Women’s Day: अकेली महिला रोज बनाएं मनचाहा खाना

आज स्त्री पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रही है. उस स्थिति में स्त्री के गुणों में भी परिवर्तन आया है. सब से बड़ा बदलाव है. आज की लड़कियों का पाक कला के प्रति बढ़ता रुझान है. पहले भी औरत के गुणों में पाक कला की निपुणता थी, पर आज उस की क्लालिटी बदल गई है.

युवतियों ने घर से बाहर की ओर कदम बढ़ाए हैं. आज एकल रहना आम होता जा रहा तो सब से पहले वे सही खाना बनाने की घर से चली आ रही आदत को छोड़ रही हैं. सीए इला को अपनी सर्विस के कारण घर व मातापिता से दूर रहना पड़ रहा है. वह अपनी जौब पूरे कमिटमैंट से करती हुई आगे बढ़ रही है. मगर पीछे छूट गईर् तो खुद खाना बना कर खाने की आदत, जिस के कारण वह आधा वक्त बाहर से खा कर काम चलाती है तो आधा वक्त भूखी ही रहती है, पर खुद खाना नहीं बनाती.

पेशे से वकील रजनी 32 साल की ही है पर तलाकशुदा है. वह अपनी निजी प्रैक्टिस करती है. उस का कहना है, ‘‘मैं पहले खाना बनाती थी पर अकेले के लिए क्या खाना बनाऊं. बाहर से मंगाती हूं व खाती हूं कोई परेशानी नहीं होती. मेरा काम चल ही जाता है.’’

किन कारणों के चलते एक एकल रहने वाली स्त्री खाना बनाने से बचने लगती है?

अकेलापन: एक अकेली युवती को अपने जीवन में कहीं न कहीं एक बात कचोटती रहती है कि वह अकेले जीवन जी नहीं रही बल्कि काट रही है. इस वजह से उस के मन से सब से पहली आवाज यही आती है कि वह खाना क्यों और किस के लिए बनाए? दूसरा कोई साथ हो तभी खाना बनाना अच्छा लगता है और जरूरी भी पर मैं तो अकेली हूं कैसे भी मैनेज कर लूंगी.’’ इस मैनेज शब्द के साथ ही रसोई से वह अपना नाता तोड़ देती है.

थकावट: एकल युवती होने के कारण यह भी लाजिम है कि दिनभर की भागदौड़ खुद करने के बाद वह इतना अधिक थकी होती है कि उस के पास थकावट के कारण इतनी हिम्मत नहीं बचती कि रसोई की ओर रुख करे. थकावट चुपकेचुपके उस से कहती है कि रसोई की तरफ मत जा बाजार से कुछ मंगा, खा और खा कर सो जा.

अहम: एकल रह रही युवती को रसोई में आने से रोकता है उस का अहम, जो उसे बारबार यही एहसास कराता है कि जब तू पुरुषों की तरह हजारों रुपए कमा रही है और बड़ी सम  झदारी व हिम्मत से अकेले निडर हो कर रह रही है तो तु  झे रसोई में जा कर इतना खपने की जरूरत ही क्या है. शान से पैसा फेंक बढि़या खाना और्डर कर और खा कर मस्त रह.

समय: एकल महिला के पास समय की कमी का पाया जाना भी एक मुख्य कारण है जोकि उसे विवश करता है कि नहीं तू खाना मत बना क्योंकि जितनी देर में सब्जी लाएगी, ग्रौसरी जमा करेगी, खाना बनाएगी उतनी देर में तो अपना एक और जरूरी काम पूरा कर लेगी. समय सीमा में बंधी स्त्री मजबूरीवश भोजन बनाना न चाहते हुए भी छोड़ देती है.

ये वे मुख्य कारण हैं जिन के चलते एकल रह रही महिला अपने लिए खाना नहीं बनाना चाहती पर कई वजहें हैं जिन के कारण एकल रह रही स्त्री को अपने लिए खाना बनाना ही चाहिए:

सेहत: कहते है ‘जान है तो जहान है’ इस कहावत को अगर एकल महिला मूलमंत्र मान ले तो वह कभी भी खाना बनाने से कतराएगी नहीं क्योंकि घर में बना खाना जितना शुद्ध होता है उतना बाहर का बना खाना नहीं. घर के खाने में जहां कम घी, तेल, मिर्चमसालों को वरियता दी जाती है वहीं बाहर के खाने में इस का उलटा ही होता है यानी चिकनाई व मिर्चमसालों की भरमार.  इसलिए एकल स्त्री अपना खाना स्वयं बनाए और सेहतमंद रहे.

बचत: आज आसमान छूती महंगाई में जहां जीवन की जरूरतों को पूरा करना कठिन हो चला है उस स्थिति में अगर एकल महिला घर पर स्वयं ही खाना बनाएगी तो पूंजी की काफी बड़ी मात्रा में बचत कर पाएगी. उदाहरण के तौर पर अगर बाजार में खाना 100-200 रुपए में मंगाती है तो घर पर वही खाना 30-40 रुपए खर्च कर आसानी से बना कर बड़ी मात्रा में धन हानि को रोक सकती है. क्लाइंड किचनों का वैसे भी भरोसा नहीं कि क्लालिटी क्या होगी. बाहर से मंगाया खाना हमेशा ज्यादा पोर्शन वाला होता है और फिर ज्यादा खाया जाता है.

समय: कई बार एकल युवतियां बोरियत व खाली समय जैसे शब्दों से भी घिरी होती हैं. उन की अकसर यह शिकायत होती है कि खाली वक्त को कैसे कम करें तो उस के लिए एक ही विकल्प है कि जब भी आप को लगे कि आप खालीपन के कारण बोर हो रही हैं तो उस वक्त रसोई में जा कर अपने लिए कोई बढि़या डिश तैयार कर मजे से खाए और अपने खालीपन का सदुपयोग करे.

मेजबान बने: एकल युवती के पास एक कारण होता है कि किस के लिए बनाए तो इस बात की काट भी खुद ही करे यानी एक अच्छी कुक व मेजबान बन कर अपनी सहेलियों को खाने पर आमंत्रण दे. उन के लिए दिल से अच्छा भोजन स्वयं बनाए और उन्हें भी खिलाए व खुद भी खाए यानी मेजबानी करना सीखे. पौटलक का आयोजन करती रहे चाहे अकेली लड़कियों व लड़कों के साथ चाहे विवाहित दोस्तों के साथ.

सामंजस्य: एकल रहना किसी भी युवती के लिए आसान कार्य नहीं है क्योंकि कई बार युवती मजबूरी से एकल रहती है तो कभी परिस्थितिवश. कारण कोई भी हो पर एकल रहना आसान नहीं होता. उन परिस्थितियों में एकल युवती को चाहिए कि वह अपनी परिस्थिति को सम  झे और अपने दिल और दिमाग से एकल शब्द को निकाल कर अपना खाना स्वयं जरूर बनाए और खाए.

खुद को खुद ही चेलैंज करे कि जब तू सब कार्य एकल करने में सक्षम है तो खाना बनाने में पीछे क्यों रहे. इस तरह की सकारात्मक सोच ही एक एकल युवती को खाना बनाने के लिए प्रेरित कर सकती है. यानी एकल महिला का आत्मविश्वास ही उसे रसोई तक ले जाने की क्षमता रख सकता है.

मनोचिकित्सकों के अनुसार कितनी युवतियां होती हैं जिन्हें यही समस्या होती कि चूंकि वे अकेले रह रही हैं तो उन का अपने लिए कुछ खाने की चीजें बनाना तो दूर रसोई की तरफ देखने की भी इच्छा नहीं होती है तो क्या करें. इस पर उन्हें यही सलाह है कि अकेले रहते हुए जैसे वे बाकी कार्यों को बखूबी पूरा कर रही हैं वैसे ही अपने लिए भोजन भी जरूर बनाएं.

अपनी आदत को बनाए रखने के लिए

1 सप्ताह का मैन्यू बना कर रखें और उस के अनुसार ही डेवाइज भोजन बनाएं. इस से उन्हें एक नहीं अनेक लाभ मिलेंगे जैसे समय पर सही ताजा भोजन मिलेगा, समय का उपयोग हो कर खालीपन दूर होगा, पैसे की बचत होगी और सब से जरूरी आप को अपना जीवन सजीव लगेगा.

तो सभी एकल महिलाओं को चाहिए कि वे अपना भोजन रोज व स्वयं बनाएं. अगर नहीं बनाती हैं तो बनाने की आदत डालें और जीवन को पूर्णता व सजीवता के साथ जीएं क्योंकि एकल होना जीवन में आ रही परिस्थिति का ही एक हिस्सा है अभिशाप का नहीं. इसलिए एकल हो कर भी खुल कर जीएं.

