Winter Special: रस्मों का जंजाल महिला है बेहाल

हमारे देश में पूरे वर्षभर किसी न किसी त्योहार की धूम रहती है. 4 बड़े मुख्य त्योहारों के अतिरिक्त विभिन्न राज्यों में कई छोटेछोटे त्योहार भी मनाए जाते हैं. त्योहारों के अतिरिक्त कई व्रत एवं उपवास भी होते हैं जिन्हें कुंआरी एवं विवाहित दोनों ही तरह की शिक्षित, अल्पशिक्षित एवं अशिक्षित सभी प्रकार की महिलाएं करती हैं. यों तो ये व्रतत्योहार, उपवासउद्यापन  एक प्रकार से सामाजिक मेलमिलाप का एक माध्यम हैं, किंतु इन के पीछे छिपी कई समस्याएं भी हैं. इस विषय पर कुछ महिलाओं से की गई बात के कुछ अंश यहां साझोकर रही हूं.

फिफ्टीफिफ्टी सी बात

45 वर्षीय अर्चना से जब इस विषय पर बात हुई तो वह कहने लगी, ‘‘हम तो मारवाड़ी हैं, हमारे यहां कई प्रकार के त्योहार एवं व्रतउपवास होते हैं, जिन में अपने रिश्तेदारों से सजधज कर मेलमिलाप होता है. खानाखिलाना भी खूब होता है. फिर घरेलू महिला हूं तो इस बहाने सजधज भी लेती हूं वरना वही रोज का चूल्हाचौका एवं साफसफाई. अकसर ये सारे व्रत विवाहोपरांत पति की लंबी आयु, परिवार में समृद्धि एवं शांति के लिए किए जाते हैं.

‘‘18 वर्ष की उम्र में मेरा विवाह हुआ था और मैं इतने बरसों से ये सब कर रही हूं. लेकिन मेरे पति विवाह पूर्व ही लड़कियों से बहुत आकर्षित होते थे. मातापिता ने इन का 23 वर्ष की उम्र में ब्याह कर दिया कि लड़का कहीं हाथ से न निकल जाए. लेकिन विवाहोपरांत भी ये नहीं सुधारे. और तो और हमारा फैमिली बिजनैस था जो ससुरजी ने जमाया हुआ था, वह भी नहीं संभाला. ससुरजी तो चल बसे और ये ठहरे इकलौते बेटे, इन से न तो घर संभाला न ही व्यापार. बस जहां कोई भी लड़की खूबसूरत या बदसूरत देखी  कि लगे मुंह मारने.

‘‘अब तो जी चाहता है कि करवाचौथ का व्रत ही छोड़ दूं क्योंकिजो पति जिम्मेदारी न उठाए उस के लिए व्रत कैसा. लेकिन लोकलाज के चलते कर रही हूं क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो मेरी सास तो मानो जीतेजी ही मर जाएगी.

‘‘घर में दुकान है, जिसे मैं संभालती हूं, साथ ही सिलाईकढ़ाई भी करती रहती हूं. विवाह होते ही मैं ने कहा था मु?ो बुटीक खुलवा दो पर किसी ने सुनी नहीं. मैं फालतू के रीतिरिवाजों में लगी रही इस के बजाय आय का कोई साधन जुटाती तो अच्छा रहता.’’

औफिस में मैनेजर थी अब घर की गुलाम   

39 वर्षीय विपाशा कहती है, ‘‘31 वर्ष की उम्र में मेरा विवाह हुआ. एक अच्छी कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत थी. जब विवाह हुआ तो मेरी आय पति के बराबर थी. पति एवं ससुर भी अच्छी कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत हैं. इसलिए अपनी नौकरी छोड़ कर जब इन के शहर और परिवार में आई तो शायद इन्हें मेरी नौकरी से कोई वास्ता नहीं था. मैं ने नए शहर में नौकरी के लिए खोज शुरू कर दी.

‘‘कुछ अवसर प्राप्त भी हुए तो ससुर बोले कि हम लगवा देंगे कहीं अच्छी जगह. इधर सास बहुत  ही कम पढ़ीलिखी एवं अंधविश्वासी महिला हैं. सो मु?ो न जाने कितने रस्मोरिवाज में उल?ाए रखती हैं. साथ में यह भी कहती हैं कि तू तो पहले पढ़तीलिखती, नौकरी ही करती रही तो घर संभालना क्या होता है तू क्या जाने. पहले तु?ो मैं  वह सब सिखाऊंगी.’’

