लोकतंत्र और धर्म गुरु

देशभक्ति न नारों से आती है न सिर्फ पूजापाठ हालांकि दोनों को ही जरूरत हर युग में देशभक्ति दर्शाने और उसे अंधभक्ति बनाने में पड़ी है. यूक्रेन में देश भक्ति का मामला कुछ और ही है. यहां न तो राष्ट्रीय व्लादिमीर जेलेंस्की ने नारेबाजी की और न ही धर्माचार्य ने ‘हिंदू खतरे में हैं’ जैसा नारा लगाया. यूक्रेन के निवासियों ने ही नहीं. यूक्रेन से बाहर बसे यूक्रेनियों ने भी यूक्रेन पहुंच कर रूसी हमले का मुकाबला करने का फैसला ले लिया.

लगभग 1, 40,000 जवान बाहर से यूक्रेन पहुंच चुके हैं कि वे देश की रक्षा करने के लिए जान की बाजी लगाएंगे. यूक्रेनी आमतौर पर औरतों, बच्चों और बूढ़ों को देश से बाहर भेज रहे हैं और खुद देश की रक्षा में लग गए हैं. यह नारेबाजी की देन नहीं, यह चर्च की पहल पर नहीं हो रहा. यह तो एक बदमाश को सही सबक सिखाने का कमिटमैंट है.

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यूक्रेनी ही नहीं लगभग 10,000 दूसरी नागरिकता के लोग भी यूक्रेन पहुंच गए हैं जो लोकतंत्र और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए लडऩे के लिए रूस की भारी भरकम फौज को सबक सिखाने को तैयार हैं. यह रूस यूक्रेन युद्ध वियतनाम, इराक, लीबिया, अफगानिस्तान की लड़ाइयों अपर्ग दिख रहा है. लोकतंत्र प्रेमी सभी देश एक तरफ हैं. भारत, पाकिस्तान, चीन जैसे देशों की मरकलें जो लोकतंत्र अब कोरे वोट तंत्र में बदल चुकी हैं या बदलने की कोशिश कर रही हैं, रूस को खुला या छिपा सपोर्ट दे रही हैं. यह लड़ाई तो आम जनता के हकों की है क्योंकि रूस के व्लादिमीर पुतिन अपने टैंकों से सोवियत यूनियन की तर्ज पर रौंद कर मास्को का साम्राज्य बनाना चाह रहे हैं.

यूक्रेनी और दूसरे देशों के लोकतंत्र के समर्थक युवा रूस के मंसूबों पर पानी फेर देने के चक्कर में अपनी जान की बाजी लगाने को तैयार हैं. देशभक्ति इसे कहते हैं जिस का उद्देश्य सिर्फ कुछ शासकों या धर्मगुरूओं की रक्षा करना न हो. दुनिया में ज्यादातर युद्ध शासकों की सत्ता को फैलाने या बचाने के लिए या फिर किसी धर्म को फैलाने के नाम पर हुए हैं. अब यह पहला बड़ा युद्ध बन रहा है जिस में एक तरफ देश भक्ति और जनशक्ति से लबाबदा युवा. यूक्रेन की परीक्षा लोकतंत्र की परीक्षा है. उम्मीद करें कि जीत युवाओं की हो, तानाशाहों की नहीं.

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मत पहनाओ धर्म की चादर

लताब भारत रत्न लता मंगेशकर हमारे बीच नहीं हैं. मगर उन के संघर्ष की कहानियों के साथ उन का कृतित्व, उन के द्वारा स्वरबद्ध गीत सदैव लोगों के दिलोदिमाग में रहेगा. पिता दीनानाथ मंगेशकर के असामायिक देहांत के चलते महज 13 वर्ष की उम्र में भाई हृदयनाथ, 3 बहनों मीना, आशा व उषा तथा मां सहित पूरे परिवार की जिम्मेदारी कंधों पर आ जाने के बाद लता मंगेशकर अपनी मेहनत, लगन, जिद व सख्त इरादों के बल पर सिर्फ देश ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी एक अलग छाप छोड़ गईं.

पिता की याद में पुणे में अस्पताल

लता के पिता दीनानाथ मंगेशकर का निधन पुणे के ससून जनरल अस्पताल में हुआ था. पिता का निधन एक जख्म की तरह लता मंगेशकर के दिल में रहा. इसीलिए जब वे सक्षम हुईं, तो उन्होंने पुणे में सर्वसुविधासंपन्न अस्पताल बनवाया, जहां आज भी गरीबों का इलाज महज 10 रुपए में किया जाता है. इस अस्पताल में कई गायक, संगीतकार, म्यूजीशियन व कलाकार इलाज करा चुके हैं.

इस अस्पताल के निदेशक डा. केलकर कहते हैं, ‘‘लताजी ने बिना कौरपोरेट कल्चर वाले अस्पताल का सपना देखते हुए इस का निर्माण किया था, जहां हर इंसान अपने इलाज के लिए सहजता से पहुंच सके और कम दाम में अपना इलाज करा सके. इस के अलावा एक अस्पताल नागपुर में बनवाया. प्राकृतिक आपदा के वक्त भी मदद के लिए आगे आती थीं.’’

मगर लता मंगेशकर की आवाज ही उन की पहचान बनी. उन की आवाज के दीवाने पूरे विश्व में हैं. 36 भाषाओं में एक हजार से अधिक फिल्मों में उन्होंने 50 हजार से अधिक गाने गाए.

मगर आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं, तो उन के द्वारा स्वरबद्ध गीतों यानी उन के कार्यों की भी समीक्षाएं हो रही हैं. परिणामतया यह बात उभर कर आ रही है कि लता मंगेशकर ने अपनी हिंदुत्ववादी छवि को बरकरार रखने के लिए जिस तरह से भक्तिगीत गाते हुए जाने या अनजाने धर्म का प्रचार किया, वह 21वीं सदी के भारत के लिए उचित नहीं है.

मगर कुछ लोग मानते हैं कि लता मंगेशकर ने अपने कैरियर के शुरुआती दौर में परिवार के आर्थिक हालात को देखते हुए अपने प्रोफैशन यानी गायकी के प्रति ईमानदार रहते हुए उन्हें जिन गीतों को भी गाने का अवसर मिला वे गाए. उस वक्त उन के दिमाग में ‘हिंदूवादी छवि’ बनाने का कोई विचार नहीं था.

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क्यों नहीं बन पाईं शास्त्रीय गायक

लता मंगेशकर के गायन के संबंध में एक मुलाकात के दौरान लता की छोटी बहन मीना ने कहा था, ‘‘मेरा मानना है कि यदि मेरे पिता का निधन इतनी कम उम्र में न हुआ होता, तो लता दीदी एक महान शास्त्रीय गायक होतीं और उन का कैरियर एक अलग मुकाम पर होता. हमारे मातापिता ट्रैडीशनल थे. इसलिए उन्होंने लता दीदी का विवाह जरूर करवाया होता और शायद लता दीदी का अपना परिवार व बच्चे होते.’’

धार्मिक गीत व भजन

1961 में लता मंगेशकर ने फिल्म ‘हम दोनों’ में ‘अल्लाह तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम…’ गीत गाया था. फिल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में ‘यशोमती मैया से बोले नंदलाला…’ गाया था. फिल्म ‘अमर प्रेम’ में ‘बड़ा नटखट है यह नंदलाला…’ फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ में लता दीदी ने ‘एक राधा एक मीरा… एक प्रेम दीवानी एक दर्श दीवानी…’ गाया. ‘मैं नहीं माखन खायो…’, ‘ठुमकठुमक चलत रामचंद्र…’ सहित 100 से अधिक भजन गाए, जिन के चलते उन की हिंदूवादी छवि बनती गई.

मगर लता मंगेशकर ने ये सारे भक्ति गीत

50-60 व 70 के दशक में फिल्मों के लिए ही गाए थे. कभी किसी धार्मिक कार्यक्रम में शिरकत कर कोई भजन या भक्तिगीत नहीं गाया. यह वह दौर था, जब देश में हिंदुत्व की बातें नहीं की जा रही थीं. इतना ही नहीं उस काल में देश में आजादी, आजादी मिलने के बाद देश निर्माण, देश की अनगिनत समस्याओं की ही तरफ लोगों का ज्यादा ध्यान था.

इस वजह से भी उस काल में लता के इन भक्तिगीतों को ले कर चर्चाएं नहीं हुईं. लता दीदी की आवाज के दीवाने लोगों ने जरूर अपने घर के अंदर संपन्न होने वाले धार्मिक कार्यक्रमों में लता मंगेशकर द्वारा स्वरबद्ध भजन गाए. लता मंगेशकर के तमाम गीत लोगों के घरों के अंदर संपन्न होने वाले धार्मिक संस्कारों का हिस्सा रहे हैं.

लता मंगेशकर ने ‘श्री राम धुन…’ भी गाई. सोनी म्यूजिक वीडियो ने लता मंगेशकर द्वारा स्वरबद्ध ‘श्री राम धुन…’ का 1 घंटे से अधिक लंबा वीडियो 2014 में यूट्यूब पर जारी किया था, जिसे लगभग 10 लाख से अधिक व्यूज मिले. जबकि जिस तरह से लोगों की बीच उन की दीवानगी है और जिस तरह से 2014 से हिंदुत्व की बात की जा रही है, ऐसे में उन के इस अलबम को करोड़ों व्यूज मिलने चाहिए थे. मगर लता मंगेशकर के गाए हुए भजन कभी भी वायरल नहीं हुए, जबकि देशभक्ति का कोई भी कार्यक्रम पं. प्रदीप व लता के गीतों के बिना अधूरा ही रहता है.

इस की एक वजह यह भी रही कि लता मंगेशकर की छवि भले ही हिंदूवादी रही हो, मगर लता ने हमेशा पारिश्रमिक राशि को तवज्जो दी. पैसे को ले कर लता ने कभी कोई समझता नहीं किया. मृत्यु से पहले भी उन्हें हर माह रायल्टी से 40 लाख रुपए और 6 करोड़ रुपए वार्षिक की कमाई होती रही है. इसलिए भी हर चीज मुफ्त में पाने की अभिलाषा रखने वाली धार्मिक संस्थाओं या धार्मिक संस्थानों ने लता मंगेशकर द्वारा स्वरबद्ध गीतों से दूरी बनाए रखी.

