तितली: जूनी के दिल में क्यों थी कसमसाहट

आजजूनी का पार्लर में अपौइंटमैंट था. जब जूनी की नईनई शादी हुई थी तो उसे बहुत मजा आता था पर अब उसे ये सब सजा सा लगता है. कारण है कि पहले उस का मन करता था पर अब उस का शरीर और मन दोनों ही शिथिल हो गए हैं.

जूनी 27 साल की है. बड़ीबड़ी आंखें, हलकी सी उठी हुई नाक, हलके गुलाबी होंठ, कंधे तक बिखरे गहरे काले बाल जो स्टैप, कटिंग के कारण बिखरे हुए लगते थे. गेहूं की लुनाई लिए रंग, सुडौल बदन और मध्यम कद. कुल मिला कर जूनी का व्यक्तित्व सब को लुभावना लगता था.

इसी ने तो पारस को बांध लिया था. जूनी एक मध्यवर्गीय परिवार की मंझली बेटी थी. बड़की और छोटी बहनें अपने खुलते रंग के कारण सब का ध्यान आकर्षित करती थीं, वहीं जूनी उन के रंग के कारण दबीदबी और थकीथकी लगती थी पर न जाने उस की आंखों की चमक में ऐसा क्या था कि पारस उस से ऐसा बंधा कि उस के मन को कोई अप्सरा भी न भाई.

पारस के मातापिता खुश थे या दुखी जूनी आज तक शादी के 5 वर्ष बाद भी समझ नहीं पाई. पारस भी उस से खुश हैं या नहीं वह इस बात को ले कर भी दुविधा में थी.

पार्लर वाली की सधी उंगलियां उस के चेहरे पर चल रही थीं और उस का मन अतीत की गलियों में भटक रहा था… उस का पारस के साथ विवाह एक सपना ही तो था. उस की दोनों बहनें, सारी सहेलियां उस से कितनी ईर्ष्या कर रही थीं उस के गहने और कपड़े देख कर. मयूरपंखी रंग का लहंगा था उस का, उस पर दबके का काम हो रखा था, लाल शिफौन की चुनर पर सोने के तार से सुनहरा काम हुआ था.

हीरों का सैट पहने सच में जूनी राजकुमारी ही तो लग रही थी. पार्लर वाली ने अपने मेकअप की तूलिका से उस की काया पलट कर दी थी. वह वास्तव में सिनेतारिका लग रही थी.

विदाई के बाद जब वह पारस के घर या यों कहें राजमहल में उस ने प्रवेश किया तो उस का दिल धुकधुक कर रहा था. सारी रस्में बीतने के बाद उस की सास उस के कमरे में आई और उसे एक पारदर्शी फ्रौक देते हुए बोली, ‘‘उम्मीद करती हूं तुम्हें पता होगा कि आज क्या करना है?’’

जूनी के कान और गाल लाल हो गए थे.पर पारस ने उसे प्यार की पगडंडी पर बड़े प्यार से चलना सिखाया था. वहां के तौरतरीके, कपड़े पहनने का रिवाज सबकुछ अलग था और धीरेधीरे जूनी अपने पुराने तौरतरीकों को बिसरा कर पूरी तरह नए रंग में रंग गई.

1 माह बाद जब वह अपने घर आई तो उस के अपने ही उसे नहीं पहचान पा रहे थे. ऐसा लग रहा था जूनी को देख कर जैसे एक कैटरपिलर में से तितली निकल आई हो, जिंदगी के नए रंगों से सराबोर. पर उस समय कोई नहीं जानता था कि इन पंखों की उड़ान कितनी दूरी तक होगी.

जब वह घर वापस आई तो पारस के पास वर्ल्ड टूर के टिकट थे. 2 महीने कैसे 2 दिन बन कर उड़ गए उसे पता भी नहीं चला. वहीं जूनी ने पहली बार शराब के घूंट लिए. तब उसे कहां पता था यह शौक बाद में लत बन जाएगा. पहली बार जब वोडका उस ने होंठों से लगाई तो आधे घंटे तक सिर्फ हंसती ही रही थी.

वापस आने के बाद देखा जूनी का पूरा वार्डरोब ही बदला हुआ था. सासूमां ने नियमकायदों की पूरी लिस्ट थमा दी थी. अगले 2 माह तक वह ड्राइविंग, स्विमिंग, घुड़सवारी आदि सीखने में लगी रही. फिर उसे उस के जन्मदिन पर तोहफे के रूप में कार मिली. उसे ड्राइव कर के जब वह अपने घर पहुंची तो मम्मीपापा की आंखों में खुशी के आंसू आ गए.

मगर जूनी के ख्वाब अब आजाद कब थे. उसे एक आजाद और आधुनिक जिंदगी मिल गई थी.

उस के मम्मीपापा तो कुदरत का शुक्रिया अदा करते नहीं थकते थे कि उन की बेटी को इतना अच्छा घरवर मिला है. कौन देता है इतनी आजादी अपनी बहू को… पारस के मातापिता बेटीबहू में कोई फर्क नहीं करते मगर जूनी सोचती थी कि आजादी तो सब का मौलिक अधिकार है, कोई किसी को कैसे दे सकता है. आजाद है जूनी आधुनिकता के नाम पर, आजादी है पर शर्तों और नियमों के साथ. मन की आजादी, शायद नहीं. ये सब सोचतेसोचते उस के होंठ व्यंग्य से टेढ़े हो गए. अब तक फेशियल भी पूरा हो चुका था.

मन था जूनी का कि गोलगप्पे खाए पर कैसे खा सकती है, पिछले कुछ दिनों से डाइटीशियन ने सब बंद करा रखा है.

घर आ कर देखा, बेस्वाद उबला खाना मुंह चिड़ा रहा था. बिना मन के 1 चपाती खाई  और फिर कुछ देर अपने रूम में आराम करने के लिए आ गई.

शाम को एक महिला जनसभा में सासूमां के साथ जाना था, उस के लिए एक भाषण भी तैयार करना था. काम समाप्त करतेकरते शाम के 5 बज गए. कितना मन था कि मसाला चाय पी जाए.

जूनी रसोई की तरफ गई ही थी कि महाराज आ गए और बोले, ‘‘बिटिया, चुकुंदर और गाजर का रस तैयार है.’’

बिना मन के फिर से काढ़े की तरह उस ने वह पीया और तैयार होने के लिए अपने कमरे में चल दी.

पिस्ता रंग की खादी की जामदानी साड़ी और साथ में पन्ना का हलका सा सैट पहन कर जूनी ने बड़ी सी गोल बिंदी लगा कर अपने को आईने में देखा तो पूरी तरह से संतुष्ट थी.

कार में बैठ कर उस ने सासूमां को पूरा भाषण समझाया. विषय ही कुछ ऐसा था-‘‘मां मेरा अधिकार या परिवार का भार.’’

सभा में पहुच कर जूनी का मन नहीं लग रहा था. इस भाषण में उस ने अपनी कलम तोड़ कर रख दी थी. दरअसल, मन से जुड़ा हुआ कोई भी विषय कलम से नहीं दिल से लिखा जाता है.

बात तब की है जब वे लोग हनीमून से वापस आए थे. जूनी को अपनी तबीयत कुछ

ढीली लग रही थी. पारस का इश्क का खुमार तब उबाल पर था, जबरदस्ती वह जूनी को डाक्टर के पास ले गया. डाक्टर परिवारिक मित्र भी था, इसलिए मुसकराते हुए बोला, ‘‘मिठाई की तैयारी कीजिए, कोई तीसरा दस्तक दे रहा है.’’

जूनी के गाल लाल हो गए पर पारस खुश नहीं लग रहा था. कार में बैठते ही बोला, ‘‘तुम ने कोई गोली मिस करी है क्या?’’

जूनी सोचते हुए बोली, ‘‘वो जब उस रात शराब पी थी…’’

पारस थोड़े ऊंचे स्वर में बोला, ‘‘हाउ कैन यू बी सो इरिस्पौंसिबल.’’

जूनी सहम गई. पूरा रास्ता जूनी सोचती रही कि शायद पारस एकाएक जिम्मेदारी से घबरा गया है. ऐसा कुछ नहीं था कि जूनी के जीवन का मुख्य उद्देश्य मां बनना ही था पर जो हुआ है उसे वह ठुकराना नहीं चाहती थी.

घर आ कर पारस ने जब यह बात बताई तो उस की मम्मी छूटते ही बोली, ‘‘इन मध्यवर्गीय लड़कियों से और क्या उम्मीद कर सकते हो…

ये शादी को बस बच्चे पैदा करने का जरीया समझती हैं.’’

जूनी की आंखों में अपमान के आंसू आ गए. पारस जूनी से बोला, ‘‘यह बच्चा हम दोनों का साझा फैसला होना चाहिए. मुझे दुख है अनजाने में ये सब हुआ पर मैं इस जिम्मेदारी के लिए तैयार नहीं हूं, अभी तो जिंदगी की शुरुआत है.’’

जूनी को उस घटना के वक्त पहली बार महसूस हुआ कि उस के पंखों की उड़ान का रिमोर्ट कंट्रोल उस के हाथ में नहीं है.

सबकुछ आराम से निबट गया था. जूनी के जिस्म में तो दर्द नहीं हुआ पर दिल का घाव वह किसे दिखाए और कैसे दिखाए. वह पहली घटना थी और फिर एक सिलसिला बन गया. हर बार तितली के पंखों में रंग भरा जाता पर वह रंग तितली की पसंद का है या नहीं, यह कोई भी तितली से पूछता नहीं था.

पर दुनिया को तो तितली से ज्यादा आधुनिक और कोई नहीं लगता था. होगी किसी और की ससुराल दूरदूर तक, जहां बहू को इतने अधिकार हैं, एक से एक आधुनिक कपड़े, देशविदेश घूमना, आजादी अपनी पसंद का काम करने की, हर माह सब से महंगे पार्लर का दौरा, खानेपीने का इतना ध्यान.

आज जूनी को अपने घर जाना था. हलके आसमानी रंग के सूती सलवारकुरते के

साथ बस छोटा सा मंगलसूत्र और 2-2 सोने की चूडि़यां, जैसे ही बाहर निकली कि पापाजी सामने खड़े थे, ‘‘जूनी, यह क्या हाल बना रखा है… ऐसे जाओगी अपने घर?’’

जूनी कुछ समझ न पाई. फिर पारस बोला, ‘‘अरे बाबा, घर जा रही हो तो ठीक से जाओ… यह लो मीनाबाजार से मैं नई साड़ी लाया हूं.’’

एक बहुत ही खूबसूरत और महंगी आसमानी रंग की साड़ी जिस पर लाललाल फूल खिले हुए थे. जूनी असमंजस में खड़ी थी पर फैसला हो चुका था कि आज तितली के पंख आसमानी और लाल रंग के ही होंगे. कैसे बताए जूनी के ये कपड़े और गहने उस के और उस के परिवार के बीच एक दीवार खड़ी कर देते हैं. हर बार वे जूनी के कपड़े और गहने देख कर सिमट जाते हैं.

कार को गली के बाहर ही छोड़ कर वह दबे पांव घर में घुस गई. मम्मी बोली, ‘‘जूनी, आ गई क्या?’’

जूनी फिर से वही पुरानी जूनी बन गई और बोली, ‘‘आप को कैसे पता चला मम्मी?’’

फिर वहीं रसोई में घुस कर भरवां करेले और रोटी का रोल बना कर खाने लगी.

मम्मी बोली, ‘‘जूनी, देख संभल कर कहीं साड़ी खराब न हो जाए.’’

बड़ी दीदी ने जुमला उछाला, ‘‘मम्मी, हम हैं न सफाई, बरतन और सब चीजों के लिए.’’

‘‘जूनी तुम अपने पांव जमीन पर मत रखना.’’

‘‘जूनी सब बातों को नजरअंदाज करते हुए अपने भानजे और भानजियों के लिए अमेरिका से खरीदे खिलौने निकालने लगी.’’

छोटी बहन हंसते हुए बोली, ‘‘दीदी, इतने महंगे खिलौने मत लाया करो. अगर खराब हो जाते हैं तो हम तो इन्हें ठीक भी नहीं करवा पाते.’’

जूनी क्या बोले, कैसे अपनी बहनों को बताए कि ये पंख तो विवाह के समय ही कुतर दिए गए थे. अब उड़ती है पर बस जितना बोला जाता है.

शाम को खाने के वक्त जूनी मां के हाथ के बनाए कोफ्ते और कड़ी पर भिखारी की तरह टूट पड़ी.

मम्मी हंसते हुए बोली, ‘‘देशविदेश के पकवान खा कर भी लड़की का मन नहीं भरा.’’

रात को जूनी सोने की तैयारी कर ही रही थी कि पारस के घर से फोन आ गया. बड़ी बूआजी आ गई हैं, उसे फौरन बुलाया गया था.

ड्राइवर अदब से अंदर आया, साथ में थे परिवार के लिए ढेरों तोहफे. सब के चेहरे महंगे तोहफों की चमक में चमक रहे थे पर किसी ने जूनी का बुझाबुझा सा चेहरा नहीं देखा. जूनी फीकी हंसी के साथ कार में बैठ गई. मम्मी को एक बार लगा भी कि अपनी बेटी को गले लगा कर पूछे कि क्या हुआ है जूनी तुझे? पर दूसरी ओर महंगी गाड़ी, महंगे कपड़े, ढेरों तोहफों ने फिर से उन की आंखों पर पट्टी बांध दी.

उधर जूनी को पता था कि किसी न किसी बहाने से पारस और उस का परिवार उसे उस के घर नहीं रुकने देते हैं.

मम्मी ने आते ही उसे गले लगा लिया और बोली, ‘‘बूआ तेरे बिना हलकान हो रही थी.’’

बूआ के सामने जाने से पहले फिर उस ने कपड़े बदले. बूआ उसे अपनी निगाहों से तोलते हुए बोली, ‘‘खुशखबरी कब सुना रही हो… कुछ खायापीया करो.’’

‘‘रंग तो खूब चढ़ रहा है तुम पर… यहां की सुखसुविधा रास आ गई तुम्हें?’’

जूनी चुपचाप बैठी रही. क्या जवाब दे वह इस बात का.

उस रात फिर से पीतेपीते उस की आंख लग गई. पीने में जूनी को एक अलग सा सुकून मिलता था. वह एक अलग दुनिया में चली जाती थी, जहां वह बस जूनी होती थी, अपने रंगों के साथ, जहां अपनी उड़ान वह खुद तय करती थी.

सुबह बहुत देर तक सोती रही. जब सो कर उठी तो सूर्य सिर पर चढ़ आया था. पारस दफ्तर के लिए निकल रहा था. उसे देख कर बोला, ‘‘क्यों पीती हो जब डिं्रक्स कैरी नहीं कर पाती हो?’’

जूनी मुसकराते हुए बोली, ‘‘तो फिर पीना ही क्या अगर सभ्य ही रहना हो…’’

एक शून्य, एक एकाकीपन जूनी को अपने शिकंजे में घेरे था, पर किसी को

समझ नहीं आता था. वह जिंदगी को अपने हिसाब से समझना चाहती थी पर कोई यह समझ नहीं पा रहा था.

जब जूनी ने पारस से कहा कि ‘‘मुझे भी तुम्हारे साथ दफ्तर जाना है, तो पारस ने उस के निर्णय का तहेदिल से स्वागत किया. आखिर वह एक प्रगतिशील परिवार का पुत्र है जो अपनी पत्नी के हर निर्णय में साथ रहता है. पर वहां जूनी के पास करने के लिए कुछ नहीं था. वह बस शतरंज की बिसात पर एक सफेद हाथी थी, कहने को सबकुछ पर उस के नियंत्रण में कुछ भी नहीं था.’’

जूनी की जिंदगी का सफर रेत के रेगिस्तान सा था. जगहजगह मरुस्थल बिखरे हैं पर क्या मरुस्थल से कभी किसी की प्यास बुझी है जो उस की बुझती? कुछ माह बाद उस ने दफ्तर जाना बंद कर दिया, क्योंकि वहां बस उस की हैसियत पारस की बीवी के रूप में थी.

