जानें कैसे Coronavirus के इलाज में कारगर हो रही है प्लाज्मा थैरेपी 

कोरोना मरीज के बढ़ते आंकड़ो ने पूरे विश्व में नयी-नयी थैरेपी और रिसर्च पर जोर दिया है. साइंटिस्ट और रिसर्चर दिनरात इस बीमारी की वैक्सीन और दवाई पर काम कर रहे है, ऐसे में प्लाज्मा थैरेपी उन मरीजों के लिए वरदान हो रही है, जो कोरोना से अधिक पीड़ित है और सीरियस स्टेज में जा रहे है.

इस बारें में मुंबई की रिजनेरेटिव मेडिसिन रिसर्चर Stem Rx  बायोसाइंस सोल्यूशन्स प्राइवेट लिमिटेड के डॉ. प्रदीप महाजन कहते है कि प्लाज्मा थैरेपी कोई नयी नहीं है. सार्स वायरस, मिडिल ईस्ट वायरस, इबोला, एच1 एन 1 आदि सभी में इस थैरेपी का प्रयोग हुआ है. भारत में कई मरीज इस थैरेपी से ठीक हो चुके है, जो अच्छी बात है. असल में जब वायरल इन्फेक्शन किसी भी शरीर में होता है तो शरीर 2 फॉर्म में काम करती है.

इन्मेट इम्युनिटी और अडॉपटिव इम्युनिटी

इन्मेट इम्युनिटी में शरीर में जो वायरस है, उसे टारगेट करने के लिए नेचुरल किलर सेल्स एक्टिव हो जाते है ये वायरस को सेल के अंदर जाने से पहले और बाद में पहचान कर डायरेक्टली एटैक करते है. असल में वायरस के सेल के अंदर जाते ही एंटीजन आती है, वे नेचुरल किलर सेल और टी सेल होते है, जो एटैक करती है, लेकिन अगर सेल की संख्या बढ़ जाती है और एटैक कम होता है, तो वही सेल बीटा सेल को इन्फॉर्म कर एंटीबाडी बनाना शुरू कर देती है. इसे ही प्लाज्मा थैरेपी कहते है.

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कैसे करती है काम 

प्लाज्मा थैरेपी के प्रयोग से सार्स, स्वाईन फ्लू, इबोला आदि जैसे किसी भी वायरस को ख़त्म करने में अच्छा रेस्पोंस रहा, क्योंकि उस वायरस के बारें में सबको पता था. कोरोना वायरस के बारें में किसी को कुछ पता नहीं था, ऐसे में ये थैरेपी कारगर होगी या नहीं, समझना मुश्किल था.  चीन, इटली, अमेरिका, इजराइल आदि सभी जगहों पर इस थैरेपी का प्रयोग हो चुका है. भारत में ये पहली बार हो रहा है. विदेशो में इसके परिणाम अच्छे रहे. इसकी प्रक्रिया में तीन बातों पर ध्यान रखना जरुरी है,

  • इम्युनिटी अच्छी होने पर अगर कोई व्यक्ति कोरोना वायरस से ठीक हो जाता है. वायरस के प्रवेश के 72 घंटे के बाद में एंटीबाडी का लेवल बढ़ना शुरू हो जाता है और ये 3 महीने तक बना रहता है. इसके बाद उसका स्तर कम होने लगता है. प्लाज्मा थैरेपी के लिए सेम ब्लड ग्रुप के मैच का होना जरुरी है.
  • व्यक्ति रिकवरी के स्टेज में रहने की जरुरत है जब प्लाज्मा का लेवल अधिक हो, इन्फेक्शन के 6 महीने के बाद अगर कोई ब्लड देता है तो उसमें एंटीबाडी बहुत कम होती है. उस प्लाज्मा का कोई अर्थ नहीं बनता,
  • कितनी मात्रा में प्लाज्मा रोगी को देना है इस बारें में भी जानकारी होने की जरुरत है, करीब 200 से 250 एम एल प्लाज्मा दिया जा सकता है. ये मरीज के वेंटिलेटर में जाने से पहले या बाद में 24 से 48 ऑवर्स में दिया जा सकता है और 7 दिन में वह पूरी तरह से रिकवर हो जाता है.

