कोविड के दौरान आई समस्या के बारें में बता रही है सोशल वर्कर डॉ. गीतांजलि चोपड़ा

अगर आपमें कुछ करने की इच्छा हो, तो परिस्थियाँ सही न होने पर भी आप उसे कर गुजरते है, कुछ ऐसा ही काम करती है दिल्ली की डॉ. गीतांजलि चोपड़ा, जो अकादमी सदस्य, रिसर्चर, कोलोमनिस्ट और फिलान्थ्रोपिस्ट है. उनकी संस्था ‘विशेज एंड ब्लेसिंग्स’ के द्वारा जरुरत मंदों के लिए खाना, सुलभ शिक्षा, निरोगी जीवन और बुजुर्गों का केयर आदि किया जाता है. उनके इस काम के लिए उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित भी किया जा चुका है. उनकी संस्था भारत सरकार की नीति आयोग दर्पण में रजिस्टर्ड है. पंजाबी परिवार  में जन्मी गीतांजलि ने बचपन से अपने माता-पिता और दादा-दादी को जरुरतमंदों की सेवा करते हुए देखा है. संस्था की 7वीं वर्षगाँठ की उपलक्ष्य पर डॉ. गीतांजलि से बात हुई, आइये जाने, उनका क्या कहना है. 

मिली प्रेरणा 

इस काम में प्रेरणा के बारें में डॉ. गीतांजलि कहती है कि जरुरत मंदो की सेवा करने की प्रेरणा परिवार से मिला है, इसके अलावा जब मैं कैरियर की ऊंचाई पर थी, होली के अवसर पर आंशिक रूप से नेत्रहीन बच्चों के साथ होली खेली थी. उसके बाद मुझे बहुत अधिक ख़ुशी और संतुष्टि मिली, जो किसी काम में मुझे अबतक नहीं मिली थी. तब मैंने समझा कि मुझे इसी क्षेत्र में काम करना है और मैंने काम शुरू कर दिया. मेरी संस्था में जिस व्यक्ति की इच्छा किसी कारण वश पूरी नहीं हो पायी हो, उसे पूरा करने में मदद करना है.

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काम संस्था की  

डॉ. गीतांजलि कहती है कि इस संस्था का काम दिल्ली और आसपास के 700 लोगों को भोजन वितरण करना है, इसके अलावा अनाथ, स्ट्रीट और एच आई वी पीड़ित बच्चों के लिए शिक्षा, उनके स्वास्थ्य की देखभाल और एडहाक बेसिस पर किसी की किडनी ट्रांसप्लांट में मदद करना, आदि है. इसके अलावा स्ट्रीट चिल्ड्रेन को पकड़ने के बाद उन्हें बातचीत करने का तरीका, साफ-सफाई, खाना खाने की आदते, लिखने-पढने का तरीका आदि सिखाकर स्कूल के लिए तैयार किया जाता है और सरकारी स्कूल में एडमिशन करा दिया जाता है. इन बच्चों के माता-पिता सब्जी बेचना, कचरा बिनना, रिक्शा चलाना आदि काम करते है. इनके पास ठीक-ठाक घर भी नहीं है, इसलिए सुबह 9 बजे से 5 बजे तक ये बच्चे मेरी देख-रेख में होते है. इस दौरान उन्हें खाना भी खिलाया जाता है. इनमे कई बच्चे खेल-कूद में होशियार होते है. उन्हें स्पोर्ट्स में भाग लेने की सलाह दी जाती है. इसके अलावा एच आई वी पॉजिटिव वाले बच्चे जो स्कूल नहीं जा पाते, उनकी देखभाल मैं करती हूँ. कोविड 19 से पहले मेरी 20 संस्था दिल्ली में काम कर रही थी, अभी 7 राज्यों में मेरी संस्था काम कर रही है.

इसके आगे डॉ. गीतांजलि कहती है कि कोविड के समय कमर्शियल सेक्स वर्कर्स और ट्रांसजेंडर्स की हालत सबसे ख़राब थी. कोविड और लॉकडाउन के बीच कोई काम उनके लिए नहीं था. इसलिए मैंने सभी से बात कर उन्हें हर महीने राशन करीब 100 परिवारों को दिया है. ट्रांसजेंडर्स को भी मदद करना पड़ा, क्योंकि उन्हें कोविड और लॉकडाउन के दौरान किसी घर में खास अवसर पर घर में घुसकर नाच गाना करने नहीं देते थे. मैंने ऐसे 150 परिवार को राशन किट दिया, लेकिन अब उनका काम शुरू हो चुका है. उन्हें अब देने की जरुरत नहीं पड़ती.

