मां जल्दी आना: भाग-3

‘‘कहां हो भाई खानावाना मिलेगा… 9 बजने जा रहे हैं.’’ मैं ने अपने खुले बालों का जूड़ा बनाया और फटाफट किचन में जा पहुंची. देखा तो मां ने रात के डिनर की पूरी तैयारी कर ही दी थी बस केवल परांठे बनाने शेष थे. मैं ने फुर्ती से गैस जलाई और सब को गरमागरम परांठे खिलाए. सारे काम समाप्त कर के मैं अपने बैडरूम में आ गई. अमन तो लेटते ही खर्राटे लेने लगे थे पर मैं तो अभी अपने विगत से ही बाहर नहीं आ पाई थी. आज भी वह दिन मुझे याद है जब मां को देखने गई मैं वापस मां को अपने साथ ले कर लौटी थी. मुझे एअरपोर्ट पर लेने आए अमन ने मां के आने पर उत्साह नहीं दिखाया था बल्कि घर आ कर तल्ख स्वर में बोले,’’ ये सब क्या है विनू मुझ से बिना पूछे इतना बड़ा निर्णय तुम ने कैसे ले लिया.

‘‘कैसे मतलब… अपनी मां को अपने साथ लाने के लिए मुझे तुम से परमीशन लेनी पड़ेगी.’’ मैं ने भी कुछ व्यंग्यात्मक स्वर में उतर दिया था.

‘‘क्यों अब क्यों नहीं ले गया इन का सगा बेटा इन्हें अपने साथ जिस के लिए इन्होंने बेटी तो क्या दामादों तक को सदैव नजरंदाज किया.’’

‘‘अमन आखिर वे मेरी मां हैं… वह नहीं ले गया तभी तो मैं ले कर आई हूं. मां हैं वो मेरी ऐसे ही तो नहीं छोड़ दूंगी.’’ मेरी बात सुन कर अमन चुप तो हो गए पर कहीं न कहीं अपनी बातों से मुझे जता गए कि मां का यहां लाना उन्हें जंचा नहीं. इस के बाद मेरी असली परीक्षा प्रारंभ हो गई थी. अपने 20 साल के वैवाहिक जीवन में मैं ने अमन का जो रूप आज तक नहीं देखा था वह अब मेरे सामने आ रहा था.

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घर आ कर सब से बड़ा यक्षप्रश्न था हमारे 2 बैडरूम के घर में मां को ठहराने का. 10 वर्षीय बेटी अवनि के रूम में मां का सामान रखा तो अवनि एकदम बिदक गई. अपने कमरे में साम्राज्ञी की भांति अब तक एकछत्र राज करती आई अवनि नानी के साथ कमरा शेयर करने को तैयार नहीं थी. बड़ी मुश्किल से मैं ने उसे समझाया तब कहीं मानी पर रात को तो अपना तकिया और चादर ले कर उस ने हमारे बैड पर ही अपने पैर पसार लिए कि ‘‘आज तो मैं आप लोगों के साथ सोउंगी भले ही कल से नानी के साथ सो जाउंगी.’’

पर जैसे ही अमन सोने के लिए कमरे में आए तो अवनि को बैडरूम में देख कर चौंक गए.

‘‘लो अब प्राइवेसी भी नहीं रही.’’

‘‘आज के लिए थोड़ा एडजस्ट कर लो कल से तो अवनि नानी के साथ ही सोएगी.’’ मैं ने दबी आवाज में कहा कि कहीं मां न सुन लें.

‘‘एडजस्ट ही तो करना है, और कर भी क्या सकते हैं.’’ अमन ने कुछ इस अंदाज में कहा मानो जो हो रहा है वह उन्हें लेशमात्र भी पसंद नहीं आ रहा पर उन्हें इग्नोर करने के अलावा मेरे पास कोई चारा भी नहीं था. मां को सुबह जल्दी उठने की आदत रही है सो सुबह 5 बजे उठ कर उन्होंने किचन में बर्तन खड़खड़ाने प्रारंभ कर दिए थे. मैं मुंह के ऊपर से चादर तान कर सब कुछ अनसुना करने का प्रयास करने लगी. अभी मेरी फिर से आंख लगी ही थी कि अमन की आवाज मेरे कानों में पड़ी.

‘‘विनू ये मम्मी की घंटी की आवाज बंद कराओ मैं सो नहीं पा रहा हूं.’’ मैं ने लपक कर मुंह से चादर हटाई तो मां की मंदिर की घंटी की आवाज मेरे कानों में भी शोर मचाने लगी. सुबह के सर्दी भरे दिनों में भी मैं रजाई में से बाहर आई और किसी तरह मां की घंटी की आवाज को शांत किया. जब से मां आईं मेरे लिए हर दिन एक नई चुनौती ले कर आता. 2 दिन बाद रात को जैसे ही मैं सोने की तैयारी कर रही थी कि अवनि ने पिनपिनाते हुए बैडरूम में प्रवेश किया.

‘‘मम्मी मैं नानी के पास तो नहीं सो सकती, वे इतने खर्राटे लेती हैं कि

मैं सो ही नहीं पाती.’’ और वह रजाई तान कर सो गई. अमन का रात का कुछ प्लान था जो पूरी तरह चौपट हो गया था और वे मुझे घूरते हुए करवट ले कर सो गए थे बस मेरी आंखों में नींद नहीं थी. अगले दिन अमन को जल्दी औफिस जाना था पर जैसे ही वे सुबह उठे तो बाथरूम पर मां का कब्जा था उन्हें सुबह जल्दी नहाने का आदत जो थी. बाथरूम बंद देख कर अमन अपना आपा खो बैठे.

‘‘विनू मैं लेट हो जाऊंगा मम्मी से कहो हमारे औफिस जाने के बाद नहाया करें उन्हें कौन सा औफिस जाना है.’’

‘‘अरे औफिस नहीं जाना है तो क्या हुआ बेटा चाय तो पीनी है न और तुम जानते हो कि मैं बिना नहाए चाय भी नहीं पीती.’’ मां ने बाथरूम से बाहर निकल कर सफाई देते हुए कहा. जिंदगीभर अपनी शर्तों पर जीतीं आईं मां के लिए स्वयं को बदलना बहुत मुश्किल था और अमन मेरे साथ कोऔपरेट करने को तैयार नहीं थे. इस सब के बीच मैं खुद को तो भूल ही गई थी. किसी तरह तैयार हो कर लेटलतीफ बैंक पहुंचती और शाम को बैंक से निकलते समय दिमाग में बस घर की समस्याएं ही घूमतीं. इस से मेरा काम भी प्रभावित होने लगा था. मेरी हालत ज्यादा दिनों तक बैंक मैनेजर से छुपी नहीं रह सकी और एक दिन मैनेजर ने मुझे अपने केबिन में बुला ही भेजा.

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‘‘बैठो विनीता क्या बात है पिछले कुछ दिनों से देख रही हूं तुम कुछ परेशान सी लग रही हो. यदि कोई ऐसी समस्या है जिस में मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं तो बताओ. अपने काम में सदैव परफैक्शन को इंपोर्टैंस देने वाली विनीता के काम में अब खामियां आ रही हैं इसीलिए मैं ने तुम्हें बुलाया.’’

‘‘नहीं मैम ऐसी कोई बात नहीं है बस कुछ दिनों से तबियत ठीक नहीं चल रही है. सौरी अब मैं आगे से ध्यान रखूंगी.’’ कह कर मैं मैडम के केबिन से बाहर आ गई. क्या कहूं मैडम से कि बेटियां कितनी भी पढ़ लिख लें, आत्मनिर्भर हो जाएं पर अपने मातापिता को अपने साथ रखने या उन की जिम्मेदारी उठाने के लिए पति का मुंह ही देखना पड़ता है.

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Serial Story: गुंडा (भाग-3)

मेरी ने उस का हाथ थामा, ‘‘नीरू, मुझे घर जाना है, जरूरी काम है. तू चलेगी क्या मेरे साथ?’’ मेरी अब उस की बहुत अच्छी दोस्त बन चुकी थी.

रास्ते में मेरी ने कहा, ‘‘नीरू, मैं बहुत दिन से एक बात कहना चाह रही थी, मगर डर रही थी कि कहीं तुम बुरा न मान जाओ. मेरा विचार है कि सगाई से पहले एक बार आनंद के बारे में पुनर्विचार कर लो. उस के और तुम्हारे स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर है. वह जो दिखता है वह है नहीं और तुम्हारा मन बिलकुल साफ है.’’

‘‘जिसे मैं शांत, गंभीर और नेक व्यक्ति मानती थी उस में अब मुझे पैसोें का गरूर, अपनेआप को सब से श्रेष्ठ और दूसरों को तुच्छ समझने की प्रवृत्ति, दूसरों के दुखदर्द के प्रति संवेदनशून्यता आदि खोट क्यों दिखाई दे रहे हैं? शायद यह मेरी ही नजरों का फेर हो.’’ नीरू की आंखों में आंसू आ गए. उसे मंगल की याद आई. उस ने आंसू पोंछे.

मेरी समझ गई. उस ने मन में सोचा, ‘अब तुम ने आनंद को ठीक पहचाना.’

‘‘मेरी, मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि जब बात सगाई तक पहुंच गई है अब मैं क्या कर क्या सकती हूं?’’

‘‘सगाई तो क्या, बात अगर शादी के मंडप तक भी पहुंच जाती है और तुझे लगता है कि तू उस के साथ सुखी नहीं रह सकती, तेरा स्वाभिमान कुचला जाएगा, तो ऐसे रिश्ते को ठुकराने का तुझे पूरा हक है,’’ मेरी उसे घर छोड़ कर चली गई.

2 दिन तक नीरजा कालेज नहीं गई. उसे कुछ भी करने की इच्छा नहीं हो रही थी. अगले दिन तो वह और भी बेचैन हो उठी थी. उस का दम घुट रहा था. शाम होतेहोते वह और भी बेचैन हो उठी.

‘‘मां, थोड़ी देर वाकिंग कर के आती हूं.’’

‘‘मैं साथ चलूं?’’

‘‘नहीं मां, यों ही जरा चल के आऊंगी तो थोड़ा ठीक लगेगा,’’ वह चप्पल पहन कर निकल गई.

नीरू की मां जानती थी कि उसे कोई चीज बेचैन कर रही है. छोटीमोटी बात होगी तो वापस आ कर ठीक हो जाएगी. ऐसीवैसी कोई बात होगी तो वह अवश्य उस के साथ चर्चा करेगी. वे अपने काम में लग गईं.

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थोड़ी देर चलते रहने के बाद उस ने देखा कि वह किसी जानेपहचाने रास्ते से जा रही है. वह रुक गई. उसे अचानक ध्यान आया कि वह मेघा के घर के आसपास खड़ी है. उस के कदम मेघा के घर की ओर बढ़ गए. फाटक खोल कर उस ने अंदर प्रवेश किया. चारों ओर शांति थी. वहां चंदू की बाइक नहीं थी. ‘चलो, अच्छा है घर पर नहीं है. मेघा और उस की मां से थोड़ी देर बात कर के उस की मनोस्थिति में थोड़ा बदलाव आएगा.’

‘तनाव मुक्त हो कर आज रात वह मां से खुल कर बात कर सकेगी.’ दरवाजा बंद था. उस ने घंटी बजाने को हाथ उठाया ही था कि अंदर से आवाज आई, ‘‘नहीं मेघा, यह नहीं हो सकता.’’ अरे, यह तो चंदू की आवाज है.

‘‘क्यों भैया, क्यों नहीं हो सकता? मैं जानती हूं कि तुम उस से बहुत प्यार करते हो.’’

‘‘हांहां, तू तो सब जानती है, दादी है न मेरी.’’

‘‘हंसी में बात को मत उड़ाओ भैया. अगर तुम नीरू से नहीं कह सकते तो बोलो, मैं बात करती हूं.’’

‘‘नहींनहीं मेघा, खबरदार ऐसा कभी न करना. मैं जानता हूं कि वह किसी और की अमानत है तो फिर मैं कैसे…’’

‘‘चलो, एक बात तो साफ है कि आप उस से…’’

‘‘मगर इस से क्या होता है मेघा? वह किसी और से प्यार करती है, दोचार दिन में उस की सगाई होने वाली है और फिर शादी.’’

अब नीरू की समझ में आ रहा था कि शायद वे लोग उस की बात कर रहे थे.

