Famous Hindi Stories : रोशनी – मां के फैसले से अक्षिता हैरान क्यों रह गई?

Famous Hindi Stories :  खिड़कीसे आती रोशनी में बादामी परदे सुनहरे हुए जा रहे थे. मेरी नजर उन से होते हुए ड्राइंगरूम में सजे हलकेनीले रंग के सोफे, कांच की चमकती टेबल, शैल्फ पर सजे खूबसूरत शो पीसेज से वापस सामने बैठी अपनी बेटी अक्षिता के चेहरे पर टिक गई. मेरी पूरी कोशिश थी कि मैं टेबल पर रखे फोटोफ्रेम में उस की बगल में लगे लड़के के फोटो को न देखूं. बगल में बैठे आनंद के बमुश्किल दबाए गुस्से की भभक भी महसूस न करूं. पर ये सब मेरी कनपटी पर धमक पैदा कर रहे थे. सामने बैठी अक्षिता अपने दोस्त आयुष के साथ अपने लिव इन रिलेशनशिप में रहने के बारे में जाने क्याक्या बताए जा रही थी.

पर मैं उस की बात समझने में लगातार नाकामयाब हुई जा रही थी. दिमाग ने जैसे काम करना बंद कर दिया था. और धड़कनें बेलगाम भाग रही थीं. मेरे चश्मे का कांच बारबार धुंधला रहा था, पर उसे उतार कर पोंछने की ताकत नहीं थी मुझ में. मन मान ही नहीं पा रहा था कि मेरी यह नन्ही सी बच्ची जो कुछ वक्त पहले तक मेरी उंगली पकड़ कर चलती थी, मम्मामम्मा करती आगेपीछे घूमती थी, अपने पापा से फरमाइशें करती नहीं थकती थी, बातबात पर रो देती थी. क्या बाहर रह कर नौकरी करते ही अचानक इतनी बड़ी हो गई कि इतना बड़ा कदम उठा बैठी… एक अनजान लड़के के साथ… वह भी बिना शादी किए?

मेरे गले में कुछ अटकने लगा. डबडबाती आंखें बरसने को आतुर होने लगीं. बगल में बैठे आनंद की लगातार बढ़ती कसमसाहट बता रही थी कि अब उन का गुस्सा अपनी हद तोड़ने ही वाला है. ‘‘मम्मा,’’ अक्षिता का हाथ अपनी हथेलियों पर महसूस हुआ, तो मैं चौंक पड़ी.

मेज को हलके से खिसका कर वह मेरे सामने जमीन पर बैठते हुए मुझ से कह रही थी, ‘‘मैं नहीं चाहती थी कि आप को किसी और से यह बात पता चले. तभी आप को बुलाया. मैं आप दोनों को बहुत प्यार करती हूं… पर आप भी तो मेरी बात समझिए. मैं और आयुष… पसंदगी की वजह से साथ रहते हैं पर अपनेअपने बरतन और कपड़े खुद धोते हैं, सारे खर्चे शेयर करते हैं. न मैं उस का देर रात तक इंतजार करती हूं और न वह आप का नाम ले कर मुझे ताने दे सकता है… न मैं उस के लिए बेमन से व्रतउपवास रखने को बाध्य हूं, न ही वह मेरे लिए अपने तौरतरीके बदलने को. अपने कैरियर, अपनी फैमिली के बारे में खुद फैसले लेते हैं, एकदूसरे पर थोपते नहीं. हमारी इन्वैस्टमैंट्स… सेविंग्स सब अलग हैं. पतिपत्नी होने से बेहतर हम दोस्त बनना चाहते हैं पापा. क्या यह इतना गलत है?’’ आनंद के लाल चेहरे पर अब हैरानी थी.

अक्षिता ने आगे कहा, ‘‘शादी के बंधन में बंधने से पहले एकदूसरे को जाननेबूझने में कोई बुराई तो नहीं न? बाद में मजबूरी में शादीशुदा रिश्ता ढोते चले जाने या तलाक की नौटंकी करने से बेहतर है यह देखना कि हम एकदूसरे की इज्जत करते भी हैं या नहीं. अगर हम ऐसा कर पाए, तो शायद हम शादी कर भी लें और अगर नहीं, तो बिना दिल टूटने के खतरे के अलग हो जाएंगे.’’ ‘‘लेकिन…’’

मैं अपनी बात पूरी कर पाती उस से पहले ही अक्षिता ने मेरी गोद में सिर टिका लिया, ‘‘आप दोनों ने मुझे बहुत समझदार बनाया है. अपनी जिंदगी के किसी मुकाम पर पहुंचने से पहले मैं किसी और जिंदगी को इस दुनिया में नहीं लाऊंगी. इतना भरोसा तो मुझ पर है न?’’ मेरा हाथ उस का सिर सहलाने को उठा ही था कि आनंद को उठता देख गिर गया.

वे बोले, ‘‘चलो वंदना…’’ अक्षिता के बुझे चेहरे को देख पहली बार मैं उन से कड़ाई से कुछ बोलने को हुई, तभी उस की पूरी बात ने हमें चौंका दिया. बोले, ‘‘अरे भई, अंदर आराम करते हैं. अब इस आयुष से मिल कर ही वापस जाएंगे.’’

अक्षिता एक झटके में उठ कर हमारे गले लग गई, ‘‘हांहां, मैं उसे फोन कर देती हूं. थैंक्यू पापा… थैंक्यू मम्मी.’’ अक्षिका का माथा चूमते हुए मैं सोच रही थी कि अपनी जिंदगी में सब को कभी न कभी खुद फैसले लेने शुरू कर देने ही चाहिए. मैं ने नहीं किए पर मेरी बेटी ले रही है. अब वह सही निकलेगा या गलत, यह वक्त बताएगा. हालांकि मेरी कामना अभी भी उसे लाल जोड़े में लिपटे इस आयूष के साथ विदा होते देखने की हो रही थी. लेकिन तब जब उस का यह रिश्ता प्यार और भरोसे पर टिका हुआ हो और अगर ऐसा न भी हुआ, तो भी हम हमेशा अपनी बेटी के साथ खड़े रहेंगे. यह फैसला अंदर जाते हुए मैं ले चुकी थी.

नई रोशनी ने हमारे मन में घुमड़ती शंका के बादलों को पूरी तरह भेद डाला था.

Online Hindi Story : आवारा बादल – क्या हो पाया दो आवारा बादलों का मिलन

Online Hindi Story : फाल्गुन अपने रंग धरती पर बिखेरता हुआ, चपलता से गुलाल से गालों को आरक्त करता हुआ, चंचलता से पानी की फुहारों से लोगों के दिलों और उमंगों को भिगोता हुआ चला गया. सेमल के लालनारंगी फूलों से लदे पेड़ और अलगअलग रंगों में यहांवहां से झांकते बोगेनवेलिया के झाड़, हर ओर मानो रंग ही रंग बिखरे हुए थे.

फाल्गुन जातेजाते गरमियों के आने का संकेत भी कर गया. हालांकि उस समय भी धूप के तीखेपन में कोई कमी नहीं थी, पर सुबहशाम तो प्लेजेंट ही रहते थे, लेकिन जातेजाते वह अपने साथ रंगों की मस्ती तो ले ही गया, साथ ही मौसम की गुनगुनाहट भी.

‘‘उफ, यह गरमी, आई सिंपली हेट इट,’’ माथे पर आए पसीने को दुपट्टे से पोंछते हुए इला ने अपने गौगल्स आंखों पर सटा दिए, ‘‘लगता है हर समय या तो छतरी ले कर निकलना होगा या फिर एसी कार में जाना पड़ेगा,’’ कहतेकहते वह खुद ही हंस पड़ी.

‘‘तो मैडम, यह काम क्या इस बंदे को करना होगा कि रोज सुबह आप के घर से निकलने से पहले फोन कर के आप को छतरी रखने के लिए याद दिलाए या फिर खुद ही छतरी ले कर आप की सेवा में हाजिर होना पड़ेगा,’’ व्योम चलतेचलते ठहर गया था.

उस की बात सुन इला को भी हंसी आ गई.

‘‘ज्यादा स्टाइल मारने के बजाय कुछ ठंडा पिला दो तो बेहतर होगा.’’

‘‘क्या लोगी? कोल्ड कौफी या कोल्ड ड्रिंक?’’

‘‘कोल्ड कौफी मिल जाए तो मजा आ जाए,’’ इला चहकी.

‘‘आजकल पहले जैसा तो रहा नहीं कि कोल्ड कौफी कुछ सलैक्टेड आउटलेट्स पर ही मिले. अब तो किसी भी फूड कोर्ट में मिल जाती है. यहीं किसी फूड कोर्ट में बैठते हैं,’’ व्योम बोला.

अब तक दोनों राजीव चौक मैट्रो स्टेशन पर पहुंच चुके थे. भीड़भाड़ और धक्कामुक्की यहां रोज की बात हो गई है. चाहे सुबह हो, दोपहर, शाम या रात, लोगों की आवाजाही में कोई कमी नजर नहीं आती है.

‘‘जहां जाओ हर तरफ शोर और भीड़ ही नजर आती है. पहले ही क्या कम पौल्यूशन था जो अब नौयज पौल्यूशन भी झेलना पड़ता है,’’ इला ने कुरसी पर बैठते हुए कहा.

‘‘अच्छा है यहां एसी है,’’ व्योम मासूम सा चेहरा बना कर बोला, जिसे देख इला जोर से हंस पड़ी, ‘‘उड़ा लो मजाक मेरा, जैसे कि मुझे ही गरमी लगती है.’’

‘‘मैडम गरमी का मौसम है तो गरमी ही लगेगी. अब बिन मौसम बरसात तो आने से रही,’’ व्योम ने कोल्ड कौफी का सिप लेते हुए कहा. उसे इला को छेड़ने में बहुत मजा आ रहा था.

‘‘छेड़ लो बच्चू, कभी तो मेरी बारी भी आएगी,’’ इला ने बनावटी गुस्सा दिखाया.

‘‘बंदे को छेड़ने का पूरा अधिकार है. आखिर प्यार जो करता है और वह भी जीजान से.’’

व्योम की बात से सहमत इला ने सहमति में सिर हिलाया. 2 साल पहले हुई उन की मुलाकात उन के जीवन में प्यार के इतने सतरंगी रंग भर देगी, तब कहां सोचा था उन्होंने. बस, अब तो दोनों को इंतजार है तो एक अच्छी सी नौकरी का. फिर तो तुरंत शादी के बंधन में बंध जाएंगे. व्योेम एमबीए कर चुका था और इला मार्केटिंग के फील्ड में जाना चाहती थी.

‘‘चलो, अब जल्दी करो, पहले ही बहुत देर हो गई है. मां डांटेंगीं कि रोजरोज आखिर व्योम से मिलने क्यों जाना है,’’ इला उठते हुए बोली.

दोनों ग्रीन पार्क स्टेशन से निकल कर बाहर आए ही थे कि वहां बारिश हो रही थी.

‘‘अरे, यह क्या, पीछे तो कहीं भी बारिश नहीं थी. फिर यहां कैसे हो गई? लगता है मौसम भी आज हम पर मेहरबान है, जो बिन मौसम की बारिश से एकदम सुहावना हो गया है,’’ इला हैरान थी.

‘‘मुझे तो लगता है कि दो आवारा बादल के टुकड़े होंगे जो प्यार के नशे की खुमारी में आसमान में टकराए होंगे और बारिश की कुछ बूंदें आ गई होंगी, वरना केवल तुम्हारे ही इलाके में बारिश न हुई होती. जैसे ही उन के नशे की खुमारी उतरेगी, दोनों कहीं दूर छिटक जाएंगे और बस, बारिश भी गायब हो जाएगी,’’ आसमान को देखता हुआ व्योम कुछ शायराना अंदाज में बोला.

‘‘तुम भी किसी आवारा बादल की तरह मुझे छोड़ कर तो नहीं चले जाओगे. कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे प्यार की खुमारी भी एक दिन उतर जाए और तुम भी मुझ से छिटक कर कहीं दूर चले जाओ,’’ इला की गंभीर आवाज में एक दर्द छिपा था. शायद उस अनजाने भय की निशानी था जो हर प्यार करने वाले के दिल में कहीं न कहीं छिपा होता है.

‘‘कैसी बातें कर रही हो? आखिर तुम सोच भी कैसे लेती हो ऐसा? मैं क्यों जाऊंगा तुम्हें छोड़ कर,’’ व्योम भी भावुक हो गया था, ‘‘मेरा प्यार इतना खोखला नहीं है. मैं खुद इसे साबित नहीं करना चाहता, पर कभी मन में शक आए तो आजमा लेना.’’

‘‘मैं तो मजाक कर रही थी,’’ इला ने व्योम का हाथ कस कर थामते हुए कहा. जब से वह उस की जिंदगी में आया था, उसे लगने लगा था कि हर चीज बहुत खूबसूरत हो गई है. कितना परफैक्ट इंसान है वह. प्यार, सम्मान देने के साथसाथ उसे बखूबी समझता भी है. बिना कुछ कहे भी जब कोई आप की बात समझ जाए तो वही प्यार कहलाता है.

इला को एक कंपनी में मार्केटिंग ऐग्जीक्यूटिव का जौब मिल गया और व्योम का विदेश से औफर आया, लेकिन वह इला से दूर नहीं जाना चाहता था. इला के बहुत समझाने पर वह मान गया और सिंगापुर चला गया. दोनों ने तय किया था कि 6 महीने बाद जब दोनों अपनीअपनी नौकरी में सैट हो जाएंगे, तभी शादी करेंगे. फोन, मैसेज और वैबकैम पर रोज उन की बात होती और अपने दिल का सारा हाल एकदूसरे से कहने के बाद ही उन्हें चैन आता.

इला कंपनी के एक नए प्रोडक्ट की पब्लिसिटी के लिए जयपुर गई थी, क्योंकि उसी मार्केट में उन्हें उस प्रोडक्ट को प्रमोट करना था. वहां से वापस आते हुए वह बहुत उत्साहित थी, क्योंकि उसे बहुत अच्छा रिस्पौंस मिला था और उस ने फोन पर यह बात व्योम को बता भी दी थी. अब एक प्रमोशन उस का ड्यू हो गया था. लेकिन उसे नहीं पता था कि नियति उस की खुशियों के चटकीले रंगों में काले, स्याह रंग उड़ेलने वाली है.

रात का समय था, न जाने कैसे ड्राइवर का बैलेंस बिगड़ा और उन की कार एक ट्रक से टकरा गई. ड्राइवर की तो तभी मौत हो गई. लेकिन हफ्ते बाद जब उसे होश आया तो पता चला कि उसे सिर पर गहरी चोट आई थी और उस की आवाज ही चली गई थी.

धुंधला सा कुछ याद आ रहा था कि वह व्योम से बात कर रही थी कि तभी सामने आते ट्रक को देख उसे लगा था कि शायद वह व्योम से आखिरी बार बात कर रही है और वह चिल्ला कर ड्राइवर को सचेत करना ही चाहती थी कि आवाज ही नहीं निकली थी. सबकुछ खत्म हो चुका था उस के लिए.

परिवार के लोग इसी बात से खुश थे कि इला सकुशल थी. उस की जान बच गई थी, पर वह जो हर पल व्योम से बात करने को लालायित रहती थी, नियति से खफा थी, जिस ने उस की आवाज छीन कर व्योम को भी उस से छीन लिया था.

‘‘तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि व्योम अब तुम्हें नहीं अपनाएगा? वह तुम से प्यार करता है, बहुत प्यार करता है, बेटी. उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ेगा,’’ मां ने लाख समझाया पर इला का दर्द उस की आंखों से लगातार बहता रहता. वह केवल लिख कर ही सब से बात करती. उस ने सब से कह दिया था कि व्योम को इस बारे में कुछ न बताया जाए और न ही वह अब उस से कौंटैक्ट रखना चाहती थी.

‘‘अपने प्यार पर इतना ही भरोसा है तुझे?’’ उस की फ्रैंड रमा ने जब सवाल किया तो इला ने लिखा, ‘अपने प्यार पर तो मुझे बहुत भरोसा है, पर मैं आधीअधूरी इला जो अपनी बात तक किसी को कह न सके, उसे सौंपना नहीं चाहती. वह एक परफैक्ट इंसान है, उसे परफैक्ट ही मिलना चाहिए सबकुछ.’

व्योम ने बहुत बार उस से मिलने की कोशिश की, फोन किया, मैसेज भेजे, चैट पर इन्वाइट किया, पर इला की तो जैसे आवाज के साथसाथ भावनाएं भी मौन हो गई थीं. अपने सपनों को उस ने चुप्पी के तालों के पीछे कैद कर दिया था. उस की आवाज पर कितना फिदा था व्योम. कैसी अजीब विडंबना है न जीवन की, जो चीज सब से प्यारी थी उस से वही छिन गई थी.

3-4 महीने बाद व्योम के साथ उस का संपर्क बिलकुल ही टूट गया. व्योम ने फोन करने बंद कर दिए थे. ऐसा ही तो चाहती थी वह, फिर क्यों उसे बुरा लगता था. कई बार सोचती कि आखिर व्योम भी किसी आवारा बादल की तरह ही निकला जिस के प्यार के नशे की खुमारी उस के एक ऐक्सिडैंट के साथ उतर गई.

वक्त गुजरने के साथ इला ने अपने को संभाल लिया. उस ने साइन लैंग्वेज सीख ली और मूकबधिरों के एक संस्थान में नौकरी कर ली. वक्त तो गुजर जाता था उस का, पर व्योम का प्यार जबतब टीस बन कर उभर आता था. उसे समझ ही नहीं आता था कि उस ने व्योम को बिना कुछ कहनेसुनने का मौका दिए उस के प्यार का अपमान किया था या व्योम ने उसे छला था. जब भी बारिश आती तो आवारा बादल का खयाल उसे आ जाता.

वह मौल में शौपिंग कर रही थी, लगा कोई उस का पीछा कर रहा है. कोई जानीपहचानी आहट, एक परिचित सी खुशबू और दिल के तारों को छूता कोई संगीत सा उसे अपने कानों में बजता महसूस हुआ.

ऐस्केलेटर पर ही पीछे मुड़ कर देखा. चटकीले रंगों में मानो फूल ही फूल हर ओर बिखरते महसूस हुए. जल्दीजल्दी वहां से कदम बढ़ाने लगी, मानो उस परिचय के बंधन से छूट कर भाग जाना चाहती हो. अचानक उस का हाथ कस कर पकड़ लिया उस ने.

ओह, इस छुअन के लिए पूरे एक बरस से तरस रही है वह. मन में असंख्य प्रश्न और तरंगें बहने लगीं. पर कहे तो कैसे कहे वह? लब हिले भी तो वह सच जान जाएगा तब…हाथ छुड़ाना चाहा, पर नाकामयाब रही.

भरपूर नजरों से व्योम ने इला को देखा. प्यार था उस की आंखों में…वही प्यार जो पहले इला को उस की आंखों में दिखता था.

‘‘कैसी हो,’’ व्योम ने हाथों के इशारे से पूछा, ‘‘मुझे बस इतना ही समझा. एक बार भी मेरे प्यार पर भरोसा करने का मन नहीं हुआ तुम्हारा?’’ अनगिनत प्रश्न व्योम पूछ रहा था, पर यह क्या, वह तो साइन लैंग्वेज का इस्तेमाल कर रहा था.

अवाक थी इला, ‘‘तुम बोल क्यों नहीं रहे हो,’’ उस ने इशारे से पूछा.

‘‘क्योंकि तुम नहीं बोल सकती. तुम ने कैसे सोच लिया कि तुम्हारी आवाज चली गई तो मैं तुम्हें प्यार करना छोड़ दूंगा. मैं कोई आवारा बादल नहीं. जब तुम्हारे मुझ से कौंटैक्ट न रखने की वजह पता चली तो मैं ने ठान लिया कि मैं भी अपना प्यार साबित कर के ही रहूंगा. बस, तब से साइन लैंग्वेज सीख रहा था. अब जब मुझे आ गई तो तुम्हारे सामने आ गया.’’

उस के बाद इशारों में ही दोनों घंटों शिकवेशिकायतें करते रहे. इला के आंसू बहे जा रहे थे. उस के आंसू पोंछते हुए व्योम बोला, ‘‘लगता है दो आवारा बादल इस बार तुम्हारी आंखों से बरस रहे हैं.’’

व्योम के सीने से लगते हुए इला को लगा कि व्योम वह बादल है जो जब आसमान में उड़ता है तो बारिश को तरसती धरती उस की बूंदों से भीग जी उठती है.

Best Hindi Story : फैसला – सुरेश और प्रभाकर में से बिट्टी ने किसे चुना

Best Hindi Story : रजनीगंधा की बड़ी डालियों को माली ने अजीब तरीके से काटछांट दिया था. उन्हें सजाने में मुझे बड़ी मुश्किल हो रही थी. बिट्टी ने अपने झबरे बालों को झटका कर एक बार उन डालियों से झांका, फिर हंस कर पूछा, ‘‘मां, क्यों इतनी परेशान हो रही हो. अरे, प्रभाकर और सुरेश ही तो आ रहे हैं…वे तो अकसर आते ही रहते हैं.’’ ‘‘रोज और आज में फर्क है,’’ अपनी गुडि़या सी लाड़ली बिटिया को मैं ने प्यार से झिड़का, ‘‘एक तो कुछ करनाधरना नहीं, उस पर लैक्चर पिलाने आ गई. आज उन दोनों को हम ने बुलाया है.’’

बिट्टी ने हां में सिर हिलाया और हंसती हुई अपने कमरे में चली गई. अजीब लड़की है, हफ्ताभर पहले तो लगता था, यह बिट्टी नहीं गंभीरता का मुखौटा चढ़ाए उस की कोई प्रतिमा है. खोईखोई आंखें और परेशान चेहरा, मुझे राजदार बनाते ही मानो उस की उदासी कपूर की तरह उड़ गई और वही मस्ती उस की रगों में फिर से समा गई.

