Serial Story: तिलिस्मी के सफर में- जब कोरोना के कहर ने तोड़े पूर्बा के सपने

Serial Story: तिलिस्मी के सफर में (भाग-3)

आज के इस मौडर्न जमाने में पापा जैसे मीडियोकर लोग दो पैसे के लिए घर को अशांति का अखाड़ा बनाए रहते हैं, उन्हें आगे बढ़ने, सपनों का पीछा करने से कोई मतलब नहीं है. बस हमेशा आटेदाल का भाव ही गिनते रह जाएंगे. दुर्बा भी तो वैसी है. पूर्बा इतनी करीबी और तंगहाली में नहीं जी सकती. उसे लाट साहेबी ही पसंद है, चाहे ये लोग कितना ही उस का मजाक बनाएं.

इन दिनों पूर्बा धूप में रंग उड़े खाली टीन के डब्बे की तरह हो गई है. ऊपर से पीटो तो ढेर सारी निरर्थक आवाजें, अजूबा बातें ही उस का सहारा थीं इन दिनों, ‘‘बस कुछ दिन और देखना अमुक अभिनेता, अमुक राजनेता, अमुक सैलिब्रिटी मु झे अपने पास बुला लेंगे. मैं अब कुछ दिन में ही मैनेजर बन जाने वाली हूं. फिर छोटे से कमरे में चिकचिक करने वाली बहन के साथ मु झे कैद नहीं रहना होगा. फ्लैट का सार सामान ले कर मैं उस से बड़े फ्लैट में शिफ्ट हो जाऊंगी,’’ अनर्गल, अविराम वह खुद को तसल्ली देती रहती.

दुर्बा एक दिन खासा गुस्सा हो गई, ‘‘सारा दिन घर के लिए हम खट मरें और यह महारानी खाट पर पड़े अंशुल से अपनी सेवा कराए. उठो महारानी दीदी. अंशुल को  झूठी माया के मोहजाल में फांस तुम ने उसे पढ़ाई से दूर किया तो अब मैं तुम्हारी दुश्मन. पापा कुछ सालों में रिटायर हो जाएंगे. अंशुल को जिम्मेदारी न सम झा कर उसे हवा में उड़ा रही हो. बिस्तर पर पड़ेपड़े गाना सुनने के बजाय उठ कर घर में कुछ हाथ बंटाओ.’’

‘‘तू बड़ी है कि मैं बड़ी?’’

‘‘जिम्मेदारी कौन उठा रहा है? परिवार के कामों में कौन हाथ बंटा रहा है? भाई को पढ़ने में मदद कौन कर रहा है? तुम्हारी यहां नहीं चलेगी दीदी महारानी. पापा का और्डर है वरना घर से बाहर जाने को तैयार रहो.’’

‘‘इस लौकडाउन में?’’

अब तक आशुतोषजी सारा वार्त्तालाप सुन रहे थे, वे खुद को अब रोक नहीं पाए, ‘‘हां इसी लौकडाउन में ही. तभी तो बात बाहर जाएगी और पुलिस आएगी और तभी गरीब अनुशासनप्रिय पिता अपना दुख बता सकेगा. अभी से इस घर में सादी जिंदगी से तालमेल बैठाओ… यहां तुम्हारी मनमानी नहीं चलेगी.’’

झल्लाते हुए पूर्बा ने उस वक्त बिस्तर तो छोड़ दिया, लेकिन गहरे सागर में औक्सीजन खत्म हो गए तैराक की स्थिति थी उस की.

ऐसी जिंदगी उसे पसंद नहीं जहां इतना हिसाबकिताब चलता हो. सुखसुविधाओं पर 1-1 पाई गिन कर खर्चना पड़े. एक घेरे के अंदर सांसें आतीजाती रहें बस. यह कोई जिंदगी है. उसे चाहिए तेज रोशनी का सफर. अनंतअंतहीन एक चमचमाता आलोकवर्ष सा जीवन और वह भी आसान रास्तों से, जहां मधुमालती की लताओं में वसंत का गान छिड़ा हो. जहां पुरवाई की मीठी बयारों ने स्वप्नराज्य तैयार कर दिया हो, जहां उस पर कोई सवाल खड़ा करने की गुंजाइश न हो.