जूनी फिर से तैयार हो रही थी एक कौकटेल पार्टी के लिए. लाल औफशोल्डर गाउन और रूबी के कर्णफूल में वह बेहद सुंदर लग रही थी.

पारस के कजिन की शादी थी. धीरेधीरे सब डांस कर रहे थे और 2 पेग के बाद जूनी भी झूमने लगी. पारस को कस कर पकड़ कर बोली, ‘‘पारस, उड़ना है मुझे, पिंजरे में कैद मत करो, आम हूं मैं, मुझ को खास बनाने की जिद मत करो.’’

पारस इस से पहले कुछ बोलता, जूनी जोरजोर से गाने लगी, ‘‘जूनी हूं मैं, मुझे ना छूना…’’

सब जूनी को देख रहे थे. अच्छाखासा तमाशा हो गया था. पारस खींच कर उसे कार में

बैठा कर घर ले आया. वह पूरी रात सोचता रहा आखिर क्या कमी रह गई है… जो वह चाहती है वही होता है.

सुबह पारस ने जूनी से कहा, ‘‘जूनी, तुम्हें क्या चाहिए? लोग ऐसी जिंदगी के लिए तरसते हैं और तुम हो कि  तुम्हें इस की कद्र नहीं है.’’

जूनी कुछ न बोली बस शून्य में ताकती रही. क्या उसे वास्तव में यही चाहिए था?

आज जूनी फिर से अपनी सासूमां के साथ एक समारोह में सम्मिलित होने गई थी. बस यही अब उस की दिनचर्या थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि उस की जिंदगी सबकुछ होते हुए भी क्यों इतनी बेरंग है. तभी एक दिन उस ने स्थानीय कालेज में लैक्चरर की पोस्ट काविज्ञापन देखा. उस ने बिना किसी से पूछे आवेदन भेज दिया. साक्षात्कार भी चुपचाप दे आई. नियुक्तिपत्र हाथ में आने के बाद ही उस ने सब को सूचित किया.

‘‘क्या जरूरत है, धक्के खाने की?’’

‘‘जितना कमाओगी उस से ज्यादा तो पैट्रोल में खर्च हो जाएंगे?’’

‘‘एक ही दिन में आटेदाल का भाव मालूम पड़ जाएगा जब गरमी और  सर्दी में दौड़धूप करनी पड़ेगी.’’

‘‘इतना नौकरी का शौक चराया है तो फिर खुद ही आनाजाना करना और खुद का खर्च स्वयं उठाना.’’

ये तो कुछ ही वाक्य थे, न जाने ऐसे कितने ताने चुपचाप जूनी सुनती रही और झेलती रही. गलती उस की ही थी कि उस ने ही विवाह के बाद अपने पंखों की बागडोर अपने पति और सासससुर के हाथों में दे दी थी. पर अब वह अपनी उड़ान खुद तय करना चाहती है, गिरेगी तो उठेगी भी… वह जीवन के हर रंग को समझना चाहती है.

‘सफर है मेरा तो निर्णय भी होगा मेरा, मेरे छोटेछोटे सपनों में ही है मेरा बसेरा’ यह सोचते हुए अपने मन के टूटे पंखों को फिर से समेट कर यह तितली उड़ान को तैयार है.

दो पहलू : सास से क्यों चिढ़ती थी नीरा

सास की कर्कश आवाज कानों में पड़ी तो नीरा ने कसमसा कर अंगड़ाई ली. अधखुली आंखों से देखा, आसमान पर अभी लाली छाई हुई है. सूरज अभी निकला नहीं है, पर मांजी का सूरज अभी से सिर पर चढ़ आया है. न उन्हें खुद नींद आती है और न  किसी और को सोने देती हैं. एक गहरी खीज सी उभर आई उस के चेहरे पर.

परसों उस की नींद जल्दी टूट गई थी. लेटेलेटे कमर दर्द कर रही थी. वह उठ गई और अपने लिए चाय बनाने लगी. खटरपटर सुन कर मांजी की नींद टूट गई. बोल पड़ीं, ‘‘इतनी जल्दी क्यों उठ गई, बहू. कौन सा लंबाचौड़ा परिवार है जिस के लिए तुम्हें खटना पड़ेगा.’’

गुस्से से नीरा का तनबदन सुलग उठा था. आखिर यह चाहती क्या हैं? जल्दी उठो तो मुश्किल, देर से उठो तो मुश्किल. बोलने का बहाना भर चाहिए इन्हें.

अभी तो उसे यहां आए मुश्किल से 2 माह हुए  हैं, पर लगता है कि मानो दो युग ही गुजर गए हैं. अभी दीपक को वापस आने में पूरे 4 माह और हैं. कैसे कटेगा इतना लंबा समय? शुरू से ही संयुक्त परिवार के प्रति एक खास तरह की अरुचि सी थी उस के अंदर.

मातापिता ने भी उस के लिए वर देखते समय इस बात का खास खयाल रखा था कि लड़का चाहे उन्नीस हो, पर वह मांबाप से दूर नौकरी करता हो. उसे सास, ननदों के संग न रहना पड़े. आखिर काफी खोजबीन के बाद उन्हें इच्छानुसार दीपक का घर मिल गया था.

दीपक का परिवार भी छोटा सा था. मां, बाप और छोटी बहन. वह घर से अलग, दूसरे शहर में एक कालिज में अध्यापक था. सौम्य और सुदर्शन व्यक्तित्व वाले दीपक को सब ने पहली नजर में ही पसंद कर लिया था. शादी के बाद नीरा 8-10 दिन ससुराल रही थी.

इन चंद दिनों में ही सब का थोड़ाबहुत  स्वभाव उस के आगे उजागर हो गया था. बाबूजी गंभीर स्वभाव के अंतर्मुखी व्यक्ति थे. ज्यादा बोलते या बतियाते नहीं थे, पर उन की कसर मांजी पूरी कर देती थीं. मांजी जरा तेजतर्रार थीं. सारा दिन बकझक करना उन की आदत थी. ननद सिम्मी एक प्यारी सी हंसमुख लड़की थी. उस की हमउम्र थी.

मांजी हर बात में नुक्ताचीनी कर के बोलने का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ लेती थीं. पर उन की इस आदत पर न कोई ध्यान देता था और न उन की बातों को गंभीरता से लेता था. बाबूजी निरपेक्ष से बस हां, हूं करते रहते थे. 10 दिन बाद ही दीपक नौकरी पर वापस गया, तो वह भी साथ चली गई थी.

दीपक को कालिज के पास ही मकान मिला हुआ था. नीरा ने सुघड़ हाथों से जल्दी ही अपनी गृहस्थी जमा ली. दीपक भी अपने पिता की ही तरह धीर, गंभीर था. नीरा कई बार सोचती कि एक ही परिवार में कैसा विरोधाभास है? कोई इतना बोलने वाला है और कोई इस कदर अंतर्मुखी. अभी उस की शादी को 3 माह ही हुए थे कि दीपक को विश्वविद्यालय की ओर से 6 माह के प्रशिक्षण के लिए जरमनी भेजने का प्रस्ताव हुआ. नीरा भी बहुत खुश थी.

दीपक उसे बांहों में समेट कर बोला था, ‘‘नीरू, तुम्हारे कदम बड़े अच्छे पड़े. बड़े दिनों का अटका काम हो गया. 6 माह तुम मां और बाबूजी के पास रह लेना. उन का भी बहू का चाव पूरा हो जाएगा.’’

नीरा जैसे आसमान से गिरी. इस ओर तो उस ने ध्यान ही नहीं दिया था. अचानक उस की आंखें भर आईं और वह बोली, ‘‘नहीं, मैं तुम्हारे बिना वहां अकेली नहीं रह सकती. मुझे भी अपने साथ ले चलो.’’

‘‘नहीं, नहीं, नीरू, यह संभव नहीं है. मैं फैलोशिप पर जा रहा हूं. वहां होस्टल में रह कर कुछ शोधकार्य करना है. तुम वहां कहां रहोगी? 6 माह का समय होता ही कितना है? पलक झपकते समय निकल जाएगा.’’

फिर तो सब कुछ आननफानन में हो गया. एक माह के अंदर ही दीपक जरमनी चला गया. उसे मांजी और बाबूजी के पास छोड़ते समय वह बोला था, ‘‘नीरू, मां की जरा ज्यादा बोलने की आदत है. वैसे दिल की वह साफ हैं. उन की बातों को दिल पर न लाना. तुम्हें पता तो है कि वह सारा दिन बोलती रहती हैं. तुम बस हां, हूं ही करती रहना.’’

दीपक की बात उस ने गांठ बांध ली थी. मांजी कुछ भी कहतीं, वह अपना मुंह बंद ही रखती. मांजी की बातों को कड़वे घूंट की तरह गटक जाती. पर उन का छोटीछोटी बातों पर हिदायतें देना और टोकना उसे सख्त नागवार गुजरता. सिम्मी न होती तो उस का समय बीतना और मुश्किल हो जाता. वही तो थी जिस के साथ हंस कर वह बोलबतिया लेती थी. वही उसे खींच कर कभी फिल्म दिखाने ले जाती तो कभी खरीदारी के लिए.

दीवार घड़ी ने टनटन कर के 6 बजाए तो वह चौंक पड़ी. अभी मांजी को बोलने का एक और विषय मिल जाएगा. वह न जाने किन सोचों में डूब गई. जल्दी से उठी और दैनिक कृत्यों से निवृत्त हो कर रसोई में जा कर आटा गूंधने लगी. बाबूजी और सिम्मी, दोनों 8 बजे घर से निकल जाते थे.

तभी सिम्मी आ कर जल्दी मचाने लगी, ‘‘भाभी, जल्दी नाश्ता दो, आज मेरा पहला घंटा है.’’

नीरा के कुछ बोलने से पहले ही मांजी बोल पड़ीं, ‘‘जरा जल्दी उठ जाया करो, बहू, मैं तो गठिया के मारे उठ नहीं पाती हूं. अब सब को देर हो जाएगी. हम तो सास के उठने से पहले ही मुंहअंधेरे सारा काम कर लेते थे. क्या मजाल जो सास को किसी बात पर बोलने का मौका मिले.’’

‘‘हो गया तुम्हारा भाषण शुरू?’’ बाबूजी गुस्से से बोले, ‘‘अभी सिर्फ 7 बजे हैं और सिम्मी को जाने में पूरा एक घंटा बाकी है.’’

‘‘तुम चुप रहो जी,’’ मांजी बोलीं, ‘‘पहले बेटी को सिर चढ़ाया, अब बहू को माथे पर बिठा लो.’’

नीरा चुपचाप परांठे सेकती रही. सिम्मी बोली, ‘‘कभी मां मौनव्रत रखें तो मजा ही आ जाए.’’

नीरा के होंठों पर मुसकान आ गई. सिम्मी पर भी मांजी सारा दिन बरसती ही रहती थीं. कालिज से आने में जरा देर हो जाए तो मांजी आसमान सिर पर उठा लेती थीं. प्रश्नों की बौछार सी कर देतीं, ‘‘देर क्यों हुई? घर पर पहले बताया क्यों नहीं था?’’ आदि.

सिम्मी झल्ला कर कहती, ‘‘बस भी करो मां, जरा सी देर क्या हो गई, तूफान मचा दिया. मैं कोई बच्ची नहीं हूं जो खो जाऊंगी. आजकल अतिरिक्त कक्षाएं लग रही हैं, इस से  देर हो जाती है. तुम्हें तो बोलने का बहाना भर चाहिए.’’

बेटी के बरसने पर मांजी थोड़ी नरम पड़ जातीं, फिर धीमे स्वर में बड़बड़ाने लगतीं. सिम्मी तो बेटी है. मांजी से तुर्कीबतुर्की सवालजवाब कर लेती है पर वह तो बहू है. उसे अपने होंठ सी कर रखने पड़ते हैं. बिना बोले यह हाल है. जो कहीं वह भी सिम्मी की तरह मुंहतोड़ जवाब देने लगे तो शायद मांजी कयामत ही बरपा कर दें. मांजी और बाबूजी का दिल रखने के लिए ही तो वह यहां रह रही है. वरना क्या इतने दिन वह अपने मायके में नहीं रह सकती थी?

बाबूजी और सिम्मी चले गए. वह भी रसोई का काम निबटा कर नहाधो कर आराम कर रही थी. पड़ोस से कुंती की मां आई हुई थीं. वह चाय बनाने लगी. बाहर महरी ने टोकरे में बरतन धो कर रखे थे. कांच का गिलास निकालने लगी तो जाने कैसे गिलास हाथ से छूट कर टूट गया.

मांजी बोल पड़ीं, ‘‘बहू, ध्यान से बरतन उठाया करो. महंगाई का जमाना है. इतने पैसे नहीं हैं जो रोजरोज गिलास खरीद सकें. जब अपनी गृहस्थी जमाओगी तब पता चलेगा.’’

बाहर वालों के सामने भी मांजी चुप नहीं रह सकतीं. नीरा की आंखों में क्रोध और क्षोभ के आंसू आ गए. चाय दे कर वह अपने कमरे में आ कर लेट गई. उस ने कभी अपने मांबाप की नहीं सुनी और यहां दिनरात मांजी की उलटीसीधी बातें सुननी पड़ती हैं.

रात खाने के समय नीरा ने देखा कि दही अभी ठीक से जमा नहीं है. मांजी का बोलना फिर शुरू हो गया, ‘‘तुम ने बहुत ठंडे या बहुत गरम दूध में खट्टा डाल दिया होगा, तभी तो नहीं जमा दही. अगर ध्यान से जमातीं तो क्या अब तक दही जम न जाता? दीपक को तो दही बहुत पसंद है. पता नहीं तुम वहां भी दही ठीक से जमा पाती होगी या नहीं.’’

बाबूजी बोल पड़े, ‘‘ओह हो, अब चुप भी रहोगी या बोलती ही जाओगी? तरी वाली सब्जी है. दही बिना कौन सा पहाड़ टूट रहा है? तुम्हें खाना हो तो हलवाई से ले आता हूं. बहू पर बेकार में क्यों नाराज हो रही हो?’’

मांजी खिसिया कर बोलीं, ‘‘लो और सुनो. बाप और बेटी पहले ही एक ओर थे. अब बहू को और शामिल कर लो गुट में.’’

नीरा शर्म से गड़ी जा रही थी. मांजी के तो मुंह में जो आया बोलने लगती हैं. किसी का लिहाज नहीं.

खाना खा कर वह कमरे में आई तो उस के मन में क्रोध भरा था. अब वह यहां हरगिज नहीं रह सकती. 2 माह जैसेतैसे काट लिए हैं पर अब और नहीं रहा जाता. उस की सहनशक्ति अब खत्म हो गई है. हर बात में टोकाटाकी, भाषणबाजी. आखिर कहां तक सुन सकती है वह? कभी कपड़ों में नील कम है तो कभी बैगन ठीक से नहीं भुने हैं, कभी चाय में पत्ती ज्यादा है तो कभी सब्जी में नमक कम. बिना वजह छोटीछोटी बातों में लंबाचौड़ा भाषण झाड़ देती हैं. बरदाश्त की भी हद होती है. अब वह यहां और नहीं रहेगी. वह उठ कर भैया को खत लिखने लगी. मायके में जा कर दीपक को भी पत्र डाल देगी कि भैया लेने आ गए थे, सो उन के साथ जाना पड़ा उसे.

सुबह मांजी की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘उठो बहू, सुबह हो गई है.’’ वह उठने लगी तो उसे अचानक चक्कर सा आ गया. उस ने उठने की कोशिश की तो कमजोरी के कारण उठा न गया. हलकी झुरझुरी सी चढ़ रही थी. सारा बदन टूट रहा था.

वह फिर लेट गई और बोली, ‘‘मांजी, मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘क्या हुआ तबीयत को?’’ यह कहती मांजी उस के कमरे में आ गईं. माथे पर हाथ रखा तो वह चौंक गईं. उन के मुंह से हलकी सी चीख निकल गई.

‘‘अरे, तुम्हारा माथा तो भट्ठी सा तप रहा है, बहू,’’ फिर वहीं से वह चिल्लाईं, ‘‘सुनो जी, जरा जल्दी इधर आओ.’’

