Family Story in Hindi

Family Story in Hindi
मैंएक मल्टीनैशनल कंपनी में सीनियर एक्जीक्यूटिव हूं. कंपनी द्वारा दिए 2-3 बैडरूम के फ्लैट में अपने परिवार के साथ रहता हूं. परिवार में मेरी पत्नी व एक 10 वर्ष का बेटा है जो कौन्वैंट स्कूल में छठी क्लास में पढ़ रहा है. मेरी पत्नी खूबसूरत, पढ़ीलिखी है. मैं इस फ्लैट में पिछले
2 साल से रह रहा हूं. चूंकि हम लोगों को कंपनी मोटी तनख्वाह देती है तो उसी हिसाब से काम भी करना पड़ता है. मैं रोज 9 बजे अपनी गाड़ी से औफिस जाता व शाम को 6-7 बजे लौटता. कभीकभी तो इस से भी ज्यादा देर हो जाती थी. इसलिए कालोनी या बिल्ंिडग में क्या हो रहा है, यहां कौन लोग रहते हैं और क्या करते हैं, इस की मुझे बहुत कम जानकारी है. थोड़ाबहुत जो मेरी पत्नी मुझे खाना खाते वक्त या किसी अन्य बातचीत में बता देती थी उतना ही मैं जान पाता था.
एक दिन छुट्टी के दिन मैं अपनी बालकनी में बैठा सुबहसुबह पेपर पढ़ते हुए चाय पी रहा था कि मेरी नजर मेरे सामने की बिल्ंिडग में रहने वाली लड़की पर पड़ी, जो यही कोई 17-18 वर्ष की रही होगी. वह मेरी तरफ देखे जा रही थी. पहले तो मैं ने उसे यों ही अपना भ्रम समझा कि हो सकता है उसे कुछ कौतूहल हो, इस कारण वह मेरे फ्लैट की तरफ देख रही हो.
वैसे सुबहशाम टहलने का मेरा एक रूटीन था. सुबह उठ कर आधापौना घंटा कालोनी की सड़कों पर टहलता था व रात को खाना खा कर हम तीनों, मैं, मेरी पत्नी व मेरा बेटा कालोनी में टहलते अवश्य थे. अगर मेरे बेटे को रात को आइसक्रीम खाने की तलब लग जाती थी तो उसे आइसक्रीम भी खिलाने जाना पड़ता था.
मैं ने कई बार इस बात पर ध्यान दिया कि वह लड़की मेरे ऊपर व मेरी गतिविधियों पर नजर रखती है. मैं बालकनी में बैठा पेपर पढ़ रहा होता तो वह बालकनी की तरफ देखती और मुझ पर नजर रखती थी. जब हम रात को टहल रहे होते तो वह भी अपने कुत्ते के साथ टहलने निकल आती थी. कभीकभी उस का छोटा भाई भी उस के साथ आ जाता था, जोकि सिर्फ 5-6 साल का था, मगर दोनों भाईबहनों में बहुत फर्क था. वह बहुत खूबसूरत थी पर उस का छोटा भाई देखने में बहुत साधारण था.
एक दिन रात को मैं ने उस के पूरे परिवार को देखा. उस लड़की को छोड़ कर बाकी सभी देखने में बहुत साधारण थे. मुझे ताज्जुब भी हुआ मगर चूंकि आज के जमाने में कुछ भी हो सकता है इसलिए मैं ने इस बारे में ज्यादा नहीं सोचा किंतु जब उस लड़की की मेरे में दिलचस्पी बढ़ती जा रही थी तो मुझे थोड़ी परेशानी होने लगी कि मेरी बीवी देखेगी तो क्या कहेगी, मेरे बच्चे पर इस का क्या असर पड़ेगा.
कुछकुछ अच्छा भी लग रहा था. इस उम्र में कोई नौजवान लड़की अगर आप को प्यार करने लगे, चाहने लगे तो बड़ा अच्छा लगता है. अपने पुरुषार्थ पर विश्वास और बढ़ जाता है. इसलिए मैं भी कभीकभी पेपर पढ़ते समय उस की तरफ देख लेता था. हालांकि मेरी बालकनी और उस की बालकनी में करीब 50 फुट का फासला था, फिर भी हम एकदूसरे पर नजर रख सकते थे.
कुछ दिनों बाद उस ने भी सुबहसुबह टहलना शुरू कर दिया. कभी मेरे आगे, कभी मेरे पीछे. मैं यह सोच कर थोड़ा रोमांचित हुआ कि वह अब मेरी निकटता चाहने लगी है. शायद उसे मुझ से वास्तव में प्यार हो गया है. मैं भी उस के मोह में गिरफ्तार हो चुका था. अब मैं खाली समय में उस के बारे में सोचता रहता था. 40 से ऊपर की उम्र में जब पतिपत्नी के संबंधों में एक ठहराव सा, एक स्थायित्च, एक बासीपन सा आ जाता है उस दौर में इस प्रकार के संबंध नई ऊर्जा प्रदान करते हैं.
लगभग हर व्यक्ति एक नवयौवना के प्यार की कामना करता है. कुछ पा लेते हैं, कुछ सिर्फ खयालों में ही अपनी इच्छा की पूर्ति करते हैं. कुछ लोग कहानियां, सस्ते उपन्यासों द्वारा अपनी इस चाहत को पूरा करते हैं, क्योंकि इस दौर में व्यक्ति इतना बड़ा भी नहीं होता कि वह हर लड़की को बेटी समान माने, बेटी का दरजा दे. वह अपने को जवान ही समझता है व जवानी की ही कामना करता है. मैं भी इस दौर से गुजर रहा था.
मगर एक दिन गड़बड़ हो गई. उसे कहीं जाना था जो शायद मेरे औफिस जाने के रास्ते में ही पड़ता था. मैं औफिस जाने के लिए तैयार हो कर निकला. अपनी गाड़ी मैं ने बाहर निकाली तो देखा वह मेरी तरफ ही चली आ रही है. उस ने मुझे इशारे से रुकने को कहा और नजदीक आ कर बोली, ‘‘अंकल, क्या आप मुझे कालीदास मार्ग पर छोड़ देंगे? मुझे देर हो गई है और मुझे वहां 10 बजे तक पहुंचना बहुत जरूरी है.’’
कार से कालीदास मार्ग पहुंचने में लगभग 45 मिनट लगते हैं. हालांकि अपने लिए अंकल संबोधन सुन कर मुझे कुछ झटका सा लगा था मगर शराफत के नाते मैं ने कहा, ‘‘बैठो, छोड़ दूंगा.’’
वह चुपचाप कार में बैठ गई.‘‘वहां के स्कूल में आज आईआईटी प्रवेश की परीक्षा है,’’ उस ने संक्षिप्त जवाब दिया.रास्तेभर हम खामोश रहे. वह अपने नोट्स पढ़ती रही. मैं ने उसे उस के स्कूल छोड़ दिया.
हालांकि मेरा मन बड़ा अनमना सा हो गया था अपने लिए अंकल संबोधन सुन कर. मैं तो क्याक्या खयाली पुलाव पका रहा था और वह मेरे बारे में क्या सोचती थी? मगर उस के बाद भी उस की गतिविधियों में कोई बदलाव नहीं आया. उसी प्रकार सुबहशाम टहलना, बालकनी में खड़े हो कर मुझे देखना. चूंकि दूरी काफी थी इसलिए मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि उस के देखने में अनुराग है, आसक्ति है या कुछ और है.
मैं ने सोचा, हो सकता है उसे मुझ से बात शुरू करने के लिए कोई और शब्द न मिला हो इसलिए उस ने मुझे ‘अंकल’ कहा हो. चूंकि मुझ को उस में रुचि थी अत: मैं ने उस के और उस के घरपरिवार के बारे में लोगों से पूछा, पता लगाया, पत्नी के द्वारा थोड़ीबहुत जानकारी ली. मुझे पता लगा उस के पिताजी भी एक दूसरी फर्म में इंजीनियर हैं मगर उन की यह
दूसरी पत्नी हैं. पहली पत्नी की मौत हो चुकी है.एक दिन छुट्टी के दिन वह सुबहसुबह मेरे फ्लैट में आई. मैं पेपर पढ़ रहा था. पत्नी ने दरवाजा खोल कर मुझे बुलाया, ‘‘आप से मिलने कोई रीमा आई है.’’
‘‘कौन रीमा?’’‘‘वही जो सामने रहती है.’‘‘ओह, मगर उसे मुझ से क्या काम?’’‘‘आप खुद ही उस से मिल कर पूछ लो.’’
मैं बालकनी से उठ कर ड्राइंगरूम में आया. उस ने मुझे नमस्ते की.मैं ने सिर हिला कर उस की नमस्ते का जवाब दिया.‘‘बोलो?’’ मैं ने पूछा.‘‘अंकल, मैं आप की थोड़ी मदद चाहती हूं.’’‘‘किस प्रकार की मदद?’’
वह थोड़ी देर खामोश रही, फिर बोली, ‘‘मेरा सलैक्शन आईआईटी में हो गया है मगर मेरे मम्मीपापा मुझे जाने नहीं देना चाहते. मैं चाहती हूं कि आप उन्हें समझाएं.’’
‘‘मगर मैं उन्हें कैसे समझाऊं, मेरा उन से कोई परिचय नहीं. कोई बातचीत नहीं. मेरी बात क्यों मानेंगे?’ ‘‘अंकल, प्लीज, मेरी खातिर, मेरी मम्मी की खातिर आप उन्हें समझाइए.’‘‘न ही मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूं और न ही तुम्हारी मम्मी को, फिर मैं तुम्हारी खातिर कैसे तुम्हारे पापा से बात करूं?’’
‘‘मैं प्रभा की बेटी हूं.’’‘‘कौन प्रभा?’’ ‘‘वही जो आप की दूर के एक रिश्तेदार की बेटी थीं.’’मैं चौंका, ‘‘क्या तुम्हारी मम्मी बाबू जगदंबा प्रसाद की बेटी थीं?’’‘‘जी.’’ ‘‘ओह, तो यह बात है, तो क्या तुम मुझे जानती हो?’’
‘‘जी, मम्मी ने आप के बारे में बताया था. नाना के पास आप की फोटो थी. मम्मी ने बताया था कि आप चाहते थे कि आप की शादी उन से हो जाए मगर नाना नहीं माने. क्योंकि तब आप की पढ़ाई पूरी नहीं हो पाई थी और आप लोग उम्र में भी लगभग बराबर के थे.’’
प्रभा बहुत खूबसूरत और मेरे एक दूर के रिश्तेदार की बेटी थी. वे लोग पैसे वाले थे. उस के पिताजी पीडब्ल्यूडी में इंजीनियर थे जबकि मेरे पिताजी बैंक में अफसर. तब पैसे के मामले में एक बैंक अफसर से पीडब्ल्यूडी के एक इंजीनियर से क्या मुकाबला?
मैं अभी पढ़ रहा था, तभी सुना कि प्रभा की शादी की बात चल रही है. मैं ने अपनी मां से कहलवाया मगर उन लोगों ने मना कर दिया, क्योंकि मैं अभी एमकौम कर रहा था और उन को प्रभा के लिए इंजीनियर लड़का मिल रहा था. फिर प्रभा की शादी हो गई. मैं ने एमकौम, फिर सीए किया तब नौकरी मिली. इसीलिए मेरी शादी भी काफी देर से हुई.
तो रीमा उसी प्रभा की बेटी है. मुझे प्रभा से शादी न हो पाने का मलाल अवश्य था मगर मुझे उस के मरने की खबर नहीं थी. असल में हमारा उन के यहां आनाजाना बहुत कम था. कभीकभार किसी समारोह में या शादीविवाह में मुलाकात हो जाती थी. मगर इधर 8-10 साल से मेरी उस के परिवार के किसी व्यक्ति से मुलाकात नहीं हुई थी. इसीलिए मुझे उस की मौत की खबर नहीं थी.
‘‘तुम्हारी मम्मी कब और कैसे गुजरीं?’’ मैं ने पूछा. ‘‘दूसरी डिलीवरी के समय 7 साल पहले मेरी मम्मी की मृत्यु हो गई.’’‘‘और आजकल जो हैं वह?’’‘‘एक साल बाद पापा ने दूसरी शादी कर ली. राहुल उन से पैदा हुआ है.’’
अब मुझे दोनों भाईबहनों की असमानता का रहस्य समझ में आया कि क्यों रीमा इतनी खूबसूरत थी और उस का भाई इतना साधारण. और क्यों दोनों में उम्र का भी काफी अंतर था.
‘‘तो तुम मुझ से क्या चाहती हो?’‘‘अंकल, मैं आप को पिता के समान मानती हूं. जब आप शाम को बच्चे के साथ बाहर घूमने निकलते हैं तो मुझे बड़ा अच्छा लगता है. मैं भी चाहती हूं कि मेरे पापा भी ऐसा करें मगर उन के पास तो मेरे लिए फुरसत ही नहीं है. मम्मी लगता है मुझ से जलती हैं कि मैं इतनी खूबसूरत क्यों हूं. अब इस में हमारा क्या दोष? इसीलिए वह मेरी हर बात में कमी निकालती हैं, हर बात का विरोध करती हैं. वह नहीं चाहतीं कि मैं ज्यादा पढ़लिख कर आगे बढ़ूं.’’
अब मुझे उस की नजरों का अर्थ समझ में आने लगा था. वह मुझ में उस आदर्श पिता की तलाश कर रही थी जो उस के आदर्शों के अनुरूप हो. जो उस के पापा की कमियों को, उस की इच्छाओं को पूरा कर सके. मुझे अपनी सोच पर आत्मग्लानि भी हुई कि मैं उस के बारे में कितना गलत सोच रहा था. लगता था वह घर से झगड़ा कर के आई थी.
‘‘तुम ने नाश्ता किया है कि नहीं?’’ मैं ने पूछा तो वह खामोश रही.मैं समझ गया. झगड़े के कारण उस ने नाश्ता भी नहीं किया होगा.‘‘ठीक है, तुम पहले नाश्ता करो. शांत हो जाओ. फिर मैं चलता हूं तुम्हारे घर.’’
मैं ने उसे आश्वस्त किया. फिर हम सब ने बैठ कर नाश्ता किया. मैं ने अपनी पत्नी को बताया कि मैं रीमा के मम्मीपापा से मिलने जा रहा हूं.
‘‘मैं भी साथ चलूंगी,’’ मेरी पत्नी ने कहा.‘‘तुम क्या करोगी वहां जा कर?’’
‘‘आप नहीं जानते, यह लड़की का मामला है. अगर उन्होंने आप पर कोई उलटासीधा इलजाम लगाया या आप से पूछा कि आप को उन की बेटी में इतनी रुचि क्यों है तो आप क्या जवाब देंगे? और अगर उन्होंने कहा कि आप को उस से इतना ही लगाव है तो उसे अपने पास ही रख लीजिए. तो क्या आप इतना बड़ा फैसला अकेले कर सकेंगे?’’
मैं ने इस पहलू पर गौर ही नहीं किया था. मेरी पत्नी का कहना सही था.हम सब एकसाथ रीमा के घर गए.
मैं ने उन के घर पहुंच कर घंटी बजाई. उस की मम्मी ने दरवाजा खोला तो हम लोगों को देख कर वह नाराजगी से अंदर चली गईं फिर उस के पापा दरवाजे पर आए.
वहां का माहौल काफी तनावपूर्ण थारीमा के पिता नरेशचंद्र और मां माया रीमा से बहुत नाराज थे कि वह घर का झगड़ा बाहर क्यों ले गई, वह मेरे पास क्यों आई?
‘‘कहिए, क्या बात है?’’ वह बोले.हम दोनों ने उन को नमस्कार किया. मैं ने कहा, ‘‘क्या अंदर आने को नहीं कहेंगे?’’ उन्होंने बड़े अनमने मन से कहा, ‘‘आइए.’’
हम सब उन के ‘ड्राइंग कम डाइनिंग रूम’ में बैठ गए. थोड़ी देर खामोशी छाई रही, फिर मैं ने ही बात शुरू की.‘‘आप शायद मुझे नहीं जानते.’’‘‘जी, बिलकुल नहीं,’’ उन्होंने रूखे स्वर में कहा.
‘‘आप की पहली पत्नी मेरी बहुत दूर की रिश्तेदार थीं.’’‘‘तो?’’
‘‘इसीलिए रीमा बेटी से हम लोगों को थोड़ा लगाव सा है,’’ मैं कह तो गया मगर बाद में मुझे स्वयं अपने ऊपर ताज्जुब हुआ कि मैं इतनी बड़ी बात कैसे कह गया.
‘‘तो?’’ उन्होंने उसी बेरुखी से पूछा.मैं ने बड़ी मुश्किल से अपना धैर्य बनाए रखा. मुझे उन के इस व्यवहार से बड़ी खीज सी हो रही थी. कुछ देर खामोश रह कर मैं फिर बोला, ‘‘वह आईआईटी से पढ़ाई करना चाहती है…’’
‘‘मगर हम लोग उस को नहीं भेजना चाहते,’’ मिस्टर चंद्रा ने कहा.‘‘कोई खास बात…?’’‘‘यों ही.’’
‘‘यों ही तो नहीं हो सकता, जरूर कोई खास बात होगी. जब आप की बेटी पढ़ने में तेज है और फिर उस ने परीक्षा में सफलता प्राप्त कर ली है तो फिर आप को एतराज किस बात का है?’’
अब मिसेज चंद्रा भी बाहर आ कर अपने पति के पास बैठ गईं.‘‘देखिए भाई साहब, रीमा हमारी बेटी है. उस का भलाबुरा सोचना हमारा काम है, किसी बाहरी व्यक्ति या दूर के रिश्तेदार का नहीं,’’ मिसेज चंद्रा बोलीं.
मैं ने खामोशी से उन की बात सुनी. उन की बातों से मुझे इस बात का एहसास हो गया कि मिसेज चंद्र्रा का ही घर में काफी दबदबा है और नरेश चंद्रा उन के ही दबाव में हैं शायद इसीलिए रीमा को आगे पढ़ने नहीं देना चाहते.
मैं ने अपना धैर्य बनाए हुए संयत स्वर में कहा, ‘‘आप की बात बिलकुल सही है मगर क्या आप नहीं चाहतीं कि आप की बेटी उच्च शिक्षा प्राप्त करे, इंजीनियर बने. लोग आप का उदाहरण दें कि वह देखो वह मिसेज चंद्रा की बेटी है जो इंजीनियर बन गई है,’’ मैं ने थोड़ा मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया.
मेरी बातों से वे थोड़ा शांत हुईं. उन का अब तक का अंदाज बड़ा आक्रामक था.‘‘मगर हम चाहते हैं कि उस की जल्दी से शादी कर दें. वह अपने पति के घर जाए फिर उस का पति जैसा चाहे, करे.’’
‘‘मतलब आप शीघ्र ही अपनी जिम्मेदारियों से छुटकारा पाना चाहती हैं.’’‘‘जी हां,’’ मिसेज चंद्रा बोलीं.
‘‘मगर क्या रीमा एक बोझ है? मेरे विचार से तो वह बोझ नहीं है, और आजकल तो लड़के वाले भी चाहते हैं कि लड़की ज्यादा से ज्यादा पढ़ी हो. और जब वह इंजीनियर बन जाएगी, खुद अच्छा कमाएगी तो आप को भी इतनी परेशानी नहीं होगी उस की शादी में,’’ मैं ने अपनी बात कही.
‘‘आप की बात तो सही है, मगर…’’ मिसेज चंद्रा सोचते हुए बोलीं.
मैं उन के इस मगर का अर्थ समझ रहा था किंतु मैं रीमा के सामने नहीं कह सकता था. वह हम लोगों के साथ ही बैठी थी. मैं ने उसे अपने बेटे व उस के भाई के साथ मेरे घर जाने को कहा. वह थोड़ा झिझकी. मैं ने उसे इशारों से आश्वस्त किया तो वह चली गई.
‘‘देखिए, जहां तक मैं समझता हूं आप का और रीमा का सहज संबंध नहीं है. आप लोगों के बीच कुछ तनाव है.’’
मिसेज चंद्रा का चेहरा गुस्से से तमतमा गया.
‘‘देखिए, मेरी बात को आप अन्यथा न लीजिए. यह बहुत सहज बात है. असल में आप दोनों के बीच किसी ने सहज संबंध बनाने का प्रयास ही नहीं किया. आप को उस की खूबसूरती के कारण हमेशा हीनता महसूस होती है. इसीलिए आप उसे हमेशा नीचा दिखाना चाहती हैं, उस की उन्नति नहीं चाहती हैं, मगर क्या यह अच्छा नहीं होता कि आप बजाय उस से जलने के गर्व महसूस करतीं कि आप की एक बहुत ही सुंदर बेटी भी है. उसे एक खूबसूरत तोहफा मानतीं नरेश की पहली पत्नी का. उसे इतना प्यार देतीं, उस की हर बात का खयाल रखतीं कि वह आप को अपनी सगी मां से ज्यादा प्यार, सम्मान देती. अगर आप को कोई परेशानी न हो तो मैं उस की जिम्मेदारी उठाने को तैयार हूं,’’ मैं ने अपनी पत्नी की तरफ देखा तो उस ने भी आंखों ही आंखों में अपनी रजामंदी दे दी.
मेरी बात का उन पर लगता है सही असर हुआ था क्योंकि जो बात मैं ने कही थी कभीकभी इन बातों का कुछ लोग उलटा अर्थ लगा लड़ने लग जाते हैं. मगर गनीमत कि उन्होंने मेरी बातों का बुरा नहीं माना.
‘‘ठीक है, जैसी आप की मरजी. आप उस से कह दीजिए कि हम लोग उसे इंजीनियरिंग पढ़ने भेज देंगे,’’ मिसेज चंद्रा ने बड़े ही शांत स्वर में कहा.
‘‘मैं नहीं, यह बात उस से आप ही कहेंगी और आप खुद देखेंगी कि इस बात का कैसा असर होगा.’’
थोड़ी देर में वह चाय और नाश्ता लाईं जिस के लिए अभी तक उन्होंने हम लोगों से पूछा नहीं था.
फिर मैं ने अपने घर टैलीफोन कर रीमा को बुलवाया. रीमा आई तो मिसेज चंद्रा ने उसे अपने पास बिठाया. उस का हाथ अपने हाथों में ले कर थोड़ी देर तक उसे देखती रहीं, फिर उन्होंने उस का माथा चूम लिया, ‘‘तुम जो कहोगी मैं वही करूंगी,’’ उन्होंने रुंधे गले से कहा तो रीमा उन से गले लग कर रोने लगी. मिस्टर चंद्रा की आंखों में भी आंसू आ गए थे. आंसू तो हमारी भी आंखों में थे मगर वह खुशी के आंसू थे.
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उम्र की परिपक्वता की ढलान पर खड़ी रेणु पार्क में अपनी शाम की सैर खत्म कर के बैंच पर बैठी सुस्ता रही थी. पास वाली बैंच पर कुछ लड़कियां बैठी गपशप कर रही थीं. वे शायद एक ही कालेज में पढ़ती थीं और अगले दिन की क्लास बंक करने की योजना बना रही थीं. उन की बातों को सुन कर रेणु के चेहरे पर एक चंचल सी मुसकान दौड़ गई. उसे उन की बातों में कहीं अपना अतीत झलकता सा लगा.
अपनी जिंदगी की कहानी के खट्टेमीठे पलों को याद करती रेणु कब पार्क की सैर से निकल कर अतीत की सैर पर चल पड़ी, उसे पता ही नहीं चला. अतीत के इस पन्ने पर लिखी थी करीब 30 साल पुरानी वह कहानी जब रेणु नईनई कालेज गई थी. अभी ग्रैजुएशन के पहले साल में थी. पहली बार आजादी का थोड़ा सा स्वाद चखने को मिला था वरना स्कूल तो घर के इतने पास था कि जोर से छींक भी दो तो आवाज घर पहुंच जाती थी.
घर से कौलेज पहुंचने में रेणु को बस से करीब 40-45 मिनट लगते थे. वह खुश थी कि कालेज घर से थोड़ी तो दूर है. रेणु के महल्लेपड़ोस की ज्यादातर लड़कियां इसी कालेज में आती थीं, इसलिए किसी भी शरारत को छिपाना तो अब भी आसान नहीं था. सब को राजदार बनाना पड़ता था.
महरौली के निम्न मध्यवर्गीय परिवार में पलीबढ़ी रेणु के घर का रहनसहन काफी कुछ गांव जैसा ही था. दरअसल, रेणु के जैसी पारिवारिक स्थिति वाले लोग एक दोहरी कल्चरल स्टैंडिंग के बीच ? झेलते रहते थे. एक ओर पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी अपने को महानगरीय सभ्यता के नजदीक पाकर उस ओर खिंचती थी, तो दूसरी ओर कम पढ़ी-लिखी पिछली पीढ़ी अपनी प्राचीन नैतिकता की जंजीर उनके
पैरों में डाल देती थी. सगे रिश्तों के अलावा ढेर सारे मुंह बोले रिश्ते जहां पुरानी पीढ़ी का सरमाया होते थे, वहीं नई पीढ़ी के लिए अनचाही रवायत. हर बात पर घर वालों के साथसाथ महल्लेपड़ोस की भी रोकटोक
के बीच नई पीढ़ी को 1-1 कदम ऐसे फूंकफूंक कर रखना पड़ता था जैसे लैंड माइंस बिछी हों.
‘‘2 साल पहले ही रेणु के बड़े भाई
की शादी हुई थी और अभी 2 दिन पहले ही वह एक प्यारे से गोलमटोल भतीजे की बूआ बनी थी. यह बच्चा नई पीढ़ी का पहला नौनिहाल था. घर में बहुत ही खुशी का माहौल था.
रेणु के बुआ बनने की खुशखबरी जब उस की सहेलियों तक पहुंची तो सब ने उस से पार्टी के तौर पर नई फिल्म ‘लव स्टोरी’ दिखाने का आग्रह किया. रेणु के लिए सब
के टिकट का इंतजाम करना इतना मुश्किल नहीं था जितना कि सहेलियों के साथ पिक्चर देखना, अम्मां से इजाजत लेना. रेणु आज
तक अपनी अम्मां को यह तो सम?ा नहीं सकी थी कि पिक्चर देखने का मतलब लड़की का हाथ से निकल जाना या बिगड़ जाना नहीं होता. ऐसे में अम्मां उसे सहेलियों के साथ पिक्चर देखने की इजाजत देने से पहले तो उस का कालेज जाना बंद करवा देगी और कहेगी,
‘‘घर बैठ कर घर के कामकाज सीख ले, कोई जरूरत नहीं है कालेज जाने की, न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी.’’
रेणु सोच रही थी कि कोई तिगड़म तो भिड़ानी ही पड़ेगी वरना इतने सालों में
जो एक निर्भीक लड़की की छवि सहेलियों के बीच बनाई थी उस की तो इतिश्री हो जाएगी. उस ने सोचा क्यों न अम्मां के बजाय बड़े भाई से पूछ लूं. वैसे तो रेणु की आजादी के मामले में वह अम्मां से भी दो कदम आगे था लेकिन आजकल स्थिति थोड़ी अलग थी. उस ने नयानया बाप का स्वाद चखा था, सो आजकल उस खुशी के नशे में रहता था. रेणु ने सोचा कि जब वह नवजात के साथ होगा, तब वह बात करेगी. फिर कुछ सहारा तो भाभी भी लगा देंगी. वैसे भी जब से उन्होंने बेटे को जन्म दिया है तब से उन की बात की खास महत्ता हो गई है पूरे परिवार में.
अगले दिन जब रेणु ने अपनी रिकवैस्ट को नरमनरम शब्दों के तौलिए में लपेट कर उस पर माहौल की खुशी का इत्र छिड़क कर बड़े भाई के सामने पेश किया तो पता नहीं ये रेणु के शब्दों का जादू था या भाई के पिता बनने का असर या यह कि उस के भाई ने न केवल इजाजत दे दी बल्कि अपनी जेब से पैसे निकालते हुए पूछा. ‘‘कितनी सहेलियां जाएंगी?’’
‘‘5,’’ रेणु खुशी से उछल कर बोली.
‘‘ठीक है, छोटे भाई के साथ जाना,’’ कह कर वह रेणु के खुशी के उबाल पर ठंडे पानी के छींटे मारकर चलता बना.
अब समस्या थी कि छोटे भाई का
पत्ता कैसे काटें? रेणु ने छोटे भाई को सारी बात बता कर उसे कल के 6 टिकट लाने
को कहा.
यह सुनते ही वह उबल पड़ा, ‘‘पागल है क्या, मैं भला तेरे और तेरी सहेलियों के साथ फिल्म देखने क्यों जाऊंगा?’’
रेणु अपनी खुशी छिपाते हुए रोआंसे स्वर में बोली, ‘‘ठीक है, फिर हम सब अकेली चली जाएंगी पर तू बड़े भाई को
मत बताना.’’
‘‘ठीक है तू भी मत बताना कि मैं तेरे साथ नहीं गया और हां मेरे टिकट के पैसे तो दे दे जो भाई ने दिए थे.’’
पैसे ले कर छोटा भाई भी मस्त हो गया. मेहनत मेरी पर फल उसे भी मिल गया था.
रेणु को लगा कि चलो अपना काम
तो हो गया. छोटे भाई का पत्ता खुद ही कट गया. उस ने तुरंत अपनी सहेलियों को फोन किया.
‘‘कल 12 से 3 का शो पक्का. हमें अपना लंच के बाद की 2 क्लासेज मिस करनी होंगी.’’
इस में भला किसे मुश्किल होनी थी? उन्हें तो बस कालेज से लौटने के टाइम तक घर लौटना था.
अगले दिन सही वक्त पर सब सहेलियां सिनेमाहौल पहुंच गईं.
रोमांटिक फिल्म थी, तो सभी लड़कियां जमीन से 2-3 इंच ऊपर ही चल रही थीं. फिल्म समय पर शुरू हो गई. कुमार गौरव के साथ विजयेता पंडित तो हमें सिर्फ 2-4 सीन में ही दिखाई दीं वरना तो परदे पर ज्यादातर हर लड़की खुद को कुमार गौरव के साथ
देख रही थी और सपनों के हिंडोले में ल रही थी.
मध्यांतर में रेणु वाशरूम गई. वह वाशरूम से निकल कर वाशबेसिन में हाथ धो रही थी कि शीशे में उस की नजर अपने पीछे खड़ी आशा दीदी पर पड़ी.
आशा दीदी, रेणु के पड़ोस में रहने वाले उस के मुंह बोले मामा की बेटी थी.
‘‘मुंह बोले क्यों.’’
‘‘अरे भई वे अम्मा के गांव के थे न इसीलिए.’’
अच्छा कालेज के टाइम में, क्लास छोड़ कर, घर वालों से छिप कर फिल्म देखी जा रही है. जरा पहुंचने दे मु?ो घर ऐसा बम फोड़ूंगी कि नानी याद आ जाएगी,’’ आशा दीदी तो चुप थीं पर जैसी उन की आंखें कह रही हों.
यह 80 के दशक की बात है, जब किसी लड़की का स्कूलकालेज के टाइम पर सिनेमाहौल में पाया जाना किसी गंभीर अपराध से कम नहीं था. रेणु के पड़ोस की एक लड़की की इसी
जुर्म के लिए आननफानन में शादी कर दी गई
थी. यह खबर महल्ले में फैले कि लड़की
कालेज के समय में फिल्म देखते हुए पकड़ी
गई, उस से पहले ही लड़की को विदा कर दिया गया था.
अब ऐसी स्थिति में रेणु की हालत खराब होना तो लाजिम था. वह चाह रही थी कि चाहे डांट कर ही सही, लेकिन आशा दीदी पूछ तो ले कि मैं कालेज के टाइम में यहां क्यों हूं ताकि मैं बता सकूं कि मैं घर वालों से इजाजत ले कर आई हूं. अब बिना पूछे कैसे बताऊं.
लेकिन आशा दीदी थी कि उस की गुस्से से भरी आंखें तो बोल रही थीं, लेकिन जबान पर ताला पड़ा था.
आखिर रेणु ने खुद ही इधरउधर की बातें शुरू कीं, ‘‘नमस्ते दीदी, कैसी
हो? जीजाजी कैसे हैं?’’
‘‘सब ठीक,’’ एक छोटा सा जवाब जबान से आया लेकिन गुस्से से भरी आंखें कह रही थीं कि हिम्मत तो देखो इस छोरी की, कालेज से भाग कर यहां लव स्टोरी देखी जा रही है और हाल पूछ रही है मेरे. हाल तो मैं तेरे पूछूंगी, तेरी यह हरकत सब को बताने के बाद.
इधर रेणु की पिक्चर शुरू होने वाली थी उधर दीदी थी कि पूछ ही नहीं रही थी.
उसे पूरा भरोसा था कि अगर दीदी बिना पूछे चली गई तो रेणु के घर पहुंचने से पहले तो दीदी पूरे महल्ले में पोस्टर लगवा चुकी होंगी. फिर भला इजाजत ले कर जाने की बात बताने का भी क्या फायदा होगा. लेकिन बिना पूछे बताए भी कैसे. रेणु अजीब कशमकश में थी.
तभी उस ने देखा कि दीदी तो अंदर की ओर जा रही हैं.
अब रेणु क्या करे, बिना बताए भला कैसे जाने दे, सो वह दौड़ कर दीदी के सामने जा खड़ी हुई और बोली, ‘‘दीदी आप को खुशखबरी पता है न? मैं बूआ बन गई हूं.’’
‘‘पता है,’’ कह कर दीदी हलका सा मुसकराई और फिर चल दी.
रेणु भी बिना पूछे अपनी सफाई देती हुई पीछेपीछे चलते हुए बोली, ‘‘हां दीदी, इसी खुशी में तो मैं अपनी सहेलियों को पार्टी दे रही हूं.’’
‘‘पार्टी, यहां सिनेमाहौल में,’’ दीदी ठसके से बोलीं, ‘‘अभी घर जा कर तेरी अम्मां को सब बताती हूं, तेरी सारी पार्टी निकालती हूं,’’ दीदी का लावा फूटा.
‘‘अरे नहीं दीदी, मैं तो घर वालों से पूछ कर आई हूं. भतीजा आने की खुशी में घर वालों ने इजाजत दी है,’’ रेणु सफाई देते हुए बोली.
‘‘अच्छा, घर वालों से पूछ कर वह भी कालेज के टाइम में, हां…’’ आंखें मटकाते हुए दीदी ने सीधा वार किया.
‘‘अरे दीदी, वह मेरी लंच के बाद आज कोई क्लास नहीं थी न इसलिए आज का प्लान बनाया था.’’
‘‘अच्छा, दीदी ने संदेहात्मक दृष्टि से इधर उधर नजर घुमाई, जैसे किसी के वहां होने की उन्हें पूरी उम्मीद है.
‘अब मैं दीदी को कैसे विश्वास दिलाऊं,’ रेणु ने सोचा. ये तो घर जा कर चुप रहने से रहीं.
तभी उस ने अपने कंधे पर किसी का हाथ महसूस किया, मुड़ कर देखा तो उस का छोटा भाई था.
वह नकली चिंता जताते हुए बोला, ‘‘अरे रेणु तू यहां क्या कर रही है, मैं अंदर कब से तेरा इंतजार कर रहा था. पिक्चर निकल जाएगी भई. जल्दी कर. फिर दीदी की ओर एक नजर देख कर बोला, ‘‘नमस्ते दीदी, कैसी हो?’’
‘‘बिलकुल ठीक. अच्छा तू भी आया है? चलो फिर तुम पिक्चर देखो मैं चलती हूं,’’ कह कर दीदी चल दीं.
रेणु की सांस में सांस आई. वह भाई से बोली, ‘‘तूं यहां कैसे?’’
भाई ने बताया, ‘‘तेरी मेहरबानी से मु?ो भी टिकट के पैसे तो मिल ही गए थे, तो मैं भी अपने दोस्तों के साथ पिक्चर देखने आ गया. यहां देखा तो तेरी क्लास लगी हुई थी,’’ फिर शरारत से मुसकरा कर बोला, ‘‘चल सम?ा ले कि मैं ने तेरा एहसान उतार दिया. तूने मेरे लिए टिकट के पैसों का इंतजाम किया और मैं ने तु?ो दीदी से बचाया. हिसाब बराबर,’’ दोनों का ठहाका सिनेमाहौल में गूंज उठा.
तभ रेणु का मोबाइल फोन बज उठा और वह अतीत की टाइम मशीन से निकल कर
तुरंत पार्क की बैंच पर पहुंच गई. रेणु ने फोन उठाया. उस की बेटी नीरा का फोन था.
‘हैलो मम्मा, मैं आज घर देर से आऊंगी. फ्रैंड्स के साथ मूवी देखने जा रही हूं,’’ कालेज में ऐक्सट्रा क्लासेज के बाद नीरा ने फोन किया था.
‘‘ओके बेटा,’’ कह कर रेणु ने फोन रख दिया और वह घर की ओर चल पड़ी. रास्ते मे कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा था, इसलिए वह अंधेरा होने से पहले घर पहुंच जाना चाहती थी.
जिन रास्तों पर वह जिंदगीभर चली थी, अब वे रास्ते लोगों को लंबे लगने लगे थे और सरकार द्वारा उन पर फ्लाईओवर बना कर उन्हें किसी तरह छोटा किया जा रहा था. रेणु सोच रही थी कि क्या ये फ्लाईओवर सिर्फ सड़कों पर ही बने हैं? जिंदगी की राहों पर भी तो हर कदम पर फ्लाईओवर बन गए हैं. द्य
उम्र की परिपक्वता की ढलान पर खड़ी रेणु पार्क में अपनी शाम की सैर खत्म कर के बैंच पर बैठी सुस्ता रही थी. पास वाली बैंच पर कुछ लड़कियां बैठी गपशप कर रही थीं. वे शायद एक ही कालेज में पढ़ती थीं और अगले दिन की क्लास बंक करने की योजना बना रही थीं. उन की बातों को सुन कर रेणु के चेहरे पर एक चंचल सी मुसकान दौड़ गई. उसे उन की बातों में कहीं अपना अतीत ?ालकता सा लगा.
अपनी जिंदगी की कहानी के खट्टेमीठे पलों को याद करती रेणु कब पार्क की सैर से निकल कर अतीत की सैर पर चल पड़ी, उसे पता ही नहीं चला. अतीत के इस पन्ने पर लिखी थी करीब 30 साल पुरानी वह कहानी जब रेणु नईनई कालेज गई थी. अभी ग्रैजुएशन के पहले साल में थी. पहली बार आजादी का थोड़ा सा स्वाद चखने को मिला था वरना स्कूल तो घर के इतने पास था कि जोर से छींक भी दो तो आवाज घर पहुंच जाती थी.
घर से कालेज पहुंचने में रेणु को बस से करीब 40-45 मिनट लगते थे. वह खुश थी कि कालेज घर से थोड़ी तो दूर है. रेणु के महल्लेपड़ोस की ज्यादातर लड़कियां इसी कालेज में आती थीं, इसलिए किसी भी शरारत को छिपाना तो अब भी आसान नहीं था. सब को राजदार बनाना पड़ता था.
महरौली के निम्न मध्यवर्गीय परिवार में पलीबढ़ी रेणु के घर का रहनसहन काफी कुछ गांव जैसा ही था. दरअसल, रेणु के जैसी पारिवारिक स्थिति वाले लोग एक दोहरी कल्चरल स्टैंडिंग के बीच ?ालते रहते थे. एक ओर पढ़ीलिखी नई पीढ़ी अपने को महानगरीय सभ्यता के नजदीक पा कर उस ओर खिंचती थी, तो दूसरी ओर कम पढ़ीलिखी पिछली पीढ़ी अपनी प्राचीन नैतिकता की जंजीर उन के
पैरों में डाल देती थी. सगे रिश्तों के अलावा ढेर सारे मुंह बोले रिश्ते जहां पुरानी पीढ़ी का सरमाया होते थे, वहीं नई पीढ़ी के लिए अनचाही रवायत. हर बात पर घर वालों के साथसाथ महल्लेपड़ोस की भी रोकटोक
के बीच नई पीढ़ी को 1-1 कदम ऐसे फूंकफूंक कर रखना पड़ता था जैसे लैंड माइंस बिछी हों.
‘‘2 साल पहले ही रेणु के बड़े भाई
की शादी हुई थी और अभी 2 दिन पहले ही वह एक प्यारे से गोलमटोल भतीजे की बूआ बनी थी. यह बच्चा नई पीढ़ी का पहला नौनिहाल था. घर में बहुत ही खुशी का माहौल था.
रेणु के बुआ बनने की खुशखबरी जब उस की सहेलियों तक पहुंची तो सब ने उस से पार्टी के तौर पर नई फिल्म ‘लव स्टोरी’ दिखाने का आग्रह किया. रेणु के लिए सब
के टिकट का इंतजाम करना इतना मुश्किल नहीं था जितना कि सहेलियों के साथ पिक्चर देखना, अम्मां से इजाजत लेना. रेणु आज
तक अपनी अम्मां को यह तो सम?ा नहीं सकी थी कि पिक्चर देखने का मतलब लड़की का हाथ से निकल जाना या बिगड़ जाना नहीं होता. ऐसे में अम्मां उसे सहेलियों के साथ पिक्चर देखने की इजाजत देने से पहले तो उस का कालेज जाना बंद करवा देगी और कहेगी,
‘‘घर बैठ कर घर के कामकाज सीख ले, कोई जरूरत नहीं है कालेज जाने की, न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी.’’
रेणु सोच रही थी कि कोई तिगड़म तो भिड़ानी ही पड़ेगी वरना इतने सालों में
जो एक निर्भीक लड़की की छवि सहेलियों के बीच बनाई थी उस की तो इतिश्री हो जाएगी. उस ने सोचा क्यों न अम्मां के बजाय बड़े भाई से पूछ लूं. वैसे तो रेणु की आजादी के मामले में वह अम्मां से भी दो कदम आगे था लेकिन आजकल स्थिति थोड़ी अलग थी. उस ने नयानया बाप का स्वाद चखा था, सो आजकल उस खुशी के नशे में रहता था. रेणु ने सोचा कि जब वह नवजात के साथ होगा, तब वह बात करेगी. फिर कुछ सहारा तो भाभी भी लगा देंगी. वैसे भी जब से उन्होंने बेटे को जन्म दिया है तब से उन की बात की खास महत्ता हो गई है पूरे परिवार में.
अगले दिन जब रेणु ने अपनी रिकवैस्ट को नरमनरम शब्दों के तौलिए में लपेट कर उस पर माहौल की खुशी का इत्र छिड़क कर बड़े भाई के सामने पेश किया तो पता नहीं ये रेणु के शब्दों का जादू था या भाई के पिता बनने का असर या यह कि उस के भाई ने न केवल इजाजत दे दी बल्कि अपनी जेब से पैसे निकालते हुए पूछा. ‘‘कितनी सहेलियां जाएंगी?’’
‘‘5,’’ रेणु खुशी से उछल कर बोली.
‘‘ठीक है, छोटे भाई के साथ जाना,’’ कह कर वह रेणु के खुशी के उबाल पर ठंडे पानी के छींटे मारकर चलता बना.
अब समस्या थी कि छोटे भाई का
पत्ता कैसे काटें? रेणु ने छोटे भाई को सारी बात बता कर उसे कल के 6 टिकट लाने
को कहा.
यह सुनते ही वह उबल पड़ा, ‘‘पागल है क्या, मैं भला तेरे और तेरी सहेलियों के साथ फिल्म देखने क्यों जाऊंगा?’’
रेणु अपनी खुशी छिपाते हुए रोआंसे स्वर में बोली, ‘‘ठीक है, फिर हम सब अकेली चली जाएंगी पर तू बड़े भाई को
मत बताना.’’
‘‘ठीक है तू भी मत बताना कि मैं तेरे साथ नहीं गया और हां मेरे टिकट के पैसे तो दे दे जो भाई ने दिए थे.’’
पैसे ले कर छोटा भाई भी मस्त हो गया. मेहनत मेरी पर फल उसे भी मिल गया था.
रेणु को लगा कि चलो अपना काम
तो हो गया. छोटे भाई का पत्ता खुद ही कट गया. उस ने तुरंत अपनी सहेलियों को फोन किया.
‘‘कल 12 से 3 का शो पक्का. हमें अपना लंच के बाद की 2 क्लासेज मिस करनी होंगी.’’
इस में भला किसे मुश्किल होनी थी? उन्हें तो बस कालेज से लौटने के टाइम तक घर लौटना था.
अगले दिन सही वक्त पर सब सहेलियां सिनेमाहौल पहुंच गईं.
रोमांटिक फिल्म थी, तो सभी लड़कियां जमीन से 2-3 इंच ऊपर ही चल रही थीं. फिल्म समय पर शुरू हो गई. कुमार गौरव के साथ विजयेता पंडित तो हमें सिर्फ 2-4 सीन में ही दिखाई दीं वरना तो परदे पर ज्यादातर हर लड़की खुद को कुमार गौरव के साथ
देख रही थी और सपनों के हिंडोले में ?ाल रही थी.
मध्यांतर में रेणु वाशरूम गई. वह वाशरूम से निकल कर वाशबेसिन में हाथ धो रही थी कि शीशे में उस की नजर अपने पीछे खड़ी आशा दीदी पर पड़ी.
आशा दीदी, रेणु के पड़ोस में रहने वाले उस के मुंह बोले मामा की बेटी थी.
‘‘मुंह बोले क्यों.’’
‘‘अरे भई वे अम्मा के गांव के थे न इसीलिए.’’
अच्छा कालेज के टाइम में, क्लास छोड़ कर, घर वालों से छिप कर फिल्म देखी जा रही है. जरा पहुंचने दे मु?ो घर ऐसा बम फोड़ूंगी कि नानी याद आ जाएगी,’’ आशा दीदी तो चुप थीं पर जैसी उन की आंखें कह रही हों.
यह 80 के दशक की बात है, जब किसी लड़की का स्कूलकालेज के टाइम पर सिनेमाहौल में पाया जाना किसी गंभीर अपराध से कम नहीं था. रेणु के पड़ोस की एक लड़की की इसी
जुर्म के लिए आननफानन में शादी कर दी गई
थी. यह खबर महल्ले में फैले कि लड़की
कालेज के समय में फिल्म देखते हुए पकड़ी
गई, उस से पहले ही लड़की को विदा कर दिया गया था.
अब ऐसी स्थिति में रेणु की हालत खराब होना तो लाजिम था. वह चाह रही थी कि चाहे डांट कर ही सही, लेकिन आशा दीदी पूछ तो ले कि मैं कालेज के टाइम में यहां क्यों हूं ताकि मैं बता सकूं कि मैं घर वालों से इजाजत ले कर आई हूं. अब बिना पूछे कैसे बताऊं.
लेकिन आशा दीदी थी कि उस की गुस्से से भरी आंखें तो बोल रही थीं, लेकिन जबान पर ताला पड़ा था.
आखिर रेणु ने खुद ही इधरउधर की बातें शुरू कीं, ‘‘नमस्ते दीदी, कैसी
हो? जीजाजी कैसे हैं?’’
‘‘सब ठीक,’’ एक छोटा सा जवाब जबान से आया लेकिन गुस्से से भरी आंखें कह रही थीं कि हिम्मत तो देखो इस छोरी की, कालेज से भाग कर यहां लव स्टोरी देखी जा रही है और हाल पूछ रही है मेरे. हाल तो मैं तेरे पूछूंगी, तेरी यह हरकत सब को बताने के बाद.
इधर रेणु की पिक्चर शुरू होने वाली थी उधर दीदी थी कि पूछ ही नहीं रही थी.
उसे पूरा भरोसा था कि अगर दीदी बिना पूछे चली गई तो रेणु के घर पहुंचने से पहले तो दीदी पूरे महल्ले में पोस्टर लगवा चुकी होंगी. फिर भला इजाजत ले कर जाने की बात बताने का भी क्या फायदा होगा. लेकिन बिना पूछे बताए भी कैसे. रेणु अजीब कशमकश में थी.
तभी उस ने देखा कि दीदी तो अंदर की ओर जा रही हैं.
अब रेणु क्या करे, बिना बताए भला कैसे जाने दे, सो वह दौड़ कर दीदी के सामने जा खड़ी हुई और बोली, ‘‘दीदी आप को खुशखबरी पता है न? मैं बूआ बन गई हूं.’’
‘‘पता है,’’ कह कर दीदी हलका सा मुसकराई और फिर चल दी.
रेणु भी बिना पूछे अपनी सफाई देती हुई पीछेपीछे चलते हुए बोली, ‘‘हां दीदी, इसी खुशी में तो मैं अपनी सहेलियों को पार्टी दे रही हूं.’’
‘‘पार्टी, यहां सिनेमाहौल में,’’ दीदी ठसके से बोलीं, ‘‘अभी घर जा कर तेरी अम्मां को सब बताती हूं, तेरी सारी पार्टी निकालती हूं,’’ दीदी का लावा फूटा.
‘‘अरे नहीं दीदी, मैं तो घर वालों से पूछ कर आई हूं. भतीजा आने की खुशी में घर वालों ने इजाजत दी है,’’ रेणु सफाई देते हुए बोली.
‘‘अच्छा, घर वालों से पूछ कर वह भी कालेज के टाइम में, हां…’’ आंखें मटकाते हुए दीदी ने सीधा वार किया.
‘‘अरे दीदी, वह मेरी लंच के बाद आज कोई क्लास नहीं थी न इसलिए आज का प्लान बनाया था.’’
‘‘अच्छा, दीदी ने संदेहात्मक दृष्टि से इधर उधर नजर घुमाई, जैसे किसी के वहां होने की उन्हें पूरी उम्मीद है.
‘अब मैं दीदी को कैसे विश्वास दिलाऊं,’ रेणु ने सोचा. ये तो घर जा कर चुप रहने से रहीं.
तभी उस ने अपने कंधे पर किसी का हाथ महसूस किया, मुड़ कर देखा तो उस का छोटा भाई था.
वह नकली चिंता जताते हुए बोला, ‘‘अरे रेणु तू यहां क्या कर रही है, मैं अंदर कब से तेरा इंतजार कर रहा था. पिक्चर निकल जाएगी भई. जल्दी कर. फिर दीदी की ओर एक नजर देख कर बोला, ‘‘नमस्ते दीदी, कैसी हो?’’
‘‘बिलकुल ठीक. अच्छा तू भी आया है? चलो फिर तुम पिक्चर देखो मैं चलती हूं,’’ कह कर दीदी चल दीं.
रेणु की सांस में सांस आई. वह भाई से बोली, ‘‘तूं यहां कैसे?’’
भाई ने बताया, ‘‘तेरी मेहरबानी से मु?ो भी टिकट के पैसे तो मिल ही गए थे, तो मैं भी अपने दोस्तों के साथ पिक्चर देखने आ गया. यहां देखा तो तेरी क्लास लगी हुई थी,’’ फिर शरारत से मुसकरा कर बोला, ‘‘चल सम?ा ले कि मैं ने तेरा एहसान उतार दिया. तूने मेरे लिए टिकट के पैसों का इंतजाम किया और मैं ने तु?ो दीदी से बचाया. हिसाब बराबर,’’ दोनों का ठहाका सिनेमाहौल में गूंज उठा.
तभ रेणु का मोबाइल फोन बज उठा और वह अतीत की टाइम मशीन से निकल कर
तुरंत पार्क की बैंच पर पहुंच गई. रेणु ने फोन उठाया. उस की बेटी नीरा का फोन था.
‘हैलो मम्मा, मैं आज घर देर से आऊंगी. फ्रैंड्स के साथ मूवी देखने जा रही हूं,’’ कालेज में ऐक्सट्रा क्लासेज के बाद नीरा ने फोन किया था.
‘‘ओके बेटा,’’ कह कर रेणु ने फोन रख दिया और वह घर की ओर चल पड़ी. रास्ते मे कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा था, इसलिए वह अंधेरा होने से पहले घर पहुंच जाना चाहती थी.
जिन रास्तों पर वह जिंदगीभर चली थी, अब वे रास्ते लोगों को लंबे लगने लगे थे और सरकार द्वारा उन पर फ्लाईओवर बना कर उन्हें किसी तरह छोटा किया जा रहा था. रेणु सोच रही थी कि क्या ये फ्लाईओवर सिर्फ सड़कों पर ही बने हैं? जिंदगी की राहों पर भी तो हर कदम पर फ्लाईओवर बन गए हैं.
‘‘हमारी बहू के कदम तो बड़े ही शुभ हैं. घर में पड़ते ही सभी की किस्मत चमक उठी,’’ सीमा आंटी यह बात अपने रिश्तेदारों, पड़ोसियों को दिन में कम से कम 10 बार तो जरूर सुनाती थीं.
1 महीना हो गया था सोहन और गौरी की शादी हुए. सोहन ने भी क्या किस्मत पाई थी, जो गौरी जैसी सलीकेदार, पढ़ीलिखी दुलहन मिली. सोहन खुद कई बार फेल होने के बाद बड़ी मुश्किल से 12वीं कक्षा पास कर पाया था. ऐसे लड़के को भला कौन सी नौकरी मिलने वाली थी? यह तो सिफारिश से चिपकाने के लायक भी नहीं था.
मनोज अंकल कमिश्नर के सैक्रेटरी के पद पर थे. उन्होंने बहुत कोशिशों के बाद गांव में रास्ता बनवाने का ठेका अपने बेटे को दिलवाया तो कहने को सोहन कमाऊ बेटा हो गया. लेकिन ठेकेदारी से हाथ में थोड़ाबहुत पैसा क्या आ गया, सोहन लड़कियों के साथ गुलछर्रे उड़ाने लगा.
मनोज अंकल व सीमा आंटी को उस की चिंता होने लगी. उन्होंने सोचा, वैसा ही किया जाए जैसा हमारे समाज में ज्यादातर मांबाप करते हैं. उस की शादी कर दी जाए तो घर के खूंटे से बंधा रहेगा. लेकिन जानपहचान में, रिश्तेदारी में कोई भी अपनी लड़की सोहन को देने के लिए राजी नहीं था
तब मनोज अंकल ने गांव से दूर गौरी नाम की लड़की ढूंढ़ी, क्योंकि इतनी दूर सोहन के गुणों के बारे में कोई नहीं जानता था. गौरी के पिता उस गांव के वैद्य थे. जड़ीबूटियों से लोगों का इलाज करते थे. लोग उन की बड़ी इज्जत करते थे.
सोहन हर लिहाज से नालायक वर था सिवा एक चीज के और वह थी उस की खूबसूरती. उस का बोलचाल का तरीका भी एकदम भिन्न था. उस के तौरतरीके इतने अच्छे थे कि सामने वाला धोखा खा जाए और गौरी के पिता भी धोखा खा गए.
सोहन के व्यक्तित्व और मनोज अंकल के रुतबे से गौरी के पिताजी इतने प्रभावित हो गए कि इन लोगों के बारे में ज्यादा खोजबीन करने की सोची ही नहीं. मनोज अंकल व सीमा आंटी भी बिना दहेज के चट मंगनी और पट ब्याह कर के बहू को घर ले आए.
सचाई कितने दिनों तक छिपती और कैसे छिपती? महीने भर के अंदर ही गौरी को सारी असलियत का पता चल गया. सोहन कहने भर को ठेकेदार है और ऊपर से अनपढ़ टाइप. उधर छोटे से गांव में रहने वाली गौरी ने दूर शहर जा कर एम.ए. की डिगरी हासिल की थी. वह भी दिखने में बहुत खूबसूरत थी और एकदम सलीकेदार थी.
गौरी जान गई कि इस शादी में उस के साथ धोखा हुआ है. मगर मांपिताजी से कैसे कहे? कब कहे? जब भी फोन पर उन से बात होती है घर का कोई न कोई सदस्य सामने जरूर मौजूद रहता है.
सीमा आंटी ने अपनी चालाकी का जाल बिछाना शुरू किया. वे बहू के बारे में सभी से अच्छीअच्छी बातें करतीं, उस की तारीफों के पुल बांधतीं, गुणों के कसीदे पढ़तीं. मनोज अंकल के वेतन में बढ़ोतरी हुई तो सीमा आंटी ने इस का भी श्रेय बहू को दिया कि हमारी बहू इतनी किस्मत वाली है कि उस के आते ही हमारी आमदनी बढ़ गई. साक्षात लक्ष्मी है हमारी बहू.
मनोज अंकल की सिफारिश पर सोहन को एक बड़ा ठेका मिल गया. यह भी बहू के शुभकदमों का कमाल था. एक शुभ काम वाकई में हुआ. वह यह कि मनोज अंकल की छोटी बेटी पूजा की शादी तय हो गई. पूजा दिखने में बहुत ही साधारण और मर्दाना व्यक्तित्व की मालकिन थी. पढ़ीलिखी थी, मगर कोई सलीका नहीं.
पूजा की शादी तय होना वाकई में अजूबा था. वर इतना अच्छा मिला कि पूछिए मत. इंजीनियर पिता का इकलौता लड़का. दिल्ली में नौकरी कर रहा था. मांपिताजी मुंबई में रहते थे. शादी के बाद पूजा को सासससुर का कोई झंझट नहीं. उन की सारी फैमिली एकदम खुले विचारों वाली थी.
सुमन आंटी 7वें आसमान पर थीं, ‘‘देखो, मेरी बहू के कदम पड़ते ही हमारी किस्मत तो सच में चमक गई. कितना अच्छा दामाद मिल गया. इतने भले लोग तो ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेंगे. क्या किस्मत पाई है हमारी पूजा बेटी ने,’’ सीमा आंटी अपने समधियों के गुण गाते नहीं थकती थीं.
सोहन और गौरी की शादी के 4 महीने बाद ही बड़ी धूमधाम से पूजा की शादी हो गई. पूजा अपने पति के साथ दिल्ली चली गई. बहू और बेटी का तीज का पहला त्योहार आया. सीमा आंटी ने जोरशोर से तैयारी शुरू कर दी.
‘‘हम तो पूजा को यहीं बुला लेंगे. उस का पहला त्योहार है न. 8-10 दिन हमारे साथ रहेगी. उस के सासससुर को भी न्योता भेजेंगे. 2-3 दिन के लिए वे लोग भी आ जाएंगे. समधियों को खुश रखना जरूरी है न?’’
एक दिन सीमा आंटी अपनी पड़ोसिन से कह रही थीं.
‘‘तो क्या गौरी भी अपने मायके जाएगी? उस का भी तो पहला त्योहार है,’’ पड़ोसिन ने खोजबीन शुरू की.
‘‘घर की बहू है. समधी लोग आएंगे तो घर की बहू का घर में होना जरूरी है. फिर वैसे भी उस छोटे से गांव में जा कर
क्या त्योहार मनाना?’’ सीमा आंटी ने सफाई दी.
‘‘उस का भी तो मन होगा मायके जाने का?’’ पड़ोसिन सीमा आंटी को कहां छोड़ने वाली थी.
‘‘इतने लोग आने वाले हैं, घर का काम कौन करेगा?’’ सच बात आंटी की जबान पर आ ही गई.
त्योहार सिर्फ बेटी के लिए था, बहू ने तो नौकरानी का दर्जा पाया था.
गौरी ने अपना मन मार कर सब का स्वागत किया. ढेर सारे पकवान बनाए. ननद के सासससुर, ननदोई खुश हो कर चले गए. गौरी समझ गई साल के सारे त्योहार, जो उस के भी पहले त्योहार होंगे, खुशी मनाने के बजाय काम करने में ही बीतेंगे.
पूजा 8 दिन और रही. उस के तौरतरीके, रंगढंग इस कदर बदल चुके थे कि
सामने वाला पहचान न पाए. जींस, शौर्ट कुरता, स्कर्ट, टौप व अलगअलग फैशन के जूते पहनती. मनोज अंकल व आंटी को यह सब बहुत अच्छा लगता था.
‘‘हमारी बेटी की किस्मत तो देखो, उस के सासससुर ने उसे सब कुछ पहनने की इजाजत दे रखी है. कहते हैं लड़कियों को तो नौकरी करनी चाहिए. जाते ही हमारी पूजा नौकरी ढूंढ़ेगी,’’ सीमा आंटी अपनी पड़ोसिन से कह रही थीं.
पड़ोसिन क्या कहती? वह तो हर रोज गौरी को सिर पर पल्लू लिए रसोई में खाना बनाते देख रही थी. सीमा आंटी खुद तो स्लीवलैस ब्लाउज पहनती थीं, तरहतरह की लिपस्टिक लगाती थीं, मगर बहू फुलस्लीव ब्लाउज पहने और बिना मेकअप के रसोई में पसीने में नहाती दिखाई देती.
सोहन, जो गौरी का पति था, अपनी कमाई बाहर उड़ाता था. जो पति अपनी पत्नी की कदर नहीं करता, उस का सम्मान नहीं करता उस की इज्जत बाकी घर वाले भी नहीं करते. वह घर वालों के लिए महज नौकरानी बन कर रह जाती है.
गौरी देखने में बहुत सुंदर थी. अगर बहू बनठन कर रहे तो अपनी बेटी फीकी पड़ जाएगी, इस ईर्ष्या से सीमा आंटी बहू को संवरने नहीं देतीं. उस के लिए बेढंगे ब्लाउज सिलवा कर लातीं.
‘‘हम तो पुराने खयालात के लोग हैं,’’ कह कर बहू पर पाबंदियां लगाती रहतीं.
गौरी ने एक बार दबे मुंह कह दिया, ‘‘पूजा के तो सारे शौक पूरे होते हैं. हमें तो नौकरानी बना कर लाया गया है.’’
गौरी के मांपिताजी को कभी न्योता नहीं गया, न गौरी को मायके भेजा गया. पूजा 6 महीने में चौथी बार मायके आ गई. आंटी का सोशल वर्क यानी किट्टी पार्टी, क्लब जाना, महिला मंडल जाना, पिक्चर देखने जाना बढ़ गया.
साल बीत गया. गौरी मां बन गई. एक नन्हे से प्यारे बेटे को जन्म दिया.
‘‘कसबे में बच्चा कैसे होगा?’’ कहकर सीमा आंटी ने उसे ससुराल में रोक लिया था.
‘‘वहां की औरतों के भी बच्चे होते हैं. इतनी ही सुविधाएं वहां भी मौजूद हैं,’’ गौरी ने अपना पक्ष रखने की कोशिश की थी मगर
उस की कौन सुनता? सोहन तो गौरी का कभी था ही नहीं, जो उस के पक्ष में बोलता. न गौरी मायके गई, न उस के मांपिताजी को न्योता गया.
40 दिन तक गौरी को जिस्मानी आराम तो मिल गया, मगर उस का मन रोता रहा. 40 दिन होते ही सीमा आंटी पुण्य कमाने 20 दिन की तीर्थ यात्रा पर चली गईं. बहू के लिए 40 दिन का आराम बहुत है. बहू कमर कस कर काम पर लग गई.
भाभी की मदद करने पूजा आ गई. वह बच्चे ले कर कमरे में लेटी रहती और गौरी किचन में खड़ी उस की फरमाइशें पूरी करती.
‘भाभी आज मालपूए बनाओ’, ‘भाभी आज कचौडि़यां खाने को मन कर रहा है.’
घर के कामों में गौरी इस कदर उलझ गई कि बच्चे को वक्त पर दूध भी न पिला पाती. उस का दूध सूख गया. बच्चा कमजोर होता चला गया.
20 दिन बाद वापस आ कर सास ने बहू को खूब सुनाया, ‘‘कैसी मां हो, बच्चे को वक्त पर दूध भी नहीं पिलाया. हमारे पोते को दुबला कर दिया. बच्चे को देखने के लिए पूजा तो थी, तुम्हें क्या काम था?’’
गौरी क्या बताती? 2 महीने बाद बच्चे का नामकरण करना तय हो गया. सभी रिश्तेदार आए, पूजा के सासससुर आए. उन्होंने गौरी से पूछा, ‘‘तुम्हारे मांबाबूजी नहीं आए?’’
गौरी ने जवाब दिया, ‘‘बुलाएंगे तभी तो आएंगे.’’
पूजा के ससुरजी से रहा न गया. उन्होंने मनोज से पूछा, ‘‘गौरी के मांबाप तो कभी दिखे नहीं.’’
सीमा आंटी ने बखूबी जवाब दिया, ‘‘अजी, पहले से ही इतने सारे मेहमान आए हैं और लोग कहां समाएंगे?’’
‘‘बच्चे के नामकरण पर बहू अपनी सास को तोहफा देती है, ऐसा हमारे यहां रिवाज है,’’ सीमा आंटी की जेठानी ने आग में घी डालने का काम शुरू किया, ‘‘अरे, बहू तो आप के लिए कोई तोहफा लाई ही नहीं. क्या सिखा कर भेजा है इस के मांबाप ने?’’
गौरी कहां से तोहफा लाती? उस के पास पैसे कहां थे. सोहन ने कभी उस के हाथ में पैसे दिए ही नहीं. फिर उस की मां उसे कब सिखातीं? शादी को सवा साल से ऊपर हो गया था, मां से मिलना नहीं हुआ था. मां यह सब कब सिखातीं?
इस शादी में उस के और उस के परिवार के साथ धोखा ही हुआ था. ऐसा निठल्ला पति और पाबंदियों में दबा कर रखने वाले सासससुर पा कर उस के हिस्से में काम और ताने ही आए थे.
पूजा के सासससुर को मनोज अंकल व सीमा आंटी का गौरी के प्रति रवैया काफी अच्छा नहीं लगा. पूजा की सास से रहा न गया. वे उठ खड़ी हुईं और बोलीं, ‘‘उस की मां न आ सकीं तो क्या हुआ? मैं हूं न, यह मेरी बेटी है, सास का सगुन मैं दूंगी,’’ और उन्होंने अपनी सोने की अंगूठी उतार कर थाली में रख दी.
सब के मुंह बंद हो गए. सीमा आंटी चुप रह गईं. समारोह खत्म होने के बाद सीमा आंटी अपनी जेठानी से कह रही थीं, ‘‘देखिए, मेरी बेटी के सासससुर कितने भले लोग हैं. ऐसे सासससुर किसीकिसी को ही मिलते हैं. उन्होंने तो दूसरे की बेटी को भी अपनी बेटी मान लिया. क्या किस्मत पाई है मेरी बेटी पूजा ने.’’
बगल में खड़ी पड़ोसिन मन ही मन सोच रही थी कि आंटी 1 बार सिर्फ 1 बार गलती से ही सही, अपनी बहू की किस्मत पर गौर कीजिए.
जब भी मेरे मोबाइल पर किसी अनजान व्यक्ति का फोन आता, मैं मजे लेने लग जाती और उसे खूब परेशान करती. एक दिन मेरी यही आदत मुझ पर भारी पड़ गई…
यह कहानी है सन 2006 की…
जब फोन कंपनी के कंप्यूटराइज फोन नंबर पर घंटों लाइन में लगे रहने के बाद आप कौलर ट्यून और अन्य सर्विस का लुत्फ उठा सकते थे.
मैं ठहरी म्यूजिक लवर मु?ो उस जमाने में क्व110 महीना अपने बैलेंस से कटवाना मंजूर था मगर मेरी कौलर ट्यून औरों से बिलकुल अलग और कड़क होनी चाहिए.
ट्रिंग… ट्रिंग…
ट्रिंग… ट्रिंग…
‘‘इस का फोन दे… देखें तो इस कमीनी को अनसेव्ड नंबर से कौन फोन लगा रहा है.’’
नेहा और ज्योति ने मेरी हथेली से फोन खींच कर अंकिता को थमा मु?ो जकड़ लिया.
‘‘हैलो.’’
‘‘हैलो मैडम.’’
‘‘जी बोलिए.’’
‘‘मैडम क्या मैं कामिनीजी से बात कर रहा हूं?’’ एक बिलकुल नवयुवक की तरोताजा आवाज में किसी ने पूछा.
फोन के स्पीकर को अपनी हथेली से दबा कर मेरा फोन पकड़ी हुई अंकिता जोरजोर से हंसते उस युवक से आगे कहने लगी, ‘‘ऐसा क्या काम है आप को हमारी कामिनीजी से हम भी तो सुनें?’’
‘‘नमस्ते मैडम मैं आइडिया सर्विस से सुबोध बात कर रहा हूं, कामिनीजी ने अपनी कौलर ट्यून चेंज करने के लिए रिक्वैस्ट भेजी थी.’’
‘‘अच्छा तो लगा दीजिए कोई भी घटिया सा गाना, वैसे भी इस कमीनी को कोई फोन लगाता भी नहीं है.’’
‘‘जी मैडम क्या?’’
बेतहाशा हंसती हुई ज्योति और नेहा ने मु?ो कस कर पकड़ रखा था कि मैं अंकिता को बात करते समय डिस्टर्ब न कर सकूं मगर जैसे ही उस ने किसी लड़के के सामने मेरे नाम के साथ छेड़खानी की तो मैं ने हंस कर ढीले पड़ चुके उन के हाथों से अपना हाथ ?ाटक कर ?ाट से अंकिता से फोन खींच लिया और अपनी कमान खुद संभालते हुए पूछा, ‘‘हैलो कौन बात कर रहा है?’’
‘‘हैलो कमीनीजी मैं सुबोध आइडिया सर्विस से आप से बात कर रहा हूं.‘‘
‘‘फर्स्ट औफ औल इट्स कामिनी नौट कमीनी.’’
‘‘सौरी मैडम मगर आप की सहेली आप को इसी नाम से संबोधित कर रही थी. मु?ो लगा शायद आप का नाम यही होगा,’’ सुबोध निर्दोष भाव से जवाब देने लगा.
‘‘वह तो है ही सड़क छाप. आप तो नहीं हैं न? वे जो बोलेगी तो क्या आप मान जाएंगे?’’
और वे 3 बेशरमों की तरह अपनाअपना पेट पकड़ कर बिस्तर में लोटपोट होने लगीं. उन की ऐसी हरकत देख मेरा दिमाग और खराब होने लगा.
‘‘कामिनीजी माफ करिएगा,’’ सुबोध एकदम से घबरा गया.
‘‘कोई बात नहीं… आप ने किसलिए फोन लगाया था?’’ मैं ने सोचा इस में इस बेचारे की क्या गलती जो मेरे दोस्त ही ऐसे पागल हैं.
‘‘जी जो आप ने कौलर ट्यून की रिक्वैस्ट भेजी थी वह अब हमारे सिस्टम से ऐक्सपायर हो चुकी है.’’
‘‘ऐक्सपायर हो गई. मगर मैं तो उस के पैसे दे चुकी हूं?’’
‘‘जी इसी विषय में मैं आप से चर्चा करना चाहता हूं.’’
‘‘हां बोलिए.’’
‘‘आप उस के बदले कोई दूसरा गाना सैट करा सकती हैं.’’
‘‘नाम क्या बताया आप ने अपना?’’
‘‘जी सुबोध.’’
‘‘देखो सुबोध मु?ो वह गाना बहुत पसंद था और अब आप कह रहे हैं कि वह अब आप के सिस्टम में नहीं है. ऐसा न हो कि मैं इस बार भी कोई गाना चुनूं और आप कह दें कि वह हमारे सिस्टम में नहीं है. देखिए इतना टाइम नहीं है मेरे पास.’’
पीछे से ज्योति ने जोर से चिल्लाते हुए कहा, ‘‘नल्ली, दिनभर घर में खाली पड़ी
रहती है और कहती है कि टाइम नहीं है.’’
वे तीनों फिर से ठहाके मार कर हंसने लगीं.
‘‘मैडम, मैं अभी आप को औप्शन दे देता हूं. आप उसी में से चुन लीजिए और मैं अभी आप की कौलर ट्यून सैट कर सकता हूं.’’
‘‘ठीक है बताइए औप्शन.’’
‘‘मैडम कुल 10 गाने हैं.’’
‘‘कौनकौन से?’’
‘‘पलपल हर पल…’’ सुबोध ने उस गाने को पंक्ति के जैसे कह दिया. वैसे मैं जानती थी इस ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ के गाने के बोल कैसे हैं.
मगर थी तो मैं अपनी सहेलियों के लिए उन की पक्की कमीनी दोस्त. मैं ने उस अनजान नंबर से आए भोलेभाले सुबोध से मजे लेना चाहे. अत: अपनी सहेलियों को आंख मारते हुए मैं ने उस से कहा, ‘‘ये कौन सा गाना है? मु?ो सम?ा नहीं आ रहा जरा गा कर सुनाइए तब क्लीयर होगा.’’
उस ने घबराते हुए पूछा, ‘‘मैडम गा कर सुनाऊं?’’
‘‘हांहा गा कर सुनाइए और कैसे जान पाऊंगी?’’
‘‘जी ठीक है…’’
मैं ने अपना फोन स्पीकर में लगा दिया और दूसरी तरफ सुबोध ने हिचकते हुए अपना गला साफ करते हुए एक के बाद एक कौलर ट्यून गाना शुरू किया, ‘‘पलपलपलपल हरपल कैसे कटेंगे पलपल हरपल.’’
उसे गाता सुन मेरी सहेलियां बिस्तर में खड़ी हो कर नाचने लगीं.
‘‘अगला.’’
मैं ने अपनी सहेलियों को रुकने का संकेत किया और जैसे ही सुबोध ने अगला गाना शुरू किया मैं ने उन्हें फिर से डांस करने का इशारा किया और साथसाथ हर गाने में मैं भी फोन पकड़े उन के संग ?ाम रही थी.
‘‘?ालक दिखला जा ?ालक दिखला जा एक बार आजा आजा आजा आजा आजा…’’
इस बार वे अपनी हथेलियों को माइक की तरह बना हिमेश की रेशमिया बन लिपसिंग करने लगी.
‘‘वैसे सुबोधजी मानना पड़ेगा आप की आवाज काफी अच्छी है.’’
‘‘थैंक यू मैडम.’’
‘‘जरा अगला सुनाइए.’’
अब तक सुबोध थोड़ा सहमा हुआ था मगर कुछ पल बाद ऐसा लगा कि हमारी मस्ती में वह भी खुल के मजे ले रहा हो.
‘‘देश रंगीला रंगीला देश मेरा रंगीला…’’
अपने गाने को बीच में रोकते हुए उस ने खुद कहा, ‘‘मैडम यह मत लगाइएगा, ऐसा लगेगा जैसेकि आज गणतंत्र या स्वतंत्रता दिवस हो.’’
‘‘आप ने बिलकुल ठीक कहा. नैक्स्ट प्लीज.’’
‘‘जयजय मनी…’’
इस गाने में वे तीनों बंदरिया भाती उछलने लगीं.
‘‘नैक्स्ट.’’
‘‘दिल तोड़ के न जा दिल तोड़ के न जा…’’
‘‘बिलकुल नहीं अगला.’’
‘‘मैडम यह गाना बहुत अच्छा है,’’ यह कहते हुए उस ने अपना गला साफ किया और पूरे सुर और ताल के साथ ‘गैंगस्टर’ में फिल्माया गया यह गाना बड़ी शिद्दत से गाने लगा, ‘‘तू ही मेरी शब है, सुबह है, तू ही दिन है मेरा…’’
‘‘नहीं यह वाला नहीं.’’
‘‘मैडमजी एक बार सुन तो लीजिए,’’ वह खुद को गाना गाने से रोक ही नहीं पाया और आगे बड़े प्यार से गाने लगा.
‘‘तू ही मेरा रब है, जहां है, तू ही मेरी दुनिया. तू वक्त मेरे लिए, मैं हूं तेरा लमहा कैसे रहेगा भला, होके तू मु?ा से जुदा…’’ और इन तीनों महारथियों ने आगे का ‘‘ओ ओ ओ’’ कोरस दे डाला.
‘‘बस भाई अगला बताओ.’’
मैडम यह आखिरी वाला आप को सुनाता हूं, ‘‘खाई के पान बनारस वाला…’’
दूसरी ओर मेरी सहेलियां नगाड़ा बजाने जैसा हावभाव करते हुए बिलकुल फुल ऐनर्जी के साथ अपने हाथ और पैर सुबोध के गानों के बोल संग मटकाने लगी, ‘‘खुल जाए बंद अकल का ताला फिर तो…’’
मैं ने उसे बीच गाने से रोका. मगर मेरी ?ाल्ली सहेलियां बिन पीए बहक चुकी थीं. सुबोध ने तो गाना बंद कर दिया मगर वे आगे के बोल गाते जा रही थी, ‘‘फिर तो ऐसा हुआ धमाल सीधी कर दे सब की चाल. ओ छोरा गंगा किनारे वाला… ओ छोरा गंगा किनारे वाला…’’
उन के शोरशराबे के बीच मैं सुबोध से कहने लगी, ‘‘हां समझ गई समझ गई मगर यह तो काफी पुराना गाना लगता है?’’
‘‘अरे नहीं मैडम यह ‘डौन’ पिक्चर का है, अपने शाहरुख खान और प्रियंका चोपड़ा पर फिल्माया गया बढि़या रीमिक्स गाना. यह लगवा लीजिए मेरा वादा है सब लोग बड़ी तारीफ करेंगे.’’
‘‘चलो फिर ठीक है इसे डौन सौरी डन
करते हैं.’’
‘‘मैडम आप 1 मिनट लाइन पर रहिएगा आप को एक मैसेज आएगा उसे कन्फर्म कर के मुझे बताइए.’’
‘‘ठीक है,’’ फोन पकड़ेपकड़े मुझे मैसेज की टोन कानों में सुनाई दी.
‘‘हां आ गया मैसेज.’’
‘‘मैडम क्या आप मेरी सर्विस से खुश हैं?’’
‘‘हां बिलकुल.’’
‘‘मैडम यह मेरी सर्विस की स्टार रेटिंग का मैसेज है, हम जैसे नए इंप्लोई को इसी बेस पर नौकरी में रखा जाता है. मैं जानता हूं आप के पास समय कम है मगर फिर भी अगर आप…’’
‘‘आप निश्चिंत रहें मैं आप को जरूर रेटिंग दूंगी.’’
‘‘थैंक यू मैडम. आप की बात हो रही थी आइडिया सर्विस के सुबोध नायक से. मैं उम्मीद करता हूं आप की कंप्लेन दूर हो चुकी होगी. आप का दिन शुभ हो.’’
‘‘आप का भी,’’ यह कहते हुए हम दोनों ने अपनाअपना फोन काट दिया.
‘‘अरे कमीनी कहां रह गई आना इधर.’’
‘‘हां 2 मिनट में आई.’’
ऐसे में यह काम करना हमेशा इग्नोर करती हूं मगर पता नहीं क्यों इस बार मैं ने वह
मैसेज ओपन कर के उसे रेटिंग देने की सोची, बताओ उस ने अपनी नौकरी के लिए मुझे बिना झिझक के कितने गाने सुना दिए. हमारा इतना अच्छा ऐंटरटेनमैंट कर दिया वह अलग.
‘‘मैं दोस्तों के बीच जा ही रही थी कि किसी का फोन फिर से आया.’’
‘‘हैलो.’’
‘‘हां हैलो बोलिए.’’
‘‘मैडम मैं सुबोध आइडिया से.’’
‘‘हां बोलिए.’’
‘‘आप की कौलर ट्यून सैट हो गई है.’’
‘‘अरे वाह बढि़या.’’
‘‘मुझे इतनी जल्दी और इतनी अच्छी रेटिंग देने के लिए आप को बहुत थैंक यू.’’
‘‘अरे थैंक्यू कैसा? आप ने बहुत अच्छी सर्विस दी थी.’’
‘‘मैडम आज मेरा पहला दिन है, सुबह से करीब 70 फोन पर बात कर चुका हूं मगर रिक्वैस्ट करने पर भी मु?ो आप के सिवा किसी ने रेटिंग नहीं दी.’’
‘‘आप अपना दिल छोटा न करें. ऐसे ही मन लगा कर काम करिएगा. गुड लक.’’
इस वाकेआ को घटे आज कितने साल हो गए मगर हमारे बीच फोन मैं हुई यह चर्चा मुझे और मेरी (हाथ पकड़ने कहो तो गला पकड़ने वाली) सहेलियों को आज भी याद है. आशा करती हूं सुबोध आज आप जहां कहीं भी हों बहुत खुश हों.
लोकेशजी परेशान चल रहे हैं बहुत दिन से. जीवन जैसे एक बिंदु पर आ कर खड़ा हो गया है, उन्हें कुछकुछ ऐसा लगने लगा है. समझ नहीं पा रहे जीवन को गति दें भी तो कैसे. जैसे घड़ी भी रुकी नजर आती है. मानो सुइयां चल कर भी चलती नहीं हैं. सब खड़ा है आसपास. बस, एक सांस चल रही है, वह भी घुटती सी लगती है. रोज सैर करने जाते हैं. वहां भी एक बैंच पर चुपचाप बैठ जाते हैं. लोग आगेपीछे सैर करते हैं, टकटकी लगा कर उन्हीं को देखते रहते हैं. बच्चे साइकिल चलाते हैं, फुटबाल खेलते हैं. कभी बौल पास आ जाए तो उठा कर लौटा देते हैं लोकेशजी. यही सिलसिला चल रहा है पिछले काफी समय से.
‘‘क्या बात है, अंकल? कोई परेशानी है?’’ एक प्यारी सी बच्ची ने पास आ कर पूछा. नजरें उठाईं लोकेशजी ने. यह तो वही प्यारी सी बच्ची है जिसे पिछले सालभर के अंतराल से देख रहे हैं लोकेशजी. इसी पार्क में न जाने कितनी सैर करती है, शायद सैर पट्टी पर 20-25 चक्कर लगाती है. काफी मोटी थी पहले, अब छरहरी हो गई है. बहुत सुंदर है, मौडल जैसी चलती है. अकसर हर सैर करने वाले की नजर इसी पर रहती है. सुंदरता सदा सुख का सामान होती है यह पढ़ा था कभी, अब महसूस भी करते हैं. जवानी में भी बड़ी गहराई से महसूस किया था जब अपनी पत्नी से मिले थे. बीच में भूल गए थे क्योंकि सुख का सामान साथ ही रहा सदा, आज भी साथ है. शायद सुखी रहने की आदत भी सुख का महत्त्व कम कर देती है. जो सदा साथ ही रहे उस की कैसी इच्छा.
इस बच्ची पर हर युवा की नजर पड़ती देखते हैं तो फिर से याद आती है एक भूलीबिसरी सी कहानी जब वे भी जवान थे और सगाई के बाद अपनी होने वाली पत्नी की एक झलक पाने के लिए उस के कालेज में छुट्टी होने के समय पहुंच जाया करते थे.
‘‘अंकल, क्या बात है, आप परेशान हैं?’’ पास बैठ गई वह बच्ची. उन की बांह पर हाथ रखा.
‘‘अं…हं…’’ तनिक चौंके लोकेशजी, ‘‘नहीं तो बेटा, ऐसा तो कुछ नहीं.’’
‘‘कुछ तो है, कई दिन से देख रही हूं, आप सैर करने आते तो हैं लेकिन सैर करते ही नहीं?’’
चुप रहे लोकेशजी. हलका सा मुसकरा दिए. बड़ीबड़ी आंखों में सवाल था और होंठों पर प्यारी सी मुसकान.
‘‘घर में तो सब ठीक है न? कुछ तो है, बताइए न?’’
मुसकराहट आ गई लोकेशजी के होंठों पर.
‘‘आप को कहीं ऐसा तो नहीं लग रहा कि मैं आप की किसी व्यक्तिगत समस्या में दखल दे रही हूं. वैसे ऐसा लगना तो नहीं चाहिए क्योंकि आप ने भी एक दिन मेरी व्यक्तिगत समस्या में हस्तक्षेप किया था. मैं ने बुरा नहीं माना था, वास्तव में बड़ा अच्छा लगा था मुझे.’’
‘‘मैं ने कब हस्तक्षेप किया था?’’ लोकेश के होंठों से निकल गया. कुछ याद करने का प्रयास किया. कुछ भी याद नहीं आया.
‘‘हुआ था ऐसा एक दिन.’’
‘‘लेकिन कब, मुझे तो याद नहीं आ रहा.’’
‘‘कुछ आदतें इतनी परिपक्व हो जाती हैं कि हमें खुद ही पता नहीं चलता कि हम कब उस का प्रयोग भी कर जाते हैं. अच्छा इंसान अच्छाई कर जाता है और उसे पता भी नहीं होता क्योंकि उस की आदत है अच्छाई करना.’’
हंस पड़े लोकेशजी. उस बच्ची का सिर थपक दिया.
‘‘बताइए न अंकल, क्या बात है?’’
‘‘कुछ खास नहीं न, बच्ची. क्या बताऊं?’’
‘‘तो फिर उठिए, सैर कीजिए. चुपचाप क्यों बैठे हैं. सैर पट्टी पर न कीजिए, यहीं घास पर ही कीजिए. मैं भी आप के साथसाथ चलती हूं.’’
उठ पड़े लोकेशजी. वह भी साथसाथ चलने लगी. बातें करने लगे और एकदूसरे के विषय में जानने लगे. पता चला, उस के पिता अच्छी नौकरी से रिटायर हुए हैं. एक बहन है जिस की शादी हो चुकी है.
‘‘तुम्हारा नाम क्या है, बच्चे?’’
‘‘नेहा.’’
बड़ी अच्छी बातें करती है नेहा. बड़ी समझदारी से हर बात का विश्लेषण भी कर जाती. एमबीए है. अच्छी कंपनी में काम करती है. बहुत मोटी थी पहले, अब छरहरी लगती है. धीरेधीरे वह लोकेशजी को बैठे रहने ही न देती. सैर करने के लिए पीछे पड़ जाती.
‘‘चलिए, आइए अंकल, उठिए, बैठना नहीं है, सैर कीजिए, आइएआइए…’’
उस का इशारा होता और लोकेशजी उठ पड़ते. उस से बातें करते. एक दिन सहसा पूछा लोकेशजी ने, ‘‘एक बात तो बताना बेटा, जरा समझाओ मुझे, इंसान संसार में आया, बच्चे से जवान हुआ, शादीब्याह हुआ, बच्चे हुए, उन्हें पालापोसा, बड़ा किया, उन की भी शादियां कीं. वे अपनीअपनी जिंदगी में रचबस गए. इस के बाद अब और क्या? क्या अब उसे चले नहीं जाना चाहिए? क्यों जी रहा है यहां, समझ में नहीं आता.’’
चलतेचलते रुक गई नेहा. कुछ देर लोकेशजी का चेहरा पढ़ती रही.
‘‘तो क्या इतने दिन से आप यही सोच रहे थे यहां बैठ कर?’’
चुप रहे लोकेशजी.
‘‘आप यह सोच रहे थे कि सारे काम समाप्त हो गए, अब चलना चाहिए, यही न. मगर जाएंगे कहां? क्या अपनी मरजी से आए थे जो अपनी मरजी से चले भी जाएंगे? कहां जाएंगे, बताइए? उस जहान का रास्ता मालूम है क्या?’’
‘‘कौन सा जहान?’’
‘‘वही जहां आप और मेरे पापा भी चले जाना चाहते हैं. न जाने कब से बोरियाबिस्तर बांध कर तैयार बैठे हैं. मानो टिकट हाथ में है, जैसे ही गाड़ी आएगी, लपक कर चढ़ जाएंगे. बिना बुलाए ही चले जाएंगे क्या?
‘‘सुना है यमराजजी आते हैं लेने. जब आएंगे चले जाना शान से. अब उन साहब के इंतजार में समय क्यों बरबाद करना. चैन से जीना नहीं आता क्या?’’
‘‘चैन से कैसे जिएं?’’
‘‘चैन से कैसे जिएं, मतलब, सुबह उठिए अखबार के साथ. एक कप चाय पीजिए. नाश्ता कीजिए, अपना समय है न रिटायरमैंट के बाद. कोई बंधन नहीं. सारी उम्र मेहनत की है, क्या चैन से जीना आप का अधिकार नहीं है या चैन से जीना आता ही नहीं है. क्या परेशानी है?’’
‘‘अपने पापा को भी इसी तरह डांटती हो?’’
‘‘तो क्या करूं? जब देखो ऐसी ही उदासीभरी बातें करते हैं. अब मेरी मम्मी तो हैं नहीं जो उन्हें समझाएं.’’
क्षणभर को चौंक गए लोकेशजी. सोचने लगे कि उन के पास पत्नी का साथ तो है लेकिन उस का सुख भी गंवा रहे हैं वे. नेहा के पिता के पास तो वह सहारा भी नहीं.
‘‘चलिए, कल इतवार है न. आप हमारे घर पर आइए, बैठ कर गपशप करेंगे. अपने घर का पता बताइए.’’
पता बताया लोकेशजी ने. फिर अवाक् रहने के अलावा कुछ नहीं सूझा. उन का फ्लैट 25 नंबर और इन का 12. घरों की पिछली दीवारें मिलती हैं. एक कड़वी सी हंसी चली आई नेहा के होंठों पर. कड़वी और खोखली सी भी.
‘‘फेसबुक पर हजारों मित्र हैं मेरे, शायद उस से भी कहीं ज्यादा मेरा सुख मेरा दुख पढ़ते हैं वे. मैं उन का पढ़ती हूं और बस. डब्बा बंद, सूरत गायब. वे अनजान लोग मुझे शायद ही कभी मिलें.
‘‘जरूरत पड़ने पर वे कभी काम नहीं आएंगे क्योंकि वे बहुत दूर हैं. आप उस दिन काम आए थे जब सैरपट्टी पर एक छिछोरा बारबार मेरा रास्ता काट रहा था. आप ने उस का हाथ पकड़ उसे किनारे किया था और मुझे समझाया था कि अंधेरा हो जाने के बाद सैर को न आया करूं.
‘‘आप मेरे इतने पास हैं और मुझे खबर तक नहीं है.’’
आंखें भर आई थीं नेहा की. सच ही तो सोच रही है, हजारों दोस्त हैं जो लैपटौप की स्क्रीन पर हैं, सुनते हैं, सुनाते हैं. पड़ोस में कोई है उस का पता ही नहीं क्योंकि संसार से ही फुरसत नहीं है. पड़ोसी का हाल कौन पूछे. अपनेआप में ही इतने बंद से हो गए हैं कि जरा सा किसी ने कुछ कह दिया कि आहत हो गए. अपनी खुशी का दायरा इतना छोटा कि किसी एक की भी कड़वी बात बीमार ही करने लगी. यों तो हजारों दोस्तों की भीड़ है, लेकिन सामने बैठ कर बात करने वाला एक भी नहीं जो कभी गले लगा कर एक सुरक्षात्मक भाव प्रदान कर सके.
‘‘यही बातें उदास करती हैं मुझे नेहा. आज की पीढ़ी जिंदा इंसानों से कितनी दूर होती जा रही है. सारे संसार की खबर रखते हैं लेकिन हमारे पड़ोसी कौन हैं, नहीं जानते. हमारे साथ वाले घर में कौन रहता है, पता ही नहीं हमें. अमेरिका में क्या हो रहा है, पता न चले तो स्वयं को पिछड़ा हुआ मानते हैं. हजारों मील पार क्या है, जानने की इच्छा है हमें. पड़ोसी चार दिन से नजर नहीं आया. हमें फिक्र नहीं होती. और जब पता चलता है हफ्तेभर से ही मरा पड़ा है तो भी हमारे चेहरे पर दुख के भाव नहीं आते. हम कितने संवेदनहीन हैं. यही सोच कर उदास होने लगता हूं.
‘‘अपने बच्चों को इतना डरा कर रखते हैं कि किसी से बात नहीं करने देते. आसपड़ोस में कहीं आनाजाना नहीं. फ्लैट्स में या पड़ोस में कोई रहता है, बच्चे स्कूल आतेजाते कभी घंटी ही बजा दें, बूढ़ाबूढ़ी का हालचाल ही पूछ लें लेकिन नहीं. ऐसा लगता है हम जंगल में रहते हैं, आसपास इंसान नहीं जानवर रहते हैं. हर इंसान डरा हुआ अपने ही खोल में बंद,’’ कहतेकहते चुप हो गए लोकेशजी.
उन का जमाना कितना अच्छा था. सब से आशीर्वाद लेते थे, सब की दुआएं मिलती थीं. आज ऐसा लगता है सदियां हो गईं किसी को आशीर्वाद नहीं दिया. जो उन्हें विरासत में मिला उन का भी जी चाहता है उसे आने वाली पीढ़ी को परोसें. मगर कैसे परोसें? कोई कभी पास तो आए कोई इज्जत से झुके, मानसम्मान से पेश आए तो मन की गहराई से दुआ निकलती है. आज दुआ देने वाले हाथ तो हैं, ऐसा लगता है दुआ लेना ही हम ने नहीं सिखाया अपने बच्चों को.’’
‘‘अंकल चलिए, आज मेरे साथ मेरे घर. मैं आंटीजी को ले आऊंगी. रात का खाना हम साथ खाएंगे.’’
‘‘आज तुम आओ, बच्चे. तुम्हारी आंटी ने सरसों का साग बनाया है. कह रही थीं, बच्चे दूर हैं अकेले खाने का मजा नहीं आएगा.’’
भीग उठी थीं नेहा की पलकें. आननफानन सब तय हो भी गया. करीब घंटेभर बाद नेहा अपने पिता के साथ लोकेशजी के फ्लैट के बाहर खड़ी थी. लोकेशजी की पत्नी ने दरवाजा खोला. सामने नेहा को देखा.
‘‘अरे आप…आप यहां.’’
एक सुखद आश्चर्य और मिला नेहा को. हर इतवार जब वह सब्जी मंडी सब्जी लेने जाती है तब इन से ही तो मुलाकात होती है. अकसर दोनों की आंख भी मिलती है और कुछ भाव प्रकट होते हैं, जैसे बस जानपहचान सी लगती है.
‘‘तुम जानती हो क्या शोभा को?’’ आतेआते पूछा लोकेशजी ने. चारों आमनेसामने. इस बार नेहा के पिता
भी अवाक्. लोकेशजी का चेहरा जानापहचाना सा लगने लगा था.
‘‘तुम…तुम लोकेश हो न और शोभा तुम…तुम ही हो न?’’
बहुत पुराने मित्र आमनेसामने खड़े थे. नेहा मूकदर्शक बनी पास खड़ी थी. अनजाने ही पुराने मित्रों को मिला दिया था उस ने. शोभा ने हाथ पकड़ कर नेहा को भीतर बुलाया. मित्रों का गले मिलना संपन्न हुआ और शोभा का नेहा को एकटक निहारना देर तक चलता रहा. मक्की की रोटी के साथ सरसों का साग उस दिन ज्यादा ही स्वादिष्ठ लगा.
‘‘देखिए न आंटी, आप का घर इस ब्लौक में और हमारा उस ब्लौक में.
2 साल हो गए हमें यहां आए. आप तो शायद पिछले 5 साल से यहां हैं. कभी मुलाकात ही नहीं हुई.’’
‘‘यही तो आज की पीढ़ी को मिल रहा है बेटा, अकेलापन और अवसाद. मशीनों से घिर गए हैं हम. जो समय बचता है उस में टीवी देखते हैं या लैपटौप पर दुनिया से जुड़ जाते हैं. इंसानों को पढ़ना अब आता किसे है. न तुम किसी को पढ़ते हो न कोई तुम्हें पढ़ता है. भावना तो आज अर्थहीन है. भावुक मनुष्य तो मूर्ख है. आज के युग में, फिर शिकवा कैसा. अपनत्व और स्नेह अगर आज दोगे
नहीं तो कल पाओगे कैसे? यह तो प्रकृति का नियम है. जो आज परोसोगे वही तो कल पाओगे.’’
चुपचाप सुनती रही नेहा. सच ही तो कह रही हैं शोभा आंटी. नई पीढ़ी को यदि अपना आने वाला कल सुखद और मीठा बनाना है तो यही सुख और मिठास आज परोसना भी पड़ेगा वरना वह दिन दूर नहीं जब हमारे आसपास मात्र मशीनें ही होंगी, चलतीफिरती मशीनें, मानवीय रोबोट, मात्र रोबोट. शोभा आंटी बड़ी प्यारी, बड़ी ममतामयी सी लगीं नेहा को. मानो सदियों से जानती हों वे इन्हें.
वह शाम बड़ी अच्छी रही. लोकेश और शोभा देर तक नेहा और उस के पिता से बातें करते रहे. उस समय जब शायद नेहा का जन्म भी नहीं हुआ था तब दोनों परिवार साथसाथ थे. नेहा की मां अपने समय में बहुत सुंदर मानी जाती थीं.
‘‘मेरी मम्मी बहुत सुंदर थीं न? आप ने तो उन्हें देखा था न?’’
‘‘क्यों, क्या तुम ने नहीं देखा?’’
‘‘बहुत हलका सा याद है, मैं तब
7-8 साल की थी. जब उन की रेल दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. मैं उन की गोद में थी. वे चली गईं और मैं रह गई, यह देखिए उस दुर्घटना की निशानी,’’ माथे पर गहरा लाल निशान दिखाया नेहा ने. मां के हाथ की चूड़ी धंस गई थी उस के माथे की हड्डी में. वह आगे बोली, ‘‘पापा ने बहुत समझाया कि प्लास्टिक सर्जरी करवा लूं, यह दाग अच्छा नहीं लगता. मेरा मन नहीं मानता. मां की निशानी है न, इसे कैसे मिटा दूं.’’
नेहा का स्वर भीग गया. मेज का सामान उठातेउठाते शोभा के हाथ रुक गए. प्यारी सी बच्ची माथे की चोट में भी मां को पा लेने का सुख खोना नहीं चाहती.
वह दिन बीता और उस के बाद न जाने कितने दिन. पुरानी दोस्ती का फिर जीवित हो जाना एक वरदान सा लगा नेहा को. अब उस के पापा पहले की तरह उदास नहीं रहते और लोकेश अंकल भी उदास से पार्क की बैंच पर नहीं बैठते. मानो नेहा के पास 3-3 घर हो गए हों. औफिस से आती तो मेज पर कुछ खाने को मिलता. कभी पोहा, कभी ढोकला, कभी हलवा, कभी इडली सांबर. पूछने पर पता चलता कि लोकेश अंकल छोड़ गए हैं. कभी शोभा आंटी की बाई छोड़ गई है.
खापी कर पार्क को भागती मानो वह तीसरा घर हो जहां लोकेश अंकल इंतजार करते मिलते. वहां से कभी इस घर और कभी उस घर.
लोकेशजी के दोनों बेटे अमेरिका में सैटल हैं. उन की भी दोस्ती हो गई है नेहा से. वीडियो चैटिंग करती है वह उन से. शोभा आंटी उस की सखी भी बन गई हैं अब. वे बातें जो वह अपनी मां से करना चाहती थी, अब शोभाजी से करती है. जीवन कितना आसान लगने लगा है. उस के पापा भी अब उस जहान में जाने की बात नहीं करते जिस का किसी को पता नहीं है. ठीक है जब बुलावा आएगा चले जाएंगे, हम ने कब मना किया. जिंदा हो गए हैं तीनों बूढ़े लोग एकदूसरे का साथ पा कर और नेहा उन तीनों को खुश देख कर, खुशी से चूर है.
क्या आप के पड़ोस में कोई ऐसा है जो उदास है, आप आतेजाते बस उस का हालचाल ही पूछ लें. अच्छा लगेगा आप को भी और उसे भी.
वह बीते हुए पलों की यादों को भूल जाना चाहता था. और दिनों के बजाय वह आज ज्यादा गुमसुम था. वह सविता सिनेमा के सामने वाले मैदान में अकेला बैठा था. उस के दोस्त उसे अकेला छोड़ कर जा चुके थे. उस ने घंटों से कुछ खाया तक नहीं था, ताकि भूख से उस लड़की की यादों को भूल जाए. पर यादें जाती ही नहीं दिल से, क्या करे. कैसे भुलाए, उस की समझ में नहीं आया.
उस ने उठने की कोशिश की, तो कमजोरी से पैर लड़खड़ा रहे थे. अगलबगल वाले लोग आपस में बतिया रहे थे, ‘भले घर का लगता है. जरूर किसी से प्यार का चक्कर होगा. लड़की ने इसे धोखा दिया होगा या लड़की के मांबाप ने उस की शादी कहीं और कर दी होगी…
‘प्यार में अकसर ऐसा हो जाता है, बेचारा…’ फिर एक चुप्पी छा गई थी. लोग फिर आपसी बातों में मशगूल हो गए. वह वहां से उठ कर कहीं दूर जा चुका था. उस ने उस लड़की को अपने मकान के सामने वाली सड़क से गुजरते देखा था. उसे देख कर वह लड़की भी एक हलकी सी मुसकान छोड़ जाती थी. वह यहीं के कालेज में पढ़ती थी. धीरेधीरे उस लड़की की मुसकान ने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया था. जब वे आपस में मिले, तो उस ने लड़की से कहा था, ‘‘तुम हर पल आंखों में छाई रहती हो. क्यों न हम हमेशा के लिए एकदूजे के हो जाएं?’’ उस लड़की ने कुछ नहीं कहा था. वह कैमिस्ट से दवा खरीद कर चली गई थी. उस का चेहरा उदासी में डूबा था.
उस लड़की का नाम नीलू था. नीलू के मातापिता उस के उदास चेहरे को देख कर चिंतित हो उठे थे. पिता ने कहा था, ‘‘पहले तो नीलू के चेहरे पर मुसकराहट तैरती थी. लेकिन कई दिनों से उस के चेहरे पर गुलाब के फूल की तरह रंगत नहीं, वह चिडि़यों की तरह फुदकती नहीं, बल्कि किसी बासी फूल की तरह उस के चेहरे पर पीलापन छाया रहता है.’’
नीलू की मां बोली, ‘‘लड़की सयानी हो गई है. कुछ सोचती होगी.’’
नीलू के पिता बोले, ‘‘क्यों नहीं इस के हाथ पीले कर दिए जाएं?’’
मां ने कहा, ‘‘कोई ऊंचनीच न हो जाए, इस से तो यही अच्छा रहेगा.’’ नीलू की यादों को न भूल पाने वाले लड़के का नाम प्रकाश था. वह खुद इस कशिश के बारे में नहीं जानता था. वह अपनेआप को संभाल नहीं सका था. उसे अकेलापन खलने लगा था. उस की आंखों के सामने हर घड़ी नीलू का चेहरा तैरता रहता था. एक दिन प्रकाश नीलू से बोला, ‘‘नीलू, क्यों न हम अपनेअपने मम्मीडैडी से इस बारे में बात करें?’’
‘‘मेरे मम्मीडैडी पुराने विचारों के हैं. वे इस संबंध को कभी नहीं स्वीकारेंगे,’’ नीलू ने कहा.
‘‘क्यों?’’ प्रकाश ने पूछा था.
‘‘क्योंकि जाति आड़े आ सकती है प्रकाश. उन के विचार हम लोगों के विचारों से अलग हैं. उन की सोच को कोई बदल नहीं सकता.’’
‘‘कोई रास्ता निकालो नीलू. मैं तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह सकता.’’ नीलू कुछ जवाब नहीं दे पाई थी. एक खामोशी उस के चेहरे पर घिर गई थी. दोनों निराश मन लिए अलग हो गए. पूरे महल्ले में उन दोनों के प्यार की चर्चा होने लगी थी.
‘‘जानती हो फूलमती, आजकल प्रकाश और नीलू का चक्कर चल रहा है. दोनों आपस में मिल रहे हैं.’’
‘‘हां दीदी, मैं ने भी स्कूल के पास उन्हें मिलते देखा है. आपस में दोनों हौलेहौले बतिया रहे थे. मुझ पर नजर पड़ते ही दोनों वहां से खिसक लिए थे.’’
‘‘हां, मैं ने भी दोनों को बैंक्वेट हाल के पास देखा है.’’
‘‘ऐसा न हो कि बबीता की कहानी दोहरा दी जाए.’’
‘‘यह प्यारव्यार का चक्कर बहुत ही बेहूदा है. प्यार की आंधी में बह कर लोग अपनी जिंदगी खराब कर लेते हैं.’’
‘‘आज का प्यार वासना से भरा है, प्यार में गंभीरता नहीं है.’’
‘‘देखो, इन दोनों की प्रेम कहानी का नतीजा क्या होता है.’’ प्रकाश के पिता उदय बाबू अपने महल्ले के इज्जतदार लोगों में शुमार थे. किसी भी शख्स के साथ कोई समस्या होती, तो वे ही समाधान किया करते थे. धीरेधीरे यह चर्चा उन के कानों तक भी पहुंच गई थी. उन्होंने घर आ कर अपनी पत्नी से कहा था, ‘‘सुनती हो…’’ पत्नी निशा ने रसोईघर से आ कर पूछा, ‘‘क्या है जी?’’
‘‘महल्ले में प्रकाश और नीलू के प्यार की चर्चा फैली हुई है,’’ उदय बाबू ने कहा.
‘‘तभी तो मैं मन ही मन सोचूं कि आजकल वह उखड़ाउखड़ा सा क्यों रहता है? वह खुल कर किसी से बात भी नहीं करता है.’’
‘‘मैं प्रोफैसर साहब के यहां से आ रहा था. गली में 2-4 औरतें उसी के बारे में बातें कर रही थीं.’’
‘‘मैं प्रकाश को समझाऊंगी कि हमें यह रिश्ता कबूल नहीं है,’’ निशा ने कहा. उधर नीलू के मम्मीडैडी ने सोचा कि जितना जल्दी हो सके, इस के हाथ पीले करवा दें और वे इस जुगाड़ में जुट गए.
नीलू को जब इस बारे में मालूम हुआ था, तो उस ने प्रकाश से कहा, ‘‘प्रकाश, अब हम कभी नहीं मिल सकेंगे.’’
‘‘क्यों?’’ उस ने पूछा था.
‘‘डैडी मेरा रिश्ता करने की बात चला रहे हैं. हो सकता है कि कुछ ही दिनों में ऐसा हो जाए,’’ इतना कह कर नीलू की आंखों में आंसू डबडबा गए थे.
‘‘क्या तुम ने…?’’
‘‘नहीं प्रकाश, मैं उन के विचारों का विरोध नहीं कर सकती.’’
‘‘तो तुम ने मुझे इतना प्यार क्यों किया था?’’ प्रकाश ने पूछा.
‘‘हम एकदूसरे के हो जाएं, क्या इसे प्यार कहते हैं? क्या जिस्मानी संबंध को ही तुम प्यार का नाम देते हो?’’
यह सुन कर प्रकाश चुप था.
‘‘क्या अलग रह कर हम एकदूसरे को प्यार नहीं करते रहेंगे?’’ कुछ देर चुप रह कर नीलू बोली, ‘‘मुझे गलत मत समझना. मेरे मम्मीडैडी मुझे बहुत प्यार करते हैं. मैं उन के प्यार को ठेस नहीं पहुंचा सकती.’’
‘‘क्या तुम उन का विरोध नहीं कर सकती?’’ प्रकाश ने पूछा.
‘‘जिस ने हमें यह रूप दिया है, हमें बचपन से ले कर आज तक लाड़प्यार दिया है, क्या उन का विरोध करना ठीक होगा?’’ नीलू ने समझाया.
‘‘तो फिर क्या होगा हमारे प्यार का?’’ प्रकाश ने पूछा.ा
‘‘अपनी चाहत को पाने के लिए मैं उन के अरमानों को नहीं तोड़ सकती. उन की सोच हम से बेहतर है.’’ इस के बाद वे दोनों अलग हो गए थे, क्योंकि लोगों की नजरें उन्हें घूर रही थीं. नीलू के मम्मीडैडी की आंखों के सामने बरसों पुराना एक मंजर घूम गया था. उसी महल्ले के गिरधारी बाबू की लड़की बबीता को भी पड़ोस के लड़के से प्यार हो गया था. उस लड़के ने बबीता को खूब सब्जबाग दिखाए थे और जब उस का मकसद पूरा हो गया था, तो वह दिल्ली भाग गया था. कुछ दिनों तक बबीता ने इंतजार भी किया था. गिरधारी बाबू की बड़ी बेइज्जती हुई थी. कई दिनों तक तो वे घर से बाहर निकले नहीं थे. इतना बोले थे, ‘यह तुम ने क्या किया बेटी?’
बबीता मुंह दिखाने के काबिल नहीं रह गई थी. एक दिन चुपके से मुंहअंधेरे घर से निकल पड़ी और हमेशाहमेशा के लिए नदी की गोद में समा गई. गिरधारी बाबू को जब पता चला, तो उन्होंने अपना सिर पीट लिया था. नीलू की शादी उमाकांत बाबू के यहां तय हो गई थी. जब प्रकाश को शादी की जानकारी हुई, तो उस की आंखों में आंसू डबडबा आए थे. वह अपनेआप को संभाल नहीं पा रहा था. प्रकाश का एक मन कहता, ‘महल्ले को छोड़ दूं, खुदकुशी कर लूं…’ दूसरा मन कहता, ‘ऐसा कर के अपने प्यार को बदनाम करना चाहते हो तुम? नीलू के दिल को ठेस पहुंचाना चाहते हो तुम?’
कुछ पल तक यही हालत रही, फिर प्रकाश ने सोचा कि यह बेवकूफी होगी, बुजदिली होगी. उस ने उम्रभर नीलू की यादों के सहारे जीने की कमस खाई. नीलू की शादी हो रही थी. खूब चहलपहल थी. मेहमानों के आनेजाने का सिलसिला शुरू हो गया था. गाजेबाजे के साथ लड़के की बरात निकल चुकी थी. प्रकाश के घर के सामने वाली सड़क से बरात गुजर रही थी. वह अपनी छत पर खड़ा देख रहा था. वह अपनेआप से बोल रहा था, ‘मैं तुम्हें बदनाम नहीं करूंगा नीलू. इस में मेरे प्यार की रुसवाई होगी. तुम खुश रहो. मैं तुम्हारी यादों के सहारे ही अपनी जिंदगी गुजार दूंगा…’
प्रकाश ने देखा कि बरात बहुत दूर जा चुकी थी. प्रकाश छत से नीचे उतर आया था. वह अपने कमरे में आ कर कागज के पन्नों पर दूधिया रोशनी में लिख रहा था:
‘प्यारी नीलू,
‘वे पल कितने मधुर थे, जब बाग में शुरूशुरू में हमतुम मिले थे. तुम्हारा साथ पा कर मैं निहाल हो उठा था. ‘मैं रातभर यही सोचता था कि वे पल, जो हम दोनों ने एकसाथ बिताए थे, वे कभी खत्म न हों, पर मेरी चाहत के टीले को जमीन से उखाड़ कर टुकड़ेटुकड़े कर दिया गया. ‘मैं चाहता तो जमाने से रूबरू हो कर लड़ता, पर ऐसा कर के मैं अपनी मुहब्बत को बदनाम नहीं करना चाहता था. मेरे मन में हमेशा यही बात आती रही कि वे पल हमारी जिंदगी में क्यों आए? ‘तुम मेरी जिंदगी से दूर हो गई हो. मैं बेजान हो गया हूं. एक अजीब सा खालीपन पूरे शरीर में पसर गया है. संभाल कर रखूंगा उन मधुर पलों को, जो हम दोनों ने साथ बिताए थे.
‘तुम्हारा प्रकाश…’
प्रकाश की आंखें आंसुओं से टिमटिमा रही थीं. धीरेधीरे नीलू की यादों में खोया वह सो गया था.
अदितिभागीभागी बसस्टौप की तरफ जा रही थी. आज फिर से सारा काम काम खत्म करने में उसे देर हो गई थी. आज वह किसी भी कीमत पर बस नहीं छोड़ना चाहती थी.
बस छूटी और शुरू हो गया पति का लंबा लैक्चर, ‘‘टीचर ही तो हो… फिर भी तुम से कोई काम ढंग से नहीं होता. पता नहीं बच्चों को क्या सिखाती हो?’’
पिछले 5 सालों से वह यही सुन रही है.
अदिति 30 वर्ष की सुंदर नवयुवती है. अपने कैरियर की शुरुआत उस ने एक कंपनी में ह्यूमन रिसोर्स मैनेजर के पद से करी थी. वही कंपनी में उस की मुलाकात अपने पति अनुराग से हुई, जो उसी कंपनी में सेल्स मैनेजर का काम संभालता था. धीरेधीरे दोनों की दोस्ती प्यार में तबदील हो गई. शादी के बाद प्राथमिकताएं बदल गईं.
अनुराग और अदिति आंखों में ढेर सारे सपने संजो कर जीवन की राह पर चल पड़े. अदिति घर, दफ्तर का काम करतेकरते थक जाती थी. तब अनुराग ने ही एक मेड का बंदोबस्त कर दिया था.
जिंदगी गुजर रही थी और धीरेधीरे दोनों अपनी गृहस्थी को जमाने की कोशिश कर रहे थे. तभी उन की जिंदगी में एक फूल खिलने का आभास हुआ. डाक्टर ने अदिति को बैडरैस्ट करने को कहा, इसलिए उस के पास नौकरी छोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं था. एक प्यारी सी परी आ गई थी. उन के जीवन में पर साथ ही बढ़ रही थी जिम्मेदारियां.
अदिति पिछले 2 सालों से घर पर थी, इसी बीच अनुराग ने बैंक से लोन ले कर एक प्लैट भी ले लिया था. उधर पापा भी रिटायर हो गए थे तो उधर की तरफ भी उस की थोड़ी जवाबदेही हो गई थी. जैसे हर मध्यवर्ग के साथ होता है. उन्होंने भी कुछ खर्चों में कटौती करी और मेड को हटा दिया और अदिति ने भी नौकरी के लिए हाथपैर मारने शुरू कर दिए.
अदिति ने बहुत कंपनियों में कोशिश करी पर 2 साल का अंतराल एक खाई की तरह हो गया उस के और नौकरी के बीच में. फिर उस ने सोचविचार के बाद स्कूल में अप्लाई किया और जल्द ही एक स्कूल टीचर के रूप में उस की नियुक्ति हो गई.
अनुराग यह सुन कर खुश था क्योंकि वह समय से घर आ सकती है और अपनी बेटी के साथ समय बिता सकती है. समस्या थी कि 1 वर्ष की परी की. उसे किस के भरोसे छोड़ कर जाए, सम झ नहीं आ रहा था. परी के नानानानी और दादादादी उसे अपने साथ रखने को तैयार थे पर वहां आ कर रहना नहीं चाहते थे. मेड के भरोसे पूरा दिन परी को अदिति छोड़ना नहीं चाहती थी. फिर उन्हें पड़ोस में ही एक डे केयर मिल गया, हालांकि उस की फीस काफी ज्यादा थी पर अपनी बच्ची की सुरक्षा उन की प्राथमिकता थी.
आज अदिति को स्कूल जाना था. सुबह से ही अदिति की रेल बन गई. नाश्ता और खाना बनाना, फिर घर की साफसफाई और परी का भी पूरा बैग तैयार करना था. जब वह परी को डे केयर छोड़ कर बाहर निकली तो उस का रोना न सुन सकी और खुद ही कब सुबकने लगी, उसे पता ही नहीं चला. पर अदिति ने महसूस किया, जितनी वह बेबस है. उतनी ही बेबसी अनुराग की आंखों में भी है.
स्टाफरूप में उस का परिचय सब से कराया गया. सब खिलखिला रहे थे पर उसे सबकुछ नया और अलग लग रहा था. जब वह कंपनी में थी तो वहां पर आप कैसे भी व्यवहार कर सकते थे पर स्कूल के अपने नियमकायदे थे और उन्हें सब से पहले शिक्षक को ही अपने जीवन में उतारना होता है.
कक्षा में पहुंच कर देखा सारे बच्चे शोर मचा रहे थे. वह जोरजोर से चिल्ला रही थी पर कोई फायदा नहीं. उसे महसूस हुआ वह क्लास में नहीं एक सब्जी मंडी आ गई है. पास से ही प्रिंसिपल गुजर रही थीं. शोर सुन कर वे कक्षा में आ गईं, बच्चों को चुपचाप खड़े हो कर एक कड़ी नजर से देखा तो वे एकदम चुप हो कर बैठ गए.
पूरा दिन अदिति का बस चिल्लाते ही बीता. 6 घंटे के स्कूल में उसे बस मुश्किल से 15 मिनट लंच ब्रेक के मिले. अदिति को पहले दिन ही यह अनुमान लग गया कि यह इतना भी आसान नहीं है जितना वह सम झती है.
स्कूल बस में बैठ कर पता ही नहीं चला कब उस की आंख लग गई. जब साथ वाली अध्यापिका ने उसे झं झोड़ कर उठाया तो उस की आंख खुली. डे केयर से परी को ले कर अपने घर की तरफ चल पड़ी. वह पसीने से सराबोर थी और भूख से उस के प्राण निकल रहे थे. परी को गोद में लिए उस ने खाना खाया और लेट गई.
शाम को वह जैसे ही कमरे से बाहर निकली तो देखा दोपहर के जूठे बरतन उसे मुंह चिड़ा रहे थे. उस ने बरतन मांजने शुरू ही किए थे कि परी रोने लगी. हाथ का काम छोड़ कर, अदिति ने उस का दूध गरम किया. शाम की चाय उसे 7 बजे मिली. पहले जब वह नौकरी पर थी तो पूरे दिन की एक मेड रहती थी पर क्योंकि इस बार वह बस टीचर ही है और दोपहर तक घर आ जाएगी, यह सोच कर उस ने खुद ही अनुराग से काम वाली को मना कर दिया था. वैसे भी परी की डे केयर की फीस ही उन के बजट को गड़ाबड़ा रही थी.
रात को बिस्तर पर लेट कर अदिति को ऐसे लगा जैसे वह कोई जंग लड़ कर आई हो. अनुराग ने रात में जब प्यार जताने की कोशिश करनी चाही तो उस ने एक झटके से उसे हटा दिया. बोली, ‘‘सुबह 4 बजे उठना है, प्लीज मैं बहुत थक गई हूं.’’
अनुराग मुंह बना कर बोला, ‘‘क्या थक गई हो? न तुम्हारे टारगेट होंगे न ही कोई गोल, तुम्हें तो हर माह बस फ्री की तनख्वाह मिलेगी, टीचर ही तो हो.’’
अदिति के पास बहस का समय नहीं था. अत: वह मुंह फेर कर सो गई.
अदिति अगले दिन कक्षा में गई और पढ़ाने लगी. आधे से ज्यादा बच्चे उसे न सुन कर अपनी बातों में ही व्यस्त थे. एकदम उसे बहुत तेज गुस्सा आया और उस ने बच्चों को क्लास से बाहर खड़ा कर दिया. बाहर खड़े हो कर दोनों बच्चे फील्ड में चले गए और खेलने लगे. छुट्टी की घंटी बजी, तो उस ने बैग उठाया तभी चपरासी आ कर उसे सूचना दे गया कि उन्हें प्रिंसिपल ने बुलाया है.
अदिति भुनभुनाती हुई औफिस की तरफ लपकी. प्रिंसिपल ने उसे बैठाया और कहा, ‘‘अदिति तुम ने आज 2 बच्चों को क्लास से बाहर खड़ा कर दिया… तुम्हें मालूम है वे पूरा दिन फील्ड में खेल रहे थे. एक बच्चे को चोट भी लग गई है. कौन जिम्मेदार है इस का?’’
अदिति बोली, ‘‘मैडम, आप उन बच्चों को नहीं जानतीं कि वे कितने शैतान हैं.’’
प्रिंसिपल ठंडे स्वर में बोलीं, ‘‘अदिति बच्चे शैतान नहीं हैं, आप उन को संभाल नहीं पाती हैं, यह कोई औफिस नहीं है… आप टीचर हैं, बच्चों की रोल मौडल, ऐसा व्यवहार इस स्कूल में मान्य नहीं है.’’
बस जा चुकी थी और वह बहुत देर तब उबेर की प्रतीक्षा में खड़ी रही. जब 4 बजे उस ने डे केयर में प्रवेश किया तो उस की संचालक ने व्यंग्य किया, ‘‘आजकल टीचर को भी लगता है कंपनी जितना ही काम रहता है.’’
अदिति बिना बोले परी को ले कर अपने घर चल पड़ी. वह जब शाम को उठी तो देखा अंधेरा घिर आया था. उस ने रसोई में देखा जूठे बरतनों का ढेर लगा था और अनुराग फोन पर अपनी मां से गप्पें मार रहा था.
उस ने चाय बनाई और लग गई काम पर. रात 10 बजे जब वह बैडरूम में घुसी तो थक कर चूर हो गई थी. उस ने अनुराग से बोला, ‘‘सुनो एक मेड रखनी होगी… मैं बहुत थक जाती हूं.’’
अनुराग बोला, ‘‘अदिति टीचर ही तो हो… करना क्या होता है तुम्हें, सुबह तो सब कामों में मैं भी तुम्हारी मदद करने की कोशिश करता हूं… पहले जब तुम कंपनी में थी तब बात अलग थी… रात हो जाती थी… अब तो सारा टाइम तुम्हारा है.’’
तभी मोबाइल की घंटी बजी. कल उसे 4 बच्चों को एक कंपीटिशन के लिए ले कर जाना था. अदिति इस से पहले कुछ और पूछती, मोबाइल बंद हो गया. बच्चों को ले कर जब वह प्रतियोगिता स्थल पर पहुंची तो पला चला कि उन्हें अभी 4 घंटे प्रतीक्षा करनी होगी. उन 4 घंटों में अदिति अपने विद्यार्थियों से बात करने लगी और कब 4 घंटे बीत गए, पता ही नहीं चला. उसे महसूस हुआ ये बच्चे जैसे घर पर अपनी हर बात मातापिता से बांटते हैं, वैसे ही स्कूल में अध्यापकों से बांटते हैं. पहली बार उसे लगा टीचर का कार्य बस पढ़ाने तक ही सीमित नहीं है.
आज फिर घर पहुंचने में देर हो गई क्योंकि सब विद्यार्थियों को घर पहुंचा कर ही वह अपने घर पहुंच सकी. डे केयर पहुंच कर देखा, परी बुखार से तप रही थी. वह बिना खाएपीए उसे डाक्टर के पास ले गई और अनुराग भी वहां ही आ गया. बस आज इतनी गनीमत थी कि अनुराग ने रात का खाना बना दिया.
रात खाने पर अनुराग बोला, ‘‘अदिति तुम 2-3 दिन की छुट्टी ले लो.’’
अदिति ने स्कूल में फोन किया तो पता चला कि कल उसी के विषय की परीक्षा है तो कल तो उसे जरूर आना पड़ेगा, परीक्षा के बाद भले ही चली जाए.
सुबह पति का फूला मुंह छोड़ कर वह स्कूल चली गई. परीक्षा समाप्त होते ही वह विद्यार्थियों की परीक्षा कौपीज ले कर घर की तरफ भागी. घर पहुंच कर देखा तो परी सोई हुई थी और सासूमां आई हुई थीं, शायद अनुराग ने फोन कर के अपनी मां से उस की यशोगाथा गाई होगी.
उसे देखते ही सासूमां बोली, ‘‘बहू लगता है स्कूल की नौकरी तुम्हें अपनी परी से भी ज्यादा प्यारी है. मैं घर छोड़ कर आ गई हूं और देखा मां ही गायब.’’
अदिति किसकिस को सम झाए और क्या सम झाए जब वह खुद ही अभी सब सम झ रही है.
वह कैसे यह सम झाए उस की जिम्मेदारी अब बस परी की तरफ ही नहीं, अपने विद्यालय के हर 1 बच्चे की तरफ है. उस का काम बस स्कूल तक सीमित नहीं है. वह 24 घंटे का काम है जिस की कहीं कोई गणना नहीं होती. बहुत बार ऐसा भी हुआ कि अदिति को लगा कि वह नौकरी छोड़ कर परी की ही देखभाल करे पर हर माह कोई न कोई मोटा खर्च आ ही जाता.
अदिति की नौकरी का तीनचौथाई भाग तो घर के खर्च और डे केयर की फीस में ही खर्च हो जाता और एकचौथाई भाग से वह अपने कुछ शौक पूरे कर लेती. वहीं अनुराग का हाल और भी बेहाल था. उस की तनख्वाह का 80% तो घर और कार की किस्त में ही निकल जाता और बाकी का 20% उन अनदेखे खर्चों के लिए जमा कर लेता जो कभी भी आ जाते थे. उस के सारे शौक तो न जाने कहां खो गए थे.
अदिति जानेअनजाने अनुराग को अपनी बड़ी बहन और बहनोई का उदाहरण देती रहती जो हर वर्ष विदेश भ्रमण करते हैं और उन के पास खाने वाली से ले कर बच्चों की देखभाल के लिए भी आया थी. उन के रिश्तों में प्यार की जगह अब चिड़चिड़ाहट ने ले ली थी. कभीकभी अदिति की भागदौड़ देख कर उस का मन भी
भर जाता. ऐसा नहीं है अनुराग अदिति को आराम नहीं देना चाहता था पर क्या करे वह कितनी भी कोशिश कर ले, हर माह महंगाई बढ़ती ही जाती…
देखतेदेखते 2 वर्ष बीत गए और अदिति अपनी टीचर की भूमिका में अच्छी तरह ढल गई थी. जब कभी वह सुबहसुबह दौड़ लगाती अपनी बस की तरफ तो सोसाइटी में चलतेफिरते लोग पूछ ही लेते ‘‘आप टीचर हैं क्या किसी स्कूल में?’’
पर अब अदिति मुसकरा कर बोलती, ‘‘जी, तभी तो सुबहसवेरे का सूर्य देखना का मु झे समय नहीं मिलता है.’’
स्कूल अब स्कूल नहीं है उस का दूसरा घर हो गया है. उस की परी भी उस के साथ ही स्कूल जाती है और आती है. औरों की तरह उसे परी की सुरक्षा की कोई चिंता नहीं रहती है. जब उस के पढ़ाई हुए विद्यार्थी उस से मिलने आते हैं तो वह गर्व से भर उठती है. वह टीचर ही तो है, जिंदगी से भरपूर क्योंकि हर वर्ष नए विद्यार्थियों के साथ उस की उम्र साल दर साल बढ़ती नहीं घटती जाती है.
उधर अनुराग भी बहुत खुश था, परी के जन्म के समय से ही उस की प्रोमोशन लगभग निश्चित थी पर किसी न किसी कारण से वह टलती ही जा रही थी. आज उस के हाथ में प्रोमोशन लैटर था. पूरे 20 हजार की बढ़ोतरी और औफिस की तरफ से कार भी मिल गई. इधर अदिति के साथ परी के आनेजाने से डे केयर का खर्चा भी बच रहा था.
अनुराग ने मन ही मन निश्चिय कर लिया कि इस बार विवाह की वर्षगांठ पर वह और अदिति गोवा जाएंगे. वह सबकुछ पता कर चुका था, पूरे 60 हजार में पूरा पैकेज हो रहा था. अनुराग ने घर पहुंच कर ऐलान किया कि वे आज डिनर बाहर करेंगे और वह अदिति को उस की मनपसंद शौपिंग भी कराना चाहता है.
अदिति आज बहुत दिनों बाद खिलखिला रही थी और परी भी एकदम आसमान से उतरी हुई परी लग रही थी. अदिति की वर्षों से एक प्योर शिफौन साड़ी की तम्मना थी. जब दुकानदार ने साड़ी दिखानी शुरू कीं, तो अदिति मूल्य सुन कर बोली, ‘‘अनुराग कहीं और से लेते हैं.’’
तब अनुराग ने अपना प्रोमोशन लैटर दिखाया और बोला, ‘‘इतना तो मैं अब कर सकता हूं.’’
डिनर के समय अनुराग अदिति का हाथ पकड़ कर बोला, ‘‘अदिति बस 1-2 साल की तपस्या और है, फिर मैं अपनी कंपनी में डाइरैक्टर के ओहदे पर पहुंच जाऊंगा.’’
दोनों शायद आज काफी समय बाद घोड़े बेच कर सोए थे. दोनों ने ही आज छुट्टी कर रखी थी. दोनों ही इन लमहों को जी भर कर जीना चाहते थे.
आज अदिति अनुराग से कुछ और भी बात करना चाहती थी. वह अब परी के लिए एक भाई या बहन लाना चाहती थी. इस से पहले कि वह अनुराग से इस बारे में बात करती, उस ने उस के मुंह पर हाथ रख कर कहा, ‘‘जानता हूं पर इस के लिए प्यार भी जरूरी है,’’ और फिर दोनों प्यार में सराबोर हो गए.’’
1 माह पश्चात अदिति के हाथ में अपनी प्रैगनैंसी रिपोर्ट थी जो पौजिटिव थी. वे बहुत खुश थे. उस ने तय कर लिया था, इस बार वे अपने बच्चे के साथ पूरा समय बिताएगी और जब दोनों ही बच्चे थोड़े सम झदार हो जाएंगे तभी अपने काम के बारे में सोचेगी. अनुराग भी उस की बात से सहमत था. अब अनुराग भी थोड़ा निश्चित हो गया था क्योंकि अब उस की अगले वर्ष प्रोमोशन तय थी.
रविवार की ऐसी ही कुनकुनी दोपहरी में दोनों पक्षियों की तरह गुटरगूं कर रहे थे. तभी फोन की घंटी बजी. उधर से अनुराग की मां घबराई सी बोल रही थीं, ‘‘अनुराग के ?झ को हार्ट अटैक आ गया है और उन्हें हौस्पिटल में एडमिट कर लिया गया है.’’
वहां पहुंच कर पता चला 20 लाख का पूरा खर्च है. अनुराग ने दफ्तर से अपनी तनख्वाह से एडवांस लिया, हिसाब लगाने पर उसे अनुमान हो गया था कि उस की पूरी तनख्वाह बस अब इन किस्तों में ही निकल जाएगी, फिर से कुछ वर्षों तक.
घर पहुंच कर जब उस ने अदिति को सारी बात से अवगत कराया तो वह बोली, ‘‘कोई बात नहीं अनुराग, मैं हूं न, हम मिल कर सब संभाल लेंगे.’’
हालांकि मन ही मन वह खुद भी परेशान थी. पर यह दोनों को ही सम झ आ गया था कि यही जीवन है, फिर चाहे हंस कर गुजारो या रो कर आप की मरजी है.
अनुराग अपनी मां के साथ हौस्पिटल के गलियारे में चहलकदमी कर रहा था. अदिति को प्रसवपीड़ा शुरू हो गई थी. आधे घंटे पश्चात नर्स उन के बेटे को ले कर आई. उसे हाथों में ले कर अनुराग की आंखों में आंसू आ गए.
फिर से 3 माह पश्चात अदिति अपने युवराज को घर छोड़ कर स्कूल जा रही हैं, पर आज वह घबरा नहीं रही है क्योंकि अब अनुराग के मां और पापा उन के साथ ही रह रहे हैं. उधर अदिति के मांपापा ने बच्चों की देखभाल और घर की देखरेख के लिए कुछ समय के लिए अपनी नौकरानी उन के घर भेज दी. जिंदगी बहुत आसान नहीं थी पर मुश्किल भी नहीं थी.
इस बार विवाह की वर्षगांठ पर अनुराग फिर से अदिति को गोवा ले जाना चाहता था और उसे पूरी उम्मीद थी कि इस बार अदिति का वह सपना पूरा कर पाएगा. रास्तों पर चलते हुए वे जीवन के इस सफर को शायद हंसतेखिलखिलाते पूरा कर ही लेंगे.
पद्मजा उस दिन घर पर अकेली गुमसुम बैठी थीं. पति संपत कैंप पर थे तो बेटा उच्च शिक्षा के लिए पड़ोसी प्रदेश में चला गया था और बेटी समीरा शादी कर के अपने ससुराल चली गई. बेटी के रहते पद्मजा को कभी कोई तकलीफ महसूस नहीं हुई. वह बड़ी हो जाने के बाद भी छोटी बच्ची की तरह मां का पल्लू पकड़े, पीछेपीछे घूमती रहती थी. एक अच्छी सहेली की तरह वह घरेलू कामों में पद्मजा का साथ देती थी. यहां तक कि वह एक सयानी लड़की की तरह मां को यह समझाती रहती थी कि किस मौके पर कौन सी साड़ी पहननी है और किस साड़ी पर कौन से गहने अच्छे लगते हैं.
ससुराल जाने के बाद समीरा अपनी सूक्तियां पत्रों द्वारा भेजती रहती जिन्हें पढ़ते समय पद्मजा को ऐसा लगता मानो बेटी सामने ही खड़ी हो.
उस दिन पद्मजा बड़ी बेचैनी से डाकिए की राह देख रही थीं और मन में सोच रही थीं कि जाने क्यों इस बार समीरा को चिट्ठी लिखने में इतनी देर हो गई है. इस बार क्या लिखेगी वह चिट्ठी में? क्या वह मां बन जाने की खुशखबरी तो नहीं देगी? वैसी खबर की गंध मिल जाए तो मैं अगले क्षण ही वहां साड़ी, फल, फूलों के साथ पहुंच जाऊंगी.
तभी डाकिया आया और उन के हाथ में एक चिट्ठी दे गया. पद्मजा की उत्सुकता बढ़ गई.
चिट्ठी खोल कर देखा तो उन के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. कारण, चिट्ठी में केवल 4 ही पंक्तियां लिखी थीं. उन्होंने उन पंक्तियों पर तुरंत नजर दौड़ाई.
‘‘मां,
तुम ने कई बार मेरी घरगृहस्थी के बारे में सवाल किया, लेकिन मैं इसलिए कुछ भी नहीं बोली कि अगर तुम्हें पता चल जाए तो तुम बरदाश्त नहीं कर पाओगी. मां, हम धोखा खा चुके हैं. वह शराबी हैं, जब भी पी कर घर आते हैं, मुझ से झगड़ा करते हैं. कल रात उन्होंने मुझ पर हाथ भी उठाया. अब मैं इस नरक में एक पल भी नहीं रह पाऊंगी. इसलिए सोचा कि इस दुनिया से विदा लेने से पहले तुम्हारे सामने अपना दिल खोलूं, तुम से भी आज्ञा ले लूं. मुझे माफ करो, मां. यह मेरी आखिरी चिट्ठी है. मैं हमेशाहमेशा के लिए चली जा रही हूं, दूर…इस दुनिया से बहुत दूर.
-समीरा.’’
पद्मजा को लगा मानो उन के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. ऐसा लगा मानो एक भूचाल आया और वह मलबे के नीचे धंसती जा रही हैं.
‘क्या यह सच है? उन के दिल ने खुद से सवाल पूछा, क्योंकि ‘समीरा के लिए जब यह रिश्ता पक्का हुआ था तो वह कितनी खुश थी. समीरा तो फूली न समाई. लेकिन ऐसा कैसे हो गया?’
अतीत की बातें सोच कर पद्मजा का मन बोझिल हो गया. उन की आंखें डबडबाने लगीं.
वह फिर सोचने लगीं कि इस वक्त घर पर मैं अकेली हूं. अब कैसे जाऊं? ट्रेन या बस से जाने पर तो कम से कम 5-6 घंटे लग ही जाएंगे.’ तभी उन के दिमाग में एक उपाय कौंध गया और तुरंत उन्होंने अपने पति के मित्र केशवराव का नंबर मिलाया.
‘‘भैया, मुझे फौरन आप की गाड़ी चाहिए. मुझे अभी-अभी खबर मिली है कि समीरा की हालत बहुत खराब है. आप का एहसान कभी नहीं भूलूंगी,’’
केशवराव ने तुरंत ड्राइवर सहित अपनी गाड़ी भेज दी. गाड़ी में बैठते ही पद्मजा ने ड्राइवर से कहा, ‘‘भैया, जरा गाड़ी तेज चलाना.’’
गाड़ी नेशनल हाईवे पर दौड़ रही थी. पीछे वाली सीट पर बैठी पद्मजा का मन बेचैन था. रहरह कर उन्हें अपनी बेटी समीरा की लाश आंखों के सामने प्रत्यक्ष सी होने लगती थी.
कार की रफ्तार के साथ पद्मजा के विचार भी दौड़ रहे थे. उन का अतीत चलचित्र की भांति आंखों के सामने साकार होने लगा.
‘पद्मजा,’ तेरे मुंह में घीशक्कर. ले… लड़के वालों से चिट्ठी मिल गई. उन को तू पसंद आ गई,’ सावित्रम्मा का मन खुशी से नाच उठा.
‘मां, मैं कई बार तुम से कह चुकी हूं कि यह रिश्ता मुझे पसंद नहीं है. मैं ने शशिधर से प्यार किया है. मैं बस, उसी से शादी करूंगी. वरना…’ पद्मजा की आवाज में दृढ़ता थी.
‘चुप, यह क्या बक रही है तू. अगर कोई सुन लेता तो एक तो हम यह रिश्ता खो बैठेंगे और दूसरे तू जिंदगी भर कुंआरी बैठी रहेगी. मुझे सब पता है. शशिधर से तेरी जोड़ी नहीं बनेगी. वह तेरे लायक नहीं. हम तेरे मांबाप हैं. तुझ से ज्यादा हमें तेरी भलाई की चिंता है. हम तेरे दुश्मन थोड़े ही हैं,’ कहती हुई मां सावित्री गुस्से में वहां से चली गईं.
मां की बातों का असर पद्मजा पर बिलकुल नहीं पड़ा, उलटे उस का क्रोध दोगुना हो गया. वह सोचने लगी कि वह मां मां नहीं और वह बाप बाप नहीं जो अपनी संतान की पसंद, नापसंद को न समझे.
वैसे पद्मजा शुरू से ही तुनकमिजाज थी. उस में जोश ज्यादा था. जब भी कोई ऐसी घटना हो जाती थी जो उस के मन के खिलाफ हो, तो तुरंत वह आपे से बाहर हो जाती. वह अगले पल अपने कमरे में जा कर अंदर से दरवाजा बंद कर देती और पिता की नींद की गोलियां मुट्ठी भर ले कर निगल भी लेती थी.
सावित्रम्मा बेटी पद्मजा का स्वभाव अच्छी तरह से जानती थीं. इस से पहले भी एक बार मेडिकल में सीट न मिलने पर उस ने ब्लेड से अपनी एक नस काट दी थी. नतीजा यह हुआ कि उस की जान आफत में पड़ गई. इसी वजह से, सावित्रम्मा अपनी बेटी के व्यवहार पर नजर गड़ाए बैठी थीं. बेटी के अपने कमरे में घुसते ही उस ने यह खबर पति के कान में डाल दी. पतिपत्नी दोनों के बारबार बुलाने पर भी वह बाहर न आई. लाचार हो कर पतिपत्नी ने दरवाजा तोड़ दिया और पद्मजा को अस्पताल में दाखिल कर दिया.
‘पद्मा, यह तुम क्या कह रही हो? तुम्हारी मूर्खता रोजरोज बढ़ती जा रही है. पढ़ीलिखी हो कर तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए.’ संपत बड़ी बेचैनी से पत्नी पद्मजा से बोला. पद्मजा एकदम बिगड़ गई.
‘हां…पढ़ीलिखी होने की वजह से ही मैं आप से यह पूछ रही हूं. मेरे साथ अन्याय हो तो मैं क्यों बरदाश्त करूं? और कैसे बरदाश्त करूं? मैं पुराणयुग की भोली अबला थोड़े ही हूं कि आप अपनी मनमानी करते रहें, बाहर गुलछर्रे उड़ाएं, ऐश करें और मैं चुपचाप देखती रहूं. आप कभी यह नहीं समझना कि मैं सीतासावित्री के जमाने की हूं और आप की हर भूल को माफ कर दूंगी. आखिर मैं ने क्या भूल की है? क्या अपने पति पर सिर्फ अपना ही हक मानना अपराध है? दूसरी महिलाओं से नाता जोड़ना, उन के चारों ओर चक्कर काटना तो क्या मैं चुपचाप देखती रहूं.’
‘वैसा पूछना गलत नहीं हो सकता है लेकिन मैं ने वैसा किया कब था? यह सब तेरा वहम है. तेरे दिमाग पर शक का भूत सवार है. वह उठतेबैठते, किसी के साथ मिलते, बात करते मेरा पीछा कर रहा है. तेरी राय में मेरी कोई लेडी स्टेनो नहीं रहनी चाहिए. मेरे दोस्तों की बीवियों से भी मुझे बात नहीं करनी चाहिए… है न.’
‘ऐसा मैं ने थोड़े ही कहा है, जो कुछ मैं ने अपनी आंखों से देखा और कानों से सुना वही तो बता रही हूं. सचाई क्या है, मैं जानती हूं. आप के इस तरह चिल्लाने से सचाई दब नहीं सकती.’
‘छि:, बहुत हो गया. यह घर रोजरोज नरक बनता जा रहा है. न सुख है और न शांति.’ चिढ़ता हुआ संपत बाहर चला गया. पद्मजा रोतीबिलखती बिस्तर पर लेट गई.
पद्मजा रोज की तरह उस दिन भी बाजार गई और वह सब्जी खरीद रही थी कि सामने एक ऐसा नजारा दिखाई पड़ा कि वह फौरन पीछे मुड़ी और बिना कुछ खरीदे ही घर लौट आई.
संपत स्कूटर पर कहीं जा रहा था और पीछे कोई खूबसूरत लड़की बैठी थी. दोनों अपनी दुनिया में मस्त थे. आपस में बातें करते हुए, हंसते हुए लोटपोट हो रहे थे. बस, इसी दृश्य ने पद्मजा को उत्तेजित, पागल और बेचैन कर दिया.
आते ही पद्मजा ने प्लास्टिक की थैली एक कोने में फेंक दी और सीधा रसोईघर में घुस गई. अलमारी से किरोसिन का डब्बा उठा कर उस ने अपने शरीर पर सारा तेल उड़ेल दिया. बस, अब तीली जला कर आत्महत्या करने ही वाली थी कि बाहर स्कूटर की आवाज सुनाई पड़ी.
पद्मजा का क्रोध मानो सातवें आसमान पर चढ़ गया. उस के मन में ईर्ष्या ने ज्वालामुखी का रूप धारण कर लिया.
‘अब मुझे मर ही जाना चाहिए. जीवन भर उसे 8-8 आंसू बहाते, तड़पतड़प कर रहना चाहिए,’ पद्मजा का दिमाग ऐसे विचारों से भर गया.
संपत को घर में कदम रखते ही मिट्टी के तेल जैसी किसी चीज के जलने की गंध लग गई. रसोई में झांक कर देखा तो ज्वालाओं से घिरी पद्मजा दिखाई पड़ी. संपत हक्काबक्का रह गया. वह जोश में आ कर रसोई का दरवाजा पीटने लगा और पद्मजा को बारबार पुकार रहा था. अंत में दरवाजा टूट गया. 40 प्रतिशत जली पद्मजा अस्पताल में भरती कराई गई. फिर बड़ी मुश्किल से वह बच पाई. पद्मजा को जब यह पता चला कि उस दिन संपत के स्कूटर के पीछे बैठी नजर आई लड़की कोई और नहीं वह तो संपत के ताऊ
की बेटी थी, बस, पद्मजा का मन पश्चात्ताप से भर गया. उसे अपनी गलती महसूस हुई.
पद्मजा में अपने प्रति ग्लानि तब और बढ़ गई जब पति ने इलाज के दौरान जीतोड़ कर सेवा की. उसे बड़ी शरम महसूस हुई और अपनी जल्दबाजी, मूर्खता पर स्वयं को कोसने लगी.
दौड़ती कार के अचानक रुकते ही पद्मजा वर्तमान में आ गई. अतीत के सारे चलचित्र ओझल हो गए.
‘‘गाड़ी क्यों रोकी?’’ उस ने ड्राइवर से पूछा.
‘‘मांजी, यहां एक छोटा होटल है. सोचा, आप थक गई होंगी. प्यास भी लग गई होगी. क्या मैं आप के लिए थोड़ा ठंडा पानी ले आऊं?’’
‘‘नहीं, इस समय मुझे कुछ भी नहीं चाहिए. मुझे फौरन वहां पहुंचना है वरना…’’ इतना कहतेकहते ही पद्मजा का गला भर गया. उस समय केवल समीरा ही उन के दिलोदिमाग पर छाई हुई थी.
पद्मजा पीछे सीट की तरफ झुक गई. खिड़की के शीशे नीचे कर देने से ठंडी हवा के झोंके भीतर आ कर मानो उस की थकावट दूर करते हुए सांत्वना भी दे रहे थे. बस, उस ने अपनी आंखें मूंद लीं.
गाड़ी अचानक ब्रेक के कारण एक झटके के साथ रुकी तो पद्मजा एकदम सामने वाली सीट पर जा गिरी. तभी उस की आंख खुल गई. वह एकदम उछल पड़ी. चारों ओर नजर दौड़ाई. स्थिति सामान्य देख कर वह बोल पड़ी, ‘‘सत्यम, अचानक गाड़ी क्यों रोक दी तूने?’’ पद्मजा ने पूछा.
‘‘आप नींद में चीख उठीं, तो मैं डर गया कि आप के साथ कोई अनहोनी हुई होगी,’’ उस ने अपनी सफाई दी.
कार शहर में पहुंच गई थी और रामनगर महल्ले की तरफ जाने लगी. पद्मजा मन ही मन सोचने लगी कि उस की बिटिया सहीसलामत रहे.
लेकिन, जैसा उस के मन में डर था. पद्मजा ने वहां ऐसा कुछ भी नहीं पाया था. वातावरण एकदम शांत था. गाड़ी के रुकते ही वह दरवाजा खोल कर झट से कूदी और भीतर की तरफ दौड़ पड़ी.
