Serial Story: एक छत के नीचे (भाग-1)

ट्रेन दिल्ली की ओर बढ़ रही थी. मैं ने प्लेटफार्म पर ट्रेन के पहुंचने से पहले अपना सामान समेटा और शीघ्रता से उतर गई. निगाहें बेसब्री से मिलन को ढूंढ़ रही थीं. थोड़ा आश्चर्य सा हुआ. हमेशा समय से पहले पहुंचने वाले मिलन आज लेट कैसे हो गए. तभी मेरे मोबाइल पर मिलन का संदेश आ गया.

‘‘सौरी डार्लिंग, आज बोर्ड की मीटिंग है और 9 बजे दफ्तर पहुंचना है, इसलिए तुम्हें लेने स्टेशन नहीं पहुंच पाया.’’ टैक्सी से घर पहुंची तो मिलन बरामदे की सीढि़यों पर ही मिल गए. साथ में निक्की भी थी. हलके गुलाबी रंग की साड़ी में लिपटी, जो उस के जन्मदिन पर मिलन ने उसे भेंट की थी, सुर्ख बिंदी, लिपस्टिक और हाथों में खनकती चूडि़यां… सब मुझे विस्मित कर रहे थे. मैं ने प्यार से निक्की के गालों को थपथपाया, फिर कलाई पर बंधी घड़ी पर नजर डाली और बोली, ‘‘तू क्यों इतनी जल्दी जा रही है? रुक जा, 1 घंटे बाद चली जाना.’’ ‘‘अगर अभी इन के साथ निकल गई तो आधे घंटे में पहुंच जाऊंगी, वरना पहले बस फिर मैट्रो, फिर बस. पूरे 2 घंटे बरबाद हो जाएंगे.’’

‘‘शाम को जल्दी आ जाएंगे,’’ कह कर मिलन सीढि़यां उतर गए और कार स्टार्ट कर दी. दौड़तीभागती निक्की भी उन की बगल में जा कर बैठ गई. सामान अंदर रखवा कर मैं ने भवानी को चाय बनाने का आदेश दिया. फिर पूरे घर का निरीक्षण कर डाला. हर चीज साफसुथरी, सुव्यवस्थित, करीने से सजी हुई थी.

चाय की प्याली ले कर भवानी मेरे पास आ कर बैठी तो मैं ने कहा, ‘‘रात के लिए चने भिगो दो. साहब चनेचावल बहुत शौक से खाते हैं.’’

‘‘आजकल साहब रात में खाना नहीं खाते,’’ भवानी का जवाब था.

‘‘क्यों…’’

‘‘एक दिन निक्की बिटिया ने टोक दिया कि आजकल साहब का वजन बहुत बढ़ रहा है, बस तभी से रात का खाना बंद कर दिया,’’ भवानी ने हंस कर कहा.

‘‘मुझे तो बहुत भूख लगी है. जो कुछ बन पड़े बना लो. फिर थोड़ी देर सोऊंगी. थकावट के मारे बुरा हाल है.’’ नींद खुली तो कमरे से बाहर निकल कर बालकनी में बैठ कर मिलन और निक्की की प्रतीक्षा करने लगी. अभी उन के आने में 1 घंटा बाकी था. मैं ने अपने डिजिटल कैमरे में कैद फोटोग्राफ देखने शुरू कर दिए.

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दिल्ली से जबलपुर तक ट्रेन और  उस के आगे टाटा सफारी से मंडला तक की यात्रा काफी कठिन थी. पूरा क्षेत्र पानी में डूबा हुआ था. नर्मदा नदी में बाढ़ की वजह से तबाही मची हुई थी. जगहजगह सहायता शिविर और प्राथमिक चिकित्सा केंद्र खोले गए थे. बाढ़ पीडि़तों की सहायता के लिए हमारी संस्था के साथ कई अन्य समाजसेवी संस्थाएं भी एकजुट हो कर कार्यरत थीं. 8 दिन का कार्यक्रम 1 महीने तक खिंच गया था. जब तक स्थिति में सुधार नहीं होता, लौटने का प्रश्न ही कहां उठता था?

मिलन की गाड़ी गेट पर नजर आई तो कैमरा बंद कर भवानी से कह कर चाय के साथ गरमागरम पकौड़े तैयार करवा लिए.

‘‘यह क्या बनवा लिया, बूआ?’’

‘‘बरसात के मौसम में तेरे फूफाजी को चाय के साथ गरम पकौड़े बेहद पसंद हैं.’’

‘‘वजन देखा है, कितना तेजी से बढ़ रहा है?’’ निक्की ने न जाने किस अधिकार के तहत पकौड़ों की प्लेट खिसका कर मिलन की तरफ देखा. मुझे उस का यह तरीका अच्छा नहीं लगा था.

‘‘आजकल यह सब बंद कर दिया है.’’

‘‘सिर्फ 1 कप दूध लूंगा,’’ मिलन बोले.

इतनी देर में निक्की 2 कप ग्रीन टी बना कर ले आई थी. टीवी देखते समय मिलन ने महज औपचारिकता के चलते वहां की कुछ बातें पूछीं और बातचीत का मुद्दा बदल दिया. शादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ था जब मैं और मिलन एकदूसरे से इतने लंबे समय के लिए अलग हुए थे. पूरे 1 महीने बाद मैं घर लौटी थी. उस पर मेरा कार्यक्रम इतना व्यस्त रहा था कि 1 दिन भी मिलन से जी भर कर बात नहीं हुई थी. बेडरूम में पहुंच कर भी मिलन के व्यवहार में वैसी गर्मजोशी नजर नहीं आई थी, जिस की मैं ने उम्मीद की थी. हर रात शारीरिक संबंध की कामना करने वाले मिलन, आज खानापूर्ति के लिए पतिपत्नी के शारीरिक रिश्ते की जिम्मेदारी निभा कर सो गए. मिलन के व्यवहार में आए इस बदलाव को देख कर मेरे मन में अब शक का कीड़ा कुलबुलाने लगा.

‘कहीं मेरी गैरहाजिरी में मिलन और निक्की? नहीं…नहीं…मिलन मेरे साथ ऐसी बेवफाई नहीं कर सकते,’ उन के प्रति मेरे विश्वास की इस डोर ने ही शायद मुझे निश्ंिचत हो कर सोने का हौसला दिया और आज उन के बजाय मैं तकिए से ही लिपट कर सो गई.

आधी रात को जब आंख खुली तो मिलन बिस्तर पर नहीं थे. एक बार फिर मन में शक का कीड़ा कुलबुलाने लगा तो मैं ने स्टडीरूम में जा कर देखा. मिलन वहां भी नहीं थे. तभी निक्की के कमरे से पुरुष स्वर उभरा. कमरे में झांका तो जो दृश्य मैं ने देखा, उसे देख कर एक बार तो मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ था. मेरे पति मिलन निक्की के ऊपर पूरी तरह से झुके हुए थे. फिर उन की धीमी आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘निक्की, समझने की कोशिश करो. जब तक तुम्हारी बूआ यहां रहेंगी, हमें इसी तरह अलगअलग रहना होगा. तरु को जरा भी शक हो गया तो जानती हो क्या होगा?’’

इस पर निक्की का शिथिल स्वर उभरा, ‘‘जानती हूं, लेकिन आप से अलग हो कर मैं एक दिन भी तो नहीं जी सकूंगी.’’ मैं यों ही जड़वत खड़ी रह गई. मेरी बेचैन नजरें अपने पति पर ठहर गईं, जो अब भी सब से बेखबर हो कर निक्की को बेतहाशा चूम रहे थे. दुख, क्रोध और घृणा से तिलमिलाई मैं अपनी भावनाओं को अपने अंदर ही जज्ब कर के अपने कमरे मेें लौट आई थी.

मैं ने अपनी याददाश्त पर जोर दिया. पिछली बार जब मैं ने मिलन से निक्की के ब्याह की बात छेड़ी थी तो उसे सुनते ही मिलन भड़क उठे थे.

‘यों अचानक, निक्की को घर से निकालने की बात तुम्हें क्यों सूझी? पहले उसे किसी काबिल तो हो जाने दो. ब्याह तो कभी भी हो जाएगा.’

‘शादी की भी एक उम्र होती है मिलन. निक्की की उम्र अब उस के योग्य हो गई है. अच्छे रिश्ते नसीब से ही मिलते हैं.’

इस के बाद, श्रीचंद के बेटे सुशांत का बायोडाटा, जो भाभी ने कोरियर से हमें भेजा था, मैं ने मिलन के सामने रख दिया था. सुशांत ने एमए के बाद एमबीए किया था और अब एक मल्टीनैशनल कंपनी से उसे 7 लाख का पैकेज मिल रहा था. मिलन सुशांत का बायोडाटा मेज पर पटक कर बोले, ‘हम अपनी निक्की के लिए इस से अच्छा मैच ढूंढ़ेंगे.’ एम. ए. पास निक्की के लिए इस से अच्छा मैच और कौन सा हो सकता था? उस पर सब से बड़ी बात, दहेज की कोई मांग नहीं थी. इतना तो मिलन ने कभी अपनी बेटी सोनिया के लिए भी नहीं सोचा था, जितना वे निक्की के लिए सोच रहे थे.

मुझे आज भी वे दिन याद हैं जब  निक्की को मैं गांव से पहलेपहल अपने घर लाई थी. निक्की की दादी यानी मेरी मां तो उसे मेरे साथ बिलकुल नहीं भेजना चाह रही थीं लेकिन मैं अपनी ही जिद पर अड़ी थी, ‘निकालो इसे इस दड़बे से और नई दुनिया देखने दो. कब तक इस गांव में रह कर यह यहां की भाषा बोलती रहेगी.’

मां तो आखिर तक विरोध करती रही थीं लेकिन भाभी मान गई थीं. अपने आधा दर्जन बच्चों में से किसी एक बच्चे का भी जीवन संवर जाए तो भला किस मां को आपत्ति होगी? निक्की को देखते ही मेरे सासससुर के माथे पर बल पड़ गए थे. किसी जरूरतमंद, दीनहीन, लाचार व्यक्ति को, अपने विशाल वटवृक्ष तले स्नेह और विश्वास से सींच कर आश्रय देने वाले मिलन भी सहज नहीं दिखाई दिए थे. ‘अम्मांबाबूजी की दवा और सोनिया की पढ़ाईलिखाई के खर्चे पूरे करतेकरते ही हम दोनों की आधी से ज्यादा पगार निकल जाती है. निक्की पर होने वाले अतिरिक्त खर्चे को कैसे बरदाश्त कर पाएंगे हम?’

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अम्मांबाबूजी के ताने सुनने की तो मैं शुरू से आदी हो गई थी लेकिन मिलन का रूखा व्यवहार बरदाश्त से बाहर था. मैं ने मिलन को तरकीब सुझाई कि कालेज से लौट कर मैं शाम के समय 3-4 ट्यूशन पढ़ा लूंगी. मिलन के चेहरे पर से तनाव की सुर्खी अब भी नहीं हटी थी. मैं ने फिर से अपनी बात पर जोर दिया.

‘मिलन, बड़ी भाभी के मुझ पर बहुत उपकार हैं. बाबूजी ने तो हमें मंझधार में छोड़ कर अपनी अलग दुनिया बसा ली थी. दूसरे दोनों भाई अपनीअपनी गृहस्थी में रम गए. यदि भाभी का कृपाहाथ मुझ पर न होता तो शायद मेरा अस्तित्व ही न होता. भैया की मृत्यु के बाद भी उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन हमेशा किया ही है.’ मिलन चुप हो गए थे.