3 वर्ष इसी तरह बीत गए और एक बेटा भी पैदा हो गया. न तो वह बच्चे की जिम्मेदारी लेते हैं और न ही पति मेरा साथ देते हैं. बच्चे को भी वे पुराने ढर्रे के अनुसार ही रखते हैं. कई बार पति से कहा भी कि यह कैसा माहौल है, किंतु वे चाहते हैं कि मैं उन की मां के अनुसार चलूं. यदि उन की किसी बात की अनदेखी करूं तो घर में कुहराम मच जाता है. जैसे उन के द्वारा किए गए ढकोसले ही उन के पति की तरक्की की जड़ हैं.

कई बार महसूस होता है कि फिर इतना पढ़नालिखना किस काम का. विवाहपूर्व भी  मौजमस्ती नहीं की कि पढ़ाई करनी है और विवाह उपरांत ये ढकोसले. ऐसा महसूस होता है कि इन्हें जगत दिखावे के लिए पढ़ीलिखी लड़की चाहिए थी बस, पर रखते तो मु?ो अनपढ़ों जैसे ही हैं. वर्षभर के व्रतत्योहार, उपवास आदि में लगी

रहती हूं.

‘‘दुख की बात यह है कि बड़ी विचित्र महिला हैं मेरी सास. कहती हैं कि साड़ी तो जरीगोटा की पहनो बहू. पर यदि अपने ब्याह के गहने पहनना चाहूं तो कहती हैं कोई खींच लेगा आर्टिफिशियल पहन लो. किसी भी तरह का अपना शौक तो पूरा कर ही नहीं सकती हूं. हालांकि मु?ो ये सब पसंद नहीं पर परिवार की शांति के लिए करना पड़ रहा है. कभीकभार ऐसा महसूस होता है जैसे पूरा परिवार अपनी मनमरजी से रहता है और मैं यहां इन की गुलाम हूं.’’

आंख फूटी पीड़ा मिटी

मुंबई में रहने वाली स्मिता कहती हैं,

‘‘50 वर्षीय हूं. जब विवाह हुआ तो 7 वर्ष इंजीनियर के पद पर नौकरी कर चुकी थी. पिताजी के घर में न तो कोई बंदिश थीं और न ही अंधविश्वासी मान्यताएं. मुंबई जब रिश्ते की बात चली तो सोचा बड़ा शहर है, नौकरी के अवसर भी ज्यादा मिलेंगे. पति भी बहुत खुले विचारों के मिले. लेकिन परिवार के अन्य सदस्य बहुत ही दकियानूसी विचारों के थे. मजे की बात यह कि उन के स्वयं के लिए कोई नियम कायदाकानून नहीं था और मेरे लिए एक लंबी सूची थी रस्मोंरिवाजों और नियमों की.

‘‘मेरी सास रोज सुबह 9 बजे सो कर उठती. 12 बजे नहाती, चार बजे लंच बनता और रात को 1 बजे हम खाना खा कर सोते. परिवार में ससुर, देवर, पति 3 जने नौकरी वाले थे, जिन के टाइमटेबल के अनुसार मु?ो रसोई और घर की व्यवस्था भी करनी होती जिस में सास का कोई सहयोग न मिलता. लेकिन अमावस के दिन सास सुबह जल्दी नहाधो कर खीर बना लेती और कोई भोग लगाती.

‘‘मु?ो यह अमावस, पूनम तिथियां ध्यान नहीं रहती थीं क्योंकि मायके में ये सब ज्यादा देखासुना नहीं था. दुख की बात यह थी कि सास मु?ो पहले से बताती भी नहीं और फिर बाद में ताना मारती. सालभर के कुछ व्रतउपवास मैं ने किए भी, लेकिन वह हरेक में कुछ न कुछ कमी  निकाल कर घर में ?ागड़ा करती.

‘‘मैं कोशिश करती कि घर में इन बातों को ले कर कोई ?ागड़ा न हो तो सास से पहले से ही पूछती कि यह कैसे करना है. तो भी वे ताने देती और एक दिन ससुर ने मु?ो 12 मास के व्रतत्योहार की पुस्तक ला दी. मैं ने वह पुस्तक पढ़ कर व्रत रख कर रस्में करना शुरू किया. लेकिन फिर भी सास का मुंह तो बना ही रहता.