‘‘भैया, आप से किस ने कह दिया कि नीरजा आनंद से प्यार करती है. यह तो केवल घटनाओं का क्रम है. वह उस के साथ खुश नहीं रह पाएगी.’’

‘‘यह तू कैसे कह सकती है?’’ चंदू ने झुंझलाते हुए कहा.

‘‘दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर है. आनंद स्वार्थी और अहंभावी है. वह वह नहीं है जो दिखता है. वह और भी खतरनाक है.’’

‘‘मैं सब जानता हूं मेघा, मगर अब कुछ नहीं हो सकता. सब से बड़ी बात यह है कि मैं कालेज में बदनाम हूं. धनवान भी नहीं हूं.’’

‘‘मगर मैं जानती हूं कि तुम कितने अच्छे हो. दूसरों की भलाई के लिए कुछ भी कर सकते हो.’’

‘‘मैं तेरा भाई हूं न, इसलिए तुझे ऐसा लगता है. मेघा अब छोड़ न यह सब. उस को शांति से आनंद के साथ आनंदपूर्वक जीने दे. इस समय तू मुझे जाने दे. मेरी गाड़ी अब तक ठीक हो गई होगी,’’ चंदू ने कहा.

घर की खिड़की से बचती हुई नीरू घर के पिछवाड़े की तरफ चली गई.

घर पहुंचने के बाद मां ने देखा कि अब वह तनावमुक्त थी, पर किसी आत्ममंथन में अभी भी उलझी हुई है. उन्होंने कुछ नहीं कहा. नीरू चुपचाप रात का खाना खाने के बाद अपने कमरे की बत्ती बुझा कर बालकनी में आ कर बैठ गई. बाहर चांदनी बिछी हुई थी.

वह जैसे किसी तंद्रा में थी. उस की आंखों के सामने तरहतरह की घटनाएं आ रही थीं, जिन में वह कभी आनंद को देख रही थी तो कभी चंदू को. जिसे सीधा, सरल, उत्तम और सहृदय मानती रही वह किस रूप में सामने आया और जिसे गुंडा, मवाली, फूलफूल पर मंडराने वाला भंवरा मानती आई है उस का स्वभाव कितना नरमदिल, दयालु और मददगार है, मगर उस ने चंदू को कभी उस नजरिए से नहीं देखा.

मेरी ने कई बार उसे समझाया भी कि चंदू साफ दिल का इंसान है जो अन्याय बरदाश्त नहीं कर सकता.

कोई लड़कियों को छेड़ता है, किसी बच्चे या बूढ़े को सताता है तो उस से लड़ाई मोल लेता है. वह लड़कियों के पीछे नहीं भागता, बल्कि उस के शक्तिशाली व्यक्तित्व और चुलबुलेपन से आकर्षित हो कर लड़कियां ही उसे घेरे रहती हैं. आज क्या बात हो गई उस के सामने सबकुछ साफ हो गया. शायद उस की आंखों पर लगा आनंद की नकली शालीनता का चश्मा उतर गया था.

‘ये क्या किया मैं ने. क्या मेरी पढ़ाई मुझे इतना ही ज्ञान दे पाई? मेरे संस्कार क्या इतने ही गहरे थे? मुझे सही और गलत की पहचान क्यों नहीं है? क्या मेरी ज्ञानेंद्रियां इतनी कमजोर हैं कि वे हीरे और कांच में फर्क नहीं कर पातीं? क्या मैं इतनी भौतिकवादी हो गई हूं कि मुझे आत्मा की शुद्धता और पवित्रता के बजाय बाहरी चमकदमक ने अधिक प्रभावित कर दिया.

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‘मेघा सही कहती थी कि वह आनंद के साथ कभी खुश नहीं रह पाएगी. न वह ऐश्वर्य में पलीबढ़ी है, न उसे पाना चाहती है. वह ऐसी सीधीसादी साधारण लड़की है जो एक शांतिपूर्ण, तनावमुक्त जिंदगी जीना चाहती है. वह अपने पति और परिवार से ढेर सारा प्यार पाना चाहती है.’

अचानक उस ने जैसे कुछ निश्चय कर लिया कि वह उस व्यक्ति से हरगिज शादी नहीं करेगी, जिस में संवेदनशीलता नहीं है, आर्द्रता नहीं है, जो भौतिकवादी है. फिर चाहे वह करोड़पति हो या अरबपति, उस का पति कदापि नहीं बन सकता. वह उस गुंडे, मवाली से ही शादी करेगी जो दिल का सच्चा है, नरमदिल और मानवतावादी है. वह जितना बिंदास दिखता है उतना ही परिपक्व और जीवन के प्रति गंभीर है. उसे पूरा विश्वास है कि उस की जिंदगी ऐसे व्यक्ति की छत्रछाया में बड़ी शांति से गुजर जाएगी. ऐसा निश्चय करने के बाद नीरजा को बड़े चैन की नींद आई.

ये घर बहुत हसीन है: भाग-3

सहसा आर्यन का फ़ोन बज उठा. आर्यन सब भूल जूस का गिलास टेबल पर रख बच्चे से बातें करने लगा.
रात को अकेले बिस्तर पर लेटी हुई वान्या विचित्र मनोस्थिति से गुज़र रही थी. ‘कभी लगता है आर्यन जैसा प्यार करने वाला न जाने कैसे मिल गया? लेकिन अगले ही पल स्वयं को छला हुआ महसूस करती हूं. सिर से पांव तक प्रेम में डूबा आर्यन एक फ़ोन के आते ही सब कुछ बिसरा देता है? क्या है यह सब?’ आर्यन की पदचाप सुन वान्या आंखें मूंदकर सोने का अभिनय करते हुए चुपचाप लेटी रही. आर्यन ने लाइट औफ़ की और वान्या से लिपटकर सो गया.

अगले दिन भी वान्या अन्यमनस्क थी. स्वास्थ्य भी ठीक नही लग रहा था उसे अपना. सारा दिन बिस्तर पर लेटी रही. आर्यन बिज़नस का काम निपटाते हुए बीच-बीच में हाल पूछता रहा. वान्या के घर से फ़ोन आया. अपने मम्मी-पापा को उसने अपने विषय में कुछ नहीं बताया, लेकिन उनकी स्नेह भरी आवाज़ सुन वह और भी बेचैन हो उठी.

रात को आर्यन खाने की दो प्लेटें लगाकर उसके पास बैठ गया. टीवी औन किया तो पता लगा कि अगले दिन ‘जनता कर्फ़्यू’ की घोषणा हो गयी है.

“अब क्या होगा? लगता है पापा का कहा सच होने वाला है. वे आज ही फ़ोन पर कह रहे थे कि लौकडाउन कभी भी हो सकता है.” वान्या उसांस लेते हुए बोली.

आर्यन ने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए, “घबराओ मत तुम्हें कोई काम नहीं करना पड़ेगा. प्रेमा कहीं दूर थोड़े ही रहती है कि लौकडाउन में आएगी नहीं. तुम क्यों उदास हो रही हो? लौकडाउन हो भी गया तो हम दोनों साथ-साथ रहेंगे सारा दिन….मस्ती होगी हमारी तो!”

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वान्या को अब कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. पानी पीकर सोने चली गयी. मन की उलझन बढ़ती ही जा रही थी. ‘पहले क्या मैं कम परेशान थी कि यह जनता कर्फ़्यू ! लौकडाउन हुआ तो अपने घर भी नहीं जा सकूंगी मैं. आर्यन से फ़ोन के बारे में कुछ पूछूंगी और उसने कह दिया कि हां, मेरी पहले भी शादी हो चुकी है. तुम्हें रहना है तो रहो, नहीं तो जाओ. जो जी में आये करो तो क्या करूंगी? यहां इतने बड़े घर में कैसी पराई सी हो गयी हूं. आर्यन का प्रेम सच है या ढोंग?’ अजीब से सवाल बिजली से कौंध रहे थे वान्या के मन-मस्तिष्क में.
अपने आप में डूबी वान्या सोच रही थी कि इस विषय में कहीं से कुछ पता लगे तो उसे चैन मिल जाये. ‘कल प्रेमा से सफ़ाई करवाने के बहाने पूरे घर की छान-बीन करूंगी, शायद कोई सुराग हाथ लग जाये.’ सोच उसे थोड़ा चैन मिला तो नींद आ गयी.

अगले दिन सुबह से ही प्रेमा को हिदायतें देते हुए वह सारे बंगले में घूम रही थी. आर्यन मोबाइल में लगा हुआ था. दोस्तों के बधाई संदेशों का जवाब देते हुए कुछ की मांग पर विवाह के फ़ोटो भी भेज रहा था. वान्या को प्रेमा के साथ घुलता-मिलता देख उसे एक सुखद अहसास हो रहा था.
इतना विशाल बंगला वान्या ने पहले कभी नहीं देखा था. जब दो दिन पहले उसने बंगले में इधर-उधर खड़े होकर खींची अपनी कुछ तस्वीरें सहेलियों को भेजी थीं तो वे आश्चर्यचकित रह गयीं थीं. उसे ‘किले की महारानी’ संबोधित करते हुए मैसेजेस कर वे रश्क कर रहीं थी. इतने बड़े बंगले का मालिक आर्यन आखिर उस जैसी मध्यमवर्गीया से सम्बन्ध जोड़ने को क्यों राज़ी हो गया? और तो और कोरोना के बहाने शादी की जल्दबाजी भी की उसने.

वान्या का मन बेहद अशांत था. प्रेमा के साथ-साथ घर में घूमते हुए लगभग दो घंटे हो चुके थे. रहस्यमयी निगाहों से वह घर को टटोल रही थी. बैडरूम के पास वाले एक कमरे में चम्बा की सुप्रसिद्ध कशीदाकारी ‘नीडल पेंटिंग’ से कढ़ी हुई हीर-रांझा की खूबसूरत वौल हैंगिंग में उसे आर्यन और अपनी सौतन दिख रही थी. पहली बार लौबी में घुसते ही दीवार पर टंगी मौडर्न आर्ट की जिस पेंटिंग के लाल, नारंगी रंग उसे उसे रोमांटिक लग रहे थे, वही अब शंका के फनों में बदल उसे डंक मार रहे थे. बैडरूम में सजी कामलिप्त युगल की प्रतिमा, जिसे देख परसों वह आर्यन से लिपट गयी थी आज आंखों में खटक रही थी. ‘क्या कोई अविवाहित ऐसा सामान सजाने की बात सोच सकता है? शादी तो यूं हुई कि चट मंगनी पट ब्याह, ऐसे में भी आर्यन को ऐसी स्टेचू खरीदकर सजाने के लिए समय मिल गया….हैरत है!’ घर की एक-एक वस्तु आज उसे काटने को दौड़ रही थी. ‘कैसा बेकार सा है यह मनहूस घर’ वह बुदबुदा उठी.

लगभग सारे घर की सफ़ाई हो चुकी थी. केवल एक ही कमरा बचा था, जो अन्य कमरों से थोड़ा अलग, ऊंचाई पर बना था. पहाड़ के उस भाग को मकान बनाते समय शायद जान-बूझकर समतल नहीं किया गया होगा. बाहर से ही छत से थोड़ा नीचे और बाकी मकान से ऊपर उस कमरे को देख वान्या बहुत प्रभावित हुई थी. प्रेमा का कहना था कि उस बंद कमरे में कोई आता-जाता नहीं इसलिए साफ़-सफ़ाई की कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन वान्या तो आज पूरा घर छान मारना चाहती थी. उसके ज़ोर देने पर प्रेमा झाड़ू, डस्टर और चाबी लेकर कमरे की ओर चल दी. लकड़ी की कलात्मक चौड़ी लेकिन कम ऊंचाई वाली सीढ़ी पर चढ़ते हुए वे कमरे तक पहुंच गए. प्रेमा ने दरवाज़े पर लटके पीतल के ताले को खोला और दोनों अन्दर आ गए.

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कमरे में अखरोट की लकड़ी से बनी एक टेबल और लैदर की कुर्सी रखी थी. काले रंग की वह कुर्सी किसी भी दिशा में घूम सकती थी. पास ही ऊंचे पुराने ढंग के लकड़ी के पलंग पर बादामी रंग की याक के फ़र से बनी बहुत मुलायम चादर बिछी थी. कुछ फ़ासले पर रखी एक आराम कुर्सी और कपड़े से ढके प्यानो को देख वान्या को वह कमरा रहस्य से भरा हुआ लगने लगा. दीवार पर घने जंगल की ख़ूबसूरत पेंटिंग लगी थी. वान्या पेंटिंग को देख ही रही थी कि दीवार के रंग का एक दरवाज़ा दिखाई दिया. ‘कमरे के अन्दर एक और कमरा’ उसका दिमाग चकरा गया. तेज़ी से आगे बढ़कर उसने दरवाज़े को धक्का दे दिया. चरर्र की आवाज़ करता हुआ दरवाज़ा खुल गया.