कमी विश्वास की 

फंडिंग के लिए डॉ. गीतांजलि के कई डोनर्स है, जो उन्हें समय-समय पर पैसे देते है, जिसका पूरा हिसाब पारदर्शिता के साथ डोनर्स तक पहुँचाया जाता है. वह कहती है कि वित्तीय समस्या अधिक नहीं आती, कभी आ जाने से फण्ड रेजर इवेंट्स किया जाता है. इस काम में समस्या अधिकतर डोनर्स के विश्वास का कम होना है. इसके अलावा जिन लोगों की मैं मदद करती  हूँ उन्हें विश्वास नहीं होता कि मैं ये काम उन बच्चों के लिए क्यों कर रही हूँ. आज सोशल सेक्टर में कोई आना नहीं चाहते, इसलिए वर्कफ़ोर्स की कमी होती है. संस्था दिखने में कोर्पोरेट की तरह होती है. कोर्पोरेट प्रॉफिट के लिए काम करता है, जबकि एनजीओ नॉन प्रॉफिट के लिए काम करती है. जो लोग आते भी है, वे कम पैसे होने की वजह से छोड़ देते है. मेरी टीम में 20 से 25 लोग है. इसके अलावा काफी वोलेंटियर्स है, जो फील्ड पर काम करते है, ऐसे 100 से 150 लोग होते है. इस समय झाड़खंड में ओल्ड केयर होम और असाम में काम चल रहा है. कोविड के समय जब मैंने ट्रेवल किया तो देखा कि लोगों के पास काम और खाना खाने के पैसे तक नहीं है. इसलिए मैं अब दिल्ली से बाहर जाकर भी काम करने  लगी हूँ. सरकार की सहायता नहीं मिलती और मैं लेना भी नहीं चाहती.

 सहयोग परिवार का 

डॉ.गीतांजलि का कहना है कि परिवार का सहयोग  पहले नहीं था, क्योंकि मैं एक स्टाब्लिश जॉब को छोड़ रही थी और बहुत एजुकेशन भी ले चुकी थी, लेकिन जब ससुराल वालों ने इस काम से मेरी ख़ुशी को देखा, तो खुद ही वे मुझे सहयोग देने लगे. कई बार संस्था के काम को लेकर समस्या हुई है, लेकिन परिवार हमेशा मेरे साथ खड़ा रहा. बच्चे नहीं है, लेकिन मेरे पास 600 बच्चे है, जिन्हें मेरी जरुरत है. 

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समस्या अनगिनत 

डॉ.गीतांजलि की समस्या ओल्ड ऐज होम में आने वाले नए इंसान को समझाना मुश्किल होता है, जबकि वे यहाँ सुरक्षित और अपने घर में रह रहे है, क्योंकि यहाँ आने वाले अधिकतर बुजुर्गों को मारपीट कर घर से निकाल दिया जाता है. ये मेरे लिए काफी चुनौतीपूर्ण होता है. उन्हें मुझपर विश्वास नहीं होता. इसके अलावा एच आई वी संक्रमित बच्चों को स्कूल में भर्ती करवाना, जवान लड़कों और लड़कियों को स्कूल भेजना, ये सभी काम तनावपूर्ण और समस्या युक्त होते है. इन बच्चों के माता-पिता को भी लगता है कि पढ़ लिखकर बच्चे क्या करेंगे, इससे अच्छा है कि ये भीख मांगकर कुछ कमा सकते है. हर स्तर पर समस्या है.

जरुरत जहां, पहचूं वहां 

कोविड के समय ओल्ड एज होम में बुजुर्गों को रखना भी एक समस्या हो चुकी है, क्योंकि उन्हें बाहर निकलने नहीं दिया जाता, इस पर वे क्रोधित हो जाते है. कोविड में वित्तीय संकट भी आई है, पर मैंने इसे कुछ हद तक सुलझा लिया है. अभी मैं बंगाल में अधिक काम करने की इच्छा रखती हूँ, क्योंकि वहां गाँव-गाँव में बहुत गरीबी है. जहाँ मेरी जरुरत है, वहां मैं पहुँच सकूँ, यही मेरी इच्छा है.

