Holi 2024: काले घोड़े की नाल- क्या चाहता था चंद्रिका

मुखियाजी को घोड़े पालने का बहुत शौक था. बताते हैं कि ये शौक उन को विरासत में मिला हुआ था. आज भी मुखियाजी के पास 5 घोड़े थे, जिन की देखभाल का काम उन्होंने चंद्रिका नाम के 35 साला एक शख्स को दे रखा था.

मुखियाजी की उम्र तकरीबन 50-55 उम्र के बीच, फिर भी बढ़ती उम्र का कोई असर नहीं पता चलता था. रोज सुबहशाम दूध पीते और लंबी सैर को जाते. अपनी जवानी के दिनों में आसपास के इलाकों में खूब दंगल जीते थे मुखियाजी ने.

पीठ पीछे कोई मुखियाजी को कुछ भी कहे, पर उन के सामने सभी नतमस्तक नजर आते थे.

मुखियाजी और उन की पत्नी के जीवन में एक बहुत भारी कमी थी कि दोनों के कोई औलाद नहीं थी. घरेलू नुसखों से कई बार उपचार करने की कोशिश भी की गई, पर कुछ नतीजा नहीं निकला. मुखियाइन की गोद हरी नहीं हो सकी और दोनों हार कर हाथ पर हाथ धर कर बैठ गए.

मुखियाजी को अपनी वंश बेल सूखने की कतई परवाह नहीं थी. उन्हें तो अपनी जिंदगी में अपनी सभी इंद्रियों से सुख उठाना अच्छी तरह आता था.

मुखियाजी कुल मिला कर 3 भाई थे, मुखियाजी से छोटा वाला संजय और सब से छोटा विनय, दोनों भाई मुखियाजी के प्रभाव में दबे हुए रहते थे. किसी की भी उन के सामने जबान खोलने की हिम्मत नहीं थी.

पिछले कुछ दिनों से मुखियाजी के मन में उन के किसी चमचे ने समाजसेवा का शौक लगा दिया था, तभी तो मुखियाजी हर किसी से यही कहते कि बड़े घर से तो हर कोई रिश्ता जोड़ना चाहता है, पर मैं तो संजय और विनय की शादी किसी गरीब घर की लड़की से ही करूंगा.

हां… पर लड़की खूबसूरत और सुशील होनी चाहिए, समाजसेवा भी होगी और किसी गरीब का भला भी हो जाएगा.

आसपास के गांव में कम पैसे वाले ठाकुर भी रहते थे. उन में से बहुत से लोग मुखियाजी के यहां अपनी लड़कियों का रिश्ता ले कर पहुंचे. मुखियाजी ने लड़कियों के फोटो रखवा लिए और बाद में संपर्क करने को कहा.

कुछ दिन बाद मुखियाजी ने उन सारे फोटो में से 2 खूबसूरत लड़कियों को पसंद किया. हैरानी की बात थी कि मुखियाजी ने जो 2 लड़कियां पसंद की थीं, वो अपेकक्षाकृत भरेपूरे बदन की थीं.

मुखियाजी ने उन दोनों के पिताजी को बुला भेजा और हर किसी से अकेले में बात की, “देखिए, हम अपने भाई संजय के लिए एक लड़की ढूंढ़ रहे हैं… पर हमारी 2 शर्तें हैं…

“पहली शर्त तो यह है कि फोटो देख कर लड़की की बुद्धिमत्ता का परिचय नहीं मिलता, इसलिए हम व्यक्तिगत रूप से लड़की से मिलना चाहेंगे… और दूसरी शर्त क्या होगी कि ये हम आप को रिश्ता तय होने के बाद बताएंगे.”

दूसरी शर्त वाली बात से लड़की का पिता थोड़ा घबराया, तो मुखियाजी ने उस से कहा कि ऐसी कोई शर्त नहीं होगी, जिसे वे पूरा न कर सकें. उन की इस बात पर लड़की के बाप को कोई आपत्ति नहीं हुई.

उन लोगों ने घर जा कर अपनी बेटियों को नैतिकता का पाठ पढ़ाना शुरू कर दिया कि मुखियाजी के सभी सवालों का उत्तर सही से देना और सासससुर की बात मानना एक अच्छी बहू के गुण होते हैं.

मुखियाजी को आखिरकार सीमा नाम की एक लड़की पसंद आ गई.

“देखो सीमा, संजय को हम ने ही पालपोस कर बड़ा किया है, इसलिए हमारी हर बात मानता है वह. यही उम्मीद हम तुम से भी करते हैं… मानोगी न हमारी बात,” सीमा की पीठ पर हाथ घुमाते हुए मुखियाजी ने कहा. सीमा ने सिर्फ हां में सिर हिला दिया.

मुखियाजी ने सीमा के बाप मोती सिंह को बुलाया और कहा कि उन की लड़की उन्हें पसंद आ गई है और सब से पास वाले मुहूर्त बमें वे सीमा और संजय की शादी कर दें और फिर मुखियाजी ने सीमा के बाप मोती सिंह को अपनी दूसरी शर्त के बारे में बताया, “हमारी दूसरी शर्त ये है कि तुम हमें अपनी लड़की दे रहे हो, इसलिए हमारा भी फर्ज है कि हम तुम्हें अपनी तरफ से कुछ भेंट दें,” ये कह कर मुखियाजी ने 50,00 रुपए मोती सिंह को पकड़ा दिए. मोती सिंह उन की दरियादिली पर खुश हो गया. उस ने मुखियाजी के सामने हाथ जोड़ लिए.

संजय और सीमा की शादी हो गई थी, पर मुखियाजी का सख्त आदेश था कि अभी संजय और सीमा की सुहागरात का उचित समय नहीं है, इसलिए संजय को अलग कमरे में सोना पड़ेगा.

मुखियाजी अपने दोनों भाइयों के गांवों में रहने के सख्त खिलाफ थे. उन का साफ कहना था कि अगर तुम लोग गांव में रुक गए, तो यहां के गंवार लड़कों के साथ तुम लोग भी नहर पर बैठ कर चिलम पीया करोगे और आवारागर्दी करोगे और ये बात मुखियाजी को मंजूर नहीं, इसलिए मेहमानों के जाते ही संजय और विनय को शहर चलता कर दिया गया. बेचारा संजय अभी अपनी पत्नी के साथ सैक्ससुख भी नहीं ले पाया था और उस से अलग हो जाना पड़ा.

सीमा ने संजय से न जाने की फरियाद भी की, पर मुखियाजी का आदेश संजय के लिए पत्थर की लकीर था, इसलिए वह कुछ न बोल सका.

इसी तरह पूरे 6 महीने हो गए थे संजय को गए हुए, सीमा ने एक मर्द के शरीर का सामीप्य अभी तक नहीं जाना था. वह अकसर सोचती कि ऐसी शादी से क्या फायदा कि दिनभर घर का काम करो और रात में बिस्तर पर करवटें बदलो…

बाहर बारिश हो रही थी. सीमा अपने बिस्तर पर लेटी हुई थी कि उसे अपने पैरों पर किसी के गरम हाथ की छुअन महसूस हुई. वे हाथ उस की जांघों तक पहुंच गए थे, कोई उस के सीने पर अपने हाथों का दबाव बढ़ा रहा था. सीमा की सांसें गरम हो गई थीं. उस का स्पर्श सीमा को बहुत अच्छा लग रहा था. सीमा को लगा कि उस का पति संजय ही वापस आ गया है. उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं और आंनद लेना शुरू कर दिया. उस आदमी ने सीमा के सारे कपड़े हटा दिए और सीमा के स्त्री शरीर में प्रवेश कर गया.

सीमा को आज पहली बार मर्द की मर्दानगी का मजा मिला था. संभोग खत्म होते ही वह व्यक्ति सीमा से अलग हो गया.

सीमा ने उस की तरफ देख कर प्यारमनुहार करना चाहा और अपनी आंखें खोलीं…पर ये क्या, ये तो संजय नहीं था, बल्कि मुखियाजी थे… बिस्तर में पूरी तरह नग्न सीमा भला मुखियाजी का सामना कैसे करती. उस ने तुरंत ही चादर से अपने शरीर को ढकने की असफल कोशिश की और अस्फुट स्वर में बोली, “ये क्या किया मुखियाजी आप ने?”

“एक बात अच्छी तरह समझ ले सीमा… तुझे अब मुझे ही अपना पति समझना होगा, क्योंकि संजय का सारा खर्चा मैं उठाता आया हूं. मेरे सामने वह चूं तक नहीं करेगा. मैं उस के माल का मजा उड़ा सकूं, इसीलिए उस को मैं ने शहर भेज दिया है…

“और वैसे भी हम ने तेरे बाप को हमारी हर बात मानने के लिए पैसे दिए हैं,” नशे में बोल रहे थे मुखियाजी.

ऐसा सुन कर सन्न रह गई थी सीमा, पर मन ही मन उस ने अपनेआप को समझा लिया था, क्योंकि उसे मुखियाजी के रूप में उस के जिस्म को सुख पहुंचाने वाला मर्द जो मिल गया था.

फिर क्या था, मुखियाजी लगभग रोज ही सीमा के कमरे में आ जाते और दोनों सैक्स का जम कर मजा उठाते. मुखियाजी के चेहरे की लालिमा बढ़ गई थी. नई जवान लड़की के जिस्म का रस पी कर जैसे उन की जवानी ही वापस आ गई थी.

कभीकभी जब मुखियाजी अपनी पत्नी के पास ही सो जाते तो सीमा को जैसे सौतिया डाह सताने लगता. उसे अकेले नींद न आती, इसलिए कभी वह चूड़ियां खनकाती, तो कभी अपनी पायलें बजाते हुए मुखियाजी के कमरे के सामने से निकलती. हार कर मुखियाजी को उठ कर आना पड़ता और सीमा के जिस्म की आग को बुझाना पड़ता.

इस दौरान शहर से संजय वापस आया, तो मुखियाजी की त्योरियां चढ़ने लगीं और उन्होंने उसे किसी बहाने यहांवहां दौड़ा दिया, ताकि वह सीमा के साथ न रह पाए. फिर एक दिन उसे पैसावसूली के लिए दूसरे गांव भेज दिया और जब वह वापस आया, तब तक शहर से उस के ठेकेदार का बुलावा आ चुका था. बेचारा संजय अपनी पत्नी के संसर्ग को तरसता रह गया.

कुछ समय बीता तो मुखियाजी अपने छोटे भाई विनय की शादी के बारे में सोचने लगे. उन्होंने शहर से विनय को भी बुलवा लिया था और बहू ढूंढ़ने लगे. जल्दी ही उन्हें मुनासिब बहू मिल भी गई, जिस का पिता गरीब था और पहले की तरह ही उसे पूरे 50,000 रुपए देते हुए मुखियाजी ने लड़की के बाप से कहा कि बस अपनी लड़की से इतना कह दो कि विनय को पढ़ानेलिखाने में हम ने बहुत खर्चा किया है. हम ही उस के मांबाप हैं, इसलिए हमारी बात मान कर रहेगी तो सुखी रहेगी.

शादी के बाद सीमा को घर में मेहमानों के होने के कारण मुखियाजी से मिलने में बहुत परेशानी हो रही थी. ऐसे में उसे अपने पति संजय का साथ और सुख मिला. संजय भी बिस्तर पर ठीक ही था, पर मुखियाजी की ताकत के आगे वह फीका ही लगा था, इसीलिए सीमा मन ही मन सभी मेहमानों के जाने का इंतजार करने लगी, ताकि वह फिर से मुखियाजी के साथ रात गुजार सके.

सारे मेहमान चले गए थे. संजय और विनय को आज ही शहर जाना पड़ गया था.

अगले दिन से सीमा ने ध्यान दिया कि मुखियाजी उस के बजाय नई बहू रानी का अधिक मानमनुहार करते हैं. उन की आंखें रानी के कपड़ों के अंदर घुस कर कुछ तौलने का प्रयास करती रहती हैं. सीमा मुखियाजी की मनोभावना समझ गई थी.

‘‘तो क्या मुखियाजी ने अपने भाइयों को इसलिए पालापोसा है, ताकि वे हमारे पतियों को हम से दूर कर के हमें भोग सकें… पर मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती, क्योंकि मेरे पति ही अपने बड़े भाई के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुनना चाहते हैं…‘‘ ऐसा सोच कर सीमा को नींद न आ सकी.

रानी के कमरे से सीमा को कुछ आवाज आती महसूस हुई, तो आधी रात को वह उठी और नई बहू रानी के कमरे के बाहर जा कर दरवाजे की झिर्री में आंख गड़ा दी. अंदर रानी बेसुध हो कर सो रही थी, जबकि मुखियाजी उस के बिस्तर के पास खड़े हो कर उस के बदन को किसी भूखे भेड़िए की तरह घूरे जा रहे थे. अभी मुखियाजी रानी के सीने की तरफ अपना हाथ बढ़ाने ही जा रहे थे कि उन की हरकत देख कर सीमा को गुस्सा आया और उस ने पास में रखे बरतन नीचे गिरा दिए, जिस की आवाज से रानी जाग गई, “मु… मुखियाजी आप यहां… इस समय…”

“हां… बस जरा देखने चला आया था कि तुझे कोई परेशानी तो नहीं है,” इतना कह कर मुखियाजी बाहर निकल गए.

रानी भी मुखियाजी की नजर और उन के मनोभावों को अच्छी तरह समझ गई थी, पर प्रत्यक्ष में उस ने अनजान बने रहना ही उचित समझा.

“कल तो आप रानी के कमरे में ही रहे… हमें अच्छा नहीं लगा,” सीमा ने शिकायती लहजे में कहा, तो मुखियाजी ने बात बनाते हुए कहा, “दरअसल, अभी वह नई है… विनय शहर गया है, तो रातबिरात उस का ध्यान तो रखना ही है न.”

