अगर हिंदी सिनेमा के 7 दशक को देखें तो पाएंगे कि आजादी यानी 1947 के बाद से लेकर आज तक किसी भी सुपरहिट फिल्म की कहानी में महिलाओं को प्रमुख स्थान नहीं दिया गया. पूरी फिल्म का क्रैडिट पुरुष कलाकार के खाते में ही गया है. महिलाओं को केंद्र में रखकर बौलीवुड में कई फिल्मों का निर्माण हुआ है, लेकिन उनमें से बहुत कम फिल्में ही अति सफल क्लब में शामिल हो पाई हैं. जो फिल्में अति सफल पायदान पर पहुंची भी हैं, तो उनमें भी महिला किरदारों को कोई खास तवज्जो नहीं मिली. यही हाल परदे के पीछे भी है. यहां भी महिला कलाकारों को पुरुष कलाकारों की तुलना में भेदभाव का शिकार होना पड़ता है. दीपिका पादुकोण की गिनती आज सफल अदाकाराओं में होती है, लेकिन पारिश्रमिक के मामले में उन्हें आज भी लोकप्रिय अभिनेताओं से कम पारिश्रमिक दिया जाता है और यह विषमता दशकों से चली आ रही है.

आजादी के बाद का दौर    

अगर 1947 से 1967 तक की फिल्मों का दौर देखें तो उनमें महिलाओं को बहुत ही पारंपरिक एवं घरेलू रूप में प्रस्तुत किया गया. लेकिन कुछ फिल्म निर्माताओं ने ऐसी फिल्में बनाने का भी साहस किया, जो पारंपरिक भूमिकाओं से बिलकुल हटकर महिलाओं के व्यक्तित्व के सशक्त पक्ष को दिखाती हैं. उनकी इस जिद को भी दिखाती हैं कि पितृसत्तात्मक समाज में भी कैसे वे अपने आप को बाहर निकाल कर अपना वजूद बनाने और आत्मनिर्भर बन कर सम्मानित जिंदगी जीने में सक्षम हैं.

1947 में आई फिल्म ‘जुगनू’ की गिनती उस समय की बंपर हिट फिल्मों में होती है. इस फिल्म में अदाकारा नूरजहां ने एक अनाथ लड़की जुगनू का रोल निभाया था. उनके साथ दिलीप कुमार और शशिकला भी थीं. यह एक म्यूजिकल फिल्म थी. उस समय दिलीप कुमार नूरजहां की तुलना में बहुत छोटे कलाकार थे, इसलिए पूरी फिल्म नूरजहां की ही फिल्म थी.

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