घोंसला: सारा ने क्यों शादी से किया था इंकार

साराआज खुशी से झम रही थी. खुश हो भी क्यों न पुणे की एक बहुत बड़ी फर्म में उस की नौकरी जो लग गई थी. अपनी गोलगोल आंखें घुमाते हुए वह अपनी मम्मी से बोली, ‘‘मैं कहती थी न कि मेरी उड़ान कोई नहीं रोक सकता.’’

‘‘पापा ने पढ़ने के लिए मुझे मुजफ्फरनगर से बाहर नहीं जाने दिया पर अब इतनी अच्छी नौकरी मिली है कि वह मुझे रोक नहीं सकते हैं.’’

सारा थी 23 वर्ष की खूबसूरत नवयुवती, जिंदगी से भरपूर, गोरा रंग, गोलगोल आंखें, छोटी सी नाक और गुलाबी होंठ, होंठों के बीच काला तिल सारा को और अधिक आकर्षक बना देता था. उसे खुले आकाश में उड़ने का शौक था. वह अकेले रहना चाहती थी और जीवन को अपने तरीके से जीना चाहती थी.

जब भी सारा के पापा कहते, ‘‘हमें तुम से जिंदगी का अधिक अनुभव है इसलिए हमारा कहा मानो.’’

सारा फट से कहती, ‘‘पापा मैं अपने अनुभवों से कुछ सीखना चाहती हूं.’’

सारा के पापा उसे पुणे भेजना नहीं चाहते थे पर सारा की दलीलों के आगे उन की एक न चली.

फिर सारा की मम्मी ने भी समझया, ‘‘इतनी अच्छी नौकरी है, आजकल अच्छी नौकरी वाली लड़कियों की शादी आराम से हो जाती है.

फिर सारा के पापा ने हथियार डाल दिए थे. ढेर सारी नसीहतें दे कर सारा के पापा वापस मुजफ्फरनगर आ गए थे.

सारा को शुरुआत में थोड़ी दिक्कत हुई थी परंतु धीरधीरे वह पुणे की लाइफ की अभ्यस्त हो गई थी.

यहां पर मुजफ्फरनगर की तरह न टोकाटाकी थी न ही ताकाझंकी. सारा को आधुनिक कपड़े पहनने का बहुत शौक था जिसे सारा अब पूरा कर पाई थी. वह स्वच्छंद तितली की तरह जिंदगी बिता रही थी. दफ्तर में ही सारा की मुलाकात मोहित से हुई थी. मोहित का ट्रांसफर दिल्ली से पुणे हुआ था.

मोहित को सारा पहली नजर में ही भा गई थी. सारा और मोहित अकसर वीकैंड पर बाहर घूमने जाते थे. परंतु सारा को हरहाल में रात 9 बजे तक अपने होस्टल वापस जाना ही पड़ता था.

फिर एक दिन मोहित ने यों ही सारा से कहा, ‘‘सारा, तुम मेरे फ्लैट में शिफ्ट क्यों नहीं हो जाती हो. चिकचिक से छुटकारा भी मिल जाएगा और हमें यों ही हर वीकैंड पर बंजारों की तरह घूमना नहीं पड़ेगा. सब से बड़ी बात तुम्हारा होस्टल का खर्च भी बच जाएगा.’’

सारा छूटते ही बोली, ‘‘पागल हो क्या, ऐसे कैसे रह सकती हूं तुम्हारे साथ? मतलब मेरातुम्हारा रिश्ता ही क्या है?’’

मोहित बोला, ‘‘रहने दो बाबा, मैं तो भूल ही गया था कि तुम तो गांव की गंवार हो. छोटे शहर के लोगों की मानसिकता कहां बदल सकती हैं चाहे वह कितने ही आधुनिक कपड़े पहन लें.’’

सारा मोहित की बात सुन कर एकदम चुप हो गईं. अगले कुछ दिनों तक मोहित सारा से खिंचाखिंचा रहा.

एक दिन सारा ने मोहित से पूछा, ‘‘मोहित, आखिर मेरी गलती क्या हैं?’’

मोहित बोला, ‘‘तुम्हारा मुझ पर अविश्वास.’’

‘‘बात अविश्वास की नहीं है मोहित, मेरे परिवार को अगर पता चल जाएगा तो वे मेरी नौकरी भी छुड़वा देंगे.’’

‘‘तुम्हें अगर रहना है तो बताओ बाकी सब मैं हैंडल कर लूंगा.’’

घर पर पापा के मिलिटरी राज के कारण सारा का आज तक कोई बौयफ्रैंड नहीं बन पाया था, इसलिए वह यह सुनहरा मौका हाथ से नहीं छोड़ना चाहती थी. अत: 1 एक हफ्ते बाद मोहित के साथ शिफ्ट कर गई. घर पर सारा ने बोल दिया कि उस ने एक लड़की के साथ अलग से फ्लैट ले लिया है क्योंकि उसे होस्टल में बहुत असुविधा होती थी.

यह बात सुनते ही सारा के मम्मीपापा ने जाने के लिए सामान बांध लिया था. वे देखना चाहते थे कि उन की लाड़ली कैसे अकेले रहती होगी.

सारा घबरा कर मोहित से बोली, ‘‘अब क्या करेंगे?’’

मोहित हंसते हुए बोला, ‘‘अरे देखो मैं कैसा चक्कर चलाता हूं,’’

अगले रोज मोहित अपनी एक दोस्त शैली को ले कर आ गया और बोला, ‘‘तुम्हारे मम्मीपापा के सामने मैं शैली के बड़े भाई के रूप में उपस्थित रहूंगा.’’

सारा के मम्मीपापा आए और फिर मोहित के नाटक पर मोहित हो कर चले गए.

सारा के मम्मीपापा के सामने मोहित शैली के बड़े भाई के रूप में मिलने आता. सारा के मम्मीपापा को अब तसल्ली हो गई थी और वे निश्तिंत हो कर वापस अपने घर चले गए.

सारा और मोहित एकसाथ रहने लगे थे. सारा को मोहित का साथ भाता था परंतु अंदर ही अंदर उसे अपने मम्मीपापा से झठ बोलना भी कचोटता रहता था. एक दिन सारा ने मोहित से कहा, ‘‘मोहित, तुम मुझे पसंद करते हो क्या?’’

मोहित बोला, ‘‘अपनी जान से भी ज्यादा?’’

सारा बोली, ‘‘मोहित तुम और मैं क्या इस रिश्ते को नाम नहीं दे सकते हैं?’’

मोहित चिढ़ते हुए बोला,’’ यार मुझे माफ करो, मैं ने पहले ही कहा था कि हम एक दोस्त की तरह ही रहेंगे. मैं तुम पर कोई बंधन नहीं लगाना चाहता हूं और न ही तुम मुझ पर लगाया करो. और तुम यह बात क्यों भूल जाती हो कि मेरे घर पर रहने के कारण तुम्हारी कितनी बचत हो रही है और भी कई फायदे भी हैं,’’ कहते हुए मोहित ने अपनी आंख दबा दी.

सारा को मोहित का यह सस्ता मजाक बिलकुल पसंद नहीं आया. 2 दिन तक मोहित और सारा के बीच तनाव बना रहा परंतु फिर से मोहित ने हमेशा की तरह सारा को मना लिया. सारा भी अब इस नए लाइफस्टाइल की अभ्यस्त हो चुकी थी.

सारा जब मुजफ्फरनगर से पुणे आई थी तो उस के बड़ेबड़े सपने थे परंतु अब न जाने क्यों उस के सब सपने मोहित के इर्दगिर्द सिमट कर रह गए थे.

आज सारा बेहद परेशान थी. उस के पीरियड्स की डेट मिस हो गई थी. जब उस ने मोहित को यह बात बताई तो वह बोला, ‘‘सारा ऐसे कैसे हो सकता है हम ने तो सारे प्रीकौशंस लिए थे?’’

‘‘तुम मुझ पर शक कर रहे हो?’’

‘‘नहीं बाबा कल टैस्ट कर लेना.’’

सारा को जो डर था वही हुआ. प्रैगनैंसी किट की टैस्ट रिपोर्ट देख कर सारा के हाथपैर ठंडे पड़ गए.

मोहित उसे संभालते हुए बोला, ‘‘सारा टैंशन मत लो कल डाक्टर के पास चलेंगे.’’

अगले दिन डाक्टर के पास जा कर जब उन्होंने अपनी समस्या बताई तो डाक्टर बोली, ‘‘पहली बार अबौर्शन कराने की सलाह मैं नहीं दूंगी… आगे आप की मरजी.’’

घर आ कर सारा मोहित की खुशामद करने लगी, ‘‘मोहित, प्लीज शादी कर लेते हैं. यह हमारे प्यार की निशानी है.’’

मोहित चिढ़ते हुए बोला, ‘‘सारा, प्लीज फोर्स मत करो… यह शादी मेरे लिए शादी नहीं बल्कि एक फंदा बनेगी.’’

सारा फिर चुप हो गई थी. अगले दिन चुपचाप जब सारा तैयार हो कर जाने लगी तो मोहित भी साथ हो लिया.

रास्ते में मोहित बोला, ‘‘सारा, मुझे मालूम है तुम मुझ से गुस्सा हो पर ऐसा कुछ

जल्दबाजी में मत करो जिस से बाद में हम

दोनों को घुटन महसूस हो. देखो इस रिश्ते में

हम दोनों का फायदा ही फायदा है और शादी के लिए मैं मना कहां कर रहा हूं, पर अभी नहीं कर सकता हूं.’’

डाक्टर से सारा और मोहित ने बोल दिया था कि कुछ निजी कारणों से वे अभी बच्चा नहीं कर सकते हैं.

डाक्टर ने उन्हें अबौर्शन के लिए 2 दिन बाद आने के लिए कहा. मोहित ने जब पूरा खर्च पूछा तो डाक्टर ने कहा, ‘‘25 से 30 हजार रुपए.’’

घर आ कर मोहित ने पूरा हिसाब लगाया, ‘‘सारा तुम्हें तो 3-4 दिन बैड रैस्ट भी करना होगी जिस कारण तुम्हें लीव विदआउट पे लेनी पड़ेगी. तुम्हारा अधिक नुकसान होगी, इसलिए इस अबौर्शन का 50% खर्चा मैं उठा लूंगा.’’

सारा छत को टकटकी लगाए देख रही थी. बारबार उसे ग्लानि हो रही थी कि वह एक जीव हत्या करेगी. बारबार सारा के मन में खयाल आ रहा था कि अगर उस की और मोहित की शादी हो गई होती तो भी मोहित ऐसे ही 50% खर्चा देता. सारा ने रात में एक बार फिर मोहित से बात करने की कोशिश करी, मगर उस ने बात को वहीं समाप्त कर दिया.

मोहित बोला, ‘‘तुम्हें वैसे तो बराबरी चाहिए, मगर अब फीमेल कार्ड खेल रही हो. यह गलती दोनों की है तो 50% भुगतान कर तो रहा हूं और यह बात तुम क्यों भूल जाती हो कि तुम्हारा वैसे ही क्या खर्चा होता है. यह घर मेरा है जिस में तुम बिना किराए दिए रहती हो.’’

मोहित की बात सुन कर सारा का मन खट्टा हो गया.

जब से सारा अबौर्शन करा कर लौटी थी वह मोहित के साथ हंसतीबोलती जरूर थी, मगर उस के अंदर बहुत कुछ बदल गया था. पहले जो सारा मोहित को ले कर बहुत केयरिंग और पजैसिव थी अब उस ने मोहित से एक डिस्टैंस बना लिया था.

शुरूशुरू में तो मोहित को सारा का बदला व्यवहार अच्छा लग रहा था परंतु बाद में उसे सारा का वह अपनापन बेहद याद आने लगा.

पहले मोहित जब औफिस से घर आता था तो सारा उस के साथ ही चाय लेती थी परंतु आजकल अधिकतर वह गायब ही रहती थी.

एक दिन संडे को मोहित ने कहा, ‘‘सारा कल मैं ने अपने कुछ दोस्त लंच पर बुलाए हैं.’’

सारा लापरवाही से बोली, ‘‘तो मैं क्या

करूं, तुम्हारे दोस्त हैं तुम उन्हें लंच पर बुलाओ या डिनर पर.’’

‘‘अरे यार हम एकसाथ एक घर में रहते हैं… ऐसा क्यों बोल रही हो.’’

सारा मुसकराते हुए बोली, ‘‘बेबी, इस घोंसले की दीवारें आजाद हैं… जो जब चाहे उड़ सकता है. कोई तुम्हारी पत्नी थोड़े ही हूं जो तुम्हारे दोस्तों को ऐंटरटेन करूं.’’

मोहित मायूस होते हुए बोला, ‘‘एक दोस्त के नाते भी नहीं?’’

‘‘कल तुम्हारी इस दोस्त को अपने दोस्तों के साथ बाहर जाना है.’’

मोहित आगे कुछ नहीं बोल पाया.

सारा ने अब तक अपनी जिंदगी मोहित

के इर्दगिर्द ही सीमित कर रखी थी. जैसे ही उस

ने बाहर कदम बढ़ाए तो सारा को लगा कि वह कुएं के मेढक की तरह अब तक मोहित के

साथ बनी हुई थी. इस कुएं के बाहर तो बहुत

बड़ा समंदर है. सारा अब इस समंदर की सारी सीपियों और मोतियों को अनुभव करना

चाहती थी.

एक दिन डिनर करते हुए सारा मोहित से बोली, ‘‘मोहित, तुम्हें पता नहीं है तुम कितने अच्छे हो.’’

मोहित मन ही मन खुश हो उठा. उसे लगा कि अब सारा शायद फिर से प्यार का इकरार करेगी.

मगर सारा मोहित की आशा के विपरीत बोली, ‘‘अच्छा हुआ तुम ने शादी करने से मना कर दिया. मुझे उस समय बुरा अवश्य लगा परंतु अगर हम शादी कर लेते तो मैं इस कुएं में ही सड़ती रहती.’’

अगले माह मोहित को कंपनी के काम से बैंगलुरु जाना था. उसे न जाने क्यों अब सारा का यह स्वच्छंद व्यवहार अच्छा नहीं लगता था. उस ने मन ही मन तय कर लिया था कि अगले माह सारा के जन्मदिन पर वह उसे प्रोपोज कर देगा और फिर परिवार वालों की सहमति से अगले साल तक विवाह के बंधन में बंध जाएंगे.

बैंगलुरु पहुंचने के बाद भी मोहित ही सारा को मैसेज करता रहता था परंतु चैट पर बकबक करने वाली सारा अब बस हांहूं के मैसेज तक सीमित हो गई थी.

जब मोहित बैंगलुरु से वापस पुणे पहुंचा तो देखा सारा वहां नही थी. उस ने फोन लगाया तो सारा की चहकती आवाज आई, ‘‘अरे यार मैं गोवा में हूं, बहुत मजा आ रहा है.’’

इस से पहले कि मोहित कुछ बोलता सारा ने झट से फोन काट दिया.

3 दिन बाद जब सारा वापस आई तो मोहित बोला, ‘‘बिना बताए ही चली गईं, एक बार पूछा भी नही.’’

सारा बोली, ‘‘तुम मना कर देते क्या?’’

मोहित झेंपते हुए बोला, ‘‘मेरा मतलब यह नहीं था.’’

मोहित को उस के एक नजदीकी दोस्त ने बताया था कि सारा अर्पित नाम के लड़के के साथ गोवा गई थी. मोहित को यह सुन कर बुरा लगा था, मगर उसे समझ नहीं आ रहा था कि सारा से क्या बात करे? उस ने खुद ही अपने और सारा के बीच यह खाई बनाई थी.

मोहित सारा को दोबारा से अपने करीब लाने के लिए सारे ट्रिक्स अपना चुका था परंतु अब सारा पानी पर तेल की तरह फिसल गई थी.

अगले हफ्ते सारा का जन्मदिन था. मोहित ने मन ही मन उसे सरप्राइज देने की सोच रखी थी. तभी उस रात अचानक मोहित को तेज बुखार हो गया. सारा ने उस की खूब अच्छे से देखभाल करी. 5 दिन बाद जब मोहित पूरी तरह से ठीक हो गया तो उसे विश्वास हो गया कि सारा उसे छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी. मोहित ने सारा के लिए हीरे की अंगूठी खरीद ली. कल सारा का जन्मदिन था. मोहित शाम को जल्दी आ गया था. उस ने औनलाइन केक बुक कर रखा था.

न जाने क्यों आज उसे सारा का बेसब्री से इंतजार था.

जैसे ही सारा घर आई तो मोहित ने उस के लिए चाय बनाई. सारा ने मुसकराते हुए चाय का कप पकड़ा और कहा, ‘‘क्या इरादा है जनाब का?’’

मोहित बोला, ‘‘कल तुम्हारा जन्मदिन है, मैं तुम्हें स्पैशल फील कराना चाहता हूं.’’

‘‘वह तो तुम्हें मेरे घर आ कर करना पड़ेगा.’’

‘‘तुम क्या अपने घर जा रही हो जन्मदिन पर.’’

‘‘मैं ने अपने औफिस के पास एक छोटा सा फ्लैट ले लिया है. मैं अपना जन्मदिन वहीं मनाना चाहती हूं. अब मैं अपना खर्च खुद उठाना चाहती हूं… यह निर्णय मुझे बहुत पहले ही ले लेना चाहिए था.’’

मोहित बोला, ‘‘मुझे मालूम है तुम मुझ से अब तक अबौर्शन की बात से नाराज हो. यार मेरी गलती थी कि मैं ने तुम से तब शादी करने के लिए मना कर दिया था.’’

‘‘अरे नहीं तुम सही थे, मजबूरी में अगर तुम मुझ से शादी कर भी लेते तो हम दोनों हमेशा दुखी रहते.’’

‘‘सारा मैं तुम से प्यार करता हूं और तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘मोहित पर मैं तुम से आकर्षित थी… अगर प्यार होता तो शायद आज मैं अलग रहने का फैसला नहीं लेती.’’

सारा सामान पैक कर रही थी. मोहित के अहम को ठेस लग गई थी, इसलिए उस ने अपना आखिरी दांव खेला, ‘‘तुम्हारे नए बौयफ्रैंड को पता है कि तुम ने अबौर्शन करवाया था. अगर तुम्हारे घर वालों को यह बात पता चल जाएगी तो सोचो उन्हें कैसा लगेगा? मैं तुम पर विश्वास करता हूं, इसलिए मैं तुम से शादी करने को अभी भी तैयार हूं.’’

‘‘पर मोहित मैं तैयार नहीं हूं. बहुत अच्छा हुआ कि इस बहाने ही सही मुझे तुम्हारे विचार पता चल गए. और रही बात मेरे परिवार की, तो वे कभी नहीं चाहेंगे कि मैं तुम जैसे लंपट इंसान से विवाह करूं. मोहित तुम्हारा यह घोंसला आजादी के तिनकों से नहीं वरन स्वार्थ के तिनकों से बुना हुआ है. अगर एक दोस्त के नाते कभी मेरे घर आना चाहो तो अवश्य आ सकते हो,’’ कहते हुए सारा ने अपने नए घोंसले का पता टेबल पर रखा और एक स्वच्छंद चिडि़या की तरह खुले आकाश में विचरण करने के लिए उड़ गई.

सारा ने अब निश्चय कर लिया था कि वह अपनी मेहनत और हिम्मत के तिनकों से अपना घोंसला स्वयं बनाएगी. तिनकातिनका जोड़ कर बनाएगी अब वह अपना घोंसला… आज की नारी में हिम्मत, मेहनत और खुद पर विश्वास का हौसला.

एहसास: कौन सी बात ने झकझोर दिया सविता का अस्तित्व?

नियत समय पर घड़ी का अलार्म बज उठा. आवाज सुन कर मधु चौंक पड़ी. देर रात तक घर का सब काम निबटा कर वह सोने के लिए गई थी लेकिन अलार्म बजा है तो अब उसे उठना ही होगा क्योंकि थोड़ा भी आलस किया तो बच्चों की स्कूल बस मिस हो जाएगी.

