मासिक धर्म, उससे जुड़ी साफ सफाई और सामाजिक टैबू को दिखाने की कोशिश करती फिल्म ‘फुल्लू’ में निर्देशक अभिषेक सक्सेना कमजोर पटकथा की वजह से अपनी पकड़ से काफी दूर रहे. हालांकि ऐसी फिल्म को बड़े पर्दे पर मनोरंजन और संदेश के साथ दिखाना मुश्किल होता है. ये एक सामाजिक मुद्दा है जो 21वीं सदी में आज भी कई पढ़े-लिखे घरों से लेकर आम जन समाज में विद्यमान है. इसे कितना भी कोई कोशिश कर लें, इस सामाजिक टैबू से अपने आप को निकाल पाना मुश्किल है, क्योंकि जो भी व्यक्ति इस बारे में अपनी खुली विचार रखता है, उसे अभद्र और अश्लीलता की संज्ञा दी जाती है. फिल्म की कहानी कुछ अधूरी लगी.

फुल्लू का सपना ज्योंही पूरा होने वाला था कि फिल्म खत्म हो गयी. फिल्म में अभिनेता शरीब हाश्मी ने काफी अच्छा काम किया है, फुल्लू की भूमिका के लिए उन्होंने मेहनत किया है. अभिनेत्री ज्योति सेठी अपनी भूमिका के अनुसार ठीक जंची. फिल्म में जब-जब उनकी एंट्री हुई फिल्म अच्छी लगी.

कहानी

फुल्लू (शरीब हाश्मी) एक गांव का लड़का है, जो अपनी मां और बहन के साथ रहता है. वह कोई काम-काज नहीं करता, जिससे उसकी मां हमेशा परेशान रहती है और खुद गुदड़ी बेचकर गुजर-बसर करती है. फुल्लू केवल गांव की महिलाओं के लिए फिक्रमंद है और पास के शहर से उनके लिए जरुरत के सामान ला देता है. माहवारी के बारें में अंजान फुल्लू उनके लिए सैनेटरी पैड भी लाता है. जिसे हमेशा काली पन्नी में दुकानदार देता है. उसके इस तरह इधर-उधर घूमने और कुछ काम न करने की वजह से परेशान उसकी मां उसकी शादी ज्योति सेठी से करवा देती है.

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