कुत्ते का पिल्ला पालने की बात चली तो दादाजी ने अपनी अप्रसन्नता व्यक्त की, ‘‘पालना ही है तो मिट्ठू पाल लो, मैना पाल लो, खरगोश पाल लो…और कोई सा भी जानवर पाल लो, लेकिन कुत्ता मत पालो.’’
घर की नई पीढ़ी ने घोषणा की, ‘‘नहीं, हम तो कुत्ता ही पालेंगे. अच्छी नस्ल का लाएंगे.’’
दादाजी ने दलील दी, ‘‘भले ही अच्छी नस्ल का हो…मगर होगा तो कुत्ता ही?’’
नई पीढ़ी ने प्रतिप्रश्न किया, ‘‘तो क्या हुआ? कुत्ते में क्या खराबी होती है? वह वफादार होता है. इसीलिए आजकल सभी लोग कुत्ता पालने लगे हैं.’’
दादाजी का मन हुआ कि कहें, ‘हां बेटा, अब गोपाल के बजाय सब श्वानपाल हो गए हैं.’ किंतु इस बात को उन्होंने होंठों से बाहर नहीं निकाला.
कुत्ते की अच्छाईबुराई के विवाद में भी वे नहीं पड़े. व्यावहारिक कठिनाइयां ही बताईं, ‘‘कुत्ते बड़े बंगलों में ही निभते हैं क्योंकि वहां कई कमरे होते हैं, लंबाचौड़ा लौन होता है, खुली जगह होती है. इसलिए वह बड़े मजे से घूमताफिरता है. इस छोटे फ्लैट में बेचारा घुट कर रह जाएगा.’’
नई पीढ़ी ने दलील दी, ‘‘अपने आसपास ही छोटेछोटे फ्लैटों में कई कुत्ते हैं. आप कहें तो नाम गिना दें?’’
दादाजी ने इनकार में हाथ हिलाते हुए दूसरी व्यावहारिक कठिनाई बताई, ‘‘वह घर में गंदगी करेगा, खानेपीने की चीजों में मुंह मारेगा. कहीं पागल हो गया तो घर भर को पेट में बड़ेबड़े 14 इंजैक्शन लगवाने पड़ेंगे.’’
नई पीढ़ी ने इन कठिनाइयों को भी व्यर्थ की आशंकाएं बताते हुए कहा, ‘‘अच्छी नस्ल के कुत्ते समझदार होते हैं. वे देसी कुत्तों जैसे गंदे नहीं होते. प्रशिक्षित करने पर विदेशी नस्ल के कुत्ते सब सीख जाते हैं. सावधानी बरतने पर उन के पागल होने का कोई खतरा नहीं रहता है.’’
दादाजी ने अपनी आदत के अनुसार हथियार डाल दिए. नई पीढ़ी से असहमत होने पर भी वे ज्यादा जिद नहीं करते थे. अपनी राय व्यक्त कर छुट्टी पा लेते थे. इसी नीति से वे कलह से बचे रहते थे. इस मामले में भी उन्होंने यह कह कर छुट्टी पा ली, ‘‘तुम जानो…मेरा काम तो सचेत करना भर है.’’
अलसेशियन पिल्ला घर में आया तो दादाजी ने उस में कोई विशेष रुचि नहीं ली. वे आश्चर्य से उसे देखते रहे. वह अस्पष्ट सी ध्वनि करता हुआ उन के पैर चाटते हुए दुम हिलाने लगा, तब भी वे उस से दूरदूर ही रहे. उन्होंने उसे न उठाया, न सहलाया. हालांकि उस छोटे से मनभावन पिल्ले का पैरों को चाटना व दुम हिलाना उन्हें अच्छा लगा.
नई पीढ़ी ने खेलखेल में कई बार उस पिल्ले को दादाजी की गोद तथा हाथों में रख दिया, तब न चाहते हुए भी उन्हें उस पिल्ले के स्पर्श को सहना पड़ा. यह स्पर्श उन्हें अच्छा लगा. नरमनरम बाल, मांसल शरीर, बालसुलभ चंचलता आदि ने उन के मन को मोहा. घर में कोई छोटा बच्चा न होने से ऐसा स्पर्श सुख उन्हें अपवाद-स्वरूप ही मिलता था. इस पिल्ले के स्पर्श ने उसी सुख की अनुभूति उन्हें करा दी. फिर भी वे पिल्ले को अपने से परे हटाने का नाटक करते रहे. इसलिए नई पीढ़ी को नया खेल मिल गया. वे जब देखो तब दादाजी के पास उस पिल्ले को छोड़ने लगे. दादाजी का उस से कतराना एवं परे हटाने का प्रयास उन्हें प्रसन्नता से भर देता.