घर के भीतर खामोशी फैली हुई थी. सहमी हुई पद्मजा ने भीतर कदम रखा कि उसे ये बातें सुनाई पड़ीं.
समीरा बोल रही थी. बेटी की आवाज सुन कर पद्मजा के सूखे दिल में मानो शीतल वर्षा हुई.
‘‘आप ने क्यों बचा लिया मुझे? एक पल और बीतता तो मैं फांसी के फंदे में झूल जाती और इस माहौल से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाता.’’
‘‘समीरा…’’ यह आवाज पद्मजा के दामाद की थी.
‘‘मैं ने यह बिलकुल नहीं सोचा कि तुम इतनी ‘सेंसिटिव’ हो. अरे, पतिपत्नी के बीच झड़प हो जाती है, झगड़े भी हो जाते हैं. क्या इतनी छोटी सी बात के लिए मर जाएंगे? समीरा, मैं तुम को दिल से चाहता हूं. क्या तुम यह नहीं जानतीं कि मैं बगैर तुम्हारे एक पल भी नहीं रह सकता?’’
‘‘आप जानते हैं कि मुझे शराबियों से सख्त नफरत है. फिर भी आप…’’
‘‘समीरा, मैं शराबी थोड़े ही हूं. तुम्हारा यह सोचना गलत है कि मैं हमेशा पीता रहता हूं लेकिन कभीकभी पार्टियों में दोस्तों का मन रखने के लिए थोड़ा पीता हूं. यह तो सच है कि परसों रात मैं ने थोड़ी सी शराब पी थी लेकिन तुम ने जोश में आ कर भलाबुरा कहा, मेरा मजाक उड़ाया और बेइज्जती की और मैं इसे बरदाश्त नहीं कर सका.
‘‘तुम पर अनजाने में हाथ उठाया उस के लिए तुम जो भी सजा दोगी, मैं उसे भुगतने को तैयार हूं. लेकिन ऐसी सजा तो मत दो, समीरा. इस दुनिया में तुम से बढ़ कर मेरे लिए कुछ भी नहीं है. तुम्हारी खातिर मैं शराब छोड़ दूंगा. प्रामिस, तुम्हारी कसम, लेकिन बगैर तुम्हारे यह जिंदगी कोई जिंदगी थोड़े ही है.’’
दामाद के स्वर में अपनी बेटी के प्रति जो प्रेम, जो अपनापन था, उसे सुन कर पद्मजा मानो पिघल गईं. उन की आंखें भी भर आईं. वह अपने आप को संभाल ही नहीं सकीं. और तुरंत दरवाजे पर दस्तक दी.
‘‘कौन है?’’ समीरा और शेखर एकसाथ ही बेडरूम से बाहर आ गए.
मां को देखते ही भावुक हो समीरा दूर से ही ‘मां’ कहते हुए दौड़ आई और उन से लिपट गई.
‘‘यह क्या किया बेटी तूने? तेरी चिट्ठी देखते ही मेरी छाती फट गई. मेरी कोख में आग लगाने का खयाल तुझे क्यों आया? यह तूने सोचा कैसे कि बगैर तेरे हम जिएंगे?’’
‘‘माफ करो मम्मी, मैं ने जोश में आ कर वह चिट्ठी लिख दी थी. यह नहीं सोचा कि वह तुम्हें इतना सदमा पहुंचाएगी.’’
शेखर एकदम शर्मिंदा हो गया. उसे अब तक यह नहीं पता था कि समीरा ने अपनी मां को चिट्ठी लिखी है. उस की नजरें अपराधबोध से झुक गईं.
समीरा मां का चेहरा देख कर भांप गई कि उस ने चिट्ठी पढ़ने से ले कर यहां पहुंचने तक कुछ भी नहीं खाया है.
समीरा ने पंखा चलाया फिर मां और ड्राइवर को ठंडा पानी पिलाया. थोड़ी देर बाद वह गरमागरम काफी बना कर ले आई. उसे पीने के बाद मानो पद्मजा की जान में जान आ गई.
वहां से जाने से पहले पद्मजा बेटी को समझातेबुझाते दामाद के बारे में पूछ बैठीं, ‘‘समीरा, शेखर घर पर नहीं है क्या?’’
‘‘हां हैं,’’ समीरा ने जवाब दिया.
पद्मजा ने भांप लिया कि समीरा इस बात के लिए पछता रही है कि उस के कारण शेखर की नाक कट गई और अपनी मां के सामने वह शरम महसूस कर रही है.
‘‘जा, उसे मेरे जाने की बात बता दे,’’ पद्मजा ने बड़े संक्षेप में कहा.
समीरा के भीतर जा कर बताते ही शेखर बाहर आया. भले ही वह पद्मजा की तरफ मुंह कर के खड़ा था, नजरें जमीन में गड़ी हुई थीं.
‘‘शेखर, समीरा की तरफ से मैं माफी मांगती हूं. उसे माफ कर दो.’’ शेखर विस्मित रह गया.
पद्मजा अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोलीं, ‘‘वह शुरू से ऐसी ही है, एकदम मेरे जैसी. वह बहुत भोली है, बिलकुल बच्चों जैसी. उसे यह भी नहीं पता कि जोश में आ कर जो भी फैसला वह करेगी, उस से सिर्फ उस को ही नहीं बल्कि दूसरों को भी दुख होता है.’’
समीरा और शेखर दोनों पद्मजा की बातें सुन कर चौंक पड़े.
‘‘बेटी, तू पूछती थी न, मेरे शरीर पर ये धब्बे क्या हैं? ये घाव के निशान हैं जो जल जाने के कारण हुए. मैं ने तुझे यह कभी नहीं बताया था, ये हुए कैसे? मैं सोचती थी, अगर बता दूं तो मेरे व्यक्तित्व पर कलंक लग जाएगा और मैं तेरी नजर से गिर भी सकती हूं. इसलिए मैं तुझ से झूठ बोलती आई.
‘‘बेटी, अब मैं पछता रही हूं कि मैं ने यह पहले ही तुझ से क्यों नहीं कहा? लेकिन मुझे यह देर से पता चला कि बड़ों के अनुभव छोटों को पाठ पढ़ाते हैं. शुरू में मेरे भीतर भी आत्महत्या की भावना रहती थी. हर छोटीबड़ी बात के लिए मैं आत्महत्या कर लेने का निर्णय लेती थी. ऐसा सोचने के पीछे मुझे वेदना या विपत्तियों से मुक्ति पा लेने के विचार की तुलना में किसी से बदला लेने या किसी को दुख पहुंचाने की बात ही ज्यादा रहती थी. कालक्रम में मेरा यह भ्रम दूर होता गया और यह पता चला कि जिंदगी कितनी अनमोल है.
शेखर, जो पहली बार अपनी सासूमां की जीवन संबंधी नई बात सुन रहा था विस्मित हो गया. समीरा की भी लगभग यही हालत थी.
पद्मजा आगे बताने लगी.
‘‘दरअसल, मौत किसी भी समस्या का समाधान नहीं. मौत से मतलब, जिंदगी से डर कर भाग जाना, समस्याओं और चुनौतियों से मुंह मोड़ लेना है. यह तो कायरों के लक्षण हैं. कमजोर दिल वाले ही खुदकुशी की बात सोचते हैं. बेटी, बहादुर लोग जीवन में एक ही बार मरते हैं लेकिन बुजदिल आदमी हर दिन, हर पल मरता रहता है. जिंदगी जीने के लिए है, बेटी, मरने के लिए नहीं. सुखदुख दोनों जीवन के अनिवार्य अंश हैं. जो दोनों को समान मानेगा वही जीवन का आनंद लूट सकेगा. समीरा, यह सब मैं तुझे इसलिए बता रही हूं कि अपनी समस्याओं का समाधान मर कर नहीं जीवित रह कर ढूंढ़ो. जीवन में समस्याओं का उत्पन्न होना स्वाभाविक है. दोनों ठंडे दिमाग से सोच कर समस्या का समाधान ढूंढ़ो.
‘‘मैं भी जोश में आ कर आत्महत्या कर लेने का प्रयास कई बार कर चुकी हूं. उन में से अगर एक भी प्रयत्न सफल हो जाता तो आज न मुझे इतनी अच्छी जिंदगी मिलती, न इतना योग्य पति मिलता, न हीरेमोती जैसी संतानें मिलतीं. और न इतना अच्छा घर. अपने अनुभव के बल पर कहती हूं बेटी, मेरी बातें समझने की कोशिश करो. मुश्किलें कितनी ही कठिन हों, चुनौतियां कितनी ही गंभीर हों, आप अपने सुनहरे भविष्य को मत भूलें. आश्चर्य की बात यह है कि कभी जो उस समय कष्ट पहुंचाते हैं, वे ही भविष्य में हमारे लिए फायदेमंद होते हैं.’’
‘‘चलिए, अगर मैं ऐसा ही बोलती रहूंगी तो इस का कोई अंत नहीं होगा. जिंदगी, जिंदगी ही होती है,’’ बेटीदामाद से अलविदा कह कर वह जाने को तैयार हो गई.
पद्मजा के ओझल हो जाने तक वे दोनों उन्हें वहीं खड़ेखडे़ देखते रहे. उन के चले जाने के बाद जिंदगी के बारे में उन्होंने जो कहा, उस का सार उन दोनों के दिलोदिमाग में भर गया.
जैसे हर यात्रा की एक मंजिल होती है उसी तरह हर जिंदगी का भी एक मकसद होता है, एक लक्ष्य रहता है. यात्रा में थोड़ी सी थकावट महसूस होने पर जहां चाहे वहां नहीं उतर जाना चाहिए. मंजिल को पाने तक हमारी जिंदगी का सफर चलता रहता है.
इस प्रकार समीरा के विचार नया मोड़ लेने लगे. अब तक की मां की वेदना उस की समझ में आ गई जिस ने चारों ओर नया आलोक फैला दिया. अब वह पहले वाली समीरा नहीं. इस समीरा को तो जीवन के मूल्यों का पता चल गया.
पढ़ीलिखी गुलशन की शादी मसजिद के मुअज्जिन हबीब अली के बेटे परवेज अली से धूमधाम से हुई. लड़का कपड़े का कारोबार करता था. घर में जमीनजायदाद सबकुछ था. गुलशन ब्याह कर आई तो पहली रात ही उसे अपने मर्द की असलियत का पता चल गया. बादल गरजे जरूर, पर ठीक से बरस नहीं पाए और जमीन पानी की बूंदों के लिए तरसती रह गई. वलीमा के बाद गुलशन ससुराल दिल में मायूसी का दर्द ले कर लौटी. खानदानी घर की पढ़ीलिखी लड़की होने के बावजूद सीधीसादी गुलशन को एक ऐसे आदमी को सौंप दिया गया, जो सिर्फ चारापानी का इंतजाम तो करता, पर उस का इस्तेमाल नहीं कर पाता था.
गुलशन को एक हफ्ते बाद हबीब अली ससुराल ले कर आए. उस ने सोचा कि अब शायद जिंदगी में बहार आए, पर उस के अरमान अब भी अधूरे ही रहे. मौका पा कर एक रात को गुलशन ने अपने शौहर परवेज को छेड़ा, ‘‘आप अपना इलाज किसी अच्छे डाक्टर से क्यों नहीं कराते?’’
‘‘तुम चुपचाप सो जाओ. बहस न करो. समझी?’’ परवेज ने कहा.
गुलशन चुपचाप दूसरी तरफ मुंह कर के अपने अरमानों को दबा कर सो गई. समय बीतता गया. ससुराल से मायके आनेजाने का काम चलता रहा. इस बात को दोनों समझ रहे थे, पर कहते किसी से कुछ नहीं थे. दोनों परिवार उन्हें देखदेख कर खुश होते कि उन के बीच आज तक तूतूमैंमैं नहीं हुई है. इसी बीच एक ऐसी घटना घटी, जिस ने गुलशन की जिंदगी बदल दी. मसजिद में एक मौलाना आ कर रुके. उन की बातचीत से मुअज्जिन हबीब अली को ऐसा नशा छाया कि वे उन के मुरीद हो गए. झाड़फूंक व गंडेतावीज दे कर मौलाना ने तमाम लोगों का मन जीत लिया था. वे हबीब अली के घर के एक कमरे में रहने लगे.
‘‘बेटी, तुम्हारी शादी के 2 साल हो गए, पर मुझे दादा बनने का सुख नहीं मिला. कहो तो मौलाना से तावीज डलवा दूं, ताकि इस घर को एक औलाद मिल जाए?’’ हबीब अली ने अपनी बहू गुलशन से कहा. गुलशन समझदार थी. वह ससुर से उन के बेटे की कमी बताने में हिचक रही थी. चूंकि घर में ससुर, बेटे, बहू के सिवा कोई नहीं रहता था, इसलिए वह बोली, ‘‘बाद में देखेंगे अब्बूजी, अभी मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’ हबीब अली ने कुछ नहीं कहा.
मुअज्जिन हबीब अली के घर में रहते मौलाना को 2 महीने बीत गए, पर उन्होंने गुलशन को देखा तक नहीं था. उन के लिए सुबहशाम का खाना खुद हबीब अली लाते थे. दिनभर मौलाना मसजिद में इबादत करते. झाड़फूंक के लिए आने वालों को ले कर वे घर आते, जो मसजिद के करीब था. हबीब अली अपने बेटे परवेज के साथ दुकान में रहते थे. वे सिर्फ नमाज के वक्त घर या मसजिद आते थे. मौलाना की कमाई खूब हो रही थी. इसी बहाने हबीब अली के कपड़ों की बिक्री भी बढ़ गई थी. वे जीजान से मौलाना को चाहते थे और उन की बात नहीं टालते थे. एक दिन दोपहर के वक्त मौलाना घर आए और दरवाजे पर दस्तक दी.
‘‘जी, कौन है?’’ गुलशन ने अंदर से ही पूछा.
‘‘मैं मौलाना… पानी चाहिए.’’
‘‘जी, अभी लाई.’’
गुलशन पानी ले कर जैसे ही दरवाजा खोल कर बाहर निकली, गुलशन के जवां हुस्न को देख कर मौलाना के होश उड़ गए. लाजवाब हुस्न, हिरनी सी आंखें, सफेद संगमरमर सा जिस्म… मौलाना गुलशन को एकटक देखते रहे. वे पानी लेना भूल गए.
‘‘जी पानी,’’ गुलशन ने कहा.
‘‘लाइए,’’ मौलाना ने मुसकराते हुए कहा.
पानी ले कर मौलाना अपने कमरे में लौट आए, पर दिल गुलशन के कदमों में दे कर. इधर गुलशन के दिल में पहली बार किसी पराए मर्द ने दस्तक दी थी. मौलाना अब कोई न कोई बहाना बना कर गुलशन को आवाज दे कर बुलाने लगे. इधर गुलशन भी राह ताकती कि कब मौलाना उसे आवाज दें. एक दिन पानी देने के बहाने गुलशन का हाथ मौलाना के हाथ से टकरा गया, उस के बाद जिस्म में सनसनी सी फैल गई. मुहब्बत ने जोर पकड़ना शुरू कर दिया था. ऊपरी मन से मौलाना ने कहा, ‘‘सुनो मियां हबीब, मैं कब तक तुम्हारा खाना मुफ्त में खाऊंगा. कल से मेरी जिम्मेदारी सब्जी लाने की. आखिर जैसा वह तुम्हारा बेटा, वैसा मेरा भी बेटा हुआ. उस की बहू मेरी बहू हुई. सोच कर कल तक बताओ, नहीं तो मैं दूसरी जगह जा कर रहूंगा.’’
मुअज्जिन हबीब अली ने सोचा कि अगर मौलाना चले गए, तो इस का असर उन की कमाई पर होगा. जो ग्राहक दुकान पर आ रहे हैं, वे नहीं आएंगे. उन को जो इज्जत मौलाना की वजह से मिल रही है, वह नहीं मिलेगी. इस समय पूरा गांव मौलाना के अंधविश्वास की गिरफ्त में था और वे जबरदस्ती तावीज, गंडे, अंगरेजी दवाओं को पीस कर उस में राख मिला कर इलाज कर रहे थे. हड्डियों को चुपचाप हाथों में रख कर भूतप्रेत निकालने का काम कर रहे थे. बापबेटे दोनों ने मौलाना से घर छोड़ कर न जाने की गुजारिश की. अब मौलाना दिखाऊ ‘बेटाबेटी’ कह कर मुअज्जिन हबीब अली का दिल जीतने की कोशिश करने लगे. नमाज के बाद घर लौटते हुए हबीब अली ने मौलाना से कहा, ‘‘जनाब, आप इसे अपना ही घर समझिए. आप की जैसी मरजी हो वैसे रहें. आज से आप घर पर ही खाना खाएंगे, मुझे गैर न समझें.’’ मौलाना के दिल की मुराद पूरी हो गई. अब वे ज्यादा वक्त घर पर गुजारने लगे. बाहर के मरीजों को जल्दी से तावीज दे कर भेज देते. इस काम में अब गुलशन भी चुपकेचुपके हाथ बंटाने लगी थी.
तकरीबन 6 महीने का समय बीत चुका था. गुलशन और मौलाना के बीच मुहब्बत ने जड़ें जमा ली थीं. एक दिन मौलाना ने सोचा कि आज अच्छा मौका है, गुलशन की चाहत का इम्तिहान ले लिया जाए और वे बिस्तर पर पेट दर्द का बहाना बना कर लेट गए. ‘‘मेरा आज पेट दर्द कर रहा है. बहुत तकलीफ हो रही है. तुम जरा सा गरम पानी से सेंक दो,’’ गुलशन के सामने कराहते हुए मौलाना ने कहा.
‘‘जी,’’ कह कर वह पानी गरम करने चली गई. थोड़ी देर बाद वह नजदीक बैठ कर मौलाना का पेट सेंकने लगी. मौलाना कभीकभी उस का हाथ पकड़ कर अपने पेट पर घुमाने लगे.
थोड़ा सा झिझक कर गुलशन मौलाना के पेट पर हाथ फिराने लगी. तभी मौलाना ने जोश में गुलशन का चुंबन ले कर अपने पास लिटा लिया. मौलाना के हाथ अब उस के नाजुक जिस्म के उस हिस्से को सहला रहे थे, जहां पर इनसान अपना सबकुछ भूल जाता है. आज बरसों बाद गुलशन को जवानी का वह मजा मिल रहा था, जिस के सपने उस ने संजो रखे थे. सांसों के तूफान से 2 जिस्म भड़की आग को शांत करने में लगे थे. जब तूफान शांत हुआ, तो गुलशन उठ कर अपने कमरे में पहुंच गई.
‘‘अब्बू, मुझे यकीन है कि मौलाना के तावीज से जरूर कामयाबी मिलेगी,’’ गुलशन ने अपने ससुर हबीब अली से कहा.
‘‘हां बेटी, मुझे भी यकीन है.’’
अब हबीब अली काफी मालदार हो गए थे. दिन काफी हंसीखुशी से गुजर रहे थे. तभी वक्त ने ऐसी करवट बदली कि मुअज्जिन हबीब अली की जिंदगी में अंधेरा छा गया. एक दिन हबीब अली अचानक किसी जरूरी काम से घर आए. दरवाजे पर दस्तक देने के काफी देर बाद गुलशन ने आ कर दरवाजा खोला और पीछे हट गई. उस का चेहरा घबराहट से लाल हो गया था. बदन में कंपकंपी आ गई थी. हबीब अली ने अंदर जा कर देखा, तो गुलशन के बिस्तर पर मौलाना सोने का बहाना बना कर चुपचाप मुंह ढक कर लेटे थे. यह देख कर हबीब अली के हाथपैर फूल गए, पर वे चुपचाप दुकान लौट आए.
‘‘अब क्या होगा? मुझे डर लग रहा है,’’ कहते हुए गुलशन मौलाना के सीने से लिपट गई.
कुछ नहीं होगा. हम आज ही रात में घर छोड़ कर नई दुनिया बसाने निकल जाएंगे. मैं शहर से गाड़ी का इंतजाम कर के आता हूं. तुम तैयार हो न?’’ ‘‘मैं तैयार हूं. जैसा आप मुनासिब समझें.’’ मौलाना चुपचाप शहर चले गए. मौलाना को न पा कर हबीब अली ने समझा कि उन के डर की वजह से वह भाग गया है.
सुबह हबीब अली के बेटे परवेज ने बताया, ‘‘अब्बू, गुलशन भी घर पर नहीं है. मैं ने तमाम जगह खोज लिया, पर कहीं उस का पता नहीं है. वह बक्सा भी नहीं है, जिस में गहने रखे हैं.’’ हबीब अली घबरा कर अपनी जिंदगी की कमाई और बहू गुलशन को खोजने में लग गए. पर गुलशन उन की पहुंच से काफी दूर जा चुकी थी, मौलाना के साथ अपना नया घर बसान.