Short Story In Hindi : महावर की लीला

Short Story In Hindi : पुराने समय से भारतीय ललनाओं के सौंदर्य उपादानों में जो सोलह शृंगार प्रचलित हैं उन में महावर का खास महत्त्व है. कहावत है कि महावर लगे कोमल चरणों से सुंदरियां जब अशोक के वृक्ष पर चरणप्रहार करती थीं तब उस पर कलियां खिलने से वसंत का आगमन होता था. सौंदर्य उपादानों में महत्त्वपूर्ण ‘महावर’ नई पीढ़ी के लिए सिंधु घाटी की सभ्यता के समान अजायबघर की वस्तु बन गई है. सादा जीवन और उच्च विचार भारतीय संस्कृति की परंपरा समझी जाती थी परंतु आधुनिकता की अंधी दौड़ एवं पाश्चात्य संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम में वह परिभाषा कब बदल गई, मैं नहीं जानती.

आज ब्यूटीपार्लर में किया गया सौंदर्योपचार, नुची हुई तराशी भौंहें, वस्त्रों से मेल खाती अधरों की लिपिस्टिक व नेलपालिश, कटे लहराते बाल, जीन्सटौप या अन्य आधुनिक वस्त्राभूषण, नाभिकटिदर्शना साड़ी एवं पीठप्रदर्शना या सर्वांग प्रदर्शना ब्लाउज, वस्त्रों से मेल खाते पर्स एवं ऊंची एड़ी की चप्पलें, फर्राटे से अंगरेजी में वार्त्तालाप या बन कर बोलते हुए मातृभाषा हिंदी का टांगतोड़ प्रदर्शन अब सुशिक्षित, संभ्रांत स्त्री की परिभाषा बन गया है. भारतीय वेशभूषा बिंदी, चूड़ी, लंबी चोटी, जूड़ा, महावर, बिछुआ एवं सलीके से साड़ी पहनना आदि, जिन्हें कभी संभ्रांत घर की गृहिणी की गरिमा माना जाता था, अब अपनी ऊंचाई से गिर कर अशिक्षा एवं निम्न वर्ग तथा निम्न स्तर का पर्याय समझे जाने लगे हैं. ऐसी भारतीय वेशभूषा में सज्जित युवतियां ‘बहिनजी’ कहला कर उपहास की पात्र बन जाती हैं. उस पर हिंदी में बातचीत करना, यह तो आधुनिक समाज में ठेठ देहातीपन की निशानी है.

मुझे इस बदलाव का प्रत्यक्ष अनुभव तब हुआ जब नवंबर में दिल्ली में ‘एस्कोर्ट्स हार्ट सेंटर’ में एंजियोग्राफी के लिए भरती होना पड़ा. उस के पहले ही मैं दीवाली मनाने अपनी सास के पास गांव मानीकोठी गई थी. गांव की परंपरा के अनुसार त्योहार पर जब सब सुहागिनें महावर लगवा रही थीं तो मुझे भी बुलाया गया. मन ही मन मैं आशंकित थी कि अस्पताल जाने के पहले महावर लगवाऊं या नहीं. अपनी सास की इच्छा का आदर करने के लिए मैं ने महावर लगवा लिया. एंजियोग्राफी से पहले अस्पताल का ही पायजामा एवं गाउन पहनना पड़ा. मैं ने बाल खोल कर केवल चोटी बना ली एवं मेकअप करने की आवश्यकता नहीं समझी. जब मैं मेज पर लेटी थी तो वहां का डाक्टर मेरे पैरों में लगे महावर को देख कर चौंक पड़ा. पैरों के समीप पहुंच कर उस ने रंग को छू कर देखा. उंगलियों से कुरेद कर बोला, ‘‘यह क्या लगा है?’’

‘‘महावर है,’’ मैं ने कहा. ‘‘क्यों लगाया है?’’ उस ने प्रश्न किया.