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एक और चांस… पूर्बा ने पहचान के सारे सैलिब्रिटी और उस से लाभान्वित होने

वाले उम्मीदवारों को बारीबारी फोन लगा लिया. कहीं फोन बंद, कहीं नंबर बदली, कहीं फोन बज कर खत्म और कहीं पहचानी नहीं गई वह.

कैसे ये इतने बेरहम हो सकते हैं? किसी तरह अपने पास बुला लेते… उन की बातों से आशाएं जगतीं, इस घर से निकलने की उम्मीद बंधती. पता नहीं, लौकडाउन खुलने के बाद भी होटल में सब को काम पर बुलाया जाएगा या नहीं. इस घर की चारदीवारी में तो जैसे पापा और दुर्बा का भुतहा साया चेंप गया है. कुछ भी करो उन का ही डर मंडराता रहता है. पूर्बा बेइंतहा परेशान सी सोचती जा रही थी.

‘‘निहार,’’ अचानक जैसे उसे बंद गुफा का द्वार मिल गया हो. उस के पापा का इसी शहर में घरेलू साजोसामान का अच्छा बड़ा ऐंपोरियम है. सुना है अभी अपने बड़े भैया के साथ वह भी सा झेदारी में दुकान चलाता है.

अगर इस वक्त वह जल्दी निर्णय नहीं ले पाई तो उस का क्व2-4 लाख की शादी में निबटान कर दिया जाएगा. फिर तो जिंदगी का बेड़ा गर्क हो जाएगा. निहार तब तक अच्छा विकल्प है जब तक उसे बड़ा ब्रेक न मिल जाए. ऐसे भी वह काफी सीधासादा है और उस के प्रेम में भी था. उसे न तो शादी के लिए मनाने में दिक्कत आएगी और न ही बाद में किसी बड़े औफर के लिए छोड़ कर जाने में.

निहार ने फोन जल्दी उठा लिया जिसे से पूर्बा काफी उत्साहित हो उठी.

‘‘निहार, मैं ने तुम्हें इन दिनों बहुत याद किया. मैं तुम्हें याद नहीं आई?’’

‘‘क्यों अकेला मैं ही बचा था, हाई क्लास सोसाइटी के तुम्हारे ढेर सारे दोस्त कहां गए? फिर इंस्ट्राग्राम के फौलोवर्स? वे अब कसीदे नहीं बरसाते तुम पर?’’

‘‘ऐ निहार, तुम इतने बदले से क्यों लग रहे हो? तुम मेरे सच्चे दोस्त हो न? वे सब गए. अब कहां इन बदरंग दीवारों वाले कमरों में इंस्ट्राग्राम के लिए तसवीरें खिंचवाऊंगी. पार्लर भी बंद और ब्यूटी प्रोडक्ट्स की दुकानें भी. पर तुम्हारा प्यार तो इन सब का मुहताज नहीं न… अब तो बस तुम और मैं. निहार, मु झे तुम्हारी जरूरत है. कहो कब आऊं तुम्हारे पास?’’

‘‘मैं नहीं बदला पूर्बा, जरूरत के हिसाब से तुम बदल गई हो. मैं खुद को सम झ चुका हूं और तुम्हें भी. सच्चे प्यार की दुहाई तुम मत दो. मेरा रास्ता अब तुम्हारी गली से हो कर नहीं जाता. आगे फोन मत करना.’’

खुद से दूर फोन फेंक कर पूर्बा निराश सी औंधे मुंह बिस्तर पर गिर पड़ी. हार मानी पूर्बा सिसक पड़ी.