एक शाम को मुखियाजी सीधा रानी के कमरे में घुसते चले गए. रानी उन्हें देख कर सिर से पल्ला करने लगी, तो मुखियाजी ने उस के सिर से साड़ी का पल्ला हटाते हुए कहा, “अरे, हम से शरमाने की जरूरत नहीं है… अब विनय यहां नहीं है, तो उस की जगह हम ही तुम्हारा ध्यान रखेंगे… विश्वास न हो, तो अपने पिता से पूछ लेना. वो तुम से हमारी हर बात का पालन करने को ही कहेंगे,” रानी की पीठ को सहला दिया था मुखियाजी ने और मुखियाजी की इस बात पर रानी के पिताजी ने ये कह कर मोहर लगा दी थी कि ‘‘बेटी, तुम मुखियाजी की हर बात मानना. उन्हें किसी भी चीज के लिए मना मत करना.‘‘

एक अजीब संकट में थी रानी.नई बहू रानी ने आज खाना बनाया था. पूरे घर के लोग खा चुके तो घर के नौकरों की बारी आई. घोड़ो की रखवाली करने वाला चंद्रिका भी खाना खाने आया. उस की और रानी की नजरें कई बार टकराईं. हर बार चंद्रिका नजर नीचे झुका लेता.

खाना खा चुकने के बाद चंद्रिका सीधा रानी के सामने पहुंचा और बोला, “बहुत अच्छा खाना बनाया है आप ने… हम कोई उपहार तो दे नहीं सकते, पर ये हमारे काले घोड़े की नाल है… इसे आप घर के दरवाजे पर लगा दीजिए, बुरे वक्त और भूतप्रेत से आप की रक्षा करेगी ये,” सकुचाते हुए चंद्रिका ने कहा.

“अरे, ये सब भूतप्रेत, घोड़े की नाल वगैरह कोरा अंधविश्वास होता है… मेरा इन पर भरोसा नहीं है,” रानी ने कहा, पर उस ने देखा कि उस के ऐसा कहने से चंद्रिका का मुंह उतर गया है.

“अच्छा… ये तो बताओ कि तुम मुझे घुड़सवारी कब सिखाओगे?” रानी ने कहा, तो चंद्रिका बोला, “जब आप कहें.”

“ठीक है, 1-2 दिन में अस्तबल आती हूं.”

घर की छत से अकसर रानी ने चंद्रिका को घोड़ों की मालिश करते देखा था. 6 फुट लंबा शरीर था चंद्रिका का. जब वह अपने कसरती बदन से घोड़ों की मालिश करता, तो वह एकदम अपने काम में तल्लीन हो जाता, मानो पूरी दुनिया में एकमात्र यही काम रह गया हो.

2 दिन बाद रानी मुखियाजी के साथ अस्तबल पहुंची. चंद्रिका ने काला वाला घोड़ा एकदम तैयार कर रखा था. मुखियाजी वहीं खड़े हो कर रानी को घोड़े पर सवार हो कर घूमते जाते देख रहे थे. चंद्रिका पैदल ही घोड़े की लगाम थामे हौलहौले चल रहा था.

“तुम ने सवारी के लिए वो सफेद वाली घोड़ी धन्नो क्यों नहीं चुनी?”

“जी, क्योंकि धन्नो इस समय उम्मीद से है न (गर्भवती है)… ऐसे में हम घोड़ी पर सवार नहीं होते,” चंद्रिका का जवाब दिलचस्प लगा रानी को.

“अच्छा… तो वो धन्नो मां बनने वाली है, तो फिर उस के बच्चे का बाप कौन है?”

“यही तो है… बादल, जिस पर आप बैठी हुई हैं. बहुत प्रेम करता है ये अपनी धन्नो से,” चंद्रिका ने उत्तर दिया.

“प्रेम…?” एक लंबी सांस छोड़ी थी रानी ने.

“इस घोड़े को जरा तेज दौड़ाओ… जैसा फिल्मों में दिखाते हैं.”

“जी, उस के लिए हमें आप के पीछे बैठना पड़ेगा,” चंद्रिका ने शरमाते हुए कहा.

“तो क्या हुआ… आओ, बैठो मेरे पीछे.”

चंद्रिका शरमातेझिझकते रानी के पीछे बैठ गया और बादल को दौड़ाने के लिए ऐंड़ लगाई. बादल सरपट भागने लगा. घोड़े की लगाम चंद्रिका के मजबूत हाथों में थी. चंद्रिका और रानी के जिस्म एकदूसरे से रगड़ खा रहे थे. रानी और चंद्रिका दोनों ही रोमांचित हो रहे थे. एक अनकहा, अनदेखा, अनोखा सा कुछ था, जो दोनों के बीच में पनपता जा रहा था.

हां… पर, चंद्रिका के स्पर्श में कितनी पवित्रता थी, कितनी रूहानी थी उस की हर छुअन.

रानी ने महसूस किया कि मुखियाजी के हाथों में कितनी वासना और लिजलिजाहट महसूस होती है… बहुत अंतर था इन दोनों के स्पर्श में.

उस दिन रानी वापस तो आई, पर उस का मन जैसे कहीं छूट सा गया था. बारबार उस के मन में आ रहा था कि वह जा कर चंद्रिका से खूब बातें करे, उस के साथ में जीने का एहसास पहली बार हुआ था उसे.

इस बीच रानी कभीकभी अकेले ही अस्तबल चली जाती. एक दिन उस ने चंद्रिका का एक अलग ही रूप देखा.

“बस, कुछ दिन और बादल… मुझे बस इस माघ मेले में होने वाली दौड़ का इंतजार है, जिस में मुखिया से मेरा हिसाब बराबर हो जाएगा… मुझे इस मुखिया ने बहुत सताया है.”

”ये चंद्रिका आज कैसी बातें कर रहा है? कैसा हिसाब…? और मुखियाजी ने क्या सताया है तुम्हें?” एकसाथ कई सवाल सुन कर घबरा गया था चंद्रिका.

“जाने दीजिए… हमें कुछ नहीं कहना है.”

“नहीं, तुम्हें बताना पड़ेगा… तुम्हें हमारी कसम,” चंद्रिका का हाथ पकड़ कर रानी ने अपने सिर पर रखते हुए कहा था. न चाहते हुए भी चंद्रिका को बताना पड़ा कि वह अनाथ था. मुखियाजी ने उसे रहने की जगह और खाने के लिए भोजन दिया. उन्होंने ही चंद्रिका की शादी भी कराई और फिर चंद्रिका को बहाने से शहर भेज दिया और उस के पीछे उस की बीवी की इज्जत लूटने की कोशिश की, पर उस की बीवी स्वाभिमानी थी. उस ने फांसी लगा ली… बस, तब से मैं हर 8 साल बाद होने वाले माघ मेले का इंतजार कर रहा हूं, जब मैं बग्घी दौड़ में इसे बग्घी से गिरा कर मार दूंगा और इस तरह से अपनी पत्नी की मौत का बदला लूंगा.

रानी को समझते देर न लगी कि ऊपर से चुप रहने वाला चंद्रिका अंदर से कितना भरा हुआ है. वह कुछ न बोल सकी और लौट आई. रानी के मन में चंद्रिका की मरी हुई पत्नी के लिए श्रद्धा उमड़ रही थी. अपनी इज्जत बचाने के लिए उस ने अपना जीवन ही खत्म कर दिया.

इस के जिम्मेदार तो सिर्फ मुखियाजी हैं… तब तो उन्हें सजा जरूर मिलनी चाहिए… पर कैसी सजा…? किस तरह की सजा…? मुखियाजी को कुछ ऐसी चोट दी जाए, जिस का दंश उन्हें जीवनभर झेलना पड़े… और वे चाह कर भी कुछ न कर सकें… आखिरकार रानी को उस के पति से अलग करने का जुर्म भी तो मुखियाजी ने ही किया है.

एक निश्चय कर लिया था रानी ने. अगली सुबह रानी सीधा अस्तबल पहुंची और चंद्रिका से कुछ बातें कीं, जिन्हें सुन कर असमंजस में दिखाई दिया था चंद्रिका.

वापस आते हुए रानी चंद्रिका से काले घोड़े की नाल भी ले आई थी… ये कहते हुए कि देखते हैं कि तुम्हारे इस अंधविश्वास में कितनी सचाई है और वो काले घोड़े की नाल उस ने मुखियाजी के कमरे के बाहर टांग दी थी.

रात में रानी ने घर का सारा कीमती सामान और नकदी एक बैग में भरी और अस्तबल पहुंच गई. रानी और चंद्रिका दोनों बादल की पीठ पर बैठ कर शहर की ओर जाने वाले थे, तभी चंद्रिका ने पूछा, “पर, इस तरह तुम को भगा ले जाने से मेरे प्रतिशोध का क्या संबंध…?”

“मैं ने अपने पति को एक पत्र लिखा है, जिस में उसे अपनी पत्नी का ध्यान न रख पाने का जिम्मेदार ठहराया है… वह तिलमिलाया हुआ आएगा और मुखियाजी से सवाल करेगा… दोनों भाइयों में कलह तो होगी ही, साथ ही साथ पूरे गांव में मुखियाजी की बहू के उन के घोड़ों के नौकर के साथ भाग जाने से उन की आसपास के सात गांव में जो नाक कटेगी, उस का घाव जीवनभर रिसता रहेगा… ये होगा हमारा असली प्रतिशोध,” रानी की आंखें चमक रही थीं.

रानी ने उसे ये भी बताया कि माना कि मुखियाजी को चंद्रिका मार सकता है, पर भला उस से क्या होगा? एक झटके में वह मुक्त हो जाएगा और फिर चंद्रिका पर हत्या का इलजाम भी लग सकता है और फिर मुखिया भले ही बहुत बुरा आदमी है, पर मुखियाइन का भला क्या दोष? उस के जीवित रहने से उस का जीवन जुडा हुआ है और फिर उसे मार कर बेकार पुलिस के पचड़े में पड़ने से अच्छा है कि उसे ऐसी चोट दी जाए, जो उसे जीवनभर सालती रहे.

“और हां… अब तो मानते हो न कि तुम्हारी वो बुरे वक्त से बचाने वाली काले घोड़े की नाल वाली बात एक कोरा अंधविश्वास के अलावा कुछ भी नहीं है… क्योंकि मुखियाजी का बुरा वक्त तो अब शुरू हुआ है, जिसे कोई नालवाल बचा नहीं सकती,” रानी की बात सुन कर एक मुसकराहट चंद्रिका के चेहरे पर फैल गई. उस ने बड़ी जोर से ‘हां‘ में सिर को हिलाया और बादल को शहर की ओर दौड़ा दिया.

फौरगिव मी: भाग 3- क्या मोनिका के प्यार को समझ पाई उसकी सौतेली मां

मैं गाउन ले कर बाथरूम में गई. मेरा दिल उसे माफ करना चाहता था. मैं गाउन पहनने लगी. अचानक मु झे लगा यह उस की जीत होगी. उस की ही नहीं यह उन सारी दूसरी औरतों की जीत होगी जो बच्चों को मौम या डैड किसी एक के पास रहने को मजबूर कर देती हैं. मेरा मुंह का स्वाद कसैला हो गया. मैं ने गाउन पर कैंची चलानी शुरू कर दी. पाइपिंग लेस और गुलाब के फूल सब बिखर गए. पर शायद गाउन ही नहीं कटा उस दिन से बहुत कुछ कट गया. बहुत से फूल बिखर गए. मैं ने तमतमाते हुए उसे वह गाउन वापस करते हुए कहा, ‘‘लो अपना गाउन. तुम इस से मु झे नहीं खरीद सकती. मैं बिकाऊ नहीं हूं.’’

इस बार मोनिका की आंखें डबडबाई नहीं. वह फूटफूट कर रोने लगी. उस ने मेरा हाथ पकड़ कर पूछा, ‘‘आखिर मेरी गलती क्या है? आखिर तुम मु झे किस अपराध की सजा दे रही हो? अगर तुम्हें कुछ गलत लगता भी है तो क्या तुम उस बात को भूल कर मु झे माफ कर फिर से आगे नहीं बढ़ सकती?’’

‘‘तुम मेरी मां के आंसुओं का कारण हो. तुम ने मेरी हैपी फैमिली को तहसनहस किया. मौमडैड को अलग किया, फिर डैड को मु झ से अलग किया. अब ओछी हरकतों से मु झे खरीदने की कोशिश कर रही हो,’’ मैं चिल्लाती जा रही थी. अपनी सारी नफरत एक बार में निकाल देना चाहती थी.

मैं ने आरोपों की  झड़ी लगा दी. मैं उसे रोता छोड़ कर अपने कमरे में चली गई. उस के बाद से हमारे बीच बातचीत बहुत कम हो गई. मोनिका ने मु झे मनाने की सारी कोशिशें बंद कर दीं. मैं खुश थी. मु झे लगा मैं ने अपनेआप को बिकने नहीं दिया. यह मेरी जीत थी.

समय आगे बढ़ता गया और मैं अपने कमरे में और कैद होती गई. कमरा जहां

लैपटौप था, जो मु झे सोशल मीडिया के हजारों लोगों से जोड़े रखता… काल्पनिक ही सही पर मैं ने भी अपनी एक फैमिली बना ली थी. एक बड़ी फैमिली जहां दर्द और खुशियां भले ही न बंटती हों पर इस से पहले कि मु झे काटने को दौड़े वह बेदर्द समय जरूर कट जाता था.

तभी अलार्म बजा और मैं अतीत से निकल कर वर्तमान में लौट आई. वर्तमान, जहां मैं जीत के बाद हार का सामना कर रही थी. मैं बारबार उसे हर्ट करने के लिए, उस का दिल दुखाने के लिए अपराधबोध महसूस कर रही थी. मैं ने सोच लिया था कि अब मैं जब भी उस से मिलने जाऊंगी उसे बांहों में भर कर कहूंगी, ‘‘मैं ने उसे माफ किया.’’

