परिवारवाद पर कटाक्ष

घर का काम पीढिय़ों तक चलता आए, यह सिद्धांत हिंदू धर्म और हिंदू कानून की देन है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संविधान दिवस पर कांग्रेस पर कटाक्ष करते हुए कहा कि परिवारों से चलती हुई राजनीतिक पार्टियां संविधान की भावना के विरुद्ध हैं घर वही नरेंद्र मोदी उस हिंदू भारतीय संस्कृति के गुण गाते अघाने नहीं हैं जिस में बारबार परिवारों का व्याख्यान है.

सगर राजा की कहानी को लें जिसे विश्वमित्र ने सुनाई. सगर अयोध्या का राजा था. उस की 2 पत्नियां थीं. 100 वर्ष (!) तप करने पर उसे वरदान मिला, और एक के एक पुत्र असमंजस पुत्र हुआ और दूसरी के एक लूंबी उत्पन्न हुई जिसे फोडऩे से 6000 पुत्र निकले. अब राजा सगर का बड़ा पुत्र असंमजस दृष्ट निकला और वह लोगों को और अपने भाइयों तक को पानी में फेंक कर खुश होना पर उस का पुत्र अंशुमन सज्जन निकला. इसी राजा समर ने एक यज्ञ करने का फैंसला लिया और उस में इंद्र ने यज्ञ के पवित्र अश्व को चुरा लिया. उस को ढूंढऩे 60000 पुत्र ही निकले.

ये भी पढ़ें- औरत नहीं है बच्चा पैदा करने की मशीन

जब हमारे नेता धर्मग्रंथों पर अपाध श्रद्धा करते हुए उन का बखान करते हैं, उन के चमत्कारों को वैज्ञानिक खोज बताते हैं तो परिवारों को कैसे दोष दे सकते हैं. जब महाभारत का युद्ध जनता के हित के लिए नहीं राजाओं के पुत्रों के लिए हुआ हो तो उस की आलोचना कैसी की जा सकती है.

प्रधानमंत्री को विपक्षी दलों के बारे में सब कुछ बोलने का राजनीतिक अधिकार है पर नैतिकता कहती है कि आज जो बोलो, उस पर टिके और टिके रहो. सिर्फ बोलने के लिए मंहगाई का ‘म’ न बोलने वाले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन ङ्क्षसह की आलोचना जनसभाओं में करने वाले अपनी मंहगाई न रोकने पर कांग्रेस का परिवारबाद पर भाषण नहीं दे सकते जबकि उन्हीं की पार्टी में मेनका गांधी और वरुण गांधी सांसद हैं. जब वे गांधी परिवार के महत्व को समझ रहे हैं तो कांग्रेस या समाजवादी या अन्य दलों को दोष कैसे दे सकते हैं.

भारतीय जनता पार्टी की शिवसेना लंबे समय सहयोगी रही जो बाल ठाकरे के बाद बेटे उद्धव ठाकरे के हाथों में है. परिवार के बिना पार्टियां चल सकती हैं यह पश्चिम के लोकतंत्र स्पष्ट कर रहे हैं पर भारत तो अपने पुराने ढोल पीटता रहता है, वह कैसे परिवारों को दोष दे सकता है?

ये भी पढ़ें-देश की पुलिस व्यवस्था

नाम बड़े और दर्शन छोटे

देश में 2 समाज बनाने की पूरी तैयारी चल रही है- एक पैसे वालों का, एक बिना पैसों वालों का. समाज का गठन इसा तरह किया जा रहा है कि दोनों को आपस में एक दूसरे का चेहरा भी न देखना पड़े. पैसे वाले केवल पैसे वालों के साथ रहे और बिना पैसे वाले रातदिन लग कर अपने शरीर और जन के जोड़े रखने के लिए मेहनत कर के अलगथलग रहें. इन दोनों वर्गों में अपनेअपने छोटेछोटे और वर्ग भी होंगे, बहुतबहुत अमीर, बहुत अमीर, अमीर कम अमीर. बिना पैसे वालों में बहुतबहुत गरीब से मध्यर्म वर्ग तक होगा जो पैसे वालों को कमा कर भी देगा और अपनी बचत भी उन के पास आएगा.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली से 75 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश में दिल्ली आगरा के बीच बनने वाले जेवर हवाई अड्डे का जो उद्घाटन किया है वह इस वर्ग विभाजन की एक और ईट है. इस विशाल 3000 एकड़ में फैले हवाई अड्डे पर 30000 करोड़ से ज्यादा खर्च होंगे जो जनता पर कर लगा कर वसूले जाएंगे और उस में वे ही जा सकेंगे जो फर्राटेदार गाडिय़ों में 75 किलोमीटर जा सकें और हजारों के टिकट खरीद सकें. बल्कि आम जनता के लिए भेड़ों की तरह भरी बसें हैं जिन की फटी सीटें और गमाती बदबू कुत्तों को भी उन में घुसने न दे. मुंबई और कोलकाता की लोकल ट्रेनें इ सकी सुबूत हैं. दिल्ली में 3 पहिए वाले ग्रामीण सेवा के वाहन इस के जीते जागते निशान हैं.

ये भी पढ़ें- औरत नहीं है बच्चा पैदा करने की मशीन

अब सडक़ें ऐसी बनेंगी जिन में दोनों तरह के लोगों को एकदूसरे को देखने की जरूरत ही न हो. अमीरों के लिए जो बनेगा वह वहीं बनाएंगे जिसे अमीर देखना भी नहीं चाहते. उन की बस्तियां अभी बसेंगी फिर उजाड़ दी जाएंगी और किसी दलदली जगह बसा दी जाएंगी जहां सीवर न हों या होंं  तो भरे हों, जहां एयरकंडीशंड बसे न हो, ट्रकनुमा धक्के हों.

जेवर हवाई अड्डा दुनिया का चौथा सबसे बड़ा हवाई अड्डा होगा. पर क्या भारत के प्रति व्यक्ति की आय दुनिया के चौथे नंबर पर खड़े प्रति व्यक्ति वाले देश के बराबर है? यह एशिया का सब से बड़ा हवाई अड्डा होगा पर क्या हमारी आम बेबस जनता चीनी, जापानी, दक्षिणी कोरियाई तो छोडि़ए, थाईलैंड और वियतनाम की जनता के बराबर भी खुशहाल है, संपन्न है.

जेवर हवाई अड्डा चमचमाता होगा, बढिय़ा ग्रेनाइट के फर्श होंगे, महंगा खाना परोसने वाले रेस्ट्रां होंगे जहां चाय 250 ग्राम रुपए की एक कप होगी. पर क्या वे औरतें इस के दर्शन कर पाएंगे जिन्हें अपने घर आए मेहमान के लिए 3 एक जैसे कप जुटाने में तकलीफ होती है?

जेवर हवाई अड्डा प्रगति का प्रतीक है पर यह प्रगति तब अच्छी लगेगी जब आम लोगों का जीवन स्वर भी उठ रहा हो. जब आम लोग और ज्यादा छोटे मोहल्लों में जाने को विवश हो रहे हों तो क्या जेवर को पहन कर मोदीयोगी इतराते फिरें, यह अच्छा है?