इलाज का खर्चा 

ये खर्चीला नहीं है. इसमें ठीक हुए रोगी को ब्लड डोनेट करना है, उसमे से व्हाईट ब्लड सेल निकल देना पड़ता है और बचा हुआ ब्लड मरीज़ को दे दिया जाता है, ब्लड डोनेशन ही इसमें प्रमुख होता है, ये आमतौर के प्लाज्मा से थोडा अंतर होता है, क्योंकि इसमें कोरोना वायरस से ठीक हुए मरीज के ब्लड ही काम में लाये जाते है.

डोनेशन की कैसी हो व्यवस्था 

हालाँकि भारत में ये नयी थैरेपी है, ऐसे में बहुत कम लोगों को इसकी जानकारी है. व्यवस्था कैसी होनी चाहिए,ताकि अधिक से अधिक लोग ब्लड डोनेट कर सकें इस बारें में पूछे जाने पर डॉ महाजन कहते है कि सरकार की तरफ से एक स्कीम या फाउंडेशन होने की जरुँरत है, जिससे कोविड 19 से ठीक हुए मरीज़ ब्लड डोनेट कर ही अस्पताल से जाएँ, ताकि जरुरत के अनुसार मैचिंग ब्लड ग्रुप के आधार पर प्लाज्मा रोगी को दी जा सकें. कोरोना वायरस से जो भी मरीज़ अधिक सीरियस है और रेस्पोंस अच्छा नहीं कर रहे है. वे जल्दी ठीक हो सकेंगे और मृत्यु दर कम होगी. इसके अलावा इस प्रोसेस को हर अस्पताल नहीं कर सकता, क्योंकि इसके कुछ प्रोसेस है, हर किसी को इसका लाइसेंस नहीं मिल सकता. कब ब्लड लेना और कब ब्लड देना है, इन सारी प्रक्रिया को सही तरह से करना आवश्यक है. किसी को भी ये प्रोसेस करने नहीं दिया जा सकता. इसके लिए आई सी एम् आर और सेंट्रल ड्रग कंट्रोल अथॉरिटी से परमिशन लेने की जरुरत है. नहीं तो लापरवाही होने की आशंका हो सकती है.

इसके अलावा डॉ. महाजन स्टेम सेल थैरेपी को भी इस दिशा में कारगर मानते है, जिसमें मेजोन गामा स्टेम सेल और नेचुरल किलर सेल्स के प्रयोग से भी कोरोना वायरस के रोगी को ठीक करने का सुझाव है. इसके प्रयोग के लिए सारे परमिशन लिए जा रहे है और जल्द ही इस पद्यति से भी इलाज शुरू हो जायेगा. इस पद्यति से भारत में कोरोना वायरस का इलाज पहली बार किया जायेगा.

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अभी अधिक रोगी के मरने की वजह डॉ. प्रदीप मरीजों का अधिक होना, बेड्स कम होना, वेंटिलेटर्स के लिए राह देखना, डॉक्टर्स और हेल्थ केयर्स के स्टाफ का कम होना मानते है. सही समय में सही इलाज मिलने पर मृत्यु कम होती है. उनके हिसाब से ये बीमारी घबराने या डरने वाली नहीं है, पर मीडिया, डॉक्टर्स और सरकार ने इसे विश्व में इतना बढ़ा-चढा दिया है, जिससे लोग डरने लगे है. इसमें बीमार लोगों से अधिक वे खतनाक है जो इस बीमारी को कैरी कर रहे है और उनमें कोई लक्षण नहीं है और वे लोग उसे बुजुर्गों और पहले से मधुमेह, दिल के मरीज़, कैंसर आदि बिमारियों से पीड़ित लोगों को अनजाने में इस वायरस को बाँट रहे है, जो सबके लिए खतरा बन रहा है. सभी को घर में रहना बहुत जरुरी है, ताकि ये रोग अधिक न फैले. डॉक्टर्स और हेल्थ केयर के लोगों में अधिक इस वायरस के फैलने की वजह इन्फ्रास्ट्रक्चर में कमी का होना कहते है. सोशल डिस्टेंसिंग और लॉक डाउन से ही इस बीमारी को काफी हद तक रोका जा सका है, जो सही कदम है.

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