विषपायी: पत्नी के गैर से शारीरिक संबंधों की बात पर भी क्यों चुप रहा आशीष?

Serial Story: विषपायी (भाग-1)

10 साल का वक्त कम नहीं होता कि किसी को भुलाया न जा सके, परंतु जब यादों में कड़वाहट का जहर घुला हो तो किसी को भुलाना भी आसान नहीं होता. आशीष ने पूरे 10 साल तक यह कड़वा जहर धीरेधीरे पिया था और अब जब उस की कड़वाहट थोड़ी कम होने लगी थी, तो अचानक उस जहर की मात्रा दोगुनी हो गई. वे स्वयं डाक्टर थे, परंतु इस जहर का इलाज उन के पास भी न था.

दोपहर डेढ़ बजे का समय डा. आशीष के क्लीनिक के बंद होने का होता है. उस समय पूरे डेढ़ बज रहे थे, परंतु उन का एक मरीज बाकी था. उन्होंने अपने सहायक को मरीज को अंदर भेजने के लिए कहा और खुद मेज पर पड़े अखबार को देखने लगे.

जब मरीज दरवाजा खोल कर अंदर आया तब भी वे मेज पर पड़े अखबार को ही देख रहे थे. उन के इशारे पर जब मरीज दाहिनी तरफ रखे स्टील के स्टूल पर बैठ गया तो उन्होंने निगाहें उठा कर उस की तरफ देखा तो देखते ही जैसे उन के दिमाग में एक भयानक धमाका हुआ.

चारों तरफ आंखों को चकाचौंध कर देने वाली रोशनी उठी और वे संज्ञाशून्य बैठे के बैठे रह गए. उन के चेहरे पर हैरत के भाव थे. वे अवाक अपने सामने बैठी महिला को अपलक देख रहे थे. फिर जब उन की चेतना लौटी तो उन के मुंह से निकला, ‘‘तुम? मेरा मतलब आप?’’

‘‘हां मैं,’’  महिला ने स्थिर स्वर में कहा. फिर वह चुप हो गई और एकटक डाक्टर आशीष का मुंह ताकने लगी. दोनों चुप एकदूसरे को ताक रहे थे. डाक्टर आशीष की समझ में नहीं आ रहा था कि वे आगे क्या पूछें?

 

कुछ देर तक यों ही ताकते रहने के बाद अपने दिमाग से अनचाहे विचारों को झटक कर उन्होंने स्वयं को संभाला और एक प्रोफैशनल डाक्टर की तरह पूछा, ‘‘बताइए, क्या तकलीफ है आप को?’’

आशीष की इस बात से वह महिला सहम गई. उस के स्वर में एक अजीब सा कंपन आ गया. बोली, ‘‘मुझे कोईर् बीमारी नहीं है. मैं केवल आप से मिलने आई हूं. बता कर आती तो आप मिलते नहीं, इसलिए मरीज बन कर आई हूं. क्या मेरी बात सुनने के लिए आप कुछ वक्त दे सकेंगे?’’ उस के स्वर में याचना का भाव था.

डाक्टर नर्मदिल आदमी थे. गुस्सा बहुत कम करते थे. गलत बात पर उत्तेजित अवश्य होते थे, परंतु अपने गुस्से को पी जाते थे. कभी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते थे. आज भी वे उस महिला को देख कर विचलित हो गए थे. पुरानी यादें उन के मन में जहर की तरह पिघलने लगी थीं, परंतु उस महिला पर उन्हें गुस्सा नहीं आ रहा था, जबकि उस महिला ने ही उन के जीवन में

10 साल पूर्व जहर का समुद्र भर दिया था और वे धीरेधीरे उस जहर को पी रहे थे और न जाने कब तक पीते रहते.

मगर आज अचानक वह स्वयं उन के सामने उपस्थित हो गई थी, फिर से उन के जहर भरे जीवन में हलचल मचाने के लिए. क्या मकसद था उस का? वह क्यों आई थी लौट कर उन के पास, जबकि अब उन का उस महिला से कोई वास्ता नहीं रह गया था. मन में एक बार आया कि मना कर दें, परंतु फिर सोचा, बिना बात किए उस के मकसद का पता नहीं चलेगा.

उन्होंने किसी तरह अपने मन को शांत किया और बोले, ‘‘यह मेरे घर जाने का समय है. क्या आप शाम को मिल सकती हैं?’’

‘‘कितने बजे?’’ उस महिला के स्वर में अचानक उत्साह आ गया.

‘‘मैं आज शाम को क्लीनिक में ही रहूंगा. आप 6-7 बजे आ जाइएगा.’’

‘‘ठीक है,’’ उस महिला के मुंह पर पहली बार हलकी सी मुसकराहट आई, ‘‘मैं ठीक 6 बजे आ जाऊंगी,’’ कह वह उठ खड़ी हुई.

उस महिला के जाने के बाद डाक्टर फिर से विचारों के जंगल में खो गए. पल भर के लिए उन्हें याद ही नहीं रहा कि उन्हें घर भी जाना है. अटैंडर ने याद दिलाया तो वे अपनी यादों की खोह से बाहर आए और फिर घर के लिए रवाना हो गए.

घर पर पत्नी उन का इंतजार कर रही थी. बोली, ‘‘आज कुछ देर हो गई?’’

‘‘हां, डाक्टर के पेशे में ऐसा हो जाता है. कभी अचानक कोई मरीज आ जाता है, तो देखना ही पड़ता है,’’ उन्होंने सामान्य ढंग से जवाब

दिया और फिर हाथमुंह धो कर खाने की मेज पर जा बैठे.

पत्नी के सामने वे भले ही सामान्य ढंग से व्यवहार कर रहे थे, परंतु उन का मन सामान्य नहीं था, उस में हलचल मची थी. कई सालों बाद शांत झील की सतह पर किसी ने पत्थर फेंक दिया था. यह पत्थर का कोई छोटा टुकड़ा नहीं था, उन्हें लग रहा था जैसे पानी के नीचे किसी ने पहाड़ का एक बड़ा हिस्सा ही लुढ़का दिया हो.

खाना खा कर डाक्टर आशीष ने पत्नी से कहा, ‘‘आज मैं कुछ थका हुआ हूं, आराम करूंगा. तुम डिस्टर्ब मत करना.’’

पत्नी ने संशय से उन के चेहरे की तरफ देखा, ‘‘तबीयत ठीक नहीं है क्या? सिरदर्द हो तो बाम लगा दूं?’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, बस आराम करना चाहता हूं?’’ कह कर वे बैडरूम में घुस गए.

पत्नी को उन के व्यवहार में आए इस परिवर्तन से अचंभा हुआ, पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. वह अपने काम में लग गई. बहुत सारे काम बाकी थे. लड़का स्कूल से आने वाला था. कामवाली भी शाम तक आती. दिन में उसे आराम करने का समय ही नहीं मिल पाता है. बेटे को खिलापिला कर उस का होम वर्क कराने बैठ जाती. शाम को जब डाक्टर अपने क्लीनिक चले जाते और बच्चा खेलनेकूदने लगता तब उसे कुछ आराम करने का मौका मिलता. वह थोड़ी देर के लिए लेट जाती है. बस…

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बैडरूम में जा कर डाक्टर ने बिस्तर पर लेट आंखें बंद कर लीं, परंतु नींद कहां आनी थी. उन के दिलोदिमाग में बहुत सारी यादें अचानक नींद से जाग उठी थीं और करवटें बदलबदल कर उन्हें परेशान कर रही थीं… उन की यादों का कारवां चलता हुआ धीरेधीरे 10 साल पूर्व के जंगल में पहुंच गया. वह जंगल ऐसा था, जहां वे दोबारा कभी नहीं जाना चाहते थे, परंतु समय इतना बलवान होता है कि आदमी को न चाहते हुए भी अपने विगत को याद करना पड़ता है.

आशीष एक जहीन और गंभीर किस्म के विद्यार्थी थे. उन्होंने लखनऊ के केजीएमयू से एमबीबीएस किया था और वहीं से इंटर्नशिप कर के एमडी की डिग्री प्राप्त की थी. वे अब नौकरी की तलाश कर रहे थे. शीघ्र ही उन्हें गुड़गांव के एक प्राइवेट अस्पताल में जौब मिल गई. हालांकि वे इस से संतुष्ट नहीं थे. सरकारी नौकरी के लिए परीक्षाएं दे रहे थे.

तभी उन के लिए रिश्ते आने आरंभ हो गए. उन के पिता प्रदेश सेवा में एक उच्च अधिकारी थे और मां लखनऊ आकाशवाणी में वरिष्ठ उद्घोषिका थीं. बहुत छोटा परिवार था. उन की शादी के पहले मांबाप ने उन की इच्छा पूछ ली थी. आजकल के चलन के अनुसार यह आवश्यक भी था.

आशीष गंभीर आचरण के व्यक्ति थे, परंतु हर व्यक्ति के जीवन में प्यार और रोमांस के क्षण आते हैं. ये ऐसे क्षण होते हैं, जब उसे चाहेअनचाहे प्यार की डगर पर चलना ही पड़ता है और इस के खूबसूरत रंगों से रूबरू होना ही पड़ता है. उन्हें भी रोमांस हुआ था. कई लड़कियां उन की तरफ आकर्षित हुई थीं, परंतु अपने जीवन को एक गति प्रदान करने चक्कर में उन का प्रेम प्रसंग किसी गंभीर परिणाम तक नहीं पहुंचा.