Single Woman: हिम्मत से लिखी खुद की दास्तां

जयपुर की अंजलि, अरुणा और मंजू हो या फिर बीते जमाने की सीता, कुंती, मरियम… पुराने जमाने से ले कर आधुनिक जमाने के इस लंबे सफर में अकेली औरत ने हमेशा संघर्ष, शक्ति और दमदख का ऐसा परिचय दिया है कि अकेले दम पर अगली जैनरेशन तक तैयार कर दी.

कवि रवींद्रनाथ टैगौर की रचना ‘एकला चालो रे…’ लगता है जैसे इन्हीं महिलाओं के साहस को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए लिखी गई हो. गीत की अगली पंक्तियों में है कि यदि आप की पुकार पर भी कोई नहीं आता है, तो आप अकेली ही चलें.

बहुत सी महिलाओं ने कभी भी नहीं चाहा था कि सिंगल पेरैंटिंग की जिम्मेदारी उन पर पड़े, लेकिन जब हालात ने उन्हें इस राह पर ला खड़ा किया तो उन्होंने पूरी हिम्मत और लगन से बच्चों की परिवरिश का जिम्मा उठाया बच्चों को एहसास कराए बिना कि उन्होंने जिस कश्ती को तैराया है, वह अनगिनत हिचकोलों से गुजरी है.

आत्मविश्वास है सब से बड़ी पूंजी

शादी के 11 साल में ही डिवोर्स का दंश झेल मंदबुद्धि एक युवती ने बच्चों के लिए काम करना शुरू किया. वह कहती है, ‘‘मैं आज में जीती हूं, हर दिन मेरे लिए नया होता है. अलग होने का फैसला काफी दर्दभरा था, लेकिन कई चीजें होती हैं जो ज्यादा लंबी नहीं चल सकतीं.’’

डिवोर्स के बाद उस ने ग्रैजुएशन किया. टीचिंग की, लौ किया. आत्मविश्वास में कभी कमी नहीं आने दी. दृढ़ रही और लोगों की बातों को कभी दिल से नहीं लगाया. अपने बच्चे के लिए किसी की यहां तक कि अपने पेरैंट्स तक की मदद नहीं ली और न उस के पिता से कोई लालनपालन का क्लेम लिया. उसे लगा कि  उस से बढ़ कर दूसरे लोग कहीं ज्यादा दुखी हैं. अपने लिए तो सभी जीते हैं, उस ने दूसरों के लिए जीना सीखा.

औरत को कभी अपनेआप को कमजोर नहीं समझना चाहिए. खुद में आत्मविश्वास है तो आगे बढ़ने से आप को कोई नहीं रोक सकता. किसी से कोई उम्मीद नहीं रखें क्योंकि जब उम्मीदें टूटती हैं तो दर्द ज्यादा होता है. जहां तक समाज के नजरिए की बात है, तो मुश्किल पलों में हमदर्दी दिखाने वाले खूब लोग होते हैं, लेकिन आप का संबल रीना दत्त, अमृता सिंह जैसे कई नाम हैं, जो मां के साहस और क्षमता के प्रतीक हैं.

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एकल अभिभावक की जिम्मेदारी

आमिर खान और सैफ अली जब अन्यत्र गए तो बच्चों की परवरिश का बीड़ा मां ने उठाया. आमिर ने जहां डेढ़ दशक से भी ज्यादा पुराना दांपत्य खत्म किया, वहीं सैफ  अली ने 1 दशक पुराने दांपत्य से किनारा कर लिया. रीना दत्त बेटे जुनैद और आयशा को ले कर ससम्मान अलग हो गई. उधर अमृता सिंह सारा और इब्राहिम को बड़ा करने में जुट गई.

रीना हो या अमृता, दोनों की ओर से कभी कोई बयानबाजी नहीं हुई, जबकि सक्रिय मीडिया हमेशा ऐसे बयानों की तलाश में फन फैलाए रखता है. ये औरतें काबिल ए तारीफ हैं क्योंकि ये झकी और गिड़गिड़ाई नहीं. सम्मान बरकरार रखते हुए बच्चों के लालनपालन में जुटी रहीं.

एक और अभिनेत्री है सुष्मिता सेन. बिटिया गोद ले कर उन्होंने एक नई परंपरा रची है. उन्होंने बता दिया कि स्त्री ममता से सराबोर है, इस के लिए उसे शादी का सार्टिफिकेट नहीं चाहिए.

जयपुर भी ऐसी अनेक महिलाओं का साक्षी है, जो अपने बूते पर एकल अभिभावक की जिम्मेदारी निबाह रही हैं. पुराने जमाने की पूरी दास्तां भी एक ही स्याही से लिखी हुई मालूम होती है.

सीता ने अंत तक अपना आत्मसम्मान व स्वाभिमान नहीं खोया हालांकि आज उन्हें राम की मात्र पत्नी के तौर पर जाना जाता है. वाल्मीकि रामायण को पढ़ने पर ही सीता का व्यक्तित्व सामने आ जाता है पर रामचरित्रमानस में तुलसीदास ने उन्हें वह स्थान नहीं दिया.

बूआओंमौसियों से अलग

‘‘मैं औरत के लिए बनाई गई सदियों पुरानी छवि में भरोसा नहीं करती. मैं आज की उस औरत की प्रतिनिधि हूं, जो अपने विकल्प खुद चुनती है, जो अपनी पसंद के रास्तों का चुनाव करने के लिए खुद को स्वतंत्र मानती है. अपनी तरह रह पाने की आजादी मुझे भाती है. मैं खुश हूं और यदि लोग इस बारे में अलग सोचते हैं, तो मुझे परवाह नहीं,’’ यह कहना है जयपुर में विज्ञापन एजेंसी में काम करने वाली एक कर्मठ प्रोडक्शन डिजाइनर का. 46 साल की इस महिला ने अविवाहित रहने का फैसला किया है.

ऐसा फैसला करने वालों का एक ऐसा जहान है, जहां अकेले रहने को एकाकी नहीं माना जाता. जहां के बाशिंदे समाज से कट कर, अपने अकेलेपन पर आंसू नहीं बहाते, बल्कि समाज से पूरा भावनात्मक, व्यावहारिक लगाव रखते हुए अपने चुने विकल्प का आनंद लेते हैं. ये सभी शिक्षित, समझदार और संवेदनशील भी हैं. बस, अकेले रहना चाहते हैं. ये पुराने जमाने की अविवाहित बूआओं, मौसियों से अलग हैं. इन के अकेले रहने के गहरे माने हैं.

इन के पास दोस्तों की एक पूरी ब्रिगेड है, रिश्ते भी हैं, लेकिन और लोगों से ये अलग हैं. इन के लिए जो बातें माने रखती हैं, मसलन- आत्मसम्मान, विश्वास और सृजनात्मकता, उन का इन के रिश्तों से कोई तअल्लुक  नहीं है.

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मुश्किलें तो हैं

एक सवाल अब भी वहीं है कि अकेले रहने वाले क्या पारिवारिक जिम्मेदारियों से बचने के लिए यह रास्ता चुनते हैं? लेकिन यह रास्ता चुनना आसान नहीं है. जो इसे चुनते हैं उन से पूछिए. महज जिम्मेदारियां ही नहीं, आमतौर पर अकेली महिलाओं को बिना सोचेसमझे पथभ्रष्ट, जिद्दी, रहस्यमयी जैसी उपाधियों से नवाज दिया जाता है. पुरुषों की दुनिया में अकेले रहती औरत के नैतिक व्यक्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न लगाना सहज हो जाता है. इस से बड़ी अजीबोगरीब स्थितियां भी जन्म लेती हैं.

प्रियांशी जो 49 साल की एक सामाजिक सलाहकार हैं, का कहना है- अकेली युवती के लिए नए शहर में मकान की तलाश करना एक बड़ी मुश्किल होती है. उसे अपनी आयु से ले कर खानपान की आदतों, आय तथा मिलनेजुलने वालों तक का हिसाबकिताब देना पड़ता है, तब भी अविश्वास की तलवार तो लटकी ही रहती है. अकेली युवती के रहनसहन, उस के तौरतरीकों, मित्रों, यहां तक कि उस के विचारों तक पर उंगली उठाना हर इंसान अपना अधिकार समझता है. यह मान लेना तो सब से आसान है कि अकेली युवती अनुशासित जिंदगी तो क्या जीती होगी? सारा दिन बाहर घूमती होती, घर पर खाना थोड़े ही बनाती होगी वगैरहवगैरह. शादी जैसे पारिवारिक समागम में उसे बड़ीबूढि़यों द्वारा ‘बेचारी’ कह कर बुलाया जाता है. उसे अधूरा माना जाता है.

