बच्चों को बड़ा करना आज भी मां की जिम्मेदारी मानी जाती है- डा. अरुणा अगरवाल, चाइल्ड साइकोलौजिस्ट

डा.अरुणा अगरवाल शिक्षिका, उद्यमी और बाल मनोवैज्ञानिक हैं जो 20 वर्षों से मनोविज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं. मुंबई में रहने वाली अरुणा किडजी (प्रीप्राइमरी) और माउंट लिटेरा जी स्कूल (प्राइमरी) पवई की फाउंडर हैं. वे मनोविज्ञान में मास्टर्स के साथसाथ क्वालिफाइड चाइल्ड साइकोलौजिस्ट/बिहेवियर थेरैपिस्ट भी हैं.

अरुणा अगरवाल मूल रूप से दिल्ली से हैं. 25 साल पहले शादी के बाद मुंबई चली आईं. उन की ससुराल पारंपरिक मारवाड़ी फैमिली थी जब कि वह खुद पंजाबी फैमिली से आती हैं. उन के पति बिजनेसमैन हैं.

शिक्षा और बाल मनोविज्ञान

अरुणा को बच्चों के लिए कुछ करना था. अत: उन्होंने अपने इस जनून के लिए स्टैंड लिया और पति ने भी सहयोग दिया. यही वजह है कि जैसे ही दोनों बेटे स्कूल जाने लगे तो अरुणा ने अपनी आगे की पढ़ाई कंटिन्यू कर ली और बिहेवियरल थेरैपिस्ट बन गईं. उन का मानना है कि उम्र कोई भी हो पढ़ाई और सीखना हमेशा जारी रखना चाहिए. अपडेट रहने से ही नई जैनरेशन के साथ कनैक्ट कर पाना संभव है. इस के बाद 2004 में उन्होंने अपने स्कूल की शुरुआत की.

फिलहाल उन का स्कूल 2 से 10 वर्ष की आयु के वैसे बच्चों के लिए है जो बिहेवियर, भाषा विकास या अटैंशन इशू से संबंधित चुनौतियों का सामना करते हैं.

अरुणा ‘वियोला’ नाम की एक सामाजिक ट्रस्ट भी चलाती हैं जो प्राइमरी स्कूल के छात्रों के लिए हाई क्वालिटी ऐजुकेशन प्रदान करती है. अरुणा औपटिमिस्ट हैं. उन के अनुसार आत्मविश्वास लोगों को किसी भी स्थिति को संभालने की क्षमता दे सकता है.

शिक्षा और बाल मनोविज्ञान में अरुणा के उत्कृष्ट कार्य के लिए उन्हें कई अवार्ड्स भी मिले हैं. ‘वूमंस अचीवर्स अवार्ड’, ‘यंग ऐन्वायरन्मैंटलिस्ट अवार्ड्स’ के साथसाथ जी लर्न द्वारा भी कई और अवार्ड्स मिले हैं.

बच्चों को मोबाइल से दूर रखें

आज भी महिलाओं को समाज की स्टीरियोटाइप सोच से पार पाना कितना कठिन है? यह पूछे जाने पर अरुणा कहती हैं, ‘‘हमारे यहां आज भी बच्चे को बड़ा करना मां की ही जिम्मेदारी मानी जाती है. यह माना जाता रहा है कि अगर एक महिला कामकाजी है तो भी उसे घर भी संभालना है, बच्चों को भी देखना है और बाहर भी मैनेज करना है. मगर पुरुषों से कभी नहीं कहा जाता कि उन्हें भी बच्चों की परवरिश या किचन में योगदान देना चाहिए.’’

छोटे बच्चों को बिहेवियरल और साइकोलौजी से जुड़ी किस तरह की समस्याओं का सामना अकसर करना पड़ता है? इस सवाल के जवाब में वे कहती हैं, ‘‘छोटे बच्चों का स्क्रीन टाइम बहुत ज्यादा हो गया है. उन्हें बाहर जा कर खेलने का मौका नहीं मिलता. पेरैंट्स वर्किंग होते हैं. उन के लिए यह बहुत आसान होता है कि बच्चे के हाथ में मोबाइल दे कर उसे व्यस्त रखो. फिर धीरेधीरे वह इस का आदी हो जाता है और उस की लैंग्वेज डेवलप नहीं हो पाती.

‘‘इस के विपरीत समय पर लैंग्वेज डैवलप होने से यह समस्या नहीं आती. कोविड-19 के बाद इस तरह की समस्याएं काफी आ रही हैं. ऐसे हालात में मैं पेरैंट्स को गाइड करती हूं कि आप क्या करें ताकि बच्चा नौर्मल बिहेव करना शुरू करे. यदि छोटा बच्चा पूरा समय मेड के सहारे है तो वह अकेलापन फील करता है और उस में साइकोलौजिकल प्रौब्लम आ सकती हैं.’’