‘मां, तुम अनुभवी हो. मैं ने तुम्हें ही सब से करीब पाया है. जो निर्णय तुम्हारा होगा, वही मेरा भी होगा. मेरे सामने 2 रास्ते हैं, मेरा मार्गदर्शन करो.’ फिर आश्वासन देने पर वह मुसकरा दी. परंतु उसे तसल्ली देने के बाद मेरे अंदर जो तूफान उठा, उस से वह अनजान थी. अपनी बेटी के मन में उठती लपटों को मैं ने सहज ही जान लिया था. तभी तो उस दिन उसे पकड़ लिया.

कई दिनों से बिट्टी सुस्त दिख रही थी, खोईखोई सी आंखें और चेहरे पर विषाद की रेखाएं, मैं उसे देखते ही समझ गई थी कि जरूर कोई बात है जो वह अपने दिल में बिठाए हुए है. लेकिन मैं चाहती थी कि बिट्टी हमेशा की तरह स्वयं ही मुझे बताए. उस दिन शाम को जब वह कालेज से लौटी तो रोज की अपेक्षा ज्यादा ही उदास दिखी. उसे चाय का प्याला थमा कर जब मैं लौटने लगी तो उस ने मेरा हाथ पकड़ कर रोक लिया और रोने लगी.

बचपन से ही बिट्टी का स्वभाव बहुत हंसमुख और चंचल था. बातबात में ठहाके लगाने वाली बिट्टी जब भी उदास होती या उस की मासूम आंखें आंसुओं से डबडबातीं तो मैं विचलित हो उठती. बिट्टी के सिवा मेरा और था ही कौन? पति से मानसिकरूप से दूर, मैं बिट्टी को जितना अपने पास करती, वह उतनी ही मेरे करीब आती गई. वह सारी बातों की जानकारी मुझे देती रहती. वह जानती थी कि उस की खुशी में ही मेरी खुशी झलकती है. इसी कारण उस के मन की उठती व्यथा से वही नहीं, मैं भी विचलित हो उठी. सुरेश हमारे बगल वाले फ्लैट में ही रहता था. बचपन से बिट्टी और सुरेश साथसाथ खेलते आए थे. दोनों परिवारों का एकदूसरे के यहां आनाजाना था. उस की मां मुझे मानती थी. मेरे पति योगेश को तो अपने व्यापार से ही फुरसत नहीं थी, पर मैं फुरसत के कुछ पल जरूर उन के साथ बिता लेती. सुरेश बेहद सीधासादा, अपनेआप में खोया रहने वाला लड़का था, लेकिन बिट्टी मस्त लड़की थी.

बिट्टी का रोना कुछ कम हुआ तो मैं ने पूछ लिया, ‘आजकल सुरेश क्यों नहीं आता?’ ‘वह…,’ बिट्टी की नम आंखें उलझ सी गईं.

‘बता न, प्रभाकर अकसर मुझे दिखता है, सुरेश क्यों नहीं?’ मेरा शक सही था. बिट्टी की उदासी का कारण उस के मन का भटकाव ही था. ‘मां, वह मुझ से कटाकटा रहता है.’

‘क्यों?’ ‘वह समझता है, मैं प्रभाकर से प्रेम करती हूं.’

‘और तू?’ मैं ने उसी से प्रश्न कर दिया. ‘मैं…मैं…खुद नहीं जानती कि मैं किसे चाहती हूं. जब प्रभाकर के पास होती हूं तो सुरेश की कमी महसूस होती है, लेकिन जब सुरेश से बातें करती हूं तो प्रभाकर की चाहत मन में उठती है. तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं. किसे अपना जीवनसाथी चुनूं?’ कह कर वह मुझ से लिपट गई.

मैं ने उस के सिर पर हाथ फेरा और सोचने लगी कि कैसा जमाना आ गया है. प्रेम तो एक से ही होता है. प्रेम या जीवनसाथी चुनने का अधिकार उसे मेरे विश्वास ने दिया था. सुरेश उस के बचपन का मित्र था. दोनों एकदूसरे की कमियों को भी जानते थे, जबकि प्रभाकर ने 2 वर्र्ष पूर्व उस के जीवन में प्रवेश किया था. बिट्टी बीएड कर रही थी और हम उस का विवाह शीघ्र कर देना चाहते थे, लेकिन वह स्वयं नहीं समझ पा रही थी कि उस का पति कौन हो सकता है, वह किस से प्रेम करती है और किसे अपनाए. परंतु मैं जानती थी, निश्चितरूप से वह प्रेम पूर्णरूप से किसी एक को ही करती है. दूसरे से महज दोस्ती है. वह नहीं जानती कि वह किसे चाहती है, परंतु निश्चित ही किसी एक का ही पलड़ा भारी होगा. वह किस का है, मुझे यही देखना था.

रात में बिट्टी पढ़तेपढ़ते सो गई तो उसे चादर ओढ़ा कर मैं भी बगल के बिस्तर पर लेट गई. योगेश 2 दिनों से बाहर गए हुए थे. बिट्टी उन की भी बेटी थी, लेकिन मैं जानती थी, यदि वे यहां होते, तो भी बिट्टी के भविष्य से ज्यादा अपने व्यापार को ले कर ही चिंतित होते. कभीकभी मैं समझ नहीं पाती कि उन्हें बेटी या पत्नी से ज्यादा काम क्यों प्यारा है. बिस्तर पर लेट कर रोजाना की तरह मैं ने कुछ पढ़ना चाहा, परंतु एक भी शब्द पल्ले न पड़ा. घूमफिर कर दिमाग पीछे की तरफ दौड़ने लगता. मैं हर बार उसे खींच कर बाहर लाती और वह हर बार बेशर्मों की तरह मुझे अतीत की तरफ खींच लेता. अपने अतीत के अध्याय को तो मैं जाने कब का बंद कर चुकी थी, परंतु बिट्टी के मासूम चेहरे को देखते हुए मैं अपने को अतीत में जाने से न रोक सकी…

जब मैं भी बिट्टी की उम्र की थी, तब मुझे भी यह रोग हो गया था. हां, तब वह रोग ही था. विशेषरूप से हमारे परिवार में तो प्रेम कैंसर से कम खतरनाक नहीं था. तब न तो मेरी मां इतनी सहिष्णु थीं, जो मेरा फैसला मेरे हक में सुना देतीं, न ही पिता इतने उदासीन थे कि मेरी पसंद से उन्हें कुछ लेनादेना ही होता. तब घर की देहरी पर ज्यादा देर खड़ा होना बूआ या दादी की नजरों में बहुत बड़ा गुनाह मान लिया जाता था. किसी लड़के से बात करना तो दूर, किसी लड़की के घर भी भाई को ले कर जाना पड़ता, चाहे भाई छोटा ही क्यों न हो. हजारों बंदिशें थीं, परंतु जवानी कहां किसी के बांधे बंधी है. मेरा अल्हड़ मन आखिर प्रेम से पीडि़त हो ही गया. मैं बड़ी मां के घर गई हुई थी. सुमंत से वहीं मुलाकात हुई थी और मेरा मन प्रेम की पुकार कर बैठा. परंतु बचपन से मिले संस्कारों ने मेरे होंठों का साथ नहीं दिया. सुमंत के प्रणय निवेदन को मां और परिवार के अन्य लोगों ने निष्ठुरता से ठुकरा दिया.

फिर 1 वर्ष के अंदर ही मेरी शादी एक ऐसे व्यक्ति से कर दी गई जो था तो छोटा सा व्यापारी, पर जिस का ध्येय भविष्य में बड़ा आदमी बनने का था. इस के लिए मेरे पति ने व्यापार में हर रास्ता अपनाया. मेरी गोद में बिट्टी को डाल कर वे आश्वस्त हो दिनरात व्यापार की उन्नति के सपने देखते. प्रेम से पराजित मेरा तप्त हृदय पति के प्यार और समर्पण का भूखा था. उन के निस्वार्थ स्पर्श से शायद मैं पहले प्रेम को भूल कर उन की सच्ची सहचरी बनती, पर व्यापार के बीच मेरा बोलना उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था. मुझे याद नहीं, व्यापारिक पार्टी के अलावा वे मुझे कभी कहीं अपने साथ ले गए हों.

लेकिन घर और बिट्टी के बारे में सारे फैसले मेरे होते. उन्हें इस के लिए अवकाश ही न था. बिट्टी द्वारा दी गई जिम्मेदारी से मेरे अतीत की पुस्तक फड़फड़ाती रही. अतीत का अध्याय सारी रात चलता रहा, क्योंकि उस के समाप्त होने तक पक्षियों ने चहचहाना शुरू कर दिया था… दूसरे दिन से मैं बिट्टी के विषय में चौकन्नी हो गई. प्रभाकर का फोन आते ही मैं सतर्क हो जाती. बिट्टी का उस से बात करने का ढंग व चहकना देखती. घंटी की आवाज सुनते ही उस का भागना देखती.

एक दिन सुरेश ने कहा, ‘चाचीजी, देखिएगा, एक दिन मैं प्रशासनिक सेवा में आ कर रहूंगा, मां का एक बड़ा सपना पूरा होगा. मैं आगे बढ़ना चाहता हूं, बहुत आगे,’ उस के ये वाक्य मेरे लिए नए नहीं थे, परंतु अब मैं उन्हें भी तोलने लगी.

प्रभाकर से बिट्टी की मुलाकात उस के एक मित्र की शादी में हुई थी. उस दिन पहली बार बिट्टी जिद कर के मुझ से साड़ी बंधवा कर गईर् थी और बालों में वेणी लगाई थी. उस दिन सुरेश साक्षात्कार देने के लिए इलाहाबाद गया हुआ था. बिट्टी अपनी एक मित्र के साथ थी और उसी के साथ वापस भी आना था. मैं सोच रही थी कि सुरेश होता तो उसे भेज कर बिट्टी को बुलवा सकती थी. उस के आने में काफी देर हो गई थी. मैं बेहद घबरा गई. फोन मिलाया तो घंटी बजती रही, किसी ने उठाया ही नहीं.

लेकिन शीघ्र ही फोन आ गया था कि बिट्टी रात को वहीं रुक जाएगी. दूसरे दिन जब बिट्टी लौटी तो उदास सी थी. मैं ने सोचा, सहेली से बिछुड़ने का दर्द होगा. 2 दिन वह शांत रही, फिर मुझे बताया, ‘मां, वहां मुझे प्रभाकर मिला था.’

‘वह कौन है?’ मैं ने प्रश्न किया. ‘मीता के भाई का दोस्त, फोटो खींच रहा था, मेरे भी बहुत सारे फोटो खींचे.’

‘क्यों?’ ‘मां, वह कहता था कि मैं उसे अच्छी लग रही हूं.’

‘तुम ने उसे पास आने का अवसर दिया होगा?’ मैं ने उसे गहराई से देखा. ‘नहीं, हम लोग डांस कर रहे थे, तभी बीच में वह आया और मुझे ऐसा कह कर चला गया.’

मैं ने उसे आश्वस्त किया कि कुछ लड़के अपना प्रभाव जमाने के लिए बेबाक हरकत करते हैं. फिर शादी वगैरह में तो दूल्हे के मित्र और दुलहन की सहेलियों की नोकझोंक चलती ही रहती है. परंतु 2 दिनों बाद ही प्रभाकर हमारे घर आ गया. उस ने मुझ से भी बातें कीं और बिट्टी से भी. मैं ने लक्ष्य किया कि बिट्टी उस से कम समय में ही खुल गई है.

फिर तो प्रभाकर अकसर ही मेरे सामने ही आता और मुझ से तथा बिट्टी से बतिया कर चला जाता. बिट्टी के कालेज के और मित्र भी आते थे. इस कारण प्रभाकर का आना भी मुझे बुरा नहीं लगा. जिस दिन बिट्टी उस के साथ शीतल पेय या कौफी पी कर आती, मुझे बता देती. एकाध बार वह अपने भाई को ले कर भी आया था. इस दौरान शायद बिट्टी सुरेश को कुछ भूल सी गई. सुरेश भी पढ़ाई में व्यस्त था. फिर प्रभाकर की भी परीक्षा आ गई और वह भी व्यस्त हो गया. बिट्टी अपनी पढ़ाई में लगी थी.

धीरेधीरे 2 वर्ष बीत गए. बिट्टी बीएड करने लगी. उस के विवाह का जिक्र मैं पति से कई बार चुकी थी. बिट्टी को भी मैं बता चुकी थी कि यदि उसे कोई लड़का पति के रूप में पसंद हो तो बता दे. फिर तो एक सप्ताह पूर्व की वह घटना घट गई, जब बिट्टी ने स्वीकारा कि उसे प्रेम है, पर किस से, वह निर्णय वह नहीं ले पा रही है.

सुरेश के परिवार से मैं खूब परिचित थी. प्रभाकर के पिता से भी मिलना जरूरी लगा. पति को जाने का अवसर जाने कब मिलता, इस कारण प्रभाकर को बताए बगैर मैं उस के पिता से मिलने चल दी.

बेहतर आधुनिक सुविधाओं से युक्त उन का मकान न छोटा था, न बहुत बड़ा. प्रभाकर के पिता का अच्छाखासा व्यापार था. पत्नी को गुजरे 5 वर्ष हो चुके थे. बेटी कोई थी नहीं, बेटों से उन्हें बहुत लगाव था. इसी कारण प्रभाकर को भी विश्वास था कि उस की पसंद को पिता कभी नापसंद नहीं करेंगे और हुआ भी वही. वे बोले, ‘मैं बिट्टी से मिल चुका हूं, प्यारी बच्ची है.’ इधरउधर की बातों के बीच ही उन्होंने संकेत में मुझे बता दिया कि प्रभाकर की पसंद से उन्हें इनकार नहीं है और प्रत्यक्षरूप से मैं ने भी जता दिया कि मैं बिट्टी की मां हूं और किस प्रयोजन से उन के पास आई हूं.

‘‘कहां खोई हो, मां?’’ कमरे से बाहर निकलते हुए बिट्टी बोली. मैं चौंक पड़ी. रजनीगंधा की डालियों को पकड़े कब से मैं भावशून्य खड़ी थी. अतीत चलचित्र सा घूमता चला गया. कहानी पूरी नहीं हो पाई थी, अंत बाकी था.

जब घर में प्रभाकर और सुरेश ने एकसाथ प्रवेश किया तो यों प्रतीत हुआ, मानो दोनों एक ही डाली के फूल हों. दोनों ही सुंदर और होनहार थे और बिट्टी को चाहने वाले. प्रभाकर ने तो बिट्टी से विवाह की इच्छा भी प्रकट कर दी थी, परंतु सुरेश अंतर्मुखी व्यक्तित्व का होने के कारण उचित मौके की तलाश में था.

सुरेश ने झुक कर मेरे पांव छुए और बिट्टी को एक गुलाब का फूल पकड़ा कर उस का गाल थपथपा दिया. ‘‘आते समय बगीचे पर नजर पड़ गई, तोड़ लाया.’’

प्रभाकर ने मुझे नमस्ते किया और पूरे घर में नाचते हुए रसोई में प्रवेश कर गया. उस ने दोचार चीजें चखीं और फिर बिट्टी के पास आ कर बैठ गया. मैं भोजन की अंतिम तैयारी में लग गई और बिट्टी ने संगीत की एक मीठी धुन लगा दी. प्रभाकर के पांव बैठेबैठे ही थिरकने लगे. सुरेश बैठक में आते ही रैक के पास जा कर खड़ा हो गया और झुक कर पुस्तकों को देखने लगा. वह जब भी हमारे घर आता, किसी पत्रिका या पुस्तक को देखते ही उसे उठा लेता. वह संकोची स्वभाव का था, भूखा रह जाता. मगर कभी उस ने मुझ से कुछ मांग कर नहीं खाया था.

मैं सोचने लगी, क्या सुरेश के साथ मेरी बेटी खुश रह सकेगी? वह भारतीय प्रशासनिक सेवा की प्रारंभिक परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुका है. संभवतया साक्षात्कार भी उत्तीर्ण कर लेगा, लेकिन प्रशासनिक अधिकारी बनने की गरिमा से युक्त सुरेश बिट्टी को कितना समय दे पाएगा? उस का ध्येय भी मेरे पति की तरह दिनरात अपनी उन्नति और भविष्य को सुखमय बनाने का है जबकि प्रभाकर का भविष्य बिलकुल स्पष्ट है. सुरेश की गंभीरता बिट्टी की चंचलता के साथ कहीं फिट नहीं बैठती. बिट्टी की बातबात में हंसनेचहकने की आदत है. यह बात कल को अगर सुरेश के व्यक्तित्व या गरिमा में खटकने लगी तो? प्रभाकर एक हंसमुख और मस्त युवक है. बिट्टी के लिए सिर्फ शब्दों से ही नहीं वह भाव से भी प्रेम दर्शाने वाला पति साबित होगा. बिट्टी की आंखों में प्रभाकर के लिए जो चमक है, वही उस का प्यार है. यदि उसे सुरेश से प्यार होता तो वह प्रभाकर की तरफ कभी नहीं झुकती, यह आकर्षण नहीं प्रेम है. सुरेश सिर्फ उस का अच्छा मित्र है, प्रेमी नहीं. खाने की मेज पर बैठने के पहले मैं ने फैसला कर लिया था.

Short Story : अंत भला तो सब भला

Short Story : संगीता को यह एहसास था कि आज जो दिन में घटा है, उस के कारण शाम को रवि से झगड़ा होगा और वह इस के लिए मानसिक रूप से तैयार थी. लेकिन जब औफिस से लौटे रवि ने मुसकराते हुए घर में कदम रखा तो वह उलझन में पड़ गई.

‘‘आज मैं बहुत खुश हूं. तुम्हारा मूड हो तो खाना बाहर खाया जा सकता है,’’ रवि ने उसे हाथ से पकड़ कर अपने पास बैठा लिया.

‘‘किस कारण इतना खुश नजर आ रहे हो?’’ संगीता ने खिंचे से स्वर में पूछा.

‘‘आज मेरे नए बौस उमेश साहब ने मुझे अपने कैबिन में बुला कर मेरे साथ दोस्ताना अंदाज में बहुत देर तक बातें कीं. उन की वाइफ से तो आज दोपहर में तुम मिली ही थीं. उन्हें एक स्कूल में इंटरव्यू दिलाने मैं ही ले गया था. मेरे दोस्त विपिन के पिताजी उस स्कूल के चेयरमैन को जानते हैं. उन की सिफारिश से बौस की वाइफ को वहां टीचर की जौब मिल जाएगी. बौस मेरे काम से भी बहुत खुश हैं. लगता है इस बार मुझे प्रमोशन जरूर मिल जाएगी,’’ रवि ने एक ही सांस में संगीता को सारी बात बता डाली.

संगीता ने उस की भावी प्रमोशन के प्रति कोई प्रतिक्रिया जाहिर करने के बजाय वार्त्तालाप को नई दिशा में मोड़ दिया, ‘‘प्रौपर्टी डीलर ने कल शाम जो किराए का मकान बताया था, तुम उसे देखने कब चलोगे?’’

‘‘कभी नहीं,’’ रवि एकदम चिड़ उठा.

‘‘2 दिन से घर के सारे लोग बाहर गए हुए हैं और ये 2 दिन हम ने बहुत हंसीखुशी से गुजारे हैं. कल सुबह सब लौट आएंगे और रातदिन का झगड़ा फिर शुरू हो जाएगा. तुम समझते क्यों नहीं हो कि यहां से अलग हुए बिना हम कभी खुश नहीं रह पाएंगे…हम अभी उस मकान को देखने चल रहे हैं,’’ कह संगीता उठ खड़ी हुई.

‘‘मुझे इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाना है. अगर तुम में जरा सी भी बुद्धी है तो अपनी बहन और जीजा के बहकावे में आना छोड़ दो,’’ गुस्से के कारण रवि का स्वर ऊंचा हो गया था.

‘‘मुझे कोई नहीं बहका रहा है. मैं ने 9 महीने इस घर के नर्क में गुजार कर देख लिए हैं. मुझे अलग किराए के मकान में जाना ही है,’’ संगीता रवि से भी ज्यादा जोर से चिल्ला पड़ी.

‘‘इस घर को नर्क बनाने में सब से ज्यादा जिम्मेदार तुम ही हो…पर तुम से बहस करने की ताकत अब मुझ में नहीं रही है,’’ कह रवि उठ कर कपड़े बदलने शयनकक्ष में चला गया और संगीता मुंह फुलाए वहीं बैठी रही.

उन का बाहर खाना खाने का कार्यक्रम तो बना ही नहीं, बल्कि घर में भी दोनों ने खाना अलगअलग और बेमन से खाया. घर में अकेले होने का कोई फायदा वे आपसी प्यार की जड़ें मजबूत करने के लिए नहीं उठा पाए. रात को 12 बजे तक टीवी देखने के बाद जब संगीता शयनकक्ष में आई तो रवि गहरी नींद में सो रहा था.

अपने मन में गहरी शिकायत और गुस्से के भाव समेटे वह उस की तरफ पीठ कर के लेट गई.

किराए के मकान में जाने के लिए रवि पर दबाव बनाए रखने को संगीता अगली सुबह भी उस से सीधे मुंह नहीं बोली. रवि नाश्ता करने के लिए रुका नहीं. नाराजगी से भरा खाली पेट घर से निकल गया और अपना लंच बौक्स भी मेज पर छोड़ गया.

करीब 10 बजे उमाकांत अपनी पत्नी आरती, बड़े बेटे राजेश, बड़ी बहू अंजु और 5 वर्षीय पोते समीर के साथ घर लौटे. वे सब उन के छोटे भाई के बेटे की शादी में शामिल होने के लिए 2 दिनों के लिए गांव गए थे.

फैली हुई रसोई को देख कर आरती ने संगीता से कुछ तीखे शब्द बोले तो दोनों के बीच फौरन ही झगड़ा शुरू हो गया. अंजु ने बीचबचाव की कोशिश की तो संगीता ने उसे भी कड़वी बातें सुनाते हुए झगड़े की चपेट में ले लिया.

इन लोगों के घर पहुंचने के सिर्फ घंटे भर के अंदर ही संगीता लड़भिड़ कर अपने कमरे में बंद हो गई थी. उस की सास ने उसे लंच करने के लिए बुलाया पर वह कमरे से बाहर नहीं निकली.

‘‘यह संगीता रवि भैया को घर से अलग किए बिना न खुद चैन से रहेगी, न किसी और को रहने देगी, मम्मी,’’ अंजु की इस टिप्पणी से उस के सासससुर और पति पूरी तरह सहमत थे.

