Serial Story: गुनाह- भाग 2

लेखक- शिव अवतार पाल   

अगले दिन सैकंड सैटरडे था और उस के अगले दिन संडे. इन 2 दिनों की दूरी मेरे लिए आकाश और पाताल के बराबर थी. कुछ सोचता हुआ मैं उसी तेजी से उस औफिस में दाखिल हुआ, जहां से रेवा निकली थी. रिशेप्सन पर एक खूबसूरत सी लड़की बैठी थी. तेज चलती सांसों को नियंत्रित कर मैं ने उस से पूछा क्या रेवा यहीं काम करती हैं  उस ने ‘हां’ कहा तो मैं ने रेवा का पता पूछा. उस ने अजीब सी निगाहों से मुझे घूर कर देखा.

‘‘मैडम प्लीज,’’ मैं ने उस से विनती की, ‘‘वह मेरी पत्नी है. किन्हीं कारणों से हमारे बीच मिसअंडरस्टैंडिंग हो गई थी, जिस से वह रूठ कर अलग रहने लगी. मैं उस से मिल कर मामले को शांत करना चाहता हूं. हमारी एक छोटी सी बेटी भी है. मैं नहीं चाहता कि हमारे आपस के झगड़े में उस मासूम का बचपन झुलस जाए. आप उस का ऐड्रैस दे दें तो बड़ी मेहरबानी होगी. बिलीव मी, आई एम औनेस्ट,’’ मेरा गला भर आया था.

वह कुछ पलों तक मेरी बातों में छिपी सचाई को तोलती रही. शायद उसे मेरी नेकनीयती पर यकीन हो गया था. उस ने कागज पर रेवा का पता लिख कर मुझे थमा दिया.

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मैं हवा में उड़ता वापस आया. सारी रात मुझे नींद नहीं आई. मन में एक ही बात खटक रही थी कि रेवा का सामना कैसे करूंगा मैं  कैसे नजरें मिला सकूंगा उस से  पता नहीं वह मुझे माफ करेगी भी या नहीं  उस के स्वभाव से मैं भलीभांति परिचित था. एक बार जो मन में ठान लेती थी, उसे पूरा कर के ही दम लेती थी. अगर ऐसा हुआ तो…  मन के किसी कोने से उठी व्यग्रता मेरे समूचे अस्तित्व को रौंदने लगी. ऐसा हरगिज नहीं हो सकता. मन में घुमड़ते संशय के बादलों को मैं ने पूरी शिद्दत से छितराने की कोशिश की. वह पत्नी है मेरी. उस ने दिल की गहराइयों से प्यार किया है मुझे. वक्ती तौर पर तो वह मुझ से दूर हो सकती है, हमेशा के लिए नहीं. मेरा मन कुछ हलका हो गया था. उस की सलोनी सूरत मेरी आंखों में तैरने लगी थी.

सुबह उस का पता ढूंढ़ने में कोई खास परेशानी नहीं हुई. मीडियम क्लास की कालोनी में 2 कमरों का साफसुथरा सा फ्लैट था. आसपास गहरी खामोशी का जाल फैला था. बाहर रखे गमलों में उगे गुलाब के फूलों से रेवा की गंध का एहसास हो रहा था मुझे. रोमांच से मेरे रोएं खड़े हो गए थे. आगे बढ़ कर मैं ने कालबैल का बटन दबाया. भीतर गूंजती संगीत की मधुर स्वर लहरियों ने मेरे कानों में रस घोल दिया. कुछ ही पलों में गैलरी में पदचाप उभरी. रेवा के कदमों की आहट मैं भलीभांति पहचानता था. मेरा दिल उछल कर हलक में फंसने लगा था.

‘‘तुम…’’ मुझे सामने खड़ा देख कर वह बुरी तरह चौंक गई थी.

‘‘मैं ने तुम्हें कहांकहां नहीं ढूंढ़ा रेवा. हर ऐसी जगह जहां तुम मिल सकती थीं, मैं भटकता रहा. तुम ने मुझे सोचनेसमझने का अवसर ही नहीं दिया. अचानक ही छोड़ कर चली आईं.’’

‘‘अचानक कहां, बहुत छटपटाने के बाद तोड़ पाई थी तुम्हारा तिलिस्म. कुछ दिन और रुकती तो जीना मुश्किल हो जाता. तुम तो चाहते ही थे कि मर जाऊं मैं. अपनी ओर से तुम ने कोई कोरकसर बाकी भी तो नहीं छोड़ी थी.’’

‘‘मैं बहुत शर्मिंदा हूं रेवा.’’ मेरे हाथ स्वत: ही जुड़ गए थे, ‘‘तुम्हारे साथ जो बदसुलूकी की है, मैं ने उस की काफी सजा भुगत चुका हूं, जो हुआ उसे भूल कर प्लीज क्षमा कर दो मुझे.’’

‘‘लगता है मुझे परेशान कर के अभी तुम्हारा दिल नहीं भरा, इसलिए अब एक नया बहाना ले कर आए हो,’’ उस की आवाज में कड़वाहट घुल गई थी, ‘‘मैं आजिज आ चुकी हूं तुम्हारे इस बहुरुपिएपन से. बहुत रुलाया है मुझे तुम्हारी इन चिकनीचुपड़ी बातों ने. अब और नहीं, चले जाओ यहां से. मुझे कोई वास्ता नहीं रखना है तुम्हारे जैसे घटिया इंसान से.’’

मैं हतप्रभ सा उस की ओर देखता रहा.

‘‘तुम्हारी नसनस से अच्छी तरह वाकिफ हूं मैं. अपने स्वार्थ के लिए तुम किसी भी हद तक गिर सकते हो. तुम्हारा दिया एकएक जख्म मेरे सीने में आज भी हरा है.’’

‘‘मुझे प्रायश्चित्त का एक मौका तो दो रेवा. मैं…’’

‘‘मैं कुछ नहीं सुनना चाहती,’’ मेरी बात काट कर वह बिफर पड़ी, ‘‘तुम्हारी हर एक याद को अपने जीवन से खुरच कर फेंक चुकी हूं मैं.’’

‘‘अंदर आने को नहीं कहोगी ’’ बातचीत का रुख बदलने की गरज से मैं बोला.

‘‘यह अधिकार तुम बहुत पहले खो चुके हो.’’

मैं कांप कर रहा गया.

‘‘ऐसे हालात तुम ने खुद ही पैदा किए हैं आकाश. अपने प्यार को बचाने की हर संभव कोशिश की थी मैं ने. अपना वजूद तक दांव पर लगा दिया पर तुम ने कभी समझने की कोशिश ही नहीं की. जब तक सहन हुआ सहा मैं ने. और कितना सहती और झुकती मैं. झुकतेझुकते टूटने लगी थी. मैं ने अपना हाथ भी बढ़ाया था तुम्हारी ओर इस उम्मीद से कि तुम टूटने से बचा लोगे, पर तुम तो जैसे मुझे तोड़ने पर ही आमादा थे.’’

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मैं मौन खड़ा रहा.

‘‘अफसोस है कि मैं तुम्हें पहचान क्यों न सकी. पहचानती भी कैसे, तुम ने शराफत का आवरण जो ओढ़ रखा था. इसी आवरण की चकाचौंध में तुम्हारे जैसा जीवनसाथी पा कर खुद पर इतराने लगी थी. पर कितनी गलत थी मैं. इस का एहसास शादी के कुछ दिन बाद ही होने लगा था. मैं जैसेजैसे तुम्हें जानती गई, तुम्हारे चेहरे पर चढ़ा मुखौटा हटता गया. जिस दिन मुखौटा पूरी तरह हटा मैं हतप्रभ रह गई थी तुम्हारा असली रूप देख कर,’’ वह अतीत में झांकती हुई बोली.

‘‘शुरुआत में तो सब कुछ ठीक रहा. फिर तुम अकसर कईकई दिनों तक गायब रहने लगे. बिजनैस टूर की मजबूरी बता कर तुम ने कितनी सहजता से समझा दिया था मुझे. मैं भी इसी भ्रम में जीती रहती, अगर एक दिन अचानक तुम्हें, तुम्हारी सेक्रेटरी श्रुति की कमर में बांहें डाले न देख लिया होता. रीना के आग्रह पर मैं  सेमिनार में भाग लेने जिस होटल में गई थी, संयोग से वहीं तुम्हारे बिजनैस टूर का रहस्य उजागर हो गया था. तुम्हारी बांहों में किसी और को देख कर मैं जैसे आसमान से गिरी थी, पर तुम्हारे चेहरे पर क्षोभ का कोई भाव नहीं था. मैं कुछ कहती, इस से पहले ही तुम ने वहां मेरी उपस्थिति पर हजारों प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए थे. मैं चाहती तो तुम्हारे हर बेहूदा तर्क का करारा जवाब दे सकती थी, पर तुम्हारी रुसवाई में मुझे मेरी ही हार नजर आती थी. मेरी खामोशी को कमजोरी समझ कर तुम और भी मनमानी करने लगे थे. मैं रोतीतड़पती तुम्हारे इंतजार में बिस्तर पर करवटें बदलती और तुम जाम छलकाते हुए दूसरों की बांहों में बंधे होते.’’

‘‘वह गुजरा हुआ कल था, जिसे मैं कब का भुला चुका हूं,’’ मुश्किल से बोल पाया मैं.

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Serial Story: गुनाह- भाग 3

लेखक- शिव अवतार पाल   

‘‘तुम्हारे लिए ये सामान्य सी बात हो सकती है, पर मेरा तो सब कुछ दफन हो गया है, उस गुजरे हुए कल के नीचे. कैसे भूल जाऊं उन दंशों को, जिन की पीड़ा में आज भी सुलग रही हूं मैं. याद करो अपनी शादी की सालगिरह का वह दिन, जब तुम जल्दी चले गए थे. देर रात तक तुम्हारा इंतजार करती रही मैं. हर आहट पर दौड़ती हुई मैं दरवाजे तक जाती थी. लगता था कहीं आसपास ही हो तुम और जानबूझ कर मुझे परेशान कर रहे हो. तुम लड़खड़ाते हुए आए थे. मैं संभाल कर तुम्हें बैडरूम में ले गई थी. खाने के लिए तुम ने इनकार कर दिया था. शायद श्रुति के साथ खा कर आए थे. मैं पलट कर वापस जाना चाहती थी कि तुम ने भेडि़ए की तरह झपट्टा मार कर मुझे दबोच लिया था. तुम देर तक नोचतेखसोटते रहे थे मुझे… और तुम्हारी वहशी गिरफ्त में असहाय सी तड़पती रही थी मैं. उस वक्त तुम्हारे चेहरे पर मुझे एक और चेहरा नजर आया था और वह था राक्षस का चेहरा. तुम्हारी दरिंदगी से मेरी आत्मा तक घायल हो गई थी. बोलो, कैसे भूल जाऊं मैं यह सब ’’

‘‘बस करो रेवा,’’ कानों पर हाथ रख कर मैं चीत्कार कर उठा, ‘‘मेरे किए गुनाह विषैले सर्प बन कर हर पल मुझे डसते रहे हैं. अब और सहन नहीं होता. प्लीज, सिर्फ एक बार माफ कर दो मुझे. वादा करता हूं भविष्य में तुम्हें तकलीफ नहीं होने दूंगा.

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‘‘तुम पहले ही मुझे इतना छल चुके हो कि अब और गुंजाइश बाकी नहीं है. सच तो यह है कि तुम्हारे लिए मेरी अहमियत उस फूल से अधिक कभी नहीं रही, जिसे जब चाहा मसल दिया. तुम ने कभी समझने की कोशिश ही नहीं की कि बिस्तर से परे भी मेरा कोई वजूद है. मैं भी तुम्हारी तरह इंसान हूं. मेरा शरीर भी हाड़मांस से बना हुआ है, जिस के भीतर दिल धड़कता है और जो तुम्हारी तरह ही सुखदुख का अनुभव करता है.’’

‘‘इस बीच रीना ने मेरी बहुत सहायता की. जीने की प्रेरणा दी. कदमकदम पर हौसला बढ़ाया. वह भावनात्मक संबल न देती तो कभी की बिखर गई होती. अपना अस्तित्व बचाने के लिए मैं अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती थी, उस ने भरपूर साथ दिया. तुम ने कभी नहीं चाहा मैं नौकरी करूं. इस के लिए तुम ने हर संभव कोशिश भी की. अपने बराबर मुझे खड़ी होते देख तुम विचलित होने लगे थे. दरअसल मेरे आंसुओं से तुम्हारा अहं तुष्ट होता था, शायद इसीलिए तुम्हारी कुंठा छटपटाने लगी थी.’’

‘‘मुझे अपने सारे जुर्म स्वीकार हैं. जो चाहे सजा दो मुझे, पर प्लीज अपने घर लौट चलो,’’ मैं असहाय भाव से गिड़गिड़ाता हुआ बोला.

‘‘कौन सा घर ’’ वह आपे से बाहर हो गई, ‘‘ईंटपत्थर की बेजान दीवारों से बना वह ढांचा, जहां तुम्हारे तुगलकी फरमान चलते हैं  तुम्हें जो अच्छा लगता वही होता था वहां. बैडरूम की लोकेशन से ले कर ड्राइंगरूम की सजावट तक सब में तुम्हारी ही मरजी चलती थी. मुझे किस रंग की साड़ी पहननी है… किचन में कब क्या बनना है… इस का निर्णय भी तुम ही लेते थे. वह सब मुझे पसंद है भी या नहीं, इस से तुम्हें कुछ लेनादेना नहीं था. मैं टीवी देखने बैठती तो रिमोट तुम झपट लेते. जो कार्यक्रम मुझे पसंद थे उन से तुम्हें चिढ़ थी.

‘‘वहां दूरदूर तक मुझे अपना अस्तित्व कहीं भी नजर नहीं आता था… हर ओर तुम ही तुम पसरे हुए थे. मेरे विचार, मेरी भावनाएं, मेरा अस्तित्व सब कुछ तिरोहित हो गया तुम्हारी विक्षिप्त कुंठाओं में. तुम्हारी हिटलरशाही की वजह से मेरी जिंदगी नर्क से भी बदतर बन गई थी. उस अंधेरी कोठरी में दम घुटता था मेरा, इसीलिए उस से दूर बहुत दूर यहां आ गई हूं ताकि सुकून के 2 पल जी सकूं… अपनी मरजी से.’’

