Famous Hindi Stories : दूरियां – क्यों हर औलाद को बुरा मानता था सतीश?

Famous Hindi Stories : ‘‘सुरेखा, सुरेखा…’’ किचन में कुकर की सीटी की आवाज के आगे सतीश की आवाज दब गई. जब पत्नी ने पुकार का कोई जवाब नहीं दिया तो अखबार हाथ में उठा कर सतीश खुद अंदर चले आए.

हाथ का अखबार पास पड़ी कुरसी पर पटक कुछ जोर से बोले सतीश, ‘‘क्या हो रहा है? मैं ने कल की खबर तुम्हें सुनाई थी कि पिता के पैसों के लिए बेटे ने उस की हत्या की सुपारी अपने ही एक दोस्त को दे दी. देखा, कलियुगी बच्चों को…बेटाबेटी ने मिल कर अपने बूढ़े मातापिता को मौत के घाट उतार दिया, ताकि उन के पैसों से मौजमस्ती कर सकें. हद है, आज की पीढ़ी का कोई ईमान ही नहीं रहा.’’  सुरेखा ने उन्हें शांत करने की कोशिश की, ‘‘आप इन खबरों को पढ़ कर इतने परेशान क्यों होते हैं? यह भी देखिए कि ये बच्चे किस वर्ग के हैं और कितने पढ़ेलिखे हैं?’’

‘‘क्या कह रही हो तुम? ये बच्चे बाहर से एमबीए आदि पढ़लिख कर आए थे. जरा सोचो सुरेखा, इन की पढ़ाईलिखाई पर मांबाप ने कितना पैसा खर्च किया होगा. आजकल के बच्चे इतने नकारा हैं कि…’’

कहतेकहते हांफने लगे सतीश. सुरेखा पानी का गिलास ले कर उन के पास चली आईं, ‘‘आप रोजरोज इस तरह की खबरें पढ़ कर अपने को क्यों दुखी करते हैं? छोडि़ए न, हम तो अच्छेभले हैं. बस, 2 महीने रह गए हैं आप के रिटायरमैंट को. अपना घर है. पैंशन आती रहेगी. और क्या चाहिए हमें? जितना है वह अपने बच्चों का ही तो है.’’

सतीश पानी का एक घूंट ले कर कुछ रुक कर बोले, ‘‘बच्चों का क्यों? तीनों को पढ़ालिखा दिया. अब जो करना है, उन्हें खुद करना है. मैं एक पैसा किसी पर खर्च नहीं करने वाला.’’

सुरेखा चौंकीं, ‘‘अरे, यह क्या कह   रहे हैं? सिर्फ अमन की ही तो   शादी हुई है. अभी तो आभा की होनी है. आरुष भी आगे पढ़ाई करना चाहता है. फिर…’’

इस ‘फिर’ से बचते हुए सतीश बाहर निकल गए. दरअसल, जब से उन्होंने अपनी ही कालोनी में रहने वाले जगत को सुबहसुबह पार्क में फूटफूट कर रोते देखा तो उन की सोच ही बदल गई. जगत उम्र में उन से 10 साल बड़े थे. एक बेटा धनंजय और एक बेटी छवि. धनंजय को पढ़ालिखा कर इंजीनियर बनाया. रिटायरमैंट में मिले फंड के पैसों से छवि की शादी कर दी. बचाखुचा पत्नी की बीमारी में निकल गया. बेटे की शादी के बाद वे साथ ही रहते थे. महीना भर पहले बेटे ने उन्हें घर से निकाल दिया. जगत की समझ में नहीं आ रहा था कि वे इस उम्र में जाएं तो कहां जाएं. अपनी पूरी कमाई बच्चों पर लगा दी. उन की पढ़ाई और शादी की वजह से अपना घर नहीं बना पाए. पैंशन नहीं, देखरेख करने वाला भी कोई नहीं.

सतीश, जगत का हाल सुन कर हिल गए. धनंजय को बचपन में देखा था उन्होंने. वह ऐसा निकलेगा, क्या कभी सोचा था?  सुरेखा को पता था कि सतीश एक बार जो ठान लेते हैं उस से पलटते नहीं हैं. कल रात ही आरुष ने उन से कहा था, ‘‘पापा, मैं आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका जाना चाहता हूं. छात्रवृत्ति के लिए कोशिश तो कर रहा हूं, फिर भी 3 लाख तक का खर्च आ ही जाएगा.

पापा, क्या आप इतने पैसे उधार दे सकेंगे?’’

आरुष ने बिलकुल एक बच्चे की तरह कहा, ‘‘ममा, 2 साल बाद मेरा एमबीए हो जाएगा. इस के बाद मुझे कहीं अच्छी नौकरी मिल जाएगी. मैं पापा के सारे पैसे चुका दूंगा. आप बात कीजिए न उन से,’’ उस समय तो सुरेखा ने हां कह दिया था, पर अपने पति का रुख देख कर उसे शंका हो रही थी कि पता नहीं वे क्या जवाब देंगे.

घर का काम निबटा कर सुरेखा सतीश के कमरे में आईं, तो वे कंप्यूटर के सामने चिंता में बैठे थे. सुरेखा धीरे से उन के पीछे आ खड़ी हुईं. कुछ क्षण रुकने के बाद बोलीं, ‘‘यह क्या चिंता ले कर बैठ गए? बच्चे भी पूछने लगे हैं अब तो. खाना भी सब के साथ नहीं खाते और…’’  सतीश ने पलट कर सुरेखा की तरफ देखा, ‘‘मेरे पास उन से बात करने के लिए कुछ नहीं है. वे अपनी अलग दुनिया में जीते हैं सुरेखा. मैं साथ बैठता हूं तो सब असहज महसूस करते हैं.’’  ‘‘ऐसा नहीं है, सब आप की इज्जत करते हैं. अच्छा, कल बहू मायके जाने को कह रही है, भेज दें?’’

सतीश झल्ला गए, ‘‘तुम ये सब बातें मुझ से क्यों  पूछ रही हो, उन्हें तय करने दो. अमन जिम्मेदार शादीशुदा आदमी  है. उसे अपनी जिंदगी खुद जीनी चाहिए.’’ सुरेखा चुप हो गईं. ऐसे मूड में आरुष के विदेश जाने की बात करतीं भी कैसे?

अगले दिन नाश्ते के समय आरुष ने खुद बात छेड़ दी, ‘‘पापा, मैं ने आप को बताया था न कि एमबीए के लिए मेरा अमेरिका में एक यूनिवर्सिटी में चयन हो गया है. बस, पहले साल मुझे 40 प्रतिशत स्कौलरशिप मिलेगी. मैं सोच रहा था कि अगर आप…’’  सतीश एकदम से भड़क गए, ‘‘सोचना भी मत. तुम्हें इंजीनियर बना दिया, बस, अब इस से आगे मैं कुछ नहीं कर सकता. यही तो दिक्कत है तुम जैसी नई पीढ़ी की, बस अपनी सोचते हो. यह नहीं सोचते कि कल तुम्हारे मातापिता का क्या होगा? हम अपनी बाकी जिंदगी कैसे जिएंगे?’’

आरुष सकपका गया. अमन भी वहीं बैठा था. उस ने जल्दी से कहा, ‘‘पापा, आप ऐसा क्यों कहते हैं? हम लोग हैं न.’’  सतीश के होंठों पर व्यंग्य तिर आया, ‘‘तुम लोग क्या करोगे, यह मुझे अच्छी तरह पता है. मुझे तुम लोगों से कोई उम्मीद नहीं, तुम लोग भी मुझ से कोई उम्मीद मत रखना…’’ प्लेट छोड़ उठ खड़े हुए सतीश. सुरेखा को झटका सा लगा. अपने बच्चों के साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं सतीश? आज तक बच्चों की परवरिश में कहीं कोई कमी नहीं रखी, अच्छे स्कूलकालेजों में पढ़ाया. अब अचानक उन के सोचने की दिशा क्यों बदल गई है?

अमन उठ कर सुरेखा के पास चला आया, ‘‘मां, पापा को आजकल क्या हो गया है? आजकल इतने गुस्से में क्यों रहते हैं?’’ अचानक सुरेखा की आंखों से आंसू निकल आए, ‘‘पता नहीं क्याक्या पढ़ते रहते हैं. सोचते हैं कि उन के बच्चे भी उन के साथ…’’

‘‘क्या मां, क्या लगता है उन्हें? हम उन के पैसों के पीछे हैं?’’ अमन ने सीधे पूछ लिया.

सुरेखा की हिचकी बंध गई, ‘‘पता नहीं बेटा, ऐसा ही कुछ भर गया है उन के दिमाग में. मैं तो समझासमझा कर हार गई कि सब घर एक से नहीं होते.’’

अमन ने सुरेखा के हाथ थाम लिए और धीरे से बोला, ‘‘इस में पापा की गलती नहीं है. आजकल रोज इस तरह की खबरें आ रही हैं. पहले भी आती होंगी, पर आजकल मीडिया कुछ ज्यादा ही सक्रिय है. आप जाने दीजिए मां, सब ठीक हो जाएगा. पापा से कह दीजिए कि हमें उन के पैसे नहीं चाहिए. बस, हमें चाहिए कि वे सुकून से रहें.’’

अमन और आरुष अपनेअपने रास्ते पर चले गए. आभा अब तक कालेज से नहीं आई थी. इस साल उस की पढ़ाई भी पूरी हो जाएगी. आभा चाहती थी कि वह नौकरी करे. सुरेखा को लगता था कि समय पर उस की शादी हो जानी चाहिए. पर उन की सुनने वाला घर में कोई नहीं था.  आरुष ने अमन की मदद से बैंक से लोन लिया और महीने भर बाद वह अमेरिका चला गया. आभा को भी कैंपस इंटरव्यू में नौकरी मिल गई. जब उस ने अपनी पहली तनख्वाह सतीश के हाथ में रखी तो वे निर्लिप्त भाव से बोले, ‘‘अपनी कमाई तुम अपने पास रखो, जमा करो. कल तुम्हारे काम आएगी.’’

सुरेखा ने समझ लिया था कि सतीश को समझाना बहुत मुश्किल है, लेकिन उन्हें इस बात का संतोष था कि कम से कम बच्चे समझदार हैं. 6 महीने बाद अमन को भी मुंबई में अच्छी नौकरी मिल गई. अमन अपनी पत्नी के साथ मुंबई चला गया.  सुरेखा को घर का अकेलापन काटने लगा. आभा का काम कुछ ऐसा था कि दफ्तर से लौटने में देर हो जाती. सुरेखा टोकतीं तो आभा कहती, ‘‘मां, आजकल हर प्राइवेट नौकरी में यही हाल है. देर तक काम करना पड़ता है. कोई जल्दी घर जाने की बात नहीं करता तो मैं कैसे आऊं.’’  आभा इतनी व्यस्त रहती कि उसे खानेपीने की सुध ही नहीं रहती. सुरेखा चाहती थीं कि उन की युवा बेटी शादी कर के सुख से रहे. दूसरी लड़कियों की तरह सजेसंवरे, अपनी दुनिया बसाए. एक दिन वह सतीश के सामने फट पड़ीं, ‘‘आप को पता भी है कि आभा कितने साल की हो गई है? उस की शादी की बात आप चलाएंगे या मैं चलाऊं? मैं अपनी बेटी को खुश देखना चाहती हूं.’’

सतीश अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में इतने रमे हुए थे कि बेटी का रिश्ता खोजना उन्हें भारी लग रहा था. पर सुरेखा के कहने पर वे कुछ चौकन्ने हुए. अखबार में देख कर एक सही सा लड़का ढूंढ़ा. आभा को यह बिलकुल पसंद नहीं था कि वह किसी के देखने की खातिर सजेसंवरे. बड़ी मुश्किल से वह लड़के वालों के सामने आने को तैयार हुई. सुरेखा उत्साह से तैयारी में जुट गईं. बेटी की शादी का सपना हर मां अपनी आंखों में संजोए रहती है.  आभा 2-3 बार उस से कह चुकी थी कि मां, अभी रिश्ता हुआ नहीं है. आप को ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं  है. बस, चाय और बिस्कुट रखिए मेज पर.  सुरेखा हंसने लगीं, ‘‘ऐसा कहीं होता है भला? जिस घर में तेरी शादी होनी है उस घर के लोगों की कुछ तो खातिरदारी करनी पड़ेगी.’’

आभा चुप हो गई. सुरेखा ने घर पर ही गुलाबजामुन बनाए, नारियल की बरफी बनाई, नमकीन में समोसे, कटलेट और पनीर मंचूरियन बनाया. साथ ही जलजीरा आदि तो था ही. चुपके से जा कर वे अपने होने वाले दामाद के लिए सोने की चेन भी ले आई थीं. रिश्ता पक्का होने के बाद कुछ तो देना पड़ेगा.

सतीश को जिस बात का अंदेशा था, आखिरकार वही हुआ. प्रमोद चार्टर्ड अकाउंटैंट था और आते ही उस की मां ने बढ़चढ़ कर बताया कि प्रमोद को सीए बनाने में उन्होंने कितने पापड़ बेले हैं.

सतीश ने कुछ देर तक उन का त्याग- मंडित भाषण सुना, फिर पूछ लिया, ‘‘देखिए मैडम, हर मातापिता अपने बच्चे को शिक्षा दिलाने के लिए कुछ न कुछ त्याग तो करते ही हैं. मैं ने भी अपने बच्चों की शिक्षा पर बहुत खर्च किया है. आप कहना क्या चाहती हैं, यह स्पष्ट बताइए.’’

प्रमोद की मां सकपका गईं. बात प्रमोद के मामा ने संभाली, ‘‘आप तो दुनियादार हैं सतीशजी. बेटे की शादी भी कर रखी है. आप को क्या बताना.’’

सतीश गंभीर हो गए, ‘‘अगर बात लेनदेन की कर रहे हैं तो मैं आप से कोई संबंध नहीं रखना चाहूंगा.’’

सतीश की आवाज इतनी तल्ख थी कि किसी की कुछ बोलने की हिम्मत ही नहीं पड़ी. इस के बाद बात बस, औपचारिक बन कर रह गई. उन के जाने के बाद सुरेखा अपने पति पर बरस पड़ीं, ‘‘लगता है, आप अपनी बेटी की शादी करना ही नहीं चाहते. आप का ऐसा रुख रहेगा, तो कौन आप से संबंध रखना चाहेगा भला?’’

सतीश ने अपनी पत्नी की तरफ निगाह डाली और शांत आवाज में कहा, ‘‘मैं ने अपनी बेटी को इसलिए नहीं पढ़ाया कि उस का रिश्ता ऐसे घर में करूं.’’

सुरेखा रोने लगीं, ‘‘आप पैसे के पीछे पागल हो गए हैं. अपनी बेटी की शादी में कौन पैसा खर्च नहीं करता.’’

सुरेखा के रोने का उन पर कोई असर नहीं पड़ा. वे वहां से चले गए. अचानक सुरेखा ने कंधे पर एक कोमल स्पर्श महसूस किया, आभा खड़ी थी. आभा धीरे से बोली, ‘‘मां, रोओ मत. पापा ने सही किया. मुझे खुद दहेज दे कर शादी नहीं करनी. मैं अपने लिए राह खुद बना लूंगी, तुम चिंता मत करो.’’

बेटी का आश्वासन भी सुरेखा को शांत न कर पाया.

6 महीने बाद आभा ने एक दिन सुरेखा से कहा, ‘‘मां, मैं किसी को आप से मिलवाना चाहती हूं.’’

सुरेखा को खटका लगा. पहली बार आभा उस से किसी को मिलवाने को कह रही है. कौन है?

शाम को आभा अपने से उम्र में काफी बड़े एक आदमी को घर ले कर आई, ‘‘मां, मेरे साथ काम करते हैं हरिहरण. बहुत बड़े साइंटिस्ट हैं और हम दोनों…’’

आभा की बात पूरी होने से पहले सुरेखा उसे खींच कर कमरे में ले गईं और बोलीं, ‘‘आभा, उम्र में इतने बड़े आदमी से…ऐसा क्यों कर रही है बेटी? ऊपर से साउथ इंडियन?’’

‘‘मां,’’ आभा ने सुरेखा का हाथ कस कर पकड़ लिया, ‘‘हरी बेहद सुलझे हुए और इंटेलिजैंट व्यक्ति हैं. आजकल नार्थसाउथ में क्या रखा है मां? तुम्हें भी तो इडलीसांभर पसंद है. क्या तुम होटल जा कर रसम और चावल नहीं खातीं? हरि को तो अपनी तरफ का राजमा, अरहर की दाल और आलू के परांठे बहुत पसंद हैं. हम दोनों एकदूसरे को अच्छे से जाननेसमझने लगे हैं. मैं उन के साथ बहुत खुश रहूंगी मां,’’ कहतेकहते आभा की आंखों में पानी भर आया. सुरेखा ने उसे गले से लगा लिया, ‘‘आभा, मेरे लिए तेरी खुशी से बढ़ कर और कुछ नहीं है बेटी. पर एक मां हूं न, क्या करूं, दिल नहीं मानता.’’

आभा की पसंद के बारे में सतीश ने कुछ कहा नहीं. उन्हें हरिहरण अच्छे लगे. आभा ने कोर्ट में जा कर शादी की. सुरेखा कहती रह गईं कि पार्टी होनी चाहिए, पर हरि ने हंस कर कहा, ‘‘मिसेज सतीश, आप पैसा क्यों खर्च करना चाहती हैं? वह भी दूसरों को खिलापिला कर. सेव इट फौर टुमारो.’’

तीनों बच्चे अपनी जिंदगी में रम गए. गाहेबगाहे आते तो कुछ लेने के बजाय बहुत कुछ दे जाते. सतीश अब पहले से कम बोलने लगे. अब उन्हें भी बच्चों की कमी खलने लगी थी.

ऐसे ही चुपचाप एक दिन रात को जो वे सोए तो सुबह उठे ही नहीं. पहला दिल का दौरा इतना तेज था कि उन के प्राण निकल गए. सुरेखा अकेली रह गईं. आभा महीना भर आ कर उन के पास रह गई, पर उस की भी नौकरी थी, जाना तो था ही. अमन भी आरुष का साथ देने अमेरिका पहुंच गया और वहीं जा कर बस गया.

इतने बड़े घर में सुरेखा अब अकेली पड़ गईं, सतीश की पैंशन, उन के कमाए पैसों और अपने गहनों के साथ. रहरह कर उस के मन में टीस उठती कि समय पर अगर बच्चों की मदद कर दी होती तो आज यह पैसा बोझ बन कर उन के दिल को ठेस न पहुंचाता.

अमन से जब भी वे अपने दिल की बात करतीं, वह तुरंत जवाब देता, ‘‘मां, तुम सब छोड़छाड़ कर यहां आ जाओ हमारे पास. सब साथ रहेंगे. मेरी बेटी बड़ी हो रही है. उसे तुम्हारा साथ चाहिए.’’

बहुत सोचसमझ कर सुरेखा ने अपनी जायदाद के 3 हिस्से किए और कागजात साइन करवाने अमन, आभा और आरुष के पास भेज दिए. सप्ताह भर बाद अमन की लंबी चिट्ठी आई. चिट्ठी में लिखा था, ‘‘मां, हमें वहां से कुछ नहीं चाहिए. हम तीनों बच्चों को आप ने बहुत कुछ दिया है. आप अपना पैसा जरूरतमंदों में बांट दीजिए, किसी अनाथालय के नाम कर दीजिए. शायद इस से पापा की आत्मा को भी शांति मिलेगी. और हां, देर मत कीजिए, जल्दी आइए. अब तो कम से कम हम सब को साथ वक्त बिताना चाहिए.’’

सुरेखा फूटफूट कर रोने लगीं. काश, आज यह दिन देखने के लिए सतीश जिंदा होते. जिस पैसे की खातिर सतीश अपने बच्चों से दूर हो गए, वह पैसा आज उन के किसी काम का रहा नहीं.

Best Hindi Stories : छोटा सा घर

Best Hindi Stories :  ट्रेन तेज गति से दौड़ी चली जा रही थी. सहसा गोमती बूआ ने वृद्ध सोमनाथ को कंधे से झकझोरा, ‘‘बाबूजी, सुषमा पता नहीं कहां चली गई. कहीं नजर नहीं आ रही.’’

सोमनाथ ने हाथ ऊंचा कर के स्विच दबाया तो चारों ओर प्रकाश फैल गया. फिर वे आंखें मिचमिचाते हुए बोले, ‘‘आधी रात को नींद क्यों खराब कर दी… क्या मुसीबत आन पड़ी है?’’

‘‘अरे, सुषमा न जाने कहां चली गई.’’

‘‘टायलेट की ओर जा कर देखो, यहीं कहीं होगी…चलती ट्रेन से कूद थोड़े ही जाएगी.’’

‘‘अरे, बाबा, डब्बे के दोनों तरफ के शौचालयों में जा कर देख आई हूं. वह कहीं भी नहीं है.’’

बूआ की ऊंची आवाज सुन कर अन्य महिलाएं भी उठ बैठीं. पुष्पा आंचल संभालते हुए खांसने लगी. देवकी ने आंखें मलते हुए बूआ की ओर देखा और बोली, ‘‘लाइट क्यों जला दी? अरे, तुम्हें नींद नहीं आती लेकिन दूसरों को तो चैन से सोने दिया करो.’’

‘‘मूर्ख औरत, सुषमा का कोई अतापता नहीं है…’’

‘‘क्या सचमुच सुषमा गायब हो गई है?’’ चप्पल ढूंढ़ते हुए कैलाशो बोली, ‘‘कहीं उस ने ट्रेन से कूद कर आत्महत्या तो नहीं कर ली?’’

बूआ ने उसे जोर से डांटा, ‘‘खामोश रह, जो मुंह में आता है, बके चली जा रही है,’’ फिर वे सोमनाथ की ओर मुड़ीं, ‘‘बाबूजी, अब क्या किया जाए. छोटे महाराज को क्या जवाब देंगे?’’