अब मैं अमेरिका में पलीबढ़ी 15 साल की किशोर लड़की थी या यों कह सकते हैं कि मैं एक होने वाली नवयुवती थी. नई जैनरेशन और आजाद खयाल होने के नाते अब मैं जानती थी कि किसी भी खत्म हो चुके रिश्ते के टूटने की वजह हमेशा दूसरी औरत ही नहीं होती. उस रिश्ते को तो टूटना ही होता है. मैं ने मोनिका को हमेशा दोषी माना क्यों? इस का उत्तर खुद मेरे पास नहीं था.

़वह भी जानती थी कि वह मेरी मां नहीं है और न ही कभी हो सकती है पर ‘हैपी फैमिली’ के अपने सपने को पूरा करने की उस ने बहुत कोशिश की. परंतु उस के सारे प्रयास मु झे उस की चाल लगते और उसे विफल करने में अपनी जीत. मैं हर साल उम्र में तो बड़ी हो रही थी, पर पता नहीं क्यों इस बात को सम झने में बड़ी नहीं हो पाई. काश, वक्त मु झे थोड़ा और वक्त दे और मैं अतीत को भूल कर आगे जी सकूं. क्या ऐसा होगा? मैं अधीर हो उठी.

1 हफ्ते तक कीमो व रैडीऐशन के चलते उसे उसी शीशे के कैबिन में रहना था. मैं उस से मिल नहीं सकती थी. पर मैं यह वक्त बरबाद नहीं करना चाहती थी. मैं ने बाजार जा कर वैसे ही गाउन का और्डर दे दिया, जो 1 हफ्ते बाद मिलना था. मैं मोनिका के सामने उसी गाउन में जाना चाहती थी. मोनिका की हालत बिगड़ने लगी थी. उस पर ट्रीटमैंट का कोई असर नहीं हो रहा था. रैडीऐशन की हीट से उस का सारा शरीर जल रहा था. मैं चिंतित थी पर उस के वार्ड में जाने और ठीक होने का इंतजार करने के अलावा मेरे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था.

मेरी आशा के विपरीत शीशे के कैबिन से निकाल कर उसे वार्ड में शिफ्ट नहीं

किया गया, बल्कि उसे होस्पिक केयर के लिए हौस्पिटल में ही बने एक विशेष कक्ष में भेज दिया गया. डैड ने ही मु झे बताया कि होस्पिक केयर उन मरीजों को दी जाती है जो अपने जीवन की अंतिम अवस्था में होते हैं. यहां कोई ट्रीटमैंट नहीं होता. केवल मरीज का दर्द कम करने और उसे शांतिपूर्वक मृत्यु के आगोश में जाने देने की कोशिश भर होती है. मरीज के साथ यहां उन का परिवार भी रह सकता है. जो स्प्रिचुअल हीलिंग के वातावरण में अपने प्रियजन को फाइनल गुडबाय कह सके. डैड और जौन मोनिका के साथ रहने के लिए हौस्पिटल शिफ्ट हो गए. पर मैं मोनिका का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. मैं घर पर ही रह गई. यह हिम्मत जुटाने में मु झे 2 दिन लग गए. पर उस रैड गाउन को मैं नहीं पहन पाई. साधारण सा

मोनिका को इतनी कमजोर अवस्था में बैड पर

लेटे देख कर मैं भीतर तक कांप गई. मेरी आंखों में आंसू भर आए. मोनिका ने मु झे अपने करीब बुलाया. हम दोनों को कमरे में छोड़ कर डैड और जौन बाहर चले गए. मोनिका ने मु झे उठाने का इशारा किया.

मैं ने उसे सहारा दे कर उठाया. उस ने दूसरी बार मु झे प्यार से गले लगा लिया. मैं आंसुओं का वेग नहीं रोक पाई.  झर झर आंसू बहते ही जा रहे थे. मैं अपने दिल की बात कहना ही चाहती थी कि मु झे महसूस हुआ कि मोनिका ने मु झे कुछ ज्यादा ही कस के पकड़ा है. मैं ने सप्रयास उसे अपने से अलग किया. उस की आंखें मुझे ही घूर रही थीं. मु झे उस समय तक पता नहीं था कि मरना क्या होता है. पर किसी अनिष्ट की आशंका से मैं डाक्टरडाक्टर चिल्लाई. मोनिका हमें छोड़ कर सदा के लिए जा चुकी थी.

मोनिका के जाने के बाद हमारे जीवन में एक खालीपन सा भर गया. अब मैं ने महसूस किया कि उस ने न सिर्फ इस घर में, बल्कि

मेरे मन में भी एक जगह बना ली थी. जबजब उस पल को सोचती हूं एक टीस से उठती है. काश, मैं वह कह पाती जो मैं कहना चाहती थी. पर क्या वह उस समय सुन पाती? क्या कोई इंसान जब वह मृत्युशैया पर होता है, तो उस के लिए उन शब्दों का कोई महत्त्व होता है, जिन्हें वह जीवनभर सुनना चाहता है? क्यों हम जीवन को हमेशा चलने वाला मानते हैं. क्यों हमसमय रहते अपनी बात नहीं कह देते?

हम अपने क्रोध, नफरत, गुस्से को सहेजने के चक्कर में यह भूल जाते हैं कि जिस थाली को हम बड़ी शान से अगले पल को सौंप देना चाहते वह अगला पल 2 लोगों के जीवन में रहता भी है या नहीं. मु झे अपनी ही बातों से घबराहट होने लगी. मैं बालकनी में चली आई.

नीले आकाश में सफेद बादल तेजतेज घूम रहे हैं. मु झे चक्कर सा आ रहा है. मेरे मन में कोई चिल्ला रहा है मोनिका… मोनिका… मैं फिर ऊपर देखती हूं. घूमते बादलों को देख कर मैं जोर से चीखने लगती हूं, ‘‘मोनिका, प्लीज… प्लीज फौरगिव मी.’’

मगर मैं जानती हूं, इस बार अनसुना करने की बारी मोनिका की है.

Holi 2024: संबंध- क्या शादी नहीं कर सकती विधवा

‘‘इस औरत को देख रही हो… जिस की गोद में बच्चा है?’’

‘‘हांहां, देख रही हूं… कौन है यह?’’

‘‘अरे, इस को नहीं जानती तू?’’ पहली वाली औरत बोली.

‘‘हांहां, नहीं जानती,’’ दूसरी वाली औरत इनकार करते हुए बोली.

‘‘यह पवन सेठ की दूसरी औरत है. पहली औरत गुजर गई, तब उस ने इस औरत से शादी कर ली.’’

‘‘हाय, कहां पवन सेठ और कहां यह औरत…’’ हैरानी से दूसरी औरत बोली, ‘‘इस की गोद में जो लड़का है, वह पवन सेठ का नहीं है.’’

‘‘तब, फिर किस का है?’’

‘‘पवन सेठ के नौकर रामलाल का,’’ पहली वाली औरत ने जवाब दिया.

‘‘अरे, पवन सेठ की उम्र देखो, मुंह में दांत नहीं और पेट में आंत नहीं…’’ दूसरी वाली औरत ने ताना मारते हुए कहा, ‘‘दोनों में उम्र का कितना फर्क है. इस औरत ने कैसे कर ली शादी?’’

‘‘सुना है, यह औरत विधवा थी,’’ पहली वाली औरत ने कहा.

‘‘विधवा थी तो क्या हुआ? अरे, उम्र देख कर तो शादी करती.’’

‘‘अरे, इस ने पवन सेठ को देख कर शादी नहीं की.’’

‘‘फिर क्या देख कर शादी की?’’ उस औरत ने पूछा.

‘‘उस की ढेर सारी दौलत देख कर.’’

आगे की बात निर्मला न सुन सकी. जिस दुकान पर जाने के लिए वह सीढि़यां चढ़ रही थी, तभी ये दोनों औरतें सीढि़यां उतर रही थीं. उसे देख कर यह बात कही, तब वह रुक गई. उन दोनों औरतों की बातें सुनने के बाद दुकान के भीतर न जाते हुए वह उलटे पैर लौट कर फिर कार में बैठ गई.

ड्राइवर ने हैरान हो कर पूछा, ‘‘मेम साहब, आप दुकान के भीतर क्यों नहीं गईं?’’

‘‘जल्दी चलो बंगले पर,’’ निर्मला ने अनसुना करते हुए आदेश दिया.

आगे ड्राइवर कुछ न बोल सका. उस ने चुपचाप गाड़ी स्टार्ट कर दी.

निर्मला की गोद में एक साल का बच्चा नींद में बेसुध था. मगर कार में बैठने के बाद भी उस का मन उन दोनों औरतों के तानों पर लगा रहा. उन औरतों ने जोकुछ कहा था, सच ही कहा था. निर्मला उदास हो गई.

निर्मला पवन सेठ की दूसरी ब्याहता है. पहली पत्नी आज से 3 साल पहले गुजर गई थी. यह भी सही है कि उस की गोद में जो लड़का है, वह रामलाल का है. रामलाल जवान और खूबसूरत है.

जब निर्मला ब्याह कर के पवन सेठ के घर में आई थी, तब पहली बार उस की नजर रामलाल पर पड़ी थी. तभी से उस का आकर्षण रामलाल के प्रति हो गया था. मगर वह तो पवन सेठ की ब्याहता थी, इसलिए उस के खूंटे से बंध गई थी.

यह भी सही है कि निर्मला विधवा है. अभी उस की उम्र का 34वां पड़ाव चल रहा है. जब वह 20 साल की थी, तब उस की शादी राजेश से कर दी गई थी. वह बेरोजगार था. नौकरी की तलाश जारी थी. मगर वह इधरउधर ट्यूशन कर के अपनी जिंदगी की गाड़ी खींच रहा था.

निर्मला की सास झगड़ालू थी. हरदम वह उस पर अपना सासपना जताने की कोशिश करती, छोटीछोटी गलतियों पर बेवजह चिल्लाना उस का स्वभाव बना हुआ था. मगर वह दिन काल बन कर उस पर टूट पड़ा, जब एक कार वाला राजेश को रौंद कर चला गया. अभी उन की शादी हुए 7 महीने भी नहीं बीते थे और वह विधवा हो गई. समाज की जरूरी रस्मों के बाद निर्मला की सास ने उसे डायन बता दिया. यह कह कर उसे घर से निकाल दिया कि आते ही मेरे बेटे को खा गई.

ससुराल से जब विधवा निकाली जाती है, तब वह अपने मायके में आती है. निर्मला भी अपने मायके में चली आई और मांबाबूजी और भाई के लिए बो झ बन गई. बाद में एक प्राइवेट स्कूल में टीचर बन गई. तब उसे विधवा जिंदगी जीते हुए 14 साल से ऊपर हो गए.

समाज के पोंगापंथ के मुताबिक, विधवा की दोबारा शादी भी नहीं हो सकती है. उसे तो अब जिंदगीभर विधवा की जिंदगी जीनी है. ऐसे में वह कई बार सोचती है कि अभी मांबाप जिंदा हैं लेकिन कल वे नहीं रहेंगे, तब भाई कैसे रख पाएगा? यही दर्द उसे हरदम कचोटता रहता था.

निर्मला कई बार यह सोचती थी कि वह मांबाप से अलग रहे, मगर एक विधवा का अकेले रहना बड़ा मुश्किल होगा. मर्दों के दबदबे वाले समाज में कई भेडि़ए उसे नोचने को तैयार बैठे हैं. कई वहशी मर्दों की निगाहें अब भी उस पर गड़ी रहती हैं. मां और बाबूजी भी उसे देख कर चिंतित हैं. ऐसी कोई बात नहीं है कि सिर्फ  वही अपने बारे में सोचती है.

मां और बाबूजी भी सोचते हैं कि निर्मला की जिंदगी कैसे कटेगी? वे खुद भी चाहते थे कि निर्मला की दोबारा शादी हो जाए, मगर समाज की बेडि़यों से वे भी बंधे हुए थे.

इसी कशमकश में समाज के कुछ ठेकेदार पवन सेठ का रिश्ता ले कर निर्मला के बाबूजी के पास आ गए.

बाबूजी को मालूम था कि पवन सेठ बहुत पैसे वाला है. उस का बड़ा भाई मनोहर सेठ के नाम से मशहूर है. मगर दोनों भाइयों के बीच 30 साल पहले ही घर की जायदाद को ले कर रिश्ता खत्म हो गया था. आज तक दोनों के बीच बोलचाल बंद है.

बाबूजी यह भी जानते थे कि पवन सेठ 64 साल के ऊपर है. यह बेमेल गठबंधन कैसे होगा? तब समाज के ठेकेदारों ने एक ही बात बाबूजी को सम झाने की कोशिश की थी कि यह निर्मला की जिंदगी का सवाल है. पवन सेठ के साथ वह खुश रहेगी.

तब बाबूजी ने सवाल उठाया था कि पवन सेठ नदी किनारे खड़ा वह ठूंठ है कि कब बहाव में बह जाए. फिर निर्मला विधवा की विधवा रह जाएगी. तब समाज के ठेकेदारों ने बाबूजी को सम झाया कि देखो, वह विधवा जरूर हो जाएगी, मगर सेठ की जायदाद की मालकिन बन कर रहेगी.

तब बाबूजी ने निर्मला से पूछा था, ‘निर्मला तुम्हारे लिए रिश्ता आया है.’

वह सम झते हुए भी अनजान बनते हुए बोली, ‘रिश्ता और मेरे लिए?’

‘हां निर्मला, तुम्हारे लिए रिश्ता.’

‘मगर बाबूजी, मैं एक विधवा हूं और विधवा की दोबारा शादी नहीं हो सकती,’ अपने पिता को सम झाते हुए निर्मला बोली थी.