‘‘अब तुम जो चाहोगी वही होगा वहां. तुम्हारी मरजी के बिना एक कदम भी नहीं चलूंगा मैं. तुम्हारे आने के बाद से वह घर खंडहर हो गया है. दीवारें काट खाने को दौड़ती हैं. बेटी की किलकारियां सुनने को मन तरस गया है. उस खंडहर को फिर से घर बना दो रेवा,’’ मेरा गला भर आया था.

‘‘अपनी गंदी जबान से मेरी बेटी का नाम मत लो,’’ उस की आवाज से नफरत टपकने लगी, ‘‘भौतिक सुख और रासायनिक प्रक्रिया मात्र से कोई बाप कहलाने का हकदार नहीं हो जाता. बहुत कुछ कुरबान करना पड़ता है औलाद के लिए. याद करो उन लमहों को, जब मेरे गर्भवती होने पर तुम गला फाड़फाड़ कर चीख रहे थे कि मेरे गर्भ में तुम्हारा रक्त नहीं, मेरे बौस का पाप पल रहा है. तुम्हारे दिमाग में गंदगी का अंबार देख कर मैं स्तब्ध रह गई थी. कितनी आसानी से तुम ने यह सब कह दिया था, पर मैं भीतर तक घायल हो गई थी तुम्हारी बकवास सुन कर. जी तो चाहा था कि तुम्हारी जबान खींच लूं, पर संस्कारों ने हाथ जकड़ लिए थे मेरे.

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‘‘तुम ऐबौर्शन चाहते थे. अपनी बात मनवाने के लिए जुल्मोजोर का हथकंडा भी अपनाया पर मैं अपने अंश को जन्म देने के लिए दृढ़संकल्प थी. प्रसव कक्ष में मैं मौत से संघर्ष कर रही थी और तुम श्रुति के साथ गुलछर्रे उड़ा रहे थे. एक बार भी देखने नहीं आए कि मैं किस स्थिति में हूं. तुम तो चाहते ही थे कि मर जाऊं मैं, ताकि तुम्हारा रास्ता साफ हो जाए. इस मुश्किल घड़ी में रीना साथ न देती तो मर ही जाती मैं.’’

आंखों में आंसू लिए मैं अपराधी की भांति सिर झुकाए उस की बात सुनता रहा.

‘‘मुझे परेशान करने के तुम ने नएनए तरीके खोज लिए थे. तुम मेरी तुलना अकसर श्रुति से करते थे. तुम्हारी निगाह में मेरा चेहरा, लिपस्टिक लगाने का तरीका, हेयर स्टाइल, पहनावा और फिगर सब कुछ उस के आगे बेहूदे थे. मेरी हर बात में नुक्स निकालना तुम्हारी आदत में शामिल हो गया था. मूर्ख, पागल, बेअक्ल… तुम्हारे मुंह से निकले ऐसे ही जाने कितने शब्द तीर बन कर मेरे दिल के पार हो जाते थे. मैं छटपटा कर रह जाती थी. भीतर ही भीतर सुलगती रहती थी तुम्हारे शब्दालंकारों की अग्नि में. इतनी ही बुरी लगती हूं तो शादी क्यों की थी मुझ से  मेरे इस प्रश्न पर तुम तिलमिला कर रह जाते थे.

‘‘उकता गई थी मैं उस जीवन से. ऐसा लगता था जैसे किसी ने अंधेरी कोठरी में बंद कर दिया हो. मेरी रगरग में विषैले बिच्छुओं के डंक चुभने लगे थे. जहर घुल गया था मेरे लहू में. सांस घुटने लगी थी मेरी. उस दमघोंटू माहौल में मैं अपनी बेटी का जीवन अभिशप्त नहीं कर सकती. उपेक्षा के जो दंश मैं ने झेले हैं, उस की छाया मुन्नी पर हरगिज नहीं पड़ने दूंगी. बेहतर है तुम खुद ही चले जाओ, वरना तुम जैसे बेगैरत इंसान को धक्के मार कर बाहर का रास्ता दिखाना भी मुझे अच्छी तरह आता है. एक बात और समझ लो,’’ मेरी ओर उंगली तान कर वह शेरनी की तरह गुर्राई. ‘‘भविष्य में भूल कर भी इधर का रुख किया तो बाकी बची जिंदगी जेल में सड़ जाएगी,’’ मेरी ओर देखे बिना उस ने अंदर जा कर इस तरह दरवाजा बंद किया, जैसे मेरे मुंह पर तमाचा मारा हो.

मैं कई पलों तक किंकर्तव्यविमूढ सा खड़ा रहा. इंसान के गुनाह साए की तरह उस का पीछा करते हैं. लाख कोशिशों के बाद भी वह परिणाम भुगते बगैर उन से मुक्त नहीं हो सकता. कल मैं ने जिस का मोल नहीं समझा, आज मैं उस के लिए मूल्यहीन था. ये दुनिया कुएं की तरह है. जैसी आवाज दोगे वैसी ही प्रतिध्वनि सुनाई देगी. जो जैसे बीज बोता है वैसी ही फसल काटना उस की नियति बन जाती है. तनहाई की स्याह सुरंगों की कल्पना कर मेरी आंखों में मुर्दनी छाने लगी. आवारा बादल सा मैं खुद को घसीटता अनजानी राह पर चल दिया. टूटतेभटकते जैसे भी हो, अब सारा जीवन मुझे अपने गुनाहों का प्रायश्चित्त करना था.

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इमोशनल अत्याचार: क्या पैसों से प्यार करने वाली नयना को हुई पति की कदर

 

 

 

Serial Story: इमोशनल अत्याचार – भाग 3

‘‘मैं अभी तकलीफ में हूं… बातें करने में असमर्थ हूं. तुम चाहो तो बाद में फोन करूंगा.’’

‘‘सुनो, जरा अपना क्रैडिट कार्ड की लिमिट बढ़वा दो मु झे एक बड़ी स्क्रीन वाला टीवी लेना है और तुम्हारे कार्ड की लिमिट पूरी हो गई है. अब मुंबई जैसे शहर के खर्चे हजार होते हैं तुम क्या सम झोगे? मैं अपनी दोस्त के साथ दुकान गई थी और कार्ड डिक्लाइन हो गया. मु झे बेहद शर्मिंदगी महसूस हुई. तुम्हें मेरी जरा भी फिक्र नहीं है…’’

नयना बोल रही थी और जतिन का दिल छलनी हो रहा था कि उस ने एक बार भी मेरी खैरियत नहीं पूछी. सिर्फ और सिर्फ पैसों का ही नाता रह गया है क्या? चूंकि सारी बातें प्रेरणा के समक्ष ही हो रही थीं, सो उस का भी मन पसीज गया. शाम होतेहोते जतिन के मातापिता ही रायपुर से रांची होते हुए पिपरवार पहुंच गए. उन के आ जाने के बाद प्रेरणा भी थोड़ी निश्चिंत हुई और कालोनी के और लोग भी. जतिन की मां को तो पता ही नहीं था कि उन की नवब्याहता बहू उन के बेटे के साथ न रह कर मुंबई रहने लगी है. बेटे की शादी के बाद उन्हें ज्यादा पूछताछ उन की गृहस्थी में सेंध सरीखी लगती थी. जतिन ने भी घरपरिवार में किसी से इस बात की चर्चा तक नहीं की कि नयना अब उस के साथ नहीं रह रही. यह बात उसे एक तरह से खुद की हार सम झ आती थी और वह इस दर्द को दबाए घुल रहा था.

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अब जब मां के सामने सारी बातें स्पष्ट हो गईं तो उस का मन भी कुछ हलका हुआ और वह अपने टूटे पैर और चोटिल दिलदिमाग व शरीर की तरफ उत्प्रेरित हुआ. अपने शुभचिंतक और मददगार भी दिखने लगे. जतिन की मां ने नयना को फोन लगा कर कहा कि वह पिपरवार आ कर उस की देखभाल करे. उन्होंने उसे भलाबुरा भी कहा कि पति की दुर्घटना के विषय में जान कर भी वह नहीं आई.

नयना ने भोलेपन से कहा, ‘‘मम्मीजी, अब मेरे पास इतने पैसे अभी नहीं हैं कि मैं मुंबई से रांची फ्लाइट का किराया भर सकूं. जतिन के कार्ड की लिमिट भी पार हो गई है इस महीने.’’

जतिन के मातापिता सिर पकड़ कर बैठ गए कि कैसी मानसिकता है उस की? खैर, उसे टिकट भेजा गया और एहसान जताती हुए नयना आ भी गई. महीनों बाद अपनी  पत्नी को घर में देख जतिन खिल उठा. उसे शुरुआती दिनों की याद आने लगी जब उस ने और नयना ने गृहस्थी की शुरूआत की थी. परंतु नयना के नखरों का अंत नहीं था, साधारण से परिवार की साधारण सी नौकरी करने वाली लड़की पति के पैसों पर ऐश करती उच्चाकांक्षी हो उन्मुक्त हो चुकी थी. घर में घुसते हुए ही उस की उस जगह से शिकायतों का पुलिंदा अनावृत होने लगा था. जतिन का ड्राइवर, नयना को रिसीव करने गया. उस के जूनियर के समक्ष ही वह कोयला वाली सड़कों, सूने रास्ते और पसरी मनहूसियत का रोना ले कर बैठ गई.

जतिन बिस्तर पर है, लाचार है, इस बात का भी एहसास उसे कुछ समय बाद ही चला. फिर उसे बढ़े हुए कामों से भी परेशानी होने लगी. सासससुर के समक्ष ही वह अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करने लगी. उस की आने की खबर सुन, अगले दिन जतिन के सहकर्मी और कालोनी की महिलाएं भी मिलने आ गईं. वैसे भी सब नियमित हालचाल तो जतिन का करते ही थे.

सब ड्राइंगरूम में बैठे ही थे कि नयना कमरे में जतिन को ऊंचे स्वर में कहने लगी, ‘‘यही बात मु झे पसंद नहीं… यहां हर वक्त लोग नाक घुसाए रहते हैं, प्राइवेसी किस चिडि़या का नाम है मानो खबर ही नहीं, बाई द वे, वह लड़की नहीं दिखाई दे रही है, जिस का हाथ पकड़ तुम ने केक काटा था?’’

‘‘नयना, ऐसे न बोलो जब मेरा ऐक्सिडैंट हुआ तो इन्हीं लोगों ने मु झे संभाला था और प्रेरणा का तो तुम्हें शुक्रगुजार होना चाहिए.’’

नयना के आने के 2-3 दिनों के बाद ही जतिन के मातापिता रायपुर लौट गए ताकि बेटेबहू एकांत में अपनी टूटती गृहस्थी की मौली को फिर से लपेट लें.

मां ने एक बार कहा भी, ‘‘जतिन तू क्यों नहीं मुंबई या किसी अन्य महानगर में नौकरी खोज लेता है ताकि बहू भी खुश रह सके?’’

‘‘मां मैं ने एक माइनिंग यानी खनन अभियंता की पढ़ाई की है और मेरी नौकरी हमेशा ऐसी जगहों पर ही होगी. अब खदान तो महानगरों में नहीं न होंगे?’’

जतिन की बात सही ही थी. अगले 3-4 दिनों में ही महानगरीय पंछी के  पंख फड़फड़ाने को व्याकुल होने लगे. उसे मुंबई की चकाचौंध की कमी महसूस होने लगी.  झारखंड के उस अंदरूनी भाग की हरियाली और सघन वन के बीच सुंदर कालोनी शांत वातावरण और खुशमिजाज लोग मुंह चिढ़ाते प्रतीत होते. बंगला, गाड़ी, ड्राइवर, इज्जत उसे नहीं लुभाते थे. लोगों की परवाह और स्नेह उसे बंधन लगने लगा. वह वहां से निकलने के बहाने खोजने लगी. हां, सभी से वह उस लड़की के विषय में जरूर पूछती जो केक कटवाते वक्त साथ थी. पर किसी ने उसे कुछ भी नहीं बताया, प्रेरणा के विषय में. उलटे लोगों को लगने लगा कि यदि नयना की जगह प्रेरणा से जतिन की शादी हुई होती तो ज्यादा सफल और सुखी होती उस की जिंदगी.

‘‘जतिन मैं ने बुधिया को सबकुछ सम झा दिया है, वह तुम्हारा खयाल रख लेगी. मु झे वापस जाना ही होगा, यहां मेरा दम घुटता है. मैं 2-3 महीनों में फिर आती हूं. तुम तो जानते ही हो मु झे वर्क फ्रौम होम बिलकुल पसंद नहीं,’’ कहते हुए नयना अपना सामान समेटने लगी.

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जतिन बिस्तर पर प्लास्टर वाले पैर लिए उसे देख रहा था, जिसे कटने में अभी 5 हफ्ते शेष थे. भावुक, संवेदनशील जतिन पत्नी के इस अवतार को देख अचंभित हो रहा था. दिल की गहराई में बहुत कुछ टूट रहा था, बिखर रहा था. उस ने जाती हुई नयना को इस बार कुछ नहीं कहा, बल्कि करवट ले उस की तरफ पीठ कर दी ताकि उस के आंसुओं को देख नयना उसे कमजोर न सम झ ले और फिर और ज्यादा इमोशनल अत्याचार न करने लगे.

जतिन ने इस बार उसे दिल से ही नहीं जिंदगी से भी विदा कर दिया. इस एक पहिए की गृहस्थी से उस का भी मन उचाट हो गया. नयना ने सोचा भी नहीं था कि उस के जाते ही राघव उसे तलाक के पेपर भिजवा देगा. कहां वह उस के पैसों पर ऐश करने की सोच रही थी, सीधासाधा सा पढ़ाकू गंवार टाइप का लड़का कुछ ऐसा कर जाएगा जो उस के स्वप्नों पर वज्रपात सरीखा होगा. नयना ने सम झा था कि वह इस तरह जतिन को इमोशनल मूर्ख बना अपनी मनमानी करती रहेगी. ठुकराए जाने के बाद उसे उस छप्पन भोग थाली का महत्त्व याद आ रहा था. मगर जिंदगी बारबार मौके नहीं देती है.