‘‘जवाब क्या देना है. वे इसी ट्रेन के  फर्स्ट क्लास में सफर कर रहे हैं. अभी मोबाइल से बात करता हूं.’’

सोमनाथ ने छोटे महाराज का नंबर मिलाया तो उन की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे, बाबा, काहे नींद में खलल डालते हो?’’

‘‘महाराज, बहुत बुरी खबर है. सुषमा कहीं दिखाई नहीं दे रही. बूआ हर तरफ उसे देख आई हैं.’’

‘‘रात को आखिरी बार तुम ने उसे कब देखा था?’’

‘‘जी, रात 9 बजे के लगभग ग्वालियर स्टेशन आने पर सभी ने खाना खाया और फिर अपनीअपनी बर्थ पर लेट गए. आप को मालूम ही है, नींद की गोली लिए बिना मुझे नीद नहीं आती. सो गोली गटकते ही आंखें मुंदने लगीं. अभी बूआ ने जगाया तो आंख खुली.’’

छोटे महाराज बरस पड़े, ‘‘लापरवाही की भी हद होती है. बूआ के साथसाथ तुम्हें भी कई बार समझाया था कि सुषमा पर कड़ी नजर रखा करो. लेकिन तुम सब…कहीं हरिद्वार में किसी के संग उस का इश्क का कोई लफड़ा तो नहीं चल रहा था? मुझे तो शक हो रहा है.’’

‘‘मुझे तो कुछ मालूम नहीं. लीजिए, बूआ से बात कीजिए.’’

बूआ फोन पकड़ते ही खुशामदी लहजे में बोलीं, ‘‘पाय लागूं महाराज.’’

‘‘मंथरा की नानी, यह तो कमाल हो गया. आखिर वह चिडि़या उड़ ही गई. मुझे पहले ही शक था. उस की खामोशी हमें कभीकभी दुविधा में डाल देती थी. खैर, अब उज्जैन पहुंच कर ही कुछ सोचेंगे.’’

बूआ ने मोबाइल सोमनाथ की ओर बढ़ाया तो वे पूछे बिना न रह सके, ‘‘क्या बोले?’’

‘‘अरे, कुछ नहीं, अपने मन की भड़ास निकाल रहे थे. हम हमेशा सुषमा की जासूसी करते रहे. कभी उसे अकेला नहीं छोड़ा. अब क्या चलती ट्रेन से हम भी उस के साथ बाहर कूद जाते. न जाने उस बेचारी के मन में क्या समाया होगा?’’

थोड़ी देर में सोमनाथ ने बत्ती बुझा दी पर नींद उन की आंखों से कोसों दूर थी. बीते दिनों की कई स्याहसफेद घटनाएं रहरह कर उन्हें उद्वेलित कर रही थीं :

लगभग 5-6 साल पहले पारिवारिक कलह से तंग आ कर सोमनाथ हरिद्वार के एक आश्रम में आए थे. उस के 3-4 माह बाद ही दिल्ली के किसी अनाथाश्रम से 11-12 साल के 4 लड़के और 1 लड़की को ले कर एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति आश्रम में आया था. तब सोमनाथ के सुनने में आया था कि बदले में उस व्यक्ति को अच्छीखासी रकम दी गई थी. आश्रम की व्यवस्था के लिए जो भी कर्मचारी रखे जाते थे वे कम वेतन और घटिया भोजन के कारण शीघ्र ही भाग खड़े होते थे, इसीलिए दिल्ली से इन 5 मासूम बच्चों को बुलाया गया था.

शुरूशुरू में इस आश्रम में बच्चों का मन लग गया, पर शीघ्र ही हाड़तोड़ मेहनत करने के कारण वे कमजोर और बीमार से होते गए. आश्रम के पुराने खुशामदी लोग जहां मक्खनमलाई खाते थे, वहीं इन बच्चों को रूखासूखा, बासी भोजन ही खाने को मिलता. कुछ माह बाद ही चारों लड़के तो आसपास के आश्रमों में चले गए पर बेचारी सुषमा उन के साथ जाने की हिम्मत न संजो सकी. बड़े महाराज ने तब बूआ को सख्त हिदायत दी थी कि इस बच्ची का खास खयाल रखा जाए.

बूआ, सुषमा का खास ध्यान तो रखती थीं, पर वे बेहद चतुर, स्वार्थी और छोटे महाराज, जोकि बड़े महाराज के भतीजे थे और भविष्य में आश्रम की गद्दी संभालने वाले थे, की खासमखास थीं. बूआ पूरे आश्रम की जासूसी करती थीं, इसीलिए सभी उन्हें ‘मंथरा’ कह कर पुकारते थे.

18 वर्षीय सुषमा का यौवन अब पूरे निखार पर था. हर कोई उसे ललचाई नजरों से घूरता रहता. पर कुछ कहने की हिम्मत किसी में न थी क्योंकि सभी जानते थे कि छोटे महाराज सुषमा पर फिदा हैं और किसी भी तरह उसे अपना बनाना चाहते हैं. बूआ, सुषमा को किसी न किसी बहाने से छोटे महाराज के कक्ष में भेजती रहती थीं.

पिछले साल दिल्ली से बड़े महाराज के किसी शिष्य का पत्र ले कर नवीन नामक नौजवान हरिद्वार घूमने आया था. प्रात: जब दोनों महाराज 3-4 शिष्यों के साथ सैर करने निकल जाते तो सोमनाथ और सुषमा बगीचे में जा कर फूल तोड़ने लगते. 2-3 दिनों में ही नवीन ने सोमनाथ से घनिष्ठता कायम कर ली थी. वह भी अब फूल तोड़ने में उन दोनों की सहायता करने लगा.

28-30 साल का सौम्य, शिष्ट व सुदर्शन नौजवान नवीन पहले दिन से ही सुषमा के प्रति आकर्षण महसूस करने लगा था. सुषमा भी उसे चाहने लगी थी. उन दोनों को करीब लाने में सोमनाथ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे. उन की हार्दिक इच्छा थी कि वे दोनों विवाह बंधन में बंध जाएं.

सोमनाथ ने सुषमा को नवीन की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में सबकुछ बता दिया था कि कानपुर में उस का अपना मकान है. उस की शादी हुई थी, लेकिन डेढ़ वर्ष बाद बेटे को जन्म देने के बाद उस की पत्नी की मृत्यु हो गई थी. घर में मां और छोटा भाई हैं. एक बड़ी बहन शादीशुदा है. नवीन कानपुर की एक फैक्टरी के मार्केटिंग विभाग में ऊंचे पद पर कार्यरत है. उसे 15 हजार रुपए मासिक वेतन मिलता है. इन दिनों वह फैक्टरी के काम से ज्यादातर दिल्ली में ही अपने शाखा कार्यालय की ऊपरी मंजिल पर रहता है.

1 सप्ताह गुजरने के बाद जब नवीन ने वापस दिल्ली जाने का कार्यक्रम बनाया तो ऐसा संयोग बना कि छोटे महाराज को कुछ दिनों के लिए वृंदावन के आश्रम में जाना पड़ा. उन के जाने के बाद सोमनाथ ने नवीन को 3-4 दिन और रुकने के लिए कहा तो वह सहर्ष उन की बात मान गया.

एक दिन बाग में फूल तोड़ते समय सोमनाथ ने विस्तार से सारी बातें सुषमा को कह डालीं, ‘बेटी, तुम हमेशा से कहती हो न कि घर का जीवन कैसा होता है, यह मैं ने कभी नहीं जाना है. क्या इस जन्म में किसी जानेअनजाने शहर में कोई एक घर मेरे लिए भी बना होगा? क्या मैं सारा जीवन आश्रम, मंदिर या मठ में व्यतीत करने को विवश होती रहूंगी?

‘बेटी, मैं तुम्हें बहुत स्नेह करता हूं लेकिन हालात के हाथों विवश हूं कि तुम्हारे लिए मैं कुछ कर नहीं सकता. अब कुदरत ने शायद नवीन के रूप में तुम्हारे लिए एक उमंग भरा पैगाम भेजा है. तुम्हें वह मनप्राण से चाहने लगा है. वह विधुर है. एक छोटा सा बेटा है उस का…छोटा परिवार है…वेतन भी ठीक है…अगर साहस से काम लो तो तुम उस घर, उस परिवार की मालकिन बन सकती हो. बचपन से अपने मन में पल रहे स्वप्न को साकार कर सकती हो.

‘लेकिन मैं नवीन की कही बातों की सचाई जब तक खुद अपनी आंखों से नहीं देख लूंगा तब तक इस बारे में आगे बात नहीं करूंगा. वह कल दिल्ली लौट जाएगा. फिर वहां से अगले सप्ताह कानपुर जाएगा. इस बारे में मेरी उस से बातचीत हो चुकी है. 3-4 दिन बाद मैं भी दिल्ली चला जाऊंगा और फिर उस के साथ कानपुर जा कर उस का घर देख कर ही कुछ निर्णय लूंगा.

‘यहां आश्रम में तो तुम्हें छोटे महाराज की रखैल बन कर ही जीवन व्यतीत करना पड़ेगा. हालांकि यहां सुखसुविधाओं की कोई कमी न होगी, परंतु अपने घर, रिश्तों की गरिमा और मातृत्व सुख से तुम हमेशा वंचित ही रहोगी.’

‘नहीं बाबा, मैं इन आश्रमों के उदास, सूने और पाखंडी जीवन से अब तंग आ चुकी हूं.’

अगले दिन नवीन दिल्ली लौट गया. उस के 3-4 दिन बाद सोमनाथ भी चले गए क्योंकि कानपुर जाने का कार्यक्रम पहले ही नवीन से तय हो चुका था.

एक सप्ताह बाद सोमनाथ लौट आए. अगले दिन बगीचे में फूल तोड़ते समय उन्होंने मुसकराते हुए सुषमा से कहा, ‘बिटिया, बधाई हो. जैसे मैं ने अनुमान लगाया था, उस से कहीं बढ़ कर देखासुना. सचमुच प्रकृति ने धरती के किसी कोने में एक सुखद, सुंदर, छोटा सा घर तुम्हारे लिए सुरक्षित रख छोड़ा है.’

‘बाबा, अब जैसा आप उचित समझें… मुझे सब स्वीकार है. आप ही मेरे हितैषी, संरक्षक और मातापिता हैं.’

‘तब तो ठीक है. लगभग 2 माह बाद ही छोटे महाराज, बूआ और इस आश्रम की 5-6 महिलाओं के साथ हम दोनों को भी हर वर्ष की भांति उज्जैन के अपने आश्रम में वार्षिक भंडारे पर जाना है. इस बारे में नवीन से मेरी बात हो चुकी है. इस बारे में नवीन ने खुद ही सारी योजना तैयार की है.

‘यहां से उज्जैन जाते समय रात्रि 10 बजे के लगभग ट्रेन झांसी पहुंचेगी. छोटे महाराज अपने 3 शिष्यों के साथ प्रथम श्रेणी के ए.सी. डब्बे में यात्रा कर रहे होंगे, शेष हम लोग दूसरे दर्जे के शयनयान में सफर करेंगे. तुम्हें झांसी स्टेशन पर उतरना होगा…वहां नवीन अपने 3-4 मित्रों के संग तुम्हारा इंतजार कर रहा होगा. वैसे घबराने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि नवीन की बूआ का बेटा वहीं झांसी में पुलिस सबइंस्पैक्टर के पद पर तैनात है. अगर कोई अड़चन आ गई तो वह सब संभाल लेगा.’

‘क्या आप मेरे साथ झांसी स्टेशन पर नहीं उतरेंगे?’ सुषमा ने शंकित नजरों से उन की ओर देखा.

‘नहीं, ऐसा करने पर छोटे महाराज को पूरा शक हो जाएगा कि मैं भी तुम्हारे साथ मिला हुआ हूं. वे दुष्ट ही नहीं चालाक भी हैं. वैसे तुम जातनी ही हो कि बूआ, छोटे महाराज की जासूस है. अगर कहीं उस ने हम दोनों को ट्रेन से उतरते देख लिया तो हंगामा खड़ा हो जाएगा. तुम घबराओ मत. चंदन आश्रम में रह रहा राजू तुम्हारा मुंहबोला भाई है…उस पर तो तुम्हें पूरा विश्वास है न?’

‘हांहां, क्यों नहीं. वह तो मुझ से बहुत स्नेह करता है.’

‘कल शाम मैं राजू से मिला था. मैं ने उसे पूरी योजना के बारे में विस्तार से समझा दिया है. तुम्हारी शादी की बात सुन कर वह बहुत प्रसन्न था. वह हर प्रकार से सहयोग करने को तैयार है. वह भी हमारे साथ उसी ट्रेन के किसी अन्य डब्बे में यात्रा करेगा.

‘झांसी स्टेशन पर तुम अकेली नहीं, राजू भी तुम्हारे साथ ट्रेन से उतर जाएगा. मैं तुम दोनों को कुछ धनराशि भी दे दूंगा. यात्रा के दौरान मोबाइल पर नवीन से मेरा लगातार संपर्क बना रहेगा. राजू 3-4 दिन तक तुम्हारे ससुराल में ही रहेगा, तब तक मैं भी किसी बहाने से उज्जैन से कानपुर पहुंच जाऊंगा. बस, अब सिर्फ 2 माह और इंतजार करना होगा. चलो, अब काफी फूल तोड़ लिए हैं. बस, एक होशियारी करना कि इस दौरान भूल कर भी बूआ अथवा छोटे महाराज को नाराज मत करना.’

फिर तो 2 माह मानो पंख लगा कर उड़ते नजर आने लगे. सुषमा अब हर समय बूआ और छोटे महाराज की सेवा में जुटी रहती, हमेशा उन दोनों की जीहुजूरी करती रहती. छोटे महाराज अब दिलोजान से सुषमा पर न्योछावर होते चले जा रहे थे. उस की छोटी से छोटी इच्छा भी फौरन पूरी की जाती.

निश्चित तिथि को जब 8-10 लोग उज्जैन जाने के लिए स्टेशन पर पहुंचे तो छोटे महाराज को तनिक भी भनक न लगी कि सुषमा और सोमनाथ के दिलोदिमाग में कौन सी खिचड़ी पक रही है.

आधी रात को लगभग साढ़े 12 बजे बीना जंक्शन पर सोमनाथ ने जब छोटे महाराज को सुषमा के गायब होने की सूचना दी तो उन्होंने उसे और बूआ को फटकारने के बाद अपने शिष्य दीपक से खिन्न स्वर में कहा, ‘‘यार, सुषमा तो बहुत चतुर निकली…हम तो समझ रहे थे कि चिडि़या खुदबखुद हमारे बिछाए जाल में फंसती चली जा रही है, लेकिन वह तो जाल काट कर ऊंची उड़ान भरती हुई किसी अदृश्य आकाश में खो गई.’’

‘‘लेकिन इस योजना में उस का कोई न कोई साथी तो अवश्य ही रहा होगा?’’ दीपक ने कुरेदा तो महाराज खिड़की से बाहर अंधेरे में देखते हुए बोले, ‘‘मुझे तो सोमनाथ और बूआ, दोनों पर ही शक हो रहा है. पर एक बार आश्रम की गद्दी मिलने दो, हसीनाओं की तो कतार लग जाएगी.’’

 

उज्जैन पहुंचने पर शाम के समय बाजार के चक्कर लगाते हुए सोमनाथ ने जब नवीन के मोबाइल का नंबर मिलाया तो उस ने बताया कि रात को वे लोग झांसी में अपनी बूआ के घर पर ही रुक गए थे और सुबह 5 बजे टैक्सी से कानपुर के लिए चल दिए. नवीन ने राजू और सुषमा से भी सोमनाथ की बात करवाई. सोमनाथ को अब धीरज बंधा.

निर्धारित योजना के अनुसार तीसरे दिन छोटे महाराज के पास सोमनाथ के बड़े बेटे का फोन आया कि कोर्ट में जमीन संबंधी केस में गवाही देने के लिए सोमनाथ का उपस्थित होना बहुत जरूरी है. अत: अगले दिन प्रात: ही सोमनाथ आश्रम से निकल पड़े, परंतु वे दिल्ली नहीं, बल्कि कानपुर की यात्रा के लिए स्टेशन से रवाना हुए.

कानपुर में नवीन के घर पहुंचने पर जब सोमनाथ ने चहकती हुई सुषमा को दुलहन के रूप में देखा तो बस देखते ही रह गए. फिर सुषमा की पीठ थपथपाते हुए हौले से मुसकराए और बोले, ‘‘मेरी बिटिया दुलहन के रूप में इतनी सुंदर दिखाई देगी, ऐसा तो कभी मैं ने सोचा भी न था. सदा सुखी रहो. बेटा नवीन, मेरी बेटी की झोली खुशियों से भर देना.’’

‘‘बाबा, आप निश्ंिचत रहें. यह मेरी बहू ही नहीं, बेटी भी है,’’ सुषमा की सास यानी नवीन की मां ने कहा.

‘‘बाबा, अब 5-6 माह तक मैं दिल्ली कार्यालय में ही ड्यूटी बजाऊंगा.’’

नवीन की बात सुनते ही सोमनाथ बहुत प्रसन्न हुए, ‘‘वाह, फिर तो हमारी बिटिया हमारी ही मेहमान बन कर रहेगी.’’

फिर वे राजू की तरफ देखते हुए बोले, ‘‘बेटे, अपनी बहन को मंजिल तक पहुंचाने में तुम ने जो सहयोग दिया, उसे मैं और सुषमा सदैव याद रखेंगे. चलो, अब कल ही अपनी आगे की यात्रा आरंभ करते हैं.’’

लेखक- अनिल मिश्रा

Famous Hindi Stories : आस्था का व्यापार

Famous Hindi Stories :  रमेश बाबू ने दफ्तर में घुसते ही सब को ताजा खबर यों सुनाई, ‘‘नरेंद्र को उस के बीवी-बच्चों ने घर से निकाल दिया.’’

‘‘3 दिन से दफ्तर भी नहीं आया,’’ राजेश ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘यह तो होना ही  था. गलत काम का परिणाम भी गलत ही होता है,’’ सुनील ने अपना ज्ञान प्रदर्शित किया.

‘‘आजकल नरेंद्र कहां रह रहा है?’’ सब ने एक स्वर में जिज्ञासा प्रकट की.

‘‘रहेगा कहां? सुनने में आया है कि वह आजकल एक ब्राह्मणी के चक्कर में था. उसी के यहां रह रहा है.  त्रिपाठी का पड़ोसी बता रहा था कि उसी विधवा ब्राह्मणी के कारण घर में झगड़ा हुआ.’’

‘‘यार, नरेंद्र ने तो हद ही कर दी, घर में जवान बेटेबहू होते हुए यह सब क्या अच्छा लगता है?’’ जितने मुंह उतनी बातें.

मैं अपनी फाइलों में सिर गड़ाए सब की बातें सुन रहा था. मुझे उन की बातों से जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ. मैं तो बहुत पहले से उस की करतूतों से परिचित था. शर्मा, ये लोग तो दफ्तर में बहुत बाद में आए. मैं ने और नरेंद्र ने बहुत लंबा समय साथसाथ बिताया है.

उन सब की बातें सुन कर मैं अतीत में खो गया.

तब मैं दफ्तर में नयानया आया था. कम उम्र, अनुभव शून्य. मैं बड़ा घबराया सा रहता था. काम में गलतियां होना आम बात थी. उस समय दफ्तर में 4-5 लोग ही थे. 3 बाबू, 1 बड़े बाबू तथा 1 चपरासी. तब नरेंद्र ने मुझे काम करना सिखाया. मुझ में आत्मविश्वास जगाया. तभी से मैं उन का सम्मान करने लगा.

कई बार वे मुझे अपने घर भी ले गए. बहुत ही साधारण रहनसहन था उन का. बिलकुल एक दफ्तर के बाबू की तरह. पूरे महीने काम करने पर जो तनख्वाह मिलती थी, वह सैकड़े में ही होती थी. आजकल की तरह उस समय वेतन हजारों में कहां मिलता था? खींचतान कर महीना पूरा होता था. उस समय दफ्तरों के बाबुओं की स्थिति बड़ी दयनीय थी. नरेंद्रजी का बड़ा परिवार था. सब बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाना तो दूर रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करना भी कठिन था. उन के 2 लड़के 10वीं पास कर के दुकानों में नौकरी करने लगे थे. जवान लड़की दहेज के अभाव के कारण घर में कुंआरी बैठी थी. उन्हीं दिनों नरेंद्रजी के रहनसहन में एक बदलाव दिखा. वे पैंटशर्ट के स्थान पर धोतीकुरता पहन कर दफ्तर आने लगे. माथे पर बड़ा सा चंदन का टीका लगाए रखते. पूछने पर कहने लगे, ‘हमारे घर के पास ही एक पुजारीजी का?घर है. वे वृद्ध हैं, अत: सुबह उठ कर उन की मदद कर देता हूं तो वे मुझे प्रेम से यह टीका लगा देते हैं. इस में मेरा भी लाभ है, उन का भी लाभ है.’ इतना बता कर वे मुसकराने लगे.

इस के बाद से ही धीरेधीरे उन के विषय में कई समाचार छनछन कर दफ्तर में आने लगे. वे अधिकतर अवकाश पर रहने लगे. कोई आ कर बताता कि नरेंद्रजी पुजारी के घर के मालिक बन गए हैं. कभी सुनने में आता कि बूढ़ा पुजारी लापता हो गया है. जितने मुंह उतनी बातें.

कई दिन बाद नरेंद्रजी दफ्तर आए. बड़े थकेथके से लग रहे थे. पूछने पर कहने लगे, ‘पुजारीजी बीमार हो गए. उन्हीं की सेवाटहल में लगा हुआ था. पिछले सप्ताह उन की मृत्यु हो गई. मृत्यु से पूर्व उन्होंने मंदिर की सारी जिम्मेदारी मेरे कंधों पर डाल दी.