‘‘मु?ो मन ही मन बहुत अखरता कि कहां इन जंजालों में फंसी हूं. सब से ज्यादा बुरा तब लगा जब करवाचौथ थी. सास ने मु?ो मेहंदी लगाने का भी समय नहीं दिया. हर दिन घर का सारा कम मुझोपर डाल देती और त्योहारों पर भी सजधज करने का जैसे कोई मतलब ही न होता. हर त्योहार पर रीतिरिवाजों को ले कर घर में ?ागड़ा होता. यदि मैं कुछ पूछती तो ब्लैकमेल करती कि मैं तु?ो बताऊंगी ही नहीं, फिर तू कैसे करेगी. जबकि वह स्वयं ही नवरात्रों में प्याज की टोकरी रसोई  से बाहर करवाती.’’ और पानीपूरी के शौकीन मेरे पति और देवर जब घर में हे पानी पूरी का इंतजाम कर लेते तो उनसे रहा न जाता और खा लेतीं. इतना कह वे ठहाका मार कर हंसने लगीं.

‘‘मेरे लिए तो वैसे भी इन ढकोसलों की कोई अहमियत नहीं थी सो पलट कर जवाब दे दिया कि आप क्या नहीं बताएंगी, मैं करूंगी ही नहीं. सो मैं ने वही किया न व्रतउपवास करूंगी और न ही रस्में होंगी. तो फिर सास कमी भी कैसे निकलेगी.

‘‘सब छोड़छाड़ दिया और अपने पति के व्यापार में हाथ बंटाना शुरू किया. जब बेटा पैदा हुआ तो उस के साथ व्यस्त रही और उस के बड़े होने पर अपना फैमिली बिजनैस देखने लगी.’’

महिलाएं अपना समय उत्पादक काम में दें

इन उदाहरणों से यह समझोआता है कि जो व्रतउपवास या त्योहार मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य के फायदे के लिए बनाए गए हैं उन में झठे रीतिरिवाज के ढकोसले घुसेड़ कर सिर्फ महिला ही नहीं अपितु पूरे परिवार के लिए तनाव का माध्यम बना दिए क्योंकि पुरुषों को तो करने नहीं पड़ते इसलिए उन्हें इस से कोई फर्क नहीं पड़ता. वे सोच लेते हैं सासबहू की आपसी लड़ाई है. लेकिन यह सिर्फ लड़ाई नहीं होती है बल्कि परिवार में आई नई बहू को दबा कर रखने की चालें होती हैं.

इस तरह की हरकतों से न सिर्फ उन का मोरल डाउन किया जाता है बल्कि यह भी दिखाया जाता है कि जैसे ससुराल वाले तो सर्वगुणसंपन्न हैं और बहू तो जैसे उन पर कलंक है जिसे समाज की रीतियां नहीं आतीं, जबकि हरेक प्रांत एवं जाति के रीतिरिवाजों में जगह, पसंद एवं समय के अनुसार बदलाव हुए हैं. लेकिन परिवार के बड़े जिन्हें अपने से छोटों को बरगद की सी छांव देनी चाहिए इन ढकोसलों के माध्यम से उन्हें अपनी आकांक्षाओं का शिकार बनाते हैं.

महिलाएं इतनी मेहनत इन रूढि़यों एवं फालतू की रस्मों को सीखने एवं निभाने में करती हैं उस के बजाय कुछ उत्पादक कार्य करे जैसे यदि पढ़ीलिखी है तो व्यापार या नौकरी, अनपढ़ या कम पढ़ीलिखी है तो कोई हाथ का काम करे तो घर में कुछ आर्थिक मदद मिले. यदि ये सब न करे तो अपने बच्चों की परवरिश अच्छे तरीके से करे. उन के साथ समय बिताए, उन के साथ खेलेकूदे, उन्हें स्वास्थ्य संबंधी जानकारी दे तो निश्चितरूप से वे बच्चे एवं परिवार स्वस्थ, सुंदर एवं शांतिपूर्ण होगा और फिर 1-1 परिवार मिलकर ही तो देश का निर्माण करता है.

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