मधु अनमनी सी बिस्तर से बाहर निकली और मशीनी ढंग से रोजमर्रा के कामों में जुट गई. तब तक उस की काम वाली बाई भी आ पहुंची थी. उस ने रसोई का काम संभाल लिया और मधु 9 साल के रोहन और 11 साल की स्वाति को बिस्तर से उठा कर स्कूल भेजने की तैयारी में जुट गई.

उसी समय बच्चों के पापा का फोन आ गया. बच्चों ने मां की हबड़दबड़ की शिकायत की और मधु को सुनील का उलाहना सुनना पड़ा कि वह थोड़ा जल्दी क्यों नहीं उठ जाती ताकि बच्चों को प्यार से उठा कर आराम से तैयार कर सके.

मधु हैरान थी कि कुछ न करते हुए भी सुनील बच्चों के अच्छे पापा बने हुए हैं और वह सबकुछ करते हुए भी बच्चों की गंदी मम्मी बन गई है. कभीकभी तो मधु को अपने पति सुनील से बेहद ईर्ष्या होती.

सुनील सेना में कार्यरत था. वह अपने परिवार का बड़ा बेटा था. पिता की मौत के बाद मां और 4 छोटे भाईबहनों की पूरी जिम्मेदारी उसी के कंधों पर थी. चूंकि सुनील का सारा परिवार दूसरे शहर में रहता था अत: छुट्टी मिलने पर उस का ज्यादातर समय और पैसा उन की जरूरतें पूरी करने में ही जाता था, ऐसे में मधु अपनी नौकरी छोड़ने की बात सोच भी नहीं सकती थी.

सुबह से रात तक की भागदौड़ के बीच पिसती मधु अपने इस जीवन से कभीकभी बुरी तरह खीज उठती पर बच्चों की जिद और उन की अनंत मांगें उस के धैर्य की परीक्षा लेती रहतीं. दिन भर आफिस में कड़ी मेहनत के बाद शाम को बच्चों को स्कूल  से लेना, फिर बाजार के तमाम जरूरी काम निबटाते हुए घर लौटना और शाम का नाश्ता, रात का खाना बनातेबनाते बच्चों को होमवर्क कराना, इस के बाद भी अगर कहीं किसी बच्चे के नंबर कम आए तो सुनील उसे दुनिया भर की जलीकटी सुनाता.

सुनील के कहे शब्द मधु के कानों में लावा बन कर दहकते रहते. मधु को लगता कि वह एक ऐसी असहाय मकड़ी है जो स्वयं अपने ही बुने तानेबाने में बुरी तरह उलझ कर रह गई है. ऐसे में वह खुद को बहुत ही असहाय पाती. उसे लगता, जैसे उस के हाथपांव शिथिल होते जा रहे हैं और सांस लेने में भी उसे कठिनाई हो रही है पर अपने बच्चों की पुकार पर वह जैसेतैसे स्वयं को समेट फिर से उठ खड़ी होती.

बच्चों को तैयार कर मधु जब तक उन्हें ले कर बस स्टाप पर पहुंची, स्कूल बस जाने को तैयार खड़ी थी. बच्चों को बस में बिठा कर उस ने राहत की सांस ली और तेज कदम बढ़ाती वापस घर आ पहुंची.

घर आ कर मधु खुद दफ्तर जाने के लिए तैयार हुई. नाश्ता व लंच दोनों पैक कर के रख लिए कि समय से आफिस  पहुंच कर वहीं नाश्ता  कर लेगी. बैग उठा कर वह चलने को हुई कि फोन की घंटी बज उठी.

फोन पर सुनील की मां थीं जो आज के दिन को खास बताती हुई उसे याद से गाय के लिए आटे का पेड़ा ले जाने का निर्देश दे रही थीं. उन का कहना था कि आज के दिन गाय को आटे का पेड़ा खिलाना पति के लिए शुभ होता है. तुम दफ्तर जाते समय रास्ते में किसी गाय को आटे का बना पेड़ा खिला देना.

फोन रख कर मधु ने फ्रिज खोला. डोंगे में से आटा निकाला और उस का पेड़ा बना कर कागज में लपेट कर साथ ले लिया. उसे पता था कि अगर सुनील को एक छींक भी आ गई तो सास उस का जीना दूभर कर देंगी.

घर को ताला लगा मधु गाड़ी स्टार्ट कर दफ्तर के लिए चल दी. घर से दफ्तर की दूरी कुल 7 किलोमीटर थी पर सड़क पर भीड़ के चलते आफिस पहुंचने में 1 घंटा लगता था. रास्ते में गाय मिलने की संभावना भी थी, इसलिए उस ने आटे का पेड़ा अपने पास ही रख लिया था.

गाड़ी चलाते समय मधु की नजरें सड़क  पर टिकी थीं पर उस का दिमाग आफिस के बारे में सोच रहा था. आफिस में अकसर बौस को उस से शिकायत रहती कि चाहे कितना भी जरूरी काम क्यों न हो, न तो वह कभी शाम को देर तक रुक पाती है और न ही कभी छुट्टी के दिन आ पाती है. इसलिए वह कभी भी अपने बौस की गुड लिस्ट में नहीं रही. तारीफ के हकदार हमेशा उस के सहयोगी ही रहते हैं, फिर भले ही वह आफिस टाइम में कितनी ही मेहनत क्यों न कर ले.

मधु पूरी रफ्तार से गाड़ी दौड़ा रही थी कि अचानक उस के आगे वाली 3-4 गाडि़यां जोर से ब्रेक लगने की आवाज के साथ एकदूसरे में भिड़ती हुई रुक गईं. उस ने भी अपनी गाड़ी को झटके से ब्रेक लगाए तो अगली गाड़ी से टक्कर होतेहोते बची. उस का दिल जोर से धड़क उठा.

मधु ने गाड़ी से बाहर नजर दौड़ाई तो आगे 3-4 गाडि़यां एकदूसरे से भिड़ी पड़ी थीं. वहीं गाडि़यों के एक तरफ  एक मोटरसाइकिल उलट गई थी और उस का चालक एक तरफ खड़ा  बड़ी मुश्किल से अपना हैलमेट उतार रहा था.

हैलमेट उतारने के बाद मधु ने जब उस का चेहरा देखा तो दहशत से पीली पड़ गई. सारा चेहरा खून से लथपथ था.

सड़क के बीचोंबीच 2 गायें इस हादसे से बेखबर खड़ी सड़क पर बिखरा सामान खाने में जुटी थीं. जैसे ही गाडि़यों के चालकों ने मोटरसाइकिल चालक की ऐसी दुर्दशा देखी, उन्होंने अपनी गाडि़यों के नुकसान की परवा न करते हुए ऐसे रफ्तार पकड़ी कि जैसे उन के पीछे पुलिस लगी हो.

मधु की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. आज एक बेहद जरूरी मीटिंग थी और बौस ने खासतौर से उसे लेट न होने की हिदायत दी थी लेकिन अब जो स्थिति उस के सामने थी उस में उस का दिल एक युवक को यों छोड़ कर  आगे बढ़ जाने को तैयार नहीं था.

मधु ने अपनी गाड़ी सड़क  के किनारे लगाई और उस घायल व्यक्ति के पास जा पहुंची. वह युवक अब भी अपने खून से भीगे चेहरे को रूमाल से साफ कर रहा था. मगर  बालों से रिसरिस कर खून चेहरे को भिगो रहा था.

मधु ने पास जा कर उस युवक से घबराए स्वर में पूछा, ‘‘क्या मैं आप की कोई मदद कर सकती हूं?’’

युवक ने दर्द से कराहते हुए बड़ी मुश्किल से आंखें खोलीं तो उस की आंखों में जो भाव मधु ने देखे उसे देख कर वह डर गई.  उस ने भर्राए स्वर में मधु से कहा, ‘‘ओह, तो अब तुम मेरी मदद करना चाहती हो ? तुम्हीं  ने वह खाने के सामान से भरा लिफाफा  चलती गाड़ी से उन गायों की तरफ फेंका था न?’’

मधु चौंक उठी, ‘‘कौन सा खाने का लिफाफा?’’

युवक भर्राए स्वर में बोला, ‘‘वही खाने का लिफाफा जिसे देख कर सड़क के किनारे  खड़ी गायें एकाएक सड़क के बीच दौड़ पड़ीं और यह हादसा हो गया.’’

अब मधु की समझ में सारा किस्सा आ गया. तेज गति से सड़क पर जाते वाहनों के आगे एकाएक गायोें का भाग कर आना, वाहनों का अपनी रफ्तार पर काबू पाने के असफल प्रयास में एकदूसरे से भिड़ना और किन्हीं 2 कारों के बीच फंस कर उलट गई मोटरसाइकिल के इस सवार का इस कदर घायल होना.

यह सब समझ में आने के साथ ही मधु को यह भी एहसास हुआ कि वह युवक उसे ही इस हादसे का जिम्मेदार समझ रहा है. वह इस बात से अनजान है कि मधु की गाड़ी तो सब से पीछे थी.

मधु का सर्वांग भय से कांप उठा. फिर भी अपने भय पर काबू पाते हुए वह उस युवक से बोली, ‘‘देखिए, आप गलत समझ रहे हैं. मैं तो अपनी…’’

वह युवक दर्द से कराहते हुए जोर से चिल्लाया, ‘‘गलत मैं नहीं, तुम हो, तुम…यह कोई तरीका है गाय को खिलाने का…’’ इतना कह युवक ने अपनी खून से भीगी कमीज की जेब से अपना सैलफोन निकाला. मधु को लगा कि वह शायद पुलिस को बुलाने की फिराक में है. उस की आंखों के आगे अपने बौस का चेहरा घूम गया, जिस से उसे किसी तरह की मदद की कोई उम्मीद नहीं थी. उस की आंखों के आगे अपने नन्हे  बच्चों के चेहरे घूम गए, जो उस के थोड़ी भी देर करने पर डरेडरे एकदूसरे का हाथ थामे सड़क पर नजर गड़ाए स्कूल के गेट के पास उस के इंतजार में खडे़ रहते थे.

मधु ने हथियार डाल दिए. उस घायल युवक की नजरों से बचती वह भारी कदमों से अपनी गाड़ी तक पहुंची… कांपते हाथों से गाड़ी स्टार्ट की और अपने रास्ते पर चल दी. लेकिन जातेजाते भी वह यही सोच रही थी कि कोई भला इनसान उस व्यक्ति की मदद के लिए रुक जाए.

आफिस पहुंचते ही बौस ने उसे जलती आंखों से देख कर व्यंग्य बाण छोड़ा, ‘‘आ गईं हर हाइनेस, बड़ी मेहरबानी की आज आप ने हम पर, इतनी जल्दी पहुंच कर. अब जरा पानी पी कर मेरे डाक्यूमेंट्स तैयार कर दें, हमें मीटिंग में पहुंचने के लिए तुरंत निकलना है.’’

मधु अपनी अस्तव्यस्त सांसों के बीच अपने मन के भाव दबाए मीटिंग की तैयारी में जुट गई. सारा दिन दफ्तर के कामों की भागदौड़ में कैसे और कब बीत गया, पता ही नहीं चला. शाम को वक्त पर काम निबटा कर वह बच्चों के स्कूल पहुंची. उस का मन कर रहा था कि आज वह कहीं और न जा कर सीधी घर पहुंच जाए. पर दोनों बच्चों ने बाजार से अपनीअपनी खरीदारी की लिस्ट पहले से ही बना रखी थी.

हार कर मधु ने गाड़ी बाजार की तरफ मोड़ दी. तभी रोहन ने कागज में लिपटे आटे के पेड़े को हाथ में ले कर पूछा, ‘‘ममा, यह क्या है?’’

मधु चौंक कर बोली, ‘‘ओह, यह यहीं रह गया…यह आटे का पेड़ा है बेटा, तुम्हारी दादी ने कहा था कि सुबह इसे गाय को खिला देना.’’

‘‘तो फिर आप ने अभी तक इसे गाय को खिलाया क्यों नहीं?’’ स्वाति ने पूछा.

‘‘वह, बस ऐसे ही, कोई गाय दिखी ही नहीं…’’ मधु ने बात को टालते हुए कहा.

तभी गाड़ी एक स्पीड बे्रकर से टकरा कर जोर से उछल गई तो रोहन चिल्लाया, ‘‘ममा, क्या कर रही हैं आप?’’

‘‘ममा, गाड़ी ध्यान से चलाइए,’’ स्वाति बोली.

‘‘सौरी बेटा,’’ मधु के स्वर में बेबसी थी. वह चौकन्नी हो कर गाड़ी चलाने लगी. बाजार का सारा काम निबटाने के बाद उस ने बच्चों के लिए बर्गर पैक करवा लिए. घर जा कर खाना बनाने की हिम्मत उस में नहीं बची थी. घर पहुंच कर उस ने बच्चों को नहाने के लिए भेजा और खुद सुबह की तैयारी में जुट गई.

बच्चों को खिलापिला कर मधु ने उन का होमवर्क जैसेतैसे पूरा कराया और फिर खुद दर्द की एक गोली और एक कप गरम दूध ले कर बिस्तर पर निढाल हो गिर पड़ी तो उस का सारा बदन दर्द से टूट रहा था और आंखें आंसुओं से तरबतर थीं.

रोहन और स्वाति अपनी मां का यह हाल देख कर दंग रह गए. ऐसे तो उन्होंने पहले कभी अपनी मां को नहीं देखा था. दोनों बच्चे मां के पास सिमट आए.

‘‘ममा, क्या हुआ? आप रो क्यों रही हैं?’’ रोहन बोला.

‘‘ममा, क्या बात हुई है? क्या आप मुझे नहीं बताओगे?’’ स्वाति ने पूछा.

मधु को लगा कि कोई तो उस का अपना है, जिस से वह अपने मन की बात कह सकती है. अपनी सिसकियों पर जैसेतैसे नियंत्रण कर उस ने रुंधे कंठ से बच्चों को सुबह की दुर्घटना के बारे मेें संक्षेप में बता दिया.

‘‘कितनी बेवकूफ औरत थी वह, उसे गाय को ऐसे खिलाना चाहिए था क्या?’’ रोहन बोला.

‘‘हो सकता है बेटा, उसे भी उस की सास ने ऐसा करने को कहा हो जैसे तुम्हारी दादी ने मुझ से कहा था,’’ मधु ने फीकी हंसी के साथ कहा. वह बच्चों का मन उस घटना की गंभीरता से हटाना चाहती थी ताकि जिस डर और दहशत से वह स्वयं अभी तक कांप रही है, उस का असर बच्चों के मासूम मन पर न पडे़.

‘‘ममा, आप उस आदमी को ऐसी हालत में छोड़ कर चली कैसे गईं? आप कम से कम उसे अस्पताल तो पहुंचा देतीं और फिर आफिस चली जातीं,’’ रोहन के स्वर में हैरानी थी.

‘‘बेटा, मैं अकेली औरत भला क्या करती? दूसरा कोई तो रुक तक नहीं रहा था,’’ मधु ने अपनी सफाई देनी चाही.

‘‘क्या ममा, वैसे तो आप मुझे आदमीऔरत की बराबरी की बातें समझाते नहीं थकतीं लेकिन जब कुछ करने की बात आई तो आप अपने को औरत होने की दुहाई देने लगीं? आप की इस लापरवाही से क्या पता अब तक वह युवक मर भी गया हो,’’ स्वाति ने कहा.

अब मधु को एहसास हो चला था कि उस की बेटी बड़ी हो गई है.

‘‘ममा, आज की इस घटना को भूल कर प्लीज, आप अब लाइट बंद कीजिए और सो जाइए. सुबह जल्दी उठना है,’’ स्वाति ने कहा तो मधु हड़बड़ा कर उठ बैठी और कमरे की बत्ती बंद कर खुद बाथरूम में मुंह धोने चली गई.

दोनों बच्चे अपनेअपने बेड पर सो गए. मधु ने बाथरूम का दरवाजा बंद कर अपना चेहरा जब आईने में देखा तो उस पर सवालिया निशान पड़ रहे थे. उसे लगा, उस का ही नहीं यहां हर औरत का चेहरा एक सवालिया निशान है. औरत चाहे खुद को कितनी भी सबल समझे, पढ़लिख जाए, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाए पर रहती है वह औरत ही. दोहरीतिहरी जिम्मेदारियों के बोझ तले दबी, बेसहारा…औरत कुछ भी कर ले, कहीं भी पहुंच जाए, रहेगी तो औरत ही न. फिर पुरुषों से मुकाबले और समानता का दंभ और पाखंड क्यों?

मधु को लगा कि स्त्री, पुरुष की हथेली पर रखा वह कोमल फूल है जिसे पुरुष जब चाहे सहलाए और जब चाहे मसल दे. स्त्री के जन्मजात गुणों में उस की कोमलता, संवेदनशीलता, शारीरिक दुर्बलता ही तो उस के सब से बडे़ शत्रु हैं. इन से निजात पाने के लिए तो उसे अपने स्त्रीत्व का ही त्याग करना होगा.

मधु अब तक शरीर और मन दोनों से बुरी तरह थक चुकी थी. उसे लगा, आज तक वह अपने बच्चों को जो स्त्रीपुरुष की समानता के सिद्धांत समझाती आई है वह वास्तव में नितांत खोखले और बेबुनियाद हैं. उसे अपनी बेटी को इन गलतफहमियों से दूर ही रखना होगा और स्त्री हो कर अपनी सारी कमियों और कमजोरियों को स्वीकार करते हुए समाज में अपनी जगह बनाने के लिए सक्षम बनाना होगा. यह काम मुश्किल जरूर है, पर नामुमकिन नहीं.

रात बहुत हो चुकी थी. दोनों बच्चे गहरी नींद में सो रहे थे. मधु ने एकएक कर दोनों बच्चों का माथा सहलाया. स्वाति को प्यार करते हुए न जाने क्यों मधु की आंखों में पहली बार गर्व का स्थान नमी ने ले लिया. उस ने एक बार फिर झुक कर अपनी मासूम बेटी का माथा चूमा और फिर औरत की रचना कर उसे सृष्टि की जननी का महान दर्जा देने वाले को धन्यवाद देते हुए व्यंग्य से मुसकरा दी. अब उस की पलकें नींद से भारी हो रही थीं और उस के अवचेतन मन में एक नई सुबह का खौफ था, जब उसे उठ कर नए सिरे से संघर्ष करना था और नई तरह की स्थितियों से जूझते हुए स्वयं को हर पग पर चुनौतियों का सामना करना था.

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तेरे जाने के बाद- भाग 4 क्या माया की आंखों से उठा प्यार का पर्दा

‘भुगत तो मैं भी रहा हूं. जुदाई का गम. कम से कम तुम्हारे पास तुम्हारा परिवार, हमारा बेटा तो है. मेरे पास कौन है?’ ‘हमारा बेटा. शायद तुम भूल रहे हो कि हमारा नहीं, सिर्फ और सिर्फ मेरा बेटा था. मेरे और कमल का बेटा.’ ‘मैं जानता हूं. लेकिन शायद तुम भूल रही हो कि दुनिया की नजर में आज भी प्रेम हमारा ही बेटा है. कमल का नहीं. भले उस के शरीर में मेरे खून का कतरा नहीं है लेकिन मेरे प्यार के रंग को कोई कैसे उतार सकता है. नंदजी कान्हा के पिता भले नहीं थे किंतु वासुदेव से पहले नंद का नाम ही लिया जाता है. यह उन का पुत्रप्रेम व समर्पण था. जिसे दुनिया सदैव से ही नमन करती आई है और करती रहेगी.’