ये भी पढ़ें-देश की पुलिस व्यवस्था

वर्क फ्रौम होम और औरतें

वर्क फ्रौम होम कल्चर ने उन औरतों के लिए नए दरवाजे खोलें हैं जिन्होंने पहले परिवार में बच्चों और बूढ़ों को देखने के लिए अच्छे कैरियर के बावजूद नौकरियां छोड़ी हैं. जौब्स फौरहर पोर्टल की एक रिपोर्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार 300 बड़ी कंपनियों ने ऐसी मेधावी शिक्षित व स्मार्ट औरतों के अवसर देने शुरू किए हैं जो पहले से खासी ट्रेन की जा चुकी हैं और उन से व्यवहार करना पुरुषों से ज्यादा आसान होता है.

इन औरतों के घर संभालते हुए बाहर के काम करने की डबल आदत पहले से होती है और ये पुरुषों की तरह आलसी और क्रिकेट मैच के लिए टीवी के सामने बैठने वाली भी नहीं हैं. जिनकी योग्यता अच्छी है वे सोप ऊपेरा टाइप की सास बहू धारावाहिकों के चक्कर में भी नहीं रहते. आज की शिक्षित युवा औरतों को अपने व्यक्तित्व की ङ्क्षचता ज्यादा होती है.

अगर टैक्रोलौजी ने औरतों को आज भी घर की किचन और बेड से छुटकारा नहीं दिलाया है तो वर्क फ्रौम होम अवश्य उन के जीवन में क्रांति ला देगा और वर्षों की जम कर की गई पढ़ाई बेकार नहीं जाएगी.

ये भी पढ़ें- रेप और भारत की छवि

बस ऐसी औरतों को यह ध्यान रखना होगा कि वे धर्म के चक्करों में न पड़ें. आजकल कोविड के जमाने में पंडों के जुल्म पर प्रवचन सुनाने शुरू कर दिए हैं, औन लाइन दान  देना शुरू कर दिया है, औन लाइन पाखंडी क्रियाओं का सिलसिला शुरू कर दिया है. पुरुषों के लिए तो धर्म जरूरी है क्योंकि उसी के सहारे वे वर्ण व्यवस्था को वापस रखते हैं. ङ्क्षहदूमुसलिम कर के राजनीति करते हैं, ……… और ………… खेलते हैं, औरतें के रीतिरिवाजों के चक्करों में बांधतें हैं. नौकरियां मिलने पर घर में ही रह कर औरतें इन पाखंडों से भी बच सकेंगी और अपना खुद का पैसा भी बचा सकेंगी. आज दोहरी इंकम बहुत जरूरी है चाहे बच्चे कम हो. आज हर औरत को कोविड के अचानक प्रहार के लिए तैयार रहना पड़ेगा. आज वैसे भी चिकित्सा का बोझ भी बढऩे लगा है क्योंकि सरकार ने चिकित्सा सुविधा से हाथ पूरी तरह खींच लिया है. औरतों की अतिरिक्त कमाई उन के लिए बहुत जरूरी है.

वर्क फ्रौम होम तो एक तरह से औरतों के लिए आरक्षित हो जाना चाहिए और हर सरकारी व गैर सरकारी कंपनी को रिजर्वेशन देनी चाहिए. जरूरी हो तो इस का कानून बनें. औरतें अगर डेटा कनेक्शन खरीदें, मोबाइल खरीदें, लैपटौप खरीदें तो उन्हें करों में वैसे ही छूट दी जानी चाहिए जैसी स्टैंप ड्यूटी में दी जा रही है जिस के कारण आज बहुत संपत्ति औरतों के हाथ में आने लगी है.

ये भी पढ़ें- कोविड-19 में मृत्यु और प्रमाणपत्र

कोविड-19 में मृत्यु और प्रमाणपत्र

जीवन साथी के अचानक चले जाने का गम तो हरेक को होता है और कोविड 19 के कारण लाखों मौतों ने एकदम बहुतों को बिना साथी के समझौते करने पर मजबूर कर दिया है पर उस औरत की त्रासदी का तो कोई अंत नहींं  है जिस के पति का पता ही नहीं कि वह मौत के आगोश में गया तो कब और कहां. दिल्ली की एक औरत महिला आयोग के दरवाजे खटखटा रही है कि दिल्ली पुलिस और अस्पताल बता तो दें कि उस के पति की कब कहां मृत्यु हुई या वह कहीं आज भी ङ्क्षजदा है.

अप्रैल में पुलिस के अनुसार उस के पति को सडक़ के किनारे कहीं बेहोश पड़ा पाया गया था और एक अस्पताल में भर्ती करा दिया गया था. वहां से उसे दूसरे अस्पताल भेजा गया जहां कोई रिकार्ड नहीं है और अब पत्नी को नहीं मालूम कि उन का क्या हुआ. खुद कैंसर की मरीज पत्नी पति की मृत्यु के प्रमाण पत्र पाने के लिए भटक रही है.

जीवन साथी के चले जाने के बाद भी उस के हिसाबकिताब करने के लिए बहुत से प्रमाणों की जरूरत होती है. मृत्यु प्रमाण पत्र इस देश में बहुत जरूरी है. उस के बिना तो विरासत का कानून चालू ही नहीं हो सकता. धर्मभीरूओं को लगता है कि वे अगर सारे पाखंड वाले रीतिरिवाज नहीं करेंगे तो मृत को स्वर्ण नहीं मिलेगा और आत्मा भटकती रहेगी. बहुत मामलों में घरवाले जब तक मृतक का शव न देख लें, यह स्वीकार करने को तैयार ही नहीं होते कि मौत आ चुकी है.

ये भी पढ़ें- सपने सच होने का आनंद ही कुछ और होता है- शीतल निकम

जैसे उत्तर प्रदेश बिहार में बहुत से लोगों के मृत्यु प्रमाण पत्र उन के जिंदा रहते जारी कर दिए जाते हैं और वे अपने को जिंदा होने का प्रमाण पत्र खोजते दफ्तरों के चक्कर काटते रहते हैं, वैसे ही जो मगर गया उसे खोया गया मान कर कुछ अधूरा मान लिया जाता है जो अपनेआप में एक बहुत ही दुखद स्थिति होती है.

कोविड-19 के भयंकर प्रहार के दिनों में लोगों को अपने प्रियजन का शव देखने तक का अवसर नहीं मिला था पर उन्हें प्रमाण पत्र मिल गया था इसलिए संतोष कर लिया गया. इस मामले में जीवनसाथी का अभाव, अपनी बिमारी और कागजी कारवाई सरकारी लापरवाही के कारण पूरी न होने के कारण तीहरा दुख सरकार एक बेबस औरत को दे रही है.

ये भी पढ़ें- बैडरूम से पार्लर तक का सफर

बैडरूम से पार्लर तक का सफर

पूनम मेटकर  

ब्यूटीशियन व मेकअप आर्टिस्ट

कभी दीवारों पर अपने हाथ से एक पेपर पर लिख कर अपने पार्लर का ऐड करने वाली पूनम मेटकर से जब इस इंटरव्यू को करने के लिए समय मांगा तो उन्होंने खुशीखुशी अपने बेहद व्यस्त रूटीन को मैनेज कर ठाणे स्थित अपने खूबसूरत बड़े से पार्लर ‘चार्मी हेयर ऐंड ब्यूटी सैलून’ में आने के लिए कहा.