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नई पीढ़ी ने अपने चहेते पिल्ले का नाम रखा, सीजर.
दादाजी ने इस नाम का भारतीयकरण कर दिया, सीजरिया.
नई पीढ़ी ने शिकायत की, ‘‘दादाजी, सीजर का नाम मत बिगाडि़ए.’’
दादाजी ने सफाई दी, ‘‘मैं ने तो उसे भारतीय बना दिया.’’
‘‘यह भारतीय नहीं है…अलसेशियन है.’’
‘‘नस्ल भले ही विदेशी हो…मगर है तो यहीं की पैदाइश. इसलिए नाम इस देश के अनुकूल ही रखना चाहिए.’’
‘‘नहीं, इस का नाम सीजर ही रहेगा.’’
‘‘लेकिन हम तो इसे सीजरिया ही कहेंगे.’’
दादाजी को इस छेड़छाड़ में मजा आने लगा. नई पीढ़ी से बदला लेने का उन्हें अच्छा मौका मिल गया. वे लोग सीजर को उन के पास धकेल कर खुश होते रहते थे. दादाजी ने सीजर के नाम को ले कर जवाबी हमला कर दिया. इस हमले के दौरान वे सीजर को अपने दिए नाम से संबोधित करकर के अपने पास बुलाने लगे.
‘सीजरिया’ संबोधित करने पर भी पिल्ला जब ललक कर उन के पास आने लगा तो वे नई पीढ़ी को चिढ़ाने लगे, ‘‘देखा, सीजरिया को यह नाम पसंद है.’’
आएदिन की इस छेड़छाड़ ने दादाजी का सीजर से संपर्क बढ़ा दिया. अब वे उसे अपनी बांहों में भरने लगे, उठाने लगे, सहलाने लगे. नई पीढ़ी की अनुपस्थिति में भी वे उस से खेलने लगे. पलंग पर अपने पास लिटाने लगे. उस की चेष्टाओं पर प्रसन्न होने लगे. उस के स्पर्श से गुदगुदी सी अनुभव करने लगे.
एक दिन घर के लोगों ने दादाजी से प्रश्न किया, ‘‘आप तो इस के खिलाफ थे?’’
‘‘हां, था तो…मगर इस खड़े कान वाले ने मेरे मन में जगह बना ली है,’’ दादाजी ने मुसकराते हुए उत्तर दिया.
सीजर के लिए दादाजी का स्नेह दिनोदिन बढ़ता ही गया क्योंकि अपने खाली समय को भरने का उन्हें यह अच्छा साधन लगा. जब सीजर इस घर में नहीं आया था तब वे खाली समय बातों में, पढ़ने में, टीवी देखने में तथा ऐसे ही अन्य कामों में व्यतीत किया करते थे. बातों के लिए घर के लोग हमेशा सुलभ नहीं रहते थे क्योंकि दिन के समय सभी छोटेबड़े अपनेअपने काम से घर से बाहर चले जाते थे. कोई स्कूल जाता था तो कोई कालेज, कोई बाजार जाता था तो किसी को दफ्तर जाना होता था. खासी भागमभाग मची रहती थी. घर में रहने पर सभी की अपनीअपनी व्यस्तताएं थीं, इसीलिए दादाजी से बातें करने का अवकाश वे कम ही पाते थे.
लेदे कर घर में बस, दादीजी ही थीं, जो दादाजी के लिए थोड़ा समय निकालती थीं. किंतु उन के पास अपनी बीमारी और घर के रोनों के सिवा और कोई बात थी ही नहीं. आसपास भी कोई ऐसा बतरस प्रेमी नहीं था, इसलिए दादाजी बातें करने को तरसते ही रहते थे. कोई मेहमान आ जाता था तो उन की बाछें खिल उठती थीं.