जयपुर की रहने वाली पल्लवी का कहना है, ‘‘मैं दूसरों से अलग रहने या कट जाने के लिए अकेली नहीं रहती. पर ऐसा होता है कि कई बार मैं अपने आसपास किसी को नहीं चाहती. शादीशुदा लोगों के जीवन में भी ऐसे लमहे तो आते ही होंगे.’’

42 साल की सिया पेशे से मुर्तीकार है और अकसर विदेशी दौरों पर रहती है. जब देश में होती है, तो फुरसत के लमहे मातापिता के साथ बिताती है. वह कहती है, ‘‘मुझे घूमने का शौक है. काम ने मुझे इस का मौका दिया है. किसी एक जगह पर रुक जाने वाली जिंदगी मैं जी ही नहीं सकती. महज रस्म के लिए शादी करने वाली बात कभी दिमाग में आई ही नहीं.’’

44 साल की सुषमा जोकि मार्केटिंग कंसल्टैंट है और अकेले रह कर खुश भी है, का मानना है, ‘‘शादीशुदा जिंदगी के सारे पहलुओं पर गौर करने के बाद मैं ने अकेले रहने का फैसला किया था क्योंकि मेरी अहमियतें कुछ और थीं. अपने कैरियर पर ध्यान देने का समय शायद नहीं मिल पाता. मैं उन औरतों के बिलकुल भी खिलाफ नहीं हूं जो एक सफल पत्नी व मां बनने की आकांक्षा रखती है.’’

‘‘ऐसा नहीं है कि आप दुनिया से कट जाते हैं और आप के पास कोई रिश्ता नहीं बचता निभाने के लिए. आप को मां बनने के लिए किसी पुरुष की मदद की भी जरूरत नहीं है,’’ यह कहना है 43 साल की अंजू का, जिस ने 8 माह पहले ही 2 साल की श्रेया को गोद लिया है. अंजू 2 लोगों के नए परिवार में काफी खुश है.

मानसिकता में बदलाव

लोगों की मानसिकता में बदलाव आ रहा है और इस का श्रेय जाता है- स्त्री शिक्षा और समाज में आज जो इन का जगह बनी है, उस को. आज कम से कम शहरी क्षेत्रों में स्त्री का अलग रहना उस की मजबूरी नहीं, बल्कि मरजी समझ जाने लगा है. अब लोगों को यह समझने में आसानी होती है कि  फलां लड़की ने शादी इसलिए नहीं कि होगी क्योंकि वह घर और दफ्तर साथ में नहीं संभाल सकती थी.

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अकेले हम तो क्या गम

कोई अकेले अपनी जिंदगी बिता रही है, इस का एक कारण यह है कि वह अपनी पहचान नहीं खोना चाहती. अकेले जिंदगी का सफर तय करने वाली महिलाओं की बढ़ती संख्या का एक बड़ा कारण है उन्हें अपने मित्रों और परिवार वालों का भरपूर प्यार, सहयोग और सम्मान मिलना.

बहुतों ने तो सिंगल लाइफ के अलावा दूसरी लाइफ  के बारे में सोचा तक नहीं. उन्हें कभी

ऐसा महसूस भी नहीं हुआ कि वे अकेली हैं. उन के दोस्तों और परिवार वालों ने हमेशा उन्हें सपोर्ट किया और हर मौके को उन्होंने उन के साथ ऐंजौय किया.

अगर अकेली हैं तो गर्व से कहें ‘‘मैं अकेली हूं, इस का मुझे कोई दुखतकलीफ नहीं है. मैं मानती हूं कि शादी करना मेरी पहचान नहीं है. मैं इस से कहीं ज्यादा अपनी आजादी और रुचियों को अहमियत देती हूं.’’

शहरी आबोहवा और तेजी से आए लाइफस्टाइल में बदलाव ने भी सिंगल वूमन कंसैप्ट को आगे बढ़ाया है. आज लोगों के जीने का तरीका बदल गया है. आज अकेली रहने वाली महिला हो या पुरुष वास्तव में अकेले नहीं हैं. वे एकदूसरे के घर जाते, गपशप करते हैं. यही वजह है कि उन्हें शादी करने और गृहस्थी बसाने की जरूरत ही महसूस नहीं होती.

जब कोरोना ने छीन लिया पति

लेखक व लेखिका -शैलेंद्र सिंह, भारत भूषण श्रीवास्तव, सोमा घोष, नसीम अंसारी कोचर, पारुल भटनागर 

कोरोना महामारी की पहली लहर इतनी भयावह नहीं थी, मगर दूसरी लहर ने देशभर में लाखों परिवारों को पूरी तरह उजाड़ दिया. कई परिवार ऐसे हैं, जहां जवान औरतों ने अपने पति खो दिए हैं. कई महिलाएं 30-40 साल की उम्र की हैं, जिन के छोटे छोटे मासूम बच्चे हैं. कई ऐसी हैं जो आर्थिक रूप से पूरी तरह पति पर निर्भर थीं.

पति की मौत के बाद उन के सामने अपने बच्चों के लालनपालन की समस्या खड़ी हो गई है. आर्थिक जरूरतें और अनिश्चित भविष्य उन्हें डरा रहा है. बच्चों के कारण दूसरी शादी का फैसला भी आसान नहीं है.

गृहशोभा के रिपोर्टर्स की टीम ने ऐसी अनेक महिलाओं के दुखों और परेशानियों को जानने की कोशिश की:

पति के नाम को जिंदा रखना चाहती हैं ऐश्वर्या लखीमपुर खीरी जिले के गोला की रहने वाली ऐश्वर्या पांडेय की शादी 2009 में हुई थी. उन के पति पीयूष बैंक में कार्यरत थे. ऐश्वर्या एमबीए के बाद जौब करने लगी थी, मगर शादी के बाद ससुराल की जिम्मेदारियों और बेटे पार्थ के जन्म के कारण जौब छोड़नी पड़ी.

ऐश्वर्या और पीयूष बेटे पार्थ के भविष्य को ले कर सुनहरे सपने देख रहे थे. मगर काल के क्रूर चक्र को कुछ और ही मंजूर था.

11 मई, 2021 को पीयूष कोरोना की चपेट में आ गए. बैंक स्टाफ और अस्पताल के लोगों ने ऐश्वर्या का साथ दिया. अस्पताल में पीयूष का औक्सीजन लैवल घटने पर उन्हें आईसीयू में शिफ्ट किया गया. 8 जून को उन्हें जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया.

मगर उन का कोविड टैस्ट लगातार पौजिटिव ही आ रहा था. 9 जून को उन का पल्स रेट फिर बिगड़ने लगा तो उन्हें फिर से आईसीयू में ले जाया गया, मगर 10 जून की सुबह ऐश्वर्या के जीवन में अंधेरा बन कर आई यानी पीयूष इस दुनिया से हमेशा के लिए दूर चले गए. ऐश्वर्या डिप्रैशन में चली गई.

ऐश्वर्या कहती है, ‘‘मेरे लिए सब से अधिक महत्त्वपूर्ण बेटे को संभालना था. मैं ने यह सोच कर हिम्मत बांधी कि अगर मुझे कुछ हो गया होता तो पीयूष कैसे बेटे को संभाल रहे होते? इस सोच ने मुझे हिम्मत दी. बेटे को ले कर मैं लखनऊ लौटी. उस का स्कूल में एडमिशन कराया. घर वालों ने सहयोग किया. अभी भी मैं पूरी तरह से उस दुख से उबर नहीं पाई हूं.

पहले घर किराए का था अब जिंदगी

दिल्ली में रहने वाली कंचन माथुर अपने पति शिशिर माथुर के साथ बुढ़ापे की दहलीज पर पहुंच चुकी थीं. उम्र के 55 साल पूरे हो गए थे. पति भी 58 के थे. 2 बेटियां थीं, जिन की शादियां हो चुकी थीं. घर में अब ये 2 ही बचे थे. शुरू से ही कंचन और उन के पति शिशिर किराए के मकान में रहे. अपना घर नहीं खरीदा. वजह थी 2 बेटियां. शिशिर सोचते थे कि बेटियां शादी कर के अपनेअपने घर चली जाएंगी तो अपना घर ले कर क्या करना.

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कोरोना की दूसरी लहर ने शिशिर को जकड़ लिया. 2 हफ्ते होम क्वारंटाइन रहे. बड़ी बेटी, जो दिल्ली में ही ब्याही थी, उस ने देखभाल के लिए अपने बड़े लड़के को भेज दिया. मगर शिशिर का बुखार नहीं उतर रहा था. उन्हें डायबिटीज भी थी. एक शाम जब शिशिर का औक्सीजन लैवल 86 हो गया तो बेटीदामाद घबरा कर औक्सीजन सिलैंडर लेने के लिए गए, मगर कहीं नहीं मिला और न ही किसी अस्पताल में बैड खाली मिला.