‘‘इस की बहन और मां इसे भड़काना छोड़ दें तो सब ठीक हो जाए,’’ उमाकांत की विवशता और दुख उन की आवाज में साफ झलक रहा था.

‘‘रवि भी बेकार में ही घर से कभी अलग न होने की जिद पर अड़ा हुआ है. शायद किराए के घर में जा कर संगीता बदल जाए और इन दोनों की विवाहित जिंदगी हंसीखुशी बीतने लगे,’’ आरती ने आशा व्यक्त की.

‘‘किराए के घर में जा कर बदल तो वह जाएगी ही पर रवि को यह अच्छी तरह मालूम है कि उस के घर पर उस की बड़ी साली और सास का राज हो जाएगा और वह इन दोनों को बिलकुल पसंद नहीं करता है. बड़े गलत घर में रिश्ता हो गया उस बेचारे का,’’ उमाकांत के इस जवाब को सुन कर आरती की आंखों में आंसू भर आए तो सब ने इस विषय पर आगे कोई बात करना मुनासिब नहीं समझा.

शाम को औफिस से आ कर रवि उस से पिछले दिन घटी घटना को ले कर झगड़ा करेगा, संगीता की यह आशंका उस शाम भी निर्मूल साबित हुई. रवि परेशान सा घर में घुसा तो जरूर पर उस की परेशानी का कारण कोई और था.

‘‘मुझे अस्थाई तौर पर मुंबई हैड औफिस जाने का आदेश मिला है. मेरी प्रमोशन वहीं से हो जाएगी पर शायद यहां दिल्ली वापस आना संभव न हो पाए,’’ उस के मुंह से यह खबर सुन कर सब से ज्यादा परेशान संगीता हुई.

‘‘प्रमोशन के बाद कहां जाना पड़ेगा आप को?’’ उस ने चिंतित लहजे में पूछा.

‘‘अभी कुछ पता नहीं. हमारी कंपनी की कुछ शाखाएं तो ऐसी घटिया जगह हैं, जहां न अच्छा खानापीना मिलता है और न अस्पताल, स्कूल जैसी सुविधाएं ढंग की हैं,’’ रवि के इस जवाब को सुन कर उस का चेहरा और ज्यादा उतर गया.

‘‘तब आप प्रमोशन लेने से इनकार कर दो,’’ संगीता एकदम चिड़ उठी, ‘‘मुझे दिल्ली छोड़ कर धक्के खाने कहीं और नहीं जाना है.’’

‘‘तुम पागल हो गई हो क्या? मैं अपनी प्रमोशन कैसे छोड़ सकता हूं?’’ रवि गुस्सा हो उठा.

‘‘तब इधरउधर धक्के खाने आप अकेले जाना. मैं अपने घर वालों से दूर कहीं नहीं जाऊंगी,’’ अपना फैसला सुना कर नाराज नजर आती संगीता अपने कमरे में घुस गई.

आगामी शनिवार को रवि हवाईजहाज से मुंबई चला गया. उस के घर छोड़ने से पहले ही अपनी अटैची ले कर संगीता मायके चली गई थी.

रवि के मुंबई चले जाने से संगीता की किराए के अलग घर में रहने की योजना लंगड़ा गई. उस के भैयाभाभी तो पहले ही से ऐसा कदम उठाए जाने के हक में नहीं थे. उस की दीदी और मां रवि की गैरमौजूदगी में उसे अलग मकान दिलाने का हौसला अपने अंदर पैदा नहीं कर पाईं.

विवाहित लड़की का ससुराल वालों से लड़झगड़ कर अपने भाईभाभी के पास आ कर रहना आसान नहीं होता, यह कड़वा सच संगीता को जल्द ही समझ में आने लगा. कंपनी के गैस्टहाउस में रह रहा रवि उसे अपने पास रहने को बुला नहीं सकता था और संगीता ने अपनी ससुराल वालों से संबंध इतने खराब कर रखे थे कि वे उसे रवि की गैरमौजूगी में बुलाना नहीं चाहते थे.

सब से पहले संगीता के संबंध अपनी भाभी से बिगड़ने शुरू हुए. घर के कामों में हाथ बंटाने को ले कर उन के बीच झड़पें शुरू हुईं और फिर भाभी को अपनी ननद की घर में मौजूदगी बुरी तरह खलने लगी.

संगीता की मां ने अपनी बेटी की तरफदारी की तो उन का बेटा उन से झगड़ा करने लगा. तब संगीता की बड़ी बहन और जीजा को झगड़े में कूदना पड़ा. फिर टैंशन बढ़ती चली गई.

‘‘हमारे घर की सुखशांति खराब करने का संगीता को कोई अधिकार नहीं है, मां. इसे या तो रवि के पास जा कर रहना चाहिए या फिर अपनी ससुराल में. अब और ज्यादा इस की इस घर में मौजूदगी मैं बरदाश्त नहीं करूंगा,’’ अपने बेटे की इस चेतावनी को सुन कर संगीता की मां ने घर में काफी क्लेश किया पर ऐसा करने के बाद उन की बेटी का घर में आदरसम्मान बिलकुल समाप्त हो गया.

बहू के साथ अपने संबंध बिगाड़ना उन के हित में नहीं था, इसलिए संगीता की मां ने अपनी बेटी की तरफदारी करना बंद कर दिया. उन में आए बदलाव को नोट कर के संगीता उन से नाराज रहने लगी थी.

संगीता की बड़ी बहन को भी अपने इकलौते भाई को नाराज करने में अपना हित नजर नहीं आया था. रवि की प्रमोशन हो जाने की खबर मिलते ही उस ने अपनी छोटी बहन को सलाह दी, ‘‘संगीता, तुझे रवि के साथ जा कर ही रहना पड़ेगा. भैया के साथ अपने संबंध इतने ज्यादा मत बिगाड़ कि उस के घर के दरवाजे तेरे लिए सदा के लिए बंद हो जाएं. जब तक रवि के पास जाने की सुविधा नहीं हो जाती, तू अपनी ससुराल में जा कर रह.’’

‘‘तुम सब मेरा यों साथ छोड़ दोगे, ऐसी उम्मीद मुझे बिलकुल नहीं थी. तुम लोगों के बहकावे में आ कर ही मैं ने अपनी ससुराल वालों से संबंध बिगाड़े हैं, यह मत भूलो, दीदी,’’ संगीता के इस आरोप को सुन कर उस की बड़ी बहन इतनी नाराज हुई कि दोनों के बीच बोलचाल न के बराबर रह गई.

रवि के लिए संगीता को मुंबई बुलाना संभव नहीं था. संगीता को बिन बुलाए ससुराल लौटने की शर्मिंदगी से हालात ने बचाया.

दरअसल, रवि को मुंबई गए करीब 2 महीने बीते थे जब एक शाम उस के सहयोगी मित्र अरुण ने संगीता को आ कर बताया, ‘‘आज हमारे बौस उमेश साहब के मुंह से बातोंबातों में एक काम की बात निकल गई, संगीता… रवि के दिल्ली लौटने की बात बन सकती है.’’

‘‘कैसे?’’ संगीता ने फौरन पूछा.

अनुंकपा के आधार पर उस की पोस्टिंग यहां हो सकती है.’’

‘‘मैं कुछ समझी नहीं?’’ संगीता के चेहरे पर उलझन के भाव उभरे.

‘‘मैं पूरी बात विस्तार से समझाता हूं. देखो, अगर रवि यह अर्जी दे कि दिल के रोगी पिता की देखभाल के लिए उस का उन के पास रहना जरूरी है तो उमेश साहब के अनुसार उस का तबादला दिल्ली किया जा सकता है.’’

‘‘लेकिन रवि के बड़े भैयाभाभी भी तो मेरे सासससुर के पास रहते हैं. इस कारण क्या रवि की अर्जी नामंजूर नहीं हो जाएगी?’’

‘‘उन का तो अपना फ्लैट है न?’’

‘‘वह तो है.’’

‘‘अगर वे अपने फ्लैट में शिफ्ट हो जाएं तो रवि की अर्जी को नामंजूर करने का यह कारण समाप्त हो जाएगा.’’

‘‘यह बात तो ठीक है.’’

‘‘तब आप अपने जेठजेठानी को उन के फ्लैट में जाने को फटाफट राजी कर के उमेश साहब से मिलने आ जाओ,’’ ऐसी सलाह दे कर अरुण ने विदा ली.

संगीता ने उसी वक्त रवि को फोन मिलाया.

‘‘तुम जा कर भैयाभाभी से मिलो, संगीता. मैं भी उन से फोन पर बात करूंगा,’’ रवि सारी बात सुन कर बहुत खुश हो उठा था.

संगीता को झिझक तो बड़ी हुई पर अपने भावी फायदे की बात सोच कर वह अपनी ससुराल जाने को 15 मिनट में तैयार हो गई.

रवि के बड़े भाई ने उस की सारी बात सुन कर गंभीर लहजे में जवाब दिया, ‘‘संगीता, इस से ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती है कि रवि का तबादला दिल्ली में हो जाए पर मुझे अपने फ्लैट को किराए पर मजबूरन चढ़ाना पढ़ेगा. उस की मासिक किस्त मैं उसी किराए से भर पाऊंगा.’’

रवि और संगीता के बीच फोन पर 2 दिनों तक दसियों बार बातें हुईं और अंत में उन्हें बड़े भैया के फ्लैट की किस्त रवि की पगार से चुकाने का निर्णय मजबूरन लेना पड़ा.

सप्ताह भर के अंदर बड़े भैया का परिवार अपने फ्लैट में पहुंच गया और संगीता अपना सूटकेस ले कर ससुराल लौट आई.

रवि ने कूरियर से अपनी अर्जी संगीता को भिजवा दी. उसे इस अर्जी को रवि के बौस उमेश साहब तक पहुंचाना था. संगीता ने फोन कर के उन से मिलने का समय मांगा तो उन्होंने उसे रविवार की सुबह अपने घर आने को कहा.

‘‘क्या मैं आप से औफिस में नहीं मिल सकती हूं, सर?’’ संगीता इन शब्दों को बड़ी कठिनाई से अपने मुख ने निकाल पाई.

‘‘मैं तुम्हें औफिस में ज्यादा वक्त नहीं दे पाऊंगा, संगीता. मैं घर पर सारे कागजात तसल्ली से चैक कर लूंगा. मैं नहीं चाहता हूं कि कहीं कोई कमी रह जाए. यह मेरी भी दिली इच्छा है कि रवि जैसा मेहनती और विश्वसनीय इनसान वापस मेरे विभाग में लौट आए. क्या तुम्हें मेरे घर आने पर कोई ऐतराज है?’’

‘‘न… नो, सर. मैं रविवार की सुबह आप के घर आ जाऊंगी,’’ कहते हुए संगीता का पूरा शरीर ठंडे पसीने से नहा गया था.

उस के साथ उमेश साहब के घर चलने के लिए हर कोई तैयार था पर संगीता सारे कागज ले कर वहां अकेली पहुंची. उन के घर में कदम रखते हुए वह शर्म के मारे खुद को जमीन में गड़ता महसूस कर रही थी.

उमेश साहब की पत्नी शिखा का सामना करने की कल्पना करते ही उस का शरीर कांप उठता था. रवि के मुंबई जाने से कुछ दिन पूर्व ही वह शिखा से पहली बार मिली थी. उस मुलाकात में जो घटा था, उसे याद करते ही उस का दिल किया कि वह उलटी भाग जाए. लेकिन अपना काम कराने के लिए उसे उमेश साहब के घर की दहलीज लांघनी ही पड़ी.

अचानक उस दिन का घटना चक्र उस की आंखों के सामने घूम गया.

उस दिन रवि शिखा को एक स्कूल में इंटरव्यू दिलाने ले जा रहा था. रवि का बैंक उस स्कूल के पास ही था. उसे बैंक में कुछ पर्सनल काम कराने थे. जितनी देर में शिखा स्कूल में इंटरव्यू देगी, उतनी देर में वह बैंक के काम करा लेगा, ऐसा सोच कर रवि कुछ जरूरी कागज लेने शिखा के साथ अपने घर आया था.

संगीता उस दिन अपनी मां से मिलने गई हुई थी. वह उस वक्त लौटी जब शिखा एक गिलास ठंडा पानी पी कर उन के घर से अकेली स्कूल जा रही थी.

वह शिखा को पहचानती नहीं थी, क्योंकि उमेश साहब ने कुछ हफ्ते पहले ही अपना पदभार संभाला था.

‘‘कौन हो तुम? मेरे घर में किसलिए आना हुआ?’’ संगीता ने बड़े खराब ढंग से शिखा से पूछा था.

‘‘रवि और मेरे पति एक ही औफिस में काम करते हैं. मेरा नाम शिखा है,’’ संगीता के गलत व्यवहार को नजरअंदाज करते हुए शिखा मुसकरा उठी थी.

‘‘मेरे घर में तुम्हें मेरी गैरमौजूदगी में आने की कोई जरूरत नहीं है… अपने पति को धोखा देना है तो कोई और शिकार ढूंढ़ो…मेरे पति के साथ इश्क लड़ाने की कोशिश की तो मैं तुम्हारे घर आ कर तुम्हारी बेइज्जती करूंगी,’’ उसे यों अपमानित कर के संगीता अपने घर में घुस गई थी.

तब उसे रोज लगता था कि रवि उस के साथ उस के गलत व्यवहार को ले कर जरूर झगड़ा करेगा पर शिखा ने रवि को उस दिन की घटना के बारे में कुछ बताया ही नहीं था. अब रवि की दिल्ली में बदली कराने के लिए उसे शिखा के पति की सहायता चाहिए थी. अपने गलत व्यवहार को याद कर के संगीता शिखा के सामने पड़ने से बचना चाहती थी पर ऐसा हो नहीं सका.

उन के ड्राइंगरूम में कदम रखते ही संगीता का सामना शिखा से हो गया.

‘‘मैं अकारण अपने घर आए मेहमान का अपमान नहीं करती हूं. तुम बैठो, वे नहा रहे हैं,’’ उसे यह जानकारी दे कर शिखा घर के भीतर चल दी.

‘‘प्लीज, आप 1 मिनट मेरी बात सुन लीजिए,’’ संगीता ने उसे अंदर जाने से रोका.

‘‘कहो,’’ अपने होंठों पर मुसकान सजा कर शिखा उस की तरफ देखने लगी.

‘‘मैं…मैं उस दिन के अपने खराब व्यवहार के लिए क्षमा मांगती हूं,’’ संगीता को अपना गला सूखता लगा.

‘‘क्षमा तो मैं तुम्हें कर दूंगी पर पहले मेरे एक सवाल का जवाब दो…यह ठीक है कि तुम मुझे नहीं जानती थीं पर अपने पति को तुम ने चरित्रहीन क्यों माना?’’ शिखा ने चुभते स्वर में पूछा.

‘‘उस दिन मुझ से बड़ी भूल हुई…वे चरित्रहीन नहीं हैं,’’ संगीता ने दबे स्वर में जवाब दिया.

‘‘मेरी पूछताछ का भी यही नतीजा निकला था. फिर तुम ने हम दोनों पर शक क्यों किया था?’’

‘‘उन दिनों मैं काफी परेशान चल रही थी…मुझे माफ कर…’’

‘‘सौरी, संगीता. तुम माफी के लायक नहीं हो. तुम्हारी उस दिन की बदतमीजी की चर्चा मैं ने आज तक किसी से नहीं की है पर अब मैं सारी बात अपने पति को जरूर बताऊंगी.’’

‘‘प्लीज, आप उन से कुछ न कहें.’’

‘‘मेरी नजरों में तुम कैसी भी सहायता पाने की पात्रता नहीं रखती हो. मुझे कई लोगों ने बताया है कि तुम्हारे खराब व्यवहार से रवि और तुम्हारे ससुराल वाले बहुत परेशान हैं. अपने किए का फल सब को भोगना ही पड़ता है, सो तुम भी भोगो.

शिखा को फिर से घर के भीतरी भाग की तरफ जाने को तैयार देख संगीता ने उस के सामने हाथ जोड़ दिए, ‘‘मैं आप से वादा करती हूं कि मैं अपने व्यवहार को पूरी तरह बदल दूंगी…अपनी मां और बहन का कोई भी हस्तक्षेप अब मुझे अपनी विवाहित जिंदगी में स्वीकार नहीं होगा…मेंरे अकेलेपन और उदासी ने मुझे अपनी भूल का एहसास बड़ी गहराई से करा दिया है.’’

‘‘तब रवि जरूर वापस आएगा… हंसीखुशी से रहने की नई शुरुआत के लिए तुम्हें मेरी शुभकामनाएं संगीता…आज से तुम मुझे अपनी बड़ी बहन मानोगी तो मुझे बड़ी खुशी होगी.’’

‘‘थैंक यू, दीदी,’’ भावविभोर हो इस बार संगीता उन के गले लग कर खुशी के आंसू बहाने लगी थी.

उमेश साहब के प्रयास से 4 दिन बाद रवि के दिल्ली तबादला होने के आदेश निकल गए. इस खबर को सुन कर संगीता अपनी सास के गले  लग कर खुशी के आंसू बहाने लगी थी.

उसी दिन शाम को रवि के बड़े भैया उमेश साहब का धन्यवाद प्रकट करने उन के घर काजू की बर्फी के डिब्बे के साथ पहुंचे.

‘‘अब तो सब ठीक हो गया न राजेश?’’

‘‘सब बढि़या हो गया, सर. कुछ दिनों में रवि बड़ी पोस्ट पर यहीं आ जाएगा. संगीता का व्यवहार अब सब के साथ अच्छा है. अपनी मां और बहन के साथ उस की फोन पर न के बराबर बातें होती हैं. बस, एक बात जरा ठीक नहीं है, सर.’’

‘‘कौन सी, राजेश?’’

‘‘सर, संयुक्त परिवार में मैं और मेरा परिवार बहुत खुश थे. अपने फ्लैट में हमें बड़ा अकेलापन सा महसूस होता है,’’ राजेश का स्वर उदास हो गया.

‘‘अपने छोटे भाई के वैवाहिक जीवन को खुशियों से भरने के लिए यह कीमत तुम खुशीखुशी चुका दो, राजेश. अपने फ्लैट की किस्त के नाम पर तुम रवि से हर महीने क्व10 हजार लेने कभी बंद मत करना. यह अतिरिक्त खर्चा ही संगीता के दिमाग में किराए के मकान में जाने का कीड़ा पैदा नहीं होने देगा.’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं, सर. वैसे रवि से रुपए ले कर मैं नियमित रूप से बैंक में जमा कराऊंगा. भविष्य में इस मकान को तोड़ कर नए सिरे से बढि़या और ज्यादा बड़ा दोमंजिला मकान बनाने में यह पैसा काम आएगा. तब मैं अपना फ्लैट बेच दूंगा और हम दोनों भाई फिर से साथ रहने लगेंगे,’’ राजेश भावुक हो उठा.

‘‘पिछले दिनों रवि को मुंबई भेजने और तुम्हारे फ्लैट की किस्त उस से लेने की हम दोनों के बीच जो खिचड़ी पकी है, उस की भनक किसी को कभी नहीं लगनी चाहिए,’’ उमेश साहब ने उसे मुसकराते हुए आगाह किया.

‘‘ऐसा कभी नहीं होगा, सर. आप मेरी तरफ से शिखा मैडम को भी धन्यवाद देना. उन्होंने रवि के विवाहित जीवन में सुधार लाने का बीड़ा न उठाया होता तो हमारा संयुक्त परिवार बिखर जाता.’’

‘‘अंत भला तो सब भला,’’ उमेश साहब की इस बात ने राजेश के चेहरे को फूल सा खिला दिया था.

Love Story : अधूरा प्यार – शादी के लिए क्या थी जुबेदा की शर्त

Love Story : मैं हैदराबाद में रहता था, पर उन दिनों लंदन घूमने गया था. वहां विश्वविख्यात मैडम तुसाद म्यूजियम देखने भी गया. यहां दुनिया भर की नामीगिरामी हस्तियों की मोम की मूर्तियां बनी हैं. हमारे देश के महात्मा गांधी, अमिताभ बच्चन, ऐश्वर्या राय बच्चन की भी मोम की मूर्तियां थीं. मैं ने गांधीजी की मूर्ति को प्रणाम किया. फिर मैं दूसरी ओर बनी बच्चन और उन्हीं की बगल में बनी ऐश्वर्या की मूर्ति की ओर गया. उस समय तक वे उन की बहू नहीं बनी थीं. मैं उन दोनों की मूर्तियों से हाथ मिलाते हुए फोटो लेना चाहता था. मैं ने देखा कि एक खूबसूरत लड़की भी लगभग मेरे साथसाथ चल रही है. वह भारतीय मूल की नहीं थी, पर एशियाईर् जरूर लग रही थी. मैं ने साहस कर उस से अंगरेजी में कहा, ‘‘क्या आप इन 2 मूर्तियों के साथ मेरा फोटो खींच देंगी?’’

उस ने कहा, ‘‘श्योर, क्यों नहीं? पर इस के बाद आप को भी इन दोनों के साथ मेरा फोटो खींचना होगा.’’ ‘‘श्योर. पर आप तो भारतीय नहीं लगतीं?’’

‘‘तो क्या हुआ. मेरा नाम जुबेदा है और मैं दुबई से हूं,’’ उस ने कहा. ‘‘और मेरा नाम अशोक है. मैं हैदराबाद से हूं,’’ कह मैं ने अपना सैल फोन उसे फोटो खींचने दे दिया.

मेरा फोटो खींचने के बाद उस ने भी अपना सैल फोन मुझे दे दिया. मैं ने भी उस का फोटो बिग बी और ऐश्वर्या राय के साथ खींच कर फोन उसे दे दिया. जुबेदा ने कहा, ‘‘व्हाट ए सरप्राइज. मेरा जन्म भी हैदराबाद में ही हुआ था. उन दिनों दुबई में उतने अच्छे अस्पताल नहीं थे. अत: पिताजी ने मां की डिलीवरी वहीं कराई थी. इतना ही नहीं, एक बार बचपन में मैं बीमार पड़ी थी तो करीब 2 हफ्ते उसी अस्पताल में ऐडमिट रही थी जहां मेरा जन्म हुआ था.’’

