Serial Story: चुभन (भाग-2)

पिछला भाग पढ़ने के लिए- चुभन: भाग-1

‘‘मुझे आप के साथ कहीं नहीं जाना. कह दीजिएगा मां से कि अब यहीं जीनामरना है, बस…’’

‘‘कैसी पागलों जैसी बातें कर रही हो. अजय जैसा अच्छा इंसान तुम्हारा पति है. जैसा चाहती हो वैसा ही करता है, और क्या चाहिए तुम्हें?’’

मैं कमरे से बाहर चला गया. आगे कुछ भी सुनने की शक्ति मुझ में नहीं थी. कुछ भी सुनना नहीं चाहा मैं ने. क्या सोच कर विनय को बुलाया था पर उस के आ जाने से तो सारा विश्वास ही डगमगा सा गया. तंद्रा टूटी तो पता चला काफी समय बीत चुका है. शायद दोपहर होने को आ गई थी. विनय वापस जाने को तैयार था. बोला, ‘‘मीना को साथ ले जा रहा हूं. तुम अपना खयाल रखना.’’

मीना बिना मुझ से कोई बात किए ही चली गई. नाश्ता उसी तरह मेज पर रखा रहा. मीना ने मेरी भूख के बारे में भी नहीं सोचा. भूखा रहना तो मेरी तब से मजबूरी है जब से उस के साथ बंधा हूं. कभीकभी तरस भी आता है मीना पर.

मीना चली गई तो ऐसा लगा जैसे चैन आ गया है मुझे. अपनी सोच पर अफसोस भी हो रहा है कि मैं मीना को बहुत चाहता हूं. फिर उस का जाना प्रिय क्यों लग रहा है? ऐसा क्यों लग रहा है कि शरीर के किसी हिस्से में समाया मवाद बह गया और पीड़ा से मुक्ति मिल गई? जिस के साथ पूरी उम्र गुजारने की सोची उसी का चला जाना वेदना क्यों नहीं दे रहा मुझे?

एक शाम मैं ने विनय को समझाना चाहा, ‘‘मेरी वजह से तुम क्यों अपने परिवार से दूर रह रहे हो, विनय? चारु भाभी को बुरा लगेगा.’’

‘‘तुम्हारी भाभी ने ही तो कहा है कि मैं तुम्हारे साथ रहूं और फिर तुम मेरा परिवार नहीं हो क्या? हैरान हूं मैं अजय, मीना का व्यवहार देख कर. वह सच में बहुत जिद्दी है. मैं भी पहली बार महसूस कर रहा हूं… तुम बहुत सहनशील हो अजय, जो उसे सहते रहे. तुम्हारी जगह यदि मैं होता तो शायद इतना लंबा इंतजार न करता.

‘‘अजय, सच तो यह है कि अपनी बहन का बचपना देख कर मुझे अपनी पत्नी और भी अच्छी लगने लगी है. दोनों में जब अंतर करता हूं तो पाता हूं कि चारु समझदार और सुघड़ पत्नी है. मीना जैसी को तो मैं भी सह नहीं पाता.

‘‘अकसर ऐसा होता है अजय, मनुष्य उस वस्तु से कभी संतुष्ट नहीं होता, जो उस के पास होती है. दूसरे की झोली में पड़ा फल सदा ज्यादा मीठा लगता है. चारु की तुलना मैं सदा मीना से करता रहा हूं, मां ने भी अपनी बहू का अपमान करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी. चारु मीना जितना पढ़लिख नहीं पाई, क्योंकि शादी के बाद हम उसे क्यों पढ़ातेलिखाते? बी.ए. पास है, बस, ठीक है. मीना को तुम ने मौका दिया तो हम ने झट उसे चारु से बेहतर मान भी लिया पर यह कभी नहीं सोचा कि मीना की इच्छा का मान रखने के लिए तुम कबकब, कैसेकैसे स्वयं को मारते रहे.’’

‘‘चारु भाभी की अवहेलना मैं ने भी अकसर महसूस की है. मीना के जाने से मेरा भी भला हो रहा है और चारु भाभी का भी. मैं भी चैन की सांस ले रहा हूं और चारु भाभी भी.

‘‘कैसी है मीना, तुम ने बताया नहीं? क्या घर वापस नहीं आना चाहती? क्या मेरी जरा सी भी याद नहीं आती उसे?’’

‘‘पता नहीं, मुझ से तो बात भी नहीं करती. च रु से भी कटीकटी सी रहती है.’’

‘‘किसी के साथ खुश भी है वह? तुम बुरा मत मानना, विनय. कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के जीवन में कोई और है या था… कहीं उस की शादी जबरदस्ती तो नहीं की गई?’’ मैं ने सहसा पूछा तो विनय के माथे पर कुछ बल पड़ गए.

‘‘मैं ने मां से भी इस बारे में पूछा था. तुम मेरे मित्र भी हो, अजय, तुम्हारे साथ जरा सी भी नाइंसाफी मैं नहीं सह सकता, क्योंकि पिछले 6-7 सालों से मैं तुम्हें जानता हूं कि तुम्हारा चरित्र सफेद कागज के समान है. कोई तुम्हारी भावना का अनादर क्यों करे? मेरी बहन भी क्यों? जहां तक मां का विचार है तो वे यही कहती हैं कि उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं है.’’

‘‘तो आज मैं आ जाऊं उसे वापस ले आने के लिए? आखिर कोई कुछ तो इस समस्या का समाधान होना ही चाहिए. मीना मेरी पत्नी है, कुछ तो मुझे भी करना होगा न.’’

विनय की आंखें भर आईं. उस ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया. संभवतयाउसे भी यही एक रास्ता सूझ रहा होगा कि मैं ही कुछ करूं.

अगली सुबह मैं अपनी ससुराल पहुंच गया. पूरे 15 दिन बाद मैं मीना से मिलने वाला था. सड़क की मरम्मत का काम चल रहा था. पूरे रास्ते पर कंकर बिछे थे, इसलिए स्कूटर घर से बहुत दूर खड़ा करना पड़ा. पैदल ही घर तक आया, इसीलिए मेरे आने का किसी को भी पता नहीं चला.

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मैं घर के आंगन में खड़ा था. मां और भाभी दोनों रसोई में व्यस्त थीं. उन्होंने मुझे देखा नहीं. चुपचाप सीढि़यां चढ़ कर मैं ऊपर मीना के कमरे के पास पहुंचा और पति के अधिकार के साथ दरवाजा धकेला मैं ने.

‘‘चारु, तुम जाओ. मैं ने कहा न मुझे भूख नहीं है… जानती हूं तुम्हारी चापलूसी को, सभी को मेरे खिलाफ भड़काती हो… अनपढ़, गंवार कहीं की… तुम जलती हो मुझ से.’’

मीना की यह भाषा सुन कर मैं हक्काबक्का रह गया. आहट पर ही इतनी बकवास कर रही है तो आमनेसामने झगड़ा करने में उसे कितनी देर लगती होगी. कैसी औरत मेरे पल्ले पड़ गई है जिस का एक भी आचरण मेरे गले से नीचे नहीं उतरता.

‘‘चारु भाभी क्यों जलेगी तुम से? ऐसा क्या है तुम्हारे पास, जरा बताओ तो मुझे? तुम तो मानसिक रूप से कंगाल हो.’’

काटो तो खून नहीं रहा मीना में. मेरा स्वर और मेरी उपस्थिति की तो उस ने कल्पना भी न की होगी. अफसोस हुआ मुझे खुद पर और सहसा अपना आक्रोश न रोक पाने पर.

‘‘चारु भाभी के अच्छे व्यवहार जैसा कुछ है तुम्हारे पास? तुम तो न अपने मांबाप की सगी हो न भाईभाभी की. न ससुराल में तुम्हें कोई पसंद करता है न मायके में. यहां तक कि पति भी तुम से खुश नहीं है. ऐसा कौन है तुम्हारा, जो तुम से प्यार कर के खुद को धन्य मानता है?’’

सन्न रह गई मीना. शायद यह आईना उसे मैं ही दिखा सकता था. आंखें फाड़फाड़ कर वह मुझे देखने लगी.

आगे पढ़ें- तुम तो बस, यही चाहती हो कि हर…

Serial Story: चुभन (भाग-3)

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‘‘तुम तो बस, यही चाहती हो कि हर कोने में तुम्हारा ही अधिकार हो. मायके का यह कमरा हो या ससुराल का घर, हर इंसान बस तुम्हारे ही चाहने पर कुछ चाहे या न चाहे. मीना, यह भी जान ले कि इनसान का हर कर्म, हर व्यवहार एक दिन पलट कर वापस आता है. इतना जहर न बांटो कि हर दिशा से बस जहर ही पलट कर तुम्हारे पास वापस आए.’’

रो पड़ा था मैं यह सोच कर कि कैसे इस पत्थर को समझाऊं. सामने खिड़की के पार मजदूरों के बच्चे खेल रहे थे. हाथ पकड़ कर मैं मीना को खिड़की के पास ले आया और बोला, ‘‘वह देखो, सामने उन बच्चों को. सोच सकती हो वे कैसी गरमी सह रहे हैं? तुम कूलर की ठंडी हवा में चैन से बैठी हो न. जरा सोचो अगर उन्हीं मजदूरों के घर तुम्हारा जन्म होता तो आज यही जलते कंकड़ तुम्हारा बिस्तर होते. तब कहां होते सब नाजनखरे? यह सब चोंचले तभी तक हैं जब तक सब सहते हैं.

‘‘तुम विनय की पत्नी का इतना अपमान करती हो, आज अगर वह तुम्हें कान से पकड़ कर बाहर निकाल दे तब कहां जाएगी तुम्हारी यह जिद, तुम्हारा लड़नाझगड़ना? क्यों मेरे साथसाथ इन सब का भी जीना हराम कर रखा है तुम ने?’’