उन के जीवन में प्रेम वर्षा की हलकी फुहार की तरह आया और उन के मन को भिगो कर चला गया. एक मोड़ पर आ कर सभी एकदूसरे से जुदा हो गए. उन्होंने न तो लड़कियों से कोई शिकायत की और न लड़कियों ने ही उन से कोई गिला किया. सभी बारीबारी से बिछुड़ते हुए अपने रास्ते चलते गए. यही जीवन है और जो प्राप्यअप्राप्य का लेखाजोखा नहीं करता, वही सुखी रहता है.

आशीष की अपनी कोई पसंद नहीं थी. उन्होंने सब कुछ मातापिता पर छोड़ दिया था. चूंकि वे गुड़गांव में नौकरी कर रहे थे, इसलिए घर वालों ने सोचा कि दिल्ली राजधानी क्षेत्र की कोई लड़की उन के लिए ज्यादा उपयुक्त रहेगी. उन के लिए मैडिको लड़की मिल सकती थी, परंतु आशीष ने इस बारे में भी साफ कह दिया था कि मातापिता की जो पसंद होगी, वही उन की पसंद होगी.

अंत में एक लड़की सभी को पसंद आई. उस ने एमबीए किया था और गुड़गांव की ही एक बड़ी कंपनी में एचआर डिपार्टमैंट में सीनियर मैनेजर के पद पर कार्य कर रही थी.

देखने दिखाने की औपचारिकता के बाद आशीष और नंदिता की शादी हो गई. शादी के कुछ दिनों बाद ही उन्हें लगा कि नंदिता के प्यार में कोई ऊष्मा नहीं है, दांपत्य जीवन के प्रति कोई उत्साह नहीं है. बिस्तर पर वह बर्फ की चट्टान की तरह पड़ी रहती, जिस में कोई धड़कन, गरमी और जोश नहीं होता था.

आशीष एक डाक्टर थे और वे शारीरिक संरचना के बारे में बहुत अच्छी तरह जानते थे. परंतु वे आधुनिक जीवन में आई अनावश्यक स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बारे में भी अच्छी तरह जानते थे, इसलिए पत्नी से उस संबंध में कोई प्रश्न नहीं किया था.

परंतु वे कोई मनोवैज्ञानिक भी नहीं थे कि नंदिता के मन की उदासी और जीवन के प्रति उस की निराशा को समझ सकते. जब तक अपने मन की परतें वह न खोलती, तब तक आशीष को उस की उदासी का कारण समझ में नहीं आ सकता था. परंतु नंदिता उन के साथ रहते हुए भी जैसे अकेली होती थी, उन से बहुत कम बात करती थी और घर के कामों में भी कोई रुचि नहीं लेती.

घर में केवल वही 2 प्राणी थे. वैसे तो नौकरानी थी और घर के ज्यादातर काम वही करती थी. पतिपत्नी के पास पर्याप्त समय होता था कि एकदूसरे से दिल की बात करते, एकदूसरे को समझते, परंतु नंदिता उन से बातें करने में भी कोई रुचि नहीं लेती थी.

औफिस से आने के बाद हताशनिराश बिस्तर पर लेट जाती जैसे सैकड़ों मील की यात्रा कर के आई हो. चेहरा बुझा होता, आंखों की रोशनी पर जैसे काला परदा पड़ा होता, हाथपैर ढीले होते और रात में उस के साथ संसर्ग करते समय आशीष को ऐसे ठंडेपन का एहसास होता जैसे वे मुरदे के साथ संभोग कर रहे हों.

डाक्टर आशीष मनुष्य के प्रत्येक अंग की जानकारी रखते थे. वे इस बात को अच्छी तरह समझ गए थे कि नंदिता केवल उन की नहीं, शादी के बाद भी नहीं. पहले भी वह किसी और की थी और आज भी उस के किसी और से शारीरिक संबंध हैं. वह दिन में उसी के साथ रह कर आती थी. यह बात आशीष से छिपी नहीं रह सकती थी. ऐसी बातें किसी साधारण व्यक्ति से भी छिपी नहीं रह सकती थीं.

 

इतना तो आशीष की समझ में आ गया था कि नंदिता की उदासी का वास्तविक कारण क्या है, परंतु वह उन से दूर क्यों रहना चाहती, क्यों उन के साथ अपने संबंधों को मधुर बना कर नहीं रह सकती, यह समझ से परे था.

दोनों पतिपत्नी थे. अगर उसे इस संबंध से इतनी घृणा थी तो उस ने शादी के लिए हां क्यों की थी? क्या उस के ऊपर उस के घर वालों का कोई दबाव था? और अगर वह पहले से ही किसी व्यक्ति के साथ प्यार के खेल में लिप्त थी, तो उसी के साथ शादी क्यों नहीं की? क्या वह शादीशुदा था? अगर हां, तो अब तक उस के साथ अपने संबंधों को क्यों नहीं तोड़ा? वह भी तो अब शादीशुदा थी. दांपत्य जीवन के प्रति उसे अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए.

आशीष जानते थे, नंदिता स्वयं कुछ नहीं बताएगी. उन्हें ही पहल करनी होगी. इस में देर करना ठीक नहीं होगा. वे क्यों उस आग में जलते रहें, जिसे लगाने में उन का कोई हाथ नहीं.

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एक शाम उन्होंने शांत और गंभीर स्वर में कहा, ‘‘नंदिता, न तो मैं तुम से तुम्हारे विगत के बारे में पूछूंगा, न आज के बारे में, परंतु मैं इतना अवश्य चाहता हूं कि तुम जिस आग में जल रही हो, उस में मुझे जलाने का उपक्रम मत करो. मैं ने कोई अपराध नहीं किया है. मेरा अपराध केवल इतना है कि मैं ने तुम से शादी की है, परंतु इस छोटे से अपराध के लिए मैं कालापानी की सजा नहीं भोग सकता. तुम मुझे साफसाफ बता दो, तुम क्या चाहती हो?’’

नंदिता खोईखोई आंखों से देखती रही. वह विचारमग्न थी. उस की आंखों में हलका गीलापन आ गया. फिर ऐसा लगा जैसे वह रो पड़ेगी. उस ने अपनी आंखें झुका लीं और लरजते स्वर में बोली, ‘‘मैं जानती थी, एक दिन यही होगा. मैं आप का जीवन बरबाद नहीं करना चाहती थी, परंतु समाज और परिवार के रीतिरिवाज कई बार हमें वह नहीं करने देते जो हम चाहते हैं. हमें उन की इच्छा और दबाव के आगे झुकना पड़ता है, तब हम एक ऐसा जीवन जीते हैं, जो न हमारा होता है, न समाज और परिवार का…’’

‘‘तुम्हारी क्या मजबूरी है, मुझे नहीं पता. बता सकती हो तो हम कोई समाधान ढूंढ़ सकते हैं.’’

‘‘नहीं, मेरी समस्या का कोई समाधान

नहीं है. यह मत समझना कि मैं जानबूझ कर

आप को उपेक्षित करती रही हूं. वास्तव में मैं अपने अपराधबोध से इतना अधिक ग्रस्त रहती

हूं कि आप के साथ सामान्य व्यवहार नहीं कर पाती. मेरा अपराध मुझे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है.’’

‘‘अगर तुम ने कोई अपराध किया है, तो उस का प्रायश्चित्त कर सकती हो.’’

‘‘यही तो मुश्किल है. मेरा अपराध मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा है.’’

आशीष की समझ में कुछ नहीं आया. उन्होंने नंदिता की तरफ इस तरह देखा कि वह चाहे तो बता सकती है.

नंदिता ने कहा, ‘‘आप से कुछ छिपाने का कोई कारण नहीं है. मैं आप को बता सकती हूं. कम से कम मेरा अपराधबोध कुछ हद तक कम हो जाएगा. परंतु मैं जानती हूं, जो गलती मैं कर रही हूं, वह किसी भी प्रकार क्षम्य नहीं है. मैं चाह कर भी इस से पीछा नहीं छुड़ा सकती. वह भी मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा है.’’

‘‘तो तुम मेरा पीछा छोड़ कर उस से विवाह कर लो. मैं तुम्हें आजाद करता हूं.’’

यह सुन कर नंदिता सन्न रह गई. उस का बदन कांप गया, आंखों में भय की एक गहरी छाया व्याप्त हो गई. वह लगभग चीखते हुए बोली, ‘‘नहीं, वह पहले से ही विवाहित है. मेरे साथ शादी नहीं कर सकता.’’

आशीष के दिमाग की नसें फटने लगीं. नंदिता कौन सा खेल खेल रही है. वह अपने पति से सामान्य संबंध बना कर नहीं रख रही है और जिस के साथ उस की शादी नहीं हुई है, वह उस का सर्वस्व है.

उस के साथ अपने अनैतिक संबंध नहीं तोड़ सकती. वह नंदिता के जीवन के साथ ही नहीं, उस के बदन के साथ भी खिलवाड़ कर रहा है, अपने देहसुख के लिए वह व्यक्ति अपने परिवार को नहीं छोड़ सकता, परंतु उस की खातिर नंदिता अपने वैवाहिक जीवन में जहर घोल रही है. वह अपने विवेक से काम नहीं ले रही है. वह भावुकता और मोह में फंसी है, जो गलती पर गलती करती जा रही थी और उस की समझ में नहीं आ रहा कि किस रास्ते पर चल कर वह अपने जीवन को सुखी बना सकती थी.

डाक्टर आशीष की समझ में नहीं आया कि आखिर वह चाहती क्या है. मन में तमाम तरह के प्रश्न थे, परंतु उन्होंने नंदिता से कुछ नहीं पूछा.