पर्यावरण प्रदूषण को कम और ग्रामीण शिक्षा को प्रोत्साहित करती है रियूजेबल पैड्स- अंजू विष्ट

अंजू विष्ट (सोशल वर्कर)

मासिक चक्र के दौर से हर लड़की और महिला को गुजरना पड़ता है. इसके लिए उसे बाज़ार से महंगे पैड्स खरीदने की जरुरत होती है, लेकिन गाँवों में महिलाओं का पैड्स खरीदना और डिस्पोज करना मुश्किल होता है. इसलिए अधिकतर लड़कियां और महिलाएं डिस्पोज करने के लिए मिट्टी के नीचे दबा देती है, जिसमें प्लास्टिक होता है और उसे गलने में सालों लगते है. इसलिए स्वास्थ्य औरपर्यावरण प्रदूषण को कम करने के लिए साल 2017 को सुंदर, प्राकृतिक और आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए केरल के माता अमृतानंदमयी मठ के संस्थापक अमृतानंदमयी ने सौख्यम रियूजेबल पैड्सको लौंच किया.

हालाँकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई संस्थाएं है, जो केले के रेशों से डिस्पोजेबल पैड्स बनाती है, लेकिन सौख्यम विश्व भर में पहली संस्था है, जो केले के रेशों से रियूजेबल पैड्स बनाती है.इसके लिए सौख्यम पैड्स को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुके है. इसे राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थानकी तरफ से मोस्ट इनोवेटिव प्रोडक्ट का अवार्ड,साल 2018 में पोलैंड के अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन सम्मलेन में सराहा जाना, मार्च 2020 में इसे सोशल इंटरप्राइज ऑफ़ द इयर अवार्ड दिया जाना आदि कई पुरस्कार प्राप्त है. आज 50 हजार से अधिक महिलाएं इस पैड्स का प्रयोग कर रही है, जिससे करीब 875 टन से भी अधिक नॉन-बायोडिग्रेडेबल मेंसुरल वेस्ट को कम किया गया है.

मिली प्रेरणा

इस बारें में सौख्यम के को डायरेक्टर और रिसर्चर अंजू विष्ट कहती है कि मैं 18 सालों से इस संस्था से जुडी हुई हूँ. काम के दौरान महसूस हुआ कि सालों से महिलाओं और लड़कियों को मासिक धर्म की में पैड्स की समस्या है जिसके बारें में अधिक चर्चा नहीं की जाती, क्योंकि ये सोशल स्टिग्मा है. ‘पैडमैन’ फिल्म भी तब आई नहीं थी. ऐसे में इस मुद्दे का अगर समाधान मिल जाए, तो स्वास्थ्य शिक्षा के साथ-साथग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों की शिक्षा की समस्या भी सोल्व हो सकती है, क्योंकि अधिकतर लड़कियां मासिक धर्म के बाद गांव में सही विकल्प न होने की वजह से पढाई छोड़ देती है. आज सरकार की तरफ से एक रूपये में सुविधा पैड्स मिलते है,लेकिन उनदिनों कुछ भी नहीं था. पैड्स कैसे बनाई जाय, इस बारें में पूरी टीम सोचने लगी, क्योंकि ग्रामीण इलाकों में पैड्स का कचरा फैलाना ठीक नहीं, साथ ही पैड्स में प्रयोग किये गए कागज के लिए पेड़ काटनी पड़ती है, ऐसे में सेल्यूलोसफाइबर, जो पैड में रक्त सोखने का काम करती है,वह केले के रेशों में आसानी से मिल जाती है. ये किसी को पता नहीं था.

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हालाँकि वर्ल्ड में भी पेड़ न काटने की दिशा में केले के फाइबर से पैड बनने लगे थे. ऐसे में भारत, जहाँ केले का उत्पादन विश्व में सबसे अधिक होता है औरकेले के पेड़ को एक बार फल लगने के बाद काट दिया जाता है, क्योंकि इस पर दूबारा फल नहीं लगता.कटे हुए पेड़ों से जो फाइबर निकलता है, वह भी सेल्यूलोस फाइबर ही है, जिसका प्रयोग पैड्स में किया जा सकता है. फिर पैड्स बनाने की बारी आई, तो राय यह थी कि भले ही केले के वेस्ट से इसे बनाया जाता हो, पर एक बार प्रयोग कर उसे फेंक देना ठीक नहीं. मैंने भी करीब 20 साल से रियूजेबल पैड्स का प्रयोग किया है, जो मैंने अमेरिका से ख़रीदा था. एक पैड करीब 8 साल तक चलता है. भारत में तब केवल एक संस्था इस तरह के रियूजेबल पैड बनाती थी, लेकिन आज करीब 30 संस्थाएं रियूजेबल पैड्स बनाती है. अंतर सिर्फ इतना है कि बाकी पैड्स में रक्त को सोखने के लिए कपडा होता है, जबकि सौख्यम में रक्त सोखने के लिए केले का फाइबर होता है.