‘तुम नंद नहीं हो, पर मुझे देवकी जरूर बना दिया. क्यों?’ ‘देवकी, मैं ने कैसे बनाया?’ ‘तुम्हारे घर वाले मेरे बच्चे को मुझ से छीन कर ले जा चुके हैं. मैं नहीं जानती किस अधिकार से ले गए.’ ‘मेरे घर वाले…मैं आश्चर्यचकित हूं. जिन्हें तुम से कभी विशेष मतलब न रहा, वो तुम्हारे बच्चे को क्यों ले कर जाएंगे.’ ‘यही बात तो मुझे समझ नहीं आई आज तक. लेकिन मैं तुम्हारे घर वालों के जुल्म के आगे झुक गई थी या शायद यहां भी मेरी ही गलती थी. मैं अपनी फिगर खोना नहीं चाहती थी. मैं ब्रैस्ट फीडिंग करवा कर अपने वक्ष को खराब नहीं करना चाहती थी. जो समय मुझे उस अबोध बालक को देना चाहिए था वह समय मैं कमल को दे दिया करती थी. जिस का लाभ तुम्हें मिलता रहा. मैं अपने ही बच्चे से दूर होती रही और तुम करीब आते चले गए. तुम्हारे करीब, तुम्हारे रिश्तेदारों के करीब, और एक दिन वही बच्चा मुझे छोड़ उन के साथ चला गया. यहां मैं मां भी नहीं बन सकी.’

मैं विचारों की उधेड़बुन में उलझी रही. वैमनस्य मन में विवाह की तैयारी करती रही. मैं तुम्हें बारबार भुलाने की कोशिश में लगी रही और तुम बारबार मेरे जेहन में आते रहे. मैं खुद को कामों में उलझाने की कोशिश में लगी रहती हूं ताकि तुम्हारी यादों से नजात पा सकूं पर फिर भी तुम याद आते रहते हो. मैं टैंट वाला, हलवाई के हिसाबकिताब करती रही और तुम अपनी कमी महसूस करवाते रहे. तुम होते तो ऐसा होता, तुम होते तो वैसा होता. तुम्हें इस तरह के कामों में आनंद जो मिलता था. शादीविवाह हो या कोई सामाजिक काम, तुम सब में बढ़चढ़ कर भाग लेते थे. वह तुम्हारी कोमल हृदय की भावनाएं होती जिसे मैं कभी नहीं समझ पाई थी. एक बात जानते हो, मैं ने मी टू कैंपेन जौइन कर ली है.

मैं अब कमल के मामले को पूरी दुनिया को दिखाऊंगी. उस की करतूतों का परदाफाश कर के रहूंगी ताकि कोई और मेरी जैसी औरत उस के चुंगल में न फंसे. बहुत सताया है मुझे और जाने ही कितनों को. पर अब और नहीं. शादी की तैयारी करने में वक्त गुजरते देर न लगी और वह समय भी आ गया जब अभिलाषा को विदा कर के लेने दूलहेमियां असीम बरात ले कर आ गये और अब वह हमेशा के लिए अभिलाषा को मुझ से दूर ले कर चला जाएगा. मेरे अंदर भी बेचैनी होने लगी. क्या मैं अब अकेली रह जाऊंगी? क्या इस दुनिया में मेरे पास रहने वाला अपना कोई नहीं होगा? पर यह तो मेरे कर्मों का ही नतीजा है, फिर क्यों मुझे घबराहट हो रही है?

हां, मुझे पश्चात्ताप हो रहा है. शायद हां, मुझे पश्चात्ताप ही हो रहा है. मैं पश्चात्ताप की ही अग्नि में जल रही हूं. मेरा अहंकार जल रहा है. मेरा अस्तित्व जल रहा है. मैं एक कुंठित व महत्त्वाकांक्षी औरत हूं जिस के लिए शायद अब तक सजा मुकर्रर नहीं हुई है. पर यह तय है कि इस की सजा मुझे मिलेगी जरूर. तभी दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने दरवाजा खोला. मैं विस्मित देखती रह गई. मेरे सामने मोहित खड़ा था. मुझे खुद की ही आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था. मुझे लगता, शायद मैं इतनों दिनों से मोहित के खयालों में डूबी हूं, उसी का असर है.

मोहित जब बोला, ‘‘क्या अंदर आने को नहीं कहोगी?’’ मेरी तंद्रा टूटी. वास्तव में मोहित ही है मेरा खयाल नहीं. मैं हड़बड़ाने लगी हूं, मेरी आंखों के कोर में न जाने कहां से आंसू के बादल छाने लगे. मैं रोकना चाहती थी उन आंसुओं की बूंदों को ढुलकने से, पर रोक नहीं पाई. वे लुढ़क कर मेरी नाक तक आ गए है. भर्राए हुए गले से मैं सिर्फ प्रेम बोल पाई हूं. मोहित ने कुछ जवाब नहीं दिया. वे मेरे संगसंग अंदर आ गए. मुझ से नजर मिलाए बिना ही मोहित बैठ गए. मैं पानी लेने चली गई. मैं अपने हाथों में पानी का गिलास लिए खड़ी थी. मोहित ने पानी का गिलास लेते हुए पूछा, ‘‘प्रेम कहां है माया?’’

मैं अपनी रुंधे हुई भर्राए गले से अटकअटक गई, ‘‘वो…वो प्रेम को तो…प्रेम को तो आप की मांबहन ले गईं थी.’’ मैं पहली बार मोहित को आप कह संबोधित कर रही थी. मुझे नहीं मालूम ऐसा क्यों? ‘‘मां ले गईं प्रेम को, पर क्यों?’’ ‘‘क्योंकि मेरी ममता मरणासन्न अवस्था में पहुंच गई थी, मैं वासना के रसातल में विक्षिप्त प्राणी की तरह विलीन हो गई थी. सिर्फ और सिर्फ मेरा तन जाग्रत था, हृदय तो कब का मृत हो चुका था,’’ मैं फफकफफक कर रोते हुए बोली. ‘‘क्या इस का तुम्हें एहसास है?’’

‘‘एहसास, शायद छोटा सा अल्फाज है मुझ जैसी कलुषित औरत के लिए. मुझ जैसी औरतों को तो जितनी सजा दी जाए वह कम ही होगी.’’ ‘‘तुम्हें पश्चात्ताप हुआ, यह बहुत बड़ी बात है. लेकिन तुम फिर से यह कौन सी गलती दोहराने जा रही हो?’’ ‘‘गलती, क्या मतलब?’’ ‘‘तुम इतनी भोली भी नहीं हो कि मतलब बताना पड़े. फिर भी बता देता हूं… यह तुम्हारा मी टू कैंपेन क्या है? क्यों तुम किसी की बसीबसाई गृहस्थी में आग लगाने पर तुली हो?’’ ‘‘पर उस ने जो किया, क्या वह सही था?’’ ‘‘उस ने जो किया वह गलत जरूर था. लेकिन वह अकेला गलत तो नहीं था, तुम भी तो बराबर की भागीदार रही. तुम्हारी भी उतनी ही हिस्सेदारी रही जितना कमल की. फिर अकेले कमल पर दोषारोपण क्यों?’’

‘‘तो क्या तुम्हारी नजर में कमल सही है और मैं ही पूरी जिम्मेदार थी?’’ ‘‘हां, कहीं न कहीं तुम ज्यादा जिम्मेदार थी. यदि तुम खुद को संयमित रखती तो दुनिया के किसी भी पुरुष के बाजू में इतनी ताकत नहीं कि तुम्हारे सतीत्व को छीन ले. तुम्हारा पति तो तुम्हारे संग ही था, फिर तुम कैसे मर्यादा भूल गईं. तुम्हें मेरी परवा भले न हो, अपनी परवा कभी तुम ने की नहीं, कम से कम प्रेम के बारे में तो एक बार सोच लेतीं. बड़ा होगा तो वैसे ही तुम्हारी करतूतों का पता चल जाएगा. लेकिन बारबार एक ही गलती दोहरा कर क्यों उसे जलालतभरी जिंदगी में झोंकने की तैयारी कर रही हो?

‘‘माना भारतीय कानून ने पराए मर्दों के संग सोने वाले रिश्तों में पति का दखल बंद करा दिया है लेकिन सभ्यता व संस्कार अभी भी इस प्रकार के औरत या मर्द को चरित्रहीन की ही श्रेणी में रखती हैं, और फिर प्रेम तो तुम्हारा ही बेटा है न, बड़े दंभ से कहती थीं, फिर क्यों उस के भविष्य को खराब करना चाहती हो? भूल जाओ माया पुरानी बातों को. जिंदगी को नए सिरे से शुरू करो. किसी के बसेबसाए घर को उजाड़ना भी ठीक नहीं है माया. बाकी तुम्हारी मरजी. तुम अधिक समझदार हो मुझ से.’’

मैं कुछ भी सोचनेसमझने की अवस्था में नहीं रह गईर् थी, मोहित के तर्क के सामने. उन की बातें भी तो सही थीं. मुझे प्रेम के बारे में तो सोचना चाहिए था. पर प्रेम के बारे में मैं क्यों नहीं सोच पाई? प्रेम कैसा होगा? मेरा बच्चा कहां होगा? और फिर मोहित को कैसे पता मेरे बारे में. शायद सोशल मीडिया से पता चला होगा. मैं कुछ बोलना चाहती थी पर बोल नहीं पाई. बस, प्रेमप्रेमप्रेम करती रह गई. ‘‘प्रेम मेरे पास है.’’ ‘‘आप के पास?’’ ‘‘तो लेते क्यों नहीं आए? एक बार नजर भर देख लेती,’’ बाकी शब्द मुंह में ही अटक गए. पहली बार महसूस हुआ कि मेरी ममता जागृत हो रही है.

‘‘मां’’, पैर छूते हुए एक 10 वर्षीय बच्चा मुझ से लिपट कर फिर बोला, ‘‘पापा, मौसी की शादी के बाद हम मां को अपने साथ ले जाएंगे.’’ प्रेम अपनी दादीदादा के साथ अभिलाषा के लिए गहनेकपड़े खरीदने बाजार चला गया था. सब लोग साथ ही आए थे. लेकिन मोहित मेरे पास पहले आ गए, बाकी लोग बाजार चले गए थे. मोहित की मां के जब मैं पैर छूने लगी तो वे उठ कर बोलीं, ‘‘बेटा, एक पत्नी गलत हो सकती है, हार भी सकती है दुनिया से, लेकिन एक मां न तो कभी हारती है और न ही गलत होती है.

प्रेम तुम्हारा बेटा था, है और रहेगा. बस, उस में अच्छे संस्कार के खादपानी की जरूरत है. अब हम भी बूढ़े हो गए हैं. तुम अभिलाषा की विदाई के साथ ही हमारे साथ आ कर अपना संसार संभालो, तेरे जाने के बाद तेरा घर बिखर गया है, आ कर समेट ले बेटा.’’ मैं कुछ बोल नहीं पाई, बस सहमति में सिर हिलाती रह गई.

 

सौगात: बरसों बाद मिली स्मिता से प्रणव को क्या सौगात मिली?

लेखिका- कंचन

स्मिता तेज कदमों से चलती हुई स्टेशन की एक खाली बैंच पर बैठ गई. कानपुर वाली ट्रेन आने में अभी 2 घंटे बाकी थे. एक बार उस ने सोचा कि वेटिंगरूम में जा कर थोड़ा सुस्ता ले, पर फिर विचार बदल दिया. आज उस के दिल में जो खुशी का ज्वार फूट रहा था, उस के आगे कोई भी परेशानी माने नहीं रखती थी. स्मिता आज दिनभर की घटनाओं के क्रम और रफ्तार को सोच कर हैरान थी. आज सुबह ही ब्रह्मपुत्र मेल से 8 बज कर 25 मिनट पर कानपुर से इलाहाबाद पहुंची थी. होटल दीप में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था. इलाहाबाद के प्रसिद्ध व्यवसायी विपिन चंद्र की तरफ से स्मिता को निमंत्रणपत्र भेजा गया था. विपिन चंद्र पेशे से फैक्टरियों के मालिक होते हुए भी दिल से कवि और कलापारखी थे. वे साल में इस प्रकार के कवि सम्मेलन 1-2 बार आयोजित करते थे. ऐसे सम्मेलनों में वे जानेमाने कवियों के साथ उभरते नए कवियों को भी बुलाते थे, ताकि उन की कला को मंच मिल सके और आर्थिक रूप से भी उन की मदद हो सके. हमारे देश में आर्थिक तंगी से तंग हो कर कितनी ही प्रतिभाएं हर रोज दम तोड़ देती हैं. स्मिता सोचने लगी कि यह भी एक तरह का समाज कल्याण कार्य है.

सिविल लाइंस स्थित दीप होटल कुछ खास बड़ा नहीं था, परंतु पुराना और जानामाना अवश्य था. आटो वाले को दीप होटल का पता था इसलिए स्मिता को उस ने मात्र 20 मिनट में ही होटल के बाहर उतार दिया. स्मिता ने होटल में जा कर रिसैप्शनिस्ट को अपना परिचयपत्र और निमंत्रणपत्र दिखाया. रिसैप्शनिस्ट ने उसे लौबी में बैठाया और कहा, ‘‘मैं अभी मैनेजर साहब को खबर करती हूं.’’ स्मिता ने सोफे पर बैठते हुए सोचा, ‘कवि सम्मेलन के लिए मैं ही शायद सब से पहले आ गई हूं. स्टेशन पर बैठी रहती तो अच्छा था. सम्मेलन शुरू होने में अभी डेढ़ घंटा बाकी है. क्या करूंगी साढ़े 10 बजे तक?’ स्मिता ने सामने रखी पत्रिकाओं पर निगाह डाली और एक पत्रिका उठाने ही जा रही थी कि पीछे से किसी की आवाज आई, ‘‘आप को आने में कोई तकलीफ तो नहीं हुई न?’’

‘‘जी, नहीं,’’ कह कर स्मिता ने जैसे ही नजर घुमाई तो देखा सामने प्रणव खड़ा था. कोट पर लगे बिल्ले से पता चला, प्रणव ही मैनेजर था. स्मिता हैरान थी, उस का सहपाठी, प्रेमी प्रणव इस साधारण से होटल में मैनेजर था? कितनी तनख्वाह पाता होगा, 15-20 या 25 हजार? प्रणव तो इतना मेधावी छात्र हुआ करता था, और उस के आईएएस बनने की खबर भी तो आई थी, उस का क्या हुआ?

प्रणव ने स्मिता को पहचान कर कहा, ‘‘मेहमान कवियों में जब तुम्हारा नाम देखा तो मुझे जरा भी उम्मीद नहीं थी कि स्मिता तुम होगी, तुम तो मलिक थीं न?’’

‘‘हां, तो? 25 साल तक कुंआरी बैठी रहूं और पढ़पढ़ कर बुड्ढी होती रहूं? अरे भई, राम नरेश सहाय से मेरी शादी हुए 23 साल हो गए हैं,’’ स्मिता ने हंसते हुए कहा. अपनी गरिमा और गांभीर्य की चादर को उतार कर स्मिता अचानक पहले वाली कालेज गर्ल बन गई थी.

प्रणव ने कहा, ‘‘चलो, मेरे केबिन में चल कर बात करते हैं.’’ इतना कह कर प्रणव ने एक कर्मचारी को बुला कर चायनाश्ता मंगवाया और स्मिता के साथ केबिन में चला आया. होटल की तरह प्रणव का केबिन भी कुछ खास बढि़या न था. स्मिता और प्रणव दोनों टेबल के दोनों ओर आराम से बैठ गए. स्मिता ने पूछा, ‘‘तुम बताओ, यहां पर कैसे? मैं ने तो सुना था तुम एक बार टीवी के किसी ‘क्विज शो’ में गए थे. बाद में सुना तुम्हारा आईएएस में सलैक्शन हो गया है.’’

प्रणव मुसकरा कर बोला, ‘‘मेरे बारे में बड़ी खबरें रखती रहीं. कालेज में तो मुझे कभी भाव नहीं दिया.’’

‘‘सही कहा तुम ने, कभी भाव नहीं दिया, पर खबरें रखने में क्या जाता है?’’ स्मिता ने बात को बदल कर पूछा, ‘‘यह बताओ, तुम ने शादी की? इस होटल में कैसे नौकरी कर रहे हो? शक्ल तो देखो, अपनी उम्र से 10 साल बड़े लग रहे हो.’’ प्रणव ने हंस कर कहा, ‘‘जब से आई हो प्रश्नों की बौछार कर रही हो. एक बात तो तय है कि तुम्हें मेरी परवा पहले भी थी और अब भी है. हालांकि तुम ने अपने मुंह से कभी कुछ कहा नहीं, पर मुझे तुम्हारी भावनाओं का एहसास है.’’ इतने में नाश्ता आ गया तो जैसे स्मिता को बात बदलने का मौका मिल गया, कहने लगी, ‘‘अरे वाह, क्या बढि़या समोसे हैं. होटल में खाना बढि़या बनता है, यह मानना पड़ेगा.’’ प्रणव समझ गया स्मिता पहले की तरह प्यार की बातों को किसी बहाने टालने का प्रयास कर रही थी. वह स्वयं भी समझता  था कि अब स्मिता एक शादीशुदा औरत थी. उस ने कालेज के दिनों में ही प्रणव के प्रणय निवेदन को स्वीकारा नहीं था. स्मिता और प्रणव दोनों चुपचाप नाश्ता करने लगे. दोनों अपनेअपने ढंग से अतीत को देख रहे थे.

कालेज के रंगारंग कार्यक्रम में स्मिता और प्रणव पहली बार मिले थे. दोनों को युगल गान के लिए चुना गया था. प्रणव में संगीतकारों वाली समझ थी. गीत बढि़या गाया जाए, उस के लिए यह काफी न था. गीत को विभिन्न वाद्यों के मेल से कैसे सजा कर पेश किया जाए यह उन के लिए माने रखता था. तमाम तैयारियों के बाद जब कार्यक्रम के दौरान प्रणव और स्मिता ने गीत गाया तो उन्हें खूब तालियां मिलीं. कालेज के शिक्षकों ने भी उन की प्रशंसा की. धीरेधीरे उन के सहपाठियों ने उस युगल गान के बहाने उन की युगल जोड़ी बनानी शुरू कर दी. ऐसी बातें सुन प्रणव तो खुश होता था पर स्मिता हंस कर कहती, ‘तुम लोग कहानी बना रहे हो, ऐसा कुछ नहीं है’ प्रणव ने कई बार स्मिता से इस बारे में बात करनी चाही पर स्मिता कोई न कोई बहाने से टाल जाती. धीरेधीरे प्रणव समझ गया कि स्मिता शायद उसे प्रेमी के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहती थी. इस के बावजूद वह स्मिता का दोस्त बने रहना चाहता था. प्रणव पढ़ाई में अत्यंत प्रखर छात्र था. उस ने स्मिता को अपने नोट्स दिए. पुस्तकालय से किताबें इश्यू करा कर दीं. स्मिता को याद है वह प्रायोगिक परीक्षा का दिन, जब प्रणव ने उस में आत्मबल जगाया था. कालेज के नियम के अनुसार, प्रत्येक परीक्षार्थी को शिक्षक के सामने 2 पर्चियां उठानी होती थीं. उन में किन्हीं 2 प्रयोगों के नाम लिखे होते थे. परीक्षार्थी को उन प्रयोगों में से एक का चुनाव कर शिक्षक को बताना पड़ता था और उसी प्रयोग को प्रयोगशाला में करना पड़ता था. स्मिता ने जिन पर्चियों का चुनाव किया था उन में लिखे दोनों प्रयोग उसे मुश्किल लग रहे थे. आखिरकार उस ने एक प्रयोग चुना और शिक्षक को बताया. स्मिता प्रयोगशाला में प्रयोग करने जा रही थी कि अचानक प्रणव ने आ कर कहा, ‘चेहरे का बल्ब क्यों औफ है? कौन सा प्रैक्टिकल मिला?’ स्मिता ने धीरे से अपनी पर्ची दिखाई.

‘अरे, यह तो बहुत आसान है. समय से पहले कर लोगी तुम, घबराना नहीं.’ उस ने उस प्रयोग के बारे में जरूरी टिप्स दिए और शिक्षकों की नजर बचा कर जल्दी से खिसक गया. उस की इन्हीं छोटीछोटी मदद के कारण स्मिता अच्छे अंकों से पास हो गई.इसी बीच स्मिता के पिता का तबादला हैदराबाद हो गया. प्रणव ने बड़ी मिन्नत कर के स्मिता से मिलने का समय मांगा तो वह मान गई. स्मिता ने अपने भाई को भी उसी समय कालेज से ले जाने का समय दे दिया. प्रणव पुस्तकालय के बाहर स्मिता से मिलते ही बोला, ‘सुना है तुम हैदराबाद जा रही हो?’

