दवा जरूरी या दुआ

सरकार को ड्रग व्यापार पर नियंत्रण करना चाहिएमगर वह लगी है धर्म बचाने में. सरकारी मशीनरी को कफ सिरप और आई ड्रौपों से होने वाली मौतों की चिंता नहींएक हिंदू लड़की के धर्म परिवर्तन कर के मुसलिम लड़के से शादी करने पर चिंता होती रहती है.

पहले जांबिया से खबरें आईं कि वहां सैकड़ों बच्चों की मौत हरियाणा की एक कंपनी का कफ सिरप पीने से हुई. फिर उजबेकिस्तान से आईं. अब डेलसम फार्मा के आई ड्रौपों से होने वाले अंधेपन के मामले सामने आ रहे हैं. यह दवा अमेरिका के कईर् शहरों में बिक रही है.

भारतीय फार्मा कंपनियां आजकल बहुत पैसा बना रही हैं. दुनियाभर को सस्तीकौंप्लैक्स दवाएं बेचने में भारत ने एक खास जगह बना ली है. भारत में बनी दवाओं को भारतीयों पर प्रयोग करना बहुत आसान है क्योंकि यहां की जनता वैसे ही भभूतमंत्रोंहवनों में विश्वास करने वाली है और यदाकदा जब लोग कैमिस्ट से किसी रोग की दवा लेते हैं तो होने वाले नुकसान पर सरकारी अस्पताल के डाक्टर चिंता नहीं करते. वे एक और जने की असमय मौत या गंभीर नुकसान को कंधे उचका कर टाल देते हैं.

जो देश आयुर्वेदहोम्योपैथीयूनानीऔर्गेनिकयोगासनों और पूजापाठ को इलाज मानता हो तथा मौत या शारीरिक नुकसान को भगवान का लिखा हुआ मानता है जो होना ही हैवहां किसी ड्रग का ट्रायल तो जरूरी है ही नहीं. यहां दवाएं टिन शेड वाले कारखानों में मैलेकुचैले मजदूरों के हाथों से बनती हैं. हांबाहर के दफ्तरों में सफेद कोट पहने लोग मंडराते दिख जाएंगे. अब पैकिंग भी बढि़या है. सरकारी एजेंसियां सर्टिफिकेट ऐप्लिकेशन पर रखे पैसों के हिसाब से देती हैंदवाओं की क्वालिटी के आधार पर नहीं.

डेलसम फार्मा के बने आई ड्रौपों को लूब्रिकेशन और आंसू रोकने के लिए प्रयोग किया जाता है पर वे बैक्टीरिया वाले आई ड्रौप हैं जो नेजल कैविटी से लंग्स तक बैक्टीरिया को ले जाते हैं और लंग्स में इन्फैक्शन हो जाता है. आंखों की रोशनी अलग चली जाती है.

इस पर न धर्म संसद बैठेगीन भगवाई मोरचा निकलेगा क्योंकि उन्हें तो दानदक्षिणा से मतलब है और वे मौत व बीमारी को भगवान का आदेश मानते हैं. सरकार इस काम और अंधविश्वास को फैलाने में पूरा सहयोग दे रही है. जगहजगह मंदिरघाट बन रहे हैं जिन में बढि़या पत्थर लग रहा है. हरेभरे घास लगे बाग बन रहे हैं. दवा फैक्टरियों की चिंता किसे हैकितने भारतीय इन नकली या खराब दवाओं से मरते हैंइस के तो आंकड़े भी कलैक्ट नहीं हो पाते.

मां के बिना नहीं पलते बच्चें

विवाह की इंस्टीट्यूशन की जरूरत समाज की थी क्योंकि इस के बिना मर्द औरतों को बेसहारा छोड़ देते थे और बच्चे केवल मां के सहारे ही पल पाते थे. विवाह ने छत दी और एक साथ काम करने की पार्टनरशिप दी. लेकिन धर्मों ने इस में टाग अड़ा कर इसे भगवान की देना बना दी और आज अगर शादी में सब से बड़ी रूकावट कहीं से आती हैं तो वह धर्म से है. भारत में यूनिफौर्म सिविल कोर्ट की जो बात हो रही है उस में न औरत के सुख की सोची जा रही है न मर्द के कहों की, उस में केवल यह सोचा जा रहा है कि कैसे एक धर्म वाले अपनी घौंस दूसरे धर्म वालों पर जमा सकते हैं. उस के दूसरी ओर अमेरिका ने एक नया कानून बनाया है, रिस्पैक्ट औफ मैरिज

एक्ट जिस में समलैङ्क्षगक जोड़े भी वही सामाजिक कानूनी अधिकार एकदूसरे के प्रति जता सकते हैं जो धर्मों या कानूनों ने दिए थे. 1870 में अमेरिका के राज्य मिनेसोटा में, जैक बेकर व माईकेल मैक्कोनल, ने 2 पुरुषों ने शादी के लिए अनुमति मांगी थी. जो नहीं दी गई क्योंकि बाइबल तो केवल मर्द और औरत की शादी को औरत मानती है. अब समलैंगिक या तो मैरिज सुप्रीम कोर्ट कीअदलतीबदलती मर्जी पर नहीं निर्भर रहेगी. अब अमेरिका में एक कानून चलेगा शादियों के बारे में. गे मैरिज का सवाल यूनिफौर्म सिविल कोर्ट में भी आना चाहिए पर जैसा अंदेशा है कि यह कानून अगर बना तो सिर्फ मुसलमानों के 4 तक शादियों करने के हक के लिए बनेगा जबकि आंकड़े कहते हैं कि कुल मिला कर ज्यादा ङ्क्षहदू एक से ज्यादा औरतों की पत्नी रखते हैं या कहते हैं कि फलां मेरी पत्नी है बजाए

मुसलमानों के. यूनिफौर्म सिविल कोर्ट तभी यूनिफौर्म होगा जब शादी से ङ्क्षहदू पंडित, मुसलिम मुल्लाबाजी, सिख से ग्रंथी. ईसाई से पादरी निकल जाए और सारी शादियां केवल और केवल अदालतों या अदालतों के जजों की तरह के नियुक्तमैरिज औफिसरों के द्वारा दी जिन में हर धर्म के लोग किसी भी दूसरे धर्म, जाति संप्रदाय के जने से शादी कर सकें. शादियों पर होने वाले खर्च को बचाने और शादी के नाम पर मची पंडों, पादरियों और मुल्लाओं की लूट से मुक्ति दिलाती है तो यूनिफौर्म सिविल कोर्ट होगा वरना यह धाॢमक घोंसबाजी होगी, लौलीपोप होगा. असली क्रांति तो यूनिफौर्म सिविल कोर्ट की तक होगी जब वह गे मैरिज को भी मान्यता दे. स्त्रीपुरुष की शादी को तो केवल भगवान के नाम पर माना गया है वरना गे संबंध तो सदियों से बन रहे हैं.