शुरूशुरू में निक्की किसी से बात नहीं करती थी. जब तक मैं कालेज से वापस नहीं लौटती, वह एक ही कमरे में दुबकी रहती. सोनिया उसे खूब चिढ़ाती. कभी उसे अपने साथ खेलने पर मजबूर करती तो कभी उस की लंबी चोटी को झटक देती. एक दिन ऐसे ही सोनिया ताली  पीटपीट कर निक्की को चिढ़ा रही  थी. निक्की कभी मिलन को देखती, कभी मुझे निहारती. मिलन ने प्यार से जैसे ही उसे अपने पास बुलाया, निक्की उन के गले में झूल गई थी. मिलन देर तक उसे अपनी गोद में बिठा कर पुचकारते रहे. देर से ही सही, निक्की हमारे परिवार की सदस्य बन गई थी. स्कूल खुले तो हम ने निक्की का दाखिला सोनिया के ही स्कूल में करवा दिया था. उस की शक्लसूरत देख कर प्रिंसिपल ने पहले तो प्रवेश देने से साफ मना कर दिया था, लेकिन जब मैं ने स्वयं दिनरात मेहनत करने का भरोसा दिलाया तो वे मान गई थीं.

एक अच्छे पार्लर में जा कर मैं ने उस के बाल कटवा दिए. पुराने कपड़ों का स्थान नए कपड़ों ने ले लिया था. गांव की भाषा को छोड़ कर वह शुद्ध हिंदी बोलने लगी थी. रहने का सलीका धीरेधीरे उस के व्यक्तित्व का अंग बनने लगा. सोनिया में अद्भुत शैक्षणिक प्रतिभा थी. निक्की औसत छात्रा थी. हम ने उस के लिए एक मास्टर नियुक्त कर दिया था लेकिन उस का मन किताबों में रमता ही नहीं था. जितनी देर  सोनिया पढ़ती, वह ऊंघती रहती. उस का ध्यान भंग करने के लिए निक्की कभी किताब बंद कर देती, कभी पैनपैंसिल छिपा देती. एक दिन मैं ने उसे बुरी तरह झिड़क दिया, ‘कुछ देर तो मन लगा कर पढ़ा करो. सोनिया को देखा. डाक्टर बन गई और तुम थर्ड डिवीजन में 12वीं पास कर पाई हो. पता नहीं किसी कालेज में तुम्हें दाखिला मिलेगा भी या नहीं?’

मैं सिर्फ सोनिया की ही नहीं निक्की की भी मां थी और मां को तो हर पहलू से सोचना भी पड़ता है. मैं तो यही चाहती थी कि सोनिया की तरह निक्की भी आत्मनिर्भर बने. सोनिया की इंटर्नशिप समाप्त होते ही मिलन ने उस का विवाह अभिषेक से तय कर दिया. अभिषेक जितने सुंदर थे, उतना ही उन का व्यक्तित्व भी प्रभावशाली था. व्यवहार में सौम्यता और मृदुता छलकती थी. हंसीमजाक करते रहना उस के स्वभाव में शामिल था. पेशे से वरिष्ठ सर्जन भी थे.

सोनिया को मिलन का प्रस्ताव जरा भी नहीं भाया था. खूब रोई थी वह उस दिन, ‘पापा, मैं इतनी जल्दी विवाह नहीं करना चाहती.’ मिलन काफी परेशान हो गए थे. बारबार एक ही वाक्य दोहराते, ‘22 वर्ष की हो गई है सोनिया. विवाह की यही सही उम्र है. देर करने से अच्छे रिश्ते हाथ से निकल जाते हैं. तुम किसी तरह समझाबुझा कर उसे विवाह के लिए राजी करो?’ सोनिया अभिषेक के साथ विवाह कर के बेंगलुरु चली गई. दोनों ने मिल कर वहां नर्सिंग होम खोल लिया. सोनिया के ब्याह के बाद हम दोनों पतिपत्नी बिलकुल अकेले पड़ गए थे. मिलन बेटी को बेहद प्यार करते थे. गहन उदासी उन्हें चारों ओर से घेरे रहती. किसी काम में मन नहीं लगता था. निक्की ही उन के पास बैठ कर उन का मन बहलाती. उन के खानेपीने का ध्यान रखती. मिलन भी सोतेजागते, उठतेबैठते निक्की की प्रशंसा करते नहीं अघाते थे. मैं अकसर मिलन से कहती, ‘एक बेटी विदा हुई तो दूसरी हमारे पास है. जब यह भी चली जाएगी तब क्या होगा?’

मिलन झील जैसी शांत शीतल निगाहें उठा कर, एक नजर मुझ पर डाल कर, हताशा के गहन अंधकार में डूब जाते. जीवन मंथर गति से चल रहा था. उन्हीं दिनों मैं ने कालेज से त्यागपत्र दे देने का अहम फैसला ले लिया. मिलन ने सुना तो मेरे फैसले का कस कर विरोध किया था.

‘अगले साल रिजाइन कर देना. तब तक मैं भी रिटायर हो जाऊंगा. एकसाथ घूमेंगेफिरेंगे. फिलहाल घर बैठ कर क्या करोगी?’

‘समाजसेवा करूंगी.’

मिलन चुप हो गए थे. मैं ने कई समाजसेवी संस्थाओं से संपर्क स्थापित किए और समाजसेवा के कार्यों में जुट गई. सुबह कुष्ठ आश्रम, दोपहर में अनाथ आश्रम. कभी समाज के निम्नवर्ग के उत्थान के लिए चंदा जमा करती, कभी गरीबों के प्रशिक्षणार्थ समाज के समर्थ लोगों से मिलती. ‘सोनिया तो अपनी ससुराल चली गई. अब तुम भी समाजसेवा के चक्कर में मुझ से दूर होती जा रही हो एक दिन मिलन ने शिकायत की.’

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‘यहीं तो हूं, तुम्हारे पास.’

‘कहां?’ मिलन मुझे अपने बाहुपाश में जकड़ लेते. मैं खुद को उन की बाहों की गिरफ्त से मुक्त करने का असफल प्रयास करती.

‘तुम भी तो हर समय दफ्तर के कामों में उलझे रहते हो. शाम को निक्की तुम्हारी देखभाल कर लेती है.’

‘और रात में?’

‘धत्,’ मिलन शरारत से पूछते तो मैं मुसकरा कर उन के सीने पर सिर रख देती. उन्हीं दिनों भाभी 2 दिन के लिए दिल्ली आई थीं. साथ में सुशांत का बायोडाटा भी लाई थीं. मुझे देखते ही हैरान रह गईं. ‘यह क्या हाल बना रखा है तुम ने, तरु? शरीर बेडौल होता जा रहा है. न ढंग से पहनती हो, न सजतीसंवरती हो,’ उन्होंने मेरे टूटेफूटे नाखून और फटी एडि़यों की तरफ इशारा करते हुए पूछा.

‘अब सजसंवर कर किसे दिखाना है, भाभी?’

‘पुरुष का मनोविज्ञान बड़ा ही विचित्र होता है तरु. जिस पत्नी के साथ उस ने अपने जीवन के इतने वसंत देखे, हर सुखदुख में उस का साथ निभाया, जो पहले उसे अच्छी लगती थी, अब एकाएक उस में कमियां नजर आने लगेंगी और वह उसे फूटी आंख नहीं सुहाएगी.’ तब मैं ने भाभी की बात को मजाक में टाल दिया था, लेकिन आज उम्र के इस पड़ाव पर महसूस हो रहा था, जैसे अपनेआप को पूरी तरह समर्पित करने के बाद भी मैं मिलन का मन नहीं पा सकी. वरना उन के कदम क्यों भटकते?  2 घंटे बाद मिलन वापस लौटे. रात भर हम दोनों पतिपत्नी दो किनारों की तरह अलगअलग लेटे रहे. 2 अजनबियों की तरह आपस में ही सिमटे रहे. बंद आंखों से मैं ने महसूस किया, मिलन के हाथ मेरी ओर बढ़ते, फिर वे खुद पर काबू पा लेते. चादर पर बिछे गुलाब के कांटे मिलन को छेद रहे थे. वे मुझे भी तकलीफ पहुंचा रहे थे.

सुबह तेज बारिश हो रही थी. तेज हवा के झोंकों से खिड़कियों, दरवाजों के खटकने का शोर सुनाई दिया, तो मेरी तंद्रा भंग हुई. अब मैं वास्तविकता के धरातल पर थी. बेमन से बिस्तर छोड़ कर खिड़की के पास जा कर खड़ी हो गई. तभी निक्की के कमरे का दरवाजा खुला. हाथ में छोटा एअरबैग लिए वह मेरे सामने आ कर खड़ी हो गई.

‘‘कहीं जा रही हो?’’ मैं ने नीचे से ऊपर तक उसे निहारा.

‘‘जी, अपनी सहेली के पास.’’

‘‘यों अचानक?’’

मैं जानती थी कि यह मिलन और निक्की की पूर्व नियोजित योजना थी. आज रात की फ्लाइट से सोनिया, बेंगलुरु से आ रही थी. दिल्ली में 2 दिन का उस का सेमिनार था. सोनिया जब भी आती, निक्की हमेशा इसी तरह घर छोड़ कर चली जाती है. मन पश्चात्ताप की आग में जल उठा था. कई बार हम सच को अस्वीकार कर उस से दूर क्यों भागते हैं? मुझे याद है, पिछली बार जब सोनिया आई थी तब निक्की यों ही बहाना बना कर अपनी सहेली के घर चली गई थी. मिलन के मोबाइल पर लगातार एसएमएस की ट्रिनट्रिन सुन कर सोनिया ने मोबाइल उठा लिया था.

‘पापा को इतने मैसेज कौन भेजता है, ममा?’

‘अरे, यों ही विज्ञापन कंपनी वाले परेशान करते रहते हैं,’ मैं ने लापरवाही से बात उछाल दी थी.

सोनिया एकएक कर के मैसेज पढ़ती चली गई.

‘ ‘आई लव यू’ ममा, इस उम्र में पापा को इतने हौट मैसेज कौन भेजता है? अच्छा, यह पढ़ो, ‘तकदीर ने मिलाया, तकदीर ने बनाया, तकदीर ने हम को आप से मिलाया. बहुत खुशनसीब थे वो पल, जब आप जैसे दोस्त इस जिंदगी में आए.’

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सोनिया की बातों पर मैं ने जरा भी ध्यान नहीं दिया था. इस में कोई संदेह नहीं कि मिलन में किसी को भी अपनी ओर आकर्षित करने का गुण है. रिटायरमैंट की उम्र तक पहुंच गए, लेकिन यौवन दूर नहीं गया. उन की आंखों में एक विशेष तरह की गहराई है. हर समय सलीके से कपड़े पहनते हैं. रात में भी परफ्यूम से सराबोर हो कर वे मुझे अपने आगोश में भींचते तो ब्याह के शुरुआती दिन मुझे याद आ जाते.

‘ओह, मिलन, इस उम्र में भी तुम्हें हर रात…’

‘इंसान को हमेशा जवान बने रहना चाहिए. अपने विचार ही तो बुढ़ापा लाते हैं.’