‘अब तो जैसे भी होगा मुझे ही यह कार्य संभालना है. इसी कारण दफ्तर नहीं आ पाया. कुछ भी समझ में नहीं आ पा रहा है कि दफ्तर एवं मंदिर दोनों का काम कैसे संभाल पाऊंगा.’

‘सब संभल जाएगा आप परेशान न हो,’ मैं ने उन्हें सांत्वना दी. ऐसे ही कई माह बीत गए. एक दिन सुनील ने आ कर बताया, ‘यार, यह नरेंद्र बड़ा चमत्कारी निकला. मंदिर में तो रौनक लगी ही रहती है. मंदिर के आसपास ‘मंगल बाजार’ लगने लगा है. बाजार का सारा नियंत्रण नरेंद्र के हाथ में है. वे दुकानदारों से कमीशन वसूलते हैं. पैसा बरस रहा है.’

कोई समाचार लाता, ‘अरे, पुजारी अपनी मौत थोड़े ही मरा है. उसे तो नरेंद्र ने कागजों पर अंगूठा लगवा कर मार डाला.’

क्या सच है, क्या झूठ, कुछ समझ में नहीं आ रहा था. जितने मुंह उतनी बातें.

एक दिन रास्ते से पकड़ कर नरेंद्रजी मुझे मंदिर ले गए और पूरा मंदिर दिखाया. मंदिर परिसर में पुजारी का आवास देख कर मैं चकित रह गया. पांचसितारा होटलों वाली सभी सुविधाएं वहां मौजूद थीं. वहां का वैभव देख कर मुझे जरा भी संशय नहीं रहा कि दफ्तर के लोग झूठी अफवाएं फैला रहे हैं. ‘करोड़ों की संपत्ति क्या कभी सही रास्ते से प्राप्त होती है?’ मैं भी सोचने लगा.

सोने की मोटी चेन, सिल्क का कुरतापाजामा, पशमीना शाल और माथे पर लाल चंदन का तिलक. इसी वेशभूषा में अब नरेंद्रजी नजर आते थे. पत्नी भी सोने के भारीभारी गहने पहन कर सुबहशाम 108 दीपकों की आरती करती. साथ में प्रसाद का थाल लिए बच्चे, भक्तों की भीड़ को संभाल रहे होते. हनुमान की असीम कृपा चढ़ावे के रूप में नरेंद्रजी के आंगन में बरस रही थी.

उन के दोनों बेटों की पत्नियां संपन्न परिवारों से आई थीं. 8वीं पास पुत्री का विवाह बनारस के संपन्न कर्मकांडी ब्राह्मण के इंजीनियर लड़के से हो गया था. बड़ा सुखमय जीवन व्यतीत कर रहा था उन का परिवार.

एक दिन दफ्तर आ कर नरेंद्रजी कहने लगे, अंगरेजी में एक विज्ञापन का मसौदा बना दो. जैसा प्राय: दक्षिण भारत के मंदिरों का इधर के अखबारों में छपता है : भगवान के चरणों में दक्षिणा भेजिए, दुखों से मुक्ति पाइए. बदले में मनीआर्डर प्राप्त होने पर कष्टों से मुक्ति के लिए भगवान के श्रीचरणों का प्रसाद एवं भभूति पार्सल द्वारा भेजी जाएगी. इस प्रकार का विज्ञापन लिखने को उन्होंने मुझ से कहा. मैं ने उन के निर्देशानुसार विज्ञापन का प्रारूप तैयार कर के उन्हें दे दिया.

जल्द ही उन का विज्ञापन दक्षिण भारत के अखबारों में छपने लगा. परिणामस्वरूप 100, 200 एवं 500 रुपए के मनीआर्डर प्राप्त होने लगे. आशीर्वाद स्वरूप नरेंद्रजी बजरंगबली का लाल चोला, सिंदूर, भक्तों को प्रसाद भिजवाने लगे. पूरी रात बैठ कर परिवार के लोग प्रसाद के पैकेट बनाते. हजारों की संख्या में मनीआर्डर आ रहे थे, उसी अनुपात में प्रसाद भेजा जा रहा था. जैसी दक्षिणा वैसा प्रसाद.

वे प्राय: मुझ से कहते कि इनसान को धोखा देना कितना सरल है. दुनिया में दुखी इनसान भरे पड़े हैं. हर दुखी व्यक्ति बस, एक बार मेरे झांसे में आ जाए, इस से ज्यादा की आवश्यकता नहीं है मुझे.

कई वर्ष तक उन का यह धंधा निर्बाध चलता रहा. आखिर में उन्होंने जब मनीआर्डर के बदले प्रसाद भेजना बंद कर दिया तब यह सिलसिला स्वत: ही बंद हो गया. उस समय तक वे अंधभक्तों को काफी लूट चुके थे.

नरेंद्रजी की बातें कभीकभी मुझे वितृष्णा से भर देतीं. मैं सोचता, ‘धर्म की आड़ में यह कैसा खेल खेला जा रहा है? आस्था के नाम पर लूटखसोट का व्यापार सदियों से चला आ रहा है. पाखंडी पंडेपुजारी बड़ी सफाई से इस खेल को खेल रहे हैं. दुखों में डूबा इनसान शांति पाने के लिए अपना सब कुछ लुटाने को तैयार रहता है. इसी का फायदा नरेंद्रजी जैसे अवसरवादी ब्राह्मण उठा रहे हैं.

नरेंद्रजी का रिटायरमैंट करीब आ रहा था. वे आजकल बहुत कम दफ्तर आते. उन्होंने अपने और भी काम फैला लिए थे. जैसे उन्होंने ब्राह्मणों की एक टीम बना ली थी जो घरघर जा कर पाठहवन आदि करवाते थे. तेरहवीं एवं बरसी पर जो दक्षिणा मिलती थी उस का बड़ा हिस्सा कमीशन के रूप में त्रिपाठीजी को मिलता था.

एक दिन दफ्तर में आ कर उन्होंने बताया कि उन्होंने जन्मपत्री बनाने का काम भी शुरू कर दिया है. कोई बनवाना चाहे तो बताना.

‘आप न तो संस्कृत जानते हैं न ज्योतिषशास्त्र, तब आप जन्मपत्री कैसे बना लेते हैं?’ मैं ने उत्सुकता से पूछा.

‘मैं एक ज्योतिषी से कमीशन पर जन्मपत्रियां बनवाता हूं. एक जन्मपत्री का 100 रुपए मुझे मिलता है. 25 रुपए पंडित को दे देता हूं. 4-5 जन्मपत्रियां हर रोज बनने के लिए आ जाती हैं. पूजापाठ के अन्य काम भी मंदिर के द्वारा ही आते हैं जो मैं अन्य ब्राह्मणों में बांट देता हूं. मेरा भी फायदा, उन का भी फायदा. है न फायदा ही फायदा,’ वे मुसकराने लगे.

उन की बातों से मैं स्तब्ध रह गया. इधर दफ्तर के लोग उन के निर्वासन को ले कर चर्चा करने में व्यस्त थे. मैं वर्तमान में लौट आया.

‘‘जिस विधवा ब्राह्मणी के कारण नरेंद्रजी घर से निकाले गए उस किस्से का ज्ञान मुझे बहुत पहले से था. वह विधवा और कोई नहीं, उन के परम मित्र की पत्नी है. यह बात भी नरेंद्रजी ने बहुत पहले मुझे बताई थी.

रघुवर दयाल मिश्र नाम था उन का. वे बहुत ही संपन्न परिवार से थे. संतानहीनता का दुख उन्हें चैन से न बैठने देता था. संतान के लिए क्या कुछ नहीं किया उन्होंने. पूजापाठ, तीर्थ, दानव्रत सभी कुछ कर चुके थे. संतान नहीं होनी थी, सो नहीं हुई. इसी दुख के कारण उन्होंने चारपाई पकड़ ली. बीमारी शारीरिक से अधिक मानसिक थी. कोई भी दवा कारगर नहीं हुई. रोग असाध्य हो गया जो उन की जान ले कर गया. उस समय नरेंद्रजी को मित्र की विधवा से बहुत सहानुभूति हुई. उन्हें सांत्वना देने वे प्राय: उन के घर जाते. सांत्वना कब आकर्षण में बदल गई, यह दोनों को ही बहुत बाद में पता चला.

दोस्त की पत्नी उन पर इतना विश्वास करने लगी कि उस ने अपना आलीशान मकान एवं जमाजमाया व्यवसाय नरेंद्रजी के नाम कर दिया. लोगों का क्या है वे तो यह भी कहने से नहीं चूके कि प्यार की आड़ में नरेंद्र ने विधवा को लूट लिया.

लोगों की बात गलत भी नहीं थी क्योंकि आजकल वे ज्यादातर उसी के घर पर रहते थे. पत्नी एवं बच्चों को उन का आचरण नागवार लगता था. आएदिन घर में कलह होती थी. उसी कलह का परिणाम था कि नरेंद्रजी को घर से निकाला गया. दरअसल, कोई भी स्त्री पति के सौ अपराध माफ कर सकती है पर अपने प्रति की गई उस की बेवफाई नहीं सह सकती.

‘अब क्या होगा नरेंद्र का?’ यह प्रश्न दफ्तर में सभी की जबान पर था. मैं चूंकि उन के काफी करीब था इसलिए इस का आभास मुझे पहले से ही था. परिणति तो अब जा कर हुई है.

Best Hindi Story : विश्वासघात – क्यों लोग करते हैं बुढ़ापे में इमोशन के साथ खिलवाड़

Best Hindi Story :  ‘‘आंटी, आप पिक्चर चलेंगी?’’ अंदर आते हुए शेफाली ने पूछा.

‘‘पिक्चर…’’

‘‘हां आंटी, नावल्टी में ‘परिणीता’ लगी है.’’

‘‘न बेटा, तुम दोनों ही देख आओ. तुम दोनों के साथ मैं बूढ़ी कहां जाऊंगी,’’ कहते हुए अचानक नमिता की आंखों में वह दिन तिर आया जब विशाल के मना करने के बावजूद बहू ईशा और बेटे विभव को पिक्चर जाते देख वह भी उन के साथ पिक्चर जाने की जिद कर बैठी थीं.

उन की पेशकश सुन कर बहू तो कुछ नहीं बोली पर बेटा बोला, ‘मां, तुम कहां जाओगी, हमारे साथ मेरे एक दोस्त की फैमिली भी जा रही है…वहां से हम सब खाना खा कर लौटेंगे.’

विभव के मना करने पर वह तिलमिला उठी थीं पर विशाल के डर से कुछ कह नहीं पाईं क्योंकि उन्हें व्यर्थ की तकरार बिलकुल भी पसंद नहीं थी. बच्चों के जाने के बाद अपने मन का क्रोध विशाल पर उगला तो वह शांत स्वर में बोले, ‘नमिता, गलती तुम्हारी है, अब बच्चे बडे़ हो गए हैं, उन की अपनी जिंदगी है फिर तुम क्यों बेवजह छोटे बच्चों की तरह उन की जिंदगी में हमेशा दखलंदाजी करती रहती हो. तुम्हें पिक्चर देखनी ही है तो हम दोनों किसी और दिन जा कर देख आएंगे.’

विशाल की बात सुन कर वह चुप हो गई थीं…पर दोस्त के लिए बेटे द्वारा नकारे जाने का दंश बारबार चुभ कर उन्हें पीड़ा पहुंचा रहा था. फिर लगा कि विशाल सच ही कह रहे हैं…कल तक उंगली पकड़ कर चलने वाले बच्चे अब सचमुच बडे़ हो गए हैं और उस में बच्चों जैसी जिद पता नहीं क्यों आती जा रही है. उस की सास अकसर कहा करती थीं कि बच्चेबूढे़ एक समान होते हैं लेकिन तब वह इस उक्ति का मजाक बनाया करती थी पर अब वह स्वयं भी जानेअनजाने उन्हीं की तरह बरताव करने लगी है.

यह वही विभव था जिसे बचपन में अगर कुछ खरीदना होता या पिक्चर जाना होता तो खुद पापा से कहने के बजाय उन से सिफारिश करवाता था. सच, समय के साथ सब कितना बदलता जाता है…अब तो उसे उन का साथ भी अच्छा नहीं लगता है क्योंकि अब वह उस की नजरों में ओल्ड फैशन हो गई हैं, जिसे आज के जमाने के तौरतरीके नहीं आते, जबकि वह अपने समय में पार्टियों की जान हुआ करती थीं. लोग उन की जिंदादिली के कायल थे.

‘‘आंटी किस सोच में डूब गईं… प्लीज, चलिए न, ‘परिणीता’ शरतचंद्र के उपन्यास पर आधारित अच्छी मूवी है…आप को अवश्य पसंद आएगी,’’ आग्रह करते हुए शेफाली ने कहा.

शेफाली की आवाज सुन कर नमिता अतीत से वर्तमान में लौट आईं. शरतचंद्र उन के प्रिय लेखक थे. उन्होंने अशोक कुमार और मीना कुमारी की पुरानी ‘परिणीता’ भी देखी थी, उपन्यास भी पढ़ा था फिर भी शेफाली के आग्रह पर पुन: उस पिक्चर को देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाईं तथा उस का आग्रह स्वीकार कर लिया. उन की सहमति पा कर शेफाली उन्हें तैयार होने का निर्देश देती हुई स्वयं भी तैयार होने चली गई.

विशाल अपने एक नजदीकी मित्र के बेटे के विवाह में गए थे. जाना तो वह भी चाहती थी पर उसी समय यहां पर उन की सहेली की बेटी का विवाह पड़ गया अत: विशाल ने कहा कि मैं वहां हो कर आता हूं, तुम यहां सम्मिलित हो जाओ. कम से कम किसी को शिकायत का मौका तो न मिले. वैसे भी उन्होंने हमारे सभी बच्चों के विवाह में आ कर हमारा मान बढ़ाया था, इसीलिए दोनों जगह जाना जरूरी था.

विशाल के न होने के कारण वह अकेली बोर होतीं या व्यर्थ के धारावाहिकों में दिमाग खपातीं, पर अब इस उम्र में समय काटने के लिए इनसान करे भी तो क्या करे…न चाहते हुए टेलीविजन देखना एक मजबूरी सी बन गई है या कहिए मनोरंजन का एक सस्ता और सुलभ साधन यही रह गया है. ऐसी मनोस्थिति में जी रही नमिता के लिए शेफाली का आग्रह सुकून दे गया तथा थोडे़ इनकार के बाद स्वीकर कर ही लिया.

वैसे भी उन की जिंदगी ठहर सी गई थी. 4 बच्चों के रहते वे एकाकी जिंदगी जी रहे हैं…एक बेटा शैलेष और बेटी निशा विदेश में हैं तथा 2 बच्चे विभव और कविता यहां मुंबई और दिल्ली में हैं. 2 बार वे विदेश जा कर शैलेष और निशा के पास रह भी आए थे लेकिन वहां की भागदौड़ वाली जिंदगी उन्हें रास नहीं आई थी. विदेश की बात तो छोडि़ए, अब तो मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों का भी यही हाल है. वहां भी पूरे दिन अकेले रहना पड़ता था. आजकल तो जब तक पतिपत्नी दोनों न कमाएं तब तक किसी का काम ही नहीं चलता…भले ही बच्चों को आया के भरोसे या क्रेच में छोड़ना पडे़.

एक उन का समय था जब बच्चों के लिए मांबाप अपना पूरा जीवन ही अर्पित कर देते थे…पर आजकल तो युवाओं के लिए अपना कैरियर ही मुख्य है…मातापिता की बात तो छोडि़ए कभीकभी तो उन्हें लगता है आज की पीढ़ी को अपने बच्चों की परवा भी नहीं है…पैसों से वे उन्हें सारी दुनिया खरीद कर तो देना चाहते हैं पर उन के पास बैठ कर, प्यार के दो मीठे बोल के लिए समय नहीं है.

बच्चों के पास मन नहीं लगा तो वे लौट कर अपने घर चले आए. विशाल ने इस घर को बनवाने के लिए जब लोन लिया था तब नमिता ने यह कह कर विरोध किया था कि क्यों पैसा बरबाद कर रहे हो, बुढ़ापे में अकेले थोडे़ ही रहेंगे, 4 बच्चे हैं, वे भी हमें अकेले थोडे़ ही रहने देंगे पर पिछले 4 साल इधरउधर भटक कर आखिर उन्होंने अकेले रहने का फैसला कर ही लिया. कभी बेमन से बनवाया गया घर अचानक बहुत अच्छा लगने लगा था.

अकेलेपन की विभीषिका से बचने के लिए अभी 3 महीने पहले ही उन्होंने घर का एक हिस्सा किराए पर दे दिया था…शशांक और शेफाली अच्छे सुसंस्कृत लगे, उन का एक छोटा बच्चा था…इस शहर में नएनए आये थे, शशांक एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था. उन्हें घर की जरूरत थी और विशाल और नमिता को अच्छे पड़ोसी की, अत: रख लिया.

अभी उन्हें आए हुए हफ्ता भर भी नहीं हुआ था कि एक दिन शेफाली आ कर उन से कहने लगी कि ‘आंटी, अगर आप को कोई तकलीफ न हो तो बब्बू को आप के पास छोड़ जाऊं, कुछ जरूरी काम से जाना है, जल्दी ही आ जाएंगे.’

उस का आग्रह देख कर पता नहीं क्यों वह मना नहीं कर पाईं…उस बच्चे के साथ 2 घंटे कैसे बीत गए पता ही नहीं चला. इस बीच न तो वह रोया न ही उस ने विशेष परेशान किया. नमिता ने उस के सामने अपने पोते के छोडे़ हुए खिलौने डाल दिए थे, उन से ही बस खेलता रहा. उस के साथ खेलते और बातें करते हुए उन्हेें अपने पोते विक्की की याद आ गई. वह भी लगभग इसी उम्र का था…उस बच्चे में वह अपने पोते को ढूंढ़ने लगीं.

उस दिन के बाद तो नित्य का क्रम बन गया, जिस दिन वह नहीं आता, नमिता आवाज दे कर उसे बुला लेतीं…बच्चा उन्हें दादी कहता तो उन का मन भावविभोर हो उठता था.

धीरेधीरे शेफाली भी उन के साथ सहज होने लगी थी. कभी कोई अच्छी सब्जी बनाती तो आग्रहपूर्वक दे जाती. उन्हें अपने पैरों में दवा या तेल मलते देखती तो खुद लगा देती, कभीकभी उन के सिर की मालिश भी कर दिया करती थी…कभीकभी तो उन्हें लगता, इतना स्नेह तो उन्हें अपने बहूबेटों से भी नहीं मिला, कभी वे उन के नजदीक आए भी तो सिर्फ इतना जानने के लिए कि उन के पास कितना पैसा है तथा कितना उन्हें हिस्सा मिलेगा.

शशांक भी आफिस जाते समय उन का हालचाल पूछ कर जाता…बिजली, पानी और टेलीफोन का बिल वही जमा करा दिया करता था. यहां तक कि बाजार जाते हुए भी अकसर उन से पूछने आता कि उन्हें कुछ मंगाना तो नहीं है.

उन के रहने से उन की काफी समस्याएं हल हो गई थीं. कभीकभी नमिता को लगता कि अपने बच्चों का सुख तो उन्हें मिला नहीं चलो, दूसरे की औलाद जो सुख दे रही है उसी से झोली भर लो.

विशाल ने उन्हें कई बार चेताया कि किसी पर इतना विश्वास करना ठीक नहीं है पर वह उन को यह कह कर चुप करा देतीं कि आदमी की पहचान उसे भी है. ये संभ्रांत और सुशील हैं. अच्छे परिवार से हैं, अच्छे संस्कार मिले हैं वरना आज के समय में कोई किसी का इतना ध्यान नहीं रखता.

‘‘आंटीजी, आप तैयार हो गईं…ये आटो ले आए हैं,’’ शेफाली की आवाज आई.

शेफाली की आवाज ने नमिता को एक बार फिर विचारों के बवंडर से बाहर निकाला.

‘‘हां, बेटी, बस अभी आई,’’ कहते हुए पर्स में कुछ रुपए यह सोच कर रखे कि मैं बड़ी हूं, आखिर मेरे होते हुए पिक्चर के पैसे वे दें, उचित नहीं लगेगा.

जबरदस्ती पिक्चर के पैसे उन्हें पकड़ाए. पिक्चर अच्छी लग रही थी…कहानी के पात्रों में वह इतना डूब गईं कि समय का पता ही नहीं चला. इंटरवल होने पर उन की ध्यानावस्था भंग हुई. शशांक उठ कर बाहर गया तथा थोड़ी ही देर में पापकार्न तथा कोक ले कर आ गया, शेफाली और उसे पकड़ाते हुए यह कह कर चला गया कि कुछ पैसे बाकी हैं, ले कर आता हूं.

पिक्चर शुरू भी नहीं हो पाई थी कि बच्चा रोने लगा.

‘‘आंटी, मैं अभी आती हूं,’’ कह कर शेफाली भी चली गई…आधा घंटा हुआ, 1 घंटा हुआ पर दोनों में से किसी को भी न लौटते देख कर मन आशंकित होने लगा. थोड़ीथोड़ी देर बाद मुड़ कर देखतीं पर फिर यह सोच कर रह जातीं कि शायद बच्चा चुप न हो रहा हो, इसलिए वे दोनों बाहर ही होंगे.

यही सोच कर नमिता ने पिक्चर में मन लगाने का प्रयत्न किया…अनचाहे विचारों को झटक कर वह फिर पात्रों में खो गईं….अंत सुखद था पर फिर भी आंखें भर आईं….आंखें पोंछ कर इधरउधर देखने लगीं….इस समय भी शशांक और शेफाली को न पा कर वह सहम उठीं.

बहुत दिनों से नमिता अकेले घर से निकली नहीं थीं अत: और भी डर लग रहा था. समझ में नहीं आ रहा था कि वे उन्हें अकेली छोड़ कर कहां गायब हो गए, बच्चा चुप नहीं हो रहा था तो कम से कम एक को तो अब तक उस के पास आ जाना चाहिए…धीरेधीरे हाल खाली होने लगा पर उन दोनों का कोई पता नहीं था.