पढ़ने और टीवी देखने में दादाजी की आंखों पर जोर पड़ता था. इसलिए वे अधिक समय तक न तो पढ़ पाते थे, न ही टीवी देख पाते थे. दैनिक समाचारपत्र को ही वे पूरे दिन में किस्तों में पढ़ पाते थे. घर की नई पीढ़ी उन के इस वाचन का मजा लेती रहती थी. सुबह के बाद किसी को यदि अखबार की आवश्यकता होती तो वह मुसकराते हुए दादाजी से पूछता, ‘‘पेपर ले जाऊं दादाजी, आप का वाचन हो गया?’’
सीजर ने उन के इस खाली समय को भरने में बड़ा योगदान दिया. वह जब देखो तब दौड़दौड़ कर उन के पास आने लगा, उन के आसपास मंडराने लगा. दादाजी उसे उठाने और सहलाने लगे तो उस का आवागमन उन के पास और भी बढ़ गया. घर के दूसरे लोगों को उसे पुकारना पड़ता था, तब कहीं वह उन के पास जाता था. दादाजी के पास वह बिना बुलाए ही चला आता था. घर के लोग शिकायत करने लगे, ‘‘दादाजी, आप ने सीजर पर जादू कर दिया है.’’
सीजर जब इस घर में नयानया आया था तब उस का स्पर्श हो जाने पर दादाजी हाथ धोते थे. खानेपीने से पहले तो वे साबुन से हाथ धोए बिना किसी वस्तु को छूते नहीं थे. वही दादाजी अब सारासारा दिन सीजर के स्पर्श में आने लगे. किंतु हाथ धोने की सुध उन्हें अब न रहती. खानेपीने की वस्तुएं उठाते समय भी साबुन से हाथ धोना वे कई बार भूल जाते थे. नई पीढ़ी कटाक्ष करने लगी, ‘‘दादाजी, गंदे हाथ.’’
दादाजी उत्तर देने लगे, ‘‘तुम ने ही भ्रष्ट किया है.’’
सीजर के प्रति यों उदार हो जाने के बावजूद यह भ्रष्ट किए जाने वाली बात दादाजी को फांस की तरह चुभती रहती थी. यह शिकायत उन्हें शुरू से ही बनी हुई थी. सीजर का सारे घर में निर्बाध घूमना, यहांवहां हर चीज में मुंह मारना उन्हें खलता रहता था. रसोईघर में उस का प्रवेश तथा भोजन करते समय उस का स्पर्श वे सहन नहीं कर पाते थे. इसलिए कई बार उन्हें नई पीढ़ी को झिड़कना पड़ा था, ‘‘कुछ तो ध्यान रखा करो…अपने संस्कारों का कुछ तो खयाल करो.’’
इस शिकायत के होते हुए भी सीजर का जन्मदिन जब मनाया गया तो दादाजी ने भी घर भर के स्वर में स्वर मिलाया, ‘‘हैप्पी बर्थ डे टू यू…’’
सीजर के अगले पंजे से छुरी सटा कर जन्मदिन का केक काटने की रस्म अदा कराई गई तो दादाजी ने भी दूसरों के साथ तालियां बजाईं.
केक का प्रसाद भी दादाजी ने लिया. सीजर के साथ फोटो भी उन्होंने सहर्ष खिंचवाई.
देखते ही देखते जरा से पिल्ले के बजाय सीजर जब ऊंचा, पूरे डीलडौल वाला बनता गया. दादाजी भी घर भर की तरह प्रसन्न हुए. उस में आए इस बदलाव पर वे भी चकित हुए. वह पांवों में लोटने के बजाय अब कंधों पर दोनों पैर उठा कर गले मिलने जैसा कृत्य करने लगा तो दादाजी भी गद्गद कंठ से उसे झिड़कने लगे, ‘‘बस भैया, बस.’’
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यों प्रेम दर्शाते हुए सीजर जब मुंह चाटने को बावला होने लगा तो दादाजी को पिंड छुड़ाना मुश्किल होने लगा. फिर भी उन्होंने उसे पीटा नहीं. हाथ उठा कर पीटने का स्वांग करते हुए वे उसे डराते रहे.
आसपास के बच्चे पत्थर फेंकफेंक कर या और कोई शरारत कर के सीजर को चिढ़ाने की कुचेष्टा करते तो दादाजी फौरन दौड़े जाते थे और उन शरारती बच्चों को झिड़कते थे, ‘‘क्यों रे, उस से शरारत करोगे तो वह मजा चखा देगा…भाग जाओ.’’