पेश हैं, उन से हुए कुछ सवालजवाब:

सब से पहले अपनी पढ़ाईलिखाई और परिवार के बारे में बताएं?

मैं मालेगांव, महाराष्ट्र से हूं, मायके में मम्मीपापा और हम 2 भाई, 3 बहनें हैं, मैं दूसरे नंबर की संतान हूं, पापा की ग्रौसरी की शौप थी. खाने वाले ज्यादा, कमाने वाले एक पापा. आर्थिक स्थिति ऊपरनीचे होती रहती थी. मुझे हर चीज को सजानेसंवारने का बचपन से ही बहुत शौक था. मैं पेंटिंग्स बनाती थी. पेंटिंग्स बेचने पर कुछ आमदनी हो जाती. मुझे यह धुन बचपन से थी कि मुझे कुछ करना है, कोई बिजनैस करना है. घर में खाली नहीं बैठूंगी. मैं ने इंग्लिश में एमए किया है. मेरी स्पोर्ट्स में भी बहुत रुचि थी. मैं अपनी यूनिवर्सिटी की फुटबाल टीम की कप्तान रही हूं. पापा ने कभी रोका नहीं, जो करना चाहा करने दिया.

ये भी पढे़ं- जागृति तो सिर्फ पढ़ने से आती है

शादी कैसे हुई, पति क्या करते हैं और ससुराल से कैसा सपोर्ट मिला?

अरैंज्ड मैरिज थी. पति जीएसटी में असिस्टैंट कमिश्नर हैं. एमए करते ही शादी हो गई थी. मुझे कुछ करना ही था, मैं ने एयर होस्टेस बनने के लिए 1 साल का कोर्स भी किया, पर मैं प्रैंगनैंट हो गई तो इस काम के बारे में मुझे सोचना बंद करना पड़ा. फिर मैं ने मेकअप का 6 महीने का बेसिक कोर्स किया. 9 महीने के बच्चे के साथ 6 महीने का कोर्स करने में मुझे डेढ़ साल लग गया. पति ने हमेशा मुझे बहुत सपोर्ट किया.

फिर मैं ने घर में ही अपने बैडरूम में ही 1 साल ब्यूटीपार्लर का काम किया. बहुत लेडीज आने लगीं. किसीकिसी को मैं ने फ्री सर्विस भी दी. मैं चाहती थी कि एक बार लोग आएं और मेरा काम देखें. मुझे पता था कि कोई लेडी एक बार मुझ से अपना फेशियल करवा लेगी तो वह जरूर दोबारा मेरे पास आएगी.

मुझे अपने काम करने के ढंग पर पूरा भरोसा था. वही हुआ, जो एक बार आई वह दोबारा अपनेआप आई. उन दिनों की मेरी क्लाइंट्स आज भी मुझ से ही फेशियल करवाती हैं. मैं कितनी भी बिजी रहूं, वे मेरा इंतजार करती हैं. 20 साल हो गए वे मेरे पास ही आती हैं.

ससुराल में जौइंट फैमिली है. ससुर डाक्टर हैं. आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी है. मैं 7 बहुओं में छठे नंबर पर हूं. जब मैं ने अपने पार्लर की इच्छा बताई तो किसी ने सपोर्ट नहीं किया, सब का कहना था कि क्या जरूरत है, आराम से रहो. मुझ पर तो अपने पैरों पर खड़े होने की धुन सवार थी. मैं नहीं रुकी. पति ने बहुत साथ दिया. बहुत काम किया, खूब कोर्स किए, बहुत काम सीखा. जावेद हबीब के हेयर कट का कोर्स किया.

आज भी जहां भी कोई कोर्स, वर्कशौप होती है, मैं अटैंड करने की पूरी कोशिश करती हूं. बौलीवुड के मेकअप आर्टिस्ट पंडरी दादा जुकर से मैं ने बहुत कुछ सीखा है. सिम्मी मकवाना के साथ काम किया है. कुछ अरसा पहले अहमदाबाद में इंडिया की टौप मेकअप आर्टिस्ट ऋ चा दवे से 10 दिन की ट्रेनिंग ली. यह फील्ड ऐसी है जहां पढ़ाई कभी खत्म नहीं होती, रोज कुछ न कुछ नया आता रहता है, बहुत कुछ सीखने के लिए रहता है.’’

लौकडाउन में कैसा समय बीता?

औनलाइन क्लासेज कीं. घर में ही प्रैक्टिस की. वर्कहोलिक हूं, खाली नहीं बैठ सकती. मेकअप करने का तो इतना शौक है कि कोई रात में नींद से उठा कर भी कहे कि मेकअप कर दो तो भी खुशीखुशी करूंगी. बहुत ऐंजौय करती हूं मेकअप फील्ड का.

कितना स्टाफ है?

पहले 7-8 लड़कियां थीं, अब लौकडाउन के बाद 4 ही हैं. मेरे यहां जो मेड्स हैं, मैं उन की लड़कियों को भी पार्लर में बुला कर कोई न कोई काम सिखाती हूं ताकि वे जब चाहें अपना कोई काम कर सकें. वे घरघर बरतन धोने जाएं, उस से अच्छा मैं उन्हें छोटीछोटी चीजें सिखा दूं. उन्हें साफसुथरी जगह रह कर पैसे मिल जाते हैं और मुझे यह संतोष रहता है कि मैं ने किसी गरीब लड़की को कोई चीज सिखा दी. लौकडाउन के टाइम पूरे स्टाफ के घर राशनपानी भेजती रही.

मुझे लड़कियों, महिलाओं को आगे बढ़ते हुए देख बड़ी खुशी होती है. मैं चाहती हूं कि सब कुछ न कुछ करें, खाली बैठ कर अपना टाइम खराब न करें.

ये भी पढ़ें- मतलब खोती शिक्षा

टाइम के साथ इतना सब सीखते हुए, इतनी मेहनत से आगे बढ़ते हुए, इतने खूबसूरत पार्लर में व्यस्त रह कर लाइफ में कितना चेंज आया है?

एक टाइम था जब ठाणे से मुंबई की कितनी ही जगहों पर अपने पार्लर का सामान लेने लोकल ट्रेन में आयाजाया करती थी. मेरे 2 बेटे हैं. एक बार तो प्रैगनैंसी टाइम में मैं लोकल ट्रेन से दोनों हाथों में सामान भर कर वापस आ रही थी. इतनी भीड़ थी कि मैं ठाणे स्टेशन पर उतर ही नहीं पाई. डोंबिवली चली गई. उस दिन की परेशानी नहीं भूलती. आज जब अपनी कार और ड्राइवर ले कर बाहर निकलती हूं तो कई बार वे दिन भी याद आ ही जाते हैं. ऐसा लगता है जैसे अपने बैडरूम से एक पार्लर तक का लंबा सफर तय किया है. अभी यहां रुकना थोड़े ही है. अभी बहुत कुछ है जिसे सीख कर आगे बढ़ती रहूंगी.

ससुराल के जिन लोगों ने उस समय सपोर्ट नहीं किया, वे आज क्या कहते हैं?

अब वे घर की बाकी बहुओं से कहते हैं कि देखो पूनम को. ऐसे अपना शौक पूरा करना चाहिए. देखो कितनी मेहनत से आज भी अपने काम में व्यस्त है, उस से सीखो कुछ. सब बहुत तारीफ करते हैं. मेरे बारे में सब को गर्व से बताते हैं.