घबराए मन से वह अकेली ही चल पड़ीं. हाल से बाहर आ कर अपरिचित चेहरों में उन्हें ढूंढ़ने लगीं. धीरेधीरे सब जाने लगे. वह एक ओर खड़ी हो कर सोचने लगीं, अब क्या करूं, उन का इंतजार करूं या आटो कर के चली जाऊं.

‘‘अम्मां, यहां किस का इंतजार कर रही हो?’’ उन को अकेली खड़ी देख कर वाचमैन ने उन से पूछा.

‘‘बेटा, जिन के साथ आई थी, वह नहीं मिल रहे हैं.’’

‘‘आप के बेटाबहू थे?’’

‘‘हां,’’ कुछ और कह कर वह बात का बतंगड़ नहीं बनाना चाहती थीं.

‘‘आजकल सब ऐसे ही होते हैं, बूढे़ मातापिता की तो किसी को चिंता ही नहीं रहती,’’ वह बुदबुदा उठा था.

वह शर्म से पानीपानी हो रही थीं पर और कोई चारा न देख कर तथा उस की सहानुभूति पा कर हिम्मत बटोर कर बोलीं, ‘‘बेटा, एक एहसान करोगे?’’

‘‘कहिए, मांजी.’’

‘‘मुझे एक आटोरिकशा में बिठा दो.’’

उस ने नमिता का हाथ पकड़ कर सड़क पार करवाई और आटो में बिठा दिया. घर पहुंच कर आटो से उतर कर जैसे ही उन्होंने दरवाजे पर लगे ताले को खोलने के लिए हाथ बढ़ाया तो खुला ताला देख कर हैरानी हुई…हड़बड़ा कर अंदर घुसीं तो देखा अलमारी खुली पड़ी है तथा सारा सामान जहांतहां बिखरा पड़ा है. लाखों के गहने और कैश गायब था…मन कर रहा था कि खूब जोरजोर से रोएं पर रो कर भी क्या करतीं.

नमिता को शुरू से ही गहनों का शौक था. जब भी पैसा बचता उस से वह गहने खरीद लातीं…विशाल कभी उन के इस शौक पर हंसते तो कहतीं, ‘मैं पैसा व्यर्थ नहीं गंवा रही हूं…कुछ ठोस चीज ही खरीद रही हूं, वक्त पर काम आएगा,’ पर वक्त पर काम आने के बजाय वह तो कोई और ही ले भागा.’

किटी के मिले 20 हजार रुपए उस ने अलग से रख रखे थे. घर में कुछ काम करवाया था, कुछ होना बाकी था, उस के लिए विशाल ने 40 हजार रुपए बैंक से निकलवाए थे पर निश्चित तिथि पर लेने ठेकेदार नहीं आया सो वह पैसे भी अंदर की अलमारी में रख छोडे़ थे…सब एक झटके में चला गया.

जहां कुछ देर पहले तक वह शशांक और शेफाली को ले कर परेशान थीं वहीं अब इस नई मुसीबत के कारण समझ नहीं पा रही थीं कि क्या करें, पर फिर यह सोच कर कि शायद बच्चे के कारण शशांक और शेफाली अधूरी पिक्चर छोड़ कर घर न आ गए हों, उन्हें आवाज लगाई. कोई आवाज न पा कर  वह उस ओर गईं, वहां उन का कोई सामान न पा कर अचकचा गईं…खाली घर पड़ा था…उन का दिया पलंग, एक टेबल और 2 कुरसियां पड़ी थीं.

अब पूरी तसवीर एकदम साफ नजर आ रही थी. कितना शातिर ठग था वह…किसी को शक न हो इसलिए इतनी सफाई से पूरी योजना बनाई…उसे पिक्चर दिखाने ले जाना भी उसी योजना का हिस्सा था, उसे पता था कि विशाल घर पर नहीं हैं, इतनी गरमी में कूलर की आवाज में आसपड़ोस में किसी को कुछ सुनाई नहीं देगा और वह आराम से अपना काम कर लेंगे तथा भागने के लिए भी समय मिल जाएगा.

पिक्चर देखने का आग्रह करना, बीच में उठ कर चले आना…सबकुछ नमिता के सामने चलचित्र की भांति घूम रहा था…कहीं कोई चूक नहीं, शर्मिंदगी या डर नहीं…आश्चर्य तो इस बात का था कि इतने दिन साथ रहने के बावजूद उसे कभी उन पर शक नहीं हुआ.

उन्होंने खुद को संयत कर विशाल को फोन किया और फोन पर बतातेबताते वह रोने लगी थीं. उन्हें रोता देख कर विशाल ने सांत्वना देते हुए पड़ोसी वर्मा के घर जा कर सहायता मांगने को कहा.

वह बदहवास सी बगल में रहने वाली राधा वर्मा के पास गईं. राधा को सारी स्थिति से अवगत कराया तो वह बोलीं, ‘‘कुछ आवाजें तो आ रही थीं पर मुझे लगा शायद आप के घर में कुछ काम हो रहा है, इसलिए ध्यान नहीं दिया.’’

‘‘अब जो हो गया सो हो गया,’’ वर्मा साहब बोले, ‘‘परेशान होने या चिंता करने से कोई फायदा नहीं है. वैसे तो चोरी गया सामान मिलता नहीं है पर कोशिश करने में कोई हर्ज नहीं है. चलिए, एफ.आई.आर. दर्ज करा देते हैं.’’

पुलिस इंस्पेक्टर उन के बयान को सुन कर बोला, ‘‘उस युगल की तलाश तो हमें काफी दिनों से है, कुछ दिन पहले हम ने अखबार में भी निकलवाया था तथा लोगों से सावधान रहने के लिए कहा था पर शायद आप ने इस खबर की ओर ध्यान नहीं दिया…यह युगल कई जगह ऐसी वारदातें कर चुका है…पर किसी का भी बताया हुलिया किसी से मैच नहीं करता. शायद वह विभिन्न जगहों पर, विभिन्न नाम का व्यक्ति बन कर रहता है. क्या आप उस का हुलिया बता सकेंगी…कब से वह आप के साथ रह रहा था?’’

जोजो उन्हें पता था उन्होंने सारी जानकारी दे दी…जिस आफिस में वह काम करता था वहां पता लगाया तो पता चला कि इस नाम का कोई आदमी उन के यहां काम ही नहीं करता…उन की बताई जानकारी के आधार पर बस अड्डे और रेलवे स्टेशन पर भी उन्होंने अपने आदमी भेज दिए. पुलिस ने घर आ कर जांच की पर कहीं कोई सुराग नहीं था…यहां तक कि कहीं उन की उंगलियों के निशान भी नहीं पाए गए.

‘‘लगता है शातिर चोर था,’’ इंस्पेक्टर बोला, ‘‘हम लोग कई बार आप जैसे नागरिकों से निवेदन करते हैं कि नौकर और किराएदार रखते समय पूरी सावधानी बरतें, उस के बारे में पूरी जानकारी रखें, मसलन, वह कहां काम करता है, उस का स्थायी पता, फोटोग्राफ आदि…पर आप लोग तो समझते ही नहीं हैं,’’ इंस्पेक्टर थोड़ा रुका फिर बोला, ‘‘वह आप का किराएदार था, इस का कोई प्रमाण है आप के पास?’’

‘‘किराएदार…इस का तो हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है. आयकर की पेचीदगी से बचने के लिए कोई सेटलमेंट ही नहीं किया था…सच, थोड़ी सी परेशानी से बचने के लिए हम ने स्वयं को अपराधियों के हवाले कर दिया…हां, शुरू में कुछ एडवांस देने के लिए अवश्य कहा था पर जब उन्होंने असमर्थता जताई तो उन की मजबूरी को देख कर मन पिघल गया था. दरअसल, हमें पैसों से अधिक जरूरत सिर्फ अपना सूनापन बांटने या घर की रखवाली के लिए अच्छे व्यक्ति की थी और उन की बातों में कसक टपक रही थी, बच्चों वाला युगल था, सो संदेह की कोई बात ही नजर नहीं आई थी.’’

‘‘यही तो गलती करते हैं आप लोग…कुछ एग्रीमेंट करवाएंगे…तो उस में सबकुछ दर्ज हो जाएगा. अब किसी के चेहरे पर तो लिखा नहीं रहता कि वह शरीफ है या बदमाश…वह तो गनीमत है कि आप सहीसलामत हैं वरना ऐसे लोग अपने मकसद में कामयाब होने के लिए किसी का खून भी करना पडे़ तो पीछे नहीं रहते,’’ उन्हें चुप देख कर इंस्पेक्टर बोला.

दूसरे दिन विशाल भी आ गए…सुमिता को रोते देख कर विशाल बोले, ‘‘जब मैं कहता था कि किसी पर ज्यादा भरोसा नहीं करना चाहिए तब तुम मानती नहीं थीं, उन्हीं के सामने अलमारी खोल कर रुपए निकालना, रखना सब तुम ही तो करती थीं.’’

‘‘मुझे ही क्यों दोष दे रहे हो, आप भी तो बैंक से पैसा निकलवाने के लिए चेक उसी को देते थे,’’ झुंझला कर नमिता ने उत्तर दिया था.

उस घटना को कई दिन बीत गए थे पर उन शातिर चोरों का कोई सुराग नहीं मिला…नमिता कभी सोचतीं तो उन्हें एकाएक विश्वास ही नहीं होता कि वह इतने दिनों तक झूठे और मक्कार लोगों के साथ रह रही थीं…वे ठग थे तभी तो पिछले 2 महीने का किराया यह कह कर नहीं दिया था कि आफिस में कुछ समस्या चल रही है अत: वेतन नहीं मिल रहा है. नमिता ने भी यह सोच कर कुछ नहीं कहा कि लोग अच्छे हैं, पैसा कहां जाएगा. वास्तव में उन का स्वभाव देख कर कभी लगा ही नहीं कि इन का इरादा नेक नहीं है.

इतने सौम्य चेहरों का इतना घिनौना रूप भी हो सकता है, उन्होंने कभी सोचा भी न था. मुंह में राम बगल में छुरी वाला मुहावरा शायद ऐसे लोगों की फितरत देख कर ही किसी ने कहा होगा. आश्चर्य तो इस बात का था कि इतने दिन साथ रहने के बावजूद उन्हें कभी उन पर शक नहीं हुआ.

उन्होंने अखबारों और टेलीविजन में वृद्धों के लुटने और मारे जाने की घटनाएं पढ़ी और सुनी थीं पर उन के साथ भी कभी कुछ ऐसा ही घटित होगा, सोचा भी न था. अपनी आकांक्षा की पूर्ति के लिए किसी हद तक गिर चुके ऐसे लोगों के लिए यह मात्र खेल हो पर किसी की भावनाओं

को कुचलते, तोड़तेमरोड़ते, उन की संवेदनशीलता और सदाशयता का फायदा उठा कर, उन जैसों के वजूद को मिटाते लोगों को जरा भी लज्जा नहीं आती… आखिर हम वृद्ध जाएं तो कहां जाएं? क्या किसी के साथ संबंध बनाना या उस की सहायता करना अनुचित है?

किसी की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते ऐसे लोग यह क्यों नहीं सोचते कि एक दिन बुढ़ापा उन को भी आएगा…वैसे भी उन का यह खेल आखिर चलेगा कब तक? क्या झूठ और मक्कारी से एकत्र की गई दौलत के बल पर वह सुकून से जी पाएंगे…क्या संस्कार दे पाएंगे अपने बच्चों को?

मन में चलता बवंडर नमिता को चैन से रहने नहीं दे रहा था. बारबार एक ही प्रश्न उन के दिल व दिमाग को मथ रहा था…इनसान आखिर भरोसा करे भी तो किस पर..

Hindi Kahaniyan : कलंक

Hindi Kahaniyan : अपनी बेटी गंगा की लाश के पास रधिया पत्थर सी बुत बनी बैठी थी. लोग आते, बैठते और चले जाते. कोई दिलासा दे रहा था तो कोई उलाहना दे रहा था कि पहले ही उस के चालचलन पर नजर रखी होती तो यह दिन तो न देखना पड़ता.

लोगों के यहां झाड़ूबरतन करने वाली रधिया चाहती थी कि गंगा पढ़ेलिखे ताकि उसे अपनी मां की तरह नरक सी जिंदगी न जीनी पड़े, इसीलिए पास के सरकारी स्कूल में उस का दाखिला करवाया था, पर एक दिन भी स्कूल न गई गंगा. मजबूरन उसे अपने साथ ही काम पर ले जाती. सारा दिन नशे में चूर रहने वाले शराबी पति गंगू के सहारे कैसे छोड़ देती नन्ही सी जान को?

गंगू सारा दिन नशे में चूर रहता, फिर शाम को रधिया से पैसे छीन कर ठेके पर जाता, वापस आ कर मारपीट करता और नन्ही गंगा के सामने ही रधिया को अपनी वासना का शिकार बनाता.

यही सब देखदेख कर गंगा बड़ी हो रही थी. अब उसे अपनी मां के साथ काम पर जाना अच्छा नहीं लगता था. बस, गलियों में इधरउधर घूमनाफिरना… काजलबिंदी लगा कर मतवाली चाल चलती गंगा को जब लड़के छेड़ते, तो उसे बहुत मजा आता.

रधिया लाख कहती, ‘अब तू बड़ी हो गई है… मेरे साथ काम पर चलेगी तो मुझे भी थोड़ा सहारा हो जाएगा.’

गंगा तुनक कर कहती, ‘मां, मुझे सारी जिंदगी यही सब करना है. थोड़े दिन तो मुझे मजे करने दे.’

‘अरी कलमुंही, मजे के चक्कर में कहीं मुंह काला मत करवा आना.

मुझे तो तेरे रंगढंग ठीक नहीं लगते.

यह क्या… अभी से बनसंवर कर घूमतीफिरती रहती है?

इस पर गंगा बड़े लाड़ से रधिया के गले में बांहें डाल कर कहती, ‘मां, मेरी सब सहेलियां तो ऐसे ही सजधज कर घूमतीफिरती हैं, फिर मैं ने थोड़ी काजलबिंदी लगा ली, तो कौन सा गुनाह कर दिया? तू चिंता न कर मां, मैं ऐसा कुछ न करूंगी.’

पर सच तो यही था कि गंगा भटक रही थी. एक दिन गली के मोड़ पर अचानक पड़ोस में ही रहने वाले

2 बच्चों के बाप नंदू से टकराई, तो उस के तनबदन में सिहरन सी दौड़ गई. इस के बाद तो वह जानबूझ कर उसी रास्ते से गुजरती और नंदू से टकराने की पूरी कोशिश करती.

नंदू भी उस की नजरों के तीर से खुद को न बचा सका और यह भूल बैठा कि उस की पत्नी और बच्चे भी हैं. अब तो दोनों छिपछिप कर मिलते और उन्होंने सारी सीमाएं तोड़ दी थीं.

पर इश्क और मुश्क कब छिपाए छिपते हैं. एक दिन नंदू की पत्नी जमना के कानों तक यह बात पहुंच ही गई, तो उस ने रधिया की खोली के सामने खड़े हो कर गंगा को खूब खरीखोटी सुनाई, ‘अरी गंगा, बाहर निकल. अरी कलमुंही, तू ने मेरी गृहस्थी क्यों उजाड़ी? इतनी ही आग लगी थी, तो चकला खोल कर बैठ जाती. जरा मेरे बच्चों के बारे में तो सोचा होता. नाम गंगा और काम देखो करमजली के…’

3 दिन के बाद गंगा और नंदू बदनामी के डर से कहीं भाग गए. रोतीपीटती जमना रोज गंगा को कोसती और बद्दुआएं देती रहती. तकरीबन

2 महीने तक तो नंदू और गंगा इधरउधर भटकते रहे, फिर एक दिन मंदिर में दोनों ने फेरे ले लिए और नंदू ने जमना से कह दिया कि अब गंगा भी उस की पत्नी है और अगर उसे पति का साथ चाहिए, तो उसे गंगा को अपनी सौतन के रूप में अपनाना ही होगा.

मरती क्या न करती जमना, उसे गंगा को अपनाना ही पड़ा. पर आखिर तो जमना उस के बच्चों की मां थी और उस के साथ उस ने शादी की थी, इसलिए नंदू पर पहला हक तो उसी का था.

शादी के 3 साल बाद भी गंगा मां नहीं बन सकी, क्योंकि नंदू की पहले ही नसबंदी हो चुकी थी. यह बात पता चलते ही गंगा खूब रोई और खूब झगड़ा भी किया, ‘क्यों रे नंदू, जब तू ने पहले ही नसबंदी करवा रखी थी तो मेरी जिंदगी क्यों बरबाद की?’

नंदू के कुछ कहने से पहले ही जमना बोल पड़ी, ‘आग तो तेरे ही तनबदन में लगी थी. अरी, जिसे खुद ही बरबाद होने का शौक हो उसे कौन बचा सकता है?’

उस दिन के बाद गंगा बौखलाई सी रहती. बारबार नंदू से जमना को छोड़ देने के लिए कहती, ‘नंदू, चल न हम कहीं और चलते हैं. जमना को छोड़ दे. हम दूसरी खोली ले लेंगे.’

इस पर नंदू उसे झिड़क देता, ‘और खोली के पैसे क्या तेरा शराबी बाप देगा? और फिर जमना मेरी पत्नी है. मेरे बच्चों की मां है. मैं उसे नहीं छोड़ सकता.’

इस पर गंगा दांत पीसते हुए कहती, ‘उसे नहीं छोड़ सकता तो मुझे छोड़ दे.’

इस पर गंगू कोई जवाब नहीं देता. आखिर उसे 2-2 औरतों का साथ जो मिल रहा था. यह सुख वह कैसे छोड़ देता. पर गंगा रोज इस बात को ले कर नंदू से झगड़ा करती और मार खाती. जमना के सामने उसे अपना ओहदा बिलकुल अदना सा लगता. आखिर क्या लगती है वह नंदू की… सिर्फ एक रखैल.

जब वह खोली से बाहर निकलती तो लोग ताने मारते और खोली के अंदर जमना की जलती निगाहों का सामना करती. जमना ने बच्चों को भी सिखा रखा था, इसलिए वे भी गंगा की इज्जत नहीं करते थे. बस्ती के सारे मर्द उसे गंदी नजर से देखते थे.

मांबाप ने भी उस से सभी संबंध खत्म कर दिए थे. ऐसे में गंगा का जीना दूभर हो गया और आखिर एक दिन उस ने रेल के आगे छलांग लगा दी और रधिया की बेटी गंगा मैली होने का कलंक लिए दुनिया से चली गई.

Online Hindi Story : 8 नवंबर की शाम – आखिर उस शाम कैसे बदल गए मुग्धा की जिंदगी के माने

Online Hindi Story : आज 8 नवंबर, 2017 है. मुग्धा औफिस नहीं गई. मन नहीं हुआ. बस, यों ही. अपने फ्लैट की बालकनी से बाहर देखते हुए एक जनसैलाब सा दिखता है मुग्धा को. पर उस के मन में तो एक स्थायी सा अकेलापन बस गया है जिसे मुंबई की दिनभर की चहलपहल, रोशनीभरी रातें भी खत्म नहीं कर पातीं. कहने के लिए तो मुंबई रोमांच, ग्लैमर, फैशन, हमेशा शान वाली जगह समझी जाती है पर मुग्धा को यहां बहुत अकेलापन महसूस होता है.

जनवरी में मुग्धा लखनऊ से यहां मुंबई नई नौकरी पर आई थी. यह वन बैडरूम फ्लैट उसे औफिस की तरफ से ही मिला है. आने के समय वह इस नई दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए, जीवन फिर से जीने के लिए जितनी उत्साहित थी, अब उतनी ही स्वयं को अकेला महसूस करने लगी है. बिल्ंिडग में किसी को किसी से लेनादेना है नहीं. अपने फ्लोर पर बाकी 3 फ्लैट्स के निवासी उसे लिफ्ट में ही आतेजाते दिखते हैं. किसी ने कभी पूछा ही नहीं कि नई हो? अकेली हो? कोई जरूरत तो नहीं? मुग्धा ने फिर स्वयं को अलमारी पर बने शीशे में देखा.

वह 40 साल की है, पर लगती नहीं है, वह यह जानती है. वह सुंदर, स्मार्ट, उच्च पद पर आसीन है. पिछली 8 नवंबर का सच सामने आने पर, सबकुछ भूलने के लिए उस ने यह जौब जौइन किया है. मुग्धा को लगा, उसे आज औफिस चले ही जाना चाहिए था. क्या करेगी पूरा दिन घर पर रह कर, औफिस में काम में सब भूली रहती, अच्छा होता.

वह फिर बालकनी में रखी चेयर पर आ कर बैठ गई. राधा बाई सुबह आती थी, खाना भी बना कर रख जाती थी. आज उस का मन नहीं हुआ है कुछ खाने का, सब ज्यों का त्यों रखा है. थकीथकी सी आंखों को बंद कर के उसे राहत तो मिली पर बंद आंखों में बीते 15 साल किसी फिल्म की तरह घूम गए.

सरकारी अधिकारी संजय से विवाह कर, बेटे शाश्वत की मां बन वह अपने सुखी, वैवाहिक जीवन का पूर्णरूप से आनंद उठा रही थी. वह खुद भी लखनऊ में अच्छे जौब पर थी. सबकुछ अच्छा चल रहा था. पर पिछले साल की नोटबंदी की घोषणा ने उस के घरौंदे को तहसनहस कर दिया था.

नोटबंदी की घोषणा होते ही उस के सामने कितने कड़वे सच के परदे उठते चले गए थे. उसे याद है, 8 नवंबर, 2016 की शाम वह संजय और शाश्वत के साथ डिनर कर रही थी. टीवी चल रहा था. नोटबंदी की खबर से संजय के चेहरे का रंग उड़ गया था. शाश्वत देहरादून में बोर्डिंग में रहता था. 2 दिनों पहले ही वह घर आया था. खबर चौंकाने वाली थी.