‘‘व्हाट ए प्लीजैंट सरप्राइज,’’ मैं ने कहा. अब तक हम दोनों थोड़ा सहज हो चुके थे. इस के बाद हम दोनों मर्लिन मुनरो की मूर्ति के पास गए. मैं ने जुबेदा को एक फोटो मर्लिन के साथ लेने को कहा तो वह बोली, ‘‘यह लड़की तो इंडियन नहीं है? फिर तुम क्यों इस के साथ फोटो लेना चाहते हो?’’

इस पर हम दोनों हंस पड़े. फिर उस ने कहा, ‘‘क्यों न इस के सामने हम दोनों एक सैल्फी ले लें?’’ उस ने अपने ही फोन से सैल्फी ले कर मेरे फोन पर भेज दी.

मैडम तुसाद म्यूजियम से निकल कर मैं ने पूछा, ‘‘अब आगे का क्या प्रोग्राम है?’’ ‘‘क्यों न हम लंदन व्हील पर बैठ कर लंदन का नजारा देखें?’’ वह बोली.

मैं भी उस की बात से सहमत था. इस पर बैठ कर पूरे लंदन शहर की खूबसूरती का मजा लेंगे. दरअसल, यह थेम्स नदी के ऊपर बना एक बड़ा सा व्हील है. यह इतना धीरेधीरे घूमता है कि इस पर बैठने पर यह एहसास ही नहीं होता कि घूम रहा है. नीचे थेम्स नदी पर दर्जनों क्रूज चलते रहते हैं. फिर हम दोनों ने टिकट से कर व्हील पर बैठ कर पूरे लंदन शहर को देखा. व्हील की सैर पूरी कर जब हम नीचे उतरे तब जुबेदा ने कहा, ‘‘अब जोर से भूख लगी है…पहले पेट पूजा करनी होगी.’’ मैं ने उस से पूछा कि उसे कौन सा खाना चाहिए तो उस ने कहा, ‘‘बेशक इंडियन,’’ और फिर हंस पड़ी.

मैं ने फोन पर इंटरनैट से सब से नजदीक के इंडियन होटल का पता लगाया. फिर टैक्सी कर सीधे वहां जा पहुंचे और दोनों ने पेट भर कर खाना खाया. अब तक शाम के 5 बज गए थे. दोनों ही काफी थक चुके थे. और घूमना आज संभव नहीं था तो दोनों ने तय किया कि अपनेअपने होटल लौट जाएं. मैं ने जुबेदा से जब पूछा कि वह कहां रुकी है तो वह बोली, ‘‘मैं तो हाइड पार्क के पास वेस्मिंस्टर होटल में रुकी हूं. और तुम?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘जुबेदा, आज तो तुम एक के बाद एक सरप्राइज दिए जा रही हो.’’ ‘‘वह कैसे?’’ ‘‘मैं भी वहीं रुका हूं,’’ मैं ने कहा.

जुबेदा बोली ‘‘अशोक, इतना सब महज इत्तफाक ही है… और क्या कहा जा सकता इसे?’’ ‘‘इत्तफाक भी हो सकता है या कुछ और भी.’’

‘‘क्या मतलब?’’ ‘‘नहीं. बस ऐसे ही. कोई खास मतलब नहीं… चलो टैक्सी ले कर होटल ही चलते हैं,’’ मैं बोला. इस से आगे चाह कर भी नहीं बोल सका था, क्योंकि मैं जानता था कि यह जिस देश की है वहां के लोग कंजर्वेटिव होते हैं.

हम दोनों होटल लौट आए थे. थोड़ी देर आराम करने के बाद मैं ने स्नान किया. कुछ देर टीवी देख कर फिर मैं नीचे होटल के डिनर रूम में गया. मैं ने देखा कि जुबेदा एक कोने में टेबल पर अकेले ही बैठी है. मुझे देख कर उस ने मुझे अपनी टेबल पर ही आने का इशारा किया. मुझे भी अच्छा लगा कि उस का साथ एक बार फिर मिल गया. डिनर के बाद चलने लगे तो उस ने अपने ही कमरे में चलने को कहा. भला मुझे क्यों आपत्ति होती. कमरे में जा कर उस ने 2 कप कौफी और्डर की. थोड़ी देर में कौफी भी आ गई. कौफी पीते हुए कहा ‘‘यू नो, मैं तो 4 सालों से आयरलैंड में पढ़ रही थी. कभी लंदन ठीक से घूम नहीं सकी थी. अब दुबई लौट रही हूं तो सोचा जाने से पहले लंदन देख लूं.’’

मैं ने कहा, ‘‘आयरलैंड कैसे पहुंच गई तुम?’’ उस ने बताया कि उस के पिता मैक एक आयरिश हैं. जुबेदा के नाना का एक तेल का कुआं हैं, जिस में वे काम करते थे. उस कुएं से बहुत कम तेल निकल रहा था, नानाजी ने खास कर जुबेदा के पिताजी को इस का कारण जानने के लिए बुलवाया था. उन्होंने जांच की तो पता चला कि नानाजी के कुएं से जमीन के नीचे से एक दूसरा शेख तेल को अपने कुएं में पंप कर लेता है.

मैक ने इस तेल की चोरी को रोका. ऊपर से जुबेदा के नाना को मुआवजे में भारीभरकम रकम भी मिली थी. तब खुश हो कर उन्होंने मैक को दुबई से ही अच्छी सैलरी दे कर रख लिया. इतना ही नहीं, उन्हें लाभ का 10 प्रतिशत बोनस भी मिलता था. जुबेदा के नानाजी और मैक में अच्छी दोस्ती हो गई थी. अकसर घर पर आनाजाना होता था. धीरेधीरे जुबेदा की मां से मैक को प्यार हो गया. पर शादी के लिए उन्हें इसलाम धर्म कबूल करना पड़ा था. इस के बाद से मैक दुबई में ही रह गया. पर मैक की मां आयरलैंड में ही थीं. अत: जुबेदा वहीं दादी के साथ रह कर पढ़ी थी.

अपने बारे में इतना बताने के बाद जुबेदा ने कहा, ‘‘मैं तो कल शाम ऐमिरेट्स की फ्लाइट से दुबई जा रही हूं…तुम्हारा क्या प्रोग्राम है?’’ मैं ने कहा ‘‘मैं भी ऐमिरेट्स की फ्लाइट से हैदराबाद जाऊंगा, पर कल नहीं, परसों. इस के पहले तक तो इत्तफाक से हम मिलते रहे थे, पर अब इत्तफाक से बिछड़ रहे हैं. फिर भी जितनी देर का साथ रहा बड़ा ही सुखद रहा.’’

जुबेदा बोली, ‘‘नैवर माइंड. इत्तफाक हुआ तो हम फिर मिलेंगे. वैसे तुम कभी दुबई आए हो?’’ मैं ने कहा, ‘‘हां, एक बार औफिस के काम से 2 दिनों के लिए गया था. मेरी कंपनी के लोग दुबई आतेजाते रहते हैं. हो सकता है मुझे फिर वहां जाने का मौका मिले.’’

‘‘यह तो अच्छा रहेगा. जब कभी आओ मुझ से जरूर मिलना,’’ जुबेदा ने कहा और फिर अपना एक कार्ड मेरे हाथ पर रखते हुए मेरे हाथ को चूमते हुए कहा, ‘‘तुम काफी अच्छे लड़के हो.’’ ‘‘बुरा न मानो तो एक बात पूछूं?’’

‘‘बिना संकोच पूछो. मुझे पूरी उम्मीद हैं कि तुम कोई ऐसीवैसी बात नहीं करोगे जिस से मुझे तकलीफ हो.’’ ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं करूंगा. बस मैं सोच रहा था कि तुम लोग तो काफी परदे में रहते हो, पर तुम्हें देख कर ऐसा कुछ नहीं लगता.’’

वह हंस पड़ी. बोली, ‘‘तुम ठीक सोचते हो दुबई पहुंच कर मुझे वहां के अनुसार परदे में ही रहना होगा. फिर भी मेरा परिवार थोड़ा मौडरेट सोच रखता है. ओके, गुड नाइट. कल सुबह ब्रेकफास्ट पर मिलते हैं.’’

अगली सुबह हम दोनों ने साथ ब्रेकफास्ट किया. उस के बाद जुबेदा मेरे ही रूम में आ गई. हम लोगों ने एकदूसरे की पसंदनापसंद, रुचि और परिवार के बारे में बाते कीं. फिर शाम को मैं उसे विदा करने हीथ्रो ऐयरपोर्ट तक गया. जातेजाते उस ने मुझ से हाथ मिलाया. मेरा हाथ चूमा और कहा, ‘‘दुबई जरूर आना और मुझ से मिलना.’’

मैं ने भी उसे अपना एक कार्ड दे दिया. फिर वह ‘बाय’ बोली और हाथ हिलाते हुए ऐयरपोर्ट के अंदर चली गई. मैं भी अगले दिन अपने देश लौट आया. जुबेदा से मेरा संपर्क फेसबुक या स्काइप पर कभीकभी हो जाता था. एक बार तो उस ने अपने मातापिता से भी स्काइप पर वीडियो चैटिंग कराई. उन्होंने कहा कि जुबेदा ने मेरी काफी तारीफ की थी उन से. मुझे तो वह बहुत अच्छी लगती थी. देखने में अति सुंदर. मगर मेरे एकतरफा चाहने से कोई फायदा नहीं था.

1 साल से कुछ ज्यादा समय बीत चुका था. तब जा कर मुझे दुबई जाने का मौका मिला. मेरी कंपनी को एक प्रोडक्ट अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लौंच करना था. इसी सिलसिले में मुझे 5 दिन रविवार से गुरुवार तक दुबई में रहना था. अगले हफ्ते शनिवार शाम को मैं दुबई पहुंचा. वहां ऐेयरपोर्ट पर जुबेदा भी आई थी. पर शुरू में मैं उसे पहचान नहीं सका, क्योंकि वह बुरके में थी. उसी ने मुझे पहचाना. उस ने बताया कि उस के नाना का एक होटल भी है. उसी में मुझे उन का मेहमान बन कर रहना है. फिर उस ने एक टैक्सी बुला कर मुझे होटल छोड़ने को कहा. हालांकि वह स्वयं अपनी कार से आई थी.

जुबेदा पहले से ही होटल पहुंच कर मेरा इंतजार कर रही थी. मैं ने उस से पूछा, ‘‘मैं तुम्हारी कार में भी तो आ सकता था?’’ वह बोली, ‘‘नहीं, अगर तुम्हारे साथ कोई औरत होती तब मैं तुम्हें अपने साथ ला सकती थी. औनली जैंट्स, नौट पौसिबल हियर. अच्छा जिस होटल में तुम्हारे औफिस का प्रोग्राम है. वह यहां से 5 मिनट की वाक पर है. तुम कहो तो मैं ड्राइवर को कार ले कर भेज दूंगी.’’

‘‘नो थैंक्स. पैदल चलना स्वास्थ्य के लिए अच्छा है,’’ मैं ने कहा. जुबेदा अपने घर लौट गई थी और मैं अपने रूम में आ गया था. अगली सुबह रविवार से गुरुवार तक मुझे कंपनी का काम करना था. जुबेदा बीचबीच में फोन पर बात कर लेती थी. गुरुवार शाम तक मेरा काम पूरा हो गया था. जुबेदा ने शुक्रवार को खाने पर बुलाया था. मुझे इस की उम्मीद भी थी.

मैं इंडिया से उस के पूरे परिवार के लिए उपहार ले आया था- संगमरमर का बड़ा सा ताजमहल, अजमेर शरीफ के फोटो, कपड़े, इंडियन स्वीट्स और हैदराबाद की मशहूर कराची बेकरी के बिस्कुट व स्नैक्स आदि. सब ने बहुत गर्मजोशी से स्वागत किया और स्वादिष्ठ शाकाहारी भोजन कराया. लगभग शाम को जब चलने लगा तो उस की मां ने मुझे एक छोटा सा सुंदर पैकेट दिया. मैं उसे यों ही हाथ में लिए अपने होटल लौट आया. जुबेदा का ड्राइवर छोड़ गया था.

अभी मैं होटल पहुंचा ही था कि जुबेदा का फोन आया, ‘‘गिफ्ट कैसा लगा?’’ मैं ने कहा, ‘‘अभी तो खोल कर देखा भी नहीं.’’ जुबेदा, ‘‘यह तो हमारे तोहफे की तौहीन होगी.’’

‘‘सौरी, अभी तुम लाइन पर रहो. 1 मिनट में पैकेट खोल कर बताता हूं,’’ कह मैं ने जब पैकेट खोला तो उस में बेहद खूबसूरत और बेशकीमती हीरे की अंगूठी थी. मैं तो कुछ पल आश्चर्य से आंखें फाड़े उसे देखता रहा. तब तक फिर जुबेदा ने ही पूछा, ‘‘क्या हुआ, कुछ बोलते क्यों नहीं?’’

‘‘यह क्या किया तुम ने? मुझ से कुछ कहते नहीं बन रहा है.’’ ‘‘पसंद नहीं आया?’’ जुबेदा ने पूछा.

‘‘क्यों शर्मिंदा कर रही हो… इतना महंगा गिफ्ट मेरी हैसियत से बाहर की बात है.’’ जुबेदा बोली, ‘‘ऐसा कुछ भी नहीं है. यह तो पर्सनली तुम्हारे लिए है. मां ने कहा है कि जाने से पहले तुम्हारे भाई और बहन के लिए भी कुछ देना है…तुम्हें गिफ्ट पसंद आया या नहीं?’’

मैं ने कहा, ‘‘पसंद न आने का सवाल ही नहीं है. इतने सुंदर और कौस्टली गिफ्ट की तो मैं सपने में भी कल्पना नहीं कर सकता हूं.’’ ‘‘खैर, बातें न बनाओ. मां ने कल दुबई मौल में मिलने को कहा है. मैं भी रहूंगी. गाड़ी भेज दूंगी, आ जाना.’’

अगले दिन शनिवार को जुबेदा ने गाड़ी भेज दी. मैं दुबई मौल में जुबेदा और उस की मां के साथ बैठा था. उस की मां ने मेरे पूरे परिवार के बारे में पूछा. फिर मौल से ही मेरे भाईबहन के लिए गिफ्ट खरीद कर देते हुए कहा, ‘‘तुम बहुत अच्छे लड़के हो. जुबेदा भी तुम्हारी तारीफ करते नहीं थकती है. अभी तो तुम्हारी शादी नहीं हुई है. अगर तुम्हें दुबई में अच्छी नौकरी मिले तो क्या यहां सैटल होना चाहोगे?’’ उन का अंतिम वाक्य मुझे कुछ अजीब सा लगा. मैं ने कहा, ‘‘दुबई बेशक बहुत अच्छी

जगह है, पर मेरे अपने लोग तो इंडिया में ही हैं. फिर भी वहां लौट कर सोचूंगा.’’ जुबेदा मेरी ओर प्रश्नभरी आंखों से देख रही थी. मानो कुछ कहना चाहती हो पर बोल नहीं पा रही थी. मौल से निकलने से पहले एक मिनट के लिए मुझ से अकेले में कहा कि उसे मेरे दुबई में सैटल होने के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए. खैर अगले दिन रविवार को मैं इंडिया लौट गया.

मेरे इंडिया पहुंचने के कुछ घंटों के अंदर ही जुबेदा ने मेरे कुशल पहुंचने की जानकारी ली. कुछ दिनों के अंदर ही फिर जुबेदा का फोन आया, बोली, ‘‘अशोक, तुम ने क्या फैसला लिया दुबई में सैटल होने के बारे में?’’ मैं ने कहा, ‘‘अभी तक कुछ नहीं सोचा… इतनी जल्दी यह सोचना आसान नहीं है.’’

‘‘अशोक, यह बात तो अब तक तुम भी समझ गए हो कि मैं तुम्हें चाहने लगी हूं. यहां तक कि मेरे मातापिता भी यह समझ रहे हैं. अच्छा, तुम साफसाफ बताओ कि क्या तुम मुझे नहीं चाहते?’’ जुबेदा बोली.

मैं ने कहा, ‘‘हां, मैं भी तुम्हें चाहता हूं. पर हर वह चीज जिसे हम चाहते हैं, मिल ही जाए जरूरी तो नहीं?’’ ‘‘पर प्रयास तो करना चाहिए अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए,’’ जुबेदा बोली.

‘‘मुझे क्या करना होगा तुम्हारे मुताबिक?’’ मैं ने पूछा. ‘‘तुम्हें मुझ से निकाह करना होगा. इस के लिए तुम्हें सिर्फ एक काम करना होगा. यानी इसलाम कबूल करना होगा. बाकी सब यहां हम लोग संभाल लेंगे. और हां, चाहो तो अपने भाई को भी यहां बुला लेना. बाद में उसे भी अच्छी नौकरी दिला देंगे.’’

‘‘इस्लाम कबूल करना जरूरी है क्या? बिना इस के नहीं हो सकता है निकाह?’’ ‘‘नहीं बिना इसलाम धर्म अपनाए यहां तुम मुझ से शादी नहीं कर सकते हो. तुम ने देखा है न कि मां के लिए मेरे पिता को भी हमारा धर्म स्वीकार करना पड़ा था. उन को यहां आ कर काफी फायदा भी हुआ. प्यार में कंप्रोमाइज करना बुरा नहीं.’’

‘‘सिर्फ फायदे के लिए ही सब काम नहीं किया जाता है और प्यार में कंप्रोमाइज से बेहतर सैक्रिफाइस होता है. मैं दुबई आ सकता हूं, तुम से शादी भी कर सकता हूं, पर मैं भी मजबूर हूं, अपना धर्म नहीं बदल सकता हूं… मैं एक विकल्प दे सकता हूं… तुम इंडिया आ सकती हो… यहां शादी कर सैटल हो सकती हो. मैं तुम्हें धर्म बदलने को मजबूर नहीं करूंगा. धर्म की दीवार हमारे बीच नहीं होगी.’’ ‘‘नहीं, मेरे मातापिता इस की इजाजत नहीं देंगे. मेरी मां भी और मैं भी अपने मातापिता की एकलौती संतान हैं. हमारे यहां बड़ा बिजनैस और प्रौपर्टी है. फिर वैसे भी मुझे दूसरे धर्म के लड़के से शादी करने की न तो इजाजत मिलेगी और न ही इस की हिम्मत है मुझ में,’’ जुबेदा बोली.

मैं ने कहा, ‘‘मेरे औफर में किसी को धर्म बदलने की आवश्यकता नहीं होगी. मैं तुम्हें इंडिया में सारी खुशियां दूंगा. मेरा देश बहुत उदार है. यहां सभी धर्मों के लोग अमनचैन से रह सकते हैं, कुछ सैक्रिफाइस तुम करो, कुछ मैं करता हूं पर मैं अपना धर्म नहीं बदल सकता हूं.’’ ‘‘तो यह तुम्हारा अंतिम फैसला है?’’

‘‘सौरी. मैं अपना धर्म नहीं बदल सकता हूं. मैं सोच रहा हूं कि जब अगली बार दुबई आऊंगा तुम्हारी हीरे की अंगूठी वापस कर दूंगा. इतनी कीमती चीज मुझ पर कर्ज है.’’ ‘‘अशोक, प्लीज बुरा न मानो. इस अंगूठी को बीच में न लाओ. हमारी शादी का इस से कोई लेनादेना नहीं है. डायमंड आर फौर एवर, यू हैव टु कीप इट फौरएवर. इसे हमारे अधूरे प्यार की निशानी समझ कर हमेशा अपने साथ रखना. बाय टेक केयर औफ योरसैल्फ.’’

‘‘तुम भी सदा खुश रहो… यू टू टेक केयर औफ योरसैल्फ.’’ ‘‘थैंक्स,’’ इतना कह कर जुबेदा ने फोन काट दिया. यह जुबेदा से मेरी आखिरी बात थी. उस की दी हुई हीरे की अंगूठी अभी तक मेरे पास है. यह हमारे अधूरे प्यार की अनमोल निशानी है.

Hindi Kahani : ऐ दिल संभल जा – दिल का क्या पता कब और कैसे मचल जाए

Hindi Kahani : रीमा की आंखों के सामने बारबार डाक्टर गोविंद का चेहरा घूम रहा था. हंसमुख लेकिन सौम्य मुखमंडल, 6 फुट लंबा इकहरा बदन और इन सब से बढ़ कर उन का बात करने का अंदाज. उन की गंभीर मगर चुटीली बातों में बहुत वजन होता था, गहरी दृष्टि और गजब की याददाश्त. एक बार किसी को देख लें तो फिर उसे भूलते नहीं. उन की ईमानदारी व कर्तव्यनिष्ठा के गुण सभी गाते थे. उम्र 50 वर्ष के करीब तो होगी ही लेकिन मुश्किल से 35-36 के दिखते थे. रीमा बारबार अपना ध्यान मैगजीन पढ़ने में लगा रही थी लेकिन उस के खयालों में डाक्टर गोविंद आजा रहे थे.

रीमा ने जैसे ही पन्ना पलटा, फिर डाक्टर गोविंद का चेहरा सामने आ गया जैसे हर पन्ने पर उन का चेहरा हो वह हर पन्ने के बाद यही सोचती कि अब नहीं सोचूंगी उन के बारे में. ‘‘रीमा, जरा इधर आना,’’ रमा की मम्मी किचन से चिल्लाई.

‘‘अभी आई,’’ कहती हुई रीमा मैगजीन रख कर किचन में आ गई. ‘इस लड़की ने जब से कालेज में दाखिला लिया है, इस का दिमाग न जाने कहां रहता है’ मम्मी बड़बड़ा रही थी.

रीमा मैनेजमैंट का कोर्स कर रही है. मम्मी उसे कालेज भेजना ही नहीं चाहती थी. वह हमेशा चिल्लाती रहती कि 20वां चल रहा है, इस के हाथ पीले कर दो, लड़कियों को ज्यादा पढ़ाने से क्या लाभ. रीमा की जिद और पापा के सपोर्ट की वजह से उस का दाखिला कालेज में हुआ. मम्मी कम पढ़ीलिखी थी. उन का पढ़ाई पर जोर कम ही था. मम्मी की बातों से रीमा कुढ़ती रहती. और जब से उस ने डाक्टर गोविंद को देखा है, उसे और कुछ दिखता ही नहीं.