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Serial Story: इमोशनल अत्याचार – भाग 1

नयना अपने हाथों में लिए उस कागज के टुकडे़ को न जाने कब से निहार रही थी. उसे तो खुश होना चाहिए था पर न जाने क्यों नहीं हो पा रही थी. जब तक कुछ हासिल नहीं होता है तब तक एक जुनून सा हावी रहता है जेहन पर. इस कागज के टुकड़े ने मानो उस का सर्वस्व हर रखा था. पर क्या करे इस शाम को जब हर दिन की वह जद्दोजहद एक  झटके में समाप्त हो गई. अब जो भी हो इस शाम को इस हासिल का जश्न तो बनता ही है.

अगले ही पल गहरे मेकअप तले खुद को, खुद की भावनाओं को छिपाए एक डिस्को में जा पहुंची. यही तो चाहिए था उसे. इसी को तो पाना था उसे, पर फिर ये आंसू क्यों निकल रहे हैं? क्यों नहीं  झूम रही? क्यों नहीं थिरक रही? क्यों यह शोर, ये गाने जिन के लिए वह बेताब थी, आज कर्णफोड़ू और असहनीय महसूस हो रहे हैं?

यही चाहिए था न, फिर पैर थिरकने की जगह जम क्यों गए हैं… उफ…

फिर ये अश्रु, यह मूर्ख बनाती बूंदाबांदी, जब देखो उसे गुमराह करने को टपक पड़ती है. यह वही बूंदाबांदी है जिस ने नयना के जीवन को पेचीदा बना दिया है. कहते हैं ये आंसू मन के अबोले शब्द होते हैं, पर क्षणक्षण बदलते मन के साथ ये भी अपनी प्रकृति बदलते रहते हैं और मानस की उल झनों को जलेबीदार बना बावला साबित कर देते हैं. तेज बजता संगीत, हंसतेचिल्लाते लोग, रंगीन रोशनी और रहस्यमय सा अंधकार का बारबार आनाजाना, बिलकुल उस की मनोस्थिति की तरह.

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काश यह शोर कम होता, काश थोड़ी नीरवता होती.

अजीबोगरीब विक्षिप्त सी सोच होती जा रही है उस क. मन उन्हीं छूटी गलियों की तरफ क्यों भाग रहा है, जिन्हें छोड़ने को अब तक तत्पर थी, आतुर थी.

नयना की शादी एक अभियंता जतिन से हुई थी, जो देश के एक टौप इंजीनियरिंग कालेज से पढ़ा हुआ होनहार कैंडिडेट था उस वक्त अपनी बिरादरी में. नयना ने भी इंजीनियरिंग की ही डिगरी हासिल की थी और किसी आईटी फर्म के लिए काम करती थी. शादी के वक्त सबकुछ बहुत रंगीन था, शादी खूब धूमधड़ाके से हुई थी नयना के शहर मुंबई से. शादी के बाद वह विदा हो कर जतिन के शहर रायपुर गई और फिर दोनों हनीमून मनाने चले गए.

जतिन चूंकि खनन अभियंता था तो लाजिम था कि उस की पोस्टिंग खदान के पास ही होगी. वह  झारखंड के कोयला खदान में कार्यरत था और पिपरवार नामक कोलयरी में उस की पोस्टिंग थी. कोयला खदान के पास ही सर्वसुविधा संपन्न कालोनी थी, जहां अफसरों और श्रमिकों के परिवार कंपनी के क्वार्टरों में रहते थे. जतिन को भी एक बंगला मिला हुआ था, जिस में एक छोटा सा बगीचा भी था और सर्वैंट क्वाटर्स भी. हनीमून से लौट कर जतिन बड़ी खुशी से नयना को ले कर पिपरवार अपने बंगले पर अपनी गृहस्थी शुरू करने गया. अब तक वह गैस्ट हाउस में ही रहता था सो अब पत्नी और घर दोनों की खुशी उसे प्रफुल्लित कर रही थी. जिंदगी के इस नवीकरण से उत्साहित जतिन अपने क्वार्टर को घर में तबदील करने में लग गया. नयना भी उसी उत्साह से इस नूतनता का आनंद लेने लगी.

नवविवाहित जोड़े को हर दिन कोई न कोई कालोनी में अपने घर खाने पर निमंत्रित करता था. शहर से दूर उस छोटी सी कालोनी में सभी बड़ी आत्मीयता से रहते थे. आपस के सौहार्द और जुड़ाव की जड़ें गहरी थीं, किसी सीनियर अफसर की पत्नी ने खुद को नयना की भाभी बता एक रिश्ता बना लिया तो किसी ने बहन, तो किसी ने बेटी. नयना को 1 हफ्ते तक अपनी रसोई शुरू करने की जरूरत ही नहीं पड़ी. कोई न कोई इस बात का ध्यान रख लेता था.

इस बीच एक बूढ़ी महिला बुधनी को उन्होंने काम पर रख लिया जो बंगले से लगे सर्वैंट क्वार्टरों में रहने लगी. नयना भी वर्क फ्रौम होम करने लगी.

पिपरवार से नजदीकी शहर रांची कोई 80 किलोमीटर दूर था. एक महीने में ही कई बार नयना जिद्द कर वहां के कई चक्कर काट चुकी थी. जबकि जरूरत की सभी दुकानें कालोनी के शौपिंग सैंटर में उपलब्ध थीं. मगर रांची तो रांची ही था, एक सुंदर पहाड़ी नगर मुंबई की चकाचौंध वहां नदारद थी. 2 महीने होतेहोते नयना को ऊब होने लगी, औफिसर क्लब में हफ्ते में एक बार होने वाली पार्टी में उस का मन न लगता. वहां का घरेलू सा माहौल उसे रास न आता. जतिन भी दिनोंदिन व्यस्त होता जा रहा था, खदान की ड्यूटी बहुत मेहनत वाली होती है और जोखिम किसी सैनिक से कम नहीं. थक कर चूर, कोयले की धूल से अटा जब वह लौटता तो नयना का मन वितृष्णा से भर जाता. जतिन उसे बताता खदान में चलने वाले बड़ेबड़े डोजरडंपरों के बारे में कि कैसे वे गहरी खदानों में चलते हैं, कैसे कोयला काटा जाता है. उन भारीभरकम मशीनों के साथ काम करने के जोखिम की भी चर्चा करता या बौस की शाबाशी या डांट इत्यादि का जिक्र करता तो नयना उबासी लेने लगती. उस के अनमनेपन को भांपते हुए जतिन अगली छुट्टी का प्रोग्राम बनाने लगता.

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मगर जो था सो था ही, पैसे आ तो रहे थे जो नयना को बेहद पसंद थे पर सचाई यह

थी कि वह महानगरीय जीवन की कमी महसूस करने लगी थी. उसे आश्चर्य होता कि यहां रहने वाली दूसरी स्त्रियां खुश कैसे रहती हैं. वहां के शांत वातावरण में उसे सुख नहीं रिक्तता महसूस होने लगी. न कोई मौल, न कोई मल्टीप्लैक्स, भला कोई इन सब के बिना रहे कैसे?

वह इतवार था जब उन दोनों ने शादी के 2 महीने पूरा होने की खुशी में केक काटा था और 5-6 कुलीग्स को खाने पर बुलाया था. रात में वह सोशल मीडिया पर अपनी सहेली की तसवीरें देख रही थी, जो उस ने दिल्ली के किसी मौल में घूमते हुए खींची थीं.

अचानक उसे अपना जीवन बरबाद लगने लगा और बहुत खराब मूड के साथ उस ने जतिन को जता भी दिया. जतिन ने हर तरीके से अपने प्यार को जताने की खूब कोशिश की पर नयना पर मानो भूत सवार था.

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Serial Story: इमोशनल अत्याचार – भाग 2

नयना को उस की मां ने पहले ही चेताया था कि जतिन की पोस्टिंग अंदरूनी जगहों पर ही रहेगी. पर उस वक्त तो नयना को जतिन की मोटी सैलरी ही आकर्षित कर रही थी. अब उसे सबकुछ फीका और अनाकर्षक लगने लगा था. वहां के लोग, वह जगह और खुद जतिन भी. प्यार का खुमार उतर चुका था. उस इतवार देर रात उस ने ऐलान कर ही दिया कि वह हमेशा यहां नहीं रह सकती है.

कुछ ही दिनों के बाद जब उस ने जतिन को सूचना दी कि उस की कंपनी अब वर्क फ्रौम होम के लिए मना कर रही है और उसे अब मुंबई जा कर औफिस जाते हुए काम करना होगा, तो जतिन को जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ उस की खुशी जतिन से छिप नहीं रही थी. उस का प्रफुल्लित चेहरा उसे उदास कर रहा था. नयना बारबार कह रही थी कि वह आती रहेगी बीचबीच में. जतिन उसे रांची एअरपोर्ट तक छोड़ने गया. मुंबई में रहने के लिए फ्लैट और बाकी इंतजामों के लिए भी उस ने पैसे भेजे. अब नयना की नौकरी में इतना दम नहीं था कि वह ज्यादा शान और शौकत से रह सके.

अब सोशल मीडिया नयना की मुंबई  के खासखास जगहों पर क्लिक की तसवीरों से पटने लगा. वह जितना खुश दिख रही थी, राघव उतना ही उदास और दुश्चिंता से घिरा जा रहा था. उसे अपनी शादी का अंधकार भविष्य स्पष्ट नजर आने लगा था. बूढ़ी नौकरानी जो पका देती जतिन जैसेतैसे उसे जीवन गुजार रहा था. कालोनी की सभी महिलाएं नयना को कोसतीं कि एक अच्छेभले लड़के का जीवन बिगाड़ दिया उस ने. इंसान कार्यक्षेत्र में भी बढि़या तभी परफौर्म कर सकता है जब वह मानसिक रूप से भी स्थिर हो. जतिन हमेशा दुखीदुखी और उदास सा रहता था, कोयला खदान में उसे अति सतर्कता की जरूरत थी जबकि वह उस के उलट भाव से जी रहा था.

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उस दिन खदान में माइंस इंस्पैक्शन के लिए कोई टीम आई हुई थी. नयना को लौटे 5 महीने हो चुके थे. इस बीच जतिन 2 बार मुंबई जा चुका था, पर पता नहीं क्यों वह नयना के व्यवहार में खुद के लिए कोई प्रेम महसूस नहीं कर पाया था. अपनी उधेड़बुन में वह हैरानपरेशान सा टीम के सवालों के जवाब दे रहा था. सही होते हुए भी वह कुछ गलत जानकारी देने लगा था. उस के साथ ही कंपनी जौइन करने वाली पर्सनल मैनेजर प्रेरणा उस की बातों को संभालते हुए उस की बातों को बारबार सुधारने का प्रयास कर रही थी. प्रेरणा जतिन की मनोस्थिति भांप रही थी, परंतु आज जतिन कुछ ज्यादा ही परेशान दिख रहा था.

तभी खदान के ऊंचेऊंचे रास्ते पर जतिन का पैर फिसल गया और वह खुदी हुई ढीली कोयले की ढेरी से कई फुट नीचे लुढ़क गया. बौस ने प्रेरणा को इशारा किया कि वह जतिन को संभाले, डाक्टर और ऐंबुलैंस की व्यवस्था करे और वे खुद आधिकारिक टीम को यह बोलते आगे बढ़ गए कि जतिन हमारे सब से काबिल अफसरों में से एक है.

कोयला खदानों में छोटी से छोटी घटनादुर्घटना को भी बेहद संजीदगी से लिया जाता है ताकि बड़ी दुर्घटना न घटे. जतिन की दाहिने पैर की हड्डी टूट गई थी और दोनों हाथों में भी अच्छीखासी चोट लगी थी. चेहरे पर भी काफी खरोंचें लगी थीं. कुल मिला कर वह अब बिस्तर पर आ चुका था.

डिसपैंसरी से छुट्टी होने तक प्रेरणा उस के साथ ही रही. कुछ और मित्रगण भी जुट गए थे. घर पहुंचा तब तक कालोनी की महिलाओं तक उस की दुर्घटना की खबर पहुंच गई थी. यही तो खूबसूरती थी उस छोटी सी जगह की कि सब एकदूसरे दुखसुख में सहयोग करते. नयना को यही बात नागवार गुजरती. वह इसे निजता का हनन सम झती. खैर, प्रेरणा को बातोंबातों में पता लग गया था कि जतिन का उस दिन जन्मदिन था और उस की नवविवाहिता ने उसे 2 दिनों से फोन भी नहीं किया था. हालांकि उस के क्रेडिट कार्ड से अच्छीखासी रकम खर्च होने का मैसेज आ चुका था. बूढ़ी महरी तो घबरा ही गई कि वह किस तरह साहब को संभाले. खैर, अगलबगल वाली पड़ोसिनों ने उस दिन के भोजन का इंतजाम कर दिया. रात में प्रेरणा ने एक केक और कुछ मित्रों को साथ ला कर जतिन की उदासी दूर करने की असफल कोशिश की.

इस बीच जतिन ने तो नहीं पर किसी पड़ोसिन ने केक और

उस गैटटुगैदर की तसवीरें नयना को भेज दीं. आश्चर्यजनक रूप से नयना ने तुरंत उन्हें मैसेज कर पूछा कि वह लड़की कौन है जो जतिन की बगल में बैठी केक कटवाने में मदद कर रही है. पड़ोसिन को यह बात बेहद नागवार गुजरी कि उस का ध्यान जतिन के प्लास्टर लगे पैर या चोटिल पट्टियों से बंधे हिस्सों की तरफ न जा कर इस बात पर गया.

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अनुभवी नजरों ने भांप लिया था कि जतिन की पत्नी नौकरी का बहाना कर मुंबई रहने लगी है और उस के वियोग में जतिन बावला हुए जा रहा है. प्रेरणा जतिन के प्रति एक अतिरिक्त हमदर्दी का भाव रखने लगी थी. जहां कालोनी में सब शादीशुदा थे वहीं प्रेरणा कुंआरी और जतिन जबरदस्ती कुंआरों वाली जिंदगी गुजार रहा था. उस दिन देर रात तक उसे दवा इत्यादि दे कर ही वह अपने घर गई थी, अगले दिन सुबहसुबह नाश्ता और चाय की थर्मस ले हाजिर हो चुकी थी, चूंकि जतिन खुद से दवा लेने में भी असमर्थ था.