अचानक सिर पर किसी के हाथ का स्पर्श मालूम हुआ. धीरेधीरे

उस के बालों में हाथ फेरता हुआ यह स्पर्श उसे प्रेम और विश्वास के आश्वासन से सराबोर करने लगा. उलटी लेटी पूर्बा सीधी हो गई. दुर्बा को सिर पर हाथ फेरते देख अवाक सी रह गई. वह तो मां की सोच रही थी.

‘‘दुर्बा,’’ वह दुर्बा की गोद में अपना मुंह छिपा कर बिलख पड़ी. क्या दुर्बा अंतर्यामी है. कैसे वह निराशा की घड़ी में साथ हो गई.

‘‘तुम निराश क्यों होती हो दी? तुम इस परिवार की जड़ों में पानी दो, बदले में यह तुम्हें हमेशा छांव देगा. घर के कामों में हाथ बंटाने के बाद बाकी बचे समय में तुम गाने की औनलाइन क्लास शुरू करो, मैं अपने दोस्तों और उन के छोटे भाईबहनों को सूचित कर दूंगी. बस फीस जरा कम रखना. आगे जब तुम्हारे लिए नौकरी की राह आसान होगी तो अपने काम के साथ गाना भी जारी रखना. देखना रोशनी तुम्हारे साथ चलेगी, तुम्हारे सपने पूरे होंगे, लेकिन मेहनत के बल पर.’’

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चौबीस घंटे दुश्मन की तरह सिर पर सवार रहने वाली दुर्बा अचानक कैसे बदल गई? क्या यह वही दुर्बा है? पूर्बा सोच में पड़ गई.

उसे यों एकटक देखती पा कर दुर्बा उस के गाल पर लाड़ से प्यारी सी चपत लगा कर बोली, ‘‘मैं क्या दुश्मन हूं तुम्हारी?’’

पूर्बा ने उठ कर दुर्बा के गाल पर नेह के उत्ताप से भरा एक गहरा चुंबन आंक दिया.

Serial Story: तिलिस्मी के सफर में (भाग-1)

‘‘फिरआज जातेजाते ढाई हजार का उधार ठोंक कर गई तुम्हारी पनौती बेटी पूर्बा.’’ किराना सामान रख कर बापदादा के समय के छोटी से डाइनिंगटेबल से लगी लकड़ी की कुरसी पर बैठते हुए आशुतोष बाबू ने रूमाल से अपने चेहरे का पसीना पोंछा. पूर्बा की मां बिना कुछ कहे घर के काम में जुटी रही.

एक तो उमस भरी गरमी की शुरुआत और यह कोल्हू की चक्की. 3-4 साल जो भी बचे हैं नौकरी के, क्लर्की में ही निकलेंगे वह तो पता है, लेकिन तब तक पसीने में तब्दील होता गाढ़ी कमाई का खून कितना बचा रहेगा सवाल यह है. वही सुबह वही जरा सा अखबार और ढेर सारी मनहूस खबरें. और फिर छूटते ही बड़ा सा बाजार का थैला, नून लाओ तो तेल खत्म, तेल लाओ तो आटा, दाल, प्याजआलू. जिंदगी के साथसाथ एडि़यां घिस गईं. लेकिन चप्पलें वही चलती ही जा रही हैं, वरना खुद के लिए एक बनियान नहीं खरीद पाता.

फटी बनियान वाले बगल को कमीज के नीचे दबा कर वर्षों चला लेते हैं यहां, अच्छी चप्पलों का शौक कहां से पालें. वह बीवी बेचारी अड़ोसपड़ोस की महिलाओं के लिए साड़ी में फौल, पिको सिलने का काम कर लेती है, घर की साफसफाई, रसोई आदि में छोटी बेटी दुर्बा अपनी 12वीं की पढ़ाई के साथ हाथ बंटाती है, तो बचत के फौर्मूले और छोटीछोटी कमाई के भरोसे क्लर्की के वेतन से घर की चक्की जैसेतैसे चल रही है. छोटा बेटा अंशुल अभी 10वीं से 11वीं में गया है और इस में अगर उस के 80% आए हैं तो यह आशुतोष बाबू की छोटी बेटी दुर्बा का ही हाथ माना जाएगा. ये तो जनाब बाल संवारने और कमीज बदलबदल कर आईने के सामने खड़े होने में ही आधी जिंदगी निकाल दें.