‘हां.’

‘यहीं होस्टल में रह जाओ न?’

‘यह संभव नहीं है.’

‘पता है मैं ने हमारे गाने की रिकौर्डिंग अपने घर में मम्मी को सुनाई है. मम्मी को तुम्हारे बारे में भी बताया है. मेरे पेरैंट्स मुझे आईएएस अधिकारी के रूप में देखना चाहते हैं जबकि मैं तो संगीतकार बनना चाहता हूं. जगजीत सिंह-चित्रा सिंह के जैसी हमारी जोड़ी भी क्या खूब जमेगी, है न?’स्मिता गंभीरता से बोली, जो वह कई बार अकेले में अभ्यास कर चुकी थी, ‘देखो प्रणव, मैं कोई चलतीफिरती मूर्ति नहीं हूं जो तुम्हारे प्यार को समझ न सकूं. मैं एक रूढि़वादी परिवार से हूं. हमारे घर में प्यार शब्द को सिर्फ गाने में इस्तेमाल करने की इजाजत है. प्यार कर घर बसाने की तो मैं सपनों में भी नहीं सोच सकती. तुम एक मेधावी छात्र हो. अपने मांबाप की इच्छा पूरी कर आईएएस अधिकारी बनो, देश की सेवा करो. हर जोड़ी जगजीत सिंह-चित्रा सिंह जैसी कामयाब नहीं बनती है. फिल्म अभिमान की कहानी याद है न? अभिमान में अमिताभ-जया दोनों गायक कलाकार थे. दोनों में प्यार हुआ, शादी हुई. उस के बाद जो दोनों के अहं आपस में टकराए तो बस, कहानी बन गई.’ स्मिता थोड़ा रुक कर बोली, ‘मुझे उम्मीद है कि तुम्हें मुझ से कई गुणा सुंदर और गुणी जीवनसंगिनी मिलेगी.’ इतने मे स्मिता के भैया आते दिखाई दिए. स्मिता ने आगे बढ़ कर प्रणव का परिचय भैया से करवाया. उन तीनों में औपचारिकतावश 2-4 बातें हुईं. इस के बाद स्मिता हमेशा के लिए उस कालेज और प्रणव की जिंदगी से चली गई. अतीत के पन्नों से निकल स्मिता ने नजरें उठाईं तो प्रणव को अपनी ओर देखते पाया. स्मिता ने सोचा, ‘प्रणव क्या देख रहा है? कहीं उसे चेहरे की हलकीहलकी झुर्रियां तो दिखाई नहीं दे रहीं? आने से पहले तो मैं फेशियल करवा आई थी.’

इतने में प्रणव ने कहा, ‘‘तुम ने अपने बारे में कुछ नहीं बताया.’’

‘‘हैदराबाद आ कर मैं ने राजनीतिशास्त्र में उस्मानिया विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर यानी एमए की डिगरी हासिल की,’’ स्मिता सहज हो कर बोलने लगी, ‘‘इस के बाद डेढ़ साल स्कूल में शिक्षिका रही. बस. फिर शादी हो गई. एक बेटा हो गया. बेटा अब बड़ा हो गया है. उसे पढ़ाने की जिम्मेदारी अब मेरी नहीं है, कोचिंग वालों की है. इसलिए अब खाली समय में थोड़ा लिखने का प्रयास करती हूं. कहानी खत्म.’’ यह कह कर स्मिता खिलखिला कर हंस पड़ी. फिर प्रणव से पूछा, ‘‘तुम यहां कैसे आए, यह तुम ने अब तक नहीं बताया?’’

प्रणव बोला, ‘‘क्या करोगी जान कर? हर कहानी रोचक नहीं होती है न.’’

‘‘इसीलिए तो जानना चाहती हूं. यह कहानी रोचक कैसे नहीं बन पाई? प्लीज, अपनी मित्रता की खातिर ही सही, कालेज के बाद की जिंदगी के बारे में बताओ. हो सकता है, शायद मैं तुम्हारे कुछ काम आ सकूं.’’

‘‘मेरे काम? तुम्हारे पतिदेव को बताऊं, स्मिता ऐसा कह रही है?’’ कह कर प्रणव हंसने लगा. स्मिता झेंप गई, फिर बोली, ‘‘मेरे कहने का मतलब तुम्हारी मदद करना था. तुम्हारी बात पकड़ने की आदत अभी गई नहीं है.’’ प्रणव मुसकरा रहा था. थोड़ी देर बाद उस ने शांतभाव से कहना शुरू किया, ‘‘तुम्हारे जाने के बाद मैं ने भी राजनीतिशास्त्र में स्नातकोत्तर का कोर्स जौइन किया. प्रथम वर्ष में ही मैं ने आईएएस की प्रारंभिक परीक्षा पास कर ली और मुख्य परीक्षा की तैयारियों में लग गया. जिस दिन मुख्य परीक्षा पास की तो मैं और निश्चित हो गया. सोचा, बस, अब अंतिम सीढ़ी साक्षात्कार रह गई है. साक्षात्कार को अभी कुछ दिन बाकी थे कि मेरे पिताजी अकस्मात हार्टअटैक के कारण चल बसे. मैं ने जोधपुर अपने घर जा कर मां और दीदी को संभाला. जिस दिन साक्षात्कार था, उसी दिन पिताजी का श्राद्ध था. मैं रस्मों और रिश्तेदारों में उलझा हुआ था.’’ यह कहतेकहते प्रणव शांत हो गया. थोड़ी देर बाद यंत्रवत फिर कहने लगा, ‘‘रिश्तेदारों के जाने के बाद मैं ने प्राइवेट ही स्नातकोत्तर डिगरी हासिल करने के लिए फौर्म भर दिया. साथ ही, घर चलाने के लिए छोटेमोटे काम ढूंढ़ने लगा. कभी दुकान का सेल्समैन तो कभी स्कूल का क्लर्क.’’

स्मिता व्यथित हो कर बोली, ‘‘आईएएस की तैयारी बीच में ही छोड़ दी, दोबारा प्रयास कर सकते थे?’’ प्रणव के स्वर में झुंझलाहट सुनाई पड़ी जब वह बोला, ‘‘अरे मैडम, कविताएं और कहानियां वास्तविक नहीं होती हैं,’’ यह कह कर वह चुप हो गया. स्मिता ने कहना चाहा कि कविता और कहानी सभी यथार्थ से ही प्रेरित होती हैं. तभी तो साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है. इस समय स्मिता ने चुप रहना ही बेहतर समझा. थोड़ी देर बाद प्रणव स्वयं ही संयत हो बोला, ‘‘मेरे बाबूजी अपनी ईमानदारी की कमाई से केवल घर का खर्च चलाते और हमें पढ़ाते थे. उन के जाने के बाद सिर्फ पुश्तैनी मकान रह गया था. दीदी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती और मैं अपनी कमाई से घर और बाहर का काम संभालने लगा. जिंदगी मंथर गति से चल रही थी कि पता चला, मां ब्लड कैंसर से ग्रस्त हैं. शायद हम दोनों भाईबहन के भविष्य की चिंता में ही मां ऐसा रोग लगा बैठी थीं. उन्होंने बीमारी को हम से छिपा कर भी रखा था, पड़ोस की आंटी को पता था. 4 महीने में मां भी हमें छोड़ गईं.’’ प्रणव थोड़ा रुका. स्मिता को उस की आंखों में आंसू दिखे. उस ने भी महसूस किया कि मांबाप का साया सिर से उठ जाए तो कैसी बेचारगी होती है. यों ही बच्चे अनाथ नहीं कहलाते. प्रणव फिर संवेदनशून्य हो कर कहने लगा, ‘‘अब मेरी दीदी के ब्याह की जिम्मेदारी मेरी थी. पता चला दूल्हे तो शादी के बाजार में भारी दहेज में बिकते थे. कहीं कोई बात बन नहीं रही थी. ऐसे में एक परिवार में बात चली तो लड़के वाले हमारे पुश्तैनी मकान के बदले दीदी को बहू बनाने को तैयार हो गए. मैं अपने ही घर में अपने जीजा और दीदी के सासससुर का नौकर बन कर रह गया. दीदी कुछ कह नहीं पाती थीं क्योंकि वे अपने पति को छोड़ कर भाई पर दोबारा बोझ बनना नहीं चाहती थीं.

‘‘जब जीवन असहनीय हो गया तो मैं यहां भाग आया. यहां भी छोटेमोटे काम किए, फिर दीप होटल में काम मिला. अब शादीशुदा हूं 2 बच्चे हैं. कह सकती हो कि जिंदगी कट रही है.’’ स्मिता सोचने लगी, जीवन खुल कर जीना और सिर्फ काटने में अंतर होता है. पैदा होते ही हम मौत की तरफ बढ़ते हुए जिंदगी काटते ही तो हैं. प्रणव की आवाज आई तो स्मिता ध्यान से सुनने लगी. प्रणव कह रहा था, ‘‘मेरा अनुभव यह कहता है कि जिंदगी अचानक ही घटी घटनाओं का क्रम है. जैसे आज इतने सालों बाद तुम मिली हो, वह भी कवयित्री बन कर. पता है, कभीकभी ऐसा लगता है यदि जिंदगी को फ्लैशबैक में जा कर दोबारा जीने का अवसर मिलता तो शायद मैं अलग ढंग से जीता.’’ प्रणव ज्यादा बोलने की वजह से हांफ रहा था. स्मिता ने सोचा कि कहीं प्रणव हाई ब्लडप्रैशर का रोगी तो नहीं. इस से पहले कि स्मिता कुछ अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती, होटल का एक कर्मचारी आया और प्रणव से बोला, ‘‘सर, बाहर मेहमान लोग आना शुरू हो गए हैं, उन्हें लौबी में बिठाऊं या कन्वैंशन हौल में?’’

प्रणव ने घड़ी देख कर कहा, ‘‘अरे, समय का पता ही नहीं लगा. तुम उन्हें लौबी में ही बिठाओ. पानी सर्व करवाओ, मैं अभी आता हूं.’’ इतना कह कर प्रणव स्मिता से बोला, ‘‘तुम्हें भी मैं अन्य कवियों के साथ छोड़ देता हूं. मुझे सभागार की व्यवस्था दोबारा चैक करनी है. तुम्हारी कविताएं अवश्य सुनूंगा, पक्का वादा. सम्मेलन के बाद मिलते हैं.’’ प्रणव ने स्मिता को लौबी में छोड़ा और तेजी से सभागार की ओर बढ़ गया. स्मिता अन्य कवियों से नमस्ते, आदाब वगैरह कहने लगी. उन में अशोक चक्रधर की स्मिता बहुत बड़ी प्रशंसक थी. उन से बातचीत कर वह बहुत प्रसन्न हुई. इतने में सभी कविगणों को सभागार में बैठाया गया. इस के बाद विपिन चंद्र, होटल के मालिक, विश्वनाथ के साथ पधारे तो सभी ने उठ कर उन दोनों का अभिवादन किया. विश्वनाथ ने मंच पर जा कर अतिथि कवियों का स्वागत किया और कवि सम्मेलन शुरू करने की घोषणा अपनी एक छोटी सी कविता से की. कवियों में सर्वप्रथम जानेमाने कवि गौरव को बुलाया गया. गौरव मूलत: हास्य कवि हैं जो अपनी छोटीछोटी कविताओं में व्यंग्य के रूप में बड़ीबड़ी बात समझा जाते हैं. उन्होंने आते ही अपनी आत्महत्या की योजना के बारे में व्यंग्यात्मक ढंग की कविता सुनाई. वातावरण पूरा हास्यमय हो गया. इस के बाद दिल्ली के उभरते कवि विनय विनम्र ने नेताओं की देशभक्ति पर एक गीत प्रस्तुत किया तो श्रोताओं ने तालियों से उन का जोरदार समर्थन किया. ऐसे ही कार्यक्रम बढ़ता रहा पर स्मिता का मन कहीं और भटक रहा था. उसे यह खयाल बारबार परेशान कर रहा था कि प्रणव जैसा मेधावी छात्र अपनेआप को समाज में प्रतिष्ठित न कर पाया. मां से बचपन में सुनी कहावत ‘पढ़ोगे, लिखोगे तो बनोगे नवाब…’ उसे झूठी लग रही थी.

इसी बीच जलपान करने के लिए सभी कवियों और श्रोताओं को पास ही के हौल में बुलाया गया. स्मिता ने देखा कि विश्वनाथ और विपिन चंद्र बैठे बातचीत कर रहे थे. स्मिता ने मन ही मन साहस बटोरा और उन दोनों के पास पहुंच गई. उस ने अभिवादन कर विपिनजी से कहा, ‘‘सर, मैं आप से थोड़ी देर बात करना चाहती हूं.’’ विपिनजी स्मिता को जानते थे, बोले, ‘‘हां जी, कहिए, आप को चैक तो मिल गया है न?’’ स्मिता ने मुसकरा कर कहा, ‘‘जी, वह तो मिल गया है. पर आज मैं आप से इस होटल के मैनेजर प्रणव के बारे में बात करना चाहती हूं.’’ इतना कह कर स्मिता ने कालेज के सब से प्रतिभावान छात्र प्रणव की कहानी संक्षेप में कह डाली. उस ने फिर कहा, ‘‘आप जैसे कलापारखी शायद प्रणव की प्रतिभा का उचित मूल्य दे सकेंगे. क्या आप उसे अपने व्यवसाय में किसी प्रकार का कार्य दिला सकते हैं?’’ विपिनजी बोले, ‘‘अरे स्मिताजी, आप के सहपाठी को हम भी अच्छी तरह जानते हैं. दरअसल, अभी विश्वनाथ भी हमें यही बता रहे थे कि आर्थिक तंगियों की वजह से यह होटल बंद होने की कगार पर था कि तभी प्रणव ने जौइन किया. कर्मचारी कम होने की वजह से प्रणव ने हर तरह का काम किया. आज फिर से यह होटल चल पड़ा है. मेरी एक फैक्टरी, जिस में साबुन, शैंपू वगैरह बनते हैं, ऐसे ही हालात से गुजर रही है. ठीक है, देखते हैं, प्रणव वहां भी अपनी जादू की छड़ी घुमा सकता है या नहीं.’’

स्मिता खुश हो कर बोली, ‘‘धन्यवाद, सर, मुझे उम्मीद थी कि आप मेरी विनती का मान जरूर रखेंगे.’’ विपिनजी बोले, ‘‘अरेअरे, इस में धन्यवाद कैसा? भई, हमें भी तो कर्मठ और ईमानदार स्टाफ की जरूरत पड़ती है या नहीं?’’ स्मिता थोड़ा सोच कर बोली, ‘‘एक और बात है सर, प्रणव को यह मालूम नहीं होना चाहिए कि मैं ने आप से उस की सिफारिश की है. इस से उस के आत्मसम्मान को ठेस लग सकती है. मुझे विश्वास है प्रणव स्वयं ही अपनी काबिलीयत साबित कर पाएगा. आप को निराशा नहीं होगी. अच्छा सर, अब मैं चलती हूं. सब लोग जलपान हौल से वापस आ रहे हैं.’’ इतना कह कर स्मिता तेजी से सभागार की अपनी सीट पर जा बैठी. कवि सम्मेलन जलपान के अल्पविराम के बाद फिर से शुरू हुआ. कई जानेमाने गीतकार भी आए. हमारे फिल्म संगीत की एक विचित्र परंपरा यह है कि गीतकार का गीत चाहे जनजन की जबां पर आ जाए पर उस के पीछे गीतकार को कोई जानता ही नहीं है. कोई जानना चाहता भी नहीं है. गीत के गायक या बहुत हुआ तो संगीतकार, जिस ने धुन बनाई है, पर आ कर बात थम जाती है. फिल्म ‘शोर’ का गाना इक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है…इसे गुनगुनाते समय कितने लोग भला उस गीत के गीतकार संतोष आनंद को याद करते होंगे. ऐसे में गीतकारों को अपने गीत कह कर, गा कर सुनाते देख अच्छा लगा. इतने में स्मिता का नाम पुकारा गया तो वह भी साड़ी संभालती हुई, हाथ में कविता की डायरी लिए पहुंच गई. सभी को नमस्कार कर उस ने प्रसिद्ध गीतकार गोपालदास नीरज की कुछ लाइनें पढ़ीं. इस के बाद स्मिता ने उड़ान नामक अपनी कविता, जिस में एक पंछी के माध्यम से जीवन की वास्तविकता और उस से समझौता कर कैसे अपनी उड़ान जारी रखी जा सकती है, का सस्वर पाठ किया. इस के बाद उस ने अपनी मधुमेह रोग पर लिखी हास्य कविता का पाठ किया. उस ने मंच से देखा, प्रणव श्रोताओं में पीछे खड़ा था और उस की कविता सुन कर ‘वाहवाह’ कहता हुआ तालियां बजा रहा था.

अंत में अशोक चक्रधरजी की सारगर्भित, व्यंग्यात्मक कविताओं का रसास्वादन सभी ने किया. तत्पश्चात विपिन चंद्र ने सभी अतिथियों का धन्यवाद किया व सभा की समाप्ति अपनी कविता के साथ की. सभा समाप्ति के बाद स्मिता ने देखा विपिनजी ने प्रणव को बुलाया. स्मिता उत्सुकतावश वहीं पड़े एक बड़े से टेबल के पीछे छिप गई. उस ने सुना, विपिनजी कह रहे थे, ‘‘प्रणव, विश्वनाथजी तुम्हारे काम की बड़ी तारीफ कर रहे थे. क्या तुम मेरी फैक्टरी में मैंनेजिंग डायरैक्टर का पद संभालना चाहोगे? 80 हजार प्रति माह वेतन के साथ मकान और गाड़ी भी दी जाएगी.’’ प्रणव को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. उस ने बड़ी मुश्किल से कहा, ‘‘ये…ये आप क्या कह रहे हैं? क्या यह सच है?’’ स्मिता ने देखा, विपिनजी और विश्वनाथजी दोनों मुसकरा कर हामी भरते हुए सिर हिला रहे थे. विपिनजी ने कहा, ‘‘बिलकुल सच कह रहे हैं. विश्वनाथ को जब तक नया मैनेजर नहीं मिल जाता, तुम इन का कार्यभार भी रोज कुछ समय के लिए आ कर संभाल देना. कंप्यूटर पर भी इन का औफिशियल काम कर सकते हो. हां, यदि तुम्हें कोई आपत्ति है तो बता सकते हो.’’

प्रणव बोला, ‘‘आपत्ति क्या सर, बस, यही लग रहा है कि ऐसा काम पहले कभी किया नहीं है तो…’’ अब विश्वनाथजी ने उस से कहा, ‘‘प्रणव, तुम ने हर तरह का काम किया है. यही तुम्हारी काबिलीयत का सुबूत है. आज तुम्हें अच्छा अवसर मिल रहा है. जाओ, खूब मेहनत करो और अपने परिवार को एक अच्छी जिंदगी दो.’’ प्रणव के कानों में अपनी ही कही बातें गूंजने लगीं, जिंदगी अचानक घटी घटनाओं का क्रम है. उस ने भावातिरेक में विपिन व विश्वनाथजी को झुक कर प्रणाम किया. स्मिता ने देखा पास ही एक दरवाजा है, वह बैठेबैठे ही टेबल के पीछे से दरवाजे तक पहुंच गई और एक ही झटके में दरवाजे से निकल पड़ी. इस के बाद लौबी पार कर वह सीधी होटल के बाहर निकल गई. इधर, थोड़ी देर बाद प्रणव स्मिता को ढूंढ़ते हुए रिसैप्शनिस्ट के पास पहुंचा. रिसैप्शनिस्ट ने बताया, ‘‘स्मिता सहाय, वे मैडम तो अभी 5 मिनट पहले होटल से निकल गई हैं. बहुत जल्दी में लग रही थीं. शायद उन की गाड़ी का समय हो गया होगा.’’