आप अपने फ्यूचर को कहां देखती हैं?

बहुत आगे, अभी अपने पार्लर की ब्रांचेज खोलूंगी, अभी तो मुझे यही सब जानते हैं, एक दिन ऐसा होगा कि मेरे सेमीनार हो रहे होंगे और 100-200 लोग सीखने के लिए आएंगे. मैं रातदिन एक कर रही हूं,        -पूनम अहमद द

आत्मनिर्भर होना है जरुरी – जय भारती (बाइक राइडर)

पिछले कुछ सालों से ट्रेवल करना मेरे लिए जरुरी हो गया था. आर्किटेक्ट होने की वजह से मुझे जॉब के साथ ही बहुत ट्रावेल करना पड़ता था. मैं हर साल किसी न किसी क्षेत्र में ट्रेवल करती रही. जब मैं हैदराबाद वापस आई, तो मुझे GoUNESCO चैलेंज में भाग लेने के लिए कहा गया, जिसमें पूरे भारत में 28 UNESCO साइट्स को एक साल में पूरा करना था. मैने इस चैलेज को लिया और इसे जीतने के बाद ट्रेवलिंग की उत्कंठा और अधिक बढ़ गयी. इन बातों को हंसती हुई कह रही थी,39 वर्ष की हैदराबाद की‘मोवो संस्था’ की संस्थापक बुलेट बाइकर जय भारती.

मिली प्रेरणा

जय भारती ने छोटी अवस्था से ही पिता प्रसाद रावकी छोटी लूना मोपेड चलाना सीख लिया था. उनका कहना है कि मेरे भाई और मुझमें, पिता ने कभी अंतर नहीं समझा. इसके बाद से मुझे गाडी चलाने का शौक बढ़ा और जो भी मोटरसाइकिल मेरे घर आती थी, मैं उसे चलाती थी. पहले मैंने शौक से चलाया, लेकिन पिछले 10 सालों से मैं सीरियसली बाइक चला रही हूँ, जिसमें केवल भारत ही नहीं इंडोनेशिया, वियतनाम, अमेरिका आदि कई जगहों पर एक मिशन के साथ बाइक चला चुकी हूँ. ये सही है कि मैंने बाइक चलाना फैशन के रूप में सीखा, लेकिन बहुत सारी महिलाओं को भी गाड़ी चलने का शौक होता है,पर उन्हें कोई सीखाने वाला नहीं होता. मैंने अपनी संस्था की तरफ से कम आय वाली 1500 महिलाओं को गाड़ी चलाना मुफ्त में सिखाया है. कुछ प्राइवेट गाडी चलाती है, तो कुछ रोज की चीजों को मार्केट से लाकर बेचती है या फिर कहीं आने जाने के लिए चलाती है. इसमें मैं उन्हें लाइसेंस अपने पैसे से लेने के लिए कहती हूँ, ताकि परिवार के लोग इसमें शामिल हो, क्योंकि कई बार लड़कियां घर पर बिना बताये गाडी सिखती है, इसलिए ऐसा करना पड़ा. मेरी इस टीम में 10 संस्था की और 10 फ्री लांस काम करते है. इसके अलावा मेरी कोशिश रहती है कि महिला को महिला इंस्ट्रक्टर ही सिखाएं, इससे वे अधिक जल्दी सीख लेती है, क्योंकि उनका कम्फर्ट लेवल अधिक अच्छा होता है.

ये भी पढ़ें- हिमालय की पहाडिय़ों का नुकसान

मिलता है कॉन्फिडेंस

बाइक राइडिंग सीखने के बाद जीवन में आये परिवर्तन के बारें में जय भारती कहती है कि मैं कई सालों से बाइक चला रही हूँ. मैने देखा है कि बाइक पर बैठते ही मुझे एक कॉन्फिडेंस आ जाता है, क्योंकि किसी भी गाडी को चलाना, उसे कंट्रोल करना आसान नहीं होता, इसे कंट्रोल कर लेने के बाद व्यक्ति बहुत अधिक आत्मविश्वास पा लेता है, जो आगे चलकर उनके जीवन की किसी भी कठिनाई को सॉल्व कर सकती है.कैम्पेन ‘मूविंग बाउंड्रीज’भी एक ऐसी ही मिशन है, जिसमें दुनियाभर में महिलाओं को अपने आवागमन को लेकर कई अड़चनों का सामना करना पड़ता है. वे अच्छी पढ़ाई या किसी कामके लिए घर से ज्यादा दूर नहीं जा पातीं, क्योंकि वे गाड़ी चला नहीं सकती और असुरक्षित यात्रा नहीं करना चाहती, ऐसे में उनके पास रोज़गार के काफी सीमित मौके ही रह जाते है, मैंअपनी मोटरबाइक पर इन 40 दिनों की यात्रा को लेकर बेहद उत्साहित हूँ. इस दौरान मुझे देश भर में सभी वर्गों की महिलाओं से मिलने और वर्कशॉप करने का मौका मिलेगा. जहां मैं उन्हें यह बता सकती हूं कि ड्राइविंग एक ऐसा काम है, जो न सिर्फ उनके लिए संभव है, बल्कि वे इसे रोज़गार के रूप में चुन सकती है. एक सुरक्षित माहौल निर्माण करना बेहद ज़रूरी है, जहां महिलाओं को न सिर्फ यात्रा करने के लिए भरोसेमंद ट्रांसपोर्टेशन की सुविधा मिले, बल्कि वे अपने वाहन खरीदकर आजीविका भी कमा सकें. यह एक शानदार तरीका है, जिसमें रोजगार के साथ-साथ सुरक्षा की भी गारंटी होती है और महिलाओं को पुरुषों पर निर्भर होना कम हो सकेगा. मेरे यहाँ तक पहुँचने में मेरी पिता का सबसे बड़ा हाथ है, उन्होंने कभी मुझे किसी काम से मना नहीं किया, इसके बाद मेरी दो भाइयों ने भी सपोर्ट दिया.

होते है आश्चर्य चकित

क्या महिला होकर बाइक चलाने को लेकर किसी प्रकार के ताने सुनने पड़े, पूछे जाने पर जय भारती कहती है कि शुरू में कई बार ताने सुनने पड़ते थे. इसके अलावा मोटरसाइकिल चलाते वक्त सबको ड्रेस पहनने पड़ते है, हेलमेट लगाना पड़ता है, इससे वे अच्छी तरह से पहचान नहीं पाते है कि लड़की है या लड़का. हाँ ऐसा जरुर होता है कि जब मैं बाइक रोकती हूँ, तो लोग मुझे देखकर चौक जाते है. कुछ लोग उसे पोजिटिव रूप में भी लेते है और खुश होकर अपनी बेटियों को भी सिखाने की इच्छा जाहिर करते है. 40 दिन की ये सफ़र 11 अक्तूबर कोयानि ‘इंटरनेशनल गर्ल चाइल्ड डे’ के दिन हैदराबाद से शुरू होकर बंगलुरु, चेन्नई,कोचीन, गोवा, पुणे, मुंबई, अहमदाबाद, दिल्ली, श्रीनगर आदि जगहों पर होते हुए हैदराबाद में अंत हो जाएगा. ये सफ़र पूरे भारतवर्ष का है. इसमें मुझे सनराइज सेशुरू कर, सनसेट के बाद कही रुकना पड़ता है. इसमें 4 या 5 महिलाएं मेरे साथ भाग लेती है, जो उनकी व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर करता है.इस दौरान मैं हर जगह की महिला ट्रेनिंग सेंटर्स सेमिलने की कोशिश करुँगी और कुछ महिलाओं की कहानियों को दूसरे शहरों में फैलाना चाहती हूँ, क्योंकि चेन्नई में 200 से अधिक ऑटो ड्राईवर महिला है, स्टेचू ऑफ़ लिबर्टी के पास 50 प्रतिशत से अधिक महिला इलेक्ट्रिक ऑटो ड्राईवर है. इसलिए मैं दूसरे शहर की महिलाओं को प्रेरित करना चाहती हूँ, क्योंकि अगर मुंबई, अहमदाबाद, चेन्नई, दिल्ली आदि शहरों में महिलाये पब्लिक ट्रांसपोर्ट चला सकती है, तो बाकी शहरों में क्यों नहीं चला सकती. अधिक से अधिक महिला ड्राईवर देश में होने चाहिए.