पैड्स बनाने के तरीके

मंजू का आगे कहना है कि ‘बनाना फाइबर’ एक्सट्रेक्टर एक मशीन के द्वारा फाइबर निकाली जाती है. उसे क्लीन करना एक चुनौती होती है, क्योंकि रेशों को साफ़ कर उसे सॉफ्ट बनाना पड़ता है. ब्रश से साफ़ कर उसे मशीन के द्वारा वजन कर 6 ग्राम केले का रेशा डे पैड के लिए और 9 ग्राम नाईट पैड के लिए अलग-अलग किया जाता है. इसके बाद इसकी शीट्स बनाकर पूरी रात दबाकर रखते है, फिर कपडे की परत में डालकर उसे सिलाई की जाती है. केले के पेड़ की साइज़ अलग-अलग होती है, लेकिन एक केले के पेड़ से 200 से 400 ग्राम तक केले के रेशे मिल जाते है. थोडा वेस्ट भी हो जाता है तक़रीबन 20 पैड एक केले के रेशों से बनाये जाते है. एक दिन में एक महिला 24 या 25 पैड 6 घंटे में बना लेती है. ये हल्के और मुलायम होते है. रक्त के फ्लो के हिसाब से पैड का प्रयोग महिलाये करती है. ये रियूजेबल पैड्स है और महंगे नहीं होते, इसलिए इसे महिलाएं अधिक खरीदती है. इस काम में कुछ वोलेंटियर्स अपने समय के हिसाब से आते-जाते रहते है और 9 वर्कशॉप के लिए काम करते है, जो देश कई राज्यों जैसे चेन्नई, बंगलुरु, हैदराबाद आदि जगहों पर जाते है, क्योंकि महिलाओं को इस पैड के बारें में पता नहीं है. इसमें ग्रामीण महिलाएं अधिक काम करती है.

रियूज का तरीका

रियूजेबल पैड्स कपडे के बने होते है. उनमें और कपडे के प्रयोग में बहुत अंतर है, पहले महिलाएं कपडे ही प्रयोग करती थी. लेकिन उसमें दाग-धब्बे हो जाते है, जिसे निकालना मुश्किल होता है. दाग की वजह से उसे खुले में नहीं सुखा सकते. रियूजेबल पैड्स को धोना सुखाना बहुत आसान होता है. पानी में धोकर हल्के हाथ से साबुन लगाने पर वह साफ़ हो जाता है और कही भी इसे 5 दिन लौन्जरी की तरह सुखाया जा सकता है. ठीक से देखभाल करने पर रियूजेबल एक पैड 4 से 5 साल तक चलता है, क्योंकि अच्छी क्वालिटी का कपडा इसमें प्रयोग किया जाता है और केले के रेशें टिकाऊ होते है. कपड़ाफट जाने पर नए कपडे के साथ पैड को फिर से प्रयोग में लाया जा सकता है. इस पैड के निचले भाग में छतरी के  कपड़े की तरह बहुत पतली शीट होती है,ताकि रक्त का प्रवाह लीक न हो,जिसे धोकर रियूज किया जाता है और ये ख़राब भी नहीं होती. डिस्पोज करते समय इसे अलग कर दिया जाता है और केले के रेशे बायोडिग्रेडेबल है. इसलिए पर्यावरण को किसी प्रकार का खतरा नहीं होता.

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आगे अंजू हर राज्य में इन पैड्स को पहुचाये जाने की कोशिश कर रही है. अभी जम्मू, राजस्थान, उत्तराखंड आदि जगहों और ऑनलाइन पर भी उपलब्ध है. इसके लिए वह छोटे-छोटे व्यवसाय करने वालों की नेटवर्क बनाकर पैड्स देने वाली है, ताकि ऐसे व्यवसायी अपने क्षेत्र में इसे कम दाम में उपलब्ध करवा सकें.

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