संदेह के बादल- भाग 1

सारी रात सुरभि सो नहीं पाई थी. बर्थ पर लेटेलेटे ट्रेन के साथ भागते अंधकार को कभीकभी निहारने लगती. इतने समय बाद अपने पति प्रारूप से मिलने की सुखद कल्पना से उस के शरीर में सिहरन सी दौड़ गई थी. गाड़ी ठीक सुबह 5 बजे स्टेशन पर आ गई थी. कुली बुलवा कर उस ने सामान उतरवाया और उनींदे मृदुल को गोद में

ले कर स्टेशन पर उतर कर अपने पति प्रारूप को ढूंढ़ने लगी. चिट्ठी तो समय पर डाल दी थी उस ने, फिर क्यों नहीं आए? कहीं डाक विभाग की लाखों चिट्ठियों में उस की चिट्ठी खो तो नहीं गई? वरना प्रारूप अवश्य आते.

हवा में काफी ठंडक थी. सर्दी अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई थी. उस शीतल बयार में भी पसीने के कुछ कण उस के माथे पर उभर आए थे. नया शहर, नए लोग, अनजान जगह. ऐसे में अपना घर ढूंढ़ भी पाएगी या नहीं. उस ने पर्स खोल कर पते की डायरी निकाली और पास खड़े रिकशे वाले को कस्तूरबा गांधी मार्ग चलने का निर्देश दे कर पहले रिकशे में सामान रखवाया और फिर गोद में मृदुल को ले कर खुद भी बैठ गई. कैसी अजीब सवारी है यह रिकशा भी? उस ने सोचा, हर समय गिरने और फिसलने का डर बना रहता है. 2 लोग भी कितनी मुश्किल से बैठ पाते हैं. दिल्ली में होती तो अपनी गाड़ी को दौड़ाती हुई अब तक कई किलोमीटर की दूरी तय कर चुकी होती.

शहर की सुनसान सड़कें लांघता हुआ रिकशा एक बंगले के पास आ कर रुक गया था. बाहर नेमप्लेट पर अधिशासी अभियंता प्रारूप कुमार का नाम पढ़ कर उसे अपने गंतव्य तक पहुंचने की सूचना मिल गई थी. चारों ओर से भांतिभांति के पेड़ों से घिरे छोटे से बंगले तक पहुंचने के लिए उस ने रिकशे वाले को बाहर गेट पर ही पैसे दे कर विदा किया और हाथ में बैग पकड़ कर बंगले के बाहर आ कर खड़ी हो गई थी. पहले का समय होता तो सीढि़यां लांघती हुई, संभवतया धड़धड़ाती हुई अब तक घर के अंदर पहुंच चुकी होती, पर इस समय एक अव्यक्त संकोच उस के पांव जकड़ रहा था. घर तो उस का ही है. प्रारूप के घर को वह अपना ही तो कहेगी, लेकिन पिछले कई दिनों से उन के बीच एक दीवार सी खिंच गई थी, जिसे बींघने का प्रयत्न दोनों ही नहीं कर पा रहे थे. अब तो काफी दिनों से न तो कोई पत्रव्यवहार उन दोनों के बीच था और न ही बोलचाल. उस ने अपने आगमन की सूचना भी मृदुल से करवाई थी. वह बेला, चमेली की झाडि़यों के बीच काफी देर तक यों ही सूटकेस थामे खड़ी रही.

‘‘सुरभि.’’

चिरपरिचित आवाज पर वह पीछे मुड़ गई थी, जैसे मुग्धावस्था से चौंकी हो. इतने समय बाद प्रारूप को देख कर वह किसी अमूल्य निधि को पा लेने की सुखद अनुभूति से अभिपूरित हो उठी थी. उन्हें एकटक निहारती रह गई थी. रंग पहले से अधिक खिल उठा था. शरीर छरहरा पर चुस्तदुरुस्त. हां, कनपटियों पर चांदी के तार खिल आए थे. सुबह की सैर से लौटे थे  शायद.

‘‘चलो, अंदर चलो. यहां क्यों खड़ी हो?’’ अपने कंधे पर कोमल स्पर्श पा कर वह चौंकी.

‘‘शीतला, सामान उठा कर अंदर रखवा दो,’’ आदेश दे कर उन्होंने मृदुल को गोद में उठा लिया और पत्नी से प्रश्न किया, ‘‘चिट्ठी लिख देतीं, मैं तुम्हें लेने स्टेशन आ जाता.’’

‘‘लिखी तो थी, फोन भी करवाया था. पता चला दौरे पर गए हुए थे तुम,’’ उस ने रुकरु क कर कहा.

‘‘अच्छा, शायद शीतला डाक देना भूल गई है. पिछले दिनों काफी व्यस्त रहा,’’ वे अपने विभाग के कई किस्से सुनाते रहे थे, पर उसे लगा, प्रारूप जानबूझ कर टाल गए हैं.

तभी शीतला ट्रे में प्रारूप के लिए नीबूपानी, उस के लिए चाय और मृदुल के लिए गिलास में दूध व कुछ बिस्कुट रख गई थी. पितापुत्र बातों में ऐसे व्यस्त हो गए जैसे सबकुछ एक ही दिन में जान, समझ लेंगे.

चाय की चुस्कियां लेते वह झाड़ू लगाती हुई शीतला को देखने लगी. सांवला चेहरा, कुमकुम की बिंदी, लाल बौर्डर की तांत की साड़ी और कोल्हापुरी चप्पल, छरहरा शरीर जैसे उस की अपनी थुलथुल काया का परिहास कर रहा था. गजब का आकर्षण है इस तरुणी में, चेहरे पर कुटिल मुसकान घिर आई थी. मां को काफी जतन करना पड़ा होगा इसे ढूंढ़ने में? सुरभि ने मन ही मन सोचा था.

चाय की चुस्कियां लेते हुए उस ने चोर दृष्टि से घर के हर कोने की टोह ले ली. घर का हर हिस्सा साफसुथरा और सुव्यवस्थित था. कमरे में नीले रंग के परदे और बरामदे में रखे सुंदर क्रोटोन विगत के कई दृश्यों को सजीव कर गए थे. लाल रंग सुरभि को पसंद था, जबकि प्रारूप को हलका नीला आसमानी रंग भाता था. वे कहते, खुले उन्मुक्त आकाश का परिचय देता है यह रंग, पर उन की कहां चली थी. सुरभि ने ज्यों ही लाल रंग के परदों से अपनी बैठक को सजाया, प्रारूप ने वहां बैठना बंद कर दिया था. उन्होंने खुद को अपने कमरे में कैद कर लिया था.

एक बार यों ही रंगबिरंगे क्रोटोन के कुछ गमले ला कर प्रारूप ने बरामदे में सजाए, तो भी सुरभि का पारा 7वें आसमान पर पहुंच गया था, ‘छोटी सी बालकनी है, 2 आदमी तो ढंग से खड़े नहीं हो सकते, गमले कहां रखोगे?’

उस ने घड़ी की ओर दृष्टि घुमाई. 9 बजने को आए थे. प्रारूप के दफ्तर जाने का समय हो गया था. यह सोच वह नाश्ता बनाने के लिए उठने लगी तो उन्होंने सबल रोक दिया, ‘‘जब से बीमार हुआ हूं, गरिष्ठ भोजन सुबहसुबह पचता नहीं है. शीतला को मां सब समझा गई हैं. वही बना कर ले आएगी, तुम आराम से बैठो.’’

मेज पर रखे बरतनों की खनखनाहट सुन कर उस की नजर उस ओर चली गई थी. इलायची का छौंक लगा कर बनी खिचड़ी की सोंधी महक कमरे में फैल गई थी. नाश्ता कर के दफ्तर जाते समय प्रारूप उस से कहते गए, ‘‘जो भी काम हो, शीतला से कह देना. यह सब काम बड़े सलीके से करती है.’’

अनायास कहे पति के वाक्य उसे अंदर तक बींध गए. वह खुद पर तरस खा कर रह गई थी. ब्याह के बाद कुछ ही दिनों में पतिपत्नी के बीच संबंधों की खाई इसी बात पर ही तो गहराती गई थी. प्रारूप ऐसी सहभागिता, सहधर्मिणी चाहते थे जो ढंग से उन की गृहस्थी की सारसंभाल करती, उन की बूढ़ी मां की सेवा करती और जब वे थकेहारी दफ्तर से लौटे तो मृदु मुसकान चेहरे पर फैला कर उन का स्वागत करती. लेकिन सपनों की दुनिया में विचरण करने वाली, स्वप्नजीवी सुरभि के लिए ये सब बातें दकियानूसी थीं. वह तो पति और सास को यही समझाने का प्रयत्न करती रही कि औरत की सीमाएं घरगृहस्थी की सारसंभाल और पति व सास की सेवा तक ही सीमित नहीं हैं. नौकरी कर के चार पैसे कमा कर जब वह घर लाती है, तभी उसे पूर्णता का एहसास होता है.

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संदेह के बादल- भाग 2

प्रारूप समझाते रह गए थे कि उन की खासी कमाई है, सिर पर छत है, जिम्मेदारी कोई खास नहीं, और जो है भी, उस का निर्वहन करने में वे पूर्णरूप से सक्षम हैं.

?पर महत्त्वाकांक्षी सुरभि के ऊपर से सबकुछ जैसे चिकने घड़े पर पड़े पानी सा उतर गया. अम्मा सोचतीं कि एक बार मातृत्व बोध होने पर खुद ही घरगृहस्थी में रम जाएगी पर वहां भी निराशा ही हाथ लगी. मृदुल की किलकारियां दादी और पिता ने ही सुनी थीं. उन्हीं दोनों की छत्रछाया में वह पलाबढ़ा था. कुछ समय बाद प्रारूप को पदोन्नति मिली जिस से तनख्वाह भी बढ़ी और रहनसहन का स्तर भी. उन्होंने मृदुल का दाखिला एक अच्छे पब्लिक स्कूल में करवा दिया था. कभी किसी चीज की कमी नहीं थी. एक बार फिर उन्होंने सुरभि को नौकरी छोड़ने के लिए कहा था, समझाया था कि बच्चे की सही परवरिश के लिए मां का घर पर होना बहुत जरूरी है. पर भौतिकवाद में विश्वास करने वाली पत्नी ने उन्हें यह कह कर चुप करवा दिया कि यह परवरिश तो आया और शिक्षिका भी कर सकती हैं. और फिर, दोहरी आय से ये सुविधाएं तो आसानी से जुटाई जा सकती हैं.

नन्हें मृदुल के मुंह में जब आया निवाला डालती तो प्रारूप क्षुब्ध हो उठते. बूढ़ी अम्मा को घर के काम में जुटा देखते तो मन रुदन कर उठता कि उन्होंने ब्याह ही क्यों किया? इस बात का जवाब अपने मन में ढूंढ़ना खुद उन के लिए बहुत बड़ा संघर्ष था. एक बोझ की मानिंद सारे कार्यकलाप निबटाते रहते, पर अपनी सहधर्मिणी से वे कभी लोहा नहीं ले पाए. उन में अपने बिफरते मन को संभालने की अद्भुत क्षमता थी. उन के मन की गहराइयों में जब भी उथलपुथल मचती, लगता ज्वालामुखी फट पड़ेगा, लावा निकलने लगेगा. मनप्राण जख्मी हो कर छटपटाने जरूर लगते थे, पर उन के मुंह से बोल नहीं फूटते थे. शायद समझ गए थे, कुछ भी कह कर अपमानित होने से अच्छा है होंठ सी कर रहा जाए.

उन्हीं दिनों उन का स्थानांतरण दार्जिलिंग हो गया. प्रारूप वहां जाना नहीं चाहते थे.

इसलिए नहीं कि उन्हें दिल्ली से विशेष लगाव था, बल्कि इसलिए कि वे जानते थे कि सुरभि कभी भी उन के साथ चलने को तैयार नहीं होगी और न ही नौकरी से त्यागपत्र देगी. ऐसे में अम्मा और मृदुल को अकेले भी नहीं छोड़ सकते और स्वयं रुक भी नहीं सकते. इसलिए अकेले ही जाने का निश्चय कर के उन्होंने अपना यह निर्णय जब अम्मा को सुनाया तो उन के धैर्य का बांध ढहने लगा. वे उन्हें वहां अकेले कैसे जाने देतीं? कौन उन की देखभाल करेगा?

मां ने सुरभि को समझाया था, ‘पतिपत्नी को एक ही देहरी में रहना होता है. जनमजनम का साथ होता है दोनों का,’ पर सुरभि ने मां की बात समझने के बदले, समझाना उचित समझा था. अपनी ओर से खुद ही सफाई दे कर उस ने पलभर में अपना निर्णय सुना दिया था, ‘3 ही बरस की तो बात है, पलक झपकते ही गुजर जाएंगे. अब तो मृदुल भी अच्छे स्कूल में जाने लगा है. अच्छे स्कूलों में दाखिले आसानी से तो मिलते नहीं. एक बार पूरा तामझाम समेटो और फिर वापस आओ, मुझ से नहीं होगा यह सब.’