‘‘अब क्या आफत है?’’ बाबूजी भुनभुनाते हुए कमरे में आ गए.

‘‘बहू को तेज बुखार है. जल्दी से जरा डाक्टर को बुला लाओ.’’

बाबूजी तुरंत कपड़े पहन कर डाक्टर को लेने चले गए.

मांजी नीरा के सिरहाने बैठ कर उस का माथा दबाने लगीं. ठंडेठंडे हाथों का हलकाहलका दबाव, नीरा को बड़ा भला लग रहा था. कुछ ही देर में बाबूजी डाक्टर को ले कर आ गए.

डाक्टर नीरा की अच्छी तरह जांच कर के बोले, ‘‘दवाएं मैं ने लिख दी हैं. इस हालत में अधिक तेज कैप्सूल तो दिए नहीं जा सकते.’’

‘‘किस हालत में?’’ मांजी पूछ बैठीं.

‘‘यह गर्भवती हैं,’’ डाक्टर बोला, ‘‘बुखार ठंड से चढ़ा है. तुलसीअदरक की चाय भी पिलाती रहें. 2-1 दिन में बुखार उतर जाएगा.’’

मांजी के आगे एक नया रहस्य खुला. नीरा ने तो इस बारे में उन्हें बताया ही नहीं था. वह बड़बड़ाने लगीं, ‘‘अजीब लड़की है, यह. अरे, मैं सास सही, पर सास भी मां होती है. मैं तो इस से सारा काम कराती रही और इस ने कभी बताया तक नहीं कि कुछ खास खाने का मन कर रहा है. ये आजकल की बहुएं भी बस घुन्नी होती हैं. एक हमारा जमाना था. हमें बाद में पता चलता था और सास को पहले से ही खबर हो जाती थी. अब बताओ, मैं ने तो कभी इस से यह भी नहीं पूछा कि क्या खाने की इच्छा है?’’

‘‘तो अब पूछ लेना. काफी वक्त पड़ा है. इस समय बहू को सोने दो,’’ बाबूजी बोले और कमरे से बाहर चले गए.

रात मांजी अपनी खाट नीरा के कमरे में ही ले आईं. रसोई का काम सिम्मी को सौंप दिया था इसलिए अब मांजी का आक्रोश  उस पर बरसता.

‘‘इतनी बड़ी हो गई है, पर खाना बनाने की अक्ल नहीं आई, गोभी में पानी तैर रहा है. और दाल इतनी गाढ़ी है कि गुठलियां बन गई हैं. दस बार कहा है कि जरा अपनी भाभी के साथ हाथ बंटाया करो. कुछ सीख जाओगी. पर…’’

‘‘ओहो मां, शुरू हो गईं तुम? एक तो खाना बनाओ, ऊपर से तुम्हारा भाषण सुनो. मुझ से खाना बनवाना है तो चुपचाप खा लिया करो, वरना खुद करो.’’

मांजी बड़बड़ाने लगीं, ‘‘इन बच्चों को तो समझाना भी मुश्किल है.’’

मांजी 2-2 घंटे बाद अदरकसौंफ वाला दूध ले कर नीरा के पास आ जातीं. खुद अपने हाथों से उसे दवा देतीं. रात भर माथा छूछू कर उस का बुखार देखतीं.

अपने प्रति मांजी को इतना चिंतित देख नीरा हैरान थी. बड़बोली मांजी के अंदर उस की इतनी फिक्र है और उस के प्रति इतना प्रेम है, आज तक कहां समझ पाई थी वह? वह तो मांजी के बोलने और टोकने पर ही सदा खीजती  रही.

नीरा 4-5 दिन बुखार की चपेट में रही. मांजी बराबर उस के सिरहाने बनी रहीं. उसे दवा, दूध, चाय, खिचड़ी आदि सब अपने हाथ से देती थीं. कई बार नीरा को लगता जैसे उस की मां ही सिरहाने बैठी हैं. उस का बुखार उतर गया था, पर मांजी उसे अभी जमीन पर पांव नहीं रखने देती थीं कि कहीं कमजोरी से दोबारा बुखार न चढ़ जाए.

दोपहर पड़ोस से रम्मो चाची उस का हाल पूछने आई थीं. उस के माथे पर हाथ रख कर बोलीं, ‘‘माथा तो ठंडा पड़ा है, बुखार तो नहीं है.’’

नीरा ने जवाब दिया, ‘‘हां, अब कल से बुखार नहीं है.’’

बाद में मांजी और रम्मो चाची बाहर आंगन में बैठ कर बातें करने लगीं.

रम्मो चाची बोलीं, ‘‘आजकल की बहुएं भी फूल सी नाजुक होती हैं.  हम भी तो इस भरी सर्दी में काम करते हैं, पर हमें तो कभी ताप नहीं चढ़ता. ये तो बस छुईमुई सी है,’’ फिर फुसफुसा कर बोलीं, ‘‘अरे, बहू को बुखार भी है या यों ही बहाना किए पड़ी है. आजकल की बहुएं तो तुम जानो, ऐसी ही होती हैं.’’

तभी मांजी का तीव्र स्वर सुनाई दिया, ‘‘बस, बस, रम्मो. तुम्हारा दिमाग भी कभी सीधी राह पर नहीं चला. तुम ने कभी अपनी बहुओं के दुखदर्द को समझा नहीं. तुम्हें तो सब कुछ बहाना लगता है. यह मत भूलो कि बहुएं भी हाड़मांस की बनी हैं. मैं ने तो नीरा और सिम्मी में कभी फर्क नहीं माना है. तुम भी अगर यह बात समझ लो तो तुम्हारे घर की रोज की चखचख खत्म हो जाए.’’

रम्मो चाची खिसियानी सी हो गईं, ‘‘मैं ने जरा सा क्या बोला, तुम ने तो पूरी रामायण बांच दी. यों ही बात से बात निकली थी तो मैं बोल पड़ी थी.’’

‘‘आज तो बोल दिया, आगे से मेरी बहू के बारे में यों न बोलना,’’ मांजी के अंदर अब भी आक्रोश था.

नीरा लेटीलेटी हैरानी से मांजी की बातें सुन रही थी. सचमुच वह मांजी को जान ही कहां पाई? दीपक ठीक ही कहते थे, ‘मुंह से मांजी चाहे बकझक कर लें पर मन तो उन का साफ पानी सा निर्मल है.’ इस बीमारी में उन्होंने उस का जितना खयाल रखा, उस की अपनी मां भी शायद इस तरह न रख पातीं.

और फिर मांजी सिर्फ उसी को तो नहीं बोलतीं. सिम्मी और बाबूजी भी मांजी की टोकाटाकी से कहां बच पाते हैं? यह तो मांजी का स्वभाव ही है. वैसे इस उम्र में आ कर औरतें अकसर इस स्वभाव की हो ही जाती हैं. उस की मां भी तो कितना बोलती हैं.

पर फर्क सिर्फ यह है कि वह मां हैं और यह सास हैं. उन का कहा वह इस कान से सुन कर उस कान से निकाल देती थी और सासू मां का कहा गांठ बांध कर रख लेती है. अभी तक उस ने सिक्के के एक ही पहलू को देखा था, दूसरा पहलू तो अब देखने को मिला जिस में ममता और प्रेम भरा है.

नीरा उठी. मेज पर रखे भैया को लिखे खत को उठाया और उस के टुकड़ेटुकड़े कर दिए. मायके जाने का विचार उस ने छोड़ दिया. दीपक के आने तक वह मांजी के साथ ही रहेगी. मांजी का दूसरा ममतापूर्ण और करुणामय रूप देख कर अब इस घर से जाने की इच्छा ही नहीं उसे.

लेखक- कमला चमोला

सबसे बड़ा रुपय्या: शेखर व सरिता को किस बात का हुआ एहसास

आमदनी बढ़ाने के लिए शेखर भी ओवरटाइम करता. अपनी जरूरतें कम कर के भविष्य के लिए रुपए जमा करता. सरिता भी घर का सारा काम अपने हाथों से कर के सीमित बजट में गुजारा करती थी.

सेवानिवृत्त होते ही समय जैसे थम गया. सबकुछ शांत हो गया. पतिपत्नी की भागदौड़ समाप्त हो गई.

शेखर ने बचत के रुपयों से मनपसंद कोठी बना ली. हरेभरे पेड़पौधे से सजेधजे लान में बैठने का उस का सपना अब जा कर पूरा हुआ था.

बेटा पारस की इंजीनियरिंग की शिक्षा, फिर उस का विवाह सभी कुछ शेखर की नौकरी में रहते हुए ही हो चुका था. पारस अब नैनीताल में पोस्टेड है. बेटी प्रियंका, पति व बच्चों के साथ चेन्नई में रह रही थी. दामाद फैक्टरी का मालिक था.

शेखर ने अपनी कोठी का आधा हिस्सा किराए पर उठा दिया था. किराए की आमदनी, पेंशन व बैंक में जमा रकम के ब्याज से पतिपत्नी का गुजारा आराम से चल रहा था.

घर में सुख- सुविधा के सारे साधन उपलब्ध थे. सरिता पूरे दिन टेलीविजन देखती, आराम करती या ब्यूटी पार्लर जा कर चेहरे की झुर्रियां मिटवाने को फेशियल कराती.

शेखर हंसते, ‘‘तुम्हारे ऊपर बुढ़ापे में निखार आ गया है. पहले से अधिक खूबसूरत लगने लगी हो.’’

शेखर व सरिता सर्दी के मौसम में प्रियंका के घर चेन्नई चले जाते और गरमी का मौसम जा कर पारस के घर नैनीताल में गुजारते.

पुत्रीदामाद, बेटाबहू सभी उन के सम्मान में झुके  रहते. दामाद कहता, ‘‘आप मेरे मांबाप के समान हैं, जैसे वे लोग, वैसे ही आप दोनों. बुजर्गों की सेवा नसीब वालों को ही मिला करती हैं.’’

शेखरसरिता अपने  दामाद की बातें सुन कर गदगद हो उठते. दामाद उन्हें अपनी गाड़ी में बैठा कर चेन्नई के दर्शनीय स्थलों पर घुमाता, बढि़या भोजन खिलाता. नौकरानी रात को दूध का गिलास दे जाती.

सेवा करने में बहूबेटा भी कम नहीं थे. बहू अपने सासससुर को बिस्तर  पर ही भोजन की थाली ला कर देती और धुले कपड़े पहनने को मिलते.

बहूबेटों की बुराइयां करने वाली औरतों पर सरिता व्यंग्य कसती कि तुम्हारे अंदर ही कमी होगी कि तुम लोग बहुओं को सताती होंगी. मेरी बहू को देखो, मैं उसे बेटी मानती हूं तभी तो वह मुझे सुखआराम देती है.

शेखर भी दामाद की प्रशंसा करते न अघाते. सोचते, पता नहीं क्यों लोग दामाद की बुराई करते हैं और उसे यमराज कह कर उस की सूरत से भी भय खाते हैं.

एक दिन प्रियंका का फोन आया. उस की आवाज में घबराहट थी, ‘‘मां गजब हो गया. हमारे घर में, फैक्टरी में सभी जगह आयकर वालों का छापा पड़ गया है और वे हमारे जेवर तक निकाल कर ले गए…’’

तभी शेखर सरिता के हाथ से फोन छीन कर बोले, ‘‘यह सब कैसे हो गया बेटी?’’

‘‘जेठ के कारण. सारी गलती उन्हीें की है. सारा हेरफेर वे करते हैं और उन की गलती का नतीजा हमें भोगना पड़ता है,’’ प्रियंका रो पड़ी.

शेखर बेटी को सांत्वना देते रह गए और फोन कट गया.

वह धम्म से कुरसी पर बैठ गए. लगा जैसे शरीर में खड़े रहने की ताकत नहीं रह गई है. और सरिता का तो जैसे मानसिक संतुलन ही खो गया. वह पागलों की भांति अपने सिर के बाल नोचने लगी.

शेखर ने अपनेआप को संभाला. सरिता को पानी पिला कर धैर्य बंधाया कि अवरोध तो आते ही रहते हैं, सब ठीक हो जाएगा.

एक दिन बेटीदामाद उन के घर आ पहुंचे. संकोच छोड़ कर प्रियंका अपनी परेशानी बयान करने लगी, ‘‘पापा, हम लोग जेठजिठानी से अलग हो रहे हैं. इन्हें नए सिरे से काम जमाना पडे़गा. कोठी छोड़ कर किराए के मकान में रहना पडे़गा. काम शुरू करने के लिए लाखों रुपए चाहिए. हमें आप की मदद की सख्त जरूरत है.’’

दामाद हाथ जोड़ कर सासससुर से विनती करने लगा, ‘‘पापा, आप लोगों का ही मुझे सहारा है, आप की मदद न मिली तो मैं बेरोजगार हो जाऊंगा. बच्चों की पढ़ाई रुक जाएगी.’’

शेखर व सरिता अपनी बेटी व दामाद को गरीबी की हालत में कैसे देख सकते थे. दोनों सोचविचार करने बैठ गए. फैसला यह लिया कि बेटीदामाद की सहायता करने में हर्ज ही क्या है? यह लोग सहारा पाने और कहां जाएंगे.

अपने ही काम आते हैं, यह सोच कर शेखर ने बैंक में जमा सारा रुपया निकाल कर दामाद के हाथों में थमा दिया. दामाद ने उन के पैरों पर गिर कर कृतज्ञता जाहिर की और कहा कि वह इस रकम को साल भर के अंदर ही वापस लौटा देगा.

श्ेखरसरिता को रकम देने का कोई मलाल नहीं था. उन्हें भरोसा था कि दामाद उन की रकम को ले कर जाएगा कहां, कह रहा है तो लौटाएगा अवश्य. फिर उन के पास जो कुछ भी है बच्चों के लिए ही तो है. बच्चों की सहायता करना उन का फर्ज है. दामाद उन्हें मांबाप के समान मानता है तो उन्हें भी उसे बेटे के समान मानना चाहिए.

अपना फर्ज पूरा कर के दंपती राहत का आभास कर रहे थे.

बेटे पारस का फोन आया तो मां ने उसे सभी कुछ स्पष्ट रूप से बता दिया.

तीसरे दिन ही बेटाबहू दोनों आकस्मिक रूप से दिल्ली आ धमके. उन्हें इस तरह आया देख कर शेखर व सरिता हतप्रभ रह गए. ‘‘बेटा, सब ठीक है न,’’ शेखर उन के इस तरह अचानक आने का कारण जानने के लिए उतावले हुए जा रहे थे.

‘‘सब ठीक होता तो हमें यहां आने की जरूरत ही क्या थी,’’ तनावग्रस्त चेहरे से पारस ने जवाब दिया.

बहू ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा, ‘‘आप लोगों ने अपने खूनपसीने की कमाई दामाद को दे डाली, यह भी नहीं सोचा कि उन रुपयों पर आप के बेटे का भी हक बनता है.’’

बहू की बातें सुन कर शेखर हक्केबक्के रह गए. वह स्वयं को संयत कर के बोले, ‘‘उन लोगों को रुपया की सख्त जरूरत थी. फिर उन्होंने रुपया उधार ही तो लिया है, ब्याज सहित चुका देंगे.’’

‘‘आप ने रुपए उधार दिए हैं, इस का कोई सुबूत आप के पास है. आप ने उन के साथ कानूनी लिखापढ़ी करा ली है?’’

‘‘वे क्या पराए हैं जो कानूनी लिखापढ़ी कराई जाती व सुबूत रखे जाते.’’

‘‘पापा, आप भूल रहे हैं कि रुपया किसी भी इनसान का ईमान डिगा सकता है.’’

‘‘मेरा दामाद ऐसा इनसान नहीं है.’’ सरिता बोली, ‘‘प्रियंका भी तो है वह क्या दामाद को बेईमानी करने देगी.’’

‘‘यह तो वक्त बताएगा कि वे लोग बेईमान हैं या ईमानदार. पर पापा आप यह मकान मेरे नाम कर दें. कहीं ऐसा न हो कि आप बेटीदामाद के प्रेम में अंधे हो कर मकान भी उन के नाम कर डालें.’’