रात को जब कभी भी सीजर भूंकता था तो वे फौरन देखते थे कि क्या मामला है. उन से उठते बनता नहीं था, फिर भी वे उठ कर जाते थे. घर भर के लोग उन की इस तत्परता पर मुसकराते तो वे जवाब देते, ‘‘सीजर अकारण नहीं भूंकता है.’’
एक बार 10-12 दिन के लिए दादाजी को दूसरे शहर जाना पड़ा. वे जब लौटे तो बरामदे में ही सीजर उन से लिपट गया. दादाजी उस के सिर को सहलाते हुए बुदबुदाते रहे, ‘बस बेटा, बस…इतना प्रेम अच्छा नहीं है.’
दादाजी की नींद बड़ी नाजुक थी. संकरी जगह में उन्हें नींद नहीं आती थी. किसी अन्य का स्पर्श हो जाने से भी उन की नींद उचट जाती थी. किंतु सीजर ने उन की इन असुविधाओं की कतई परवा नहीं की. वह दादाजी से सट कर या उन के पैरों के पास सोता रहा. दादाजी उसे सहन करते रहे. टांगें समेटते हुए कहते रहे, ‘‘तू जबरदस्त निकला.’’
एक बार सीजर घर से गायब हो गया. पड़ोसियों से पता लगा कि वह घर के सामने की मेहंदी की बाड़ को फलांग कर भागा है. एक बार इस बाड़ में उलझा, फिर दोबारा कोशिश करने पर निकल पाया. बाहर निकल कर गली की कुतिया के पीछे लगा था.
इस जानकारी के प्राप्त होते ही इस घर की नई पीढ़ी सीजर को ढूंढ़ने निकल पड़ी. सभी का यही खयाल था कि वह आसपास ही कहीं मिल जाएगा.
दादाजी भी अपनी लाठी टेकते हुए सीजर को ढूंढ़ने निकले. दादीजी ने टोका, ‘‘तुम क्यों जा रहे हो? सभी लोग उसे ढूंढ़ तो रहे हैं?’’
मगर दादाजी न माने. वे गलीगली में भटकते हुए परिचितअपरिचित से पूछने लगे, ‘‘हमारे सीजर को देखा? अलसेशियन है, लंबा…पूरा…बादामी, काला और सफेद मिलाजुला रंग है. कान उस के खड़े रहते हैं.’’
उन की सांस फूलती रही और वे लोगों से पूछते रहे, ‘‘हमारे सीजर को तो आप पहचानते ही होंगे? उसे बाहर घुमाने हम लाते थे. वह लोगों को देखते ही लपकता था. चेन खींचखींच कर हम उसे काबू में रखते थे. उस ने किसी को काटा नहीं, वह बस लपकता था.’’
काफी भटकने के बाद भी न तो नई पीढ़ी को और न ही दादाजी को सीजर का पता लगा. सारा दिन निकल गया, रात हो गई, किंतु सीजर लौट कर न आया.
सभी को आश्चर्य हुआ कि वह कहां चला गया. गली की कुतिया के पास भी नहीं मिला. इस महल्ले के सारे रास्ते उस के देखेभाले थे, वह रास्ता भी नहीं भूल सकता था. किसी के रोके वह रुकने वाला नहीं था.
दादाजी ने आशंका व्यक्त की, ‘‘किसी ने बांध लिया होगा…बेचारा कैसे आएगा?’’
नई पीढ़ी ने इस आशंका को व्यर्थ माना, ‘‘उसे बांधना सहज नहीं है. वह बांधने वालों का हुलिया बिगाड़ देगा.’’
‘‘दोचार ने मिल कर बांधा होगा तो वह बेचारा क्या करेगा, असहाय हो जाएगा,’’ दादाजी ने हताश स्वर में कहा.
नई पीढ़ी ने उन की इस चिंता पर भी ध्यान न दिया तो वे बोले, ‘‘नगर निगम वालों ने कहीं न पकड़ लिया हो?’’
दादाजी के पुत्र झल्लाए, ‘‘कैसे पकड़ लेंगे…उस के गले में लाइसैंस का पट्टा है.’’
‘‘फिर भी देख आने में क्या हर्ज है?’’ दादाजी ने झल्लाहट की परवा न करते हुए सलाह दी.
पुत्र ने सहज स्वर में उत्तर दिया, ‘‘देख लेंगे.’’