डाक्टर गोविंद जब क्लास ले रहे होते, रीमा सिर्फ उन्हें ही देखती रह जाती. वे किस टौपिक पर चर्चा कर रहे हैं, इस की भी सुध उसे कई बार नहीं होती. यह तो शुक्र था उस के सहपाठी अमित का, जो बाद में उस की मदद करता, अपने नोट्स उसे दे देता और यदि कोई टौपिक उस की समझ में नहीं आता तो वह उसे समझा भी देता. वैसे रीमा खुद भी तेज थी. कोई चीज उस की नजरों से एक बार गुजर जाती, उसे वह कभी नहीं भूलती. डाक्टर गोविंद भी उस की तारीफ करते. उन के मुंह से अपनी तारीफ सुन कर रीमा को बहुत अच्छा लगता. शर्म से उस की नजरें झुक जातीं. उसे ऐसा लगता कि डाक्टर गोविंद सिर्फ उसे ही देख रहे हैं. उस के चेहरे को पढ़ रहे हैं.

डाक्टर गोविंद रीमा के रोल मौडल बन गए. वह हर समय उन की तारीफ करती रहती. कोई स्टूडैंट उन के खिलाफ कुछ कहना चाहता तो वह एक शब्द न सुनती. एक दिन उस की सहेली सुजाता ने यों ही कह दिया, ‘गोविंद सर कुछ स्टूडैंट्स पर ज्यादा ही ध्यान देते हैं.’ बस, इतनी सी बात पर रीमा उस से झगड़ पड़ी. उस से बात करनी बंद कर दी. रीमा भावनाओं में बह रही थी. उस ने डाक्टर गोविंद को समझने की कोशिश भी नहीं की. उन के दिल में अपने सभी छात्रों के लिए समान स्नेह था. वे सभी को प्रोत्साहित करते और जहां जरूरत होती, प्रशंसा करते. यह सब रीमा को नजर नहीं आता. वह कल्पनालोक की सैर करती रहती. उसे हर पल, चारों ओर डाक्टर गोविंद ही नजर आते.

उस ने मन ही मन तय कर लिया कि वह अपने दिल की बात डाक्टर गोविंद को जरूर बताएगी. कल वे मेरी ओर देख कर कैसे मुसकरा रहे थे. वे भी उस में दिलचस्पी लेते हैं. उस से अधिक बातें करते हैं. अगर वे मुझे पसंद नहीं करते तो क्यों सिर्फ मुझे नोट्स देने के बहाने बुलाते. देर तक मुझ से बातें करते रहते. शायद वे मुझ से अपनी चाहत का इजहार करना चाहते हैं लेकिन संकोचवश कर नहीं पाते. रीमा को रातभर नींद नहीं आई, उनींदी में रात काटी और सुबह समय से पहले कालेज पहुंच गई. क्लास शुरू होने में अभी देर थी. मैरून कलर की कमीज, चूड़ीदार पजामा और गले में मैचिंग दुपट्टा डाले रीमा गजब की खूबसूरत लग रही थी. वह चहकती हुई सीढि़यां चढ़ रही थी. डाक्टर गोविंद अपनी क्लास ले कर उतर रहे थे. ‘‘अरे रीमा, तुम आ गई.’’

‘‘नमस्ते सर,’’ कहते हुए रीमा झेंप गई. ‘‘यह लो,’’ उन्होंने अपने हाथ में लिया गुलाब का फूल रीमा की ओर बढ़ा दिया.

‘‘थैंक्यू सर,’’ कह कर रीमा जल्दीजल्दी सीढि़यां चढ़ गई. वह क्लास में जा कर ही रुकी. उस की सांसें तेजतेज चल रही थी. वह बैंच पर बैठ गई. गुलाब का फूल देखदेख बारबार उस के होंठों पर मुसकराहट आ रही थी. उसे लगा उस का सपना साकार हो गया. उस का दिल जोरजोर से धड़क रहा था. तभी अमित आ गया. ‘‘अकेली बैठी यहां क्या कर रही हो? अरे, गुलाब का फूल. बहुत खूबसूरत है. मेरे लिए लाई हो तो दो न. शरमा क्यों रही हो?’’ अमित ने गुलाब छूने के लिए हाथ बढ़ाया.

रीमा बिफर पड़ी. ‘‘यह क्या तरीका है? ऐसे क्यों बिहेव कर रहे हो, जंगली की तरह.’’ ‘‘अरे, तुम्हें क्या हो गया? मैं ने तो ऐसा कुछ नहीं किया. वैसे, बिहेवियर तो तुम्हारा बदला हुआ है. कहां खोई रहती हैं मैडम आजकल?’’

‘‘सौरी अमित, पता नहीं मुझे क्या हुआ अचानक…’’ ‘‘अच्छा, छोड़ो इन बातों को. सैमिनार हौल में चलो.’’

‘‘क्यों? अभी तो गोविंद सर की क्लास है.’’ ‘‘अरे पागल, गोविंद सर अब क्लास नहीं लेंगे. वे आज ही यहां से जा रहे हैं. उन का दिल्ली यूनिवर्सिटी में वीसी के पद पर चयन हुआ है. सभी लोग हौल में जमा हो रहे हैं. उन का विदाई समारोह है. उठो, चलो.’’

रीमा की समझ में कुछ नहीं आया. वह सम्मोहित सी अमित के पीछेपीछे चल पड़ी. सैमिनार हौल में छात्र जमा थे. रीमा को आश्चर्य हो रहा था कि इतना कुछ हो गया, उसे पता ही नहीं चला. वह कल्पनालोक में विचरती रही और हकीकत में उस का सारा नाता टूटता गया. वह इन्हीं विचारों में मग्न थी कि गोविंद सर की बातों ने उस का ध्यान भंग किया.

‘‘मैं भले ही यहां से जा रहा हूं लेकिन चाहता हूं कि जीवन में किसी मोड़ पर कोई स्टूटैंट मुझे मिले तो वह तरक्की की नई ऊंचाई पर मिले. एक छात्र का एकमात्र उद्देश्य अपनी मंजिल पाना होना चाहिए. अन्य बातों को उसे नजरअंदाज कर के आगे बढ़ना चाहिए क्योंकि एक बार मन भटका, तो फिर अपना लक्ष्य पाना अत्यंत मुश्किल हो जाता है. मेरे लिए सभी छात्र मेरी संतान के समान हैं. मैं चाहता हूं कि सभी खूब पढ़ें और अपना व अपने मातापिता का नाम रोशन करें.’’ तालियों की गड़गड़ाहट में उन की आवाज दब गई. सभी उन्हें विदा करने को खड़े थे. कई छात्रों की आंखें नम थीं लेकिन होंठों पर मुसकराहट तैर रही थी. डाक्टर गोविंद के शब्दों में जाने क्या जादू था कि रीमा भी नम आंखों और होंठों पर मुसकराहट लिए अपना हाथ हिला रही थी. गुलाब का फूल अपनी खुशबू बिखेर रहा था.

Hindi Story : सहचारिणी – क्या सुरुचि उस परदे को हटाने में कामयाब हो पाई

Hindi Story : आज का दिन मेरी जिंदगी का सब से खास दिन है. मेरा एक लंबा इंतजार समाप्त हुआ. तुम मेरी जिंदगी में आए. या यों कहूं कि तुम्हारी जिंदगी में मैं आ गई. तुम्हारी नजर जैसे ही मुझ पर पड़ी, मेरा मन पुलकित हो उठा. लेकिन मुझे डर लगा कि कहीं तुम मेरा तिरस्कार न कर दो, क्योंकि पहले भी कई बार ऐसा हो चुका है. लोग आते, मुझे देखते, नाकभौं सिकोड़ते और बिना कुछ कहे चले जाते. मैं लोगों से तिरस्कृत हो कर अपमानित महसूस करती. जीवन के सीलन भरे अंधेरों में भटकतेभटकते कभी यहां टकराती कभी वहां. कभी यहां चोट लगती तो कभी वहां. चोट खातेखाते हृदय क्षतविक्षत हो गया था. दम घुटने लगा था मेरा. जीने की चाह ही नहीं रह गई थी. मैं ऐसी जिंदगी से छुटकारा पाना चाहती थी. धीरेधीरे मेरा आत्मविश्वास खोता जा रहा था.

वैसे मुझ में आत्मविश्वास था ही कहां? वह तो मेरी मां के जाने पर उन के साथ चला गया था. वे बहुत प्यार करती थीं मुझे. उन की मीठी आवाज में लोरी सुने बिना मुझे नींद नहीं आती थी. मैं परी थी, राजकुमारी थी उन के लिए. पता नहीं वे मुझ जैसी साधारण रूपरंग वाली सामान्य सी लड़की में कहां से खूबियां ढूंढ़ लेती थीं.

मगर मेरे पास यह सुख बहुत कम समय रहा. मैं जब 5 वर्ष की थी, मेरी मां मुझे छोड़ कर इस दुनिया से चली गईं. फिर अगले बरस ही घर में मेरी छोटी मां आ गईं. उन्हें पा कर मैं बहुत खुश हो गई थी कि चलो मुझे फिर से मां मिल गईं.

वे बहुत सुंदर थीं. शायद इसी सुंदरता के वश में आ गए थे मेरे बाबूजी. मगर सुंदरता में बसा था विकराल स्वभाव. अपनी शादी के दौरान पूरे समय छोटी मां मुझे अपने साथ चिपकाए रहीं तो मैं बहुत खुश हो गई थी कि छोटी मां भी मुझे मेरी अपनी मां की तरह प्यार करेंगी. लेकिन धीरेधीरे असलियत सामने आई. बरस की छोटी सी उम्र में ही मेरे दिल ने मुझे चेता दिया कि खबरदार खतरा. मगर यह खतरा क्या था, यह मेरी समझ में नहीं आया.

सब के सामने तो छोटी मां दिखाती थीं कि वे मुझे बहुत प्यार करती हैं. मुझे अच्छे कपड़े और वे सारी चीजें मिलती थीं, जो हर छोटे बच्चे को मिलती हैं. पर केवल लोगों को दिखाने के लिए. यह कोई नहीं समझ पा रहा था कि मैं प्यार के लिए तरस रही हूं और छोटी मां के दोगले व्यवहार से सहमी हुई हूं.

सुंदर दिखने वाली छोटी मां जब दिल दहलाने वाली बातें कहतीं तो मैं कांप जाती. वे दूसरों के सामने तो शहद में घुली बातें करतीं पर अकेले में उतनी ही कड़वाहट होती थी उन की बातों में. उन की हर बात में यही बात दोहराई जाती थी कि मैं इतनी बदनसीब हूं कि बचपन में ही मां को खा गई. और मैं इतनी बदसूरत हूं कि किसी को भी अच्छी नहीं लग सकती.

उस समय उन की बात और कुटिल मुसकान का मुझे अर्थ समझ में नहीं आता था. मगर जैसेजैसे मैं बड़ी होती गई वैसेवैसे मुझे समझ में आने लगा. मगर मेरा दुख बांटने वाला कोई न था. मैं किस से कहूं और क्या कहूं? मेरे पिता भी अब मेरे नहीं रह गए थे. वे पहले भी मुझ से बहुत जुड़े हुए नहीं थे पर अब तो उन से जैसे नाता ही टूट गया था.

मैं जब युवा हुई तो मैं ने देखा कि दुनिया बड़ी रंगीन है. चारों तरफ सुंदरता है, खुशियां हैं, आजादी है और मौजमस्ती है. पर मेरे लिए कुछ भी नहीं था. मैं लड़कों से दूर रहती. अड़ोसपड़ोस के लोग घर में आते तो मुझ से नौकरानी सा व्यवहार करते. मेरी हंसी उड़ाते. अब आगे मैं कुछ न कहूंगी. कहने के लिए है ही क्या? मैं पूरी तरह अंतर्मुखी, डरपोक और कायर बन चुकी थी.

लेकिन कहते हैं न हर अंधेरी रात की एक सुनहरी सुबह होती है. सुनहरी सुबह मेरी जिंदगी में भी तब आई जब तुम बहार बन कर मेरी वीरान जिंदगी में आए.

तुम्हारी वह नजर… मैं कैसे भूल जाऊं उसे. मुझे देखते ही तुम्हारी आंखों में जो चमक आ गई थी वह जैसे मुझे एक नई जिंदगी दे गई. याद है मुझे वह दिन जब तुम किसी काम से मेरे घर आए थे. काम तुरंत पूरा न होने के कारण तुम्हें अगले दिन भी हमारे घर रुक जाना पड़ा था.

उन 2 दिनों में जब कभी हमारी नजरें टकरा जातीं या पानी या चाय देते समय जरा भी उंगलियां छू जातीं तो मेरा तनमन रोमांचित हो उठता. मेरी जिंदगी में उत्साह की नई लहर दौड़ गई थी.

फिर सब कुछ बहुत जल्दीजल्दी घट गया और तुम हमेशा के लिए मेरी जिंदगी में आ गए. एक लंबी तपस्या जैसे सफल हो गई. छोटी मां ने अनजाने में ही मुझ पर बहुत बड़ा उपकार कर दिया. उन्हें लगा होगा बिना दहेज के इतना अच्छा रिश्ता मिल रहा है और यह अनचाही बला जितनी जल्दी घर से निकल जाए उतना अच्छा.

तुम्हारे साथ तुम्हारे घर जा कर ही मुझे पता चला कि तुम दफ्तर जा कर कलम घिसने वाले व्यक्ति नहीं, बल्कि फैशन डिजाइनिंग क्षेत्र के बहुत बड़ी हस्ती हो. तुम्हारा आलीशान मकान तो किसी फिल्म के सैट से कम नहीं था. नौकरचाकर, ऐशोआराम की कमी नहीं थी. मैं तो जैसे सातवें आसमान में पहुंच गई थी. फिर भी मेरे दिमाग में वही संदेह. इतने बड़े आदमी हो कर तुम ने मुझे क्यों चुना?

मेरी जिंदगी में कई अविस्मरणीय घटनाएं घटीं. अलौकिक आनंद के पल भी आए. जब भी तुम्हें कोई सफलता मिलती तुम मुझे अपनी बांहों में भर लेते और सीने से लगा लेते. उस स्पर्श की सुकोमलता तथा तुम्हारी आंखों में लहराता प्यार का सागर और तुम्हारे नम होंठों की नरमी को मैं कैसे भूल सकती हूं? ऐसे मधुर क्षणों में मुझे अपने पर गर्व होता. पर दूसरे ही पल मन में यह शंका शूल सी चुभती कि क्या मैं इस सुख के काबिल हूं? तुम मुझ पर इतने मेहरबान क्यों? जब कभी मैं ने अपने इन विचारों को तुम्हारे सामने प्रकट किया, तुम्हारे होंठों पर वही निश्छल हंसी आ जाती जिस ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया था. फिर मैं सब कुछ भूल कर तुम्हारे प्यार में खो जाती.

मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए तुम कहते, ‘‘तुम नहीं जानतीं कि तुम क्या हो. अब रही सुंदरता की बात, तो मुझे रैंप पर कैटवाक करती विश्व सुंदरी नहीं चाहिए. मुझे जो सुंदरता चाहिए वह तुम में है.’’

‘‘एक बात कहूं, तुम ने मुझे अपना कर मुझे वह सम्मान दिया है, जो किसी को विरले ही मिलता है. मगर एक प्रश्न है मेरा…’’

‘‘हां मुझे मालूम है. अब तुम यह पूछोगी न कि तुम तो दावा करते हो कि मैं तुम्हें पहली ही नजर में भा गई. मगर पहली ही नजर में तुम्हें मेरे बारे में सब कुछ कैसे पता चला? यही है न तुम्हारा प्रश्न?’’ तुम ने मेरी आंखों में झांकते हुए शरारत भरी हंसी के साथ कहा तो मुझे मानना ही पड़ा कि तुम सुंदरता ही नहीं लोगों के दिलों के भी पारखी हो.

तुम ने मुझे अपनी बांहों में भरते हुए कहा, ‘‘तो सुनो. तुम ने यह प्रश्न कई बार मुझ से कहे अनकहे शब्दों में पूछा. मगर हर बार मैं हंस कर टाल गया. आज जैसा मैं तुम्हें दिख रहा हूं मूलतया मैं वैसा नहीं हूं. मुझे डर था कि कहीं एक अनाथ जान कर तुम मुझ से दूर न हो जाओ. मैं ने जब से होश संभाला अपनेआप को एक अनाथाश्रम में पाया. सभी अनाथाश्रम फिल्मों या कहानियों जैसे नहीं होते. इस अनाथाश्रम की स्थापना एक ऐसे दंपती ने की थी जिन्हें ढलती उम्र में एक पुत्र पैदा हुआ था और वह बेशुमार दौलत और ऐशोआराम पा कर बुरी संगत में पड़ गया था. वह जिस तरह दोनों हाथों से रुपया लुटाता था और ऐश करता था, उसी तरह उसे दोनों हाथों से ढेरों बीमारियां भी बटोरनी पड़ीं. शादीब्याह कर अपना घर बसाने की उम्र में वह इन का घर उजाड़ कर चल बसा.

‘‘वे कुछ समय तक तो इस झटके को सह नहीं पाए और गहरे अवसाद में चले गए. पर अचानक एक दिन उन के घर के आंगन में मैं उन्हें मिल गया तो मेरी देखभाल करते हुए उन्हें जैसे अचानक यह बोध हुआ कि इस दुनिया में ऐसे कई बच्चे हैं, जो मातापिता के प्यार और सही मार्गदर्शन के अभाव में या तो सड़कों पर भीख मांगते हैं या गलत राह पर चल पड़ते हैं. उन्होंने निश्चय किया कि उन के पास जो अपार धनदौलत है उस का सदुपयोग होना चाहिए.

‘‘फिर उन्होंने एक ऐसे आदर्श अनाथाश्रम की स्थापना की जहां मुझ जैसे अनाथ बच्चों को घर की शीतल छाया ही नहीं, मांबाप का प्यार भी मिलता है.

‘‘मैं ने डै्रस डिजाइनिंग में स्नातकोत्तर परीक्षा पास की. उस के बाद एक दोस्त के आग्रह पर उस के काम से जुड़ गया. दोस्त पैसा लगाता है और मैं उस के व्यापार को कार्यान्वित करता हूं. तुम तो जानती ही हो कि इस क्षेत्र में कितनी होड़ लगी रहती है. इस के लिए पैसे तो चाहिए ही. पर पैसों से ज्यादा अहमियत है एक क्रिएटिव माइंड की और मेरे मित्र को इस के लिए मुझ पर भरोसा ही नहीं गर्व भी है. और मेरी इस खूबी का खादपानी यानी जान तुम ही हो,’’ तुम ने मेरी नाक को पकड़ कर झिंझोड़ते हुए कहा तो मुझे अपने आप पर गर्व ही नहीं हुआ मानसिक शांति भी मिली. तुम ने आगे कहना जारी रखा, ‘‘मगर तुम्हारे अंदर एक बहुत बड़ा अवगुण है, जो मुझे बहुत खटकता है.’’

‘‘क्या?’’ मेरा गला सूख गया.

‘‘आत्मविश्वास की कमी. तुम जो हो, अपनेआप को उस से कम समझती हो. मैं ने लाख कोशिश की पर तुम मन के इस भाव से उबर नहीं पा रही हो.’’

यह सब सुन कर मैं अपनेआप पर इतराने लगी थी. मुझे लग रहा था कि मैं दुनिया की ऐसी खुशकिस्मत पत्नी हूं जिस का पति उसे बहुत प्यार करता है और मानसम्मान देता है. मैं और भी लगन से तुम्हारे प्रति समर्पित हो गई.

तुम रातरात भर जागते तो मैं भी तुम्हारे रंगीन कल्पनालोक में तुम्हारे साथसाथ विचरण करती. तुम जब अपने सपनों को स्कैचेज के रूप में कागज पर रखते तो मुझे दिखाते और मेरे सुझाव मांगते तो मुझे बहुत खुशी होती और मैं अपनी बुद्धि को पैनी बनाते हुए सुझाव भी देती.

लेकिन जैसा हर कलाकार होता है, तुम भी बड़े संवेदनशील हो. अपनी छोटी सी असफलता भी तुम से बरदाश्त नहीं होती. तुम्हारी आंखों की उदासी मुझ से देखी नहीं जाती. मैं जी जान से तुम्हें खुश करने की कोशिश करती और तुम सचमुच छोटे बच्चे की तरह मेरे आगोश में आ कर अपना हर गम भूल जाते. फिर नए उत्साह और जोश के साथ नए सिरे से उस काम को करते और सफलता प्राप्त कर के ही दम लेते. तब मुझे बड़ी खुशी होती और गर्व होता अपनेआप पर. धीरेधीरे मेरा यह गर्व घमंड में बदलने लगा. मुझे पता ही नहीं चला कि कब और कैसे मैं एक अभिमानी और सिरफिरी नारी बनती गई.

मुझे लगने लगा था कि ये सारी औरतें, जो धनदौलत, रूपयौवन आदि सब कुछ रखती हैं. वे सब मेरे सामने तुच्छ हैं. उन्हें अपने पतियों का प्यार पाना या उन्हें अपने वश में रखना आता ही नहीं है. मेरा यह घमंड मेरे हावभाव और बातचीत में भी छलकने लगा था. जो लोग मुझ से बड़े प्यार और अपनेपन से मिलते थे, वे अब औपचारिकता निभाने लगे थे. उन की बातचीत में शुष्कता और बनावटीपन साफ दिखता था. मुझे गुस्सा आता. मुझे लगता कि ये औरतें जलती हैं मुझ से. खुद तो नाकाम हैं पति का प्यार पाने में और मेरी सफलता इन्हें चुभती है. इन के धनदौलत और रूपयौवन का क्या फायदा?