‘‘खाना तैयार है पापा. और क्या कह रहे थे आप? दीदी ने फिर उधारी की?’’

‘‘हफ्तेभर पहले दिल्ली जाते वक्त वह ढाई हजार के हेयर जेल, बौडी लोशन, हेयर स्प्रे कई सौ की क्रीम लिपस्टिक, दुनियाभर के चोंचले वाले प्रोडक्ट ले कर गई है. भई मु झे मालूम है वह होटल इंडस्ट्री में है, उसे रिसैप्शन में ड्यूटी बजाते वक्त इन सारी चीजों की जरूरत हो सकती है, लेकिन उसे अपने परिवार की स्थिति को सम झते हुए जरूरत से बाहर की चीजों को अभी खरीदने से बचना चाहिए. नहीं, बस दूसरों की देखादेखी उसे सबकुछ चाहिए. फिर अपने वेतन से ले न. हम बड़ी मुश्किल से यहां परिवार का खर्चा चलाते हैं जब भी आती है हम उसे खाली हाथ भी नहीं जाने देते. अभी अंशुल के स्कूल और कोचिंग की तगड़ी फीस भरनी पड़ी, आगे की पढ़ाई बची है, तेरी पढ़ाई है, शादी का खर्चा, हमारा बुढ़ापा. लेदे कर मेरे दादाजी का यह पुस्तैनी मकान हमारी शरणस्थली बनी हुई है वरना हमारी तो नैया ही डूब जाती. कुछ सम झना ही नहीं चाहती.’’

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‘‘पापा, आप दीदी के खर्चे के बारे में जानते ही कितना हो? वह अपने वेतन के पैसे अपने खानेपीने, विलास वैभव, घूमनेफिरने, पार्टीशार्टी और दिखावे पर खर्च करती है, इसलिए तो नौकरी के बावजूद हमें यहां कुछ मदद करना तो दूर, महीने के जरूरी खर्चे के लिए हम से ही उम्मीद बांधती है. सालभर की नौकरी है 25 हजार उस के होटल की तरफ से दिए फ्लैट के किराए में ही चले जाते, जबकि चाहती तो दूसरों के साथ शेयर वाले फ्लैट में भी रह सकती थी. उसे कटौती नहीं खर्चे सम झ आते हैं, कर्तव्य नहीं अधिकार सम झ आते हैं.’’

‘‘रात को वीडियो कौल कर के कहना उस से कि हर बार उस के दिल्ली जाते ही यहां किराना दुकान से पता चलता है कि फलांफलां सामान की उधारी चढ़ी है. अब हम से यह बरदाश्त नहीं होगा.’’

रात वीडियो कौल तक अगर दुर्बा बिफरती रही तो दुर्बा की मां बड़ी बेटी पूर्बा की ओर से ऐसे कई तर्क रखती गईं जो पूर्बा को भी खयाल न आता. मसलन, उस की सुंदरता और सफलता पर सब जलते हैं. इस खानदान में ऐसी बेटी कभी आज तक हुई है. स्मार्ट खूबसूरत, ऊंची सोसाइटी में रहने वाली, बड़ेबड़े लोगों से मिलनेजुलने वाली. सुंदरता में मु झ पर गई है तो तुम लोगों के पापा चिढ़े रहते हैं. मैं तो कमा कर कुछ दे रही न घर में, फिर मेरी बड़ी न दे तो क्या.’’

‘दीदी सिर्फ सुंदरता में ही नहीं सबकुछ में तुम पर गई है मां,’’ मन ही मन बुदबुदा कर रह गई दुर्बा.