ये भी पढ़ें- भारतीय जनता परिवार में पुरोहिताई को जोर

जरुरी है आत्मनिर्भर होना

जय भारती को इस काम में मुश्किल अधिक कुछ भी नहीं लगता है, क्योंकि बाइक चलाना मुश्किल नहीं होता, लेकिन सही संस्था के साथ जुड़ना आवश्यक है, क्योंकि हमारे देश में कई संस्थाएं है, जहाँ महिलाओं को ट्रेनिंग दी जाती है, पर वे इसे रोजगार के रूप में नहीं ले पाती, इन संस्थाओं में अधिक से अधिक महिलाओं को ड्राइविंग की ट्रेनिंग देकर उन्हें आत्मनिर्भर बनाना है. इसके लिए इच्छुक महिलाओं को ढूढ़ निकालना भी बहुत मुश्किल होता है.

अनदेखा न करें ट्राफिक नियम

पेशे से मैं आर्किटेक्ट हूँ, लेकिन 2 साल पहले मैंने इसे छोड़ सोशल काम करना शुरू किया. इस काम में उम्र सीमा नहीं होती, पहले तो महिलाएं किसी की बाइक लेकर सीखती थी. पिछले 10 सालों में बहुत बदलाव आया है. आज तो किसी के बर्थडे पर बाइक गिफ्ट की जाती है. बाइक चलाना सीखते वक्त सबका सहयोग होता है, लेकिन सबसे अधिक सपोर्ट पुणे में मिला है. कुछ जगहों पर महिलाएं बिना बताये ड्राइविंग सीखने आ जाती है और कॉंफिडेंट होने पर घरवालों को बताती है. ड्राइविंग में सबसे जरुरी है, ट्राफिक के नियमों का पालन करना, लाइसेंस लेना, स्पीड लिमिट सही रखना, ताकि आप सुरक्षित ड्राइव कर सकें.

धर्म हो या सत्ता निशाने पर महिलाएं क्यों?

अफगानिस्तान में मजहबी और सियासती लड़ाई जारी है. मूल में उस का धर्म इसलाम है. कट्टरपंथी तालिबान शरिया कानून का सख्त हिमायती है. वह इंसान के पहनावे से ले कर व्यवहार तक को अपने मुताबिक चलाना चाहता है. वह पुरुष से दाढ़ी रखने व टोपी लगाने और स्त्री से हिजाब ओढ़ने का सख्ती से पालन करवाने वाला है. औरतों के मामले में उस के विचार बेहद कुंठित हैं.

तालिबान औरतों को सैक्स टौय से ज्यादा कुछ नहीं समझता. यही वजह है कि पढ़ीलिखी, दफ्तरों में काम करने वाली और तरक्की पसंद अफगान औरतों में निजाम बदलने से बहुत ज्यादा बेचैनी है. उन्हें मालूम है तालिबान अभी भले यह ऐलान कर रहा हो कि वह औरतों की पढ़ाई और काम पर रोक नहीं लगाएगा, मगर जैसे ही पूरा अफगानिस्तान उस के कब्जे में होगा और तालिबानी सत्ता कायम होगी, औरतों की स्थिति सब से पहले बदतर होने वाली है. उन्हें एक बार फिर अपना कामधंधा और पढ़ाईलिखाई छोड़ कर घरों में कैद रहना होगा. खुद को हिजाब में  लपेट कर शरिया कानून का सख्ती से पालन करना होगा.

इस वक्त अफगानिस्तानी गायक, फिल्मकार, अदाकारा, डांसर, प्लेयर किसी तरह अफगान से निकल भागने की फिराक में हैं. तालिबान के कब्जे के बाद से बड़ी संख्या में कलाकारों ने अफगानिस्तान छोड़ दिया है. वजह यह कि तालिबान ने उन्हें शरिया कानून के अनुसार अपने पेशे का मूल्यांकन करने और उस के बाद पेशे को बदलने का फरमान सुना दिया है.

अगर उन्होंने नाफरमानी की तो वे गोलियों का निशाना बनेंगे क्योंकि तालिबान अपना उदारवादी मुखौटा बहुत देर तक अपने चेहरे पर नहीं संभाल सकता है. अमेरिकी सेनाओं की  पूरी तरह वापसी के बाद वह अपने असली रंग में आ जाएगा.

अब सिर्फ यादें

जो अफगान औरतें 60 के दशक में अपनी किशोरावस्था में थीं या जवानी की दहलीज पर पांव रख रही थीं, वे अब बूढ़ी हो चली हैं, मगर उस दौर के अफगानिस्तान की याद उन की आंखों में चमक पैदा कर देती है. पहले ब्रितानी संस्कृति और फिर रूसी कल्चर के प्रभाव के चलते 60 के दशक में अफगान महिलाओं की लाइफ बहुत ग्लैमरस हुआ करती थी.

ये भी पढ़ें- लड़कियों के बचकानेपन का लाभ

आज जहां वे बिना परदे के बाहर नहीं निकल सकतीं, उस अफगान की जमीन पर कभी फैशन शो आयोजित हुआ करते थे. महिलाएं शौर्ट स्कर्ट, बैलबौटम, मिडी, लौंग स्कर्ट, शौर्ट टौप जैसी पोशाकों पर रंगीन स्कार्फ और मफलर लपेटे दिखाई देती थीं. ऊंची हील पहनती थीं. बालों को स्टाइलिश अंदाज में कटवाती थीं. खुलेआम मर्दों की बांहों में बांहें डाले शान से घूमती थीं. क्लब, स्पोर्ट्स, पिकनिक का लुत्फ उठाती थीं.

काबुल की सड़कों पर अफगानी महिलाओं का फैशनेबल स्टाइल हौलीवुड की अभिनेत्रियों से कम नहीं था. वे उच्च शिक्षा प्राप्त कर बड़े ओहदों पर काबिज होती थीं. 1960 से ले कर 1980 के बीच के फोटो देखें तो पाएंगे कि अफगानिस्तान में महिलाएं कितनी स्वच्छंद और आजाद थीं. वे फैशन सहित हर फील्ड में आगे थीं. तब के काबुल की तसवीरें ऐसा आभास देती हैं कि  जैसे आप लंदन या पैरिस की पुरानी तसवीरें  देख रहे हैं.

