समाज में ऊंची जातियां

पिछड़ी जातियों की जनगणना अब एक बड़ा मामला बनता जा रहा है और नरेंद्र मोदी की सरकार और उस के सपनों को चुनौती दे रहा है. देश में सिर्फ पढ़ेलिखे जनेऊधारी, सरकारी या निजी नौकरी व व्यापार वाले नहीं रखे, देश की आबादी के 90 प्रतिशत लोग आज भी छोटीछोटी जातियों में बंटे हुए हैं.

इसका असर औरतों पर कैसे पड़ता है, यह आमतौर पर समझ नहीं आता. नीची जातियों की आबादी सिर्फ गरीब और मैली कुचली हो जरूरी नहीं उन में जो 4 कदम आगे आ जाती है उन की औरतों को पगपग पर शॄमदा किया जाता है.

कामकाजी औरतों में ज्यादा ऊंची जातियों की हैं और उन के बीच अगर पिछड़ी या निचली जातियों की औरतें आ जाएं तो लकीरें दफ्तरों, स्कूलोंकालेजों की कैंटीनों और स्टाफ रूमों में खिंचने लगती हैं. जो अच्छी लगती है उन में भी खटास पैदा होते देर नहीं लगती क्योंकि ऊंचे जातियों की औरतें अपनी जमात में से किसी एक का भी बिदकना सहन नहीं कर पातीं.

गरीबीअमीरी आज सब जगह, पूरे समाज में बराबर सी है, पर जाति श्रेष्ठता हो तो गर्दन अपनेआप में फस जाती है जो दूसरी को बुरी लग सकती है. खुले या छिपे कटाक्ष या मजाक उड़ाए जाते हैं, घरेलू फंक्शनों में बुलाने में भेदभाव किया जाने लगता है.

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यह खतरनाक है, समाज का कर्तव्य है कि केवल जन्म के कारण किसी भी बच्चे, आदमी, औरत पर जीवनभर ठप्पा लगा रहे. आज की औरतें अपना मनचाहा जीवन साथी नहीं चुन सकतीं क्योंकि जन्म से दी गई जाति का सवाल प्रेम प्रसंगों में भी खड़ा हो जाता है, ब्राहमण, बनिए, श्रत्रियों और कायस्थों में आपसी विवादों को ले कर बहुत सी औरतें कहती हैं कि अब जाति कहां रह गई. सवाल है कि ये जन्म की कितनी हैं? 5 प्रतिशत, 10 प्रतिशत या 50 प्रतिशत.

जाति जनगणना जो 1931 तक कराई जाती थी, 1951 के बाद बंद कर दी गई कि अब जो संविधान है उस से जाति तो बचेगी ही नहीं. पर ऐसा नहीं हुआ. 1947 की तो छोडि़ए 2021 के अक्तूबर के किसी अखबार के वैवाहिक विज्ञापन उठा कर देख लीजिए. तरहतरह की जातियों के नाम दिख जाएंगे. लड़कियों को अपनी ही जाति में शादी करनी पड़ रही है. पढ़ाई, कमाई, रंगरूप के अलावा किस घर में पैदा हुए, किस मांबाप से हुए यह आज भी जरूरी है.

औरतों की किट्टियों जाति के आधार पर बनती हैं, पैसे या शिक्षा के आधार पर नहीं. नौकरियों में मिले छोटेमोटे अवसरो से सरकारी कालोनियों में हर जाति के परिवार बगलबगल में रह रहे हैं पर वहां अगर एक किट्टी हो तो उस में गुट बन जाते हैं. बैक्वर्ड, एससीएसटी को तो छोडि़ए ……… कस्टों के भी भेद किट्टियों को बांटे रखते हैं.

ऊंची जातियों के लोग अपने से नीचे जाति के लोगों के बुलावे शादी और दूसरे आयोजनों में नहीं जाते, उन से दूर  की दोस्ती रखते है, कास्ट के आधार पर गिनती होगी तो पता चल सकेगा कि किस स्कूल में कौन कितने हैं. यह कंपल्सरी किया जा सकता है कि स्कूल प्राइवेट हो या सरकारी कास्ट का प्रतिशत आबादी के बराबर हो. आज ब्राह्मïण बनिए को अलग कास्टों का आपस में मिलने को कास्ट का खत्म होना कह कर मामला बंद कर दिया जाता है. जातिगत जनगणना एक कदम पीछे नहीं तो जाएगा, यह वह आर्कोलोजिक्ल खुदाई है जिस से 2000 या 4000 साल पहले की संस्कृति का इतिहास पता चलता है.

चूंचूं करने की जरूरत नहीं. हां जिन्हें अपनी जातिगत श्रेष्ठता पर आंच आती दिखेगी, वे तो शोर मंचाएंगे.

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