उसी समय हमारी जिंदगी में अनुराग आ गया, हमारे प्यार की निशानी. तब जिंदगी में जैसे एक संपूर्णता आ गई. मैं बहुत खुश तो थी पर दिल के किसी एक कोने में एक बात चुभ रही थी. कहीं प्रसव के बाद मेरा शरीर बेडौल हो गया तो? मैं सुंदरी तो नहीं थी पर मुझ में जो थोड़ाबहुत आकर्षण है, वह भी खो गया तो? पता नहीं कहां से एक असुरक्षा की भावना मेरे मन में कुलबुलाने लगी. एक बार शक या डर का बीज मन में पड़ जाता है तो वह महावृक्ष बन कर मानता है. मेरे मन में बारबार यह विचार आता कि तुम्हारा वास्ता तो सुंदरसुंदर लड़कियों से पड़ता है. तुम रोज नएनए लोगों से मिलते हो. कहीं तुम मुझ से ऊब कर दूर न हो जाओ. मैं तुम्हारे बिना अपने बारे में कुछ सोच भी नहीं सकती थी.

अब मैं तुम्हारी हर हरकत पर नजर रखने लगी. तुम कहांकहां जाते हो, किसकिस से मिलते हो, क्याक्या करते हो… यानी तुम्हारी छोटी से छोटी बात मुझे पता होती थी. इस के लिए मुझे कई पापड़ बेलने पड़े, क्योंकि यह काम इतना आसान नहीं था.

अब मैं दिनरात अपनेआप में कुढ़ती रहती. जब भी सुंदर और कामयाब स्त्रियां तुम्हारे आसपास होतीं, तो मैं ईर्ष्या की आग में जलती. तब कोई न कोई कड़वी बात मेरे मुंह से निकलती, जो सारे माहौल को खराब कर देती.

यहां तक कि घर में भी छिटपुट वादविवाद और चिड़चिड़ापन वातावरण को गरमा देता. मेरे अंदर जलती आग की आंच तुम तक पहुंच तो गई पर तुम नहीं समझ पाए कि इस का असली कारण क्या था. तुम्हारी भलमानसी को मैं क्या कहूं कि तुम अपनी तरफ से घर में शांति बनाए रखने की पूरी कोशिश करते रहे. तुम समझते रहे कि घर में छोटे बच्चे का आना ही मेरे चिड़चिड़ेपन का कारण है. उसे मैं संभाल नहीं पा रही हूं. उस की देखभाल की अतिरिक्त जिम्मेदारी के कारण मैं थक जाती हूं, इसीलिए मेरा व्यवहार इतना रूखा और चिड़चिड़ा हो गया है. तुम्हें अपने पर ग्लानि होने लगी कि तुम मुझे और बच्चे को इतना समय नहीं दे पा रहे हो, जितना देना चाहिए.

आज तुम्हारे सामने एक बात स्वीकारने में मुझे कोई शर्मिंदगी नहीं होगी. भले ही मेरी नादानी पर तुम जी खोल कर हंस लो या नाराज हो जाओ. अगर तुम नाराज भी हो गए तो मैं तुम से क्षमा मांग कर तुम्हें मना लूंगी. मैं जानती हूं कि तुम मुझ से ज्यादा देर तक नाराज नहीं रह सकते. सच कहूं? मेरी आंखें खोलने का सारा श्रेय मेरी सहेली सुरुचि को जाता है. जानते हो कल क्या हुआ था? मुझे अचानक तेज सिरदर्द हो गया था. लेकिन वास्तव में मुझे कोई सिरदर्द विरदर्द नहीं था. मैं अंदर ही अंदर जलन की ज्वाला में जल रही थी. यह बीमारी तो मुझे कई दिनों से हो गई थी जिस का तुम्हें आभास तक नहीं है. हो भी कैसे? तुम्हें उलटासीधा सोचना जो आता नहीं है. मगर सुरुचि को बहुत पहले ही अंदाजा हो गया था.

कल शाम मुझे अकेली माथे पर बल डाले बैठी देख वह मेरे पास आ कर बैठते हुए बोली, ‘‘मैं जानती हूं कि तुम यहां अकेली बैठ कर क्या कर रही हो. मैं कई दिनों से तुम से कहना चाह रही थी मगर मैं जानती हूं कि तुम बहुत संवेदनशील हो और दूसरी बात मुझे आशा थी कि तुम समझदार हो और अपने परिवार का बुराभला देरसवेर स्वयं समझ जाओगी. मगर अब मुझ से तुम्हारी हालत देखी नहीं जाती. तुम जो कुछ भी कर रही हो न वह बिलकुल गलत है. अपने मन को वश में रखना सीखो. लोगों को सही पहचानना सीखो. तुम्हारा सारा ध्यान अपने पति के इर्दगिर्द घूमती चकाचौंध कर देने वाली लड़कियों पर है. उन की भड़कीली चमक के कारण तुम्हें अपने पति का असली रूप भी नजर नहीं आ रहा है. अरे एक बार स्वच्छ मन से उन की आंखों में झांक कर देखो, वहां तुम्हारे लिए हिलोरें लेता प्यार नजर आएगा.

‘‘तुम पुरु भाईसाहब को तो जानती ही हो. वे इतने रंगीन मिजाज हैं कि रंगरेलियों का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते. वही क्यों? इस ग्लैमर की दुनिया में ऐसे बहुत सारे लोग हैं. ऐसे माहौल में तुम्हारे पति ऐसे लोगों से बिलकुल अलग हैं. पुरु भाई साहब की बीवी, बेचारी मीना कितनी दुखी होगी अपने पति के इस रंगीन मिजाज को ले कर. सब के बीच कितनी अपमानित महसूस करती होगी. किस से कहे वह अपना दुख? तुम जानती नहीं हो कि कितने लोग तुम्हारी जिंदगी से जलते हैं.

‘‘पुरु भाईसाहब जैसे लोग जब उन्हें गलत कामों के लिए उकसाते हैं. तब जानती हो वे क्या कहते हैं? देखो, घर के स्वादिष्ठ भोजन को छोड़ कर मैं सड़क की जूठी पत्तलों पर मुंह मारना पसंद नहीं करता. मेरी पत्नी मेरी सर्वस्व है. वह अपना सब कुछ छोड़छाड़ कर मेरे साथ आई है और अपना सर्वस्व मुझ पर निछावर करती है. उस की खुशी मेरी खुशी में है. वह मेरे दुख से दुखी हो कर आंसू बहाती है. ऐसी पत्नी को मैं धोखा नहीं दे सकता. वह मेरी प्रेरणा है. मेरी और मेरे परिवार की खुशहाली उसी के हाथों में है.’’

फिर सुरुचि ने मुझे डांटते हुए कहा ‘‘तुम्हें तो ऐसे पति को पा कर निहाल हो जाना चाहिए और अपनेआप को धन्य समझना चाहिए.’’

उस की इन बातों से मुझे अपनेआप पर ग्लानि हुई. उस के गले लग कर मैं इतनी रोई कि मेरे मन का सारा मैल धुल गया और मुझे असीम शांति मिली. मुझे ऐसा लगा जैसे धूप में भटकते राही को ठंडी छांव मिल गई. मैं तुम से माफी मांगना चाहती हूं और तुम्हारे सामने समर्पण करना चाहती हूं. अब ये तुम्हारे हाथ में है कि तुम अपनी इस भटकी हुई पुजारिन को अपनाते हो या ठुकरा देते हो.

Famous Hindi Stories : मेरी सास – कैसी थी उसकी सास

Famous Hindi Stories : कहानियों व उपन्यासों का मुझे बहुत शौक था. सो, कुछ उन का असर था, कुछ गलीमहल्ले में सुनी चर्चाओं का. मैं ने अपने दिमाग में सास की एक तसवीर खींच रखी थी. अपने घर में अपनी मां की सास के दर्शन तो हुए नहीं थे क्योंकि मेरे इस दुनिया में आने से पहले ही वे गुजर चुकी थीं.

सास की जो खयाली प्रतिमा मैं ने गढ़ी थी वह कुछ इस प्रकार की थी. बूढ़ी या अधेड़, दुबली या मोटी, रोबदार. जिसे सिर्फ लड़ना, डांटना, ताने सुनाना व गलतियां ढूंढ़ना ही आता हो और जो अपनी सास के बुरे व्यवहार का बदला अपनी बहू से बुरा व्यवहार कर के लेने को कमर कसे बैठी हो. सास के इस हुलिए से, जो मेरे दिमाग की ही उपज थी, मैं इतनी आतंकित रहती कि अकसर सोचती कि अगर मेरी सास ही न हो तो बेहतर है. न होगा बांस न बजेगी बांसुरी.

बड़ी दीदी का तो क्या कहना, उन की ससुराल में सिर्फ ससुरजी थे, सास नहीं थीं. मैं ने सोचा, उन की तो जिंदगी बन गई. देखें, हम बाकी दोनों बहनों को कैसे घर मिलते हैं. लेकिन सब से ज्यादा चकित तो मैं तब हुई जब दीदी कुछ ही सालों में सास की कमी बुरी तरह महसूस करने लगीं. वे अकसर कहतीं, ‘‘सास का लाड़प्यार ससुर कैसे कर सकते हैं? घर में सुखदुख सभीकुछ लगा रहता है, जी की बात सास से ही कही जा सकती है.’’

मैं ने सोचा, ‘भई वाह, सास नहीं है, इसीलिए सास का बखान हो रहा है, सास होती तो लड़ाईझगड़े भी होते, तब यही मनातीं कि इस से अच्छा तो सास ही न होती.’

दूसरी दीदी की शादी तय हो गई थी. भरापूरा परिवार था उन का. घर में सासससुर, देवरननद सभी थे. मैं ने सोचा, यह गई काम से. देखें, ससुराल से लौट कर ये क्या भाषण देती हैं. दीदी पति के साथ दूसरे शहर में रहती थीं, यों भी उन का परिवार आधुनिक विचारधारा का हिमायती था. उन की सास दीदी से परदा भी नहीं कराती थीं. सब तरह की आजादी थी, यानी शादी से पहले से भी कहीं अधिक आजादी. सही है, सास जब खुद मौडर्न होगी तो बहू भी उसी के नक्शेकदमों पर चलेगी.

दीदी बेहद खुश थीं, पति व उन की मां के बखान करते अघाती न थीं. मैं ने सोचा, ‘मैडम को भारतीय रंग में रंगी सास व परिवार मिलता तो पता चलता. फिर, ये तो पति के साथ रहती हैं. सास के साथ रहतीं तब देखती तारीफों के

पुल कैसे बांधतीं. अभी तो बस आईं

और मेहमानदारी करा कर चल दीं.

चार दिन में वे तुम से और तुम उन से क्या कहोगी?’

बड़ी दीदी से सास की अनिवार्यता और मंझली दीदी से सास के बखान सुनसुन कर भी, मैं अपने मस्तिष्क में बनाई सास की तसवीर पूरी तरह मिटा न सकी.

अब मेरी मां स्वयं सास बनने जा रही थीं. भैया की शादी हुई, मेरी भाभी की मां नहीं थी. सो, न तो वे कामकाज सीख सकीं, न ही मां का प्यार पा सकीं. पर मां को क्या हो गया? बातबात पर हमें व भैया को डांट देती हैं. भाभी को हम से बढ़ कर प्यार करतीं?. मां कहतीं, ‘‘बहू हमारे घर अपना सबकुछ छोड़ कर आई है, घर में आए मेहमान से सभी अच्छा व्यवहार करते हैं.’’

मां का तर्क सुन कर लगता, काश, सभी सासें ऐसी हों तो सासबहू का झगड़ा ही न हो. कई बार सोचती, ‘मां जैसी सासें इस दुनिया में और भी होंगी. देखते हैं, मुझे कैसी सास मिलती है.’

इसी बीच, एक बार अपनी बचपन की सहेली रमा से मुलाकात हुई. मैं उस के मेजर पति से मिल कर बड़ी प्रभावित हुई, उस की सास भी काफी आधुनिक लगीं, पर बाद में जब रमा से बातें हुईं तो पता लगा उन का असली रंग क्या है.

रमा कहने लगी, ‘‘मैं तो उन्हें घर के सदस्या की तरह रखना चाहती हूं पर वे तो मेहमानों को भी मात कर देती हैं. शादी के इतने सालों बाद भी मुझे पराया समझती हैं. मेरे दुखसुख से उन्हें कोई मतलब नहीं. बस, समय पर सजधज कर खाने की मेज पर आ बैठती हैं. कभीकभी बड़ा गुस्सा आता है. ननद के आते ही सासजी की फरमाइशें शुरू हो जाती हैं, ‘ननद को कंगन बनवा कर दो, इतनी साडि़यां दो.’ अकेले रमेश कमाने वाले, घर का खर्च तो पूरा नहीं पड़ता, आखिर किस बूते पर करें.

‘‘रमेश परेशान हो जाते हैं तो उन का सारा गुस्सा मुझ पर उतरता है. घर का सुखचैन सब खत्म हो गया है. रमेश अपनी मां के अकेले बेटे हैं, इसलिए उन का और किसी के पास रहने का सवाल ही नहीं है. पोतेपोतियों से यों बचती हैं गोया उन के बेटे के बच्चे नहीं, किसी गैर के हैं. कहीं जाना हुआ तो सब से पहले तैयार, जिस से बच्चों को न संभालना पड़े.’’

रमा की बातें सुन कर मैं बुरी तरह सहम गई. ‘‘अरे, यह तो हूबहू वही तसवीर साक्षात रमा की सास के रूप में विद्यमान है. अब तो मैं ने पक्का निश्चय कर लिया कि नहीं, मेरी सास नहीं होनी चाहिए. लेकिन होनी, तो हो कर रहती है. मैं ने सुना तो दिल मसोस कर रह गई. अब मां से कैसे कहूं कि यहां शादी नहीं करूंगी. कारण पूछेंगी तो क्या कहूंगी कि मुझे सास नहीं चाहिए. वाह, यह भी कोई बात है.

मन ही मन उलझतीसुलझती आखिर एक दिन मैं डोली में बैठ विदा हो ही गई. नौकरीपेशा पिता ने हम भाईबहनों को अच्छी तरह पढ़ायालिखाया, पालापोसा, यही क्या कम है.

मेरी देवरानियांजेठानियां सभी अच्छे खातेपीते घरों की हैं, मैं ने कभी यह आशा नहीं की कि ससुराल में मेरा भव्य स्वागत होगा. ज्यादातर मैं डरीसिमटी सी बैठी रहती. कोई कुछ पूछता तो जवाब दे देती. अपनी तरफ से कम ही बोलती. रिश्तेदारों की बातचीत से पता चला कि सास पति की शादी कहीं ऊंचे घराने में करना चाहती थीं. लेकिन पति को पता नहीं मुझ में क्या दिखा, मुझ से ही शादी करने को अड़ गए. लेनदेन से सास खुश तो नजर नहीं आईं, पर तानेबाने कभी नहीं दिए, यह क्या कम है.

मैं ने मां की सीख गांठ बांध ली थी कि उलट कर जवाब कभी नहीं दूंगी. पति नौकरी के सिलसिले में दूसरे शहर में रहते थे. मैं उन्हीं के साथ रहती. बीचबीच में हम कभी आते. मेरी सास ने कभी भी किसी बात के लिए नहीं टोका. मुझ से बिछिया नहीं पहनी गई, मुझे उलटी मांग में सिंदूर भरना कभी अच्छा नहीं लगा, गले में चेन पहनना कभी बरदाश्त न हुआ, हाथों में कांच की चूडि़यां ज्यादा देर कभी न पहन पाईं. मतलब सुहाग की सभी बातों से किसी न किसी प्रकार का परहेज था. पर सासजी ने कभी जोर दे कर इस के लिए मजबूर नहीं किया.

दुबलीपतली, गोरीचिट्टी सी मेरी सास हमेशा काम में व्यस्त रहतीं. दूसरों को आदेश देने के बजाय वे सारे काम खुद निबटाना पसंद करती थीं. बेटियों से ज्यादा उन्हें अपनी बहुओं के आराम का खयाल था.

इस बीच, मैं 2 बेटियों की मां बन चुकी थी. समयसमय पर बच्चों को उन के पास छोड़ जाना पड़ता तो कभी उन के माथे पर बल नहीं पड़ा. मेरे सामने तो नहीं, पर मेरे पीछे उन्होंने हमेशा सब से मेरी तारीफ ही की. मेरी बेटियां तो मुझ से बढ़ कर उन्हें चाहने लगी थीं. मेरी असली सास के सामने मेरी खयाली सास की तसवीर एकदम धुंधली पड़ती जा रही थी.

इसी बीच, मेरे पति का अपने ही शहर में तबादला हो गया. मैं ने सोचा, ‘चलो, अब आजाद जिंदगी के मजे भी गए. कभीकभार मेहमान बन कर गए तो सास ने जी खोल कर खातिरदारी की. अब हमेशा के लिए उन के पास रहने जा रहे हैं. असली रंगढंग का तो अब पता चलेगा. पर उन्होंने खुद ही मुझे सुझाव दिया कि 3 कमरों वाले उस छोटे से घर में देवरननदों के साथ रहना हमारे लिए मुश्किल होगा. फिर अलग रहने से क्या, हैं तो हम सब साथ ही.

मेरी मां मुझ से मिलतीं तो उलाहना दिया करतीं. ‘‘तुझे तो सास से इतना प्यार मिला कि तू ने अपनी मां को भी भुला दिया.’’

शायद इस दुनिया में मुझ से ज्यादा खुश कोई नहीं. मेरे मस्तिष्क की पहली वाली तसवीर पता नहीं कहां गुम हो गई. अब सोचती हूं कि टीवी सीरियल व फिल्मों वगैरा में गढ़ी हुई सास की लड़ाकू व झगड़ालू औरत का किरदार बना कर, युवतियां अकारण ही भयभीत हो उठती हैं. जैसी अपनी मां, वैसी ही पति की मां, वे भला बहूबेटे का अहित क्यों चाहेंगी या उन का जीवन कलहमय क्यों बनाएंगी. शायद अधिकारों के साथसाथ कर्तव्यों की ओर भी ध्यान दिया जाए तो गलतफहमियां जन्म न लें. एकदूसरे को दुश्मन न समझ कर मित्र समझना ही उचित है. यों भी, ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती.

मेरी सास मुझ से कितनी प्रसन्न हैं, इस के लिए मैं लिख कर अपने मुंह मियां मिट्ठू नहीं बनना चाहती, इस के लिए तो मेरी सास को ही एक लेख लिखना पड़ेगा. पर उन की बहू अपनी सास से कितनी खुश है, यह तो आप को पता चल ही गया है.

Hindi Moral Tales : शोखियों की कारगुजारियां

Hindi Moral Tales : मेरा नाम है तियाना. वैसे मेरे बारे में आप जान ही जाएंगे, पहले मैं अभिलाष के बारे में बताऊं. मैं अभिलाष को तब से जानती हूं जब वह राजनीति में कदम जमाने की जी तोड़ कोशिश कर रहा था और लगातार सालदरसाल इसी में लगा पड़ा था. यहां तक कि कालोनी वाले भी उस के भविष्य को ले कर तरस खा कर कहते, ‘‘4 साल से ऊपर तो हो गए बेचारा और कब तक एडि़यां घिसेगा. इस हिस्से में नहीं लिखा राजनीति तो जाने दे न.’’

मगर सालों की जी तोड़ कोशिश के बाद 5वें साल उस ने आखिर जंग जीत ही ली. होगी तब उस की उम्र कोई 27 या 28 साल की. जब मैं थी कोई 36 साल से कुछ महीने ऊपर ही. हमारी कालोनी नूतन नगर एक बहुत ही सभ्य सुंदर कालोनी है, तब भी थी. बड़ेबड़े अमीर लोगों का वास था, पर हां यह कालोनी और भी सुविधासंपन्न और साफ होती अगर इसे कोई योग्य लीडर मिलता.

मैं अपनी स्कूटी से कालेज जाते हुए अकसर अभिलाष से रूबरू होती क्योंकि वह कालोनी के किसी न किसी कोने में कुछ न कुछ सफाई या व्यवस्था के काम में जुटा होता. जाने कितने सालों से वह पार्षद बनने की खाक छानता फिर रहा था और कालोनी का विकास बहुत हद तक इसी योजना का हिस्सा था.

खैर, अभिलाष के प्रयास से साल दर साल कालोनी की रंगत सुधरती रही, सुंदर बगीचे बने, रास्ते बने, गंदगी साफ होने की पुख्ता व्यवस्था हुई, पानी का इंतजाम इतना पुख्ता हुआ कि लोग लगभग भूल ही गए कि गरमी आने पर किस तरह कालोनी की पड़ोसिनें प्राइवेट पंप चला कर अपनेअपने घर में पानी खींच लेने को ले कर आपस में लड़ाइयां करती थीं.

लगभग 31 साल के होने तक उस के कामधाम और नाम की वजह से अभिलाष की फैन फौलोइंग काफी बढ़ गई थी और इन में मोटी, ताजी, लंबी, नाटी, गोरी, काली, गेहुआं, सुडौल, बेडौल, चपटी, पतली हर तरह की कालोनी वाली सार्वजनिक भाभियां मौजूद थीं, जिन की असली उम्र 40 के पार थी, लेकिन लगातार हर महीने वह घटघट कर अमावस्या के चांद की तरह पतली डोरनुमा बनी जाती थीं.

खैर, इन सब के बीच बात कुछ गंभीर भी थी. क्यों पता नहीं, (अब तो खैर पता है) अपनी उस 27 या 28 की उम्र से ही अभिलाष मु?ो कुछ अजीब सी नजरों से देखता. यों जैसेकि मैं कोई 21-22 की कमसिन लड़की हूं और जब देखो तब ऐसे देखते रहने से मु?ा में उस के प्रति शर्म की अनुभूति होने लगी थी. उस पर नजर पड़ते ही मैं सिर झुका कर आगे देखते हुए स्कूटी की स्पीड बढ़ा कर निकल जाया करती. बाद में मन में सोचती कि मुझ से इतना तो छोटा है, फिर उस के देखने भर से मुझे शर्म सी क्यों महसूस हो रही है? क्यों मैं खुद के व्यक्तित्व के प्रति सचेत सी हो जाती?

वैसे मुझे पता है, मैं खूबसूरत और स्मार्ट हूं, कालेज में लैक्चरर हूं और 36 की उम्र में मुश्किल से 30 की लगती. लेकिन उस से क्या होता है, मेरा एक दबंग पति है जिस की तब उम्र 42 साल, एक 13 साल की बेटी और एक 10 साल का बेटा. जबकि अभिलाष की तब तक शादी भी नहीं हुई थी. वह तो राजनीति में डुबकी लगालगा कर तैरने का ही अभ्यास कर रहा था. तैरना तो दूर की बात है.