प्रेरणा महरी का सहारा ले कर उसे बैठा ही रही थी कि नयना का फोन आ गया, ‘‘कल तो खूब पार्टी मनी है, कौन है वह जो तुम्हारा हाथ पकड़ केक कटवा रही थी? मेरी पीठ पीछे तुम इस तरह गुलछर्रे उड़ाओगे मैं सोच भी नहीं सकती. दिखने में तो बहुत भोले मालूम होते हो…’’

नयना के व्यंग्यात्मक तीर चल रहे थे और जतिन का दिल छलनी हुए जा रहा था. सारी बातें फोन की परिधि को लांघती हुई पूरे कमरे में तरंगित हो रही थीं. प्रेरणा के सामने उस की गृहस्थी की पोल खुल चुकी थी जिसे उस ने बमुश्किल एक  झूठा मुलम्मा चढ़ा कर छिपाया हुआ था.

जतिन हूंहां के सिवा कुछ नहीं बोल पा रहा था और नयना सीनाजोरी की सारी हदें पार करती जा रही थी. कौन कहता है कि नारी बेचारी होती है? कम से कम नयना के उस रूखे व्यवहार से तो ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा था. न संवेदनशीलता और न ही स्नेहदुलार.

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क्षोभ- शादी के नाम पर क्यों हुआ नितिन का दिल तार-तार

यह कहना सही नहीं होगा कि नितिन की जिंदगी में खुशी कभी आई ही नहीं. खुशी आई तो जरूर, लेकिन बिलकुल बरसात की उस धूप की तरह, जो तुरंत बादलों से घिर जाती है. जहां धूप खिली वहीं बादलों ने आ कर चमक धुंधली कर दी, यानी जैसे ही मुसकराहट कहकहों में बदली वैसे ही आंखों ने बरसना शुरू कर दिया.

यों तो नितिन के पापा नामीगिरामी डाक्टर थे, पैसे की कोई कमी नहीं थी, फिर भी परिवार इतना बड़ा था कि सब के शौक पूरे करना या सब को हमेशा उन की मनचाही चीज दिलाना मुश्किल होता था. इस मामले में नितिन कुछ ज्यादा ही शौकीन था और अपने शौक पूरे करने का आसान तरीका उसे यह लगा कि फिलहाल पढ़ाई में दिल लगाए ताकि जल्दी से अच्छी नौकरी पा कर अपने सारे अरमान पूरे कर सके.

कुछ सालों में ही नितिन की यह तमन्ना पूरी हो गई. बढि़या नौकरी तो मिल गई, लेकिन नौकरी मिलने की खुशी में दी गई पार्टी में पापा का अचानक हृदयगति रुक जाने के कारण देहांत हो गया. खुशियां गम में बदल गईं.

7 भाईबहनों में नितिन तीसरे नंबर पर था. बस एक बड़ी बहन और भाई की शादी हुई थी बाकी सब अभी पढ़ रहे थे.

नितिन ने शोकाकुल मां को आश्वस्त किया कि अब छोटे भाईबहनों की पढ़ाई और शादी की जिम्मेदारी उस की है. सब को सेट करने के बाद ही वह अपने बारे में सोचेगा यानी अपनी गृहस्थी बसाएगा और उस ने यह जिम्मेदारी बखूबी निबाही भी. अपने शौक ही नहीं कैरिअर को भी दांव पर लगा दिया.

हालांकि दूसरे शहरों में ज्यादा वेतन की अच्छी नौकरियां मिल रही थीं, लेकिन नितिन ने हमेशा अपने शहर में रहना ही बेहतर समझा. कारण, एक तो रहने को अपनी कोठी थी, दूसरे मां और छोटे भाईबहन उस के साथ रहने से मानसिक रूप से सुरक्षित और सहज महसूस करते थे.

अत: वह मेहनत कर के वहीं तरक्की करता रहा. वैसे बड़े भाई ने भी हमेशा यथासंभव सहायता की, फिर दूसरे भाईबहनों ने भी नौकरी लगते ही घर का छोटामोटा खर्च उठाना शुरू कर दिया था.

कुछ सालों के बाद सब चाहते थे कि नितिन शादी कर ले, लेकिन उस का कहना था कि सब से पहले छोटे भाई निखिल को डाक्टर बनाने का पापा का सपना पूरा करने के बाद ही वह अपने बारे में सोचगा.

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निखिल से बड़ी बहन विभा की शादी से पहले ही मां की मृत्यु हो गई. तब तक दूसरे भाइयों के बच्चे भी बड़े हो चले थे और उन सब के अपने खर्चे ही काफी बढ़ गए थे. नितिन से उन की परेशानी देखी नहीं गई. उस ने विभा की शादी और निखिल की पढ़ाई का पूरा खर्च अकेले उठाने का फैसला किया. भविष्य निधि से कर्ज ले कर उस ने विभा की शादी उस की पसंद के लड़के से धूमधाम से करा दी और निखिल को भी मैडिकल कालेज में दाखिल करा दिया.

निखिल की नौकरी लग जाने के बाद नितिन पुश्तैनी कोठी में बिलकुल अकेला रह गया था. 2 बहनें उसी शहर में रहती थीं, जो उसे अकेलापन महसूस नहीं होने देती थीं.

दूसरे भाईबहन भी बराबर उस से संपर्क बनाए रखते थे, सिवा निखिल के. वह कन्याकुमारी में अकेला रहता था और सब को तो फोन करता था, लेकिन नितिन से उस का कोई संपर्क नहीं था. चूंकि उस का हाल दूसरों से पता चल जाता था, इसलिए नितिन ने स्वयं कभी निखिल से बात करने की पहल नहीं की.

मझली बहन शोभा की बेटी की शादी की तारीख तय हो गई थी, लेकिन उस के पति को किसी जरूरी काम से विदेश जाना पड़ रहा था और वह शादी से 2 दिन पहले ही लौट सकता था. उधर लड़के वाले तारीख आगे बढ़ाने को तैयार नहीं थे. शोभा बहुत परेशान थी कि अकेले सारी तैयारी कैसे करेगी?

‘‘तू बेकार में परेशान हो रही है, मैं हूं न तेरी मदद करने को. हरि से बेहतर तैयारी करा दूंगा,’’ नितिन ने आश्वासन दिया, ‘‘तुम सब की शादियां कराने का तजरबा है मुझे.’’

 

एक दिन बाहर से आने वाले मेहमानों की सूची बनाते हुए नितिन ने शोभा से कहा, ‘‘निखिल से भी आग्रह कर न शादी में आने के लिए. इसी बहाने उस से भी मिलना हो जाएगा. बहुत दिन हो गए हैं उसे देखे हुए.’’

‘‘हम सब भी चाहते हैं भैया कि निखिल आए और वह आने को तैयार भी है, लेकिन उस की जो शर्त है वह हमें मंजूर नहीं है,’’ शोभा ने सकुचाते हुए कहा.

‘‘ऐसी क्या शर्त है?’’

‘‘शर्त यह है कि आप शादी में शरीक न हों. वह आप से मिलना नहीं चाहता.’’

‘‘मगर क्यों?’’ नितिन ने चौंक कर पूछा. उसे यकीन नहीं आ रहा था कि जिस निखिल की पढ़ाई का कर्ज वह अभी तक उतार रहा है, जिस निखिल ने रैचेल से उस का परिचय यह कह कर करा दिया था कि अगर मेरे यह भैया नहीं होते तो मैं कभी डाक्टर नहीं बन सकता था, वह उस की शक्ल देखना नहीं चाहता.

फिर शोभा को चुप देख कर नितिन ने अपना सवाल दोहराया, ‘‘मगर निखिल मुझ से मिलना क्यों नहीं चाहता?’’

‘‘क्योंकि रैचेल की मौत के लिए वह आप को जिम्मेदार मानता है.’’

‘‘यह क्या कह रही है तू?’’ नितिन चीखा, ‘‘तुझे मालूम भी है कि रैचेल की

मौत कैसे हुई थी? मगर तुझे मालूम भी कैसे होगा, तू तो तब जरमनी में थी. सुनाऊं तुझे पूरी कहानी?’’

‘‘जी, भैया.’’

नितिन बेचैनी से कमरे में टहलने लगा, जैसे तय कर रहा हो कि कहां से शुरू करे, क्या और कितना बताए? फिर बताना शुरू किया, ‘‘उन दिनों अपनी कोठी में मैं अकेला ही रह गया था. पढ़ाई खत्म होते ही निखिल को शहर से दूर एक अस्पताल में रैजीडैंट डाक्टर की नौकरी मिल गई अत: उसे वहीं रहना पड़ा. एक दिन अचानक निखिल ने मुझे फोन किया कि मैं शाम को जल्दी घर आ जाऊं, वह मुझे किसी से मिलवाना चाहता है. उस दिन बहुत उमस थी, इसलिए मैं ने छत पर कुरसियां लगवा दीं. कुछ देर बाद निखिल रैचेल के साथ आया. उस ने बताया कि वह और रैचेल हाई स्कूल से एकदूसरे से प्यार करते हैं, अब डाक्टर बनने के बाद दोनों चाहते हैं कि अगर मेरी इजाजत हो तो वे शादी कर लें.

‘‘न जाने क्यों मुझे रैचेल बहुत ही प्यारी और अपनी सी लगी. ऐसा लगा जैसे मैं उसे बहुत दिनों से जानता हूं. उस के आते ही उस उमस भरी शाम में अचानक किसी बरसात की सुहानी शाम की सी खुशगवार नमी तैरने लगी थी. मैं ने कहा कि मैं तो खुशी से उन की शादी के लिए तैयार हूं, लेकिन क्या रैचेल का परिवार इस विजातीय शादी के लिए इजाजत देगा? तब रैचेल बोली कि उस की मां कहती हैं कि अगर निखिल का परिवार एक विधर्मी बहू को सहर्ष स्वीकार लेता है तो उन्हें भी कोई एतराज नहीं होगा.

‘‘मैं ने उसे आश्वासन दिया कि सब से छोटा होने के कारण निखिल सब का लाड़ला है और उस की खुशी पूरे परिवार की खुशी होगी. रही विधर्मी होने की बात तो अभी तक तो अपने परिवार में कोई विजातीय शादी नहीं हुई है, मगर मैं भी शीघ्र ही एक विधर्मी और अकेली महिला से शादी करने वाला हूं, बस निखिल के सैटल होने का इंतजार कर रहा था. निखिल यह सुन कर बहुत खुश हुआ. उस के पूछने पर मैं ने बताया कि वह महिला एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के चेयरमैन की सेके्रटरी है, औफिस के काम के सिलसिले में उस से मुलाकात हुई थी. विधवा है या परित्यक्ता, यह मैं ने कभी नहीं पूछा, क्योंकि उस ने शुरू में ही बता दिया था कि उसे खुद के बारे में बात करना कतई पसंद नहीं है और न ही निजी जिंदगी को दोस्ती से जोड़ना. दोस्ती को भी वह सीमित समय ही दे सकती है, क्योंकि नौकरी के अलावा उस की अपनी निजी जिम्मेदारियां भी हैं. मैं ने उसे बताया कि जिम्मेदारियां तो मेरी भी कम नहीं हैं, समय और पैसे दोनों का ही अभाव है और किसी स्थाई रिश्ते यानी शादीब्याह के बारे में तो फिलहाल सोच भी नहीं सकता.

‘‘निखिल और रैचेल के कुरेदने पर मैं ने बताया कि यह सुन कर वह और ज्यादा आश्वस्त हो गई और उस ने मेरी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया. फुरसत के गिनेचुने क्षण हम दोनों इकट्ठे गुजारने लगे, जिस से हमारी एक ही ढर्रे पर चलती वीरान जिंदगी में बहार आ गई.

‘‘खुद के बारे में कभी न सोचने वालों को भी अपने लिए जीने की वजह मिल गई थी. दूसरों के साथसाथ अब हम अपने लिए भी सोचने लगे थे. अकसर सोचते थे कि जब हमारी सारी जिम्मेदारियां खत्म हो जाएंगी, तब हम दोनों इकट्ठे सिर्फ एकदूसरे के लिए जीएंगे. सपने देखा करते थे कि क्याक्या करेंगे, कहांकहां जाएंगे.’’

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‘‘निखिल यह सुन कर भावविह्वल हो गया और बोला कि भैया, कितने जुल्म किए आप ने खुद पर हमारे लिए, जब तक किसी से प्यार न हो, शायद अकेले रहना आसान हो, लेकिन किसी को चाहने के बाद उस से दूर रहना बहुत मुश्किल होता है.

‘‘मैं ने मजाक में पूछा कि उस की क्या मजबूरी थी, वह क्यों रैचेल से दूर रह रहा था? तब निखिल बोला कि एक तो शादी से पहले आत्मनिर्भर होना चाहता था, दूसरे रैचेल की भी कुछ मजबूरियां थीं. लेकिन अब जब मैं डाक्टर बन गया हूं और अलग भी रहने लगा हूं, तो आप अपनी शादी क्यों टाल रहे हैं?

‘‘तुम्हारी होने वाली भाभी का कहना है कि वह अभी कुछ दिन और शादी नहीं कर सकती. इस पर वह बोला कि यानी फिलहाल आप के ब्रह्मचर्य के खत्म होने के आसार नहीं हैं.

‘‘मैं ठहाका लगा कर हंस पड़ा कि ब्रह्मचर्य तो तुम्हारे यहां से जाते ही खत्म हो गया था निखिल. अकेला रहता हूं, इसलिए न तो कोई रोकटोक है और न ही समय की पाबंदी. जब भी उसे मौका मिलता है या उस का दिल करता है वह आ जाती है, फिर पूरे घर में हम दोनों स्वच्छंद विहार करते हैं.