– क्रमश:

Serial Story: एक छत के नीचे (भाग-3)

चिंता सी हो रही थी कि सहेली के घर वह न जाने किस हाल में होगी. दूसरे, इसी बहाने से वह सोनिया से मिल भी लेगी. कौफी हाउस में डोसा खाते समय सोनिया ने दिल को छू लेने वाला विषय छेड़ दिया था, ‘‘‘ममा, आप ने ‘चीनी कम’ फिल्म देखी है? एक युवती अपने पिता की उम्र के प्रौढ़ से पे्रम करती है…’

‘‘हां, इसी विषय पर और कई फिल्में बनी हैं, ‘निशब्द’, ‘दिल चाहता है’ आदि.’’

‘‘ऐसा क्यों होता है, ममा?’’

‘‘उस वक्त प्रौढ़ और वह युवती, दोनों ही यह समझते हैं कि प्यार की कोई सीमारेखा नहीं होती. उन्हें यही लगता है कि प्यार तो कभी भी किसी से भी हो सकता है. युवती यह समझती है कि यह उस की जिंदगी है और इसे अपने तरीके से जीना उस का अधिकार है. उधर प्रौढ़ को भी अपनी युवा प्रेमिका से कोई उम्मीद तो होती नहीं, हालांकि प्रेमिका की उम्र के उस के बच्चे होते हैं, लेकिन प्यार के शुरुआती दिनों में वह इस बात को ज्यादा अहमियत नहीं देता और अपनी युवा प्रेमिका के साथ भरपूर मौज करना चाहता है. लेकिन एक दिन जब परिवारजनों को पता चलने पर उसे परिवार की तीखी निगाहों व आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है तो उस के पास पछताने के अलावा और कोई चारा नहीं रहता. और वह युवती? क्या पूरी उम्र रखैल की भूमिका निभा सकती है? नहीं. कभी न कभी उस का संयम भी जवाब दे जाता है.’’

मैं ने चोर नजरों से निक्की और मिलन की ओर देखा. दोनों के चेहरों पर हवाइयां उड़ रही थीं. मैं भी सोनिया के सामने कोई तमाशा खड़ा नहीं करना चाह रही थी. सोनिया को एअरपोर्ट छोड़ कर हम वापस लौट ही रहे थे कि मिलन के मोबाइल पर एसएमएस आने शुरू हो गए. निश्चित रूप से ये मैसेज निक्की ही भेज रही थी. न जाने किस मिट्टी की बनी थी यह लड़की? सोच कर हंसी भी आ रही थी, आश्चर्य भी हो रहा था. मेरे ही प्यार से सींचा गया यह पौधा, फिर भी इस पौधे ने इतना अलग रूप कैसे ले लिया? घर में कदम रखते ही मैं ने मिलन से सीधेसपाट शब्दों में पूछा, ‘‘अब आगे क्या सोचा है?’’

‘‘किस बारे में?’’ मिलन बुरी तरह हड़बड़ा गए थे.

मैं चुपचाप उन का चेहरा निहारती रही तो वे बोले, ‘‘तरु, तुम तो तरु हो. तुम्हारे नाम की सार्थकता इसी में है कि दूसरों को अपनी शीतल छाया के नीचे शरण दो. निक्की को रहने दो इसी घर में. समाज के सामने तो हम दोनों पतिपत्नी ही रहेंगे न?’’

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कितना भयावह रूप था मिलन का? जिस पुरुष के नाम का सिंदूर मैं अपनी मांग में भरती आई थी, उसी पुरुष ने मुझे कितनी आसानी से पराया बना दिया? क्या देह इतनी बेलगाम हो सकती है कि नैतिकता की सारी सीमाएं लांघ कर बेबुनियाद रास्ता अपना ले? अपमान की आग में चोट खाया मन, अंदर ही अंदर सुलगने लगा. अगर हालात से समझौता कर लूं तो क्या इतना सहज होगा रिश्तों में संतुलन बनाना? कभी न कभी सोनिया और अभिषेक मेरे मन की थाह पा ही लेंगे, फिर तो वे मिलन से नफरत ही करेंगे. मिलन मेरी और निक्की दोनों की जिंदगियों से खिलवाड़ कर रहे थे. मिलन करवट बदल कर लेट गए थे. मैं जानती थी कि उन्हें थोड़ी देर में नींद आ जाएगी. इतना ही अंतर होता है पुरुष और स्त्री में. पुरुष रिश्तों को ध्वस्त कर के भी सामान्य हो जाता है और स्त्री रिश्तों के भरभरा कर गिरने पर खुद भी टूट कर बिखर जाती है. पुरुष, जिसे अग्नि को साक्षी मान कर साथ निभाने का वचन देता है, उसे भूल कर दूसरी नारी के साथ संबंध स्थापित करने में जरा नहीं सकुचाता.

कमरे में अंधेरा सा छाने लगा तो मैं ने खिड़की के परदे हटा दिए थे. सूरज ढलने के बाद, जो मरियल सा उजाला फैला होता है, वही हर ओर पसरा था. सोनिया के जाते ही मिलन मुक्ति पर्व मनाने लगे. अब वे बेझिझक निक्की के कमरे में घुस जाते. घंटों वहीं बैठे रहते. उसे उपहार देते, घुमाने ले जाते, फिल्में दिखाते. उस दिन मैं ने नाश्ते की मेज पर मिलन को बुलाया. उन के पीछेपीछे निक्की भी आ गई थी

‘‘एक बात पूछूं, मिलन? उस शाम यदि निक्की के स्थान पर सोनिया होती तो क्या तब भी आप ऐसा ही घृणित कृत्य करते?’’ निक्की की मौजूदगी में मैं उन से ऐसा सीधा सपाट प्रश्न करूंगी, कभी सोचा नहीं था मिलन ने. ऐसा निर्मम और अश्लील प्रस्ताव सुनने के बाद मिलन अपना चेहरा झुकाए चुपचाप बैठे रहे.

मेरे सीने में जो अपमान भरा था, उसे तिलतिल कर खाली करते हुए मैं ने पुन: वही प्रश्न दोहराया तो मिलन उठ खड़े हुए. निक्की के लिए यह स्थिति अप्रत्याशित सी थी. वह तो यही समझ रही थी कि ऐसे ही चलता रहेगा सबकुछ. जवानी की दहलीज पर कदम रखती तरुणी की जैसे कुछ भी सोचनेसमझने की शक्ति चुक गई थी. किसी ने उस का मार्गदर्शन भी तो नहीं किया था. वह फूटफूट कर रो पड़ी थी.

‘‘बस कीजिए, बूआ. मैं अपने किए पर बेहद शर्मिंदा हूं.’’

‘‘सच हमेशा कड़वा होता है, निक्की. पर जैसे आदमी अस्वस्थ हो तो उसे कड़वी दवा पीनी पड़ती है, उसी तरह इंसान यदि गलती करता है तो उसे कड़वे बोल सुनने पड़ते हैं. इस घर की छत के नीचे रह कर दूसरी औरत बनने से कहीं अच्छा है सुशांत के साथ ब्याह कर उस की अर्धांगिनी बनो.’’ निक्की अपने कमरे में चली गई तो मिलन बौखला से गए. बोले, ‘‘कहीं निक्की कोई गलत कदम न उठा ले…’’

‘‘कुछ नहीं होगा. सुंदर, सुव्यवस्थित गृहस्थी में प्रवेश कर वह अपने अतीत को एक दुस्वप्न की तरह भुला देगी. मिलन, उसे अपनी जिंदगी जीने दो और तुम भी लौट आओ अपनी गृहस्थी में,’’ मेरे चेहरे पर दृढ़ता के भाव मुखर हो उठे. उस रात मिलन ने अपनी बांहों में मुझे कस कर भींचा तो लगा कि मैं दम ही तोड़ दूंगी. कितना सुखद था वह एहसास. अगले माह सुशांत से निक्की का विवाह हो गया. मैं ने अपने घर की टूटती दीवारों को बचा लिया था. मेरे चेहरे पर संतोष की रेखाएं घिर आई थीं.

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मैट्रो मेरी जान: रफ्तार से चलती जिंदगी की कहानी

मैट्रो का दरवाजा खुला. भीड़ के साथ बासू भी अंदर हो गया. वह सवा 9 बजे से मैट्रो स्टेशन पर खड़ा था. स्टेशन पर आने के बाद बासू ने 4 टे्रनें इसलिए निकाल दीं क्योंकि उन में भीड़ अधिक थी. उस ने इस ट्रेन में हर हालत में घुसने का इरादा कर लिया. इतने बड़े रेले के एकसाथ घुसने से लोगों को परेशानी हुई. एक यात्री ने आने वाली भीड़ से परेशान होते हुए कहा, ‘‘अरे, कहां आ रहे हो भाईसाहब? यहां जगह नहीं है.’’

दरअसल दरवाजे से दूर खड़े लोगों को धक्का लग रहा था. ‘‘भाईसाहब, थोड़ाथोड़ा अंदर हो जाइए. अंदर काफी जगह है,’’ कोच में सब से बाद में चढ़ने वाले एक व्यक्ति ने कहा. वह दरवाजे पर लटका हुआ था.

‘‘हां हां, यहां तो प्लाट कट रहे हैं. तू भी ले ले भाई,’’ अंदर से कोई बोल पड़ा. यह व्यंग्य उस व्यक्ति की समझ में नहीं आया. उस ने कहने वाले का चेहरा देखने का प्रयास किया पर भीड़ में पता न चला.

‘‘क्या मतलब है आप का? मैं समझा नहीं,’’ उस ने भी हवा में मतलब समझने का प्रयास किया.

‘‘जब समझ में नहीं आता तो समझने की तकलीफ क्यों करता है?’’ फिर कहीं से आवाज आई.

पहले वाले ने फिर सिर उठा कर जवाब देने वाले को देखने का प्रयास किया पर मैट्रो की भीड़ ने उस का दूसरा प्रयास भी विफल कर दिया. उसे थोड़ा गुस्सा आ गया.

‘‘कौन हैं आप? कैसे बोल रहे हैं?’’ उस ने गुस्से से कहा.

‘‘क्यों भाई, आई कार्ड दिखाऊं के?’’ जवाब भी उतने ही जोश में दिया गया.

‘‘ला दिखा,’’ उस ने भी कह दिया.

‘‘तू कोई लाट साहब है जो मेरा आई कार्ड देखेगा?’’ वह भी बड़ा ढीठ था.

इस के साथ ही वाक्युद्ध शुरू हो गया. कोई किसी को देख नहीं पा रहा था. गालीगलौज का दौर पूरे शबाब पर आ कर मारपीट में तब्दील होने वाला था कि लोगों ने दोनों अदृश्य लड़कों के बीच में पड़ कर युद्ध विराम करवा दिया. इतने में पहले वाले का स्टेशन आ गया. वह बड़बड़ाता हुआ स्टेशन पर उतर गया. इस के साथ ही सारा मामला खत्म हो गया. अभी टे्रन थोड़ी दूर ही चली होगी कि एकाएक धीमी हुई और रुक गई. इस के साथ ही घोषणा होने लगी :

‘इस यात्रा में थोड़ा विलंब होगा. आप को हुई असुविधा के लिए खेद है.’ इस पर यात्रियों के चेहरे बिगड़ने लगे.

‘‘ओ…फ्…फो….या…र…व्हाट नानसेंस.’’

‘‘यार…यह तो रोजरोज की बात हो गई.’’