नंदिता ही बता रही थी, ‘‘वह मेरा पहला प्यार था. मैं भावुक थी, वह चालाक था. उस ने मेरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया. मैं बहक गई. अपना शरीर उसे सौंप बैठी. बाद में पता चला कि वह विवाहित है. फिर भी मैं उस से अपना संबंध नहीं तोड़ पाई. जब भी उसे देखती हूं पागल हो जाती हूं. पता नहीं उस में ऐसी क्या बात है, उस की बातों में कौन सा ऐसा जादू है जो मैं उस की तरफ खिंची चली जाती हूं.

‘‘शादी के बाद मैं ने न जाने कितनी बार कोशिश की कि उस से न मिलूं, उस के सामने

न पडं़ू परंतु जब वह मेरे सामने नहीं होता तो मैं उसी के बारे में सोचती रहती हूं, उस से मिलने

के लिए तड़पती हूं. उस के अलावा मैं किसी

और के बारे में सोच ही नहीं पाती. आप के बारे में भी नहीं.

मैं आप को अपना शरीर सौंपती हूं, परंतु तब मेरा मन उस के पास होता है. मैं जानती हूं कि मैं आप के प्रति निष्ठावान नहीं हूं, विवाहित जीवन की ईमानदारी से परे मैं आप के साथ

छल कर रही हूं, परंतु मेरा अपने मन पर कोई नियंत्रण नहीं है. मैं एक कमजोर नारी हूं, यह

मेरा अपराध है.’’

‘‘कोई भी पुरुष या नारी कमजोर नहीं होता. हम केवल भावुकता और प्रेम का बहाना बनाते रहते हैं. दुनिया में हम बहुत सारी चीजें छोड़ देते हैं. हम मांबाप को त्याग देते हैं, अपने सगेसंबंधियों को छोड़ देते हैं और भी बहुत सी प्रिय चीजों को जीवन में त्याग देते हैं. तब फिर किसी बुराई को हम क्यों नहीं छोड़ सकते? क्या बुराई में ज्यादा आकर्षण होता है इसलिए? मैं नहीं जानता, तुम्हारे साथ क्या कारण था? शादी के बाद तुम ने उस से दूर रहने की कोशिश क्यों नहीं की?’’

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‘‘बहुत की, परंतु मन उसी की तरफ भागता है. वह मेरे साथ मेरे औफिस में काम भी नहीं करता है, कहीं और काम करता है. वह मुझे ज्यादा फोन भी नहीं करता है, परंतु जब उस का फोन नहीं आता तो मैं बेचैन हो जाती हूं. स्वयं उसे फोन कर के बुलाती हूं. मैं क्या करूं?’’

आशीष के पास उस के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था. परंतु वे अच्छी तरह समझ गए कि नंदिता दृढ़ चरित्र की लड़की नहीं है. वह भावुक है, नासमझ है और समयानुसार अपने विवेक का प्रयोग नहीं कर पाती है. वह परिस्थितियों की दास है. भलाबुरा वह समझती है, परंतु बुराई से दूर रहना नहीं चाहती. उस में उसे आनंद मिल रहा है. वह आनंद चाहती है, भले ही वह अनैतिक तरीके से मिल रहा हो.

– क्रमश:   

Serial Story: विषपायी (भाग-2)

अब तक आप ने पढ़ा:

आशीष पेशे से एक डाक्टर थे. उन की शादी नंदिता नाम की एक लड़की से हुई, जो खुद एक अच्छी कंपनी में सीनियर मैनेजर के पद पर कार्य कर रही थी. शादी के बाद आशीष पत्नी नंदिता की उदासी से परेशान थे. बिस्तर पर भी नंदिता एक संपूर्ण स्त्री की तरह आशीष से बरताव नहीं करती थी. एक दिन आशीष ने नंदिता से जोर दे कर कारण पूछा, तब नंदिता ने बताया कि वह एक व्यक्ति से प्रेम करती है और उस के प्यार में पागल है. आश्चर्य की बात तो यह थी कि जिस व्यक्ति से नंदिता प्रेम करती थी वह शादीशुदा था. यह सुन कर आशीष के पैरों तले जमीन खिसक गई. एक दिन क्लीनिक पर उस से एक महिला मिलने आई.

-अब आगे पढ़ें:

आशीष ने काफी सोचविचार किया. ऐसी परिस्थिति में उन के पास बस 2 ही विकल्प थे-नंदिता को पूरी तरह से आजाद कर दें ताकि वह अपने ढंग से अपनी जिंदगी निर्वाह कर सके या फिर उसे अपने साथ रख कर उस का किसी मनोवैज्ञानिक से इलाज करवाएं. यह स्थिति उन के लिए काफी कठिन और यंत्रणादायी होती.  वे तिलतिल कर घुटते और नंदिता का छल उन के मन में एक कांटे की तरह आजीवन खटकता रहता. फिर भी नंदिता को सुधरने का मौका दे कर वे महान बन सकते थे. वे इतने दयालु तो थे ही, परंतु सब कुछ करने के बाद भी अगर वह नहीं ठीक हुई तो… तब वे अपनेआप को किस प्रकार संभाल पाएंगे. यह क्या कम दुखदाई है कि उन की पत्नी किसी परपुरुष के साथ पूरी ऊष्मा के साथ पूरा दिन बिताने के बाद उन के साथ रात में बर्फ की सिला की तरह लेट जाती है जैसे उस का कोई वजूद ही नहीं है, पति के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है.

इस स्थिति को क्या वे अधिक दिन तक बरदाश्त कर पाएंगे? और जब कभी उन के बच्चे होंगे, तो क्या वे अपनेआप को समझा पाएंगे कि वे बच्चे उन के ही वीर्य से उत्पन्न हुए हैं? यह जांचने के लिए वे डीएनए तो नहीं करवाते फिरेंगे? जीवन भर वे संशय और अनजानी चिंता के भंवर में डूबतेउतराते रहेंगे.

पत्नी के परपुरुष से संबंध कितने कष्टदाई होते हैं, यह केवल डाक्टर आशीष समझ रहे थे. यह एक ऐसी सजा होती है, जो मनुष्य को न तो मरने देती है और न ही जीने.  आशीष ने कहा, ‘‘तुम क्या चाहती हो? सब कुछ मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ता हूं. अगर तुम अपने को सुधार सको, तो मैं तुम्हें अपने साथ रखने को तैयार हूं. अगर नहीं तो तुम मेरी तरफ से स्वतंत्र हो. जो चाहे कर सकती हो.’’  नंदिता ने निर्णय लेते हुए कहा, ‘‘मैं प्रयास करती हूं. हालांकि आप से रिश्ता तय होने के बाद भी मैं ने प्रयास किया था और आप से शादी होने के बाद भी मैं उस के साथ अपना संबंध तोड़ने की जद्दोजहद करती रही हूं. यही कारण था कि मैं घर में आप से सामान्य व्यवहार न कर सकी. देखती हूं, शायद मैं उस से छुटकारा  पा सकूं.

दोनों का रिश्ता कुछ दिन तक टूटने से बच गया. नंदिता ने अपने औफिस से लंबी छुट्टी ले ली ताकि वह उस व्यक्ति से दूर रह सके. परंतु आधुनिक युग के संचार माध्यमों के कारण आदमी की निजता काफी हद तक समाप्त हो गई है. नंदिता ने कोशिश की कि वह घर के कामों में अपने को व्यस्त रखे. टीवी देख कर अपने मन को इधरउधर भटकने से रोके और पुस्तकें पढ़ कर समय गुजारे, परंतु मोबाइल की दुनिया में उस के लिए यह संभव नहीं था.  उस व्यक्ति का पहली बार फोन आया तो उस ने नहीं उठाया, उस ने एसएमएस किया, तो भी ध्यान नहीं दिया, परंतु कब तक? लगातार कोई फोन करे, एसएमएस करे, तो दूसरा व्यक्ति उस से बात करने के लिए बाध्य हो ही जाता है.

उस ने बात की तो उधर से आवाज आई, ‘‘क्या बात है? क्या हो गया है तुम्हें? न फोन उठाती हो न स्वयं फोन करती हो? कोई जवाब नहीं? आखिर हो क्या गया है तुम्हें? स्वर में अधिकार भाव था.  ‘‘प्रजीत, तुम समझने की कोशिश क्यों नहीं करते? अब मैं शादीशुदा हूं. मेरे लिए अब इस संबंध को आगे कायम रख सकना संभव नहीं है.’’

उधर कुछ देर चुप्पी रही. फिर स्वर उभरा, ‘‘अच्छा, एक बार मिल लो, फिर मैं सोचूंगा.’’

‘‘पक्का, तुम मेरा पीछा छोड़ दोगे?’’ नंदिता चहक कर बोली.

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‘‘हां,’’ उधर से भी प्रसन्नता भरी आवाज आई, ‘‘मैं तुम्हें इसी तरह चहकते हुए देखना चाहता हूं.’’

दिन का समय था. आशीष अपने अस्पताल में थे. नंदिता के पास काफी समय था. वह तैयार हो कर गई, परंतु जब उस व्यक्ति से मिल कर लौटी, तो वह खुश नहीं थी. वह अंदर से टूट गई थी. रो रही थी, परंतु उस का रोना किसी को दिखाई नहीं दे रहा था. रात में आशीष को बिना बताए पता चल गया कि नंदिता के साथ दिन में बहुत कुछ घट  चुका है. उस रात आशीष ने उस के साथ संबंध बनाते हुए अपने को रोक लिया. वह शौक जैसी स्थिति में थी. पूछा, ‘‘तुम उस के पास गई थीं?’’  नंदिता खुद को रोक नहीं सकी. फफक कर रो पड़ी, ‘‘आप जो चाहें मुझे सजा दें. मैं आप की गुनहगार हूं, परंतु सच यह है कि मैं उसे नहीं छोड़ सकती और न ही वह मुझे छोड़ सकता है.’’