‘‘रैचेल और निखिल को हैरान होते देख कर मैं चुप हो गया. फिर कुछ सोच कर बोला कि तुम दोनों तो डाक्टर हो, जीवविज्ञान के ज्ञाता, तुम क्यों जीवन के शाश्वत सत्य और परमसुख के बारे में सुन कर शरमा रहे हो? जल्दी से शादी करो और जीवन का अलौकिक आनंद लो. तुम दोनों को तो खैर सब कुछ मालूम ही होगा, मैं बालब्रह्मचारी तो उस से सट कर बैठने में ही खुश था, लेकिन उस की तो पहले शादी हो चुकी है न इसलिए उस ने मुझे बताया कि इस से आगे भी बहुत कुछ है. अभी भी कहती रहती है कि यह तो कुछ भी नहीं है, अपने रिश्ते पर समाज और कानून की मुहर लग जाने दो, फिर पता चलेगा कि चरमसुख क्या होता है.

‘‘तभी मेरे मोबाइल की घंटी बजी, उसी का फोन था यह बताने को कि वह आ रही है कुछ देर के लिए. मैं ने निखिल को उत्साह से बताया कि संयोग से वह आ रही है अत: वे लोग उस से मिल कर ही जाएं और फिर शरारत से कहा कि लेकिन मिलते ही चले जाना. हमारे सीमित समय के रंग में भंग करने रुके मत रहना.

‘‘निखिल ने कहा कि वे भी जल्दी में हैं, क्योंकि उन्हें रैचेल की मां के पास भी जाना है यह बताने कि आप ने इजाजत दे दी है और अब उन की इजाजत ले कर जल्दी से जल्दी शादी करना चाहते हैं.

‘‘मैं ने कहा कि तुम्हारी भाभी से पूछते हैं. अगर वह मान जाती हैं तो दोनों भाई एकसाथ ही शादी कर लेंगे. निखिल को बात बहुत पसंद आई और उस ने कहा कि मैं भी आज ही यह बात पूछ लेता हूं ताकि वह भी रैचेल की मां से उसी तारीख के आसपास शादी तय करने को कह सकें.

‘‘तभी नीचे से गाड़ी के हार्न की आवाज आई तो मैं ने उत्साह से कहा कि लो तुम्हारी भाभी आ गईं. रैचेल लपक कर मुंडेर के पास जा कर नीचे देखने लगी और फिर पलक झपकते ही वह मुंडेर पर चढ़ कर नीचे कूद गई.

‘‘जब मैं और निखिल नीचे पहुंचे तो सिल्विया रैचेल के क्षतविक्षत शव को संभाल रही थी. उस ने मुझ से एक चादर लाने को कहा. जब मैं चादर ले कर आया तो वह निखिल से बात कर रही थी. उस ने मुझे बताया कि वह निखिल के साथ रैचेल को उस के घर ले जा रही है. मैं ने कहा कि मैं भी साथ चलूंगा, मगर वे दोनों बोले कि मैं वहीं रुक कर पानी से खून साफ कर दूं ताकि किसी को कुछ पता न चले और पुलिस केस न बने. फिर वे दोनों तुरंत चले गए. मैं ने खून को अच्छी तरह साफ कर दिया.

‘‘उस रात सिल्वी ने अपना मोबाइल बंद रखा. अपने घर का फोन नंबर और पता तो उस ने मुझे कभी दिया ही नहीं था. निखिल का मोबाइल भी बंद था.

‘‘अगले दिन वह औफिस नहीं आई और निखिल भी अस्पताल नहीं गया. उस हादसे के बाद दोनों की मनोस्थिति काम पर जाने लायक नहीं होगी और क्या मालूम रात को कब घर आए हों और अभी सो रहे हों, यह सोच कर मैं ने उस दिन दोनों से ही संपर्क नहीं किया.

अगले दिन भी दोनों के मोबाइल बंद थे. शाम को मैं निखिल के अस्पताल में गया तो पता चला कि वह उसी सुबह अचानक नौकरी छोड़ने के एवज में 1 महीने का वेतन दे कर जाने कहां चला गया है.

‘‘मुझे निखिल के इस अनापेक्षित व्यवहार से धक्का तो लगा, लेकिन इस से पहले कि मैं उस की शिकायत दूसरे भाईबहनों से करता, कुदरत ने मुझे एक और जबरदस्त झटका दिया. घर लौटने पर मुझे कुरिअर द्वारा सिल्विया का पत्र मिला, जिस में उस ने लिखा था कि जब तक मुझे यह पत्र मिलेगा तब तक वह इस दुनिया से जा चुकी होगी और मेरे लिए उसे भूलना ही बेहतर होगा.

‘‘मैं ने उसे भूलने के बजाय और सब को भूल कर उस के साथ गुजारे लमहों की यादों के सहारे जीना बेहतर समझा. मैं भी लंबी छुट्टी ले कर हिमालय की घाटियों में चला गया. लेकिन उम्र भर कोल्हू के बैल की तरह काम करने वाला आदमी ज्यादा दिनों तक खाली नहीं रह सकता था. फिर चाहे कितनी ही सादगी से क्यों न रहो पैसा तो चाहिए ही और मेरे पास कोई जमापूंजी भी नहीं थी.

फिर अभी भविष्य निधि से लिया कर्ज भी चुकाना था.

‘‘अत: मैं फिर काम पर लौट आया. काम के अलावा और किसी भी चीज में अब मेरी दिलचस्पी नहीं रही थी. लेकिन खून के रिश्ते टूटते नहीं. तुझे निक्की की शादी के काम के लिए परेशान देख कर मैं उस की शादी की तैयारी करवाने के चक्कर में फिर से दुनियादारी में लौट आया. यह सोच कर कि जब और सब आ रहे हैं तो निखिल क्यों न आए, तुझे उसे बुलाने को कहा. अब तू ही बता, रैचेल की मृत्यु के लिए मैं जिम्मेदार क्यों और कैसे?’’

‘‘आप ने शायद सिल्विया के साथ अपने अंतरंग संबंधों का खुलासा कुछ ज्यादा खुल कर कर दिया था भैया,’’ शोभा धीरे से बोली.

नितिन चिढ़ गया, फिर बोला, ‘‘हो सकता है, लेकिन उस का रैचेल के छत से कूदने से क्या ताल्लुक?’’

‘‘क्षोभ, शर्म भैया, क्योंकि सिल्विया उस की मां थी.’’

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झूठा सच- कंचन के पति और सास आखिर क्या छिपा रहे थे?

कंचन का शक यकीन में बदलता जा रहा था कि कोई न कोई बात है जो पंकज और उस की मां उस से छिपा रहे हैं. और वह दिन भी आया जब सच उस के सामने था. लेकिन अब सच और झूठ का फैसला उसे ही करना था.

जीवनलालने अपने दोस्त गिरीश और उस की पत्नी दीपा को उन की बेटी कंचन के लिए उपयुक्त वर तलाशने में मदद करने हेतु अपने सहायक पंकज से मिलवाया. दोनों को सुदर्शन और विनम्र पंकज अच्छा लगा. वह रेलवे वर्कशौप में सहायक इंजीनियर था. परिवार में सिवा मां के और कोई न था जो एक जानेमाने ट्यूटोरियल कालेज में पढ़ाती थीं. राजनीतिशास्त्र की प्रवक्ता कंचन की शादी के लिए पहली शर्त यही थी कि उसे नौकरी छोड़ने के लिए नहीं

कहा जाएगा. स्वयं नौकरी करती सास को बहू

की नौकरी से एतराज नहीं हो सकता था. यह

सब सोच कर गिरीश ने जीवनलाल से पंकज

और उस की मां को रिश्ते के लिए अपने घर लाने को कहा.

अगले रविवार को जीवनलाल अपनी पत्नी तृप्ता, दोनों बच्चों-कपिल, मोना और पंकज व उस की मां गीता के साथ गिरीश के घर पहुंच गए.

‘‘मामा, चाचा, मौसा और फूफा वगैरा सब हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में. हैदराबाद आने के बाद उन से संपर्क नहीं रहा या सच कहूं तो पापा के रहते जिन रिश्तेदारों से हमारी सरकारी कोठी भरी रहती थी, पापा के जाते ही वही रिश्तेदार हम बेसहारा मांबेटों से कन्नी काटने लगे थे,’’ पंकज ने अन्य रिश्तेदारों के बारे में पूछने पर बताया, ‘‘इसलिए मैं मां को ले कर हैदराबाद चला आया और यहां के परिवेश में हम एकदूसरे के साथ पूर्णतया संतुष्ट हैं.’’

‘‘पंकज की शादी हो जाए तो मेरा परिवार भरापूरा हो जाएगा,’’ गीता ने जोड़ा.

‘‘आप कंचन को पसंद कर लें तो वह भी जल्दी हो जाएगा,’’ जीवनलाल ने कहा.

‘‘हम तो आप के बताए विवरण से ही कंचन को पसंद कर के यहां आए हैं लेकिन

हम भी तो कंचन को पसंद आने चाहिए,’’

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गीता हंसी.

‘‘कंचन की पसंद पूछ कर ही आप को यहां आने की तकलीफ दी है,’’ दीपा ने भी उसी अंदाज में कहा, ‘‘हमारी बेटी की एक ही शर्त है कि आप उसे नौकरी छोड़ने को न कहें.’’

‘‘नहीं कहूंगी लेकिन एक शर्त पर कि यह भी कभी मुझे नौकरी छोड़ने को नहीं कहेगी.’’

‘‘तो फिर तो बात पक्की, मुंह मीठा करवाओ दीपा बहन.’’

तृप्ता के कहने पर दीपा मिठाई ले आई. चायनाश्ते के बाद जीवनलाल ने कहा कि अब सगाईशादी की तारीखें भी तय कर लो.

‘‘वह तो आप कब छुट्टी देंगे, उस पर निर्भर करता है, सर,’’ पंकज बोला, ‘‘इस पर भी कि वे स्वयं कब छुट्टी लेते हैं, क्योंकि सबकुछ उन्हें ही तो करना है.’’

गीता गिरीश और दीपा की ओर मुड़ी, ‘‘जिस तरह से उन्होंने यह

शादी की बात चलाई है उसी तरह से तृप्ता भाभी और जीवन भैया, पंकज के अभिभावक बन कर बहू के गृहप्रवेश तक की सभी रस्में निबाहेंगे. आप अब क्या करना है या कैसे करना है, उन से ही पूछिएगा. रहा लेनदेन का सवाल तो मुझे बस आप की बेटी चाहिए और अब इस विषय में मुझ से कोई कुछ नहीं पूछेगा.’’

गीता आराम से सोफे से पीठ लगा कर

बैठ गई.

‘‘पूछेंगे कैसे नहीं गीताजी, शादी में आने वाले रिश्तेदारों के बारे में तो बताना ही होगा,’’ दीपा ने प्रतिवाद किया, ‘‘शादी में रौनक तो उन लोगों के आने से ही आएगी.’’

‘‘रौनक की फिक्र मत करिए,’’ पंकज बोला, ‘‘मेरे बहुत दोस्त और सहकर्मी हैं, ज्यादा हंगामा चाहिए तो मम्मी के छात्रछात्राएं हैं.’’

‘‘मेरे छात्रछात्राओं की क्या जरूरत है?’’ गीता हंसी, ‘‘कंचन के ननददेवर हैं न मोना

और कपिल, अपने दोस्त सहेलियों के साथ धूम मचाने को.’’

शादी बहुत धूमधाम और हंसीखुशी से हो गई. कंचन पंकज के साथ बेहद खुश थी. गीता से भी उसे कोई शिकायत नहीं थी. कोचिंग कक्षाएं तो सुबहशाम ही लगती हैं. सो, गीता सुबह से ही जाती थी और कंचन के कालेज जाने के बाद लौटती थी. दिनभर घर में रहती थी. सो, नौकरानी से सब काम भी करवा लेती थी.

कंचन को घर लौटने पर गरम चायनाश्ता मिल जाता था. कुछ देर गपशप के बाद गीता फिर कालेज चली जाती थी और कंचन पूरी शाम पंकज के साथ जैसे चाहे बिता सकती थी. संक्षेप में, सास के संरक्षण का सुख बगैर किसी हस्तक्षेप या जिम्मेदारी के.

1 साल पलक झपकते गुजर गया. मांबेटे में रात को ही बात होती थी लेकिन कुछ रोज से कंचन को लग रहा था कि गीता कुछ असहज है. वह पंकज से अकेले में बात करने की कोशिश में रहती थी. कंचन के आते ही, बड़ी सफाई से बात बदल देती थी. कंचन ने यह बात अपनी मां दीपा को बताई.

‘‘पंकज के उस बेचारी का अपना सगा कोई और तो है नहीं जिस से कोई निजी दुखसुख या पुरानी यादें बांटे. तू खुद ही उन्हें अकेले छोड़ा कर, और पंकज से भी कभी मत पूछना कि मां उस से क्या कह रही थीं,’’ दीपा ने समझाया.

एक रात सब ने खाना खत्म ही किया था कि बिजली चली गई. पंकज और गीता बाहर बरामदे में बैठ गए और कंचन मोमबत्ती की रोशनी में मेज साफ कर के रसोई समेटने लगी. काम खत्म कर के उस ने बेखयाली में मोमबत्ती बुझा दी. स्ट्रीट लाइट की रोशनी में बरामदे का रास्ता नजर आ रहा था. वह धीरे से उसी के सहारे आगे बढ़ गई. तभी उसे बरामदे से मांबेटे की वार्तालाप सुनाई दी. पंकज कह रहा था, ‘‘कितनी भी सिफारिश लगवा लूं रेलवे से तो भी 3 बैडरूम वाला घर नहीं मिल सकता, मां. कई हजार रुपया किराया दे कर बाहर ही घर लेना पड़ेगा. सोच रहा हूं इतना किराया देने से बेहतर है अपना फ्लैट ही खरीद लें. गाड़ी

के बजाय मकान के लिए ऋण ले लेता हूं.’’

‘‘उस सब में समय लगेगा पंकज, हमें तो 3 कमरों का घर जल्दी से जल्दी चाहिए,’’ गीता के स्वर में चिंता थी, ‘‘किराए की फिक्र मत कर, जितना भी होगा मैं देने को तैयार हूं. तू बस इतना देख कि गैस्टरूम तुम्हारे व मेरे कमरे से अलग हो.’’