दूसरे दिन नोएडा के एक अस्पताल में जगह मिली. मगर 4 दिन के इलाज के बाद ही शिशिर चल बसे. उन के दोनों फेफड़े संक्रमण के कारण नष्ट हो चुके थे. अस्पताल से ही उन का शव अस्पताल के कर्मचारियों के द्वारा श्मशान ले जाया गया और उन्होंने ही उन का क्रियाकर्म किया. घर के किसी सदस्य ने अंतिम समय में उन्हें नहीं देखा.

गहरा धक्का

इस बात का सब से ज्यादा धक्का उन की पत्नी कंचन को लगा है. पति के अचानक चले जाने से वे बिलकुल बेसहारा हो गई हैं. बड़ी बेटी किसी तरह अपने ससुराल वालों को राजी कर के उन्हें अपने साथ ले तो गई है, मगर अजनबी लोगों के बीच कंचन की वैसी देखभाल नहीं हो पा रही है जैसी उन के पति के रहते अपने घर में होती थी.

उन के दामाद ने उन का किराए का घर खाली कर दिया है. सारा सामान बेच दिया. बैंक में जो पैसा था वह अपने अकाउंट में ट्रांसफर करवा लिया.

घर का सामान बिकते देख कंचन के दिल पर जो गुजरी उस दर्द को कोई और नहीं समझ सकता है. पति की जोड़ी गई 1-1 चीज उन की आंखों के सामने कबाड़ में बेच दी गई. पहले घर किराए का था, मगर घर में रहने वाला अपना था, पर अब उन की पूरी जिंदगी किराए की हो गई है.

फिट इंसान के साथ ऐसा होगा सोचा न था

37 वर्षीय रेशमा राजेश पाटिल और उन के 12 वर्षीय बेटे रितेश राजेश पाटिल की जिंदगी कोरोना ने वीरान कर दी. कोविड की दूसरी लहर में मां ने अपना पति और बेटे ने अपने पिता को खो दिया है.

मुंबई के नजदीक अलीबाग के रहने वाले 42 वर्षीय तंदुरुस्त राजेश पाटिल सरकारी दफ्तर में काम करते थे. कोरोना की दूसरी लहर ने राजेश के बुजुर्ग पिता को कोरोना हो गया. राजेश पिता को रोजाना खाना पहुंचाने अस्पताल जाने लगा. एक दिन उसे भी बुखार हो गया. टैस्ट करवाने पर वह भी कोरोना पौजिटिव पाया गया. राजेश तुरंत होम क्वारंटाइन में चला गया. उस की पत्नी रेशमा ने अपने बेटे को मामा के पास मायके भेज दिया.

रेशमा अपने आंसू पोछती हुई कहती हैं, ‘‘होम क्वारंटाइन में राजेश डाक्टर से पूछ कर दवा ले रहे थे. लेकिन एक दिन उन्हें सांस लेने में ज्यादा दिक्कत होने लगी तो मैं तुरंत उन्हें सिविल अस्पताल ले गई. डाक्टर ने जांच की और बताया कि उन का औक्सीजन लैवल 97 है, इसलिए उन्हें यहां भरती नहीं कर सकते. तब मैं उन्हें प्राइवेट अस्पताल में ले गई. वहां जांच करने पर पता चला कि उन्हें निमोनिया हो गया है. डाक्टर ने एक इंजैक्शन शुरू करने की बात कही, जो 40 हजार रुपए का था. मैं ने पैसा अरेंज किया और इंजैक्शन ला कर दिए. मगर इंजैक्शन का उन पर कोई असर नहीं हुआ और 20 दिन अस्पताल में रहने के बाद उन का देहांत हो गया.

‘‘अभी रेशमा किराए के मकान में रहती हैं. उन्हें पति की पैंशन नहीं मिल सकती है क्योंकि उन्होंने 2009 में सरकारी नौकरी जौइन की थी. कुछ पैसे उन्हें राज्य सरकार और संस्था की तरफ से जरूर मिले हैं. बाल संगोपन संस्था के अंतर्गत उन्हें राज्य सरकार की तरफ से 50 हजार रुपए की रकम फौर्म भरने के 4 दिन बाद मिल गई. इस के अलावा बाल संगोपन संस्था के द्वारा बेटे की पढ़ाई के लिए प्रति माह 11 सौ रुपए और मुफ्त में थोड़ा राशन मिल जाता है, जिस से गुजारा हो रहा है. लेकिन आगे उन्हें खुद अपने पैरों पर खड़ा होना होगा.’’

रेशमा कहती हैं, ‘‘मैं ने पति के औफिस में नौकरी के लिए अर्जी दी है, लेकिन मेरे लायक कोई पद खाली होने पर ही मुझे नौकरी मिलेगी. गांव में पढ़ाई अच्छी न होने की वजह से मुझे बेटे की शिक्षा के लिए अलीबाग में ही रहना है. मेरे ससुराल में मेरे सासससुर भी हैं.’’

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जैसे जिंदगी से रोशनी चली गई

भोपाल के गांधी मैडिकल कालेज में टैक्नीशियन पद पर कार्यरत रवींद्र श्रीवास्तव की पत्नी रश्मि शहर के सरकारी स्कूल बाल विद्या मंदिर में प्राध्यापिका थीं. 18 साल पहले दोनों

की शादी हुई थी. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था कि गत 9 मई को कोरोना रश्मि को अपने साथ ले गया.

‘‘मुझे अभी तक यकीन नहीं होता कि रश्मि अब नहीं रही,’’ रवींद्र कहते हैं, ‘‘औफिस से घर लौटता हूं तो लगता है वह मेरा चाय पर इंतजार कर रही है. सच को स्वीकारने की बहुत कोशिश करता हूं, लेकिन उस की याद किसी न किसी बहाने आ ही जाती है.

रश्मि के जाने के बाद रवींद्र का सूनापन अब शायद ही कभी भर पाए. 17 साल का बेटा ऋषि भी अकसर उदास रहता है. रवींद्र पूरी तरह टूट गए हैं, मगर बेटे के लिए जैसेतैसे खुद को संभाले हुए हैं.

परिवार के लिए कमाना है

‘‘27 अप्रैल, 2021 को मेरे पति विकास ने कोविड की दूसरी लहर में अपनी जान गवां दी. मैं और मेरे दोनों बच्चे इस दुनिया में अकेले रह गए…’’ कहती हुई 40 वर्षीय नयना विकास की आवाज भारी हो गई.

नैना के पति विकास छत्तीसगढ़ के जिले के रायगढ़ के अंतर्गत सासवाने गांव में नयना और 2 बच्चों के साथ रहते थे. उन का बिल्डिंग मैटीरियल सप्लाई करने का व्यवसाय था, जिसे अब नयना संभाल रही हैं. मददगार प्रवृत्ति के विकास कोविड-19 के दूसरी लहर के दौरान लोगों की मदद कर रहे थे. उन्हें कुछ हो जाएगा, इस बारे में उन्होंने सोचा नहीं था.

नयना कहती हैं, ‘‘एक दिन उन्हें बुखार आया पर उन्होंने बताया नहीं. बुखार के साथ ही काम करते रहे. वे 100 से 150 लोगों को खाना खिलाते थे, जिसे मैं खुद बनाती थी. जो भी पैसा उन्हें अपने व्यवसाय से मिलता था, उन्हें जरूरतमंदों के लिए खर्च कर देते थे. 14 अप्रैल से उन्हें बुखार था. 19 अप्रैल को राशन बांटने के उद्देश्य से उन्होंने गांव के सरपंच के साथ मीटिंग रखी थी. मीटिंग खत्म होते ही वे घर आ गए. बुखार तेज था. मैं उन्हें सिविल अस्पताल ले गई, जहां टैस्ट करवाने पर रिपोर्ट पौजिटिव आई. मगर वहां अस्पताल में कोई बैड नहीं मिला. फिर मैं ने उन्हें प्राइवेट अस्पताल में ले गई जहां उन की मौत हो गई.

नयना के 2 बच्चे हैं. बेटी 8वीं कक्षा में और बेटा 5वीं कक्षा में पढ़ रहा है. दुख से उबरने के बाद नयना ने पति का व्यवसाय संभाल लिया है. काम में थोड़ी मुश्किलें भी हैं क्योंकि वे पहले इस काम से जुड़ी नहीं थीं. पति का बैंक खाता बिलकुल खाली है और किसी प्रकार का हैल्थ इंश्योरैंस भी नहीं है. नयना पर काफी कर्ज हो गया है.