‘‘हर स्टेशन पर खड़ी हो जाती है.’’

‘‘आजकल रोज औफिस देर से पहुंचता हूं. बौस बहुत नाराज रहता है. उस को क्या पता कि मैट्रो की हालत क्या हो रही है,’’ एक ने अपनी परेशानी बताई.

‘‘एक दिन बौस को मैट्रो में ले आओ. उस को भी पता चल जाएगा,’’ इस मुफ्त की सलाह के साथ ही एक जोर का ठहाका लगा. किसी ने हंसतेहंसते कहा, ‘‘श्रीधरन को भी ले आओ. उसे भी इस रूट की हालत पता चल जाएगी.’’ और इसी के साथ सुझावों की झड़ी लग गई.

‘‘भाई साहब, जब तक कोच नहीं बढ़ेंगे तब तक समस्या नहीं सुलझेगी,’’ एक ने कहा.

‘‘मेरे खयाल में फ्रीक्वेंसी बढ़ानी चाहिए,’’ एक महिला ने बहुमूल्य सुझाव दिया.

‘‘फ्रीक्वेंसी बढ़ाने से कुछ नहीं होगा. कोच ही बढ़ाने चाहिए.’’

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इस के साथ ही मैट्रो चल पड़ी. लोग चुप हो गए. थोड़ी देर में ही मैट्रो ने सीटी बजाते हुए स्टेशन मेें प्रवेश किया. चढ़ने वाले कतारबद्ध खड़े थे. दरवाजा खुलते ही लोग बाड़े में बंद भेड़बकरियों की तरह अपनेअपने गंतव्य की ओर भागे. इस तेजी से कुछ लोगों का मन  खिन्न हो उठा. ‘‘एक जमाना हुआ करता था. लोग फुरसत के क्षणों को बेहतरीन ढंग से बिताने के लिए कनाट प्लेस आया करते थे. गेलार्ड रेस्टोरैंट और शिवाजी स्टेडियम के पास बना कौफी हाउस तो कनाट प्लेस की जान और शान हुआ करते थे. कौफी हाउस में बुद्धजीवियों का जमघट रहता था. लंबेलंबे बहस मुबाहिसे चलते रहते थे. किसी को जल्दी नहीं,’’ एक व्यक्ति ने कनाट प्लेस के इतिहास की झलक दिखाई.

‘‘अरे, अपनीअपनी विचारधारा और मान्यताओं के हिसाब से जीनेमरने वाले लोग तर्कवितर्क की रणभूमि में जब अपनेअपने अस्त्रशस्त्र के साथ उतरते थे तो बेचारी निरीह जनता कौतूहल से मूकदर्शक बनी देखती, सुनती रहती थी. इस बौद्धिक युद्ध में आराम तो कतई हराम था. युद्धविराम तभी होता था जब मुद्दे का कोई हल निकल आता था. वक्त की कोई बाधा न थी.’’ दूसरे ने कनाट प्लेस का बौद्धिक पक्ष उजागर किया.

दूर खड़े एक सज्जन बड़ी देर से सबकुछ सुन रहे थे. वह भी बहती गंगा में हाथ धोने का लोभ संवरण नहीं कर पाए. उन के अंदर का कलाकार बाहर आ कर कहने लगा, ‘‘कई कलाकार, साहित्यकार और रचनाशील प्रकृति के हुनरमंद लोग हाथ में कौफी ले कर अधखुली पुतलियों को घुमाते हुए शरीर की बाधा को लांघ जाते थे. किसी और दुनिया में विचरण करतेकरते कालजयी कृतियों को जन्म दे डालते थे.’’

बासू के पास इस से ज्यादा सुनने का वक्त न था. वह तेजी से उतरा. भीड़ के रेले के साथ लगभग भागते हुए नीचे केंद्रीय सचिवालय-जहांगीरपुरी मैट्रो रेल लाइन पर पहुंच गया. गनीमत थी कि यहां की लाइन छोटी थी. 2 मिनट में ट्रेन आ गई. दरवाजा खुला. एक रेला तेजी से निकला. ज्यादातर लोग एस्केलेटर की ओर भागे. दरवाजे से भीड़ छटते ही वह तेजी से ट्रेन में घुस गया. अगला स्टेशन पटेल चौक था. स्टेशन आते ही वह उतरा और तेजी से सीढि़यों की ओर भागा. यहां पर ‘इफ यू वांट टू स्टे फिट, यूज स्टेअर्स’ लिखा हुआ था. परंतु लोग उन का उपयोग स्वेच्छा से नहीं, अपितु मजबूरी में कर रहे थे क्योंकि एस्केलेटर पर भारी भीड़ थी. उस ने जल्दीजल्दी कदम बढ़ाने शुरू किए. यातायात की चिल्लपों के साथसाथ चलते हुए वह अपने दफ्तर के सामने आ गया. यहां पर हड़बड़ी में असावधानी से सड़क पार करना अपनी मौत को दावत देने जैसा ही था. पता नहीं कब कौन सा वाहन आप की मौत का सामान बन जाए. उस ने सड़क पर दोनों ओर देखा और तेजी से सड़क पार करने लगा.

शाम को औफिस से निकलने के बाद जब वह राजीव चौक पहुंचा तो वहां का नजारा देख कर दंग रह गया. पूरा स्टेशन कुंभ मेले में तब्दील हो चुका था. जिधर देखो सिर ही सिर. यों तो लाइनें लगी हुई थीं. लाइनों में लगे पढ़ेलिखे, नौकरीपेशा और जागरूक नागरिक थे. पर जैसे ही ट्रेन आती, सारी तमीजतहजीब गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो जाती.

लाइन मेें खड़े कुछ लोग बेचारे शराफत के पुतले बन कर चींटी की गति से आगे बढ़ रहे थे. उधर ‘बी प्रैक्टीकल, टैंशन लेने का नहीं, देने का है’ टाइप के लोग इस लोचेलफड़े में पड़ने को तैयार नहीं थे. वे लाइन की परवा किए बगैर सीधे ट्रेन में चढ़ रहे थे. इस पुनीत कार्य में महिला सशक्तीकरण से सशक्त हुई महिलाएं भी कतई पीछे न थीं. तमीज, तहजीब और कायदेकानून से चलने वाले लोग यों भी आज के जमाने में निरीह और बेचारे ही सिद्ध हो रहे हैं. अपने देश में विदेशों की कानून व्यवस्था की तारीफ के पुल बांधने वालों की कमी नहीं है. देश में इस के पालनहार गिनती के हैं. तुर्रा यह कि इस देश में वे लोग भी नियमकानून का पालन नहीं करते जो कई वर्ष विदेशों में रह कर आते हैं. जो वहां मौजूद सुविधाओं के बारे में बिना रुके बोलते रहते हैं.

एक दिन उसे मैट्रो कोच में कहीं से एक महिला की तेज आवाज सुनाई दी. वह किसी आदमी से मुखातिब थी, ‘‘आप जरा ठीक से खड़े होइए,’’ उस ने गर्जना की. ‘‘भीड़ इतनी है. क्या करें?’’ उस आदमी ने सच में दूर होने की कोशिश करते हुए कहा. पर कुछ अधिक नहीं कर पाया तो बोला, ‘‘अगर इतनी समस्या है तो आप टैक्सी क्यों नहीं कर लेतीं? यहां तो ऐसा ही होता है,’’ उस ने सचाई बताने की कोशिश की.

‘‘शटअप, इडियट.’’

पुरुष के कुछ कहने से पहले ही स्टेशन आ गया. महिला को वहीं उतरना था, सो वह उतर गई. पुरुष कसमसा कर रह गया. किसी महिला पीडि़त व्यक्ति ने उस की पीड़ा बांटते हुए कहा, ‘छोड़ो भाईसाहब, जमाना इन्हीं का है. बड़ी बदतमीज हो गई हैं ये,’’ उस के इस वाक्य से उस के जख्मों पर मरहम लग गया. वह ‘और नहीं तो क्या?’ कह कर शांत हो गया.

तभी सीट पर बैठी एक महिला ने अपने आसपास नजर दौड़ाई. वह उतरना चाह रही थी. सो उस ने रास्ते में खड़े लगभग 65 साल के आदमी से पूछा, ‘‘आप कहां उतरेंगे?’’ इस प्रश्न के लिए वह सज्जन तैयार नहीं थे. सो वह अचकचा गए. उन्हें अपनी निजता पर किया गया यह हमला कतई पसंद नहीं आया. सो उन्होंने प्रश्न के मंतव्य पर गौर न करते हुए जवाबी मिसाइल दाग दी.

‘‘व्हाई शुड आई टैल यू?’’

यह सुन कर महिला स्तब्ध रह गई और वह चुपचाप अपने स्टेशन पर उतर गई. वह सज्जन भी शांत हो अपने स्टेशन पर उतर गए. तभी किसी ने बताया, ‘‘दरअसल मैट्रो के लगातार विस्तार ने जहां एक ओर सुविधाएं दी हैं वहीं दूसरी ओर कुछ समस्याएं भी उत्पन्न कर दी हैं.’’ एक दिन बासू सुबह कुछ जल्दी निकला. उस ने देखा कि डब्बे के बीच में कालेज के कुछ विद्यार्थियों का झुंड खड़ा है. उन के युवा होने की खुशबू पूरे कोच में फैल रही थी. लड़कियां तितलियों की मानिंद और लड़के उन्मुक्त पंछियों की तरह मानो खुले आकाश में विचरण कर रहे हों. हंसी के ठहाके गूंज रहे थे. तभी एक लड़की ने लड़के से पूछा, ‘‘ओए प्रिंस, तेरी प्रैक्टीकल की फाइल कंपलीट हो गई?’’

‘‘तू अब पूछ रही है. वह तो मैं ने कब की कंपलीट कर के सबमिट भी करा दी.’’

‘‘चल, झूठा कहीं का,’’ यह कहने के साथ ही उस लड़की ने उस के गाल पर एक प्यार भरी चपत भी जड़ दी. मानो यह प्यारे से झूठ की प्यारी सी सजा हो.

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‘‘मैं झूठ नहीं बोल रहा. तू रवि से पूछ ले,’’ लड़के ने फिर झूठ बोला.

‘‘ओए, उस से क्या पूछूं. वह तो है ही एक नंबर का झूठा,’’ यह कहने के साथ ही उस ने रवि की पीठ पर भी एक हलकी सी चपत रख दी.

‘‘ओए, नैंसी…क्या कर रही है. मुझे क्यों मार रही है? मैं ने क्या किया है?’’ रवि ने प्यार भरी झिड़की दी.

‘‘ओए, तू ही सब का गुरु है,’’ अब स्वीटी ने उस के गाल पर हलकी चपत मारते हुए कहा.

‘‘यार, तू भी शुरू हो गई,’’ उस ने स्वीटी की तरफ दिलकश नजरों से देखते हुए कहा.

‘‘इस पुनीत से पूछते हैं. इस ने अब तक क्या किया है?’’ अब दीपिका ने नैंसी और स्वीटी की ओर देखते हुए कहा.

‘‘यार, क्या बताऊं, मेरा तो बहुत बुरा हाल है. मैं ने तो अब तक फाइल भी नहीं बनाई,’’ पुनीत ने मायूसी से कहा.

‘‘ओ हो हो…इस बेचारे का क्या होगा,’’ दीपिका ने अफसोस जताने का अभिनय करते हुए कहा.