अपना अनिश्चित भविष्य देख कर मैं घबरा गया था. शायद इसीलिए जैसे गया था वैसे ही लौट आया. किसी को मेरे वहां जाने का पता भी न चला. विनय बारबार फोन कर के ‘क्या हुआ, कैसे हुआ’ पूछता रहा. क्या कहता मैं उस से? कैसे कहता कि मेरी पत्नी उस की पत्नी का अपमान किस सीमा तक करती है.

शाम ढल आई. इतवार की पूरी छुट्टी जैसे रोते शुरू हुई थी वैसे ही बीत गई. रात के 8 बज गए. द्वार पर दस्तक हुई. देखा तो हाथ में बैग पकड़े मीना खड़ी थी. क्या सोच कर उस का स्वागत करूं कि घर की लक्ष्मी लौट आई है या मेरी जान को घुन की तरह चाटने वाली मुसीबत वापस आ गई है?

‘‘तुम?’’ मेरे मुंह से निकला.

बिना कुछ कहे मीना भीतर चली गई. शायद विनय छोड़ कर बाहर से ही लौट गया हो. दरवाजा बंद कर मैं भी भीतर चला आया. दिल ने खुद से प्रश्न किया, कैसे कोई बात शुरू करूं मैं मीना से? कोई भी द्वार तो खुला नजर नहीं आ रहा था मुझे. हाथ का बैग एक तरफ पटक वह बाथरूम में चली गई. वापस आई तब लगा उस की आंखें लाल हैं.

‘‘चाय लोगी या सीधे खाना ही खाओगी? वैसे खाना भी तैयार है. खिचड़ी खाना तुम्हें पसंद तो नहीं है पर मेरे लिए यही बनाना आसान था, इसलिए 15 दिन से लगभग यही खा रहा हूं.’’

आंखें उठा कर मीना ने मुझे देखा तो उस की आंखें टपकने लगीं. चौंकना पड़ा मुझे, क्योंकि यह रोना वह रोना नहीं था जिस पर मुझे गुस्सा आता था. पहली बार मुझे लगा मीना के रोने पर प्यार आ रहा है.

‘‘अरे, क्या हुआ, मीना? खिचड़ी नहीं खाना चाहतीं तो कोई बात नहीं, अभी बाजार से कुछ खाने के लिए ले आता हूं.’’

‘‘आप मुझे लेने क्यों नहीं आए इतने दिन? आज आए भी तो बिना मुझे साथ लिए चले आए?’’

‘‘तुम वापस आना चाहती थीं क्या?’’

हैरान रह गया मैं. बांहों में समा कर नन्ही बालिका सी रोती मीना का चेहरा ऊपर उठाया. लगा, इस बार कुछ बदलाबदला सा है. मुझे तो सदा यही आभास होता रहता था कि मीना को कभी प्यार हुआ ही नहीं मुझ से.

‘‘तुम एक फोन कर देतीं तो मैं चला आता. मुझे तो यही समझ में आया कि तुम आना ही नहीं चाहती हो.’’

सहसा कह तो गया, मगर तभी ऐसा भी लगा कि मैं भी कहीं भूल कर रहा हूं. मेरे मन में सदा यही धारणा रही, जो भी मिल जाए उसी को सिरआंखों पर लेना चाहिए. प्रकृति सब को एकसाथ सब कुछ नहीं देती, लेकिन थोड़ाथोड़ा तो सब को ही देती है. वही थोड़ा सा यदि बांहों में चला आया है तो उसे प्रश्नोत्तर में गंवा देना कहां की समझदारी है. क्या पूछता मैं मीना से? कस कर बांहों में बांध लिया. ऐसा लगा, वास्तव में सब कुछ बदल गया है. मीना का हावभाव, मीना की जिद. कहीं से तो शुरुआत होगी न, कौन जाने यहीं से शुरुआत हो.

तभी फोन की घंटी बजी और किसी तरह मीना को पुचकार कर उसे खुद से अलग किया. दूसरी तरफ विनय का घबराया सा स्वर था. वह कह रहा था कि मीना बिना किसी से कुछ कहे ही कहीं चली गई है. परेशान थे सब, शायद उन्हें यह उम्मीद नहीं थी कि वह मेरे पास लौट आएगी. मेरा उत्तर पा कर हैरान रह गया विनय.

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वह मुझे लताड़ने लगा कि पिछले 4-5 घंटे से मीना तुम्हारे पास थी तो कम से कम एक फोन कर के तो मुझे बता देते. उस के 4-5 घंटे घर से बाहर रहने की बात सुन कर मैं भौचक्का रह गया, क्योंकि मीना मेरे पास तो अभीअभी आई है.

एक नया ही सत्य सामने आया. कहां थी मीना इतनी देर से?

उस के मायके से यहां आने में तो 10-15 मिनट ही लगते हैं. मीना से पूछा तो वह एक नजर देख कर खामोश हो गई.

‘‘तुम दोपहर से कहां थीं मीना? तुम्हारे घर वाले कितने परेशान हैं.’’

‘‘पता नहीं कहां थी मैं.’’

‘‘यह तो कोई उत्तर न हुआ. अपनी किसी सहेली के पास चली गई थीं क्या?’’

‘‘मुझ से कौन प्यार करता है, जो मैं किसी के पास जाती? लावारिस हूं न मैं, हर कोई तो नफरत करता है मुझ से… मेरा तो पति भी पसंद नहीं करता मुझे.’’

फिर से वही तेवर, वही रोनापीटना, मगर इस बार विषय बदल गया सा लगा. मन के किसी कोने से आवाज उठी कि पति पसंद नहीं करता उस का कारण भी तुम जानती हो. जब इतना सब पता चल गया है तुम्हें तो क्या यह पता नहीं चलता कि पति की पसंद कैसे बना जाए.

प्रत्यक्ष में धीरे से मीना का हाथ पकड़ा और पूछा, ‘‘मीना, कहां थीं तुम दोपहर से?’’

मेरे गले से लग पुन: रोने लगी मीना. किसी तरह शांत हुई. उस के बाद, जो उस ने बताया उसे सुन कर तो मैं दंग ही रह गया.

मीना ने बताया, ‘‘घर की चौखट लांघते समय समझ नहीं पाई कि कहां जाऊंगी. आप ने सुबह ठीक ही कहा था, मेरी जिद तब तक ही है जब तक कोई मानने वाला है. मेरे अपने ही हैं, जो मेरी हर खुशी पूरी करना चाहते हैं. 4 घंटे स्टेशन पर बैठी आतीजाती गाडि़यां देखती रही… कहां जाती मैं?’’

विस्मित रह गया मैं मीना का चेहरा देख कर. सत्य है, जीवन से बड़ा कोई अध्यापक नहीं और इस संसार से बड़ी कोई पाठशाला कहीं हो ही नहीं सकती. सीखने की चाह हो तो इंसान यहां सब सीख लेता है. निभाना भी और प्यार करना भी. यह जो सख्ती विनय के परिवार ने अब दिखाई है यही अगर बचपन में दिखाई जाती तो मीना इतनी जिद्दी कभी नहीं होती. हम ही हैं जो कभीकभी अपना नाजायज लाड़प्यार दिखा कर बच्चों को जिद्दी बना देते हैं.

‘‘एक बार तो जी में आया कि गाड़ी के नीचे कूद कर अपनी जान दे दूं. समझ नहीं पा रही थी कि मैं कहां जाऊं,’’ मीना ने कहा और मैं अनिष्ट की सोच कर कांप गया. पसीने से भीग गया मैं. ऐसी कल्पना कितनी डरावनी लगती है.

मैं ने कस कर छाती में से लगा लिया मीना को. मीना जोश में आ कर कोई गलत कदम उठा लेती तो मेरी हालत क्या होती. मैं ऐसा कैसे कर पाया मीना के साथ. 15 दिन तक हालचाल भी पूछने नहीं गया और आज सुबह जब गया भी तो यह भी कह आया कि मीना का पति भी मीना से प्यार नहीं करता. रो पड़ा मैं अपनी नादानी पर. एक नपातुला व्यवहार तो मैं भी नहीं कर पाया न.

‘‘अजय, आप पसंद नहीं करते न मुझे?’’

‘‘मुझे माफ कर दो, मीना, मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था.’’

‘‘आप ने अच्छा किया जो ऐसा कहा. आप ऐसा नहीं कहते तो मुझे कुछ चुभता नहीं. कुछ चुभा तभी तो आप के पास लौट पाई.

‘‘मैं जानती थी, आप मुझे माफ कर देंगे. मैं यह भी जानती हूं कि आप मुझ से बहुत प्यार करते हैं. आप ने अच्छा किया जो ऐसा किया. मुझे जगाना जरूरी था.’’

मैं मीना के शब्दों पर हक्काबक्का था. स्वर तो फूटा ही नहीं मेरे होंठों से. बस, मीना के मस्तक पर देर तक चुंबन दे कर पूरी कथा को पूर्णविराम दे दिया. जो नहीं हुआ उस का डर उतार फेंका मैं ने. जो हो गया उसी का उपकार मान मैं ने ठंडी सांस ली.

‘‘मैं एक अच्छी पत्नी और एक अच्छी मां बनने की कोशिश करूंगी,’’ रोतेरोते कहने लगी मीना और भी न जाने क्याक्या कहा.

अंत भला तो सब भला. लेकिन एक चुभन मुझे भी कचोट रही थी कि कहीं मेरा व्यवहार अनुचित तो नहीं था?

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पिघलते पल: क्या फिर बस पाई मानव और मिताली की गृहस्थी?

Serial Story: पिघलते पल (भाग-3)

अभि के साथ मिताली को देख कर मानव चौंक गया. आंखें चार हुईं. आज मिताली के चेहरे पर हमेशा की तरह कठोरता नहीं थी. बहुत समय बाद देख रहा था मिताली को… जिंदगी के संघर्ष ने उस के रूपलावण्य को कुछ धूमिल कर दिया था. किसी का प्यार, किसी की सुरक्षा जो नहीं थी उस की जिंदगी में… लेकिन उसे क्या… उस ने अपने विचारों को झटका दिया. तीनों चुपचाप खड़े थे. अभि बड़ी उम्मीद से दोनोें को देख रहा था कि दोनों कोई बात करेंगे. बहुत कुछ कहने को था दोनों के दिलों में पर शब्द साथ नहीं दे रहे थे.