पति की मृत्यु के बाद बाल संगोपन संस्था की तरफ से नयना को 50 हजार रुपए तथा राज्य सरकार की तरफ से बच्चों को पढ़ाई का खर्च मिल रहा है. लेकिन आगे नयना को ही परिवार की गाड़ी खींचनी है बिलकुल अकेले.

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बच्चों की परवरिश में कोई कमी नहीं आने दूंगी -विना दुब

कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया में कुहराम मचा रखा है. लाखों परिवारों ने इस में अपने लोगों को खो दिया है. किसी ने बेटा, किसी ने पति, किसी ने पिता तो किसी ने पत्नी, बहन, बेटी या मां को खो दिया है. कुछ बच्चे तो ऐसे हैं जिन्होंने इस महामारी में अपने मातापिता दोनों को ही खो दिया है.

छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की विना दुबे ने कोरोना की दूसरी लहर में अपने पति को खो दिया. उन के दर्द को शब्दों में बयां करना मुश्किल है, लेकिन विना ने हिम्मत नहीं हारी. दर्द से उबर कर जीवन को फिर वापस पटरी पर ले आई हैं और बच्चों का पालनपोषण कर रही हैं.

विना नहीं चाहतीं कि उन के बच्चों को कोई कमी हो या उन की पढ़ाई और कैरियर में किसी प्रकार की रुकावट पैदा हो. विना ने गृहशोभा से अपनी आपबीती साझ की:

जब आप को पता चला कि कोरोना से आप के पति की मृत्यु हो गई है तो उस समय आप को क्या लग रहा था?

मेरे पति अखिल कुमार दुबे मेरे लिए मेरे आदर्श, मेरे मार्गदर्शक, मेरे सबकुछ थे. लेकिन जब मुझे पता चला कि 6 दिन हौस्पिटल में इलाज करवाने के बाद भी वे नहीं रहे, तो मुझे एक पल को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि वे हमें छोड़ कर चले गए हैं. लेकिन हकीकत यही थी कि वे अब नहीं रहे. मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि आगे अब जिंदगी कैसे गुजारूंगी, क्या करूंगी, बच्चों का, खुद का जीवनयापन कैसे करूंगी? मेरे कदमों के नीचे से जैसे जमीन ही खिसक गई हो. कुछ समझ में नहीं आ रहा था. सामने ढेरों परेशानियां थीं. लेकिन बच्चों की खातिर मैं ने पति के जाने के दुख को अपने अंदर छिपा कर उन के लिए आगे बढ़ने का निर्णय लिया.

किस तरह का संघर्ष करना पड़ा?

एक तो पति के जाने का गम और दूसरा आर्थिक तंगी. उस समय खुद को कैसे स्ट्रौंग बनाऊं, यही मेरे लिए सब से बड़ा संघर्ष था. 2 बच्चों की परवरिश, ऐजुकेशन की जिम्मेदारी अकेले मेरे कंधों पर आ गई है. भले ही मैं पहले से वर्किंग हूं, लेकिन बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए सिंगल हैंड से काम नहीं चलता बल्कि मातापिता दोनों का कमाना बहुत जरूरी है. मगर मैं अकेली रह गई हूं. ऐसे में मैं इस संघर्ष के सामने हिम्मत तो नहीं हारूंगी क्योंकि मेरे बच्चों के भविष्य का सवाल जो है.

आप कैसे अपने परिवार का जीवनयापन कर रही हैं?

मैं बीए पास वर्किंग वूमन हूं. मुझे अपने बच्चों की हर जरूरत को पूरा करना है, इसलिए कोई भी काम करना पड़े, मैं पीछे नहीं हटूंगी. जौब के कारण बच्चे उपेक्षित न हों, इस बात का भी मैं पूरा ध्यान रखती हूं. उन के साथ वक्त गुजारती हूं, उन की प्रोब्लम सुनती हूं, पढ़ाई में उन्हें पूरा सहयोग देती हूं क्योंकि अब मैं ही उन की मां और पिता दोनों हूं.

पति के न रहने पर समाज व रिश्तेदारों का क्या योगदान रहा?

समाज का तो कुछ नहीं कह सकती क्योंकि वो दौर ही ऐसा था जब सभी एकदूसरे से दूरी बनाए हुए थे. सब अपनों को बचाने के लिए, अपनेअपने बारे में सोच रहे थे. लेकिन ऐसे वक्त में मेरे जेठ अमित दुबे और जेठानी रीना दुबे ने तनमनधन हर तरह से सहयोग दिया. समाजसेविका नीतूजी की मैं दिल से आभारी हूं. उन्होंने जो बन पड़ा वह हमारे लिए किया. मेरे भाई मेरी हिम्मत बन कर खड़े हुए हैं, जिस के कारण मुझे आगे बढ़ने का हौसला मिला है.

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हादसे के बाद जीवन के लिए सीख?

मैं सभी से यही कहना चाहूंगी कि जीवन में कब क्या हो जाए, कोई नहीं जानता. कब हंसतीखेलती जिंदगी में सन्नाटा छा जाए, किसी को नहीं मालूम. इसलिए परिवार में जब तक संभव हो सके पति पत्नी मिल कर काम करें. चाहे आप ज्यादा शिक्षित न भी हों तो भी जो भी आप में करने की योग्यता है, जैसे कुकिंग, बुनाई आदि तो उसे कर के न सिर्फ खुद सैल्फ डिपेंडैंट बनें, बल्कि उस से होने वाली आय को भविष्य के लिए जोड़ कर रखें ताकि कभी भी मुसीबत आने पर आप अपने परिवार की हिम्मत बन कर कठिन परिस्थितियों से लड़ पाने में सक्षम हों. फुजूलखर्ची छोड़ कर सेविंग करने की आदत को बढ़ाएं, साथ ही कभी भी हिम्मत न हारें.

#lockdown: कोरोना संकट और अकेली वर्किंग वूमन्स

कोरोना के खिलाफ यह जंग लंबी चलेगी ऐसा लग रहा है.  जो लोग परिवार के साथ घरों में हैं वे इस संकट का मुकाबला मिलकर कर रहे हैं. लेकिन वो कामकाजी महिलाएं जो इस मुश्किल समय में अकेली हैं. उनके लिए यह समय और परिस्थितियां किस तरह के अनुभव, दिक्कतें लेकर आई हैं? कोरोना महामारी के बीच वे अकेले अपने दम पर किस तरह हालात का सामना कर रही हैं? कहीं उनके हौंसले पस्त तो नहीं हुए? कोरोना से खुद को सुरक्षित रखने और इस डर पर अपनी जीत दर्ज कराने की उनकी क्या तैयारी है? आजकल दिनचर्या कैसी है? यही सब जानने के लिए हमने कुछ महिलाओं से बातचीत की. आइए जानें क्या कहा इन्होंने –

किश्वर जहां – जागरूक रहें, डरें नहीं

कस्बा गंगो, जिला साहनपुर, यूपी के सरकारी प्राथमिक स्कूल में प्रधानाचार्य किश्वर जहां के माता-पिता नहीं हैं. उन्होंने शादी नहीं की. अकेली रहती हैं और एकल जीवन जीने की आदि हैं. कोरोना की वजह से स्कूल में छुटि्टयां हैं इसलिए आजकल घर पर हैं.

जिस तेजी से कोरोना फैल रहा है किश्वर की सबसे बड़ी चिंता क्या है? “मैं कोरोना पीड़ितों की बढ़ती संख्या से चिंतित हूं. मैं पहले से समाचारों के माध्यम से दुनिया में फैली इस बीमारी के प्रकोप से परिचित थीं. यह कैसे फैलता है? इससे कैसे बचा जा सकता है. इन बातों की जानकारी मुझे थी. जब भारत में कोरोना मरीज सामने आए तो मैं सर्तक हो गईं. क्योंकि मैं जानती हूं कि यह तेजी से एक दूसरे के संपर्क में आने से फैलता है. मैं आस-पड़ोस के लोगों को जागरूक करने लगी. कैसे सोशल डिस्टेंस मेनेटेन करना है. क्यों मास्क लगाना जरूरी है. घर से बाहर नहीं निकलना आदि. कोरोना से मैं सतर्क हूं भयभीत नहीं. क्योंकि इससे बचाने की मेरी पूरी तैयारी है. मैं सभी सावधानियों का पालन कर रही हूं.”

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किश्वर अपने आसपास के लोगों को ही अपना परिवार मानती हैं. वे बताती हैं, “जब 22 मार्च को जनता कर्फ्यू गया तभी से यह संभावना थी कि यह आगे बढ़ेगा. टीवी व अखबारों के माध्यम से मैंने बाकी देशों की स्थिति का जायजा लिया था कि किस प्रकार कोरोना रोकने के लिए कई शहरों को लॉक डाउन किया गया है. इस बात को ध्यान में रखते हुए मैंने लगभग महीने-डेढ़ महीने का राशन लाकर पहले ही रख लिया ताकि बार-बार बाजार न जाना पड़े. ”

किश्वर कहती हैं, ‘मुझे मौत का डर नहीं. मौत बरहक है वो आनी है. चिंता यह है कि अगर मुझे यह बीमारी होती है तो क्या चिकित्सीय सुविधाएं मिल पाएंगी या नहीं?”