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दूसरे रोज भी दिन भर सीजर की तलाश होती रही. नई पीढ़ी ने दूरदूर तक उसे खोजा मगर उस का कहीं पता न लगा. वह जैसे जमीन में समा गया था. दादाजी सड़क की ओर आंखें लगाए बाहर बरामदे में ही डटे रहे. हर आहट पर उन्हें यही लगता रहा कि सीजर अब आया, तब आया.
दिन ढलने तक भी सीजर का जब कोई पता नहीं लगा तो दादाजी ने आदेश दिया, ‘‘जाओ, समाचारपत्रों में चित्र सहित इश्तहार निकलवाओ. लिखो कि सीजर को लाने वाले को 100…नहीं, 200 रुपए इनाम देंगे.’’
नई पीढ़ी भी इश्तहार निकलवाने का विचार कर रही थी. किंतु वे लोग यह सोच रहे थे कि एक दिन और रुक जाएं. किंतु दादाजी तकाजे पर तकाजे करने लगे, ‘‘जाओ, नहीं तो सुबह के अखबार में इश्तहार नहीं निकलेगा.’’
दादाजी का बड़ा पोता सीजर का चित्र ले कर चला तो उन्होंने मसौदा बना कर दिया. साफसाफ लिखा, ‘सीजर का पता देने वाले को या उसे लाने वाले को 200 रुपए इनाम में दिए जाएंगे.’
आधी रात के बाद बाहर के बड़े लोहे के फाटक पर ‘खरर…खरर’ की ध्वनि हुई तो बरामदे में सो रहे दादाजी ने चौंक कर पूछा, ‘‘कौन है?’’
कोई उत्तर नहीं मिला, तो उन्होंने फिर तकिए पर सिर टिका दिया. कुछ देर बाद फिर ‘खरर…खरर’ की आवाज आई. दादाजी ने फिर सिर ऊंचा कर पूछा, ‘‘कौन है?’’
इस बार खरर…खरर ध्वनि के साथ सीजर का चिरपरिचित स्वर हौले से गूंजा, ‘भू…भू…’
इस स्वर को दादाजी ने फौरन पहचान लिया. वे खुशी में पलंग से उठने का प्रयास करते हुए गद्गद कंठ से बोले, ‘‘सीजरिया, बेटा आ गया तू.’’
गठिया के कारण वे फुरती से उठ नहीं पाए. घुटनों पर हाथ रखते हुए जैसेतैसे उठे. बाहर की बत्ती जलाई, बड़े गेट पर दोनों पंजे टिका कर खड़े सीजर पर नजर पड़ते ही वे बोले, ‘‘आ रहा हूं, बेटा.’’
बरामदे के दरवाजे का ताला खोलते- खोलते उन्होंने भीतर की ओर मुंह कर समाचार सुनाया, ‘‘सीजरिया आ गया… सुना, सीजरिया आ गया है.’’
घर भर के लोग बिस्तर छोड़छोड़ कर लपके. दादाजी ने बड़ा फाटक खोला, तब तक सभी बाहर आ गए. फाटक खुलते ही सीजर तीर की तरह भीतर आया. दुम हिलाते हुए वह सभी के कंधों पर अगले पंजे रखरख कर खड़ा होने लगा. कभी इस के पास तो कभी उस के पास जाने लगा. मुंह के पास अपना मुंह लाला कर दयनीय मुद्रा बनाने लगा. तरहतरह की अस्पष्ट सी ध्वनियां मुंह से निकालने लगा.
कीचड़ सने सीजर के बदन पर खून के धब्बे तथा जख्म देख कर सभी दुखी थे. दादाजी ने विगलित कंठ से कहा, ‘‘बड़ी दुर्दशा हुई सीजरिया की.’’
नई पीढ़ी ने सीजर को नहलायाधुलाया, उस के जख्मों की मरहमपट्टी की, खिलायापिलाया. दादाजी विलाप करते रहे, ‘‘नालायक को इन्फैक्शन न हो गया हो?’’
देर रात को सीजर आ कर दादाजी के पैरों में सोया तो वे उसे सहलाते हुए बोले, ‘‘बदमाश, बाड़ कूद कर चला गया था.’’
सुबह अखबार में सीजर की तसवीर आई. उस तसवीर को सीजर को दिखाते हुए दादाजी चहके, ‘‘देख, यह कौन है? पहचाना? बेटा, अखबार में फोटो आ गया है तेरा…बड़े ठाट हैं तेरे.’’