बेटे की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न रह गए. हमेशा मानसम्मान करने वाले, सलीके से पेश आने वाले बेटाबहू इस प्रकार का अशोभनीय व्यवहार क्यों कर रहे हैं. यह उन की समझ में नहीं आ रहा था.

आखिर, बेटाबहू इस शर्त पर शांत हुए कि बेटीदामाद ने अगर रुपए वापस नहीं किए तो उन के ऊपर मुकदमा चलाया जाएगा.

बेटाबहू कई तरह की हिदायतें दे कर नैनीताल चले गए पर शेखर व सरिता के मन पर ंिंचंताओं का बोझ आ पड़ा था. सोचते, उन्होंने बेटीदामाद की सहायता कर के क्या गलती की है. रुपए बेटी के सुख से अधिक कीमती थोड़े ही थे.

हफ्ते में 2 बार बेटीदामाद का फोन आता तो दोनों पतिपत्नी भावविह्वल हो उठते. दामाद बिलकुल हीरा है, बेटे से बढ़ कर अपना है. बेटा कपूत बनता जा रहा है, बहू के कहने में चलता है. बहू ने ही पारस को उन के खिलाफ भड़काया होगा.

अब शेखर व सरिता उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे, जब दामाद उन का रुपया लौटाने आएगा और वे सारा रुपया उठा कर बेटाबहू के मुंह पर मार कर कहेंगे कि इसी रुपए की खातिर तुम लोग रिश्तों को बदनाम कर रहे थे न, लो रखो इन्हें.

कुछ माह बाद ही बेटीदामाद का फोन आना बंद हो गया तो शेखरसरिता चिंतित हो उठे. वे अपनी तरफ से फोन मिलाने का प्रयास कर रहे थे पर पता नहीं क्यों फोन पर प्रियंका व दामाद से बात नहीं हो पा रही थी.

हर साल की तरह इस साल भी शेखर व सरिता ने चेन्नई जाने की तैयारी कर ली थी और बेटीदामाद के बुलावे की प्रतीक्षा कर रहे थे.

एक दिन प्रियंका का फोन आया तो शेखर ने उस की खैरियत पूछने के लिए प्रश्नों की झड़ी लगा दी पर प्रियंका ने सिर्फ यह कह कर फोन रख दिया कि वे लोग इस बार चेन्नई न आएं क्योंकि नए मकान में अधिक जगह नहीं है.

शेखरसरिता बेटी से ढेरों बातें करना चाहते थे. दामाद के व्यवसाय के बारे में पूछना चाहते थे. अपने रुपयों की बात करना चाहते थे. पर प्रियंका ने कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया.

बेटीदामाद की इस बेरुखी का कारण उन की समझ में नहीं आ रहा था.

देखतेदेखते साल पूरा हो गया. एक दिन हिम्मत कर के शेखर ने बेटी से रुपए की बाबत पूछ ही लिया.

प्रियंका जख्मी शेरनी की भांति गुर्रा उठी, ‘‘आप कैसे पिता हैं कि बेटी के सुख से अधिक आप को रुपए प्यारे हैं. अभी तो इन का काम शुरू ही हुआ है, अभी से एकसाथ इतना सारा रुपया निकाल लेंगे तो आगे काम कैसे चलेगा?’’

दामाद चिंघाड़ कर बोला, ‘‘मेरे स्थान पर आप का बेटा होता तो क्या आप उस से भी वापस मांगते? आप के पास रुपए की कमी है क्या? यह रुपया आप के पास बैंक में फालतू पड़ा था, मैं इस रुपए से ऐश नहीं कर रहा हूं, आप की बेटी को ही पाल रहा हूं.’’

पुत्रीदामाद की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न कर रह गए और रुपए वापस मिलने की तमाम आशाएं निर्मूल साबित हुईं. उलटे वे उन के बुरे बन गए. रुपया तो गया ही साथ में मानसम्मान भी चला गया.

पारस का फोन आया, ‘‘पापा, रुपए मिल गए.’’

शेखर चकरा गए कि क्या उत्तर दें. संभल कर बोले, ‘‘दामाद का काम जम जाएगा तो रुपए भी आ जाएंगे.’’

‘‘पापा, साफ क्यों नहीं कहते कि दामाद ने रुपए देने से इनकार कर दिया. वह बेईमान निकल गया,’’ पारस दहाड़ा.

सरिता की आंखों से आंसू बह निकले, वह रोती हुई बोलीं, ‘‘बेटा, तू ठीक कह रहा है. दामाद सचमुच बेईमान है, रुपए वापस नहीं करना चाहता.’’

‘‘उन लोगों पर धोखाधड़ी करने का मुकदमा दायर करो,’’ जैसे सैकड़ों सुझाव पारस ने फोन पर ही दे डाले थे.

शेखर व सरिता एकदूसरे का मुंह देखते रह गए. क्या वे बेटीदामाद के खिलाफ यह सब कर सकते थे.

चूंकि वे अपनी शर्त पर कायम नहीं रह सके इसलिए पारस मकान अपने नाम कराने दिल्ली आ धमका. पुत्रीदामाद से तो संबंध टूट ही चुके हैं, बहूबेटा से न टूट जाएं, यह सोच कर दोनों ने कोठी का मुख्तियारनामा व वसीयतनामा सारी कानूनी काररवाई कर के पूरे कागजात बेटे को थमा दिए.

पारस संतुष्ट भाव से चला गया.‘‘बोझ उतर गया,’’ शेखर ने सरिता की तरफ देख कर कहा, ‘‘अब न तो मकान की रंगाईपुताई कराने की चिंता न हाउस टैक्स जमा कराने की. पारस पूरी जिम्मेदारी निबाहेगा.’’

सरिता को न जाने कौन सा सदमा लग गया कि वह दिन पर दिन सूखती जा रही थी. उस की हंसी होंठों से छिन चुकी थी, भूखप्यास सब मर गई. बेटीबेटा, बहूदामाद की तसवीरोें को वह एकटक देखती रहतीं या फिर शून्य में घूरती रह जाती.

शेखर दुखी हो कर बोला, ‘‘तुम ने अपनी हालत मरीज जैसी बना ली. बालों पर मेंहदी लगाना भी बंद कर दिया, बूढ़ी लगने लगी हो.’’

सरिता दुखी मन से कहने लगी,‘‘हमारा कुछ भी नहीं रहा, हम अब बेटाबहू के आश्रित बन चुके हैं.’’

‘‘मेरी पेंशन व मकान का किराया तो है. हमें दूसरों के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी,’’ शेखर जैसे अपनेआप को ही समझा रहे थे.

जब किराएदार ने महीने का किराया नहीं दिया तो शेखर ने खुद जा कर शिकायती लहजे में किराएदार से बात की और किराया न देने का कारण पूछा.

किराएदार ने रसीद दिखाते हुए तीखे स्वर में उत्तर दिया कि वह पारस को सही वक्त पर किराए का मनीआर्डर भेज चुका है.

‘‘पारस को क्यों?’’

‘‘क्योेंकि मकान का मालिक अब पारस है,’’ किराएदार ने नया किराया- नामा निकाल कर शेखर को दिखा दिया. जिस पर पारस के हस्ताक्षर थे.

शेखर सिर पकड़ कर रह गए कि सिर्फ मामूली सी पेंशन के सहारे अब वह अपना गुजारा कैसे कर पाएंगे.

‘‘बेटे पर मुकदमा करो न,’’ सरिता पागलों की भांति चिल्ला उठी, ‘‘सब बेईमान हैं, रुपयों के भूखे हैं.’’

शेखर कहते, ‘‘हम ने अपनी संतान के प्रति अपना फर्ज पूरा किया है. हमारी मृत्यु के बाद तो उन्हें मिलना ही था, पहले मिल गया. इस से भला क्या फर्क पड़ गया.’’

सरिता बोली, ‘‘बेटीदामाद, बेटा बहू सभी हमारी दौलत के भूखे थे. दौलत के लालच में हमारे साथ प्यारसम्मान का ढोंग करते रहे. दौलत मिल गई तो फोन पर बात करनी भी छोड़ दी.’’

पतिपत्नी दोनों ही मानसिक वेदना से पीडि़त हो चुके थे. घर पराया लगता, अपना खून पराया हो गया तो अपना क्या रह गया.

एक दिन शेखर अलमारी में पड़ी पुरानी पुस्तकों में से होम्योपैथिक चिकित्सा की पुस्तक तलाश कर रहे थे कि अचानक उन की निगाहों के सामने पुस्तकों के बीच में दबा बैग आ गया और उन की आंखें चमक उठीं.

बैग के अंदर उन्होंने सालोें पहले इंदिरा विकासपत्र व किसान विकासपत्र पोस्ट आफिस से खरीद कर रखे हुए थे. जिस का पता न बेटाबेटी को था, न सरिता को,  यहां तक कि खुद उन्हें भी याद नहीं रहा था.

मुसीबत में यह 90 हजार रुपए की रकम उन्हें 90 लाख के बराबर लग रही थी.

उन के अंदर उत्साह उमड़ पड़ा. जैसे फिर से युवा हो उठे हों. हफ्ते भर के अंदर ही उन्होंने लान के कोने में टिन शेड डलवा कर एक प्रिंटिंग प्रेस लगवा ली. कुछ सामान पुराना भी खरीद लाए और नौकर रख लिए.

सरिता भी इसी काम में व्यस्त हो गई. शेखर बाहर के काम सभांलता तो सरिता दफ्तर में बैठती.

शेखर हंस कर कहते, ‘‘हम लोग बुढ़ापे का बहाना ले कर निकम्मे हो गए थे. संतान ने हमें बेरोजगार इनसान बना दिया. अब हम दोनों काम के आदमी बन गए हैं.’’

सरिता मुसकराती, ‘‘कभीकभी कुछ भूल जाना भी अच्छा रहता है. तुम्हारे भूले हुए बचत पत्रों ने हमारी दुनिया आबाद कर दी. यह रकम न मिलती तो हमें अपना बाकी का जीवन बेटीदामाद और बेटाबहू की गुलामी करते हुए बिताना पड़ता. अब हमें बेटीदामाद, बेटाबहू सभी को भुला देना ही उचित रहेगा. हम उन्हें इस बात का एहसास दिला देंगे कि उन की सहायता लिए बगैर भी हम जी सकते हैं और अपनी मेहनत की रोटी खा सकते हैं. हमें उन के सामने हाथ फैलाने की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

सरिता व शेखर के चेहरे आत्म- विश्वास से चमक रहे थे, जैसे उन का खोया सुकून फिर से वापस लौट आया हो.

नैरो माइंड: क्या तरू को हुआ गलती का एहसास

‘‘मौम, आप कब से इतनी नैरो माइंड हो गई हैं, ऐसा क्या हुआ है? क्यों इतनी परेशान हो रही हैं? सब ठीक हो जाएगा, आजकल यह इतनी बड़ी बात नहीं है. सोसायटी में यह सब चलता रहता है. मैं आज ही विपुल से बात करूंगी.’’

तरू के एकएक शब्द ने तृप्ति के रोमरोम को घायल कर दिया. कितनी मुश्किलों और नाजों से उस ने दोनों बेटियों को पाला था.

तृप्ति और तपन ने तिनकेतिनके जोड़ कर यह घर बसाया था. उस ने अपने सारे अरमानों एवं इच्छाओं का गला घोंट कर इन्हीं बेटियों की खुशी के लिए अपना जीवन कुर्बान कर दिया था.

साधारण परिवार में जन्मी तृप्ति को पढ़ाई के साथ डांस और एक्ंिटग का जन्मजात शौक था. स्कूल में उस की प्रतिभा निखारने में उस की डांस टीचर मिस गोयल का बड़ा हाथ था. उन्होंने तृप्ति के गुण को परख कर उसे निखारा. तृप्ति ने भी उन्हें निराश नहीं किया और स्कूली शिक्षा के दौरान ही शील्ड और मेडल के ढेर लगा दिए.

वह विश्वविद्यालय में पहुंची तो सहशिक्षा के कारण उस के मातापिता ने इस तरह के कार्यक्रम से उसे दूर रहने की हिदायत दे दी, साथ ही कह दिया, ‘बहुत हुआ, अब जो करना हो अपने घर में करना.’ वह मन मार कर डांस और एक्ंिटग से दूर हो गई, लेकिन मन में एक कसक थी तभी उस का विवाह तपन से हो गया.

तपन बैंक में क्लर्क थे. सामान्य तौर पर घर में कोई कमी नहीं थी, लेकिन उस का शौक मन में हिलोरे मार रहा था. उस ने डांस स्कूल में काम करने के लिए तपन को किसी तरह से तैयार किया था तभी तन्वी के आगमन का एहसास हुआ. तन्वी छोटी ही थी तभी गोलमटोल तरू आ गई और वह इन दोनों बेटियों की परवरिश में सब भूल गई. 5-6 साल कब निकल गए, पता ही नहीं लगा. अब तृप्ति को अपनी खुशहाल जिंदगी प्यारी लगने लगी.

धीरे-धीरे तन्वी और तरू बड़ी होने लगीं. जब दोनों छोटेछोटे पैरों को उठा कर नाचतीं तो तृप्ति का मन खिल उठता और अनायास ही अपनी बेटियों को स्टेज पर नृत्य करते हुए देखने की वह कल्पना करती. तन्वी एवं तरू को तृप्ति ने डांस स्कूल में दाखिला दिलवा दिया. जल्द ही उन की प्रतिभा रंग दिखाने लगी. वे नृत्य में पारंगत होने लगीं और इसी के साथ तृप्ति के सपने साकार होने लगे.

एक दिन तपन ने टोक दिया, ‘अब ये दोनों बड़ी हो गई हैं, डांस आदि छोड़ कर पढ़ाई पर ध्यान दें.’ तपन के टोकने से तृप्ति नाराज हो उठी और समय बदलने की दुहाई देने लगी. दोनों का आपस में अच्छाखासा झगड़ा भी हुआ और अंत में जीत तृप्ति की ही हुई. तपन चुप हो गए. उन्होंने दोनों लड़कियों को डांस और एक्ंिटग में आगे बढ़ने की इजाजत दे दी.

तन्वी का रुझान अपनेआप ही डांस से हट गया. वह पढ़ाई में रुचि लेने लगी. प्रोफेशनल कोर्स के लिए तन्वी होस्टल चली गई. तरू अकेली हो गई. चूंकि उस पर मां का वरदहस्त था, अत: वह डांस एवं एक्ंिटग के साथ ग्लैमर से भी प्रभावित हो गई थी.

अब तरू के आएदिन स्टेज प्रोग्राम होते. तृप्ति बेटी में अपने सपने साकार होते देख मन ही मन खुश होती रहती. तपन को तरू का काम पसंद नहीं आता था. तरू अकसर ग्रुप के साथ कार्यक्रम के लिए बाहर जाया करती थी. उस को अब बाहर की दुनिया रास आने लगी थी. उस के उलटेसीधे कपड़े तपन को पसंद न आते. अकसर तृप्ति से कहते, ‘तरू, हाथ से निकल रही है.’ इस पर वह दबी जबान से तरू को समझाती लेकिन उस ने कभी भी मां की बातों पर ध्यान नहीं दिया.

‘‘मौम, मुझे 1 हजार रुपए चाहिए.’’

‘‘क्यों? अभी कल ही तो तुम ने पापा से रुपए लिए थे.’’

‘‘मौम, सब मुझ से पार्टी मांग रहे थे… उसी में पैसे खर्च हो गए.’’

‘‘मैं तुम्हारे पापा से कहूंगी.’’

तरू तृप्ति से लिपट गई…तृप्ति पिघल गई. रुपए लेते ही वह फुर्र हो गई.

‘‘मौम, आजकल थिएटर में मेरा रिहर्सल चल रहा है, इसलिए देर से आऊंगी.’’

तृप्ति का माथा ठनका, ‘कल तो तरू ने कहा था कि इस हफ्ते मेरा कोई शो नहीं है.’

अभी वह इस ऊहापोह से निकल भी न पाई थी कि तपन पुकारते हुए आए.