वे अपनी अर्धांगिनी से इस से अधिक आशा कर भी नहीं सकते थे. प्रारूप ऐसे मौकों पर गजब की चुप्पी इख्तियार कर लेते थे. वैसे भी, जहां मन की संधि न हो, पतिपत्नी साथ रह कर भी एक दूरी पर ही वास करते है. अम्मा परेशान हो उठी थीं. बेटे से बहू के अलग रहने का खयाल उन्हें सिर से पैर तक हिला गया, पर क्या कर सकती थीं सिवा चुप्पी साधने के.

‘‘बीबीजी, दोपहर में क्या खाना बनाऊं?’’

शीतला के प्रश्न पर अतीत की खोह से निकल कर वह वर्तमान में लौट आई थी.

‘‘साहब क्या खाते हैं इस समय?’’

‘‘आज तो साहब बाहर गए हैं, इसीलिए डब्बा साथ में ही दे दिया. वैसे तो घर में ही आ कर खाते हैं.’’

उसे उस की मासूमियत पर चिढ़ हो आई. वह चिढ़ते हुए सोचने लगी कि अपने पति की पसंदनापसंद भी इस गंवार से पूछनी पड़ रही है. उसे अपना अधिकार छिनता सा लगा. फिर भी शीतला को आलूमटर की सब्जी बनाने का आदेश दे कर वह अपने शयनकक्ष में आ करलेट गई. थकान से पलकें बोझिल थीं, पर नींद कोसों दूर थी.

शीतला मटर छील रही थी. मृदुल उस की पीठ पर झूला झूल रहा था. वह ज्यों ही झुकती, गहरे गले की चोली में से उस का गदराया शरीर दिखाई देता, जिसे लाख प्रयत्न करने के बावजूद उस की साड़ी का झीना आवरण छिपाने में असमर्थ था. सुरभि के मन में कई प्रश्न कुलबुलाने लगे कि कहीं शीतला के मदमाते यौवन और गदराए शरीर ने प्रारूप की संयमित चेतना को छितरा तो नहीं दिया? जब विश्वामित्र जैसे तपस्वी की चेतना को मेनका ने भंग कर दिया था तो प्रारूप तो साधारण पुरुष है. अम्मा ने बताया था. शीतला का पति अपाहिज है, उधर प्रारूप भी तो इतने बड़े बंगले में एकाकी जीवन बिता रहे हैं. 2 युवा प्राणी क्या स्वयं को संयमित कर पाए होंगे.

जब से अम्मां ने उसे प्रारूप के यहां शीतला की नियुक्ति की बात बताई थी, वह परेशान हो उठी थी. उस के मन में शंकाओं के जाल फैलने लगे थे. अपनी कल्पना में कभी वह शीतला और प्रारूप को आलिंगनबद्ध देखती तो कभी उसे मृदुल और प्रारूप के बीच बैठे देखती. कई दिनों से कोरे पड़े दिमाग पर जैसे भावों और विचारों का रेला आ गया हो.

‘यह क्या कर गईं अम्मा?’ उस ने मन ही मन सोचा था. किसी पुरुष को नियुक्त करतीं. आदमी आखिर आदमी होता है और औरत, औरत. इन के आदिम और मूल रिश्तों पर किसीकिसी का ही बस चलता है. उस के पिता ने भी तो यही किया था. मृत्युशय्या पर पड़ी हुई उस की मां की सेवा के लिए नियुक्त नर्स को अपनी अर्धांगिनी बना  कर अपनी वफादारी का सुबूत दिया था.

अम्मा बाबूजी का कितना ध्यान रखती  थीं, उन्हें खिलाए बगैर नहीं खाती थीं. जब तक वे सोते नहीं थे, तब तक खुद भी नहीं सोती थीं और अगर वह देर से उठते तो क्या मजाल, घर में जरा सा भी शोर कर दे कोई. कहतीं, बाबूजी की नींद में खलल पड़ेगा. उन की कितनी सेवा करती थीं, पर एक बार बिस्तर पर पड़ीं तो बाबूजी की सारी ईमानदारी आंधी में उड़ने वाले तिनके समान उड़ गई थी. मां लाख सिर पटकती रही थीं, पर मुट्ठी में बंद रेत की तरह सबकुछ फिसल कर रह गया था.

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संदेह के बादल- भाग 3

अम्मा तो दोषी नहीं थीं. हारीबीमारी पर किसी का जोर नहीं चलता है, पर सुरभि ने तो खुद मुसीबत को न्योता दिया था. ब्याह के बाद से आज तक उस ने पति की सेवा करना तो दूर, कभी उस के दिल में झांकने की भी चेष्टा नहीं की थी. यहां आने के लिए अम्मा ने उस पर कितना जोर डाला था. पर वही नहीं मानी थी. प्रारूप जब भी अपनी परेशानियों की चर्चा उस से करते, वह सुनीअनसुनी कर देती. अम्मा के कानों तक ये बातें न पहुंचें, यही प्रयत्न रहता था उस का. डरती थी कि अम्मा उसे जबरन प्रारूप के पास भेज देंगी, फिर उस की नौकरी का क्या होगा, उज्जवल भविष्य का क्या होगा?

धीरेधीरे प्रारूप दिल्ली कम आने लगे थे. एक तो लंबा सफर उन के तनमन को शिथिल करता, ऊपर से पत्नी की तटस्थता और अवहेलना आहत कर जाती थी. बस, मां का प्यार और मृदुल का दुलार ही उन्हें शांति प्रदान करता था. फोन पर अकसर बात कर लेते थे. वह भी ज्यों ही सुरभि फोन उठाती, उन्हें कई काम याद आ जाते थे. कहनेसुनने को रहा भी क्या था? उन का भावुक मन कहां आहत हुआ था, इस की तो महत्त्वाकांक्षी सुरभि कल्पना भी नहीं कर पाई होगी.

पिछली बार उन्होंने अम्मा को फोन पर बताया था कि वे काफी दिनों से बीमार थे, उन्हें अतिसार हो गया था. अन्न का एक दाना भी नहीं पचता था. बेटे की बीमारी की खबर सुन कर मां सुलग उठी थीं. उन्होंने अपने जमाने की कई पतिव्रता औरतों के उदाहरण दे डाले थे कि ऐसे समय में पत्नी ही तो पति की सेवा करती है. बीमार इंसान दवा के साथसाथ प्यार व सहानुभूति की भी आशा रखता है. पर सुरभि के समक्ष सुनहरा भविष्य और शानदार कैरियर एक बार फिर मुंहबाए खड़ा हो गया था. उन दिनों दफ्तर में पदोन्नति की नई सूची बन रही थी. ऐसे में उस का कहीं भी जाना नामुमकिन था. यों उस ने फोन पर पानी उबाल कर पीने और समय पर दवा लेने की हिदायतें दे कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दी थी. बेटे के पास अम्मा ही पहुंची थीं. अम्मा ने ही पूरी तरह से उन की देखभाल की थी. जब लौटने लगीं तो शीतला को प्रारूप की देखभाल के लिए नियुक्त कर आई थीं.

घर लौट कर उन्होंने शीतला की प्रशंसा में जमीनआसमान एक कर दिया था. अब यह प्रशंसा बहू को कुढ़ाने के लिए करती थीं या उस के मन में पति के प्रति प्रेम का बीज अंकुरित करने के लिए, यह तो वही जानें, पर सुरभि इस अनदेखी महिला के प्रति ईर्ष्यालु हो उठी थी. शीतला के रूप में उस के समक्ष मानो एक पत्थर की दीवार खड़ी हो गई थी. ठोस, ठंडी और पथरीली दीवार जिस पर वह मुट्ठियां पटकती रहती, पर कोई उत्तर नहीं मिलता था. पतिपत्नी के अंतरंग संसार को नष्टभ्रष्ट करता कोई तीसरा वहां पसर जाए, इस से पहले ही वह यहां आ पहुंची थी.

उसे यहां आए हुए 8 दिन हो गए थे, पर वह पूरी तरह से अपनी गृहस्थी संभाल नहीं पा रही थी. दैनिक दिनचर्या की छोटीछोटी परेशानियों में उस ने कभी दिलचस्पी नहीं ली थी. सभी शीतला कर रही थी.

उस दिन रविवार था. सभी बाहर आंगन में बैठ कर सर्दी की कुनकुनाती धूप का आनंद ले रहे थे. शीतला कपड़े धो रही थी. मृदुल बालटी में से पानी निकाल कर शीतला पर उलीचता जा रहा था और खिलखिलाता भी जा रहा था.

प्रारूप मंत्रमुग्ध से पूरे दृश्य का आनंद ले रहे थे. बोले, ‘‘कुछ ही दिनों में शीतला ने मृदुल को अपने वश में कर लिया है.’’

‘‘हां, बच्चों के साथ बड़ों को भी अपने वश में करने की अद्भुत क्षमता है इस में,’’ प्रारूप तल्खीभरे स्वर में छिपे पत्नी के व्यंग्य को भली प्रकार समझ गए थे.

जब पति की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला तो क्रोधावेश में उस ने रस्सी पर प्रारूप की कमीज फैलाते हुए शीतला के हाथों से कपड़े छीन लिए और उसे अंदर जा कर रसोई का काम संभालने का आदेश दिया था.

इस अप्रत्याशित व्यवहार से शीतला कांप कर रह गई थी. वह सोचने लगी थी कि न जाने क्या अपराध हो गया उस से? मालकिन के मन में उठ रहे अंतर्द्वंद्व से पूर्णतया अनिभज्ञ शीतला अंदर जा कर हैंगर उठा लाई और सुरभि से बोली, ‘‘बीबीजी, यह साहब की कमीज हैंगर पर फैला दीजिए.’’

ईर्ष्या का नाग जैसे फन फैला कर खड़ा हो गया. न जाने कितनी देर तक उस की गिद्धदृष्टि शीतला के शरीर पर रेंगती रही. फिर उस के हाथ से हैंगर ले कर सुरभि ने जमीन पर पटक दिया.

प्रारूप कुछ परेशान हो उठे थे, बोले, ‘‘क्या बिगाड़ा  है इस गरीब अबला ने तुम्हारा, जो उसे यों अपमानित करने पर तुली हो?’’

‘‘तुम्हारी देखभाल किस तरह करनी है, यह क्या मुझे इस से सीखना पड़ेगा?’’

वह यों अकस्मात उमड़ आए पत्नीप्रेम पर विस्मित रह गए थे.

सुरभि का तीव्र स्वर दोबारा सुनाई पड़ा, ‘‘अब मैं यहां आ गई हूं. शीतला की क्या जरूरत है यहां?’’ उस की आवाज में दांपत्य के दर्पभरे अधिकार का बोध था.

‘‘तुम चली जाओगी, फिर कौन संभालेगा यह घर?’’ प्रारूप का स्वर कहीं दूर से आता लगा.

‘‘मैं दीर्घावकाश ले कर आई हूं. जब तक तुम्हारा तबादला वापस दिल्ली नहीं हो जाता, मैं और मृदुल यहीं रहेंगे, तुम्हारे पास.’’

‘‘तुम्हारे कैरियर और मृदुल के स्कूल का क्या होगा?’’ फिर अपनी तरफ से सही निर्णयात्मक ढंग से बात समाप्त करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘गरीब, लाचार औरत है बेचारी, आदमी कमाता नहीं है, 3-3 बच्चों का भरणपोषण इसी के जिम्मे है. यहीं काम करने दो इसे. बेचारी तुम्हारी मदद भी करती रहेगी.’’

‘‘दुनियाभर के गरीबों का जिम्मा हम ने तो नहीं ले रखा?’’ बड़बड़ाती हुई पैर पटकती वह घर के अंदर चली गई थी. प्रारूप शायद सुन नहीं पाए थे या सुन कर भी अनसुना कर गए थे. ‘कितनी हमदर्दी है शीतला से,’ सुरभि बड़बड़ाती रही. उस के मन में शंका की लहरें फिर से हिलोरें लेने लगीं कि कहीं उन के हृदय के साम्राज्य पर यह शीतला अपना आधिपत्य तो नहीं जमाती जा रही? संदेह के बीज ने उसे ऐसा कुंठित किया कि वह दिग्भ्रमित सी हो उठी.

रसोई में आ कर उस ने ऊंचे स्वर में शीतला को पुकारा तो बेचारी कांप कर रह गई. हाथ में पकड़ा विदेशी कांच का गिलास धम्म से जमीन पर गिर कर चटक गया. अब तो सुरभि की पराकाष्ठा देखने के काबिल थी. जैसे बेचारी से ड्राइंगरूम का कोई कीमती फानूस टूट गया हो.

शीतला की दबीसहमी सिसकियां सुन कर प्रारूप को यह समझते देर नहीं लगी थी कि वह आक्रोश अपरोक्ष रूप से उन पर ही बरसाया जा रहा है. शीतला की श्रद्धा और स्वामिभक्ति को उस ने दैहिक संबंधों के पलड़े पर ला पटका था. आत्मिक अनुभूतियों का मोल सुरभि कभी नहीं समझ पाएगी क्योंकि यह अनुभूति चेष्टा कर के नहीं लाई जा सकती. इन का संबंध मन की गहराई से होता है. तभी तो कभीकभी अपने, पराए बन जाते हैं और पराए, अपनों से भी अधिक प्रिय लगने लगते हैं. प्रारूप यह सब जानतेसमझते थे.