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ये घर बहुत हसीन है: भाग-2

अचानक तिपाही पर रखा आर्यन का मोबाइल बज उठा. ‘वंशिका कौलिंग’ देखा तो याद आया यह सुरभि दीदी की बेटी का नाम है. वान्या ने फ़ोन उठा लिया. उसके हैलो कहते ही किसी बच्चे की आवाज़ सुनाई दी, “पापा कहां है?”

दीदी के बच्चे तो बड़े हैं. यह तो किसी छोटे बच्चे की आवाज़ है, सोचते हुए वान्या बोली, “किस से बात करनी है आपको? यह नंबर तो आपके पापा का नहीं है. दुबारा मिलाकर देखो, बच्चे!”
“आर्यन पापा का नाम देखकर मिलाया था मैंने….आप कौन हो?” बच्चा रुआंसा हो रहा था.
वान्या का मुंह खुला का खुला रह गया. इससे पहले कि वह कुछ और बोलती आर्यन बाथरूम से आ बाहर आ गया. “किसका फ़ोन है?” पूछते हुए उसने वान्या के हाथ से मोबाइल ले लिया और तोतली आवाज़ में बातें करने लगा.
निराश वान्या कपड़े हाथ में लेकर बाथरूम की ओर चल दी. ‘किसने किया होगा फ़ोन? आर्यन भी जुटा हुआ है उससे बातें करने में. क्या आर्यन की पहले शादी हो चुकी है? हां, लगता तो यही है. तलाक़ हो चुका है शायद. मुझे बताया भी नहीं….यह तो धोखा है!’ वान्या अपने आप में उलझती जा रही थी.
आधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस कमरे के आकार का बाथरूम जिसके वह सपने देखती थी, उसकी निराशा को कम नहीं कर रहा था. एअर फ्रैशनर की भीनी-भीनी ख़ुशबू, हल्की ठंड और गरम पानी से भरा बाथटब! जी चाह रहा था कि अभी आर्यन आ जाये और अठखेलियां करते हुए उसे कहे कि ‘फ़ोन उसके लिए नहीं था, किसी और आर्यन का नंबर मिलाना चाहता था वह बच्चा. मुझे पापा कब बनना है, यह तो तुम बताओगी….!’ वान्या फूट-फूट कर रोने लगी.

बाहर आई तो डायनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए आर्यन उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. ऊंची बैक वाली गद्देदार काले रंग की कुर्सियां वान्या को कोरी शान लग रहीं थी. वान्या के बैठते ही आर्यन उसके बालों से नाक सटाकर लम्बी सांस लेता हुआ बोला, “कौन सा शैम्पू लगाया है? कहीं यह ख़ुशबू तुम्हारे बालों की तो नहीं? महक रहा हूं अन्दर तक मैं!”

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वान्या को आर्यन की शरारती मुस्कान फिर से मोहने लगी. सब कुछ भूल वह इस पल में खो जाना चाहती थी. “जल्दी से खा लो. अभी प्रेमा सफ़ाई कर रही है. उसे जल्दी से वापिस भेज देंगे….अपना बैड-रूम तो तुमने देखा ही नहीं अब तक. कब से इंतज़ार कर रहा है मेरा बिस्तर तुम्हारा ! ” आर्यन का नटखट अंदाज़ वान्या को मदहोश कर रहा था.

नाश्ता कर वान्या बैडरूम में पहुंच गयी. शानदार कमरे में कदम रखते ही रोमांस की ख़ुमारी बढ़ने लगी. “मुझे ज़रूर ग़लतफहमी हुई है, आर्यन के साथ कोई हादसा हुआ होता तो वह प्यार के लम्हों को जीने के लिए इतना बेताब न दिखता. उसका इज़हार तो उस आशिक़ जैसा लग रहा है, जिसे नयी-नयी मोहब्बत हुई हो.” सोचते हुए वान्या बैड पर लेट गयी. फ़ोम के गद्दे में धंसे-धंसे ही मखमली चादर पर अपना गाल रख सहलाने लगी. प्रेमा और नरेंद्र के जाते ही आर्यन भी कमरे में आ गया. खड़े-खड़े ही झुककर वान्या की आंखों को चूम मुस्कुराते हुए उसे अपने बाहुपाश में ले लिया.
“कैसा है यह मिरर? कुछ दिन पहले ही लगवाया है मैंने?” बैड के पास लगे विंटेज कलर फ़्रेम के सात फुटिया मिरर की ओर इशारा करते हुए आर्यन बोला.
दर्पण में स्वयं को आर्यन की बाहों में देख वान्या के चेहरे का रंग भी आईने के फ़्रेम सा सुर्ख़ हो गया.
प्रेमासिक्त युगल एकाकार हो एक-दूसरे की आगोश में खोए-खोए कब नींद की आगोश में चले गए, पता ही नहीं लगा.

सायंकाल प्रेमा ने घंटी बजाई तो उनकी नींद खुली. ग्रीन-टी बनवाकर अपने-अपने हाथों में मग थामे दोनों घर के पीछे की ओर बने गार्डन में रखी बेंत की कुर्सियों पर जाकर बैठ गए. वहां रंग-बिरंगे फूल खिले थे. कतार में लगे ऊंचे-ऊंचे पेड़ों की शाखाएं हवा चलने से एक-दूसरे के साथ बार-बार लिपट रहीं थीं. सभी पेड़ों पर भिन्न आकार के फल लटक रहे थे, रंग हरा ही था सबका. वान्या की उत्सुक निगाहों को देख आर्यन बताने लगा, “मेरे राइट हैंड साइड वाले चार पेड़ आलूबुखारे के और आगे वाले तीन खुबानी के हैं. अभी कच्चे हैं, इसलिए रंग हरा दिख रहा है. दीदी की बेटी को बहुत पसंद है कच्ची खुबानी. हमारी शादी में नहीं आ सकी, वरना खूब एंजौय करतीं.”

“अपने बच्चों को साथ क्यों नहीं लाईं दीदी? वे दोनों आ गए तो बच्चे भी आ सकते थे. दीदी की बेटी नाम वंशिका है न? सुबह इसी नाम से कौल आई तो मैंने अटैंड कर ली, पर वह तो किसी और का था. किस बच्चे के साथ बात कर रहे थे तुम?” वान्या का मस्तिष्क फिर सुबह वाली घटना में जाकर अटक गया.
“तुम्हें देखते ही शादी करने को मन मचलने लगा था मेरा. दीदी से कह दिया था कि कोई आ सकता है तो आ जाये, वरना मैं अकेले ही चला जाऊंगा बारात लेकर! सबको लाना पौसिबल नहीं हुआ होगा तो जीजू को लेकर आ गयीं देखने कि वह कौन सी परी है जिस पर मेरा भाई लट्टू हो गया!”
आर्यन का मज़ाक सुन वान्या मुस्कुराकर रह गयी.

“एक मिनट…..शायद प्रेमा ने आवाज़ दी है, वापिस जा रही होगी, मैं दरवाज़ा बंद कर अभी आया.” वान्या की पूरी बात का जवाब दिए बिना ही आर्यन दौड़ता हुआ अन्दर चला गया.

कुछ देर तक जब वह लौटकर नहीं आया तो वान्या उस बच्चे के विषय में सोचकर फिर संदेह से घिर गयी. व्याकुलता बढ़ने लगी तो बगीचे से ऊपर की ओर जाती हुई सफ़ेद रंग की घुमावदार लोहे की सीढ़ियों पर चढ़ गयी. ऊपर खुली छत थी, जहां से दूर तक का दृश्य साफ़ दिखाई दे रहा था. ऊंची-ऊंची फैली हुई पहाड़ियों पर पर पेड़ों के झुरमुट, सर्प से बलखाते रास्ते और छोटे-बड़े मकान. मकानों की छतों का रंग अधिकतर लाल या सलेटी था. सभी मकान एक-दूसरे से कुछ दूरी पर थे. ‘क्या ऐसी ही दूरी मेरे और आर्यन के बीच तो नहीं? साथ हैं, लेकिन एक फ़ासला भी है. क्या राज़ है उस फ़ोन का आखिर?’ वान्या सोच में डूबी थी. सहसा दबे पांव आकर आर्यन ने अपने हाथों से उसकी आंखें बंद कर दीं.

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“तुम ही तो आर्यन….! कब आये छत पर?”

“हो सकता है यहां मेरे अलावा कोई और भी रहता हो और तुम्हें कानों कान ख़बर भी न हो.” आर्यन शरारत से बोला.
“और कौन होगा?” वान्या घबरा उठी.

“अरे कितनी डरपोक हो यार….यहां कौन हो सकता है?” वान्या की आंखों से हाथों को हटा उसकी कमर पर एक हाथ से घेरा बनाकर आर्यन ने अपने पास खींच लिया. “चलो, छत पर और आगे. तुम्हें यहां से ही कुछ सुन्दर नज़ारे दिखाता हूं.”

आर्यन से सटकर चलते हुए वान्या को बेहद सुकून मिल रहा था. उसकी छुअन और ख़ुशबू में डूब वान्या के मन में चल रही हलचल शांत हो गयी. दोनों साथ-साथ चलते हुए छत की मुंडेर तक जा पहुंचे. देवदार के बड़े-बड़े शहतीरों को जोड़कर बनाई गयी मुंडेर की कारीगरी देखते ही बनती थी. ‘काश! इन शहतीरों की तरह मैं और आर्यन भी हमेशा जुड़े रहें.’ वान्या सोच रही थी.

“देखो वह सामने सीढ़ीदार खेत, पहाड़ों पर जगह कम होने के कारण बनाये जाते हैं ऐसे खेत…..और दूर वहां रंगीन सा गलीचा दिख रहा है? फूलों की खेती होती है उधर.”

कुछ देर बाद हल्का कोहरा छाने लगा. आर्यन ने बताया कि ये सांवली घटायें हैं जो अक्सर शाम को आकाश के एक छोर से दूसरे तक कपड़े के थान सी तन जाती हैं. कभी बरसती हैं तो कभी सुबह सूरज के आते ही अपने को लपेट अगले दिन आने के लिए वापिस चली जाती हैं.”
सूरज ढलने के साथ अंधेरा होने लगा तो दोनों नीचे नीचे आ गए. घर सुन्दर बल्बों और शैंडलेयर्स से जगमग कर रहा था. वान्या का अंग-अंग भी आर्यन के प्रेम की रोशनी से झिलमिला रहा था. सुबह वाली बात मन के अंधेरे में कहीं गुम सी हो गयी थी.

प्रेमा के खाना बनाकर जाने के बाद आर्यन वान्या को डायनिंग रूम के पास बने एक कमरे में ले गया. कमरे की अलमारी में महंगी क्रौकरी, चांदी के चम्मच, नाइफ़ और फ़ोर्क आदि वान्या को बेहद आकर्षित कर रहे थे, लेकिन थकान से शरीर अधमरा हो रहा था. कमरे में बिछे गद्देदार सिल्वर ग्रे काउच पर वह गोलाकार मुलायम कुशन के सहारे कमर टिकाकर बैठ गयी. आर्यन ने कांच के दो गिलास लिए और पास रखे रेफ़्रीजरेटर से एप्पल जूस निकालकर गिलासों में उड़ेल दिया. वान्या ने गिलास थामा तो पैंदे पर बाहर की ओर क्रिस्टल से बने गुलाबी कमल के फूल की सुन्दरता में खो गयी.
“फूल तो ये हैं….कितने खूबसूरत !” कहते हुए आर्यन ने अपने ठंडे जूस में डूबे अधरों से वान्या के होठों को छू लिया. वान्या मदहोश हो खिलखिला उठी.
“जूस में भी नशा होता है क्या? मैं अपने बस में कैसे रहूं?” आर्यन वान्या के कान में फुसफुसाया.
“नशा तो तुम्हारी आंखों में है.” कांपते लबों से इतना ही कह पायी वान्या और आंखें मूंद लीं.