इन दिनों किश्वर का रुटीन थोड़ा बदल गया है. अब वे शारीरिक व मानसिक मजबूती व शांति के लिए सुबह योग व ध्यान लगाती हैं. पौष्टिक हल्का सुपाच्य खाना खाती हैं. किताबें पढ़ती हैं. दिन के समय फोन पर दोस्तों व भाई-बहनों से बात करती हैं. अब ज्यादा टीवी नहीं देखती क्योंकि कई बार हर तरफ से महामारी के बढ़ते आंकड़े किश्वर को परेशान कर देते हैं. इसलिए बस मुख्य समाचार देखती हैं. पुराने गाने सुनती हैं. घर की साफ सफाई के साथ ही बागवानी करती हैं. यूट्ब्यू पर कुकरी शो देखती हैं और आशा करती हैं कि जब सब ठीक हो जाएगा तो वे यह सभी रेसिपी बनाकर अपने आसपास के लोगों को खिलाएंगी.

राखी रानी देब मन में डर है पर कोरोना को हराना है

जानिए कुछ  राखी रानी देब के बारे में. राखी असम की रहने वाली हैं. परिवार असम में रहता है. राखी दिल्ली में एक पीआर एजेंसी में काम करती हैं और काफी समय से अकेली रह रही हैं. राखी बताती हैं, “पहले और अब लॉकडाउन के बाद की जिंदगी में काफी अंतर आ चुका है. पहले मैं सुबह ऑफिस जाती थीं और वहां काम व ऑफिस के लोगों के बीच कब समय बीत जाता था पता नहीं चलता था. कभी दोस्तों के साथ बाहर डिनर करना. घर में रहने का मौका बहुत कम मिलता था. ऐसा लगता था जैसे रात को सोने के लिए घर आती हूं और सुबह फिर से ऑफिस और देर तक ऑफिस का काम. लेकिन अब चौबीसों घंटे घर पर हूं”

राखी बताती हैं कि ऐसे समय में लगातार खबरों को जानना भी जरूरी है दूसरी तरफ कोरोना जिस तेजी से बढ़ रहा है ऐसे में अकेले रहते हुए यह खबरें नकारात्मक विचारों को जन्म देती हैं. मैं परिवार से दूर हूं और इस समय मेरे पास खाली समय भी है कहते हैं खाली दिमाग शौतान का घर. ऐसे में कई बार नकारात्मक चीज़ें सोचने लगती हूं. कई बार यह भी सोचती हूं कि अगर मुझे कुछ हो गया तो क्या करूंगी? दिल्ली या उसके आसपास मेरा कोई रिश्तेदार भी नहीं जो मेरी मदद करे. मुझे नहीं पता उस समय मुझे खुद को कैसे मैनेज करना होगा. यही सब नेगेटिव बातें सोचकर कई बार बहुत डर जाती हूं. फिर यही डर मुझे यह भी सोचने के लिए बोलता है कि कैसे खुद को कोरोना से बचाया जाए.

जब लॉकडाउन की घोषणा हुई तो राखी ने क्या तैयारी की थी? “सच कहूं तो मैंने अपने लिए कुछ भी खानेपीने का सामान नहीं रखा था. वही जो थोड़ा बहुत राशन रहता है घर पर, वही मेरे पास था. जैसे ही 21 दिन के लॉकडाउन की घोषणा हुई. मैंने अपनी बालकनी से बाहर देखा, लोग अपनी गाड़ी और बाइक लेकर बाजार जा रहे थे. तब मुझे घबराहट हुई कि मेरे पास तो खानेपीने का सामान बहुत कम है. लेकिन उस दिन मैं बाजार नहीं गई. अगले दिन सब जगह बंद था. सबसे बड़ी मुश्किल तब आई जब लॉकडाउन के पहले ही दिन मेरी रसोई गैस खत्म हो गई. मैं सोच में पड़ गई, अब क्या करूं? आसपास गैस सप्लाई करने वाले जितने लोग थे सबको फोन किया सबका एक ही जवाब था कि दुकान बंद है. उस रात मैंने कुछ नहीं खाया. अगले दिन कई गुप्स में मैसेज किया तो एक व्यक्ति ने घर आकर गैस का सिलेंडर दिया और मैंने राहत की सांस ली. ऑनलाइन सामान की सप्लाई भी बंद हो चुकी थी. कुछ जो सामान मेरे पास था उसी से मैंने काम चलाना शुरु किया. फिर दो दिन बाद जब हमारे मार्किट की दो-तीन दुकाने खुली तो मैं राशन लेकर आई. ”

दो सप्ताह से ज्यादा समय लॉकडाउन को हो चुका है. कोरोना के केस रोज बढ़ते जा रहे हैं ऐसे में राखी की मनस्थिति कैसी है? राखी बताती हैं, “अमेरिका, इटली, फ्रांस में जो हालात हैं उसे देखकर डर समा गया है कि कहीं भारत में भी स्थिति बिगड़ न जाए. मुझे कोरोना न हो जाए. कई बार बहुत नकारात्मक विचार आते हैं.”

नकारात्मक विचारों से खुद को दूर रखने के लिए क्या करती हैं? “कोरोना का डर व नकारात्मक विचार मुझसे दूर रहें इसके लिए मैं रोज अपने परिवार से फोन पर बात करती हूं. दोस्तों से बात करती हूं. चैटिंग करती हैं. सोशल मीडिया पर एक्टिव रहती हूं ताकि ध्यान बंटा रहे और मैं पॉजिटिव सोचूं. घर के अंदर रहती हूं बाहर नहीं निकलती. यही एक मात्र उपाय है खुद को सेफ रखने का.”

राखी अपने परिवार को बहुत मिस करती हैं. वे मानती हैं अगर परिवार साथ होता तो इस समय को फेस करना आसान हो जाता. मम्मी चाहती हैं जैसे ही हवाई सेवा शुरु हो मैं तुरंत घर लौट आऊं.

राखी कोरोना से इतनी डरी हुई हैं तो उससे लड़ेगी कैसे? राखी कहती हैं, “मैं लड़ रही हूं. मैं घर से बाहर नहीं निकलती. बार-बार हाथ धोती हूं. सामान लेने जाती हूं तो मास्क पहनकर पूरी सावधानी के साथ. वापस लौटकर अपने हाथ धोना. मैं जानती हूं कि ऐसे कठिन समय में मुझे अपना ख्याल खुद रखना है.”

राखी का रुटीन पहले जैसा ही है. पहले वे छह बजे उठती थीं अब सात बजे. पहले की तरह सुबह उठकर योग करती हैं. फिर फ्रैश होकर अपने लिए नाश्ता बनाती हैं. उसके बाद ऑफिस का काम शुरु हो जाता है. इन दिनों वे वर्क फ्रॉम होम कर रही हैं. एक नई चीज़ जो राखी के शेड्यूल में शामिल हुई है वो है किताबें. राखी रोज श्याम को किताबें पढ़ती हैं. परिवार व दोस्तों से फोन पर बातचीत. समाचार सुनना और 11 बजे तक सो जाना. इस उम्मीद के साथ कि जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा.

निकिता वर्मा अपनी डाइट का ख्याल रखें

पेशे से इंजीनियर और फैशन, लाइफस्टाइल ब्लॉगर निकिता वर्मा  अपने काम के सिलसिले में परिवार से दूर नोएडा, यूपी में रहती हैं. निकिता मानती हैं, “कोरोना वायरस ने हम सभी को बहुत डरा दिया है. ऐसे समय में अकेले रहते हुए मुझे परिवार की बहुत याद आती है. एकता में शक्ति होती है जो आपको कठिन समय में भी हारने नहीं देती. अगर इस समय परिवार मेरे पास होता तो इस कठिन समय का सामना करना मेरे लिए आसान हो जाता. वैसे मैं रोज विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए परिवार के संपर्क में हूं. पहले भी अकेली रहती थी लेकिन जब से कोरोना फैला है और लॉकडाउन हुआ है इसने सभी की जिंदगी को हिलाकर रख दिया है.

“कोरोना को खत्म करने में हर नागरिक की अपनी भागीदारी है. इस समय हम नागरिक होने का फर्ज इसी तरह निभा सकते हैं कि हम घर पर रहें. बाहर न निकलें. ऐसा करके हम अपनी जान तो बचाएंगे ही साथ ही समाज के लिए भी खतरा नहीं बनेंगे. अब तो नोएड़ा के कई इलाके सील कर दिए गए हैं. इससे और घबराहट बढ़ गई है.”