‘‘मेरी सास गांव में रहती हैं. दीवाली पर उन के आग्रह पर मैं ने लगवाया था.’’ पैरों में लगा महावर, सर में चोटी, मेकअपविहीन चेहरा और हिंदी में मेरा बातचीत करना…अब क्या कहूं, उक्त डाक्टर को मैं नितांत अशिक्षित गंवार महिला प्रतीत हुई. क्षणभर में ही उस का मेरे प्रति व्यवहार बदल गया.

‘‘माई, कहां से आई हो?’’ मैं ने चौंक कर इधरउधर देखा… यह संबोधन मेरे लिए ही था.

‘‘माई, सीधी लेटी रहो. तुम कहां से आई हो?’’ मेरे पैरों को उंगली से कुरेदते हुए उस ने दोबारा प्रश्न किया. अनमने स्वर से मैं ने उत्तर दिया, ‘‘लखनऊ से.’’

‘‘माई, लखनऊ तो गांव नहीं है,’’ वह पुन: बोला. ‘‘जी हां, लखनऊ गांव नहीं है, पर मेरी सास गांव में रहती हैं,’’ मैं ने डाक्टर को बताया.

कहना न होगा कि पैरों में महावर लगाना, बाल कटे न रखना, मेकअप न करना और मातृभाषा के प्रति प्रेम के कारण हिंदी में वार्त्तालाप करना उस दिन उस अंगरेजीपसंद डाक्टर के सामने मुझे अशिक्षित एवं ठेठ गंवार महिला की श्रेणी में पेश कर गया, जिस का दुष्परिणाम यह हुआ कि डाक्टर ने मुझे इतना जाहिल, गंवार मान लिया कि मुझे मेरी रिपोर्ट बताने के योग्य भी नहीं समझा. कुछ साल पहले भी मुझे एक बार एस्कोर्ट्स में ही एंजियोग्राफी करानी पड़ी थी पर तब के वातावरण एवं व्यवहार में आज से धरतीआकाश का अंतर था.

अगले दिन जब मैं अपनी रिपोर्ट लेने गई तो कायदे से साड़ी पहने और लिपिस्टिक आदि से सजी हुई थी. डाक्टर साहब व्यस्त थे, अत: मैं पास की मेज पर रखा अंगरेजी का अखबार पढ़ने लगी. जब डाक्टर ने मुझे बुलाने के लिए मेरी ओर दृष्टि उठाई तो मेरे हाथ में अखबार देख कर उन का चौंकना मेरी नजरों से छिपा नहीं रहा. उन्होंने ध्यान से मेरी ओर देखा और बोले, ‘‘यस, प्लीज.’’ ‘‘मेरी एंजियोग्राफी कल हुई थी, मेरी रिपोर्ट अभी तक नहीं मिली है,’’ मैं ने भी अंगरेजी में उन से प्रश्न किया.

आश्वस्त होने के लिए मेरे पेपर्स को डाक्टर ने एक बार फिर ध्यान से देखा और प्रश्न किया, ‘‘क्या नाम है आप का?’’ ‘‘नीरजा द्विवेदी,’’ उत्तर देने पर उन्होंने पुन: प्रश्न किया, ‘‘आप कहां से आई हैं?’’

डाक्टर ने इस बार ‘माई’ का संबोधन इस्तेमाल न करते हुए मुझे ‘मैडम’ कहते हुए न सिर्फ रिपोर्ट मुझे सौंप दी बल्कि निकटता बढ़ाते हुए रिपोर्ट की बारीकियां बड़े मनोयोग से समझाईं. अब मैं इसी ऊहापोह में हूं कि ‘महावर’ से ‘माई’ कहलाने में भलाई है या लिपिस्टिक और नेलपालिश से ‘मैडम’ कहलाने में.