‘‘चलें अभि,’’ आखिर उन के बीच पसरी चुप्पी को तोड़ते हुए मानव ने सिर्फ इतना ही कहा. फिर से मिताली से आंखें चार हुईं तो उसे लगा कि मिताली की आंखों में आज कुछ नमी है. मानव को भी अपने अंदर कुछ पिघलता हुआ सा लगा. बिना कुछ कहे वह मुड़ने को हुआ.

तभी मिताली बोल पड़ी, ‘‘मानव.’’

इतने समय बाद मिताली के मुंह से अपना नाम सुन कर मानव ठिठक गया.

‘‘कल अभि के स्कूल में पेरैंट्सटीचर मीटिंग है. क्या तुम थोड़ा समय निकाल कर आ सकते हो… अभि को अच्छा लगेगा.’’

मानव का दिल किया, हां बोले, पर प्रत्युत्तर में बोला, ‘‘मुझे टाइम नहीं है… कल टूअर पर निकलना है,’’ कह कर बिना उस की तरफ देखे ड्राइविंग सीट पर बैठ गया और अभि के लिए दरवाजा खोल दिया. निराश सा अभि भी आ कर कार में बैठ गया.

मिताली अपनी जगह खड़ी रह गई. उस का दिल किया कि वह मानव को आवाज दे, कुछ बोले पर तब तक मानव कार स्टार्ट कर चुका था. मानव और अपने बीच जमी बर्फ को पिघलाने की मिताली की छोटी सी कोशिश बेकार सिद्ध हुई. वह ठगी सी खड़ी रह गई. मानव के इसी रुख के डर ने उसे हमेशा कोशिश करने से रोका. थके कदमों से वह घर की तरफ चल दी.

शाम को अभि घर आया तो मिताली ने हमेशा के विपरीत उस से कुछ नहीं पूछा. अभि भी गुमसुम था. आज उस का व मानव का अधिकांश समय अपनेआप में खोए हुए ही बीता था. अभि ने एक बार भी मानव से पेरैंट्सटीचर मीटिंग में आने की जिद्द नहीं की.

अभि को छोड़ कर मानव जब घर पहुंचा तो मिताली व मिताली की बात दिलदिमाग में छाई थी और साथ ही अभि की बेरुखी भी चुभी हुई थी. अभि ने एक बार भी उसे आने के लिए नहीं कहा. शायद उसे उस से ऐसे उत्तर की उम्मीद नहीं थी. सोचतेसोचते अनमना सा मानव कपड़े बदल कर बिना खाना खाए ही सो गया.

दूसरे दिन मिताली अभि के साथ स्कूल पहुंची. वे दोनों अभि की क्लास के बाहर पहुंचे तो सुखद आश्चर्य से भर गए. मानव खड़ा उन का इंतजार कर रहा था. उसे देख कर अभि मारे खुशी के उछल पड़ा.

‘‘पापा,’’ कह कर वह दौड़ कर मानव से लिपट गया. उस की उस पल की खुशी देख कर दोनों की आंखें नम हो गईं. मिताली पास आ गई. उस के होंठों पर मुसकान खिली थी.

‘‘थैंक्स मानव… अभि को इतनी खुशी देने के लिए.’’

जवाब में मानव के चेहरे पर फीकी सी मुसकराहट आ गई.

पेरैंट्सटीचर मीटिंग निबटा कर दोनों बाहर आए तो उत्साहित सा अभि मानव से अपने दोस्तों को मिलाने लगा. उस की खुशी देख कर मानव को अपने निर्णय पर संतुष्टि हुई. उसे उस के दोस्तों के बीच छोड़ कर मानव उसे बाहर इंतजार करने की बात कह कर बाहर निकल आया. पीछेपीछे खिंची हुई सी मिताली भी आ गई.

दोनों कार के पास आ कर खड़े हो गए. दोनों ही कुछ बोलना चाह रहे थे पर बातचीत का सूत्र नहीं थाम पा रहे थे. इसलिए दोनों ही चुप थे.

‘‘अभि बहुत खुश है आज,’’ मिताली किसी तरह बातचीत का सूत्र थामते हुए बोली.

‘‘हां, बच्चा है… छोटीछोटी खुशियां हैं उस की,’’ और दोनों फिर चुप हो गए.

‘‘ठीक है… मैं चलता हूं. अभि से कह देना मुझे देर हो रही थी… रविवार को आऊंगा,’’ थोड़ी देर की चुप्पी के बाद मानव बोला और फिर पलटने को हुआ.

‘‘मानव,’’ मिताली के ठंडे स्वर में पश्चात्ताप की झलक थी, ‘‘एक बात पूछूं?’’

मानव ठिठक कर खड़ा हो गया. बोला, ‘‘हां पूछो,’’ और फिर उस ने मिताली के चेहरे पर नजरें गड़ा दीं, जहां कई भाव आ जा रहे थे.

मिताली चुपचाप थोड़ी देर खड़ी रही जैसे मन ही मन तोल रही हो कि कहे या न कहे.

‘‘पूछो, क्या पूछना चाहती हो.’’

मानव का अपेक्षाकृत कोमल स्वर सुन कर मिताली का दिल किया कि जिन आंसुओं को उस ने अभी तक पलकों की परिधि में बांध रखा है, उन्हें बह जाने दे. पर प्रत्यक्ष में बोली, ‘‘सच कहो, क्या कभी इन 2 सालों में मेरी कमी नहीं खली तुम्हें… क्या मेरे बिना जीवन से खुश हो?’’ मिताली का स्वर थका हुआ था. लग रहा था कि ये सब कहने के लिए उसे अपनेआप से काफी संघर्ष करना पड़ा होगा, लेकिन कह दिया तो लग रहा था कि कितना आसान था कहना. कह कर वह मानव के चेहरे पर नजर डाल कर उस के चेहरे पर आतेजाते भावों को पढ़ने का असफल प्रयास करने लगी.

‘‘क्या तुम्हें मेरी कमी खली? क्या तुम खुश हो मेरे बिना जिंदगी से?’’ पल भर की चुप्पी के बाद मानव बोला.

मिताली को समझ नहीं आया कि तुरंत क्या जवाब दे मानव की बातों का, इसलिए चुप खड़ी रही.

‘‘छोड़ो मिताली,’’ उसे चुप देख कर मानव बोला, ‘‘अब इन बातों का क्या फायदा… इन बातों के लिए अब बहुत देर हो चुकी है.’’

‘‘जब देर नहीं हुई थी तब भी तो तुम ने एक बार भी नहीं बुलाया,’’ सप्रयास मिताली बोली. उस का स्वर भीगा था.

‘‘मैं ने बुलाया नहीं तो मैं ने घर छोड़ने के लिए भी नहीं कहा था. घर तुम ने छोड़ा. तुम्हें इसी में अपनी खुशी दिखी. जैसे अपनी मरजी से घर छोड़ा था वैसे ही अपनी मरजी से लौट भी सकती थीं,’’ मिताली के स्वर का भीगापन मानव के स्वर को भी भिगो गया था.

‘‘एक बार तो बुलाया होता मैं लौट आती,’’ मिताली का स्वर अभी भी नम था.

‘‘तुम तब नहीं लौटती मिताली. ऐसा ही होता तो तुम घर छोड़ती ही क्यों. घर छोड़ते समय एक बार भी अपने बारे में न सोच कर अभि के बारे में सोचा होता तो तुम्हारे कदम कभी न बढ़ पाते. तुम्हारी जिद्द या फिर मेरी जिद्द हम दोनों की जिद्द में मासूम अभि पिस रहा है. उस का बचपन छिन रहा है. उस का व्यक्तित्व खंडित हो रहा है. क्या दे रहे हैं हम उसे… न खुद खुश रह पाए न औलाद को खुशी दे पाए,’’ कह कर अपने नम हो आए स्वर को संयत कर मानव कार की तरफ मुड़ गया.

कार का दरवाजा खोलते हुए मानव ने पलट कर पल भर के लिए मिताली की तरफ देखा. क्या था उन निगाहों में कि मिताली का दिल किया कि सारा मानअभिमान भुला कर दौड़ कर जा कर मानव से लिपट जाए. इसी पल उस के साथ चली जाए.

एकाएक मानव वापस उस के करीब आया. लगा वह कुछ कहना चाहता है पर वह कह नहीं पा रहा है.

‘‘हां,’’ उस ने अधीरता से मानव की तरफ देखा.

‘‘नहीं कुछ नहीं,’’ कह कर मानव जिस तेजी से आया था उसी तेजी से वापस मुड़ कर ड्राइविंग सीट पर बैठ गया. कार स्टार्ट की और चला गया. वह खोई हुई खड़ी रह गई कि काश मानव कह देता जो कहना चाहता था पर उस का आत्मसम्मान आड़े आ गया था शायद.

अभि के साथ घर पहुंची. अभि उस दिन बहुत खुश था. वह ढेर सारी बातें बता रहा था. खुशी उस के हर हावभाव, बातों व हरकतों से छलक रही थी. ‘कितना कुछ छीन रहे हैं हम अभि से,’ वह सोचने लगी.

कुछ पल ऐसे आ जाते हैं पतिपत्नी के जीवन में जो पिघल कर पाषाण की तरह कठोर हो कर जीवन की दिशा व दशा दोनों बदल देते हैं और कुछ ही पल ऐसे आते हैं जो मोम की तरह पिघल कर जीवन को अंधेरे से खींच कर मंजिल तक पहुंचा देते हैं. उस के और मानव के जीवन में भी वही पल दस्तक दे रहे थे और वह इन पलों को अब कठोर नहीं होने देगी.