निकिता ने काफी पहले ही अपनी मेड को आने से मना कर दिया था. अपने घरेलू काम वे खुद कर रही हैं. 22 तारीख के बाद से ही लंबे लॉकडाउन की आशंका थी इसलिए निकिता ने खानेपीने का जरूरी सामान पहले ही ऑनलाइन मंगा लिया था ताकि बाजार जाने की जरूरत न पड़े.

निकिता बताती हैं, “कोरोना से लड़ने के लिए मेरी तैयारी यह है कि मैं अपनी और घर की सफाई का ख्याल रखूं. बार-बार हाथ धोने के साथ ही हाइजीन का बहुत ख्याल रखती हूं. शारीरिक व मानसिक फिटनेट के लिए सुबह-श्याम योग करती हूं. एक्सरसाइज करती हूं. ऐसी डाइट ले रही हूं जो मेरे इम्यूनिटी सिस्टम को सही रखे. विटामिन सी, सूखे मेवे और हरी सब्जियां इन दिनों मेरी डाइट में ज्यादा हैं. रोज एक गिलास दूध पी रही हूं.”

लक्ष्मी सकारात्मकता व सावधानी से हारेगा कोरोना

बिहार की रहने वाली लक्ष्मी की जो  पत्रकार हैं, दिल्ली में अकेली रहती हैं. लक्ष्मी कहती हैं, भले ही इस समय देश व दुनिया में लॉकडाउन है लेकिन इस बुरे समय में भी मैं अच्छा देखने की कोशिश करती हूं. और महसूस करती हूं कि कोरोना की वजह से कई सकारात्मक परिवर्तन हम सबकी जिंदगी में आ गए हैं. कोरोना के भय ने हमारी जिंदगी को अनुसाशन में ला दिया है. अब हमें साफ सफाई की अहमियत ज्यादा समझ में आ गई है. कई अच्छी आदतें जीवन में शुमार हो चुकी हैं. अपनी फिटनेस और डाइट पर हमने गंभीरता से सोचना शुरु किया. सीमित साधनों में कैसे सब कुछ मैनेज करना है यह सीख लिया. अब हम उतना ही खाना बना रहे हैं जितने की जरूरत है. बस इन अच्छी आदतों को हमें आगे भी बनाए रखना है.

कोरोना से मुकाबला कैसे करेंगी? लक्ष्मी कहती हैं, मैं केवल सकारात्मक सोचती हैं. कोरोना से भयभीत नहीं हूं. कुछ लोग टीवी देखकर कोरोना की खबरों से भी डर रहे हैं. इसमें डर की कोई बात नहीं है. खबरों का मक्सद हमें जानकारी देना है. जानकारी ही नहीं होगी तो हम समस्या का सामना कैसे करेंगे? हेल्थ मिनिस्ट्री जो गाइड लाइन जारी कर रही है मैं उसका पालन करती हूं. लक्ष्मी सहारा अखबार में काम करती हैं. सामान्य दिनों की तरह ऑफिस जा रही हैं. इस दौरान पूरी सावधानी का ख्याल रखती हैं.

इस मुश्किल समय में लक्ष्मी सकारात्मक सोच विचार बनाए रखने को सबसे जरूरी मानती हैं. साथ ही अपने आसपास के माहौल को भी सकारात्मक बनाए रखने की अपील करती हैं. लक्ष्मी मजबूत लड़की हैं. उनके माता-पिता बिहार में रहते हैं. लक्ष्मी का कहना है कि हम जहां रहते हैं वहीं हमारा एक परिवार बन जाता है. माता-पिता ने हमें समाज में कैसे मिलजुल कर रहना है यह सिखाया है. यही वजह है कि इस संकट की घड़ी में सभी लोग अलग-अलग रूपों में एक दूसरे की मदद कर रहे हैं. पूरा देश एक परिवार बन गया है. इसलिए मैं बेशक अपने माता-पिता से दूर हूं लेकिन मैं उन्हें मिस नहीं कर रही. मेरे आसपास के लोग ही परिवार की तरह मेरे साथ हैं.

लॉकडाउन की घोषणा हुई तो लक्ष्मी की क्या तैयारी थी? वे कहती हैं, लोगों ने काफी राशन घरों में भर लिया था लेकिन मैंने नहीं भरा. न मैं यह सोचती हूं कि हमें आने वाले दिनों में खाना नहीं मिलेगा. इस समय तो हमें उन लोगों की मदद करनी चाहिए जो गरीब मजदूर हैं. उन्हें खाना खिलाने के बारे में सोचना चाहिए.

कोरोना से जंग जीतने की क्या तैयारी है? बस इतनी तैयारी है कि मैं स्वच्छता का ख्याल रखती हूं. मास्क लगाकर बाहर निकलती हूं. जो बिना मास्क लगाए दिखते हैं उन्हें टोकती हूं. ऑफिस से लौटते वक्त एक बारी में ही सारा जरूरी सामान ले आती हूं. विश्व स्वास्थ संगठन व भारत सरकार की ओर से जो निर्देश सामने आ रहे हैं उनका पालन करती हूं. इस मुश्किल समय में सकारात्मक सोचती हूं सतर्क रहती हूं इसलिए मन में कोरोना का भय नहीं है. कुछ लोगों के मन में कोरोना का डर इस कदर भर चुका है कि सामान्य खांसी होने पर भी सोच रहे हैं कहीं कोरोना तो नहीं हो गया. नकारात्मक बातें मुश्किल घड़ी में इंसान को परेशान कर देती हैं. इस समय हमारा एक ही मंत्र होना चाहिए नकारात्मकता आउट, सकारात्मकता इन.

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कोरोना की वजह से लक्ष्मी की दिनचर्या में कोई खास बदलाव नहीं आया. पहले की तरह सुबह योग करती हैं. फिर नहा कर नाश्ता और फिर ऑफिस के लिए रवाना. श्याम को घर आकर साफ सफाई और अपने लिए डिनर बनाती हैं.

पंखुड़ी परिवार पास होता तो अच्छा था 

अब बात करते हैं पंखुड़ी की. पंखुड़ी एक पीआर प्रोफेशनल हैं. भोपाल, मध्यप्रदेश की रहने वाली हैं. परिवार भोपाल में ही रहता है. पंखुड़ी दिल्ली के सुखदेव विहार में रहती हैं. पंखुड़ी के लिए सबसे बड़ा डर यही है कि इस समय वे परिवार से दूर हैं. जिस तेजी से कोरोना मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है और लॉकडाउन आगे बढ़ा दिया गया है. ऐसे में अगर चीज़ें समय रहते ठीक न हुईं और महामारी ज्यादा फैल जाए तो वे अकेली क्या करेंगी.

लॉकडाउन की घोषणा होने से कुछ समय पहले ही पंखुड़ी महीने डेढ़ महीने का राशन ला चुकी थी. लॉकडाउन के बाद मन में यह ख्याल जरूर आया कि अगर थोड़ा और राशन ले आती तो ठीक रहता.

पंखुड़ी कहती हैं लॉकडाउन से पहले भी मैं अकेले रहती थी लेकिन अब वर्क फ्रॉम होम कर रही हूं. कोशिश करती हूं कि किसी न किसी काम में खुद को व्यस्त रखूं. ऑफिस वर्क के अलावा घर की साफ-सफाई. कुछ शौक जो लंबे समय से पूरे नहीं हो पा रहे थे वो पूरे कर रही हूं जैसे – ड्रॉईंग, कुकिंग, रीडिंग. बाहर बहुत कम निकलती हूं बस दूध सब्जी फल लेने. वह भी ज्यादा ले आती हूं ताकि 2-3 दिन फिर बाहर न निकलूं.

पंखुड़ी को लगता है कि इस समय अगर वे परिवार के साथ होती तो उन्हें इतनी चिंता न होती. जैसे-जैसे समय बीत रहा है वैसे-वैसे पंखुड़ी को परिवार की याद आ रही है. पंखुड़ी बताती हैं कि लॉकडाउन के पहले सप्ताह तक तो फिर भी सब ठीक रहा लेकिन अब महसूस कर रही हूं कि मन बहुत उदास हो गया है. भीतर से बेवजह की खीज, चिड़चिड़ापन, अकेलापन महसूस हो रहा है.

कोरोना की अपडेट व देश दुनिया का हाल जानने के लिए पंखुड़ी समाचार सुनती हैं. कोरोना मरीज़ों की बढ़ती संख्या पंखुड़ी को डराती है. लेकिन यही डर पंखुड़ी को सीख भी दे रहा है कि कोरोना से बचना है तो घर पर रहो. यही एक मात्र उपाय है.