‘‘यूनिवर्सिटी आ गई. चलो उतरो,’’ नैंसी ने प्रिंस को लगभग आगे की ओर धकेलते हुए कहा.

इस के साथ ही वे हंसते हुए उतर गए. उन के जाते ही ऐसा लगा मानो चहचहाते पंछियों का कोई झुंड पेड़ से उड़ कर मुक्त गगन में विचरण करने चला गया हो. एक दिन एक अधेड़ युवक और एक  युवती कोच को जोड़ने वाले ज्वाइंट  पर खड़े अपनी बातों में मशगूल थे. एक स्टेशन पर अचानक कुछ लड़कियां और कुछ स्त्रियां कपड़े, बरतनों की पोटली लिए उन के करीब आ धमकीं. वे पोटलियां इधरउधर फैला कर वहीं बैठ गईं. इस प्रयास में पोटली पास खड़े युवक की पैंट से टकरा गई.

‘‘अरे, तुझे दिखाई नहीं देता क्या?’’ युवक ने नाराज होते हुए कहा.

‘‘ऐसा क्या कर दिया जो बोल रहा है?’’ स्त्री उस की ओर देखते हुए बोली.

‘‘पोटली मार कर मेरी पैंट खराब कर दी और पूछ रही है कि क्या कर दिया?’’ उस ने गुस्से से देखते हुए कहा.

‘‘तो क्या हो गया? चढ़नेउतरने में ऐसा ही होता है.’’

‘‘ऐसा कैसे होता है? पोटली ले कर चलते हो. दूसरों के कपड़े खराब करते रहते हो.’’

‘‘ओए, ज्यादा बकवास न कर. मैट्रो तेरे बाप की नहीं है.’’

इस के बाद वह युवक भी गुस्से में कुछ और कहना चाहता था पर तभी किसी नेक आदमी ने नेक सलाह दी, ‘‘अरे, भाई साहब, किस के मुंह लग रहे हो? इन से आप जीत नहीं सकते. समझदार लोग बेवकूफों के मुंह नहीं लगा करते.’’ अपनेआप को समझदार सुनने के बाद वह आदमी चुप हो गया. हां, उस ने इतना अवश्य किया कि वहां से हट कर दूर खड़ा हो गया. नए साल के नए दिन जब बासू ट्रेन में चढ़ा तो अजब वाकया पेश आ रहा था. बहुत सारे लोग कान पर मोबाइल लगाए बातों में मशगूल हो रहे थे. अपनीअपनी धुन में मस्त. एक सज्जन कान से मोबाइल लगाए चिल्ला कर कुछ इस तरह बधाई दे रहे थे, ‘‘नहीं यार, मैं हैप्पी न्यू ईयर कह रहा हूं.’’ वहीं दूसरे सज्जन कुछ गुस्से में किसी को फोन पर धमका  रहे थे, ‘‘अबे तू पागल है. इतनी बात हो गई और तुझे हैप्पी न्यू ईयर की पड़ी है. कुछ सोचता भी है या नहीं…’’

एक अन्य सज्जन मोबाइल पर कुछ झल्ला रहे थे, ‘‘चिल्ला क्यों रहा है. मैं कोई बहरा हूं? तेरी गलती है. पहले बताना चाहिए था.’’

‘‘कितनी बार बता चुका हूं? पर तुझे सुनाई ही नहीं देता,’’ ये कोई और सज्जन थे जो फोन पर किसी को डांट रहे थे.

एक सज्जन सिर हिला कर किसी की बात से सहमत होते हुए बोल रहे थे, ‘‘हां हां, चाची 60 की हैं, साली 16 की.’’

‘‘तू ऐसा कर 60 वाली रहने दे और 16 वाली 100 भेज दे,’ उन के बगल में खड़े सज्जन फोन पर स्टील प्लेट्स का आर्डर दे रहे थे.

एक सज्जन फोन पर कुछ यों बोल रहे थे, ‘‘यार, बाहरवाली से ही इतना परेशान हो जाता हूं कि घरवाली की चिंता कौन करे?’’ तो उन्हीं के पास खड़े एक अन्य सज्जन किसी को इस तरह सांत्वना दे रहे थे, ‘‘यार, तू उस की टैंशन मत ले. उसे मैं संभाल लूंगा.’’ एक लड़का अपनी गर्लफ्रैंड से कुछ नोट्स लेने के लिए बड़ी देर से उस की चिरौरी कर रहा था. अचानक उस की आवाज तेज हो गई, ‘‘यार, इतनी देर से मांग रहा हूं, दे दे ना.’’

वहीं एक कोने में कंधा टिकाए खड़ी लड़की हंसते हुए अपने बौयफ्रैंड को यह कह कर नचा रही थी, ‘‘यार, जब देखो तब कुछ न कुछ मांगते रहते हो. मेहनत करो. कब तक मांगते रहोगे?’’ तभी दरवाजे के पास एक ग्रुप आ कर खड़ा हो गया. इस में 2 लड़के और 2 लड़कियां थीं. उन की बातचीत से लग रहा था कि वे डेटिंग पर जा रहे हैं. उन में से एक लड़का फोन पर बड़ी देर से किसी से हंसहंस कर बात कर रहा था. उस के पास खड़ी लड़की काफी परेशान हो रही थी. जब उस से न रहा गया तो वह बोल पड़ी, ‘‘ओए, हम भी हैं. भूल गया क्या?’’

काफी इंतजार करने के बाद जब उस ने फोन बंद किया तो लड़की ने हाथ बढ़ा कर उस का सेल फोन छीनने की कोशिश की. फोन स्विच औफ हो गया. लड़का भाव खा गया, ‘‘क्या यार, सोमी तू भी कमाल है. बात भी नहीं करने दी,’’ उस ने गुस्से से कहा.

‘‘हम यहां बेवकूफ हैं,’’ सोमी ने जवाब में कहा, ‘‘तू हमें अवौइड कर के इतनी देर से उस से बातें कर रहा है और हम से कह रहा है कि 2 मिनट सब्र नहीं कर सकती.’’

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‘‘लीव इट यार,’’ दूसरा लड़का जो काफी देर से शांत था, अब बोल पड़ा.

‘‘व्हाई लीव इट? सोमी सही कह रही है,’’ दूसरी लड़की ने सोमी का पक्ष लिया.

‘‘ओके. आई नो. पर बात को खत्म करो यार,’’ रोमी ने कहा.

‘‘मैं ने बहुत बार कहा पर यह नहीं माना. ज्यादा स्मार्ट समझता है अपने को,’’ सोमी ने कहा.

‘‘टैनी, मैं साफसाफ कह रही हूं. अगर तुझे वह पसंद है तो तू उसी के साथ जा पर यह नहीं होगा कि तू डेटिंग पर मेरे साथ जा रहा है और मजे किसी और के साथ कर रहा है. ऐसा नहीं चलेगा.’’

‘‘यार, तेरी प्रौब्लम क्या है? तू क्या करेगी,’’ वह भी भाव खाने लगा.

‘‘मैं तेरा फोन तोड़ डालूंगी.’’

‘‘ले तोड़,’’ यह कहने के साथ ही वह फिर फोन मिलाने लगा.

इस पर सोमी आपा खो बैठी. उस ने हाथ बढ़ा कर फोन छीनना चाहा. लड़के ने फोन जोर से पकड़ लिया. दोनोें के बीच छीनाझपटी में फोन मैट्रो के फर्श पर गिर कर टूट गया. दोनों के चेहरे तमतमा गए. तकरार में डेटिंग की मस्ती खत्म हो चुकी थी. इसलिए डेटिंग को वेटिंग बना चारों अगले स्टेशन पर उतर गए. तभी एक सज्जन के फोन की घंटी बज उठी, ‘‘हैलो…हैलो…’’

‘‘मैं हरी बोल रहा हूं,’’ दूसरी ओर से आवाज आई.

‘‘हां हरी, बोलो. क्या बात है?’’ उन्होंने पान की गिलौरी चबाते हुए कहा.

‘‘बाबा के क्या हालचाल हैं? पापा कह रहे हैं कि आज शाम को बाबा के घर जाएंगे,’’ दूसरी ओर से आवाज आई.

इस पर उन्होंने पान चबाते हुए जवाब दिया, ‘‘बाबा तो अजमेर गए.’’ तभी मैट्रो राजीव चौक में प्रवेश करने लगी. अंडरग्राउंड होेने से यहां कभीकभी फोन का नेटवर्क काम नहीं करता, सो उन के लाख चिल्लाने का कोई फायदा नहीं हुआ. नेटवर्क फेल हो गया और मैट्रो सीटी बजाती हुई तेजी से आगे बढ़ी जा रही थी.

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क्षितिज ने पुकारा: क्या पति की जिद के आगे झुक गई नंदिनी?

Serial Story: क्षितिज ने पुकारा (भाग-2)

अब तक आप ने पढ़ा:

 दिल की कोमल नंदिनी थिएटर आर्टिस्ट थी. नंदिनी का थिएटर में काम करना पति रूपेश को पसंद नहीं था. एक दिन रिहर्सल के दौरान देर हो गई. घर जाने के लिए बस नहीं मिली तो उस के साथ काम करने वाला प्रीतम अपने स्कूटर पर उसे घर तक छोड़ने गया. घर पर उस का पति रूपेश गुस्से से भरा बैठा उस का इंतजार कर रहा था, जिस ने उसे खूब खरीखोटी सुनाई. रूपेश उसे बहुत कष्ट देता था. सास की मृत्यु के बाद घर में बूआ सास की हुकूमत चलती थी, जिस की खुद की जिंदगी काफी संघर्ष से बीती थी.

अभाव में पलीबढ़ी जिंदगी से बूआ सास हमेशा नकारात्मक सोच ही रखती थीं, जिस का प्रतिबिंब पति रूपेश पर भी गहरा पड़ा था.

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ज्योत्सना की खिलीखिली अनुभूतियां कितनी ही रातें नंदिनी को आसमान की सैर करा देती थीं, मगर आज रिसते दर्द पर शूल सा चुभ रहा था यह चांद. भूखीप्यासी वह तंद्राच्छन्न होने लगी ही थी कि अचानक लड़ाकू सैनिक सा रूपेश कमरे में आ धमका. बत्ती जला दी उस ने. वितृष्णा और प्रतिशोध से धधकते रूपेश को नंदिनी की शीलहीनता और कृतध्नता ही दिखाई देने लगी थी.

टूटी, तड़पती नंदिनी उठ कर बिस्तर पर बैठ गई.

‘‘महारानी इधर आराम फरमा रही हैं… यह नहीं कि देखे बूआ सास और पति को क्या दिक्कतें हैं? बहुत सह ली मैं ने तुम्हारी मनमानी… बूआ ने सही चेताया है… ब्राह्मण परिवार की बहू को पराए मर्दों के साथ हजारों लोगों के सामने नौटंकी कराना हमारी बिरादरी में नहीं सुहाता. हमारे घर बेटी है. कभी बेटी की फिक्र भी करती हो? तुम्हारे 4-5 हजार रुपयों से हमें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला… सोच लो वरना चली जाना हमेशा के लिए.’’

रूपेश ने नंदिनी के थिएटर के प्रेम पर, उस के काम पर दफन की आखिरी मिट्टी डाल दी थी.