‘हां, नहीं हो सकती है, मैं जानता हूं. मगर जब सोचता हूं कि तुम यह लंबी उम्र कैसे काटोगी, तो डर जाता हूं.’

‘जैसे, कोई दूसरी विधवा काटती है, वैसे ही काटूंगी बाबूजी,’ निर्मला ने जब यह बात कही, तब बाबूजी सोचविचार में पड़ गए थे.

तब निर्मला खुद ही बोली थी, ‘मगर बाबूजी, मैं आप की भावनाओं को भी अच्छी तरह सम झती हूं. आप बूढ़े पवन सेठ के साथ मेरा ब्याह करना चाहते हैं.’

‘हां बेटी, वहां तेरी जिंदगी अच्छी तरह कट जाएगी और विधवा की जिंदगी से छुटकारा भी मिल जाएगा,’ बोल कर बाबूजी ने अपने मन की सारी बात कह डाली थी. तब वह भी सहमति देते हुए बोली थी, ‘बाबूजी, आप किसी तरह की चिंता मत करें. मैं यह शादी करने के लिए तैयार हूं.’

यह सुन कर बाबूजी का चेहरा खिल गया था. फिर पवन सेठ के साथ निर्मला की बेमेल शादी हो गई.

निर्मला पवन सेठ के बंगले में आ गई थी. दुकान के नौकर अलग, घर के नौकर अलग थे. घर का नौकर रामलाल 20 साल का गबरू जवान था. बाकी तो वहां अधेड़ औरतें थीं.

जब पवन सेठ के साथ निर्मला हमबिस्तर होती थी, वह बहुत जल्दी ठंडा पड़ जाता था. राजेश के साथ जो रातें गुजारी थीं, पवन सेठ के साथ वैसा मजा नहीं मिलता था.

पवन सेठ ने कई बार उस से कहा था, ‘निर्मला, तुम मेरी दूसरी पत्नी हो. उम्र में बेटी के बराबर हो. अगर मेरी पहली पत्नी से कोई औलाद होती, तब वह तुम्हारी उम्र के बराबर होती. मैं तु झ से औलाद की आस रखता हूं. तुम मु झे एक औलाद दे दो.’

‘औलाद देना मेरे अकेले के हाथ में नहीं है,’ निर्मला अपनी बात रखते हुए बोली, ‘मगर, मैं देख रही हूं…’

‘क्या देख रही हो?’ उसे रुकते देख पवन सेठ ने पूछा.

‘हमारी शादी के 6 महीने हो गए हैं, मगर जितना जोश पैदा होता, वह पलभर में खत्म हो जाता है.’

‘अब मैं उम्र की ढलान पर हूं, फिर भी औलाद चाहता हूं,’ पवन सेठ की आंखों का इशारा वह सम झ गई. तब उस ने नौकर रामलाल से बातचीत करना शुरू किया.

निर्मला उसे बारबार किसी बहाने अपने कमरे में बुलाती, आंखों में हवस लाती. कभी वह अपना आंचल गिराती, कभी ब्लाउज का ऊपरी बटन खोल देती, तो कभी पेटीकोट जांघों तक चढ़ा लेती. मर्द कैसा भी पत्थरदिल हो, आखिर एक दिन पिघल ही जाता है.

रामलाल ने कहा, ‘मेम साहब, आप का मु झे देख कर बारबार आंचल गिराना मु झे अच्छा नहीं लगता. आप क्यों ऐसा करती हैं?’

‘अरे बुद्धू, इतना भी नहीं सम झता है,’ निर्मला मुसकरा कर बोली और उस के गाल को चूम लिया.

‘सम झता तो मैं सबकुछ हूं, मगर मालिक…’

‘मालिक कुछ भी नहीं कहेंगे,’ बीच में ही उस की बात काट कर निर्मला बोली, ‘मालिक से क्यों घबराता है?’

यह सुन कर रामलाल पहले तो हैरान हुआ, फिर धीरे से मुसकरा दिया. उस ने आव न देखा न ताव निर्मला को दबोच लिया और उस के होंठों पर अपने होंठ रख दिए.

निर्मला ने कुछ नहीं कहा. फिर क्या था, निर्मला की शह पा कर जब भी मौका मिलता, वे दोनों हमबिस्तर हो जाते. इस का फायदा यह हुआ कि निर्मला का जोश शांत होने लगा था और एक दिन वह पेट से हो गई.

पवन सेठ बहुत खुश हुआ और जब पहला ही लड़का पैदा हुआ, तब पवन सेठ की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा.

निर्मला और बच्चे की देखरेख के लिए एक आया रख ली गई. जब भी बाजार या कहीं दूसरी जगह जाना होता, निर्मला अपने बच्चे को आया के पास छोड़ जाती है. मगर आज उस की ममता जाग गई थी, इसलिए साथ ले गई थी.

‘‘मेम साहब, बंगला आ गया,’’ जब ड्राइवर ने यह कहा, तब निर्मला पुरानी यादों से लौटी. जब वह कार से उतरने लगी, तब ड्राइवर ने पूछा, ‘‘मेम साहब, जिस दुकान पर आप खरीदारी करने पहुंची थीं, वहां से बिना खरीदारी किए क्यों लौट आईं?’’

‘‘मेरा मूड बदल गया,’’ निर्मला ने जवाब दिया.

‘‘मूड तो नहीं बदला मेम साहब, मगर मैं सब समझ गया,’’ कह कर ड्राइवर मुसकराया.

‘‘क्या सम झे मानमल?’’ गुस्से से निर्मला बोली.

‘‘इस बच्चे को ले कर उन औरतों ने…’’

‘‘देखो मानमल, तुम अपनी औकात में रहो,’’ बीच में ही बात काट कर निर्मला बोली.

‘‘हां मेम साहब, मैं भूल गया था कि मैं आप का ड्राइवर हूं,’’ माफी मांगते हुए मानमल बोला, ‘‘मगर, सच बात तो होंठों पर आ ही जाती है.’’

‘‘क्या सच बात होंठों पर आ जाती है?’’ निर्मला ने पूछा.

‘‘यही मेम साहब कि उन दोनों औरतों ने बच्चे को देख कर कहा होगा कि यह बच्चा सेठजी का खून नहीं है, बल्कि उन के नौकर रामलाल का है,’’ मानमल ने साफसाफ कह दिया.

तब निर्मला गुस्से से बोली, ‘‘देखो मानमल, तुम हमारे नौकर हो और अपनी हद में रहो. औरों की तरह हमारे संबंधों को ले कर बात करने की जरूरत नहीं है,’’ कह कर निर्मला कार से उतर गई.

अभी निर्मला दालान पार कर रही थी कि आया ने आ कर बच्चे को उस से ले लिया. मानमल फिर मुसकरा दिया.

मरजी की मालकिन: भाग 1 घर की चारदीवारी से निकलकर अपने सपनों को पंख देना चाहती थी रश्मि

रश्मि घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर अपने सपनों को पंख देना चाहती थी. मगर वह लाख कोशिशों के बावजूद भी खुद और परिवार के मध्य संतुलन नहीं बैठा पा रही थी. इस से पहले कि वह कोई ठोस निर्णय लेती, घर में एक घटना घट गई…

‘‘मां,अनीता मौसी इज कालिंग यू,’’ 7 वर्षीय अक्षिता ने रश्मि को फोन ला कर दिया. उधर से अनीता की खनकती आवाज आई, ‘‘तू तो हीरोइन बन गई माई डियर… पूरे औफिस में बस तेरे ही चर्चे हैं.’’ ‘‘पर मैं ने ऐसा किया क्या है…’’ ‘‘वह तू कल आएगी तब देखना… अभी तो मैं इसे राज ही रहने देती हूं. बस इतना सम  झ ले कि तेरी 1 महीने की मेहनत सफल हो गई है और राज सर खुशी से फूले नहीं समा रहे हैं,’’ कह कर अनीता ने फोन रख दिया.

‘‘यह अनीता भी न सुरसुरी छोड़ने की अपनी आदत से बाज नहीं आएगी… आधी बात भी बताने की क्या जरूरत थी. अब खुद तो चैन की नींद सोएगी और मैं रातभर करवटें बदलूंगी,’’ बड़बड़ाते हुए रश्मि किचिन समेटने में लग गई. 8 बज रहे थे. अभी अक्षिता को पढ़ाना बाकी था.

औफिस से आने के बाद टीवी के सामने जमे पति अनुराग की बगल में बैठी अक्षिता को रश्मि ने आवाज लगाई. 1 घंटा पढ़ाने के बाद चैन की सांस ले कर बैड पर जैसे ही लेटी तो अनीता के शब्द उस के कानों में गूंजने लगे… उसे याद आ गया अपना औफिस जहां वह पिछले 1 साल से एज ए पार्ट टाइम वर्कर काम कर रही थी और हाल ही में एक बहुत महत्त्वपूर्ण प्रोजैक्ट उस के हाथ में था जिस का परिणाम आज ही आने वाला था. तबीयत ठीक नहीं होने के कारण वह पिछले 3 दिन से अवकाश पर थी. खैर, कल का कलदेखा जाएगी, यह सोच कर उस ने एक लंबी सांस ली और सोने का प्रयास करने लगी.

अगले दिन सुबह औफिस पहुंच कर रश्मि अपनी सीट पर आ कर बैठी ही थी कि चपरासी रामदीन ने आ कर बोला, ‘‘साहब आप को बुला रहे हैं.’’ जैसे ही रश्मि ने राज सर के कैबिन का दरवाजा खोला वे अपनी सीट से उठ खड़े हुए और उत्साह से भर कर बोले, ‘‘वाहवाह बधाईबधाई रश्मिजी आप ने तो कमाल ही कर दिया जिस प्रोजैक्ट की हम ने उम्मीद ही छोड़ दी थी उसे हासिल कर के आप ने दिखा दिया कि प्रतिभा किसी की मुहताज नहीं होती.’’ ‘‘नहीं सर ऐसा कुछ नहीं है मैं ने तो बस अपना काम ईमानदारी से किया है,’’ रश्मि ने विनम्रता से कहा.

‘‘वही तो लोग नहीं करते… मैं ने आप की काम के प्रति लगन देख कर ही यह प्रोजैक्ट आप को दिया था. फुल टाइम वाले भी इतनी ईमानदारी से काम नहीं करते जितना आप पार्ट टाइम में लर लेती हैं. अब आज से हमारी कंपनी की आप परमानैंट वर्कर हैं. कंपनी के सारे टैंडर वर्क आप ही देखेंगी. हां, हमेशा की तरह आप के लिए टाइम की कोई बंदिश अभी भी नहीं रहेगी. हमें तो बस काम चाहिए.’’

‘‘जी सर,’’ कह कर रश्मि आ कर अपनी सीट पर बैठ गई. तभी अनीता ने आ कर पीछे से उस की आंखें बंद कर लीं. अनीता के स्पर्श को वह बहुत अच्छी तरह जानती थी सो हाथ पकड़ कर उसे अपने सामने किया और शिकायती लहजे में बोली, ‘‘तु  झे तो मैं छोड़ूंगी नहीं कल सुरसुरी छोड़ कर खुद तो चैन से सोई और मैं सो ही नहीं पाई.’’

‘‘अब चल इतनी बड़ी खुशी को सैलिब्रेट भी करेगी या ऐसे ही बातें बनाती रहेगी. चल कैंटीन में कौफी पी कर आते हैं,’’ कह कर दोनों कैंटीन की तरफ बढ़ गईं. ‘‘रियली आई एम प्राउड औफ यू यार… राज सर तो क्या किसी को अंदाजा नहीं था कि यह 2 करोड़ का प्रोजैक्ट हमें मिल पाएगा. पर तूने क्या कैलकुलेशन लगा कर टैंडर डलवाया कि प्रोजैक्ट हमें मिल गया.’’

‘चल अब ज्यादा फूंस के   झाड़ पे मत चढ़ा… कौफी पी और चल अभी बहुत सारे काम बाकी हैं.’’ उस दिन अगले कुछ प्रोजैक्ट के भी टैंडर डलवाने थे सो उन की प्लानिंग उस ने अपनी 2 असिस्टैंट के साथ मिल कर की और 2 बजे औफिस से निकल कर घर आ गई. घर आ कर अक्षिता को खाना खिला कर जो सुलाने लेटी तो बंद पलकों में अतीत के कुछ पन्ने भी धीरेधीरे फड़फड़ाने लगे…

वह उस समय बीए की छात्रा थी जब एक दिन अपनी सहपाठियों से अर्थशास्त्र के कुछ नोट्स मांग रही थी और सभी उसे देने में अनाकानी कर रहे थे. तभी वर्तमान पति अनुराग ने उस की ओर अपनी नोट्स की कौपी बढाते हुए कहा, ‘‘आप मेरी कौपी ले लीजिए शायद आप का काम हो जाएगा.’’

रश्मि ने जैसे ही पलट कर देखा तो सामने एक लंबा, गौरवर्ण का नवयुवक खड़ा था जो उस की ही कक्षा का था. उसे याद आया कि वह क्लास के मेधावी छात्रों में गिना जाता है. आमतौर पर उस ने उसे दूसरों से कम बात करते ही देखा था बल्कि कई बार तो क्लास की कई लड़कियों ने उस की बुद्धिमत्ता को देखते हुए मेलजोल बढ़ाने की कोशिश भी की थी पर अंतर्मुखी प्रवृत्ति के अनुराग पर अपना जादू चलाने में सफलता प्राप्त नहीं कर पाई थीं.

ऐसे में आगे रह कर उसे कापी देना रश्मि को कुछ अजीब सा तो लगा परंतु अपना काम बनता देख वह धीरे से बोली, ‘‘जी बहुतबहुत धन्यवाद. मैं कल अवश्य ले आऊंगी वह मु  झे ज्वाइंडिस हो गया था तो मैं कुछ दिनों से आ नहीं पाई इसलिए…’’ रश्मि ने अपनी ओर से सफाई देते हुए कहा.