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ये घर बहुत हसीन है: भाग-4

छोटा सा वह कमरा खिलौनों से भरा हुआ था, उनमें अधिकतर सौफ़्ट टौयज़ थे. पास ही आबनूस का बना एक वार्डरोब था, वान्या ने अचंभित होकर वार्डरोब खोलने का प्रयास किया, लेकिन वह खुल नहीं रहा था. पीतल के हैंडल को कसकर पकड़ जब उसने अपना पूरा दम लगाया तो वार्डरोब झटके से खुल गया और तेज़ धक्का लगने के कारण अन्दर से कुछ तस्वीरें निकलकर गिर गयीं. वान्या ने झुककर एक फ़ोटो उठाया तो सन्न रह गयी. आर्यन एक विदेशी लड़की के साथ बर्फ़ पर स्कीइंग कर रहा था. गर्म लम्बी जैकेट, कैप, आंखों पर गौगल्स और हाथों में दस्ताने पहने दोनों बेहद खुश दिख रहे थे. बदहवास सी वह अन्य तस्वीरें उठा ही रही थी कि प्रेमा की आवाज़ सुनाई दी, “मेम साब, इस कमरे में क्या कर रहीं हैं आप?”

वान्या ने झटपट सारी तस्वीरें वार्डरोब में वापिस रख दीं. “यहां की सफ़ाई करनी होगी. मोबाइल के ज़माने में यहां कौन सी फ़ोटो रखी हैं? सामान को निकालकर इस रैक को साफ़ कर लेते हैं.” अपने को संयत कर वान्या ने वार्डरोब की ओर इशारा कर दिया.

“नहीं, ऐसा मत कीजिये. आप जल्दी-जल्दी मेरे साथ अब नीचे चलिए. साहब आ गए तो….!”

“साहब आ गए तो क्या हो जायेगा? घर साफ़ करना है या नहीं?” वान्या बेचैनी और गुस्से से कांपने लगी.

“साहब कितने खुश हैं आपके साथ. यहां आ गए तो….दुखी हो जायेंगे. मेम साब आप चलिए न नीचे….मैं

नहीं करूंगी आज यहां की सफ़ाई.” वान्या का हाथ पकड़ खींचते हुए प्रेमा कातर स्वर में बोली.

“नहीं जाऊंगी मैं यहां से…..बताओ मुझे कि यहां आकर क्यों दुखी हो जायेंगे साहब.”

“सुरभि मेम साब ने मुझे आपको बताने से मना किया था, लेकिन अब आप ही मेरी मालकिन हो. जैसा आप कहोगी मैं करुंगी. ऐसा करते हैं इस छोटे कमरे से निकलकर बाहर वाले बड़े कमरे में चलते हैं.”

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बड़े कमरे में आकर वान्या पलंग पर बैठ गयी. प्रेमा ने दरवाज़े को चिटकनी लगाकर बंद कर दिया और वान्या के पास आकर धीमी आवाज़ में कहना शुरू किया, “मेम साब, यह कमरा आर्यन साहब के बड़े भाई का है. उन दोनों की उम्र में तीन साल का फ़र्क था, लेकिन प्यार वे पिता की तरह करते थे आर्यन साहब को. आपको पता होगा कि साहब के मां-पिताजी को गुजरे कई साल हो चुके हैं. बड़े भाई ने अपने पिता का धंधा अच्छी तरह संभाल लिया था. एक बार जब बड़े साहब काम के सिलसिले में देश से बाहर गए तो वहां अंग्रेज लड़की से प्यार कर बैठे. शादी भी कर ली थी दोनों ने. अंग्रेज मैडम डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहीं थी,

इसलिए साहब के साथ यहां नहीं आयीं थीं. साहब वहां आते-जाते रहते थे. एक साल बाद उनका बेटा भी हो गया. बड़े साहब बच्चे को यहां ले आये थे. यह बात आज से कोई ढाई-तीन साल पहले की है. उस टाइम आर्यन साहब पढ़ाई कर रहे थे और मुम्बई में रह रहे थे. जब पिछले साल अंग्रेज मैडम की पढ़ाई पूरी हुई तो बड़े साहब उनको हमेशा के लिए लाने विदेश गए थे. वहां….बहुत बुरा हुआ मेम साब.” प्रेमा अपने सूट के दुपट्टे से आंसू पोंछ रही थी. वान्या की प्रश्नभरी आंखें प्रेमा की ओर देख रही थी.
“मेम साब, बर्फ़ पर मौज-मस्ती करते हुए अचानक साहब तेज़ी से फिसल गए और वे लड़खड़ा कर गिरे तो अंग्रेज मैडम भी गिरीं, क्योंकि दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े थे. लुढ़कते-लुढ़कते दोनों नीचे तक आ गए और जब तक लोग अस्पताल ले जाते, बहुत देर हो चुकी थी. साथ-साथ हाथ पकड़े हुए चले गए दोनों इस दुनिया से. उनका बेटा कृष अब सुरभि दीदी के पास रहता है.”

वान्या दिल थामकर सब सुन रही थी. रुंधे गले से प्रेमा का बोलना जारी था. “मेम साब, इस दुर्घटना के बाद जब सुरभि दीदी यहां आईं थीं तो कृष आर्यन साहब को देखकर लिपट गया और पापा, पापा कहकर बुलाने लगा, क्योंकि बड़े साहब और छोटे साहब की शक्ल बहुत मिलती थी. ये देखो….!” प्रेमा ने प्यानों पर ढका कपड़ा उठा दिया. प्यानों की सतह पर एक पोस्टर के आकार वाली फ़ोटो चिपकी थी जिसमें आर्यन और बड़ा भाई एक-दूसरे के गले में हाथ डाले हंसते हुए दिख रहे थे. दोनों का चेहरा एक-दूसरे से इतना मिल रहा था कि किसी को भी जुड़वां होने का भ्रम हो जाये.

“मेम साब, अभी आप कह रही थीं न कि मोबाइल के टाइम में भी ऐसे फ़ोटो? ये बड़े साहब ने पोस्टर बनवाने के लिए रखे हुए थे. बहुत शौक था बड़े-बड़े फ़ोटो से उन्हें घर सजाने का.” प्रेमा आज जैसे एक-एक बात बता देना चाहती थी वान्या को.
“ओह! अच्छा एक बात बताओ, कृष ने आर्यन से अपनी मम्मी के बारे में कुछ नहीं पूछा ?” वान्या व्यथित होकर बोली.
“नहीं, अपनी मां के साथ तो वह तब तक ही रहा जब दो महीने का था. बताया था न मैंने कि बड़े साहब ले आये थे उसको यहां. कभी-कभी साहब के साथ जाता था तभी मिलता था उनसे. वैसे भी वे छह महीने की ट्रेनिंग पर थीं और कहती थीं कि अभी बच्चा मुझे मम्मी न कहे सबके सामने. कृष कोई दीदी-वीदी समझता होगा शायद उनको.”

वान्या सब सुनकर गहरी सोच में डूब गयी. कुछ देर तक शांत रहने के बाद प्रेमा फिर बोली, “मेम साब, जब आपका रिश्ता पक्का नहीं हुआ था और साहब आपसे मिलकर आये थे तो आपकी फ़ोटो साहब ने मुझे और मेरे पति को दिखाई थी. हमें उन्होंने आपके बारे में बताते हुए कहा था कि इनका चेहरा जितना भोला-भाला लग रहा है, बातों से भी उतनी मासूम हैं. वैसे स्कूल में टीचर हैं, समझदार हैं, मेरे पास रुपये-पैसे की तो कोई कमी नहीं है. मुझे ज़रुरत है तो उसकी जो मेरा साथ दे, मेरे अकेलेपन को दूर कर दे, जिसके सामने अपना दर्द बयां कर सकूं. मैंने इनको तुम्हारी मेम साब बनाने का फ़ैसला कर लिया है….!”
वान्या प्रेमा के शब्दों में अभी भी खोयी हुई थी. प्रेमा के “मेम साब अब नीचे चलते हैं” कहते ही वह गुमसुम सी सीढियां उतरने लगी.

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प्रेमा के वापिस चले जाने के बाद वह आर्यन के साथ लंच कर आराम करने बैडरूम में आ गयी. वान्या को प्यार से अपनी ओर खींचते हुए आर्यन बोला, “रात में बहुत नींद आ रही थी, अब नहीं सोने दूंगा.”
“लेकिन एक शर्त है मेरी.” वान्या आर्यन के सीने पर सिर रखकर बोली.
“कहो न ! कोई भी शर्त मानूंगा तुम्हारी.” वान्या के चेहरे से अपना चेहरा सटा आर्यन बोला.”
“कोरोना के हालात ठीक होने के बाद हम दीदी के पास चलेंगे और अपने बेटे कृष को हमेशा के लिए अपने साथ ले आयेंगे.”
आर्यन की सांस जैसे वहीं थम गयी. “प्रेमा ने बताया न !” भर्राये गले से वह इतना ही बोल सका.
वान्या ने मुस्कुराकर ‘हां’ में सिर हिला दिया.
आर्यन वान्या को अपने सीने से लगाये ख़ामोश होकर भी बहुत कुछ कह रहा था. वान्या को प्रेम में डूबे युगल की मूर्ति आज बेहद ख़ूबसूरत लग रही थी. मन ही मन वह कह उठी, ‘बेकार नहीं, मनहूस नहीं….ये घर बहुत हसीन है!’

लौकडाउन में दिल मिल गए: भाग-3

ओंकार पुरानी फिल्मों व गाने के बहुत शौकीन थे. इधर सविता भी बहुत अच्छा गाती थी लेकिन वक्त के बहाव ने इस शौक को धूमिल कर दिया था. लेकिन अब ओंकार की संगत में उसे अपने पुराने दिनों की याद हो आई और एक दिन बातों ही बातों में इस का पता चलते ही ओंकार उस से गाने का हठ कर बैठे.

“दिल की गिरह खोल दो चुप न बैठो कोई गीत गाओ… “सविता द्वारा यह गीत छेड़ते ही मानो फिजां में एक रुमानियत सी घुल गई.

“हम तुम न हम तुम रहे अब कुछ और ही हो गए…सपनों के झिलमिल जहां में जाने कहां खो गए अब…” तन्मय हो कर गाने की अगली कड़ी को गाते हुए ओंकार जैसे कहीं खो से गए.

दोनों ने नज्म की रूह को महसूस करते हुए गाने को पूरा किया.

“वाह दीदी, आप तो बड़ी छुपी रूस्तम निकलीं. पिछले 2 सालों से मुझे अपनी इस कला की भनक भी न लगने दी और साहब आप की प्रतिभा को भी मानना पड़ेगा.”

गाना सुन कर पार्वती ने सविता से झूठमूठ की नाराजगी जताई.

“वाकई मैं तो आप की सुमधुर आवाज में खो कर रह गया.”

“वह तो ऐसे ही…” कहते हुए सविता की आंखे ओंकार से जा मिलीं और उस के चेहरे पर उभर आई हया की हलकी लालिमा पार्वती की अनुभवी निगाहों से न छिप न सकी.

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लौकडाउन की बोरियत छंटने लगी थी. कभी सविता तो कभी ओंकार के घर गपशप के साथ चाय के दौर पर दौर चलते. किसी दिन चेस की बाजी लगती तो कभी तीनों मिल कर देर रात तक लूडो खेला करते. कभी दोनों के युगल गीतों से शाम रंगीन हो उठती और खूबसूरत समां सा बंध जाता.

ओंकार और सविता की दोस्ती धीरेधीरे चाहत में बदलती जा रही थी. जहां ओंकार की जीवंतता ने सविता के अंदर जिंदगी जीने की लालसा पैदा कर दी थी, वहीं सविता की सादगी ने ओंकार के दिल को सहज ही अपने आकर्षण में बांध लिया था.

पार्वती को भी दोनों के बीच पनप रहे इस इमोशनल टच का अंदेशा हो चुका था क्योंकि वह अपनी दीदी सविता में नित नए बदलाव देख रही थी. हमेशा अपने कालेज के कामों में खोई, स्वभाव से तनिक गंभीर सविता अब बातबात पर खिलखिला उठती थी. उस के व्यक्तित्व का एक दूसरा पहलू अब खुल कर सामने आ रहा था. सविता अभी 53-54 साल की हो चली थी मगर अब वे एक तरुणी के समान व्यवहार करती दिखाई देती थीं. अब उन के चेहरे पर उजास उमंग से भरी एक आभा दिखाई देती थी.