Hindi Story : जिंदगी के मीठे खट्टे पलों का दस्तावेज

Hindi Story : मेरी रफ कौपी मेरे हाथ में है, सोच रही हूं कि क्या लिखूं? काफीकुछ उलटापुलटा लिख कर काट चुकी हूं. रफ कौपी का यही हश्र होता है. कहीं भी कुछ भी लिख लो, कितनी ही काटापीटी मचा लो, मुखपृष्ठ से ले कर आखिरी पन्ने तक, कितने ही कार्टून बना लो, कितनी ही बदसूरत कर लो, खूबसूरत तो यह है ही नहीं और खूबसूरत इसे रहने दिया भी नहीं जाता. इस पर कभी कवर चढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ती. इस कौपी का यह हाल क्यों कर रखा है, कोई यह पूछने की जुर्रत नहीं करता. अरे, रफ कौपी है, रफ. इस से बेहतर इस का और क्या हाल हो सकता है.

यह बदसूरत इसलिए कि कई बार पुरानी आधीभरी कौपियों के पीछे के खाली पृष्ठ काट कर स्टैप्लर से पिन लगा कर एक नई कौपी बना ली जाती है. रफ कौपी में खाली पृष्ठों का उपयोग हो जाता है. इसे कोई सौंदर्य प्रतियोगिता में रखना नहीं होता है. रफ है, रफ ही रहेगी.

इस में खिंची आड़ीतिरछी रेखाएं, ऊलजलूल बातें, तुकबंदियां, चुटकुले, मुहावरे, डाक्टर के नुसखे, कहानीकिस्से, मोबाइल नंबर, कोई खास बात, टाइम टेबल, किसी का जन्मदिन, मरणदिन, धोबी का हिसाब, किराने का सामान, कहीं जानेमिलने की तारीख, किसी का उधार लेनादेना, ये सारी बातें इसे बदसूरत बनाती हैं.

दरअसल, इन बातों के लिखने का कोई सिलसिला नहीं होता है. जब जहां चाहा, जो चाहा, टीप दिया. कुछ समझ में नहीं आया तो काट दिया या पेज ही फाड़ कर फेंक दिया. पेज न फाड़ा जाए, ऐसी कोई रोकटोक नहीं है.

भर जाने पर फिर से एक नई या जुगाड़ कर बनाई गई रफ कौपी हाथ में ले ली जाती है. भर जाने पर टेबल से हटा कर रद्दी के हवाले या फिर इस के पृष्ठ, रूमाल न मिलने पर, छोटे बच्चों की नाक व हाथ पोंछने के काम भी आते हैं. हां, कभीकभी किसी आवश्यक बात के लिए रद्दी में से टटोल कर निकाली भी जाती है रफ कौपी. ऐसा किसी गंभीर अवस्था में होता है. वरना रफ कौपी में याद रखने लायक कुछ खास नहीं होता.

आदत तो यहां तक खराब है कि जो भी कागज खाली मिला उसी पर कुछ न कुछ टीप दिया. इसे हम डायरी की श्रेणी में नहीं रख सकते, क्योंकि डायरी गोपनीय होती है और उसे छिपा कर रखा जाता है. उस का काम भी गोपनीय होता है. इसी से बहुत बार व्यक्ति के मरने के बाद डायरी ही उस व्यक्ति के गोपनीय रहस्य उजागर करती है.

रफ कौपी में यह बात नहीं है. एकदम सड़कछाप की तरह टेबल पर पड़ी रहती है, जिस का जब मन चाहे उस पर लिख कर चला जाता है. सच बात बता दूं, यह रफ कौपी मेरे लिए बड़ी सहायक रही है. मैं ने अपने हस्ताक्षर इसी पर काटापीटी कर बनाने का अभ्यास किया. बहुत सी कविताएं इसी पर लिखीं, तुकबंदी भी की. विशेषपत्रों की ड्राफ्ंिटग भी इसी पर की. विशेष सूचनाएं व पते भी इसी पर लिखे. पत्रपत्रिकाओं के पते व ईमेल आज भी यहांवहां लिखे मिल सकते हैं.