थिएटर का काम अब फायदे वाला नहीं रह गया. इस में खर्चे तो बहुत पर कला के कद्रदान कम हो गए हैं. ऐसे में थिएटर में काम करने वालों को बहुत कम पैसे दिए जाते हैं. जो पुराने कलाकार हैं, जो कला के प्रति समर्पित हैं, उन्हें अपने फायदे का त्याग करना पड़ता है.

औडिटोरियम, लाइट्स, स्टेज सज्जा, वस्त्र सज्जा, साउंड इफैक्ट, स्पैशल इफैक्ट पर हर स्टेज शो के लिए कम से कम क्व30-40 हजार का खर्चा बैठता ही है और वह भी कम पैमाने के नाटक के लिए. ऊपर से प्रचार और विज्ञापन का खर्चा अलग से.

ऐसे में शुभंकर दा या प्रीतम जैसे लोग अपना पैसा तो लगाते ही हैं, बाहर से भी मदद का जुगाड़ करते हैं. उन के समर्पण को देखते हुए नंदिनी जैसे कलाकार जो सिर्फ अपना थोड़ा समय और थोड़ी सी कला ही दे सकते हैं कैसे उन के साथ पैसे के लिए जिद करें?

अपने परिवार की ओछी सोच के आगे अगर नंदिनी जैसे लोग हार मान लें तो थिएटर जैसा रचनात्मक क्षेत्र लुप्तप्राय हो जाए.

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नंदिनी निढाल सी बिस्तर पर पड़ी रही. रूपेश नीचे जा चुका था. सुबह के 5 बज रहे थे. नंदिनी बिस्तर समेट नहाधो आई. फिर वेणु को उठाया,

सोई निबटा कर वेणु को स्कूल बस तक छोड़ आई. आ कर सब को नाश्ता कराया. किसी ने उस से नहीं पूछा. वह खा नहीं पाई. घर के बाकी काम निबटाती रही.

रूपेश के औफिस जाने से पहले जिस का फोन आया, उस से वह बहुत उत्साहित हो कर बातें करने लगा.

नंदिनी के पास इतना अधिकार नहीं रह गया था कि वह रूपेश से कुछ पूछ सके. फोन रख कर जैसाकि हमेशा बात करता था एक बौस की तरह अभी भी उसी अंदाज में नंदिनी से बोला, ‘‘ये रुपए पकड़ो, बाजार से जो भी इच्छा लगे ले आना. बढि़या व्यंजन बना कर रखना. शाम को मेरा दोस्त नयन और उस की पत्नी शहाना आ रहे हैं. कहीं जाने की गलती न करना वरना मुझ से बुरा कोई नहीं होगा.’’ यह कहीं का मतलब थिएटर ही था.

पत्नी से बात करना रूपेश ने कभी सीखा ही नहीं. अत: नंदिनी ने भी अपनी जिंदगी के अभावों से समझौता कर लिया था.

मगर कल तक उस के नाटक का आखिरी रिहर्सल था. परसों से शो. कोलकाता के 2 हौल्स में टिकट बिकने को दिए गए थे. अब यह धोखा नंदिनी कैसे करे?

शाम को घर का माहौल काफी बदला सा था. करीने से सजे घर में महंगे डिजाइनर सैटों की साजसज्जा के बीच सलीके से सजी नंदिनी इतने शोर के बीच बड़ी शांत सी थी. शहाना शोरगुल के बीच भी नंदिनी पर नजर रखे थी. वेणु को भी वह काफी कटाकटा सा पा रही थी. कौफी का कप हाथ में लिए शहाना नंदिनी के पास जा पहुंची. फिर उस का हाथ पकड़ते हुए बोली, ‘‘चलो कहीं घूम आती हैं. अभी तो शाम के 6 ही बजे हैं… खाना 10 बजे से पहले खाएंगे नहीं.’’

‘‘आप कहें तो मेरी पसंदीदी जगह चलें?’’

‘‘नंदिनी मुझे तुम आप न कहो. चलो, चलें.’’

शहाना नंदिनी को ले पति बिरादरी के पास पहुंच चुकी थी. उन की बातें सुन नंदिनी अवाक रह गई. नयन भी तो पुरुष हैं, पति हैं, यह कैसे संभव हो पाया.

नयन कह रहे थे, ‘‘इतना ही नहीं शहाना अपनी साल भर की बेटी को मेरी मां के घर राजोरी गार्डन छोड़ती, तब डांस ऐकैडेमी जा कर डांस के गुर सीखती. हफ्ते में 3 दिन उसे ग्रेटर नोएडा से आनाजाना पड़ता… बहुत संघर्ष कर के उस ने अपने डांस के शौक को बचाया है. यह इस के संघर्ष का फल है कि कल कोलकाता के टाउनहौल में इस की एकल प्रस्तुति है. मैं बहुत गर्वित हूं शहाना पर.’’

‘‘अरे नयन, तुम ज्यादा बोल रहे हो… ये सब तुम्हारे बिना बिलकुल संभव नहीं होता. अगर तुम घर में मेरी गैरमौजूदगी में घर को न संभालते तो मैं कहां आगे बढ़ पाती? सासूमां ने भी बेटी को संभालने के लिए कभी मना नहीं किया.’’

‘‘एक स्त्री के लिए घर और अपने शौक दोनों को एकसाथ संभालना कितना मुश्किल भरा काम है, मैं ही समझ सकती हूं. नौकरी एक बार में छोड़ी जा सकती है, पर कला, हुनर और जनून से मुंह मोड़ना नामुमकिन है. लेखन, नाटक, गायन, नृत्य क्षेत्र बेहद समर्पण मांगते हैं. ऐसे में एक समझदार, स्नेही और निस्वार्थ पति के संरक्षण में ही विवाहित स्त्री का शौक फूलफल सकता है,’’ कह शहाना थोड़ी रुक कर फिर बोली, ‘‘रूपेश भाई साहब हम घूमने जा रहे हैं. नंदिनी भी साथ जा रही हैं,’’ भाई साहब.

‘‘हांहां, क्यों नहीं?’’

पति के इस उदारवाद के पीछे की मानसिकता भी नंदिनी से छिपी नहीं थी. रूपेश अपनी छवि को ले कर दूसरों के सामने बहुत सचेत रहता था. उसे अभिनय का सहारा लेना पड़ता.

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ये भी विडंबना ही है. अन्य के चरित्र चित्रण में नंदिनी ने स्वयं को वास्तव में कभी नहीं खोया, लेकिन स्वयं के चरित्र में रूपेश को अन्य को धारण करना पड़ता है, खुद को छिपाना पड़ता है. नंदिनी शहाना को टौलीगंज के ड्रामा स्कूल ले गई.

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Serial Story: क्षितिज ने पुकारा (भाग-3)

‘‘अरे वाह, यह हमारा मनपसंद इलाका है. बंगाल के चलचित्र महानायक उत्तम कुमार का कर्मस्थान.’’

‘‘तुम्हें पसंद आएगा, मैं जानती थी.’’

‘‘तुम यहां किसी को जानती हो?’’

ड्रामा स्कूल में प्रवेश करते हुए नंदिनी शहाना से मुखातिब हुई, ‘‘यह ड्रामा स्कूल शुभंकर दा का है… मैं यहां सदस्य हूं.’’

‘‘तुम? तुम तो बड़ी सीधी सी बेजबान कोमलांगिनी, शरमीली, गृहवधू हो.’’

‘‘चलो, अंदर चलो,’’ नंदिनी ने मृदु स्वरमें कहा.

शुभंकर की टीम को नंदिनी का आगमन स्वयं कला की देवी के आविर्भाव सा प्रतीत हुआ.

इधरउधर बैठे टीम के सदस्य अपनेअपने रोल की प्रैक्टिस कर रहे थे. नंदिनी का रोल ही आधार चरित्र था. उस के बिना नाटक कर पाना असंभव था. नंदिनी को देख सभी बड़े खुश हुए, मगर नंदिनी कल की चिंता में बेचैन थी.

शुभंकर दा ने नंदिनी की बेचैनी को भांप लिया. आज शुभंकर दा की पत्नी अनुभा भाभी भी यहां थीं. जब से इन का बेटा अमेरिका गया था नौकरी के लिए, अनुभा भाभी कोई न कोई नया कुछ पकवान बना कर यहीं ले आती.  शुभंकर दा ने जब नंदिनी से बेचैनी का कारण पूछा तो उस की आंखों से आंसू बहने लगे.

अनुभा भाभी ने उसे अपने पास बैठाया. शहाना और टीम के सभी सदस्य भी पास आ गए, जब नंदिनी के संघर्ष का सच खुला तो शहाना अवाक रह गई कि इतनी जिल्लतें, इतनी धमकियां, दुर्व्यवहार झेलते हुए भी वह घर और अपने शौक के जनून दोनों के साथ न्याय कैसे कर पा रही हैं?

शहाना ने कहा, ‘‘नंदिनी तुम अब सब कुछ मुझ पर छोड़ दो. तुम्हारे शो का टाइम 8 बजे से है और मेरा शाम 4 से 6 बजे तक… सब ठीक हो जाएगा,’’ और फिर घर लौट आईं.रात को शहाना ने नयन को ऐसी जादुई खुशबू सुंघाई कि नयन ने कहा, ‘‘बस देखती जाओ.’’

सुबह होते ही नयन ने कहा, ‘‘यार मैं सोफे में धंस कर बंद दरवाजे के अंदर सुबह के सूरज को खोना नहीं चाहता. चल बाहर सैर को चलें.’’

दोनों पास के बगीचे की तरफ निकल गए. चलतेचलते नयन ने कहा, ‘‘यार रूपेश तुम्हारी बिरादरी में तो अकसर बीवियां गुणी होती हैं. घरगृहस्थी और पतिसेवा के अलावा भी उन की जिंदगी के कुछ मकसद होते हैं… नंदिनी भाभी क्या कुछ नहीं करतीं?’’

‘‘अरे छोड़ न तू भी क्या ले कर बैठ गया?’’

‘‘क्यों इस बात में क्या बुराई है?’’

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‘‘बुराई है… न मुझे और न ही बूआ को यह रास आता कि औरतें घर संभालने के अलावा भी कुछ करें और अगर करें तो इतना पैसा कमाएं कि उन का घर से बाहर निकलना परिवार वालों को भा जाए.’’

‘‘यार बुरा मत मानना. तुम लोगों की इन्हीं छोटी सोचों की वजह से पीढि़यां बस घिसट रही हैं. वास्तविक उन्नति नहीं हो पा रही है.’’

‘‘स्वार्थ, अहंकार, ईर्ष्या, जिद के वश में हो कर तुम लोग जो भी नियम बनाते हो उसे पत्नी पर थोप देते हो.’’

‘‘यार रूपेश तेरी सोच से 3 दशक पुरानी बू आ रही है. तेरी बूआ से बातें कर के लगा कि उन्होंने अपनी पूरी सोच तुझ में स्थानांतरित कर दी है. तू तो हमारी पीढ़ी का लगता ही नहीं.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘और क्या… बापदादों सा अकड़ू, तर्कहीन, निर्दयी… क्या खाख आधुनिक है तू? नए आधुनिक उपकरणों के इस्तेमाल से स्वयं को आधुनिक नहीं बना सकते दोस्त… विचारों के बंद दरवाजे से सूरज लौट रहा है… बूआ की छोड़ रूपेश… उन्हें जो न मिला वह शायद उन के हिस्से में न था. तू अपना पारिवारिक जीवन क्यों नष्ट कर रहा है? बूआ की हर बात से प्रेरित हो कर तुम अपनी बेटी और पत्नी के साथ क्यों दुखद रवैया अपनाते हो?’’