कंचन चौंक पड़ी. रेलवे की ओर से उन्हें 2

बैडरूम का कौटेजनुमा घर मिला हुआ था. सामने छोटा सा लौन था, पीछे किचन गार्डन और ऊपर खुली छत भी थी. नौकरानी भी पास के बंगले के आउट हाउस में रहती

थी. सो, देरसवेर जब बुलाओ, वह आ जाती थी. ये सब छोड़ कर किराए के आधुनिक दड़बेनुमा

फ्लैट में जाने की क्या जरूरत आ पड़ी थी? अपने 3 सदस्यों के परिवार के लिए तो यह घर काफी है. तो फिर क्या कोई मेहमान आ रहा है? मगर कौन?

‘‘हड़बड़ाओ मत, मां. बराबर वाले घर में विधुर चौधरीजी बेटे के साथ रहते हैं और बेटा अगले महीने विदेश जा रहा है. वे खुशी से हमें एक कमरा दे देंगे. आप अब इस बारे में न तो फिक्र करो और न ही बात,’’ पंकज ने कहा और पुकारा, ‘‘तुम अंधेरे और गरमी में अंदर क्या कर रही हो, कंचन?’’

‘‘हां, बेटी, यहां आ कर बैठ. बड़ी अच्छी हवा चल रही है,’’ गीता भी बोली.

इस का मतलब था कि मां ने भी बात खत्म कर दी है. अब पूछने पर भी कोई कुछ नहीं बताएगा और वैसे भी पंकज ने फिलहाल तो मकान बदलना टाल ही दिया था.

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जयपुर में होने वाली अंतर्राज्यीय बैडमिंटन प्रतियोगिता

में कंचन के कालेज की टीम चुनी गई थी. अपने समय में कंचन भी राज्य स्तर की खिलाड़ी रह चुकी थी और अभी भी छात्राओं के साथ अकसर बैडमिंटन खेलती थी. प्रिंसिपल और छात्राएं चाहती थीं कि कंचन भी टीम के साथ

जयपुर जाए. कंचन ने पंकज और गीता से पूछा. दोनों ने सहर्ष अनुमति दे दी.

लौटने वाले रोज उन सब की ट्रेन रात की थी. लड़कियां जयपुर घूमना और खरीदारी करना चाहती थीं. आयोजकों ने उन के लिए एक प्राइवेट टैक्सी की व्यवस्था करवा दी. ड्राइवर रामसेवक अधेड़ उम्र का संभ्रांत व्यक्ति था, उस ने बड़ी अच्छी तरह से लड़कियों को दर्शनीय स्थल दिखाए. दिनभर

घूमने के बाद कंचन थक गई

थी. सो, मिर्जा इस्माइल रोड

पहुंचने पर उस ने कहा कि वह शौपिंग के बजाय गाड़ी में आराम करना चाहेगी.

‘‘इतनी गरमी में? हम आप को अकेले नहीं छोड़ेंगे, मैडम,’’ लड़कियों ने कहा.

‘‘मैं हूं न मैडम के पास,

गाड़ी में एसी भी चलता रहेगा,’’ रामसेवक ने कहा. ‘‘आप लोग इतमीनान से जा कर खरीदारी

कर लो.’’

‘‘धन्यवाद, भैयाजी. नाम और बोलचाल से तो आप उत्तर भारत के लगते हैं, यहां कैसे आ गए?’’ कंचन ने पूछा.

रामसेवक ने आह भरी, ‘‘अब क्या बताएं मैडम. हालात ही कुछ ऐसे हो गए कि रोटीरोजी के लिए घर से दूर आना पड़ गया.’’

‘‘क्यों, ऐसा क्या हो गया?’’

‘‘अपने घर में सभी पढ़ेलिखे और सरकारी नौकरी में हैं. हमें न पढ़ना पसंद था न नौकरी करना, गाड़ी चलाने का बहुत शौक था. सो, बाबूजी ने हमें टैक्सी दिलवा दी. हम भी सब के मुकाबले में कमा खा रहे थे कि हमारे बड़के भैया ने गड़बड़ कर दी. वे थे तो सरकारी अफसर मगर शबाब और शराब के शौकीन.

‘‘एक रोज नशे की हालत में एक मातहत की बीवी पर हाथ

डाल दिया और पकड़े गए. जीजाजी के रसूख से किसी तरह छूट गए. भाभी के चिरौरी करने और बेटे के भविष्य का हवाला देने से कुछ साल तो संभल कर रहे लेकिन

बेटे को रेलवे में नौकरी मिलते ही फिर पुराने रंगढंग चालू कर दिए और एक नेता की चहेती के साथ मुंह काला करते हुए पकड़े गए. नेता की चहेती थी, सो मामला

तूल पकड़ गया और 7 साल की जेल हो गई.

‘‘परिवार की इतनी बदनामी हुई कि लोग मेरी टैक्सी में बैठने से भी डरने लगे. टैक्सी का धंधा तो शहर के होटल और अन्य संस्थानों से जुड़ने पर ही चलता है. सो उन के नकारे जाने पर यहां आ गया. मुझे ही नहीं, भाभी और उन के बेटे को भी अपना शहर छोड़ कर दूर जाना पड़ा.’’

कंचन की दिलचस्पी थोड़ी बढ़ी, ‘‘दूर कहां?’’

‘‘हैदराबाद. वहां रेलवे में इंजीनियर है हमारा भतीजा लेकिन हमारे ताल्लुकात नहीं हैं अब उन से,’’ उस ने मायूसी से कहा.

‘‘ऐसा क्यों?’’

‘‘परिवार वाले उन से कन्नी काटने लगे थे. मांबेटे खुद्दार थे. सो, सब से दूर चले गए. अब तो भैया की सजा की अवधि भी खत्म होने वाली है, तब शायद वे लोग झांसी आएं.’’

तभी लड़कियां शौपिंग कर के आ गईं और ड्राइवर चुप

हो गया. कंचन ने जितना भी सुना था उस से साफ जाहिर था कि वह किस की बात कर रहा था और क्यों गीता बड़ा मकान लेने के लिए व्याकुल थी. व्यभिचारी पति को

न नकारना चाहती थी और न ही उस के साथ रहना. पंकज सदा की तरह मां की भावनाओं का ध्यान रख रहा था लेकिन कंचन की भावनाओं का क्या? परिवार का यह कलुषित सत्य तो उन्हें शादी से पहले ही बताना चाहिए था. शादी के बाद भी यह कहने वाला

पंकज कि पतिपत्नी तो एकदूसरे

के लिए खुली किताब होते हैं, कितना बड़ा झूठा था. झूठ की

नींव पर टिकी शादी कितने रोज टिक सकेगी?

मांबेटे के व्यवहार से तो लग रहा था कि वे उस

बदचलन, सजायाफ्ता व्यक्ति को स्वीकार करने वाले थे. भले ही दूर रखें, देरसवेर तो उस से भी वास्ता पड़ेगा ही. फिर उस की अस्मत का क्या होगा? कंचन सोच कर ही सिहर उठी. सिरदर्द के बहाने वह पूरे रास्ते चुप रही और फिर अपने कमरे में जा कर फूटफूट कर रो पड़ी. उसे समझ नहीं आ रहा

था कि वह क्या करे? खैर,

किसी तरह लंबा सफर तय कर के घर पहुंची.

‘‘शुक्र है तुम आ गईं, जिया ही नहीं जा रहा था तुम्हारे बगैर,’’ पंकज ने विह्वल स्वर में कहा.

‘‘अब तो मेरे बगैर ही जीना पड़ेगा क्योंकि मैं तुम्हें हमेशा के लिए छोड़ कर जा रही हूं,’’ कंचन ने अलमारी में से अपने कपड़े निकालते हुए कहा.

‘‘मगर क्यों? जयपुर में पुराना प्रेमी मिल गया क्या?’’ पंकज ने चुहल की.

‘‘प्रेमी तो नहीं, हां चचिया ससुर रामसेवक जरूर मिले थे. मैं ने तो तुम्हें अपने जीवन के

मूक प्रेम के बारे में भी बता दिया था जिस का ताना तुम ने मुझे अभी दिया है लेकिन तुम ने और मां ने अपने परिवार के उस घिनौने सच को छिपाया हुआ है जिस के लिए अपनों से मुंह छिपा कर तुम यहां रह रहे हो. झूठ की बुनियाद पर टिकी शादी का कोई भविष्य नहीं होता पंकज और इस से पहले

कि वह भरभरा कर गिरे, मैं स्वयं ही यह रिश्ता खत्म कर देती हूं. तुरंत तलाक लेने के लिए सचाई छिपाने का आरोप काफी है. वैसे तो तुम्हें सजा भी दिलवा सकती हूं लेकिन अगर चुपचाप तलाक दे

दोगे तो ऐसा कुछ नहीं करूंगी,’’ कंचन ने सूटकेस में सामान भरते हुए कहा.

पंकज हतप्रभ हो गया था, फिर भी संयत स्वर में बोला, ‘‘तुम ने जो सुना वह सच है लेकिन जो झूठ की बुनियाद वाली बात कही है वह सही नहीं है. इस शहर में किसी ने कभी भी हम से पापा के बारे में नहीं पूछा तो हम स्वयं आगे बढ़ कर क्यों बताते? तुम ने देखा होगा शादी के मंडप में दिवंगत मातापिता की तसवीर रखी जाती है. मगर हम ने तो नहीं रखी, न किसी ने रखने को कहा. तुम ने भी तो कभी नहीं पूछा कि घर में पापा की कोई तसवीर क्यों नहीं है या कभी उन के बारे में कोई और बात पूछी हो? मैं ने और मां ने यह फैसला किया था कि हम स्वयं पापा के बारे में किसी को कुछ नहीं बताएंगे मगर पूछने पर कुछ छिपाएंगे भी नहीं. अब किसी ने कुछ नहीं पूछा तो इस में हमारा क्या कसूर है? एक बात और, मां विधवा की तरह नहीं रहतीं. सादे मगर रंगीन कपड़े पहनती हैं और थोड़ेबहुत जेवर भी.’’

‘‘लेकिन सिंदूर या बिंदी तो नहीं लगातीं?’’ कंचन को पूछने के लिए यही मिला.

‘‘तुम लगाती हो, तुम्हारी मम्मी या तृप्ता आंटी?’’ पंकज ने पूछा, ‘‘कितनी

सुहागिनें मांग भरती हैं या पांव में बिछिया पहनती हैं आजकल? हम ने सच को छिपाने का कोई

प्रयास नहीं किया है कंचन?’’

‘‘अच्छा? और यह जो मुझे बगैर बताए लोन ले कर बड़ा मकान बनाने की योजना बना रहे हो, उसे क्या कहोगे?’’ कंचन ने व्यंग्य से पूछा.

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‘‘योजना ही है, लिया तो नहीं? पापा के यहां आने का पक्का होने पर तुम्हें सब बताने की सोची थी क्योंकि पापा यहां आएंगे, यह अभी पक्का नहीं है. वे बहुत बदल चुके हैं और उन्हें संसार से विरक्ति हो गई है. केरल से कोई सज्जन जेल में सद्वचन देने आते हैं और पापा अपना शेष जीवन उन के त्रिचूर आश्रम में बिताना चाहते हैं…’’

‘‘तुम्हें कैसे मालूम?’’ कंचन ने उस की बात काटी.

‘‘क्योंकि मैं बगैर मां को बताए सरकारी काम का बहाना बना कर पापा से मिलने झांसी जेल में जाता रहता हूं. अदालत की पेशी के

दौरान मैं ने पापा की आंखों में पश्चात्ताप देखा

था, सो मैं ने उन्हें माफ कर दिया लेकिन मां पर मैं ने अपनी मंशा नहीं थोपी और न ही अभी से उन्हें यह बताना चाहता हूं कि पापा यहां नहीं रहेंगे. रिहाई के रोज मां मेरे साथ उन्हें जेल से लेने जाएंगी, तब कह नहीं सकता दोनों की क्या प्रतिक्रिया होगी. पापा को घर लाना चाहेंगी या स्वयं उन के साथ त्रिचूर जाना

या पापा को अपने रास्ते जाने देना और स्वयं जिस रास्ते पर चल रही हैं उसी

पर चलते रहना. मेरा यह मानना है कंचन, कि जिस को जो उचित

लगता है वही करना उस का जन्मसिद्ध अधिकार है और उस

में टांग अड़ाने का मुझे कोई हक नहीं है.’’

‘‘यानी तुम्हें छोड़ने का फैसला मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है?’’ कंचन ने शरारत से पूछा.

‘‘बशर्ते कि तुम यह सिद्ध कर सको कि तुम से झूठ बोल कर तुम्हें धोखा दिया गया या नुकसान पहुंचाया गया.’’

‘‘वह तो सिद्ध नहीं कर सकती,’’ कंचन ने कपड़े अलमारी में वापस रखते हुए कहा, ‘‘क्योंकि झूठ तो तुम ने कभी बोला नहीं. बगैर कभी कुछ पूछे मैं ही अपने सोचे झूठ को सच समझती रही.’’

गमोत्सव: क्या मीना को हुआ बाहरी दुनियादारी का एहसास

शोकाकुल मीना, आंसुओं में डूबी, सिर घुटनों में लगाए बैठी थी. उस के आसपास रिश्तेदारों व पड़ोसियों की भीड़ थी. पर मीना की ओर किसी का ध्यान नहीं था. सब पंडितजी की कथा में मग्न थे. पंडितजी पूरे उत्साह से अपनी वाणी प्रसारित कर रहे थे- ‘‘आजकल इतनी महंगाई बढ़ गई है कि लोगों ने दानपुण्य करना बहुत ही कम कर दिया है. बिना दान के भला इंसान की मुक्ति कैसे होगी, यह सोचने की बात है. शास्त्रोंपुराणों में वर्णित है कि स्वयं खाओ न खाओ पर दान में कंजूसी कभी न करो. कलियुग की यही तो महिमा है कि केवल दानदक्षिणा द्वारा मुक्ति का मार्ग खुद ही खुल जाता है. 4 दिनों का जीवन है, सब यहीं रह जाता है तो…’’ पंडितजी का प्रवचन जारी था.