उस के बाद तो जैसे दोषारोपों का सिलसिला ही शुरू हो गया था. इस घटना को घटे हफ्ताभर भी नहीं बीता था कि एक दिन जब प्रारूप औफिस से शाम को कुछ जल्दी घर लौट आए तो देखा कि घर में कुहराम मचा हुआ था. सुरभि ने रोरो कर पूरा घर सिर पर उठा रखा था. मृदुल सहमा सा खड़ा था. पूछने पर पता चला कि सुरभि की सोने की चेन गुम हो गई थी. सुन कर वे हतप्रभ रह गए.

आगे पढ़ें- सुरभि को शक निश्चित रूप से…

मिलन: भाग 1- जयति के सच छिपाने की क्या थी मंशा

लेखक- माधव जोशी

जयंत आंगन में खड़े हो कर जोरजोर से पुकारने लगे, ‘‘मां, ओ मां, आप कहां हैं?’’

‘‘कौन? अरे, जयंत बेटे, तुम कब आए? इस तरह अचानक, सब खैरियत तो है?’’ अंदर से आती हुई महिला ने जयंत को अविश्वसनीय दृष्टि से देखते हुए पूछा.

‘‘जी, मांजी, सब ठीक है,’’ जयंत ने आगे बढ़ कर महिला के पैर छूते हुए कहा तो उन्होंने उस के सिर पर प्यार से हाथ रख दिया.

‘‘मां, जानती हैं, इस बार मैं अकेला नहीं आया. देखिए तो, मेरे साथ कौन है, आप की बहू, जयति,’’ कहते हुए जयंत ने मेरी ओर इशारा कर दिया.

‘‘क्या? तुम ने शादी कर ली?’’ मां हैरानी से मेरा मुआयना करते हुए बोलीं. और फिर ‘‘तुम यहीं ठहरो, मैं अभी आई,’’ कह कर अंदर चली गईं.

‘तो ये हैं, जय की मांजी,’ मैं मन ही मन बुदबुदा उठी. मेरे दिल की धड़कन बढ़ने लगी. घबरा कर जयंत की ओर देखा. वे मेरी तरफ ही देख रहे थे. उन्होंने मुसकरा कर मुझे आश्वस्त किया. तभी हाथ में थाली लिए मांजी आ गईं.

‘‘भई, मेरे घर बहू आई है…पहले इस का स्वागत तो कर लूं,’’ कहते हुए मांजी मेरे पास आ गईं और थाली को चारों तरफ घुमाने लगीं. मैं उन के पांव छूने को झुकी ही थी कि उन्होंने मुझे अपनी बांहों में थाम लिया और माथे को चूमने लगीं. क्षणभर पहले मेरे मन में जो शंका थी, वह अब दूर हो चुकी थी. वे हम दोनों को

सामने वाले कमरे में ले गईं. कमरा बहुत साधारण था. सामने एक दीवान लगा था. एक तरफ 2 कुरसियां, एक मेज और दूसरी तरफ लोहे की अलमारी रखी थी. मांजी ने हमें दीवान पर बैठाया और बीच में स्वयं बैठ गईं. फिर मुझे प्यार से निहारते हुए बोलीं, ‘‘जय बेटा, कहां से ढूंढ़ लाया यह खूबसूरत हीरा? मैं तो दीपक ले कर तलाशती, फिर भी ऐसी बहू न ला पाती.’’

‘‘मांजी, मुझे माफ कर दीजिए. मुझे आप को बिना बताए यह शादी करनी पड़ी,’’ जयंत रुके, मेरी तरफ देखा, मानो आगे बात कहने के लिए शब्द तलाश रहे हों. फिर बोले, ‘‘दरअसल, जयति के पिताजी को अचानक दिल का दौरा पड़ा और डाक्टर ने बताया कि उन का अंतिम समय निकट है. इसलिए उन का मन रखने के लिए हमें तुरंत शादी करनी पड़ी.’’ मैं जानती थी, जयंत अपराधबोध से ग्रस्त हैं. वे मां के कदमों के पास जा बैठे और उन की गोद में सिर रख कर बोले, ‘‘आप ने मेरी शादी को ले कर बहुत से सपने देखे होंगे…पर मैं ने सभी एकसाथ तोड़ दिए. मैं ने आप को बहुत दुख दिया है, मुझे माफ कर दीजिए,’’ कहते हुए वे रोने लगे.

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‘‘पगला कहीं का…अभी भी बच्चे की तरह रोता है. चल अब उठ, बहू क्या सोचेगी. तू मुंह धो, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ उन्होंने प्यार से इन्हें उठाते हुए कहा. मांजी के साथ मेरी यही मुलाकात थी. जयंत ने ठीक ही कहा था. मांजी सब से निराली हैं. उन के चेहरे पर तेज है और वाणी में मिठास है. वे तो सौंदर्य, सादगी व ममता की प्रतिमा हैं. शीघ्र ही मेरे मन में उन की एक अलग जगह बन गई. हमें मांजी के पास आए लगभग एक सप्ताह हो गया था. हमारी छुट्टियां समाप्त हो रही थीं. जयंत एक बड़ी फर्म में व्यवसाय प्रबंधक थे और मैं अर्थशास्त्र की व्याख्याता थी. हम दोनों ही चाहते थे कि मांजी हमारे साथ मुंबई चलें. जयंत अनेक बार प्रयत्न भी कर चुके थे, पर वे कतई तैयार न थीं. एक दिन चाय पीते हुए मैं ने ही बात प्रारंभ की, ‘‘मांजी, हम चाहते हैं कि आप हमारे साथ चलें.’’

‘‘नहीं बहू, मैं अभी नहीं चल सकती. मुझे यहां ढेरों काम हैं,’’ उन्होंने टालते हुए कहा.

‘‘ठीक है, आप अपने जरूरी काम निबटा लीजिए, तब तक मैं यहीं हूं. जयंत चले जाएंगे,’’ मैं ने चाय की चुसकी लेते हुए बात जारी रखी.

‘‘लेकिन जयति,’’ उन्होंने कहना चाहा, पर मैं ने बात काट कर बीच में ही कहा, ‘‘लेकिनवेकिन कुछ नहीं, आप को हमारे साथ मुंबई चलना ही होगा.’’ मैं दृढ़ता से, बिना उन्हें कुछ कहने का मौका दिए कहती गई, ‘‘मांजी, मेरी माताजी बचपन में ही चल बसीं. उन के बारे में मुझे कुछ भी याद नहीं. मुझे कभी मां का प्यार नहीं मिला. अब जब मुझे मेरी मांजी मिली हैं तो मैं किसी भी कीमत पर उन्हें खो नहीं सकती.

‘‘जय ने मुझे बताया कि आप मुंबई इसलिए नहीं जाना चाहतीं, क्योंकि वहां पिताजी रहते हैं,’’ मैं ने क्षणभर रुक कर जयंत को देखा. उन के चेहरे पर विषाद स्पष्ट देखा जा सकता था. पर मैं ने इसे नजरअंदाज करते हुए कहना जारी रखा, ‘‘मांजी, आप अतीत से भाग नहीं सकतीं. कभी न कभी तो उस का सामना करना ही पड़ेगा. खैर, कोई बात नहीं, यदि आप मुंबई न जाना चाहें तो जयंत कहीं और नौकरी देख लेंगे. लेकिन तब तक मैं आप के पास यहीं रहूंगी.’’ मैं ने उन के दिल पर भावनात्मक प्रहार कर डाला. मैं जानती थी कि उन को यह बरदाश्त नहीं होगा कि मैं जयंत से अलग रहूं. मांजी तड़प उठीं. मानो मैं ने उन की दुखती रग छेड़ दी हो. वे बोलीं, ‘‘जयति, मैं ने सदा तुम्हारे ससुर का बिछोह झेला है. जयंत 5 वर्ष का था, जब इस के पिता ने किसी दूसरी स्त्री की खातिर मुझे घर से निकाल दिया. तब से इस छोटे से शहर में अध्यापिका की नौकरी करते हुए न जाने कितनी कठिनाइयां उठा कर इसे पाला है. जो दर्द मैं ने 20 बरसों तक झेला है, उसे इतनी जल्दी नहीं भूल सकती. कभी भी अपने पति से दूर मत होना. मैं यहीं ठीक हूं,’’ उन के शब्दों में असीम पीड़ा व आंखों में आंसू थे.

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‘‘यदि आप हम दोनों को खुश देखना चाहती हैं तो आप को चलना ही होगा,’’ मैं ने उन की आंखों में झांकते हुए दृढ़ता से कहा. उस दिन मेरी जिद के आगे मांजी को झुकना ही पड़ा. वे हमारे साथ मुंबई आ गईं. यहां आते ही सारे घर की जिम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ले ली. वे हमारी छोटी से छोटी जरूरत का भी ध्यान रखतीं. जयंत और मैं सुबह साथसाथ ही निकलते. मेरा कालेज रास्ते में पड़ता था, सो जयंत मुझे कालेज छोड़ कर अपने दफ्तर चले जाते. मेरी कक्षाएं 3 बजे तक चलती थीं. साढ़े 3 बजे तक मैं घर लौट आती. जयंत को आतेआते 8 बज जाते. अब मेरा अधिकांश समय मांजी के साथ ही गुजरता. हमें एकदूसरे का साथ बहुत भाता. मैं ने महसूस किया कि हालांकि मांजी मेरी हर बात में दिलचस्पी लेती हैं, लेकिन वे उदास रहतीं. बातें करतेकरते न जाने कहां खो जातीं. उन की उदासी मुझे बहुत खलती. उन्हें खुश रखने का मैं भरसक प्रयत्न करती और वे भी ऊपर से खुश ही लगतीं लेकिन मैं समझती थी कि उन का खुश दिखना सिर्फ दिखावा है.

एक रात मैं ने जयंत से इस बात का जिक्र भी किया. वे व्यथित हो गए और कहने लगे, ‘‘मां को सभी दुख उसी इंसान ने दिए हैं, जिसे दुनिया मेरा बाप कहती है. मेरा बस चले तो मैं उस से इस दुनिया में रहने का अधिकार छीन लूं. नहीं जयति, नहीं, मैं उसे कभी माफ नहीं कर सकता. उस का नाम सुनते ही मेरा खून खौलने लगता है.’’ जयंत का चेहरा क्रोध से तमतमाने लगा. मैं अंदर तक कांप गई. क्योंकि मैं ने उन का यह रूप पहली बार देखा था.

फिर कुछ संयत हो कर जयंत ने मेरा हाथ पकड़ लिया और भावुक हो कर कहा, ‘‘जयति, वादा करो कि तुम मां को इतनी खुशियां दोगी कि वे पिछले सभी गम भूल जाएं.’’ मैं ने जयंत से वादा तो किया लेकिन पूरी रात सो न पाई, कभी मां का तो कभी जयंत का चेहरा आंखों के आगे तैरने लगता. लेकिन उसी रात से मेरा दिमाग नई दिशा में घूमने लगा. अब मैं जब भी मांजी के साथ अकेली होती तो अपने ससुर के बारे में ही बातें करती, उन के बारे में ढेरों प्रश्न पूछती. शुरूशुरू में तो मांजी कुछ कतराती रहीं लेकिन फिर मुझ से खुल गईं. उन्हें मेरी बातें अच्छी लगने लगीं. एक दिन बातों ही बातों में मैं ने जाना कि लगभग 7 वर्ष पहले वह दूसरी औरत कुछ गहने व नकदी ले कर किसी दूसरे प्रेमी के साथ भाग गई थी. पिताजी कई महीनों तक इस सदमे से उबर नहीं पाए. कुछ संभलने पर उन्हें अपने किए पर पछतावा हुआ. वे पत्नी यानी मांजी के पास आए और उन से लौट चलने को कहा. लेकिन जयंत ने उन का चेहरा देखने से भी इनकार कर दिया. उन के शर्मिंदा होने व बारबार माफी मांगने पर जयंत ने इतना ही कहा कि वह उन के साथ कभी कोई संबंध नहीं रखेगा. हां, मांजी चाहें तो उन के साथ जा सकती हैं. लेकिन तब पिताजी को खाली लौटना पड़ा था. मैं जान गई कि यदि उस वक्त जयंत अपनी जिद पर न अड़े होते तो मांजी अवश्य ही पति को माफ कर देतीं, क्योंकि वे अकसर कहा करती थीं, ‘इंसान तो गलतियों का पुतला है. यदि वह अपनी गलती सुधार ले तो उसे माफ कर देना चाहिए.’

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आखिर क्यों: निशा का दिल टूटा, स्मृति बनी राज की जीवनसंगिनी

निशा को उस के पति नील ने औफिस में फोन किया और कहा उस के बचपन की मित्र स्मृति अपने पति के साथ दिल्ली में आई है. बेचारी का कैंसर लास्ट स्टेज पर है. प्लीज तुम उस से मिलने चलो मेरे साथ क्योंकि वह मेरी बचपन की मित्र है और हमारे ही शहर में बड़ी मुसीबत में है. बहुत सालों तक हम मिले ही नहीं. पापा का फोन आया था कि वह अपने पति के साथ इसी शहर में डाक्टर को दिखाने आ रही है. निशा को भी ठीक लगा कि उस का जाना जरूरी है. दोनों अस्पताल पहुंचे. वहा पहुंच कर निशा ने देखा राज को स्मृति के पति के रूप में.