जब मो. रफी से हो गया था झगड़ा

सभी को पता है कि 1961 में पहली बार गायकों ने रौयल्टी की मांग की थी. उस वक्त फिल्म ‘माया’ के लिए मो. रफी और लता मंगेशकर एकसाथ गीत ‘तस्वीर तेरे दिल में…’ को रिकौर्ड कर रहे थे. दोनों के बीच रौयल्टी को ले कर बहस छिड़ गई. मो. रफी रौयल्टी की मांग के खिलाफ थे और लता मंगेशकर रायल्टी की मांग करने वालों के साथ थीं.

यह बहस ऐसी हुई कि मो. रफी और लता मंगेशकर ने एकदूसरे के साथ न गाने का प्रण कर लिया. फिर लता मंगेशकर व मो. रफी ने पूरे 4 वर्ष तक न एकसाथ कोई गाना गाया और न ही एकसाथ किसी मंच को साझ किया.

वीर सावरकर की कविताएं

लता मंगेशकर ने वीर सावरकर की ‘सागरा प्राण तलमलल’ व ‘हे हिंदू नृसिंहा प्रभो शिवाजी राजा… हिंदू राष्ट्र को वंदना…’ सहित कई कविताओं को भी अपनी आवाज में गाया. इतना ही नहीं अनुपम खेर द्वारा शेअर किए गए वीडियो के अनुसार 22 दिसंबर, 2021 को ‘आजादी का अमृत महोत्सव कमेटी’ की दूसरी बैठक में लता मंगेशकर ने प्रधानमंत्री का आभार व्यक्त करने के अलावा भगवत गीता का श्लोक ‘यदा यदा ही धर्मस्य… परित्रणय साधू नाम… धर्म संस्थपनाय संभवामि युगे युगे…’ गाया था.

इसाई पृष्ठभूमि का गाया गीत

लता मंगेशकर ने विभिन्न धर्मों के लिए, विभिन्न देवीदेवताओं के सम्मान में भी गाया. स्वर कोकिला लता ने इसाई पृष्ठभूमि के साथ हिंदी में भगवान के लिए गीत गाया था, ‘पिता परमेश्वर, हो धन्यवाद, हो तेरी स्तुति और आराधना, मेरे मसीहा को धन्यवाद, तेरी आराधना में तनमन धन, पवित्र आत्मा को धन्यवाद, करती समर्पण जीवन और मन, पिता परमेश्वर हो धन्यवाद…’’

गुलाम हैदर बने गौड फादर

जब लता 18 वर्ष की थीं, तब संगीतकार गुलाम हैदर ने लता मंगेशकर को सुना और उन्हें फिल्म निर्माता शशधर मुखर्जी से मिलवाया था. लेकिन शशधर मुखर्जी ने यह कह कर लता दीदी से गंवाने से मना कर दिया था कि इन की आवाज काफी पतली है. बाद में गुलाम हैदर ने ‘मास्टरजी’ में गुलाम हैदर ने ही लता से पहली बार पार्श्वगायन करवाया था. इस तरह गुलाम हैदर उन के गौड फादर बन गए थे.

यह एक अलग बात है कि बाद में शशधर मुखर्जी को अपनी गलती का एहसास हुआ और फिर उन्होंने लता मंगेशकर से अपनी ‘जिद्दी’ व ‘अनारकली’ जैसी फिल्मों में गवाया था. बाद में गुलाम हैदर पाकिस्तान चले गए थे, मगर वहां से भी वे फोन पर लता दीदी के संपर्क में बने रहे.

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देशभक्ति

मगर जब एक बार हिंदूवादी छवि बन गई, तब इस से खुद को दूर करने के प्रयास के तहत ही लता ने फिल्म ‘ममता’ में ‘रहे न रहें हम, महका करेंगे…’ फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ में ‘राम तेरी गंगा मैली हो गई, पापियों के पाप धोते धोते…’ के अलावा तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी में ‘ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंखू में भर लो पानी…’ गीत गा कर जवाहर लाल नेहरू की आंखों में भी आंसू ला दिए थे. वहीं उन्होंने ‘सारा जहां से अच्छा हिंदुस्तान…’ सहित कई देशभक्ति के गीत भी गाए.

इतना ही नहीं लता मंगेशकर ने अपने पूरे कैरियर में द्विअर्थी गीतों से दूरी बनाए रखी. गीतकारों को कई बार लता मंगेशकर के दबाव में अपने गीत बदलने पड़े. पर अब लता के भजन व गीत बन सकते हैं धर्म प्रचार का साधन. लता मंगेशकर ने अपने जीवन में 100 से अधिक भक्तिगीत व भजन गाए, मगर उन के ये गीत कभी भी धर्मप्रचार का साधन नही बन पाए. लेकिन अब 21वीं सदी में लता मंगेशकर द्वारा स्वरबद्ध गीतों का उपयोग धर्म के प्रचार आदि में नहीं किया जाएगा, इस के दावे नहीं किए जा सकते.

लता का हीरा बेन को लिखा पत्र हुआ वायरल

लता मंगेशकर के देहांत के चंद घंटों के ही अंदर जिस तरह से उन के एक पत्र को सोशल मीडिया पर वायरल किया गया, उस से भी कई तरह के सवाल उठ खड़े हुए हैं. बौलीवुड का एक तबका मान कर चल रहा है कि अब भाजपा लता मंगेशकर की हिंदूवादी छवि व भजनों को भुनाने का प्रयास कर सकती है.

हर इंसान की अपनी व्यक्तिगत जिंदगी व निजी संबंध होते हैं. इन निजी संबंधों के चलते वह कुछ पत्र भी लिखता है. मगर उन पत्रों को किसी खास मकसद के लिए खास अवसर पर प्रचारित करना या सोशल मीडिया पर वायरल करना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता. मगर ऐसा हुआ.

यह एक अलग बात है कि राजनेताओं से उन के संबंध रहे हैं. मगर उन को भेजे गए पत्र का वायरल होना कई सवाल पैदा करता है?

अंतिम संस्कार और राजनीति

लता मंगेशकर के पिता दीनानाथ मंगेशकर का जन्मस्थल गोवा और कार्यस्थल मध्य प्रदेश व महाराष्ट्र था, जबकि लता मंगेशकर की जन्मभूमि इंदौर, मध्यप्रदेश व कर्मभूमि मुंबई रही. उन के देहावसान के बाद उन का अंतिम संस्कार मुंबई के शिवाजी पार्क में पूरे राजकीय सम्मान के साथ किया गया.सभी राजनीतिक दलों के नेता अंतिम संस्कार के वक्त श्रृद्धांजलि देने पहुंचे.

यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (नरेंद्र मोदी को लता दीदी अपना भाई मानती थीं) भी खासतौर पर दिल्ली से मुंबई पहुंचे. मगर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अनुपस्थिति ने विवादों को जन्म दिया. सोशल मीडिया पर अंतिम संस्कार के वक्त मध्य प्रदेश से किसी नुमायंदे के न आने को ले कर काफी कुछ कहा गया. कुछ लोगों ने दबे स्वर यहां तक कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी के चलते शिवराज सिंह चौहान ने दूरी बनाई.

खैर, दूसरे दिन मध्यप्रदेश के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने लता दीदी की याद में उन के नाम से संगीत अकादमी, संगीत महाविद्यालय, संगीत संग्रहालय और प्रतिमा लगाने तथा हर वर्ष लता दीदी के नाम का ‘लता पुरस्कार’ दिए जाने का ऐलान किया, तो वहीं स्मार्ट सिटी पार्क पहुंच कर लता मंगेशकर की स्मृति में बरगद का पौधा भी लगाया.

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Women’s Day: 75 साल में महिलाओं को धर्म से नहीं मिली आजादी

15 अगस्त को देश की स्वतंत्रता के 75 साल पूरे हो गए हैं. इन 7 दशकों में औरतों के हालात कितने बदले? वे कितनी स्वतंत्र हो पाई हैं? धार्मिक, सामाजिक जंजीरों की जकड़न में वे आज भी बंधी हैं. उन पर पैर की जूती, बदचलन, चरित्रहीन, डायन जैसे विशेषण चस्पा होने बंद नहीं हो रहे. उन की इच्छाओं का कोई मोल नहीं है. कभी कद्र नहीं की गई. आज भेदभाव के विरुद्ध औरतें खड़ी जरूर हैं और वे समाज को चुनौतियां भी दे रही हैं.

7 दशक का समय कोई अधिक नहीं होता. सदियों की बेडि़यां उतार फेंकने में 7 दशक का समय कम ही है. फिर भी इस दौरान स्त्रियां अपनी आजादी के लिए बगावती तेवरों में देखी गईं. सामाजिक रूढिवादी जंजीरों को उतार फेंकने को उद्यत दिखाई दीं और संपूर्ण स्वतंत्रता के लिए उन का संघर्ष अब भी जारी है. संपूर्ण स्त्री स्वराज के लिए औरतों के अपने घर, परिवार, समाज के विरुद्ध बगावती तेवर रोज देखने को मिल रहे हैं.

एक तरफ औरत की शिक्षा, स्वतंत्रता, समानता एवं अधिकारों के बुनियादी सवाल हैं, तो दूसरी ओर स्त्री को दूसरे दर्जे की वस्तु मानने वाले धार्मिक, सामाजिक विधिविधान, प्रथापरंपराएं, रीतिरिवाज और अंधविश्वास जोरशोर से थोपे जा रहे हैं और एक नहीं अनेक प्रवचनों में ये बातें दोहराई जा रही हैं.

स्त्री नर्क का द्वार

धर्मशास्त्रों में स्त्री को नर्क का द्वार, पाप की गठरी कहा गया है. मनु ने स्त्री जाति को पढ़ने और सुनने से वर्जित कर दिया था. उसे पिता, पति, पुत्र और परिवार पर आश्रित रखा. यह विधान हर धर्म द्वारा रचा गया. घर की चारदीवारी के भीतर परिवार की देखभाल और संतान पैदा करना ही उस का धर्म बताया गया. औरतों को क्या करना है, क्या नहीं स्मृतियों में इस का जिक्र है. सती प्रथा से ले कर मंदिरों में देवदासियों तक की अनगिनत गाथाएं हैं. यह सोच आज भी गहराई तक जड़ें जमाए है. इस के खिलाफ बोलने वालों को देशद्रोही कहा जाना धर्म है. स्त्री स्वतंत्रता आज खतरे में है.

औरत हमेशा से धर्म के कारण परतंत्र रही है. उसे सदियों से अपने बारे में फैसले खुद करने का हक नहीं था. धर्म ने औरत को बचपन में पिता, जवानी में पति और बुढ़ापे में बेटों के अधीन रहने का आदेश दिया. शिक्षा, नौकरी, प्रेम, विवाह, सैक्स करना पिता, परिवार, समाज और धर्म के पास यह अधिकार रहा है और 7 दशक बाद यह किस तरह बदला यह दिखता ही नहीं है. कानूनों और अदालती आदेशों में यह हर रोज दिखता है.