आर्थिकरूप से घर की स्थिति खासी मजबूत थी, पर संजय की बेचैनी मुग्धा को बहुत खटकी थी. संजय ने जल्दी से कार की चाबी उठाई थी, कहा था, ‘कुछ काम है, अभी आ रहा हूं.’

‘तुम्हें क्या हुआ, इतने परेशान क्यों हो?’

‘बस, कुछ काम है.’

मुग्धा को सारी सचाई बाद में पता  चली थी. संजय के सलोनी नाम की युवती से अवैध संबंध थे. सलोनी के रहने, बाकी खर्चों का प्रबंध संजय ही करता था. संजय के पास काफी कालाधन था जो उस ने सलोनी के फ्लैट में ही छिपाया हुआ था. उस ने ईमानदार, सिद्धांतप्रिय मुग्धा को कभी अपने इस कालेधन की जानकारी नहीं दी थी. वह जानता था कि मुग्धा यह बरदाश्त नहीं करेगी.

उस दिन संजय सीधे सलोनी के पास पहुंचा था. सलोनी को उस पैसे को खर्च करने के लिए मना किया था. सलोनी सिर्फ दौलत, ऐशोआराम के लिए संजय से चिपकी हुई थी. संजय का पैसा वह अपने घर भी भेजती रहती थी. संजय कालेधन को ठिकाने लगाने में व्यस्त हो गया.

सलोनी को अपने भविष्य की चिंता सताने लगी थी. उस ने संजय से छिपा कर 2-3 एजेंट्स से बात भी कर ली थी जो कमीशन ले कर रुपए जमा करवाने और बदलवाने के लिए तैयार हो गए थे. उन में से एक सीबीआई का एजेंट था. सलोनी की मूर्खता से संजय और सलोनी को गिरफ्तार कर लिया गया था.

दोनों का प्रेमसंबंध मुगधा के सामने आ चुका था. इस पूरी घटना से मुग्धा शारीरिक और मानसिक रूप से इतनी आहत हुई थी कि वह सब से रिश्ता तोड़ कर यहां मुंबई में नई नौकरी ढूंढ़ कर शिफ्ट हो गई थी. उस के मातापिता थे नहीं, भाईभाभी और सासससुर ने जब पतिपत्नी संबंधों और पत्नीधर्म पर उपदेश दिए तो उसे बड़ी कोफ्त हुई थी.

एक तो भ्रष्ट पति, उस पर धोखेबाज, बेवफा भी, नहीं सहन कर पा रही थी वह. शाश्वत समझदार था, सब समझ गया था. मुग्धा बेटे के संपर्क में रहती थी. संजय से तलाक लेने के लिए उस ने अपने वकील से पेपर्स तैयार करवाने के लिए कह दिया था.

वह आज की औरत थी, पति के प्रति पूरी तरह समर्पित रहने पर भी उस का दिल टूटा था. वह बेईमान, धोखेबाज पति के साथ जीवन नहीं बिता सकती थी. आज नोटबंदी की शाम को एक साल हो गया है. नोटबंदी की शाम उस के जीवन में बड़ा तूफान ले कर आई थी. पर अब वह दुखी नहीं होगी. बहुत रो चुकी, बहुत तड़प चुकी. अब वह परिवार बिखरने का दुख ही नहीं मनाती रहेगी.

नई जगह है, नया जीवन, नए दोस्त बनाएगी. दोस्त? औफिस में तो या बहुत यंग सहयोगी हैं या बहुत सीनियर. मेरी उम्र के जो लोग हैं वे अपने काम के बाद घर भागने के लिए उत्साहित रहते हैं. मुंबई में अधिकांश लोगों को औफिस से घर आनेजाने में 2-3 घंटे तो लगते ही हैं. उस के साथ कौन और क्यों, कब समय बिताए. पुराने दोस्तों से फोन पर बात करती है तो जब जिक्र संजय और सलोनी पर पहुंच जाए तब वह फोन रख देती है. नए दोस्त बनाने हैं, जीवन फिर से जीना है. वह पुरानी यादों से चिपके रह कर अपना जीवन खराब करने वालों में से नहीं है.

आज फिर 8 नवंबर की शाम है लेकिन वर्ष है 2017. संजय से मिले धोखे को एक साल हुआ है. आज से ही कोई दोस्त क्यों न ढूंढ़ा जाए. वह अपने फोन पर कभी कुछ, कभी कुछ करती रही. अचानक उंगलियां ठिठक गईं. मन में एक शरारती सा खयाल आया तो होंठों पर एक मुसकान उभर आई. वह टिंडर ऐप डाउनलोड करने लगी, एक डेटिंग ऐप. यह सही रहेगा, उस ने स्वयं में नवयौवना सा उत्साह महसूस किया. यह ऐप 2012 में लौंच हुई थी. उसे याद आया उस ने संजय के मुंह से भी सुना था, संजय ने मजाक किया था, ‘बढि़या ऐप शुरू हुई है. अकेले लोगों के लिए अच्छी है. आजकल कोई किसी भी बात के लिए परेशान नहीं हो सकता. टैक्नोलौजी के पास हर बात का इलाज है.’

मुग्धा ने तब इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया था. वह अपने परिवार, काम में खुश थी. डेटिंग ऐप के बारे में जानने की उसे कहां जरूरत थी. अब तो अकेलापन दूर करना है, यही सही. अब वह देख रही थी, पहला स्वाइपिंग ऐप जहां उसे दूसरे यूजर्स के फोटो में चुनाव के लिए स्वाइपिंग मोशन यूज करना है. अच्छे लग रहे मैच के लिए राइट स्वाइप, आगे बढ़ने के लिए लैफ्ट.

मुग्धा के चेहरे पर एक अरसे बार मुसकराहट थी. वह एक के बाद एक फोटो देखती गई. एक फोटो पर उंगली ठहर गई, चेहरे पर कुछ था जो उस की नजरें ठहर गईं. उसी की उम्र का अभय, यह मेरा दोस्त बनेगा? बात कर के देखती हूं, नुकसान तो कुछ है नहीं. मुग्धा ने ही संपर्क किया. बात आगे बढ़ी. दोनों ने एकदूसरे में रुचि दिखाई. फोन नंबर का आदानप्रदान भी हो गया.

अभय का फोन भी आ गया. उस ने अपना पूरा परिचय बहुत ही शालीनता से मुग्धा को दोबारा दिया, बताया कि वह भी तलाकशुदा है, परेल में उस का औफिस है, अकेला रहता है. अभय के सुझाव पर दोनों ने मिलने की जगह तय कर ली.

बौंबे कैंटीन जाने का यह मुग्धा का पहला मौका था. शनिवार की शाम वह अच्छी तरह से तैयार हुई. ढीला सा व्हाइट टौप पर छोटा प्रिंट, ब्लैक जींस में वह काफी स्मार्ट लग रही थी. बौंबे कैंटीन के बाहर ही हाथ में फूल लिए अभय खड़ा था. दोनों ने बहुत ही शालीनता से, मुसकराते हुए एकदूसरे को ‘हाय’ कहा.

मुग्धा की आकर्षक मुसकराहट अभय के दिल में अपनी खास जगह बनाती चली गई. अब तक वे दोनों फोन पर काफी बातें कर चुके थे, बौंबे कैंटीन के इंटीरियर पर नजर डालते हुए मुग्धा ने कहा, ‘‘काफी अलग सी जगह है न.’’

‘‘मैं यहां अकसर आता हूं, मेरे औफिस से पास ही है,’’ अभय ने कहा. उसी समय एक वेटर मैन्यू कार्ड दे गया तो मुग्धा बोली, ‘‘फिर तो आज आप ही और्डर कीजिए क्योंकि यहां के खाने में आप को अंदाजा भी होगा.’’

‘‘ठीक है, फिर आज मेरी पसंद का खाना खाना.’’

मुग्धा को अंदाजा हो गया था, वहां के वेटर्स अभय को अच्छी तरह पहचानते थे. अभय का सहज, सरल व्यक्तित्व मुग्धा को प्रभावित कर गया था. अभय उसे बहुत अच्छा लगा था. खाना सचमुच जायकेदार था. मुग्धा ने दिल से अभय की पसंद के खाने की तारीफ की. दोनों फिर इस टिंडर ऐप की बात पर हंसने लगे थे.

अभय ने कहा, ‘‘जानती हो, मुग्धा, पहले मैं ऐसी ऐप्स को मूर्खतापूर्ण चीजें समझता था. उस दिन मैं पहली बार ही यह ऐप देख रहा था और पहली बार ही तुम से बात हो गई,’’ फिर उस के स्वर में अचानक उदासी का पुट आ गया, ‘‘जीवन में अकेलापन तो बहुत अखरता है. देखने में तो मुंबई में खूब चहलपहल है, कोई कोना खाली नहीं, भीड़ ही भीड़, पर मन इस भीड़ में भी कितना तनहा रहता है.’’

‘‘हां, सही कह रहे हो,’’ मुग्धा ने भी गंभीरतापूर्वक कहा.

उस के बाद दोनों अपने जीवन के अनुभव एकदूसरे से बांटते चले गए. अभय की पत्नी नीला विदेश में पलीबढ़ी थी. विदेश में ही एक फंक्शन में दोनों मिले थे. पर नीला भारतीय माहौल में स्वयं को जरा भी ढाल नहीं पाई. अभय अपने मातापिता की इकलौती संतान था. वह उन्हें छोड़ कर विदेश में नहीं बसना चाहता था. अभय और नीला की बेटी थी, रिनी. नीला उसे भी अपने साथ ले गई थी. अभय के मातापिता का अब देहांत हो चुका था. वह अब अकेला था.

मुग्धा की कहानी सुन कर अभय ने

माहौल को हलका करते हुए

कहा, ‘‘मतलब, पिछले साल नोटबंदी ने सिर्फ आर्थिकरूप से ही नहीं, भावनात्मक, पारिवारिक रूप से भी लोगों के जीवन को प्रभावित किया था. वैसे अच्छा ही हुआ न, नोटबंदी का तमाशा न होता तो तुम्हें संजय की बेवफाई का पता भी न चलता.’’

‘‘हां, यह तो है,’’ मुग्धा मुसकरा दी.

‘‘पहले मुझे भी नोटबंदी के नाटक पर बहुत गुस्सा आया था पर अब तुम से मिलने के बाद सारा गुस्सा खत्म हो गया है. एक बड़ा फायदा तो यह हुआ कि हम आज यों मिले. वरना तुम लखनऊ में ही रह रही होतीं, मैं यहां अकेला घूम रहा होता.’’

मुग्धा हंस पड़ी, ‘‘एक नोटबंदी कारण हो गया और दूसरी यह डेटिंग ऐप. कभी सोचा भी नहीं था कि किसी से कभी ऐसे मिलूंगी और दिल खुशी से भर उठेगा. कई महीनों की उदासी जैसे आज दूर हुई है.’’ बिल मुग्धा ने देने की जिद की, जिसे अभय ने बिलकुल नहीं माना. मुग्धा ने कहा, ‘‘ठीक है, अगली बार नहीं मानूंगी.’’

‘‘देखते हैं,’’ अभय मुसकरा दिया, फिर पूछा, ‘‘कोई मूवी देखें?’’

‘‘हां, ठीक है.’’ मुग्धा का तनमन आज बहुत दिनों बाद खिलाखिला सा था. दोनों का दिल इस ताजीताजी खुशबू से भरी दोस्ती को सहर्ष स्वीकार कर चुका था. अभय ने अपनी कार स्टार्ट कर गाना लगा दिया था, ‘‘अजनबी तुम जानेपहचाने से लगते हो, यह बड़ी अजीब सी बात है, फिर भी जाने क्यों, अजनबी…’’ मुग्धा ने सीट बैल्ट बांध, सिर सीट पर टिका लिया था.

मुग्धा गाने के बोल में खोई सोच रही थी, इतने दिनों की मानसिक यंत्रणा, अकेलेपन के बाद वह जो आज आगे बढ़ रही थी, उसे लेशमात्र भी संकोच नहीं है. अभय के साथ जीवन का सफर कहां तक होगा, यह तो अभी नहीं पता, वक्त ही बताएगा. पर आशा है कि अच्छा ही होगा. और अगर नहीं भी होगा, तो कोई बात नहीं. वह किसी बात का शोक नहीं मनाएगी. उसे खुश रहना है. वह आज के बारे में सोचना चाहती है, बस. और आज नए बने सौम्य, सहज दोस्त का साथ मन को सुकून पहुंचा रहा था. वह खुश थी. अभय को अपनी तरफ देखते पाया तो दोनों ने एकसाथ कहा, ‘‘यह गाना अच्छा है न.’’ दोनों हंस पड़े थे.

Hindi Story : नासमझी की आंधी – दीपा से ऐसी क्या गलती हो गई थी

Hindi Story : सुबहसुबह रमेश की साली मीता का फोन आया. रमेश ने फोन पर जैसे ही  ‘हैलो’ कहा तो उस की आवाज सुनते ही मीता झट से बोली, ‘‘जीजाजी, आप फौरन घर आ जाइए. बहुत जरूरी बात करनी है.’’

रमेश ने कारण जानना चाहा पर तब तक फोन कट चुका था. मीता का घर उन के घर से 15-20 कदम की दूरी पर ही था. रमेश को आज अपनी साली की आवाज कुछ घबराई हुई सी लगी. अनहोनी की आशंका से वे किसी से बिना कुछ बोले फौरन उस के घर पहुंच गए. जब वे उस के घर पहुंचे, तो देखा उन दोनों पतिपत्नी के अलावा मीता का देवर भी बैठा हुआ था. रमेश के घर में दाखिल होते ही मीता ने घर का दरवाजा बंद कर दिया. यह स्थिति उन के लिए बड़ी अजीब सी थी. रमेश ने सवालिया नजरों से सब की तरफ देखा और बोले, ‘‘क्या बात है? ऐसी क्या बात हो गई जो इतनी सुबहसुबह बुलाया?’’

मीता कुछ कहती, उस से पहले ही उस के पति ने अपना मोबाइल रमेश के आगे रख दिया और बोला, ‘‘जरा यह तो देखिए.’’

इस पर चिढ़ते हुए रमेश ने कहा, ‘‘यह क्या बेहूदा मजाक है?  क्या वीडियो देखने के लिए बुलाया है?’’

मीता बोली, ‘‘नाराज न होएं. आप एक बार देखिए तो सही, आप को सब समझ आ जाएगा.’’

जैसे ही रमेश ने वह वीडियो देखा उस का पूरा जिस्म गुस्से से कांपने लगा और वह ज्यादा देर वहां रुक नहीं सका. बाहर आते ही रमेश ने दामिनी (सलेहज) को फोन लगाया.

दामिनी की आवाज सुनते ही रमेश की आवाज भर्रा गई, ‘‘तुम सही थी. मैं एक अच्छा पिता नहीं बन पाया. ननद तो तुम्हारी इस लायक थी ही नहीं. जिन बातों पर एक मां को गौर करना चाहिए था, पर तुम ने एक पल में ही गौर कर लिया. तुम ने तो मुझे होशियार भी किया और हम सबकुछ नहीं समझे. यहीं नहीं, दीपा पर अंधा विश्वास किया. मुझे अफसोस है कि मैं ने उस दिन तुम्हें इतने कड़वे शब्द कहे.’’

‘‘अरे जीजाजी, आप यह क्या बोले जा रहे हैं? मैं ने आप की किसी बात का बुरा नहीं माना था. अब आप बात बताएंगे या यों ही बेतुकी बातें करते रहेंगे. आखिर हुआ क्या है?’’

रमेश ने पूरी बात बताई और कहा, ‘‘अब आप ही बताओ मैं क्या करूं? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा.’’ और रमेश की आवाज भर्रा गई.

‘‘आप परेशान मत होइए. जो होना था हो गया. अब यह सोचने की जरूरत है कि आगे क्या करना है? ऐसा करिए आप सब से पहले घर पहुंचिए और दीपा को स्कूल जाने से रोकिए.’’

‘‘पर इस से क्या होगा?’’

‘‘क्यों नहीं होगा? आप ही बताओ, इस एकडेढ़ साल में आप ने क्या किसी भी दिन दीपा को कहते हुए सुना कि वह स्कूल नहीं जाना चाहती? चाहे घर में कितना ही जरूरी काम था या तबीयत खराब हुई, लेकिन वह स्कूल गई. मतलब कोई न कोई रहस्य तो है. स्कूल जाने का कुछ तो संबंध हैं इस बात से. वैसे भी यदि आप सीधासीदा सवाल करेंगे तो वह आप को कुछ नहीं बताएगी. देखना आप, स्कूल न जाने की बात से वह बिफर जाएगी और फिर आप से जाने की जिद करेगी. तब मौका होगा उस से सही सवाल करने का.’’

‘‘क्या आप मेरा साथ दोगी? आप आ सकती हो उस से बात करने के लिए?’’ रमेश ने पूछा.

‘‘नहीं, मेरे आने से कोई फायदा नहीं. दीदी को भी आप जानते हैं. उन्हें बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा. इस बात के लिए मेरा बीच में पड़ना सही नहीं होगा. आप मीता को ही बुला लीजिए.’’

घर जा कर रमेश ने मीता को फोन कर के घर बुला लिया और दीपा को स्कूल जाने से रोका,’’ आज तुम स्कूल नहीं जाओगी.’’

लेकिन उम्मीद के मुताबिक दीपा स्कूल जाने की जिद करने लगी,’’ आज मेरा प्रैक्टिकल है. आज तो जाना जरूरी है.’’

इस पर रमेश ने कहा,’’ वह मैं तुम्हारे स्कूल में जा कर बात कर लूंगा.’’

‘‘नहीं पापा, मैं रुक नहीं सकती आज, इट्स अर्जेंट.’’

‘‘एक बार में सुनाई नहीं देता क्या? कह दिया ना नहीं जाना.’’ पर दीपा बारबार जिद करती रही. इस बात पर रमेश को गुस्सा आ गया और उन्होंने दीपा के गाल पर थप्पड़ रसीद कर दिया. हालांकि? दीपा पर हाथ उठा कर वे मन ही मन दुखी हुए, क्योंकि उन्होंने आज तक दीपा पर हाथ नहीं उठाया था. वह उन की लाड़ली बेटी थी.

तब तक मीता अपने पति के साथ वहां पहुंच गई और स्थिति को संभालने के लिए दीपा को उस के कमरे में ले कर चली गई. वह दीपा से बोली, ‘‘यह सब क्या चल रहा है, दीपा? सचसच बता, क्या है यह सब फोटोज, यह एमएमएस?’’

दीपा उन फोटोज और एमएमएस को देख कर चौंक गई, ‘‘ये…य…यह सब क…क…ब  …कै…से?’’ शब्द उस के गले में ही अटकने लगे. उसे खुद नहीं पता था इस एमएमएस के बारे में, वह घबरा कर रोने लगी.

इस पर मीता उस की पीठ सहलाती हुई बोली, ‘‘देख, सब बात खुल कर बता. जो हो गया सो हो गया. अगर अब भी नहीं समझी तो बहुत देर हो जाएगी. हां, यह तू ने सही नहीं किया. एक बार भी नहीं खयाल आया तुझे अपने बूढ़े अम्माबाबा का? यह कदम उठाने से पहले एक बार तो सोचा होता कि तेरे पापा को तुझ से कितना प्यार है. उन के विश्वास का खून कर दिया तू ने. तेरी इस करतूत की सजा पता है तेरे भाईबहनों को भुगतनी पड़ेगी. तेरा क्या गया?’’

अब दीपा पूरी तरह से टूट चुकी थी. ‘‘मुझे माफ कर दो. मैं ने जो भी किया, अपने प्यार के लिए,  उस को पाने के लिए किया. मुझे नहीं मालूम यह एमएमएस कैसे बना? किस ने बनाया?’’

‘‘सारी बात शुरू से बता. कुछ छिपाने की जरूरत नहीं वरना हम कुछ नहीं कर पाएंगे. जिसे तू प्यार बोल रही है वह सिर्फ धोखा था तेरे साथ, तेरे शरीर के साथ, बेवकूफ लड़की.’’

दीपा सुबकते हुए बोली, ’’राहुल घर के सामने ही रहता है. मैं उस से प्यार करती हूं. हम लोग कई महीनों से मिल रहे थे पर राहुल मुझे भाव ही नहीं देता था. उस पर कई और लड़कियां मरती हैं और वे सब चटखारे लेले कर बताती थीं कि राहुल उन के लिए कैसे मरता है. बहुत जलन होती थी मुझे. मैं उस से अकेले में मिलने की जिद करती थी कि सिर्फ एक बार मिल लो.’’

‘‘लेकिन छोटा शहर होने की वजह से मैं उस से खुलेआम मिलने से बचती थी. वही, वह कहता था, ‘मिल तो लूं पर अकेले में. कैंटीन में मिलना कोई मिलना थोड़े ही होता है.’

‘‘एकदिन मम्मीपापा किसी काम से शहर से बाहर जा रहे थे तो मौके का फायदा उठा कर मैं ने राहुल को घर आ कर मिलने को कह दिया, क्योंकि मुझे मालूम था कि वे लोग रात तक ही वापस आ पाएंगे. घर में सिर्फ दादी थी और बाबा तो शाम तक अपने औफिस में रहेंगे. दादी घुटनों की वजह से सीढि़यां भी नहीं चढ़ सकतीं तो इस से अच्छा मौका नहीं मिलेगा.

‘‘आप को भी मालूम होगा कि हमारे घर के 2 दरवाजे हैं, बस, क्या था, मैं ने पीछे वाला दरवाजा खोल दिया. उस दरवाजे के खुलते ही छत पर बने कमरे में सीधा पहुंचा जा सकता है और ऐसा ही हुआ. मौके का फायदा उठा कर राहुल कमरे में था. और मैं ने दादी से कहा, ‘अम्मा मैं ऊपर कमरे में काम कर रही हूं. अगर मुझ से कोई काम हो तो आवाज लगा देना.’