प्रणव ने स्मिता को याद किया और मुसकरा दिया. सोचा, स्मिता की कन्नी काटने की आदत अभी गई नहीं है. थोड़ी देर रुकती तो बताता कि उस से दोबारा मिलना हसीन यादें ही नहीं दे गया बल्कि उस की जिंदगी में आर्थिक बदलाव की बहुत बड़ी सौगात ले कर आया. प्रणव ने पदोन्नति की  खबर देने के लिए तुरंत घर पर फोन किया और अपनी पत्नी मोना से बातें करने लगा. मन ही मन सोचने लगा, जीवन के सफर में ऐसे खूबसूरत मोड़ आते रहे तो सफर अब आसान हो जाएगा. होटल से बाहर आ कर स्मिता ने एक अजीब हलकापन महसूस किया. उसे विवेकानंद की कही बातें याद आ गईं. उन के अनुसार, जब किसी दूसरे की भलाई के लिए व्यक्ति कुछ काम करता है तो उस में किसी सिंह की तरह अपार शक्ति का संचार हो जाता है. शायद इसी कारण स्वभावत: चुप रहने वाली स्मिता आज मुखर हो पाई थी. उस ने मन ही मन विपिनजी को धन्यवाद दिया. हालांकि सच्चे प्यार में बदला लेना या देना संभव नहीं है. तब भी कालेज में प्रणव से ली गई छोटीछोटी मदद के बदले आज उस का उपकार कर आंतरिक खुशी हुई. मनमयूर जैसे नाच उठा. शायद प्रणव से दोबारा मुलाकात न हो, इस से कोई फर्क भी नहीं पड़ता. जिंदगीभर के लिए आज की यादें उस के तनहा पलों को गुदगुदाने के लिए काफी थीं. स्मिता आंखों में आंसू और होंठों पर मुसकान लिए चलती रही. आखिरकार स्टेशन की बैंच पर बैठ कर दिनभर की घटनाओं को याद करने लगी. उसे लगा प्रणव से उस का प्रेम किसी भी आशा अपेक्षा से परे था. बिलकुल निस्वार्थ, बंधनहीन.

 

दोषी कौन: रश्मि के पति ने क्यों तोड़ा भरोसा

लॉकडाउन के कारण सभी की जानकारी में आई भोपाल की इस सच्ची कहानी में असली दोषी कौन है यह मैं आपको वाकिए के आखिर में बता पाऊँगा तो उसकी अपनी वजहें भी हैं . मिसेज वर्मा कोई 17 साल की अल्हड़ हाई स्कूल की स्टूडेंट नहीं हैं जिसे नादान , दीवानी या बाबली करार देते हुये बात हवा में उड़ा दी जाये . यहाँ सवाल दो गृहस्थियों और तीन ज़िंदगियों का है इसलिए फैसला करना मुझे तो क्या आपको और मामला अगर अदालत में गया तो किसी जज को लेना भी कोई आसान काम नहीं होगा .

जब कोई पेशेवर लिखने बाला किसी घटना को कहानी की शक्ल देता है तो उसके सामने कई चुनौतियाँ होती हैं जिनमें से पहली और अहम यह होती है कि वह इतने संभल कर लिखे कि किसी भी पात्र के साथ ज्यादती न हो इसलिए कभी कभी क्या अक्सर उस पात्र की जगह खुद को रखकर सोचना जरूरी हो जाता है . चूंकि इस कहानी का मुख्य पात्र 45 वर्षीय रोहित है इसलिए बात उसी से शुरू करना बेहतर होगा हालांकि इस प्लेटोनिक और मेच्योर लव स्टोरी की केंद्रीय पात्र 57 वर्षीय श्रीमति वर्मा हैं जिनका जिक्र ऊपर आया है .

श्रीमति वर्मा भोपाल के एक सरकारी विभाग में अफसर हैं लेकिन चूंकि विधवा हैं. इसलिए सभी के लिए उत्सुकता , आकर्षण और दिखावटी सहानुभूति की पात्र रहती हैं . दिखने वे ठीकठाक और फिट हैं लेकिन ठीक वैसे ही रहना उनकी मजबूरी है जैसे कि समाज चाहता है . हालांकि कामकाजी होने के चलते कई वर्जनाओं और बन्दिशों से उन्हें छूट मिली हुई है पर याद रहे इसे आजादी समझने की भूल न की जाए . कार्यस्थल पर और रिश्तेदारी में हर किसी की नजर उन पर रहती है कि कहीं वे विधवा जीवन के उसूल तो नहीं तोड़ रहीं . ऐसे लोगों को मैं सीसीटीवी केमरे के खिताब से नबाजता रहता हूँ जिन्हें दूसरों की ज़िंदगी में तांकझांक अपनी ज़िम्मेदारी लगती है .

उनके पति की मृत्यु कोई दस साल पहले हुई थी लिहाजा वे टूट तो तभी गईं थीं लेकिन जीने का एक खूबसूरत बहाना और मकसद इकलौता बेटा था जिसकी शादी कुछ साल पहले ही उन्होने बड़ी धूमधाम से की थी . उम्मीद थी कि बहू आएगी तो घर में चहल पहल और रौनक लेकर आएगी , कुछ साल बाद किलकारियाँ घर में गूँजेंगी और उन्हें जीने एक नया बहाना और मकसद मिल जाएगा . उम्मीद तो यह भी उन्हें थी कि बहू के आने के बाद उनका अकेलापन भी दूर हो जाएगा जो उन्हें काट खाने को दौड़ता था . कहने को तो बल्कि यूं कहना ज्यादा बेहतर होगा कि कहने को ही उनके पास सब कुछ था , ख़ासी पगार बाली सरकारी नौकरी रचना नगर जैसे पोश इलाके में खुद का घर और जवान होता बेटा , लेकिन जो नहीं था उसकी भरपाई इन चीजों से होना असंभव सी बात थी .

बहरहाल वक्त गुजरता गया और वे एक आस लिए जीती रहीं . यह आस भी जल्द टूट गई , बहू वैसी नहीं निकली जैसी वे उम्मीद कर रहीं थीं .  बेटे ने भी शादी के तुरंत बाद रंग दिखाना शुरू कर दिए . यहाँ मेरी नजर में इस बात यानि खटपट के कोई खास माने नहीं क्योंकि ऐसा हर घर में होता है कि बहू आई नहीं कि मनमुटाव शुरू हुआ और जल्द ही चूल्हे भी दो हो जाते हैं .  लेकिन जाने क्यों श्रीमति वर्मा से मुझे सहानुभूति इस मामले में हो रही है लेकिन पूरा दोष मैं उनके बेटे और बहू को नहीं दे सकता .

ऊपर से देखने में सब सामान्य दिख रहा था पर श्रीमति वर्मा की मनोदशा हर कोई नहीं समझ सकता जो जो दस साल की अपनी सूनी और बेरंग ज़िंदगी का सिला बेटे बहू से चाह रहीं थीं . कहानी में जो आगे आ रहा है उसका इस मनोदशा से गहरा ताल्लुक है जिसने खासा फसाद 30 अप्रेल को खड़ा कर दिया . इस दिन भी लोग असमंजस में थे कि 3 मई को लॉकडाउन हटेगा या फिर और आगे बढ़ा दिया जाएगा . बात सच भी है कि कोरोना के खतरे को गंभीरता से समझने बाले भी लॉकडाउन से आजिज़ तो आ गए थे .  खासतौर से वे लोग जो अकेले हैं लेकिन उनसे भी ज्यादा वे लोग परेशानी और तनाव महसूस रहे थे जो घर में औरों के होते हुये भी तन्हा थे जैसे कि श्रीमति वर्मा .

मुझे जाने क्यों लग रहा है कि कहानी में गैरज़रूरी और ज्यादा सस्पेंस पैदा करने की गरज से मैं उसे लंबा खींचे जा रहा हूँ .  मुझे सीधे कह देना चाहिए कि श्रीमति वर्मा अपने सहकर्मी रोहित से प्यार करने लगीं थीं जो उम्र में उनसे दो चार नहीं बल्कि 12 साल छोटा था और काबिले गौर बात यह कि शादीशुदा था . रोहित की पत्नी का नाम मैं सहूलियत के लिए रश्मि रख लेता हूँ . ईमानदारी से कहूँ तो मुझे वाकई नहीं मालूम कि रोहित और रश्मि के बाल बच्चे हैं या नहीं लेकिन इतना जरूर मैं गारंटी से कह सकता हूँ कि शादी के 14 साल बाद भी दोनों में अच्छी ट्यूनिंग थी . ये लोग भी भोपाल के दूसरे पाश इलाके चूनाभट्टी में रहते हैं .

लॉकडाउन के दौरान सरकारी दफ्तर भी बंद हैं इसलिए श्रीमति वर्मा और रोहित एक दूसरे से मिल नहीं पा रहे थे .  चूनाभट्टी और रचनानगर के बीच की दूरी कोई 8 किलोमीटर है , रास्ते में जगह जगह पुलिस की नाकाबंदी है जिससे इज्जतदार मध्यमवर्गीय लोग ज्यादा डरते हैं और बेवजह घरों से बाहर नहीं निकल रहे .  इससे फायदा यह है कि वे खुद को कोरोना के संकमण से बचाए हुए हैं . नुकसान यह है प्रेमी प्रेमिकाएं एक दूसरे से रूबरू मिल नहीं पा रहे . जुदाई का यह वक्त उन पति पत्नियों पर भी भारी पड़ रहा है जो एक दूसरे से दूर या अलग फंस गए हैं .

जिन्हें सहूलियत है वे तो वीडियो काल के जरिये एक दूसरे को देखते दिल का हाल बयां कर पा रहे हैं लेकिन शायद श्रीमति वर्मा और रोहित को यह सहूलियत नहीं थी और थी भी तो बहुत सीमित रही होगी क्योंकि रश्मि घर में थी .  श्रीमति वर्मा तो एक बारगी अपने बेडरूम से वीडियो काल कर भी सकतीं थीं लेकिन रोहित यह रिस्क नहीं ले सकता था . जिस प्यार या अफेयर पर दस साल से परदा पड़ा था और जो चोरी चोरी चुपके चुपके परवान चढ़ चुका था वह परदा अगर जरा सी बेसब्री में उठ जाता तो लेने के देने पड़ जाते .

लेकिन न न करते ऐसा हो ही गया . 30 अप्रेल की सुबह श्रीमति वर्मा रोहित के घर पहुँच ही गईं . कहने को तो अब कहानी में कुछ खास नहीं रह गया है लेकिन मेरी नजर में कहानी शुरू ही अब होती है . रश्मि किचिन से चाय बनाकर निकली तो उसने देखा कि रोहित एक महिला से पूरे अपनेपन और अंतरंगता से बतिया रहा है तो उसका माथा ठनक उठा . खुद पर काबू रखते उसने जब इस बात का लब्बोलुआब जानना चाहा तो सच सुनकर उसके हाथ के तोते उड़ गए .

श्रीमति वर्मा ने पूरी दिलेरी से कहा कि वे और रोहित एक दूसरे से प्यार करते हैं और लॉकडाउन की जुदाई उनसे बर्दाश्त नहीं हो रही थी इसलिए वे रोहित से मिलने चलीं आईं .  इतना सुनना भर था कि रश्मि का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा उसने सवालिया निगाहों से रोहित की तरफ देखा तो माजरा झट से उसकी समझ आ गया . चोर निगाहों से इधर उधर देखते रोहित की हिम्मत पत्नी से निगाहें मिलकर बात करने की नहीं पड़ी .

रश्मि की हालत काटो तो खून नहीं जैसी थी लिहाजा वह आपा खोते हिस्टीरिया और सीजोफ़्रेनिया के मरीजों जैसी फट पड़ी . जब एक पत्नी का भरोसा आखो के सामने पति पर से उठता है तो उसकी हालत क्या होती होगी यह सहज समझा जा सकता है . अब ड्राइंग रूम में कहानी के तीनों प्रमुख किरदार मौजूद थे और अपनी अपनी भूमिकाएँ तय कर रहे थे . खामोशी से शुरू हुई बात जल्द ही कलह और तू तू मैं मैं में बदल गई . रोहित बेचारा बना प्रेमिका और पत्नी के बीच अपराधियों सरीखा खड़ा था उसके चेहरे से मास्क यानि नकाब उतर चुका था .

कहते हैं सौत तो पुतले या मिट्टी की भी नहीं सुहाती फिर यहाँ तो रश्मि के सामने साक्षात श्रीमति वर्मा खड़ी थीं जिनके चेहरे या बातों में कोई गिल्ट नहीं था . उल्टे हद तो तब हो गई जब बात बढ़ते देख उन्होने रश्मि से यह कहा कि चाहो तो मेरी सारी जायदाद ले लो लेकिन मेरा रोहित मुझे दे दो , मुझे उसके साथ रह लेने दो .

पानी अब सर से ऊपर बहने लगा था इसलिए रश्मि ने चिल्लाना शुरू कर दिया रोहित अब भी खामोशी से सारा तमाशा देख रहा था इसके अलावा कोई और रास्ता उसके पास बचा भी नहीं था . दृश्य अनिल कपूर , श्रीदेवी और उर्मिला मांतोंडकर अभिनीत फिल्म जुदाई जैसा हो गया था , जिसमें मध्यमवर्गीय श्रीदेवी  रईस उर्मिला को पैसो की खातिर पति अनिल कपूर को न केवल सौंप देती है बल्कि दोनों की शादी भी करा देती है .

इस मामले में पूरी तरह ऐसा नहीं था फिल्म में अनिल कपूर उर्मिला को नहीं चाहता था बल्कि उर्मिला ही उस पर फिदा हो गई थी और श्रीदेवी की पैसों की हवस देखते उसने अपना प्यार और प्रेमी खरीद लिया था . इधर हकीकत में रोहित अब हिम्मत जुटाते रश्मि को यह कहते शांत कराते यह कह रह था कि श्रीमति वर्मा उसकी प्रेमिका नहीं बल्कि दोस्त हैं जो अकेलेपन से घबराकर सहारा मांगने चली आई है .

एक तो चोरी और ऊपर से सीनाजोरी की तर्ज पर पति की यह सफाई सुनकर  रश्मि और भड़क उठी और इतनी भड़की कि उनके पड़ोसी को शोरशराबा सुनकर उनके घर की कालबेल बजाने मजबूर होना पड़ा . आगुंतक पड़ोसी का नाम अशोक जी मान लें जो अंदर आए तो नजारा देख सकपका उठे . यकीन माने अशोक जी अगर ठीक वक्त पर एंट्री न मारते तो मुझे यह कहानी मनोहर कहानिया या सत्यकथा के लिए पूरा मिर्च मसाला उड़ेल कर लिखनी पड़ती .

अशोक जी ने मौके की नजाकत को समझा और तुरंत पुलिस को इत्तला कर दी . पुलिस के आने तक उनका रोल मध्यस्थ सरीखा रहा जो दरअसल में एक हादसे को रोकने का भी पुण्य कमा रहा था . इस दौरान भी श्रीमति वर्मा यह दोहराती रहीं कि वे अपनी सारी प्रापर्टी रश्मि के नाम करने तैयार हैं लेकिन एवज में उन्हें रोहित के साथ रहने की इजाजत चाहिए . लेकिन चूंकि रश्मि श्रीदेवी की तरह पति बेचने को तैयार नहीं थीं क्योंकि उसने शायद जुदाई  फिल्म देखी थी कि फिल्म के क्लाइमेक्स में जब अनिल कपूर उर्मिला के साथ जाने लगता है तो उसकी हालत पागलों सरीखी हो जाती है और तब उसे पति की अहमियत समझ आती है और उसके प्यार का व रिश्ते का एहसास होता है .

खैर पुलिस आई और सारा मामला सुनने समझने के बाद हैरान रह गई मुमकिन है लॉकडाउन की झंझटों के बीच कुछ पुलिस बालों को इस अनूठी प्रेम कहानी पर हंसी भी आई हो लेकिन उसे उन्होने दबा लिया हो . बात अब घर की दहलीज लांघ कर परिवार परामर्श केंद्र तक जा पहुंची जिसकी काउन्सलर सरिता राजानी ने वीडियो कांफ्रेसिंग के जरिए विवाद सुलझाने की कोशिश की . बात श्रीमति वर्मा के बेटे बहू से भी की गई लेकिन कोई समाधान नहीं निकला . श्रीमति वर्मा अंगद के पैर की तरह अपने प्रेमी के घर जम गईं थीं यह रश्मि के लिए नई मुसीबत थी .

सरिता राजानी को जो समझ आया वह इतना ही था कि श्रीमति वर्मा बेटे बहू की अनदेखी और अबोले के चलते लॉकडाउन के अकेलेपन से घबराकर रोहित के घर आ गईं थीं . इधर रश्मि का कहना यह था कि शादी के 14 साल बाद रोहित ने उसे धोखा दिया है जिसके लिए वे कभी उसे माफ नहीं करेंगी . रोहित के पास बोलने कुछ खास था नहीं उसकी चुप्पी ही उसका कनफेशन थी . दिन भर एक दिलचस्प काउन्सलिन्ग वीडियो कांफ्रेसिंग के जरिए चली जिसका सुखद नतीजा यह निकला कि श्रीमति वर्मा अपने घर वापस चली गईं लेकिन कहानी अभी बाकी है .

अब जो भी हो लेकिन अभी तक जो भी हुआ वह आमतौर पर इस तरह नहीं होता . हर किसी के विवाहेत्तर संबंध होते हैं जिनमे से अधिकांश अस्थायी होते हैं पर जो स्थाई हो जाते हैं उनका अंजाम तो वही होता है जो इस मामले में हुआ . ऐसे अफसानो को कोई साहिर लुधियानबी किसी खूबसूरत मोड पर नहीं ले जा सकते .  इनकी मंजिल तो अलगाव या ज़िंदगी भर की घुटन ही होती है और यह तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि आखिर दोष किसके सर मढ़ा जाए .

एक अनुभवी लेखक होने की नाते मैं पाठकों की यह जिज्ञासा बखूबी समझ रहा हूँ कि आखिर श्रीमति वर्मा और रोहित के बीच शारीरिक यानि नाजायज करार दिए जाने बाले संबंध थे या नहीं .  कुछ तो झल्लाकर यह तक सोचने लगे होंगे कि एक तरफ फेंको यह किस्सा और फलसफा  पहले मुद्दे और तुक की बात करो . लेकिन पूरी लेखकीय चालाकी दिखाते मैं इतना ही कहूँगा कि हो भी सकते हैं और नहीं भी .  वैसे भी इस मसले पर कुछ कहना बेमानी होगा इसलिए पाठक खुद अंदाजा लगाने स्वतंत्र हैं . ऊपर मैंने श्रीमति वर्मा की तुलना किसी स्कूली लड़की से जानबूझकर एक खास मकसद से की है और इसके लिए अब हमें कहानी से बाहर आकर सोचना पड़ेगा .

मेरे लिए दिलचस्प और चिंतनीय बात एक अधेड़ महिला का सारे बंधन तोड़कर अपने प्रेमी के यहाँ बेखौफ पहुँच जाना है जो जानती समझती है कि इसका अंजाम और शबब सिवाय जग हँसाई और बदनामी के कुछ नहीं होगा . दिल के हाथों मजबूर लोग मुझे इसलिए अच्छे लगते हैं कि उनमें एक वो हिम्मत होती है जो धर्म , समाज और घर परिवार नाते रिश्तेदारी किसी की परवाह नहीं करती .  वह अपने प्यार के बाबत किसी मुहर या किसी तरह की स्वीकृति की मोहताज नहीं उसका यह जज्बा और रूप नैतिकता से परे मेरी नजर मैं एक सेल्यूट का हकदार है .