गैस्ट हाउस के दूसरे कक्ष में भोज का प्रबंध किया गया था. लड्डू, कचौड़ी, पूड़ी, सब्जी, रायता आदि से भरे डोंगे टेबल पर रखे थे. कथा चलतेचलते दोपहर को 3 बज रहे थे. अब लोगों की अकुलाहट स्पष्ट देखी जा सकती थी. वे बारबार अपनी घड़ी देखते तो कभी उचक कर भोज वाले कक्ष की ओर दृष्टि उठाते.

पंडितजी तो अपनी पेटपूजा, घर के हवन के समाप्त होते ही वहीं कर आए थे. मनोहर की आत्मा की शांति के लिए सुबह घर में हवन और 13 पंडितों का भोजन हो चुका था. लोगों यानी रिश्तेदारों आदि ने चाय व प्रसाद का सेवन कर लिया था पर मीना के हलक के नीचे तो चाय का घूंट भी नहीं उतरा था. माना कि दुख संताप से लिपटी मीना सुन्न सी हो रही थी पर उस के चेहरे पर थकान, व्याकुलता पसरी हुई थी. ऐसे में कोई तो उसे चाय पीने को बाध्य कर सकता था, उसे सांत्वना दे कर उस की पीड़ा को कुछ कम कर सकता था. पर, ये रीतिपरंपराएं सोच व विवेक को छूमंतर कर देती हैं, शायद.

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इधर, पंडितजी ने मृतक की तसवीर पर, श्रद्धांजलिस्वरूप पुष्प अर्पित करने के लिए उपस्थित लोगों को इशारा किया. पुष्पांजलि के बाद लोग जल्दीजल्दी भोजकक्ष की ओर बढ़ चले थे. देखते ही देखते हलचल, शोर, हंसी आदि का शोर बढ़ता गया. लग रहा था कि कोई उत्सव मनाया जा रहा है. ‘‘अरे भई, लड्डू तो लाना, यह कद्दू की सब्जी तो कमाल की बनी है. तुम भी खा कर देखो,’’ एक पति अपनी पत्नी से कह रहा था, ‘‘कचौड़ी तो एकदम मथुरा शहर में मिलने वाली कचौडि़यों जैसी बनी है वरना यहां ऐसा स्वाद कहां मिलता है.’’

ये सब रिश्तेदार और परिचितजन थे जो कुछ ही समयपूर्व मृतक की पत्नी से अपनी संवेदना प्रकट कर, अपना कर्तव्य पूरा कर चुके थे.

मैं विचारों के भंवर में फंसी, उस रविवार को याद करने लगी जब मीना अपने पति मनोहर व बच्चों के साथ मौल में शौपिंग करती मिली थी. हर समय चहकती मीना का चेहरा मुसकान से भरा रहता. एक हंसताखेलता परिवार जिस में पतिपत्नी के प्रेमविश्वास की छाया में बच्चों की जिंदगी पल्लवित हो रही थी. अचानक वह घातक सुबह आई जो दफ्तर जाते मनोहर को ऐक्सिडैंट का जामा पहना कर इस परिवार से बहुत दूर हमेशा के लिए ले गई.

मीना अपने घर पति व बच्चों की सुखी व्यवस्था तक ही सीमित थी. कहीं भी जाना होता, पति के साथ ही जाती. बाहरी दुनिया से उसे कुछ लेनादेना नहीं था. पर अब बैंक आदि का कार्य…और भी बहुतकुछ…

मेरी विचारशृंखला टूटी और वर्तमान पर आ गई. अब कैसे, क्या करेगी मीना? खैर, यह तो उसे करना ही होगा. सब सीखेगी धीरेधीरे. समय की धारा सब सिखा देगी.

तभी दाहिनी ओर से शब्द आए, ‘‘यह प्रबंध अच्छा किया है. किस ने किया है?’’

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‘‘यह सब मीना के भाई ने किया है. उस की आर्थिक स्थिति सामान्य सी है. पर देखो, उस ने पूरी परंपरा निभाई है. यही तो है भाई का कर्तव्य,’’ प्रत्युत्तर था.

3 दिनों पूर्व की बातें मुझे फिर याद हो आई थीं. भोजन प्रबंध का जिम्मा मैं ने व मेरे पति ने लेना चाहा था. तब घर के बड़ों ने टेढ़ी दृष्टि डालते हुए एक प्रश्न उछाला था, ‘तुम क्या लगती हो मीना की? 2 वर्षों पुरानी पहचान वाली ही न. यह रीतिपरंपरा का मामला है, कोई मजाक नहीं. क्या हम नहीं कर सकते भोज का प्रबंध? पर यह कार्य मीना के मायके वाले ही करेंगे. अभी तो शय्यादान, तेरहवीं का भोज, पंडितों को दानदक्षिणा, पगड़ी रस्म आदि कार्य होंगे. कृपया आप इन सब में अपनी सलाह दे कर टांग न अड़ाएं.’

‘और क्या, ये आजकल की पढ़ीलिखी महिलाओं की सोच है जो पुराणों की मान्यताओं पर भी उंगली उठाती हैं,’ उपस्थित एक बुजुर्ग महिला का तीखा स्वर उभरा. इस स्वर के साथ और कई स्वर सम्मिलित हो गए थे.

मेरे कारण मीना को कोई मानसिक क्लेश न पहुंचे, इसीलिए मैं निशब्द हो, चुप्पी साध गई थी. पर आज एक ही शब्द मेरे मन में गूंज रहा था, यहां इस तरह गम नहीं, गमोत्सव मनाया जा रहा है. मीना व उस के बच्चों के लिए किस के मन में दर्द है, कौन सोच रहा है उस के लिए? चारों तरफ की बातें, हंसीभरे वाक्य- एक उत्सव ही तो लग रहे थे.

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…और दीप जल उठे: अरुणा ने आखिर क्यों कस ली थी कमर

ट्रिनट्रिन…फोन की घंटी बजते ही हम फोन की तरफ झपट पड़े. फोन पति ने उठाया. दूसरी ओर से भाईसाहब बात कर रहे थे. रिसीवर उठाए राजेश खामोशी से बात सुन रहे थे. अचानक भयमिश्रित स्वर में बोले, ‘‘कैंसर…’’ इस के बाद रिसीवर उन के हाथ में ही रह गया, वे पस्त हो सोफे पर बैठ गए. तो वही हुआ जिस का डर था. मां को कैंसर है. नहीं, नहीं, यह कोई बुरा सपना है. ऐसा कैसे हो सकता है? वे तो एकदम स्वस्थ थीं. उन्हें कैंसर हो ही नहीं सकता. एक मिनट में ही दिमाग में न जाने कैसेकैसे विचार तूफान मचाने लगे थे. 2 दिनों से जिन रिपोर्टों के परिणाम का इंतजार था आज अचानक ही वह काला सच बन कर सामने आ चुका था.

‘‘अब क्या होगा?’’ नैराश्य के स्वर में राजेश के मुंह से बोल फूटे. विचारों के भंवर से निकल कर मैं भी जैसे यह सुन कर अंदर ही अंदर सहम गई. ‘भाईसाहब से क्या बात हुई,’ यह जानने की उत्सुकता थी. औचक मैं चिल्ला पड़ी, ‘‘क्या हुआ मां को?’’ बच्चे भी यह सुन कर पास आ गए. राजेश का गला सूख गया. उन के मुंह से अब आवाज नहीं निकल रही थी. मैं दौड़ कर रसोई से एक गिलास पानी लाई और उन की पीठ सहलाते, उन्हें सांत्वना देते हुए पानी का गिलास उन्हें थमा दिया. पानी पी कर वे संयत होने का प्रयास करते हुए धीमी आवाज में बोले, ‘‘अरुणा, मां की जांच रिपोर्ट्स आ गई हैं. मां को स्तन कैंसर है,’’ कहते हुए वे फफकफफक कर बच्चों की तरह रोने लगे. हम सभी किंकर्तव्यविमूढ़ उन की तरफ देख रहे थे. किसी के भी मुंह से आवाज नहीं निकली. वातावरण में एक सन्नाटा पसर गया था. अब क्या होगा? इस प्रश्न ने सभी की बुद्धि पर मानो ताला जड़ दिया था. राजेश को रोते हुए देख कर ऐसा लगा, मानो सबकुछ बिखर गया है. मेरा घरपरिवार मानो किसी ऐसी भंवर में फंस गया जिस का कोई किनारा नजर नहीं आ रहा था.

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मैं खुद को संयत करते हुए राजेश से बोली, ‘‘चुप हो जाओ राजेश. तुम्हें इस तरह मैं हिम्मत नहीं हारने दूंगी. संभालो अपनेआप को. देखो, बच्चे भी तुम्हें रोता देख कर रोने लगे हैं. तुम इतने कमजोर कैसे हो सकते हो? अभी तो हमारे संघर्ष की शुरुआत हुई है. अभी तो आप को मां और पूरे परिवार को संभालना है. ऐसा कुछ नहीं हुआ है, जो ठीक न किया जा सके. हम मां को यहां बुलाएंगे और उन का इलाज करवाएंगे. मैं ने पढ़ा है, स्तन कैंसर इलाज से पूरी तरह ठीक हो सकता है.’’

मेरी बातों का जैसे राजेश पर असर हुआ और वे कुछ संयत नजर आने लगे. सभी को सुला कर रात में जब मैं बिस्तर पर लेटी तो जैसे नींद आंखों से कोसों दूर हो गई हो. राजेश को तो संभाल लिया पर खुद मेरा मन चिंताओं के घने अंधेरे में उलझ चुका था. मन रहरह कर पुरानी बातें याद कर रहा था. 10 वर्ष पहले जब शादी कर मैं इस घर में आई थी तो लगा ही नहीं कि किसी दूसरे परिवार में आई हूं. लगा जैसे मैं तो वर्षों से यहीं रह रही थी. माताजी का स्नेहिल और शांत मुखमंडल जैसे हर समय मुझे अपनी मां का एहसास करा रहा था. पूरे घर में जैसे उन की ही शांत छवि समाई हुई थी. जैसा शांत उन का स्वभाव, वैसा ही उन का नाम भी शांति था. वे स्कूल में अध्यापिका थीं.

स्कूल के साथसाथ घर को भी मां ने जिस निपुणता से संभाला हुआ था, लगता था उन के पास कोई जादू की छड़ी है जो पलक झपकते ही सारी समस्याओं का समाधान कर देती है. घर के सभी सदस्य और दूरदूर तक रिश्तेदार उन की स्नेहिल डोर से सहज ही बंधे थे. घर में ससुरजी, भाईसाहब, भाभी और दीदी में भी मुझे उन के ही गुणों की छाया नजर आती थी. लगता था मम्मीजी के साथ रहतेरहते सभी उन्हीं के जैसे स्वभाव के हो गए हैं.

इन सारी मधुर स्मृतियों को याद करतेकरते मुझे वह क्षण भी याद आया जब राजेश का तबादला जयपुर हुआ था. मम्मीजी ने एक मिनट भी नहीं सोचा और तुरंत मुझे भी राजेश के साथ ही जयपुर भेज दिया. खुद वे मेरी गृहस्थी जमाने वहां आई थीं और सबकुछ ठीक कर के एक सप्ताह बाद ही लौट गई थीं. यह सब सोचतेसोचते न जाने कब मेरी आंख लग गई. अचानक सवेरे दूध वाले भैया ने दरवाजे की घंटी बजाई तो आवाज सुन कर हड़बड़ा कर मेरी आंख खुली. देखा साढ़े 6 बज चुके थे.

‘अरे, बच्चों को स्कूल के लिए कहीं देर न हो जाए,’ सोचते हुए झपपट पहले दूध लिया. दोनों को तैयार कर के स्कूल भेजतेभेजते दिमाग ने एक निर्णय ले लिया था. राजेश की चाय बना कर उन्हें उठाते हुए मैं ने अपने निर्णय से उन्हें अवगत करा दिया. मेरे निर्णय से राजेश भी सहमत थे. राजेश ने भाईसाहब को फोन किया, ‘‘आप मां को ले कर आज ही जयपुर आ जाइए. हम मां का इलाज यहीं करवाएंगे, लेकिन आप मां को उन की बीमारी के बारे में कुछ भी मत बताना. और हां, कैसे भी उन्हें यहां ले आइए.’’ भाईसाहब भी राजेश से बात कर के थोड़ा सहज हो गए थे और उसी दिन ढाई बजे की बस से रवाना होने को कह दिया.

‘राजेश के साथ पारिवारिक डाक्टर रवि के यहां हो आते हैं,’ मैं ने सोचा, फिर राजेश से बात की. वे राजेश के बहुत अच्छे मित्र भी हैं. हम दोनों को अचानक आया देख कर वे चौंक गए. जब हम ने उन्हें अपने आने का कारण बताया तो उन्होंने हमें महावीर कैंसर अस्पताल जाने की सलाह दी. उसी समय उन्होंने वहां अपने कैंसर स्पैशलिस्ट मित्र डा. हेमंत से फोन कर के दोपहर का अपौइंटमैंट ले लिया. डा. हेमंत से मिल कर कुछ सुकून मिला. उन्होंने बताया कि स्तन कैंसर से डरने की कोई बात नहीं है. आजकल तो यह पूरी तरह से ठीक हो जाता है. आप सब से पहले मुझे यह बताइए कि माताजी की यह समस्या कब सामने आई?

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मैं ने बताया कि एक सप्ताह पहले माताजी ने झिझकते हुए मुझे अपने एक स्तन में गांठ होने की बात कही थी तो अंदर ही अंदर मैं डर गई थी. लेकिन मैं ने उन से कहा कि मम्मीजी, आप चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा. जब 4-5 दिनों में वह गांठ कुछ ज्यादा ही उभर कर सामने आई तो मम्मीजी चिंतित हो गईं और उन की चिंता दूर करने के लिए भाईसाहब उन्हें दिखाने एक डाक्टर के पास ले गए. जब डाक्टर ने सभी जांच रिपोर्ट्स देखीं तो कैंसर की पुष्टि की.