दूसरे दिन मानव औफिस जाने के लिए तैयार हो रहा था कि दरवाजे की घंटी बज उठी. ‘कौन हो सकता है इतनी सुबह’, सोचते हुए उस ने दरवाजा खोला तो सामने मिताली और अभि को मुसकराते हुए पाया. वह हैरान सा उन्हें देखता रह गया.

‘‘तुम दोनों?’’ उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

‘‘अंदर आने के लिए नहीं कहोगे मानव?’’ मिताली संजीदगी से बोली.

‘‘तुम अपने घर आई हो मिताली… मैं भला रास्ता रोकने वाला कौन होता हूं,’’ कह मानव एक तरफ हट गया.

मिताली और अभि अंदर आ गए. मानव ने दरवाजा बंद कर दिया. उस ने खुद से मन ही मन कुछ वादे किए. अब वह अपनी खुशियों को इस दरवाजे से कभी बाहर नहीं जाने देगा.

 

Serial Story: पिघलते पल (भाग-2)

मानव और मिताली के झगड़े दिनोंदिन बढ़ते चले गए. धीरेधीरे झगड़ों की जगह शीतयुद्ध ने ले ली. दोनों के बीच बातचीत बंद या बहुत ही कम होने लगी. फिर एक दिन मिताली ने विस्फोट कर दिया यह कह कर कि उसे नौकरी मिल गई है और उस ने औफिस के पास ही एक फ्लैट किराए पर ले लिया है. वह और अभि अब वहीं जा कर रहेंगे.

मानव हैरान रह गया. उस ने कहना चाहा कि अकेले वह नौकरी के साथ अभि को कैसे पालेगी और यदि नौकरी करनी ही है तो यहां रह कर भी कर सकती है. लेकिन उस का स्वाभिमान आड़े आ गया कि जब मिताली को उस की परवाह नहीं तो उसे क्यों हो. फिर मिताली ने उसी दिन नन्हे अभि के साथ घर छोड़ दिया. तब से अब तक 2 साल होने को आए हैं, 6 साल का अभि 8 साल का हो गया है. मानव की जिंदगी नौकरी के बाद इन 2 घरों की दूरी नापने में ही बीत रही थी.

तभी रैड लाइट पर मानव ने कार को ब्रैक लगाए तो उस की तंद्रा भंग हुई. कब तक चलेगा यह सब. वह पूरीपूरी कोशिश करता कि अभी का व्यक्तित्व उन के झगड़ों और मनमुटावों से प्रभावित न हो. उसे दोनों का प्यार मिले. लेकिन ऐसा हो ही नहीं पा रहा. नन्हे अभि का व्यक्तित्व 2 भागों में बंट गया था. बड़े होते अभि के व्यक्तित्व में अधूरेपन की छाप स्पष्ट दिखने लगी थी.

तभी सिगनल ग्रीन हो गया. मानव ने अपनी कार आगे बढ़ा दी. घर पहुंचा तो मन व्यथित था. अभि के अनगिनत सवालों के उस के पास जवाब नहीं थे. वह सोचने लगा कि इतने ही सवाल अभि मिताली से भी करता होगा, क्या उस के पास होते होंगे जवाब… आखिर कब तक चलेगा ऐसा?

दोनों के मातापिता ने पहलेपहल दोनों को समझाया, लेकिन दोनों ही झुकने को तैयार नहीं हुए. आखिर थकहार कर दोनों के मातापिता चुप हो गए. पर पिछले कुछ समय से मानव के मातापिता जो बातें दबेढके स्वर में कहते थे अब वे स्वर मुखर होने लगे थे कि ऐसा कब तक चलेगा मानव… साथ में नहीं रहना है तो तलाक ले लो और जिंदगी दोबारा शुरू करने के बारे में सोचो.

यह बात मानव के तनबदन में सिहरन पैदा कर देती कि क्या इतना सरल है एक अध्याय खत्म करना और दूसरे की शुरुआत करना… आखिर उस की जो व्यस्तता आज है वह तब भी रहेगी और फिर अभि? उस का क्या होगा? फिर वही प्रश्नचिह्न उस की आंखों के आगे आ जाता. आखिर क्या करे वह… बहुत चाहा उस ने कि जिस तरह मिताली खुद ही घर छोड़ कर गई है वैसे ही खुद लौट भी आए, लेकिन इस इंतजार को भी 2 साल बीत गए. खुद उस ने कभी बुलाने की कोशिश नहीं की. अब तो जैसे आदत सी पड़ गई है अकेले रहने की.

इधर अभि घर के अंदर दाखिल हुआ तो सीधे अपने कमरे में चला गया. उस का नन्हा सा दिल भी इंतजार करतेकरते थक गया था. कब मम्मीपापा एकसाथ रहेंगे. वह खिन्न सा अपनी स्टडी टेबल पर बैठ गया. हर हफ्ते रविवार आता है. पापा आते हैं, उसे ले जाते हैं, घुमातेफिराते हैं, उस की पसंद की चीजें दिलाते हैं, उस की जरूरतें पूछते हैं और शाम को घर छोड़ देते हैं. मम्मी सोमवार से अपने औफिस चल देती हैं और वह अपने स्कूल. हफ्ता बीतता है. फिर रविवार आता है. वही एकरस सी दिनचर्या. कहीं मन नहीं लगता उस का. पापा के साथ रहता है तो मम्मी की याद आती है और मम्मी के साथ रहता है तो पापा की याद आती है. पता नहीं मम्मीपापा साथ क्यों नहीं रहते?

तभी मिताली अंदर आ गई. उसे ऐसे अनमना सा बैठा देख कर पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा? कैसा रहा तुम्हारा दिन आज?’’

अभि ने कोई जवाब नहीं दिया. वैसे ही चुपचाप बैठा रहा.

‘‘क्या हुआ बेटा?’’ वह उस के बालों में उंगलियां फिराते हुए बोली.

‘‘कुछ नहीं,’’ कह कर अभि ने मिताली का हाथ हटा दिया.

‘‘तुम ऐसे चुपचाप क्यों बैठे हो? किसी ने कुछ कहा क्या तुम्हें?’’

‘‘नहीं,’’ वह तल्ख स्वर में बोला. फिर क्षण भर बाद उस की तरफ मुंह कर उस का हाथ पकड़ कर बोला, ‘‘मम्मी, यह बताओ कि हम पापा के पास जा कर कब रहेंगे? हम पापा के साथ क्यों नहीं रहते? मुझे अच्छा नहीं लगता पापा के बिना… चलिए न मम्मी हम वहीं चल कर रहेंगे.’’

‘‘बेकार की बात मत करो अभि,’’ मिताली का कोमल स्वर कठोर हो गया, ‘‘रात काफी हो गई है. खाना खाओ और सो जाओ. सुबह स्कूल के लिए उठना है.’’

‘‘नहीं, पहले आप मेरी बात का जवाब दो,’’ अभि जिद्द पर आ गया.

‘‘अभि कहा न कि बेकार की बातें मत करो. हम यहीं रहेंगे… खाना खाओ और सो जाओ,’’ कह कर मिताली हाथ छुड़ा कर किचन में चली गई.

अभि बैठा रह गया. ‘दोनों ही उसे जवाब देना नहीं चाहते. जब भी वह सवाल करता है दोनों ही टाल देते हैं या फिर डांट देते हैं. आखिर वह क्या करे,’ वह सोच रहा था.

काम खत्म कर के मिताली कमरे में आई तो अभि खाना खा कर सो चुका था. वह उस के मासूम चेहरे को निहारने लगी. कितनी समस्याओं से भरा था अभि के लिए उस का बचपन. वह उस के पास लेट कर उस का सिर सहलाने लगी. अभि के सवालों के जवाब नहीं हैं उस के पास. निरुद्देश्य सी जिंदगी बस बीती चली जा रही है. वह गंभीरता से बैठ कर कुछ सोचना नहीं चाहती. एक के बाद एक दिन बीता चला जा रहा है. कब तक यह सिलसिला यों ही चलता रहेगा. अभि बड़ा हो रहा है. उस के मासूम से सवाल कब जिद्द पर आ कर कल कठोर होने लगें क्या पता.

मानव के साथ भी जिंदगी बेरंग सी हो रही थी पर उस से अलग हो कर भी कौन से रंग भर गए उस की जिंदगी में. उस समय तो बस यही लगा कि मानव को सबक सिखाए ताकि वह उस की कमी महसूस करे. अपनी जिंदगी में वह पत्नी के महत्त्व को समझे. पर यह सब बेमानी ही साबित हुआ. शुरूशुरू में उस ने बहुत इंतजार किया मानव का कि एक न एक दिन मानव आएगा और उसे मना कर ले जाएगा. कुछ वादे करेगा उस से और वह भी सब कुछ भूल कर वापस चली जाएगी पर मानव के आने का इंतजार बस इंतजार ही रह गया. न मानव आया और न वह स्वयं ही वापस आ गई.

हर बार सोचती जब मानव को ही उस की परवाह नहीं, उसे उस की कमी नहीं खलती तो वही क्यों परवाह करे उस की. और दिन बीतते चले गए. देखतेदेखते 2 साल गुजर गए. उन दोनों के बीच की बर्फ की तह मोटी होतेहोते शिलाखंड बन गई. धीरेधीरे वह इसी जिंदगी की आदी हो गई. पर इस एकरस दिनचर्या में अभि के सवाल लहरें पैदा कर देते थे. वह समझ नहीं पाती आखिर यह सब कब तक चलेगा.

कल मां फोन पर कह रही थीं कि यदि उसे वापस नहीं जाना है तो अब अपने भविष्य के बारे में कोई निर्णय ले. कुछ आगे की सोचे. आगे का मतलब तलाक और दूसरी शादी. क्या सब इतना सरल है और अभि? उस का क्या होगा. वह भी शादी कर लेगी और मानव भी तो अभि दोनों की जिंदगी में अवांछित सा हो जाएगा.