उस के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. वह थोड़ी देर तक रुकी फिर स्मृति से कहा, ‘‘आप बिलकुल ठीक हो जाएंगी हौसल रखें और मैं शाम को फिर आप से मिलने आऊंगी. अभी मु झे निकलना होगा.’’ फिर उस ने अपने पति नील से कहा, ‘‘आप यहीं रुको. मैं गाड़ी से चली जाती हूं. शाम को हम दोनों साथ घर चलेंगे.’’ बाहर निकल कर निशा ने देखा कि आकाश में काले बादल छाए हुए हैं. निशा अपने औफिस लौट रही थी. सड़क खाली थी शायद बारिश की आशंका की वजह से लोग अभी बाहर नहीं निकल रहे थे. कार और मन दोनों तेज गति से दौड़ रहे थे… निशा का मन अपने बचपन में पहुंच गया था. वह स्कूल की होनहार विद्यार्थी थी. सभी टीचर्स उसे बहुत पसंद करती थीं.

सहपाठी भी उसे तवज्जो देते थे और निशा का जीवन अच्छा चल रहा था. वह अपने भविष्य की बहुत शानदार बुनियाद रख रही थी. वह जितनी तेज और कुशाग्रबुद्धि की थी उस की प्रिय सखी रोशनी उतनी ही सीधीसादी थी. शायद विपरीत गुणों में भी प्रगाढ़ मित्रता हो सकती है, उन दोनों को देख कर यह आसानी से सम झा जा सकता था. 12वीं कक्षा पास कर निशा आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली आ गई थी किंतु रोशनी का विवाह हो गया था जिस में निशा शामिल नहीं हो सकी थी. बाद में निशा रोशनी से मिलने पहुंची और वहां उस की मुलाकात रोशनी के पति के मित्र राज से हुई और दोनों एकदूसरे से प्रभावित हो गए.

राज सिविल सर्विस की तैयारी कर रहा था और निशा पढ़ाई के साथसाथ पार्टटाइम जौब भी कर रही थी. अत: रोशनी के साथसाथ निशा राज को भी कभीकभी गिफ्ट भेजती थी. उस को भी एसटीडी कौल लगा देती थी. निशा राज की हर छोटीबड़ी खुशी और दुख की सहभागी बनती थी. निशा राज के जीवन के महत्त्वपूर्ण दिनों को अपनी खुशी सम झ कर सैलिब्रेट करती थी. उस ने ऐसा कभी नहीं सोचा कि राज उस के लिए कभी कुछ नहीं करता क्योंकि शायद निशा प्रेम कर रही थी और प्रेम कभी प्रतिदान नही मांगता. समय बीत रहा था. निशा के पिता निशा का विवाह करना चाहते थे. एक अच्छा लड़का मिलते ही पिता ने निशा का रिश्ता तय कर दिया और ठीक इसी समय राज का भी चयन प्रशासनिक सेवा में हो गया. जब निशा ने राज को बताया कि उस की सगाई हो गई तो राज ने भरी आंखों से उसे बधाई दी और उस से मिलने दिल्ली आया. राज ने निशा से कहा कि वह उस के पिता से मिलना चाहता है.

बहुत अनुनयविनय कर निशा के पिता को राजी किया. निशा के पिता ने दोनों के प्रेम को देखते हुए ही शादी के लिए हां कर दी और निशा की सगाई तोड़ दी. कोई दिक्कत भी नहीं थी दोनों की धर्मजाति भी एक थी. किंतु कुछ महीनों के बाद राज जब ट्रेनिंग पर गया तो वहां उस की मुलाकात स्मृति से हुई. उस का भी चयन राज के साथ ही हुआ था. दोनों ने जीवनसाथी बन कर साथ रहने का फैसला किया. निशा राज के इस आकस्मिक बदलाव से बहुत आहत हुई. लेकिन उस की राज से अपने प्यार के लिए भीख मांगने की मंशा नहीं थी. किंतु वह सोचती थी आखिर राज ने ऐसा क्यों किया? क्या राज ने सफलता की चकाचौंध और शोर में अपने दिल की आवाज को दबा दिया? राज ने ट्रेनिंग से आने के बाद स्मृति से विवाह कर लिया. मगर निशा राज की स्मृति को मन से निकाल नहीं पा रही थी. खैर, वक्त कभी रुकता नहीं है. धीरेधीरे निशा भी जीवन में आगे बढ़ गई और उस का विवाह भी नील से हो गया.

नील एक आईटी कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर था. आज अचानक राज के बारे में सुना कि उस की पत्नी कैंसर से जू झ रही है और 2 साल से बिस्तर पर है. वह सम झ नहीं पा रही थी कि राज की गलती की सजा स्मृति को मिल रही है या राज को उस के किए की सजा मिल रही है. निशा दिनभर औफिस में भी राज के ही बारे में सोच रही थी और उन्हीं विचारों में डूबी हुई शाम को वह वापस अस्पताल पहुंची नील को लेने. उस के विचारों को विराम लग तब जब निशा के पति नील ने राज से उसे मिलवाया और कहा, ‘‘आप हैं राज मेरी बचपन की मित्र स्मृति के पति.’’ उस ने राज की आंखों में कुछ देखा.

वह क्या था पता नहीं. शायद पछतावा या शर्मिंदगी या कायरता. किंतु निशा की आंखों में राज के लिए एक ही सवाल बरसों से था, ‘‘आखिर क्यों…’’ स्मृति की तबीयत में कोई सुधार नहीं हुआ. वह अब शायद जीवन की आशा छोड़ चुकी थी. किंतु जब तक सांस है तब तक तो जीवन जीना ही होता है. वह सोच रही थी कि उस के पीछे राज कहीं अकेला न रह जाए. बस यही बात उसे दिनरात खा रही थी. नील भी स्मृति की देखभाल में लगा हुआ था. इसलिए निशा का भी आनाजाना होता रहता था. एक दिन निशा स्मृति के पास बैठी थी और थकावट के कारण उसे झपकी आ गई. तभी राज वहां आ गया. उस ने निशा से कहा, ‘‘आप बहुत थकी हुई लग रही हैं. ऐसे में ड्राइव कर के मत जाओ. इंतजार करो मैं नील को भी औफिस से यहीं बुला लेता हूं. आप दोनों साथ ही घर चले जाना.’’ निशा इतने सालों बाद अचानक नील को इस अधिकार वाले स्वर में अपने लिए कुछ कहते सुना तो असमंजस में पड़ गई कि राज की बात मान ले या टाल दे. खैर, जीत राज की हुई. अब दोनों चुप बैठे थे.

हालांकि अंदर भावनाओं का तूफान उठा था दोनों के ही. राज ने ही चुप्पी तोड़ी बोला, ‘‘निशा, मु झे माफ कर दो,’’ और फिर जो भावावेश में बोलना चालू हुआ तो उसे कुछ भी होश न रहा और उस ने अपनी गलती की स्वीकारोक्ति भी कर ली. उस ने मान भी लिया कि उस ने पदप्रतिष्ठा के लिए स्मृति से शादी की और शादी के बाद उसे पता चला कि उस की असली खुशी कहीं और थी. स्मृति जो पहले सो रही थी न जाने कब जाग गई थी और चुपचाप लेटी थी. उस ने सब सुन लिया और उसे लगा कि क्यों न मरते हुए भी वह एक अच्छा काम कर जाए और 2 सच्चे प्यार वाले दिलों को मिलवा कर इस दुनिया से जाए. बस वह मन ही मन कुछ सोचने लगी. नील जब शाम को निशा को लेने आया तो स्मृति ने उसे बातों में उल झा लिया. फिर राज से कहा कि वह निशा को घर ड्रौप कर दे. वह नील के साथ बचपन की बातें कर रही है… उसे कुछ राहत मिलती है अपने वर्तमान के दुखों से. निशा और राज के जाते ही स्मृति ने नील से कहा, ‘‘नील, तुम से कुछ मांगना चाहती हूं.’’ नील थोड़ा भावुक हो गया. उस ने कहा, ‘‘तुम क्या चाहती हो? बोलो मैं तुम्हें दूंगा.’’ स्मृति ने कहा, ‘‘नील मैं तुम से राज की खुशियां मांगती हूं,’’ और फिर उसे बताया, ‘‘राज और निशा बहुत पुराने प्रेमी हैं. राज ने पदप्रतिष्ठा के लिए मु झ से शादी की थी, किंतु प्रेम वह निशा से ही करता था. यह बात मु झे आज ही पता चली है.

देखो मैं तो इस दुनिया से जा रही हूं किंतु तुम निशा को वापस राज को दे देना, बस तुम से यही चाहिए.’’ नील के तो पैरों तले की जमीन खिसक गई. नील ने निशा की सहेली रोशनी से बात की तो उसे सारी सचाई पता चली. अब नील ने सोचा कि 2 सच्चे प्रेमियों को मिलाना ही होगा. उस ने जाते ही अपना रैज्यूम एक अमेरिकन आईटी कंपनी में भेजा जहां पर स्मृति का एक दोस्त पहले से ही काम कर रहा था. स्मृति के कहने पर नील का चयन उस कंपनी में हो गया. उसे 3 साल का कौंट्रैक्ट साइन करना था. नील ने निशा से कहा, ‘‘निशा, मु झे अमेरिका में जौब औफर हुई है.’’ निशा बहुत खुश हुई. किंतु नील ने कहा, ‘‘देखो निशा मु झे वहां अकेले ही बुलाया गया है. अब तुम जैसा कहो.’’ निशा ने कहा, ‘‘नील, मैं तुम्हारी खुशी में कभी रास्ते का रोड़ा नहीं बनूंगी. अगर तुम मु झ से दूर जा कर जिंदगी में कामयाबी हासिल करना चाहते हो तो मैं तुम्हें रोकूंगी नहीं.’’ इस पर नील ने कहा, ‘‘निशा, मैं भी तुम्हें किसी बंधन में बांध कर नहीं जाना चाहता हूं. 3 साल का समय बहुत लंबा होता है.

तुम भी मेरी तरफ से आजाद हो,’’ नील थोड़ा भावुक हो गया था. निशा भी कुछ सम झ नहीं पा रही थी कि यह सब अचानक से क्या हो रहा है. खैर, वह चुप रही. 10 दिन बाद नील का वीजा और टिकट आ गया और वह चला गया. नील के जाते ही निशा काफी अकेली हो गई. ऐसे में राज ने उसे संभाला. अपनेपन की उष्णता पाते ही पुरानी भावनाएं पिघलने लगीं. उधर स्मृति की हालत बहुत तकलीफदेह हो गई थी. उस ने डाक्टर से पूछा, ‘‘उसे अब कितने दिन यह दर्द झेलना पड़ेगा?’’ डाक्टर ने कोई जवाब नहीं दिया. अब उस ने नर्स से एक कागज और पैन मांगा और राज को एक पत्र लिखा और साथ ही निशा से भी निवेदन किया कि वह राज को अपना ले और नील की कुरबानी को जाया न करे. जैसे ही स्मृति ने पत्र पूरा कर अपने तकिए के नीचे रखा वह एक संतोष लिए हमेशा के लिए सो गई और हर दर्द से आजाद हो गई. निशा एक बार फिर सोचने लगी कि नील और स्मृति ने ऐसा किया आखिर क्यों? द्य

आई लव यू: क्या अनाया अपने प्यार को पा सकी

केवल खुद के विचारों और नियमकायदे से घर चलाने की आदत ने सुशील को सब से अलगथलग कर दिया था. उन के घर में सबकुछ था मगर था नहीं तो एकदूसरे के लिए प्यार. फिर एक फरवरीका महीना था. यह समय प्यार करने वाले प्रेमियों के लिए बड़ा ही खास होता है. पूरा वर्ष सभी वैलेंटाइन डे का इंतजार करते हैं ताकि अपने प्यार का इजहार कर सकें. अतुल और अनाया के लिए भी यह दिन बहुत खास था. 4 माह पहले ही उन की शादी हुई थी. दोनों बहुत ही उत्साहित थे. आखिर उन का इंतजार पूरा हुआ और वह दिन आ ही गया.

अनाया को उपहार की आस थी. अतुल ने उस की यह आस पूरी करने के लिए एक बड़ी सी पार्टी रखी थी. अपने पड़ोस में रह रहे चिराग और स्वाति को भी उस ने अपनी पार्टी में आमंत्रित किया था.

चिराग के पिता सुशील को जब यह बात मालूम पड़ी तो वे अपने गुस्से पर नियंत्रण न कर पाए. वे अतुल के घर चले आए. अतुल के घर पर 80 वर्ष की उम्र पार कर चुके उस के दादाजी अजय और दादी के अलावा लगभग 50 वर्ष की आयु के अतुल के पापा विवेक और मम्मी संध्या, इतने लोगों का भरा पूरा संयुक्त परिवार था. 3 पीढि़यां साथ रहती थीं. सब के अलगअलग विचार, अलगअलग व्यवहार, फिर भी आपस में कोई खटपट नहीं.