‘‘तो फिर तुम मुझे छोड़ दो,’’ आशीष ने अंतिम निर्णय लेते हुए कहा.

नंदिता ने कोई उत्तर नहीं दिया. बस भीगी आंखों से आशीष के चेहरे को देखती रही. आशीष समझ नहीं पा रहा था, नंदिता किस तरह की औरत है और उस के मन में क्या है? क्यों वह जानबूझ कर आग में कूद रही है? कोई इस तरह अपने जीवन को बरबाद करता है क्या?

‘‘ठीक है,’’ अंत में नंदिता ने कहा. उस के स्वर में कोई अपराधबोध नहीं था. संभवतया उस ने स्वयं आशीष से पीछा छुड़ाने का निर्णय ले लिया, परंतु उसे आशा नहीं थी कि आशीष इतनी आसानी से उसे छोड़ने पर मान जाएंगे.

उन दोनों ने आपस में सलाह ली और परिजनों एवं खास रिश्तेदारों की मौजूदगी में बिना वास्तविक कारण बताए तलाक की सहमति पर मुहर लगा दी.  नंदिता से अलग हो आशीष टूटे नहीं, परंतु जहर का एक लंबा कड़वा घूंट पी कर रह गए. नंदिता के जहर को वे पी तो गए, परंतु उस का असर उन के दिलोदिमाग में अभी तक छाया था. बहुत कोशिश की उबरने की, परंतु उबर नहीं पाए. वे गुड़गांव की नौकरी छोड़ कर लखनऊ चले आए. कुछ दिन तक घर पर बिना किसी काम के रहे. मातापिता ने भी उन्हें कुछ करने की सलाह नहीं दी, परंतु कोई भी व्यक्ति निष्क्रिय रह कर जीवन नहीं गुजार सकता, चाहे कितना ही साधनसंपन्न क्यों न हो. निष्क्रियता मनुष्य को बीमार बना देती है.

आशीष कुछ सामान्य हुए तो मातापिता की सलाह पर अपना एक क्लीनिक खोल लिया. वह चल निकला तो फिर दूसरी शादी के लिए मातापिता जोर देने लगे. वे दूसरी बार जहर पीने के लिए तैयार नहीं थे, परंतु मातापिता ने उन्हें दुनिया की ऊंचनीच समझाई. समाज में रहते हुए व्यक्ति अकेला नहीं रह सकता. पेड़ केवल तने के सहारे नहीं जी सकता. उसे सहारे के लिए चारों तरफ फैली शाखाएं,  पत्ते और फूल चाहिए. उसी तरह मनुष्य का जीवन है. उसे अपने जीवन में खुशियों के लिए आमदनी के साथसाथ परिवार भी चाहिए, जिस में पत्नी के साथसाथ हंसतेखिलखिलाते बच्चे भी चाहिए. संसार में सभी जीवजंतुओं का यही जीवनचक्र है.

आशीष स्वभाव के पेचीदे नहीं थे. जीवन को सरल और सहज भाव से जीना जानते थे. मातापिता की सलाह से उन्होंने दोबारा शादी कर ली. इस बार इतना ध्यान रखा कि लड़की कामकाजी न हो, बस पढ़ीलिखी हो.  दिव्या उस समय एलएलबी कर रही थी जब आशीष के लिए उस के रिश्ते की मांग किसी रिश्तेदार के माध्यम से पहुंची. दिव्या को आशीष के साथ रिश्ते में कोई एतराज नहीं था. बस वह चाहती थी कि कभी जरूरत पड़ी तो उसे वकालत की प्रैक्टिस करने से मना न किया जाए. यह कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं था. जरूरत पर पतिपत्नी एकदूसरे का साथ देते हैं और पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथसाथ आर्थिक जिम्मेदारी भी वहन करते हैं.

आज आशीष अपनी पत्नी और एक बेटे के साथ खुश हैं. बेटा लगभग 5 साल का है और स्कूल जाने लगा है. दिव्या परिवार और बच्चे की जिम्मेदारी पूरी ईमानदारी से निभा रही है. आशीष के मातापिता लखनऊ में ही अपने पुश्तैनी मकान में अलग रहते हैं. जबकि आशीष अपनी पत्नी और बच्चे के साथ गोमती नगर में अपने बनाए मकान में रहते हैं.  वे सभी एकसाथ रह सकते थे और इस में किसी को कोई एतराज भी नहीं था, परंतु आशीष के मम्मीपापा चाहते थे कि बड़े हो कर बच्चे अपने ढंग से स्वतंत्र रूप से रहें तो उन में आत्मविश्वास और जीवन के प्रति सजगता आती है. पर किसी मुसीबत की घड़ी में वे सब  एकसाथ होते.

दिव्या के साथ 8 साल के उन के दांपत्य जीवन में कभी कटुता के क्षण नहीं आए थे. दिव्या से शादी के 2 वर्ष पूर्व उन्होंने जो जहर पीया था, उस का असर धीरेधीरे कम हो गया था, परंतु आज 10 साल बाद जब वे अपने सुखमय जीवन में पत्नी और बेटे के साथ खुश और प्रसन्न थे कि अचानक वह जहर की शीशी फिर से उन के हाथ में आ गई थी.  नंदिता आज उन से मिलने आई थी, किसलिए…? क्या चाहती है वह उन से? उन  का अब एकदूसरे से क्या संबंध है? किस  कारण उस ने उन के पास आने की हिम्मत  बटोरी है? कोई न कोई खास बात अवश्य होगी. जब तक नंदिता के मन को वे फिर से नहीं पढ़ेंगे, उन के मन में उठने वाले सवालों के जवाब नहीं मिल पाएंगे.

वे चाहते तो नंदिता से मिलने के लिए साफसाफ मना कर देते, परंतु वे इतने कोमल मन हैं कि अपने कातिल का भी दिल नहीं दुखा सकते. वे साफ मन से नंदिता से मिलने के लिए तैयार थे, उस की बात सुनना चाहते थे और जानना चाहते थे कि वह उन से क्या चाहती है? शाम को 6 बजे जब आशीष अपने क्लीनिक पहुंचे तो नंदिता वहां पहले से मौजूद  थी. उन्हें देखते ही उस के चेहरे पर अनोखी चमक आ गई. वे भी हलके से मुसकराए और अपने कैबिन में चले गए. पीछेपीछे नंदिता को आने का इशारा किया.

वे अपनी कुरसी पर बैठ गए तो नंदिता भी बेतकल्लुफी से उन के सामने वाली कुरसी पर बैठ गई. इस समय उस के चेहरे पर उदासी की कोई छाया नहीं थी. वह बनसंवर कर भी आई  थी और सुंदर लग रही थी. उस की चमकती आंखों में एक प्यास सी जाग उठी थी. यह कैसी प्यास थी, डाक्टर आशीष समझ न पाए. वे समझना भी नहीं चाहते थे. अत: उन्होंने उस के चेहरे से नजरें हटा कर पूछा, ‘‘हां, कहो कैसी हो?’’

नंदिता ने एक ठंडी सांस ली और फिर कशिश भरी आवाज में बोली, ‘‘अभी भी आप को मेरी चिंता है?’’  नंदिता का यह प्रश्न व्यर्थ था. उन्होंने पूछा, ‘‘तुम्हें मेरा पता कहां से मिला?’’ अब वे अनौपचारिक हो गए थे और नंदिता को तुम कह कर बुलाने लगे थे.

‘‘आज के जमाने में यह कोई मुश्किल काम नहीं है. लगभग हर पढ़ालिखा व्यक्ति सोशल मीडिया में घुसा हुआ है. फेसबुक से आप का पता मिला और फिर…’’

‘‘अच्छा बताओ, क्यों मिलना चाहती थी?’’ उन्होंने बिना किसी लागलपेट के पूछा.

नंदिता ने अपनी आंखें झुका कर कहा, ‘‘आप अन्यथा मत लेना, परंतु मेरे पास और कोई चारा नहीं था. मैं ने आज यह समझ लिया है, जो व्यक्ति अपनी जवानी में अनैतिक कार्य करता है, समाज के नियमों के विपरीत कदम उठाता है, परिवार और दांपत्य जीवन की निष्ठा को नहीं समझ पाता, वह एक न एक दिन अवश्य घोर कष्ट उठाता है.

‘‘अपनी जवानी के नशे में चूर मैं जिसे सोना समझती थी, वह मिट्टी का ढेला निकला. जिस के लिए मैं ने आप को, अपने मम्मीपापा और सभी रिश्तों को ठुकरा दिया, वही एक दिन मुझे ठुकरा कर चला गया. क्यों गया, यह कहना बेमानी है.

इस जगत में जिन रिश्तों का कोई आधार नहीं होता, वे बहुत जल्दी टूट जाते हैं. उसे लगा कि उस ने मेरे सौंदर्य और यौवन का सारा रस चूस लिया है, तो वह मुझ से अलग होने के तमाम बहाने गढ़ने लगा और एक दिन ऐसा आया कि उस ने साफसाफ कह दिया कि वह मुझ से कोई संबंध नहीं रखना चाहता. आज मेरे पास नौकरी नहीं है, पैसा नहीं है. उस के चक्कर में सब कुछ गंवा बैठी. बताओ, अब मैं कहां जाती?’’