रोहित को भी दोषी मैं नहीं मानता क्योंकि उसने समाज से उपेक्षित और लगभग प्रताड़ित विधवा को भावनात्मक सहारा दिया .  यहाँ मैं इस प्रचिलित मान्यता को भी खारिज करता हूँ कि किसी विवाहित पुरुष को पत्नी के अलावा किसी दूसरी स्त्री से प्यार नहीं करना चाहिए . मुझे मालूम है अधिकतर लोग मेरी इस दलील से इत्तफाक नहीं रखेंगे लेकिन मेरी नजर में ये वही लोग होंगे जो यह राग अलापेंगे कि किसी विधवा को तो प्यार करने जैसी हिमाकत करनी ही नहीं चाहिए .  उसके लिए तो उन्हीं सामाजिक और धार्मिक दिशा निर्देशों का पालन करते रहना चाहिए जो राज कपूर की फिल्म प्रेम रोग में दिखाए गए है . फिल्म का कथानक रूढ़ियों और खोखले उसूलो में जकड़े एक ठाकुर जमींदार खानदान के इर्द गिर्द घूमता रहता है .

इस फिल्म में नायक की भूमिका में हाल ही में दुनिया छोड़ गए ऋषि कपूर थे . नायिका पद्मिनी कोल्हापुरे विधवा हो जाती है तो उस पर तरह तरह के अमानवीय जुल्म उसके ससुराल और मायके बाले ढाते हैं .  यहाँ तक कि उसके जेठ की भूमिका निभा रहे रजा मुराद तो उसका बलात्कार तक कर डालते हैं .  एक दृश्य में यह भी दिखाया गया गया है कि विधवा नायिका के मुंडन तक की तैयारियां हो गई हैं . नायिका जब वापस मायके आती है ऋषि कपूर से उसका प्यार परवान चढ़ने लगता है .  इसकी भनक जैसे ही ठाकुरों को लगती है तो वे भड़ककर बंदूक उठा लेते हैं . ऐसे में इस फिल्म में शम्मी कपूर द्वारा बोला यह डायलोग बेहद प्रासंगिक और उल्लेखनीय है कि समाज सहारा देने होना चाहिए न कि छीनने .

चल रही इस कहानी में इकलौता पेंच या उलझन रोहित का शादीशुदा होना है .  कहा जा सकता है कि उसने रश्मि से बेबफाई की , उसे धोखा दिया . इस मोड पर मेरे ख्याल में हमे धैर्य और समझ से काम लेना चाहिए . श्रीमति वर्मा से प्यार करने का हक छीना नहीं जा सकता और न ही रोहित से सिर्फ इस बिना पर कि वह शादीशुदा है . दो टूक सवाल ये कि क्या कोई शादीशुदा मर्द प्यार करने का हक नहीं रखता या कोई भी पति , पत्नी के अलावा किसी और औरत से प्यार करने का हकदार क्यों नहीं माना जाना चाहिए . एक साथ दो स्त्रियों से प्यार करना गुनाह क्यों जबकि वह दोनों को भावनात्मक और शारीरिक संतुष्टि या सुख दे सकता है .

रश्मि का तो कोई दोष ही नहीं जो एक सीधी सादी घरेलू महिला है.  उसके लिए तो उसका पति और प्यार ही सब कुछ है पर उसका भरोसा ही नहीं बल्कि दिल भी टूटा है . मैं उससे इतने बड़े दिल की होने की उम्मीद नहीं करता कि वह पति की बेबफाई को पचा ले लेकिन यह उम्मीद तो उससे की जा सकती है कि वह श्रीमति वर्मा की हालत समझे . रोहित ने उन्हें बुरे वक्त में सहारा दिया इसके लिए वह उसकी तारीफ भले ही न करे और कर भी नहीं सकती लेकिन महिला होने के नाते यह तो समझ ही सकती है कि पति की प्रेमिका किन हालातों में उसके नजदीक आई और इस तरह दस साल रोहित के साथ गुजारे कि किसी को हवा तक नहीं लगी . वैसे भी यह विवाहेत्तर सम्बन्धों का पहला या आखिरी उजागर मामला नहीं है .

कहानी को दिए शीर्षक के मुताबिक यह बताना भी मेरी लेखकीय ज़िम्मेदारी है कि अगर सभी बेगुनाह हैं हैं तो फिर दोषी कौन है  . उसका नाम बताने के पहले मैं यह जरूर बताना चाहूँगा कि ऐसे मामले जब तक उजागर नहीं होते तब तक कोई नोटिस नहीं लेता यानि ढका रहे तो गुनाह गुनाह नहीं रह जाता . यह मामला उजागर हुआ है तो मेरी नजर में दोषी है – 

 

चलो रे डोली उठाओ: साची ने क्यों चुनी किताब की राह

नीचे से साची की चहकती हुई आवाज आई, मैं झट से सीढ़ियां उतरती हुई बोली, “क्या हो गया, इतनी खुश क्यों लग रही है? मम्मी पापा बाहर जा रहे हैं क्या?’’

मेरी इस बात पर मम्मी ने मुझे घूर कर देखा तो मैं हंस दी. साची ने मुझे इशारा किया कि ऊपर तेरे रूम में ही चलते हैं. मैं ने कहा, आ जा, साची, मेरे रूम में ही बैठते हैं, मम्मी यहां स्कूल का रजिस्टर खोल कर बैठी हैं, उन्हें डिस्टर्ब होगा.’’

पर मम्मी तो मम्मी हैं, ऊपर से टीचर. मेरे जैसी पता नहीं कितनी लड़कियों से दिनभर स्कूल में निबटती हैं, बोलीं, “नैना, आ जाओ, यहीं बैठ जाओ, कुछ डिस्टर्ब नहीं होगा.’’

“हम ऊपर ही जाते हैं,’’ कह कर मैं साची को अपने रूम में ले गई. मैं ने कहा, “चल बोल, आज सुबहसुबह 10 बजे कैसे आई?’’

साची ने थोड़ा ड्रामा करते हुए गुनगुनाया, “चलो रे डोली उठाओ कहार, पिया मिलन की रुत आई…’’

मैं ने उस की कमर पर एक धौल जमाया, बकवास नहीं, जल्दी बताओ.’’

“वह जो पिछले हफ्ते लड़के वाले देखने आए थे न, उन्होंने हां कर दी है और वे शादी भी जल्दी करना चाह रहे हैं. वही ध्रुव, जो मुझे देखते ही पसंद आ गया था. हाय, क्या बताऊं कितनी ख़ुशी हो रही है.’’

“अरे वाह, मुबारक हो, मुबारक हो,’’ कहते हुए मैं ने उसे गले से लगा तो लिया पर मैं मन ही मन जल मरी. देखो तो, कैसी खुश हो रही है, हाय, इस की भी शादी हो रही है. एकएक कर के सब ससुराल चली जा रही हैं और मैं क्या इन की शादियों में बस नाचती रह जाऊंगी. दुख से मुझे रोना आ गया, मेरे आंसू सच में बह निकले जिन्हें देख कर वह चौंकी, बचपन की सहेली है नालायक, सारी खुराफातें साथ ही तो की हैं, एकदूसरे की नसनस तो जानती हैं हम, बोली, “क्या हुआ नैना, फिर वैसी ही जलन हो रही है जैसे हमें अब तक अपनी दूसरी सहेलियों की शादी होते देख होती है?’’

मुझे हंसी आ गई, सोचा अब क्या झूठ बोलना, कहा, “हां, यार, जलन तो बहुत हो रही है पर दुख भी हो रहा है कि मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगी,” कहतेकहते अब की बार मेरे सच्चे प्यार और दोस्ती वाले आंसू बह गए तो वह मेरे गले लग गई, बोली, “यहीं लोकल ही तो है ससुराल, मिलते रहेंगे, नैना. तू आती रहना.’’

“सुन, तेरा कोई देवर है?’’

“न, ध्रुव अकेला है.’’

“मर, तू किसी काम की नहीं.’’

“बरात में ही अब देखना. कोई पसंद आता है तो बताना.’’

इतने में मम्मी कुछ फल काट कर ले आईं और हमारे पास ही बैठ गईं, पूछा, “किस की बरात है भई, क्या देखना है?’’

मम्मी के कान कितने तेज हैं.

मैं ने एक आस के साथ कहा, “मम्मी, इस की भी शादी हो रही है.’’

मम्मी ने कहा, “अरे, इतनी जल्दी!’’

मैं ने कहा, “कहां जल्दी है, मम्मी, हमारा एमए पूरा होने वाला है. लगभग सब लड़कियों की कहीं न कहीं बात चल रही है.’’

“फिर भी, पढ़ाई ख़त्म हो जाए, अपने पैरों पर खड़े होने के बाद ही शादी करनी चाहिए.’’

मुझे अपनी मम्मी पर इन बातों पर इतना गुस्सा आता है कि क्या बताऊं.

“बेटा, अपने मम्मीपापा से कहो कि हो सके तो लड़के वालों से बात कर लें कि तुम कहीं जौब कर लो तब तक रुक सकें तो. तुम कहो तो मैं उन से बात कर सकती हूं.’’

मम्मी भी न, कुछ नहीं समझतीं.

मैं ने झट कहा, “नहीं मम्मी, जो हो रहा है, अच्छा हो रहा है, यही तो उम्र है शादी की.” पता नहीं कैसे न चाहते हुए भी मेरे मुंह से निकल ही गया.

“क्या? तुम्हें कुछ नहीं पता. लड़कियों का आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है,’’ कहते हुए मम्मी नीचे जाने के लिए उठ गईं. उन के जाते ही मैं शुरू हो गई, “यार, ये मेरी मां भी न. अरे, नहीं होना है हमें आत्मनिर्भर. हम खुश हैं ऐसे ही. जो ले जाएगा, खिला लेगा. पहले कहां कमाती थीं लड़कियां. यार, मैं अपने मौडर्न मम्मीपापा से परेशान हो चुकी हूं. समझते ही नहीं. सारा दिन कैरियर की बातें. बहुत बोरिंग बातें करते हैं दोनों. मम्मी टीचर, पापा डाक्टर. यार, मैं कहां जाऊं. ये नवीन भैया भी बिलकुल मम्मीपापा की तरह बातें करने लगे हैं.

“मुझ से 2 साल बड़े हैं. कल उन के लिए रिश्ता आया तो कहा है कि अभी कैरियर बना रहे हैं. भई, कितना कैरियर बनाना है, अच्छाख़ासा कमा रहे हैं. मेरे लिए रिश्ता आया तो भैया ने कहा कि अभी तो नैना छोटी है, अभी तो सैट भी नहीं हुई. अरे, शादी करनी है मुझे. ये लोग क्यों ध्यान नहीं दे रहे.’’

मुझे साची की यही बात अच्छी लगती है जब मैं अपनी भड़ास निकाल रही होती हूं तो वह मुझे रोकती नहीं. पूरी बकवास अच्छी तरह करने देती है. जब मैं चुप हुई, उस ने कहा, “दुखी न हो, दोस्त, तेरा भी टाइम आएगा. तेरी भी डोली सजेगी, हाथों में मेहंदी लगेगी, पर हां, उस से पहले तू अपना कैरियर बना ले,’’ बात ख़म होतेहोते उसे शरारत सूझ गई तो मैं ने उसे लात मारमार कर बैड से गिरा दिया. फिर हम दोनों हंसने लगीं. उस ने और शरारत से कहा, “यार, रिश्ता पक्का होते ही पता नहीं कहांकहां दिमाग दौड़ने लगा है.’’ यह कहतेकहते उस के सुंदर

मुखड़े पर शर्म की लाली मुझे बहुत प्यारी लगी, कहा, “जरा मैं भी सुनूं तो, कहांकहां दिमाग जा रहा है?’’

“वही कि सुहागरात पर क्या होगा.’’

“वही होगा जो अपने मामा के घर जा कर कजिन के दोस्त अनिल के साथ कर के आई थी पिछले साल.’’

उस ने उठ कर मेरे मुंह पर हाथ रख दिया, शर्म करो, लड़की, दोस्त हो या दुश्मन? दीवारों के भी कान होते हैं. अब ये बातें सुनना भी मेरे लिए पाप है.’’

“ड्रामेबाज.’’

थोड़ी देर बाद वह जाने के लिए उठ गई. जातेजाते बोली, “अब शौपिंग शुरू करेंगे, फ्री रहना, साथ रहना.’’

“मैं तो फ्री ही रहूंगी, मेरी शादी के टाइम सब अपनी ससुराल में बैठी होंगी. बच्चे खिला रही होंगी. मेरे जवान अरमान मचले जा रहे हैं और मेरे मम्मीपापा के सपनों की भेंट चढ़ रहे हैं, हाय, मेरी डोली कब उठेगी.’’

“बेटा, तुम कैरियर पर ध्यान दो.’’

“तुम दफा हो जाओ.’’

‘पालकी पे होके सवार, चली रे मैं तो अपने साजन के गांव, चली रे…,’ गाते हुए वह मुझे छेड़ती हुई जाने लगी तो मैं ने कहा, “मन कर रहा है तुम्हें सीढ़ियों से धक्का दे दूं.’’

वह हंसती हुई चली गई. मैं अपने बैड पर लेट गई. मन सचमुच उदास था, साची और मैं बचपन से अब तक हमेशा साथ रहे. उस का घर ठीक हमारे घर के सामने है. खतौली के एक महल्ले में हमारे परिवार सालों से साथ हैं. उस की एक बड़ी बहन है जो दिल्ली में रहती है. उन की शादी में मेरे नवीन भैया ने ही हर काम संभाल रखा था. मम्मीपापा दोनों बच्चों के कैरियर को बहुत गंभीरता से लेते हैं. आज के जमाने में तो कोई भी लड़की ऐसे पेरैंट्स पर गर्व करेगी पर मैं क्या करूं, मेरे सपने कुछ और हैं, मैं कुछ और चाहती हूं.

मेरा तो मन शादी करने का करता है, पता नहीं कैसेकैसे अरमान मचलते रहते हैं, ये मम्मी भी तो इस उम्र से गुजरी होंगी. उन्हें समझ नहीं आता क्या कि इस उम्र में लड़की क्याक्या सोचती है. सब जबान से कहना ही जरूरी है क्या. हद है. अरे, खुद भी तो शादी के बाद पढ़ी हैं, मैं भी पढ़ लूंगी. कितना मन करता है कि एक अच्छा सा पति मिल जाए, जीभर कर रोमांस करूं. 2 प्यारे बच्चे हो जाएं, सजीसंवरी घूमती रहूं. यहां तो जवानी ज़ाया हुई जा रही है. अरे, मुझे नहीं बनाना कैरियरवैरियर. शादी कर दो मेरी. जरूरी तो नहीं कि दुनिया की हर लड़की कैरियर ही बनाए.

इतने में मम्मी की नीचे से आवाज आई, “नैना, मैं कालेज के लिए निकल रही हूं, टाइम से कालेज चले जाना. सब काम अंजू से करवा लेना.”

ठीक है मम्मी, बाय, कहतेकहते मैं रोज की तरह नीचे आ कर मम्मी को गाल पर किस करने लगी तो उन्होंने प्यार से मुझ से कहा, “बेटा, टाइम मत खराब करना. तुम्हारे एक्जाम्स भी आने वाले हैं. मैं आज तुम्हारी पीएचडी के लिए भी प्रोफैसर शर्मा से बात करूंगी.’’

मुझे करंट लगा, “मम्मी, पीएचडी. क्यों?”

“फिर अच्छे कालेज में प्रोफैसर बन सकती हो. लड़कियों के लिए टीचिंग बेस्ट जौब है.’’

मैं बेहोश होतेहोते बची. पीएचडी. ये मेरी मां ऐसी क्यों है? मेरी शादी की किसी को चिंता नहीं? हाय. क्या होगा मेरा.

अगले कुछ दिन मैं और साची टाइम मिलते ही उस की शादी की शौपिंग में व्यस्त हो गए. हम अकसर मेरठ या दिल्ली उस की कार से जाते. वह कार चला लेती थी. शौपिंग करते हुए मैं अकसर स्मार्ट लड़कों को जीभर कर देखती और उस से कहती, “हाय, मैं कब अपनी शादी की शौपिंग करूंगी? मेरे पेरैंट्स तो मुझे प्रोफैसर बना कर छोड़ेंगे. तुम तो कई बार अफेयर कर चुकी, तुम ने तो हर आनंद उठा रखा है, मैं अपने जवान, अनछुए सपनों का क्या करूं, यार. मुझे भी शादी करनी है.’’

“देख नैना, तेरी तो अभी होती मुझे दिख नहीं रही. तू भले ही एकदो अफेयर चला कर थोड़ा मौजमस्ती कर ले. तो शायद तेरे दिल को चैन आए. अफेयर से भी थोड़ा मन बहला रहेगा.’’

“हम गर्ल्स कालेज में पढ़ते हैं. कहां से लड़के लाऊं. आतेजाते भी नहीं दिखता कोई ऐसा. तेरी तरह मेरा कोई कजिन भाई भी नहीं है. मेरे भाई के तो दोस्त भी घर नहीं आते, जो आते हैं, अच्छे हैं पर नालायक मुझ से राखी बंधवाते हैं. भैया का एक दोस्त इतना अच्छा लगता था, कम्बख्त ने मुझ से राखी बंधवा ली. सुन, क्या मेरी शक्ल पर लिखा है कि मैं कैरियर बनाना चाहती हूं?”

साची से जितना मरजी ड्रामा करवा लो. मुझे ध्यान से देखती हुई बोली, “नहीं, शक्ल तो रोमांस को तरसी हुई लगती है.’’

“साची, मन करता है तुझे कहीं बंद कर दूं जिस से तू भी ससुराल न जा पाए.’’

“मुझे लगता है, सारी गलती तेरी है. तू इतने अच्छे नंबर क्यों लाती रही कि अंकलआंटी को लगा कि तू पढ़ाई में बहुत सीरियस है. हमेशा फर्स्ट आती रही तो यही होना था. मुझे देख कितने खराब नंबर से पास हुई हमेशा कि घर में सब यही बात करते कि इस के बस की पढ़ाई नहीं है, इस की शादी कर दो. कितना आसान था, देख. मेहनत भी नहीं की कभी, और शादी भी टाइम से हो रही है. तू तो बस अब मेरे संगीत में नाचने की तैयारी कर और कैरियर बना.’’

“आई हेट यू, साची. तू मेरी दोस्त नहीं, दुश्मन है.!’’

“तेरी बात पर मुझे यकीन नहीं. चल, अब लहंगे देखते हैं,’’ बात करतेकरते हम दोनों एक शौप में घुस गए. मैं सचमुच अब काफी बिजी थी, पढ़ाई और साथसाथ साची की हर हैल्प के लिए हमेशा उस के साथ रहती. फिर हम दोनों एक दिन उस के लिए शादी के बाद पहनने वाली नाइट ड्रैसेस लेने गए. हाय, एक से एक सैक्सी ड्रैसेस सामने थीं. मेरे मुंह से एक आह निकल गई. वह हंस पड़ी और शर्माते हुए पता नहीं कैसीकैसी ड्रैसेस खरीदने लगी, यहां तक कि उस ने मुझे भी पहन कर दिखा दी. वह सचमुच उन जराजरा सी ड्रैसेस में कमाल लग रही थी. मैं ने वहां से निकलते हुए कहा, “यार साची, तू तो बहुत एंजौय करने वाली है. हाय, ये कपड़े देख कर तो ध्रुव राजा अपने होश खो बैठेंगे. तुम दोनों तो बहुत रोमांस करने वाले हो न.’’

“हां, मुझे भी लगता है, शादी टाइम से हो जाए तो अच्छा रहता है. एक उम्र होती है जब शरीर में उमंगें होती हैं. मन बातबात पर खुश होना चाहता है. यार, मैं सारा दिन ध्रुव के बारे में सोचने लगी हूं. तेरे लिए हमदर्दी है पर देखती हूं, ससुराल में कोई अच्छा, स्मार्ट लड़का दिखा तो तेरा कुछ करती हूं.’’

हां यार, ध्यान रखना. सोच रही हूं तेरी बात ही ठीक है. एकाध अफेयर भी चल जाए तो लाइफ में रौनक रहेगी. बड़ी सपाट जा रही है जवानी.’’

हम दोनों यों ही पूरा दिन बिता कर दिल्ली से वापस आए तो मम्मीपापा डिनर पर हमारा इंतज़ार कर रहे थे. संडे था, मम्मी ने साची को भी मैसेज कर दिया था कि वह भी हमारे साथ ही डिनर करे.