वैसे तो जिद्दी लोगों का कायापलट जल्दी नहीं होता, फिर भी रूपेश ने सोचना शुरू कर दिया. बूआ सारा दिन टीवी सीरियलों के चालाक पात्रों से सीख लेती रहती हैं. अत: वे घर में ही जमी रहीं.

6 बजे शहाना का सफल शो खत्म होने के बाद शहाना और नंदिनी हौल पहुंची. शहाना कोलकाता के थिएटर के प्रति अपनी गहरी रुचि बता कर सभी को यहां ले आई थी. सभी अंदर गए तो नंदिनी ग्रीनरूम चली गई.

रूपेश की आंखें बारबार नंदिनी को ढूंढ़ रही थीं. नाटक शुरू होने पर रूपेश को भ्रम होने लगा कि क्या यह नंदिनी है… हां वही है.

मंच पर पूरी साजसज्जा में अदाकारा नंदिनी को देख वह हैरान था. इतनी डांट, अपमान यहां तक कि शारीरिक यातना के बाद भी जिस की जबान तक नहीं फूटती थी वह कब इतने लंबे डायलौग याद करती होगी? वह तो मानसिक पीड़ा में पेपर भी नहीं पढ़ सकता… कितनी प्रतिभाशाली है यह? उसे इतनी खीज और ईर्ष्या क्यों हो रही है? वह अपने सवालों में उलझ कर दीवाना सा होने लगा.

उस की अब तक की भावना उस के बाहर जाने, मर्दों के साथ गुलछर्रे उड़ाने की काल्पनिक सोच पर ही आधारित थी.

बगल में बैठे नयन ने अचानक उस की बाजू पर अपना हाथ रखा. फिर कहा, ‘‘दोस्त, मैं समझ रहा हूं कि तुम विचलित हो… तुम्हारे लिए अपनी पुरानी सोचों पर विजय पाना कठिन है. मगर तुम पिंजरे में घुट कर मर रहे हो. प्रकृति ने जिसे जो गुण दिया है, उसे विकसित होने के पूरे मौके दो.’’

‘‘वेणु को भी नया सवेरा दो. क्या तुम ने नंदिनी को स्त्री होने की सजा देने का ठेका ले रखा है? वक्त रहते बदल जाओ नहीं तो वक्त की मार पड़ेगी.’’

रात बिस्तर पर चांदनी फिर आई. दोनों के बीच आज शांति की एक झीनी सी दीवार थी, लेकिन रूपेश का उद्वेलित मन पुरुष के कवच में सिमटा ही रह गया, पर चांदनी नंदिनी को महीनों बाद सुकून की नींद दे गई थी.

सुबह शहाना और नयन के जाने के बाद रूपेश भी औफिस निकलने को हुआ.

नंदिनी से दोपहर के खाने का डब्बा पकड़ते हुए रूपेश ने कहा, ‘‘शाम को थिएटर से आते वक्त सब्जियां ले आना. मेरी मीटिंग है… देर हो जाएगी लौटने में. और हां, कल थिएटर नहीं जाना, शोरूम चलेंगे स्कूटी देखने… थिएटर से वापसी में औटो का झंझट ही न रहे तो बेहतर.’’

पुरुष का पति बनना आज पृथ्वी की सब से मीठी घटना लग रही थी. नंदिनी की आंखों से विह्वल प्रेम की मीठी बयार जहां संकोच की दीवार लांघ रूपेश की नजरों से जा टकराई, रूपेश की नजरों ने प्रेयसी के होंठों का लावण्य भरा स्पर्श किया.

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नि:शब्द अनुभूतियों के आलिंगन में बंधी नंदिनी आज ज्योत्सना भरी उसी रात का बेसब्री से इंतजार करने लगी. हो भी क्यों न. यह तो धरती और आसमां का वह मिलन होगा जहां दायरे खत्म हो जाएंगे… क्षुद्र सीमाओं का असीम में विलय हो जाएगा.

Serial Story: क्षितिज ने पुकारा (भाग-1)

शुभंकर सर के ड्रामा स्कूल के गेट से निकल कर नंदिनी औटोस्टैंड की ओर बढ़ी ही थी कि पीछे से प्रीतम प्यारे ने आवाज दी, ‘‘कहां चली नंदिनी? रात हो रही है… शायद ही औटो मिले. चलो, मैं छोड़ देता हूं.’’

नंदिनी रुक गई. एक शालीन मनाही की खातिर. बोली, ‘‘नहीं प्रीतम, अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है. 9 ही तो बजे हैं.’’

‘‘तुम्हारी तरफ वाले औटो अब ज्यादा कहां?’’

नंदिनी ने अपनी चलने की गति बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मिल जाएंगे.’’

प्रीतम पास ही बाइक की स्पीड धीमी कर के चल रहा था.

नंदिनी चिंतित सी बोली, ‘‘प्रीतम, तुम चले जाओ… रूपेश ने देख लिया तो मैं…’’

‘‘ठीक है… चलो तुम्हें औटो में बैठा कर मैं निकल जाऊंगा. अकेले छोड़ दिया और फिर औटो नहीं मिला तो बड़ी मुश्किल होगी,’’ प्रीतम बोला.

कोलकाता शहर का टौलीगंज इलाका नृत्य, संगीत, सिनेमा, थिएटर के नशे में पूरी तरह विभोर. रोजगार देने वाला शहर होने की वजह से जनसंख्या अत्यधिक थी.

नंदिनी का घर सोनारपुर में पड़ता था. अपेक्षाकृत कुछ अविकसित इलाका. रात होते ही औटो की आवाजाही उधर कम हो जाती.

नंदिनी ने चुप्पी तोड़ी. बोली, ‘‘आज तुम अभी घर जा कर फिर एक बार शुभंकर दा के घर जाने वाले हो न स्क्रिप्ट फाइनल करने?’’

‘‘हां जाना ही पड़ेगा. शुक्रवार को शो है. फिर मालदा और रानाघाट भी शो फाइनल करने जाना पड़ेगा… सारी बातें उन के साथ करनी ही पड़ेंगी. चौकीदार के रोल के लिए कोई राजी नहीं हो रहा जबकि छोटा होने के बावजूद वह अहम रोल है.’’

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‘‘हां शुभंकर दा भले ही डाइरैक्टर हैं, लेकिन तुम्हारे बिना तो सारा कुछ असंभव सा है… वैसे टीम मैंबर सब अच्छे ही हैं.’’

‘‘नई त्रिशला अभी अकुशल है. उस के लिए शुभंकर दा की मेहनत थोड़ी ज्यादा हो गई है.’’

‘‘कोलकाता के 2 हौलों के टिकट की व्यवस्था कब तक हो जाएगी?’’

‘‘देखो शुभो दा क्या कहते हैं.’’

‘‘आधा घंटा होने को आया पर अभी तक कोई औटो नहीं आया. चलो बैठो नंदिनी अब जिद से कोई लाभ नहीं,’’ प्रीतम प्यारे बोला.

नंदिनी लाचार हो गई थी, पर प्रीतम का उस के लिए ठहरना उसे गवारा नहीं था… उस के साथ जाने या मतलब रूपेश के हाथों मौत को निमंत्रण देना था.

जैसे ही नंदिनी प्रीतम की बाइक पर पीछे बैठी रूपेश की आंखें, उस के गाल, उस के कान, उस के बाल, उस की मूंछें, उस की भौंहें सब कुछ धीरेधीरे किसी दैत्य सा उस की आंखों के सामने घूमने लगा. वह समझ नहीं पाती कि पता नहीं वे लोग उस पर थोड़ी भी दया क्यों नहीं दिखाते.

नंदिनी के पिता की किराने की छोटी सी दुकान थी. दोनों बेटियों की शादी उन्होंने इसी दुकान के सहारे बड़ी धूमधाम से की थी. लेकिन आसपास बड़ेबड़े मौल्स, शौपिंग सैंटर्स आदि खुल जाने पर उन का महल्ला भी शहर की चकाचौंध में ऐसा गुम हुआ कि उन की दुकान बस मक्खियों का अड्डा बन कर रह गई.

पिता की दुकान से जब घर में फाके की नौबत आ गई तो फाइन आर्ट्स में ग्रैजुएशन करने की नंदिनी ने सोची. वह शौकिया थिएटर करती रहती थी. एक दिन प्रयोजन ने शुभंकर दत्ता के थिएटर स्कूल से उसे जोड़ दिया. शुभंकर दत्ता थिएटर से जुड़े समर्पित व्यक्तित्व थे. प्रीतम उन का दाहिना हाथ था, जो प्राइवेट फर्म में नौकरी के साथसाथ थिएटर और रंगमंच के प्रति भी पूरी तरह समर्पित था.

इस के अलावा यहां स्त्रीपुरुष मिला कर करीब 20 लोगों की टीम थी, जो थिएटर मंचन के लिए बाहर भी जाती और कोलकाता के अंदर भी हौल बुक कर टिकट बेच अपना शो चलाती.

ये सब भले ही पैसों की जरूरत के मारे थे, लेकिन जनून इतना था कि न इन्हें अपना न स्वास्थ्य दिखता न पैसा… न समय दिखता, न परिवार यानी थिएटर ही इन का सब कुछ बन गया था. लेकिन जितना ये इस थिएटर से कमाते, उस से कहीं ज्यादा इन्हें इस में लगाना पड़ जाता. खासकर शुभंकर और प्रीतम तो जैसे इस यूनिट को चलाए रखने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार रहते. वहां टीम के बाकी लोग भी कभी अपना समर्पण कम न करते.

रचनात्मकता के स्रोत जैसे इन के बीच लगातार फूटते रहते.

‘‘रुकोरुको प्रीतम… मैं यहीं उतर जाऊंगी,’’ कहते नंदिनी गाड़ी के धीरे होने से पहले ही उतरने की कोशिश करने लगी.

‘‘इतनी दूर अंदर तक अकेले जाओगी?’’

‘‘तुम चले जाओ प्रीतम…मैं रूपेश को फोन करती हूं.’’

कई बार फोन मिलाने के बावजूद कोई उत्तर नहीं. प्रीतम को न चाहते हुए भी अनदेखा कर वह घर की ओर चल पड़ी. प्रीतम प्यारे बड़ा खुशमिजाज, सच्चा और मददगार इनसान है. वह समझ गया था कि नंदिनी पति की ओर से काफी परेशानी है.

कई बार शादीशुदा व्यक्ति भी संवेदनशील न होने पर स्त्री की दशा बिना समझे उस पर ज्यादती करता है और कई बार प्रीतम प्यारे जैसे लोग शादीशुदा न हो कर भी संवेदनशील होने के कारण अपने आसपास की स्त्रियों की दशा भलीभांति समझ पाते हैं.

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प्रीतम पाल की इसी नर्मदिली की वजह से टीम की सारी महिलाएं उसे प्रीतम प्यारे कहतीं.

नंदिनी को घर में प्रवेश करते ही रूपेश बैठक में सोफे पर बैठा मिला. अखबार के पीछे छिपे रूपेश के चेहरे को यद्यपि वह पढ़ नहीं पा रही थी, लेकिन उस की मनोदशा से वह अनजान भी नहीं थी.

नंदिनी ने डरते हुए पूछा, ‘‘खाना लगा दूं?’’