‘‘तरू… तरू…’’

तृप्ति ने उत्तर दिया, ‘‘तरू का आज रिहर्सल है.’’

‘‘वह झूठ पर झूठ बोलती रहेगी, तुम आंख बंद कर उस पर विश्वास करती रहना. वह किसी लड़के की बाइक पर पीछे बैठी हुई कहीं जा रही थी, लड़का बाइक बहुत तेज चला रहा था,’’ तपन क्रोधित हो बोले थे.

तृप्ति घबरा कर चिंतित हो उठी. वह सोचने को मजबूर हो गई कि क्या तरू गलत संगत में पड़ गई है. मन ही मन घुटती हुई वह तरू के आने का इंतजार करने लगी.

लगभग रात में 11 बजे घंटी बजी. तृप्ति सोने की कोशिश कर रही थी. घंटी की आवाज सुन वह गुस्से में तेजी से उठी. दरवाजा खोलते ही तरू की हालत देख कर वह सन्न रह गई.

तरू की आंखें लाल हो रही थीं, एक लंबे बालों वाला लड़का उसे पकड़ कर खड़ा था. तृप्ति तपन से छिपाना चाह रही थी, इसलिए चुपचाप उस को सहारा दे कर उस के कमरे में ले गई और उसे बिस्तर पर लिटा दिया. तरू के मुंह से शराब की दुर्गंध आ रही थी.

तृप्ति की आंखों की नींद उड़ चुकी थी. वह मन ही मन रो रही थी और अपने को कोस रही थी. तरू को किस तरह सुधारे, वह क्या करे, कुछ सोच नहीं पा रही थी. उस का मन आशंकाओं से घिरा हुआ था. उसे तन्वी की याद आ रही थी. उस के मन में छात्रावास के प्रति अच्छे विचार नहीं थे लेकिन तरू तो उस की आंखों के सामने थी फिर कहां चूक हुई जो वह गलत हो गई. तपन ने तो सदैव उसे आगाह किया था, ‘लड़कियों को आजादी दो परंतु आजादी पर निगरानी आवश्यक है. नाजुक उम्र में बच्चे आजादी का नाजायज फायदा उठा कर खतरे में पड़ जाते हैं.’

तृप्ति ने रात पलकों में गुजारी. सुबह जब तरू उठी तो रात के बारे में पूछने पर अनजान बनती हुई बोली, ‘‘कल पार्टी में किसी ने उस की डिं्रक में कुछ मिला दिया था.’’

मां की ममता फिर से हावी हो गई. तृप्ति फिर से उस की बातों में आ गई थी.

अब जब हालात नियंत्रण से बाहर हो चुके थे तो तृप्ति उस पर रोक लगाना चाह रही थी. तरू एक न सुनती. एक दिन तृप्ति प्यार से उस का हाथ सहला रही थी, तभी उस के हाथों के काले निशान पर उस की नजर पड़ी. तुरंत तरू ने सफाई दी, ‘‘कुछ नहीं मौम. मैं स्कूटी ड्राइव करती हूं न, उसी का निशान है,’’ लेकिन उस के बहाने तृप्ति को विचलित कर चुके थे…उंगलियों के बीच में जले के निशान केवल सिगरेट के हो सकते हैं.

तृप्ति अब उस पर नजर रखने लगी. उसे तरहतरह से समझाने का प्रयास करती लेकिन तरू की आंखों पर तो ग्लैमर का चश्मा चढ़ा हुआ था. मोबाइल की घंटी सुनते ही वह भाग जाती थी. तृप्ति हालात को स्वयं ही सुधारने में लगी थी लेकिन तरू उस की एक न मानती.

निराशा एवं हताशा में तृप्ति बीमार रहने लगी तो तपन को चिंता हुई. उन्होंने तरू से कहा, ‘‘तुम कुछ दिन छुट्टी ले कर घर में रहो और मां की देखभाल करो, फिर कुछ दिन मैं छुट्टी ले लूंगा. लेकिन तरू ने एक न सुनी. तपन बहुत नाराज हुए और तृप्ति को ही कोसने लगे. तरू की बरबादी के लिए उसे ही जिम्मेदार बताने लगे. दिन और रात ठहर गए थे. अभी तक तृप्ति परेशान रहती थी अब तपन भी चिंतित और दुखी रहने लगे.

आज तो तरू को बेसिन पर उलटी करते देख कर तृप्ति सिहर गई. उस की बातों ने तो आग में घी का काम किया.

‘‘क्या हुआ, मौम? कोई पहाड़ टूट पड़ा है, क्यों मातम मना रही हो, क्या कोई मौत हो गई है. मैं डाक्टर के पास जा रही हूं, 1 घंटे की बात है, बस, सब नार्मल.’’

तृप्ति फूटफूट कर रो पड़ी. क्या हो गया इस नई पीढ़ी को. यह युवा वर्ग किधर जा रहा है, कहां गईं हमारी मान्यताएं. कहां गई शिक्षा. इतनी जल्दी इतना परिवर्तन. इतनी भटकन, क्या ऐसा संभव है?

सबक: सुधीर जीजाजी के साथ क्या हुआ

रक्षाबंधन पर मैं मायके गई तो भैया ने मेरे ननदोई सुधीर जीजाजी के विषय में कुछ ऐसा बताया जिसे सुन कर मुझे विश्वास नहीं हुआ.

‘‘नहीं भैया, ऐसा हो ही नहीं सकता, जरूर आप को कोई भ्रम हुआ होगा.’’

‘‘नहीं अनु, मुझे कोई भ्रम नहीं हुआ. पिछले महीने औफिस के काम से दिल्ली गया तो सोचा, सुधीर से भी मिल लूं क्योंकि उन से मुलाकात हुए काफी अरसा हो चुका था. काम से फारिग होने के बाद जब मैं सुधीर के घर पहुंचा तो वे मुझे अचानक आया हुआ देख कर कुछ घबरा से गए. उन्होंने मेरा स्वागत वैसा नहीं किया जैसा कि मेरे पहुंचने पर अकसर किया करते थे. तभी मेरी नजर शोकेस में रखी एक तसवीर पर गई. उस तसवीर में सुधीर के साथ संध्या नहीं, कोई और युवती थी. जब मैं बाथरूम से फ्रैश हो कर आया तो वह तसवीर वहां से गायब थी लेकिन वह तसवीर वाली युवती ही उन की रसोई में चायनाश्ता तैयार कर रही थी.’’

‘‘भैया, हो सकता है वह उन की मेड हो.’’

‘‘शायद मैं भी यही समझता, अगर मैं ने वह तसवीर न देखी होती.’’

‘‘देखने में कैसी थी वह युवती?’’ मैं अपनी उत्सुकता छिपा न सकी.

देखने में सुंदर मगर बहुत ही साधारण थी. एक बात और मैं ने नोटिस की, मेरे अचानक आ जाने से वह सुधीर की तरह असहज नहीं थी, बिलकुल सामान्य नजर आ रही थी. उस के हाथ की चाय और नाश्ते में आलूप्याज की पकौडि़यों और सूजी के हलवे के स्वाद से ही मैं ने जान लिया था कि वह साक्षात अन्नपूर्णा होने के साथसाथ एक कुशल गृहिणी है.

‘‘सुधीर जीजाजी ने आप का उस से परिचय नहीं करवाया?’’

‘‘उस को चायनाश्ते के लिए कहते वक्त सुधीर शायद मुझे यह दर्शा रहे थे कि वह उन की मेड है लेकिन उन के साथ उस की तसवीर, फिर तसवीर का गायब होना और मेरी उपस्थिति से सुधीर का असहज होना इस बात की तरफ साफ संकेत कर रहा था कि वह युवती उन की मेड नहीं बल्कि कुछ और है.’’

‘‘भैया, इस विषय में हमें संध्या दी को तुरंत बता देना चाहिए,’’ मैं ने उतावले स्वर में कहा.

‘‘नहीं अनु, इस विषय में तुम संध्या दी को कुछ नहीं बताओगी,’’ भैया के बजाय भाभी बड़े ही कठोर और आदेशात्मक लहजे में बोलीं. ‘‘भाभी, आप एक औरत हो कर भी औरत के साथ अन्याय की बात कर रही हैं. संध्या दी मेरे पति की सगी बहन हैं, मेरी ननद हैं. जैसे मैं आप की ननद हूं’’ ‘‘जानती हूं मैं, संध्या आप के पति की सगी बहन है, लेकिन 14 साल पहले वह अपने पति से बुरी तरह लड़झगड़ कर अपनी मरजी से अपनी दोनों बेटियों को ले कर मायके आ गई थी. सुधीर और उन के परिवार वालों ने लाख कोशिश की कि वह लौट आए लेकिन हर बार उन्हें संध्या दी ने अपमानित किया. ऐसी स्थिति में सुधीर के मांबाप ने चाहा भी कि दोनों का तलाक हो जाए लेकिन संध्या दी पर तो जैसे जिंदगीभर सुधीर को परेशान करने का जनून सवार था. शायद इसी वजह से उस ने सुधीर को तलाक भी नहीं दिया.’’

‘‘जानती हो अनु, जब तुम्हारी संध्या दी ने अपना ससुराल छोड़ा था तब अपने पति के मुंह पर थूक कर गई थी. तो भला, कौन पति अपनी ऐसी बेइज्जती सहेगा? इतना सबकुछ हो जाने के बावजूद, सुधीर की इंसानियत और बड़प्पन देखो कि वे उस का और दोनों बेटियों का पूरा खर्चा बिना किसी हीलहुज्जत के नियम से दे रहे हैं. उन की हर सुखसुविधा का खयाल भी रखते हैं. महीने में उन से मिलने भी आते हैं.’’

‘‘यह तो उन का फर्ज है, भाभी. वे एक पिता और पति भी हैं,’’ मैं ने संध्या दी का पक्ष लेते हुए कहा. ‘‘सारे फर्ज सुधीर के ही हैं, तुम्हारी संध्या दी के कुछ भी नहीं,’’ भाभी कड़वे स्वर में बोलीं, ‘‘अनु, तुम ही बताओ तुम्हारी संध्या दी ने शादी के बाद अपने पति को क्या सुख दिया? उन का जीवन खराब कर दिया. कभी उन्हें मानसिक शांति नहीं मिली. मुझे तो आश्चर्य होता है कि उन की बेटियां कैसे हो गईं? उन्हें तो सुधीर के सान्निध्य से ही घिन आती थी. उन के हर काम, व्यवहार में उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश में लगी रहती थीं. उन के कपड़े धोना तो दूर, उन्हें हाथ तक न लगाती थी. उन्हें खाने तक के लिए तरसा दिया था. वे बेचारे मां के पास खाते तो उन पर ताने कसती, उन पर व्यंग्य करती. तो बताओ अनु, क्या ऐसी औरत से हम सहानुभूति रखें? ऐसी औरतों को तो सबक मिलना ही चाहिए जो अपने पति और ससुराल वालों

इतना कर्कश व्यवहार रखती हैं. एक अच्छी और सुघड़ औरत वह होती है जो परिवार को तोड़ती नहीं, बल्कि जोड़ती है. लेकिन तुम्हारी संध्या दी ने तो जोड़ना नहीं, तोड़ना सीखा है. प्रेम और मिलनसार व्यवहार जैसे शब्द तो शायद उन के शब्दकोश में हैं ही नहीं. सच पूछो, तो मुझे बेहद खुशी है कि सुधीर उस औरत के साथ हंसीखुशी रह रहे हैं.’’

‘‘भाभी, आप जो कुछ कह रही हैं वह हम सब जानते हैं. न वे व्यवहार की अच्छी हैं न स्वभाव की. जबान की भी बेहद कड़वी हैं या दूसरे शब्दों में कहें वे शुद्ध खालिस स्वार्थ की प्रतिमा हैं. मायके में भी किसी से नहीं बनी, तभी तो किराए के मकान में रह रही हैं. लेकिन एक औरत होने के नाते हमें ऐसा होने से रोकना चाहिए और संध्या दी को सबकुछ बता देना चाहिए.’’

‘‘अनु, इस मामले में मेरी सोच तुम से जुदा है. मैं भी एक औरत हूं लेकिन इस प्रकरण में मैं सुधीर का साथ दूंगी क्योंकि हर जगह आदमी ही गलत नहीं होता. 95 प्रतिशत मामलों में दोषी न होते हुए भी पुरुषों को ही दोषी ठहराया जाता है. अगर एक पति अपनी कर्कशा पत्नी को पूरा खर्चा दे रहा है, अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा रहा है और इस के एवज में अगर वह अपना एकाकीपन दूर करने के लिए एक औरत के साथ सुखी, संतुष्ट और तनावमुक्त जीवन जी रहा है तो इस में गलत क्या है? वह औरत भी पूरी सचाई से वाकिफ है, तो बुरा क्या है. प्लीज, जैसा चल रहा है, चलने दो. इस बारे में संध्या को बताने का मतलब साफ है कि सुधीर का जीवन पहले से और भी बदतर हो जाना क्योंकि संध्या की फितरत से वाकिफ हूं मैं.’’

‘‘लेकिन भाभी, उस औरत को अंत में क्या हासिल होगा? कानूनी रूप से तो संध्या ही उन की पत्नी हैं. सुधीर जीजाजी के न रहने पर उन की सारी संपत्ति, जमीनजायदाद और पैंशन पर तो संध्या दी का ही हक होगा. यह सब छिपा कर हम उस औरत के साथ भी तो एक तरह से अन्याय ही कर रहे हैं,’’ मैं ने चिंतित स्वर में कहा. ‘‘नहीं अनु, तुम किसी के साथ कोई अन्याय नहीं कर रही हो. मैं जानती हूं, सुधीर जैसे नेकदिल इंसान मात्र अपने सुख और स्वार्थ के लिए उस औरत के साथ कोई धोखा नहीं करेंगे, न ही उसे अंधेरे में रखेंगे. पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ वे अपना रिश्ता निभाएंगे. मुझे पूरा विश्वास है सुधीर जैसे पढ़ेलिखे, समझदार और दूरदर्शी व्यक्ति ने उस के सुखी और सुरक्षित भविष्य के लिए कुछ न कुछ प्रबंध अवश्य कर दिया होगा.

‘‘रही बात संध्या की, तो ऐसी औरतों को तो सबक मिलना ही चाहिए जो बिना वजह अपने पति और ससुराल वालों को प्रताडि़त कर के उन्हें कानूनी धमकी दे कर अपने मायके आ जाती हैं. इस श्रेणी में तुम्हारी संध्या दी भी आती हैं. यह बात मैं ही नहीं, तुम और तुम्हारे ससुराल वाले और यहां तक कि दोनों तरफ के रिश्तेदार व पड़ोसी भी जानते हैं. इसलिए यह निर्णय मैं तुम पर छोड़ती हूं कि तुम संध्या को बता कर सुधीर की खुशहाल जिंदगी में जहर घुलवाओगी या चुप रह कर उन की वर्तमान खुशियां बरकरार रखोगी,’’ कह कर भाभी चुप हो गईं.

जानती हूं मैं, भाभी ने जो कुछ कहा है वह एकदम सच कहा है क्योंकि सुधीर जीजाजी उन के करीबी रिश्तेदार हैं. उन्होंने अपना दर्द उन से बयां किया है. मैं अजीब कशमकश में हूं कि एक निर्दोष आदमी की खुशियों की खातिर चुप रहूं या फिर एक कटु, कठोर व कर्कशा औरत के न्याय के लिए बोलूं… फिर भी यह तो मैं भी मानती हूं कि पतिपत्नी के रिश्ते को चाहे वह पति हो या पत्नी, कोई एक भी उस रिश्ते को तोड़ने का जिम्मेदार है तो कुसूरवार वही है. ऐसे में दोषी के साथ सहानुभूति दिखाना बेकुसूर के साथ बेइंसाफी होगी. सुधीर जीजाजी को पूरा हक है कि वे अपनी जिंदगी को नए सिरे से संवारें.

निगाहों से आजादी कहां : क्या हुआ था रामकली के साथ

‘‘अरे रामकली, कहां से आ रही है?’’ सामने से आती हुई चंपा ने जब उस का रास्ता रोक कर पूछा तब रामकली ने देखा कि यह तो वही चंपा है जो किसी जमाने में उस की पक्की सहेली थी. दोनों ने ही साथसाथ तगारी उठाई थी. सुखदुख की साथी थीं. फुरसत के पलों में घंटों घरगृहस्थी की बातें किया करती थीं.