फोटोग्राफर मोहम्मद कय्यूमी के फोटो उस दौर का सारा हाल बयां करते हैं. चाहे मैडिकल हो या एयरोनौटिकल, अफगान महिलाएं हर फील्ड में अपनी जगह बना चुकी थीं. 1950 के आसपास अफगानी लड़केलड़कियां थिएटर और यूनिवर्सिटीज में साथ घूमते और मजे करते थे. औरतों की लाइफ बहुत खुशनुमा थी.

हर क्षेत्र में आगे थीं

उस समय अफगान समाज में महिलाओं की अहम भूमिका थी. वे घर के बाहर काम करने और शिक्षा के क्षेत्र में मर्दों के कंधे से कंधा मिला कर चलती थीं. 1970 के दशक के मध्य में अफगानिस्तान के तकनीकी संस्थानों में महिलाओं का देखा जाना आम बात थी. काबुल के पौलिटैक्निक विश्वविद्यालय में तमाम अफगानी छात्राएं मर्दों के साथ शिक्षा पाती थीं. 1979 से 1989 तक अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप के दौरान कई सोवियत शिक्षक अफगान विश्वविद्यालयों में पढ़ाते थे. तब औरतों पर मुंह को ढकने का कोई दबाव नहीं था. वे अपने पुरुष दोस्तों के साथ काबुल की सड़कों पर आराम से घूमती और मस्ती करती थीं.

मगर 1990 के दशक में तालिबान का प्रभाव बढ़ने के बाद महिलाओं को बुरका पहनने की सख्त ताकीद की गई और उन के बाहर निकलने पर भी रोक लगा दी गई.

अफगानिस्तान हो या भारत, धर्म ने सब से ज्यादा नुकसान औरतों का ही किया है. सब से ज्यादा जुल्म औरतों पर ढाया है. सब से ज्यादा गुलामी की जंजीरों में औरतों को जकड़ा है. अगर कोई पुरुष भी धर्म के हाथों मारा जाता है तो उस की पीड़ा भी औरत ही उठाती है. एक पुरुष के मरने पर कम से कम 4 औरतें तकलीफ से गुजरती हैं और ताउम्र उस तकलीफ को झेलती हैं. वे हैं उस पुरुष की मां, बहन, बीवी और बेटी. धर्म औरत का सब से बड़ा दुश्मन है. धर्म की जंजीरों को काटने का फैसला औरत को ही लेना होगा. यह हौसला उस में कब जागेगा, फिलहाल कहना मुश्किल है.

धर्म तो एक बहाना है

अभी तो अफगानिस्तान में इसलाम मजबूत हो रहा है और भारत में हिंदुत्व. कोई ज्यादा फर्क नहीं है. वे इसलाम के नाम पर मारकाट करते हैं, ये हिंदुत्व के नाम पर करते हैं. धर्म के ठेकेदार सत्ताधारियों को अपनी मनमरजी पर चलाते हैं और उन के हाथों ये गुनाह करवाते हैं. फिर चाहे वे अफगानिस्तान में हों या हिंदुस्तान में. सत्ता की जबान से औरतों को जलील करवाया जाता है.

बीते एक दशक में जब से हिंदुस्तान में हिंदुत्व का पारा चढ़ना शुरू हुआ है सत्ताशीर्ष पर बैठे लोग औरत की गरिमा को तारतार करने में लगे हैं. औरत की बेइज्जती कर के वे खुद को ताकतवर दिखाने की कोशिश में हैं. भारतीय राजनीतिक विमर्श में कांग्रेस की विधवा, बार बाला, इटैलियन डांसर, भूरी काकी, वेश्या, चुड़ैल, कुतिया, दीदी ओ दीदी, ताड़का जैसे स्वर्णिम शब्दों से औरत का महिमामंडन करने का काम हिंदू हृदय सम्राट अकसर करते हैं. इस का विराट उद्घाटन ‘पचास करोड़ की गर्लफ्रैंड’ जुमले के साथ हुआ था जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुख से कांग्रेस नेता शशि थरूर की मृतक पत्नी सुनंदा पुष्कर के लिए 29 अक्तूबर, 2012 को झरे थे.

ये भी पढ़ें- तालिबानी ऐसा क्यों कर रहे हैं?

इतनी कुंठा किसलिए

प्रियंका गांधी जब चुनावी दौर में प्रचार के लिए उतरती हैं तो उन के कपड़ों से ले कर उन के नैननक्श तक पर राजनेताओं द्वारा टिप्पणी की जाती है. प्रियंका को ले कर ये बातें भी खूब कही गईं कि खूबसूरत महिला राजनीति में क्या कर पाएगी. वहीं शरद यादव का वसुंधरा राजे पर किया गया कमैंट भी याद होगा जब उन्होंने उन के मोटापे पर घटिया टिप्पणी की थी कि वसुंधरा राजे मोटी हो गई हैं, उन्हें आराम की जरूरत है.

महिलाओं के संबंध में ये अनर्गल बातें करने वालों को धर्म की घुड़की कभी नहीं मिलती. धर्म के ठेकेदार ऐसी बातों पर हंसते हैं और सत्ता में बैठे ऐसे लोगों को प्रोत्साहित करते हैं. हैरानी की बात है कि सत्ता की ताकत हासिल करने वाली महिलाओं में भी महिलाओं के प्रति ऐसी जलील बातें करने वालों का विरोध करने या उन्हें फटकारने का साहस नहीं उपजता.

समलैंगिकता और मिथक

कुछ दिनों पहले एक फ़िल्म आई थी शुभ मंगल ज़्यादा सावधान उसमें के समलैंगिक जोड़े को अपनी शादी के लिए परिवार समाज और माता पिता से संघर्ष करते हुए दिखाया था वो कहीं न कहीं हमारे समाज की सच्चाई और समलैंगिकों के प्रति होने वाले व्यवहार के बहुत करीब थी.

अब जबकि समलैंगिकता गैरकानूनी नहीं रही है ऐसे में समलैंगिक लोग खुलकर सामने आ रहे हैं . पहले अपने रिश्तों को स्वीकारने में ऐसे जोड़ों को जो झिझक होती थी अब वो कम हुई है. कानून कुछ भी कहे पर समाज में अभी भी ऐसे जोड़ों को स्वीकृति नहीं मिली है. लोग ऐसे जोड़ों को स्वीकारने में संकोच करते हैं क्योंकि उनके मन मे इन लोगों को लेकर कई प्रकार की धारणाएँ और पूर्वाग्रह हैं. कुछ ऐसे ही मिथकों के बारे में हम बता रहे हैं.

