आज प्रियांक को घर लौटने में काफी देर हो गई थी. रात 12 बजे के करीब घर की सीढि़यां चढ़ते हुए उस की टांगें कांप रही थीं. वैसे वजह बहुत सामान्य थी. औफिस में पार्टी होने की वजह से उसे देर हो गई थी. मगर वह जानता था कि इस बात पर घर में कुहराम मच सकता है. दरअसल, उस के यहां सालों से यह नियम चला आ रहा था कि घर का कोई भी सदस्य रात 9 बजे के बाद घर से बाहर नहीं रहेगा. सब को समय पर लौटने की सख्त हिदायत थी. ऐसे में वह जानता था कि उसे नियम उल्लंघन की सजा भोगनी पड़ेगी.

पहली घंटी पर ही उस की मां ने दरवाजा खोल दिया. गुस्से से उन की आंखें लाल हो रही थीं. झट उसे अंदर खींच दरवाजा बंद करते हुए वे फुसफुसाईं, ‘‘अपने कमरे में जल्दी जा, मैं खाना वहीं ले कर आ रही हूं. तेरे पिता जाग रहे हैं. बहुत गुस्से में हैं. जल्दी खा कर सो जा.’’

अब सवाल यह उठता है कि एक जवान लड़का जो जौब कर रहा है यदि अपने औफिस में काम की वजह से किसी दिन देर से घर लौटता है तो क्या उसे इस बात के लिए डांटनाफटकारना चाहिए? क्या इस उम्र में आ कर भी वह इतना समझदार नहीं हुआ कि अपना भलाबुरा समझ सके और अपनी जिम्मेदारी खुद उठा सके? इसी तरह घर की बहूबेटियों पर भी पाबंदियां कम नहीं रहतीं.

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बरेली की रहने वाली विनीता मलिक कहती हैं, ‘‘हमारे यहां घर की चाबी दादी के पास होती है. यदि कोई बच्चा देर से घर लौटता है तो उस की पिटाई होती है. यही वजह है कि मैं न तो कालेज के बाद डांस क्लास जा पाती हूं और न ही कभी किसी फ्रैंड की पार्टी अटैंड कर पाती हूं. थोड़ी भी देर हो जाए तो जान सांसत में आने लगती है. जिंदगी में एक घुटन सी है. कुछ करने या आगे बढ़ने की इच्छा दबा कर जीना पड़ता है.’’

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