“दीदी, एक बात कहूं अगर आप बुरा न मानें तो?” एक दिन पार्वती ने कहा तो गुनगुनाते हुए डस्टिंग कर रही सविता के हाथ रुक गए.

“क्या जो मैं सोच रही हूं वह सही है?”

“हां, पार्वती… तुम मेरी अंतरंग सहेली ही नहीं सब से बड़ी शुभचिंतक भी हो. तुम्हें ये जानने का पूरा हक है कि मेरी जिंदगी में आखिर क्या चल रहा है?” कह कर सविता ने पार्वती का हाथ पकड़ कर उसे अपने साथ सोफे पर बैठा लिया.

“प्रतीक के जाने के बाद मेरे जीवन का एक कोना उदास, खाली और वीरान हो चुका था, पर उस वक्त 40 वर्षीया सविता यानी मुझे सामने सिर्फ अपना 16 वर्षीय मासूम बेटा नजर आ रहा था, जिसे पालने की जद्दोजेहद में मुझे अपनी उदासी और अकेलेपन का भान ही न रहा. उस की शादी के वक्त मेरी उम्र 50 पार कर चुकी थी और ढलती उम्र में अपने बारे में सोचना मुझे बचकानी बात लग रही थी. लेकिन पार्वती यह समय है और इस में अगले पल क्या होना है हमें कुछ भी पता नहीं.

“कभी यह बिना इजाजत हम से हमारी सब से प्यारी चीज छीन लेता है और कभी बिना मांगे ही हमारी झोली खुशियों से भर देता है. इतने सालों से मेरे दिल में प्रतीक की जगह कोई नहीं ले पाया और न ही कोई ले पाएगा. पर ओंकार से मिल कर उस कोने की उदासी और अकेलापन दूर हो गया जो प्रतीक के जाने के बाद वीरान था.

“जिंदगी तो पहले भी कट रही थी मगर अब इस के हर पल को जैसे मैं जीने लगी हूं. तुम्हें नहीं पता ओंकार ने भी क्या कुछ झेला है…” कहतेकहते सविता कुछ देर को रुकी,

“फौजी होने के नाते सीमा पर वह दुश्मनों से लड़ने में व्यस्त रहा और इधर उस की पत्नी उसे धोखा देने में. पता चलने पर जब उस ने सवाल किया तो इकलौते बेटे को ले कर वह अलग हो गई. एलिमनी राशि और साथ में अपना पैतृक घर उसे सौंपने के बाद खुद दरबदर हो किराए के फ्लैट में अकेले अपनी जिंदगी बिता रहा है.

“तुम ही बताओ क्या गलती थी उस की? उस के जैसे सभ्य और जीवंत इंसान के साथ कोई बेवफाई कैसे कर सकता है? देशसेवा का उसे यह कैसा इनाम मिला? पता नहीं कैसी होगी वह स्त्री जिस ने सिर्फ शारीरिक सुख के लिए ओंकार जैसे व्यक्ति को धोखा दिया.

“इतना होने पर भी ओंकार ने जीने का हौंसला नही छोड़ा. मालूम है, अपने घर के अकेलेपन से घबरा कर वह बहाने से हमारे घर कभी अदरक तो कभी शक्कर मांगने आ जाता था, ताकि कुछ देर तो किसी से बात कर सके. बेटाबहू अपनी जिंदगी में खुश हैं. कुछ यारदोस्त थे, पर लौकडाउन के चलते उन से भी मुलाकात नहीं हो पा रही थी.

“मैं ने जी है अकेली जिंदगी पार्वती, इसलिए मुझे उस की तकलीफ का अंदाजा है. सोचो हमें तो एकदूसरे का सहारा भी है. लेकिन वह किस के संग अपने गम अपनी खुशियों को बांटे? वैसे भी ओंकार का साथ मुझे खुशी देता है, उस के साथ वक्त बिताना मुझे अच्छा लगता है, कह कर सविता चुप हो गईं.

“लेकिन दीदी, अब आगे क्या, मेरा मतलब भैया को पता चला तो?”

“तो क्या पार्वती, उस की अपनी जिंदगी है जिस में वह पूरी तरह खुश है. पर अब अपनी मुट्ठी में कैद खुशियों को मैं जीना चाहती हूं. मेरा भी जिंदगी को गले लगाने को जी चाहता है और मुझे इस का पूरा हक है.

“ऐ जिंदगी गले लगा ले…” गाने को गुनगुनाते हुए सविता ने तुरंत पार्वती के दोनों हाथ थामे और उस के साथ हौल में थिरकने लगीं. उस की चमकती आंखें जैसे सुनहरे सपनों की अंगड़ाइयां ले रहे थे.

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2-4 दिनों बाद सविता ने घुमाफिरा कर पूछा,”ओंकार, तुम बाकी जिंदगी बिताने के बारे में क्या सोचते हो?”

ओंकार समझ गया कि मामला अब गंभीर है. उस ने बहुत संजीदगी से सविता के दोनों हाथ अपने हाथों में ले कर कहा,”सविता, इतने साल मैं जानबूझ कर किराए के मकानों में रहता रहा हूं ताकि एक जगह ऊब जाने के बाद नई जगह जाने की गुंजाइश रहे. अब मैं जिंदगी में ठहराव चाहता हूं, तुम्हारे साथ. पर मैं यह भी जानता हूं कि हमारे बच्चों को हम से ज्यादा हमारी संपत्ति की चिंता है.”

सविता को भी यही डर था. वह जीवन के फैसले बच्चों से पूछ कर कैसे ले सकती है? फिर क्या करें? उस ने गेंद ओंकार के पाले में डाल दी, “हम साथ रह कर भी अलग रहेंगे. मैं अपना फ्लैट खरीद लेता हूं, परमानैंट ठिकाना हो जाएगा. हमेशा साथ रहेगा. तुम मेरा घर संभालोगी और मैं तुम्हें. बच्चों से छिपाने की जरूरत नहीं पर उन्हें नहीं लगेगा कि हमारे बाद घरबार उन को नहीं मिल पाएगा.”

“ठीक है, फिर आज इसी खुशी में मैं एक बड़ी पार्टी दूंगी जो दोनों फ्लैटों में एकसाथ चलेगी,” सविता पुलकित हो कर बोली.

“और फिर कोरोना का डर खत्म होने और तुम्हारे फ्लैट की कागजी काररवाई के बाद हम दोनों लंबी छुट्टी पर चलेंगे,”सविता ने जोड़ा.

“कमरे 2 लेंगे या एक बड़े किंगसाइज वाले बैड वाला?” ओंकार ने चुटकी ली.

सविता शर्मा कर बोली,”तुम्हें पैसे बरबाद करने की जरूरत नहीं, एक ही में ऐडजस्ट कर लेंगें न…”

फिर दोनों एकसाथ हंस पङे.

लौकडाउन में दिल मिल गए: भाग-2

‘मान न मान मैं तेरा मेहमान…’ मन ही मन भुनभुनाते हुई पार्वती चाय बनाने को उठ खड़ी हुई.

“सुनो पार्वती, अदरक थोड़ी ज्यादा ही रखना. बिना अदरक के चाय भी कोई चाय है. दरअसल, मेरे पास आज ही अदरक खत्म हो चुकी है तो मैं ने सोचा….”

“जी हां, क्यों नहीं. पार्वती, तुम साहब के लिए 2-4 अदरक की टुकङी भी ले आना,” सविता ने किचन की ओर मुंह कर के आवाज लगाई.

“बंदे को ओंकार कहते हैं. एक रिटायर्ड फौजी. बस यही छोटी सी पहचान है अपनी,” बेबाकी से ओंकार ने अपना परिचय दिया.

बातों की श्रृंखला में एक हलका सा अल्पविराम आ गया जब पार्वती ने चाय का मग और अदरक के 2 टुकड़े ला कर जरा जोर से सैंटर टेबल पर रखे.

“पार्वती, बस इतना ही…” सविता ने आंखें तरेरीं.

“हां दीदी, अब ज्यादा अपने पास भी नहीं है.”

“अरे, इतना बहुत है मेरे लिए. कम से कम 3-4 दिन चलेगा. वैसे चाय बहुत बढ़िया बनाई है तुम ने,” पहला सिप लेते हुए ओंकार बोल पङे.

उन के जाने के बाद पार्वती ने बड़बड़ाते हुए पूरी जगह को अच्छे से सैनेटाइज किया और अपने काम में लग गई. उस की मुखमुद्रा देख सविता के चेहरे पर हंसी आ गई.

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उस दिन सविता का जन्मदिन था. मना करतेकरते भी पार्वती ने उस की पसंदीदा रैसिपी छोलेकुलछे बना लिए. उस दिन स्वाद ही स्वाद में वे कुछ ज्यादा ही खा गईं. शाम होतेहोते उन का जी मितलाया और उन्हें  उलटी हो गयी. पार्वती ने जल्दी से  ग्लूकोज का पानी पिलाया पर थोड़ी देर बाद फिर हुई उलटी हुई. बाद में 3-4 उलटियां और होने से शरीर में पानी की कमी के चलते सविता को बहुत कमजोरी व चक्कर आने लगे. पेट मे रहरह कर मरोड़ भी उठने लगी थी. वे लगातार कराह रही थीं.

रात के 1बजे थे. पार्वती को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. कहीं डायरिया की नौबत आ गई तो कैसे क्या होगा? घर मे उलटी की कोई दवा भी नहीं थी. कोई और रास्ता न देख उस ने फौरन ही जा कर ओंकार के फ्लैट की घंटी बजा दी…

“साहब, दीदी को बहुत उलटियां हो रही हैं. पेट में दर्द भी है. घरेलू नुसखों से भी कोई आराम नहीं मिला,” यह कह कर पार्वती रोआंसी हो गई.

“लगता है फूड पौइजिनिंग हो गई है. रुको, मेरे पास मैडिसीन है. मैं ले कर आता हूं, तब तक हो सके तो तुम गरम पानी से उन के पेट की सिंकाई करो.”

2-3 मिनट बाद ही वे मैडिसीन का पूरा पत्ता हाथ में लिए सविता के सामने खड़े थे.

“यह एक गोली अभी ले लीजिए और देखिए तुरंत आराम मिल जाएगा.”

“जी धन्यवाद, पर आप ने तकलीफ क्यों की? पार्वती से भिजवा दिया होता,” सविता ने कराहते हुए कहा.

“अरे तकलीफ किस बात की? मैं तो वैसे भी अकेले बोर ही होता रहता हूं,” कहते हुए ओंकार ठठा कर हंस पड़े.

उत्तर में सविता भी धीरे से मुसकराई और उठने की कोशिश करने लगी.

आज पहली बार उस ने ओंकार के चेहरे पर एक भरपूर नजर डाली और फिर देखती रह गई. लंबा कद, रौबीले चेहरे पर घनी व तावदार मूंछें. हां, उम्र का अंदाजा उन के चेहरे से लगाना मुश्किल था, क्योंकि बढ़ती उम्र के बोझ से बेअसर उन के चेहरे की रौनक बता रही थी कि वे अपने जीवन में कितने अनुशासित रहे हैं. कुल मिला कर आकर्षक व्यक्तित्व के धनी ओंकार ने आज पहली बार उसे काफी प्रभावित किया था. अभी तक तो बिन बुलाया मेहमान मान वह उन से ढंग से बात भी न करती थी.

“आप बैठिए न,” सामने पड़ी कुरसी की ओर सविता ने इशारा किया.

“जी जरूर…” तभी पार्वती ट्रे में पानी ले आई, “क्या लेंगे आप, ठंडा या चायकौफी?” उस ने प्रश्नवाचक निगाह उन पर डाली.

“फिलहाल कुछ नहीं. आप की चाय ड्यू रही.” ओंकार फिर खिलखिला उठे.

बच्चों जैसी उन की मासूम निश्छल हंसी सविता के दिल को छू गई. थोड़ी देर बाद ही दवा ने अपना प्रभाव दिखाया और सविता को तनिक आराम मिला. ओंकार से बात करतेकरते वे न जाने कब सो गईं.

“साहब आप भी जा कर सो जाइए. 3 बज रहे हैं,” पार्वती ने ओंकार का धन्यवाद अदा करते हुए कहा.

“1-2 घंटे और देख लेते हैं, वैसे भी मुझे जागने का अच्छा अभ्यास है. जाओ तुम सो जाओ,” साइड टेबल पर पड़ी गृहशोभा मैगजीन उठाते हुए ओंकार ने कहा.