यह सोच आते ही मिताली सिहर गई कि नहीं और फिर उस ने अभि को अपने से चिपका लिया. पहले ही कितनी उलझने हैं अभि की जिंदगी में. वह उस की जिंदगी और नहीं उलझा सकती. वह लाइट बंद कर सोने का प्रयास करने लगी. पता नहीं क्यों आज दिल के अंदर कुछ पिघला हुआ सा लगा. लगा जैसे दिल के अंदर जमी बर्फ की तह कुछ गीली हो रही है. कुछ विचार जो हमेशा नकारात्मक रहते थे आज सकारात्मक हो रहे थे. समस्या को परखने का नजरिया कुछ बदला हुआ सा लगा. वह खुद को ही समझने का प्रयास करने लगी. सोचतेसोचते न जाने कब नींद आ गई.

सुबह अभि उठा तो सामान्य था. वैसे भी कुछ बातों को वह अपनी नियति मान चुका था. वह स्कूल के लिए तैयार होने लगा. अभि को स्कूल भेज कर वह भी अपने औफिस चली गई. सब कुछ वही था फिर भी दिल के अंदर क्या था जो उसे हलकी सी संतुष्टि दे रहा था… शायद कोई विचार या भाव… पूरा हफ्ता हमेशा की तरह व्यस्तता में बीत गया. फिर रविवार आ गया.

मानव जब बिल्डिंग के नीचे अभि को लेने पहुंचता तो अभि को फोन कर देता और अभि नीचे आ जाता. पर आज मिताली अभि के साथ नीचे आ गई. अभि के लिए यह आश्चर्य की बात थी.

आगे पढ़ें- अभि के साथ मिताली को देख कर…

हां, अनि: सुनिल की जिंदगी में क्यों लौटी बेदर्द सीमा?

हां, अनि: भाग-2

पिछला भाग पढ़ने के लिए- हां, अनि: भाग-1

सहसा तभी होटल मैनेजर ने स्टेज पर ताली बजाते हुए लोगों का ध्यान खींचा और माइक में बोला, ‘लेडीज एंड जेंटल मैन, जैसा कि आप सब जानते हैं, आज हम इस प्रिंस होटल की सिल्वर जुबली मनाने जा रहे हैं. पिछले अनेक सालों से निरंतर हमें आप का जो अपार स्नेह व भरपूर सहयोग मिलता रहा है, उस के लिए यह होटल आप सब का आभारी है, और आशा नहीं, पूर्ण विश्वास है कि भविष्य में भी हमें आप सब का इसी तरह सहयोग मिलता रहेगा.

‘आज के स्पेशल डांस प्रोग्राम में सर्वप्रथम आप बाल रूम डांस का लुत्फ उठाएंगे, फिर टैब डांस का और अंत में आर्केस्ट्रा की धुन में तेजी आ जाएगी, जो हर पल बढ़ती ही रहेगी. आखिर तक इस तीव्र धुन पर नाचने वाला जोड़ा, आज के डांस प्रोग्राम का विनर प्राइज हासिल करेगा.’

हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा.

नृत्य आरंभ हो गया. आर्केस्ट्रा की धीमी व मीठी धुन हाल में रस घोलने लगी. चारों तरफ एक अजीब सा उन्माद छा गया. जवान क्या, बूढे़ भी एकदूसरे की कमर में बांहें डाल थिरकते हुए डांसिंग फ्लोर पर आ गए, धीमी गति के नृत्य का मधुर समां देखते ही बनता था.

रात के उस दौर में शराब और शबाब का अनूठा मेल पा कर मेरा सूफी मन भी उस में डूब जाने को मचल उठा. उस ‘गुलाबी प्रिया’ को यथावत बैठी देख मैं प्रसन्नता से झूमता चला गया.

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‘आई एम सुनील कुमार,’ नाम बताते हुए उस से बोला, ‘क्या आप मेरे साथ डांस करेंगी?’

‘श्योर,’ वह मुसकरा दी, ‘मुझे रोजी कहते हैं.’

‘वेरी गुड,’ मैं चहका, ‘आप के पेरेंट्स ने बहुत सोचसमझ कर यह नाम रखा होगा?’

‘नहीं, ऐसा नहीं है,’ रोजी पुन: मुसकराने लगी और उठ कर अपना खूबसूरत एवं नाजुक हाथ बढ़ाते हुए बोली, ‘आइए, डांस करें.’

कहीं फिर न चूक जाऊं, इसलिए प्यार से उस का हाथ पकड़ते हुए मैं ने ‘थैंक्यू’ कहा. नृत्य में वह इस कदर खुल कर पेश आई मानो हम पहले से एकदूसरे को जानते हों. खैर, उस रात विशेष डांस प्रोग्राम में रोजी के साथ मुझे ही ‘ताजमहल’ मिला, लेकिन विदा होते समय जब उसे प्राइज सौंपा तो वह उदास लगी, मानो उस की उम्मीदों पर मैं खरा नहीं उतरा.

इस के बाद रोजी कई बार क्लब, होटल, सिनेमा, समंदर के किनारे आदि जगहों पर मिली लेकिन वह हमेशा जल्दी में होती जबकि मैं निरंतर महसूस करता कि वह जानबूझ कर ऐसा करती है. उस की चेष्टा कतरा जाने में रहती है. अचानक ही सामने आ जाने से उस के चेहरे पर नागवारी के जो भाव उभरते उन्हें आसानी से मैं पढ़ लेता. उसे मानो मेरा मिलना अखरता हो.

वह मेरे होशोहवास पर इस तरह छा गई कि मैं एकांत में छटपटा उठता और तब मुझे ऐसा लगता कि उस के बगैर वजूद अधूरा है. प्राय: मैं सोचता, ज्यों ही वह मिलेगी तो फौरन उस के आगे पे्रम का इजहार कर दूंगा, लेकिन रोजी की व्यस्तता और जल्दबाजी…कुछ कहने का मौका न देती.

एक दिन सोचा कि बात ऐसे नहीं बनेगी, अत: रोजी के वास्ते मैं ने एक पत्र लिखा, जिस में प्रेम के साथसाथ उस से विवाह रचाने की इच्छा भी प्रकट की और अब वह पत्र सदा जेब में रहता, ताकि मिलते ही उसे थमा दूं.

सहसा एक दिन शाम को वह सड़क पर भीड़ में जाती दिखाई दी. मैं ने जोर से नाम ले कर उसे पुकारा. उस ने चौंक कर पीछे देखा. मैं ने झट से गाड़ी फुटपाथ के साथ ले जा कर रोक दी तो उसे नजदीक आना ही पड़ा.

‘हाय, रोजी.’

‘हाय…’ मुसकराने के बावजूद उस के चेहरे पर बेरुखी उभर आई. सफेद पैंट और टौप पर खुली केश राशि में वह बिजलियां गिराती नजर आई.

मैं कह उठा, ‘आओ, जुहू पर टहलें.’

‘सौरी, आज फिर बिजी हूं,’ खेद भरे स्वर में वह बोली.

‘आओ तो सही, जहां कहोगी वहां उतार दूंगा.’

दिल की बात कहने के लिए इतना सफर ही बहुत होगा.

‘बेकार आप को परेशान…’

‘मैं फुरसत में हूं,’ उतावलेपन से मैं उस की बात बीच में काटते हुए बोला तो उस से इनकार करते न बन पड़ा.

कार का अगला गेट खोलते हुए वह चुपचाप मेरी बाजू में आ कर बैठ गई. उस के बदन का मधुर स्पर्श पाते ही बात कहां से शुरू करूं समझ में न आया और कुछेक क्षण यों ही निकल गए.

‘मुझे यहीं उतरना है,’ रोजी ने कहा.

‘ठहरो रोजी.’

जातेजाते वह पलटी. मैं ने पत्र निकाल कर उसे देते हुए भारी स्वर में कहा, ‘एकांत में इसे जरूर पढ़ लेना.’

रोजी उसे ले कर भीड़ में समा गई. मैं ने देखा, वह क्लब के सामने उतरी है.

अगली मर्तबा मिलते ही रोजी खिलखिला कर हंस पड़ी.

मैं अवाक् सा मोतियों की भांति चमकते उस के दांत देखता रह गया. हंसतेहंसते उस की आंखें नम हो गईं. थोड़ी देर बाद अपनी हंसी पर काबू पाते हुए वह बोली, ‘बस, इतनी सी बात के लिए कागज रंग डाला. कितनी बार तो मिली हूं? कभी भी कह दिया होता.’

‘तुम्हारी व्यस्तता और जल्दबाजी ने मौका ही कब दिया?’

एकाएक रोजी गंभीर हो गई. माथा सिलवटों से भर गया. मानो किसी उलझन में फंस गई हो…हां…कहेगी या ना? सोचते हुए मैं ने उसे टोका, ‘जवाब दो, रोजी.’

उस की चंचलता पुन: लौट आई और वह अपने आंसू इतनी सफाई से पी गई कि मैं देख कर दंग रह गया. ‘बेकार शादी के लफड़े में क्यों पड़े हो?’ जबरन हंसते हुए उस ने कहा, ‘मैं तो यों ही तुम्हारी बन जाने को तैयार हूं, चलो, कहां ले जाना चाहते हो मुझे?’

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रोजी, अश्लीलता की सारी हदें पार कर गई थी. निर्लज्जता से भरा यह निमंत्रण पा कर मन में आया कि एक जोरदार थप्पड़ उस के गाल पर जड़ दूं, लेकिन कुछ सोचते हुए दुख, आश्चर्य व क्रोध से कसमसा कर रह गया.

‘मुझे तुम से यह उम्मीद नहीं थी, रोजी.’

‘गलती की, जो एक सेक्स वर्कर से आप कोई दूसरी उम्मीद कर बैठे.’