‘‘इट्स ओके नो प्रौब्लम,’’ कह कर अनुराग आगे बढ़ गया.

उस दिन के बाद से ही उस की और अनुराग की थोड़ीबहुत बातचीत प्रारंभ हो गई. दोनों युवा थे, प्रथम मुलाकात के आकर्षण का ही असर था कि वे परस्पर धीरेधीरे एकदूसरे को पसंद करने लगे परंतु यह पसंद कब प्यार में परिवर्तित हो गई दोनों ही नहीं जान पाए.

प्रारंभिक बातचीत में ही एक दिन अनुराग ने उसे बताया कि वह पटना का रहने वाला है. घर में मातापिता के अलावा एक छोटी बहन है जो अभी स्कूल में है. पिता एक सरकारी स्कूल में प्राथमिक शिक्षक हैं. घर के आर्थिक हालात भी बहुत अच्छे नहीं हैं सो वह यहां बनारस में अपनी पढ़ाई का खर्च भी ट्यूशन कर के निकालता है.

निर्णय: भाग 1 वक्त के दोहराये पर खड़ी सोनू की मां

रेलवे स्टेशन से बाहर निकल कर जब वह टैक्सी लेने लगी तो पलभर के लिए उस का मन हुआ कि घर न जा कर वह कहीं भाग जाए सोनू को ले कर. फिर उतनी ही त्वरित गति से उस की आंखों के सामने उस की अपनी तीनों मासूम बेटियों का चेहरा घूम गया. अपना घर, पति, बच्चे एक स्त्री का संपूर्ण संसार तो बस इन्हीं तानोंबानों में जकड़ा होता है. भाग सकने की गुंजाइश ही कहां छोड़ता है स्त्री का अपना मन. नहीं, हार मानने से नहीं चलेगा. स्त्री जब एक बार मातृत्व के गुरुगंभीर पद पर आसीन हो जाती है तो उस पद की रक्षा करने का दुर्दम्य साहस भी स्वयमेव ही चला आता है. अपनी सुषुप्त शक्ति को पहचानने भर की देर होती है, बस. नहीं, वह हार नहीं मानेगी.

भीतर ही भीतर स्वयं को दृढ़ता का पाठ पढ़ाती, तौलती, परखती वह टैक्सी में जा बैठी, रामबाग, अपने घर का पता बता कर उस ने सोनू को सीट पर बिठा दिया. बैग आगे की खाली सीट पर रख दिया. पर्स  से उस ने सोनू के दूध की बोतल निकाली और उसे पकड़ा दी. सोनू उस से टिक कर अधलेटा हो गया. खुद को उस ने सीट पर ढीला छोड़ दिया तथा आंखें बंद कर लीं. अपने 3 दिन के ससुराल प्रवास की एकएक बात उस के सिर पर हथौडे़ सी बज रही थी. विदा लेते समय छोटी ननद सरिता ने भावावेग में उस का हाथ कस कर पकड़ लिया था. उस ने कहा था, ‘अपनाया है तो रिश्तों को ईमानदारी से निभाओ. सचाइयों से घबरा कर संबंधों के प्रति बेईमान नहीं हुआ जा सकता, फिर मांबच्चे का संबंध किसी भी सहमति का मुहताज नहीं होता.’

‘ईमानदारी से भी अधिक जरूरी साहस है इस रिश्ते में.’ अपनी भर्राई हुई टूटती आवाज में कह कर वह कार में बैठ गई थी. सरिता वहीं, घर के गेट पर खड़ी उसे जाता हुआ देखती रही थी. वापसी के पूरे सफर में सरिता की कही बातें उस के दिमाग में घूमती रही थीं. वह रोना चाहती थी, चिल्लाचिल्ला कर अपने भीतर का सारा आक्रोश निकाल देना चाहती थी. क्यों उस के आसपास के सारे लोग इतने स्वार्थी हो कर सोच रहे हैं. क्यों सरिता के सिवा किसी अन्य को उस का दर्द दिखाई नहीं देता. इतना निर्मम तथा कठोर कैसे हो सकता है कोई. यों तो वह जब भी ससुराल से लौटी है, कभी खाली नहीं लौटी. मां तथा बड़ी ननद, सुषमा जिज्जी की तीखीकड़वी बातों से भरा दुखी, हताश दिलदिमाग ले कर ही लौटी है. पर डेढ़ साल पहले जब पहली बार नन्हे से सोनू को गोद में लिए ससुराल आई थी तो इन्हीं मां तथा जिज्जी ने हम दोनों को जैसे पलकों पर उठा लिया था. पोते को गोद में उठाए दादी पूरे महल्ले में घूम आई थीं. रोज शाम के वक्त उस की नजर उतारती थीं…और अब? एक सच ने मानो ममता, प्रेम, वात्सल्य सब पर डाका ही डाल दिया था. आने से पहले उसे तनिक भी अंदेशा नहीं था कि वहां ये सब हो जाएगा. अनमनी अवश्य थी, पहली बार अकेले जा रही थी, जबकि लड़कियों की परीक्षाएं सिर पर थीं. बूआ के पोते के नामकरण पर जाना कोई इतना जरूरी तो नहीं था, पर नीलाभ नहीं माने. दरअसल, उस का ससुराल और नीलाभ की बूआ का घर एक ही महल्ले में है. इसीलिए उन का तर्क था कि बूआ के घर की खुशी में सम्मिलित होने के बहाने वह अपने ससुराल वालों से भी मिल आएगी. साथ ही, सारी बिरादरी से भी मेलमुलाकात हो जाएगी. एक तरह से नीलाभ ने उसे जबरन ठेलठाल कर भेजा था.

उसे चिढ़ हो रही थी नीलाभ की बचकानी जिद पर. वह उस के पीछे छिपी उन की मंशा को भांप नहीं पाई थी. ट्रेन  4 घंटे लेट थी. ससुराल का ड्राइवर स्टेशन पर उस का इंतजार कर रहा था. घर पहुंची तो वहां की हवा में उसे कुछ भारीपन सा लगा था. मां व जिज्जी दोनों ही कुछ उखड़ीउखड़ी लग रही थीं. सोनू को भी दोनों में से किसी ने हुलस कर पहले की भांति गोद में उठा कर लाड़प्यार की बौछार नहीं की थी. उस का जी तो उसी समय हुड़क गया था. जेठानी प्रभा औपचारिक नमस्ते के बाद रसोई में जा घुसी थीं. कुछ देर बाद चायनाश्ता व सोनू का दूध रख कर फिर गायब  हो गई थीं. नौकर से कह कर मां ने उस का सामान ऊपर वाले छोटे कमरे में रखवा दिया था. शाम 5 बजे बूआ के घर के लिए निकलने व अभी ऊपर जा कर आराम करने की हिदायत दे कर दोनों उसे बैठक में अकेला छोड़ कर निकल गई थीं. उस का व सोनू का खाना भी जिज्जी ने ऊपर ही भिजवा दिया था, जिस का एक निवाला तक उस के गले नहीं उतरा था.

4 साढ़े 4 बजे वह नीचे आई तो देखा, मां ने पूरी तैयारी कर रखी है. अपनी ननद के घर जोजो नेग ले कर जाने हैं वे सब पलंग पर फैला रखे थे. उसे सब दिखाती हुई मां बोलीं, ‘छोरियां चाहे बूढ़ी ही क्यों न हों, रहेंगी छोरियां ही न घर की. माई, बापू और भाई का साया सिर पर से उठ गया तो क्या हुआ, भौजी तो जिंदा है न अभी. मेरे होते कभी मायके की कमी न अखरेगी तुम्हारी बूआ को. इतने दिनों के बाद आई है उस के घर में खुशी, सारी बिरादरी देखेगी, इसीलिए करना पड़े है ये सब.’ लहूलुहान कलेजे के बावजूद हंसी ने एक हिलोर ले ली थी, जिसे उस ने भीतर ही दबा लिया. दोहरी बातें करने में पारंगत हैं मां. तोहफे तो उस के पास भी थे. नीलाभ ने अपनी मां, जिज्जी, भाई, भाभी तथा बच्चों के लिए अलगअलग उपहार भेजे थे. सब ज्यों के त्यों रखे थे बैग में. जब बैग खोला तो सारे उपहार मुंह चिढ़ाते से लगे थे उसे. ये जो सब मिल कर उस की भावनाओं की, ममता की हत्या करने पर तुले हुए हैं, उन्हें किस कलेजे से जा कर थमाए उपहार.

फिर पता नहीं क्या सोच कर वह उठी और अपनी तरफ से बूआ को देने लाए हुए उपहार निकाल लाई. बूआ तथा उन की बहू की साड़ी व नवजात पोते के लिए चांदी के तार में काले मोतियों वाले कड़े लाई थी वह. मां को दिखा कर ये सामान भी  उस ने अन्य वस्तुओं के साथ पलंग पर रख दिया. कुछ भी हो, बिरादरी के सामने तो घर की बातों को ढक कर ही रखना पड़ता है. बहू हो कर वह अलग से कैसे करेगी लेनदेन.

मन की कड़वाहट मन में ही दबा ली थी उस ने इस समय. कुछ ही देर पहले तो मां ने छोरियां जनने वाली डायन कहा था उसे. ‘मुझे तो पहले से ही शक था कि यह इस का अपना जाया नहीं है,’ जिज्जी बोली थीं. दोनों आंगन में चारपाई डाले साग बीन रही थीं. उन्हें पता नहीं था कि वह आंगन के ठीक ऊपर लगे लोहे के जाल की मुंडेर पर खड़ी सुन रही है. अभी नहा कर निकली थी वह. सफर में पहने अपने व सोनू के कपड़े धो डाले थे उस ने. तार पर सूखने को डाल रही थी. ‘इस औरत ने पता नहीं क्या जादू कर रखा है. अपना नीलाभ तो ऐसा कभी नहीं था. इतने साल भनक तक न लगने दी सचाई की. अब जो भी है, इस अपाहिज से पीछा तो छुड़ाना ही होगा भाई का,’ जिज्जी की जहरीली फुफकार से उस का रोमरोम जल उठा था. कोई स्त्री इतनी कठोर कैसे हो सकती है. मां कहती हैं, उन का बेटा उस के बहकावे में आ गया है. बेशक, अलग गृहस्थी बसा कर बैठी है, पर बहू है घर की, बहू बन कर रहे. सिर पर चढ़ कर नाचने न देंगे. नीलाभ अनाथ नहीं है, उस के सिर पर मां का साया है अभी. बहू हो कर इतना बड़ा निर्णय लेने का उस अकेली को कोई हक नहीं.’

महकती विदाई: क्या था अंजू का राज

अम्मां की नजरों में शारीरिक सुंदरता का कोई मोल नहीं था इसीलिए उन्होंने बेटे राज के लिए अंजू जैसी साधारण लड़की को चुना. खाने का डब्बा और कपड़ों का बैग उठाए हुए अंजू ने तेज कदमों से अस्पताल का बरामदा पार किया. वह जल्द से जल्द अम्मां के पास पहुंचना चाहती थी. उस की सास जिन्हें वह प्यार से अम्मां कह कर बुलाती है, अस्पताल के आई.सी.यू. में पड़ी जिंदगी और मौत से जूझ रही थीं. एक साल पहले उन्हें कैंसर हुआ था और धीरेधीरे वह उन के पूरे शरीर को ही खोखला बना गया था. अब तो डाक्टरों ने भी उम्मीद छोड़ दी थी.

आज जब वह डा. वर्मा से मिली तो वह बोले, ‘‘आप रोगी को घर ले जा सकती हैं. जितनी सांसें बाकी हैं उन्हें आराम से लेने दो.’’

पापा मानने को तैयार नहीं थे. वह बोले, ‘‘डाक्टर साहब, आप इन का इलाज जारी रखें. शायद कोई चमत्कार हो ही जाए.’’

‘‘अब किसी चमत्कार की आशा नहीं है,’’ डा. वर्मा बोले, ‘‘लाइफ सपोर्ट सिस्टम उतारते ही शायद उन्हें अपनी तकलीफों से मुक्ति मिल जाए.’’

पिछले 2 माह में अम्मां का अस्पताल का यह चौथा चक्कर था. हर बार उन्हें आई.सी.यू. में भरती किया जाता और 3-4 दिन बाद उन्हें घर लौटा दिया जाता. डाक्टर के कहने पर अम्मां की फिर से घर लौटने की व्यवस्था की गई लेकिन इस बार रास्ते में ही अम्मां के प्राणपखेरू अलविदा कह गए.

घर आने पर अम्मां के शव की अंतिम यात्रा की तैयारी शुरू हुई. वह सुहागन थीं इसलिए उन के शव को दुलहन की तरह सजाया गया. अंजू ने अम्मां के खूबसूरत चेहरे का इतना शृंगार किया कि सब देखते ही रह गए.

अंजू जानती थी कि अम्मां को सजनासंवरना कितना अच्छा लगता था. वह अपने रूप के प्रति हमेशा ही सजग रही थीं. बीमारी की अवस्था में भी उन्हें अपने चेहरे की बहुत चिंता रहती थी.

उस दिन तो हद ही हो गई जब अम्मां को 4 दिन तक अस्पताल में रहना पड़ा था. कैंसर ब्रेन तक फैल चुका था इसलिए वह ठीक से बोल नहीं पाती थीं. अंजू जब उन के कमरे में पहुंची तो नर्स ने मुसकरा कर कहा, ‘दीदी, आप की अम्मां मुझ से कह रही थीं कि मैं पार्लर वाली लड़की को बुला कर लाऊं. पहले तो मुझे समझ में नहीं आया, फिर उन्होंने लिख कर बताया तो मुझे समझ में आया. आंटी मरने वाली हैं फिर भी पार्लर वाली को बुलाना चाहती हैं.’