सुबह 5 बजे के करीब जब पार्वती की आंखें खुलीं तो सविता गहरी नींद में सो रही थी और कुरसी पर बैठेबैठे ओंकार भी ऊंघ रहे थे.

उस ने उन्हें उठाया और घर भेजा. “ठीक है, जब सविता जी उठें तो उन्हें 1-2 बिस्कुट खिला कर फिर यह दवा दे देना,” कह कर ओंकार चले गए.

सुबह 11 बजे के करीब बेल बजने पर पार्वती ने जा कर दरवाजा खोला, “क्या कह रही हैं? अब आप की तबियत कैसी है?” ड्राइंगरूम में प्रवेश करते ही सामने बैठी सविता को देख ओंकार ने पूछा.

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“जी काफी आराम है और अब तो भूख भी लग रही है.”

“मैं जानता था, इसलिए ही मूंगदाल की पानी वाली खिचड़ी बना कर ले आया हूं. यही इस वक्त आप के हाजमे के लिए बैस्ट है,” ओंकार आदतन हंस पड़े.

“पर आप ने क्यों तकलीफ उठाई, मैं बना देती न…” इस बार सविता को बोलने का मौका दिए बिना पार्वती बोल उठी.

“तुम तो रोज ही बनाती हो पार्वती. आज मेरे हाथ का सही. जाओ 3 प्लैटें ले आओ. तुम भी खा कर बताओ जरा कैसी बनी है?” ओंकार ने कैसरोल खोलते हुए कहा.

हींग की सोंधी महक वाली खिचड़ी वाकई बहुत स्वादिष्ठ बनी थी. उस के साथ भुने पापड़ों के जोड़ ने खाने के स्वाद को दोगुना कर दिया. सविता का पेट भर गया पर थोड़ी खिचड़ी और लेने की लालसा वह रोक नहीं सकी और खिचड़ी परोसने के लिए अपनी प्लेट आगे बढ़ाई.

“बस अब ज्यादा न खाएं. भूख से थोड़ा कम ही खाएं तो जल्दी ठीक होंगी,” कहते हुए ओंकार ने साधिकार उस के हाथ से प्लेट ले ली और किचन की तरफ बढ़ चले. सविता चकित हो उन्हें निहारती रह गई.

उस दिन काफी देर बातों का सिलसिला जारी रहा. ओंकार के व्यवहार की सादगी और स्पष्टता ने पार्वती के दिल में भी उन के लिए सम्मान की भावना जगा दी थी.

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लौकडाउन में दिल मिल गए: भाग-1

सविता बारबार घर की बालकनी से नीचे झांक रही थी. पार्वती अभी तक आई नहीं थी. बेकार ही सामान मंगवाया, सबकुछ तो रखा था. थोड़ा कम में काम चल जाता पर बेवजह अधिक जमा करने के चक्कर में उस बेचारी को दौड़ा दिया. तभी नीचे पार्वती को आता देख उन्होंने राहत की सांस ली और लगभग दौड़ कर दरवाजा खोला.

लगभग हांफती हुई पार्वती ने दोनों थैले घर के कोने पर पड़ी एक टेबल पर रखे और नीचे बैठ गई.

“बड़ी मुश्किल से मिला है दीदी, सभी दुकानों पर भारी भीड़ थी. सोसाइटी की दुकान पर तो खड़े होने की जगह भी नहीं थी, फिर बाहर जा कर कोने वाली एक दुकान से खरीद कर ले  आई हूं.”

“ओह, इतनी दूर क्यों गईं, नहीं मिलता तो न सही, ऐसी भी क्या जरूरत थी?”

“नहीं दीदी, पता नही यह लौकडाउन कब तक चलेगा? स्थिति बहुत खराब हो चली है. बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं. बस, आप को किसी चीज की कमी नहीं होनी चाहिए.”

“कितनी चिंता करती है मेरी? चल सब से पहले हाथों और सामान को सैनेटाइज कर लें.”

रात को बिस्तर पर सोते समय सविता की आंखों से नींद कोसों दूर थी. सच में कितना करती है पार्वती उस के लिए. अगर वह नहीं होती तो उस का क्या होता? सोचते हुए सविता 2 साल पहले उन यादों के झरोखे में जा पहुंची जहां पति के अत्याचारों से तंग पार्वती से वह पहली बार अपने कालेज में मिली थी.

वह जिस कलेज में पढ़ाती थी, वहां पार्वती भी बाई का काम करती थी. लगभग रोज ही उस का सूजा चेहरा और जगहजगह पड़े नील स्याह के निशान पति के दुर्दांत जुल्मों की इंतहा की याद दिलाते रहते. उस की नौकरी के बल पर ऐयाशी करने वाला उस का शराबी पति बातबात पर उसे पीटा करता था. उन दोनों की एक ही लड़की थी जो शादी कर अपनी ससुराल जा चुकी थी.

उस वक्त उस ने आगे बढ़ कर न सिर्फ उस की मदद की थी बल्कि उस के पति को सलाखों के पीछे भी पहुंचाया था. दुखी पार्वती को घर लाते वक्त उसे बोध भी न था कि जिसे निराश्रित, निस्सहाय समझ वह मानवता के नाते आश्रय दे रही है, वही कल को उस का सब से बड़ा संबल बन जाएगी.

सविता के पति पहले ही एक सड़क दुर्घटना में उसे छोड़ कर जा चुके थे. इकलौता बेटा बहू के साथ कनाडा में रह रहा था. बेटेबहू के बहुत कहने के बावजूद वह उन के साथ कनाडा नहीं शिफ्ट हुई थीं. क्योंकि हाथपांव के चलते रहने तक वे किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती थीं. वैसे भी नौकरी के 8-10 साल बचे थे और स्वावलंबी सविता अपने बल पर ही अपनी जिंदगी जीना चाहती थीं.

तब से वे अपने फ्लैट पर अकेली रहती आई थीं. वैसे तो कालेज में बच्चों के बीच वह काफी व्यस्त रहती थी, पर छुट्टी का दिन उस से काटे न कटता था.

हां, पार्वती के आने से उस की जिंदगी बेहद आसान हो चली थी. पार्वती के रूप में उसे एक सखी, सहायक और शुभचिंतक मिल गई थी, जिस ने बड़ी कुशलता से उस के घर को संभाल लिया था और इस तरह दोनों एकदूसरे का सहारा बन कर अपनी जिंदगी जिए जा रही थीं. हालांकि बेटेबहू ने बारबार उसे पार्वती के लिए चेताया था.

उन का कहना था कि किसी पर इतनी जल्दी ऐसा भरोसा करना ठीक नहीं. शायद वे अपनी जगह सही भी थे. मगर कोई रिश्ता न होते हुए भी पार्वती उस की कितनी अपनी हो चुकी है यह बात सिर्फ वही समझती थी. यही सब सोचतेसोचते जाने कब सविता को नींद ने आ घेरा.

सुबह सविता की नींद कुछ देर से खुली. घर का काम निबटा कर पार्वती नहाधो चुकी थी. सविता को उठा देख वह झटपट चाय बना लाई. बालकनी में बैठे वे दोनों चाय की चुसकियां ले ही रही थीं कि दरवाजे की बेल बजी.

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लौकडाउन के दौरान किसी के कहीं भी आनेजाने पर पूर्णतः पाबंदी लगी हुई है. फिर कौन हो सकता है?

“दीदी, मैं देखती हूं, जो भी होगा बाहर से चलता कर दूंगी,” चेहरे पर मास्क लगाए पार्वती ने उठ कर दरवाजा खोला.

“माफ कीजिएगा, थोड़ी शक्कर मिल सकती है क्या?”

“आप यहीं ठहरिए, मैं दीदी से पूछ कर बताती हूं,” कह कर पार्वती ने दरवाजा चिपका दिया.

“दीदी, सामने वाले फ्लैट में जो नए किराएदार आए हैं उन्हें शक्कर चाहिए,” पार्वती ने सविता पर प्रश्नवाचक नजर डाली.

“मना कर दूं क्या, कल ही लौकडाउन की घोषणा हुई है, तो क्या ला कर नहीं रख सकते थे? एक बार दिया तो बारबार किसी भी चीज को मांगने आ जाएंगे.”

“नहींनहीं… ऐसा कर, एक डब्बे में आधा किलोग्राम के करीब दे दे. अपने पास कोई कमी नहीं, बहुत रखी है,” सविता ने चाय का कप उसे पकड़ाते हुए कहा.

“लेकिन दीदी…”

“अरे जितना कहा है उतना कर दे न,” सविता ने झूठमूठ की त्योरियां चढ़ाईं.

“यह लीजिए शक्कर…” पार्वती ने आगंतुक को घूरा.

“आप की मैडम नहीं दिखाई नहीं दे रहीं?”

“आप को मैडम चाहिए या शक्कर?” पार्वती ने अपनी खीझ उतारी. हाथ में शक्कर की थैली लिए वे महानुभाव जैसे आए थे वैसे ही अपने फ्लैट में वापस लौट गए.

“बड़ा अजीब था. आप के बारे में पूछने लगा. भला यह क्या बात हुई? ऐसे लोगों से तो थोड़ी दूरी ही अच्छी है,” पार्वती के स्वर में झल्लाहट थी.

“जाने दे पार्वती, अभी नएनए आए हैं. ज्यादा किसी को जानते नहीं होंगे इसलिए पूछे होंगे,” कह कर सविता ने बात खत्म की.

सरकार द्वारा लौकडाउन का दूसरा चरण और भी सख्ती से लागू कर दिया गया था. कुछ दिन बाद शाम के वक्त सविता और पार्वती टीवी पर कोरोना के बारे में न्यूज देख रही थीं कि तभी बेल बजी. चिटकनी खोलते ही फिर वही सज्जन दरवाजे पर खड़े दिखाई दिए.

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“ओहो… चाय का दौर चालू है.” कह कर बड़ी ही बेतकल्लुफी से वे सामने वाले सोफे पर जा विराजे.

“अभी बस पी कर खत्म ही की है. आप चाहें तो आप के लिए भी…” अभी सविता की बात पूरी भी न होने पाई थी कि आगंतुक ने कहा, “हांहां… क्यों नहीं, चाय के लिए मना मैं कभी कर ही नहीं सकता… हाहाहाहाहा….”

आगे पढ़ें- उन के जाने के बाद पार्वती ने…

प्यार को प्यार ही रहने दो : भाग-5

 आजकल घर में भी रजत पहले से अधिक प्रसन्न रहने लगा. थोड़ीबहुत चुहल निरंजना से भी करता रहता. यही तो एक अच्छा साइड इफैक्ट है फ्लर्टिंग का. पति महोदय बाहर फ्लर्टिंग करते हैं और घर में पत्नी को भी खुश रखते हैं. उन का अपना दिल जो उत्साहित रहता है.

प्रसन्नचित्त तो आजकल निरंजना भी बहुत रहने लगी है. सोशल मीडिया साइट पर आखिर उस ने नसीम को खोज जो निकाला. नसीम आजकल दूसरे शहर में रहता है, किंतु काम के चलते उस का दिल्ली आना होता रहता है. दोनों ने मिल कर यह तय किया कि अगली बार जब वह दिल्ली आएगा, तब दोनों मुलाकात अवश्य करेंगे.

और बहुत जल्दी वह दिन भी आ गया, जब नसीम का दिल्ली आना हुआ. सुबह से फटाफट सारा काम निबटा कर, स्वयं पर मेकअप की पूरी मेहरबानी करने के बाद निरंजना उस से मिलने तय रैस्टोरैंट के लिए घर से चल पड़ी.

रास्ते से ही उस ने रजत को एसएमएस भेज दिया कि वह अपने ओल्ड टाइम फ्रैंड से मिलने जा रही है. हो सकता है कि शाम को थोड़ी देर हो जाए.

उधर, रजत ने साक्षात्कार के लिए श्वेता को कंपनी द्वारा बुलावा भिजवा दिया था. उस से मिलने के लिए औफिस नहीं, बल्कि रैस्टोरैंट में मुलाकात तय की गई. इस का कारण श्वेता को यह बताया गया कि जिन सर को इंटरव्यू लेना है, वह उस दिन किसी मीटिंग के लिए औफिस में उपस्थित नहीं होंगे. सो, जहां वे उपस्थित होंगे, आप वहीं पहुंच जाइए.

श्वेता को भी इस में कुछ अटपटा नहीं लगा, क्योंकि आजकल कई साक्षात्कार औफिस के बाहर भी होते हैं.