आगे पढ़ें- रोजी ने मानो पिघला हुआ शीशा…

हां, अनि: भाग-1

कहानी- कृष्ण कुमार भगत

सीमा के संदर्भ में मैं ने एक कविता संग्रह ‘आओ, इस जर्जर घड़ी को बदल डालें’ शीर्षक से लिखा था, जिस की याद अब मुझे आ रही है और अनिता अक्षरश: उसे सुनाने लगी. मेरे अपने ही शब्द आज मुझे कितने भोथरे महसूस हो रहे हैं.

‘‘जितनी जल्दी हो सके…आओ इस जर्जर घड़ी को बदल डालें. वरना हरगिज माफ नहीं करेंगी हमें…आने वाली हमारी नस्लें…’’

सीमा, यानी अनिता की पुरानी सहेली, इतनी जल्दी वह घर आ धमकेगी, वह भी मेरी गैरमौजूदगी में, यह तो बिलकुल न सोचा था. कल शाम को बाजार में शौपिंग करते हुए अचानक वह मिल गई तो मैं चौंक उठा, जबकि उस के चेहरे पर ऐसा कोई भाव न उभरा था.

‘‘सुनील, यह सीमा है,’’ अनिता ने परिचय दिया, ‘‘मेरी प्रिय सखी.’’

‘‘बड़ी खुशी हुई आप से मिल कर,’’ औपचारिकता के नाते कहना पड़ा. कड़वा सच एकदम से उगला भी तो नहीं जाता.

‘‘किसी हसीन लड़की से साली का रिश्ता जुड़ जाने पर भला कौन खुश नहीं होगा,’’ निसंकोच सीमा ने कहा और हंस पड़ी. वही 3 साल पुराना चेहरा, वही रूपरंग, कातिल अदा, मोतियों से चमकते दांत, कुदरती गुलाबी होंठ और उसी तरह गालों को चूमती 2 आवारा लटें, कुछ भी तो न बदली थी वह. हां, उस का यह नाम जरूर पहली बार सुना और अपनी बात पर स्वयं ही खिलखिला उठना कतई न सुहाया. मन में दबी नफरत की चिंगारी भड़क उठी और ‘साली का संबोधन’ अंगारे की तरह अंदर जलाता चला गया.

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‘‘अच्छा, मैं चलूं, अनिता,’’ सहसा वह बोली.

मैं उस से पूछना चाहता था कि इतना कह देने भर से ही क्या तुम छूट जाओगी और मेरी यादों के कैनवास पर से तुम्हारे चरित्र के दाग मिट जाएंगे?

‘‘ऐसी भी क्या जल्दी है,’’ अनिता ने कहा, ‘‘इतने बरसों बाद तो मिली हो, घर चलो, आराम से बैठ कर बातें करेंगे.’’

‘‘फिर कभी आऊंगी, अभी जल्दी में हूं, अपना पता दे दो.’’

अनिता ने उसे अपना विजिटिंग कार्ड थमा दिया था.

रात भर मैं यही सोचता रहा कि उस ने अनिता के सामने ऐसा क्यों जताया कि हम पहली बार मिले हैं. क्या वह मुझे उस पत्र से ब्लैकमेल करना चाहती है, जिस में प्रेम के साथसाथ मैं ने उस से विवाह करने की इच्छा भी जाहिर की थी? ऐसी लड़कियों का भरोसा ही क्या? आज सारा दिन आफिस में भी दिमाग अशांत रहा. शाम को थकाहारा घर लौटा तो अनिता ने ठंडे पानी के साथ गरमागरम खबर दी, ‘‘दोपहर में सीमा आई थी.’’

सुनते ही मैं सोफे पर से उछल पड़ा, कई सवाल दिमाग में कौंधे…क्यों वह मेरे शांत व सुखी घरेलू जीवन में तूफान लाने पर तुली है अनिता, अब तक मां नहीं बन सकी तो क्या हुआ, दोनों में अच्छा तालमेल तो है.

‘‘रहने की तलाश में है बेचारी,’’ अनिता ने बताया, ‘‘अपने पड़ोस में खाली पड़ा मकान तय करवा दिया है और कह रही थी, प्लीज जीजाजी से सिफारिश कर के कहीं काम पर रखवा देना.’’

मैं बोला, ‘‘देखूंगा.’’

‘‘देखूंगा नहीं,’’ अनिता ने जोर दिया, ‘‘उसे सर्विस दिलानी है, वह आप की बहुत प्रशंसा कर रही थी.’’

‘‘क्या कह रही थी?’’

‘‘ऐसा नेक पति भाग्य से मिलता है,’’ पत्नी के होंठों पर मंदमंद मुसकान देख…मेरा चोर मन बोला कि निश्चय ही यह सबकुछ जान कर…अब मजा ले रही है.

‘‘शोख और चंचल है ना, इसलिए मजाक भी कर रही थी.’’

‘‘क्या?’’

‘‘जानेमन, शादी से पहले अगर जनाब को देख लेती तो तुम्हारी जगह आज मैं होती,’’ शुक्र है, लेकिन तभी अनिता ने यह कह कर मुझे फिर झटका दिया, ‘‘मैं देख रही हूं…कल शाम से आप कुछ अपसेट हैं?’’

‘‘नहीं, मैं ठीक हूं,’’ स्वयं को संभालते हुए मैं ने कहा, ‘‘एक बात कहूं अनि, मानोगी?’’

‘‘कहो.’’

‘‘सीमा से अब तुम्हारा मेलजोल बढ़ाना ठीक नहीं.’’

‘‘क्यों?’’ वह सकपका गई, ‘‘क्या दोष है उस में?’’

दोष, यह पूछो, क्या दोष नहीं है उस में? पर इतना कह न पाते हुए मैं बोला, ‘‘हमारा स्तर उस से…’’

‘‘यह तो कोई बात न हुई,’’ अनिता ने एकदम से कहा, ‘‘आखिरकार वह मेरी पुरानी दोस्त है.’’

इस विषय को बदलने के लिए मैं कपड़े बदल कर हाथ में रिमोट ले कर टीवी खोलता हूं, पर यह क्या? हर चैनल पर सीमा मौजूद है. झल्ला कर रिमोट, मेज पर रखते हुए अपनी एक पत्रिका उठा लेता हूं, उस के पन्नों पर भी वही चेहरा दिखता है तो हार कर पत्रिका मेज पर पटक देता हूं और अपने दोनों पैर मेज पर फैला कर व सिर सोफे पर टिकाते हुए पलकें मूंद लेता हूं, तो सीमा, नहींनहीं, रोजी का चेहरा सजीव होने लगता है.

मुंबई के ‘प्रिंस’ होटल की रजत जयंती का मौका था. उस रात होटल में नृत्य का एक विशेष कार्यक्रम आयोजित हुआ था. कार्यक्रम शुरू होने में अभी कुछ देर थी. मैं डिनर ले कर अपनी मेज पर अकेला ही काफी पीने लगा. सहसा 2 नारी स्वरों ने चौंका दिया. कनखियों से उधर देखा तो बस, देखता ही रह गया. वहां 2 नव- युवतियां एक मेज पर बैठी नजर आईं, उन में एक सांवली सी गदराए बदन की बिल्लौरी आंखों वाली सामान्य लड़की थी, जिस ने कत्थई रंग की मैक्सी पहन रखी थी.

दूसरी, पहली बार में ही असामान्य लगी. गुलाबी साड़ीब्लाउज में सजासंवरा उस का मदमस्त यौवन लोगों के दिलों पर कहर ढा रहा था. कुछेक क्षणों के लिए तो मेरा दिल भी थम सा गया. यों लगा मानो वह नृत्य प्रोग्राम के बजाय, किसी सौंदर्य प्रतियोगिता में भाग लेने आई हो.

बीयर के जाम पर नाचती हुई उस की उंगलियां देख कर किसी नाजुक टहनी पर अधखिली कलियों के मंदमंद हवा में हिलने का भ्रम हुआ. उस ‘गुलाबी सुंदरी’ को अपनी सखी के साथ इस तरह अकेले बीयर पीते देख मैं ने उसे किसी बड़े घराने की माडर्न लड़की ही समझा. वह जितनी सुंदर उतनी ही चंचल लगी. मेरा ध्यान  अब तक उधर क्यों नहीं गया? इस का अफसोस तो हुआ ही, साथ में यह ताज्जुब भी कि वे दोनों डांस में मुझे अपना पार्टनर बनाने को आतुर हैं.

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प्रोग्राम शुरू होने जा रहा है, जिन के पास निजी पार्टनर नहीं हैं, वे हाल में बैठे लोगों में से  अपना मनपसंद पार्टनर ढूंढ़ने लगे. कत्थई मैक्सी वाली को एक मनचले युवक ने आमंत्रित कर लिया, ‘गुलाबी रूपसी’ को उस का आफर ठुकराते देख मुझे एक अनजानी खुशी महसूस हुई.

आगे पढ़ें- सहसा तभी होटल मैनेजर ने स्टेज पर ताली…

हां, अनि: भाग-3

पिछला भाग पढ़ने के लिए- एक ही भूल: भाग-3

रोजी ने मानो पिघला हुआ शीशा कानों में उड़ेल दिया हो. सहज ही उस के शब्दों पर विश्वास न हुआ और मैं पागलों की भांति उसे देखता रह गया. यह खूबसूरत लड़की…बाजारू माल कैसे हो सकती है? नहीं…नहीं…पर जो पहले से था, उस पर यकीन करना ही पड़ा. उस के मुख से यह कड़वा सच सुन प्यार के साथसाथ अब उस के प्रति सहानुभूति भी उमड़ आई. जीवन में इस अंधेरी राह पर जाने के पीछे अवश्य कोई मजबूरी रही होगी. उसे जानने की इच्छा से ही मैं कातर स्वर में बोला, ‘इतनी सुंदर, पढ़ीलिखी और समझदार हो कर भी तुम ने यह लाइन क्यों पकड़ी, रोजी?’

‘अरे, तुम तो भावुक हो गए,’ वह उपहास उड़ाते हुए खिलखिला उठी, जबकि मैं उसे अपनी आंतरिक वेदना पर हंसी का लबादा ओढ़ते हुए साफसाफ देख रहा था.