बिना शादी किए भी संबंध हमेशा बनते रहे हैं और 7 फेरों, भक्ति व दूसरे भगवानों के सामने बने वैवाहिक संबंधों के बावजूद पत्नी को बेसहारा छोडऩे वाले आज मौजूद हैं और धर्म का ङ्क्षढढोरा पीटते रहते हैं. यूनिफौर्म सिविल कोर्ट में हक कौंट्रेक्ट की तरह हो, अपराधों की तरह नहीं. मुकदमे सिविल अदालतों में चलें, क्रिमिनल अदालती में नहीं. पर यह होगा नहीं. आज एडल्ट्री कानून, वीमन है रेसमैंट कानून अपराधिक कानून बन गए हैं. क्या यूनिफोर्म सिविल कोर्ट विवाह संबंधों में से पुलिस, जेलों को निकाल सकेगा. नहीं तो यह सिविल नहीं होगा. यह कोर्ट अगर जनता के भले के लिए है तो कोर्ट है, वरना धौंस पट्टी होगा, इसे कोर्ट कहना ही गलत होगा. जो यूनिफौर्म सिविल कोर्ट बनेगा उस में दूसरे धर्म की ङ्क्षचता ज्यादा होगी. अपने धर्म की बुराइयों की बिलकुल नहीं यह पक्का है.

सरकार की हुई जमीन

दिल्ली में बहुत सी जमीन केंद्र सरकार की है जिसे अरसा पहले सरकार ने खेती करने वाले किसानों से कौढिय़ों के भाव खरीदा था. इस में बहुत जगह कमॢशयल प्लाट बने हैं, छोटे उद्योग लगे हैं. रिहायशी प्लाट कट कर दिए गए हैं. जिन कीमतों पर जमीन इंडस्ट्री, दुकानों या घरों को दी गई उस से थोड़ी कम कीमत पर स्कूलों, अस्पतालों, समाजसेवी संस्थाओं को दी गई. यह जमीन दे तो दी गई पर केंद्र सरकार का दिल्ली डेबलेपमैंट अथौरिटी उस पर आज भी 50-60 साल बाद भी कुंडली लगाए भी बैठा है जबकि उद्योग चल रहे है, दुकानें खुली, लोग रह रहे है स्कूल अस्पताल चल रहे हैं.

उस का तरीका है लगे होल्ड जमीन. डीडीए ने आम बिल्डरों की तरह एक कौंट्रेक्ट पर सब आदमियों से साइन करा रखे है कि कौंट्रेक्ट, जिसे सब लोग कहते हैं, कि किसी भी धारा के खिलाफ काम करने पर अलौटमैंट कैंसिल की जा सकती है चाहे कितने ही सालों से वह जमीन अलाटी के पास हो.

ऐसा देश के बहुत हिस्सों में होता है और लीज होल्ड जमीनों पर आदमी या कंपनी या संस्था खुद की पूरी मालिक नहीं रहती. नियमों को तोडऩे पर जो परोक्ष रूप में सरकार के खिलाफ कुछ बोलने पर भी होता है. इस धारा को इस्तेमाल किया जाता है. बहुत से लोग इस आतंक से परेशान रहते हैं.

जहांं भी लीज होल्ड जमीन और अलादी सब लीज के बंधनों से बंधा है वहां खरीदफरोक्त, विरासत में, भाइयों के बीच विवाद में अलौट करने वाला. सरकारी विभाग अपना अडग़ा अड़ा सकता है. 40-50 साल पुरानी शर्तें आज बहुत बेमानी हो चुकी हैं. शहर का रहनसहन तौरतरीका बदल गया है. कामकाज के तरी के बदल गए है पर लीज देने वाला आज भी पुरानी शर्तों को लागू कर सकता है.

कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने इन्हीं लीज की शर्तों के आधार पर काफी सारा दिल्ली का व्यापार ठप्प करा दिया था कि रहायशी इलाकों में दी गर्ई जमीन पर कमॢशयल काम नहीं हो सकता. चाहे यह सिद्धांत 40-50 साल पहले ठीक रहा हो पर आज जब दुकानों की जरूरत है तो चांदनी चौक के रिहायशी कटरे भी दुकानों में बदल गए हैं और खान मार्केट के भी. और शहरों में भी ऐसा हो रहा है लखनऊ के हजरतगंज में ऊपरी मंजिलों में घर गायब हो गए हैं. जयपुर की सी स्कीम में बड़ी घरों की जगह माल बन गए हैं.

सरकारी दफ्तर फिर भी पुराने अधिकार छोडऩे को तैयार नहीं है क्योंकि यह कमाई का बड़ा साधन है. दिल्ली में एक अस्पताल का 1995 में अलौटमैंट कैंसिल कर दिया गया कि वह अस्पताल शुरू करने वालों ने दूसरों को बेच दिया गया जबकि अस्पताल की संस्था वही थी, बस मेंबर बदले गए थे. ट्रायल कोर्ट ने डीडीए का पक्ष लिया पर उच्च न्यायालय ने मामला खारीज कर दिया कि मेंबर बदलना, बेचना नहीं है.

असल में सरकारों को आम आदमी की ङ्क्षजदगी में जितना कम हो उतना ही रहना चाहिए. जब तक वजह दूसरों का नुकसान न हो, सरकार नियमों कानूनों का हवाला दे कर अपना पैसा नहीं वसूल सकती.

देश की सारी कृषि भूमि पर सरकार ने परोक्ष रूप से कुंडली मार ली है. उसे सिर्फ कृषि की भूमि घोषित कर दिया गया है. उस पर न मकान बन सकते है न उद्योग लग सकते है जब तक सरकार को मोटी रकम न दी जाए. सरकारको कृषि योग्य जमीन बचाने की रुचि नहीं है, वह सिर्फ कमाना चाहती है. चेंज इन लैंड यूज के नाम पर लाखों करोड़ों वसूले भी जाते हैं, और मनमानी भी की जाती है. अगर पैसा बनाना हो तो 10-20 साल आवेदन को जूते घिसवाए जा सकते हैं.

अब जमीनें औरतों को विरासत में मिलने लगी हैं. उन्हें इन सरकारी दफ्तरों से निपटना पड़ता है. उन को हर तरह से परेशान किया जाता है. तरहतरह के दयाल पैदा हो गए हैं. हर तरह के ट्रांसफर पर आपत्ति लगा दी जाती है. बेटियों के लिए पिता की संपत्ति एक जीवन जंजाल बन गया है जिसे न निगला जा सकता है न छोड़ा जा सकता है क्योंकि सरकारी सांप गले में जा कर फंस जाता है.

पति पत्नी के मामलों में धर्म का क्या काम

माना जाता है कि मुसलिम विवाहों के झोगड़ों के मामले आपस में सुलटा लिए जाते हैं और ये अदालतों में नहीं जाते पर अदालतें शादीशुदा मुसलिम जोड़ों के विवादों से शायद आबादी के अनुपात से भरी हुई हैं. ये मामले कम इसलिए दिखते हैं कि गरीब हिंदू जोड़ों की तरह गरीब मुसलिम जोड़े भी अदालतों का खर्च नहीं उठा सकते और पतिपत्नी एकदूसरे की जबरदस्ती सह लेते हैं.