तय समय से पहले रजत उस रैस्टोरैंट में पहुंच कर श्वेता की प्रतीक्षा करने लगा.

नसीम को रैस्टोरैंट में पहले से अपने लिए प्रतीक्षारत पा कर निरंजना का दिल एकबारगी जरा जोर से उछला. तो क्या आज भी नसीम उसी से प्यार करता है?

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अपने पहले प्यार को सामने पा कर निरंजना कभी उत्तेजना से भरने लगी, तो कभी विवाहिता होने के कारण संकोच से अपने रेशमी बालों को बारबार अपने गुलाबी गालों पर गिरने से रोकने के लिए अपनी कोमल उंगलियों से कानों के पीछे धकेलने लगी.

‘‘रहने दो ना इन जुल्फों को अपने सुंदर चेहरे पर. तुम भूल गई क्या कि मुझे तुम्हारी यह जुल्फें कितनी पसंद हैं,‘‘ नसीम के कहने पर निरंजना केवल मुसकरा कर नजरें नीचे किए रह गई.

फिर बातों का दौर चला. कुछ नसीम ने अपनी कही, तो कुछ निरंजना ने अपनी सुनाई. आज उस से अपने दिल की बात कह कर निरंजना काफी हलका महसूस कर रही थी. इसी पल के लिए वह ना जाने कितने समय से तरस रही थी.

‘‘मुझे यह जान कर अत्यंत अफसोस हो रहा है, नसीम, कि तुम ने अभी तक शादी नहीं की. काश, मैं तुम्हें उस समय मिल पाती. बस एक बार तुम्हें अपनी मजबूरी बता देना चाहती थी… आज वह बोझ भी दिल से उतर गया. पर समय निकल गया इस बात का. अफसोस शायद हमेशा खलेगा,‘‘ निरंजना ने अपनी बात पूरी की.

नसीम खामोशी से निरंजना के चेहरे को निहारता रहा, फिर हौले से कहने लगा, ‘‘समय तो अपने हाथ में होता है. अगर सोचो कि बीत गया तो अलग बात है. वरना आज भी समय हमारे साथ ही है. देखो, हम आज भी एकसाथ हैं. यदि तुम चाहो तो…‘‘

‘‘लेकिन, अब मेरी शादी हो चुकी है,‘‘ निरंजना उस की बात बीच में ही काटते हुए बोली, ‘‘यदि मेरी शादी ना हुई होती तब बात अलग थी, पर अब मैं रजत की पत्नी हूं. ऐसे में हमारा रिश्ता पाप कहलाएगा.‘‘

‘‘ऐसा क्यों कहती हो भला. पहले हम दोनों ने प्यार किया, रजत तो तुम्हारी जिंदगी में बाद में आया. सो, इस रिश्ते में तीसरा वो है. अगर तुम्हारे और मेरे घर वाले धर्म के चक्कर में ना पड़ कर हमारे प्यार के लिए राजी हो गए होते और आननफानन तुम्हारी शादी दूसरी जगह ना करवा दी होती, तो आज हम एकसाथ होते.‘‘

जब श्वेता आरक्षित टेबल पर पहुंची, तो वहां रजत को बैठा देख उस का चौंकना स्वाभाविक था, ‘‘रजत तुम यहां?‘‘

‘‘हां श्वेता, मैं ही हूं, जिस के साथ आज तुम्हारा साक्षात्कार है. हो गई ना सरप्राइज… मैं तो तुम्हारा बायोडाटा पढ़ते ही तुम्हें पहचान गया था. और तुम से मिलने के इस मौके को मैं किसी भी कीमत पर गंवा नहीं सकता था.‘‘

सारी स्थिति समझने के बाद श्वेता और रजत हंसहंस कर एकदूसरे के साथ आज तक बीती जिंदगी के अनुभव बांटने लगे.

‘‘कितना अच्छा लग रहा है तुम से मिल कर. न जाने क्यों इतने समय से हम मिले नहीं. तुम तो मेरे बीएफएफ (बैस्ट फ्रैंड फार ऐवर) रहे हो.‘‘

श्वेता उसे अपनी शादी, गृहस्थी, बच्चों के किस्से सुनाने लगी. वह काफी खुश लग रही थी. जाहिर था कि अपनी जिंदगी में श्वेता अच्छी तरह रम चुकी है और उसे कोई शिकायत भी नहीं.

प्यार हमारा दिल नहीं तोड़ सकता. वह तो अधूरी ख्वाहिशों और निराश सपनों के कारण टूटता है. रजत को समझ आ रहा था कि उस का प्यार वाकई एकतरफा था. तभी उस की नजर रैस्टोरैंट के दूसरे कोने में बैठी निरंजना पर पड़ी.

निरंजना को देखते ही वह असहज हो उठा. यदि उस ने रजत को यहां किसी अन्य महिला के साथ बैठे देख लिया तो…? ना जाने उस के बारे में क्या सोचने लगे. उसे याद आया कि आज निरंजना भी अपने एक पुराने दोस्त से मिलने गई है. इत्तेफाक देखिए, दोनों एक ही रैस्टोरैंट में पहुंच गए. लेकिन मौजूदा स्थिति में रजत उस चोर की तरह था, जो अपनी दाढ़ी के तिनकों को छिपाने के प्रयास में जुटा हो.

वह आगे कुछ कहता, इस से पहले ही श्वेता बोल पड़ी, ‘‘रजत, मैं ने नौकरी के लिए आवेदन अवश्य दिया था, किंतु कल ही मेरे पति का तबादला दूसरे शहर में हो गया है. इस कारण यह नौकरी मैं कर नहीं पाऊंगी.

‘‘मैं यहां यही बताने आई थी, लेकिन कितना अच्छा हुआ, जो तुम से मुलाकात हो गई. आगे भी हम टच में रहेंगे.‘‘

घर लौटते समय कैब में बैठी निरंजना आज नसीम के साथ बिताई दुपहरी को रिवाइंड करने लगी. नसीम आज भी उसे चाहता है. आज भी उस की राह देख रहा है, शायद… अगर वह चाहे तो नसीम के पास जा सकती है. पर क्या वह ऐसा चाहती है? क्या रजत के साथ बिताए शादीशुदा जिंदगी के पांच साल इतने हलके हैं कि उन से हाथ छुड़ाना उस के लिए संभव है?

इस सारे प्रकरण में रजत कहां खड़ा होता है? उस की क्या गलती है? निरंजना दोनों पलड़ों के बीच झूलने लगी. जेहन के कांपते हुए पानी पर असमंजस की नाव बह निकली. तभी एफएम पर गाना बजने लगा, ‘प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम ना दो ‘

नहीं, वह रजत को नहीं छोड़ सकती. जिस के साथ उस ने अपनी गृहस्थी बसाई, जिस ने उस का हमेशा ध्यान रखा, उसे पूरा प्यार दिया, अपने परिवार में सम्मान दिया, उसे वह कैसे बिसरा दे.

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यदि उस ने एक गलत कदम उठाया तो रजत का प्यार पर से विश्वास उठ जाएगा. अपनी जिंदगी में रंग भरने के लिए वह अपने पति की जिंदगी को स्याहा नहीं कर सकती.

कई बार हमारे जीवन के कुछ ऐसे अंश होते हैं, जिन्हें हम न भूल सकते हैं और न मिटा सकते हैं. जो हमें सुकून भी देते हैं और कष्ट भी. परंतु उन्हें हम अपने दिल के कोनों में हिफाजत से संजो कर रखना चाहते हैं. पहला प्यार इस सूची में संभवतः सब से ऊपर आता है.

रजत की कार में भी एफएम पर गाना बज रहा था, ‘सिर्फ एहसास है यह रूह से महसूस करो, प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ना दो…‘

Serial Story: गुंडा (भाग-2)

पूर्वकथा :

मेरी की सभी सहेलियां और चंदू व आनंद कालेज की गतिविधियों में भाग लेते थे. आनंद जहां गंभीर और काफी अमीर था वहीं चंदू एक नरमदिल इंसान था. हर कार्य वह निस्वार्थ भाव से करता था जबकि आनंद अपना बुराभला देख कर ही काम करता था. नीरू आनंद की दीवानी हो गई थी लेकिन कालेज में घटी एक घटना ने उस की सोच ही बदल दी.

अब आगे…

कालेज चुनाव में शीतल जीत गई थी. जीत की पार्टी वह अपने सारे दोस्तों को कैंटीन में दे कर लौटी थी. नीरू के लिए विशेष निमंत्रण था. वैसे भी अब वह उन के घर  लगी थी, क्योंकि उन के साथ एक अनकहा सा रिश्ता बन गया था. आनंद का व्यवहार ऐसा होता जैसे उस का उस पर कोई हक हो.

शीतल भी ऐसा ही व्यवहार करती थी, क्योंकि वह समझ गई थी कि उस का भाई नीरू को बहुत पसंद करता है. तीनों कार की ओर जा ही रहे थे कि इतने में जोर की चीख सुनाई पड़ी. चारों ओर से सारे विद्यार्थी उस ओर दौड़ पड़े. माली का बेटा जो अकसर अपने पिता के साथ काम करने आया करता था जोरजोर से रो रहा था. कुदाल लग जाने से उस का पैर लहूलुहान हो गया था. घाव कुछ ज्यादा ही गहरा था. सभी लोग तरहतरह के सुझाव दे रहे थे. कोई आटो बुलाने जा रहा था, कोई प्रिंसिपल के कमरे की ओर दौड़ रहा था तो कोई कह रहा था कि डाक्टर को ही यहां बुला लो.

नीरू को लगा आनंद उसे अपनी कार से डाक्टर के पास ले जाएगा, मगर वह मौन खड़ा तमाशा देख रहा था. पता नहीं कहां से चंदू आया उस ने माली के सिर का साफा निकाला और बच्चे के पैर में बांध दिया. फिर 10-12 साल के बच्चे को अपने हाथों में उठा लिया और कहा, ‘‘चलो यार, कोई मेरे साथ. मेरी जेब से मेरी बाइक की चाबी निकाल कर गाड़ी चलाओ. मैं इसे ले कर पीछे बैठता हूं.’’ फाटक काफी दूर था अगर कोई आटो ले कर आता तो तब तक काफी खून बह जाता.

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इस के बाद शीतल के घर जा कर भी नीरू अनमनी सी ही रही. न उसे वहां पैस्ट्रीज अच्छी लगीं न कोल्डड्रिंक्स.

‘‘क्या हो गया नीरू तुम्हें, क्या तुम मेरी जीत से खुश नहीं हो?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है…’’

‘‘शायद माली के बेटे वाली घटना से विचलित है. दिल इतना कमजोर होगा तो कैसे चलेगा. यह तो उन के जीवन का भाग है,’’ आनंद हंसा.

उसे लगा वह उस की हिम्मत नहीं बंधा रहा है बल्कि हंसी उड़ा रहा है.

‘‘मैं तो उस घटना को वहीं भूल गई. नीरू तुम्हें सख्त होना पड़ेगा, नहीं तो तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल होगी,’’ शीतल ने कहा.

‘‘सख्त, यह तो संवेदनहीनता है. एक गरीब, निसहाय आदमी को भी बच्चा उतना ही प्यारा होता है जितना एक करोड़पति को. ऊपर से अस्पताल का खर्च. कैसे झेल पाएगा वह?’’ उस का हृदय भीग गया.

‘‘छोड़ो यार, तुम तो ऐसे डिस्टर्ब हो जैसे वह तुम्हारा अपना हो. यह सब तो चलता रहता है. ठीक है तुम्हारा मूड ठीक करने का उपाय मैं जानती हूं.’’

‘‘अच्छा शीतल, मुझे कुछ काम है. अभी आता हूं,’’ कह कर आनंद वहां से

चला गया.

‘‘सुनो नीरू, पापा बाहर गए हुए हैं. शायद 2-3 दिन में वापस आएंगे. उन के वापस आते ही भैया तुम्हारी बात चलाएंगे,’’ उस ने बड़ी अपेक्षा से नीरू की ओर देखा. कोई प्रतिक्रिया न पा कर वह स्वयं बोली, ‘‘अरे यार, मैं तो समझी थी कि तुम खुशी से उछल पड़ोगी. भैया को तो कोई पसंद ही नहीं आती थी. कितनी लकी हो तुम, जिस के पीछे लड़कियां लाइन लगाती हों, वे स्वयं तुम्हारे पीछे हैं.’’