वीडियो कौल उठा ली थी पूर्बा ने. सुंदर आधुनिक छोटे से फ्लैट में अपने बिस्तर पर पूर्बा पसरी पड़ी थी.

सोने का यह कमरा आधुनिक साजोसामान से सुसज्जित था. पूर्बा अपना फोन ले कर बगल वाले हौल में गई. रसाई से लगे डाइनिंग स्पेस में नया फ्रिज दिखाते हुए उस ने बता दिया कि यह उस की तनख्वाह से है और पापा के बिना उस ने यह खरीदा है. रसोई में नया गैस चूल्हा, माइक्रोवैव, यहां तक कि नया डाइनिंग सैट जो पूर्बा ने उस के किसी हाई प्रोफाइल दोस्त के गिफ्ट चैक से लिया था, दुर्बा को दिखाया.

दुर्बा की दृष्टि तेज थी, ‘‘अरे यह विंड चाइम? यह कब लिया?’’

‘‘मेरा एक दोस्त है निहार, उस ने दिया है. निहार हमेशा ही कुछ न कुछ देना चाहता है, मैं ही उसे ज्यादा भाव नहीं देती. जब हमारे होटल में आए दिन बड़ेबड़े नेता, अभिनेता, गायक और अन्य सैलिब्रिटीज आते हैं और मेरे बिना उन का काम चलता भी नहीं, मैं निहार को भाव दे कर अपना भाव क्यों गिराऊं?’’

‘‘दी, आप से एक बात है…’’

‘‘अरे रुकरुक, अभी फोन रखती हूं, दरवाजे पर कोई है, मैं बाद में बात करूंगी,’’ पूर्बा ने फोन काटा और उठ कर दरवाजा खोलने चली गई.’’

‘‘निहार. ड्यूटी खत्म हो गई क्या?’’

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‘‘देखो क्या लाया हूं तुम्हारे लिए. ‘लजानिया’. इटैलियन डिश मैं ने बनाई है… आज होटल मेन्यू में थी, मेरी जिम्मेदारी में, काम खत्म होते ही मैं ने इसे तुम्हारे लिए पैक किया और दौड़ा आया. चीज और सौस का बढि़या कौंबिनेशन बना कर ओवन में रख इस के कई लेयर्स डाले हैं. तुम ने एक बार खाने की इच्छी जताई थी… यह पकड़ो, मैं जा रहा रहा हूं, अभी ड्यूटी बाकी है मेरी.’’

‘‘अरे कमाल करते हो, थैंक्यू. मैं खाना आर्डर करने ही वाली थी.’’

आगे पढ़ें- रिसैप्शन के काउंटर में 10 घंटे खड़ेखड़े….

Serial Story: तिलिस्मी के सफर में (भाग-2)

‘‘ड्यूटी के वक्त होटल का खाना खाती ही हो, क्यों अपने सैलिब्रिटीज सैफ के दिए माइक्रोवैव में नहीं बनाना?’’

‘‘रिसैप्शन के काउंटर में 10 घंटे खड़ेखड़े हड्डी पसली चूर हो जाती है, कौन छुट्टी में खाना बनाए. ऐसे भी ड्यूटी न भी करूं तो भी खाना बनाना मु झे पसंद नहीं. ये चीजें तो शौक की वजह से लीं.’’

‘‘मैं निकलता हूं, कल बताना कैसी लगी तुम्हें डिश, वैसे कल मैं व्यस्त रहूंगा, बड़ा कोई सिंगर रुक रहा है हमारे होटल में, कौंटिनैंटल डिश की जिम्मेदारी रहेगी मेरी.’’

‘‘अरे हां, उन्हें अटैंड करने की जिम्मेदारी तो मेरी ही रहेगी, ठीक है मैं फोन कर लूंगी तुम्हें.’’