परिवार में प्यार और सम?ादारी थी. सभी एकदूसरे की भावनाओं की कद्र करते और एकदूसरे का खयाल रखते थे. कोई किसी की आजादी को बाधित नहीं करता. इसीलिए परिवार में सुखशांति का माहौल हमेशा बना रहता था. पासपड़ोस के लोगों के लिए उन का परिवार एक उदाहरण था. गुस्से से बेकाबू हो रहे सुशील ने डोर बेल बजाई.

दादाजी ने दरवाजा खोला, जोकि इतनी उम्र होने के बावजूद काफी चुस्त और तंदुरुस्त थे.

‘‘अरे आओआओ सुशील,’’ अजय ने आदर के साथ उन्हें बैठने के लिए कहा.

अजय को देख कर सुशील का गुस्सा थोड़ा ठंडा पड़ गया फिर भी बैठने से इनकार करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘नहींनहीं अंकल मैं कुछ बात करने आया था.’’

‘‘बोलो न सुशील क्या बात है? आराम से बैठ कर बात करते हैं, आओ बैठो.’’

सुशील ने खड़ेखड़े ही कहा, ‘‘अंकल आप का पोता अतुल और बहू अनाया भले ही विदेशी संस्कृति में रम कर वैलेंटाइन डे मना रहे हों, मु?ो कोई फर्क नहीं पड़ता. किंतु उन्होंने मेरे चिराग और बहू को अपनी उस पार्टी में क्यों बुलाया? अंकल मेरे घर में भारतीय संस्कृति और भारतीय त्योहार माने और मनाए जाते हैं.’’

अजय ने प्यार से उन का हाथ पकड़ कर उन्हें बैठाते हुए कहा, ‘‘सुशील तुम नाराज मत हो.’’

‘‘अंकल मैं आप का पड़ोसी हूं, जानता हूं आप के घर में कभी खटपट, लड़ाई?ागड़ा नहीं होता क्योंकि आप लोगों में शायद जरूरत से कुछ ज्यादा ही सहनशक्ति है. आप सबकुछ देख कर भी अंधे व सुन कर भी बहरे हो जाते हैं. यह कहां तक सही है अंकल?’’

‘‘सुशील तुम बिलकुल गलत सम?ा रहे हो. क्या हुआ जो बच्चे अपने जीवन के कुछ पल आनंदमय बनाना चाहते हैं. एक अच्छे त्योहार को जिस में केवल प्यार ही प्यार है, उसे वे अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाना चाहते हैं.

सुशील सिर्फ अतुल और अनाया ने ही नहीं, हमारे तो पूरे घर ने वैलेंटाइन डे मनाया है. सब ने अपनेअपने तरीके से उस में खुशियां ढूंढ़ी हैं. सुशील वक्त के साथ बदलाव लाना बहुत जरूरी है.

‘‘अच्छी बातों, अच्छी चीजों को अपना कर हम अपनी संस्कृति को तिरस्कृत नहीं कर रहे. अपनी संस्कृति तो दुनिया की सब से श्रेष्ठ संस्कृति है, किंतु यदि बाहर की किसी अच्छी परंपरा को भी हम अपनाएं तो इस में बुराई क्या है? मेरी अनाया आज यदि जींसटौप पहन कर वैलेंटाइन डे की पार्टी मनाने गई है, हो सकता है अंगरेजी गानों पर डांस भी कर रही हो, लेकिन जब हमारी दीपावली आएगी तब वह भारतीय संस्कृति से हमारे संस्कारों से पूरी की पूरी तनमन से सजीधजी नजर आएगी. साड़ीब्लाउज, सिंदूर, मंगलसूत्र पहनी अनाया कभी अपने संस्कार नहीं भूलेगी. वह अपने बड़ों के पैर छू कर आशीर्वाद भी लेगी.’’

अजय के मुंह से निकली ये बातें सुशील के दकियानूसी विचारों को मानो एक ही पल में धराशायी कर गईं.

वे सोच रहे थे कि अंकल की बातों में कितनी सम?ादारी है. उन्हें लगने लगा कि उन्हें इस तरह यहां ?ागड़ा करने नहीं आना चाहिए था. जल्दबाजी में लिया फैसला अकसर गलत ही होता है. काश, उन के मन में भी अजय अंकल जैसी ही भावनाएं पहले से ही होतीं.

सुशील ने जिज्ञासावश पूछा, ‘‘अंकल, आप के बेटे विवेक और बहू संध्या ने किस तरह से वैलेंटाइन डे मनाया? क्या वे भी किसी ऐसी ही पार्टी में गए हैं?’’

‘‘नहीं बेटा, संध्या और विवेक ने अपनी तरह से वैलेंटाइन डे मनाया. वे दोनों फिल्म

देखने गए. खाना भी बाहर ही खा कर आएंगे. यदि हमारा तरीका सही है सुशील तो फिर इस

में बुराई ही क्या है? यह कोई बुरी बात तो है नहीं. हमें मर्यादा में रह कर इस त्योहार को

अवश्य मनाना चाहिए. माना यह हमारे देश की संस्कृति, हमारे त्योहारों का हिस्सा नहीं है लेकिन हम लोग तो खुशियां मनाने का एक भी मौका

नहीं जाने देते. यही तो है जिंदगी… अपने हिस्से की जितनी खुशियां उठा सकते हो जरूर उठा लो, जी लो.’’

सुशील एकटक अजय की तरफ देख रहे थे, उन की बातें ध्यान से सुन रहे थे. उन की बातों में उन्हें विरोध करने जैसा कुछ भी नहीं लगा. ऐसा लग रहा था मानो सुशील उन की हर बात को अपने अंदर ग्रहण कर रहे हैं.

तभी सुशील ने पूछा, ‘‘अंकल, क्या आप

ने भी…’’

‘‘हां सुशील क्यों नहीं? भला हम पीछे

क्यों रहते?

हम ने भी अपनी खुशियां बटोरीं.’’

‘‘कैसे मनाया आप ने अंकल?’’

‘‘मेरी पत्नी ज्यादा चल नहीं सकती, इसलिए उस का हाथ पकड़ कर धीरेधीरे उसे मंदिर तक ले गया. एकदूसरे के अच्छे स्वास्थ्य के लिए कुदरत से आशीर्वाद मांगा, फिर उसे एक गुलाब का फूल दिया.

‘‘इतने में उसे जैसे जीवन

की असीम खुशियां मिल गईं. मानो वह फिर से जवान हो उठी हो. सुशील मैं शुरू से एक ऐसा परिवार चाहता था, जहां साथ रहते हुए भी सब अपनी जिंदगी अपने मनमुताबिक जीएं.

‘‘आपस में प्यार और सम?ादारी हो. शुरू में लगता था ये सब सोचने तक ठीक है, लेकिन हकीकत में अमल में लाना मुश्किल है. सुशील मैं ने जो अनुभव किया वह यह है कि यदि कोई किसी के जीवन में दखलंदाजी न करे तो यह उतना मुश्किल भी नहीं.

‘‘बस इसी सिद्धांत ने मेरे संयुक्त परिवार को प्यार का

घर बना दिया. सच कहूं तो मंदिर बना दिया.’’

अजय के मुंह से निकला 1-1 शब्द आज

सुशील को एकदम सही लग रहा था. आज उन्हें यह बात सम?ा आ रही थी कि 3 पीढि़यां एकसाथ इतने प्यार से कैसे रहती हैं. कैसे जीवन को सुख और शांति से जीती हैं. आज अजय के शब्दों की गहराई को अपने अंदर समेटे हुए सुशील ने अजय के पैर छू कर उन्हें हैप्पी वैलेंटाइन डे कहा. अजय ने उन्हें गले से लगा लिया. फिर सुशील उन से विदा ले कर चले गए.

सुशील की पत्नी काफी आधुनिक विचारों की थीं, लेकिन अपने पति के डर से हमेशा अपनी इच्छाओं को अपने मन में ही दबा लेती थीं. उन की भी इच्छा होती थी कि उन का पति उन्हें न सही कम से कम बेटेबहू को तो उन की इच्छाओं के मुताबिक जीवन जीने दें. वे चाहती थीं कि कभी तो सुशील

उन्हें भी गुलाब का फूल ला कर प्यार सहित दें, किंतु ये सब उन के लिए केवल एक सपना मात्र था. इस तरह की ख्वाहिशों को अब तक तो वे अपने जीवन से रुखसत कर चुकी थीं.

सुशील की पत्नी अनामिका इस वक्त काफी तनाव में थीं. उन्होंने सुशील को अजय अंकल के घर जाते समय कहा था, ‘‘प्लीज, सुशील मत जाओ, अतुल ने हमारे बच्चों को पार्टी में बुलाया तो क्या हुआ. यदि हमें पसंद नहीं था तो न जाते. इस बात के लिए उन के घर जा कर नाराजगी दिखाने की क्या जरूरत है?’’

‘‘तुम शांत रहो, पहली बार में ही बात खत्म करने दो वरना यह पार्टी तो चलती ही रहेगी,’’ कह कर वे गुस्से में घर से निकल गए थे. अनामिका को यह डर भी सता रहा था कि रात को बेटेबहू के आने के बाद बहुत हंगामा होने वाला है. अनामिका मन ही मन विनती कर रही थी कि इन के क्रोध पर काबू रखना प्रभु. पड़ोसी हैं संबंध बिगड़ने नहीं चाहिए. आखिर जीवनभर का साथ है.

तभी दरवाजे पर डोर बेल बजी. अनामिका तुरंत डरते हुए दरवाजा खोलने पहुंचीं. सामने सुशील के हाथों में आज एक गुलाब नहीं लाल गुलाब के फूलों का पूरा गुच्छा था. अनामिका सुशील का यह रूप देख कर अवाक थीं. वे केवल दंग हो कर सुशील की तरफ देखे ही जा रही थीं. तभी दरवाजे के अंदर आ कर सुशील ने फूलों का गुच्छा और साथ में फिल्म के 2 टिकट अनामिका को देते हुए आज पहली बार कहा, ‘‘अनामिका हैप्पी वैलेंटाइन डे, आई लव यू.’’

अनामिका की आंखों से खुशी के मोती ?ार?ार गिर रहे थे और कान जैसे बारबार वही शब्द सुनना चाह रहे थे.

तभी सुशील ने कहा, ‘‘अनामिका, तुम नहीं कहोगी?’’

‘‘क्या कहूं?’’

‘‘वही जो मैं ने अभीअभी कहा था.’’

अनामिका ने शरमाते हुए आई लव यू कहा और फिर दोनों ने एकदूसरे को अपनी बांहों में भर लिया.

रात को वे जब फिल्म देख कर

वापस आए तभी उन के बच्चे भी पार्टी से वापस आए. सुशील ने बड़े ही प्यार से पूछा, ‘‘बच्चो कैसी रही पार्टी?’’

अपने पापा को इतना खुश देख कर अदिति और चिराग के मन का सारा डर रफूचक्कर हो गया.

सुशील रात को अपने बिस्तर पर लेटेलेटे सोच रहे थे कितने गलत थे वे जो उन्होंने अपने घर को केवल खुद के विचारों के बंधन में बांध रखा था जैसे वे उस स्कूल के प्रिंसिपल हों,

जहां केवल उन के बनाए कायदेकानून ही चलेंगे. अच्छा ही हुआ अजय अंकल ने उन की

आंखें खोल दीं और बगावत होने से पहले ही वे संभल गए वरना एक न एक दिन बगावत होनी तो पक्का ही थी. इस के बाद से उन के परिवार से भी खटपट की आवाजें आनी बंद हो गईं.

अलौकिक प्रेम- क्यूं दूर हुए गौरव और सुषमा

कुछदिनों से सुषमा के मन में उथलपुथल मची हुई थी. अपने आत्मीय से नाता तोड़ लेना उस के अंतर्मन को छलनी कर गया था. उस के बाद उस ने मौन धारण कर लिया था. हालांकि वह जानती थी यह मौन बहुत घातक होगा उस के लिए, लेकिन वह गहरे अवसाद में घिर गई थी. उस के डाक्टर ने कह दिया था जब तक वह नहीं चाहेगी वे उसे ठीक नहीं कर पाएंगे. सुषमा को देख कर लगता था वह ठीक होना ही नहीं चाहती है. उस का मन आज बेहद उदास था. उस की आंखों से नींद गायब थी. अचानक जाने क्या हुआ उस ने अपने 4 साल से बंद याहू मेल को खोला.

एक के बाद एक मेल वह पढ़ती गई, तो उस की यादों की परतें खुलती गईं. उसे ऐसा लग रहा था जैसे कल की बात हो जब उस ने सोशल नैटवर्किंग जौइन किया था. उस वक्त बड़ा उत्साह था उस में. रोज नएनए चेहरे जुड़ते. उन से बातें होतीं फिर वह उन्हें बाहर कर देती. लेकिन कुछ दिनों से एक चेहरा ऐसा था जो अकसर उस के साथ चैट पर होता. पहला परिचय ही काफी दमदार था उस का. ‘‘हे, आई एम डाक्टर गौरव. 28 इयर्स ओल्ड, जानवरों का डाक्टर हूं. 2 बार आईएएस का प्री और मेन निकाला है, लेकिन इंटरव्यू में रह गया. पर अभी हारा नहीं हूं. पीसीएस बन कर रहूंगा. फिलहाल एक कोचिंग सैंटर में आईएएस की कोचिंग में पढ़ाता हूं और जल्दी ही अपना कोचिंग सैंटर खोलने वाला हूं.’’