‘‘इस पर उन्होंने कहा, ‘कैसा काम कर रही है, आज?’ तो मैं ने कहा, ‘अलमारी काफी उलटपुलट हो रही है. आज उसी को ठीक करूंगी.’

‘‘सबकुछ मेरी सोच के अनुसार चल रहा था. मुझे अच्छी तरह मालूम था कि अभी 3 घंटे तक कोई नौकर भी नहीं आने वाला. जब मैं कमरे में गई तो अंदर से कमरा बंद कर लिया और राहुल की तरफ देख कर मुसकराई.

‘‘मुझे यकीन था कि राहुल खुश होगा. फिर भी पूछ बैठी, ‘अब तो खुश हो न? चलो, आज तुम्हारी सारी शिकायत दूर हो गई होगी. हमेशा मेरे प्यार पर उंगली उठाते थे.’ अब खुद ही सोचो, क्या ऐसी कोई जगह है. यहां हम दोनों आराम से बैठ कर एकदो घंटे बात कर सकते हैं. खैर, आज इतनी मुश्किल से मौका मिला है तो आराम से जीभर कर बातें करते हैं.’’

‘‘नहीं, मैं खुश नहीं हूं. मैं क्या सिर्फ बात करने के लिए इतना जोखिम उठा कर आया हूं. बातें तो हम फोन पर भी कर लेते हैं. तुम तो अब भी मुझ से दूर हो.’’ मुझे बहुत कुठा…औरतों के साथ तो वह जम कर…था.

‘‘मैं ने कहा, ‘फिर क्या चाहते हो?’

‘‘राहुल बोला, ‘देखो, मैं तुम्हारे लिए एक उपहार लाया हूं, इसे अभी पहन कर दिखाओ.’

‘‘मैं ने चौंक कर वह पैकेट लिया और खोल कर देखा. उस में एक गाउन था. उस ने कहा, ‘इसे पहनो.’

‘पर…र…?’ मैं ने अचकचाते हुए कहा.

‘‘‘परवर कुछ नहीं. मना मत करना,’ उस ने मुझ पर जोर डाला. ‘अगर कोई आ गया तो…’ मैं ने डरते हुए कहा तो उस ने कहा, ‘तुम को मालूम है, ऐसा कुछ नहीं होने वाला. अगर मेरा मन नहीं रख सकती हो, तो मैं चला जाता हूं. लेकिन फिर कभी मुझ से कोई बात या मिलने की कोशिश मत करना,’ वह गुस्से में बोला.

‘‘मैं किसी भी हालत में उसे नाराज नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैं ने उस की बात मान ली. और जैसे ही मैं ने नाइटी पहनी.’’ बोलतेबोलते दीपा चुप हो गई और पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदने लगी.

‘‘आगे बता क्या हुआ?  चुप क्यों हो गई?  बताते हुए शर्म आ रही है पर तब यह सब करते हुए शर्म नहीं आई?’’ मीता ने कहा.

पर दीपा नीची निगाह किए बैठी रही.

‘‘आगे बता रही है या तेरे पापा को बुलाऊं? अगर वे आए तो आज कुछ अनहोनी घट सकती है,’’ मीता ने डांटते हुए कहा.

पापा का नाम सुनते ही दीपा जोरजोर से रोने लगी. वह जानती थी कि आज उस के पापा के सिर पर खून सवार है. ‘‘बता रही हूं.’’ सुबकते हुए बोली, ‘‘जैसे ही मैं ने नाइटी पहनी, तो राहुल ने मुझे अपनी तरफ खींच लिया.

‘‘मैं ने घबरा कर  उस को धकेला और कहा, ‘यह क्या कर रहे हो? यह सही नहीं है.’ इस पर उस ने कहा, ‘सही नहीं है, तुम कह रही हो? क्या इस तरह से बुलाना सही है? देखो, आज मुझे मत रोको. अगर तुम ने मेरी बात नहीं मानी तो.’

‘‘‘तो क्या?’

‘‘‘देखो, मैं यह जहर खा लूंगा’, और यह कहते हुए उस ने जेब से एक पुडि़या निकाल कर इशारा किया. मैं डर गई कि कहीं यहीं इसे कुछ हो गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे. और फिर उस ने वह सब किया, जो कहा था. उस की बातों में आ कर मैं अपनी सारी सीमाएं लांघ चुकी थी. पर कहीं न कहीं मन में तसल्ली थी कि अब राहुल को मुझ से कोई शिकायत नहीं रही. पहले की तरह फिर पूछा, ‘राहुल अब तो खुश हो न?’

‘‘‘नहीं, अभी मन नहीं भरा. यह एक सपना सा लग रहा है. कुछ यादें भी तो होनी चाहिए’, उस ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘यादें, कैसी यादें’, मैं ने सवालिया नजर डाली. ‘अरे, वही कि जब चाहूं तुम्हें देख सकूं,’ उस से राहुल ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘पता नही क्यों अपना सबकुछ लुट जाने के बाद भी, मैं मूर्ख उस की चालाकी को प्यार समझ रही थी. मैं ने उस की यह ख्वाहिश भी पूरी कर देनी चाही और पूछा, ‘वह कैसे?’

‘‘‘ऐसे,’ कहते हुए उस ने अपनी अपनी जेब से मोबाइल निकाल कर झट से मेरी एक फोटो ले ली. फिर, ‘मजा नहीं आ रहा,’ कहते कहते, एकदम से मेरा गाउन उतार फेंका और कुछ तसवीरें जल्दजल्दी खींच लीं.

‘‘यह सब इतना अचानक से हुआ कि मैं उस की चाल नहीं समझ पाई. समय भी हो गया था और मम्मीपापा के आने से पहले सबकुछ पहले जैसा ठीक भी करना था. कुछ देर बाद राहुल वापस चला गया और मैं नीचे आ गई. किसी को कुछ नहीं पता लगा.

‘‘पर कुछ दिनों बाद एक दिन दामिनी मामी घर पर आई. उन की नजरें मेरे गाल पर पड़े निशान पर अटक गईं. वे पूछ बैठीं, ‘क्या हो गया तेरे गाल पर?’ मैं ने उन से कहा, ‘कुछ नहीं मामी, गिर गई थी.’

‘‘पर पता नहीं क्यों मामी की नजरें सच भांप चुकी थीं. उन्होंने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा, ‘गिरने पर इस तरह का निशान कैसे हो गया? यह तो ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने जोर से चुंबन लिया हो. सब ठीक तो है न दीपा?’

‘‘मैं ने नजरें चुराते हुए थोड़े गुस्से के लहजे में कहा, ‘पागल हो गई हो क्या? कुछ सोच कर तो बोलो.’ और मैं गुस्से से वहां से उठ कर चली गई. ‘‘लंच के बाद सब लोग बैठे हुए हंसीमजाक कर रहे थे. मामी मुझे समझाने के मकसद से आईं तो उन्होंने मुझे खिड़की के पास खड़े हो कर, राहुल को इशारा करते हुए देख लिया. हालांकि मैं उन के कदमों की आहट से संभल चुकी थी पर अनुभवी नजरें सब भांप गई थीं. मामी ने मम्मी से कहा, ‘दीदी, अब आप की लड़की बड़ी हो गई है. कुछ तो ध्यान रखो. कैसी मां हो? आप को तो अपने घूमनेफिरने और किटीपार्टी से ही फुरसत नहीं है.’

‘‘पर मम्मी ने उलटा उन को ही डांट दिया. फिर मामी ने चुटकी लेते हुए मुझ से कहा, ‘क्या बात है दीपू? हम तो तुम से इतनी दूर मिलने आए हैं और तुम हो कि बात ही नहीं कर रहीं. अरे भई, कहीं इश्कविश्क का तो मामला नहीं है? बता दो, कुछ हैल्प कर दूंगी.’

‘‘‘आप भी न कुछ भी कहती रहती हो. ऐसा कुछ नहीं है,’ मैं ने अकड़ते हुए कहा. लेकिन मामी को दाल में कुछ काला महसूस हो रहा था. उन का दिल कह रहा था कहीं न कहीं कुछ तो गड़बड़ है और वे यह भी जानती थीं की ननद से कहने का कोई फायदा नहीं, वे बात की गहराई तो समझेंगी नहीं. इसलिए उन को पापा से ही कहना ठीक लगा, ‘बुरा मत मानिएगा जीजाजी, अब दीपा बच्ची नहीं रही. हो सकता है मैं गलत सोच रही हूं. पर मैं ने उसे इशारों से किसी से बात करते हुए देखा है.’

‘‘पापा ने इस बात को कोई खास तवज्जुह नहीं दी, सिर्फ ‘अच्छा’ कह कर  बात टाल दी. जब मामीजी ने दोबारा कहा तो पापा ने कहा, ‘मुझे विश्वास है उस पर. ऐसा कुछ नहीं. मैं अपनेआप देख लूंगा.’

‘‘मैं मन ही मन बहुत खुश थी, लेकिन यह खुशी ज्यादा दिन नहीं टिकी. अब राहुल उन फोटोज को दिखा कर मुझे धमकाने लगा. रोज मिलने की जिद करता और मना करने पर मुझ से कहता, ‘अगर आज नहीं मिलीं तो ये फोटोज तेरे घर वालों को दिखा दूंगा.’

‘‘पहले तो समझ नहीं आया क्या करूं? कैसे मिलूं? पर बाद में रोज स्कूल से वापस आते हुए मैं राहुल से मिलने जाने लगी.’’

‘‘पर कहां पर? कहां मिलती थी तू उस से,’’ मीता ने जानना चाहा.

‘‘बसस्टैंड के पास उस का एक छोटा सा स्टूडियो है. वहीं मिलता था और मना करने के बाद भी मुझ से जबरदस्ती संबंध बनाता. एक बार तो गर्भ ठहर गया था.’’

‘‘क्या? तब भी घर में किसी को पता नहीं चला?’’ मीता चौंकी.

‘‘नहीं, राहुल ने एक दवा दे दी थी. जिस को खाते ही काफी तबीयत खराब हो गई थी और मैं बेहोश भी हो गई थी.’’

‘‘अच्छा, हां, याद आया. ऐसा कुछ हुआ तो था. और उस के बाद भी तू किसी को ले कर डाक्टर के पास नहीं गई. अकेले जा कर ही दिखा आई थी. दाद देनी पड़ेगी तेरी हिम्मत की. कहां से आ गई इतनी अक्ल सब को उल्लू बनाने की. वाकई तू ने सब को बहुत धोखा दिया. यह सही नहीं हुआ. वहां राहुल के अलावा और कौनकौन होता था?’’

‘‘मुझे नहीं मालूम.’’ लेकिन मुझे इतनी बात समझ में आ गई थी कि राहुल मुझे ब्लैकमेल कर मेरी मजबूरी का फायदा उठा रहा है. और मैं तब से जो भी कर रही थी, अपने घर वालों से इस बात को छिपाने के लिए मजबूरी में कर रही थी. मुझे माफ कर दो. मुझे नहीं पता था कि उस ने मेरा एमएमएस बना लिया है. मैं नहीं जानती कि उस ने यह वीडियो कब बनाया. उस ने मुझे कभी एहसास नहीं होने दिया कि हम दोनों के अलावा वहां पर कोई तीसरा भी है, जो यह वीडियो बना रहा है…’’ और वह बोलतेबोलते  रोने लगी.

मीता को सारा माजरा समझ आ चुका था. वह बस, इतना ही कह पाई,’’ बेवकूफ लड़की अब कौन करेगा यकीन तुझ पर? कच्ची उम्र का प्यार तुझे बरबाद कर के चला गया. इस नासमझी की आंधी ने सब तहसनहस कर दिया.’’

उस ने रमेश को सब बताया. तो, एक बार को तो रमेश को लगा कि सबकुछ खत्म हो गया है. पर सब के समझाने पर उस ने सब से पहले थानेदार से मिल कर वायरल हुए वीडियो को डिलीट करवाया. अपने शहर के एक रसूखदार आदमी होने की वजह से, उन के एक इशारे पर पुलिस वालों ने राहुल को जेल में बंद कर दिया. उस के बाद पूरे परिवार को बदनामी से बचाने के लिए सभी लोकल अखबारों के रिपोर्टर्स को न छापने की शर्त पर रुपए खिलाए. दीपा को फौरन शहर से बहुत दूर पढ़ने भेज दिया, क्योंकि कहीं न कहीं रमेश के मन में उस लड़के से खतरा बना हुआ था. हालांकि, बाद में वह लड़का कहां गया, उस के साथ क्या हुआ?  यह किसी को पता नहीं चला.

Prem Kahani : अपने हिस्से का प्यार

Prem Kahani :  बात उन दिनों की है जब मेरी नियुक्ति एक अच्छी कंपनी में एक अच्छे ‘पे पैकेज’ के साथ हुई थी और मैं कंपनी के गैस्टहाउस में रह रहा था. दिल्ली में वैसे भी मकान ढूंढ़ने में थोड़ा वक्त तो लगता ही है.

एक दिन शाम को लगभग 7 बजे मेरे पास एक लड़की का फोन आया, ‘सर, मैं आशा बोल रही हूं. मैं आप से आज ही मिलना चाहती हूं. आप थोड़ा समय दे सकते हैं? मैं अगर आज आप से नहीं मिली तो बहुत देर हो जाएगी.’

मैं ने हामी भर दी और उसे आधे घंटे बाद किसी समय आने के लिए कह दिया. 8 बजे आशा मेरे पास गैस्टहाउस के रूम में थी.

‘‘सर, मैं आप की कंपनी में एक जूनियर औफिसर के पद के लिए इंटरव्यू दे चुकी हूं. अभी इस विषय में निर्णय लिया नहीं गया है. मेरे घर के हालात अच्छे नहीं हैं. मेरे पिता का निधन मेरे बचपन में ही हो गया था. मां ने मुझे बड़ी कठिनाइयों के साथ पाला है और मैं ही उन का एकमात्र सहारा हूं,’’ कह कर वह भावुक हो गई और उस की आंखों से आंसू छलक गए.

मैं उस की भावना से भरी बातचीत से प्रभावित हो चुका था. उस की सुंदरता पर मैं मुग्ध हो गया था. मेरी उम्र उन दिनों लगभग 30 की रही होगी और मैं अविवाहित भी था.

दूसरे ही दिन आशा का बायोडाटा मैं ने अपने औफिस में मंगा लिया. लेकिन उस की प्रतिभा के आधार पर उस का चयन हो चुका था. आशा को तो यही लगा कि उस का चयन मेरी वजह से हुआ है.

आशा का प्लेसमैंट मेरे ही विभाग में हो गया. उस की नजदीकियां जैसेजैसे बढ़ती गईं मुझे वह और भी अच्छी लगने लगी. अब तो वह बगैर किसी पूर्व सूचना के साधिकार गैस्टहाउस में मेरे कमरे में आने लगी थी. कभी चाय पर तो कभी डिनर पर. उस का साथ मुझे भाने लगा था.

हम दोनों की नजदीकियां जगजाहिर न होते हुए भी औफिस के कर्मचारियों को मन ही मन खटकती थीं. हम दोनों ने दफ्तर में पूरी सतर्कता रखी थी, लेकिन जब वह गैस्टहाउस में मेरे रूम में होती थी, तो हमें पूरी स्वतंत्रता होती थी. लेकिन दैहिक संबंध की दिशा में न बढ़ कर हम लोग अपने प्यार का इजहार एकदूसरे की पीठ थपथपा कर अकसर कर लिया करते थे. कभी चुंबन और आलिंगन से हम दोनों ने एकदूसरे को प्यार नहीं किया था. हां, अपनी कल्पना में मैं उसे कई बार चूम चुका था.

अचानक आशा का ट्रांसफर इलाहाबाद हो गया. फिर हम दोनों  एकदूसरे के संपर्क में नहीं रहे. दूरी चाहत बढ़ा देती है, लेकिन मैं अपने मन को अकसर समझाता था कि इस के बारे में ज्यादा मत सोचो, फिर वक्त गुजरता गया और आशा की यादें धीरेधीरे धुंधली पड़ती गईं.

आशा से बिछड़े 10 साल गुजर चुके थे. मेरा विवाह हो चुका था. मेरी पत्नी मधु बहुत सुंदर और सुशील है और वह सही माने में एक सफल गृहिणी है. शादी हुए अभी कुछ ही समय हुआ था, इसलिए संतान के विषय में मैं ने और मेरी पत्नी ने कोई जल्दबाजी न करने का फैसला किया हुआ था. अभी तो हम एकदूसरे का साथ ऐंजौय करना चाहते थे. मेरी नौकरी दिल्ली में ही जारी थी.

एक दिन एक पेस्ट्री की दुकान पर मैं पेस्ट्री लेने के लिए रुका था. तभी पीछे से आई एक महिला के स्वर ने मुझे चौंका दिया.

‘‘सर, नमस्ते, आप ने मुझे पहचाना?’’

मैं मुड़ा तो देखा आशा खड़ी थी.

‘‘नमस्ते, तुम्हारी याददाश्त की प्रशंसा करनी होगी. इतने अरसे बाद मिली हो और मुझे तुरंत पहचान भी लिया,’’ मैं ने कहा.

उस के साथ बिताए दिनों की स्मृति मस्तिष्क में पुन: जाग्रत हो चुकी थी. इतने अरसे बाद भी उसे देख कर मुझे लगा कि अभी भी उस की सुंदरता बरकरार है.

‘‘इतने दिनों बाद.. दिल्ली कब आईं?’’

‘‘मैं यहीं आ गई हूं और यहीं जौब कर रही हूं. आज घर के लिए कुछ केकपेस्ट्री वगैरह लेने आई हूं. मेरे हसबैंड और सास दोनों को पेस्ट्री बहुत अच्छी लगती है.’’

‘‘जो कुछ तुम ने पैक कराया है उस का पेमैंट मैं अपने सामान के साथ कर दूंगा,’’ कहते हुए मैं ने काउंटर पर पैसे दे दिए. आशा नानुकर करती रही. मैं ने आशा की पीठ सहलाते हुए कहा, ‘‘तुम मेरे साथ ही चलो मैं तुम्हें ड्रौप भी कर दूंगा और तुम्हारे घर के लोगों से मिल भी लूंगा.’’

थोड़ी ही देर में मैं आशा के घर पहुंच गया. आशा ने रास्ते में बताया कि उस के पति का नाम जतिन है. उन का अपना बिजनैस है. विवाह 3 वर्ष पूर्व हुआ था. अभी उन की कोई संतान नहीं हुई है.

आशा की सास ने घर का मुख्य द्वार खोलते हुए मेरा स्वागत किया. आशा ने मेरा परिचय कराया, ‘‘मम्मीजी, ये श्रीकांत हैं. 10 साल पहले मैं इन के दफ्तर में ही काम करती थी. इन्होंने मेरी बहुत सहायता की थी. बहुत अपनापन दिया था.’’

खैर, हम लोगों ने साथसाथ चाय पी. जतिन अभी अपने कामकाज से वापस नहीं आया था. मैं ने आशा की प्रशंसा करते हुए मांजी से कहा, ‘‘आप के घर व ड्राइंगरूम का इंटीरियर बहुत अच्छा है.’’

मांजी ने कहा, ‘‘यह सब तो आशा का कमाल है. आशा को घर सजाने का बहुत शौक है.’’

एक दिन मैं आशा के घर पहुंचा तो मांजी तो घर पर ही थीं पर जतिन अभी वापस घर नहीं पहुंचा था. जतिन अकसर अपने बिजनैस में ही व्यस्त रहता था. आशा मुझे बैठा कर चाय बनाने चली गई. मैं ड्राइंगरूम में मांजी के साथ बातचीत करता रहा.

जब आशा चाय ले कर आई तो मैं ने मांजी से कहा, ‘‘आशा चाय बहुत अच्छी बनाती है.’’

‘‘तारीफ करना तो कोई श्रीकांतजी से सीखे. ये तो प्रशंसा करने में माहिर हैं. जतिन के पास तो इतना समय ही नहीं होता है कि वे कभी मेरी ओर गौर से देखें,’’ कहते हुए आशा मेरा हाथ पकड़ कर मुझे दूसरे कमरे की ओर ले कर चली, ‘‘आइए, मैं आप को जतिन का कंप्यूटर दिखाती हूं.’’

यह तो मात्र बहाना था मुझे एकांत में ले जाने का. मांजी रसोई में व्यस्त हो चुकी थीं. ‘‘मम्मीजी का बहुत सहारा है. वैसे तो अच्छाखासा समय औफिस में गुजर जाता है पर आप यह तो मानेंगे ही कि प्यार और स्नेह की भूख अपनी जगह होती है. बड़ा मन करता है कोई अपनापन जताए, अपना सा लगे, मुहब्बत से गले लगाए. पर ऐसा कुछ जतिन के साथ कभी हो ही नहीं पाता…’’ कहतेकहते वह मेरे निकट आ गई.

प्यार से उस की पीठ सहलाते हुए मैं ने धीमे स्वर में कहा, ‘‘मुझे तुम अपना ही समझो. अब जब एक अंतराल के बाद हम दोबारा मिले हैं तो मैं प्यार की कमी तुम्हें कभी महसूस नहीं होने दूंगा.’’

मांजी के आने की आहट से हम दोनों सतर्क हो गए. आशा की पीठ पर जो हलका सा स्पर्श हुआ था उस से मेरे मन में कई प्रश्न उठ खड़े हुए. शायद आशा को मुझ से कहीं अधिक अपेक्षा रही होगी. इन एकांत के क्षणों में, कुछ भी हो सकता था.

एक दिन मेरी पत्नी मधु किटी पार्टी से लौट कर घर आई. बातचीत के दौरान मधु ने मुझे बताया, ‘‘किटी पार्टी में मिसेज चोपड़ा तुम्हारे बारे में जानने के लिए बहुत उत्सुक रहती हैं. वे तुम से बहुत इंप्रैस्ड हैं. अकसर तुम्हारी तारीफ करती हैं.’’

