खुद को बदलने की जरूरत

कोरोना के और भी बहुत से भले हुए हैं. लोगों का फालतू घूमनाफिरना, खरीदना तो कम हो गया ही गया है, शादियां भी कम तड़कभड़क से हो सकती हैं, पक्का हो गया है. यह लंबे समय तक चलेगा, इस की उम्मीद नहीं है पर फिर भी जब तक है तब तक शादी में 50 की संख्या मांबाप के लिए कोरोना का बोनस है.

अब शादी पर बरबादी नहीं होती. घर के निकट के लोग ही वरवधू को सुखी जीवन के आशीष दे देते हैं. इतने ही लोग असल में हंसीठट्ठे, चुहुलबाजी, विवाह की रौनक के लिए काफी हैं.

पूरे समाज को बुला लेना, उस के ठहरने का इंतजाम करना, उसे खिलानापिलाना निरर्थक और बेमानी है. यह परंपरा न जाने क्यों शुरू हुई कि विवाह धूमधाम से पूरे रिश्तेदारों को बुला कर ही करें तो ही पूरा होगा.

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शादी 2 दिलों और जिस्मों का जोड़ है. पहले जब वे एकदूसरे को नहीं जानते थे तब भी और अगर अब जब लंबी डेटिंग के बाद शादी हो तो दूरदूर से संबंधी और दोस्त आएं, कोई तुक की बात नहीं है.

विवाह एक पूरा व्यवसाय बन गया है. आजकल पहले तो विवाह के लिए वरवधू ढूंढ़ने के लिए पूरी कंपनियां बन गई हैं, जिन के पास 6-7 से ले कर सैकड़ों तक का स्टाफ रहता है और जब शादी योग्य कोई मिल जाए तो शादी आयोजन कराने वाले आ धमकते हैं.

आम आदमी वर्षों की जमापूंजी इस प्रक्रिया में खर्च कर डालता है, जो कुछ घंटों का सुख देती है. जोड़े को सुख दे सकेगी, इस की गारंटी कोई नहीं देता.

इस से अच्छा तो यह धूमधाम पहले बच्चे पर की जाए, शादी के 10 साल बाद की जाए, 20 साल बाद की जाए. वे अवसर हैं जो सुखी विवाहित जीवन की गारंटी हैं और जिन्हें सब के साथ मिल कर मनाना एक खुशी की बात है.

कोरोना जातेजाते अगर परमानैंटली इस वरदान को मानव समाज को दे जाए तो भला होगा. विवाह पर खर्च भारत में ही नहीं सभी समाजों में होता है और एकदूसरे की देखादेखी यह खर्च करोना से पहले बढ़ रहा था. अब शायद इस में कोई रुकावट आए.

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