मेरे दबंग पति जो वैसे तो वकील हैं लेकिन कालोनी भर में अपनी नेतागिरी के कारण अच्छी पैठ रखते हैं. कालोनी के हर आयोजन में, हरेक निर्णय में भागीदार रहते हैं और अभी तक पार्षद के चुनाव के लिए एडि़यां घिसता अभिलाष मेरे दबंग पति को दादा कह कर इज्जत देने को भी मजबूर था.

लिहाजा, अभी तक ऐसी कोई सूरत नहीं  थी कि अभिलाष से मेरी कोई बात होती या

उस का फोन नंबर ही मेरे पास रहता और अब इन 5 सालों तक राजनीति में लाख आजमाइश के बाद अचानक एक दिन चुनाव से पहले बीसियों भाभियों की सजीधजी भीड़ ले कर अभिलाष मेरे दरवाजे पर पहुंचा और पहली बार मुझ से मुखातिब हुआ, ‘‘भाभी, मुझे जिता दीजिएगा, पार्षद बन गया तो…’’

इतने में ढेर सारी भाभियों के कलरव ने अभिलाष की बाकी बातें लगभग छीन सी

लीं, ‘‘अभिलाष को जिताना है, कालोनी को सजाना है.’’

होहल्ले के बीच मेरी नजर अभिलाष पर गई. उस की नजर मुझ पर एकटक टिकी थी. अभी वह अपनी उम्र के 31वें पड़ाव पर एक शादीशुदा परिपक्व राजनीतिज्ञ बन चुका था.

मैं ने आश्वासन दिया और सभी चले गए लेकिन एक कुछ रह गया, जो मुझे अच्छा तो नहीं लगा लेकिन पता नहीं कुछकुछ सा होता रहा.

नियत समय पर अभिलाष की मनोकामना पूर्ण हुई. इतने दिनों का संभावित फल उस की ?ाली में गिर चुका था. अभिलाष पार्षद बन चुका था.

अब तो उस के जलवे थे. विधायक, सांसद और मुख्यमंत्री के साथ तक उस का उठनाबैठना शुरू हो गया था. साल बीत रहे थे, वह व्यस्त दर व्यस्त हो रहा था.

अब तो कालोनी की जान था वह. मुझे भी अब तरहतरह के सरकारी कागजातों के सुधार के लिए उस के पास जाना पड़ता और इसी दौरान उस ने मुझ से मेरा फोन नंबर ले लिया. न कहने की मेरी ओर से गुंजाइश नहीं थी क्योंकि आधार कार्ड हो या कोई सरकारी योजना मुझे पार्षद अभिलाष को साथ ले कर चलना था जैसे अन्य चलते हैं.

एक दिन अचानक उस ने अपना एक जबरदस्त फोटो मेरे व्हाट्सएप नंबर पर भेजा वह भी मुख्यमंत्री के साथ किसी राजनीतिक आयोजन में उस की उपस्थिति वाला. मु?ो यह कुछ ठीक नहीं लगा. उस की नजर याद आई, गोलमाल सी महसूस हुई.

यह और बात थी कि वह स्मार्ट था, हैंडसम था, यंग था और मैं उस की प्रशंसा भी खुले दिल से कर सकती हूं, लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि मैं बचकाना हरकत करूं या अपनी जिंदगी के साथ खेल जाऊं. भाई कुछ नहीं तो मेरे दबंग पति के रहते मैं उन के पीठ पीछे किसी और को आंख उठा कर भी देख लूं. जहन्नुम इस से भली होगी मेरे लिए.

तुरंत एक हिमाकत भरा फौरवर्डेड जोक भी पहुंच गया उस तसवीर के पीछेपीछे. अब मैं निश्चिंत हो गई थी कि अभिलाष मुझे कुछ प्राइवेट संदेश दे रहा है, जिस का मुझे किसी तरकीब से विरोध करना पड़ेगा.

मैं दरअसल डर गई थी. यह नया क्या शुरू हो रहा था, वैसे अभिलाष मुझे बुरा नहीं लगता था लेकिन मैं झंझट में नहीं पड़ सकती थी.

दूसरी मुसीबत यह थी कि मेरे मातापिता इसी साल दूसरे राज्य से मेरे ही शहर में शिफ्ट हो कर आए थे वह भी हमारी ही कालोनी में एक नए किराए के मकान में. अब मेरे पापा की पैंशन और आधार कार्ड को ले कर मैं बुरी तरह फंसी हुई थी और यह काम पार्षद अभिलाष की मदद से ही होने को रुका था.

काम खत्म होने के बाद अगर यह सब आया होता, तो मैं ज्यादा सोचने को विवश नहीं होती, लेकिन अभी सीधे कोई खरी बात सुनाना जरा पेचीदा था. तिस पर करेले पर नीम चढ़ा यह कि मेरे वकील महोदय पति, पता नहीं पेशे की वजह से शक्की थे या शक्की होने की वजह से वकील थे हमेशा हर बात पर उन की शक की सूई घूम कर मुझ पर ही टिक जाती थी.

करूं तो क्या. सामने वाला औनलाइन मेरे जवाब के लिए रुका लग रहा था. मेरा दिमाग गड्डमड्ड हो रहा था. मैं उस के फोटो पर थम्सअप की इमोजी दे कर गायब हो गई.

डरते हुए आधे घंटे बाद फोन चैक किया कि उस ने मुझे बख्श दिया हो, अगला मैसेज आया था, ‘‘आप के घर के पास के गार्डन में आया हूं, आइए.’’

बड़ी कोफ्त हुई. भाई यह क्या है. गार्डन में मिलने की बात तो कुछ गलत हिसाब की ओर ही इशारा करती है. पर मना कैसे करूं. इस से काम भी बहुत कराना है, कहीं खफा न हो जाए और अगर इस की बातों में आती हूं तो भी खाई में गिरना ही लिखा है. इसे ?ांसे में रख कर काम करवाने तक लपेटे रखती हूं. मेरे मन में हिसाब का खाता खुला था. जब तक मांपापा का आधार कार्ड बन जाए. मेरा आधार कार्ड नया सुधरे और सरकारी मैडिकल कार्ड बने तब तक इसे अपनी तरफ से सीधा मना न ही करूं. मतलब हां, न के बीच लटका कर रखूं. मगर तब तक मेरे पति

कहीं यह खेल तो नहीं रहा मेरे साथ या कहीं पति ने ही मेरे चरित्र के प्रमाणपत्र के लिए इसे मेरे पीछे लगाया हो. दिमाग तो कम नहीं चलता मेरे पति का.

हाय. क्या करूं. किस मुसीबत में फंसी रे मैं.

उसी वक्त फिर उधर से संदेश आ गया, ‘‘दादा कहां हैं? क्या कर रहे हैं?’’

मैं ने लिखा, ‘‘घर पर हैं,’’ सोचा ऐसा बताने से वह शायद अब चुप हो जाए.

उस ने पलट कर लिखा, ‘‘दादा से डर लगता है, दादा आप का फोन तो नहीं देखते?’’

मैं ने सोचा. यह ठीक है. उसे लिखा, ‘‘देखते भी हैं कभीकभी,’’ अनजान बनने का नाटक करते पूछा, ‘‘क्यों?’’

उस ने बिना कुछ बताए झटपट सारा संदेश डिलीट कर दिया.

मैं ने फोन रख दिया. सोचा अब दौड़धूप कल से ही मांपापा के आधार कार्ड के लिए

लगती हूं, मुसीबत भी कम नहीं थी न. मेरे दबंग पति को बड़ी चिढ़ थी, मेरे मातापिता और मेरे विदेश में जा बसे मेरे छोटे भाई को ले कर.

भाई के रहते मेरे मातापिता अपनी बीमारी की वजह से मेरे सहारे मेरे पास रहने आ गए थे, यद्धपि मेरे पति को कभी मेरे मातापिता की सहायता नहीं करनी पड़ी, चाहे आर्थिक हो या अन्य कुछ. लेकिन मेरा उन के प्रति सहज सहृदय रहना मेरे पति को फूटी आंख नहीं सुहाता. इसलिए दिक्कत कुछ ज्यादा ही थी. मेरी नौकरी के कारण इन कामों में देरी होना स्वाभाविक था और तब जब सरकारी काम के नखरे भी हजार हों.

खैर, मैं अपने कालेज में कुछ एडजस्टमैंट बैठा कर पार्षद औफिस गई. अभिलाष नहीं था. मैं आज कालेज नहीं गई थी, पार्षद के साइन आज ही होने जरूरी थे, मैं ने उसे मजबूरन फोन किया. उस ने तुरंत फोन उठाया और 10 मिनट में औफिस आ गया. मैं ने गौर किया

उस ने सलीके से कुरतापाजामा

और जैकेट पहन रखी थी, वह फब रहा था.

इरादतन वह मेरे बिलकुल करीब आ गया और मु?ा से फार्म ले कर जो मेरे भरने का हिस्सा था, उस ने भर दिया. आराम से सभी जगह पर उस ने साइन किए और जो उस के भरने की जगह थी और जिसे उस के कर्मचारी भरा करते थे, वह भी उस ने भर दी. फिर मुहर लगा कर वह फार्म मेरी ओर बढ़ाया ताकि आगे की कार्यवाही के लिए मैं उसे ले जाऊं. मैं औफिस से निकल गई थी. वह मेरे पीछे आया. मैं अब बहुत हद तक आजाद थी, यद्धपि अपने बहुत से काम अभी भी उस से कराने थे लेकिन सोचा देखा जाएगा, इस के इरादों के आगे ?ाकूंगी नहीं.

उस ने पास आ कर कहा, ‘‘घर छोड़ दूं?’’

मैं ने कहा, ‘‘मेरी गाड़ी है न शुक्रिया,’’ मैं विनम्रता से उस की ओर देख मुसकराई और गाड़ी तक चली.

वह मेरे पीछे था, पीछे से ही कहा, ‘‘मैं आप के लिए ही औफिस आया था, आज मुझे नहीं आना था.’’

मैं पीछे मुड़ी, उसे एक बार और धन्यवाद कहा. स्कूटी में चाबी लगाई तो पाया स्कूटी की टायर पंक्चर है.

यह कैसे हुआ. मान नहीं सकती. अभी 2 दिन पहले ही हवा डलवाई थी मैं. वह मेरे पीछे खड़ा मुसकरा रहा था, बोला, ‘‘आप के लिए ही आया मैं. बोला न मैं ने आइए चलिए,’’ वह अपनी गाड़ी मेरे बिलकुल पास ले आया. फिर मेरी स्कूटी की चाबी मांगते हुए बोला, ‘‘यहां के कर्मचारी शेखर को मैं कह दूंगा वह आप की गाड़ी का पंक्चर ठीक करवा कर मेरे घर छोड़ देगा, आप शाम को ले जाना.’’

कुछ हक्कीबक्की सी हो मैं ने चाबी उस की ओर बढ़ा दी. यह हवाहवाई का चक्कर अभिलाष का किया धरा ही था, मैं समझ गई लेकिन इतनी दूर यहां से पैदल जाना नामुमकिन था और यह कालोनी के अंदर की सड़क थी, किराए के वाहन नहीं चलते थे.

‘‘अरे बैठिए न,’’ उस ने जोर दिया.

अब करती क्या, उस की गाड़ी में बैठना पड़ा. लगभग चिपक कर और वह गाड़ी भी कितनी धीरे चलाता रहा कि हर पल मझे यही लगता कि मेरे वकील पति मेरी पीठ पीछे बैठे मेरे संग चल रहे हैं.

मेरे घर से कुछ दूरी पर वह मुझे उतार कर बोला, ‘‘शाम को मैं आप की गाड़ी बनवा कर रखता हूं, मैं शाम को घर पर ही रहूंगा, गाड़ी आ कर ले लीजिएगा.’’

‘‘कल मुझेऔफिस जाना है, प्लीज

बन जाए.’’

मजबूरन एक और कृपा लेनी पड़ रही थी, जिस का उस ने खुले दिल से स्वागत किया.

सोचा था, शाम को उस की बीवी तो होगी ही, ज्यादा क्या होगा, चाबी लेनी है और गाड़ी स्टार्ट कर के सीधे घर.

घर पर किसी काम से व्हाट्सऐप चैक कर रही थी, देखा अभिलाष का संदेश.

‘‘आप की गाड़ी तैयार है, जाइए.’’

शाम के 5 बज रहे थे. मेरे पति लगभग रात के 8 बजे आते हैं, दोनों बच्चों को मैं नहीं पढ़ाती क्योंकि नौकरी और मातापिता के काम की भागादौड़ के बाद मेरी हिम्मत नहीं होती कि बच्चों के पीछे सिर पटकु. ऐसे भी बेटी 12वीं कक्षा में है तो उस की पढ़ाई कुछ अलग ही है. बच्चे अभी ट्यूशन में होते हैं, जिन्हें मेरे पति कोर्ट और उस के बाद अपने निजी औफिस से लौटते वक्त साथ ले आते.

मुझे अभिलाष से पीछा छुड़ाना था, मुझे अभिलाष के हिसाब से चलना नहीं था. मुझे उस से फोन पर भी संवाद बंद करना था, बावजूद इस के मैं उस के घर जाते वक्त खुद की ही नजर बचा कर खुद को थोड़ा ज्यादा सुंदर दिखाने का प्रयास करती रही.

वैसे मैं खुद को जानती हूं, यह उस से ज्यादा उस की बीवी के लिए था. स्त्री मनोविज्ञान. एक अपरिचित स्त्री जिस के पति की मैं परिचित हूं, कदाचित असुंदर दिख कर खुद को कुंठित नहीं करना चाहती थी.

मैं ने हलकी नीबू पीली जौर्जेट की लंबी कुरती के साथ सफेद स्ट्रैचेबल जींस पेयर की, ऊपर से सफेद डैनिम शौर्ट जैकेट.

मेरे घर से उस का घर पास ही था. दरवाजे पर पहुंचते ही बैल बजाने की जरूरत ही नहीं पड़ी. वह तुरंत दरवाजा खोल कर मुझे अंदर बैठक में ले गया. वह एक पीले कुरते और सफेद चूड़ीदार में अच्छा लग रहा था.

तभी उस ने कहा, ‘‘अरे आप भी पीला सा ही पहनी हैं,’’ फिर मेरी तरफ प्रशंसा से देख कहा, ‘‘बहुत अच्छी लग रही हैं.’’

मैं भी क्या कहती, ‘‘थैंक्स मेरी चाबी…’’

‘‘हां जरूर देते हैं. साथ 1 कप कौफी पी कर जाइए.’’

‘‘अपनी बीवी से मिलाइए,’’ मैं ने प्रश्नसूचक नजर उस की ओर रखी.

उस ने हलकी सी मुसकान के साथ कहा, ‘‘मेरी बीबी मायके गई है. तभी तो बुलाया है.

वह रहती तो संभव नहीं था. बिलकुल पसंद नहीं उसे, समझती ही नहीं. काम के सिलसिले… जरूरतें… कुछ नहीं सम?ाती. खैर, क्या करें. आया 1 मिनट.’’

1 मिनट की जगह 15 मिनट बाद आया 2 कौफी और कुछ बिसकुट के साथ. जितना डरी थी वैसा कुछ भी नहीं हुआ, इस की तसल्ली थी मुझे वापस आ कर.

जरा सी हंसी, थोड़ी मेरी कहानी, थोड़ी उस की बातें और एक सामान्य सी दोस्ती जैसा कुछ मैं ले कर वापस आई थी. अब नए सिरे से कुछ शुरू न हो, इस उम्मीद के साथ मैं अपने में व्यस्त हो गई.

याद तो ठीक से नहीं लेकिन फिर भी 4-5 महीने से मुझे अभिलाषा की ज्यादा खबर नहीं मिली क्योंकि उस के थोड़ेबहुत संदेश का मैं ने कोई जवाब नहीं दिया था और इसी वजह वह भी कटा सा ही रहा.

पार्षद वाली उस की गाड़ी बड़ी धूम से चल रही थी और मैं ने भी फालतू बातों से मन को दूर रखने की ठान ली थी. अचानक लगभग साल भर बाद पार्षद कार्यालय के क्लर्क शेखर

का एक व्हाट्सऐप संदेश मेरे फोन पर आया. मैं अचंभित.

मैं ने खोला संदेश. लिखा था, ‘‘नमस्ते भाभी. भैया ने मुझे आप को यह संदेश लिखने को कहा है, भैया की तबीयत बहुत खराब है, वे किसी से बता नहीं पा रहे हैं. दरअसल, उन्हें डिप्रैशन हो गया है, आप को अपने घर बुलाया है, कब आएंगी बताइएगा?’’

मैं तो खजूर के पेड़ पर जा अटकी.

शेखर को ही संदेश लिखा, ‘‘अभिलाषजी की बीवी कहां हैं?’’

‘‘भैया से अनबन कर के मायके में जा बैठी हैं, 2 महीने हो गए.’’

‘‘तो आप ने उन्हें क्यों नहीं लिखा संदेश?’’ मैं ने फिर सवाल किया.

‘‘भैया तो आप को बुला रहे हैं, किसी से बिना कुछ कहे एक बार आ कर मिल लीजिए भैया से, आप लैक्चरर हैं, समझदार हैं. भैया से बात करेंगी तो उन का मन थोड़ा हलका  हो सकता है… पार्षद हैं, किसी को पता चला तो कैरियर खराब हो जाएगा, सब हंसेंगे और बात बनाएंगे.’’

‘‘देखती हूं,’’ मेरा जरा भी इस झमेले में पड़ने का मन नहीं था लेकिन मेरे स्त्री मन पर खुद के महत्त्वपूर्ण होने का भाव हावी हो गया और मैं चली गई अभिलाष के घर.

घर में उजाले और अंधेरे का कुछ अजीब सा मिश्रण था जो मुझे दुविधा में डाल रहा था.

आवाज लगाई धीरे से और अभिलाष बाहर निकला. मुझे तो ऐसा लगा नहीं कि वह बहुत दिनों से किसी मानसिक कष्ट में हो, लेकिन बुझ सा लगा, ‘‘आओ तिया अंदर आओ, आज तुम मेरे बुलाने पर आईं, तुम्हारे लिए बाहर का कमरा नहीं, तुम अंदर आओ.’’

शुरुआती तौर पर यह इज्जत अफजाई थी या करीबी होने की तस्दीक, मैं जांच नहीं पाई. नाम भी उस ने छोटा कर के लिया था, लेकिन स्त्री मन की अनुभूति ने जैसे मु?ो जकड़ लिया. मैं बात को अनसुना कर गई. भरोसा यह था कि अब तक उस ने मेरे साथ ऐसा कुछ भी किया नहीं था कि उस पर बिना बात शक करूं, सिवा इस वक्त उस के मेरे नाम को छोटा कर देने के. उस के साथ बैडरूम में आई, वह एक किनारे और मैं दूसरे किनारे बैठ गई.

मैं पूछती उस से पहले ही जरा मुंह लटका कर उस ने कहना शुरू किया, ‘‘बहुत दबाव में हूं तिया. इधर विधायकजी मुझे साइड करने के लिए मुझ पर 2 लाख के घपले का आरोप रहे हैं, दूसरी ओर मेरी बीवी देखो एन वक्त पर मुझ पर ही शक कर के मायके चली गई. किसी को कुछ भी कहा तो लोग मुझे ही बदनाम करेंगे और अगले चुनाव में मैं पिछड़ जाऊंगा.’’

‘‘आप अपनी बीवी का नंबर दो मैं समझाऊंगी उन्हें.’’

‘‘कुछ नहीं होगा. देखो एक चीज दिखाता

हूं तुम्हें फोन पर,’’ ऐसा कहते हुए वह मेरे बिलकुल पास आ कर बैठ गया और मेरे कंधे पर अपना सिर रख कर रोंआसा सा कहने लगा,’’ तिया मुझे तुम से बहुत उम्मीदें हैं, मुझे दुत्कारो मत, मैं पता नहीं कब से तुम्हें बहुत पसंद करता हूं, तुम्हें पाना, मतलब तुम्हे चाहता हूं,’’ उस ने मेरे हाथों को अपने हाथों में ले कर धीरेधीरे यों दबाते हुए मेरे होंठों को अपने होंठों के कब्जे में ऐसे ले लिया कि मैं उस के वश में आने लगी.

एक तरफ मन और दिमाग मुझे यहां से उठ कर भागने के लिए दुत्कारने लगा,

दूसरी ओर न जाने क्या इतना रूमानी सा मुझे मजबूर करने लगा कि मैं अभिलाष के अंधकार में खुद को ढीला छोड़ने पर विवश होने लगी. वह धीरे से मेरे पैरों को बिस्तर पर चढ़ा कर पूरी तरह मेरे ऊपर झुक गया. एक झटके में उस ने अपना कुरता निकाल फेंका और उस की सुगंधित देह मेरे ऊपर पसरने लगी.

मेरा शरीर अब उस के इतने काबू में था कि पल में सबकुछ बदलने वाला था. बेहोशी के आलम में न जाने क्या हो जाने वाला था. अचानक मैं झटके से उसे दूर ठेल सीधे जमीन पर खड़ी हो गई.

‘‘क्या था यह?’’ मैं एकदम अचंभित सी बोल पड़ी. फिर खुद को संभाला और दरवाजे की ओर भागी.

अभिलाष पीछे आया, ‘‘तिया, प्लीज यह मेरेतुम्हारे प्यार की बात है, किसी से कुछ नहीं कहना, मैं तुम्हारा फिर भी इंतजार करूंगा.’’

मैं कालोनी के अंदर थी. आसपास के पहचान वालों की नजर में न चढ़ूं, बहुत ही सामान्य कदमों से मन पर सौ मन का बो?ा उठाए घर पहुंची.

 

मन बहुत भारी हो उठा था और अब मुझे एहसास हो रहा था कि अभिलाष के प्रति मेरे मन में जो उठापटक थी, वह और कुछ नहीं, बस किसी का मुझे महत्त्व देना और चाहना मुझे भा रहा था क्योंकि जो भी हो, पति की बेखयाली ने मन को अभाव में डुबो तो रखा ही था. सच पूछा जाए तो यह अभिलाष के प्रति मेरी संवेदना या आकर्षण की बात ही नहीं थी वरना विवश होती कामना की नकेल पकड़ एक ?ाटके में उसे  बिस्तर से जमीन पर सीधा खड़ा करना आसान नहीं होता. शायद सालों से स्त्री

मन में जमी चाहना ने अभाव बन कर मुझे डस लिया था.