सब सुनने के बाद डा. हेमंत ने भी कहा, ‘‘आप तुरंत माताजी को यहां ले आएं.’’ मैं ने उन्हें बता दिया कि वे आज शाम को ही यहां पहुंच रही हैं. डा. हेमंत ने अगले दिन सुबह आने का समय दे दिया. राहत की सांस ले कर हम घर चले आए.

रात साढ़े 8 बजे मम्मीजी भाईसाहब के साथ जयपुर पहुंच गईं. राजेश गाड़ी से उन्हें घर ले आए. आते ही मम्मीजी ने पूछा कि क्या हो गया है उन्हें? तुम ने यहां क्यों बुला लिया? मम्मीजी की बात सुन कर मैं ने सहज ही कहा, ‘‘मम्मीजी, ऐसा कुछ नहीं है. बच्चे आप को याद कर रहे थे और आप की गांठ की बात सुन कर राजेश भी कुछ विचलित हो गए थे, इसलिए मैं ने सामान्य चैकअप के लिए आप को यहां बुला लिया है. आप चिंता न करें, आप बिलकुल ठीक हैं.’’ मेरी बात सुन कर मम्मीजी सहज हो गईं. तभी बच्चों को चुप देख कर उन्होंने पूछा, ‘‘अरे, नीटूचीनू तुम दूर क्यों खड़े हो? यह देखो मैं तुम्हारे लिए क्याक्या लाई हूं.’’ बच्चे भी दादी को हंसते हुए देख दौड़ कर उन से लिपट पड़े. ‘‘दादीमां, आप कितने दिनों बाद यहां आई हो. अब हम आप को यहां से कभी भी जाने नहीं देंगे.’’ बच्चों के सहज स्नेह से अभिभूत मम्मीजी उन को अपने लाए खिलौने दिखाने में व्यस्त हो गईं, तो मैं रसोई में उन के लिए चाय बनाने चली गई. इसी बीच राजेश ने भाईसाहब को डा. हेमंत से हुई बातचीत बता दी. अगले दिन सुबह जल्दी तैयार हो कर मम्मीजी राजेश और भाईसाहब के साथ अस्पताल चली गईं.

कैंसर अस्पताल का बोर्ड देख कर मम्मी चौंकी थीं, पर राजेश ने होशियारी बरतते हुए कहा, ‘‘आप पढि़ए, यहां पर लिखा है, ‘भगवान महावीर कैंसर ऐंड रिसर्च इंस्टिट्यूट.’ कैंसर के इलाज के साथ जांचों के लिए यही बड़ा केंद्र है.’’ मां यह बात सुन कर चुप हो गई थीं. अगले 2 दिन जांचों में ही चले गए. इस दौरान उन्हें कुछ शंका हुई, वे बारबार मुझ से पूछतीं, ‘‘तुम ही बताओ, आखिर मुझे हुआ क्या है? ये दोनों भाई तो कुछ बताते नहीं. तुम तो कुछ बताओ. तुम्हें तो सब पता होगा?’’ मैं सहज रूप से कहती, ‘‘अरे, मम्मीजी, आप को कुछ नहीं हुआ है. यह स्तन की साधारण सी गांठ है, जिसे निकलवाना है. डाक्टर छोटी सी सर्जरी करेंगे और आप एकदम ठीक हो जाओगी.’’

‘‘पर यह गांठ कुछ दर्द तो करती नहीं है, फिर निकलवाने की क्या जरूरत है?’’ उन के मुंह से यह सुन कर मुझे सहज ही पता चल गया कि कैंसर के बारे में हमारी अज्ञानता ही इस रोग को बढ़ाती है. मम्मीजी ने तो मुझे यह भी बताया कि उन के स्कूल की एक अध्यापिका ने उन्हें एक वैद्य का पता बताया था जोकि बिना किसी सर्जरी के एक सप्ताह के भीतर अपनी आयुर्वेदिक गोलियों और चूर्ण से यह गांठ गला सकते हैं. मैं ने साफ कह दिया, ‘‘मम्मीजी, हमें इन चक्करों में नहीं पड़ना है.’’ मेरी बात सुन कर वे निरुत्तर हो गईं. जांच रिपोर्ट आने के तीसरे दिन ही डाक्टर ने औपरेशन की तारीख निश्चित कर दी थी. औपरेशन के एक दिन पहले ही रात को मम्मीजी को अस्पताल में भरती करवा दिया गया. राजेश और भाईसाहब मां की जरूरत का सामान बैग में ले कर अस्पताल चले गए.

अगले दिन ब्लडप्रैशर नौर्मल होने पर सवेरे 9 बजे मम्मीजी को औपरेशन थिएटर में ले जाया गया. हम लोग औपरेशन थिएटर के बाहर बैठ इंतजार कर रहे थे. साढ़े 11 बजे तक मम्मीजी का औपरेशन चला. उन के एक ही स्तन में 2 गांठें थीं. सर्जरी से डाक्टर ने पूरे स्तन को ही हटा दिया.

अचानक ही आईसीयू से पुकार हुई, ‘‘शांति के साथ कौन है?’ सुन कर हम सभी जड़ हो गए. राजेश को आगे धकेलते हुए हम ने जैसेतैसे कहा, ‘‘हम साथ हैं.’’ डाक्टर ने राजेश को अंदर बुलाया और कहा कि औपरेशन सफल रहा है. अब इस स्तन के टुकड़े को जांच के लिए मुंबई प्रयोगशाला में भेजेंगे ताकि यह पता लग सके कि कैंसर किस अवस्था में था. राजेश को उन्होंने कहा, ‘‘आप चिंता नहीं करें, आप की माताजी बिलकुल ठीक हैं. औपरेशन सफलतापूर्वक हो गया है तथा 4 से 6 घंटे बाद उन्हें होश आ जाएगा.’’

राजेश जब बाहर आए तो वे सहज थे. उन को शांत देख कर हमें भी चैन आया. तभी भाईसाहब ने परेशान होते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ? तुम्हें अंदर क्यों बुलाया था?’’ राजेश ने बताया कि चिंता की बात नहीं है. डाक्टर ने सर्जरी कर हटाए गए स्तन को दिखाने के लिए बुलाया था. मम्मीजी बिलकुल ठीक हैं.

शाम को करीब साढ़े 7 बजे मम्मीजी को होश आया. होश आते ही उन्होंने पानी मांगा. भाईसाहब ने उन्हें थोड़ा पानी पिलाया. तब तक दीदी भी बीकानेर से आ चुकी थीं. दीदी आते ही रोने लगीं तो हम ने उन्हें मां के सफल औपरेशन के बारे में बताया. जान कर दीदी भी शांत हो गईं. अगले दिन सुबह मां को आईसीयू से वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. उन्हें हलका खाना जैसे खिचड़ी, दलिया, चायदूध देने की इजाजत दी गई थी.

3 दिनों तक तो उन्हें औपरेशन कहां हुआ है, यह पता ही नहीं चला, लेकिन जैसे ही पता चला वे बहुत दुखी हुईं और रोने लगीं. तब मैं ने उन्हें बताया, ‘‘मम्मीजी, अब चिंता की कोई बात नहीं है. एक संकट अचानक आया था और अब टल चुका है. अब आप एकदम स्वस्थ हैं.’’ 10 दिनों तक हम सभी हौस्पिटल के चक्कर लगाते रहे. मम्मीजी को अस्पताल से छुट्टी मिल गई तो फिर घर आ गए. घर पहुंच कर हम सभी ने राहत की सांस ली. भाईसाहब और दीदी को हम ने रवाना कर दिया. मां भी तब तक थोड़ा सहज हो गई थीं. अब उन्हें कैंसर के बारे में पता चल चुका था और वे समझ चुकी थीं कि औपरेशन ही इस का इलाज है.

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एक महीने में उन के टांके सूख गए थे और हम ने हौस्पिटल जा कर उन के टांके कटवाए, क्योंकि वे एक मोटे लोहे के तार से बंधे थे. डाक्टर ने मम्मीजी का हौसला बढ़ाया तथा उन्हें बताया कि अब आप बिलकुल ठीक हैं. आप ने इस बीमारी का पहला पड़ाव सफलतापूर्वक पार कर लिया है. पहले पड़ाव की बात सुन कर हम सभी चौंक गए. ‘‘डाक्टर ये आप क्या कह रहे हैं?’’ राजेश ने जब डाक्टर से पूछा तो उन्होंने बताया कि आप की माताजी का औपरेशन तो अच्छी तरह हो गया है, लेकिन भविष्य में यह बीमारी फिर से उभर कर सामने न आए, इसलिए हमें दूसरे चरण को भी पार करना होगा और वह दूसरा चरण है, कीमोथेरैपी?

‘‘कीमोथेरैपी,’’ हम ने आश्चर्य जताया. डाक्टर ने बताया कि कैंसर अभी शुरुआती दौर में ही है. यह यहीं समाप्त हो जाए, इस के लिए हमें कीमोथेरैपी देनी होगी. कैंसर के कीटाणु के विकास की थोड़ीबहुत आशंका भी अगर हो तो उसे कीमोथेरैपी से खत्म कर दिया जाएगा. डाक्टर ने बताया कि आप की माताजी के टांके अब सूख चुके हैं. सो, ये कीमोथेरैपी के लिए बिलकुल तैयार हैं. अब आप इन्हें कीमोथेरैपी दिलाने के लिए 4 दिनों बाद यहां ले आएं तो ठीक रहेगा. पता चला, मां को कीमोथेरैपी दी जाएगी. कैंसर में दी जाने वाली यह सब से जरूरी थेरैपी है. 4 दिनों बाद मैं और राजेश मां को ले कर हौस्पिटल पहुंचे. 9 बजे से कीमोथेरैपी देनी शुरू कर दी गई. थेरैपी से पहले मां को 3 दवाइयां दी गईं ताकि थेरैपी के दौरान उन्हें उलटियां न हों. 2 बोतल ग्लूकोज की पहले, फिर कैंसर से बचाव की वह लाल रंग की बड़ी बोतल और उस के बाद फिर से 3 बोतल ग्लूकोज की तथा एक और छोटी बोतल किसी और दवाई की ड्रिप द्वारा मां को चढ़ाई जा रही थीं. धीरेधीरे दी जाने वाली इस पहली थेरैपी के खत्म होतेहोते शाम के 7 बज चुके थे. मैं अकेली मां के पास बैठी थी. शाम को औफिस से राजेश सीधे हौस्पिटल ही आ गए थे.

रात को 8 बजे हम तीनों घर पहुंचे. थेरैपी की वजह से मम्मीजी का सिर चकरा रहा था. हलका खाना खा कर वे सो गईं. अब अगली थेरैपी उन्हें 21 दिनों के बाद दी जानी थी. पहली थेरैपी के बाद ही उन के घने लंबे बाल पूरी तरह झड़ गए. यह देख कर हम सभी काफी दुखी हुए. बाल झड़ने के कारण मां पूरे समय अपने सिर को स्कार्फ से ढक कर रखती थीं. कई बार मां इस दौरान कहतीं, ‘‘कैंसर के औपरेशन में इतनी तकलीफ नहीं हुई जितनी इस थेरैपी से हो रही है.’’

मैं उन को ढाढ़स बंधाती, ‘‘मम्मीजी, आप चिंता मत करो, यह तो पहली थेरैपी है न, इसलिए आप को ज्यादा तकलीफ हो रही है. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’ थेरैपी के प्रभाव के फलस्वरूप उन की जीभ पर छाले उभर आए. पानी पीने के अलावा कोई चीज वे सहज रूप से नहीं खापी पाती थीं. यह देख कर हम सभी को बहुत कष्ट होता था. उन के लिए बिना मिर्च, नमक का दलिया, खिचड़ी बनाने लगी, ताकि वे कुछ तो खा सकें. फलों का जूस भी थोड़ाथोड़ा देती रहती थी ताकि उन को कुछ राहत मिले. इस तरह 21-21 दिन के अंतराल में उन की सभी 6 थेरैपी पूरी हुईं.

हालांकि ये थेरैपी मम्मीजी के लिए बहुत कष्टकारी थीं लेकिन हम सभी यही सोचते थे कि स्वास्थ्य की तरफ मां का यह दूसरा चरण भी सफलतापूर्वक संपन्न हो जाए, तो अच्छा है. जिस दिन अंतिम थेरैपी पूरी हुई तो मां के साथ मैं ने और राजेश ने भी राहत की सांस ली. जब डाक्टर से मिलने उन के कैबिन में गए तो खुश होते हुए डाक्टर ने हमें

बधाई दी, ‘‘अब आप की माताजी बिलकुल स्वस्थ हैं. बस, वे अपने खानेपीने का ध्यान रखें. पौष्टिक भोजन, फल, सलाद और जूस लेती रहें. सामान्य व्यायाम, वाकिंग करती रहें, तो अच्छा होगा.’’ इस के साथ ही डाक्टर ने हमें यह हिदायत विशेषरूप से दी कि जिस स्तन का औपरेशन हुआ है उस तरफ के हाथ पर किसी तरह का कोई कट नहीं लगने पाए. डाक्टर से सारी हिदायतें और जानकारी ले कर हम घर आ गए. अब हर 6 महीने के अंतराल में मां की पूरी जांच करवाते रहना जरूरी था ताकि उन का स्वास्थ्य ठीक रहे और भविष्य में इस तरह की कोई परेशानी सामने न आए. एक महीने आराम के बाद मम्मीजी वापस बीकानेर लौट गई थीं.

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6 साल हो गए हैं. अब तो डाक्टर ने जांच भी साल में एक बार कराने के लिए कह दिया. मम्मीजी का जीवन दोबारा उसी रफ्तार और क्रियाशीलता के साथ शुरू हो गया. आज मम्मीजी अपने स्कूल और महल्ले में सब की प्रेरणास्रोत हैं. आज वे पहले से भी अधिक ऐक्टिव हो गई हैं. अब वे 2 स्तरों पर अध्यापन करवाती हैं- एक अपने स्कूल में और दूसरे कैंसर के प्रति सभी को जागरूक व सजग रहने के लिए प्रेरित करती हैं. उन्हें स्वस्थ और प्रसन्न देख कर मेरे साथ पूरा परिवार और रिश्तेदार सभी फिर से उन के स्नेह की छत्रछाया में खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं.

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