठा रहे, कहां हो…ट्रेन की आवाज तो सुनाई ही नहीं पड़ रही, औफिस से कब निकले, आजकल ऐसे बनठन कर क्यों जाते हो?’ जैसे अनगिनत सवालों की वर्षा हंसतेमुसकराते झेलने की आदत पड़ गई है. इस रूप में हम भीगी बिल्ली की तरह सहने में ही भलाई मानते हैं.

११. आलसी स्वरूप : यह रूप महीने में कभीकभार नजर आता है, सो दुर्लभ श्रेणी में रखा जा सकता है. इस का पता ऐसे संवादों से होता है- ‘आज मूड नहीं, बाहर होटल में खा लेते हैं, चाय बना लो, मुझे भी पिला देना’ आदिइत्यादि. मुझे इस बात पर गर्व है कि कामकाज में वो कभी लापरवाही नहीं करतीं. समय से सब काम घड़ी की सुइयों के मुताबिक करती हैं.

१२. शृंगार स्वरूप : सब रूपों में यह श्रेष्ठतम स्वरूप है लेकिन यह कभीकभी ही देखने को मिलता है. सच तो यह है कि इस रूप को अफोर्ड करने की हमारी कैपेसिटी भी नहीं. जवैलरी की खरीद, औनलाइन शौपिंग के समय बजट की डिमांड के अनुरूप वो इस रूप में प्रकट होती हैं. यह रामबाण रूप भी है. कभी खाली नहीं जाता और हमें आत्मसमर्पण कर के ही दम लेता है.

अब इस वर्गीकरण को समाप्त करें. कारण, जन्ममतांतर की इस गाथा को वर्गीकृत-परिभाषित करना सरल नहीं. लेकिन यह सत्य है कि रूप चाहे कोईर् भी क्यों न हो, उस के पीछे हमारा भला ही छिपा रहता है. कहने को चाहे कितनी ही बातें बना लें लेकिन यह सिर्फ पत्नी ही है जो घर को एक करने के लिए अपना सबकुछ खो कर भी खुश रहती है.

ईंटसीमेंट के ढांचे को घर बनाने और उस में रहने वालों की जिंदगी को सुखद बनाने में पत्नीजी अपना सबकुछ दांव पर लगा देती हैं. इस तथ्य को कैसे भुलाया जा सकता है? यही कारण है, हमें उन के किसी भी रूप से कभी शिकायत नहीं होती. वो कहेंगी भी तो किस से? जिस के पीछे घर छोड़ कर आईं उस पर हक तो बनता ही है.

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