ठेकेदार की जिस साइट पर भी वे काम करने जाती थीं, साथसाथ जाती थीं. उन की दोस्ती देख कर वहां की दूसरी मजदूर औरतें जला करती थीं, मगर एक दिन उस ने काम छोड़ दिया. तब उन की दोस्ती टूट गई. एक समय ऐसा आया जब उन का मिलना छूट गया.

रामकली को चुप देख कर चंपा फिर बोली, ‘‘अरे, तेरा ध्यान किधर है रामकली? मैं पूछ रही हूं कि तू कहां से आ रही है? आजकल तू मिलती क्यों नहीं?’’

रामकली ने सवाल का जवाब न देते हुए चंपा से सवाल पूछते हुए कहा, ‘‘पहले तू बता, क्या कर रही है?’’

‘‘मैं तो घरों में बरतन मांजने का काम कर रही हूं. और तू क्या कर रही है?’’

‘‘वही मेहनतमजदूरी.’’

‘‘धत तेरे की, आखिर पुराना धंधा छूटा नहीं.’’

‘‘कैसे छोड़ सकती हूं, अब तो ये हाथ लोहे के हो गए हैं.’’

‘‘मगर, इस वक्त तू कहां से आ रही है?’’

‘‘कहां से आऊंगी, मजदूरी कर के आ रही हूं.’’

‘‘कोई दूसरा काम क्यों नहीं पकड़ लेती?’’

‘‘कौन सा काम पकड़ूं, कोई मिले तब न.’’

‘‘मैं तुझे काम दिलवा सकती हूं.’’

‘‘कौन सा काम?’’

‘‘मेहरी का काम कर सकेगी?’’

‘‘नेकी और पूछपूछ.’’

‘‘तो चल तहसीलदार के बंगले पर. वहां उन की मेमसाहब को किसी बाई की जरूरत थी. मुझ से उस ने कहा भी था.’’

‘‘तो चल,’’ कह कर रामकली चंपा के साथ हो ली. वैसे भी वह अब मजदूरी करना नहीं चाहती थी. एक तो यह हड्डीतोड़ काम था. फिर न जाने कितने मर्दों की काम वासना का शिकार बनो. कई मजदूर तो तगारी देते समय उस का हाथ छू लेते हैं, फिर गंदी नजरों से देखते हैं. कई ठेकेदार ऐसे भी हैं जो उसे हमबिस्तर बनाना चाहते हैं.

एक अकेली औरत की जिंदगी में कई तरह के झंझट हैं. उस का पति कन्हैया कमजोर है. जहां भी वह काम करता है, वहां से छोड़ देता है. भूखे मरने की नौबत आ गई तब मजबूरी में आ कर उसे मजदूरी करनी पड़ी.

जब पहली बार रामकली उस ठेकेदार के पास मजदूरी मांगने गई थी, तब वह वासना भरी आंखों से बोला था, ‘‘तुझे मजदूरी करने की क्या जरूरत पड़ गई?’’

‘‘ठेकेदार साहब, पेट का राक्षस रोज खाना मांगता है?’’ गुजारिश करते हुए वह बोली थी.

‘‘इस के लिए मजदूरी करने की क्या जरूरत है?’’

‘‘जरूरत है तभी तो आप के पास आई हूं.’’

‘‘यहां हड्डीतोड़ काम करना पड़ेगा. कर लोगी?’’

‘‘मंजूर है ठेकेदार साहब. काम पर रख लो?’’

‘‘अरे, तुझे तो यह हड्डीतोड़ काम करने की जरूरत भी नहीं है,’’ सलाह देते हुए ठेकेदार बोला था, ‘‘तेरे पास वह चीज है, मजदूरी से ज्यादा कमा सकती है.’’

‘‘आप क्या कहना चाहते हैं ठेकेदार साहब.’’

‘‘मैं यह कहना चाहता हूं कि अभी तुम्हारी जवानी है, किसी कोठे पर बैठ जाओ, बिना मेहनत के पैसा ही पैसा मिलेगा,’’ कह कर ठेकेदार ने भद्दी हंसी हंस कर उसे वासना भरी आंखों से देखा था.

तब वह नाराज हो कर बोली थी, ‘‘काम देना नहीं चाहते हो तो मत दो. मगर लाचार औरत का मजाक तो मत उड़ाओ,’’ इतना कह कर वह ठेकेदार पर थूक कर चली आई थी.

फिर कहांकहां न भटकी. जो भी ठेकेदार मिला, उस के साथ वह और चंपा काम करती थीं. दोनों का काम अच्छा था, इसलिए दोनों का रोब था. तब कोई मर्द उन की तरफ आंख उठा कर नहीं देखा करता था.

मगर जैसे ही चंपा ने काम पर आना बंद किया, फिर काम करते हुए उस के आसपास मर्द मंडराने लगे. वह भी उन से हंस कर बात करने लगी. कोई मजदूर तगारी पकड़ाते हुए उस का हाथ पकड़ लेता, तब वह भी कुछ नहीं कहती है. किसी से हंस कर बात कर लेती है तब वह समझता है कि रामकली उस के पास आ रही है.

कई बार रामकली ने सोचा कि यह हाड़तोड़ मजदूरी छोड़ कर कोई दूसरा काम करे. मगर सब तरफ से हाथपैर मारने के बाद भी उसे ऐसा कोई काम नहीं मिला. जहां भी उस ने काम किया, वहां मर्दों की वहशी निगाहों से वह बच नहीं पाई थी. खुद को किसी के आगे सौंपा तो नहीं, मगर वह उसी माहौल में ढल गई.

‘‘ऐ रामकली, कहां खो गई?’’ जब चंपा ने बोल कर उस का ध्यान भंग किया तब वह पुरानी यादों से वर्तमान में लौटी.

चंपा आगे बोली, ‘‘तू कहां खो गई थी?’’

‘‘देख रामवती, तहसीलदार का बंगला आ गया. मेमसाहब के सामने मुंह लटकाए मत खड़ी रहना. जो वे पूछें, फटाफट जवाब दे देना,’’ समझाते हुए चंपा बोली.

रामकली ने गरदन हिला कर हामी भर दी.

दोनों गेट पार कर लौन में पहुंचीं. मेमसाहब बगीचे में पानी देते हुए मिल गईं. चंपा को देख कर वे बोलीं, ‘‘कहो चंपा, किसलिए आई हो?’’

‘‘मेमसाहब, आप ने कहा था, घर का काम करने के लिए बाई की जरूरत थी. इस रामकली को लेकर आई हूं,’’ कह कर रामकली की तरफ इशारा करते हुए चंपा बोली.

मेमसाहब ने रामकली को देखा. रामकली भी उन्हें देख कर मुसकराई.

‘‘तुम ईमानदारी से काम करोगी?’’ मेमसाहब ने पूछा.

‘‘हां, मेमसाहब.’’

‘‘रोज आएगी?’’

‘‘हां, मेमसाहब.’’

‘‘कोई चीज चुरा कर तो नहीं भागोगी?’’

‘‘नहीं मेमसाहब. पापी पेट का सवाल है, चोरी का काम कैसे कर सकूंगी…’’

‘‘फिर भी नीयत बदलने में देर नहीं लगती है.’’

‘‘नहीं मेमसाहब, हम गरीब जरूर हैं मगर चोर नहीं हैं.’’

चंपा मोरचा संभालते हुए बोली, ‘‘आप अपने मन से यह डर निकाल दीजिए.’’

‘‘ठीक है चंपा. इसे तू लाई है इसलिए तेरी सिफारिश पर इसे रख

रही हूं,’’ मेमसाहब पिघलते हुए बोलीं, ‘‘मगर, किसी तरह की कोई शिकायत नहीं मिलनी चाहिए.’’

‘‘आप को जरा सी भी शिकायत नहीं मिलेगी,’’ हाथ जोड़ते हुए रामकली बोली, ‘‘आप मुझ पर भरोसा रखें.’’

फिर पैसों का खुलासा कर उसे काम बता दिया गया. मगर 8 दिन का काम देख कर मेमसाहब उस पर खुश हो गईं. वह रोजाना आने लगी. उस ने मेमसाहब का विश्वास जीत लिया.

मेमसाहब के बंगले में आने के बाद उसे लगा, उस ने कई मर्दों की निगाहों से छुटकारा पा लिया है. मगर यह केवल रामकली का भरम था. यहां भी उसे मर्द की निगाह से छुटकारा नहीं मिला. तहसीलदार की वासना भरी आंखें यहां भी उस का पीछा नहीं छोड़ रही थीं.

मर्द चाहे मजदूर हो या अफसर, औरत के प्रति वही वासना की निगाह हर समय उस पर लगी रहती थी. बस फर्क इतना था जहां मजदूर खुला निमंत्रण देते थे, वहां तहसीलदार अपने पद का ध्यान रखते हुए खामोश रह कर निमंत्रण देते थे.

ऐसे ही उस दिन तहसीलदार मेमसाहब के सामने उस की तारीफ करते हुए बोले, ‘‘रामकली बहुत अच्छी मेहरी मिली है, काम भी ईमानदारी से करती?है और समय भी ज्यादा देती है,’’ कह कर तहसीलदार साहब ने वासना भरी नजर से उस की तरफ देखा.

तब मेमसाहब बोलीं, ‘‘हां, रामकली बहुत मेहनती है.’’

‘‘हां, बहुत मेहनत करती है,’’ तहसीलदार भी हां में हां मिलाते हुए बोले, ‘‘अब हमें छोड़ कर तो नहीं जाओगी रामकली?’’

‘‘साहब, पापी पेट का सवाल है, मगर…’’

‘‘मगर, क्या रामकली?’’ रामकली को रुकते देख तहसीलदार साहब बोले.

‘‘आप चले जाओगे तब आप जैसे साहब और मेमसाहब कहां मिलेंगे.’’

‘‘अरे, हम कहां जाएंगे. हम यहीं रहेंगे,’’ तहसीलदार साहब बोले.

‘‘अरे, आप ट्रांसफर हो कर दूसरे शहर में चले जाएंगे,’’ रामकली ने जब तहसीलदार पर नजर गड़ाई, तो देखा कि उन की नजरें ब्लाउज से झांकते उभार पर थीं. कभीकभी ऐसे में जान कर के वह अपना आंचल गिरा देती ताकि उस के उभारों को वे जी भर कर देख लें.

तब तहसीलदार साहब बोले, ‘‘ठीक कहती हो रामकली, मेरा प्रमोशन होने वाला है.’’

उस दिन बात आईगई हो गई. तहसीलदार साहब उस से बात करने का मौका ढूंढ़ते रहते हैं. मगर कभी उस पर हाथ नहीं लगाते हैं. रामकली को तो बस इसी बात का संतोष है कि औरत को मर्दों की निगाहों से छुटकारा नहीं मिलता है. मगर वह तब तक ही महफूज है, जब तक तहसीलदार की नौकरी इस शहर में है.

एक किताब सा चेहरा: कौन थी गीतिका

वह अकसर मुझे दिखाई देती थी, जब मैं अपनी साइकिल से सूनीसूनी सड़कों पर शिमला की ठंडक को मन में लिए जब भी निकला हूं मैं… बर्फीले हवा के झेंके सी गुजर जाती है वह. नहीं, वह नहीं गुजरती मैं ही गुजर जाता हूं. उस के पास धीमीधीमी साइकिल पर चलतेचलते मेरा मन होता है कि मैं रुक जाऊं उसे देखने के लिए. कभी तो ऐसा भी लगा साइकिल पर ही रुक कर पलट कर देख लूं. पर शायद यह लुच्चापन लगेगा, वह मुझे लोफर या बदमाश भी समझ सकती है. मैं नहीं कहलाना चाहता बदमाश उस की नजरों में. इसलिए सीधा ही चला जाता हूं. मन में कसक लिए उसे अच्छी तरह देखने की.

वह मुझे आजकल की लड़कियों सी नहीं दिखती थी. अगर तुम पूछोगे कि आजकल की लड़कियां तो मैं बिलकुल पसंद नहीं करूंगा. आज की लड़कियों को पसंद करता भी नहीं क्यों एक फूहड़पन सा झलकता है इन लड़कियों में. अजीब सा चेहरा बना कर बात करना, सैल्फी खींचखींच कर चेहरे और विशेषकर होंठों को सिकोड़े रहने की आदत की शिकार नहीं बीमार कहिए बीमार हो गई हैं आज की लड़कियां.

पहनावा सोचते ही उबकाई आने लगती है. मुझे जीरो साइज के पागलपन में पागल लड़कियां अपने शरीर की गोलाइयों को पूरा सपाट बना देती हैं. इस से जो आकर्षण होना चाहिए वह बचता ही नहीं. अब आप कहेंगे मैं पागल हूं जो आज के माहौल के लिए, आधुनिक युग के लिए ऐसा बोल रहा हूं.

तो साहब, ऐसा नहीं शरीर को प्रयोगशाला बनाने के साथ ही कपड़ों की तो बात ही क्या है? घुटनों के पास से फटी जींस, कमर, पेट दिखाता टौप, कहींकहीं तो पिडलियों के पास से भी फटी जींस के भीतर से झंकते शरीर को देख कर मुझे तो घिन आती है. कहीं से भी सुंदर नहीं दिखती ऐसी लड़कियां. आगे भी सुन लीजिए. बालों को भी नहीं छोड़ा, नीले, लाल कलर के रंग में रंग बाल देख कर मसखरी करने वाले जोकरों की याद आ जाती है.

अब आप बोलें या सोचें क्या इन से प्रेम किया जा सकता है? दिल में बसाया जा सकता है लंबे प्रेम संबंध चलें ऐसी कोई कल्पना की जा सकती है? नहीं साहब, बिलकुल नहीं. एक बात तो बताना ही भूल गया जनाब कि इन का प्रेम भी फास्ट फूड जैसा होने लगा है. विश्वास ही नहीं होता ये कितनों के साथ एकसाथ प्रेम करती हैं. एक से ब्रेकअप हुआ तो दूसरा रैडी है. दूसरे के साथ ब्रेकअप हुआ तो तीसरा तैयार है… नुक्कड़ पर फोन करने की देर है.

अब ऐसे फास्ट फूड के जमाने में कोई शीतल झरने सी लड़की. जी हां लड़की, दिख जाए तो मन बावला हो उठता है. मेरा भी मन बावला हो उठा उस लड़की को देख कर.

घर पर जा कर मैं ने प्रण किया अब तो मैं कुछ दिनों में उस लड़की से जरूरजरूर बात करूंगा. मैं शिमला की ठंडक को मन में संजोए सो गया. कमरे के दरवाजे और खिड़की पर बर्फ की परतें जमनी शुरू हो गई थीं. गरम रजाई के भीतर उस लड़की की सांसों की गरमी मैं महसूस कर रहा था, बर्फ से ढकी पहाडि़यों के पीछे से लड़की का चेहरा बारबार झंक कर मुझे रातभर परेशान करता रहा और मैं जागता रहा, सोता रहा.

सुबह जब नींद खुली तो देखा 9 बजने जा रहे थे. बर्फ की परतें जो रात से

खिड़की और दरवाजे पर लिपटी थीं. हलकीहलकी पिघलने लगी थीं. हलकी सी धूप पहाडि़यों से अंगड़ाई लेते हुए पहाडि़यों की गोद में बसे कौटेजों पर बिखरने लगी थी. क्या करूं? मन नहीं कर रहा था उठने का. चाय पी लेता हूं. नाश्ते के बाद निकलूंगा. आज संडे है पर संडे को भी लाइब्रेरी खुलती है. नाश्ते के बाद 11 साढ़े 11बजे तक लाइब्रेरी पहुंच जाऊंगा. रास्ते में फिर मिलेगी वह लड़की. मैं आज पक्का उस से बात करूंगा, चाहे जो हो. यही सोच कर मैं ने चाय पी पर चाय ठंडी हो गई थी.