आशीष ने उस के विगत जीवन के बारे में नहीं पूछा था. न वे पूछना चाहते थे. नंदिता के जीवन से उन्हें क्या लेनादेना था. वह उन की कौन थी. कोई भी तो नहीं, बस देखा जाए तो उन के बीच मानवीय संबंधों के अलावा और कोई संबंध नहीं था.  नंदिता अपने विगत के बारे में स्वयं बता रही थी, यह उस की इच्छा थी. उन्होंने चुपचाप सुन लिया, कोई टिप्पणी नहीं की. नंदिता को ठोकर लगने के बाद अगर अक्ल आई है, तो इस का अब कोई मतलब नहीं है.  एक बार रिश्ते बिगड़ जाते हैं, तो वे बनते नहीं हैं. अगर बनते भी हैं, तो कोई न कोई गांठ उन के बीच में पड़ जाती है, जो निरंतर खटकती रहती है. क्या नंदिता उन के पास पुराने रिश्तों को जोड़ने आई थी या ठोकर खा कर सहानुभूति प्राप्त करने? उन की सहानुभूति से वह क्या हासिल करना चाहती?

उन्होंने कोई प्रश्न नहीं किया, नंदिता स्वयं बताती रही, ‘‘अपनी परेशानियों के बारे में बहुत ज्यादा बता कर मैं आप को परेशान नहीं करूंगी. बस इतना कहने के लिए आई हूं कि अब मैं इस भरे संसार में अकेली हूं. मम्मीपापा ने तभी मुझ से संबंध तोड़ लिया था, नातेरिश्तेदार मुझे फूटी आंख नहीं देखना चाहते. यारदोस्त भी अलग हो गए. उस ने मेरी नौकरी भी छुड़वा दी थी.

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दिल्ली में चारों तरफ मुझे अंधेरे के सिवा कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. वहां जब मुझे कोई किनारा नहीं मिला तो मुझे आप की याद आई. मैं मानती हूं कि मैं ने आप को बहुत दुख दिया, इतना बड़ा दुख पा कर कोई किसी को माफ नहीं कर सकता, परंतु मुझे आप के मन की विशालता का पता है. आप ने भले ही मेरे कृत्यों के लिए मुझे माफ न किया हो, परंतु आप के दिल में मेरे प्रति कोई कटुता नहीं हो सकती. इसीलिए मैं हिम्मत कर के आप से मिलने आई हूं.’’  आशीष का दिल कराह उठा. क्या सचमुच नंदिता के मन में कोई अफसोस का भाव है? वह अपनी गलती का प्रायश्चित्त करने के लिए आई है? उन्होंने नंदिता को देखा जैसे कह रहे हों कि कहीं भी जाती, परंतु मेरे पास क्यों? प्रायश्चित्त  तो कहीं भी किया जा सकता है?  पर प्रत्यक्ष में कहा, ‘‘मुझे नहीं पता तुम्हारे मन में क्या है, परंतु दिल्ली बहुत बड़ी है. वहां प्रतिदिन लाखों लोग बिना किसी सहारे के अपनी आंखों में उम्मीदों के चिराग जला कर आते हैं. उन का कोई ठिकाना नहीं होता, शहर में कोई परिचित नहीं होता, फिर भी वे अपने लिए कोई न कोई ठिकाना ढूंढ़ लेते हैं.

तुम तो दिल्ली में पैदा हुई. न जाने कितने परिचित, दोस्त और रिश्तेदार हैं. सारे परिचित और रिश्तेदार इतने क्रूर और कठोर नहीं हो सकते कि तुम्हें सहारा न दे सकें. न भी देते तो तुम स्वयं इतनी पढ़ीलिखी हो, सक्षम हो कि अपने पैरों पर खड़ी हो सकती थी.’’

नंदिता ने आशीष को कुछ इस तरह देखा जैसे वे उस पर अविश्वास कर रहे हों. वह बोली, ‘‘आप शायद मेरा विश्वास न करें, परंतु मैं जानबूझ कर आप के पास आई हूं.’’

‘‘इस का कोई न कोई कारण अवश्य होगा?’’

‘‘हां, फिलहाल तो मुझे एक सहारे की जरूरत है. इस शहर में कहीं मेरा ठिकाना नहीं है. मैं आप को बहुत ज्यादा तकलीफ नहीं दूंगी. मैं स्वयं अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूं. आप को मेरी थोड़ी मदद करनी होगी. दूसरा कोई मेरी मदद नहीं कर सकता. मुझे विश्वास है, आप मेरी जरूर मदद करेंगे.’’

‘‘कैसी मदद?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘बस, रहने के लिए एक छोटा सा फ्लैट या मकान और जीविका के लिए एक

नौकरी? मैं अकेले अपना जीवन गुजार लूंगी.’’

‘‘अकेले गुजार लोगी?’’ वे शंकित थे.

‘‘कोशिश करूंगी, शादी नाम की संस्था मेरे लिए नहीं है और पुरुषों पर से मेरा विश्वास उठा चुका है.’’

आशीष ने उस की इस बात का कोईर् जवाब नहीं दिया, परंतु वे अच्छी तरह जानते थे कि पुरुषों पर से उस का विश्वास नहीं उठना चाहिए. उस ने तो स्वयं किसी पुरुष का विश्वास तोड़ा है, वह भी अपने पति का. अब वह पुरुषों पर अविश्वास का दोष नहीं लगा सकती. इतना आत्मबल कहां से लाएगी?

‘‘अभी कहां रुकी हो?’’

‘‘कहीं नहीं, मैं आज ही लखनऊ आई हूं.’’

‘‘कहां रुकोगी?’’

‘‘नहीं जानती. आप मेरे लिए कोई व्यवस्था कर दीजिए,’’ नंदिता के स्वर में अधिकारभाव था जैसे वह अभी भी उन की पत्नी हो या पूर्व पत्नी के नाते वह अपने अधिकार का प्रयोग करने आई हो अथवा आशीष के सरल स्वभाव का फायदा उठाने आई हो. कहा नहीं जा सकता था कि उस के मन में कौन सा अधिकारभाव था.

आशीष ने एक पल उसे देखा, उस की आंखों में याचना से अधिक प्रतिवेदन का भाव था. नंदिता के किसी भाव से वे प्रभावित नहीं हुए. उन के मन में बस यही बात थी कि नंदिता मुसीबत में है और उन्हें उस की मदद करनी है.  इस बात की सचाई जानने की उन्होंने कोई कोशिश नहीं की कि वह सचमुच मुसीबत में है या जानबूझ कर उन के सामने अपनी मजबूरी की कोई कहानी गढ़ रही है. इस से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. उन का दयालु स्वभाव सभी तरह के तर्कों और वितर्कों से उन्हें दूर रखता.  उस दिन उन्होंने नंदिता के रहने की व्यवस्था अपने एक मित्र के गैस्ट हाउस में करवा  दी. फिर अगले कई दिनों तक वह नंदिता के लिए मकान और नौकरी की व्यवस्था में लगे रहे. इस वजह से उन का क्लीनिक लगभग उपेक्षित रहा और घर की तरफ भी ज्यादा ध्यान नहीं दे पाए.

बेटा शिकायत करता, ‘‘पापा, आप इतना ज्यादा काम क्यों करते हैं? हमारे लिए भी आप के पास समय नहीं है.’’

दिव्या समझदार थी. वह जानती थी, मैडिकल एक ऐसा पेशा है जिस में समयअसमय नहीं देखा जाता. फिर भी उन दिनों आशीष के चिंतित चेहरे को देख कर उस ने शिकायत की, ‘‘इतना काम भी क्यों करते हैं कि आप को आराम करने का मौका न मिले?’’ ‘‘दिव्या, कोई खास बात नहीं है. बस कुछ दिनों की बात है, फिर सब सामान्य हो जाएगा.’’

‘‘क्या कोई खास बात है, जो आप को परेशान कर रही है?

‘‘नहीं,’’ उन्होंने टालने के लिए कह दिया, ‘‘तुम परेशान न हो. कोई बात होती तो मैं तुम्हें जरूर बताता.’’

‘‘दिव्या आश्वस्त हो जाती. पति पर शंका करने का कोई कारण उस के पास नहीं था.’’

गोमती नगर में ही एक एलआईजी मकान मिल गया. नंदिता के लिए पर्याप्त था. जब अग्रिम किराया और डिपौजिट देने की बात आई तो आशीष ने उस की तरफ देखा. नंदिता ने मुंह झुका लिया. कुछ बोली नहीं तो आशीष को पूछना ही पड़ा, ‘‘तुम्हारे पास पैसे हैं?’’

‘‘नहीं,’’ उस ने धीमे स्वर में कहा.

आशीष को बहुत आश्चर्य हुआ. नंदिता एक बड़ी कंपनी में काम करती थी. उस की तनख्वाह भी अच्छीखासी थी. फिर उस की तनख्वाह का पैसा कहां गया?  नंदिता जैसे आशीष का मंतव्य समझ गई, ‘‘आप को मैं कैसे बताऊं? उस ने न केवल मेरा शरीर चूसा है, बल्कि मेरी कमाई पर भी खूब ऐश की. उस ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा.’’  आशीष ने बिना कोई प्रश्न किए पैसे भर दिए. यही नहीं, घर का सारा सामान भी भरवाया, फर्नीचर से ले कर बरतन और राशन तक. इस में कई लाख रुपए खर्च हो गए उन के. परंतु कोईर् मलाल नहीं था उन्हें. बस एक कचोट थी कि ये सब वे अपनी पत्नी से छिपा कर कर रहे.