मैं ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘मधु मुझे पता चला है तुम भी मेरी तारीफ में अपनी सहेलियों से बहुत बातें करती हो.’’

मधु ने प्रतिक्रिया में बस इतना कहा, ‘‘मैं झूठी तारीफ नहीं करती. आप हर तरह से तारीफ के काबिल हैं,’’ फिर मेरी पीठ सहलाते हुए बड़े प्यार से कहा, ‘‘यू आर रियली स्वीट हसबैंड.’’

मैं फूला नहीं समाया और आत्मविभोर हो गया. आशा अकसर अपने औफिस से मेरे कार्यालय में आ जाती थी और मैं उसे उस के घर ड्रौप कर दिया करता था. अपनी कंपनी में आशा अपने मधुर व्यवहार और कार्यशैली में गुणवत्ता के कारण, कई प्रमोशन प्राप्त कर चुकी थी. उसे उस के दफ्तर में सभी बहुत पसंद करते थे.

एक दिन जब वह कार में मेरे साथ अपने घर की ओर जा रही थी तो मैं उस के मांसल शरीर पर मुग्ध हो उठा. मेरे मन में बिताए दिनों की नजदीकियां तरोताजा हो उठीं.

तब मन में खयाल आता था कि काश आशा के साथ मेरी नजदीकी कुछ इस तरह बन सके कि मजा आ जाए. पर अकसर मुझे अपने इस विचार पर हंसी आती थी. आशा जैसी लड़की का निकट होना एक संयोग की ही बात थी.

कार में आशा को मेरा एकटक उसे देखना अच्छा भी लगता था, लेकिन मेरी नैतिकता इस वासना की चिनगारी को ठंडा कर देती थी. जब आशा खिलखिला कर हंसती थी तो मुझे बहुत अच्छी लगती थी. आशा के मन में मेरे लिए प्रेम पनप रहा है ऐसा मैं ने अकसर महसूस किया था. एक बार उस के घर गया तो उस के पति जतिन से मुलाकात हुई. वह एक सभ्य और सुलझा हुआ इंसान था.

मैं आशा के घर जाता रहता था. वह कभीकभी बच्चों जैसी मासूमियत के साथ हठ कर के मुझ से किसी चीज की मांग कर बैठती थी तो जतिन उसे समझाता था.

उत्तर में वह कहती थी, ‘‘तुम हम दोनों के बीच में मत पड़ो, जतिन. मैं सर से जो चाहती हूं साधिकार लूंगी. ये उम्र में हम से बड़े हैं और इन से हम लोग कुछ भी ले सकते हैं.’’

मैं ने आशा को उस की शादी की सालगिरह के मौके पर सोने का इयररिंग्स भेंट किया जिन्हें पहन कर उस ने कहा, ‘‘कैसी लग रही हूं इसे पहन कर?’’

मैं ने कहा, ‘‘बहुत सुंदर.’’

मेरे करीब आ कर उस ने मेरा एक हाथ पकड़ कर अपने सिर पर रख लिया और बोली, ‘‘मुझे आप का आशीर्वाद चाहिए, सारी जिंदगी. बस ऐसे ही प्यार करते रहिएगा.’’

मैं ने कुछ नहीं कहा किंतु मन ही मन खुश था.

मेरी मर्यादा ने मुझे बांध रखा था. लेकिन अकसर आशा के मुख पर आतेजाते  हावभाव उस के दिल में छिपे तूफान को छिपाने में असमर्थ होते थे.

एक दिन किसी कार्यवश जतिन को लखनऊ जाना पड़ा. अपने औफिस से लौटते हुए आशा को ले कर मैं आशा के घर पहुंचा. रास्ते भर आशा बहुत प्रसन्न दिखाई दी. घर पहुंचने पर आशा ने अपने पर्स से घर की चाबी निकाली. मेरे पूछने पर आशा ने बताया, ‘‘2 दिन पहले मम्मीजी मेरे जेठ के यहां कानपुर गई हैं. वापसी में जतिन उन्हें कानपुर से ले आएंगे.’’

थोड़ी देर बाद जब मैं ने उस के घर से जाना चाहा तो आशा ने कहा, ‘‘आप रुक जाइए. ऐसी भी क्या जल्दी है? आज मैं घर पर आप को ट्रीट दूंगी. खाना हम साथ ही खाएंगे. अकेले रहने का मौका तो कभीकभी ही मिलता है,’’ कहते हुए उस ने मुझे बाहुपाश में लेने की चेष्टा की. मेरे समीप होने का वह पूरा लाभ उठाना चाहती थी. पहले तो मैं ने संकोचवश वहां से हटना चाहा किंतु उस का आकर्षण मेरी विवशता बन गया. ऐसे अंतरंग क्षणों में हम एकाकार हो गए. एक अलौकिक दुनिया में खोए रहे.

दूसरे दिन भी इसी आनंद की पुनरावृत्ति हुई. हम दोनों भोजन कर चुके थे. आशा ने कहा, ‘‘आप थोड़ी देर संगीत का आनंद लें. मैं बस थोड़ा फ्रैश हो कर आती हूं. वह आई तो हलके आसमानी रंग की साड़ी में थी और बहुत प्रसन्न थी, ‘‘अभी तो मैं आप को बिलकुल नहीं जाने दूंगी. बस थोड़ा समय ही तो लगेगा,’’ कह कर उस ने मेरा हाथ थाम लिया और दूसरे कमरे की ओर ले चली.

मंद स्वर में उस ने पूछा, ‘‘मैं दुलहन जैसी सुंदर लग रही हूं न?’’ फिर इतराते हुए कहा, ‘‘आज मैं ने शृंगार आप के लिए ही किया है. आप मुझे जी भर कर प्यार कर सकते हैं. मैं प्रेम की गहराई में डूब जाना चाहती हूं…’’ वह बोली.

बहकने लगी थी वह और मुझे बाहुपाश में लेने के लिए मचल रही थी. मैं कदम बढ़ा कर बहुत दूर तक जा सकता था. प्रलोभन चरम सीमा पर था. हालात विवश कर रहे थे देहसंबंध के लिए.

उसे बहुत आश्चर्य हुआ जब मैं एकाएक पलंग से उठ खड़ा हुआ, ‘‘जरा इधर आओ मेरे निकट,’’ मैं ने आशा से कहा, ‘‘मैं तुम्हें बहुत पसंद करता हूं, तुम्हारे व्यक्तित्व में कई अच्छी बातें हैं लेकिन जो प्रेम तुम मुझ में ढूंढ़ने का प्रयास कर रही हो वह जतिन के हृदय में भी हिलोरें मार रहा है. नदी को जानने के लिए गहराई में उतरना पड़ता है. किनारे पर खड़े हो कर नदी की गहराई पता नहीं चलती है. तुम्हारा समर्पण और सान्निध्य केवल जतिन के लिए है.’’

वह सब जो आसानी से उपलब्ध है उसे कोई इतनी आसानी से ठुकरा सकता है, ऐसा आशा ने कभी सोचा न था.

थोड़ी देर वह चुप रही फिर उस ने बहुत भावुक हो कर कहा, ‘‘आज की इस निकटता ने हमारे संबंधों को एक नया अर्थ दिया है. यह आप ने सिद्ध कर दिया है. आप ने मेरी नजदीकी से कोई लाभ नहीं उठाना चाहा. जो पवित्र प्रेम और सम्मान आप ने मुझे दिया है उसे मैं जिंदगी भर याद रखूंगी. आप हमारे घर आतेजाते अवश्य रहिएगा. आप को अभी भी रोकने की मेरी चाहत है लेकिन जाने का निश्चय आप कर चुके हैं.’’

लौटते वक्त मैं सोच रहा था कि एक सुंदर लड़की का रूप मेरी रूह में समा चुका है. वह भी मुझे पसंद करती है, लेकिन हमारी सोच के तरीके बदल चुके हैं.

सब से अधिक प्रसन्नता मुझे इस बात की थी कि मैं ने अपनी पत्नी के विश्वास को कोई चोट नहीं पहुंचाई थी. हमारा अपनेअपने हिस्से का जो प्यार होता है, हमें उसी पर गर्व महसूस करना चाहिए.

Best Hindi Story : झुनझुना – क्यों लोगों का गुस्सा सहती थी रीना?

Best Hindi Story : आत्मनिर्भर बनने के भाषण ने नेताओं जैसे गुणों वाले मेरे घर के 3 तेज बुद्धि वालों को और सयाना बना दिया. भाषण का असर किसी पर हुआ हो या न, इन 3 सयानों के चेहरों की चमक देखने वाली थी.

मैं चुप रही. कोरोना टाइम में चौबीसों घंटे सब को झेलझेल कर इन की नसनस पहचानने लगी हूं. रातदिन देख रही हूं सब को. सरकार सा हो गया है घर मेरा. करनाधरना कम, शोर ज्यादा.

मुझे अपना अस्तित्व किसी मूर्ख, गरीब जनता जैसा लगता है. एक जरूरी काम बताती हूं, तो ये दस जगह ध्यान भटकाने की कोशिश करते हैं. कोशिश रहती है कि कोई जिम्मेदारी इन के ऊपर न आए. कोरोनाकाल में आजकल हाउसहैल्प नहीं है, तो इन सयानों को घर के कामों में कम से कम ही हाथ बंटाना पड़े.

मयंक कहने लगे, “रीना, वैसे सब काम मैनेज हो ही रहा है न, तो अब तुम पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो गई हो. अब तो तुम्हें आशाबाई की भी जरूरत नहीं लगती न, प्राउड औफ़ यू, डिअर.”

मैं फुंफकारी, ”उस के बिना हालत खराब है मेरी. चुपचाप काम किए जा रही हूं, तो इस का मतलब यह नहीं कि बहुत अच्छा लग रहा है. तुम तीनों तो किसी काम को हाथ तक नहीं लगाना चाहते. पता नहीं कैसे इतने सौलिड बहाने देते हो कि चुप ही हो जाती हूं.‘’

मलय को अचानक कुछ याद आया, ”मौम, आप को पता है कि विपिन की मौम घर पर ही पिज़्ज़ा बेस बना लेती हैं. कल इंस्टाग्राम पर विपिन ने पिक डाली, तो मैं ने उस से पूछा था कि सब शौप्स तो बंद हैं, तुम्हें पिज़्ज़ा बेस कहां से मिल गया? मौम, उस ने गर्व से बताया कि उस की मम्मी को पिज़्ज़ा बेस घर पर बनाना आता है.”

मैं ने उसे घूरा तो उस ने टौपिक बदलने में ही अपनी भलाई समझी. पर, उस ने मेरी दुखती रग तो छू ही दी थी. सो, मैं शुरू हो गई, ”तुम लोग हाथ मत बंटाना, बस, मुझे यह बता दिया करो कि और घरों में क्याक्या बन रहा है. मलय, उस से यह पूछा कि उन के घर में भी कोई घर के कामों में हैल्प कर रहा है या नहीं? बस, मां को ही आत्मनिर्भर बनाना है सब को?”

मौली कम सयानी थोड़े ही है, एक कुशल नेता की तरह मीठे स्वर में मौके की नजाकत देख कर कहा, ”मलय, मौम कितना काम कर रही हैं आजकल, देखते हो न. अब ऐसे में उन से पिज़्ज़ा बेस भी बनाने की ज़िद न करो. मेरे भाई, मौम जो बनाती हैं, ख़ुशीख़ुशी खा लो. उन के हाथ में तो इतना स्वाद है, जो भी बनाती हैं, अच्छा ही होता है. मौम, आप को जिस चीज में मेहनत कम लगे, वही बनाया करो. हम तो वर्क फ्रौम होम में फंस कर आप की हैल्प नहीं कर पाते. लव यू, मौम,” ‘कहतेकहते उस ने मेरे गाल चूम लिए. और मैं एक गरीब जनता की तरह फिर सब के झांसे में आ कर, सब भूल दुगने जोश से काम करने लगी.

मौली ने एक झुनझुना पकड़ा ही दिया था. लौकडाउन शुरू होने पर मेरे मूर्ख बनने की जो प्रक्रिया शुरू हुई, वह ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही. मैं बारबार इन सयानी बातों में फंसती हूं. तीनों ने मुझे काफी समझाया. एक भाषण काफी नहीं था आत्मनिर्भर बनने का, 3 और सुने.

मयंक उन में से हैं जो ऐसे भाषण को काफी गंभीरता से लेते हैं. जो कह दिया गया, बस, वही करेंगे. बुद्धि गई तेल लेने. कई बार सोचती हूं, इतना ध्यान अगर अपने पिताजी के भाषणों पर दिया होता, तो पता नहीं आज क्या बन गए होते. सेल्स की नौकरी में कमाखा तो अभी भी रहे हैं, पर पिताजी के भाषण तो बेकार गए न.

उन्हें तो मयंक को डाक्टर बनाना था. आज लगता है अगर टीवी पर भाषण में सुनते कि डाक्टर बनना है तो मेहनत शायद कर लेते, पर पिताजी की बात में टीवी के भाषण जैसा दम थोड़े ही था. मयंक अकसर कहते हैं, ‘मुझ पर ऐसे भाषणों का असर कहां होता है. मुझे तो रोज बढ़ती महंगाई में खींचतान कर घर का बजट देखना पड़ता है.’ मैं समझ गई कि मुझे आत्मनिर्भर बनाने के लिए तीनों एड़ीचोटी का जोर लगा देंगे.

मुझे कोई शौक नहीं आत्मनिर्भर बनने का. नहीं हो रहा है मुझ से अब अकेले घर का काम. मुझे आशाबाई भी चाहिए, इन लोगों की हैल्प भी चाहिए. घर में रहरह कर सब का हर समय कोई न कोई शौक जागा करता है जिसे पूरा मुझे करना होता है. एक दिन मलय ने कहा, मौम, चलो, घर की सैटिंग कुछ चेंज करते हैं, एक चीज एक तरह से देखदेख कर बोर हो गए.”

मैं ने कहा, ‘हां, क्यों नहीं. चलो, झाड़ू ले आओ. सामान इधरउधर हटेगा, तो नीचे की सफाई भी हो जाएगी, वरना सामान रोज तो हटता नहीं है.”

फौरन एक नेता की तरह पलटी मार दी महाशय ने, ”मौम, इस से तो आप का काम और बढ़ जाएगा. छोड़ो, फिर कभी करते हैं.”

”नहींनहीं, काम क्या बढ़ना, तुम हैल्प करवा रहे हो न!”

”मौम, कुछ काम याद आ गया अचानक, लैपटौप पर बैठना पड़ेगा, फिर कभी करते हैं. सैटिंग इतनी भी बुरी नहीं है.”

मौली को एक दिन कहा, ”आज तुम डिनर बना लेना. पता नहीं, मन नहीं हो रहा है कुकिंग का, बोर हो गई रातदिन खाना बनाबना कर.”

मौली ने अपनी मनमोहक मुसकान से कहा, “हां, मौम, बना लूंगी.” फिर उस ने मेरी कमर में बांहें डालीं और मेरे साथ ही लेट गई और बोली, ”लाओ मौम, आप की कमर दबा दूं?”

मैं झट से उलटी हो गई, ”हां, दबा दो.” यह मौका छोड़ दूं, इतनी भी मूर्ख नहीं हूं मैं. ऐसे दिन बारबार तो आते नहीं कि कोई कहे, आओ, कमर दबा दूं. कुछ ही सैकंड्स बीते होंगें, मैं सुखलोक में पहुंची ही थी कि मौली का मधुर स्वर सुनाई दिया, “मौम, जब आप को ठीक लगे, एक शार्ट कट मारोगी?”

”क्या, फिर से बोलो, बेटा?”

”किसी दिन सिर्फ मटर पुलाव बनाओगी? रायता मैं बना लूंगी. बहुत दिन हो गए, मलय तो आप को बनाने नहीं देता, पूरा खाना चाहिए होता है उसे तो.‘’

”हां, ठीक है, बना दूंगी”

बेटी इतने प्यार से अपना कामधाम छोड़ कर मेरे साथ लेटी थी, मैं तो वारीवारी जा रही थी उस पर मन ही मन. थोड़ी देर बाद वह अपने रूम में चली गई. उस की फ्रैंड का फोन था, जातेजाते बोली, “टेक रैस्ट, मौम.”

थोड़ी देर बाद मैं ने यों ही लेटेलेटे मौली को सरप्राइज देने का मन बना लिया, कि मैं आज ही मटरपुलाव बना लूंगी उस की पसंद का, खुश हो जाएगी वह. और मैं ने डिनर में सचमुच खुद ही सब बना लिया. बीचबीच में मौली आ कर हैल्प औफर करती रही, मैं मना करती रही थी.

डिनर टेबल पर सब को हंसतेमुसकराते देख मुझे अचानक याद आया कि अरे, आज तो मेरा कुकिंग का मूड ही नहीं था. मौली पर जिम्मेदारी सौंपी थी डिनर की. और मैं ही उस के लिए मटरपुलाव, रायता और मलय के लिए स्टफ्ड परांठे बनाने में जुट गई. ओह, मूर्ख जनता फिर ठगी गई. मुझे मीठीमीठी बातों में फिर फंसा लिया गया. मुझे गुस्सा आ गया, कहा, ”मैं तुम लोगों से बहुत नाराज हूं, कोई मेरी हैल्प नहीं करता. बस, सब से डायलौग मरवा लो. मर जाऊंगी काम करतेकरते, तुम लोग, बस, लाइफ एंजौय करो.”

मयंक ने मुझे रोमांटिक नजरों से देखते हुए कहा, ”मेरी रीनू, हम लोगों से गुस्सा हो ही नहीं सकती. अभी तो यह टैस्टी पुलाव खाने दो. एक बार औफिस में कपिल पुलाव लाया था, इतना बेकार था, सारे चावल के दाने चिपके हुए थे. और एक आज तुम्हारा बनाया हुआ पुलाव, देखो, कैसे खिलाखिला है एकएक दाना. वाह, खाना बनाना कोई तुम से सीखे. सच बताऊं, जो भी बनाती हो, शानदार होता है. वाह, ऐक्सीलैंट.”

मैं, हूं तो एक नारी ही न, तारीफ़ सुन कर सब भूल गई. दिल किया, अपनी जान निसार कर दूं सब पर. इतराते हुए पूछ बैठी, “कल क्या खाओगे, क्या बनाऊं?”

मलय ने मौका नहीं छोड़ा, फरमाइश सब से पहले की, ”मौम,छोलेभठूरे.”

”ओके, बनाऊंगी.”

फिर मौली कह बैठी, ”मौम, मेरी हैल्प तो नहीं चाहिए होगी न? कल मेरी कई वर्कशौप्स हैं दिनभर.”

मेरा मुंह उतरा, तो एक सयाने ने संभाल लिया, मलय ने कहा, ”मैँ करवा सकता हूं हैल्प, पर लंचटाइम में, तब तक आप मेरी हैल्प का वेट कर पाओगी, मौम?”

मैं ने थोड़ा झींकते हुए कहा, “मुझे किसी से कोई उम्मीद ही नहीं है कि मुझे हैल्प मिलेगी. यह कोरोना टाइम मेरी जान ले कर ही रहेगा. कोरोना से भले ही बच जाऊं, ये काम मुझे मार डालेंगे. बस, तुम लोग सुबह लैपटौप खोल लिया करो, बीचबीच में सोशल मीडिया पर घूम लिया करो, दोस्तों से बातें कर लिया करो. बस, यही करते हो और यही करते रहो तुम लोग.”

इतने में दूसरे सयाने ने माहौल में बातों की जादू की छड़ी घुमाने की कोशिश की. मयंक बोले, ”तुम बहुत दिन से नई वाशिंग मशीन लेने के लिए कह रही थीं न, आजकल सेल चल रही है. मैं ने देख ली है. चलो, तुम्हें दिखाता हूं. आओ, लैपटौप लाता हूं.” यह कह कर मयंक उठे. बच्चे भी नौटंकी करने लगे, बोले, मौम, देखो, पापा कितना ध्यान रखते हैं, आप के लिए नई वाशिंग मशीन आ रही है.”

मैँ क्या कहती, मुझे तो ऐसे ही घुमा दिया जाता है जैसे कि आजकल जनता किसी भी बात पर अपना हक़ जताने की कोशिश करे और उसे कोई झुनझुना हर बार पकड़ा दिया जाए. मैँ आजकल इन्हीं झुनझुनों में घूमती रहती हूं. वाशिंग मशीन का और्डर दे दिया गया.

आजकल कहीं बाहर तो निकल ही नहीं रहे हैं, तो सबकुछ औनलाइन ही तो आ रहा है. बस, काम करते रहो, कहीं आनाजाना नहीं. मेरे फ़्रस्ट्रेशन की कोई सीमा नहीं है आजकल. कब आशाबाई आएगी, कब मैँ चैन की सांस लूंगी. गुस्सा तब और बढ़ जाता है जब मैँ कहती हूं कि आशाबाई को बुला लेते हैं, तीनों एकसुर में कहते हैं, कि अरे, बिलकुल सेफ नहीं है उसे बुलाना. तुम हमें बताओ, किस काम में उस की हैल्प चाहिए.

मैँ जब हैल्प के लिए बताती हूं तो सब गायब हो जाते हैं. यह है आजकल मेरी हालत. तभी मैं खुद को मूर्ख जनता की तरह पाती हूं. जैसे ही आवाज उठाती हूं, झुनझुने पकड़ा दिए जाते हैं मुझे. तीनो ऐसे सयाने हैं कि घर के काम नहीं करने, बस, मौली तो मुंह बिसूर कर कहती है, “मौम, कहां आदत है, इतने काम…”

काम न करने पड़ें, इस के लिए सारे पैतरे आजमाए जा रहे हैं. वाशिंग मशीन आ गई. सब को लगा कि मैँ अब कुछ दिन तो उस में लगी रहूंगी, खुश रहूंगी. पर कितने दिन… काम थोड़े ही कम हो गए मेरे. एक रात को मैं ने अत्यंत गंभीर स्वर में कहा, ”कल सुबह उठते ही मुझे तुम तीनों से जरूरी बात करनी है.”