दोनों एक ही बड़े होटल प्रौपर्टी से जुड़े थे. इंडियन इंस्टिट्यूट औफ होटल मैनेजमैंट से पढ़ कर निकलते ही कैंपस सिलैक्शन में दोनों का एकसाथ इस बड़े होटल गु्रप में हो गया था. निहार का फूड ऐंड ब्रेवरेज डिपार्टमैंट में और पूर्बा का बतौर ट्रेनी मैनेजर. कस्टमर और सैलिब्रटी गैस्ट की ओर से अगर बढि़या फीडबैक रहा तो होटल उसे सालभर में पदोन्नति दे कर मैनेजर बना सकता है. पूर्बा आगे बढ़ने के लिए, अपने ऐशोआराम को बढ़ाते रहने के लिए हाई प्रोफाइल लोगों को खुश करने में गुरेज नहीं करती.

22 साल की सुंदर पूर्बा 5 फुट 5 इंच की हाइट और खूबसूरत फिगर के साथ इस होटल

गु्रप की शान ही थी. कस्टमर उस के साथ ज्यादा वक्त बिताना चाहते और यह बात पूर्बा बखूबी सम झती थी. पूर्बा तो निहार को भी सम झती थी. आज से नहीं कालेज से ही. लेकिन चतुर पूर्बा निहार के साथ जुड़ने के आखिरी अंजाम से भी वाकिफ थी. ज्यादा से ज्यादा क्या एक बिना घूंघट वाली, बिना परदे वाली दुलहन? उस के सपने बड़े हैं. निहार मगर ज्यादा कहां सम झता था पूर्बा को? उसे बस यही लगता था कि सारी कायनात उस के लिए बारबार संयोग पैदा करती है ताकि वह अपने मनमीत से मिल सके. 23 साल का यह नौजवान अपनी रौ में इतना मतवाला था कि पूर्बा को टटोलने की भी उस ने कभी जहमत नहीं उठाई.’’

रोबदार, रसूखदार चमचमाते पैसों की खनक वाले हाई प्रोफाइल लोगों की दीवानी पूर्बा अपनी पुरानी पहचानको भुला कर तिलिस्मी रोशनी के सफर में निकल पड़ी थी.

उसे गिफ्ट अच्छे लगते हैं, महंगे, बेशकीमती आधुनिक सामान की वह शौकीन है और वह भी इतना कि कोई भी कीमत इस के लिए भारी नहीं. घर की याद यानी क्लर्क पापा की तंगहाली की कहानी. घर यानी मां की दो पैसे बचाने की जद्दोजहद और निहार मतलब एक और घर एक और सम झ कर खर्च करने की कसमसाहट.

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निहार उसे अब अच्छा नहीं लग रहा था. वह जानती थी एक बार वह निहारकी हो गई, तो वह उस पर खर्चना बंद कर देगा, दुनियाभर की सारी रौनकें अपना रास्ता बदल लेंगी. निहार अपने गिफ्ट के बदले 2-4 बार सान्निध्य मांग लेता तो शायद पूर्बा उसे निराश नहीं करती. इतनी भी संगदिल नहीं वह और न ही संस्कार का लबादा चढ़ा रखा उस ने. उस की पसंद की जिंदगी इन राहों से हो कर गुजरती नहीं, उसे मालूम है. लेकिन निहार तो उसे ही चाहता है पूरापूरा. उसे हंसी आती है उस पर. ये छोटीछोटी मासूम अनुभूतियां अगर उसे गुलाम बना सकतीं तो वह यों बड़ेबड़े सम झौते नहीं करती. खैर, निहार की मरजी, जब तक लुटाना चाहे लुटाए.

पूर्बा का एक सिंगर के साथ आजकल कुछ ज्यादा उठनाबैठना था, इतना कि यह गायक अकसर होटल के बदले उस के फ्लैट में रुक जाता. इस की संगति में पूर्बा को महसूस हुआ कि वह अच्छा गाती भी है तो उस नामी सिंगर के अधिक निकट रहने की लालसा ने उसे भरसक गाने की प्रेरणा दी.