यह बता कर नर्स कमरे से चली गई तो अंजू ने पूछा, ‘अम्मां, क्या चाहिए?’

अम्मां ने इशारे से बताया कि थ्रेडिंग करवानी है. जब से उन की कीमोथेरैपी हुई थी उन के सिर के बाल तो खत्म हो गए थे पर दाढ़ीमूंछ उगनी शुरू हो गई थी. घर में थीं तो वह अंजू से प्लकिंग करवाती रहती थीं पर अस्पताल जा कर उन्होंने महसूस किया कि 4-5 बाल चेहरे पर उग आए हैं इसलिए वह पार्लर वाली लड़की को बुलाना चाहती थीं.

अम्मां की तीव्र इच्छा को देख कर अंजू ने ही उन की थे्रडिंग कर दी थी. फिर उन के कहने पर भवों को भी तराश दिया था. एक संतोष की आभा उन के चेहरे पर फैल गई थी और थक कर वह सो गई थीं.

नर्स जब दोबारा आई तो उस ने अम्मां के चेहरे को देखा और मुसकरा दी. उस ने पहले तो अम्मां को गौर से देखा फिर एक भरपूर नजर अंजू पर डाल कर बोली, ‘दीदी, आप की लवमैरिज हुई थी क्या?’

‘नहीं.’

‘ऐसा नहीं हो सकता,’ नर्स बोली, ‘अम्मां तो इतनी गोरी और सुंदर हैं फिर आप जैसी साउथ इंडियन लगने वाली लड़की को उन्होंने कैसे अपनी बहू बनाया?’

ऐसे प्रश्न का सामना अंजू अब तक हजारों बार कर चुकी थी. सासबहू की जोड़ी को एकसाथ जिस किसी ने देखा उस ने ही यह प्रश्न किया कि क्या उस का प्रेमविवाह था?

यह तो आज तक अंजू भी नहीं जान पाई थी कि अम्मां ने उसे अपने बेटे राज के लिए कैसे पसंद कर लिया था. जितना दमकता हुआ रूप अम्मां का था वैसा ही राज का भी था, यानी राज अम्मां की प्रतिमूर्ति था. जब अंजू को देखने अम्मां अपने पति और बेटे के साथ पहुंची थीं तो उन्हें देखते ही अंजू और उस के मातापिता ने सोच लिया था कि यहां से ‘ना’ ही होने वाली है पर उन के आश्चर्य का तब ठिकाना नहीं रहा था जब दूसरे दिन फोन पर अम्मां ने अंजू के लिए ‘हां’ कह दी थी.

अम्मां कुंडली के मिलान पर भरोसा रखती थीं और परिवार के ज्योतिषी ने अम्मां को इतना भरोसा दिला दिया था कि अंजू के साथ राज की कुंडली मिल रही है. लड़की परिवार के लिए शुभ है.

अंजू कुंडली में विश्वास नहीं रखती थी. हां, कर्तव्य पालन की भावना उस के मन में कूटकूट कर भरी थी इसीलिए वह अम्मां के लिए उन की बेटी भी थी, बहू भी और सहेली भी. सच है कि दोनों ही एकदूसरे की पूरक बन गई थीं. उन के मधुर संबंधों के कारण परिवार में हमेशा ही खुशहाली रही.

अम्मां के रूप को देख कर अंजू के मन में कभी भी ईर्ष्या उत्पन्न नहीं हुई थी. कहीं पार्टी में जाना होता तो अम्मां, अंजू की सलाह से ही तैयार होतीं और अंजू को भी उन को सजाने में बड़ा आनंद आता था. अंजू खुद भी बहुत अच्छी तरह से तैयार होती थी. उस की सजावट में सादगी का समावेश होता था. अंजू की सरलता, सौम्यता और आत्म- विश्वास से भरा व्यवहार जल्दी ही सब को अपनी ओर खींच लेता था.

घर में भी अंजू ने अपनी सेवा से अम्मां को वशीभूत कर रखा था. जबजब अम्मां को कोई कष्ट हुआतबतब अंजू ने तनमन से उन की सेवा की. 10 साल पहले जब अम्मां का पांव टूट गया था और वह घर में कैदी बन गई थीं, ऐसे में अंजू 3 सप्ताह तक जैसे अम्मां की परछाई ही बन गई थी.

उन्हीं दिनों अम्मां एक दिन बहुत भावुक हो गईं और उन की आंखों में अंजू ने पहली बार आंसू देखे थे. उन को दुखी देख कर अंजू ने पूछा था, ‘अम्मां क्या बात है? क्या मुझ से कोई गलती हो गई है?’

‘नहींनहीं, तेरे जैसी लड़की से कोई गलती हो ही नहीं सकती है. मैं तो अपने बीते दिनों को याद कर के रो रही हूं.’

‘अम्मां, जितने सुंदर आप के पति हैं, उतना ही सुंदर और आज्ञाकारी आप का बेटा भी है. घर में कोई आर्थिक तंगी भी नहीं है फिर आप के जीवन में दुख कैसे आया?’

‘अंजू, दूर के ढोल सुहाने लगते हैं, यह कहावत तो तुम ने भी सुनी होगी. मेरी ओर देख कर सभी सोचते हैं कि मैं सब से सुखी औरत हूं. मेरे पास सबकुछ है. शोहरत है, पैसा है और एक भरापूरा परिवार भी है.’

‘अम्मां, साफसाफ बताओ न क्या बात है?’

‘आज तेरे सामने ही मैं ने अपना दिल खोला है. इस राज को राज ही बना रहने देना.’

‘हां, अम्मां, आप बताओ. यह राज मेरे दिल में दफन हो जाएगा.’

‘जानना चाहती है तो सुन. राज के पापा की बहुत सारी महिला दोस्त हैं जिन पर वे तन और धन दोनों से ही न्यौछावर रहते हैं.’

‘आप जैसी सुंदर पत्नी के होते हुए भी?’ अंजु हैरानी से बोली.

‘हां, मेरा रूप भी उस आवारा इनसान को बांध नहीं पाया. यही मेरी तकदीर है.’

‘आप को कैसे पता लगा?’

‘खुद उन्होंने ही बताया. शादी के 2 साल बाद जब एक रात बहुत देर से घर लौटे तो पूछने पर बोले, ‘राज की मां, औरतें मेरी कमजोरी हैं. पर तुम्हें कभी कोई कमी नहीं आएगी. लड़नेझगड़ने या धमकियां देने के बदले यदि तुम इस सच को स्वीकार कर लोगी तो इसी में हम दोनों की भलाई है.’

‘और जल्दी ही यह सचाई मुझे समझ में आ गई. मैं ने अपने इस दुख को कभी दुनिया के सामने जाहिर नहीं किया. आज पहली बार तुम को बता रही हूं. मैं उसी दिन समझ गई थी कि शारीरिक सुंदरता महत्त्वपूर्ण नहीं है इसीलिए जब तुम्हें देखा तो न जाने तुम्हारे साधारण रंगरूप ने भी मुझे इतना प्रभावित किया कि मैं तुम्हें बहू बना कर घर ले आई. राज भी इस सच को शायद जानता है इसीलिए उस ने भी तुम्हें स्वीकार कर लिया. यह बेहद अच्छी बात है कि बाप की कोई भी बुरी आदत उस में नहीं है.’

अम्मां की आपबीती सुन कर अंजू को इस घर की बहू बनने का रहस्य समझ में आ गया. राज अपनी मां से भावनात्मक रूप से इतना अधिक जुड़ा हुआ था कि उस की मां की पसंद ही उस की पसंद थी.

‘अरे, तू क्यों रो रही है पगली. इन्हीं विसंगतियों का नाम तो जीवन है. हर इनसान पूर्ण सुखी नहीं है. परिस्थितियों को जान कर उन्हें मान लेना ही जीवन है.’

‘अम्मां, आप ने यह सब क्यों बरदाश्त किया? छोड़ कर चली जातीं.’

‘सच जानने के बाद मैं ने अपने जीवन को अपने हाथों में ले लिया था. अपने दुखों के ऊपर रोते रहने के बदले मैं ने अपने सुखों में हंसना सीख लिया. मैं ने अपना ध्यान अपनी कला में लगा दिया. कला का शौक मुझे बचपन से था. मैं ने अपने चित्रों की प्रदर्शनियां लगानी शुरू कर दीं. जरूरतमंद कलाकारों को प्रोत्साहन देना शुरू कर दिया. कला और सेवा ने मेरे जीवन को बदल दिया.’

‘सच, अम्मां, आप ने सही कदम उठाया. मुझे आप पर गर्व है.’

‘मुझे स्वयं पर भी गर्व है कि एक आदमी के पीछे मैं ने अपना जीवन नरक नहीं बनाया,’ अम्मां बोलीं, ‘ऐसी बात नहीं थी कि वह मुझ से प्यार नहीं करते थे. जब एक बार मुझे टायफाइड और मलेरिया एकसाथ हुआ तो वे मेरे पास ही रहे. जैसे आज तुम मेरी सेवा कर रही हो वैसे ही 21 दिन इन्होंने दिनरात मेरी सेवा की थी.’

अब जब से अम्मां को कैंसर हुआ था तब से पापा ही दिनरात अम्मां की सेवा में लगे थे. आज उन की मृत्यु पर वे ही सब से ज्यादा रो रहे थे. उन के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. अम्मां के अंतिम दर्शन पर वे बोले, ‘‘अंजू बेटा, तुम ने अपनी मां को सजा तो दिया है पर एक बात तुम बिलकुल भूल गई हो.’’

‘‘पापा, क्या बात?’’

‘‘परफ्यूम लगाना भूल गई हो. वह बिना परफ्यूम लगाए कभी बाहर नहीं जाती थीं. आज तो लंबी यात्रा पर जा रही हैं. उन के लिए एक बढि़या परफ्यूम लाओ और उन पर छिड़क दो. मेरे लिए उन की यही पहचान थी. जब भी किसी बढि़या परफ्यूम की खुशबू आती तो मैं बिना देखे ही समझ जाता था कि मेरी पत्नी यहां से गुजरी है. आज भी जब वह जाए तो बढि़या परफ्यूम की खुशबू मुझ तक पहुंचे. मैं इसी महक के सहारे बाकी के बचे हुए दिन निकाल लूंगा,’’ इतना कह कर पापा फफकफफक कर रो पड़े. अंजू ने परफ्यूम की सारी शीशी अम्मां के शव पर छिड़क दी और 4 लोग उन की अर्थी को उठा कर अंतिम मुकाम की ओर बढ़ चले.

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फ्लर्ट: क्यों परेशान थी मीता अपने पति से

नैना,माहा और दलजीत तीनों शैतान लड़कियों की आंखों में हंसतेहंसते पानी आ गया था. थोड़ी देर पहले तीनों चुपचाप अपनेअपने लैपटौप पर बिजी थीं. तीनों मुंबई के वाशी एरिया की इस सोसायटी में टू बैडरूम शेयर करती हैं. एक ही औफिस में हैं, बस से ही औफिस आतीजाती थीं पर अब तो ज्यादातर घर से ही काम कर रही हैं. तीनों बहुत ही बोल्ड ऐंड ब्यूटीफुल टाइप लड़कियां हैं, ‘वीरे दी वेडिंग’ मूवी की लड़कियों जैसी. खूब सम?ादार हैं, कोई इन्हें जल्दी बेवकूफ नहीं बना सकता.

इन के बौस अनिलजी भी यहीं रहते हैं. उन्होंने ही इन तीनों को यह फ्लैट दिलवा दिया था. थोड़े रसिक टाइप हैं. उन्होंने सोचा कि 3 हसीनाएं उन के अंडर में काम करती ही हैं, घर भी पास में हो जाएगा तो थोड़ीबहुत फ्लर्टिंग करता रहूंगा. असल में अनिलजी हर लड़की को प्यार कर सकते हैं. हर लड़की को यह यकीन दिला सकते हैं कि वही इस दुनिया की सब से खूबसूरत लड़की है और किसी भी लड़की से उन का बात करने का जो ढंग है, वह ऐसा कि लगता है जैसे डायलाग मारने की कहीं से ट्रेनिंग ली है.

कई लोगों को अनिलजी पर इस बात पर भी गुस्सा आता है कि ये सोसाइटी के सैक्रेटरी हैं और जरा भी अपनी जिम्मेदारी नहीं सम?ाते. इधरउधर खुद ही गंदा करते रहते हैं. कभी सिगरेट के टोटे रोड पर फेंकते हुए चलेंगे, कभी यों ही इधरउधर थूक देंगे और उन्हें लगता है कि उन्हें सब बहुत पसंद करते हैं.

पता है अनिलजी की सब से बड़ी खासीयत क्या है? फ्लर्ट करते हैं और सामने वाली लड़की को यह पता भी नहीं लग सकता कि फ्लर्टिंग हो रही है. एक तो उम्र में बड़े हैं ही, औफिस में भी सीनियर हैं. किसी भी लड़की से बात करते हैं तो इतनी ग्रेसफुली करते हैं कि तेज से तेज लड़की भी पकड़ नहीं सकती कि अनिलजी फ्लर्ट कर रहे हैं. उलटीसीधी बातें करते भी नहीं हैं.

‘‘आज आप को काम ज्यादा तो नहीं है? देर हो जाएगी तो मेरी कार में ही चलना. एक ही सोसाइटी में तो जाना है. मैं तो कहता हूं रोज मेरे साथ आ जा सकती हो.’’

‘‘मैं तो आज जो भी कुछ हूं, अपनी वाइफ की ही सपोर्ट से हूं. मेरी वाइफ बहुत अच्छी है.’’

‘‘आज आप बहुत अच्छी लग रही हैं, यह कलर आप को सूट करता है.’’