मिथक-ये वंशानुगत है

सच-समलैंगिकता वंशानुगत नहीं होती है इसके लिए कई कारक जिम्मेदार हो सकते हैं. कई लोग बचपन से ही अपने माँ या पिता या भाई बहन पर भावनात्मक रूप से निर्भर रहते हैं इसके कारण उनकी रुचि पुरुष या महिलाओं में हो सकती है और वो समलैंगिकता अपना सकते हैं. जेंडर आइडेन्टिटी डिसऑर्डर भी इसकी एक वाजिब वजह है. ये एक ऐसी बीमारी है जो समलैंगिकता के लिए जिम्मेदार है. इस बारे में कई थ्योरी हैं जिनके आधार पर बात की जाती है. अभी सही सही कारणों का पता तो नहीं लग पाया है फिर भी ये मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि समान सेक्स के लिए शारीरिक आकर्षण अप्राकृतिक तो नहीं है.  वैसे भी स्वभाव से मनुष्य बाइसेक्सुअल होता है ऐसे में उसकी रुचि किसी मेभी हो सकती है. डॉ रीना ने बताया कि मेरे पास आने वाले जोड़ों में किसी के घर मे कोई समलैंगिक नही था. उनके अनुसार किसी को समलैंगिक बनाया नहीं जा सकता है . समलैंगिक होना भी उतना ही स्वाभाविक है जितना एक स्त्री और पुरुष के बीच का रिश्ता़ें.

ये भी पढें- और बाइज्जत बरी…

मिथक-ये लोग असामान्य होते हैं

सच-मनोचिकित्सकों की मानें तो ये लोग आपकी और हमारी तरह ही सामान्य बुद्धि के होते हैं बस अंतर है सेक्स की रुचि का. बाकी अगर देखा जाए तो बुद्धि इनकी भी सामान्य ही होती है. भावनाओं की बात करें तो ये बहुत अधिक भावुक होते हैं क्योंकि हर वक़्त इन्हें अपने स्वीकार्य को लेकर चिंता बनी रहती है. इनके लिए विरोध की पहली शुरुवात घर से ही हो जाती है क्योंकि माता पिता और परिवार समलैंगिकता को सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ के देखते हैं. हर एक के लिए सामान्य होने की अलग परिभाषा होती है पर समलैंगिकों की बात करें तो चूँकि इनके रिश्ते में संतानोत्पत्ति सामान्य तरीके से संभव नहीं इसलिए इस रिश्ते को समाज सामान्य नहीं मानता. वंश को आगे बढ़ना हमारी सामाजिक सोच का हिस्सा है जिसकी पूर्ति इस से संभव नहीं . पर मनोचिकित्सकों की माने तो यहाँ बात सामान्य होने की नहीं बल्कि सेक्स में उनकी रुचि की है. यदि कोई व्यक्ति समान सेक्स के प्रति आकर्षण महसूस करता है तो ये पूरी तरह सामान्य बात है. मुम्बई के हीरानंदानी अस्पताल के मनोचिकित्सक डॉ हरीश शेट्टी के अनुसार अपने ही सेक्स के व्यक्ति के रुचि रखना एक सामान्य बात है क्योंकि ऐसे लोगों को विपरीत सेक्स के प्रति कोई आकर्षण नहीं होता. मनोचिकित्सक कहते हैं कि एक समलैंगिकता स्वाभाविक तौर पर होती है जो खुद की चुनी हुई होती है और एक परिस्थितिजन्य होती है जिसमे किसी अनजान भय जैसे कि मैं विपरीत सेक्स वाले के साथ होने पर उसे संतुष्टि दे सकूँगा /सकूँगी या नहीं ये छद्म समलैंगिकता है.

मिथक- इन्हें यौन संक्रमण ज्यादा होता है

सच-कुछ लोगों का मत है कि सेक्स वर्कर्स , किन्नरों नशे के इंजेक्शन लेने वाले नशेड़ियों और समलैंगिकों में एड्स और अन्य यौन जनित रोग होने की संभावना अधिक होती है. अभी कुछ समय पहले हमारे यहाँ समलैंगिकता को कानूनी रुप से मान्यता न होने से एक ही साथी के साथ घर  बसा के नहीं रह पाते थे ऐसे में शारीरिक आवश्यकताओ के कारण एक से अधिक लोगों के साथ संबंध बन जाना भी इसका मुख्य कारण है. हालाँकि ऐसा नहीं है कि एस टी डी केवल समलैंगिकों को होती है ये तो हेट्रोसेक्सुअल लोगों में भी होती है. यौन संबंधों में सुरक्षा का खयाल न रखा जाए तो भी ऐसे रोगों का खतरा होता है. इसलिए ये एक मिथक ही है कि समलैंगिकों में सेक्सुअल ट्रांसमिटेड डिसीज़ ज्यादा होती हैं.

मिथक- शादी इसका हल है

सच-समलैंगिकों से जुड़ा सबसे बड़ा मिथक ये है कि इनकी शादी करा दी जाए तो सब ठीक हो जाएगा जबकि ऐसा बिल्कुल भी नही है. कई बार माता पिता दबाव डाल कर शादी कर देते हैं ऐसे में जिस से शादी होती है उसका जीवन तो खराब होता ही है बल्कि दूसरे का जीवन खडाब करने का अपराधबोध उनके बच्चे को भी अवसादग्रस्त कर देता है सब मिला कर शादी इसका हल नहीं है. यदि आपके बच्चे ने आपको अपनी सेक्सुअल वरीयता के बारे में बता रखा है तो ऐसे में उस पर दबाव डालकर शादी करने की भूल कभी न करें क्योंकि इस से दो जीवन खराब होंगे. ऐसी शादियाँ सिवाय असंतुष्टि के कुछ नहीं देतीं क्योंकि ऐसे लोगों में विपरीत सेक्स के प्रति कोई भावना नहीं पनप पाती ऐसे में वो अपने साथी के साथ रिश्ते बनाने में असमर्थ होता है नतीजतन शादी टूट जाती है.

ये भी पढ़ें- जनसंख्या नियंत्रण और समाज

मिथक-ये वंश वृद्धि में असमर्थ होते हैं

सच-लोग कहते हैं कि अगर ऐसी शादी होगी तो वंश का क्या होगा क्योंकि प्राकृतिक तरीके से संतानोत्पत्ति संभव नहीं होगी. पर सच ये है कि यदि बच्चे की इच्छा है तो आजकल आई वी एफ के द्वारा ये किया जा सकता है . बच्चा गोद लेना भी एक अच्छा विकल्प है. यदि ऐसा व्यक्ति जो विपरीत सेक्स के प्रति झुकाव महसूस नहीं करता वो अपने साथी के साथ रहता है और अपना जैविक बच्चा चाहता है तो एग डोनेशन या स्पर्म डोनेशन और सरोगेसी इसका अच्छा उपाय है. मनोचिकित्सकों के अनुसार सेक्स सिर्फ़ बच्चा पैदा करने का जरिया नहीं है बल्कि ये भावनात्मक लगाव दर्शाने का और अपने साथी का प्यार पाने का तरीका भी है .

जिम्मेदार कौन: कानून या धर्म

अच्छे खातेपीते घरों के पुरुषों की लार किस तरह मजदूरों की छोटी लड़कियां देखतेदेखते टपकने लगती है, इसका एक उदाहरण दिल्ली में देखने को मिला. यह 13 साल की लडक़ी अपने मातापिता और 3 भाईबहनों के साथ एक किराए के कमरे में रहती थी. उस के मकान मालिक उस के पिता को बहका कर अपने एक रिश्तेदार के साथ गुडग़ांव भेज दिया कि रिश्तेदार के यहां हमउम्र बेटी के साथ खेल सकेगी.