‘मजाक नहीं रोजी, मैं अब भी तुम्हें अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं,’ सचमुच भावुकता के वेग में मैं बहता ही चला गया, ‘तुम्हारे अतीत से मुझे कोई सरोकार नहीं…और न ही भविष्य में कभी कुछ पूछूंगा, मैं तो सिर्फ…तुम्हें इस अंधेरे से उजाले में ले जा कर एक नए जीवन की शुरुआत करना चाहता हूं, जहां हम दोनों और हमारी खुशियां होंगी.’

‘तुम्हारे विचार और भावनाओं की मैं कद्र करती हूं, सुनील,’ वह यथार्थ के कठोर धरातल से चिपकी रह कर ही बोली, ‘मगर अफसोस, तुम्हारा औफर ठुकराने पर मजबूर हूं, मेरे हालात ऐसे हैं कि लाख चाहने पर भी मैं उन के खिलाफ कोई फैसला नहीं ले सकती.’

‘मुझ पर भरोसा करो, रोजी,’ मैं ने तहे दिल से कहा, ‘हम हर मुश्किल आसान कर लेंगे, प्लीज, बताओ तो सही.’

‘यह नामुमकिन है, सुनील,’ कह कर उस ने एक गहरी सांस ली और फिर अपनी कलाई पर बंधी घड़ी देख कर बोली, ‘अच्छा, मैं अब चलूं.’

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लेकिन जातेजाते ठहर गई. उसी कातिल अदा से पलट कर देखा और हंस कर बोली, ‘यों रास्ते में अचानक ही घेर कर मेरा धंधा खराब मत किया करो. पहले दिन भी तुम्हें अपना ग्राहक समझा था मैं ने और मेरी वह रात बेकार गई. खैर, कोई बात नहीं, तुम से मुझे न जाने क्यों अजीब सा लगाव हो गया है और उसे मैं कोई नाम नहीं देना चाहती. हां, अगर तुम चाहो तो हफ्ते में एक नाइट तुम्हारे साथ मुफ्त गुजार दिया करूंगी.’

‘‘रोजी…’’

‘‘क्या हुआ?’’ अनिता किचन से बाहर आ गई, ‘‘क्यों चिल्ला रहे हो? तबीयत ठीक तो है?’’

‘‘हां, मैं ठीक हूं,’’ कह कर माथे से पसीना पोंछते हुए बोला, ‘‘आज चाय नहीं दोगी?’’

‘‘एक मिनट, अभी लाई,’’ और वह लौट गई.

मैं फिर रोजी के बारे में सोचने लगा.

रोजाना आफिस आतेजाते सड़कों पर या जहांजहां उस के मिलने की संभावना थी वे सारे ठिकाने देख डाले पर रोजी नहीं मिली. फिर अचानक एक दिन भीड़ में वह नजर आ गई. फौरन कार फुटपाथ के एक ओर रोक कर मैं पैदल ही उस के पीछे हो लिया.

‘रोजी…’ हांफते हुए मैं ने पुकारा. पर वह अनजान सी आगे बढ़ती रही. मुझ से रहा न गया तो दौड़ कर उसे पकड़ लिया और फुटपाथ पर खींच लिया.

‘आखिर तुम चाहते क्या हो?’ पलटते ही वह एकदम गुर्राई, ‘क्यों हाथ धो कर मेरे पीछे पड़े हो?’

‘आई लव यू, रोजी.’

उस ने सहम कर इधरउधर देखा, फिर बोली, ‘देखो, मैं चिल्ला उठी तो यहां लोग जमा हो जाएंगे और वे सब तुम्हें इश्क का मतलब समझा देंगे, पुकारूं?’

मैं यह सोच कर सिर से पांव तक सिहर गया कि वह मेरे साथ ऐसा भी कर सकती है. उस की बांह पर कसा मेरा हाथ दूसरे ही क्षण ढीला पड़ता चला गया.

‘आइंदा यह हरकत मत करना, वरना…’ चेतावनी देते हुए उस ने हाथ छुड़ाया और भीड़ में खो गई, मैं पागलों की तरह खड़ा रह गया.

उस के बाद रोजी कभी नहीं मिली और न ही मन में कभी उस से मिलने का खयाल आया. जब कभी उसे ले कर मन घृणा से भरता तो मैं कविता के सहारे उसे हलका कर लेता.

काशीपुर में दीदी की ससुराल है. वह अकसर फोन करती रहतीं कि तेरे लिए एक लड़की देखी है, कभी आ कर हां, ना बता जा. मातापिता के बरसों पहले गुजर जाने के बाद इस जहान में वही तो हैं, उन की यह बात न रखी तो वह भी मुंह मोड़ लेंगी. सो, मैं एक माह की छुट्टियां ले कर काशीपुर आ गया.

कांता दीदी ने मेरी पसंद को ध्यान में रखा था. लड़की देखते ही रिश्ता पक्का हो गया. जीजाजी तो मानो पहले से ही पूरी तैयारियां किए बैठे थे. अनिता के साथ चट मंगनी, पट ब्याह होते ही मैं अनिता को ले कर हनीमून मनाने के लिए नैनीताल जा पहुंचा. ऊंचीऊंची पर्वत श्रेणियों से घिरा नैनीताल का सुंदर इलाका, सुंदरतम झील और हरीभरी वादियों में पता ही न चला कि छुट्टियां कब गुजर गईं. हम दोनों एक दूसरे के इतने करीब आ गए, जैसे बचपन से साथ रहे हों. नैनीताल से काशीपुर, 2 दिन दीदी के यहां रह कर हम मुंबई आ गए.

उन्हीं दिनों की बात है, जब गुप्ता इंटरप्राइजेज ने पुणे में भी अपनी शाखा खोली. चूंकि कंपनी के मालिक मेरी कार्यकुशलता व ईमानदारी से पूरी तरह संतुष्ट थे. इसलिए यहां की जिम्मेदारी भी मुझे ही सौंपी गई. यहां मुंबई के मुकाबले मुझे ज्यादा सुविधाएं मिलीं.

अनिता के साथ पिता न बन पाने के बावजूद चैन से हूं. उस की बच्चेदानी में इंफैक्शन है. डाक्टर का कहना है, शीघ्र ही उसे आपरेशन द्वारा निकाला नहीं गया तो अनिता की जान को खतरा हो सकता है.

कल शाम से सीमा ने हमारे दांपत्य जीवन में हलचल मचा दी. समझ में नहीं आ रहा कि आखिर वह चाहती क्या है? ऐसी बाजारू लड़कियों का भरोसा ही क्या? अपनी इज्जत तो नीलाम करती ही हैं, दूसरे की भी मिट्टी में मिला देती हैं. सीमा अगर अनि से कह दे कि 3 साल पहले मैं ने उसे न केवल पत्नी बनाना चाहा था, बल्कि उस के द्वारा विवाह का प्रस्ताव ठुकरा देने पर बुरी तरह अपमानित भी हुआ था, तो क्या मैं उस की निगाह में ठहर पाऊंगा? अगर सीमा ने कहीं अनिता को वह पत्र दिखा दिया तो क्या जवाब दूंगा? अगर उस ने यह भेद छिपाने की कीमत मांग ली तो कैसे अदा करूंगा? उफ.

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‘‘बेशर्म, कमीनी,’’ क्रोध में मैं बड़बड़ा उठा.

‘‘किसे विभूषित किया जा रहा है, महोदय?’’ चायनाश्ता टे्र में लाते हुए अनिता ने पूछा तो मैं हड़बड़ा गया, मानो रंगेहाथों चोर पकड़ा गया हो.

‘‘क्षमा करें, बंदी से भूल हो गई,’’ अपने खास लहजे में उस ने चोट की.

‘‘सौरी.’’

‘‘भविष्य में ध्यान रहे,’’ वह महारानियों की तरह मुसकराई.

चाय से पहले, मुंह में चिप्स डाला तो मन में यह खयाल आया कि क्यों न अनिता को अपने अतीत के बारे में बता दूं और अपराधबोध से मुक्त हो जाऊं? यह तो मुझे अच्छी तरह समझती है. मेरी कविताओं की सहृदय पाठक ही नहीं, बल्कि समालोचक भी है. हां, इसी के सहयोग व प्रेरणा से तो ‘कायर नहीं हैं हम’ और ‘आओ, इस जर्जर घड़ी को बदल डालें’ कविता संग्रहों का प्रकाशन हुआ है.

‘‘सीमा को तुम कब से जानती हो, अनि?’’ रहस्योद्घाटन से पहले टोह लेना चाहा.

‘‘बचपन से,’’ उस ने बताया, ‘‘बाजपुर में उस का परिवार हमारे पड़ोस में ही रहता था, 9वीं में वह अपने मम्मीपापा के साथ वाराणसी चली गई थी. कुछ समय तक हमारे बीच फोन पर बातचीत होती रही, फिर वे लोग, भैया की शादी में नहीं आए, तो फोन आना बंद हो गया. उस के बाद वह कल शाम ही मिली, क्यों?’’

‘‘उसे नौकरी पर लगवाने के लिए पूछ रहा हूं. उस की योग्यता क्या है?’’

‘‘अंगरेजी से बी.ए. फाइनल नहीं कर सकी थी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘हीरोइन बनने की गरज से अपने प्रेमी के साथ मुंबई भाग आई थी, फिर स्टूडियो के चक्कर लगातेलगाते हताश हो कर उस ने घर लौट जाने का फैसला कर लिया था. उस का वह प्रेमी उस के गहने व रुपए ले कर चंपत हो गया और जातेजाते उसे लड़कियों से जबरन धंधा कराने वाले एक गिरोह के एजेंट को बेच गया जिस के बौस के पास कई पुरुषों के साथ बेहोशी में शूट की गई उस की ब्लू फिल्म थीं.’’

‘‘कंप्यूटर तो जानती होगी?’’