अवाक सी रह गई थी सुषमा. उस ने बस यह लिखा, ‘‘आई एम सुषमा.’’

‘‘बड़ा खूबसूरत है आप का नाम. आप जानती हैं सुषमा का क्या मीनिंग होता है?’’

‘‘मालूम है मीनिंग. आप को बताने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘हाहाहा, बड़ी खतरनाक हैं आप. आई लाइक इट. वैसे क्या पसंद है आप को?’’

‘‘पढ़नालिखना और आप को?’’

‘‘पढ़नालिखना मुझे भी बहुत पसंद है. नहीं पढ़ूंगा तो 2 वक्त की रोटी नहीं मिलेगी. कोचिंग सैंटर में स्टूडैंट बहुत दिमाग खाते हैं. उन्हें समझाने के लिए खुद भी बहुत पढ़ना पड़ता है, यार.’’

‘‘हे, यार किसे कहा?’’

‘‘तुम्हें और किसे.’’

‘‘तुम नहीं आप कहिए मिस्टर गौरव.’’

‘‘ओके झांसी की रानी, इतना गुस्सा.’’

मन ही मन हंस पड़ी थी सुषमा. उस के बाद कुछ दिनों तक वह व्यस्त रही. फिर एक दिन जैसे ही औनलाइन हुई, उधर से मैसेज मिला, ‘‘हे, गौरव हियर, हाऊ आर यू?’’

‘‘आप को और कुछ काम नहीं है क्या? वहीं खाते, पीते और सोते हैं क्या आप?’’

‘‘हाहाहा, सारा काम नैट से ही होता है मेरा और आप ने कितना इंतजार करवाया. कहां थीं आप इतने दिन?’’

‘‘आप से मतलब और भी काम हैं हमारे.’’

‘‘ओकेओके झांसी की रानी. कोई बात नहीं, लेकिन कभीकभार आ जाया कीजिए. आप से 2 बातें कर के मन को सुकून मिलता है.’’ जाने क्यों आज सुषमा ने उस की बातों में संजीदगी महसूस की.

‘‘गौरव, क्या हुआ है. आज आप कुछ उदास हैं?’’

‘‘हां सुषमा, कुछ दिनों से घर में टैंशन चल रही है.’’

‘‘ओह किस बात पर?’’

‘‘घर के लोग चाहते हैं कि मैं कोई जौब कर लूं या अपना क्लिनिक खोल लूं. जबकि मेरा सपना है प्रशासनिक अधिकारी बनने का. रोजरोज इस बात पर घर में कलह होता है. समझ में नहीं आता कि हम क्या करें?’’

‘‘इतना परेशान मत होइए आप. सब ठीक हो जाएगा. खुद पर भरोसा रखिए. आप का सपना जरूर पूरा होगा.’’

‘‘सुषमा, आप की इन बातों से हमें बहुत बल मिलता है. आप हमारी अच्छी दोस्त बनोगी? हम बुरे इंसान नहीं हैं.’’

‘‘हम दोस्त तो हैं गौरव. यह अच्छा और बुरा क्या होता है?’’

‘‘हाहाहा, कैसे समझाऊं आप को. अच्छा, एक छोटा सा फेवर चाहिए मुझे.’’

‘‘क्या?’’

‘‘डरो नहीं आप, जान नहीं मांग रहे हैं हम आप से.’’

‘‘फिर भी बताओ क्या चाहिए आप को मुझ से?’’

‘‘बस इतना कि आप हमारी बात सुन लिया कीजिए. बड़े अकेले हैं हम. घर में मौमडैड हैं जिन्हें सिर्फ पैसा चाहिए. जबकि घर में पैसे की कमी नहीं है. बड़ा भाई अपनी पसंद से शादी कर के हैदराबाद में सैटल्ड है. उस का घर आना वर्जित कर दिया गया है. किसी को फुरसत नहीं है मेरी बात सुनने की.’’ ‘‘ठीक है गौरव, लेकिन दोस्ती में कभी मर्यादा तोड़ने की कोशिश मत करना.’’ ‘‘ओके, कभी शिकायत का मौका नहीं दूंगा आप को. अब तो तुम कह सकता हूं न?’’

‘‘तुम भी न गौरव, ठीक है कह सकते हो.’’ उस दिन से दोस्ती और गहरी होने लगी थी. जब भी वक्त मिलता सुषमा औनलाइन आती और गौरव से ढेरों बातें करती. हफ्ते में 1 दिन संडे को वे जरूर बात करते. गौरव बड़ा होनहार था. पढ़नेपढ़ाने वाला. उस की बातों में हमेशा शालीनता बनी रहती. और अब वह उसे सुषमा नहीं सु कह कर बुलाने लगा था. कहता था, ‘‘बड़ा लंबा नाम है, मैं तो सु कहूंगा तुम्हें.’’ ‘‘ओके गौरव.’’

एक दिन सुषमा ने कहा, ‘‘गौरव, तुम मेरे बारे में क्या जानते हो?’’

‘‘तुम ने कभी बताया ही नहीं.’’

‘‘और तुम ने पूछा भी नहीं.’’ ‘‘हां नहीं पूछा क्योंकि तुम मेरी दोस्त हो और दोस्ती किसी बात की मुहताज नहीं होती. सच कुछ भी हो दोस्ती हमेशा बनी रहेगी.’’ नाज हो आया था सुषमा को गौरव की दोस्ती पर. लेकिन आज वह यह सोच कर आई थी कि गौरव को अपने जीवन का हर सच बता देगी.

‘‘गौरव…’’

‘‘हां सु.’’

‘‘गौरव…’’

‘‘बोलो न सु, किस बात से परेशान हो आज? जो मन में हो कह दो.’’

‘‘सच जान कर दोस्ती तो नहीं तोड़ोगे?’’

‘‘हाहाहा, मैं प्राण जाए पर वचन न जाए वाला आदमी हूं, अब बताओ.’’

‘‘गौरव, आई एम मैरिड.’’

‘‘हाहाहा, बस इतनी सी बात. मैरिड होना कोई पाप नहीं है. सु, जब तुम मेरी दोस्त बनी थीं तब तुम भी कुछ नहीं जानती थीं मेरे बारे में. आज तुम्हारा मान और बढ़ गया है मेरी नजरों में.’’ सच में आज सुषमा को भी अभिमान हो आया था खुद पर. अब गौरव उस का सब से अच्छा दोस्त था. हफ्ते में 1 दिन वे चैट पर मिलते और उस दिन गौरव के पास बातों का खजाना होता. गौरव का जन्मदिन आने वाले था. सुषमा ने अपने हाथ से उस के लिए कार्ड डिजाइन किया और 19 जुलाई को रात 12 बजे उसे कार्ड मेल किया. गौरव उस वक्त औनलाइन था. बहुत खुश हुआ और अचानक बोला, ‘‘सु, एक बात बोलूं?’’

‘‘नहीं, मत बोलो गौरव.’’

‘‘हाहाहा, अरे मुझे कहनी है यार.’’

‘‘तो कहो न, मुझ से पूछा क्यों? मेरे मना करने से क्या नहीं कहोगे?’’

‘‘सु, मुझे आज एक गिफ्ट चाहिए तुम से.’’

‘‘क्या गिफ्ट गौरव? पहले कहते तो भेज देती तुम्हें.’’

‘‘अरे वह गिफ्ट नहीं.’’

‘‘साफसाफ बोलो गौरव, क्या कहना चाहते हो?’’

‘‘सु, हमारी दोस्ती को पूरा 1 साल हो चुका है. तुम्हारी आवाज नहीं सुनी अब तक. प्लीज, आज अपनी आवाज सुना दो मुझे.’’

‘‘ठीक है गौरव, अपना नंबर दो. कल शाम को काल करूंगी तुम्हें.’’

‘‘थैंक्स सु. कल मैं शाम होने का इंतजार करूंगा.’’ बड़े असमंजस में थी सुषमा कि काल करे या नहीं. गौरव इंतजार करता होगा. अंत में मन की जीत हुई. शाम को उस ने गौरव को काल किया तो वह बहुत खुश हुआ. ‘‘सु, तुम ने आज मुझे जिंदगी का सब से बड़ा गिफ्ट दिया है. तुम्हारी आवाज को मैं ने अपने मनमस्तिष्क में सहेज लिया है.’’

‘‘गौरव, क्या बोलते रहते हो तुम?’’

‘‘सच कह रहा हूं, सु.’’

उस दिन के बाद उन की फोन पर भी बातें होने लगीं. एक दिन शाम को 8 बजे गौरव का फोन आया, ‘‘सु, सुनो न.’’

‘‘हां गौरव, क्या हुआ? ये तुम्हारी आवाज क्यों लड़खड़ा रही है?’’

‘‘सु. मैं शराब पी रहा हूं अपने दोस्तों के साथ.’’

‘‘गौरव, तुम पागल हो गए हो क्या? घर जाओ अपने.’’ ‘‘ओके. अब कल सुबह बात करना मुझ से,’’ फिर फोन काट दिया था. वह जानती थी कि सुबह तक गौरव का गुस्सा शांत हो जाएगा और वह खुद ही अपने घर चला जाएगा. और ऐसा ही हुआ.

उन की दोस्ती को पूरे 2 साल होने वाले थे. दोनों को एकदूसरे का इंतजार रहता.

एक दिन गौरव ने कहा, ‘‘सु, एक बात कहूं?’’

‘‘नहीं गौरव.’’

‘‘मुझे कहनी है, सु.’’

‘‘फिर पूछते क्यों हो?’’

‘‘ऐसे ही. अच्छा लगता है जब तुम मना करती हो और मैं फिर भी पूछता हूं.’’

‘‘पूछो क्या पूछना है?’’

‘‘सु, इन दिनों मैं तुम्हारे बारे में बहुत सोचने लगा हूं. हैरान हूं इस बात से कि मुझे क्या हो रहा है?’’ ‘‘कुछ नहीं हुआ है गौरव, हम बहुत बातें करते हैं न, इसलिए तुम्हें ऐसा लगता है.’’

‘‘नहीं सु, एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगी?’’

‘‘कह दो, मना करने पर भी कहोगे ही न?’’

‘‘सु.’’

‘‘हां गौरव बोलो.’’

‘‘मुझे प्यार हो गया है.’’

‘‘बधाई हो गौरव. कौन है वह?’’

‘‘सु, तुम नाराज हो जाओगी.’’

‘‘ओके मत बताओ, मैं जा रही हूं.’’

‘‘सु रुको न, मुझे तुम से प्यार हो गया है. जानता हूं तुम बुरा मान जाओगी, लेकिन एक बात बताओ क्या तुम मुझे रोक सकती हो प्यार करने से? नहीं न? मेरा मन है तुम मत करना मुझ से प्यार.’’ ‘‘गौरव, तुम पागल हो गए हो. तुम जानते हो मेरी सीमाओं को. तुम्हें यह सोचना भी नहीं चाहिए था. यह तो पाप है गौरव.’’ ‘‘मेरा प्यार पाप नहीं है, सु. मैं ने कभी तुम्हें गलत नजर से नहीं देखा है. यह प्यार पवित्र व निस्वार्थ है. सु, तुम से नहीं कहूंगा अपना प्यार स्वीकार करने को.’’

‘‘गौरव, प्लीज मुझे कमजोर मत बनाओ.’’

‘‘सु, तुम कमजोर नहीं हो. तुम्हारा गौरव तुम्हें कभी कमजोर नहीं बनने देगा.’’ एक लंबी चुप्पी के बाद सुषमा ने बात वहीं खत्म कर दी और इस के बाद कई दिनों तक उस ने गौरव से बात नहीं की. लेकिन कब तक? मन ही मन तो वह भी गौरव से प्यार करने लगी थी. एक दिन उस ने खुद गौरव को फोन किया, ‘‘गौरव कैसे हो?’’

‘‘जिंदा हूं सु. मरूंगा नहीं इतनी जल्दी.’’

‘‘मरें तुम्हारे दुश्मन.’’

‘‘हाहाहा सु, मुझे विश्वास था कि तुम लौट आओगी मेरे पास.’’ ‘‘हां गौरव लौट आई हूं अपनी सीमाएं तोड़ कर, लेकिन कभी गलत काम न हो हम से.’’ ‘‘मुझ पर यकीन रखो मैं तुम्हें कभी शर्मिंदा नहीं होने दूंगा.’’ प्रेम की मौन स्वीकृति पर दोनों बहुत खुश थे. एक दिन बातों ही बातों में सुषमा ने पूछ लिया, ‘‘गौरव, तुम्हारी लाइफ में कोई और भी है क्या?’’ ‘‘अब सिर्फ तुम हो सु. मैडिकल कालेज, हैदराबाद में थी एक लड़की. हम दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते थे. लेकिन पढ़ाई पूरी होने के बाद जब मैं दिल्ली वापस आ गया तो उस के मांबाप ने उस की शादी कर दी.’’ उस दिन बात यहीं खत्म हो गई. एक दिन गौरव बड़ा परेशान था.