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इस के बाद अपने रसूख और पेशे का  कुछ लाभ लेते हुए उन्होंने नंदिता को एक  होटल में असिस्टैंट मैनेजर की जौब दिलवा दी. हालांकि होटल मैनेजमैंट का कोई अनुभव उस के पास नहीं था, परंतु मैनेजमैंट की डिग्री उस के पास थी और एक कंपनी में काम करने का पिछला अनुभव था. इसी आधार पर उसे नौकरी मिल गई.  जिस दिन उसे नौकरी मिली, नंदिता ने आशीष से कहा, ‘‘क्या मिठाई खाने के  लिए शाम को घर आ सकते हो.’’

‘‘घर पर क्यों? मिठाई तो कहीं भी खाई जा सकती है,’’ उन्होंने हलकेफुलके मूड में कहा.

‘‘तो फिर किसी रैस्टोरैंट में चलते हैं,’’ नंदिता ने तपाक से कहा.

वे सोच में पड़ गए. फिर बोले, ‘‘यह संभव नहीं होगा. मरीजों को देखतेदेखते काफी समय निकल जाता है. रात में देर हो जाएगी… समय नहीं मिल पाएगा.’’

‘‘तो फिर आप क्लीनिक से सीधे घर आ जाइए,’’ उस ने जोर दे कर कहा.

‘‘देखता हूं, शाम को ज्यादा मरीज नहीं हुए तो आ जाऊंगा.’’

‘‘मैं इंतजार करूंगी,’’ उस के स्वर से लग रहा था कि उसे विश्वास था, आशीष अवश्य आएंगे और सचमुच वे आए. नंदिता उस दिन बहुत खुश लग रही थी. वह आशीष के स्वागत के लिए बिलकुल तैयार थी. उस ने एक विवाहिता की तरह शृंगार किया था. बस बिंदी नहीं लगाई थी.

साड़ी में उस का नैसर्गिक सौंदर्य निखर रहा था. मनुष्य के जीवन में जब खुशियां आती हैं, तो उस के अन्य गुण भी दिखाई देने लगते हैं.

– क्रमश:

Serial Story: विषपायी (भाग-3)

अब तक आप ने पढ़ा:

आशीष पेशे से एक डाक्टर थे. उन की शादी नंदिता नाम की एक लड़की से हुई, जो खुद एक अच्छी कंपनी में सीनियर मैनेजर के पद पर कार्य कर रही थी. शादी के बाद आशीष पत्नी नंदिता की उदासी से परेशान थे. बिस्तर पर भी नंदिता एक संपूर्ण स्त्री की तरह आशीष से बरताव नहीं करती थी. एक दिन आशीष ने नंदिता से जोर दे कर कारण पूछा, तब नंदिता ने बताया कि वह एक व्यक्ति से प्रेम करती है और उस के प्यार में पागल है. आश्चर्य की बात तो यह थी कि जिस व्यक्ति से नंदिता प्रेम करती थी वह शादीशुदा था. यह सुन कर आशीष के पैरों तले जमीन खिसक गई. एक दिन क्लीनिक पर उस से एक महिला मिलने आई.

नंदिता से तलाक के बाद आशीष ने दिव्या से दूसरी शादी कर ली थी. दिव्या के साथ 8 साल के उन के दांपत्य जीवन में कभी कटुता के क्षण नहीं आए थे. पर 8 साल बाद जब अचानक नंदिता उन से मिलने क्लीनिक पहुंची तो सीधेसादे आशीष नंदिता की बातों में आ गए. वह अब खुद को दीनहीन और असहाय बता रही थी और बारबार आशीष से अपनी गलती के लिए माफी मांग कर खुद के लिए सहानुभूति चाह रही थी. नंदिता के बारबार अनुरोध करने पर आशीष उस की मदद को तैयार हो गए. आशीष ने नंदिता को न सिर्फ पैसे दिए, किराए पर एक फ्लैट भी दिला दिया.

एक दिन नंदिता ने आशीष को अपने फ्लैट पर अकेले आने को कहा. बारबार आग्रह करने पर आशीष शाम को नंदिता के पास पहुंचा तो नंदिता सजधज कर उसी का इंतजार कर रही थी.

-अब आगे पढ़ें:

उसके सौंदर्य से आशीष अभिभूत हो गए. यह सौंदर्य कभी उन का था और अगर नंदिता ने थोड़ी समझदारी और संयम से काम लिया होता तो आज भी वह उन की होती, परंतु नंदिता अब उन की नहीं है. सच तो यह है कि अब वह किसी की नहीं है और देखा जाए तो वह स्वतंत्र है और जिसे चाहे पसंद कर सकती है, प्यार कर सकती है. उस के जीवन में किसी भी पुरुष के लिए उतनी ही जगह है, जितनी प्यार करने के लिए किसी को हो सकती है.

‘‘आइए, मुझे विश्वास था, आप अवश्य आएंगे,’’ वह इठलाती हुई बोली. उस के चेहरे की चंचलता से अधिक उस के शरीर की

चंचलता बोल रही थी. उस का बदन मछली की तरह तड़प रहा था. वह जानबूझ कर ऐसा कर रही थी या आशीष के आने की खुशी में भावविह्वल हुई जा रही थी, समझ नहीं आ रहा था. उस के व्यवहार से ऐसा नहीं लग रहा था जैसे उन के संबंधों के बीच में कभी दरार आई हो और वे हमेशा के लिए एकदूसरे से जुदा हो गए हों. जो भी देखता, यही कहता नंदिता उन की पत्नी है. नंदिता के खुलेपन से आशीष के मन में कुछ डोल गया. वे पुरुष थे और किसी भी पुरुष का मन नारी की सुंदरता और चंचलता देख कर डोल जाता है. इस में अस्वाभाविक कुछ भी नहीं था. नंदिता उन की पूर्व पत्नी थी और उन्होंने उस के प्रत्येक अंग को देखा था. अब इतने अंतराल के बाद उन्होंने उसे फिर सौंदर्य के रंग बिखेरते देखा था तो क्यों न मन में लहरें उठतीं?

उन्होंने ऊपर से कुछ जाहिर नहीं किया और नजरें चुराते हुए अंदर आ कर बैठ गए. नंदिता ने अपने घर को बहुत सुंदर तरीके से सजा दिया था. घर छोटा था, पर अगर गृहिणी में समझ हो तो छोटी सी जगह को भी सुंदर बनाया जा सकता है. नंदिता का यह गुण आशीष को पता नहीं था, क्योंकि दोनों की शादी के बाद नंदिता मन से उन के घर में थी ही नहीं, बस उस का तन मौजूद रहता था. वह दूसरी ही दुनिया में विचरण कर रही थी, तो आशीष के घर की तरफ कैसे ध्यान देती? चाय पी कर आशीष घर चलने लगे तो नंदिता ने उन का हाथ पकड़ लिया और उत्साह से बोली, ‘‘किन शब्दों में आप का धन्यवाद करूं?’’

आशीष के शरीर में एक झनझनी सी दौड़ गई. नंदिता का स्पर्श उन के लिए अनचाहा नहीं था, परंतु उन्हें लगा जैसे नंदिता उन्हें पहली बार स्पर्श कर रही हो और यह स्पर्श अनोखा ही नहीं उत्तेजित कर देने वाला था. 10 साल बाद नंदिता के सौंदर्य में अगर कोई कमी आई थी तो वह उम्र की थी, जिस में 10 साल बढ़ गए थे वरना वह आज भी वैसी ही सुंदर और दिलकश थी. आज भी वह किसी मर्द के दिल को घायल करने का सौंदर्य अपने अंदर समेटे थी.

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आशीष ने बिना उस की तरफ देखे अपने हाथ को छुड़ा लिया और कहा, ‘‘इस में धन्यवाद की कोई बात नहीं है. मनुष्य ही मनुष्य के काम आता है.’’ मनुष्य सौंदर्य प्रेमी होता है. हर तरह का सौंदर्य उसे प्रभावित करता है, आकर्षिक करता है. भोगा हुआ भी और नया भी. नंदिता का सौंदर्य आशीष के लिए नया नहीं था, परंतु आज वह बिलकुल नई और अलग दिख रही थी. नारी का सौंदर्य इसीलिए मनुष्य को आकर्षित करता है, क्योंकि वह प्रतिपल अपने नए रूप और नए अंदाज में दिखती है.

आशीष थोड़ा विचलित हो गए थे. घर आ कर उन्होंने दिव्या को भरपूर निगाहों से देखा. वह भी उन्हें बिलकुल नईनई सी लगी. सुबह की नर्म धूम में नहाई सी, खिलते फूलों की रंगत लिए. एक बच्चे की मां थी, फिर भी उस के सौंदर्य में कोई कमी नहीं आई थी. वह एक डाक्टर की पत्नी थी. उस ने अपने को संभाल कर रखा था. वह तुलना करने लगे नंदिता और दिव्या में. दोनों का सौंदर्य एकदूसरे से अलग था. एक अपने परिवार के प्रति पूरी तरह समर्पित थी तो दूसरी स्वच्छंद उड़ने वाली तितली… परंतु दोनों ही मनमोहक थीं. नंदिता को उन्होंने एक स्थायित्व प्रदान किया था, इस बात से उन्हें संतुष्टि प्राप्त होती थी, परंतु इस एहसान का बदला लेने का उन के मन में कोई विचार कभी नहीं आया था. वे उसे अपनी तरफ से फोन भी नहीं करते थे, परंतु नंदिता जब तक दिन में 3-4 बार उन्हें फोन न कर लेती, उसे चैन न पड़ता. वह मीठीमीठी बातें करती, कई बार पुरानी बातें खोद कर उन से माफी मांगती, यह जताने की कोशिश करती कि वह उन के प्रति ऋणी है और उन के एहसानों का बदला चुकाना चाहती है. वे हंस कर टाल जाते और अपनी तरफ से कोई प्रतिक्रिया जाहिर न करते जिस से कि नंदिता को यह लगे कि वे उस से प्रतिदान की अपेक्षा रखते हैं.