एक माह बाद पिता को खबर किया कि फूड पायजङ्क्षनग की वजह से लडक़ी की मृत्यु हो गई है और वे बौडी को एंबूलेंस में दिल्ली ला रहे हैं ताकि परिवार उस का हाद कर सकें. पिता तैयार भी था पर पड़ोसियों के कहने पर उस ने बेटी का शरीर जांचा तो खरोंचे दिखीं. एक अस्पताल में जांच करने पर पता चला कि उसे बेरहमी से रेप किया गया था और गला घोंट कर मार डाला गया था.

ऐसी घटना हजारों की गिनती में देश में हर माह दोहराई जाती है. कुछ अखबारों और पुलिस थानों तक पहुंचती हैं. ज्यादातर दवा दी जाती हैं. जहां मृत्यु नहीं हुर्ई हो, वहां तो लडक़ी वर्षों तक उस मानसिक व शारीरिक जख्म को ले कर तड़पती रहती है.

ये भी पढ़ें- बच कर रहें ऐसे सैलूनों से

कानून कैसा भी हो, बलात्कारी को कैसा भी दंड मिले, यह तो पक्का है कि जो अपराध हो गया उस का सामाजिक व भौतिक असर कानूनी मरहम से ठीक नहीं हो सकता. अपराधी को सजा मिलने का अर्थ यह भी होता है कि वास्तव में लडक़ी का रेप हुआ था और बातें बनाने वाले कहना शुरू कर देते हैं यह तो सहमति से हुआ सेक्स था जिस में बाद में लेनदेन पर झगड़ा हो गया. रेप की शिकार को वेश्या के से रंग में पोत दिया जाता है.

रेल का अपराध एक शारीरिक अपराध के साथ एक सामाजिक अपंगता बन जाता है, यह इस अपराध को करने देने की सब से ज्यादा जिम्मेदारी कहां जा सकता है. अगर रेप को महज मारपीट की तरह माना जाता तो हर रेप पर खुल कर शिकायत होती और हर बलात्कारी डरा रहता कि पकड़ा जाएगा तो न जाने क्या होगा. अब हर बलात्कारी जानता है कि लडक़ी चुप रहेगी क्योंकि बात खोलने पर बदनामी लडक़ी और उस के परिवार की ज्यादा होगी, लडक़ी के भाईबहन तक उस से घृणा करेंगे, मातापिता हर समय अपराध भाव लिए घूमेंगे. जब विवाहित अहिल्या का अपने पति गौतम वेषधारी इंदु के साथ संबंध में दोषी अहिल्या मानी गई हो और जहां बलात्कारों से बचने के लिए का जौहर को महिमामंडित किया जाता हो और विधवा का पुनॢववाह तक मंजूर न हो, वहां यह मानसिकता होना बड़ी बात नहीं है.

ये भी पढ़ें- युद्ध में औरतें होतीं हैं जीत का पुरुस्कार

रेप पर दोषी के दंड अवश्य मिलना चाहिए पर यह संभव तो तभी है न जब रेप की शिकार शिकायत करे और फिर उस घटना का पलपल पुलिस, डाक्टर, काउंसलर, अदालत, वकील को बताएं. जब उसे हर घटना को बारबार दोहरा कर फिर जीना होगा तो चुप रहना ही ज्यादा अच्छा रहेगा. कमी कानूनों में नहीं, कमी व्यवस्था की नहीं. कमी उस धाॢमक सामाजिक व्यवस्था की है जिस में हर मंदिर को तो आदमी देखते ही सिर झुका देता है पर तुरंत बाद में लडक़ी को लपकने की इच्छा से ताकने लगता है. क्या अपनेआप का सृष्टि……भगवान की एजेंसी कहने वाला धर्म अपने भक्तों को रेप करने से नहीं रोक सकता?

तो फिर जिम्मेदार कानून नहीं धर्म है, समाज है.

विवाह एक कानूनी समझौता

औरतों के हकों के बारे में आज भी देश का एक बड़ा वर्ग जिस में जज भी शामिल हैं, औरतों को विवाह की गुलामी करने को सामाजिक जरूरत समझता है. बुलंदशहर की एक औरत अपने पति को छोड़ कर अपने एक प्रेमी के साथ रह रही है. उस का पति जबरन उस के घर में घुस कर दंगा करता था तो और ने अदालत के दरवाजा खटखटाया.

इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीशों जस्टिस …..कौशल जयेंद्र ठाकर और जस्टिस ने सुभाष चंद ने औरत को छूट देने से इंकार करते हुए कहा कि अदालत का दखल समाज में संदेश देगा कि अदालत इस अनैतिक संबंध को बढ़ावा दे रही है. अपनी बात की लीपापोती करते हुए अदालत ने यह अवश्य जोड़ा कि वह लिवइन संबंधों के खिलाफ नहीं है और धर्म और सैक्स के भेदभाव के बावजूद हरेक को अपने मनमर्जी के साथ रहने का हक है पर एक विवाहता अदालत से संरक्षण की मांग करेगी तो लगेगा कि अदालत समाज का तानाबाने तोड़ रही है.

विवाह एक कानूनी समझौता है जिस पर धर्म सवार हो गया है. असल में तो यह 2 जनों का ग्रेजी समझौता है और जब तक दोनों चाहें तभी तक ङ्क्षजदा रह सकता है. तो जैसे 2 भाई एक कमरे में मन मारकर रहने को मजबूर हो सकी है या 2 आफिस सहकर्मी झगड़े के बावजूद एक दूसरे के निकट बैठने को मजबूर किए जा सकते हैं, कानून उन्हें तब तक साथ रहने की इजाजत दे सकता है जब वे चाहें. विवाह या साथ रहना नितांत निजी मामला है, पौराणिक ग्रंथ भरे पड़े हैं जिन में आदमी और औरतों ने धाॢमक विवाह होने के बाद दूसरों से विवाह किया. आमतौर पर यह हक पुरुषों को ही था पर आज तब भी और आज भी औरतों के हजारों के साथ जबरन या सहमति से संबंध बनते रहे हैं.

ये भी पढ़ें- विश्व को पर्यावरण प्रदूषण से मुक्त करने के लिए क्या कहते है,‘फारेस्ट मैन ऑफ़ इंडिया’ जादव मोलई पायेंग

समाज ने तो नहीं पर धर्म और शासकों ने इसे अपराध मात्र है क्योंकि उन्हें डर रहता है कि औरतें आजाद हो जाएंगी तो उन्हें मुफ्त के गुलाम मिलने बंद हो जाएंगे. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यही किया है क्योंकि उस ने बारबार औरतों हकों की बात की है पर विवाहित औरतों के हकों को नकारा है.

विवाह औरत अकेली पर बंधन हो यह गलत है. तलाक का हक पति को है और यदि पत्नी किसी दूसरे के घर रह रही है तो अदालत को सालों नहीं, घंटों में तलाक दे देना चाहिए, चाहे बच्चे हो या नहीं, संपत्ति का बंटवारा हो या न हों. ये बातें बाद में हो सकती हैं.

अगर एक औरत हाई कोर्ट तक पहुंचती है और सुरक्षा मांगती है तो निश्चि बात है कि उसे पति जरूरत से ज्यादा परेशान कर रहा है उस को संरक्षण देना कानून का काम है और समाज के 2 फैब्रिक का नाम ले कर उसे गुलाम बने रहने या मारपीट सहने को मजबूर नहीं किया जा सकता.

ये भी पढ़ें- कोरोना में नर्सों का हाल

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें