ज्योति दिग्विजय सिंह

"मां चली गई", पति ने कमरे में आते ही धीमी आवाज़ में कहा. मेरी प्रतिक्रिया देखे बिना वे तेज़ी से बाथरुम की ओर चले गए. मुझे भी अचानक मिली खबर से चौंकने की आवश्यकता नहीं थी. चाहे कितनी भी विषम परिस्थिति क्यों न हो धीरज खोने का साहस मुझमें नहीं है.

जीवन के थपेड़ों से हुए अपने पाषाण ह्रदय की कठोर चट्टान पर एक बूंद आंसू क्या मायने रखता है? जैसे गर्म तवे पर पानी का छींटा. पलकों की कोरें नम होने में काफी समय लगा. घड़ी में वक्त देखने के लिए नज़रें उठाई, तो पाया, पलकों पर आए आंसू छलक कर गालों को भिगोने लगे हैं. भावनाओं का ज्वार उठा और ह्रदय से एक सिसकी, कुछ बूंदे और बस एक चुप्पी.

कमरे में अंधेरा था, अंधेरे में उठते ,सवालों को जवाबों की आवश्यकता नहीं होती." अभी जाओगी?" "नहीं सबेरे". सारी समस्याओं का जैसे अंत हो गया. रात के दस बजे थे. "सबेरा कब होगा? " अपने आप से सवाल कर बिस्तर पर लेट गई. मन अतीत के अंधेरों से घिरने लगा.

ये भी पढ़ें- Mother’s Day 2019: जो कुछ भी हूं मां की वजह से ही हूं…

तब जब अनचाहे गर्भ से मुक्ति पाने के लिए मां ने क्या-क्या युक्ति की होगी. लेकिन मां के सारे प्रयास विफल रहे. बचपन तितली और परियों की कहानियां सुनते कहते बीतने लगा. पिता का स्नेह और मां की फटकार के बाद का दुलार मन को हर्षोन्मत्त कर देता.

जीवन धारा मंथर गति से बह रही थी कि अचानक किसी ने जैसे शांत झील में पत्थर फेंक दिया. मां और पिता में कभी धीमी तो कभी तेज़ आवाज़ में बहस होने लगी. बालमन कुछ समझ नहीं पाता था.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...