गरम करने के लिए दोबारा केतली उठाई. चाय के बाद मैं ने गाम पानी के गीजर को औन किया. तब तक कपड़ों की तैयारी में लग गया कि आज कौन से कपड़े पहनूं जिन से वह लड़की इंप्रैस हो जाए. सोचतेसोचते सब्ज कलर की जींस और ब्लैक टीशर्ट निकाली. हलकेहलके गरम पानी की उड़ती भाप में भी लड़की का चेहरा बनता रहा बिगड़ता रहा, पहाडि़यों से भी वह झंकती रही. मैं उसे देखता रहा.

नहा कर जब बाहर आया तो भूख सी महसूस हो रही थी मुझे. फ्रिज देखा तो कुछ अंडे थे, लेकिन ब्रैड नहीं थी. अब क्या करूं? केसरोल देखा तो कल का एक परांठा बचा पड़ा था. चलो हो गया नाश्ते का इंतजाम. बासी परांठा और ताजा आमलेट. फटाफट मैं प्याज, हरीमिर्च और धनियापत्ती काट कर अंडे फेंटने लगा. नाश्ता भी मैं ने गरम कंबल में लिपटे हुए खाया. नाश्ते के बाद आदमकद आइने के सामने खड़ा हुआ. खुद को आईने में देख कर सोचने लगा कि क्या वह मुझे पसंद करेंगी? बुरा तो नहीं मैं 5 फुट 11 इंच की हाइट, हलकेहलके कर्ली बाल, लंबी नाक, घनी मूंछें, खिलता रंग. पसंद करेगी बात भी करेगी. चेहरे से कुछकुछ शायर सा लगता हूं जैसेजैसे याद नहीं आ रहा, किस ने कहा था? शायद किसी दोस्त ने. ‘वह उस गीत सा…’ कौन सा गीत हां याद आया:

‘किसी नजर को तेरा इंजतार आज भी है…’ सुरेश वाडकर पर फिल्माया गया था यह गीत. डिंपल कपाडि़या बेचैन सी हो कर आती है. चलो देखते हैं…

तैयार हो कर कौटेज से बाहर निकला. धूप अच्छी लग रही थी. हलकीहलकी कुनकुनी सी. जींसब्लेजर में भी इंतजार वाले गीत सा महसूस कर रहा था. फिर सोचा साइकिल आज ठीक रहेगी. काश बाइक ले कर आता घर से, घर तो दिल्ली था, जौब शिमला में थी. साइकिल पसंद थी, इसलिए साइकिल उठा लाया. पर साइकिल से क्या वह इंप्रैस होगी? ऐसा करता हूं मकानमालिक से बाइक ले लेता हूं आज. बाइक ठीक रहेगी.

मकानमालिक ने दे दी बाइक की चाबी. वे आज रैस्ट के मूड में थे. शाम को ही निकलने के मूड में थे. संडे जो था. खैर मैं ने बाईक निकाली और चल दिया शिमला की अजगर जैसी सड़कों पर. सर्पीली सड़कों के जाल, पहाडि़यों की गगन चूमती चोटियां, हंसता सूरज, मुसकराती धूप, पौधोंफूलों से टपकती बर्फ, पिघलती बर्फ की खामोशियां, हवाओं में बहती खुशबू, गरमगरम कपड़ों में कौटेजों से निकल कर धूप को पीते लोग.

हरियाली की चूनर, चिनार के पेड़ों की वे कतारें, कौटेज से उठता धुआं. सबकुछ कितना मनमोहक है, कितना सुंदर, प्यारा और जीवन से प्यार करना सिखाता. ये प्रकृति का अद्भुत चित्र. एक अनदेखे चित्रकार की खूबसूरत कलाकृति यह सृष्टि. बाइक पर उसे याद आया सड़क के किनारे एक छोटा सा देव स्थान है. वह तुंरत उस जगह पहुंच गया.

जूते खोल कर वह आगे बढ़ा. देखा तो घना वटवृक्ष है, उस ने ध्यान से देखा तो पाया बरसों पुराना है शायद सैकड़ों साल पुराना. बहुत घना. उस के नीचे पक्के चबूतरे पर एक देव प्रतिमा थी. सामने एक दीपक जल रहा था. बरगद के पीछे बड़ी काली पहाड़ी थी, पहाड़ी से लगा था छोटा सा तालाब. दीपक जल रहा है. मतलब कोई जला कर गया है. बरगद पर सैकड़ों धागे बंधे थे. शायद मन्नत के धागे… मैं ने पास के तालाब में हाथ धो कर जेब से रूमाल निकाल कर माथे को ढका. देव प्रतिमा के सामने जा कर अपना शीश झका कर जैसे ही आंखें बंद कीं, फिर उस लड़की का चेहरा नाच उठा.

मैं नहीं जानता मुझे क्या हुआ. क्यों आया मैं तेरे द्वार पर इस दौर में मुझे सुकून से भरे कुछ पल दे दे. ऐसा सुकून, शांति जिस की मेरे देश को भी जरूरत हैं. अमनशांति से भर दे सब की झली. कुछ पल तक मैं दीपक की जादू भरी लौ को देखता रहा. फिर न जाने क्या सोच कर वहां पूजा की थाली में रखा रंगीन कलावा ले कर वृक्ष के दामन में बांध कर वापस आ गया.

बाइक स्टार्ट कर के वापस अपनी मंजिल लाइब्रेरी की तरफ चला. अफसोस सारे रास्ते मुझे वह लड़की नहीं दिखी. मन उदास हो चला, दुखी हो गया.

लाइब्रेरी के बाहर बाइक खड़ी करतेकरते भी मन उदास और निराश था, जल्दी से बुक्स ले कर वापस हो जाऊंगा, क्या पता, वह बीमार हो गई हो. आज कुछ ज्यादा ही लोग थे. लाइब्रेरी में. यह एक मात्र लाइब्रेरी थी, जिस में दिन भर पढ़ने के शौकीन विद्यार्थी आते रहते थे. मुझे भी किताबों का शौक था.

बड़े दिनों से टौलस्टौय की बुक ‘इंसान और हैवान’ की तलाश में था. मैं ने अपनी

बुक के लिए शैल्फ पर नजरें दौड़ानी शुरू कीं. आधा घंटा हो गया था. दूसरी वाली शैल्फ में देखता हूं, यह सोच कर मैं ने पलट कर देखा तो सामने से कोई टकरा गया. मेरी बुक जमीन पर मैं ने जल्दी से बुक उठाई और सौरी कहा. यह क्या… सामने तो वही लड़की थी, जिसे मैं देखा करता था.

अरे यह. चमत्कार हो गया. दिल इतनी तेजी से धड़कने लगा जैसे लो बाहर ही आ जाएगा. सौरी बोलने के बाद मैं अपलक उसे निहारता ही रह गया.

‘‘क्या हुआ आप को? सौरी बोल तो दिया आप ने. अब क्या हुआ,’’ लड़की की आवाज मेरे कानों तक पहुंची.

‘‘जीजी हां, वह मैं थोड़ा जल्दी में था,’’ मैं ने अपनी धड़कनों पर काबू पाने की कोशिश करते हुए कहा.

‘‘कोई बात नहीं… देख ली आप ने?’’ लड़की बोली.

‘‘जी देखी तो लेकिन उस शैल्फ में तो नहीं मिली… इस में देख लेता हूं.’’

‘‘कौन सी बुक है?’’ वह पूछने लगी.

मैं ने कहा, ‘‘टौलस्टौय की बुक ‘इंसान और  हैवान.’’

‘‘अच्छा… कहीं यह तो नहीं,’’ कह कर उस ने बुक अपने हाथ में रख कर मेरी नजरों के सामने की.

‘‘अरे हां ये ही… मैं खुशी से बोला, ‘‘लेकिन आप ने तो अपने नाम से इशू करवाई होगी? आप पढ़ लीजिए. मैं फिर ले लूंगा,’’ मेरा स्वर उदासी भरा था.

‘‘अरे नहीं, आप पढ़ लीजिए मैं फिर पढ़ लूंगी,’’ वह बोली.

मैं खुश हो गया. मैं ने उसे थैंक्स कहा.

‘‘ओकेजी,’’ वह बोली.

‘‘अच्छा आप अभी रुकेंगी या जाएंगी,’’ मैं ने हिम्मत जुटाई.

‘‘मैं अब निकलूंगी,’’ वह बोली.

‘‘अगर आप चाहें तो मैं आप को छोड़ दूं? मैं ने पूछा.

‘‘क्यों नहीं चलिए साथ चलते हैं,’’ वह बोली.

मैं बाहर आ गया. वह भी साथ थी. मैं ने बाइक निकाली.

‘‘अरे यह क्या… बाइक,’’ वह बोली.

‘‘जी बाइक. बाइक पर नहीं बैठोगी?’’ मैं ने थोड़े आश्चर्य से पूछा.

‘‘नहींनहीं ऐसा कुछ नहीं, लेकिन आप की तो साइकिल ही अच्छी है,’’ वह बोली. ‘‘फिर इन खूबसूरत नजारों को देखने के लिए मुझे पैदल जाना ही पसंद है,’’ वह मुसकराती बोली.

‘उफ, कितनी कातिल मुसकान है,’ मैं ने सोचा, ‘लुट जाते होंगे न जाने कितने इस मुसकान पर.’

‘‘चलिए बाइक यहीं छोडि़ए हम कुछ देर घूम लेते हैं,’’ वह बोली.

‘‘ओके,’’ मैं ने कहा फिर बाइक वहीं छोड़ी और उस के साथ चल दिया.

घुमावदार सड़कें, बर्फ से छिपतेढकते, पेड़, बर्फ

कहींकहीं पिघल कर पैरों को छू कर ठंड भर देती शरीर में. कुछ दूरी पर छोटा सा कौफीहाउस था पहाड़ी के दामन में. मैं ने कहा, ‘‘अगर एतराज न हो तो 1-1 कौफी पी लें?’’

‘‘जरूर,’’ वह बोली.

बड़े दिनों बाद आज धूप निकली थी इस बर्फीले हिल स्टेशन पर. गरम कपड़ों में लोग जगहजगह धूप का आनंद ले रहे थे.

कौफीहाउस में कुछ लोग थे, मैं ने खिड़की के पास वाली टेबल पसंद की. लकड़ी के कौटेज मुझे बहुत पसंद है. कौफीहाउस की डैकोरेशन बड़ी प्यारी थी.

वह मेरे सामने थी, बीच में थी टेबल, टेबल पर था पीले, सफेद, पिंक गुलाबों का गुलदस्ता, जो शायद कुछ देर पहले ही सजाया गया था.

‘क्या बात शुरू करूं?’ मैं ने सोचा. फिर ध्यान आया. अरे नाम…

‘‘हम लाइब्रेरी से इतनी देर से साथ हैं… हम ने एकदूसरे का नाम भी नहीं पूछा,’’ मैं ने कहा.

‘‘ओह,’’ कह कर वह मुसकरा दी. मुसकराते ही दाएं गाल का डिंपल भी मुसकरा दिया.

‘‘मैं आकाश हूं. मतलब मेरा नाम आकाश है. मैं जौब करता हूं. घर मेरा इंदौर में है. शिमला की बर्फ और खूबसूरती मुझे पंसद है. यहां का औफर आया तो तुरंत हां कर दी,’’ अपनी बात समाप्त कर के मैं उसे देखने लगा.

‘‘मैं गीतिका हूं. मुझे भी पहाडि़यों और चर्च से घिरा शिमला पसंद है. मेरे मामा यहां रहते हैं, पापामम्मी भोपाल में हैं. पापा सरकारी जौब में हैं. मम्मी हाउसवाइफ हैं. मुझे पढ़ने का शौक है तो मामा के यहां रह कर पढ़ाई भी करती हूं और अच्छे साहित्यकारों को भी पढ़ती हूं.’’

‘‘साहब, और्डर,’’ तभी वेटर ने आ कर हमारे बातचीत के क्रम को भंग किया.

‘‘कौफी के साथ क्या लोगी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जो आप का मन करे,’’ कह गीतिका मुसकरा दी.

‘‘ओके,’’ कह कर मैं ने पनीर सैंडवीच और कौफी का और्डर कर दिया.

सूर्य की किरणें कौटेज की दरारों से अंदर आ कर शैतानियां कर रही थीं. बर्फ की धुंध को चीर कर बड़े दिनों बाद धूप निकली थी जो अच्छी लग रही थी. धूप की शैतानियों को देखतेदेखते मैं ने गीतिका को देखा जो खिड़की से फूलों को देख रही थी.

मैं ने उसे देखा कि खिलता हुआ रंग, होंठों की बाईं तरफ तिल जो सौंदर्य पर पहरा दे रहा था, कमल सी आंखें, जो खामोशखामोश सी कोई कहानी छिपाए हैं. मुझे पसंद हैं सुंदर आंखें. लंबा कद, मांसलता लिए शरीर, ब्लैक कलर का सूट, उस पर पिंक कलर का ऐंब्रौयडरी वाला दुपट्टा, हलकाहलका काजल. काश, मेरी लाइफपार्टनर बने. मैं कल्पना में खो गया.

‘‘साहब, कौफी,’’ तभी वेटर की आवाज सुनाई दी.

‘‘गीतिका, क्या सोचती हो मेरे बारे में? मैं ने पूछा, मैं तो अकसर ही तलाशता था जब मैं लाइब्रेरी आता था,’’ कह उस के चेहरे के भाव देखने लगा.

‘‘जी मैं ने भी कई बार देखा था आप को. आप मुझे देखने के लिए साइकिल धीमी कर देते थे,’’ कह गीतिका खिलखिला दी. हंसतेहंसते ही उस ने अपने आंखों पर हाथ रख लिए. यह अंदाज मेरे दिल में उतर गया. ऐसा लगा जैसे नन्हेनन्हे घुंघरू बज उठे हों.

‘‘हां गीतिका मैं भी तुम से बात करना चाहता था, पर कर नहीं पाता था. मुझे ओवरस्मार्ट बनने वाली लड़कियां पसंद नहीं हैं. शरीर दिखाऊ कपड़े, अजीब सा हेयरस्टाइल, सिगरेट का धुआं उड़ाती लड़कियों का मानसिक दीवालिया समझता हूं मैं.’’

‘‘अच्छाजी,’’ गीतिका बोली, ‘‘कौफी

खत्म हो गई है. अब चलते हैं मामा इंतजार कर रहे होंगे.’’

‘‘गीतिका थोड़ी देर प्लीज,’’ मैं रिकवैस्ट के अंदाज में बोला.

‘ओके,’’ कह कर वह बैठ गई.

‘‘एक कौफी और मंगा लें?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मंगा लीजिए.’’

‘‘गीतिका तुम्हारी हौबी क्या है?’’

‘‘पढ़ना. बताया तो था आप को. इस के अलावा प्रकृति की सुंदरता को निहारना पसंद है. भीड़ से मुझे घबराहट होती,’’ गीतिका शिमला की पहाडि़यों को निहारती हुई बोली.

‘‘सच, कितनी सुंदर हौबीज हैं तुम्हारी.’’ मैं बहुत खुश हो उठा. मन ही मन उस देव स्थान पर मेरा सिर झकने लगा.

‘‘गीतिका हम फिर मिलेंगे न?’’ मैं ने उस की तरफ देख कर पूछा.

‘‘हांहां क्यों नहीं,’’ वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘मुझे यह बुक पढ़ कर वापस कर देना मुझे भी पढ़नी है.’’

‘‘ओके बाय,’’ मैं ने हाथ हिला कर कहा.

‘‘बाय फिर मिलते हैं,’’ कह कर वह चली गई. मैं उसे जाते देखता रहा दूर तक.

मन में उस की सूरत बसाए जब अपने रूम पहुंचा तो देखा कि मेरे मकानमालिक एक

बड़ा सा लिफाफा लिए मेरा इंतजार कर रहे थे. मुझे देखते ही बोले, ‘‘तुम्हारे घर से आया है.’’