नंदिता लगभग रोज उन्हें अपने घर आमंत्रित करती. उस की बातों में कुछ ऐसा इसरार होता कि आशीष मना न कर पाते या वे उस का दिल दुखाना नहीं चाहते थे. नंदिता अकेली है, इस शहर में उस का कोई सगासंबंधी नहीं है, इस नाते वे उसे खुश करने के लिए रोज तो नहीं, परंतु दूसरेतीसरे दिन उस के घर चले जाते. नंदिता गर्मजोशी से उन का स्वागत करती, चायकौफी के साथ कुछ खाने के लिए बना लेती. वे कुछ देर बैठ कर उस की बकबक सुनते और चले आते.

एक दिन नंदिता उन की बगल में सोफे पर बैठ गई. वह चौंक से गए और हलका सा खिसक कर अपने बदन को सिकोड़ लिया. वह हंस कर बोली, ‘‘आप मुझ से इतना दूर क्यों जा कर बैठ गए? आखिर मैं आप की पत्नी रह चुकी हूं… अभी भी हमारे रिश्ते में आत्मीयता है… इतनी दूरी क्यों?’’

आशीष उस की बात का क्या जवाब देते. बस इतना कहा, ‘‘मैं ठीक हूं.’’

‘‘परंतु मैं ठीक नहीं हूं,’’ वह फिर से उन की तरफ खिसक गई, ‘‘मेरे मन में अपराधबोध है. मैं ने आप को कितने दुख दिए, आप ने कभी मुझे न तो डांटा, न मारापीटा. सहज भाव से आप सब कुछ सहते गए. मैं तब भी इस बात को नहीं समझ पाई कि आप जैसे शरीफ इनसान को कष्ट दे कर मैं अपने जीवन को नर्क बना रही हूं. तब अगर आप ने मेरे साथ सख्ती की होती, डांटा होता तो संभवतया मैं आप को छोड़ने की गलती कभी नहीं करती. मैं अपने अपराधबोध से कैसे छुटकारा पाऊं?’’

उन्हें क्या पता वह अपने अपराधबोध से कैसे छुटकारा पा सकती थी. यह उस का निजी मामला था. इस में वे नंदिता की क्या मदद कर सकते थे?

‘‘मैं लखनऊ इसलिए नहीं आई थी कि आप के माध्यम से कोई नौकरी प्राप्त कर लूं और हंसीखुशी जीवन व्यतीत करूं … यह काम तो मैं दिल्ली में रह कर भी कर सकती थी… जो नौकरी छोड़ दी थी वही प्राप्त कर लेती या दूसरी कर लेती… इस में कोई परेशानी नहीं थी.’’

आज उस ने अपने दिल की बात कही थी. आशीष चौंक गए, तो क्या वह केवल उन के लिए यहां आई थी. उसे कोई दुख और परेशानी नहीं थी?

‘‘अच्छा… तो फिर…’’ उन्होंने असहज भाव से पूछा. वे आगे बहुत कुछ पूछना चाहते थे, पर नहीं पूछा. वे जानते थे कि उन के बिना पूछे ही वह सब कुछ उन्हें बता देगी. नंदिता का स्वभाव बहुत चंचल था. वह बहुत दिनों तक कोई बात अपने मन में छिपा कर नहीं रख सकती थी. नंदिता ने अपना दायां हाथ उन की बाईं जांघ पर रख दिया और उसे हौलेहौले सहलाने लगी. आशीष को संभवतया इस बात का भान नहीं हुआ था. वे अन्य विचारों में खोए थे.

‘‘जब तक आदमी को दुख नहीं मिलता वह दूसरों के दुख को नहीं महसूस कर पाता… जब उस ने मुझे ठुकरा दिया तो मुझे एहसास हुआ कि मेरी बेवफाई से आप को कितना मानसिक कष्ट हुआ होगा. जब मेरा दिल तारतार हुआ और मैं दुनिया को मुंह दिखाने लायक नहीं रही तो लगा जैसे मेरे लिए डूब मरने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है.

‘‘फिर मैं ने सोचा मेरे कारण आप ने इतना दुख सहा, मेरा दिया सारा जहर पी गए, विषपायी बन गए, तो फिर मैं जी कर दूसरों के दिए जहर को क्यों नहीं पी सकती. मैं ने तय किया कि अगर आप मिल गए और आप ने मुझे क्षमा कर दिया तो मेरा दुख कम हो जाएगा. अब आप मुझे मिल गए हैं और मैं देख रही हूं कि मेरे प्रति आप के मन में कोई कटुता नहीं. इस से न केवल मेरा दुख कम हुआ है, बल्कि मैं सुख के सागर में डूबनेउतराने लगी हूं. जीवन के प्रति मेरा मोह बढ़ गया है. मैं बहुत कुछ पा लेना चाहती हूं… वह भी जो बहुत पहले मेरी नादानी के कारण मेरे हाथों से फिसल गया था.’’

आशीष चुपचाप उस की बातें सुनते जा रहे थे.

‘‘आप ने मेरे अपराध क्षमा कर दिए, मेरे दुख हर लिए, परंतु मेरा प्रायश्चित्त अभी बाकी है.’’

‘वह क्या?’ आशीष ने अपनी निगाहों को उठा कर नंदिता की आंखों में देखा. उस की आंखें भीगी थीं, इस के बावजूद उन में अनोखी चमक थी जैसे उसे विश्वास था कि उस की कोई बात आशीष नहीं टालेंगे.

नंदिता ने भावुक हो कर उन के दोनों हाथ पकड़ लिए, ‘‘मैं जानती हूं, आप बहुत बड़े दिल के आदमी हैं. इसीलिए आप से याचना कर रही हूं. मेरा प्रायश्चित्त यही है कि मैं जीवन भर आप के साथ रहूं?’’

आशीष को एक झटका सा लगा. उन्होंने अपने हाथ छुड़ा लिए और उठ कर खड़े हो गए, ‘‘क्या?’’

वह भी उठ कर खड़ी हो गई, ‘‘आप इस तरह क्यों चौंक गए? मैं ने कोई अनहोनी बात नहीं कही है. इस दुनिया में बहुत सारे लोग बिना शादी के एकदूसरे के साथ रहते हैं, मैं तो आप की परित्यक्ता पत्नी हूं. मेरा आप पर कोई हक नहीं है, परंतु मैं अपना पूरा जीवन आप के लिए समर्पित करना चाहती हूं.’’

आशीष की आवाज लड़खड़ा गई, ‘‘यह कैसे संभव हो सकता है?’’

‘‘सब कुछ संभव है, बस मन को समझाने की बात है.’’

‘‘परंतु मैं शादीशुदा हूं, घर में पत्नी और 1 बेटा है. मैं तुम्हारे साथ कैसे रह सकता हूं?’’

‘‘जिस प्रकार आप मेरे दिए कष्ट का जहर पी कर रह सकते हैं, उसी प्रकार खुशीखुशी मेरे साथ रह सकते हैं. मैं आप के प्रति समर्पण चाहती हूं. किसी और चीज की मुझे आप से अपेक्षा नहीं है. मैं आप से कोईर् और हक नहीं मांगूंगी, न बच्चों की कामना न संपत्ति का अधिकार. मुझे बस आप का साथ चाहिए, कभीकभी संसर्ग चाहिए और कुछ नहीं…’’ आशीष का दिमाग चकरा गया. वे 1 डाक्टर थे, सुलझे हुए व्यक्ति थे. कठिन और विपरीत परिस्थितियों में भी नहीं घबराते थे. जब परपुरुष के साथ नंदिता के संबंधों का उन्हें एहसास हुआ था तब भी वे इतना विचलित नहीं हुए थे. सोचा था कि इस स्थिति से किसी तरह निबट लेंगे. परंतु आज उन्हें लग रहा था कि इस स्थिति से कुदरत भी नहीं निबट सकती.

नंदिता जो चाहती थी, वह कभी पूरा नहीं हो सकता था. कम से कम उन के लिए यह असंभव था. एक बार उन्होंने विष पीया था, परंतु दूसरी बार नहीं पी सकते थे, जानबूझ कर तो कतई नहीं. नंदिता उन के बदन से सट गई. लगभग उन्हें अपनी बांहों में समेटती हुई बोली, ‘‘देखिए मना मत कीजिएगा. मैं बड़ी उम्मीदों से आप के पास आईर् हूं. मेरा यहां आने का यही एक मकसद था कि पूरा जीवन आप के चरणों में समर्पित कर के मैं अपनी गलतियों से छुटकारा पा सकूंगी. मेरे अपराधों का प्रायश्चित्त हो जाएगा. ‘‘आप के सिवा अब मैं किसी और को नहीं चाह सकती. अगर आप मुझे नहीं स्वीकार करेंगे, तो भी मैं जीवन भर अविवाहित रह कर आप का इंतजार करूंगी,’’ उस की आवाज में बेबसी की गिड़गिड़ाहट भरती जा रही थी और ऐसा लग रहा था जैसे नंदिता जमाने भर की सताई हुई औरत हो. आशीष ने उसे नहीं संभाला तो वह टूट जाएगी, बरबाद हो जाएगी.