अवेयरनैस जरूरी है

अरुणा कहती हैं, ‘‘महिलाओं की सब से बड़ी ताकत यह है कि महिलाएं मल्टीटास्किंग कर सकती हैं. घरबाहर और बच्चों को भी एकसाथ देख सकती हैं. उन्हें खुद पर विश्वास रखना चाहिए. अपने बारे में सोचना न छोड़ें. कम से कम 1 घंटा खुद को जरूर दें. अकसर बच्चा महिलाओं की जिंदगी का सैंटर बन जाता है. लेकिन लाइफ में बैलेंस और टाइम मैनेजमैंट बहुत जरूरी है.’’

8 मार्च को नहीं मनाया जाता था ये दिन, पढ़ें ये दिलचस्प किस्सा

आज यानि 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस दुनिया भर में धूमधाम से मनाया जा रहा है. दुनिया भर में महिलाएं एक लंबे वक्त तक शोषित रहीं. एक अरसे तक अपने अधिकारों के लिए उन्हें समाज से लड़ाई लड़नी पड़ी. जिस महिला से समाज का निर्माण हुआ, उसे ही इस समाज में अपनी पहचान, इज्जत पाने के लिए संघर्ष करना पड़ा. सैकड़ों साल तक चली इस लड़ाई को जब आज हम पीछे मुड़ कर देखते हैं तो बिता वक्त बहुत छोटा दिखता है. पर उस वक्त में लाखों करोड़ों ऐसी अनकही कहानियां उबल रही हैं जिनकी  उष्मा ने आज के समाज को गढ़ा है.

महिलाओं के त्याग, बलिदान और संघर्ष के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए मनाया जाता है इंटरनेशनल वुमन डे. लंबे समय तक उनकी लड़ाई, त्याग और संघर्ष को याद करते हुए उन्हें समाज में इज्जत, बराबरी और अधिकार दिलाना ही इस दिन को मनाने का मुख्य उद्देश्य है. पर क्या आपको पता है कि ये दिन मनाया क्यों जाता है?

इस लेख के माध्यम से हम आपको बताएंगे कि इस दिन की शुरुआत कैसे हुई. क्यों इसे मनाया जाता है.

ऐसे हुई शुरुआत

1908 में अमेरिका में वोटिंग के अधिकार, बेहतर तनख्वाह, काम की नियमित अवधि और पेशेवर तौर पर पुरुषों के बराबर बहुत सी बातों की मांग करते हुए करीब 15,000 महिलाओं ने एक मार्च निकाला था.  इसे न्यू यौर्क में निकाला गया था. इस मार्च को महिलाओं के हक के लिए हुए संघर्ष में एक मील के पत्थर के तौर पर देखा जाता है. अमेरिका के समाज में इस मार्च का काफी गहरा असर हुआ और लोगों में एक चेतना जागी.

इस मार्च के असर को देखते हुए ठीक अगले साल से, यानि 28 फरवरी, 1909 को पहली बार महिला दिवस मनाया गया था. इस दिन को मनाने का आह्वान सोशलिस्ट पार्टी ने किया था. शुरुआत इसकी केवल अमेरिका तक ही थी. पर अगले ही साल यानि 1910 में जर्मनी में वुमन डे का मुद्दा कालरा जेटकिन ने उठाया. कालरा का कहना था कि दुनिया के सभी देशों में महिलाओं के अधिकारों की बात होनी चाहिए और इसके लिए एक दिन तय करना होगा. इस दिन को वो महिलाओं के संघर्ष, उनके बलिदान, उनके शौर्ष के रूप में दुनिया भर में मनाना चाहती थी.

1909 में अमेरिका के न्यू यौर्क में लगी ये चिंगारी अब दुनिया भर में फैलने को तैयार थी. इसका असर ये हुआ कि 19 मार्च 1911 को औस्ट्रेलिया, जर्मनी, स्विटजरलैंड और डेनमार्क में इस दिन को महिलाओं के सम्माने के तौर पर मनाया गया.

पहले 8 मार्च को नहीं मनाया जाता था अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस

जी हां, आपको ये जान कर हैरानी होगी पर ये एक मजेदार तथ्य है. जब इसकी शुरुआत हुई तब, आज की तरह इसे 8 मार्च को नहीं मनाया जाता था. जब सोशलिस्ट पार्टी ने इस दिन का आह्वान किया, तब इसे फरवरी महीने के आखिरी रविवार को मनाया गया था. पर 1913 में इसे 8 मार्च को तय कर दिया गया. आगे चल कर 1975 में संयुक्त राष्ट्र में भी इस दिन को आधिकारिक मान्यता दे दी. इसके बाद इस दिन को दुनिया भर में एक थीम के तौर पर मनाया जाता है.

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