मेरे स्वर की गंभीरता पर तीनों चौंके, क्या हुआ? अभी बता दो.”

”परेशान हो चुकी हूं, सुबह ही बात करेंगे. मैँ कोई नौकर थोड़े ही हूं कि दिनरात, बस, काम ही करती रहूं,” कह कर मैँ पैर पटकते हुए सोने चली गई. अभी 10 ही बजे थे, पर आज मैँ बहुत थक गई थी.

मुझे आहट मिली कि तीनों एक रूम में ही बैठ गए हैं. मैं ने सोच लिया था कि कल मैँ तीनों को कोई काम न करने पर बुरी तरह डांटूंगी, लड़ूंगी, चिल्लाऊंगी. हद होती है कामचोरी की. और मैँ फिर जल्दी सो भी गई. सुबह उठी, तो भी मुझे रात का अपना गुस्सा और शिकायतें याद थीं. बैड पर लेटेलेटे सोचा कि आज बताती हूं सब को, कोई हैल्प नहीं करेगा तो मैं अकेले भी नहीं करने वाली सारे काम. हद होती है, सैल्फिश लोग.

तीनों अभी सोये हुए थे. मैं ने जैसे ही लिविंगरूम में पैर रखा, मेरी नजर कौर्नर की शैल्फ पर रखी अपनी मां की फोटो पर पड़ी. मेरी आंखें चमक उठीं. पास में जा कर फोटो को निहारती रह गई. ओह, किस ने रखी यह मेरी प्यारी मां की इतनी सुंदर फोटो यहां पर. मैं फोटो देखती रही. यह इन लोगों ने लगाई है रात में. लेकिन यह फोटो तो मेरी अलमारी में रहती है. ये बेचारे वहां से कैसे निकाल कर लाए होंगे कि आहट से मेरी आंख भी न खुली.

मैं ने फ्रेश हो कर अपनी मां को फोन मिला दिया और बताया कि रात को उन की फोटो कैसे तीनों ने मुझे सरप्राइज देने के लिए लगा दी है. मां को बहुत ख़ुशी हुई, तीनों को खूब प्यार व आशीर्वाद कहती रहीं. मैं सब भूल, अब, मां से इन तीनों की तारीफ़ क्यों किए जा रही थी, मुझे एहसास ही नहीं हुआ. मैं चाय पी ही रही थी कि तीनों उठे. मैं ने उन्हें थैंक्स कहा. वे मुसकराते हुए फ्रेश हो कर अपने काम में बिजी हो गए.

ब्रेकफास्ट मैं ने उन तीनों की पसंद का ही बनाया. जिस में मुझे एक्स्ट्रा टाइम लगा तो मुझे फिर अपने पर गुस्सा आने लगा. मेरा ध्यान फिर इस बात पर गया कि फिर मुझे रात में नाराज देख कर मां की फोटो का एक झुनझुना पकड़ा दिया गया है. अभी बताती हूं सब को, चालाक लोग…कैसे मेरा गुस्सा शांत किया, कितने तेज हैं सब. बताती हूं अभी. मैं ने सीरियस आवाज़ में कहा, ”आओ सब, जरा बात करनी है मुझे.”

तीनों ने आते हुए एकदूसरे को देख कर इशारे किए. मेरी आंखों से छिपा न रहा. फिर मौली और मलय को मैं ने मयंक को कुछ इशारा करते हुए देखा. मुझे पता है कि मेरे गुस्से से बचते हैं तीनों. वैसे तो मुझे जल्दी गुस्सा नहीं आता, पर, जब आता है तो मैं काफी मूड खराब करती हूं. हम चारों बैठ गए. मैं ने रूखी आवाज में कहा, “सब सामने ही रखा है, खुद ले लो. मेहमान तो हो नहीं कोई, कि परोसपरोस कर सब की प्लेट लगाऊं. और मुझे, तुम लोगों से यह कहना है कि अब से…”

मयंक ने मेरी बात पूरी नहीं होने दी, बहुत भावुक हो कर बोला, ”नहीं, पहले मुझे बोलने दो, रीनू. हम तीनों ने सोचा है कि हम हर बार कुछ भी खाने से पहले इतनी मेहनत कर के हमें खिलाने वाले को, तुम्हे, थैंक्स कहा करेंगे, थैंक्यू, रीनू, कितना करती हो तुम हम सबके लिए. बिना किसी की हैल्प के, इतने काम करना आसान नहीं है. वी लव यू, रीनू.”

”थैंक्यू मौम.”

बच्चों ने भी इतने प्यार से कहा कि मैं रोतेरोते रुकी. मन में आया, मैं ही ओवररिऐक्ट तो नहीं कर रही थी. बेचारे खाने से पहले मुझे थैंक्स बोल रहे हैं. किस के घर में यह सब होता है. ओह, कितने प्यारे हैं तीनों. देखते ही देखते मैं उन सब को प्यार से हर चीज सर्व कर रही थी. मेरी जबान से शहद टपक रही थी. मुझे फिर लच्छेदार बातों का एक झुनझुना पकड़ा दिया गया था, इस का एहसास मुझे बाद में फिर हुआ. मूर्ख जनता सी मैं एक बार फिर ठगी गई थी.

Storytelling : कायाकल्प

 Storytelling :  बेटे की शादी के कुछ महीने बाद ही सुमित्रा ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए. रोजरोज की कलह से परेशान बेटेबहू ने अलग घर ले लिया लेकिन 15 दिन के अंदर ही सुमित्रा को ऐसी खबर मिली जिस से उस के स्वभाव में अचानक परिवर्तन आ गया.

खिड़की से बाहर झांक रही सुमित्रा ने एक अनजान युवक को गेट के सामने मोटरसाइकिल रोकते देखा.

‘‘रवि, तू यहां क्या कर रहा है?’’ सामने के फ्लैट की बालकनी में खड़े अजय ने ऊंची आवाज में मोटर- साइकिल सवार से प्रश्न किया.

‘‘यार, एक बुरी खबर देने आया हूं.’’

‘‘क्या हुआ है?’’

‘‘शर्मा सर का ट्रक से एक्सीडेंट हुआ जिस में वह मर गए.’’

खिड़की में खड़ी सुमित्रा अपने पति राजेंद्र के बाजार से घर लौटने का ही इंतजार कर रही थीं. रवि के मुंह से यह सब सुन कर उन के दिमाग को जबरदस्त झटका लगा. विधवा हो जाने के एहसास से उन की चेतना को लकवा मार गया और वह धड़ाम से फर्श पर गिरीं और बेहोश हो गईं.

छोटे बेटे समीर और बेटी रितु के प्रयासों से कुछ देर बाद जब सुमित्रा को होश आया तो उन दोनों की आंखों से बहते आंसुओं को देख कर उन के मन की पीड़ा लौट आई और वह अपनी बेटी से लिपट कर जोर से रोने लगीं.

उसी समय राजेंद्रजी ने कमरे में प्रवेश किया. पति को सहीसलामत देख कर सुमित्रा ने मन ही मन तीव्र खुशी व हैरानी के मिलेजुले भाव महसूस किए. फिर पति को सवालिया नजरों से देखने लगीं.

‘‘सुमित्रा, हम लुट गए. कंगाल हो गए. आज संजीव…’’ और इतना कह पत्नी के कंधे पर हाथ रख वह किसी छोटे बच्चे की तरह बिलखने लगे थे.

सुमित्रा की समझ में आ गया कि रवि उन के बड़े बेटे संजीव की दुर्घटना में असामयिक मौत की खबर लाया था. इस नए सदमे ने उन्हें गूंगा बना दिया. वह न रोईं और न ही कुछ बोल पाईं. इस मानसिक आघात ने उन के सोचनेसमझने की शक्ति पूरी तरह से छीन ली थी.

करीब 15 दिन पहले ही संजीव अपनी पत्नी रीना और 3 साल की बेटी पल्लवी के साथ अलग किराए के मकान में रहने चला गया था.

पड़ोसी कपूर साहब, रीना व पल्लवी को अपनी कार से ले आए. कुछ दूसरे पड़ोसी, राजेंद्रजी और समीर के साथ उस अस्पताल में गए जहां संजीव की मौत हुई थी.

अपनी बहू रीना से गले लग कर रोते हुए सुमित्रा बारबार एक ही बात कह रही थीं, ‘‘मैं तुम दोनों को घर से जाने को मजबूर न करती तो आज मेरे संजीव के साथ यह हादसा न होता.’’

इस अपराधबोध ने सुमित्रा को तेरहवीं तक गहरी उदासी का शिकार बनाए रखा. इस कारण वह सांत्वना देने आ रहे लोगों से न ठीक से बोल पातीं, न ही अपनी गृहस्थी की जिम्मेदारियों का उन्हें कोई ध्यान आता.

ज्यादातर वह अपनी विधवा बहू का मुर्झाया चेहरा निहारते हुए मौन आंसू बहाने लगतीं. कभीकभी पल्लवी को छाती से लगा कर खूब प्यार करतीं, पर आंसू तब भी उन की पलकों को भिगोए रखते.

तेरहवीं के अगले दिन वर्षों की बीमार नजर आ रही सुमित्रा क्रियाशील हो उठीं. सब से पहले समीर और उस के दोस्तों की मदद से टैंपू में भर कर संजीव का सारा सामान किराए के मकान से वापस मंगवा लिया.

उसी दिन शाम को सुमित्रा के निमंत्रण पर रीना के मातापिता और भैयाभाभी उन के घर आए.

सुमित्रा ने सब को संबोधित कर गंभीर लहजे में कहा, ‘‘पहले मेरी और रीना की बनती नहीं थी पर अब आप सब लोग निश्ंिचत रहें. हमारे बीच किसी भी तरह का टकराव अब आप लोगों को देखनेसुनने में नहीं आएगा.’’

‘‘आंटी, मेरी छोटी बहन पर दुख का भारी पहाड़ टूटा है. अपनी बहन और भांजी की कैसी भी सहायता करने से मैं कभी पीछे नहीं हटूंगा,’’ रीना के भाई रोहित ने भावुक हो कर अपने दिल की इच्छा जाहिर की.

‘‘आप सब को बुरा न लगे तो रीना और पल्लवी हमारे साथ भी आ कर रह सकती हैं,’’ रीना के पिता कौशिक साहब ने हिचकते हुए अपना प्रस्ताव रखा.

सुमित्रा उन की बातें खामोश हो कर सुनती रहीं. वह रीना के मायके वालों की आंखों में छाए चिंता के भावों को आसानी से पढ़ सकती थीं.

रीना के साथ पिछले 6 महीनों में सुमित्रा के संबंध बहुत ज्यादा बिगड़ गए थे. समीर की शादी करीब 3 महीने बाद होने वाली थी. नई बहू के आने की बात को देखते हुए सुमित्रा ने रीना को और ज्यादा दबा कर रखने के प्रयास तेज कर दिए थे.

‘इस घर में रहना है तो जो मैं चाहती हूं वही करना होगा, नहीं तो अलग हो जाओ,’ रोजरोज की उन की ऐसी धमकियों से तंग आ कर संजीव और रीना ने अलग मकान लिया था.

उन की बेटी सास के हाथों अब तो और भी दुख पाएगी, रीना के मातापिता के मन के इस डर को सुमित्रा भली प्रकार समझ रही थीं.

उन के इस डर को दूर करने के लिए ही सुमित्रा ने अपनी खामोशी को तोड़ते हुए भावुक लहजे में कहा, ‘‘मेरा बेटा हमें छोड़ कर चला गया है, तो अब अपनी बहू को मैं बेटी बना कर रखूंगी. मैं ने मन ही मन कुछ फैसला लिया है जिन्हें पहली बार मैं आप सभी के सामने उजागर करूंगी.’’

आंखों से बह आए आंसुओं को पोंछती हुई सुमित्रा सब की आंखों का केंद्र बन गईं. राजेंद्रजी, समीर और रितु के हावभाव से यह साफ पता लग रहा था कि जो सुमित्रा कहने जा रही थीं, उस का अंदाजा उन्हें भी न था.

‘‘समीर की शादी होने से पहले ही रीना के लिए हम छत पर 2 कमरों का सेट तैयार करवाएंगे ताकि वह देवरानी के आने से पहले या बाद में जब चाहे अपनी रसोई अलग कर ले. इस के लिए रीना आजाद रहेगी.

‘‘अतीत में मैं ने रीना के नौकरी करने का सदा विरोध किया, पर अब मैं चाहती हूं कि वह आत्मनिर्भर बने. मेरी दिली इच्छा है कि वह बी.एड. का फार्म भरे और अपनी काबिलीयत बढ़ाए.

‘‘आप सब के सामने मैं रीना से कहती हूं कि अब से वह मुझे अपनी मां समझे. जीवन की कठिन राहों पर मजबूत कदमों से आगे बढ़ने के लिए उसे मेरा सहयोग, सहारा और आशीर्वाद सदा उपलब्ध रहेगा.’’

सुमित्रा के स्वभाव में आया बदलाव सब को हैरान कर गया. उन के मुंह से निकले शब्दों में छिपी भावुकता व ईमानदारी सभी के दिलों को छू कर उन की पलकें नम कर गईं. एक तेजतर्रार, झगड़ालू व घमंडी स्त्री का इस कदर कायाकल्प हो जाना सभी को अविश्वसनीय लग रहा था.

रीना अचानक अपनी जगह से उठी और सुमित्रा के पास आ बैठी. सास ने बांहें फैलाईं और बहू उन की छाती से लग कर सुबकने लगी.

कमरे का माहौल बड़ा भावुक और संजीदा हो गया. रीना के मातापिता व भैयाभाभी के पास अब रीना व पल्लवी के हितों पर चर्चा करने के लिए कोई कारण नहीं बचा.

क्या सुमित्रा का सचमुच कायाकल्प हुआ है? इस सवाल को अपने दिलों में समेटे सभी लोग कुछ देर बाद विदा ले कर अपनेअपने घर चले गए.

अब सिर्फ अपने परिवारजनों की मौजूदगी में सुमित्रा ने अपने मनोभावों को शब्द देना जारी रखा, ‘‘समीर और रितु, तुम दोनों अपनी भाभी को इस पल से पूरा मानसम्मान दोगे. रीना के साथ तुम ने गलत व्यवहार किया तो उसे मैं अपना अपमान समझूंगी.’’

‘‘मम्मी, आप को मुझ से कोई शिकायत नहीं होगी,’’ रितु उठ कर रीना की बगल में आ बैठी और बड़े प्यार से भाभी का हाथ अपने हाथों में ले लिया.

‘‘मेरा दिमाग खराब नहीं है जो मैं किसी से बिना बात उलझूंगा,’’ समीर अचानक भड़क उठा.

‘‘बेटे, अगर तुम्हारा रवैया नहीं बदला तो रीना को साथ ले कर एक दिन मैं इस घर को छोड़ जाऊंगी.’’

सुमित्रा की इस धमकी का ऐसा प्रभाव हुआ कि समीर चुपचाप अपनी जगह सिर झुका कर बैठ गया.

‘‘सुमित्रा, तुम सब तरह की चिंताएं अपने मन से निकाल दो. रीना और पल्लवी के भविष्य को सुखद बनाने के लिए हम सब मिल कर सहयोग करेंगे,’’ राजेंद्रजी से ऐसा आश्वासन पा कर सुमित्रा धन्यवाद भाव से मुसकरा उठी थीं.

कमरे से जब सब चले गए तब सुमित्रा ने रीना से साफसाफ पूछा, ‘‘बहू, तुम्हें मेरे मुंह से निकली बातों पर क्या विश्वास नहीं हो रहा है?’’

‘‘आप ऐसा क्यों सोच रही हैं, मम्मी. आप लोगों के अलावा अब मेरा असली सहारा कौन बनेगा?’’ रीना का गला भर आया.

‘‘मैं तुम्हें कभी तंग नहीं करूंगी, बहू. बस, तुम यह घर छोड़ कर जाने का विचार अपने मन में कभी मत लाना, नहीं तो मैं खुद को कभी माफ नहीं कर पाऊंगी.’’

‘‘नहीं, मम्मी. मैं आप के पास रहूंगी और आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘देख, पल्लवी के नाम से मैं ने 1 लाख रुपए फिक्स्ड डिपोजिट करने का फैसला कर लिया है. आने वाले समय में यह रकम बढ़ कर उस की पढ़ाई और शादी के काम आएगी.’’

‘‘जी,’’ रीना की आंखों में खुशी की चमक उभरी.

‘‘सुनो बहू, एक बात और कहती हूं मैं,’’ सुमित्रा की आंखों में फिर से आंसू चमके और गला रुंधने सा लगा, ‘‘करीब 4 साल पहले तुम ने इस घर में दुलहन बन कर कदम रखा था और मैं वादा करती हूं कि उचित समय और उचित लड़का मिलने पर तुम्हें डोली में बिठा कर यहां से विदा भी कर दूंगी. जरूरत पड़ी तो पल्लवी अपने दादादादी के पास रहेगी और तुम अपनी नई घरगृहस्थी…’’

‘‘बस, मम्मीजी, और कुछ मत कहिए आप,’’ रीना ने उन के मुंह पर अपना हाथ रख दिया, ‘‘मुझे विश्वास हो गया है कि पल्लवी और मैं आप दोनों की छत्रछाया में यहां बिलकुल सुरक्षित हैं. मुझ में दूसरी शादी करने में जरा भी दिलचस्पी कभी पैदा नहीं होगी.’’

रीना अपने सासससुर के लिए जब चाय बनाने चली गई तो राजेंद्रजी ने सुमित्रा का माथा चूम कर उन की प्रशंसा की, ‘‘सुमि, आज जो मैं ने देखासुना है उस पर मुझे आश्चर्य हो रहा है, साथ ही गर्व भी कर रहा हूं. एक बात पूछूं?’’

‘‘पूछिए,’’ सुमित्रा ने पति के कंधे पर सिर टिकाते हुए कहा और आंखें मूंद लीं.

‘‘तुम्हारी सोच, तुम्हारा नजरिया… तुम्हारे दिल के भाव अचानक इस तरह कैसे बदल गए हैं?’’

‘‘आप मुझ में आए बदलाव का क्या कारण समझते हैं?’’ आंखें बंद किएकिए ही सुमित्रा बोलीं.

‘‘मुझे लगता है संजीव की असमय हुई मौत ने तुम्हें बदला है, पर फिर वैसा ही बदलाव मेरे अंदर क्यों नहीं आया?’’

‘‘संजीव इस दुनिया में नहीं रहा, ये जानने से पहले मुझे एक और जबरदस्त सदमा लगा था. क्या आप को उस की याद है?’’

‘‘हां, जो लड़का बुरी खबर लाया था वह संजीव का जूनियर था और तुम समझीं कि वह कोई मेरा छात्र है और मेरी न रहने की खबर लाया है.’’

‘‘दरअसल, गलत अंदाजा लगा कर मैं बेहोश हो गई थी. फिर मुझे धीरेधीरे होश आया तो मेरे मन ने काम करना शुरू किया.

‘‘सब से पहले असहाय और असुरक्षित हो जाने के भय ने मेरे दिलोदिमाग को जकड़ा था. मन में गहरी पीड़ा होने के बावजूद अपनी जिस जिम्मेदारी का मुझे ध्यान आया वह रितु की शादी का था.

‘‘कैसे पूरी करूंगी मैं यह जिम्मेदारी? मन में यह सवाल कौंधा तो जवाब में सब से पहले संजीव और रीना की शक्लें उभरी थीं. उन से मेरा लाख झगड़ा होता रहा हो पर मुसीबत के समय मन को उन्हीं दोनों की याद पहले आई थी,’’ अपने मन की बातों को सुमित्रा बड़े धीरेधीरे बोलते हुए पति के साथ बांट रही थीं.

राजेंद्रजी खामोश रह कर सुमित्रा के आगे बोलने का इंतजार करने लगे.

सुमित्रा ने पति की आंखों में देखते हुए भावुक लहजे में आगे कहा, ‘‘मेरे बहूबेटे मुसीबत में मेरा मजबूत सहारा बनेंगे, अगर मेरी यह उम्मीद भविष्य में पूरी न होती तो मेरा दिल उन दोनों को कितना कोसता.’’

एक पल रुक कर सुमित्रा फिर बोलीं, ‘‘असली विपदा का पहाड़ तो रीना के सिर पर टूटा था. मेरी ही तरह क्या उस ने भी उन लोगों का ध्यान नहीं किया होगा जो इस कठिन समय में उस के काम आएंगे?’’

‘‘जरूर आया होगा,’’ राजेंद्रजी बोले.

‘‘अगर उस ने हमें विश्वसनीय लोगों की सूची में नहीं रखा होगा तो यह हमारे लिए बड़े शर्म की बात है और अगर हमारे सहयोग और सहारे की उसे आशा है और हम उस की उम्मीदों पर खरे न उतरे तो क्या वह हमें नहीं कोसेगी?’’

‘‘तुम्हारे मनोभाव अब मेरी समझ में आ रहे हैं. तुम्हारे कायाकल्प का कारण मैं अब समझ सकता हूं,’’ राजेंद्रजी ने प्यार से पत्नी का माथा एक बार फिर चूमा.

‘‘हमारा बेटा संजीव अब बहू और पोती के रूप में अपना अस्तित्व बनाए हुए है और ये दोनों हमें कोसें ऐसा मैं कभी नहीं चाहूंगी. इन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए ही मैं ने अपने को बदल डाला है. कभी मैं राह से भटकूं तो आप मुझे टोक कर सही राह दिखा देना,’’ सुमित्रा ने अपने जीवनसाथी से हाथ जोड़ कर विनती की.

‘‘उस की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि तुम्हारा यह कायाकल्प दिल की गहराइयों से हुआ है.’’

अपने पति की आंखों में अपने लिए गहरे सम्मान, प्रशंसा व प्रेम के भावों को पढ़ कर सुमित्रा हौले से मुसकराईं.

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