‘‘क्या हुआ गौरव?’’ सुषमा ने पूछा.

‘‘सु, घर वाले शादी की जिद कर रहे हैं. आज शाम को लड़की देखने जाना है.’’

‘‘अरे तो जाओ न गौरव, इस में परेशान होने की क्या बात है?’’

‘‘मेरे घर वालों को दहेज चाहिए सु और इस के लिए वे कोई भी लड़की मेरे पल्ले बांध देंगे.’’ ‘‘तुम जाओ तो सही फिर बताना कैसी है लड़की?’’

‘‘तुम कह रही हो तो जाता हूं.’’ शाम को गौरव का गुस्से से भरा फोन आया, ‘‘तुम ने ही जिद की वरना मैं नहीं जाता. लड़की कंपनी सेक्रेटरी है. खुद को जाने क्या समझ रही थी. मना कर आया हूं मैं.’’

‘‘शांत हो जाओ गौरव, कोई और अच्छी लड़की मिल जाएगी.’’ गौरव के घर वाले शादी के लिए जोर डाल रहे थे. सुषमा जानती थी गौरव की परेशानी को, लेकिन चुप रही. एक दिन वह बोली, ‘‘गौरव, सुनो न.’’

‘‘हां कहो, सु.’’

‘‘राधा और किशन का प्रेम कैसा था?’’

‘‘सु, वह अलौकिक प्रेम था. राधाकिशन का दैहिक नहीं आत्मिक मिलन हुआ था.’’ ‘‘गौरव, मुझे राधाकिशन का प्रेम आकर्षित करता है.’’

‘‘तो आज से तुम मेरी राधा हुईं, सु.’’

सुषमा थोड़ी देर चुप रही फिर बोली, ‘‘गौरव…’’

‘‘हां सु, क्या मैं ने कुछ गलत कहा? तुम चुप क्यों हो गई हो?’’

सुषमा चुप ही रही. 19 जुलाई आने वाली थी. वह इस बार भी गौरव को कुछ खास तोहफा देना चाहती थी. उस ने राधाकिशन का एक कार्ड बनाया और गौरव को अपनी शुभकामनाएं दीं. अपने नाम की जगह उस ने लिखा राधागौरव. कार्ड देख कर पागल हो गया गौरव. बहुत खुश था वह इसलिए फोन पर रोता रहा फिर बोला, ‘‘राधे, आज तुम ने मेरे नाम के साथ अपना नाम जोड़ कर मुझे सब से अनमोल गिफ्ट दिया है. अब कुछ नहीं चाहिए मुझे. यह किशन सिर्फ तुम्हारा है.’’ गौरव के लिए लड़की पसंद कर ली गई थी. जैसेजैसे गौरव की शादी का दिन पास आ रहा था, सुषमा बहुत परेशान रहने लगी थी. उसे डर था उन का रिश्ता कहीं गौरव की नई जिंदगी में दुख न घोल दे.

‘‘गौरव, शादी के बाद तुम मुझ से बात मत करना,’’ एक दिन वह बोली.

‘‘क्यों नहीं करूंगा सु, तुम से बात नहीं हुई तो मैं मर जाऊंगा.’’ नहीं गौरव, ऐसा मत कहो. तुम अपनी पत्नी को बहुत प्यार देना. कभी कोई दुख न देना. तुम चिंता मत करो सु, तुम्हारा गौरव कभी तुम्हें शर्मिंदा नहीं करेगा. गौरव की शादी हो गई. गौरव के घर वालों को खूब सारा दहेज और गौरव को एक अच्छी पत्नी मिल गई. गौरव ने अपनी पत्नी को सुषमा के बारे में सब कुछ बता दिया, तो वह इस बात से खफा रहने लगी. जब भी गौरव चैट पर होता, वह गुस्सा हो जाती. गौरव ने सुषमा को सब बताया. सुषमा का मन बड़ा दुखी हुआ. अब वह खुद भी गौरव से कटने लगी.

‘‘सु, क्या हो गया है तुम्हें, मुझ से बात क्यों नहीं करती हो?’’ एक दिन गौरव बोला.

‘‘गौरव, मैं व्यस्त थी.’’

‘‘नहीं, तुम झूठ बोल रही हो, तुम्हारी आवाज से मैं समझता हूं.’’ गौरव की जिंदगी में खुशियां लाने के लिए सुषमा ने मन ही मन एक फैसला कर लिया. उस ने गौरव को एक मेल किया और कहा, ‘‘गौरव वक्त आ गया है हमारे अलग होने का. किशन भी तो गए थे राधा से दूर, लेकिन उन का प्रेम जन्मजन्मांतर के लिए अमर हो गया. आज यह राधा भी दूर जाने का फैसला कर बैठी है. कोई सवाल मत करना तुम, तुम्हें कसम है मेरे प्यार की. और हां, काल मत करना. मैं ने अपना नंबर बदल दिया है. आज से ये मेल भी बंद हो जाएगी. अब तुम्हें अपनी पत्नी के साथ अपना घरसंसार बसाना है.

-तुम्हारी राधा.’’

मन पर पत्थर रख कर सुषमा ने गौरव से बना ली थीं. आज 3 साल बाद याहू मेल को खोला तो देखा, गौरव ने हर हफ्ते उसे मेल किया था.

‘‘सु, मैं बाप बनने वाला हूं, तुम खुश हो न?’’ ‘‘सु, मैं ने राजस्थान पीसीएस क्लियर कर लिया है. मेरी आंखों से तुम ने जो सपना देखा था वह पूरा हो गया, सु.’’ ‘‘आज मैं बहुत खुश हूं सु, मेरा बेटा हुआ है. मैं ने उस का नाम मोहित रखा है. तुम्हें पसंद था न मोहित नाम?’’

सु…ये..सु वो.. इन 3 सालों में जाने कितने मेल किए थे गौरव ने. सुषमा यह देख कर हैरान रह गई. 2 दिन पहले का मेल था, ‘‘सु, याद है तुम ने कहा था कि जब तुम्हारी जिम्मेदारियां पूरी हो जाएंगी, तुम मेरे साथ ताजमहल देखने जाओगी. मैं उस दिन का इंतजार कर रहा हूं.’’ होंठों पर मीठी सी मुसकराहट आ गई सुषमा के आंखों के आगे. कौंध गया 30 साल बाद का वह दृश्य. वह जर्जर बूढ़ी काया वाली हो गई है और गौरव का हाथ थामे ताजमहल के सामने खड़ी है. और, गौरव सु, ‘देखो ये है ताजमहल. प्रेम की अनमोल धरोहर, प्रेम की शाश्वत तसवीर,’ कह रहा है. वह मजबूती से गौरव का हाथ थामे अलौकिक प्रेम को आत्मसात होते देख रही है.

मां का साहस: क्या हुआ था वनिता के साथ

मां उसे सम झा रही थीं, ‘‘दामादजी सिंगापुर जा रहे हैं. ऐसे में तुम नौकरी पर जाओगी तो बच्चे की परवरिश ठीक से नहीं हो पाएगी. वैसे भी अभी तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है. दामादजी भी अच्छाखासा कमा रहे हैं. तुम्हारा अपना घर है, गाड़ी है…’’

‘‘तुम साफसाफ यह क्यों नहीं कहती हो कि मैं नौकरी छोड़ दूं. तुम भी क्या दकियानूसी बातें करती हो मां,’’ वनिता बिफर कर बोली, ‘‘इतनी मेहनत और खर्च कर के मैं ने अपनी पढ़ाई पूरी की है, वह क्या यों ही बरबाद हो जाने दूं. तुम्हें मेरे पास रह कर गुडि़या को नहीं संभालना तो साफसाफ बोल दो. मेरी सास भी बहाने बनाने लगती हैं. अब यह मेरा मामला है तो मैं ही सुल झा लूंगी. भुंगी को मैं ने सबकुछ सम झा दिया है. वह यहीं मेरे साथ रहने को राजी है.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है वनिता…’’ मां उसे सम झाने की कोशिश करते हुए बोलीं, ‘‘अब हम लोगों की उम्र ढल गई है. अपना ही शरीर नहीं संभलता, तो दूसरे को हम बूढ़ी औरतें क्या संभाल पाएंगी. सौ तरह के रोग लगे हैं शरीर में, इसलिए ऐसा कह रही थी. बच्चे की सिर्फ मां ही बेहतर देखभाल कर सकती है.’’

‘‘मैं फिर कहती हूं कि मैं ने इतनी मेहनत से पढ़ाईलिखाई की है. मु झे बड़ी मुश्किल से यह नौकरी मिली है, जिस के लिए हजारों लोग खाक छानते फिरते हैं और तुम कहती हो कि इसे छोड़ दूं.’’

‘‘मांजी का वह मतलब नहीं था, जो तुम सम झ रही हो…’’ शेखर बीच में बोला, ‘‘अभी गुडि़या बहुत छोटी है. और मांजी अपने जमाने के हिसाब से बातें समझा रही हैं. गुडि़या की चंचल हरकतें बढ़ती जा रही हैं. 2 साल की उम्र ही क्या होती है.’’

‘‘तुम तो नौकरी छोड़ने के लिए बोलोगे ही… आखिर मर्द हो न.’’

‘‘अब जो तुम्हारे जी में आए सो करो…’’ शेखर पैर पटकते हुए वहां से जाते हुए बोला, ‘‘परसों मु झे सिंगापुर के लिए निकलना है. महीनेभर का कार्यक्रम है. बस, मेरी गुडि़या को कुछ नहीं होना चाहिए.’’

‘‘मेम साहब, मैं बच्ची देख लूंगी…’’ भुंगी पान चबाते हुए बीच में आ कर बोली, ‘‘आखिर हमें भी तो अपना पेट पालना है.’’

‘‘तुम्हें अपने बनावसिंगार से फुरसत हो तब तो तुम बच्ची को देखोगी…’’ वनिता की सास बीच में आ कर बोलीं, ‘‘हम जरा बीमार क्या हुए, फालतू हो गए. घर में सौ तरह के काम हैं. सब तरफ से भरेपूरे हैं हम. एक बच्चे की कमी थी, वह भी पूरी हो गई. हमें और और क्या चाहिए.’’

‘‘देखिए बहनजी, आप ही इसे सम झाएं कि ऐसे में कोई जरूरी तो नहीं कि यह नौकरी करे…’’ अब वे वनिता की मां से मुखातिब थीं, ‘‘4 साल तो नौकरी कर ली. अब यह  झं झट छोड़े और चैन से घर में रहे.’’

‘‘अब मैं आप लोगों के मुंह नहीं लगने वाली. मैं साफसाफ कहे देती हूं कि मैं नौकरी नहीं छोड़ने वाली. मु झे भी अपनी जिंदगी जीने का हक है. मु झे भी अपनी आजादी चाहिए. मैं आम औरतों की तरह नहीं जी सकती.’’

‘‘मु झे भी तो काम और पैसा चाहिए मेम साहब…’’ भुंगी खीसें निपोर कर बोली, ‘‘आप निश्चिंत हो कर चाकरी करो. मैं भी चार रोटी खा कर यहीं पड़ी रहूंगी. घर और गुडि़या को देख लूंगी.’’

‘‘भुंगी, मु झे तुम पर पूरा यकीन है…’’ वनिता चहकते हुए बोली, ‘‘ये पुराने जमाने के लोग हैं. आगे की क्या सोचेंगे. मु झ में हुनर है, तो मु झे इस का फायदा मिलना ही चाहिए. औफिस में मेरा नाम और इज्जत है. आखिर नाम कमाना किस को अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘पता नहीं, कहां से आई है यह भुंगी…’’ वनिता की मां उस की सास से बोलीं, ‘‘न पता, न ठिकाना. मु झे इस के लक्षण भी ठीक नहीं दिखते. पता नहीं, क्या पट्टी पढ़ा दी है कि इस वनिता की तो मति मारी गई है.’’

भुंगी इस महल्ले में  झाड़ूपोंछे का काम करती थी. उस ने वनिता के घर में भी काम पकड़ लिया था. अब वह वनिता की भरोसेमंद बन गई थी. काम के बहाने वह ज्यादातर यहीं रह कर वनिता की हमराज भी बन गई थी. वनिता उसे पा कर खुश थी.

घर में बूढ़े सासससुर थे, मगर वे अपनी ही बीमारी के चलते ज्यादा चलफिर नहीं पाते थे. शेखर अपने संस्थान के खास इंजीनियर थे. सिंगापुर की एक नामी यूनिवर्सिटी में एक महीने की खास ट्रेनिंग के लिए उन का चयन किया गया था. इस ट्रेनिंग के पूरा होने के बाद उन की डायरैक्टर के पद पर प्रमोशन तय था. मगर उन का नन्ही सी गुडि़या को छोड़ कर जाने का मन नहीं हो रहा था. वे उस की हिफाजत और देखभाल के लिए आश्वस्त होना चाहते थे, इसलिए वनिता ने अपनी मां को यहां बुलाना चाहा था. मगर मां ने साफतौर पर मना कर दिया तो वनिता को निराशा हुई. अब वह भुंगी के चलते आश्वस्त थी कि सबकुछ ठीकठाक चल जाएगा.