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परंतु आशीष को नंदिता की गिड़गिड़ाहट, उस का रोना प्रभावित नहीं कर पा रहा था. उन के दिमाग की नसें फट रही थीं. उन्हें लग रहा था, चारों ओर धमाके हो रहे थे. यह दीवाली या किसी शादीब्याह के मौके पर होने वाले आतिशबाजी के धमाके नहीं थे. यह उन के जीवन को तहसनहस करने वाले धमाके थे. हड़बड़ाहट में वे बाहर जाने के लिए मुड़े. नंदिता ने उन्हें पकड़ लिया. वे ठिठक गए.

‘‘आप जा रहे हैं, मैं आप को नहीं रोकूंगी, पर यह वादा करती हूं कि इसी शहर में रह कर आप की प्रतीक्षा करूंगी. आप का जो निर्णय हो बता दीजिएगा.’’ वे बिना कुछ कहे बाहर निकल आए. बाहर घना अंधेरा पसरा था जैसे पूरे शहर की बिजली चली गई हो. परंतु ऐसा नहीं था, सभी घरों में बिजली थी. बस सड़क की बत्तियां नहीं जल रही थीं. सड़कें अंधेरी थीं, परंतु उन्हें लग रहा था जैसे पूरे शहर में अंधेरे की लंबीलंबी गुफाएं फैली हैं. जिस के अंदर से वे गुजर रहे हैं. इन कालीअंधेरी गुफाओं का कोई अंत नहीं था और उन की यात्रा का भी कोई अंत नहीं था.

उन के साथ ऐसा क्यों हो रहा था. दुख को चुपचाप सहन करना क्या दुखों को निमंत्रण देना होता है? वे किसी को कष्ट नहीं देते हैं, परंतु बदले में उन्हें क्यों कष्ट झेलने पड़ते हैं? नंदिता के घर के बाहर खड़ी अपनी गाड़ी को जब उन्होंने स्टार्ट किया तब भी उन्हें होश नहीं था और जब गाड़ी मुख्य सड़क पर ला कर अपने घर की तरफ मोड़ी तब भी उन्हें कुछ होश नहीं था. उन का शरीर कांप रहा था, परंतु हाथपैर काम कर रहे थे. ऐसा लग रहा था जैसे कोई अन्य व्यक्ति रिमोट कंट्रोल से उन के अंगों को संचालित कर रहा है. उन की अपनी सोच कहीं गुम हो गई थी. वे समझ नहीं पा रहे थे कि उन के दिमाग को संचालित करने वाला यंत्र उन के नियंत्रण में क्यों नहीं है?

वे गाड़ी चला रहे थे, परंतु उन्हें स्वयं पता नहीं था कि वह किस शक्ति से नियंत्रित हो रही है. सामने से आ रही गाडि़यों का प्रकाश उन की आंखों में आतिशबाजी की रोशनी की तरह चुभ रहा था और वे बारबार अपनी आंखें झपक रहे थे. घर पहुंचतेपहुंचते उन्होंने स्वयं को काफी हद तक संयत कर लिया था. दिमाग की झनझनाहट कम हो गई थी. शरीर का कंपन बंद हो गया था. मन संयत हो चुका था, परंतु चेहरे की उड़ी रंगत उन के अंदर अभीअभी गुजरे तूफान की कहानी बयां कर रही थी.

वे चुपचाप घर के अंदर प्रवेश कर गए. वे चाहते थे कि एकदम से दिव्या का सामना न हो, परंतु वह उन्हीं का इंतजार कर रही थी. रात काफी हो चुकी थी. बेटा सो चुका था. दिव्या के पास उन के इंतजार के सिवा और कोई काम नहीं था. उन की पस्त हालत देख कर दिव्या तत्काल उठी और उन को सहारा दे कर सोफे तक लाई, ‘‘आप बहुत थक गए हैं.’’

उस की आवाज में चिंता झलक रही थी. उस ने पति को सोफे पर बैठा दिया. आशीष ने एक नजर दिव्या के चेहरे पर डाली और फिर आंखें बंद कर के सोफे पर सिर टिका दिया. दिव्या दौड़ कर उन के लिए पानी ले आई. पानी का गिलास उन के हाथ में थमाते हुए बोली, ‘‘लीजिए, पानी पी लीजिए. आप किसी की नहीं सुनते हैं. कितनी बार कहा कि कम मेहनत किया करो. मरीजों का आना कभी खत्म नहीं हो सकता, आप चाहे सारी रात क्लीनिक खोल कर बैठे रहें… क्या उन के चक्कर में खुद मरीज बन जाएंगे? आप की सेहत ठीक नहीं रहेगी, तो मरीजों को कैसे ठीक करेंगे और फिर हम लोग कैसे खुश रह सकते हैं?’’ वह उन के माथे को सहला रही थी. आशीष को अच्छा लग रहा था.

‘‘देखिए तो चेहरे पर कैसी मुर्दनी छाई हुई है जैसे 10 दिनों से खाना न खाया हो.’’ आशीष चुपचाप आंखें मूंदे रहे. दिव्या की 1-1 बात उन के कानों में पड़ रही थी. वे उस की बातों को सुन सकते थे, परंतु उत्तर नहीं दे सकते थे. उस बेचारी को क्या पता कि आशीष ने अभीअभी कौन सा तूफान अपने सीने के अंदर झेला? वह कभी नहीं समझ पाएगी, क्योंकि जो कुछ उन के साथ हुआ था, उस के बारे में दिव्या को बता कर वह उस की खुशी नहीं छीन सकते थे.

दिव्या का इस प्रसंग में कहीं कोई हाथ नहीं था. दूसरों की करनी की सजा वह क्यों भुगते? जो जहर वे पी रहे थे, उस की 1 बूंद भी वह दिव्या के होंठों पर नहीं रख सकते थे. उन्हीं को सारी उम्र जहर पीना था. वे विषपायी हो गए थे. उन के अंदर अब इतना जहर समा चुका था कि किसी और जहर का उन के अंदर असर नहीं होने वाला था. वह रात किसी तरह गुजर गई. अगली सुबह पहले जैसी सामान्य थी जैसे पिछली रात कहीं कुछ नहीं हुआ. आशीष निश्चिंत भाव से उठ कर तैयार हुए. ऊपर से वे बहुत शांत और गंभीर थे, पर अंदर ही अंदर उन के मन में एक मंथन चल रहा था. उन्होंने तय कर लिया था कि उन्हें क्या करना है. आज ही सब कुछ तय हो जाना है. वे इंतजार नहीं कर सकते और न ही किसी और को दुविधा में रख सकते.

दिव्या किचन में व्यस्त थी. वे नहाधो कर तैयार हो गए. क्लीनिक जाने में अभी देर थी. वे अपने कमरे से मोबाइल ले कर बैठक में आए. रात उन्होंने ध्यान नहीं दिया था. उन के फोन पर बहुत सारे मैसेज आए थे. उन्होंने खोल कर देखा. उन में से एक मैसेज नंदिता का था. उस ने लिखा था, ‘‘आप घर पहुंच गए? ठीक तो हैं? मुझे आप की चिंता है?’’

उन्होंने उसी मैसेज पर उत्तर दिया, ‘‘मैं ठीक हूं और उम्मीद करता हूं कि तुम भी ठीक होगी. नंदिता मैं ने अपने जीवन में बहुत जहर पीया है. मैं सचमुच विषपायी हूं. यह जहर किस के कारण मैं ने पीया, इन सब बातों पर जाने का अब कोई औचित्य नहीं है. मैं तुम से केवल इतना कहना चाहता हूं कि अब और ज्यादा जहर पीने की क्षमता मुझ में नहीं है. मेरी सहनशीलता समाप्त हो चुकी है. अब अगर मैं ने 1 भी बूंद जहर पीया तो मैं मर जाऊंगा. आशा है, तुम मेरा आशय समझ गई होगी. मुझे अपनी बीवी और बेटे से प्यार है और शांतिपूर्वक उन के साथ जीना चाहता हूं, मुझे जीने दो. मेरी तुम्हारे लिए नेक सलाह है कि अब तुम भी भागना छोड़ दो और किसी अच्छे लड़के के साथ घर बसा कर खुशी से जीवन व्यतीत करो. अब मुझ से मिलने का प्रयास न करना. आशीष!’’

नंदिता को मैसेज भेजने के बाद एक भारी बोझ उन के मन से उतर गया. उन के मन में अब कोई संशय और चिंता नहीं थी. उन को ऐसा लग रहा था जैसे उन के अंदर जो विष का घड़ा 10 साल से रिसरिस कर बह रहा था, वह अचानक फूट कर बह गया और उस का जहर उन के शरीर से बाहर फैल गया. अब वह उन के शरीर पर असर नहीं कर रहा था. तभी मुसकराती हुई दिव्या नाश्ता ले कर आ गई. बोली, ‘‘आइए, नाश्ता कर लीजिए.’’

वह नहाधो चुकी थी. साधारण कपड़ों में भी किसी परी सी लग रही थी. उन्होंने एक प्यारी मुसकराहट के साथ दिव्या को देखा. फिर मन ही मन खुश होते हुए डाइनिंग टेबल पर जा बैठे.

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