कुछ दिनों बाद सिंगर विदेश गया, पूर्बा की लाख कोशिशों के बावजूद उस के साथ संपर्क साधा न जा सका और कुछ ही दिनों में उस गायक की शादी की खबर आई.

पूर्बा बुरी तरह  झुं झला गई, लेकिन ऐसी मनमानी तो अब उस की जीवनधारा का हिस्सा है. किनकिन पर खफा हो. जल्द ही उस गायक की यादों से उबर कर एक 50 साल के रसूखदार राजनेता के संपर्क में आ गई थी वह. हीरे की बेशकीमती हार के ले कर जिंदगी को जीने के वादे थे इस बार उस के लिए.

सपने फिर  झील में कमल की तरह खिलने लगे, इस राजनेता का जैक जगा कर इस बार मैनेजर का पद ले लेने की मंशा थी उस की, अचानक देशविदेश में कोरोना की खबरों ने चौंकाना शुरू किया. खबरें थी कि अपना देश भी बंद हो सकता है. सोशल डिस्टैंसिंग की बात के जोर पकड़ते ही उस के सारे हाईप्रोफाइल संपर्क कट गए. जो जहां था थमने लगा. उस ने कई बड़े लोगों से संपर्क करना चाहा, लेकिन हर ओर से उपेक्षा ही हाथ आई. आशाहीन अनिश्चितता  में उस ने फिलहाल घर लौटने का मन बनाया.

होटल वालों ने अपने कुछ स्टाफ को छोड़ बाकी सारे नए स्टाफ को अनिश्चित समय के लिए छुट्टी दे दी थी. अंदर की बात यह थी कि इन्हें फ्लैट भी खाली कर देने का अल्टिमेटम था. पूर्बा को 15 सौ किलोमीटर दूर घर लौटना था.

2 दिन की शुरुआती जनता कर्फ्यू लगने से पहले उस ने निहार को कौल लगाया. निहार ने फोन उठा लिया. पता चला वह घर आ गया है.

‘‘मु झे बताया नहीं,’’ उलाहना दिया पूर्बा ने.

‘‘तुम्हें फुरसत नहीं ऊंचे लोगों के बीच उठनेबैठने से, हमारी क्या बिसात. इसलिए डिस्टर्ब नहीं किया,’’ निहार का टका सा जवाब मिला उसे.

सरकारी वाहन बंद थे, प्राइवेट वाहन का अतिरिक्त खर्च सहते हुए वह घर पहुंची किसी तरह.

घर उसे मुरगीखाने से कुछ कम नहीं लगता था, तिस पर पापा और दुर्बा तो किसी जेलर की तरह हर वक्त हमला बोले रहते. दिनभर सीखों और उलाहनों की बरसात. ऐसा लगता जैसे कोई कीचड़ फेंक कर मार रहा हो. पूर्बा न  झगड़ा करती थी और न ही उन पर उस की कुछ बोलने की ही इच्छा होती, बस ये लोग इस की नजर में न आएं उस की इतनी भर तो इच्छा थी जो पूरी नहीं हो सकती थी. मां की तो पापा के सामने कोई आवाज ही नहीं थी और भाई अंशुल उसे बस ‘दीदी मौडल बनवा दो’, ‘फलाने से एक बार मेरी बात करवा दो’, ‘दीदी एक जींस दिलवा देना,’ ‘दीदी मु झ पर कौन सा हेयर कट सूट करेगा’, ‘जरा इन गूगल की तसवीरों को देख कर बताना.’

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यद्यपि भाई को हाथ में रखने के लिए उसे सब्जबाग दिखाना पड़ता, लेकिन पूर्बा जानती थी कि उसे कितना संघर्ष करना पड़ रहा है अपने बड़े सपनों को सच करने में, तो क्या वह भाई के लिए कुछ कर पाएगी.

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