‘‘यह औफिस नहीं है, एक फैमिली है. आप को जब भी कोई प्रौब्लम हो तो मु?ो कह सकती हैं.’’

अब ऐसी बातों पर क्या औब्जैक्शन हो सकता है. असल में अनिलजी को

लड़कियों से बातें करने का, उन्हें जोक्स, कोई मैसेज फौरवर्ड करने का बहुत शौक है. अभी तक तीनों लड़कियों में से किसी ने आपस में उन के बारे में कुछ भी यह सोच कर नहीं बोला कि जाने दो, बौस हैं. शायद मु?ो स्पैशल सम?ाते हैं, इसलिए मु?ो जरा ज्यादा मानते हैं, इसलिए थोड़े स्पैशल नजरिए से देखते हैं, क्या बुरा है. कोई नुकसान तो पहुंचा नहीं रहे हैं. अब जो ये तीनों लड़कियां बुरी तरह हंस रही हैं न. वह इसलिए कि अभीअभी अपने फोन में अनिलजी का मैसेज देखते हुए दलजीत बोल पड़ी थी, ‘‘यार, अनिलजी कोरोना पौजिटिव हो गए हैं, हौस्पिटल में एडमिट हो गए हैं, इन के बच्चे तो विदेश में हैं, बेचारी वाइफ अकेली है.’’

नैना और माहा के हाथ में भी अपनाअपना फोन थे, दोनों ने एकसाथ कहा, ‘‘क्या, तुम्हें भी मैसेज भेजा? मु?ो भी भेजा और साथ में सैड इमोजी भी. है न?’’

नैना हंस पड़ी, ‘‘मतलब सब को फौरवर्ड कर दिया. और मैं सम?ाती थी कि मु?ो ज्यादा अटैंशन देते हैं. अरे, सुनो, सच्चीसच्ची बताना तुम लोगों को भी मैसेज भेजते रहते हैं क्या अनिलजी.’’

दोनों जोरजोर से हंस पड़ीं, ‘‘लो भई, ये तो सब को प्यार बांटते चलते हैं और हम सम?ा रही थीं कि हम ही स्पैशल हैं.’’

फिर तो तीनों अपनेअपने मैसेज एकदूसरी को बताने लगीं और अब इन की हंसी नहीं रुक रही है.

माहा ने कहा, ‘‘देखो, एक आइडिया है.’’

‘‘क्या? बोलोबोलो.’’

‘‘ये जो हम सब के साथ फ्लर्ट करते घूम रहे हैं यह आदत छुड़ाने की कोशिश करनी चाहिए न.’’

दलजीत ने कहा, ‘‘अरे, छोड़ो यार, हमें इन से क्या मतलब. मु?ो तो अपने हैरी से मतलब है. बस वह मु?ो और मैं उसे सच्चा प्यार करते हैं, इतना बहुत है.’’

माहा ने घुड़की मारी, ‘‘फिर शुरू कर दिया हैरी पुराण. आपस में प्यारव्यार करने को कौन मना कर रहा है, लौकडाउन है, घर में बोर हो रहे हैं, अनिलजी के साथ थोड़ा खेल नहीं सकते क्या?’’

दलजीत फिर मिनमिनाई, ‘‘हैरी सुनेगा तो उसे अच्छा नहीं लगेगा.’’

हैरी. कोई अंगरेज… न, न, तीनों लड़कियों ने अच्छेभले हरविंदर को हैरी बना दिया है. दलजीत का मंगेतर है.

दलजीत उस पर जिंदा है, कहती है, ‘‘मेरा हैरी तो सनी देओल लगता है बिलकुल.’’

यह अलग बात है कि नैना और माहा इस बात से तनिक सहमत नहीं.

हमेशा की तरह दलजीत को दोनों शैतान लड़कियों ने इस शरारत में शामिल कर ही लिया. अब इतने दिन से घर में बंद हैं, कितना काम करें. कितना कोरियन शोज देखें. आजकल तीनों पर कोरियन शोज देखने का भूत चढ़ा है. हां, तो बाकायदा मजेदार प्लानिंग हुई. अब अनिलजी जैसे चालू पुरजे के साथ थोड़ी मस्ती करना इन का भी तो हक है. यह क्या. सीधे बनबन कर क्या सिर्फ अनिलजी ही अपना टाइम पास करते रहें.

अनिलजी की पत्नी मीता इतनी सीधी भी कभी नहीं लगी जितनी अनिलजी बताते हैं. बढि़या टाइट रखती हैं इन्हें. चेहरे से ही रोब टपकता है. सब के फ्लैट में इंटरकौम है ही, माहा ने मीता को इंटरकौम पर फोन किया,

हालचाल पूछे, फिर कहा, ‘‘अनिलजी का मैसेज आया था, हौस्पिटल में हैं, तो भी मेरा कितना ध्यान रखते हैं. सर बहुत ही अच्छे हैं, इस बीमारी में भी दूसरों की चिंता करते हैं,’’ और बहुत सी शुभकामनाएं दे कर माहा ने फोन रख दिया.

मीता को ये शुभकामनाएं कुछ खास पसंद नहीं आईं. मन तो हुआ कि पति को फोन करे और कहे कि हौस्पिटल में हो, पहले कोरोना संभाल लो अपना, फिर दूसरों की चिंता कर लेना, पर इस समय तो पति को कुछ कहना पत्नी धर्म के खिलाफ हो जाता, घर आने दो, फिर देख लूंगी, सोच कर दिल को सम?ा लिया.

तीनों लड़कियां अनिलजी के हालचाल पूछ रही थीं. उन के मैसेज एकदूसरे को पढ़वा कर अपना अच्छा टाइम पास कर रही थीं. अनिलजी अपनी उखड़ती सांसों के साथ भी फ्लर्टिंग का यह मौका छोड़ना नहीं चाह रहे थे.

सोच रहे थे कि तीनों लड़कियां कितनी बेवकूफ हैं. मैं तो इन तीनों को ही क्या, जानपहचान की हर लड़की को ऐसे मैसेज कर रहा हूं और ये बेवकूफ अपने को खास सम?ा रही हैं. कभी इन की फेसबुक फ्रैंड्स की लिस्ट देखिए, 5 हजार दोस्त होंगे इन के, जिन में से 4 हजार महिलाएं ही होंगी. गजब रसिया टाइप बंदा है. औफिस की सारी लड़कियां, उन की सहेलियां, सहेलियों की सहेलियां, सब क फोटो और कमैंट देखते ही ऐसे लपक कर फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजते हैं कि लड़कियों को पहले तो सम?ा नहीं आता कि कौन है, फिर बेचारी कौमन फ्रैंड्स को देख कर इन की रिक्वैस्ट ऐक्सैप्ट कर लेती हैं, सोचती हैं कि जाने दो, कोई उम्रदराज सीनियर है, क्या नुकसान पहुंचाएगा. बस यहीं भूल कर जाती हैं भोली लड़कियां. फिर तो उन की पोस्ट पर लाइक और कमैंट सब से पहले अनिलजी का ही आता है. एक और खास बात. जितनी सुंदर लड़की, उतना बड़ा कमैंट लिखते हैं.

मीता को सोशल मीडिया में इतना इंटरैस्ट है नहीं तो उन्हें पता ही नहीं चलता कि पति क्या कर रहा है. अनिलजी के बच्चे पिता की ऐक्टिविटीज को टाइम पास सम?ा कर इग्नोर कर देते हैं.

हां, तो अगले दिन मिनमिनाती दलजीत के कंधे पर जैसे बंदूक रख कर माहा और नैना ने दलजीत को स्क्रिप्ट लिख कर दी और बताया कि क्या बोलना है तो दलजीत ने मीता को फोन किया, कहा, ‘‘मैडम, अब कैसे हैं सर. उन के बीमार होने से हम तो परेशान हो गए. आतेजाते पूछ लेते थे कि मार्केट से तो कुछ नहीं चाहिए. इस लौकडाउन में तो उन्होंने हमारा बहुत ही ध्यान रखा है. बस अब जल्दी से ठीक हो कर आएं तो हमें भी कुछ आराम हो. अभी तो मैसेज पर ही उन से बात हो रही है. आप ठीक हैं न?’’

मीता का मन हुआ कि हौस्पिटल जा कर अभी पति से फोन छीन ले. पति की नसनस जानती थी पर अनिलजी भी तो चतुर, चालाक हैं, सीधेसीधे कभी कोई ऐसी हरकत नहीं की कि कोई उन के चरित्र पर एंगली उठा दे.

सरेआम पत्नी की तारीफ करते घूमते. कई बार तो इतनी तारीफ कर देते कि मीता भी हैरान रह जातीं कि क्या सचमुच मैं एक सर्वगुणसंपन्न पत्नी हूं.

अगले दिन नैना का नंबर था. मीता से सीधे पूछा, ‘‘अरे, मैडम सर कैसे हैं?

ठीक तो हैं न? सुबह से कोई मैसेज नहीं आया है उन का. चिंता हो रही है, अब तक तो गुडमौर्निंग के दसियों मैसेज आ जाते थे.’’

‘‘ठीक हैं, काफी ठीक हैं. घर आने ही वाले हैं.’’

‘‘शुक्र है… उन के मैसेज की इतनी आदत हो चुकी है कि क्या बताऊं. सारा दिन टच में रहते हैं. हम तो यहां अकेली पड़ी हैं. इतना बिजी होने के बाद भी वे हर समय हालचाल पूछते रहते हैं तो अच्छा लगता है.’’

अनिलजी घर आ गए हैं, उन्हें कमजोरी है, मीता उन का ध्यान रख रही हैं. अच्छी तरह से क्लास भी ले चुकी हैं. टीचर रही हैं. बिगड़े बच्चों को सुधारना उन्हें खूब आता है. और यहां तो बात पति की थी, पति को तो एक आम औरत भी सुधारने का दम रखती है. सब ठीक हो गया है. तीनों शैतान एकदूसरे से पूछती रहती हैं, बौस का कोई मैसेज आया क्या? जवाब हर बार ‘न’ में होता है अब.

संदेह के बादल- भाग 4

सुरभि को शक निश्चित रूप से शीतला पर ही था, क्योंकि दूसरा कोई घर में आता ही नहीं था. उन्होंने लाख समझाना चाहा, उस से चेन ढूंढ़ने के लिए कहा, पर वह नहीं मानी थी. शीतला हर प्रकार से अपनी सफाई दे रही थी. पर उन्हें इस बात की जरूरत ही नहीं थी. जिस औरत ने कभी 4 पैसे की हेराफरी नहीं की वह इतना बड़ा अपराध कैसे कर सकती है, यह तो वे जानते थे.

अपराधी के कठघरे में भयातुर, डरीसहमी सी शीतला के माथे पर उन्होंने ज्यों ही हाथ रखा था, वह बिलखबिलख कर रो पड़ी थी, ‘‘साहब, आप के घर का नमक खाया है. आप के साथ इतना बड़ा विश्वासघात मैं कैसे करूंगी?’’

पर सुरभि ने शीतला को जेल की चारदीवारी में बंद करवा कर ही चैन की सांस ली. आंख की किरच आंख से निकली ही भली. पर वह शायद यह नहीं समझ पाई थी कि झूठे अहं और संदेह के पलीते से भरा यह ऐसा भयानक विस्फोट था जिस ने पतिपत्नी के भावनात्मक संबंधों को हिला कर रख दिया.

प्रारूप शीतला की जमानत करवा आए थे, अपने घर पर उन्होंने उसे फिर काम नहीं दिया था. उन के लिए उस की आंखों में तिरते उन अनुत्तरित प्रश्नों की शलाकाएं झेलना सहज नहीं था. उस के बाद वे अकसर दौरे पर रहते. घर पर रहते भी तो उदास से, बहुत कम बोलते थे. अपनी किताबों की दुनिया में ही खोए रहते. मृदुल के साथ जरूर बोलबतिया लेते थे. उस विद्रोहिणी नारी ने उन का चैन लूट लिया था. उस का सान्निध्य उन्हें वितृष्णा से भर देता था.

शीतला के भूख से तड़पते बच्चे और अपाहिज पति की जब कभी कल्पना करते, मन तिरोहित हो उठता. उसे निकालना ही था, तो यों ही निकाल देती सुरभि, यों लांछन लगा कर तो उस ने उस बेचारी को कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा. अपमानित तो वह हुई ही, अब तो कोई काम पर भी नहीं रखेगा उसे. मन खिन्न हो उठा था. वे खुद भी तो छटपटाने के सिवा कुछ नहीं कर सके. उन का अब घर पर जी नहीं लगता था. पत्नी कई बार रोकने का प्रयत्न करती, पर उन का हर प्रयत्न अकारथ सिद्ध होता, अब उन का मन बुरी तरह उचट गया था.

एक रात प्रारूप दौरे पर गए थे. सुरभि और मृदुल बंगले में अकेले थे. अचानक बत्ती गुल हो गई. एक तो अकेली, ऊपर से अंधेरा. गरमी और उमस से बचने के लिए उस ने खिड़की खोली और स्टोर में जा कर लालटेन में मिट्टी का तेल भरा. उसे ला कर वह ज्यों ही तिपाई पर रखने लगी थी कि लालटेन औंधेमुंह जमीन पर गिर पड़ी और पूरा तेल मेजपोश पर छलक गया और पलक झपकते ही आग ने मेज, परदों और फर्नीचर को अपने चुंगल में ले लिया. फिर देखते ही देखते आग ने विकरालरूप धारण कर लिया. अंधेरे  में जब वह पानी की बालटी लेने बाथरूम में पहुंची तब तक आधा कमरा आग की लपटों में जल गया.

कृत्यअकृत्य के चक्रवात में फंसी सुरभि को यह भी समझ नहीं आया कि बेटे को उठा कर किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दे. डर और दहशत से आवाज भी घुट कर रह गई थी. चीखतीचिल्लाती भी तो उस नई अनजान जगह में उस की चीखें दीवारों से ही टक्कर मार कर, उस के कर्णपटल को भेद जातीं. कौन आता उस की सहायता करने?