अब औरतें अपने फैसले खुद करने के लिए आगे बढ़ रही हैं. कहींकहीं वे परिवार, समाज से विद्रोह पर उतारू दिखती हैं.

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आजादी के बाद औरत को कितनी स्वतंत्रता मिली, उसे मापने का कोई पैमाना नहीं है. लेकिन समाजशास्त्रियों से बातचीत के अनुसार देश में लोग अभी भी घर की औरतों को दहलीज से केवल शिक्षा या नौकरी के अलावा बाहर नहीं निकलने देते. लिबरल, पढे़लिखे परिवार हैं, जिन्हें जबरन लड़कियों के प्रेमविवाह, लिव इन रिलेशन को स्वीकार करना पड़ रहा है. लोग बेटी और बहू को नौकरी, व्यवसाय करने देने पर इसलिए सहमत हैं, क्योंकि उन का पैसा पूरा परिवार को मिलता है. फिर भी इन लोगों को समाज के ताने झेलने पड़ते हैं. देश में घूंघट प्रथा, परदा प्रथा का लगभग अंत हो रहा है पर शरीर को ढक कर रखो के उपदेश चारों ओर सुनने को मिल रहे हैं.

आज औरतें शिक्षा, राजनीति, न्याय, सुरक्षा, तकनीक, खेल, फिल्म, व्यवसाय हर क्षेत्र में सफलता का परचम लहरा रही हैं. यह बराबरी संविधान ने दी है. वे आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर हो रही हैं. उन में आत्मविश्वास आ रहा है, पर पुरुषों के मुकाबले अभी वे बहुत पीछे हैं.

इन 70 सालों में औरत को बहुत जद्दोजहद के बाद आधीअधूरी आजादी मिली है. इस की भी उसे कीमत चुकानी पड़ रही है. आजादी के लिए वह जान गंवा रही है. आए दिन बलात्कार, हत्या, आत्महत्या, घर त्यागना आम हो गया है. महिलाओं के प्रति ज्यादातर अपराधों में दकियानूसी सोच होती है.

लगभग स्वतंत्रता के समय दिल्ली के जामा मसजिद, चांदनी चौक  इलाके में अमीर मुसलिम घरों की औरतों को बाहर जाना होता था, तो 4 लोग उन के चारों तरफ परदा कर के चलते थे. अब जाकिर हुसैन कालेज, जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी में युवतियां बुरके के बजाय जींसटौप में देखी जा सकती हैं. पर ठीक उसी के पास कम्युनिटी सैंटर में खुले रेस्तराओं में हिजाब और बुरके में लिपटी भी दिखेंगी.

बराबरी का हक

जीन और जींस की आजादी यानी पहननेओढ़ने की आजादी, पढ़नेलिखने की आजादी, घूमनेफिरने की आजादी, सैक्स करने की आजादी जैसे नारे आज हर कहीं सुनाई पड़ रहे हैं पर बराबरी का प्राकृतिक हक स्त्री को भारत में अब तक नहीं मिल पाया है.

दुनिया भर में लड़कियों को शिक्षित होने के हरसंभव प्रयास हुए. अफगानिस्तान में हाल  तक बड़ी संख्या में लड़कियों के स्कूलों को मोर्टरों से उड़ा दिया गया. मलाला यूसुफ जई ने कट्टरपंथियों के खिलाफ जब मोरचा खोला, तो उस पर जानलेवा हमला किया गया. कट्टर समाज आज भी स्त्री की स्वतंत्रता पर शोर मचाने लगता है.

दरअसल, औरत को राजनीति या पुरुषों ने नहीं रोका. आजादी के बाद सरकारों ने उन्हें बराबरी का हक दिलाने के लिए कई योजनाएं लागू कीं. पुरुषों ने ही नए कानून बनाए, कानूनों में संशोधन किए. स्वतंत्रता के बाद कानून में स्त्री को हक मिले हैं. उसे शिक्षा, रोजगार, संपत्ति का अधिकार, प्रेमविवाह जैसे मामलों में समानता का कागजों पर हक है. सती प्रथा उन्मूलन, विधवा विवाह, पंचायती राज के 73वें संविधान संशोधन में औरतों को एकतिहाई आरक्षण, पिता की संपत्ति में बराबरी का हक, अंतर्जातीय, अंतधार्मिक विवाह का अधिकार जैसे कई कानूनों के जरीए स्त्री को बराबरी के अधिकार दिए गए. बदलते कानूनों से महिलाओं का सशक्तीकरण हुआ है.

स्वतंत्रता पर अंकुश

औरतों पर बंदिशें धर्म ने थोपीं. समाज के ठेकेदारों की सहायता से उन की स्वतंत्रता पर तरहतरह के अंकुश लगाए. उन के लिए नियमकायदे गढे़. उन की स्वतंत्रता का विरोध किया. उन पर आचारसंहिता लागू की, फतवे जारी किए. अग्निपरीक्षाएं ली गईं.

कहीं लव जेहाद, खाप पंचायतों के फैसले, वैलेंटाइन डे का विरोध, प्रेमविवाह का विरोध, डायन बता कर हमले समाज की देन हैं. औरतें समाज को चुनौती दे रही हैं. सरकारें इन सब बातों से औरतों को बचाने की कोशिश करती हैं.

पर औरत को अपनी अभिव्यक्ति की, अपनी स्वतंत्रता की कीमत चुकानी पड़ रही है. मनमरजी के कपड़े पहनना, रात को घूमना, सैक्स की चाहत रखना, प्रेम करना ये बातें समाज को चुनौती देने वाली हैं इसलिए इन पर हमले किए जाते हैं.

आज स्त्री के लिए अपनी देह की आजादी का सवाल सब से ऊपर है. उस की देह पर पुरुष का अवैध कब्जा है. वह अपने ही शरीर का, अंगों का खुद की मरजी से इस्तेमाल नहीं कर पा रही है. उस पर अधिकार पुरुष का ही है. पुरुष 2-2, 3-3 औरतों के साथ संबंध रख सकता है पर औरत को परपुरुष से दोस्ती रखने की मनाही है. यहां पवित्रता की बात आ जाती है, चरित्र का सवाल उठ जाता है, इज्जत चली जाने, नाक कटने की नौबत उठ खड़ी होती है. आज ज्यादातर अपराधों की जड़ में स्त्री की आजादी का संघर्ष निहित है. भंवरी कांड, निर्भया मामला औरत का स्वतंत्रता की ओर बढ़ते कदम को रोकने का प्रयास था. औरतें आज घर से बाहर निकल रही हैं, तो इस तरह के अपराध उन्हें रोकने के लिए सामने आ रहे हैं. स्त्रियों की स्वतंत्रता से समाज के ठेकेदारों को अपनी सत्ता हिलती दिख रही है.

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आजकल अखबारों में रोज 5-7 विज्ञापन युवा लड़कियों के गायब होने, अपहरण होने के छप रहे हैं. ये वे युवतियां होती हैं, जिन्हें परिवार, समाज से अपने निर्णय खुद करने की स्वतंत्रता हासिल नहीं हो पाती, इसलिए इन्हें प्रेम, शादी, शिक्षा, रोजगार जैसी आजादी पाने के लिए घर से बगावत करनी पड़ रही है.

स्वतंत्रता का असर इतना है कि अब औरत की सिसकियां ही नहीं, दहाड़ें भी सुनाई पड़ती हैं. पिछले 30 सालों में औरतें घर से निकलना शुरू हुई हैं. आज दफ्तरों में औरतों की तादाद पुरुषों के लगभग बराबर नजर आने लगी है. शाम को औफिसों की छुट्टी के बाद सड़कों पर, बसों, टे्रेनों, मैट्रो, कारों में चारों ओर औरतें बड़ी संख्या में दिखाई दे रही हैं.

उन के लिए आज अलग स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय बन गए हैं. उन्हें पुरुषों के साथ भी पढ़नेलिखने की आजादी मिल रही है.

औरतों ने जो स्वतंत्रता पाई है वह संघर्ष से, जिद्द से, बिना किसी की परवाह किए. नौकरीपेशा औरतें औफिसों में पुरुष साथी के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं. घर आ कर भी फोन पर कलीग से, बौस से लंबी बातें कर रही हैं. वे अपने पुरुष मित्र के साथ हाथ में हाथ लिए सड़कों, पार्कों, होटलों, रेस्तराओं, पबों, बारों, मौलों, सिनेमाहालों में जा रही हैं. निश्चित तौर पर वे सैक्स भी कर रही हैं.

कई औरतें खुल कर समाज से बगावत पर उतर आई हैं. वे बराबरी का झंडा बुलंद कर रही हैं. समाज को खतरा इन्हीं औरतों से लगता है, इसलिए समाज के ठेकेदार कभी ड्रैस कोड के नियम थोपने की बात करते हैं, तो कभी मंदिरों में प्रवेश से इनकार करते हैं. हालांकि मंदिरों में जाने से औरतों की दशा नहीं सुधर जाएगी. इस से फायदा उलटा धर्म के धंधेबाजों को होगा.

अब औरत प्रेम निवेदन करने की पहल कर रही है, सैक्स रिक्वैस्ट करने में भी उसे कोई हिचक नहीं है. समाज ऐसी औरतों से डरता है, जो उस पर थोपे गए नियमकायदों से हट कर स्वेच्छाचारी बन रही हैं.

पर औरत के पैरों में अभी भी धार्मिक, सामाजिक बेडि़यां पड़ी हैं. इन बेडि़यों को तोड़ने का औरत प्रयास करती दिख रही है. केरल में सबरीमाला, महाराष्ट्र में शनि शिगणापुर और मुंबई में हाजी अली दरगाह में महिलाएं प्रवेश की जद्दोजहद कर रही हैं.

यहां भी औरतों को समाज रोक रहा है, संविधान नहीं. संविधान तो उसे बराबरी का अधिकार देने की वकालत कर रहा है. इन मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने रोक को गलत बताया है. उन्हें बराबरी का हक है.

लेकिन औरत को जो बराबरी मिल रही है वह प्राकृतिक नहीं है. उसे कोई बड़ा पद दिया जाता है, तो एहसान जताया जाता है. जबप्रतिभा पाटिल को राष्ट्रपति बनाया तो खूब गीत गाए कि देखो हम ने एक महिला को इस बड़े पद पर बैठाया है. महिला को राज्यपाल, राजदूत, जज, पायलट बनाया तो हम ने बहुत एहसान जता कर दुनिया को बताया. इस में बताने की जरूरत क्यों पड़ती है? स्त्री क्या कुछ नहीं बन सकती?

लड़की जब पैदा होती है, तो कुदरती लक्षणों को अपने अंदर ले कर आती है. उसे स्वतंत्रता का प्राकृतिक हक मिला होता है. सांस लेने, हंसने, रोने, चारों तरफ देखने, दूध पीने जैसे प्राकृतिक अधिकार प्राप्त होते हैं. धीरेधीरे वह बड़ी होती जाती है, तो उस से प्राकृतिक अधिकार छीन लिए जाते हैं. उस के प्रकृतिप्रदत्त अधिकारों पर परिवार, समाज का गैरकानूनी अधिग्रहण शुरू हो जाता है. उस पर धार्मिक, सामाजिक बंदिशों की बेडि़यां डाल दी जाती हैं. उसे कृत्रिम आवरण ओढ़ा दिया जाता है.  ऊपरी आडंबर थोप दिए जाते हैं. ऐसे आचारविधान बनाए गए जिन से स्त्री पर पुरुष का एकाधिकार बना रहे और स्वेच्छा से उस की पराधीनता स्वीकार कर लें.

हिंदू धर्म ने स्त्री और दलित को समाज में एक ही श्रेणी में रखा है. दोनों के साथ सदियों से भेदभाव किया गया. दलित रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया गया तो खूब प्रचारित किया गया कि घासफूस की झोपड़ी में रहने वाले दलित को हम ने 360 आलीशान कमरों वाले राष्ट्रपति भवन में पहुंचा दिया, लेकिन आप ने इन्हें क्यों सदियों तक दबा कर रखा? ऊपर नहीं उठने दिया उस की सफाई कोई नही दे रहा.

आज औरत को जो आजादी मिल रही है वह संविधान की वजह से मिल रही है पर धर्म की सड़ीगली मान्यताओं, पीछे की ओर ले जाने वाली परंपराओं और प्रगति में बाधक रीतिरिवाजों को जिंदा रखने वाला समाज औरत की स्वतंत्रता को रोक रहा है. दुख इस बात का है कि औरतें धर्म, संस्कृति की दुहाई दे कर अपनी आजादी को खुद बाधित करने में आगे हैं. अपनी दशा को वे भाग्य, नियति, पूर्व जन्म का दोष मान कर परतंत्रता की कोठरी में कैद रही हैं. आजादी के लिए उन्हें धर्म की बेडि़यों को उतार फेंकना होगा.

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सस्ती बिजली गरीबों का हक है

विधानसभा चुनावों में बिजली के दाम बड़ी चर्चा में रहे हैं. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का 200 यूनिट तक मुक्त बिजली देने का प्रयोग इतना सफल हुआ है कि पंजाब को तो छोडि़ए जहां अरविंद केजरीवाल की पार्टी सत्ता की मजबूत दावेदार है, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड में भी भारतीय जनता पार्टी 10 मार्च के बाद फिर सत्ता में आने पर बिजली सस्ती करने को मजबूर हो गई है.

बिजली को सस्ता या मुफ्त करना घरों के लिए एक वरदान है क्योंकि बिजली अब धूप और हक की तरह की हवा है. अमीर तो इसे सह लेते हैं पर गरीब घरों के लिए भी बत्ती, पंखा, टीवी, वाटर पंप और फ्रिज आवश्यकता है. क्योंकि आज बाहर का वातावरण इतना खराब, जहरीला और शोर से भरा है कि सुकून तो बंद कमरों में ही मिलता है. समाज की प्रगति आज घरों को जेलोंं में बदल चुकी है. मकान 5–10 मंजिला हो गए हैं. पानी का प्रेशर इतना नहीं होता कि ऊंचे तक चढ़ सके. खुले में सोने के लायक छत है ही नहीं. इस पर भी बिजली मंहगी हो और हर समय बिल न दे पाने की तलवार सिर पर लटकती रहे तो यह बेहद तनाव की बात है.

जहां पैसे की किल्लत है, वहां एक बत्ती, एक पंखा और एक फ्रिज लायक बिजली मिलती रहे तो ङ्क्षजदगी चल सकती है. इस बिजली का बिल कितने का आता है, अगर उसे जमा करना हो तो उतना ही खर्च बिजली कंपनी का हो जाएगा.

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बड़े घरों में एसी, 20-25 लाइटें जले, यह उन की आय पर निर्भर है. वे इस सस्ती बिजली की कीमत नहीं दे रहे क्योंकि 50 से 200 यूनिट तक बिजली इस्तेमाल करने वाले यदि बिजली ले तो भी उन के घर के पास तार गुजरेगा ही, खंबे खड़े होंगे ही. ज्यादा खर्च तो बिजली के वितरण का है, बनाने का नहीं.

अमीर यह न सोचें कि सस्ती बिजली उन की जेबे काट रही हैं, उल्टे गरीबों को मिली बिजली अमीरों को निरंतर बिना रूकावट बिजली मिलती रहेगी की गारंटी है. पहले जब बिजली मंहगी थी, अक्सर घंटों गायब रहती थी. शोर मचाने वालों की कोई सुनता नहीं था. अब ये मुक्त बिजली पाने वाले तुरंत धरना प्रदर्शन देना शुरू कर देंगे, जो काम अमीर नहीं कर सकते.

विधानसभा चुनावों में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी और कुछ तीर मार सके या नहीं, उस ने बिजली को चुनावी इश्यू बना कर यह गारंटी सरकारों से दिलवा दी कि बिजली मिलेगी और पैट्रोल व डीजल की तरह उस के दाम हर 24 घंटे में नहीं बढ़ेंगे.

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यहां कट्टरता की फसल न उगाई जाए

1 जनवरी वैसे तो नए साल की शुरूआत होती है और बच्चोंबड़ों सब के लिए खुशी मनाने का एक मौका होता है, इस 1 जनवरी, 2022 को कर्नाटक के एक डीयूनिवर्सिटी कालेज में मुसलिम लड़कियों का हिजाब पहन कर आना और प्रिंसीपल सद्र गौड़ा का उन को क्लास अटैंड करने से रोकने से शुरू हुआ. डाडिपी के इस कालेज में हिंदूमुसलिम कट्टरपंथियों दोनों ने तुरंत धर्म का पैट्रोल फेंकना शुरू कर दिया. मुसलिम लड़कियों ने हिजाब पहनने की धार्मिक आजादी का हक बताया तो बदले में हिंदू कट्टरपंथियों ने अपने पिट्ठओं को भगवा स्कार्फ पहनने को उक्सा दिया.

यह आज धीरेधीरे नहीं तुरंत फैलने लगी. दोनों धर्मों के लोग अपनी जिद पर अड़ गए. स्कूल कालेज प्रिंसीपल कहते थक गए कि स्कूलकालेजों को धर्म का युद्ध क्षेत्र न बनाओ पर धर्मों के ठेकेदार कब इन बातों को समझते हैं. एक ही क्लास में 2 टुकड़े होने लगे. कुछ हिजाब पहनने लगीं, कुछ भगवा स्कार्फ और कुछ खुले सिर. तीनों वर्ग एकदूसरे को दोष देने लगे हैं और जो थोड़ी बहुत दोस्तियां थीं वे सब धर्म के बुल्डोजरों से कुचल दी गई.

बच्चों को धर्म की शिक्षा दिलवाना हर धर्म का पहला काम है. बच्चों को तो खेल चाहिए होता है और वे ईद हो या दीवाली मौजमस्ती चाहते हैं और बढिय़ा खाना मांगते है फिर चाहे उन से कैसी एिक्टग करा लो, कैसी ही पोशाक उन्हें पहना दो. यह फंफूद धीरेधीरे दिमाग में बैठ जाती है और सब कुछ दूषित कर देती है. जो दिन हंसतेखेलने, खिलखिलाने, दोस्तियां बनाने के, पढऩे के, साथसाथ टै्रिकगों और पिकनिकों पर जाने के होते हैं, वे दिन अब धार्मिक एजेंडों को पूरा करने में लग गए हैं.

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लड़कियों को वैसे ही पढऩे की आजादी नहीं है. तालिबानी आफगानिस्तान में लड़कियों के स्कूल अभी तक नहीं खुले हैं. हां यह बात दूसरी कि तालिबानी नेता अपनी बेटियों को पाकिस्तान के प्राईवेट  मदरसों में जहां धार्मिक व आधुनिक शिक्षा दोनों मिल रही है या कातर, दुबई, आबूधाबी भेजने लगे हैं जबकि आम लड़कियां अपने को सिर से पैर तक ढके बंद कमरों में रहने को मजबूर हैं.

यह तालिबानी सोच भारत में भी एक्सपोर्ट हो गई अफसोस है. मुसलिम लड़कियों को किसी भी हालत में हिजाब पहन कर स्कूलकालेज में आने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए. न ही माथे पर तिलक, या टीका, गले में क्रौस का लाकेट, हाथों में धार्मिक अंगूठियां अलग होनी चाहिए. स्कूलकालेज धर्म की कट्टर सोच के भूसे और गोबर को निकालने के लिए है, वह खेत नहीं जहां कट्टरता की फसल उगाई जाए. धार्मिक स्वतंत्रता का अगर कोई अधिकार है तो वहां तक है जहां उस का किसी तरह से विरोध नहीं हो रहा है, स्कूल और कालेज की बाउंड्री के अंदर केवल तर्क, तथ्य और सच की स्वतंत्रता का अधिकार, झूठों पर आधारित धर्मों का नहीं.

लड़कियों के वर्तमान और भविष्य के साथ खिलवाड़ करने का हक न मुसलिम हिजाब को है, न भगवा स्कार्फ को.

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हंगामा है क्यों बरपा

किसी महिला डिगरी कालेज के 2-3 साल पुराने बैच की लड़कियों की आज की स्थिति का जायजा लिया जाए तो 100 छात्राओं के बैच की मात्र 3-4 लड़कियां वर्तमान में किसी अच्छी नौकरी में होंगी, 4-5 साधारण नौकरी में होंगी और अन्य सभी शादी कर के गृहस्थी का बोझ ढो रही होंगी.

भारत में लड़कियों को ग्रैजुएशन कराई ही इसलिए जाती है ताकि अच्छा घरवर मिल सके. नौकरी, बिजनैस या अन्य क्षेत्रों में बढि़या कैरियर के नजरिए से पढ़ाई करने वाली लड़कियों की तादाद मात्र 5 फीसदी है.

पितृसत्तात्मक समाज की मानसिकता पहले यह थी कि लड़की को पढ़ालिखा कर क्या करना है, आखिर ससुराल जा कर तो उसे रोटियां ही बनानी हैं, इसलिए चूल्हेचौके, सिलाईबुनाई का काम ठीक से सिखाया जाए. मगर आजकल इस मानसिकता में थोड़ा सा बदलाव यह आया है कि लड़की अगर कम पढ़ीलिखी होगी तो उस की शादी में दिक्कत आएगी. ठीक घरवर चाहिए तो लड़की को कम से कम ग्रैजुएशन करा दो. अगर वह परास्नातक हो, इंजीनियर हो, उस के पास एमबीए या एलएलबी जैसी बड़ी डिगरी हो तो और भी अच्छी नौकरी में लगे लड़के से शादी के चांसेज बढ़ जाते हैं.

साजिश नहीं तो और क्या

अब लड़की अनपढ़ हो या परास्नातक, शादी कर के उसे बाई का काम ही करना है- रोटी पकानी है, घर साफसुथरा रखना है, पति को शारीरिक सुख देना है, बच्चे पैदा करने हैं, घर के बुजुर्गों की सेवा करनी है और ऐसे ही और तमाम कार्य करने हैं. यह भारतीय समाज में अधिकांश महिलाओं की स्थिति है और इस में कोई झूठ नहीं है. आप अपने घर में देख लें या किसी भी पड़ोसी के घर में ?ांक लें, कमोबेश सब जगह एक ही सूरत है.

मांबाप का खूब पैसा खर्च करवा कर और कई साल रातों को जागजाग कर खूब कड़ी मेहनत से पढ़ कर बड़ीबड़ी डिगरियां हासिल करने वाली लड़कियां चूल्हेचौके तक सिमट कर रह जाती हैं. पति हर महीने उन के हाथ पर पैसे रखते हैं और वे उन्हीं में अपनी गृहस्थी चला कर खुशी महसूस करती हैं. फिर जीवनभर उन का ध्यान कभी अपनी क्षमता, अपने ज्ञान और अपनी काबिलीयत पर नहीं जाता है.

बात करते हैं मध्य प्रदेश के मंत्री बिसाहूलाल सिंह द्वारा महिलाओं के संबंध में की गई टिप्पणी की, जिस के लिए उन की खूब भर्त्सना हुई और उन्हें लिखित में माफी मांगनी पड़ी. बिसाहूलाल ने अनूपपुर की एक सभा में कह दिया कि जितने बड़ेबड़े लोग हैं, वे अपने घर की औरतों को कोठरी में बंद कर के रखते हैं. बाहर निकलने ही नहीं देते. धान काटने का, आंगन लीपने का, गोबर फेंकने का का ऐसे तमाम काम हमारे गांव की महिलाएं करती हैं.

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गलत क्या है

जब महिलाओं और पुरुषों का बराबर अधिकार है तो दोनों को बराबरी से काम भी करना चाहिए. सब अपने अधिकारों को पहचानो और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम करो. बड़े लोगों की महिलाएं बाहर न निकलें तो उन्हें पकड़पकड़ कर बाहर निकालो, तभी तो महिलाएं आगे बढ़ेंगी.

बिसाहूलाल ने इस में क्या गलत कहा? सच बोलने पर भी उन्हें क्यों माफी मांगनी पड़ी? बिसाहूलाल ने तो समाज के सच को सामने रखा था. पढ़ीलिखी महिलाओं को गृहस्थी के चूल्हे में अपने सपने, अपनी काबिलीयत, अपने ज्ञान और अपनी डिगरियां जलाने के बजाय बाहर निकल कर अपनी क्षमताओं को समाज व देश हित में लगाने का आह्वान किया बिसाहूलाल ने. तो इस में गलत क्या था?

दरअसल, पितृसत्तात्मक समाज को सच सुनना बरदाश्त ही नहीं है. वह औरत को आजादी और आर्थिक मजबूती तो हरगिज नहीं देना चाहता है. वह औरत को बस अपने रहमोंकरम और अपने टुकड़ों पर पलने के लिए मजबूर कर के रखना चाहता है.

बिसाहूलाल ने बड़े घरों की औरतों की बात उठाई. आमतौर पर भारत में बड़े और आर्थिक रूप से संपन्न घर सवर्ण जातियों के ही ज्यादा हैं. आर्थिक रूप से संपन्न होने के नाते महिलाओं की शिक्षादीक्षा भी अच्छी होती है. आमतौर पर ज्यादातर सवर्ण महिलाएं उच्च शिक्षा प्राप्त मिलेंगी, लेकिन उस शिक्षा का कोई प्रयोग वे समाज हित में नहीं करती हैं. समाज में अपनी बड़ी इज्जत का ढोल पीटने वाले सवर्ण पुरुष अकसर अपनी बहूबेटियों से नौकरी करवाना पसंद नहीं करते हैं. कुछ फीसदी ही हैं जो औरतों की शिक्षा और नौकरी को महत्त्व देते हैं और उन के घरों की महिलाएं ऊंचे पदों पर भी पहुंचती हैं.

थोथली दलील

आमतौर पर ऊंचे और सम्मानित घरों के पुरुषों की दलील यह होती है कि जब घर में पैसे की कमी नहीं है तो घर की औरतों को बाहर निकल कर सड़कों पर धक्के खाने और पैसा कमाने की क्या जरूरत है? तो फिर उन की औरतों द्वारा ली गई उच्च शिक्षा का औचित्य क्या था? वह सीट किसी गरीब और निम्न जाति की महिला को दे दी जाती तो वह नौकरी कर के अपने घर की आर्थिक स्थिति बेहतर कर सकती थी.

बिसाहूलाल ने बिलकुल ठीक कहा कि जितने धान काटने, आंगन लीपने, गोबर फेंकने के काम हैं वे हमारे गांव की महिलाएं करती हैं. उन के कहने का अर्थ यह कि छोटी जाति की महिलाएं शिक्षित नहीं होते हुए भी घर से बाहर निकल कर काम करती हैं और अपनी क्षमतानुसार पैसा कमाती हैं. बारीक नजर इन गरीब तबके की और उच्चवर्ग की महिलाओं पर डालें तो आप पाएंगे कि गरीब घर की जो महिला घर से बाहर निकल कर काम कर रही है वह खुद को ज्यादा आजाद पाती है. वह किसी पर निर्भर नहीं है. अपने पैरों पर खड़ी है और सब से बड़ी बात यह कि घर के फैसलों में उस का भी मत शामिल होता है.

मंत्री बिसाहूलाल ने अगली बात यह कही कि  जब महिलाओं और पुरुषों का बराबर अधिकार है तो दोनों को काम भी बराबरी से करना चाहिए. सब अपने अधिकारों को पहचानो और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम करो. बड़े लोगों की महिलाएं बाहर न निकलें तो उन्हें पकड़पकड़ कर बाहर निकालो. तभी तो महिलाएं आगे बढ़ेंगी.

दूरदर्शी सोच

इस वक्तव्य से बिसाहूलाल की देश की महिलाओं के प्रति विस्तृत और दूरदर्शी सोच का पता चलता है. देश के संविधान ने महिला और पुरुष दोनों को समान अधिकार दिए हैं. फिर क्यों एक पुरुष शिक्षा प्राप्त कर के बढि़या नौकरी करता है, बढि़या और ऊंची तनख्वाह वाली नौकरी की तलाश में अन्य शहरों तक और विदेशों तक बेखटके चला जाता है, जबकि एक महिला शिक्षा प्राप्त करने के बाद गृहस्थी के बंधन में जकड़ी घर की किचन तक सिमट कर रह जाती है.

वह लड़?ागड़ कर नौकरी कर भी ले तो उसे घर के पास ही किसी स्कूल या औफिस में काम करने की इजाजत मिलती है. वह अपनी शिक्षा और क्षमता के अनुसार दूसरे शहर या विदेश में नौकरी के लिए अप्लाई नहीं कर सकती है. यह उस की आजादी पर बहुत बड़ी रोक है. बिसाहूलाल इस रोक को हटाने का आह्वान कर रहे थे तो उस में गलत क्या था?

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आजादी चाहिए या धनदौलत

फिल्में समाज का आईना होती हैं. समाज जैसा है वही परदे पर आता है. भिन्नभिन्न समयकाल में भारतीय महिला की स्थितियां अनेक फिल्मों में दिखाई गई हैं. एक महिला को उस की आजादी प्रिय है या धनदौलत, इसे बहुत सुंदर तरीके से फिल्म ‘रौकस्टार’ के एक गाने में दर्शाया गया है. इस फिल्म के गीत ‘हवाहवा को जरा ध्यान से सुनिए- चकरी सी पैरों में… रुके न फिर पांव पांव पांव… पांव रुके न किसी के रोके… ये तो चलेंगे… नाच लेंगे…’

चिढ़ कर गुस्से में बोला राजा, ‘ओ रानी, क्यों फटकी मेरी पोछी, ओ नाक कटाई, वाट लगाई, तूने तलवाई मेरी इज्जत की भाजियां, आज से तेरा बंद बाहर है जाना…’

यह सुन कर रानी मुसकराई बोली, ‘सोने की दीवारें मु?ो खुशी न यह दे पाईं, आजादी दे दे मु?ो, मेरे खुदा… ले ले तू दौलत और कर दे रिहा… हवा हवा…’

इस गीत ने आर्थिक रूप से संपन्न घर में कैद औरत की छटपटाहट को बखूबी सामने रखा है. सोनेचांदी की बेडि़यां वह खुशी कभी दे ही नहीं सकतीं, जो आजाद हवा में सांस लेने पर मिलती है. इसलिए रानी कहती है, ‘ले ले तू दौलत और कर दे रिहा…’

यदि आर्थिक रूप से संपन्न औरत को अपने मनमुताबिक काम करने की आजादी न हो तो वह संपन्नता उस के लिए रोग बन जाती है.

देश की आजादी के 7 दशक बाद भी देश की आर्थिक आजादी और विकास में महिलाओं की भूमिका अब भी वैसी नहीं है जैसी होनी चाहिए. इस मामले में देश ने 70 सालों में भी कोई खास प्रगति नहीं की है. देश में हो रहे आर्थिक विकास के परिपेक्ष्य में इन्वैस्ट इंडिया इनकम ऐंड सेविंग सर्वे में जो आंकड़े निकल कर आए हैं वे बेहद निराशाजनक हैं.

गांवों में ज्यादा काम करती हैं महिलाएं

टीवी पर आधुनिक भारत की महिलाओं की तसवीर देख कर कोई विदेशी भ्रम में पड़ सकता है कि आधुनिक भारत के शहरों में रहने वाली महिलाएं घर से निकल कर बाहर काम करने के लिए कितनी उत्साहित हैं, परंतु वस्तुस्थिति बिलकुल भिन्न है. गांव में महिलाएं घर के बाहर जा कर ज्यादा काम करती हैं, शहरी आबादी की तुलना में. गांव में 45% से ज्यादा महिलाएं खेतों में काम करती हैं. इन में से 55% महिलाएं वर्ष भर में 50 हजार रुपए भी नहीं कमा पाती हैं.

शिक्षित न होने के कारण और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक न होने के कारण लोग उन का शोषण करते हैं. यह शोषण कार्यस्थल पर भी होता है और घर में भी. इन में से मात्र 15% महिलाएं ही ऐसी होंगी जो अपनी कमाई को अपनी इच्छानुसार खर्च कर पाती हैं वरना अधिकतर अपनी कमाई अपने पति के हाथ में रखने के लिए मजबूर होती हैं. उन का अपनी कमाई पर कोई अधिकार नहीं होता. पति जैसे चाहे उस का पैसा खर्च करता है.

शहरी क्षेत्रों में 2 से 5 लाख रुपए सालाना आय वाले परिवारों की मात्र 13% महिलाएं ही नौकरी करने के लिए घर से बाहर जाती हैं जबकि 5 लाख से ऊपर वाले आय वर्ग में काम करने वाली महिलाओं का प्रतिशत मात्र 9 है.

सपनों को उड़ान

जिन राज्यों की आर्थिक स्थिति अच्छी है वहां महिलाओं के नौकरी या घर से बाहर निकल कर काम करने का प्रतिशत कम है. पंजाब में 4.7% महिलाएं घर के बाहर काम करती हैं जबकि हरियाणा में 3.6%, दिल्ली में 4.3%, उत्तर प्रदेश में 5.4% महिलाएं काम के लिए घर से बाहर जाती हैं. वहीं बिहार में 16.3% और उड़ीसा में 26% महिलाएं घर से बाहर निकल कर मजदूरी या नौकरी करती हैं.

एक तथ्य जो गौर करने लायक है वह यह कि दक्षिण के राज्यों में जहां साक्षरता का प्रतिशत ज्यादा है वहां पर राज्यों की आर्थिक स्थिति अच्छी होने के बावजूद महिलाएं घर से निकल कर बाहर काम के लिए जाती हैं. तमिलनाडु में यह प्रतिशत 39 है, जबकि आंध्र प्रदेश में 30.5, कर्नाटक में 23.7 है यानी शिक्षित महिला जो निम्न या मध्यवर्ग की है, अपनी आजादी का आनंद लेने के साथसाथ आर्थिक रूप से भी मजबूत है.

मगर बाकी देश में सामाजिक बंधनों और धार्मिक कट्टरता के चलते महिलाएं चाह कर भी अपना योगदान खुद और देश के आर्थिक

विकास में नहीं दे पा रही हैं. हम चाहे कितनी भी आर्थिक आजादी की बात कर लें, पर जब तक महिलाओं के विकास और आजादी की बात

नहीं होगी, जब तक धर्म की बेडि़यां नहीं कटेंगी, औरत की इच्छाओं पर पड़े समाज के बंधन नहीं टूटेंगे, तब तक आर्थिक आजादी अधूरी नजर आएगी.

13% महिलाएं ही काम करती हैं

सामाजिक रूप से अब भी हम इस मामले में काफी पिछड़े हैं. घर की महिलाएं काम करने के लिए जाएं यह वहीं हो रहा है जहां परिवार काफी गरीब हैं और घर के मुखिया के मेहनताने पर घर नहीं चल पा रहा है यानी महिलाओं के घर से बाहर निकल कर काम करने को सीधे रूप से गरीबी से जोड़ कर ही देखा जाना चाहिए.

आंकड़े भी यही कहते हैं कि औरतों की जनसंख्या का मात्र 13 फीसदी ही बाहर काम करने के लिए जाता है. उन में से भी प्रति 10 महिलाओं में से 9 महिलाएं असंगठित क्षेत्रों में काम करती हैं. असंगठित क्षेत्रों में काम करने के कारण इन महिलाओं को सुविधाएं तो दूर, काम करने के लिए अच्छा माहौल तक नहीं मिल पाता है. अगर निम्न जाति की महिलाओं को अच्छी शिक्षा प्राप्त हो जाए तो यही महिलाएं देश और समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन कर सकती हैं.

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हर औरत का अपना आत्मसम्मान है

औरतों के सदियों से शिक्षा दी जाती रही है कि उन्हें सहनशीलता अपनानी चाहिए और अगर कोई उन के विरुद्ध कुछ कहे तो वे उसे चुपचाप सुन लें. इस सहनशीलता की आड़ में औरतों पर अत्याचार किए जाते रहे हैं और सासससुर, पति ही नहीं, देवर, जेठजेठानी और दूर के रिश्तेदार हर औरत, खासतौर पर नई बहू के खिलाफ एक मोर्चा बना लेते और रातदिन न केवल औरत के कामकाज की आलोचना का अधिकार रहता है, उस के घरवालों, बहन, पिता, भाई के चरित्र व व्यवहार को बखिया उधडऩे का जन्मसिद्ध अधिकार रहता है.

आजकल वे कानूनों ने और नई बहूओं की कमाई ने इस पर थोड़ा अंकुश लगाया है पर यह बिमारी समाप्त नहीं हुई है. यह तब है जब सरकार और धर्म के मालिक अपने खिलाफ बोले 2 शब्दों पर भी बेचैन हो उठते हैं. देश में कानूनों की भरमार है जिसमें धर्म या सरकार को सही या गलत कुछ कहने पर पुलिस वाले रात 12 बजे भी किसी को घर में उठा सकते हैं. जब से टिवट्र और इंस्टाग्राम जैसे एप बने हैं और कोई भी कुछ भी बड़ी संख्या में लोगों तक अपने विचार पहुंचा सकता है, सरकार और धर्म सत्ता औरतों से भी ज्यादा तुनकमिजाज हो गई है.

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सुप्रीम कोर्ट के अवकाश प्राप्त जज रोहिंदन नरीमन ने कहा है कि इस देश में, युवाओं, छात्रों, स्टेंडअप कौमेडियनों, समाचारपत्रों, वेबसाइटों पर बोले शब्दों पर राष्ट्रद्रोह के मुकदमे चला दिए जाते हैं और बहुत बार उन्हें महिनों जेलों में सडऩे को मजबूर किया जाता है. अब तक शायद ही कोई मामला हुआ तो जिसमें इन छात्रों, युवाओं, कौमेडियनों को देश के कानूनों के अनुसार अंतिम न्यायालय से अपराधी माना गया हो पर ट्रायल के दौरान ही उन्हें यातनाएं जेलों में मिल जाती है और उनके परिवार अदालतों और वकीलों पर पैसा बरसाते थकते रहते हैं. जो सहनशीलता औरतों में होने का उदपदेश दिया जाता है वह असल में सरकार व धर्म के मालिकों को दिया जाना चाहिए.

औरतों को भी हेट स्पीच का मुकाबला करना पड़ता है. शादी के तुरंत बाद से लेकर 10-20 साल तक उस के पीहर को लेकर टीका टिप्पणी चलती रहती है. वे ही लोग जो अपने धर्म या अपनी प्रिय पार्टी की सरकार के खिलाफ 4 शब्द नहीं सुन सकते, घर की सदस्या बनी बहू को वर्षों तक नहीं छोड़ते. सहनशीलता को जो सलाह औरतों को दी जाती है असल में सरकार और धर्मों को चलाने वालों को दी जानी चाहिए.

जहां बात औरतों के बारे बोलने का हक है, यह स्पष्ट है कि यह हक किसी को नहीं है, पति को भी नहीं. हर औरत का अपना आत्मसम्मान है, अपना परिवार है, पैतृर्क संबंध हैं और किसी को कुछ कहने का हक है और न उस से कुछ मिलता है. औरतों को दासी समझ कर उन्हें ताउम्र का अधिकारी मानना धर्मग्रंथों में लिखा है तो उस धर्म को घर में नहीं घुसने देना चाहिए.

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बुल्लीबाई एप: इंटरनेट का दुरुपयोग

बुल्लीबाई एप बना कर 18-20 साल के लडक़ेलड़कियों ने साबित कर दिया है कि देश की औरतें सोशल मीडिया की वजह से कितनी अनसेफ हो गई है. सोशल मीडिया पर डाली गई अपने दोस्तों के लिए फोटो का दुरुपयोग कितनी आसानी से हो सकता है और उसे निलामी तक के लिए पेश कर फोटो वाली की सारी इज्जत धूल में मिटाई जा सकती है.

सवाल यह है कि अच्छे मध्यम वर्ग के पढ़ेलिखे युवाओं के दिमाग में इस तरह की खुराफातें करना सिखा कौन रहा है. सोशल मीडिया एक यूनिवॢसटी बन जाता है जहां ज्ञान और तर्क नहीं बंटता, जहां सिर्फ गालियां दी जाती है और गालियों को सोशल मीडिया के प्लेटफार्मों के फिल्टरों (…..) से कैसे बचा जाए यह सिखाया जा रहा है.

उम्मीद थी कि सारी दुनिया जब धाएधाए हो जाएगी, दुनिया में भाईचारा फैलेगा और देशों के बार्डर निरर्थक हो जाएंगे. वल्र्ड वाइड वेब, डब्लूडब्लूडब्लू, से उम्मीद की कि यह देशों की सेनाओं के खिलाफ जनता का मोर्चा खोलेगी और लोगों के दोस्त, सगे, जीवन साथी अलगअलग धर्मों के, अलगअलग रंगों और अलगअलग बोलियों के होंगे. अफसोस आज यह इंटरनेट खाइयों खोद रहा है, अपने देशों में, एक ही शहर में, एक ही मोहल्ले में और यहां तक कि आपसी रिश्तों में भी. अमेरिका में गोरों ने कालों और हिप्सैनिकों को जम कर इंटरनेट के माध्यम से बुराभला कहा जिसे पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने खुल्लमखुल्ला बढ़ावा दिया. फेसबुक और ट्विटर को उन्हें, एक भूतपूर्व राष्ट्रपति को, बैन करना पड़ा.

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बुल्लीबाई में इधरउधर से चुराई गई औरतों की तस्वीरें मुसलिम वेशभूषा में हैं और उन की निलामी की गई यह कौन चला रहा था – एक 18 साल की लडक़ी, एक 21 साल का लडक़ा और एक और लडक़ा 24 साल का. इतनी छोटी उम्र में बंगलौर, उत्तराखंड और असम के ये बच्चे से मुसलिम समाज की बेबात में निंदा में लगे थे क्योंकि इंटरनेट के माध्यम से अपनी बात कुछ हजार तक पहुंचाना आसान है और वे हजार लाखों तक पहुंचा सकते हैं, घंटों में. अपने सही नाम छिपा कर या दिखा कर किया गया यह काम इन बच्चों का तो भविष्य चौपट कर ही देगा. क्योंकि ये पकड़े गए पर इन्होंने समाज में खाइयों की एक और खेप खोद डाली.

इन की नकल पर बहुत छोटे और बहुत बड़े पैमाने पर काम किया जा सकता है, राहुल गांधी को बदनाम करने के लिए उस के भाषणों का आगापीछा गायब कर के प्रसारित करने वाले ही उसे बुल्लीबाई के लिए जिम्मेदार हैं जो साबित करना चाहता है कि इस देश में एक धर्म चले. उन्हें यह समझ नहीं कि कभी किसी देशों में कोई राजा, क्रूरता भरे कामों से भी पूरी तरह न विरोधियों को, न दूसरी नसल वालों को, न दूसरे धर्म वालों को, न दूसरी भाषा वालों को खत्म कर गया. बुद्धिमान राजाओं ने तो उन्हें सम्मान दिया ताकि उन के देश दुनिया भर के योग्य लोग जमा हों.

एक शुष्क कैसी युवती चाहती है? जो हिंदूमुसलिम नारे लगाने में तेज हो या प्यार करने में? एक युवती कैसा शुष्क चाहती है? जो समझदार हो, उसे समझता हो, उस की देखभाल कर सके या ऐसा जो पड़ोसी का सिर फोडऩे को तैयार बैठा रहें. हिंदूमुसलिम 100 साल से साथ रह रहे हैं. पाकिस्तान और बांग्लादेश बनने के बाद भी वहां भी ङ्क्षहदू हैं चाहे और अपने दमखम पर जीते हैं. ये छोकरेछोकरी इंटरनेट को ढाल समझ कर बरबादी की बातें सुनसुन कर पगला गए हैं और उन्होंने जो किया है वह लाखों कर रहे हैं जब वे विधर्मी का मखौल उड़ाते मैसेज फौरवर्ड करते हैं. इसका नतीजा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देख लिया जब किसान बिल ही वापिस नहीं लेने पड़े, पंजाब में जनवरी के पहले सप्ताह में रैली रद्द करके लौटना पड़ा. बहाना चाहे कोर्ई हो, यह पक्का है कि रैली स्थल पर 70000 कुॢसयां उस समय भरी हुई नहीं थी जब प्रधानमंत्री एक फ्लाई ओवर पर 20 मिनट तक 12 करोड़ की गाड़ी में बैठे सोच रहे थे कि क्या करना चाहिए. इंटरनेट ने पंजाब में किसानों के प्रति खूब जहर भरा है क्योंकि किसान आंदोलन की शुरुआत वहीं से हुई थी और तब जहर भरे मैसेज इधरउधर फेंके गए थे. बदले में दिल्ली को घेराव मिला और अब प्रधानमंत्री मोदी को मजा चखना पड़ा.

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बेबात में इंटरनेट का दुरुपयोग लोगों को एकदूसरे से दूर कर रहा है. लोग पुरानी दोस्तियां तोड़ रहे हैं, रिश्तों में दरारें आ रही हैं, पति पत्नी के अंतरंग फोटो जनता में उनका मखौल उड़ा रहे हैं. आई लव यू अब कम इंटरनेट पर पौपुलर हो रहा है, अब आई हेट यू, आई हेट योर फैमिली, आई हेट और रिजिलन हो रहा है. व्हाट्सएप शटअप में बदल रहा है, फेसबुक अगली फेस में. इंटरनेट इंटरफीयङ्क्षरग हो गया है.

दहेज माने क्या

लेखक -अमन दीप   

दहेज कहूं या सरेआम दी जाने वाली रिश्वत, बात तो एक ही है. चलिए, सारी लड़ाई ही खत्म कर देते हैं आज. आज सवाल भी खुद कर लेते हैं और उस का जवाब भी खुद दे देते हैं.

तर्क : शादी एक सम  झौता है.

जवाब : चलिए, मान लिया कि शादी एक ‘सम  झौता’ है. ‘डील’ कह लीजिए. सम  झौता करने में शर्म आए न आए, सम  झौता बोलने में शर्म जरूर आती है.

तो भैया, यह कौन सी डील हुई? डील में तो एक हाथ से लेना, एक हाथ से देना होता है. आप तो लड़की भी दे रहे और उस के साथ उस का ‘पेमैंट’ भी आप कर रहे. ऐसे कैसे चलेगा मायके वालो?

तर्क : लड़की पराया धन होती है.

जवाब : भई, जब लड़की है ही उन की, जिन को आप सौंप आए तो किस बात की ‘भुगतान राशि’ भर आए भाईसाहब?

लड़की है कि आप की पौलिसी? भरे जा रहे हैं बिना सोचेसम  झे?

अपना धन भी आप देंगे, पराए लोगों का धन भी आप देंगे और   झुकेंगे भी आप ही जीवनभर? खुद के लिए तालियां भी खुद ही बजा लेंगे न?

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तर्क : हम यह सब सामान अपनी बेटी की सुखसुविधा के लिए दे रहे हैं.

जवाब : एक बात बताइए, जब सुखसुविधा का सामान आप को ही जुटा कर देना पड़ रहा है, तब या तो आप ने लड़का ही ऐसा देखा है जिस के पास खुद का कुछ सामान नहीं है तब तो ठीक है क्योंकि अपनी जिंदगी में लड़का पैदा कर के बस उन्होंने आप ही के ट्रक भर सामान भेजने का इंतजार किया है.

और अगर आप कहेंगे, लड़का तो संपन्न है, तो भैया, दोदो बार फ्रिज, डबलबैड, डाइनिंग सैट दे कर क्या करिएगा?

तर्क : देना पड़ता है, सामने वाले क्या सोचेंगे?

जवाब : एक काम करिए, सामने वाले की सोच की ही चिंता कर लीजिए आप. अपने बच्चे की खुशी, स्वाभिमान आदि सब बाद में. सब से पहले समाज और ससुराल.

बेहतर होगा, आप सामने वाली ‘पार्टी’ ही बदल लें. हो सकता है इस से अच्छी ‘डील’ आप को मिल जाए.

तर्क : लोग क्या कहेंगे?

जवाब : सब से बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग!

यह बताइए, जो कुछ सामग्री आप वहां डिस्प्ले में लगाने वाले हैं, उन में से कितने का पेमैंट आप के ‘लोग’ करने वाले हैं?

या उन में से कुछ भी उन के घर जाने वाला है? नहीं न. तो वे क्या सोचेंगे, इस से फर्क पड़ने की एक वजह बता दीजिए, बस.

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सचाई यह है कि- दहेज न उपहार है न उपकार.

समय आ गया है, सच अपनाने की हिम्मत रखें.

सरासर गलत इस परंपरा को अपने रिवाज, समाज, लिहाज, मुहताज जैसे शब्दों की दीवार के पीछे छिपाना बंद कीजिए.

जीवन की चादर पर आत्महत्या का कलंक क्यों?

रीना की बेटी रिया एक होनहार स्टूडेंट थी एक दिन ग्रुप स्टडी का बोल कर रात भर घर से बाहर रही ऐसे में जब घर मे बात पता चली तो रीना ने उसे खूब डाँटा और बात करना बंद कर दी क्योंकि माँ होने के नाते उसे लगा कि इस से रिया को अपनी गलती का अहसास होगा और आगे कभी बिना बताए ऐसा नहीं करेगी किंतु उसे क्या पता था कि रिया इतनी सी बात पर बजाय अपनी माँ से बात करने के अठारहवें माले से कूदकर अपने जीवन का ही अंत कर लेगी और रीना के जीवन मे अंतहीन अंधकार छोड़ जाएगी.इसी तरह रोहन पढ़ाई के लिए मुम्बई आया और गलत संगत में पड़ गया घर में कहता रहा कि मन लगाकर पढ़ रहा है किंतु जब रिजल्ट आया तो वो फेल हो गया था घर मे ये बताने की उसे हिम्मत न हुई उसे लगा कि किस मुँह से माता पिता का सामना करेगा इस से सरल उसे मौत को गले लगाना लगा और वो फाँसी पर झूल गया ये दो किस्से तो इस भयावह समस्या की बानगी भर है .ऐसी खबरें दिल दिमाग को झकझोर के रख देती हैं.किस तरह युवाओं और किशोरों के मन में इस तरह के विध्वंसक विचार आ सकते हैं.मोबाइल फ़ोन  न मिलना और दोस्तों के साथ बाहर जाने की इजाज़त न मिलना से लेकर एकतरफा प्रेम या घर में मनपसंद खाना न मिलने जैसी कई छोटी छोटी सी बातों पर युवाओं की आत्महत्या के किस्से सुनकर दिल दहल जाता है फिर भी ये हमें सोचने पर मजबूर करता है कि ऐसा क्या है जो ये इतनी कम उम्र में इस तरह आत्महत्या जैसा गंभीर कदम उठा लेते हैं.

कुछ समय पहले तक जब वैयक्तिक जीवन इतना कठिन नहीं था, मनुष्य की इच्छाएं और आवश्यकताएँ भी सीमित थीं तब आत्महत्या जैसे मामले कम ही देखने को मिलते थे, किंतु पिछले कुछ वर्षों में जीवन की विषमताओं से तंग आकर व्यक्ति का अपने जीवन को अंत करने की प्रवृत्ति में इज़ाफ़ा हुआ है.

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन की माने तो दुनिया में हर चालीस सेकंड में एक मृत्यु आत्महत्या के चलते होती है .ऐसी क्या मनःस्थिति हो जाती है इंसान की जो वो ये कर बैठता है.नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो(एन सी आर बी) के अनुसार पिछले दस सालों में देश में आत्महत्या के मामले 17.3 %तक बढ़े हैं.हर 10 सितंबर को वर्ल्ड सुसाइड प्रीवेंशन डे मनाया जाता है जिस से आत्महत्या के कारणों को समझा जा सके और लोगों को ऐसा करने से रोका जा सके.आत्महत्या का कारण तो कोई भी हो सकता है विशेषकर युवाओं की अगर बात करें तो आंकड़ों से यह साफ पता चलता है कि पिछले दस वर्षों में 15-24 साल के युवाओं में आत्महत्या के मामले सौ प्रतिशत से अधिक बढ़े हैं, ये मान्यता थी कि पारिवारिक आर्थिक संकट और पैसों की परेशानी ही व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिए मजबूर करती है लेकिन अब आर्थिक कारणों से कहीं अधिक कॅरियर की चिंता या विफलता युवाओं को आत्महत्या करने के लिए विवश कर रही है. इसके अलावा एक तरफ अभिभावकों व अध्यापकों का पढ़ाई के लिए बनाया जाने वाला मानसिक दबाव तो दूसरी ओर साधन संपन्न दोस्तों की तरह जीवन शैली अपनाने का दबाव उनमें आत्महत्या करने जैसी प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रहा है. इसके इतर कम उम्र के भावुक प्रेम संबंधों में कटुता या असफलता भी युवाओं के आत्महत्या करने का एक बड़ा कारण है किंतु फिर भी अभिभावकों का उनसे अत्यधिक अपेक्षाएँ उन्हें मानसिक रूप से कमजोर बना देती हैं और अंत में उनके पास अपना जीवन समाप्त करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं रह जाता.कोटा(राजस्थान) जो कि एक एजुकेशन हब के रूप में प्रसिद्ध हो गया है वहाँ देश भर के बच्चे आईआई टी की कोचिंग लेने आते हैं वहाँ बच्चे पढ़ाई के दबाव या अपने सहपाठियों से पीछे रह जाने के दुख में आत्महत्या करने के लिए प्रेरित होते हैं.

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मनोवैज्ञानिकों की मानें तो कोई भी व्यक्ति अचानक आत्महत्या करने के बारे में नहीं सोच सकता, उसे इतना बड़ा कदम उठाने के लिए खुद को तैयार करना पड़ता है और पहले से ही योजना भी बनानी पड़ती है. तनावपूर्ण जीवन, घरेलू समस्याएं, मानसिक रोग आदि जैसे कारण युवाओं को आत्महत्या करने के लिए विवश करते हैं.युवाओं के पास कई बार अपनी बात शेयर करने को कोई अनुभवी या बड़ा व्यक्ति नहीं होता जो उनकी बात धैर्य से सुनकर समस्या का समाधान कर सके इस अभाव के चलते भी युवाओं के द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं की संख्या अधिक है.विशेषज्ञ कहते हैं कि आत्महत्या मनोवैज्ञानिक के साथ-साथ एक आनुवंशिक समस्या भी है, जिन परिवारों में पहले भी कोई व्यक्ति आत्महत्या कर चुका होता है उसकी आगामी पीढ़ी या परिवार के अन्य सदस्यों के आत्महत्या करने की संभावना बहुत अधिक रहती है. वहीं दूसरी ओर वे युवा जो आत्महत्या के बारे में बहुत अधिक विचार करते हैं या उस से संबंधित सामग्री देखते पढ़ते हैं उनके आत्महत्या करने की आशंका काफी हद तक बढ़ जाती है इसे  सुसाइडल फैंटेसी कहा जाता है.

पर युवा ये कदम अक़्सर ये मानसिक आवेग के चलते ही उठाते हैं.आमतौर पर जब मन में स्वयं को ख़त्म कर लेने की बात मन में आती है कहीं न कहीं वो परिस्थितियों से हार कर अवसाद में घिरे होते हैं.उनकी मानसिक स्थिति ऐसी होती है कि उन्हें लगता है कि उनके जीवन का कोई मतलब नहीं है और जिस समस्या के वो शिकार हैं उसका कोई हल नहीं हो सकता. उनका मन नकारात्मक विचारों से भरा होता है अपने दर्द से मुक्ति का उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझता है.कुछ युवा गुस्से ,निराशा और शर्मिन्दगी में ये कदम उठा लेते हैं दूसरों के सामने वे सामान्य व्यवहार करते हैं जिस से उनकी मानसिक स्थिति का अंदाज नहीं लगाया जा सकता है. युवा ही नहीं अधिकाँशतः सभी लोग अपने जीवन में कभी न कभी आत्महत्या का विचार अवश्य करते हैं किसी किसी में ये भावना बहुत तीव्र होती हैं कुछ में ये क्षणिक होती है जो बाद में आश्चर्य करते हैं कि हम ऐसा सोच कैसे सकते हैं.हालाँकि ऐसे लोगों को आप पहचान नहीं सकते पर कुछ लक्षण इनमें होते हैं जैसे ठीक से खाना न खाना अपने मनोभावों को ये ठीक तरह व्यक्त नहीं कर पाते हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक किसी व्यक्ति में आत्महत्या का विचार कितना गंभीर है, इसकी जांच ज़रूरी है और इसके लिए मेंटल हेल्थ काउंसलिंग हेल्पलाइन की मदद लेनी चाहिए या फिर डॉक्टर को दिखाना चाहिए .युवाओं में अगर ये लक्षण दिखाई दें तो अवश्य ही ध्यान देने की जरूरत है मनोचिकित्सकों के अनुसार व्यवहार में इस तरह के संकेत मिलें तो आत्महत्या का विचार आ सकता है.

अवसाद,मानसिक स्थिति का एकसमान नहीं रहना,बेचैनी और घबराहट का होना,जिस चीज़ में पहले खुशी मिलती थी, अब उसमें रुचि ना होना,हमेशा नकारात्मक बातें करना, उदास रहना.मनोचिकित्सकों की मानें तो,इस तरह की “मानसिक स्थिति वाले लोग आत्महत्या का खयाल आने पर खुद को नुक़सान पहुंचा सकते हैं,इसलिए उनका तुरंत इलाज करना ज़रूरी है,”परंतु कई बार आत्महत्या का विचार आने पर मनोचिकित्सक के पास जाना सरल नही होता ऐसे में कई जगह जैसे मुम्बई के केईएम अस्पताल में इसके लिए एक हेल्पलाइन चलाई जा रही है जिस से फोन पर बात करके अपनी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है

हमारी आधुनिक जीवनशैली इसके लिए बहुत हद तक उत्तरदायी है.आज जीवन जिस तरह से भागदौड़ और प्रतिस्पर्धा से भरा हुआ है उसमें हम नई पीढ़ी को सुविधाएँ तो दे रहे हैं पर उन्हें मानसिक रूप से सुदृढ़ बनाने में असफल हो रहे हैं.उनको हम जीवन में जीतना तो सिखाते हैं पर हार को स्वीकारना नहीं सिखा पा रहे.जीवन मे उतार चढ़ाव अच्छा बुरा सभी कुछ देखना पड़ता है उस सब के लिए मानसिक तैयारी होनी ही चाहिए .एक असफलता पर अपनी हार मान लेना या अगर कोई ग़लती हो गयी तो उसे जीवन से बड़ा मान लेना कोई समझदारी तो नहीं है .ऐसी कोई समस्या नहीं बनी है जिसका कोई समाधान न हो यदि ये बात समझ ली जाए तो आत्महत्या रोकी जा सकती है.यदि परिवार के बड़े इनकी भावनाओं को समझें इनको समय दें इनकी समस्याओं को सुने इनका नज़रिया समझने का प्रयत्न करें तो शायद ऐसी स्थिति से बचा जा सकता है.कई बार युवाओं के मन मे इस तरह की धारणा बन जाती है कि माता पिता किसी भी बात पर नाराज़ हो जाएंगे या उनकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचेगी इसलिए वो इस बात के लिए उन्हें माफ नहीं करेंगे जबकि ऐसे में उन्हें याद रखना चाहिए कि उनकी कोई भी ग़लती, कोई भी असफलता माता पिता के लिए उनके जीवन से अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है ,उनका होना उनका बने रहना अधिक मायने रखता है .पर अभिभावकों पास भी समय का अभाव है उनकी अपनी समस्याएँ हैं इसलिए वो ये सोच ही नहीं पाते और उनका बच्चा दूर अवसाद की दुनिया में चला जाता है और जब कोई अनहोनी घट जाती है तब वो जागते हैं और तब तक देर हो चुकी होती है. जीवन अपने आप मे बहुत अमूल्य है इस तरह से जीवन से पलायन सही नहीं होता हमारे धर्मग्रंथों में भी लिखा है कि आत्महत्या करने पर मुक्ति नहीं होती इसलिए मानसिक रूप से सबल बनना चाहिए.कई बार जिस छद्म प्रतिष्ठा को बचाने के प्रयास में युवा इस तरह का कठौर कदम उठा लेते हैं वास्तव में उनके इस कदम के बाद माता पिता को और भी अधिक मानसिक यातनाओं और अपमान से गुजरना पड़ता है.

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आजकल संयुक्त परिवार की व्यवस्था समाप्त होने से युवाओं को वो मानसिक सुरक्षा मिलना बंद हो गयी है जो उन्हें अपने दादा दादी या नाना नानी के साथ रहने पर स्वाभाविक तौर पर मिला करती थी.कई बार अपनी कोई भी परेशानी जो वो माता पिता से शेयर नही कर पाते थे वो दादा दादी से आसानी से शेयर कर लेते थे और अपनी समस्या का आसान समाधान उन्हें मिल जाता था और माता पिता की अनुपस्थिति में उनकी गतिविधियों पर एक स्नेहपूर्ण दृष्टि भी बनी रहती थी जिस से ऐसी अनहोनी कम घटित होती थीं.ऐसे में माता पिता की जिम्मेदारी इस बात के लिए बढ़ जाती है कि वो अपने युवावस्था में कदम रख चुके बच्चों को ये समझा सकें कि कल्पनाओं से इतर जीवन के कठोर पक्ष को वो  सहजता से स्वीकार सकें.उनको ये समझाना कि छोटी छोटी परेशानियों में आहत होने जैसा कुछ भी नहीं है ना ही शर्मिंदगी वाली कोई बात ज़रूरी नहीं कि जीवन में सब कुछ मन मुताबिक हो.मनोचिकित्सकों की माने तो कई बार ये एक तरह की मानसिक बीमारी भी होती है जिस से युवा इस तरह के कदम उठा लेते हैं.इस तरह का मानसिक विकार आने के बाद अचानक वो अपने को अकेला महसूस करने लगते हैं.खाना पीना भी कम हो जाता है और उन्हें बेचैनी सी रहती है.ऐसे में तुरंत मनोचिकित्सक की राय लेना चाहिए परंतु इसके लिए जरूरी है कि मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान बना रहे.आज की पीढ़ी का जीवन के प्रति सकारात्मक नज़रिया बनाना बहुत ज़रूरी है तभी इस समस्या से उबर पाना मुमकिन है.

गौरतलब है कि शेक्सपीयर ने भी लिखा है कि-” जीवन अपने निकृष्टतम रूप में भी मृत्यु से बेहतर है.”

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