मैं लिफाफा ले कर रूम में पहुंचा. जैसे ही लिफाफा खोला तो कई फोटो नीचे गिर पड़े, हाथ में ले कर जैसे ही फोटो पर नजर गई, तो आंखों को विश्वास ही नहीं हुआ. गीतिका के फोटो थे, पापामम्मी ने मेरे लिए लड़की पसंद की थी. मोबाइल के फोटो देखने को खुद मैं ने ही मना किया हुआ था. नहीं समझ आता फोटो फिल्टर हैं या औरिजनल. सामने हो तो बात ही अलग होती है मैं ने तुंरत घर फोन किया.

‘‘बेटा देख ले लड़की को,’’ पापा बोले. ‘‘गीतिका भी शिमला में ही है. पता कर के मुलाकात कर ले.’’

मैं क्या बोलता पापा को कि मैं तो मिल कर देख चुका हूं गीतिका को. मैं ने तुरंत हां कर दी शादी के लिए मेरे सपनों का चेहरा अब मेरा जीवनसाथी बनने जा रहा था.

तेरी सुरमई सूरत जब फूल बन जाए,

किताबी आंखों पर मेरी गजल हो जाए,

बन कर मैं देखूं तुझे रांझे की नजर से,

मेरे प्रेम के एहसास में तू हीर बन जाए.

यही थी मेरे गुलाबी सपनों का गुलाबी सपना किताब सा चेहरा.

मुसकान : क्यों टूट गए उनके सपने

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तीमारदारी: राज के साथ क्या हुआ

सरकारी अस्पताल का बरामदा मरीजों से खचाखच भरा हुआ था. छींक आने के साथ गले में दर्द, सर्दी, खांसी, बुखार से सम्बंधित मरीजों की तादाद यहां अचानक ही बढ़ गई थी.

मरीजों को सुबह से ही तमाम सरकारी अस्पताल में लंबीलंबी लाइनों में खड़े देखा जा सकता था क्योंकि इन अस्पतालों में मरीजों को पहले ओपीडी में पर्ची बनवाने के बाद ही डाक्टर के पास जाना होता था. देखने के बाद डाक्टर दवा दे कर घर भेज देते थे.

तब तक कोरोना अपने देश में आया नहीं था. एक सरकारी अस्पताल में ऐसे मरीजों की तादाद ज्यादा ही बढ़ गई.

सरकार ने इन मरीजों को गंभीर बता कर भर्ती करने के लिए कहा तो ऐसे में वहां डाक्टरों की जिम्मेदारी बढ़ गई. स्टाफ की भी जरूरत आ पड़ी.

इन मरीजों को अलग ही वार्ड में रखा गया था. छूत की बीमारी बता कर इन मरीजों को दूर से ही दवा, खाना दिया जाता था. मरीजों के साथ एक तरह से अलग तरह का ही बरताव किया जाता था.

इन मरीजों की देखरेख के लिए सीनियर डाक्टर कमल ने अपने से जूनियर डाक्टर सुनील से कुछ को मैडिकल अटेंडेंट के तौर पर रखने के लिए कहा.डाक्टर सुनील ने किसी नर्स के माध्यम से राज को मैडिकल अटेंडेंट के तौर पर रख लिया.

‘‘बधाई हो राज, तुम नौकरी पर रख लिए गए हो. अपने काम में मन लगाना ताकि किसी को कहने का मौका न मिले. तुम यहां इनसानियत के लिए भी काम कर सकोगे. किसी लाचार के काम आ सकोगे.’’ डाक्टर सुनील ने राज का हौसला बढ़ाते हुए कहा.

“जी डाक्टर साहब,” इतना ही कह सका राज.

जो भी हो, राज  की समझ में तो यही आया कि उसे एक अच्छी नौकरी मिल गई है.अस्पताल में राज को 6 महीने की पहले ट्रेनिंग दी गई. पर उसे इस छूत की बीमारी के बारे में ज्यादा नहीं बताया गया था.

जब डाक्टरों को खुद ही नहीं पता था, तो वे उसे क्या बताते. राज को अस्पताल में सबकुछ करना पड़ता था. मरीजों के टैंपरेचर, ब्लडप्रैशर वगैरह के रिकौर्ड रखने से ले कर उन्हें बिस्तर पर सुलाने तक की जिम्मेदारी उस पर थी. हर बिस्तर तक जा कर उसे मरीजों को दवा देनी पड़ती थी.

वैसे, राज अस्पताल के आसपास ही रहता था और पैदल ही चला आता था. वह एक पिछड़े इलाके से ताल्लुक रखता था और गरीब भी.

यहां  अस्पताल की नर्स से ले कर कंपाउंडर, डाक्टर तक मरीजों को डांटते रहते थे. किसी से मिलने की मनाही थी. एकएक इंजैक्शन लगाने के लिए नर्स फीस लेती थी. डाक्टरों से बात करने में डर लगता था कि कहीं डांटने न लगें.

यहां नर्सों का दबदबा था. राज को पहले ही ताकीद कर दी गई थी कि किसी मरीज से कभी भी चाय मत पीना, वरना निकाला जा सकता है.राज को पलपल यही खयाल रहता था कि कैसे नौकरी महफूज रखी जाए.

एक दिन जब राज अपनी शिफ्ट ड्यूटी पर गया, तो उस से पहले काम कर रहे साथी उमेश ने बताया, ‘‘एक नया मरीज भरती हुआ है. उसे दवा दे देना.’’यह कह कर वह उमेश अपनी ड्यूटी खत्म कर घर चला गया.

 राज ने उस मरीज को गौर से देखा. उस के गले में बेहद दर्द था. उसे छींकें भी बहुत आ रही थीं. बुखार से उस का बदन तप रहा था. पर राज ने डाक्टर को न बुला कर डाक्टर द्वारा दी गई पर्ची के मुताबिक उसे दवा दे दी. पर उस मरीज की तबियत बिगड़ने लगी.

अगले दिन उस मरीज की जांच की गई. डाक्टर कमल राज पर चिल्लाया, ‘‘यह क्या है…? तुम ने तो मरीज का कोई केयर ही नहीं किया है?’’यह सुन कर राज के पैरों तले जमीन खिसक गई. वह बोला, ‘‘सर, मैं ने उसे दवा दी थी.’’

“पर, दवा से कुछ असर नहीं हुआ.” राज ने अपनी बात कही. उस की बात सुन कर डाक्टर कमल उस पर बिगड़ा, ‘‘तुम्हारी समझाने की ड्यूटी नहीं है. तुम्हारी लापरवाही के चलते इस मरीज की हालत बिगड़ी है. कहीं दवा से कोई इंफैक्शन न हो जाए.’’

यह सुन कर राज की बोलती बंद हो गई. डाक्टर द्वारा डांट खा कर राज अपने को अपमानित सा महसूस करने लगा.राज को बड़ी कुंठा होने लगी.अब वह अपनेआप को बड़ा बेबस महसूस कर रहा था.

यही सोच कर राज कुछ दिन की छुट्टी ले कर अपने गांव जाने की योजना बनाने लगा.अगले दिन यही सोच कर राज  सीनियर डाक्टर कमल के पास चला गया, ‘‘सर, मुझे तो अपनेआप पर शर्म आ रही है, इसलिए मैं कुछ दिन की छुट्टी ले कर गांव जाना चाहता हूं.’’

वह सीनियर डाक्टर तुरंत मुड़ा और दूसरे मरीज को आवाज दी. वह मरीज उस के चैंबर में आया. राज वहीं खड़ा उस डाक्टर और मरीज को देखने लगा.

उस मरीज को देखने के बाद सीनियर डाक्टर कमल ने राज से समझाते हुए कहा, ‘‘उस दिन उस मरीज की जान चली जाती, अगर थोड़ी देर और होती.”

“क्या तुम ने खबर देखी है कि सरकार ने इस तरह के मरीजों को कोरोना होने की बात कही है, इसलिए इन्हें भर्ती किया जा रहा है. मरीज भी पहले से ज्यादा हो गए हैं. इन मरीजों को ले कर सरकार बहुत गंभीर है. और तुम ऐसे समय में छुट्टियां मांग रहे हो. ऐसे समय में तो तुम्हें इन मरीजों की तीमारदारी करनी चाहिए. यह भी एक तरह की देशभक्ति है.”

इतना कह कर सीनियर डाक्टर कमल अपने चैंबर से चला गया.यह सुन कर राज को दुख होने लगा. डाक्टर द्वारा समझाए जाने पर उस ने छुट्टी पर न जाने का मन बनाया. उसे अब इस नौकरी का असली माने पता चला था. यही तो उस का असली काम था, जिसे करने से वह चूक रहा था.

सवाल का जवाब: जफर ने कौन सा झूठ बोला था

जफर दफ्तर से थकाहारा जैसेतैसे रेलवे के नियमों को तोड़ कर एक धीमी रफ्तार से चल रही ट्रेन से कूद कर, मन ही मन में कचोटने वाले एक सवाल के साथ, उदासी से मुंह लटकाए हुए रात के साढ़े 8 बजे घर पहुंचा था. बीवी ने खाना बना कर तैयार कर रखा था, इसलिए वह हाथमुंह धोने के लिए वाशबेसिन की ओर बढ़ा तो देखा कि उस की 7 साल की बड़ी बेटी जैना ठीक उस के सामने खड़ी थी. वह हंस रही थी. उस की हंसी ने जफर को अहसास करा दिया था कि जरूर उस के ठीक पीछे कुछ शरारत हो रही है.

जफर ने पीछे मुड़ कर देखने के बजाय अपनी गरदन को हलका सा घुमा कर कनखियों से पीछे की ओर देखना बेहतर समझा कि कहीं उस के पीछे मुड़ कर देखने से शरारत रुक न जाए.

आखिरकार उसे समझ आ गया कि क्या शरारत हो रही है. उस की दूसरी

6 साला बेटी इज्मा ठीक उस से डेढ़ फुट पीछे वैसी ही चाल से जफर के साए की तरह उस के साथ चल रही थी.

बस, फिर क्या था. एक खेल शुरू हो गया. जहांजहां जफर जाता, उस की छोटी बेटी इज्मा उस के पीछे साए की तरह चलती. वह रुकता तो वह भी उसी रफ्तार से रुक जाती. वह मुड़ता तो वह भी उसी रफ्तार से मुड़ जाती. किसी भी दशा में वह जफर से डेढ़ फुट पीछे रहती.

इज्मा को लग रहा था कि जफर उसे नहीं देख रहा है, जबकि वह उस को कभीकभी कनखियों से देख लेता, इस तरह कि उसे पता न चले.

इस अनचाहे आकस्मिक खेल की मस्ती में जफर अपने 2 दिन पहले की सारी परेशानी और गम भूल सा गया था. तभी उसे अहसास हुआ कि इस नन्ही परी ने खेलखेल में उसे गम और परेशानियों का हल दे दिया था. इस मस्ती में उसे उस के बहुत बड़े सवाल का जवाब मिल गया था, जिस का जवाब ढूंढ़तेढूंढ़ते वह थक चुका था.

पिछले 2 दिनों से वह हर वक्त दिमाग में सवालिया निशान लगाए घूम रहा था. मगर जवाब कोसों दूर नजर आ रहा था, क्योंकि 2 दिन पहले उस की दोस्त नेहा ने कुछ ऐसा कर दिया था जिस के गम के बोझ में जफर जमीन के नीचे धंसता चला जा रहा था.

हमेशा सच बोलने का दावा करने वाली नेहा ने उस से एक झूठ बोला था. ऐसा झूठ, जिसे वह कतई बरदाश्त नहीं कर सकता था.

आखिर क्यों और किसलिए नेहा ने ऐसा किया?

इस सवाल ने दिमाग की सारी बत्तियों को बुझा कर रख दिया था. इस झूठ से जफर का उस के प्रति विश्वास डगमगा गया था.

वह ठगा सा महसूस कर रहा था. उसे लगने लगा था कि अब वह दोबारा कभी भी नेहा पर भरोसा नहीं कर पाएगा. ऐसा झूठ जिस ने रिश्तों के साथ मन में भी कड़वाहट भर दी थी और जो आसानी से पकड़ा गया था, क्योंकि उस शख्स ने जफर को फोन कर के बता दिया था कि नेहा अभीअभी उस से मिलने आई थी. जब जफर ने पूछा तो नेहा ने इनकार कर दिया था.

नेहा ने झूठ बोला था और उस शख्स ने सचाई बता दी थी. इतनी छोटी सी बात पर झूठ जो किसी मजबूरी की वजह से भी हो सकता था, जफर ने दिल से लगा लिया था. इस झूठ को शक और अविश्वास की कसौटी पर रख कर वह नापतोल करने लगा.

झूठ के पैमाने पर नेहा से अपने रिश्ते को नापने लगा तो सारी कड़वाहट उभर कर सामने आ गई. सारी कमियां याद आने लगीं. अच्छाई भूल गया. अच्छाई में भी बुराई दिखने लगी और यही वजह उस की परेशानी का सबब बन गई. उस के जेहन में एक, बस एक ही सवाल गूंज रहा था कि नेहा ने उस से आखिर क्यों झूठ बोला था?

जफर की नन्ही परी इज्मा ने बड़ी मासूमियत से उसे गम के इस सैलाब

से बाहर निकाल लिया था. उसे अपने सवाल का जवाब उस की इन मस्तियों में मिल गया था क्योंकि अब वह समझ गया था कि उस की बेटी थोड़ी मस्ती के लिए उस की साया बन कर, उस की पीठ के पीछे चल कर खेल खेल रही थी, जिस का मकसद खुशी था. अपनी भी और उस की भी. ठीक उसी तरह नेहा भी उस से झूठ बोल कर एक खेल खेल रही थी.

जफर की पीठ पीछे की घटना थी. उस ने शायद उस नन्ही परी की तरह

ही आंखमिचौली करने की सोची थी, क्योंकि इस से पहले कितनी ही बार जफर ने उस को परखा था. उस ने कभी झूठ नहीं बोला था. आज शायद उस का मकसद भी उस नन्ही परी की तरह मस्ती करने का था. शायद कुछ समय बाद वह सबकुछ बता देने वाली थी जिस तरह नन्ही परी ने बाद में बता दिया था.

जफर ठहरा जल्दी गुस्सा होने वाला इनसान, उस की एक न सुनी और बारबार फोन करने पर भी उसे सच बताने का मौका ही नहीं दिया था.

वह हैरान थी और डरी हुई भी. उस ने उस से बात तक नहीं की. जब तक बात न हो, गिलेशिकवे और बढ़ जाते हैं. बातचीत से ही रिश्तों की खाइयां कम होती हैं. यहां बातचीत के नाम पर

2 दिनों से सिर्फ ‘हां’ या ‘न’ दो जुमले इस्तेमाल हो रहे थे.

नेहा जफर की नाराजगी को ले कर परेशान थी और वह उस के झूठ को ले कर. नन्ही परी की मस्ती की अहमियत को इस सवाल के जवाब के रूप में समझ कर मेरी दिमाग की सारी घटाएं छंट गई थीं. दिल पर छाया कुहरा अब ऐसे हट गया था, जैसे सूरज की किरणों से कुहरे की धुंध हट जाया करती है.

सबकुछ साफ दिखाई दे रहा था. समझ में आ गया था कि कोई सच्चा इनसान कभीकभी छोटीछोटी बातों के लिए झूठ क्यों बोल देता है. शायद मस्ती के लिए. जो बात वह दिमाग के सारे घोड़े दौड़ा कर भी नहीं सोच पा रहा था, वह इस नन्ही परी इज्मा की शरारत ने समझा दी थी, वह भी कुछ ही पलों में.

जफर का गुस्सा अब पूरी तरह से शांत हो गया था. एकदम शांत. वह समझ गया था कि उसे क्या करना है.

जफर ने खुद ही नेहा को फोन किया. नेहा ने सफाई देने की कोशिश की, मगर जफर ने उसे रोक दिया.

जफर ने अपनी नन्ही परी इज्मा का पूरा किस्सा सुनाया. अब नेहा एकदम शांत थी. उस की नाराजगी और सफाई अब दोनों की ही कोई अहमियत नहीं रह गई थी. फिर उस ने पहले की तरह एक चुटकुला छेड़ दिया था और वे दोनों सबकुछ भूल कर पहले जैसे हो गए थे.

लेखक- मौहम्मद आसिफ

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