‘‘हां, प्लीज…कोई जगह खाली हो तो उसे रख लो,’’ अनिता ने आग्रह किया.

‘‘मैं हंसा,’’ वह भी फ्री में…

‘‘उस के पास देने को है भी क्या?’’

‘‘है, जो हमारे पास नहीं है.’’

‘‘मतलब?’’ अनिता चौंकी थी.

‘‘कोख.’’

वह भी हंसी, ‘‘तो पापा बनने को व्याकुल हो. मैं जानती हूं.’’

‘‘अनि…क्या तुम उसे स्वीकार कर सकोगी. कहीं वह मुझ पर अधिकार न जता ले?’’

‘‘‘सीमा के संदर्भ में’ आओ, इस जर्जर घड़ी को बदल डालें, संग्रह की शीर्षक कविता याद आ रही है मुझे,’’ और वह अक्षरश: उसे सुनाने लगी.

दीवार घड़ी में थरथर कांप कर, आगे बढ़ती हुई सुइयों को निहारते हुए चुपचाप मैं सुनता रहा…उस की आवाज…और अंत में बोला, ‘‘स्पष्ट करो.’’

‘‘सीमा एक सेक्स वर्कर है, यह जान कर भी आप उसे अपनाने को तैयार हो गए थे, तो…’’

मैं दंग रह गया, ‘‘यानी…’’ मुख से बमुश्किल निकला.

‘‘हां, आज दोपहर सीमा…सबकुछ बता गई.’’

अपराधबोध से मैं दब गया.

‘‘लेकिन उस ने आप को ठुकरा  दिया क्यों? कभी सोचा आप ने.’’

‘‘हां, कई बार सोचा था,’’ पर किसी नतीजे पर न पहुंच सका.

‘‘दरअसल, वह आप से बेहद प्रभावित हुई थी,’’ अनिता बोली, ‘‘उसे एक अजीब सा लगाव हो गया था आप से, जिसे वह कोई नाम नहीं देना चाहती थी. एक और बात थी कि आप की भलाई भी उस के पांव की जंजीर बन गई.’’

अनिता ने एक नया रहस्य खोला तो मैं बोला, ‘‘उसे और स्पष्ट करो.’’

‘‘लड़कियों की नजरबंदी के लिए तैनात सुरक्षा गार्ड, अगर आप को सीमा के इर्दगिर्द ज्यादा समय तक देख लेते तो आप की जान चली जाती और इसीलिए जानबूझ कर सीमा ने आप के मन में अपने प्रति नफरत भर दी ताकि आप उस से दूर हो जाएं.’’

मैं आश्चर्य से भर कर पत्नी को देखने लगा तो वह आगे बोली.

‘‘यह तो समूचा विपक्ष एक हो जाने पर पिछले दिनों सरकार को उन दरिंदों के खिलाफ काररवाई करने के लिए पुलिस को सख्त आदेश देने पड़े. तब कहीं वह मुक्त हो पाई और घर जा सकी.

‘‘अंकल, सीमा के भाग जाने का आघात बरदाश्त न कर पाते हुए पहले ही चल बसे थे. उस पर बदनामी का दंश…बेचारी कब तक झेलती रहती? छोटे भाईबहन और बीमार मां के साथ तंग आ कर आखिर में वह वाराणसी से पूना चली आई.’’

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‘‘पगली, इतना बड़ा त्याग कर डाला, सिर्फ मेरे लिए? क्या लगता हूं मैं उस का? मैं तो आज तक उस से घृणा करता रहा…उसे गलत समझता रहा… छि…छि…छि…’’

‘‘अब तो यही हो सकता है कि हम कुछ करें, सीमा जैसी लड़कियों के लिए,’’ अनिता ने मानो अंदर झांक लिया हो.

‘‘हां, अनि,’’ ये दो शब्द अनंत गहराइयों से निकले पर मुझे नहीं मालूम था कि यह फैसला सही है या गलत. अगर बच्चा हो गया तो क्या उसे अनिता स्वीकार करेगी. और क्या सीमा वास्तव में बच्चे को और मुझे छोड़ कर जाएगी. मैं ने गहरी सांस ली और सब कुछ अनिता पर छोड़ दिया.

देश मेरी मुट्ठी में है!- मंहगाई

– “यह देश मेरी मुट्ठी में है.” महंगाई ने तुनक कर कहा .

– ” यह तुम्हारा भ्रम है .” एक गरीब ईमानदार आदमी ने चींख कर प्रतिकार किया.
– “यह भ्रम तो तुम पाले हो, की इस देश को कोई “सरकार” चला रही है, जिसे तुमने चुना है.” महंगाई ने हंसते हुए कहा

– ” यही सत्य है, महंगाई !”  उस आदमी ने कहा
-“अच्छा,भला सिध्द करो ” महंगाई ने मुस्कुरा कर मानो चैलेंज सामने रखा.
-“यह तो सारी दुनिया जानती है, देश में एक तिनका भी, चुनी हुई सरकार के इशारे के बगैर हिल नहीं सकता.”
-“यही तो भ्रम है.” महंगाई हो.. हो… कर हंसते हुए बोली

-“तुम हमारी चुनी हुई सरकार के समक्ष राई का कण भी नहीं .”
आदमी ने कुछ सच्चाई समझने के बाद, चेहरे पर उतर आए पसीने को पोंछते हुए कहा.

-“अच्छा, अभी जो  रसोई गैस के 50 रुपए प्रति सिलेंडर बढ़ गए, आलू, प्याज, टमाटर के दाम बढ़ गए…भला उसके पीछे कौन है ?” महंगाई के चेहरे पर गर्वोवित का भाव था.
-“वो… वो.. मैं क्या जानूं।”
-“कहो, कहो बेहिचक कहो या फिर स्वीकार करो .”महंगाई ने आत्मविश्वास भरे स्वर में कहा.
-“क्या स्वीकार करूं ?”
-“यही की सरकार असहाय है।”
-“यह मैं कैसे स्वीकार कर लूं ।”
-“यह मेरी करामात है, समझ लो । मैंने उछाल भरी है. सरकार के हाथ पांव फूले हुए हैं. तुम क्या जानो.” महंगाई हंसी.
-“तुम्हें गलतफहमी है, ऐसा मैं मानता हूं .”व्यक्ति ने संभलकर कहा,- “तुम्हें सरकार जब चाहेगी धर दबोचेगी और तुम रिरियाती रह जाओगी.”
-“अच्छा ! यह मुंह और मसूर की दाल. ” महंगाई हंसी
-“सच कह रहा हूं, हमारी सरकार के पास असीम अमोध शक्ति है .इस देश के हित में सरकार तुम्हें चाहे तो देश निकाला दे दे तुम कुछ नहीं कर पाओगी .”व्यक्ति ने अब विश्वास पूर्वक कहा था.
-” अच्छा, ऐसा है और इस देश मे सरकार नाम की चिड़िया है तो मुझे काबू में करके दिखाएं.” महंगाई के स्वर में आत्मविश्वास था.
-“तुम सरकार को चैलेंज कर रही हो ?”
-“हां, यह सरकार, यह विपक्ष, यह बड़बोले नेता, यह संसद मेरी मुट्ठी में है,यह देश मेरी मुट्ठी में है .”
महंगाई हंसी .
-“अच्छे-अच्छों के घमंड टूट गए हैं . भ्रष्टाचार भी कुछ दिन पूर्व इठलाता घूमता था, कहता था, सरकार मेरी जेब में है. उसका कितना दर्दनाक हश्र हुआ है, पता है.कई दिग्गज भ्रष्टाचारी जेल चले गए  लालू यादव से लेकर पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम तलक अब बोलो.” आदमी ने अपनी ईमानदारी की रौ में कहा.

-हो हो हो…. महंगाई हंसने लगी.
-” हंसने से सत्य नहीं छिप सकता, तुम घमंड मत पालो,मेरी तो यही राय है ।”
-“देखो, भ्रष्टाचार मेरे समाने च्युंटी सरीखा है. उसके पास मेरी सरीखी असीमित शक्तियां नहीं है .मेरा जादू  मायाजाल तो तुम अभी देख रहे हो .
एक ही दिन में  एक साथ 50 रुपये  प्रति सिलेंडर का महंगा होना. यह एक नजीर है . समझ लो मेरी असीमित शक्ति को . मेरे सामने सरकार गिड़गिड़ाती है, हाथ जोड़कर कह रही है मेरे बस में महंगाई को रोकना नहीं है.यह हमारे वश से बाहर है… हा हा हा….”
-“और  संसद… देश की पार्लियामेंट ?” आदमी ने मुस्कुराते हुए  कहा.
-“संसद तो मेरे भय से भीगी बिल्ली बन कर भाग खड़ी हुई .मुझे आता देख… हा हा हा .”

-“तुम्हारा यह नकचढ़़ा हाव भाव, तुम्हें किसी दिन कहीं का नहीं छोड़ेगा.” आदमी ने दु:खी होकर कहा,-“तुम ऐसे ही प्रमाद  करो, तुम क्या, किसी से नहीं डरती, किसी से भय नहीं, क्या तुम्हारे ऊपर कोई नहीं”
-“यह मैं क्यों बताऊं.मगर यह जान लो,  मेरा विराट स्वरूप, अनंत है. मैं आज की परम शक्ति हूं . मेरे समक्ष सभी च्यूटी सदृश्य हैं . सभी मुझसे है, मैं किसी से नहीं.” महंगाई ने दृढ शब्दों में कहा.
-“मैं तुम्हारी शिकायत प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति से करूंगा मैं… मैं….” आदमी हांफने लगा ।
-हा… हा हा  जाओ… कहीं भी चले जाओ, तुम्हें कहीं कोई रियायत नहीं दे सकता . मैं ..मैं.. हूं .” महंगाई अट्टास करने लगी.

-“मैं … मैं… मैं…” आदमी के मुंह से   सफेद झाग निकलने लगा ….वह कुछ बोल पाता उससे पूर्व बेहोश होकर गिर पड़ा.

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