शुक्र है शाम के 6 बज रहे थे और सब के घर आने में लगभग 2 घंटे बचे थे.

मैं अच्छी तरह नहा कर एक कप कौफी के साथ अपना फोन ले कर बिस्तर पर बैठी ही थी कि अभिलाष का संदेश, ‘‘क्यों चली गईं… मैं कितने सालों से तुम्हें पाना चाहता था.’’

मैं ने पूछा, ‘‘डिप्रैशन?’’

‘‘अभी तो कुछ नहीं लेकिन तुम्हें पा न सका.’’

‘‘पत्नी क्यों गई?’’

‘‘बेबी बर्थ के लिए.’’

‘‘अभिलाष, शेखर से तुम ने झूठ बुलवाया.’’

‘‘प्यार में सब जायज है,’’ अभिलाष की बेशर्मी अब मुझे बेहद बुरी लग रही थी.

‘‘अपनी जिंदगी और कैरियर से मत खेलो अभिलाष और अपनी बीवी की जिंदगी से भी. मेरे इस लास्ट मैसेज के बाद भी तुम ने मुझ से और कभी कोई संपर्क करने की कोशिश की तो हम दोनों की बातचीत के सारे स्क्रीन शौट मैं अपने पति को दिखा दूंगी.’’

अभिलाष इस मैसेज को देख कर ऐसे रफूचक्कर हुआ मेरी जिंदगी से जैसे गधे के सिर से सींग.

जान छूटे तो लाखों पाए. शोखियों की कारगुजारियों ने तो मेरी नींद ही खराब कर रखी थी. दिल पर से बोझ मैं ने उतार फेंका. अब से नींद वाकई सुहानी होगी.

Hindi Thriller Stories : वो कौन है – रात में किस महिला से मिलने होटल में जाता था अमन

Hindi Thriller Stories :  बिस्तर पर लेटी अंजलि की आंखों से नींद कोसों दूर थी. वह बिस्तर पर लेटीलेटी सोच रही थी कि उस की जिंदगी में यह उथलपुथल कैसे मच गई? पूरी रात आंखों में ही कट गई. उसे सुबह 10 बजे तक औफिस पहुंचना था पर उस का मन ही नहीं हुआ. वह सोचने लगी…पिछले साल ही तो उस की शादी अमन से धूमधाम से हुई थी. अमन को वह काफी समय पहले से जानती थी. दोनों कालेज में साथ ही पढ़ते थे. अकसर दोनों के घर के लोग भी मिलतेजुलते रहते थे. किसी को भी इस शादी से कोई परेशानी नहीं थी. अत: लव मैरिज बनाम अरेंज्ड मैरिज होने में कोई परेशानी नहीं हुई. शादी के बाद अमन ने अंजलि को बहुत प्यार और सम्मान से रखा. इसीलिए अमन से शादी कर के अंजलि स्वयं को बहुत खुशहाल समझ रही थी.

समस्या तब उत्पन्न हुई जब उस रात वह फोन आया. फोन अमन के लिए था. कोई महिला थी. उस ने अंजलि से कहा, ‘‘प्लीज अंजलि फोन अमन को दो.’’

फोन सुनते ही अमन बहुत बेचैन हो गए. अंजलि ने पूछा तो बोले, ‘‘मेरी चाची का फोन है,’’ और फिर बिना कुछ कहेसुने तुरंत चल गए.

सुबह के 4 बजे लौटे तो बेहद उदास और परेशान थे. अंजलि ने उन्हें परेशान देखा तो उस समय कुछ भी पूछना उचित नहीं समझा. सोचा कल आराम से सब पूछ लेगी. पर सुबह घर के कामों से उसे समय नहीं मिला और रात में वह कुछ पूछती उस से पहले ही फिर उस का फोन आ गया.

अंजलि के फोन उठाते ही उस महिला ने कहा, ‘‘अंजलि फोन जल्दी से अमन को दो.’’

अंजलि के बुलाने से पहले ही अमन ने उस के हाथ से फोन ले लिया. अंजलि रसोई से कान लगा कर सुनने लगी.

थोड़ी ही देर में अमन की आवाज आई, ‘‘चिंता मत करो. मैं अभी आता हूं,’’ और अमन बिना किसी से कुछ कहे चला गया.

अमन अंजलि के बारबार पूछने पर भी ठीक से कुछ नहीं बता पाया. अगली बार जब फोन आने पर अमन बाहर निकला तो अंजलि भी सतर्कता से उस के पीछेपीछे निकल गई. उस ने ठान लिया आज सचाई जान कर रहेगी. कौन है यह महिला? मुझे भी जानती है. अमन उस के बारे में कुछ बताना क्यों नहीं चाहते? क्या कुछ गलत हो रहा है?

अमन की गाड़ी एक मशहूर होटल के सामने रुकी. वह अगभग दौड़ता हुआ सीढि़यां चढ़ता ऊपर चला गया. अंजलि भी उस के पीछेपीछे हो ली. अमन ने एक कमरे में घुस अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. थोड़ी देर बाद दोनों कहीं बाहर चले गए. अंजलि जानना तो चाहती थी कि ये सब क्या चल रहा है, पर औफिस के लिए देर हो जाती, इसलिए मन मार कर औफिस के लिए निकल गई. वह औफिस आ तो गई पर उस का मन काम में नहीं लग रहा था उस का ध्यान तो होटल के कमरे ही हलचल में ही अटका था.

वह सोच रही थी कि क्या अभी भी अमन होटल में ही होगा या अपने औफिस चला गया होगा. उस ने अमन के औफिस में फोन किया तो पता चला वह तो 2 दिनों से औफिस नहीं आ रहा. अंजलि चकरा गईर् कि अगर औफिस नहीं जा रहे तो कहां जा रहे? घर से तो सही समय पर औफिस जा रहा हूं, कह कर निकल जाते हैं. उस ने सोचा कुछ तो गड़बड़ है.

अंजलि का समय काटे नहीं कट रहा था. उस ने पक्का मन बना लिया कि जो भी हो आज घर जा कर अमन से साफसाफ बात करेगी.

रात तो अंजलि जब घर पहुंची तो अमन की जगह अमन के हाथ का लिखा नोट

मिला. उस में लिखा था कि औफिस के काम से बाहर जा रहा हूं. चिंता मत करना. 2 दिनों में लौट आऊंगा. कहां गए हैं यह भी नहीं लिखा था.

अंजलि को बहुत गुस्सा आ रहा था. औफिस से पता चला अमन ने औफिस से यह कह कर छुट्टी ली थी कि घर में काम है. पर घर में तो कोई काम था ही नहीं. एक फोन भी नहीं किया. फोन कर के बता सकते थे न कि कहां गए? फिर उस ने सोचा फोन तो मैं भी सकती हूं न. अत: अमन को फोन लगाया तो फोन स्विचऔफ था. अब तो अंजलि चिंता और गुस्से से भर गई कि जरूर उसी होटल में होंगे अपनी चाची के पास… हुंह चाची… चाची तो वह हरगिज नहीं हो सकती. अगर चाची हैं तो होटल में क्यों रुकीं. घर में भी रुक सकती थीं? मुझे जानती हैं तो मुझ से मिलने क्यों नहीं आईं? जरूर अमन की कोई प्रेमिका ही होगी. ये सब सोचते ही अंजलि को चक्कर आने लगा कि अब उस का क्या होगा? बारबार अंजलि के दिमाग में यही बातें घूमने लगीं. उसे पहले पता लगाना चाहिए, फिर क्या करना है, सोचा जाएगा, यह तय किया अंजलि ने.

पर कहां से शुरू करें? फिर याद आया कि अरे अमन के भाईभाभी तो जानते ही होंगे अपनी चाची को. अगर चाची ही आई हैं तो भाई साहब से भी मिली होंगी. चलो, सब से पहले भाभी से बात करती हूं, सोच अंजलि अगली सुबह ही इसी शहर में रहने वाली अपनी जेठानी मीता के घर पहुंच गई.

अंजलि को देखते ही उस की जेठानी मीता खुश हो कर बोलीं, ‘‘अरे अंजलि आओआओ. तुम तो ईद का चांद हो गई हो. अकेली ही आई हो क्या? अमन कहां है? आए नहीं क्या?’’

‘‘भाभी, भाभी रुकिए तो सब बताती हूं…अमन शहर से बाहर गए हैं. मैं घर में अकेली थी. आप की बहुत याद आ रही थी. आज शुक्रवार है. आज की मैं ने छुट्टी ले ली. कलपरसों की छुट्टी है ही तो मैं आप के पास आ गई. भैया कहां हैं?’’

‘‘तुम्हारे भैया भी बाहर गए हैं. अब हम दोनों मिल कर खूब मस्ती करेंगे,’’ मीता ने अंजलि को बताया.

दोनों बातें करते हुए काम भी करती जा रही थीं. अंजलि चाची के बारे में पूछने का मौका ढूंढ़ रही थी.

मीता ने बातोंबातों में अंजलि से जब पूछा कि कोई खुशखबरी है क्या तो अंजलि ने शरमा कर अपना मुंह हाथों में छिपा कर हां में सिर हिलाया. मीता ने खुशी से अंजलि को गले लगा लिया. फिर मीता ने पूछा, ‘‘डिलिवरी के लिए कहां जाओगी मायके? अगर नहीं तो मेरे पास आ जाना.’’

‘‘नहींनहीं मायके तो नहीं जाऊंगी. आप को तो पता ही है मां अब अधिकतर बिस्तर पर ही रहती हैं. उन के बस का नहीं है कुछ. आप को भी परेशानी होगी. कितना अच्छा होता अगर अपने सासससुर जिंदा होते तो मुझे कुछ सोचना भी नहीं पड़ता,’’ अंजलि ने बातों का सूत्र अपने मकसद की ओर मोड़ते हुए कहा.

‘‘उन की कमी तो मुझे भी बहुत खलती है पर क्या करें. दोनों भाई बहुत छोटे थे जब एक दुर्घटना में मम्मीपापा दोनों चल बसे. कैसेकैसे दुख उठाए दोनों भाइयों ने पर हिम्मत नहीं हारी और आज देखो दोनों परिवार कितने खुशहाल है.’’

‘‘क्या कोई दूरपास के रिश्तेदार चाचाचाची वगैरह भी नहीं हैं, जिन्हें डिलीवरी के समय बुला सकें?’’ अंजलि ने धड़कते दिल से पूछ ही लिया.

‘‘नहीं, चाची तो नहीं हैं, पर हां एक नानी थीं जो पिछले साल चल बसी थीं.’’

अंजलि का मकसद पूरा हो गया. उसे जो जानकारी चाहिए थी वह उसे मिल गई. फिर भी कुछ और कुरेदने की गरज से उस ने फिर पूछा, ‘‘कोई दूरपास की बहन भी नहीं है? अगर कोई बहन ही होती तो कितना अच्छा होता. है न?’’

‘‘हां, दोनों भाइयों को एक बहन की कमी भी बहुत खलती है. बहन के नाम से ही दोनों की आंखें भीग जाती हैं. रक्षाबंधन के दिन दोनों कहीं चले जाते हैं. कहते हैं सब के हाथों में राखी देख कर मन कैसाकैसा होने लगता है.’’

अंजलि को पता लग गया कि अमन की कोई चाची नहीं है. सीधा सा मतलब है कि अमन झूठ बोल कर उस महिला से मिलने जाता है. जरूर उस की कोई प्रेमिका ही होगी. दोनों में नाजायज संबंध होंगे. अब तो मैं अमन के साथ नहीं रह सकती. अंतत: अंजलि ने दूसरे ही दिन वापस जाने की तैयारी कर ली.

मीता ने उसे जाने को तैयार देखा तो कहा कि रुक जाओ अमन आ जाएं तो चली जाना. खाली घर में क्या करोगी? पर अंजली ने आज जरूरी काम है मैं फिर आ जाऊंगी, कह कर मीता को चुप करवा दिया और निकल पड़ी अपने पापा के घर के लिए. उस ने अमन को कुछ बताना जरूरी नहीं समझा. बस औफिस के पते पर एक पत्र डाल कर उसे जता दिया कि अब वह कभी वापस नहीं आएगी.

पापा ने अचानक अंजलि को देखा तो पूछा, ‘‘अमन नहीं आए? तुम अकेली ही आई हो?’’

अंजलि चुपचाप खड़ीखड़ी रोने लगी तो पापा ने घबरा कर पूछा, ‘‘क्या हुआ, अमन से झगड़ा हुआ है क्या?’’

‘‘पापा मैं उस घर और अमन को छोड़ आई हूं. अब वापस नहीं जाऊंगी,’’ कहते हुए अंजलि अपनी मम्मी से मिलने उन के कमरे में चली गई.

इधर अमन जब 2 दिनों बाद रात को

12 बजे वापस घर पहुंचा तो दरवाजे पर ताला देख कर सोच में पड़ गया कि इस समय अंजलि कहां जा सकती है. कहीं उसे सब पता तो नहीं चल गया? नहींनहीं यह संभव नहीं है. जरूर अपने पापा के घर गई होगी. पर बता तो सकती थी. फिर उस ने सोचा हो सकता है उस ने फोन किया हो. फोन चार्ज ही नहीं था तो मुझ से बात कैसे होगी? अभी फोन करना भी ठीक नहीं है. चलो सुबह औफिस जाते समय पहले उस के पापा के घर चला जाऊंगा. 2 दिनों का थका अमन ऐसा सोया कि सुबह 10 बजे नींद खुली. घड़ी देखते ही अमन सब भूल कर औफिस भागा. औफिस में उसे मिला अंजलि का पत्र. पत्र पढ़ते ही उस के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. वह उलटे पैरों अंजलि के पापा के घर पहुंचा. उस ने अंजलि को समझाने की कोशिश की पर वह कुछ नहीं सुनना चाहती थी. लाचार अमन घर लौट गया. ऐसे ही कुछ दिन बीत गए.

एक दिन दोपहर में घर की घंटी बजी तो अंजलि ने दरवाजा खोला. बाहर एक

सुंदर सी महिला खड़ी थी. दरवाजा खुलते ही उस ने अपना परिचय दिया, ‘‘मैं अमन की…’’

अभी उस की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि अंजलि भड़क उठी, ‘‘अच्छा तो तुम हो वह लड़की जिस के लिए अमन ने मुझे धोखा दिया. तुम्हारी हिम्मत की तो दाद देनी पड़ेगी… यहां तक चली आई. बोलो क्या कहना है? तलाक के कागज लाई हो क्या?’’

महिला अंदर आ कर थोड़ी देर तक चुपचाप बैठी सोचती रही, फिर बोली, ‘‘बात थोड़ी लंबी है. आराम से सुनो. मैं दावे से कहती हूं कि पूरी बात सुन कर तुम्हारा गुस्सा गायब हो जाएगा और तुम अमन से मिलने दौड़ पड़ोगी.’’

‘‘अच्छा तो कहिए क्या कहानी बना कर लाई हैं आप?’’

अंजलि की बात का बुरा न मान कर उस ने कहना शुरू किया, ‘‘मैं अमन और रमन की बड़ी बहन हूं…’’

उस की बात काट कर अंजलि चिल्लाई, ‘‘झूठ बोल रही हो तुम. अमन और रमन की कोई बहन नहीं है. होती तो मुझे बताते नहीं? छिपाते क्यों?’’

‘‘न बताने की कोई मजबूरी रही होगी.’’

‘‘ऐसी भी क्या मजबूरी कि बहन को बहन न कह सके. होटल में रखा अपनी पत्नी तक से उस के बारे में छिपाया?’’ अंजलि गुस्से से कांपते हुए बोली.

लगता है आज बरसों पुराना राज खोलना ही पड़ेगा, सोच वह बोली ‘‘मैं, अमन व रमन तीनों सगे भाईबहन हैं. एक दुर्घटना में मम्मीपापा की मृत्यु के बाद हमारा कोई सहारा न था. मैं 15 वर्ष की थी, रमन 5 और अमन 3 साल का. घर तो अपना था पर बाकी खर्चों के लिए मुझे नौकरी करनी ही थी. नौकरी तो क्या मिलती, पेट की भूख ने मुझे कौल गर्ल बना दिया. फिर एक सेठजी की निगाहें मेरी सुंदरता पर पड़ीं और उन्होंने मुझे एक अलग घर में रख दिया. बदले में उन्होंने मेरा और परिवार का पूरा खर्च भी उठाया पर इस शर्त पर कि मैं अपने भाइयों से कभी नहीं मिलूंगी. बस उन की बन कर रहूंगी. मैं ने उन की शर्त मान ली और उन्होंने मेरे भाइयों को पढ़ालिखा कर नौकरी भी दिलवाई. आज उन का समाज में एक नाम है तो उन्हीं के कारण.’’

‘‘ठीक है पर मैं कैसे मान लूं कि आप सही बोल रही हैं?’’ अंजलि ने पूछा, तब उस महिला ने अपने पर्स से एक फोटो निकाल कर दिखाया. उस में अमन व रमन के अलावा अंजलि के सासससुर और वह महिला भी साफ दिखाई दे रही थी. शक की कोई गुंजाइश ही नहीं थी.

फिर भी अंजलि ने पूछा, ‘‘जब अब तक सामने नहीं आईं, अपने भाइयों से दूर रहीं तो अब क्यों हमारी जिंदगी में आग लगाने आ गईं?’’

‘‘ठीक कहती हो तुम. आग ही तो लगा दी है मैं ने तुम सब की जिंदगी में…विश्वास करो मैं तो यों ही गुमनाम मर जाना चाहती थी पर सेठजी नहीं माने. जब डाक्टर ने उन से साफसाफ बता दिया कि अब वे महीना 2 महीने के ही मेहमान हैं तो उन्हें मेरी चिंता हुई. अपने घर तो वे ले नहीं जा सकते थे, इसलिए अमन व रमन को बुला कर सारी बात बताई और मुझे अपने साथ ले जाने के लिए कहा, क्योंकि मरने से पहले वे मेरी सारी जिम्मेदारी भाइयों को सौंप कर निश्चिंत होना चाहते थे. मैं ने तो मना किया था, पर वे नहीं माने, क्योंकि मैं कैंसर की लास्ट स्टेज पर हूं. मुझे देखभाल की जरूरत है. वैसे वे एक बड़ी धनराशि मेरे नाम छोड़ गए हैं. तुम्हें कुछ नहीं करना पड़ेगा. तुम्हें परेशानी नहीं हो इसीलिए तो मैं घर भी नहीं आई. मैं वादा करती हूं कि अपनी परछाईं तक तुम लोगों पर नहीं पड़ने दूंगी. बस तुम अपने घर चली जाओ.’’

पूरी बात सुन कर अंजलि ने उठ कर अपनी ननद सीमा के पैर छुए और कहा, ‘‘अगर अमन पहले ही सब सचसच बता देते तो बात इतनी बढ़ती ही नहीं. खैर, अब आप वहीं करेंगी जो मैं कहूंगी,’’ और फिर अपनी जेठानी को फोन कर अपने पापा के घर बुला लिया.

दोनों मिल कर कुछ कार्यक्रम बना अपनेअपने घर चली गईं. अंजलि को वापस आया देख कर अमन बहुत खुश हुआ. उस ने अपनी भाभी को अंजलि को वापस घर लाने के लिए धन्यवाद भी दिया मगर उसे क्या मालूम कि अंजलि अपनी मरजी से घर आई है.

2 दिनों बाद ही राखी थी. अंजलि ने अमन को आधे दिन की छुट्टी ले कर लंच में घर आने को कहा. अपने जेठ और जेठानी को भी खाने पर घर बुलाया. बाजार से सुंदर राखियां खरीदीं और थाली सजा कर सब का इंतजार करने लगी.

अमन और रमन एकसाथ ही घर पहुंचे जबकि मीता सुबह ही घर आ गई थी. अमन और रमन अंदर घुसते ही हैरान हो गए. घर अच्छी तरह से सजा हुआ था. टेबल पर एक थाली में राखियां देख कर दोनों ने एकदूसरे को देखा, फिर अंजलि से पूछा, ‘‘क्या है ये सब?’’

‘‘आप लोग राखी के दिन हमेशा उदास हो जाते थे तो हम ने आप की उदासी दूर करने के लिए एक ननद बना ली है. आइए दीदी, अपने भाइयों को राखी बांधिए.’’

अंदर से अपनी बहन को आता देख कर दोनों भाई एकदम से घबरा गए. जब अंजलि और मीता ने उन से कहा, ‘‘आप क्या समझते थे हमें पता नहीं लगेगा? हम आप से बहुत नाराज हैं. हमें बताया क्यों नहीं? हमें पराया ही समझते रहे आप दोनों. अपना घर होते हुए भी अपनी बहन को होटल में रखा.’’

इतना सुनते ही दोनों भाइयों की जान में जान आई. दोनों ने अंजलि और मीता से माफी मांगी.

सीमा ने खुश हो कर अमन व रमन को राखी बांधी. अंजलि और सीमा ने कहा, ‘‘बहनों को राखी बांधने पर कुछ देना भी पड़ता है याद है कि नहीं? अमन व रमन दोनों अपनी जेबें टटोलने लगे तो सीमा दीदी ने दोनों के हाथ पकड़ कर अपने माथे से लगा कर रुंधे गले से कहा, ‘‘आज तो मुझे इस जीवन का अमूल्य उपहार मिला है. आज मुझे मेरा मायका मिल गया. अब मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं है. तुम सब के साथ बाकी बचा जीवन चैन से बिताऊंगी और चैन से मरूंगी,’’ और फिर अंजलि का माथा चूमते हुए कहा, ‘‘तुम्हारा यह एहसान मैं जीवन भर नहीं भूलूंगी. तुम ने मुझे खुले दिल से स्वीकार कर मुझे सारी खुशियां दे दीं.’’

आज सब के चेहरे पर सच्ची खुशी फैली थी. इस वर्ष का रक्षाबंधन जीवन का यादगार दिन बन गया. वर्षों बाद अमन व रमन की सूनी कलाइयां फिर से सज गई थीं.

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