पंखुड़ी फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप, ट्वीटर पर एक्टिव रहती हैं. फोन पर परिवार व दोस्तों से बातें करती हैं. पंखुड़ी बताती हैं कि लॉकडाउन के बाद से मेरी दिनचर्या में बहुत बदलाव आ गया है. जैसे अब रोज दिन की शुरुआत योग से होती है. फिर नहाकर नाश्ता बनाती हूं. लंच और डिनर भी कर रही हूं जोकि पहले मेरा ज्यादातर छूट जाता था. अब खाने का एक निश्चित समय तय हो गया है जोकि सेहत के लिए बहुत जरूरी था. श्याम को मैं घर के अंदर, बालकोनी या छत पर टहलती हूं. अपनी इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए रोज हल्दी वाला दूध पीती हूं.

पूजा मेहरोत्रा मजबूत हूं जागरूक हूं सतर्क हूं

अब मिलाती हूं एक मजबूत, जागरुक लड़की पूजा मेहरोत्रा से. पूजा पत्रकार हैं द प्रिंट में काम करती हैं और फिलहाल एक महीने से घर से ही काम कर रही हैं. पूजा बिहार की रहने वाली हैं. लगभग बीस साल से दिल्ली में अकेली रह रही हैं. पूजा सिंगल हैं इसलिए अपना ख्याल खुद रखना जानती हैं.

कोरोना वायरस के भय के बीच पूजा की सबसे बड़ी चिंता अपने माता-पिता को लेकर है. दोनों बिहार में हैं और बुर्जुग हैं. बढ़ती उम्र की कई तकलीफें भी फेस कर रहे हैं. पूजा के लिए उसके माता-पिता का ठीक रहना बहुत जरूरी है. इसलिए वे उन्हें फोन पर बताती रहती हैं कि आजकल उन्हें कैसे रहना है. कैसा खानपान और साफ सफाई का ख्याल रखना है. किस प्रकार बार-बार हाथ धोना है. सेनेटाइज़र कैसे यूज़ करना है.

खुद पूजा की तैयारी कैसी है? मैं सारे प्रिकॉशन्स ले रही हूं. काफी पहले से ही मास्क लगाकर घर से निकलती थी. दुनिया में जब कोरोना फैल रहा था तभी से इस बात को लेकर अवेयर थी कि अगर भारत में यह संक्रमण फैलता है तो हमें क्या सावधानी बरतनी होंगी. मैंने अपनी कामवाली बाई को भी पहले ही कोरोना और उसके परिणामों के बारे में बता दिया था. मेरा घर पूरी तरह सैनेटाइज़ है.

बेशक पूजा कई सालों से अकेली रह रही हैं लेकिन क्या इस समय परिवार को मिस कर रही हैं? पूजा कहती हैं, परिवार का साथ होना हमेशा सपोर्ट देता है. अगर फैमली साथ होती तो एक दूसरे की केयर कर पाते. मुझे अपने माता-पिता की इतनी चिंता नहीं होती जितनी अब दूर रहकर हो रही है. जिंदगी थोड़ा आसान हो जाती.

लॉकडाउन की वजह से क्या पूजा ने भी अपना राशन घर पर रख दिया था? नहीं, बिल्कुल नहीं. बल्कि मैंने लोगों को समझाया कि बहुत ज्यादा राशन मत भरो. लॉकडाउन हो या कर्फ्यू जरूरी सामान की सप्लाई बंद नहीं होती. इसलिए मैंने उतना ही खरीदा जितने की जरूरत थी. दो सप्ताह से ज्यादा समय हो चुका है मुझे इस दौरान राशन फल सब्जी की कोई दिक्कत नहीं हुई. हां, क्योंकि मैं सिंगल हूं इसलिए कुछ जरूरी दवाएं डॉक्टर की सलाह पर मैंने रखी हैं ताकि जरूरत पड़ने पर दिक्कत न हो.

पूजा रोज योग व प्राणायाम करती हैं. काम के बीच में पांच-दस मिनट का ब्रेक लेती हैं. श्याम को थोड़ा टहलती हैं. पूजा बताती हैं कि जब बहुत ज्यादा कोरोना कोरोना हो जाता है तो मन दुखी होता है यह देखकर कि दुनिया में कितने लोग मर रहे हैं. समाज कहां जा रहा है? इतना होने के बाद भी कुछ लोग लॉकडाउन की गंभीरता को नहीं समझ रहे हैं तो बहुत गुस्सा भी आता है.

पूजा ने अपने घर की सफाई के साथ-साथ अपनी बिल्डिंग की सारी रेलिंग्स साफ कीं. स्विचबोर्ड साफ किए. रोज डिटॉल के पानी से दरवाजे के हैंडिल साफ करती हैं. पूजा बताती हैं कि इतना होने के बाद भी जब कुछ लोग डॉक्टर्स, नर्स, हेल्थ सेक्टर से जुड़ा स्टाफ, आशा वर्कर, आंगनवाणी, पुलिस स्टाफ को सहयोग नहीं करते तो बहुत दुख होता है.

शुचि सहाय सबसे पहले अपनी सुरक्षा

अब एक सिंगल मदर शुचि सहाय के बारे में बात करते हैं. शुचि जी की एक बेटी है जो अमरीका में पढ़ती हैं. यहां वे वैशाली गाजियाबाद में लंबे समय से अकेली रह रही हैं. शुचि मेडिकल ट्रांसक्रप्शन के क्षेत्र में क्वालिटी एनालिस्ट हैं. शुचि जी वर्क फ्रॉम होम ही करती रही हैं इसलिए लॉकडाउन का असर उनके काम पर नहीं पड़ा. लेकिन कोरोना की वजह से एक अनजान सा भय वे जरूर महसूस करती हैं. कोरोना का खतरा जैसे ही भारत पर मंडराया शुचि जी ने तय किया कि सबसे पहले उन्हें अपना ख्याल रखना है. खुद को सुरक्षित रखना है.

लॉकडाउन के दौरान के लिए उनकी तैयारी कैसी थी? इस पर वे बताती हैं कि बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन थोड़ी बहुत तैयारी मैंने भी की. महीने डेढ़ महीने का सामान मैंने भी घर पर लाकर रखा.

वैसे तो शुचि जी लंबे समय से अकेली ही रहती हैं लेकिन मानती हैं कि इस संकट काल में अगर परिवार साथ होता तो समय कैसे कट जाता है पता नहीं चलता.

देश-दुनिया में कोरोना मरीज़ों की बढ़ती संख्या शुचि जी को भी डराती है. वे कहती हैं- जब अमेरिका की बिगड़ती स्थिति देखती हूं तो बहुत डर लगता है मेरी बेटी वहां पर है. रोज उससे फोन पर बात करती हूं. कभी विडियो कॉल करती हूं. हिदायतें भी देती हूं. जब वो बताती है कि वो घर पर सुरक्षित है. बाहर नहीं निकलती, उसने राशन रखा हुआ है. इम्यूनिटी का ख्याल रखते हुए डाइट ले रही है तो मन को तसल्ली होती है.

शुचि बताती हैं कि इस समय एक नागरिक होने के नाते मेरा यह फर्ज है कि जो भी सरकार की ओर से, मीडिया के माध्यम से. डॉक्टरों द्वारा दी जा रही सेहत संबंधी सलाह हैं उनको माना जाए. शुचि जी सफाई का खास ख्याल रखती हैं. वैसे तो घर पर रहती हैं. अगर दूध सब्जी खरीदने बाजार जाना पड़े तो सामाजिक दूरी का ख्याल रखती हैं, मास्क पहनती हैं. वे मानती हैं कि अगर हर इंसान इन बातों का ख्याल रखे तो हम कोरोना को फैलने से रोक सकते हैं.

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शुचि के लिए लॉकडाउन का शुरुआती सप्ताह बहुत ज्यादा परेशान करने वाला था. बड़े-बड़े देशों की कोरोना की वजह से क्या हालात हो गई है. यह सब देखकर बहुत घबराहट होती थी. फिर शुचि ने तय किया कि इस विषय पर ज्यादा नहीं सोचना. घर पर रहो. ऑफिस का काम करो. अपनी नींद पूरी लो. अपनी डाइट सही रखो बस.

शुचि की दिनचर्या पहले की तरह योग व प्राणायाम से शुरु होती है. योग से उन्हें शारीरिक व मानसिक शांति मिलती है. पॉजिटिव एनर्जी मिलती है. फिर वे अपने रोज के काम करती हैं. श्याम को कुछ किताबें पढ़ती हैं. परिवार व दोस्तों से बातें करती हैं. सबसे महत्वपूर्ण वे सकारात्मक रहने की कोशिश करती हैं.

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