तभी उस ने झोंपडि़यों की ओर से कुछ लोगों को अपने बंगले की ओर आते देखा. उस ने सोचा, सभी शीतला के रिश्तेदार होंगे. प्रारूप की अनुपस्थिति में लूटखसोट कर के घर का सामान ले जाएंगे और उसे और मृदुल को मार भी डालेंगे. कलुषित मन और सोच भी क्या कर सकता था? घबराहट के मारे सुरभि गश खा कर जमीन पर गिर पड़ी. उस के बाद क्या घटा, उसे नहीं मालूम.

आंख खुली तो वह अस्पताल में बिस्तर पर पड़ी थी. पास में बिस्तर पर मृदुल लेटा था. सामने प्रारूप खड़े थे. उन के सामने शीतला सपरिवार खड़ी थी.

उस के हाथों की ओर सुरभि की नजर चली गई थी. दोनों हाथों पर पट्टियां थीं. पूरा चेहरा जगहजगह से झुलस गया था. उस ने क्षीण स्वर में पूछा, ‘‘तुम्हारे हाथों को क्या हुआ?’’

‘‘आप को और मृदुल को बचाने के प्रयास में इस के हाथ बुरी तरह झुलस गए हैं. समय पर अगर यह आप को न बचाती तो आप का बचना नामुमकिन था,’’ डाक्टर ने सुरभि को बताया तो एकाएक वह भयानक मंजर उसे याद हो आया था.

देर तक वह शीतला को निहारती रही. पश्चात्ताप के आंसुओं की अविरल धारा अपनी सारी सीमाएं तोड़ कर बह निकली थी, पर तब भी वह कुछ कह नहीं सकी थी. एक बार फिर अहं सामने आ गया.

कुछ दिनोें तक अस्पताल में रहने के बाद सुरभि और मृदुल पूरी तरह से स्वस्थ हो घर आ गए थे. एक शाम प्रारूप के साथ सैर करते हुए वह शीतला की झोंपड़ी की ओर बढ़ने लगी तो प्रारूप ने उसे रोका, ‘‘उधर कहां जा रही हो?’’

‘‘आज मत रोको मुझे. एक बार वहां जा कर प्रायश्चित्त कर लेने दो,’’ कह कर वह आगे बढ़ी और शीतला की झोंपड़ी के बाहर जा कर रुक गई. चिथड़ों में लिपट शीतला के चेहरे पर मुसकान दौड़ गई, दौड़ कर उस ने चारपाई बिछाई और नम्रतापूर्वक उन के बैठने की प्रतीक्षा करने लगी. भूखेनंगे बच्चों को देख कर सुरभि का मन ग्लानि से भर उठा. वह मन ही मन सोचने लगी कि ईर्ष्या और डाह की विषबेल बो कर कैसा बदला लिया था उस जैसी शिक्षित नारी ने उस गरीब से? उस के पास पति था, प्यारा बेटा था, ऐश्वर्य, समृद्धि सभी कुछ तो था. खुद ही तो सहेजसमेट नहीं पाई इस सुख को. इस में दूसरों का क्या दोष? गाज गिराई भी तो उस पर जिस ने उस के पति की सेवा की? शीतला के साथ उस के पूरे परिवार को उस ने अपने परिहास की परिधि में घसीट लिया?

शीतला को पास बुला कर उस ने उसे अपने पास बैठाया. फिर उस का हाथ अपने हाथ में ले कर पूछा, ‘‘तुम्हारे ऊपर मैं ने इतने आरोप लगाए, फिर भी मेरी और मेरे बेटे की रक्षा की तुम ने, तुम वास्तव में ही महान हो, शीतला.’’

‘‘नहीं बीबीजी, मैं तो कुछ भी नहीं, महान तो बाबूजी हैं. इन्होंने मेरे बच्चों की भूख मिटाई. मेरे अपाहिज पति के इलाज के लिए ठेकेदार से पैसा दिलवाया और सब से बड़ा उपकार तो इन्होंने मेरी इज्जत बचा कर किया.’’

शीतला फिर बोली, ‘‘बीबीजी, एक रात शराब के नशे में मेरे पति ने मुझे ठेकेदार के पास भेज दिया था. उस ने सोचा, इसी तरह से 4 पैसे का जुगाड़ भी हो जाएगा और बच्चों को रोटी, कपड़ा मिलता रहेगा. अब आप ही बताओ कि जब रक्षक ही भक्षक बन जाए तो उस औरत पर क्या बीतती होगी? तब बाबूजी ने ही मेरी रक्षा की थी. मैं तो अपना भाई, पिता सबकुछ ही इन्हें मानती हूं. मैं ने आप के घर का नमक खाया है और फिर जब मेहनत करने के लिए ये 2 हाथ दिए हैं तो इंसान कुकर्म करे ही क्यों?’’

सुरभि की नजरों में शीतला बहुत ऊपर उठ गई थी. आसमान से भी ऊपर. आज शीतला के कथन ने उसे इस अवधारणा से मुक्त कर दिया था कि औरत और मर्द के बीच हर रिश्ता शरीर तक ही सीमित नहीं, भावनाओं व संवेदनाओं का भी अपना स्थान है.

प्रारूप कुछ कहना चाह ही रहे थे कि उस ने अपनी हथेली उन के होंठों पर रख दी. शीतला को अगले दिन ही काम पर आने के लिए कह कर वह लौट आई थी. अब नई सुबह, वह उस की प्रतीक्षा में खड़ी थी, जिस में संदेह और शंका के लिए कोई स्थान नहीं था.

हैप्पी एंडिंग: भाग-1

लेखिका- अनामिका अनूप तिवारी

आज10 वर्ष के बाद फिर उसी गली में खड़ी थी. इन्हीं संकरी पगडंडियों के किनारे बनी इस बड़ी हवेली में गुजरा मेरा बचपन, इस हवेली की छत पर पनपा मेरा पहला प्यार… जिस का एहसास मेरे मन को भिगो रहा था. एक बार फिर खुली मेरी यादों की परतें, जिन की बंद तहों पर सिलवटें पड़ी हुई थीं, गलियों से निकलते हुए मेरी नजर चौराहे पर बने गांधी पार्क पर पड़ी, छोटेछोटे बच्चों की खिलखिलाहट से पार्क गुंजायमान हुआ था, पार्क के बाहर अनगिनत फूड स्टौल लगे हुए थे जिन पर महिलाएं खानेपीने के साथ गौसिप में खोई थीं… सुखद एहसास हुआ… चलो, आज की घरेलू औरतें चाहरदीवारी से कुछ समय अपने लिए निकाल रही हैं, मैं ने तो मां, चाचियों को दादी के बनाए नियम के अनुसार ही जीते देखा है, पूरा दिन घर के काम और रसोई से थोड़ी फुर्सत मिलती तो दादी बडि़यां, चिप्स और पापड़ बनाने में लगा देतीं.

चाचियां भुनभुनाती हुई मां के पीछे लगी रहतीं, किसी के अंदर इतनी हिम्मत नहीं थी

कि कुछ समय आराम करने के लिए मांग सके. दादी के तानाशाही रवैये से सभी त्रस्त थे लेकिन ज्यादातर उन की शिकार मैं और मां बनते थे.

पूरे खानदान में मेरे रूपसौंदर्य की चर्चा होती तो वहीं दादी को मैं फूटी आंख नहीं सुहाती, मेरे स्कूल आनेजाने के लिए भाई को साथ लगा

दिया जो कालेज जाने तक साए की तरह साथ लगा रहता.

10 बेटों के बीच मैं एक एकलौती बेटी थी. सभी का भरपूर प्यार मिला लेकिन साथ कई बंदिशें भी, पिताजी अपने 5 भाइयों के साथ बिजनैस संभालने में व्यस्त रहते और भाइयों को मेरी निगरानी में लगा रखा था जो अपना काम बड़ी ईमानदारी से करते थे.

परीक्षा खत्म होने के साथसाथ गर्मियोें की छुट्टियों में कुछ दिन आजादी के मिलते थे जब मां अपने मायके और मैं और भाई मामा के घर खुद के बनाए नियम में जीते थे. मैं बहुत खुश थी, मामा के घर जाना है लेकिन अगली सुबह ही दादी ने घर में एक नया फरमान जारी किया… ‘‘रीवा कहीं नहीं जाएगी… लड़की जवान हो रही है. ऐसे में तो अपने सगों पर भरोसा नहीं तो मैं कैसे जाने दूं उसे तेरी ससुराल, कुछ ऊंचनीच हो गई तो सारी उम्र सिर फोड़ते रहोगे. तुम्हारी घरवाली जाना चाहे तो जा सकती है बस रीवा नहीं जाएंगी. पिताजी हमेशा की तरह सिर झुकाए हां में हां मिलाए जा रहे थे.’’

मेरी आंखों से गंगाजमुना की धार बह चली थी. पता नहीं उन दिनों इतना रोना क्यों आता था अब तो बड़ी से बड़ी बात हो जाए आंखें सूखी रहती हैं.

खूब रोनाधोना मचाया लेकिन कुछ काम नहीं आया. मुझ पर लगी इस बंदिश ने मां का मायका भी छुड़ा दिया. मां की तकलीफ देख कर दिल से आह निकली ‘‘काश… मैं लड़की नहीं होती’’ उस दिन पहली बार लड़की होने पर दु:ख हुआ था.

छत की मुंडेर पर बैठी चाची के रेडियो से गाने सुन रही थी, रफी के हिट्स चल रहे थे… दर्द भरे गानों में खुद को फिट कर दुखी होने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. तभी पीछे की छत से आवाज आई ‘‘गाना अच्छा है.’’

पीछे मुड़ कर देखा एक हैंडसम लड़का मेरी तरफ देख कर मुसकरा रहा था… ‘‘पर ये हैं कौन?’’ खुद से सवाल किया.

‘‘हाय… मैं सुमित, यह मेरी बूआ का घर है… आप का नाम?’’

अच्छा… तो ये बीना आंटी का भतीजा है.

‘‘मेरा नाम जानने की कोशिश न ही करो यही तुम्हारे लिए बेहतर होगा’’ कहते हुए मैं

अपने कमरे में चली आई. मैं वहां से चली तो आई पर न जाने कैसा एहसास साथ ले आई

थी. 17 की हो गई थी और आज तक कभी

किसी भी लड़के ने मुझ से बात करना तो दूर… नजर उठा कर देखने की भी हिम्मत नहीं की थी और इस का पूरा श्रेय मेरे आदरणीय भाइयों को जाता है.

और उस दिन पहली बार किसी लड़के ने मुझ से मुसकरा कर मेरा नाम पूछा था… जैसे मेरे अंदर प्रेम की सुप्तावस्था को थपकी दे कर उठा रहा हो, मैं उस के उठने के एहसास से ही भयभीत हो गई थी, क्योंकि मैं जानती थी कि यह एहसास एक बार जग गया तो मेरे साथ मेरी मां भी कभी न शांत होने वाले तूफान में फंस जाएंगी, जिस से निकलने की कोशिश मात्र से ही मेरे अस्तित्व की धज्जियां उड़ जाएंगी.

अगले दिन दिमाग के लाख मना करने के बाद भी दिल ने अपनी बात मुझ से मनवा ली और मैं फिर छत की मुंडेर के उस कोने में खड़ी हो गई. वह सामने ही खड़ा था लैमन यलो कलर की शर्ट के साथ ब्लू जींस में. बहुत हैंडसम दिख रहा था, बीना आंटी भी साथ में थी. उन्हें देख कर मैं ने अपने कदम पीछे करना चाहे तब तक बीना आंटी ने मुझे देख लिया था.

‘‘रीवा, इस बार अपने मामा के घर नहीं गई.’’

‘‘नहीं, आंटी… मां की तबीयत ठीक नहीं है इसलिए दादी ने मना कर दिया.’’

‘‘ओह, काफी दिनों से सुरेखा भाभी से मिली नहीं, समय मिलते ही आऊंगी उन से मिलने.’’

‘‘जी… आंटी.’’

‘‘अरे हां… इस से मिलो, मेरा भतीजा सुमित… कल ही मद्रास से आया, वहां मैडिकल कालेज में पढ़ता है. 10 दिन की छुट्टियों में इस को बूआ की याद आ गई,’’ हंसते हुए बीना आंटी ने कहा.

‘‘बूआ, अच्छा हुआ मैं इस बार यहां आ गया यह तो पता चला आप के शहर में कितनी खूबसूरती छिपी है,’’ सुमित की आंखें मेरे चेहरे पर टिकी थीं.

मैं गुलाबी हो रही थी… शर्म से, प्रेम से, आनंद से.

मैं ही जानती हूं उस पल मैं वहां कैसे खड़ी थी. आंटी के जाते ही आंधी की तरह भागती हुई अपने कमरे में पहुंच गई, सुमित की आंखें जाने क्याक्या बयां कर गई थीं, उस की आंखों का स्थायित्व मुझे एक अदृश्य डोर में बांध रहा था… मैं बंधती जा रही थी… दिल के साथ अब दिमाग भी विद्रोही हो गया था… क्या इसे ही पहला प्यार कहते हैं, यह कैसा अनुभव है, दिल का चैन खत्म हो चुका था, अजीब सी बेचैनी छाई हुई थी, भूखप्यास सब खत्म… घर वालों को लगता मैं मामाजी के घर न जाने के कारण ऐसे गुमसुम सी, बेचैन हो कर छत के चक्कर लगाती हूं और उन का यह सोचना मेरे लिए अच्छा था, मुझ पर नजर थोड़ी कम रखी जाती.

आगे पढ़ें-  उस दिन भाई की आवाज सुन कर मैं…

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