हम दोनों फ्रैश हो कर ऊपर मेरे रूम में उस का सब सामान रख कर नीचे आए. आजकल वो अपना कुछ स्पैशल सामान खरीद कर मेरे रूम में ही रख देती, जैसे कि अभी उस ने नाइट ड्रैसेस ली थीं, कुछ हनीमून पर पहनने के लिए ख़ास अश्लील कपड़े लिए थे जिन्हें वह घर नहीं ले जाना चाहती थी. उस का मूड था कि वह इन की पैकिंग भी मेरे रूम में कर लेगी.

इतने में भैया भी आ गए. हम सब ने साथ खाना खाया. सब साची से उस की शादी की तैयारियों की बातें करते रहे. वह चहकचहक कर बताती रही. फिर उस ने हिम्मत कर के दोस्त होने का फ़र्ज़ पूरा करते हुए कह ही दिया, “आंटी, नैना के लिए भी देखो न कोई लड़का. मेरे जाने के बाद इस का मन नहीं लगेगा.’’

“नहीं, अभी नहीं. अभी पहले उसे अपने पैरों पर खड़ा होना है,” मम्मी खाना खाते हुए आराम से बोलीं तो मेरा मन हुआ कि उठ कर मम्मी को झिंझोड़ दूं और कहूं कि मम्मी, देखो अपनी बेटी की आंखों में. क्या दिखता है आप को? हसीं सपने या किसी जौब की चाहत? मां तो बच्चों के दिल की बात आसानी से समझ लेती है पर अब कहां हैं वे माएं जो रातदिन बेटी की शादी की चिंता करती थीं. हाय, मम्मी, मुझे नहीं बनाना कैरियर.

खाना खा कर साची अपने घर चली गई. मैं भी थक गई थी, ऊपर आ कर बैड पर लेट कर सुस्ताने लगी तो मम्मी आईं. मेरे सिर पर हाथ फिराते हुए बोली, “बेटा, थक गई क्या? आज मैं ने कुछ प्रोफैसर से बात कर ली है, उन्होंने तुम्हें गाइड करने के लिए हाँ कर दी है और यह देखो, अभी से कुछ किताबें आज ही भिजवा भी दीं कि अपनी पढ़ाई के साथसाथ इन पर भी नजर डाल लेना कि किस विषय पर आगे काम करना चाहोगी.’’

मेरा दिल रुकने को हुआ, मैं ने आंखें बंद कर लीं. मम्मी मेरा माथा चूम कर चली गईं. मेरे स्टडी डैस्क पर नई किताबें रखी थीं. उन पर एक नजर डाल कर मैं नें उन की तरफ से करवट ले ली. आंखें फिर बंद कीं तो साची की हनीमून की ड्रैसेस आंखों के आगे घूम गईं और मेरे मन में फिर वही गाना चलने लगा जो आजकल साची गुनगुनाती रहती है, ‘चलो रे डोली उठाओ कहार, पिया मिलन की रुत आई…’

पर फिर मैं ने खुद ही पैरोडी बना ली, ‘दफा ही हो जाओ कहार, यहां तो किताबों की रुत आई.’

मैं ने अपनी धुन साची को फोन पर हंसते हुए सुनाई. वह देर तक हंसती रही और मैं बीचबीच में कलपती रही.

लड़कियां: महिलाओं के बीच अकेला औफिस में फंसा वह शख्स

नए औफिस में लड़कियां ज्यादा थीं. नहीं-नहीं यह कहना गलत होगा. दरअसल, यहां सिर्फ वह अकेला मर्द है. बाकी सब औरतें. उस ने हैड औफिस में अपने बौस से रिक्वैस्ट की है जैसे भी हो इस महिलाबहुल प्रतिष्ठान से उसे निकाल दिया जाए या एकाध पुरुष को और भेज दिया जाए. वह कुछ दिनों पहले ही यहां आया था.

ये लड़कियां पूरे समय या तो अपनी सास की बातें करती रहती हैं या फिर किसी रैसिपी पर डिसकस करतीं, कभीकभी कपड़ों की बातें करती हैं. हद तो तब हो जाती जब नैटफ्लिक्स की स्टोरी सुनाई जा रही होती है.

हैरत की बात है कि पीठ पीछे एकदूसरे की चुगली करने वाली लड़कियां लंच टाइम में एक हो जाती हैं. मिलबांट कर खाना खाया जाता है. पीछे की दुकान से समोसे मंगा कर खाए बिना उन का खाना पूरा न होता है.

‘जो जी चाहे करो. प्रजातंत्र है… सब अपनी मरजी के मालिक हो. बस इतनी कृपा करना देवियो कि जिस कंपनी की तनख्वाह ले रही हैं उस का भी कुछ काम कर देना,’ वह मन ही मन सोचता रहता.

उस की आदत है कम बोलने की और अपना काम दुरुस्त रखने की. मन ही मन गौरवान्वित होता है कि बौस ने उसे जानबू  झ कर भेजा है इस औफिस में. इन लड़कियों की मदद करने के लिए पुरुषोचित अभिमान से सीना चौड़ा हो जाता है उस का.

काम करने के गजब तरीके हैं इन लड़कियों के पहली बार जब कुछ नया काम या नया ऐप खोलना होता तो उन में से 1-2 घबरा जातीं, एक से दूसरे के डैस्कटौप पर काम ट्रांसफर करतीं, मक्खियों की तरह भिनभिन करतीं और फिर काम पूरा होने पर ऐसे चैन की सांस लेतीं जैसे ऐवरैस्ट की चढ़ाई फतह कर ली हो.

वह सोचता है कि जितनी देर आपस में गप्पें लगाती हैं. अगर उतनी देर सैटिंग्स पर जा कर कुछ देखो, इंस्ट्रक्शन पढ़ो, सम  झो, सारा काम करना सीख जाएंगी.

तभी उस की तंद्रा टूटी.

‘‘सर, आप को पता है फ्राइडे हमारे औफिस में कैजुअल्स पहन के आते हैं. आप जींस पहन कर आइए न सर,’’ इन लड़कियों में जो सब से ज्यादा बातूनी है, उस ने कहा.

वह उस की बात हवा में उड़ाते हुए रुखाई से बोला, ‘‘हैड औफिस से फोन आया था. डाइरैक्टर साहब को रिपोर्ट करनी है. अगर आप का काम पूरा हो गया हो तो हम निकलें?’’ कहतेकहते वह थोड़ा सख्त हो गया.

लड़की ने भांप लिया और फिर बोली, ‘‘जी सर, बस एक नजर डाल लूं.’’

उस के चेहरे पर पड़ती शिकनें देख कर वह हंस पड़ी, ‘‘सर काम पर नहीं, शीशे पर नजर डालनी है. जरा टचिंग कर के आती हूं… काम पूरा है सर.’’

‘अजीब बेशर्म लड़की है. कुछ भी कह लो इस पर जूं नहीं रेंगने वाली. एक आदत खास है इस में कभी पूछेगी नहीं. हमेशा कुछ बताएगी,’ वह मन ही मन भुनभुनाया.

कार में बैठते ही लड़की का रिकौर्ड चालू हो गया.

‘‘यहां पर आने से पहले 2 साल तक विदेश में थी सर, फिर लौट आई.’’

‘‘क्यों पीआर नहीं मिला क्या?’’ वह बोला.

‘‘जी नहीं यह बात नहीं है. पीआर था, नौकरी भी ठीकठाक थी, पर मेरे हस्बैंड ने कहा वापस चलते हैं तो मैं ने भी अपना मन बदल लिया. यहां पर सारे लोग हैं. मेरे मम्मीपापा, मेरे इनलौज. हम दोनों के फ्रैंड्स, फिर कामवाली बाइयां.

‘‘दरअसल, मु  झे भीड़ अच्छी लगती है, इतनी कि बस टकरातेटकराते बचो.’’

फिर वह गंभीर हो गई. बोली, ‘‘यह बात भी नहीं सर. बात कुछ और ही थी… मेरे बेटे में अपने रंग को ले कर हीनभावना आ गई थी. उस ने कहा कि टीचर गोरे (अंगरेज) बच्चों को ज्यादा प्यार करती है. बस सर, मैं ने अपना मन बदल लिया. वापस आ गए हम दोनों.

‘‘बुरा नहीं लगता आप को,’’ उस ने लड़की से पूछा.

‘‘बुरा क्यों लगेगा?’’

‘‘अपना देश है जैसा भी है… टेढ़ा है पर मेरा है.’’

तभी लालबत्ती पर कार रुक गई. लड़की ने फटाफट अपना बैग खोला और एक पोटलीनुमा पर्स निकाला. थोड़ा सा कार का शीशा नीचे किया और फिर बच्चेमहिलाएं भीख मांग रहे थे, उन्हें पैसे बांटने लगी.

तभी कार चल पड़ी.

उस ने देखा एक छोटा लड़का सड़क से फ्लाइंग किस उछाल रहा था, जिसे इस ने लपक कर कैच कर लिया.

वह बोला, ‘‘कभी भी इन लोगों को पैसे नहीं देने चाहिए. ये आप का बैग छीन कर भाग सकते हैं.’’

‘‘जी सर सही कह रहे हैं पर क्या है न अब परिस्थितियां बदल गई हैं. क्या पता कौन किस मजबूरी में भीख मांग रहा हो. इसलिए मैं ने अपने विचारों को थोड़ा बदल लिया है. मेरा छोटा सा कंट्रीब्यूशन हो सकता है किसी की भूख मिटा दे,’’ उस ने पैसों की पोटली फिर अपने बैग में रख ली.

अब वह ड्राइवर से बोली, ‘‘भैयाजी गाना बदलिए. कुछ फड़कता हुआ सा म्यूजिक लगाइए न.’’

तभी उस के बच्चे की कौल आ गई. उस ने म्यूजिक धीरे करवाया… पूरा रास्ता बच्चे का होमवर्क कराने में काट दिया.

‘‘सर, बहुत शरारती है. मेरा बेटा बिना मेरे साथ बैठे कुछ नहीं करता. इसलिए रोज आधा घंटा औफिस के साथ थोड़ी बेवफाई करती हूं. सर, आखिरकार नौकरी भी तो फैमिली के लिए ही कर रही हूं.’’

हां हूं करते उस ने अपने दिमाग और जबान में मानो संतुलन बनाया, मगर विचारों ने गति पकड़ ली थी…

वह तो पूरी तन्मयता से नौकरी कर रहा

है… पत्नी और बच्चे उस की राह देख कर थक चुके हैं. उस का बच्चा भी आठ वर्ष का है. पर स्कूल से आने के बाद उस की दिनचर्या का उसे पता नहीं है. रात के भोजन पर ही उन की मुलाकात होती है. बिटिया जरूर लाड़ दिखा

जाती है.

‘‘सर,’’ लड़की ने उस के विचारों को लगाम दी.

‘‘हां बोलो.’’

‘‘आप भी हमारे साथ ही लंच किया करें. अच्छा नहीं लगता आप अकेले बैठते हैं.’’

‘‘मैं ज्यादा कुछ नहीं खाता. हैवी ब्रेकफास्ट करता हूं. लंच तो बस नाममात्र का.’’

‘‘सर, कल आइए हमारे साथ. देखिए अगर अच्छा न लगे तो फिर नहीं कहूंगी.’’

अब एक बार सिलसिला चल पड़ा तो खत्म न हुआ… दूर से जैसी दिखती थी उस के

विपरीत अंदर से बहुत संवेदनशील दुनिया थी इन लड़कियों की.

कोई टूटी टांग वाली पड़ोसिन आंटी को पूरीछोले पकड़ा कर आ रही है, तो एक शाम को अपनी सहेली के तलाक के लिए वकीलों के चक्कर काट रही है.

यहां से घर जा कर किसी को ननद को मेहंदी लगवाने ले जाना है, किसी को बच्चे को साइकिल के 4 राउंड लगवाने हैं, तो किसी के घर मेहमान आए पड़े हैं, जाते ही नहीं.

फिर भी औफिस में बर्थडे, प्रमोशन, बच्चे का रिजल्ट, हस्बैंड का बर्थडे, शादी की सालगिरह हर दिन लंच टाइम पर एक उत्सव है, इन लड़कियों का. फ्राईडे को इस बात का जश्न कि शनिवार, इतवार छुट्टी है. क्या कमाल की दुनिया है.

सब के पास ढेरों काम हैं, औफिस से पहले भी और घर जा कर भी. औफिस के काम में भी पूरी भागीदारी है. उस के विचार बदलने लग पड़े हैं.

उस की हिचक भी निकलती जा रही है. अब उसे नहीं लगता कि वह औफिस में अकेला मर्द है. घर में पत्नी भी खुश… वह रोज घर जा कर बताता है कि खाना कितना अच्छा बना था. यह तारीफ करना भी इन्हीं देवियों ने सिखाया है.

आज फ्राइडे है. उस ने अपनी ब्लू जींस पहनी, पत्नी देख कर हैरान हुई. पूछा, ‘‘आप औफिस ही जा रहे हैं न?’’

‘‘हां तो क्या हुआ? कभीकभी चेंज अच्छा लगता है.’’

‘‘यह भी सही है,’’ पत्नी ने ऊपरी तौर पर सहमति जताई, जबकि वह जानती थी कि वह कितना जिद्दी है, अपने कपड़ों को ले कर. वह भी   झेंप गया था, पर   झटके से घर से निकल लिया.

रास्ते में बौस का फोन आ गया. वे बोले, ‘‘तुम्हारा ट्रांसफर कर दूं… वापस आना चाहोगे?’’

उस को मानो   झटका सा लगा, ‘‘जैसा आप कहें… मु  झे तो जो आदेश मिलेगा वही पालन करूंगा.’’

‘‘नहीं तुम कह रहे थे औफिस में खाली लड़कियां हैं.’’

‘‘सर, लड़कियां ही तो हैं. क्या फर्क पड़ता है? मु  झे तो अब अच्छा लगता है. रौनक वाली जगह है सर.’’

‘‘हाहाहा,’’ उस के बौस की हंसी गूंज उठी. ऐक्चुअली यह बैस्ट पोस्टिंग है तुम्हारी.’’

‘‘जी सर, आप ठीक कहते हैं… यहां सीखने को बहुत कुछ है,’’ और वह मुसकरा दिया.

परिंदा: अजनबी से एक मुलाकात ने कैसे बदली इशिता की जिंदगी

रिटायरमेंट: आत्म-सम्मान के लिए अरविंद बाबू ने क्या किया

‘‘तो पापा, कैसा लग रहा है आज? आप की गुलामी का आज अंतिम दिन है. कल से आप पिंजरे से आजाद पंछी की भांति आकाश में स्वच्छंद विचरण करने के लिए स्वतंत्र होंगे,’’ आरोह नाश्ते की मेज पर भी पिता को अखबार में डूबे देख कर बोला था.

‘‘कहां बेटे, जीवन भर पिंजरे में बंद रहे पंछी के पंखों में इतनी शक्ति कहां होती है कि वह स्वच्छंद विचरण करने की बात सोच सके,’’ अरविंद लाल मुसकरा दिए थे, ‘‘पिछले 35 साल से घर से सुबह खाने का डब्बा ले कर निकलने और शाम को लौटने की ऐसी आदत पड़ गई है कि ‘रिटायर’ शब्द से भी डर लगता है.’’

‘‘कोई बात नहीं पापा, एकदो दिन बाद आप अपने नए जीवन का आनंद लेने लगेंगे,’’ कहकर आरोह हंस दिया.

‘‘मैं तो नई नौकरी ढूंढ़ रहा हूं. कुछ जगहों पर साक्षात्कार भी दे चुका हूं. मुझे कोई पैंशन तो मिलेगी नहीं. नई नौकरी से हाथ में चार पैसे भी आएंगे और साथ ही समय भी कट जाएगा.’’

‘‘क्या कह रहे हैं, पापा, जीवन भर खटने के बाद क्या यह आप की नौकरी ढूंढ़ने की उम्र है. यह समय तो पोतेपोतियों के साथ खेलने और अपनी इच्छानुसार जीवन जीने का है,’’ आरोह ने बड़े लाड़ से कहा था.

‘‘मैं सब समझ गया बेटे, रिटायर होने के बाद तुम मुझे अपना सेवक बना कर रखना चाहते हो,’’ अरविंद लाल का स्वर अचानक तीखा हो गया था.

‘‘पापा, आप के लिए मैं ऐसा सोच भी कैसे सकता हूं.’’

‘‘बेटे, आज घरघर की यही कहानी है. बूढ़े मातापिता तो किसी गिनती में हैं ही नहीं. बच्चों को स्कूल से लाना ले जाना. सब्जीभाजी से ले कर सारी खरीदारी करना यही सब तो कर रहे हैं आजकल अधिकतर वृद्ध. सुबह की सैर के समय मेरे मित्र यही सब बताते हैं.’’

‘‘बताते होंगे, पर हर परिवार की परिस्थितियां अलगअलग होती हैं. आप को ऐसा कुछ करने की कतई जरूरत नहीं है. कल से आप अपनी इच्छा के मालिक होंगे. जब मन में आए सोइए, जब मन में आए उठिए, आप की दिनचर्या में कोई खलल नहीं डालेगा. मैं, यह आप को विश्वास दिलाता हूं. पर कृपया फिर से नई नौकरी ढूंढ़ने के चक्कर में मत पडि़ए,’’ आरोह ने विनती की.

अरविंदजी कोई उत्तर देते इस से पहले ही बहू मानिनी आ खड़ी हुई और अपने पति की ओर देख कर बोली, ‘‘चलें क्या? देर हो रही है.’’ ‘‘हां, चलो, मुझे भी आज जल्दी पहुंचना है. अच्छा पापा, फिर शाम को मिलते हैं,’’ आरोह उठ खड़ा हुआ.

‘‘मानिनी, नाश्ता तो कर लो,’’ आरोह की मां वसुधाजी बोलीं.

‘‘मांजी, चाय पी ली है. नाश्ता अस्पताल पहुंच कर लूंगी. आज चारू को हलका बुखार था. परीक्षा थी इसलिए स्कूल गई है. रामदीन जल्दी ले आएगा. आप जरा संभाल लीजिएगा,’’ मानिनी जाते हुए बोली थी.

‘‘बहू, तुम चिंता मत करो. मैं हूं न. सब संभाल लूंगी,’’ वसुधाजी ने मानिनी को आश्वस्त किया.

‘‘चिंता करने की जरूरत भी कहां है, यहां स्थायी नौकरानी जो बैठी है दिन भर हुकम बजा लाने को,’’ अरविंद लाल कटु स्वर में बोले.

‘‘अपने घर के काम करने से कोई छोटा नहीं हो जाता पर यह बात आप की समझ से बाहर है. चलो, नहाधो कर तैयार हो जाओ. आज तो आफिस जाना है. कल से घर बैठ कर अपनी गाथा सुनाना.’’

‘‘मेरी समझ का तो छोड़ो अपनी समझ की बात करो. दिन भर घर में लगी रहती हो. मानिनी तो नाम की मां है. चारू और चिरायु को तो तुम्हीं ने पाल कर बड़ा किया है. सुधांशु की पत्नी इसी काम के लिए आया को 7 हजार रुपए देती है.’’

‘‘आप के विचार से आया और दादी में कोई अंतर नहीं होता. मैं ने तो आरोह और उस की दोनों बहनों को भी बड़ा किया है. तब तो आप ने यह प्रश्न कभी नहीं उठाया.’’

‘‘भैंस के आगे बीन बजाने का कोई लाभ नहीं है. मैं आगे तुम से कुछ भी नहीं कहूंगा, पर इतना साफ कहे देता हूं कि मैं अपने ही बेटे के घर पर घरेलू नौकर बन कर नहीं रहूंगा. मेरे लिए मेरा आत्मसम्मान सर्वोपरि है.’’

‘‘क्या कह रहे हो, कुछ तो सोचसमझ कर बोला करो. घर में नौकरचाकर क्या सोचेंगे…अच्छा हुआ कि आरोह, मानिनी और बच्चे घर पर नहीं हैं. नहीं तो ऐसी बेसिरपैर की बातें सुन कर न जाने क्या सोचते.’’