नीरू का वहां और रुकने का मन नहीं हुआ. वह जाने को उठी, तो शीतल ने कहा, ‘‘अरे रुको, भैया पहुंचा देंगे. यहींकहीं गए हैं, आ जाएंगे.’’

‘‘नहीं शीतल, मुझे एक जगह और जाना है, अच्छा बाय.’’

‘‘मगर भैया…’’ शीतल पुकारती रह गई. उस रात उसे नींद नहीं आई. खून से लथपथ माली के बेटे का पांव, उस का आसुंओं से भीगा चेहरा और माली की दैन्य स्थिति उसे कचोट रही थी. बारबार एक ही सवाल उस के मन में उठ रहा था, ‘क्या आनंद की परिपक्वता, शालीनता, बड़प्पन केवल एक ढकोसला है? सब के सामने अपनेआप को कितना अच्छा दिखाता है. गाड़ी है, पैसा है, मगर दिल में…’ नीरू का मन खट्टा हो गया.

नीरू सुबह तैयार हो कर कालेज जाने को निकल तो पड़ी पर उस का जाने का मन न हुआ. मेरी ने तो कल ही कह दिया था कि अब कम से कम 4-5 दिन पढ़ाई नहीं होगी, इसलिए वह अपनी दीदी के यहां चली जाएगी. उस के मन में विचार आया कि क्यों न माली के बेटे को देख आऊं. माली का घर उस के कालेज के रास्ते में ही पड़ता था. छोटी सी झोंपड़ी थी उस की. वह सकुचाती हुई उस की झोंपड़ी में घुस गई.

माली शायद काम पर जा चुका था और लड़का एक पुरानी सी खाट पर गुदडि़यों में लिपटा पड़ा था. किसी की आहट सुन कर उस ने आंखें खोलीं. नीरू ने उसे अपना परिचय दिया और उस की खाट पर बैठ कर उस से बातें करने लगी. पहले तो वह बहुत सकुचाया पर बाद में नीरू से प्रोत्साहन और अपनेपन से खुल कर बातें करने लगा.

उस ने बताया कि उस की मां 4-5 घरों में बरतनचौका करती हैं, इसलिए इस समय वहीं गई हुई हैं. पौलीथिन बैग में से नीरू ने बड़ा सा फ्रूट ब्रैड और बिस्कुट का पैकेट निकाला और खोल कर उस के सामने रख दिया.

‘‘आप यह सब क्यों लाई हैं, अभी अम्मां आएंगी तो हम लोग खाना खा लेंगे.’’

‘‘मुझे पता है भैया, अभी थोड़ा खा लो. बाकी बाद में सब मिल कर खाना.’’

उस ने एक ब्रैड का पीस उस की ओर बढ़ाया, जिस तरह से उस ने उसे खाया उस से पता चल गया कि वह वास्तव में भूखा था. उस का मन भर आया. कितना आत्मसम्मान है इस बच्चे में. उसे 2 बिस्कुट खिला कर पानी पिलाया. फिर आने का वादा कर के वह बाहर निकल ही रही थी कि चंदू और मेघा ने अंदर प्रवेश किया. वे एकदूसरे को देख कर चौंके.

उन से 2 मिनट बातें कर के नीरू निकलने ही वाली थी कि मेघा ने कहा, ‘‘नीरूजी, 2 मिनट रुक जाइए. मंगल की मां आती ही होगी. उस से मिल कर हम भी चलते हैं.’’ दूसरा तो कोई काम था नहीं, वह रुक गई.

वे लोग अभी बातें ही कर रहे थे कि मंगल की मां और एक 9-10 साल की लड़की आ गई. मेघा ने बताया कि यह लड़की मंगल की छोटी बहन लक्ष्मी है. मेघा ने एक थैला उस स्त्री के हाथ में दिया और बोली, ‘‘खाना है, सब लोग खा लेना और हां, डब्बों की चिंता मत करो, हम बाद में ले जाएंगे.’’

वह महिला नहीं मानी और बोली, ‘‘नहीं बेटा, रुक जाओ, 2 मिनट का काम है,’’ कहती हुई उस ने फटाफट डब्बों को खाली किया. नीरू ने देखा सब के लिए खाने के साथसाथ मिठाई और समोसे भी थे.

‘‘इतना सारा खाना क्यों ले आए बेटा? रूखासूखा खाने वाले गरीब आदमी हैं हम,’’ उस की आंखें भर आईं. वह डब्बे धोने बाहर चली गई. मेघा को जैसे कुछ याद आया.

‘‘अरे भैया, दवाइयां…’’

‘‘हां, वे तो डिक्की में रह गईं. मैं ले आता हूं.’’

‘‘रुको, बहुत सारे पैकेट्स हैं. मुझे आना ही पड़ेगा.’’ दोनों बाहर चले गए.

दवाइयों के पैकेट के साथ जब वापस आए तो मेघा कह रही थी, ‘‘क्यों बताया आप ने?’’ वह कुछ नाराज लग रही थी.

‘‘नहीं बताता तो निवाला उस के गले से नहीं उतरता. अब जल्दी कर. ये दवाइयां कब, कैसे लेनी हैं, 2 बार अच्छे से समझा कर चल. मां राह देख रही होंगी.’’ नीरू को उन की बातें समझ में नहीं आईं.

दोनों ने अच्छी तरह से दवाइयों के बारे में समझाया और फिर से आने को कह कर बाहर निकल आए.

मेघा ने कहा, ‘‘नीरू एतराज न हो तो थोड़ी देर के लिए मेरे घर चलो, मुझे अच्छा लगेगा. चाहो तो मैं घर आ कर आंटी को बता दूंगी.’’

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‘‘तुम कभी भी मेरे घर आ सकती हो, मुझे भी अच्छा लगेगा. इस वक्त केवल मां की इजाजत के लिए आने की जरूरत नहीं है. मैं घर जा कर बताने ही वाली थी कि मैं कालेज नहीं गई थी. रास्ते में मन बदल गया था और मंगल के घर चली गई थी,’’ नीरू ने हंसते हुए कहा.

‘‘मेघा, तुम मां से कह देना कि मैं एक जरूरी काम से जा रहा हूं. आधे घंटे में घर पहुंच जाऊंगा.’’ चंदू उछल कर गाड़ी में बैठ गया. मेघा नीरू के साथ आटो में बैठ गई.

नीरू को देख कर मेघा की मां बहुत खुश हुई, ‘‘अच्छा किया बेटा, जो अपनी सहेली को साथ ले आई, मंगल कैसा है?’’

‘‘ठीक हो रहा है मां, नीरू भी वहीं थी. हम लोग उस की मां और छोटी बहन से भी मिले.’’

‘‘नीरू बेटे, मुझे बहुत अच्छा लगा. इस के पिता के जाने के बाद इस ने अपना जन्मदिन मनाना ही छोड़ दिया. आज सालों बाद इस ने जन्मदिन पर कम से कम अपनी एक सहेली को तो बुलाया है. मैं तुम्हें यों ही नहीं जाने दूंगी.

‘‘मेघा बेटी, जरा आंटीजी को फोन कर के बता दे कि नीरू आज यहां तुम्हारे साथ खाना खाएगी, वे इस का इंतजार न करें.’’

‘‘नहीं आंटीजी, मुझे मीठा खिला दीजिए, मैं कालेज जाने के लिए घर से खाना खा कर निकली थी, मगर मैं कालेज न जा कर मंगल को देखने चली गई थी.’’

‘‘मेघा, तुम ने मुझे बताया ही नहीं कि आज तुम्हारा जन्मदिन है,’’ नीरू ने कहा.

‘‘इस में जन्मदिन वाली कोई बात नहीं है और कोई दिन होता तो भी मैं यही करती. मंगल के यहां हमारा मिलना एक सुखद संयोग है.’’

उस दिन मेघा के घर से लौटने के बाद नीरू का मन बिलकुल स्थिर और शांत हो गया था. उस ने सोचा, ‘कितना प्यारा घर है, शांत और सुकून देने वाला. कितना प्यार और अपनापन था वहां. उस की सारी बेचैनी दूर हो गई थी.’

इस के बाद उस का मेघा से मेलजोल बढ़ा. वे दोनों एकदूसरे को बहुत पसंद करती थीं. मेघा बहुत कम बोलती थी, मगर जो बोलती थी उस में सार, समझदारी, कोमलता, आर्द्रता आदि होती थी. वह बिना बोले दूसरों की बात समझ जाती थी और उसी के अनुसार काम करती थी. उस के पास आ कर लोगों का आत्मबल बढ़ता था.

धीरेधीरे नीरू को महसूस होने लगा कि उस घर में जब भी जाती है उसे एक शीतल, सुगंध छू जाती है. मन को सुकून मिलता है जैसे वहां स्नेह का मलयानिल बह रहा हो.

आनंद के साथ नीरू की सगाई तय हो गई. एक बार आनंद के कहने पर मेघा ने नीरू की मां को फोन किया कि वह आनंद की बहन है.

नीरू और आनंद एकदूसरे को पसंद करते हैं, पर दोनों इस बात को घर बताने में शरमाते हैं. वे लोग उस के घर आ कर रिश्ते की बात उस के मम्मीपापा से करें.

वह अपने भाई से बहुत प्यार करती है. इसलिए फोन कर रही है. यह बात वे किसी से न कहें, यहां तक कि नीरजा या आनंद से भी नहीं.

‘अंधा क्या चाहे दो आंखें,’ ऐसा रईस और शहर में प्रतिष्ठित खानदान नीरजा को मिले, इस से बढ़ कर उन्हें क्या चाहिए था, वह भी बिना प्रयास के. उस की पढ़ाई भी अब समाप्त होने वाली है. बात आगे बढ़ी और तारीख भी पक्की हो गई. फिर तो आएदिन नीरू के लिए तोहफे आने लगे. कभी कपड़े, कभी सैंडल तो कभी सौंदर्य प्रसाधन.

एक बार नीरू ने आनंद से कहा, ‘‘आप लोग बातबेबात मुझे तोहफे क्यों भेजते हैं? मुझे बड़ा संकोच होता है. प्लीज…’’

‘‘इस बारे में तुम बहुत मत सोचा करो. ऐसे छोटेमोटे तोहफे देना हमारे लिए बहुत बड़ी बात नहीं है. धीरेधीरे तुम्हें आदत पड़ जाएगी,’’ आनंद ने कहा.

उस दिन उन के कालेज के सहपाठी अनुरूप का जन्मदिन था. वह भी शहर के बहुत बड़े उद्योगपति का बेटा था. नीरू अपने मित्रों के साथ शीतलपेय लेते हुए बातें कर रही थी कि पीछे से कंधे पर हाथ पड़ा. उस दबाव से उसे पीड़ा हुई. वह गुस्से से पलटी, सामने आनंद खड़ा था.

‘‘वन मिनट प्लीज,’’ उस के मित्रों से कह कर आनंद उसे हाथ पकड़ कर एक ओर ले गया.

‘‘क्या अजीब से कपड़े पहन लिए हैं तुम ने, इसीलिए तो तोहफे भेजता हूं कि कुछ ढंग का पहनो,’’ उस ने फुसफुसाते हुए कहा.

वह जानती थी कि सारी सहेलियों की नजरें उन्हीं पर टिकी हुई थीं. वह स्तब्ध रह गई. चेहरा लाल हो गया. तोहफों का यह अर्थ उस ने कभी नहीं लगाया था. उसे तो लगा था कि अपना प्यार जताने के लिए वह तोहफे देता है.

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उसे क्या पता था कि वह अपने साथ खड़े होने के लायक बनाने के लिए उसे तोहफे देता है. उस ने आंखों में आने को आतुर आंसुओं को रोका. उसे घिन आ रही थी अपनेआप पर कि इंसान को पहचानने में इतनी बड़ी गलती कैसे

हो गई?

वापस आने पर जीना ने कहा, ‘‘अरे वाह, सब के बीच रोमांस?’’

‘‘नहीं यार, वे लोग अपनी शादी के बाद की पार्टी का प्लान कर रहे थे.’’ यह रूमा थी.

‘‘ठीक कहा तू ने. आनंद कोई भी काम करता है तो सब देखते रह जाते हैं. भई, अपनी नीरू भी तो लकी है.’’ कौन थी ये जो उस के भाग्य की हंसी उड़ा रही थी.

आगे पढ़ें- मेरी ने उस का हाथ थामा….

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