यह तो मेरी अब की रफ कौपी है. पहली रफ कौपी सही तरीके से हाईस्कूल में हाथ में आई. तब टीचर कक्षा का प्रतिदिन का होमवर्क रफ कौपी में ही नोट कराती थीं. पहले छात्रों के पास डायरी नहीं होती थी, वे रफ कौपी में नोट्स बनवातीं. ब्लैकबोर्ड पर जो लिखतीं उसे रफ कौपी में उतारने का आदेश देतीं. उस समय रफ कौपी क्या हाथ लगी, कमाल ही हो गया. पीछे की पंक्ति में बैठी छात्राएं टीचर का कार्टून बनातीं. कौपी एक टेबल से दूसरी टेबल पर गुजरती पूरी कक्षा में घूम आती और छात्राएं मुंह पर दुपट्टा रख कर मुसकरातीं.

टीचर की शान में जुगलबंदी भी हो जाती. आपस में कमैंट्स भी पास हो जाते. कहीं जाने या क्लास बंक करने का कार्यक्रम भी इसी पर बनता. कई बार कागज फाड़ कर तितली या हवाई जहाज बना कर हम सब खूब उड़ाते. कभी टीचर की पकड़ में आ जाते, कभी नहीं.

थोड़ा और आगे बढ़े तो रफ कौपी रोमियो बन गई. मन की प्यारभरी भाषा को इसी ने सहारा दिया. शेरोशायरी इसी पर दर्ज होती, कभी स्वयं ईजाद करते, तो कभी कहीं से उतारते. प्रथम प्रेमपत्र की भाषा को इसी ने सजाना सिखाया. इसी का प्रथम पृष्ठ प्रेमपत्र बना जब कुछ लाइनें लिख कर कागज का छोटा सा पुर्जा किताब में रख कर खिसका दिया गया.

इशारोंइशारों में बातें करना इसी ने समझाया. ऐसेऐसे कोडवर्ड इस में लिखे गए जिन का संदर्भ बाद में स्वयं ही भूल गए. लिखनाकाटना 2 काम थे. उस की भाषा वही समझ सकता था जिस की कौपी होती थी. सहेलियों के प्रेमप्रसंग, कटाक्ष और जाने क्याक्या होता. फिल्मी गानों की पंक्तियां भी यहीं दर्ज होतीं.

जीवन आगे खिसकता रहा. रफ कौपी भी समयानुसार करवट लेती रही, लेकिन उस का कलेवर नहीं बदला. पति के देर से घर लौटने तथा उन की नाइंसाफी की साक्षी भी यही कौपी बनी.

रफ कौपी आज भी टेबल पर पड़ी है और यह लेख भी मैं उसी की नजर कर उसी पर लिख रही हूं. आप को भी कुछ लिखना है, लिख सकते हैं. रफ कौपी रफ है न, इसीलिए रफ बातें लिख रही हूं. शायद आप रफ या बकवास समझ कर इसे पढ़ें ही न. क्या फर्क पड़ता है. रफ कौपी के कुछ और पृष्ठ बेकार हो गए. रफ कौपी रक्तजीव की तरह मरमर कर जिंदा होती रहती है. फिर भी एक बात तो है कि भले ही किताबों पर धूल की परत जम जाए पर रफ कौपी सदा सदाबहार रहती है.

हां, उस दिन जरूर धक्का लगा था जब पड़ोसिन कह गई थी कि वह रफ कौपी का इस्तेमाल कभी नहीं करती क्योंकि उसे हमेशा लगता कि वह खुद रफ कौपी है. उस के मातापिता बचपन में मर गए थे और मामामामी ने उसे पाला था. पढ़ायालिखाया जरूर था पर उस का इस्तेमाल घर में मामामामी, ममेरे भाईबहन रफ कौपी की तरह करते – ‘चिन्नी, पानी ला दे,’ ‘चिन्नी, मेरा होमवर्क कर दे,’ ‘चिन्नी, मेरी फ्रौक पहन जा,’ ‘चिन्नी, मेरे बौयफ्रैंड कल आए तो मां से कह देना कि तेरा क्लासफैलो है क्योंकि तू तो बीएड कालेज में है, मैं रैजीडेंशल स्कूल में.’ उस ने बताया कि वह सिर्फ रफ कौपी रही जब तक नौकरी नहीं लगी और उस ने प्रेमविवाह नहीं किया.

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