दसेक दिन तो ठीकठाक ही चले. भुंगी के साथ गुडि़या हिलमिल गई थी और उस के खानपान और रखरखाव में अब कोई परेशानी नहीं थी.

एक दिन शाम को वनिता औफिस से घर लौटी तो उसे घर में सन्नाटा पसरा दिखा. आमतौर पर उस के घर आते ही गुडि़या उछल कर उस के सामने चली आती थी, मगर आज न तो उस का और न ही भुंगी का कोई अतापता था.

वनिता ने ससुर के कमरे में जा कर  झांका. वहां सास बैठी थीं और वे ससुर के तलवे पर तेल मल रही थीं.

‘‘आप ने गुडि़या को देखा क्या?’’ वनिता ने सवाल किया, ‘‘भुंगी भी नहीं दिखाई दे रही है.’’

‘‘वह अकसर उसे पार्क में घुमाने ले जाती है…’’ सास बोलीं, ‘‘आती ही होगी.’’

वनिता हाथमुंह धोने के बाद कपड़े बदल कर बाहर आई. अभी तक उन लोगों का कोई पता नहीं था. आमतौर पर औफिस से आने पर वह गुडि़या से बातें कर के हलकी हो जाती थी. तब तक भुंगी चायनाश्ता तैयार कर उसे दे देती थी.

वनिता उठ कर रसोईघर में गई. चाय बना कर सासससुर को दी और खुद चाय का प्याला पकड़ कर ड्राइंगरूम में टीवी के सामने बैठ गई.

थोड़ी देर बाद ही शेखर का फोन आया. औपचारिक बातचीत के बाद शेखर ने पूछा, ‘‘गुडि़या कहां है?’’

‘‘भुंगी उसे कहीं घुमाने ले गई है…’’ वनिता ने उसे आश्वस्त किया, ‘‘बस, वह आती ही होगी.’’

बाहर अंधेरा गहराने लगा था और अब तक न भुंगी का कोई पता था और न ही गुडि़या का. वनिता बेचैनी से उठ कर घर में ही टहलने लगी. पूरा घर जैसे सन्नाटे से भरा था. बाहर जरा सी भी आहट हुई नहीं कि वह उधर ही देखने लगती थी.

अब वनिता ने पड़ोस में जाने की सोची कि वहीं किसी से पूछ ले कि गुडि़या को साथ ले कर भुंगी कहीं वहां तो नहीं बैठी है कि अचानक उस का फोन घनघनाया.

वनिता ने लपक कर फोन उठाया.

‘तुम्हारी बच्ची हमारे कब्जे में है…’ उधर से एक रोबदार आवाज आई, ‘बच्ची की सलामत वापसी के लिए 30 लाख रुपए तैयार रखना. हम तुम्हें 24 घंटे की मोहलत देते हैं.’

‘‘तुम कौन हो? कहां से बोल रहे हो… अरे भाई, हम 30 लाख रुपए का जुगाड़ कहां से करेंगे?’’

‘हमें बेवकूफ सम झ रखा है क्या… 5 लाख के जेवरात हैं तुम्हारे पास… 10 लाख की गाड़ी है… तुम्हारे बैंक खाते में 7 लाख रुपए बेकार में पड़े हैं… और शेखर के खाते में 12 लाख हैं. घर में बैठा बुड्ढा पैंशन पाता है. उस के पास भी 2-4 लाख होंगे ही.

‘‘हम ज्यादा नहीं, 30 लाख ही तो मांग रहे हैं. तुम्हारी गुडि़या की जान की कीमत इस से कम है क्या…

वनिता को धरती घूमती नजर आ रही थी. बदमाशों को उस के घर के हालात का पूरा पता है, तभी तो बैंक में रखे रुपयों और जेवरात की उन्हें जानकारी है. उस ने तुरंत अपने मम्मीपापा को फोन किया. इस के अलावा कुछ दोस्तों को भी फोन किया.

देखते ही देखते पूरा घर भर गया. शेखर के दोस्त राकेश ने वनिता को सलाह दी कि उसे शेखर को फोन कर के सारी जानकारी दे देनी चाहिए, मगर वनिता के दफ्तर में काम करने वाली सुमन तुरंत बोली, ‘‘यह हमारी समस्या है, इसलिए उन्हें डिस्टर्ब करना ठीक नहीं होगा. हम औरतें हैं तो क्या हुआ, जब हम औफिस की बड़ीबड़ी समस्याएं सुल झा सकती हैं तो इसे भी हमें ही सुल झाना चाहिए. जरा सब्र से काम ले कर हम इस समस्या का हल निकालें तो ठीक होगा.’’

‘‘मेरे खयाल से यही ठीक रहेगा,’’ राकेश ने अपनी सहमति जताई.

‘‘तो अब हम क्या करें?’’ वनिता अब खुद को संतुलित करते हुए बोली, ‘‘अब मु झे भी यही ठीक लग रहा है.’’

‘‘सब से पहले हम पुलिस को फोन कर के सारी जानकारी दें…’’ सुमन बोली, ‘‘हमारे औफिस के ही करीम भाई के एक परिचित पुलिस में इंस्पैक्टर हैं. उन से मदद मिल जाएगी.’’

‘‘तो फोन करो न उन्हें…’’ राकेश बोला, ‘‘उन्हीं के द्वारा हम अपनी बात पुलिस तक पहुंचाएंगे.’’

वनिता ने करीम भाई को फोन लगाया तो वे आधी रात को ही वहां पहुंच गए.

‘‘मैं ने अपने कजिन अजमल को, जो पुलिस इंस्पैक्टर है, फोन कर दिया है. वह बस आता ही होगा,’’ करीम भाई ने कहा.

करीम भाई ने वनिता को हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘‘तुम चिंता मत करो. तुम्हारी बेटी को अजमल जल्द ही ढूंढ़ निकालेगा.’’

पुलिस इंस्पैक्टर अजमल ने आते ही वनिता से कुछ जरूरी सवाल पूछे. नौकरानी भुंगी की जानकारी ली और सब को पुलिस स्टेशन ले गए.

एफआईआर दर्ज करने के बाद इंस्पैक्टर अजमल बोले, ‘‘वनिताजी, इस समय यहां एक रैकेट काम कर रहा है. यह वारदात उसी की एक कड़ी है. हम उन लोगों तक पहुंचने ही वाले हैं. दिक्कत बस यही है कि इसे राजनीतिक सरपरस्ती मिली हुई है, इसलिए हमें फूंकफूंक कर कदम रखना है. अभी आप घर जाएं और जब अपहरण करने वालों का फोन आए तो उन से गंभीरतापूर्वक बात करें.’’

वनिता की आंखों में नींद नहीं थी. इतना बड़ा हादसा हो और नींद आए तो कैसे. रात जैसे आंखों में कट गई. इतनी छोटी सी बच्ची कहां, किस हाल में होगी, पता नहीं. सासससुर का भी रोतेरोते बुरा हाल था. मां उसे अलग कोस रही थीं, ‘‘और कर ले नौकरी. मैं कह रही थी न कि बच्चों की देखभाल मां ही बेहतर कर सकती है. मगर इसे तो अपने समाज की इज्जत और रोबरुतबे का ही खयाल था.’’

वनिता ने अपने कमरे में जा कर अटैची निकाली. अलमारी खोल कर पैसे देखने लगी कि उस का मोबाइल फोन बजने लगा.

‘क्या हुआ…’

‘‘रुपयों का इंतजाम कर रही हूं…’’ वह बोली, ‘‘तुम कहां हो? जल्दी बोलो कि मैं वहां आऊं.’’

‘अभी इतनी जल्दी क्या है,’ उधर से हंसने की आवाज आ कर बंद हो गई.

अचानक पुलिस इंस्पैक्टर अजमल उस के घर में आए और दोबारा जब उस से भुंगी के फोन और पते की बात पूछी तो वह घबरा गई.

‘‘वह तो इस महल्ले में कई साल से रहती थी.’’

‘‘आप के पास उस का जो पता था, वह गलत था. शहर की एक  झोंपड़पट्टी का उस ने जो पता दिया था, वह फर्जी निकला. वह कहीं और रहती थी.

‘‘अब यह बिलकुल आईने की तरफ साफ हो चुका है कि इस अपहरण में उस का ही हाथ है, तभी तो आप के जेवरात और बैंक खाते के बारे में बदमाशों को गहरी जानकारी थी.’’

पुलिस अब अगली कार्यवाही में जुट गई थी. उस ने अपना शिकंजा कसना शुरू कर दिया था.

मिनट घंटों में और घंटे दिन में बदल रहे थे. पुलिस भी पास के जिलों के जंगलपहाड़ों तक में खाक छान रही थी. 2 दिन बीत चुके थे और अभी तक गुडि़या का कोई सुराग, कोई अतापता नहीं था.

शाम के समय वनिता के पास फिर से बदमाशों का फोन आया. वह उलटे उन्हें ही डांटने लगी, ‘‘मैं रुपए ले कर बैठी हूं और तुम यहांवहां घूम रहे हो. मैं शाम को शहर के बौर्डर पर बागडि़या टैक्सटाइल फैक्टरी के पास बने आउट हाउस में अटैची ले कर अपनी एक सहेली के साथ रहूंगी.

‘‘और हां, तुम भी पुलिस को कुछ न बताना और मेरी बेटी को छोड़ कर रुपए ले जाना.’’

‘अरे, पुलिस को कुछ न बताने की बात तो मेरी थी.’

‘‘और, मु झे भी अपनी इज्जत प्यारी है, इसलिए कह रही हूं.’’

शहर के उस एरिया में एक पुराना इंडस्ट्रियल ऐस्टेट था जिस में पुरानी खंडहर उजाड़ फैक्टिरियां थीं. वनिता ने अपनी गाड़ी निकाली और सुमन के साथ अटैची ले कर बैठ गई.

कई एकड़ में फैली उस फैक्टरी में कोई आताजाता नहीं था. उस के ठीक नीचे नाला बह रहा था. वे दोनों वहीं एक दीवार की ओट में बैठ गईं, जहां से चारों तरफ का मंजर दिखता था.

अचानक उस उजाड़ फैक्टरी की एक बिल्डिंग के अंदर से 2 आदमी बाहर निकले. उन के पीछे नौकरानी भुंगी भी गुडि़या को लिए दिखाई दी.

उन दोनों में से एक के हाथ में पिस्तौल थी. वह पिस्तौल को जेब में रखते हुए बोला, ‘‘अब इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ वह अटैची लेने के लिए आगे बढ़ा.

अचानक बिजली की तेजी से वनिता ने उसे अटैची देते वक्त जोरों का धक्का दिया तो वह आदमी अटैची को लिए हुए ही नाले में जा गिरा.

उसे गिरता देख कर दूसरा आदमी एकदम से भाग खड़ा हुआ. सुमन दौड़ कर गुडि़या की ओर लपकी, तो भुंगी उसे छोड़ कर भाग निकली.

वनिता और सुमन ने जल्दी गुडि़या के बंधन खोले. गुडि़या उन से चिपट कर रोने लगी.

‘‘आप ने तो कमाल कर दिया वनिताजी…’’ पुलिस इंस्पैक्टर अजमल उस की तारीफ करने लगा था, ‘‘हमें मालूम पड़ा कि आप इधर आ रही हैं, तो हम ने भी आप का पीछा किया और यहां तक आ पहुंचे.’’

थोड़ी देर में उस घायल मुजरिम के साथ पुलिस आती दिखी जो नाले में जा गिरा था. एक पुलिस वाले के हाथ में अटैची भी थी.

पुलिस इंस्पैक्टर अजमल ने अटैची खोली तो उसे हंसी आ गई. अटैची में पुरानी किताबें, पत्रिकाएं और अखबार भरे थे. उस भारी अटैची को समेट न पाने के चलते ही वह आदमी वनिता के एक धक्के से नाले में लुढ़क गया था.

‘‘आप के इस साहस से न सिर्फ आप को अपनी बेटी मिली है, बल्कि हमें भी एक खतरनाक मुजरिम मिला है. अब इस के जरीए सारे मुजरिम हवालात में होंगे. मैं आप के इस साहस की तारीफ करता हूं. फिलहाल तो आप अपनी बेटी को ले कर घर जाइए, बाकी औपचारिकताएं बाद में होंगी.’’

‘‘अरे भाई, वनिता के साहस के कायल हम भी हैं…’’ करीम भाई बोला, ‘‘तभी तो औफिस की खास फाइलें इन्हीं के पास आती हैं.’’

‘‘वनिता एक मां भी हैं करीमजी. और एक मां अपनी औलाद के लिए शेर को भी मात दे सकती है…’’ सुमन बोल पड़ी, ‘‘वनिता, अब घर चलो. गुडि़या को सामान्य करते हुए तुम्हें खुद भी सामान्य होना है. आगे का काम पुलिस पूरा कर लेगी.’’

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