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने हाल ही में एक मामले में एक मुसलिम पति को पत्नी को अपने साथ रहने पर मजबूर करने का हक देने से इनकार कर दिया क्योंकि उस पति ने दूसरी शादी भी कर ली थी और इसलिए पहली पत्नी अपने पिता के घर चली गईर् थी. पहली पत्नी अपने पिता की इकलौती संतान है और उस के पिता ने मुसलिम कानून की जरूरत के हिसाब से जीतेजी सारी संपत्ति बेटी को उपहार कर दी थी.

हालांकि अदालत ने कुरान का सहारा लिया. पतिपत्नी के झोगड़ों में धर्म को लिया ही नहीं जाना चाहिए क्योंकि धर्म जबरन एक आदमी और औरत के साथ रहने के अनुबंध पर सवार हो चुका है. शादी का न तो मंदिर से कोई मतलब है, न चर्च से, न मुल्ला से, न ग्रंथी से. शादी 2 जनों की आपसी रजामंदी का मामला है और जब रजामंदी से किसी की शादी की है कि दोनों किसी तीसरे को अपने संबंधों के बीच न आने देंगे तो यह माना जाना चाहिए बिना चूंचपड़ के. कानून को पतिपत्नी का हक देना चाहिए लेकिन कौंट्रैक्ट एक्ट के हिसाब से, धर्म के हिसाब से नहीं. पतिपत्नी के अधिकार एकदूसरे पर क्या हैं और वे अगर संबंध तोड़ें तो कौन क्या करेगा क्या नहीं, यह इसी तरह तय करना चाहिए जैसे पार्टनरशिप एक्ट, कंपनीज एक्ट, सोसायटीज एक्ट में तय होता है. धर्म इन अनुबंधों के बीच में नहीं आता. शादी न भगवानों के कहने पर होती है न भगवानों के कहने पर टूटती है.

एक आदमी और औरत जीवनभर एकदूसरे के साथ ही सुखी रहेंगे, यह जरूरी नहीं. शादी के बाद 50-60 या 70 सालों में बहुत कुछ बदल सकता है. पसंद बदल सकती है, स्तर बदल सकता है, शरीर बदल सकता है. जीवनसाथी को हर मामले में जबरन ढोया जाए, यह गलत है. प्रेम में तो लोग एक पेड़ के लिए भी जान की बाजी लगा देते हैं. जिस के साथ सुख के हजारों पल बिताए हों, उस के साथ दुख में साथ देना कोई बड़ी बात नहीं.

मुसलिम जोड़े ने अदालत की शरण ली वह साबित करता है कि मुसलिम मर्द भी तलाक का हक कम इस्तेमाल करते हैं और जहां हक हो वहां खुला भी इस्तेमाल नहीं किया जाता. कट्टर माने जाने वाले मुसलिम जोड़े भी सैक्युलर अदालतों की शरण में आते हैं. यह बात दूसरी कि बहुत सी अदालतों के जजों के मनों पर धार्मिक बोझो भारी रहता है. इस मामले में जज ने सही फैसला किया कि पति पत्नी को साथ रहने पर मजबूर नहीं कर सकता खासतौर पर तब जब उस ने दूसरी शादी भी कर रखी हो, चाहे वह मुसलिम कानून समान हो.

क्या कैस्ट्रेशन से रुकेगा रेप

अमेरिका के ‘फैडरल ब्यूरो औफ इन्वैस्टिगेशन’ (एफबीआई) द्वारा 20 साल बाद ढूंढ़ निकाले गए एक बलात्कारी को कैस्ट्रेशन की सजा देने से इनकार करते हुए अमेरिका की संघीय अदालत के जज ने लिखा है कि कैस्ट्रेशन बलात्कार की समस्या से मुक्ति का वैज्ञानिक रास्ता नहीं है क्योंकि कैस्ट्रेशन से बलात्कार की चाहत खत्म नहीं होती और बलात्कार एक्ट से ज्यादा इंस्टिंक्ट है यानी यह हरकत से ज्यादा प्रवृत्ति है.

हमारे यहां बीभत्स बलात्कार कांड के बाद एक बड़े तबके द्वारा बलात्कारियों को कैस्ट्रेशन की सजा देने की मांग उठाई जाती है और अखबारों में नए व पुराने हवालों के साथ इस संबंध में एक राय बनाने की कोशिश दिखती है तब भी जस्टिम वर्मा समिति ने अपनी इस सलाह रिपोर्ट में इस प्रावधान को शामिल नहीं किया, जिस की बीना पर बलात्कारों को रोकने के लिए सख्त कानून बनाया जाता है.

मनोवैज्ञानिक इस बात को तार्किक ढंग से सिद्ध कर चुके हैं कि बलात्कार एक मानसिक उन्माद है. यह ताकतवर सैक्स गतिविधि के रूप में भले देखा और जाना जाता हो, मगर वास्तव में यह एक मानसिक गुस्सा और मानसिक भूख है. यही वजह है कि बलात्कार करने वालों के बारे में जो खुलासे होते हैं, उन में तमाम खुलासे ऐसे होते हैं जो पहली नजर में हैरान करते हैं.

सीरियल बलात्कारी का खौफ

1997-98 में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में एक सीरियल बलात्कारी का खौफ था जो छोटीछोटी बच्चियों के साथ बलात्कार कर के उन्हें अकसर बीभत्स तरीके से मौत के घाट उतार देता था. जब यह मानसिक रूप से विकृत बलात्कारी हरियाणा के बहादुरगढ़ में पकड़ा गया तो पता चला कि वह नपुंसक है. उस को ले कर पता चला कि उस के अंदर की कुंठा हताशा और हीनभावना को ही व्यक्त करती थी. दरअसल, वह हर बार यह परखने की कोशिश करता था कि उस के लिए सैक्स संबंध बना पाना संभव है या नहीं और जब असफल होता था तो छोटी बच्यों की भी हत्या कर देता था.

नोएडा के सनसनीखेज निठारी हत्याकांड में भी कोली के बारे में यही हकीकत सामने आई थी. कहा जाता है वह भी यौन क्षमता से रहित और इसी कुंठा में अपने मालिक के साथ मिल कर छोटे बच्चों का यौन शिकार करता था और फिर उन की बेरहम तरीके से हत्या कर देता था.

कैस्ट्रेशन किस तरह बलात्कारों को रोकने में असमर्थ साबित हो सकता है, इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बड़े पैमाने पर हिजड़े जो कैस्ट्रेशन का शिकार होते हैं, सैक्स गतिविधियों में लिप्त होते हैं, चाहे सक्रिय रूप में या निष्क्रिय रूप में. इस से भी यही साबित होता है कि कैस्ट्रेशन का बलात्कार में कारगर होना मुश्किल है. बलात्कार जैसी सामाजिक बुराई से मुक्ति तभी पाई जा सकती है जब सैक्स एक सामाजिक वर्जना न हो.

दरअसल, बलात्कार की समस्या से बचने के लिए कैस्ट्रेशन का विचार निर्भया कांड या हाथरस की घटना से ही नहीं आया था बल्कि इस के पहले ही इस बारे में चर्चा और बहस तब जोरदार ढंग से शुरू हो गई थी जब 17 फरवरी, 2012 को दिल्ली की एक तब अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट कामिनी ला ने कहा था, ‘‘मेरे हाथ बंधे हुए हैं. इसलिए मैं वही सजा सुना सकती हूं जिस का प्रावधान है. लेकिन मेरी चेतना मु?ो यह कहने के लिए अनुमति देती है कि वक्त आ गया है कि देश के कानून बनाने वाले विद्वान बलात्कार की वैकल्पिक सजा के तौर पर रासायनिक या सर्जिकल बधियाकरण के बारे में सोचे जैसेकि दुनिया के तमाम देशों में यह मौजूद हैं.’’

यौन अपराध और कानून

रोहिणी जिला अदालत की अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश कामिनी ला की इस टिप्पणी के बाद ही जो उन्होंने एक यौन अपराध के एक मामले में 30 वर्षीय बलात्कारी नंदन को उम्र कैद की सजा सुनाते हुए की थी, पर बहस गरम हो गई थी कि क्यों न मजिस्ट्रेट की इच्छा के मुताबिक बलात्कारी को कैस्ट्रेशन की सजा दी जाए.

यह बहस हर गैंगरेप के बाद फिर से सुर्खियों में आ जाती है. हालांकि न तो इस पर सुप्रीम कोर्ट न संसद महान हुई. फिर भी यह मांग तमाम महिलावादी संगठन, आम लोग, राजनीतिक पार्टियों के सदस्य निजी तौर पर और कई बड़े कद के राजनेता भी कर रहे हैं. पेशेवर डाक्टरों की तरफ से इस संबंध में औपत्ति हमेशा उठाई गई है.

जिन डाक्टरों को कैस्ट्रेशन यानी बधियाकरण पर औपित्त है, उन में से ज्यादातर को कैमिकल या रासायनिक बधियाकरण से ही आपत्ति है. उन का कहना है कि दुनिया में अभी तक कोई ऐसी दवा नहीं है जो स्थायी रूप से किसी को हमेशा के लिए नपुंसक बना सके यानी रासायनिक तरीके से नपुंसक बनाया गया व्यक्ति अधिक से अधिक 3 महीने ही नपुंसक रह सकता है. इस के बाद वह पहले जैसी स्थिति में आ जाएगा. कई बार तो सिर्फ 1 महीने तक ही रासायनों का असर रहता है.

कहने का मतलब यह कि जिस व्यक्ति को यह सजा दी जाएगी उसे हर 1 महीने के बाद उस के पुरुषत्व को निष्क्रिय रखने वाला इंजैक्शन लगाना पड़ेगा. पहली बात तो यह बेहद मुश्किल काम होगा और दूसरी बात यह एक बड़ा सिरदर्द भी होगा कि सरकारी ऐजेंसियां सुनिश्चित करें कि वह व्यक्ति हर महीने सही समय में किसी सज्जन पुरुष की माफिक अपने को नपुंसक बनाए जाने वाला इंजैक्शन लगवा ले. साथ ही डाक्टरों को यह भी आशंका है कि इस इंजैक्शन से तमाम तरह के साइड इफैक्ट हो सकते हैं. मसलन, इस इंजैक्शन के असर से व्यक्ति बहुत मोटा हो सकता है. उसे मधुमेह या दूसरी बीमारियां हो सकती हैं.

कानून और बहस

इसी तरह की और भी आशंकाएं डाक्टरों ने जाहिर की हैं. इसलिए चिकित्सक समुदाय कैमिकल कैस्ट्रेशन के पक्ष में नहीं है और कुछ डाक्टर तथा मानवाधिकार संगठनों ने भी सर्जिकल रिमूवल यानी उस तरह से लिंग काट देने जैसी सजा को भी अमानवीय, बर्बर और मध्यकालीन बताया है. इस कारण सर्जिकल या कैमिकल कैस्ट्रेशन पर बहस छिड़ गई है.

कानूनों के बनाए जाने के संबंध में एक पुरानी कहावत है कि कानून उस समय बनाए जाने चाहिए जब तत्काल उन की जरूरत न हो. मतलब यह कि जब हम किसी घटना के भावुक आवेश में कोई कानून बनाते हैं तो उस में तटस्थ नहीं रह पाते. हमारा झकाव या रुझन जिस तरह होता है उसी के अनुरूप हम कानून बनाते हैं.

पूरे देश में दिल्ली गैंगरेप के बाद पैदा हुए आक्रोश के चलते हरकोई बलात्कारियों से और औरतों के विरुद्ध अपराध करने वालों से बेहद खफा है. इसलिए हरकोई यही चाहता है कि बलात्कारियों को फांसी की सजा तो हर हाल में दी जानी चाहिए. लेकिन जब निर्भया गैंगरेप के मुख्य आरोपी रामसिंह की संदिग्ध हालत में तिहाड़ में मौत हो गई तो तमाम संगठनों के कार्यकर्ता उस की मौत पर कानून का संकट देखने लगे.

जाहिर है कैस्ट्रेशन की मांग के साथ भी ऐसी स्थिति बन सकती है. दिल्ली गैंगरेप के बाद गुस्साई आम जनता जिस जोरशोर तरीके से इस की मांग कर रही थी, अब वह गायब है. इस से यह बात सही साबित होती है कि कानून हमेशा शांतिपूर्ण माहौल में ही बनाए जाने चाहिए और शांतिपूर्ण माहौल कैस्ट्रेशन से न तो समस्या का समाधान देखता है और न ही इसे बेहद प्रभावशाली पाता है. इसलिए इस के बारे में न ही सोचा जाए तो ज्यादा ठीक है.

समस्या और समाधान

इस में कोईर् दो राय नहीं कि बलात्कार जैसे मामलों में महिलाओं के प्रति सकारात्मक और सहानुभूतिपूर्वक सोचे जाने की जरूरत है क्योंकि आमतौर पर वे ही पीडि़त होती हैं. लेकिन कोई ऐसा कानून बनाना खतरे से खाली नहीं होगा

जिस के दुरुपयोग की जबरदस्त आशंकाएं मौजूद हों. हालांकि दुनिया के कई देश इस तरह का कानून रखते हैं, मगर देखने में यह कतई नहीं आया कि ऐसे कानून बना देने भर से बलात्कार जैसे यौन हिंसा के अपराधों में किसी तरह की कमी दिखी हो.

इस समय दुनिया में जिन देशों में सर्जिकल और कैमिकल कैस्ट्रेशन की सजा का प्रावधान है उन में अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, पोलैंड और जरमनी जैसे विकसित देश भी शामिल हैं. अमेरिका में कुछ राज्यों में स्वेच्छा से कैमिकल कैस्ट्रेशन के लिए राजी होने वाले यौन अपराधियों को कम सजा दी जाती है.

इसराईल ने भी बाल यौन उत्पीड़कों को ऐसी ही सजा देने का प्रावधान किया है. अमेरिका में लुसियाना के गवर्नर भारतीय मूल के बौबी जिंदल ने सीनेट बिल 144 पर हस्ताक्षर करते हुए जजों को दुष्कर्मियों के विरुद्ध कैस्ट्रेशन की सजा सुनाने की अनुमति दी थी. कैलिफोर्निया, अमेरिका का वह अकेला राज्य है जिस ने अपने यहां कैस्ट्रेशन का भी प्रावधान लागू करने के लिए अपनी पारंपरिक दंड संहिता बदल डाली.

यह उपाय कैसे चलेगा

भारत में अगर राजनीतिक पार्टियों में व्यापक रूप से इस के प्रति समर्थन नहीं है तो इस का मतलब यह है कि बलात्कार की दोनों ही सजाओं कैस्ट्रेशन यानी बधियाकरण और फांसी की सजा को ले कर कानून के जानकारों और राजनीतिक पार्टियों में हिचक है. जो लोग मौजूदा माहौल के प्रभाव में इन दोनों चीजों के साथ खड़े दिखते हैं, वे भी भविष्य में इस से छिटक सकते हैं क्योंकि तब तक हो सकता है उन में वह भावनात्मक आवेश न रह जाए. इसलिए जल्दबाजी में कानून बनाए जाने की जरूरत नहीं है.

दुनियाभर में केवल इंडोनेशिया, यूक्रेन, चैक रिपब्लिक और पाकिस्तान ने कैस्ट्रेशन को सजा के तौर पर कानून में शामिल किया है पर हर अपराधी को इस सजा के लिए सही पात्र माना जाएगा, इस में संदेह है. बलात्कार के हर मामले में ऐवीडैंस की भारी कमी होती है और केवल पीडि़ता के बयान पर सजा देने से जज हिचकते हैं.

बलात्कारों की संख्या जितनी दिखाई

जाती है वास्तव में उस से कहीं ज्यादा होती है क्योंकि अधिकांश मामलों में लड़की चुप रहना ही ठीक समझती है. यह अपराधी को बल देता है और बधियाकण यानी कैस्ट्रेशन ऐसी स्थिति में बेकार होगा. 2020 में 28,046 मामले दर्ज हुए जो बहुत कम प्रतीत होते हैं. घरों में होने वाले बलात्कार छिपा लिए जाते हैं. वैसे भी मुश्किल से 10-15% मामलों में सजा हो पाती है तो यह उपाय कैसे चलेगा?

कहीं खतना तो कहीं खाप… कब समाप्त होंगे ये शाप

“हद हो चुकी है बर्बरतां की. ऐसा लगता है जैसे हम आदिम युग में जी रहे हैं. महिलाओं को अपने तरीके से जीने का अधिकार ही नहीं है. बेचारियों को सांस लेने के लिए भी अपने घर के मर्दों की इजाजत लेनी पड़ती होगी.” विनय रिमोट के बटन दबाते हुए बार-बार न्यूज़ चैनल बदल रहा था और साथ ही साथ अपना गुस्सा जाहिर करते हुए बड़बड़ा भी रहा था. उसे भी टीवी पर दिखाए जाने वाले समाचार विचलित किए हुए हैं. वह अफगानी महिलाओं की जगह अपने घर की बहू-बेटी की कल्पना मात्र से ही सिहर उठा.

“अफगानी महिलाओं को इसका विरोध करना चाहिए. अपने हक में आवाज उठानी चाहिए.” पत्नी रीमा ने उसे चाय का कप थमाते हुए अपना मत रखा. उसे भी उन अपरिचित औरतों के लिए बहुत बुरा लग रहा था.

“अरे, वैश्विक समाज भी तो मुंह में दही जमाए बैठा है. मानवाधिकार आयोग कहाँ गया? क्यों सब के मुंह सिल गए.” विनय थोड़ा और जोश में आया. तभी उनकी बहू शैफाली ऑफिस से घर लौटी. कार की चाबी डाइनिंग टेबल पर रखती हुई वह अपने कमरे की तरफ चल दी. विनय और रीमा का ध्यान उधर ही चला गया. लंबी कुर्ती के साथ खुली-खुली पेंट और गले में झूलता स्कार्फ… विनय को बहू का यह अंदाज जरा भी नहीं सुहाता.

“कम से कम ससुर के सामने सिर पर पल्ला ही डाल लें. इतना लिहाज तो घर की बहू को करना ही चाहिए.” विनय ने रीमा की तरफ देखते हुए नाखुशी जाहिर की. रीमा मौन रही. उसकी चुप्पी विनय की नाराजगी पर अपनी सहमति की मुहर लगा रही थी.

“अब क्या कहें? आजकल की लड़कियाँ हैं. अपनी मर्जी जीती हैं.” कहते हुए रीमा ने मुँह सिकोड़ा.

शैफाली के कानों में शायद उनकी बातचीत का कोई अंश पड़ गया था. वह अपने सास-ससुर के सामने सवालिया मुद्रा में जा खड़ी हुई.

“आपको क्या लगता है? तालिबानी सिर्फ किसी मजहब या कौम का नाम है?” कहते हुए शैफाली ने अपना प्रश्न अधूरा छोड़ दिया. बहू का इशारा समझकर विनय गुस्से में तमतमाता हुआ घर से बाहर निकल गया. रीमा भी बहू के सवालों से बचने का प्रयास करती हुई रसोई में घुस गई.

यह कोई मनगढ़ंत या कपोलकल्पित घटना नहीं है बल्कि हकीकत है. यदि गौर से देखें तो हम पाएंगे कि हमारे आसपास भी अनेक छद्म तालिबानी मौजूद हैं. चेहरे और लिबास बेशक बदल गया हो लेकिन सोच अभी भी वही है.

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इन दिनों हर तरफ एक ही मुद्दा छाया हुआ है और वो है अफगानिस्तान पर तालिबानियों का कब्जा. चाहे किसी समाचार पत्र का मुखपृष्ठ हो या किसी न्यूज़ चैनल पर बहस… हर समाचार, हर दृश्य सिर्फ एक ही तस्वीर दिखा-सुना रहा है और वो है अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के बाद महिलाओं की दुर्दशा… बुद्धिजीवी और विचारक केवल एक ही बात पर मंथन कर रहे हैं कि वहाँ महिलाओं पर हो रही अमानवीयता को कैसे रोका जाए. सोशल मीडिया पर तालिबानियों को भर-भर के कोसा जा रहा है. महिलाओं को उनके ऊपर हो रहे अत्याचारों के विरोध में आवाज बुलंद करने के लिए जगाया जा रहा है. सिर्फ मीडिया ही नहीं बल्कि आम घरों के लिविंग रूम में भी यही खबरें माहौल को गर्म किए हुए हैं.

कहाँ है बराबरी

कहने को भले ही हमारे संविधान ने महिलाओं को प्रत्येक स्तर पर बराबरी का दर्जा दिया हो लेकिन समाज आज भी उसे स्वीकार नहीं कर पाया है. महिलाओं और लड़कियों को स्वतंत्रता देना अभी भी उसे रास नहीं आता.

किसी और का उदाहरण क्या दीजिये, खुद कानून बनाने वाले और संविधान के तथाकथित रखवाले भी महिलाओं को लेकर कितने ओछे विचार रखते हैं इसकी बानगी देखिये.

“महिलाएं ऐसे तैयार होती हैं जिससे लोग उत्तेजित हो जाते हैं.” भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय.

“लड़के, लड़के होते हैं, उनसे गलतियाँ हो जाती हैं. लड़कियां ही लड़कों से दोस्ती करती हैं, फिर लड़ाई होने पर रेप हो जाता है.” सपा नेता मुलायम सिंह यादव.

“अगर दो मर्द एक औरत का रेप करें तो इसे गैंगरेप नहीं कह सकते.” जेके जोर्ज.

“शादी के कुछ समय बाद औरतें अपना चार्म खो देती हैं. नई-नई जीत और नई शादी का अपना महत्त्व होता है. वक्त के साथ जीत की याद पुरानी हो जाती है. जैसे-जैसे वक्त बीतता है, बीवी पुरानी होती जाती है और वो मजा नहीं रहता.” कांग्रेस नेता श्रीप्रकाश जायसवाल.

सिर्फ बड़े नेता ही नहीं बल्कि स्वयं देश के प्रधानमंत्री पर भी महिलाओं को लेकर दिए गए अभद्र बयान के छींटे हैं. 2012 में उन्होंने एक चुनाव सभा में शशि थरूर की पत्नी सुनन्दा थरूर को “पचास लाख की गर्लफ्रेंड” कहकर विवाद को जन्म दिया था.

इसके अतिरिक्त महिलाओं को “टंचमाल” कहकर दिग्विजय सिंह, “परकटी” कहकर शरद यादव, और “टनाटन” कहकर बंशीलाल महतो भी विवादों में घिर चुके हैं.

आज भी केवल भाई, पति, पिता और बेटा ही नहीं बल्कि हर पुरुष रिश्तेदार के लिए स्त्री की आजादी एक चुनौती बनी हुई है.

“फलां की लड़की बहुत तेज है. फलां ने अपनी बहू को सिर पर चढ़ा रखा है. सिर पर नाचने न लगे तो कहना.” जैसे जुमले किसी भी आधुनिक पौशाक पहनी, कार चलाती या फिर बढ़िया नौकरी करती अपने मन से जीने की कोशिश करती महिला के लिए सुने जा सकते हैं.

धर्म या समुदाय चाहे कोई भी क्यों न हो, महिलाओं को सदा निचली सीढ़ी ही मिलती है. एक उम्र के बाद खुद महिलाऐं भी इसे स्वीकार कर लेती हैं और फिर वे भी महिलाओं के प्रतिद्वंद्वी पाले में जा बैठती हैं. यह स्थिति संघर्षरत महिला बिरादरी के लिए बेहद निराशाजनक होती है.

जानवर जिंदा है

हर व्यक्ति मूल रूप से एक जानवर ही होता है जिसे समाज में रहने के लिए विशेष प्रकार से प्रशिक्षित किया जाता है. अवसर मिलते ही व्यक्ति के भीतर का जानवर खूंखार हो उठता है जिसकी परिणति बलात्कार, हत्या, लूट जैसी घटनाएं होती हैं. यही पाशविक प्रवृत्ति उसे महिलाओं के प्रति कोमल नहीं होने देती.

धर्म और संस्कृति के नाम पर सदियों से महिलाओं के साथ बर्बरता पूर्ण व्यवहार किया जाता रहा है. विभिन्न धर्मों में इसे भिन्न-भिन्न नाम से परिभाषित किया जाता है किन्तु मूल में सिर्फ एक ही तथ्य है और वो ये कि महिलाओं की उत्पत्ति पुरुषों को खुश रखने और उनकी सेवा करने के लिए ही हुई है. महिलाओं की यौनिच्छा को भी बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता है. यहाँ तक कि विभिन्न प्रयासों से इस नैसर्गिक चाह को दबाने पर भी बल दिया जाता है.

मुस्लिम समुदाय की खतना प्रथा यानी फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन को इन प्रयासों में शामिल किया जा सकता है. वर्ष 2020 में यूनिसेफ द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में करीब 20 करोड़ बच्चियों और महिलाओं के जननांगों को नुकसान पहुंचाया गया है. हाल ही में “इक्विटी नाउ” द्वारा जारी नई रिपोर्ट के अनुसार खतना प्रथा विश्व के 92 से अधिक देशों में जारी है. इस प्रथा के पीछे धारणा यह रहती है कि ऐसा करने से स्त्री की यौनेच्छा खत्म हो जाती है.

महिलाओं को अपनी संपत्ति समझे जाने के प्रकरण आदिकाल से सामने आते रहे हैं. बहुपत्नी प्रथा इसी का एक उदाहरण है. मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार मुसलमानों को चार शादियां करने की छूट है. हिन्दू और ईसाइयों में हालांकि बहुपत्नी प्रथा को कानूनन प्रतिबंधित कर दिया गया है लेकिन यदाकदा इसकी सूचनाएं आती रहती हैं.

गुजरात प्रान्त में “मैत्री करार” नामक प्रथा प्रचलित थी जो कहीं-कहीं लुकेछिपे आज भी जरी है. इसमें स्त्री-पुरुष बाकायदा करार करके साथ रहना स्वीकार करते थे. यह करार “लिव इन रिलेशनलशिप” जैसा ही होता है. फर्क सिर्फ इतना है कि इसमें लिखित में करार होने के कारण शायद महिलाएं मानसिक दबाव में रहती हैं और पुरुष के खिलाफ किसी तरह की कोई शिकायत कहीं दर्ज नहीं करवाती होंगी. मैत्री प्रथा में पुरुष हमेशा शादीशुदा होता है. हालाँकि गुजरात के उच्च न्यायलय ने मीनाक्षी जावेरभाई जेठवा मामले में इसे शून्य आदित घोषित कर दिया था.

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स्त्री-पुरुष संबंधी मूल क्रिश्चियन मान्यता के अनुसार गॉड ने मैन को अपनी इमेज से बनाया और वुमन को उसकी पसली से. पुरुष को यह चाहिए कि वह महिला को दबाकर रखे और उससे खूब आनंद प्राप्त करे.

दोषी कौन?

ताजा हालातों के अनुसार अफगानिस्तान की महिलाएं पूरे विश्व क्व लिय्व सहानुभूति और दया की पात्र बनी हुई हैं क्योंकि तालिबानियों द्वारा लगातार उनकी स्वतंत्रता को कैद करने वाले फरमान जारी किये जा रहे हैं. उन पर विभिन्न तरह की पाबंदियां लगाईं जा रही हैं.

तालिबान शासन में लड़कियों को पढने की इजाजत तो दी गई है लेकिन इस पाबंदी के साथ कि वे लड़कों से अलग पढ़ेंगी और उनसे किसी तरह का कोई सम्पर्क नहीं रखेंगी. यूँ देखा जाये तो इस तरह की व्यवस्था भारत सहित अन्य कई देशों में भी है लेकिन यहाँ इसे महिलाओं के लिए की गई विशेष व्यवस्था के नाम पर देखा और इसे महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के रूप में प्रचारित किया जाता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के अनुसार तालिबान में 90 प्रतिशत महिलाएं हिंसा का शिकार है और 17 प्रतिशत ने यौन हिंसा झेली है. मगर मात्र अफगानिस्तान ही नहीं बल्कि विश्व के प्रत्येक कोने से लड़कियों और युवा महिलाओ के लिए इस तरह की आचार संहिता या फतवे जारी होने की खबरें अक्सर पढ़ने-सुनने में आती रहती हैं.

वैश्विक समुदाय के परिपेक्ष में देखें तो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार भारत में महिलाओं के खिलाफ हर घण्टे लगभग 39 अपराध होते हैं जिनमें 11 प्रतिशत हिस्सेदारी बलात्कार की है

यूरोप में महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर हुए ताजा सर्वे बताते हैं कि लगभग एक तिहाई यूरोपीय महिलाएं शारीरिक या यौन हिंसा की शिकार हुई हैं.

पेरिस स्थित एक थिंक टैंक फाउंडेशन “जीन सॉरेस” के मुताबिक देश की करीब 40 लाख महिलाओं को यौन हिंसा का शिकार होना पड़ा. यह कुल महिला आबादी का 12 प्रतिशत है यानी देश की हर 8 वीं महिला अपनी जिंदगी में रेप का शिकार हुई है.

जनवरी 2014 में व्हाइट हाउस की एक रिपोर्ट में खुलासा हुआ था कि दुनिया के सबसे विकसित कहे जाने वाले देश में भी महिलाओं की स्थिति कुछ खास अच्छी नहीं है. यहाँ भी हर पांचवीं महिला कभी न कभी रेप की शिकार हुई है. चौंकाने वाली बात ये है कि इनमें से आधी से अधिक महिलाएं 18 वर्ष से कम उम्र में इसका शिकार हुई हैं.

न्याय विभाग द्वारा 2000 के अध्ययन में पाया गया कि जापान में केवल 11 प्रतिशत यौन अपराधों की सूचना ही दी जाती है और बलात्कार संकट केंद्र का मानना है कि 10-20 गुना अधिक मामलों की रिपोर्ट के साथ स्थिति बहुत खराब होने की संभावना है.

कहीं खतना, कहीं खाप तो कहीं ओनर किलिंग… हर तरफ से मरना तो केवल स्त्री को ही है. यह भी गौरतलब है कि इस तरह के फरमान अधिकतर युवा महिलाओं के लिए ही जारी किए जाते हैं और इनका विरोध भी इसी पीढी द्वारा ही किया जाता है. तो क्या उम्रदराज महिलाएं इन फरमानों या शोषण किये जाने वाले रीतिरिवाजों से सहमत होती हैं? क्या उन्हें अपनी आजादी पर पहरा स्वीकार होता है? या फिर चालीस-पचास तक आते-आते उनकी संघर्ष करने की शक्ति समाप्त हो चुकी होती है?

उम्रदराज महिला नेत्रियों के उदाहरण देखें तो बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी बलात्कार के मामलों में लड़कों पर अधिक दोषारोपण नहीं करती वहीं दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी लड़कियों को ही नसीहत देती नजर आई कि उन्हें एडवेंचर से दूर रहना चाहिए.

अमूमन घर की बड़ी-बूढ़ियां समाज के ठेकेदारों द्वारा निर्धारित इन नियमों को लागू करवाने में महत्ती भूमिका निभाती हैं. एक प्रकार से वे अपने-अपने घर में इन फैसलों का पालन करवाने के लिए अघोषित जिम्मेदारी भी लेती हैं. कहीं ये युवा पीढी के प्रति उनकी ईर्ष्या या जलन तो नहीं? कहीं ये विचार तो उनसे ये सब नहीं करवाता कि जो सुविधाएं या आजादी भोगने में वे नाकामयाब रही वह स्वतंत्रता आने वाली पीढ़ी को क्यों मिले. ठीक वैसे ही जैसे आम घरों में सास-बहू के बीच तनातनी देखी जाती है. सास ने अपने समय में अपनी सास की हुकूमत मन मारकर झेली थी, वह यूँ ही बिना किसी अहसान के अपनी बहू को सत्ता कैसे सौंप दे? या फिर उम्रदराज महिलाओं के इस आचरण के पीछे भी कोई गहरा राज तो नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि पुरूष प्रधान समाज का कोई डर उनके अवचेतन मन में जड़ें जमाए बैठा है और वही डर महिलाओं से अपने ही प्रजाति की खिलाफत खड़ा कर रहा हो.

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प्रश्न बहुत से हैं और उत्तर कोई नहीं. जितना अधिक गहराई में जाते हैं उतना ही अधिक कीचड़ है. चाहे किसी भी धर्म की तह खंगाल लो, स्त्री को सदा “नर्क का द्वार” या फिर “शैतान की बेटी” ही समझा जाता रहा है और उसके सहवास को महापाप. सदियां गुजर चुकी हैं लेकिन अभी भी कोई तय तिथि नहीं है जिस पर स्त्री की दशा पूरी तरह से सुधरने का दावा किया जा सके. हजारों सालों से जिस व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं आ सका उसकी उम्मीद क्या आने वाले समय में की जा सकती है?

उम्मीद पर दुनिया कायम है या आशा ही जीवन है जैसे वाक्य मात्र छलावा ही दे सकते हैं कोई उम्मीद नहीं.

पंडितों की नहीं दिल की सुनें

36 साल की प्रिया प्राइवेट ऑफिस में सीनियर एग्जीक्यूटिव है. उस का एक प्यारा सा बच्चा भी है. पति मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं. देखने से लगता है कि वह एक पूर्ण और खुशहाल जिंदगी जी रही है. मगर असल में वह बेहद तनाव भरी जिंदगी जी रही है. दिन भर ऑफिस के झमेले और रात में पति से लड़ाई झगड़ा. सुबहशाम बच्चे को संभालने की टेंशन और बाकी समय सास के तानो की चुभन.

दरअसल शादी के बाद से ही प्रिया और उस के हस्बैंड की कभी भी नहीं बनी. दोनों के ख्यालात नहीं मिलते. घर से जुड़े किसी भी फैसले में उन की सहमति नहीं बनती. छोटीछोटी बातों पर उन के बीच ईगो आड़े आ जाता है. दोनों ने अब तक का सफर लड़तेझगड़ते ही पूरा किया है और उस पर बीचबीच में सास के द्वारा आग में घी डालने की आदत रिश्ता बिगाड़ने का ही काम करती है. बकौल प्रिया शादी के बाद उस की जिंदगी नरक बन गई है.

ऐसा नहीं है कि प्रिया के पिता ने शादी से पहले पूरी तफ्तीश नहीं कराई थी. शादी से पहले लड़के और उस के घर की पूरी छानबीन कराई थी. यही नहीं शादी से 2 साल पहले ही उन्होंने ज्योतिषी के आगे अपनी बेटी की कुंडली रख दी थी. कुंडली में गुण न मिलने की वजह से कई लड़कों को नकार भी दिया गया था. मगर उन्हें क्या पता था कि इतनी मेहनत से सेलेक्ट किए गए लड़के के साथ पूरे रीतिरिवाजों के साथ की गई शादी का यह हश्र होगा.

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कहानी यहीं खत्म नहीं हुई है. प्रिया के पिता लगातार पंडितों द्वारा बताए जा रहे उपायों को आजमा रहे हैं. पढ़ीलिखी प्रिया भी लगातार आँख बंद कर के पिता और पंडितों द्वारा दिए जा निर्देशों का पालन करती आ रही है. मसलन प्रिया रोज सुबहसुबह राम दरबार के आगे घी का दीपक जलाती है. शुक्रवार को मीठी चीजों का दान करती है. चमेली के तेल में सिंदूर मिला कर पेस्ट बनाती है और फिर पान के पत्ते पर सिंदूर से सीताराम लिख कर संध्या काल में मंदिर में रख कर आती है. हर शनिवार को शाम में पीपल के नीचे सरसों के तेल का दिया भी जलाती है.

दरअसल बच्चों के बड़े होते ही माँबाप की पहली चिंता होती है उन के लिए योग्य जीवनसाथी की तलाश और यह तलाश पूरी करने के लिए लोग पहुँच जाते हैं ज्योतिषी या पंडित की शरण में.

ज्योतिषी के आगे बच्चों की जन्मकुंडली रखते हुए घरवालों को अहसास होता है जैसे ज्योतिषी ही उन के सुखद वैवाहिक जिंदगी की गारंटी दे सकता है. ज्योतिषी द्वारा बच्चों की कुंडली मिलाना ही सब कुछ है.

असल में रिश्ते आपसी विश्वास और प्रेम की बुनियाद पर टिके होते हैं न कि बेफालतू के टोनेटोटकों पर. पतिपत्नी के बीच यदि आपसी समझ और त्याग की भावना हो तो किसी भी तरह के घरेलू विवाद उन के बीच तनाव पैदा नहीं कर सकते. मगर हमारे यहां शुरू से ही आपसी तालमेल के बजाय ज्योतिषीय घालमेल पर ज्यादा जोर दिया जाता रहा है.

विवाह पूर्व कुंडली मिलान या गुण मिलान को अष्टकूट मिलान या मेलापक मिलान कहते हैं. इस में लड़के और लड़की के जन्मकालीन ग्रहों तथा नक्षत्रों में परस्पर साम्यता, मित्रता तथा संबंध पर विचार किया जाता है.ज्योतिषशास्त्र ने मेलापक में अलगअलग आधार पर गुणों की कुल संख्या 36 निर्धारित की है जिस में 18 या उस से अधिक गुणों का मिलान विवाह और दाम्पत्य सुख के लिए अच्छा माना जाता है.

अष्टकूट मिलान में वर्ण, वश्य, तारा, योनि, राशीश (ग्रह मैत्री), गण, भटूक और नाड़ी का मिलान किया जाता है. अष्टकूट मिलान ही काफी नहीं है. कुंडली में मंगल दोष भी देखा जाता है, फिर सप्तम भाव, सप्तमेश, सप्तम भाव में बैठे ग्रह, सप्तम और सप्तमेश को देख रहे ग्रह और सप्तमेश की युति आदि भी देखी जाती है.

ज्योतिषियों और पंडितों द्वारा लोगों के दिमाग में यह बात पूरी तरह भर दी गई है कि पतिपत्नी के बीच ग्रहों की मित्रता आपसी तालमेल निर्धारित करती है. दोनों के ग्रह ही पतिपत्नी के संबंध को अच्छा बनाते हैं. पति के लिए अच्छा वैवाहिक जीवन शुक्र से आता है. पत्नी के लिए यह काम बृहस्पति करता है. पतिपत्नी का आपसी सम्बन्ध और तालमेल कुल मिला कर बृहस्पति और शुक्र पर निर्भर करता है. जब शुक्र या बृहस्पति कमजोर हों तो वैवाहिक जीवन में काफी समस्याएं आती हैं. ये समस्यायें शनि , मंगल , सूर्य , राहु और केतु से काफी बढ़ जाती हैं और चन्द्र , बुध और बृहस्पति इन समस्याओं को कम करते हैं.

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इतना सब करने के बाद भी यदि रिश्ता टूटने की कगार पर पहुंच जाए तो जो उपाय बताए जाते हैं वे बेसिरपैर के होते हैं.

पते की बात यह है कि ज्योतिष के चक्कर में पड़ने से कुछ नहीं होता. शादी से पहले एकदूसरे को समझना और परखना जरूरी होता है. जीवनसाथी से आप के गुण नहीं बल्कि ख्यालात और सोच मिलनी चाहिए. मानसिक स्तर समान हो तो रिश्ते अधिक टिकते हैं. इसलिए शादी तभी करें जब आप को मनपसंद जीवनसाथी मिले.

सिर्फ रस्म निभाने या लोगों का मुंह बंद करने के लिए शादी करना उचित नहीं है. कई लड़कियाँ अपने भविष्य की चिंता में कैसे भी लड़के से इसलिए शादी कर लेती हैं क्यों कि उन के रिश्तेदार और पड़ोसी हर मोड़ पर उन्हें भय दिखाते हैं कि समय पर शादी न हुई तो उन का भविष्य खराब हो जाएगा.

पर जरा इस बात पर गौर जरूर करें कि यदि सही लड़के से शादी नहीं की गई तो क्या भविष्य के साथसाथ वर्तमान भी खराब नहीं हो जाएगा? लड़तेझगड़ते, एकदूसरे के खिलाफ जहर उगलते और तानों के बाण चलाते हुए जीने से बेहतर है कि थोड़ा धैर्य रखें और जिस के लिए दिल स्वीकृति दे उसी से शादी करें. ताकि बाद में अपने ही फैसले पर आप को पछताना न पड़े.

यदि लाख कोशिशों के बावजूद आप दोनों अपने रिश्ते को संभाल नहीं पा रहे हैं तो भी लड़तेझगड़ते रिश्ते निभाते जाने से बेहतर है कि आप एकदूसरे से अलग हो जाए. ऐसा न करने का मतलब है खुद को और अपने बच्चों को मेंटली टॉर्चर करना. छोटे बच्चों पर मांबाप की लड़ाई का बहुत बुरा मनोवैज्ञानिक असर पड़ता है. इस सन्दर्भ में सिंबा गर्ल सारा अली खान का यह वक्तव्य काफी मायने रखता है जब वह एक इंटरव्यू के दौरान कहती हैं ,” ऐसे घर में रहना कभी अच्छा नहीं होता है जहां लोग खुश न रहें. मेरे माता-पिता दोनों खुश, बिंदास और कूल हैं. यदि वे एक साथ होते तो शायद ऐसे नहीं होते.

” मुझे लगता है कि उन्हें भी यह महसूस हो चुका है. शुक्र है कि अब मेरे पास एक के बजाय 2 खुशहाल और सिक्यॉर घर हैं.”

सच है कि उम्र भर एकदूसरे को झेलते रहने से लाख गुना अच्छा है अलग हो जाना और दोस्तों की तरह अलग रह कर भी साथ निभाना. टूटे हुए रिश्ते से अलग हो कर आप चाहें तो नए रिश्ते में बध जाएँ या फिर सुकून के साथ अकेले रहे. दोनों ही मामलों में आप बेहतर जिंदगी का अहसास कर पाएंगे.

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