‘‘मैं किसी से नहीं डरता. और जो कुछ तुम से कह रहा हूं उन से भी कह सकता हूं,’’ अरविंद लाल शान से बोले.

‘‘क्यों अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने पर तुले हो. याद करो वह दिन जब हम पैसेपैसे को तरसते थे. तब एक दिन आप ने बड़ी शान से कहा था कि चाहे आप को कुछ भी करना पड़े आप आरोह को क्लर्की नहीं करने देंगे. उसे आप डाक्टर बनाएंगे.’’

‘‘हां, तो क्या बनाया नहीं उसे डाक्टर? उन दिनों हम ने कितनी तंगी में दिन गुजारे यह क्या तुम नहीं जानतीं?’’

‘‘जानती हूं. मैं सब जानती हूं. पर कई बार मातापिता लाख प्रयत्न करें तब भी संतान कुछ नहीं करती लेकिन अपना आरोह तो लाखों में एक है. अपने पैरों पर खड़े होते ही उस ने आप की जिम्मेदारियों का भार अपने कंधों पर ले लिया. नीना और निधि के विवाह में उस ने कर्ज ले कर आप की सहायता की वरना उन दोनों के लिए अच्छे घरवर जुटा पाना आप के वश की बात न थी,’’ वसुधाजी धाराप्रवाह बोले जा रही थीं.

‘‘तुम्हें तो पुत्रमोह ने अंधा बना दिया है. अपनी बहनों के प्रति उस का कुछ कर्तव्य था या नहीं? उन के विवाह में सहायता कर के उस ने अपने कर्तव्य का पालन किया है और कुछ नहीं. परिवार के सदस्य एकदूसरे के लिए इतना भी न करें तो एकसाथ रहने का अर्थ क्या है? आरोह ने जब इस कोठी को खरीदने की इच्छा जाहिर की थी तो हम चुपचाप अपना 2 कमरों का मकान बेच कर उस के साथ रहने आ गए थे.’’

‘‘वह भी तब जब उस ने आधी कोठी आप के नाम करवा दी थी.’’

‘‘वह सब मैं ने अपने लिए नहीं तुम्हारे लिए किया था. आजकल की संतान का क्या भरोसा. कब कह दे कि हमारे घर से बाहर निकल जाओ,’’ अरविंदजी अब अपनी अकड़ में थे.

‘‘समझ में नहीं आ रहा कि आप को कैसे समझाऊं. पता नहीं इतनी कड़वाहट कहां से आ गई है आप के मन में.’’

‘‘कड़वाहट? यह कड़वाहट नहीं है आत्मसम्मान की लड़ाई है. माना तुम्हारा आरोह बहुत प्रसिद्ध डाक्टर हो गया है. दोनों पतिपत्नी मिल कर खूब पैसा कमा रहे हैं, पर वे मुझे नीचा दिखाएं या अपने रुतबे का रौब दिखाएं तो मैं यह सह नहीं पाऊंगा.’’

 

‘‘कौन आप को नीचा दिखा रहा है? पता नहीं आप ने अपने दिमाग में यह कैसी कुंठा पाल ली है और दिन भर न जाने क्याक्या सोचते रहते हैं,’’ वसुधा का स्वर अनचाहे भर्रा गया था.

‘‘चलो, बहस छोड़ो और मेरा सूट ले आओ. आज मेरा विदाई समारोह है. सूट पहन कर जाऊंगा.’’

अरविंद लाल तैयार हो कर दफ्तर चले गए. पर वसुधा को सोच में डूबा छोड़ गए. कुछ दिनों से अपने पति अरविंद लाल का हाल देख कर वसुधा का दिल बैठा जा रहा था. जितनी देर वे घर में रहते एक ही राग अलापते कि अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए अपनी जान की बाजी लगा देंगे.

फूलमालाओं और उपहारों से लदे अरविंदजी को दफ्तर की गाड़ी छोड़ गई थी. उन के अफसरों ने भी उन की प्रशंसा के पुल बांध दिए थे.

घर आते ही उन्होंने चारू और चिरायु के गले में फूलमालाएं डाल दी थीं और प्रसन्नता से झूमते हुए देर तक वसुधा को विदाई समारोह का हाल सुनाते रहे थे.

‘‘दादाजी, घूमने चलो न, आइसक्रीम खाएंगे,’’ उन्हें अच्छे मूड में देख कर बच्चे जिद करने लगे थे.

‘‘कहीं नहीं जाना है. चारू को बुखार है, वैसे भी आइसक्रीम खाने के लिए कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है. फ्रिज में ढेरों आइसक्रीम पड़ी है,’’ वसुधाजी ने दोनों बच्चों को समझाया था.

‘‘ठीक कहती हो,’’ अरविंदजी बोले, ‘‘बच्चो, कल घूमने चलेंगे. आज मैं बहुत थक गया हूं. वसुधा, एक प्याली चाय पिला दो फिर कुछ देर आराम करूंगा. कल नई पारी की शुरुआत जो करनी है.’’

वसुधा के मन में सैकड़ों प्रश्न बादल की तरह उमड़घुमड़ रहे थे कि वे किस दूसरी पारी की बात कर रहे हैं, कुछ पूछ कर फिर से वे घर की शांति को भंग नहीं करना चाहतीं. इसलिए चुपचाप चाय बना कर ले आईं.

अगले दिन अरविंदजी रोज की तरह तैयार हो कर घर से चले तो वसुधा स्वयं को रोक नहीं सकीं.

‘‘टोकना आवश्यक था? शुभ कार्य के लिए जा रहा था… अब तो काम शायद ही बने,’’ अरविंदजी झुंझला गए थे.

‘‘मुझे लगा कि आज आप घर पर ही विश्राम करेंगे. आप 2 मिनट रुकिए अभी आप के लिए टिफिन तैयार करती हूं.’’

‘‘जाने दो, मैं फल आदि खा कर काम चला लूंगा. मुझे देर हो रही है,’’ अरविंदजी अपनी ही धुन में थे.

‘‘पापा कहां गए?’’ नाश्ते की मेज पर आरोह पूछ बैठा था.

‘‘वे तो रोज की तरह ही घर से निकल गए. कह रहे थे कि किसी आवश्यक कार्य से जाना है,’’ वसुधा ने बताया.

‘‘मां, आप उन्हें समझाती क्यों नहीं कि उन्हें फिर से काम ढूंढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है. 35 वर्ष तक उन्होंने कार्य किया है. अब जब कुछ आराम करने का समय आया तो फिर से काम ढूंढ़ने निकल पड़े.’’

‘‘क्या कहूं, बेटे. मैं तो उन्हें समझासमझा कर थक गई हूं. सुबह की सैर पर साथ जाने वाले मित्रों ने इन के मन में यह बात अच्छी तरह बिठा दी है कि अब घर में उन को कोई नहीं पूछेगा. बातबात में यही कहते हैं कि अपने आत्मसम्मान पर आंच नहीं आने देंगे.’’

‘‘उन के आत्मसम्मान पर चोट करने का प्रश्न ही कहां है, मां. घर में आराम से रहें, अपनी इच्छानुसार जीवन जिएं.’’

‘‘इस विषय पर बहुत कहासुनी हो चुकी है. मैं ने तो अब किसी प्रकार की बहस न करने का निर्णय लिया है, पर मन ही मन मैं बुरी तरह डर गई हूं.’’

‘‘इस में डरने की क्या बात है, मां.’’

‘‘इसी तरह तनाव में रहे तो अपनी सेहत चौपट कर लेंगे,’’ वसुधाजी रो पड़ी थीं.

‘‘चिंता मत करो, मां, सेवानिवृत्ति के समय कई लोग इस तरह के तनाव के शिकार हो जाते हैं,’’ आरोह ने मां को समझाया.

अरविंदजी दोपहर को घर आए तो देखा, आरोह खाने की मेज पर अपनी मां से कुछ बातें कर रहा था.

‘‘मांबेटे के बीच क्या कानाफूसी हो रही है? मेरे विरुद्ध कोई साजिश तो नहीं हो रही?’’ वे थके होने पर भी मुसकराए थे.

‘‘हो तो रही है, हम सब को आप से बड़ी शिकायत है,’’ आरोह मुसकराया था.

‘‘ऐसा क्या कर दिया मैं ने?’’

‘‘कल आप का विदाई समारोह था. आप सपरिवार आमंत्रित थे पर आप अकेले ही चले गए. मां तक को नहीं ले गए. हम से पूछा तक नहीं.’’

‘‘क्या कह रहे हो, आरोह? इन्हें सपरिवार बुलाया गया था?’’ वसुधा चौंकी थीं .‘‘पूछ लो न, पापा सामने ही तो बैठे हैं. मुझे तो इन के सहकर्मी मनोज ने आज सुबह अस्पताल आने पर बताया.’’

‘‘इन्हें हमारी भावनाओं की चिंता ही कहां है,’’ वसुधा नाराज हो उठी थीं.

‘‘बात यह नहीं है. मुझे लगा आरोह और मानिनी इतने नामीगिरामी चिकित्सक हैं. वे मुझ जैसे मामूली क्लर्क के विदाई समारोह में क्यों आएंगे. वसुधा सदा पूजापाठ और चारू व चिरायु के साथ व्यस्त रहती है, इसीलिए मैं किसी से कुछ कहेसुने बिना अकेले ही चला गया था. यद्यपि हमारे यहां विदाई समारोह में सपरिवार जाने की परंपरा है,’’ अरविंदजी क्षमायाचनापूर्ण स्वर में बोले थे.

‘‘आप की समस्या यह है पापा कि आप सबकुछ अपने ही दृष्टिकोण से देखते हैं. खुद को बारबार साधारण क्लर्क कह कर आप केवल स्वयं को नहीं, मेरे पिता को अपमानित करते हैं जिन्होंने इसी नौकरी के बलबूते पर मेहनत और ईमानदारी से अपने परिवार का पालनपोषण किया. साथ ही आप उन हजारों लोगों का अपमान भी करते हैं जो इस तरह की नौकरियों से अपनी जीविका कमाते हैं.’’

आरोह का आरोप सुन कर कुछ क्षणों के लिए अरविंदजी ठगे से रह गए थे. कोई उन के बारे में इस तरह भी सोच सकता है यह उन के लिए एक नई बात थी. उन की आंखों से आंसू टपकने लगे.

‘‘क्या हुआ, पापा? आप रो क्यों रहे हैं?’’ तभी नीना और निधि आ खड़ी हुई थीं.

‘‘मैं क्या बताऊं, पापा से ही पूछ लो न,’’ आरोह हंसा था. पर अरविंदजी ने चटपट आंसू पोंछ लिए थे.

‘‘तुम दोनों कब आईं?’’ उन्होंने नीना और निधि से अचरज से पूछा था.

‘‘ये दोनों अकेली नहीं सपरिवार आई हैं, वह भी मेरे निमंत्रण पर. कल कुछ और अतिथि भी आ रहे हैं.’’

‘‘क्या कह रहे हो…मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा है…कल कौन सा पर्व है?’’

‘‘कल हम अपने पापा के रिटायर होने का फंक्शन मना रहे हैं.’’

‘‘यह सब क्या है. हमारे परिवार में इस तरह के किसी आयोजन की कोई परंपरा नहीं है.’’

‘‘परंपराएं बदली भी जा सकती हैं. हम ने कल की पार्टी में आप के सभी सहकर्मियों को भी आमंत्रित किया है. नीनानिधि, इन के हाथों से यह फाइल ले लो. पूछो आज दोपहर तक कहां भटकते रहे,’’ आरोह ने अरविंदजी की फाइल की ओर इशारा किया.

नीना ने पिता के हाथ से फाइल ले ली.

‘‘इस में तो डिगरियां और पापा का बायोडाटा है. यह क्या पापा? आप फिर से नौकरी ढूंढ़ रहे हैं?’’ नीना और निधि आश्चर्यचकित पास आ खड़ी हुई थीं.

‘‘चलो, चायनाश्ता लग गया है,’’ तभी मानिनी ने आ कर सब का ध्यान बटाया.

‘‘लाओ, यह फाइल मुझे दो. मैं इसे ताले में रखूंगा,’’ आरोह उठते हुए बोला.

‘‘चलो उठो, मुंहहाथ धो लो. सब चाय पर प्रतीक्षा कर रहे हैं,’’ वसुधाजी ने भरे गले से कहा.

‘‘इतना सब हो गया और तुम ने मुझे हवा भी नहीं लगने दी,’’ अरविंदजी ने उलाहना देते हुए पत्नी से कहा.

‘‘मुझे भी कहां पता था. मुझे तो कोई भी कुछ बताता ही नहीं. न तुम न तुम्हारे बच्चे. पर मेरे आत्मसम्मान की चिंता किसे है भला,’’ वसुधा नाटकीय अंदाज में बोली थीं.

अरविंद बाबू सोचते रह गए थे. वसुधा शायद ठीक ही कहती है. परिवार की धुरी है वह पर कभी किसी बात का रोना नहीं रोया. ये तो केवल वही थे जो आत्मसम्मान के नाम पर इतने आत्मकेंद्रित हो गए थे कि कोई दूसरा नजर ही नहीं आता था. न जाने मन में कैसी कुंठाएं पाल ली थीं उन्होंने.

 

काश, मेरा भी बौस होता

आज फिर अनीता छुट्टी पर है. इसका अंदाज मैंने इसी से लगा लिया कि वह अभी तक तैयार नहीं हुई. लगता है कल फिर वह बौस को अदा से देखकर मुसकराई होगी. तभी तो आज दिनभर उसे मुसकराते रहने के लिए छुट्टी मिल गई है.

मेरे दिल पर सांप लोटने लगा. काश, मेरा भी बौस होता…बौसी नहीं…तो मैं भी अपनी अदाओं के जलवे बिखेरती, मुसकराती, इठलाती हुई छुट्टी पर छुट्टी करती चली जाती और आफिस में बैठा मेरा बौस मेरी अटेंडेंस भरता होता…पर मैं क्या करूं, मेरा तो बौस नहीं बौसी है.

बौस शब्द कितना अच्छा लगता है. एक ऐसा पुरुष जो है तो बांस की तरह सीधा तना हुआ. हम से ऊंचा और अकड़ा हुआ भी पर जब उस में फूंक भरो तो… आहा हा हा. क्या मधुर तान निकलती है. वही बांस, बांसुरी बन जाता है.

‘‘सर, एक बात कहें, आप नाराज तो नहीं होंगे. आप को यह सूट बहुत ही सूट करता है, आप बड़े स्मार्ट लगते हैं,’’ मैं ऐसा कहती तो बौस के चेहरे पर 200 वाट की रोशनी फैल जाती है.

‘‘ही ही ही…थैंक्स. अच्छा, ‘थामसन एंड कंपनी’ के बिल चेक कर लिए हैं.’’

‘‘सर, आधे घंटे में ले कर आती हूं.’’

‘‘ओ के, जल्दी लाना,’’ और बौस मुसकराते हुए केबिन में चला जाता. वह यह कभी नहीं सोचता कि फाइल लाने में आधा घंटा क्यों लगेगा.

पर मेरी तो बौसी है जो आफिस में घुसते ही नाक ऊंची कर लेती है. धड़मधड़म कर के दरवाजा खोलेगी और घर्रर्रर्रर्र से घंटी बजा देगी, ‘‘पाल संस की फाइल लाना.’’

‘‘मेम, आज आप की साड़ी बहुत सुंदर लग रही है.’’वह एक नजर मेरी आंखों में ऐसे घूरती है जैसे मैं ने उस की साड़ी का रेट कम बता दिया हो.

‘‘काम पूरा नहीं किया क्या?’’ ठां… उस ने गरम गोला दाग दिया. थोड़ी सी हवा में ठंडक थी, वह भी गायब हो  गई, ‘‘फाइल लाओ.’’

दिल करता है फाइल उस के सिर पर दे मारूं.

‘‘सर, आज मैं बहुत थक गई हूं, रात को मेहमान भी आए थे, काफी देर हो गई थी सोने में. मैं जल्दी चली जाऊं?’’ मैं अपनी आवाज में थकावट ला कर ऐसी मरी हुई आवाज में बोलती जैसी मरी हुई भैंस मिमियाती है तो बौस मुझे देखते ही तरस खा जाता.

‘‘हां हां, क्यों नहीं. पर कल समय से आने की कोशिश करना,’’ यह बौस का जवाब होता.

लेकिन मेरे मिमियाने पर बौसी का जवाब होता है, ‘‘तो…? तो क्या मैं तुम्हारे पांव दबाऊं? नखरे किसी और को दिखाना, आफिस टाइम पूरा कर के जाना.’’

मन करता है इस का टाइम जल्दी आ जाए तो मैं ही इस का गला दबा दूं.

‘‘सर, मेरे ससुराल वाले आ रहे हैं, मैं 2 घंटे के लिए बाहर चली जाऊं,’’ मैं आंखें घुमा कर कहती तो बौस भी घूम जाता, ‘‘अच्छा, क्या खरीदने जा रही हो?’’ बस, मिल जाती परमिशन. पर यह बौसी, ‘‘ससुराल वालों से कह दिया करो कि नौकरी करने देनी है कि नहीं,’’ ऐसा जवाब सुन कर मन से बददुआ निकलने लगती है. काश, तुम्हारी कुरसी मुझे मिल जाती तो…लो इसी बात में मेरी बौसी महारानी पानी भरती दिखाई देती.

उस दिन पति से लड़ाई हो गई तो रोतेरोते ही आफिस पहुंची थी. मेरे आंसू देखते ही बौसी बोली, ‘‘टसुए घर छोड़ कर आया करो.’’ लेकिन अगर मेरा बौस होता तो मेरे आंसू सीधे उस के (बौस के) दिल पर छनछन कर के गरम तवे पर ठंडी बूंदों की तरह गिरते और सूख जाते. वह मुझ से पूछता, ‘क्या हुआ है? किस से झगड़ा हुआ.’ तब मैं अपने पति को झगड़ालू और अकड़ू बता कर अपने बौस की तारीफ में पुल बांधती तो वह कितना खुश हो जाता और मेरी अगले दिन की एक और छुट्टी पक्की हो जाती.

कोई भी अच्छी ड्रेस पहनूं या मेकअप करूं तो डर लगने लगता है. बौसी कहने लगती है, ‘‘आफिस में सज कर किस को दिखाने आई हो?’’ अगर बौस होता तो ऐसे वाहियात सवाल थोड़े ही करता? वह तो समझदार है, उसे पता है कि मैं उस के दिल के कोमल तारों को छेड़ने और फुसलाने के लिए ही तो ऐसा कर रही हूं. वह यह सब जान कर भी फिसलता ही जाएगा. फिसलता ही जाएगा और उस की इसी फिसलन में उस की बंद आंखों में मैं अपने घर के हजारों काम निबटा देती.

पर मेरी किस्मत में बौस के बजाय बौसी है, बासी रोटी और बासी फूल सी मुरझाई हुई. उस के होेते हुए न तो मैं आफिस टाइम पर शौपिंग कर पाती हूं, न ही ससुराल वालों को अटेंड कर पाती हूं, न ही घर जा कर सो पाती हूं, न ही अपने पति की चुगली उस से कर के उसे खुश कर पाती हूं और न ही उस के रूप और कपड़ों की बेवजह तारीफ कर के, अपने न किए हुए कामों को अनदेखा करवा सकती हूं.

अगर मेरा बौस होता तो मैं आफिस आती और आफिस आफिस खेलती, पर काम नहीं करती. पर क्या करूं मैं, मेरी तो बौसी है. इस के होने से मुझे अपनी सुंदरता पर भी शक होने लगा है. मेरा इठलाना, मेरा रोना, मेरा आंसू बहाना, मेरा सजना, मेरे जलवे, मेरे नखरे किसी काम के नहीं रहे.

इसीलिए मुझे कभी-कभी अपने नारी होने पर भी संदेह होने लगा है. काश, कोई मेरी बौसी को हटाकर मुझे बौस दिला दे, ताकि मुझे मेरे होने का एहसास तो होता.

 

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