शाम 5 बजे नंदिनी थिएटर रिहर्सल के लिए निकलती है तो खाना बना कर ही जाती है.

रूपेश की ओर से कोई जवाब न पा कर उस ने फिर पूछा, ‘‘खाना दे दूं.’’

रूपेश ने बहुत शांत स्वर में कहा, ‘‘खाना हम ले लेंगे. बूआ तो हैं ही नौकरानी… वे ही सब काम कर लेंगी अब से… बेटी भी खुद ही पढ़ लेगी. तुम महारानी बाहर गुलछर्रे उड़ाओ और हमारी थाली में छेद करो.’’

नंदिनी के लिए वह कठिन वक्त होता जब उस के वापस आने से पहले ही रूपेश घर आ चुका होता.

वह इलैक्ट्रिक विभाग में इंजीनियर है. पैसा, रूतबा, घर, गाड़ी सब कुछ है.

दिल की कोमल नंदिनी झगड़ों से बहुत घबराती है, लेकिन अब उस की जिंदगी में झगड़ा, तानेउल्लाहने अहम हिस्सा हैं.

‘‘मुझे माफ कर दो, आज औटो नहीं मिल रहा था.’’

‘‘कैसे आई फिर?’’

‘बिना दोष के कलंकिनी साबित हो जाएगी वह, झूठ का ही सहारा लेना पड़ेगा… मगर शातिर रूपेश ने पकड़ लिया तो,’ पसीने से तरबतर नंदिनी ने सोचा. फिर बोली, ‘‘औटो काफी देर बाद मिला.’’

‘‘जरूरत ही क्या है बाहर जाने की? रोजीरोटी कमाने जा रही हो? हमें पालना पड़ रहा है तुम्हें? कितने पैसे आते हैं महीने में? मुश्किल से 7-8 हजार… इन के न आने से हमें क्या फर्क पड़ेगा? घर में रह कर घर का खयाल नहीं रख सकती? बाप के घर में खाने के लाले पड़े होंगे, जो बेटी का कमाया खाया… यहां हम बीवी का कमाया देखते तक नहीं.’’

‘‘इस की बेटी भी ज्यादा दिन घर में नहीं रहेगी, देख लेना… अभी ही अगर इस की मां को कुछ कह दें तो तुरंत जवाब देती है,’’ बूआ ने आग में घी का काम किया.

नंदिनी का दिल बैठा जा रहा था. ये लोग ऐसे ही बोलते रहेंगे तो 13 साल की बेटी भी जीने का उत्साह खो देगी. पति न समझे तो कैसे वह अपने जनून और कला को जिंदा रखे? कैसे रूपेश को समझाए कि यह 7-8 हजार की बात नहीं है. उस की नसों में, उस के खून के उबाल में अभिनय तड़पता है. उस तड़प की अभिव्यक्ति बिना वह मृतप्राय है.

पत्नी के मन को छुए बिना पति यह कैसे समझे कि यह न तो बाहरी मर्दों को पाने की चाह है, न पैसों की लालसा, न जिम्मेदारियों से भागने की मंशा और न ही पति के साथ प्रतियोगिता.

इस सब के बीच अपनी बेटी को वह कैसे स्त्री होने के मान और गौरव से सजाए यह भी नंदिनी के लिए एक बड़ा प्रश्न था.

बेटी वेणु ने डाइनिंग टेबल पर 2-4 मिनट रुक कर अपना खाना खत्म कर ऊपर अपने कमरे में चली गई. वह बहुत कम बोलती थी. न हंसतीखेलती थी और न ही किसी बात पर अपनी राय देती थी.

बूआ और रूपेश खाना खाते हुए व्यंग्यबाणों से नंदिनी का कलेजा छलनी कर रहे थे..

आए दिन खाते वक्त ही इन का यह सिलसिला शुरू होता और नंदिनी भूखे

पेट ही रह जाती. रसोई का काम निबटा कर वह अपने कमरे में चली गई. बेटी को झांका. वह

सो चुकी थी. अपने कमरे में आ कर वह बिस्तर पर लेट गई. आज उम्मीद नहीं थी कि रूपेश ऊपर आए. शायद नीचे बाबूजी के कमरे में ही सो जाए.

खुली खिड़की से आती ठंडी हवा उसे सहलाने लगी. निर्मम बूआ और उन्हीं की शिक्षा से पलेबढ़े रूपेश का चेहरा बारबार उस की आंखों के सामने आ रहा था.

आंसुओं के तूफान में नंदिनी को अपनी सास की हर बात याद आने लगी. उस की शादी के 2 साल बाद ही सास गुजर गई थीं, लेकिन उन के साथ बिताए पल उस की स्मृति में अब भी ताजा हैं. सास से सुना था उस ने…

बूआ सास अर्थात हिरन्मयी की शादी खातेपीते पुजारी ब्राह्मण से हुई थी. 70 के दशक के शुरुआती वर्ष में वह कच्चे यौवन से मदमाती खिलती कली थी. उम्र का 17वां पड़ाव घूंघट के नीचे आकंठ प्यास, शरीर में भौंरों का गुंजन, मन कामनाओं से सराबोर…

ससुराल में सास और पति के अलावा एक चंचल सा देवर जिस के होंठों में भरपूर रसीला सा आमंत्रण सदैव पारिवारिक कायदे में छिपा दबा रहता था.

30 साल के पति को परमेश्वर मानने की परंपरा ने हिरन्मयी को बस पति के भोग का साधन ही बना रखा था. जिंदगी चलती जा रही थी.

एक दिन अचानक ‘बस के खाई में गिरने से 50 की मौत’ के समाचार में पति का नाम देख उस की जिंदगी खत्म हो गई.

अब वह घर की बहू न रह गई थी. विधवा बहू सास के लिए बेटे के मौत की साक्षात तसवीर थी. सफेद साड़ी में लिपटी बहू हमेशा सास की आंखों के सामने बेटे की मौत की गवाह बनी रहती.

पंडिताई कर के ससुरजी ने बहुत कमाया था. घर में 2 गाएं भी थीं. अपनी जमीन थी, जो उन के शहर से दूर गांव में थी. सास वहां अपने खेत के चावल लेने जाया करतीं. अन्नसंपन्न घर था, लेकिन विधवा की स्थिति तब बहुत खराब थी. दिन भर दोमंजिले मकान में काम करते वह थकती नहीं थी, लेकिन सास को संतुष्ट कर पाना अब उस के वश में नहीं था.

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तानोंउलाहनों से उस के पंख कटे यौवन पर हर वक्त चोट करती रहती. बड़े बेटे की मौत ने उन्हें प्रकृति से प्रतिशोध का यही सहज तरीका सुझाया था. जहां सहानुभूति इनसान को जोड़ती है, कृतज्ञ बनाती है वहीं क्रूरता बगावत को निमंत्रण देती है. हिरन्मयी देवर के आकर्षण के प्रति सचेत सहने लगीं. रसोई हो या बरतन मांजने की जगह, छत पर कपड़े सुखाने हों या कमरों की सफाई करनी हो, साए की तरह देवर पीछे रहता.

ऐसे ही एक दिन सूखे कपड़े छत से उतारते वक्त देवर ने पीछे से आ जकड़ा. प्यासी हिरन्मयी चेतनाशून्य सी होने लगी. देवर उसे कमरे में ले गया और फिर दोनों दीनदुनिया से बेखबर एकदूसरे में समा गए.

छत से सास की सहेली गायत्री ने सारा नजारा अपनी आंखों में कैद कर लिया.

अचानक दरवाजे पर जोरजोर से ठकठक होने लगी तो दोनों कपड़े समेटते हुए खड़े हुए.

फिर बहू के लिए घर का दरवाजा हमेशा के लिए बंद हो गया. पर बेटा अपना था. अत: उसे माफ कर दिया गया.

गनीमत यह रही कि बड़े बेटे की इज्जत और छोटे ब्याह की खातिर बात दबा दी गई. शीघ्रातिशीघ्र हिरन्मयी के पिता को बुला कर बेटी सौंप दी गई. एक अध्याय समाप्त.

पिता और भाई ने उस के वैधव्य की हताश को छेड़े बिना उसे सहारा दिया. पिता के साथ वाले नीचे के कमरे में उसे हमेशा के लिए जगह दे दी गई. पिता की ओर से फिर कभी उस की शादी की कोशिश नहीं की गई. इसलिए कि कहीं दबीढकी बात खोजबीन में सामने न आ जाए और रहीसही शांति भी नष्ट हो जाए. निजी हताशा हिरन्मयी के पलपल में बसने लगी.

इधर रूपेश की मां अचानक बीमार रहने लगी. उसे क्या हुआ है डाक्टर पकड़ नहीं पा रहे थे. कभी मुंह में छाले, कभी बुखार तो कभी पेट दर्द. वह ज्यादातर वक्त या तो स्वयं को ले कर पस्त रहती या फिर परिवार के कामकाज को ले कर. अकेली बूआ ने अपनी सार्थकता सिद्ध करने के लिए इस परिवार का भार अपने कंधों पर लेना शुरू कर दिया.

रूपेश से लगाव और स्नेह की मात्रा में स्वयं का आधिपत्य भी समाने लगा. ‘मुझे जिंदगी ने दिया ही क्या है’ के भाव की जगह ‘मुझे सब कुछ अपना बनाना होगा’ का भाव गहरा होता गया. बारबार उसे देवर की याद आती. सोचती कि अगर सास चाहती तो देवर के साथ उस का ब्याह कर सकती थी. देवर भी तो उस से 4 साल बड़ा ही था. लेकिन कलंकित मान कर बुरी तरह निकाल दिया.

इधर नंदिनी की सास की कायामात्र ही इस परिवार में बची रह गई थी. बूआ थीं वर्चस्व की अधिकारिणी.

रूपेश के जीवन पर बूआ की हर मानसिकता की गहरी छाप थी. बूआ का हरे से जीवन का अचानक पतझड़ में बदल जाना संतप्त और नकारात्मक व्यक्तित्व के निर्माण का मूल कारण बन गया था और इसी बूआ के सांचे में ढला रूपेश आज की आधुनिक जीवनशैली में भी सामंती सोच का प्रतिनिधि था.

आखिर रूपेश की शादी के 2 साल बाद लंबी बीमारी के बाद रूपेश की मां चल बसी. रूपेश का अपनी मां से लगाव न के बराबर रह गया था. उस के पूरे निर्णय और सोच बूआ की सत्तासीन सोचों से प्रेरित थे.

सास की मौत के कुछेक सालों में नंदिनी के ससुर भी गुजर गए.

– क्रमश:

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Serial Story: रिश्ता (भाग-2)

पिछला भाग पढ़ने के लिए- रिश्ता भाग-1

उस शाम अशोकजी ने जब अलका से इस विषय पर बातचीत आरंभ की तो सोमनाथ भी वहां मौजूद थे.

सारी बात सुन कर अलका ने साफ शब्दों में अपना मत उन दोनों के सामने जाहिर कर दिया, ‘‘पापा, रोहन से मैं प्यार नहीं करती. फिर ऐसी कोई बात होती तो मैं आप को जरूर बताती.’’

‘‘बेटी, क्या तुम किसी और से प्यार करती हो?’’ सोमनाथजी ने सचाई जानने का मौका गंवाना उचित नहीं समझा था.

‘‘नहीं, अंकल, अभी तो अपना अच्छा कैरियर बनाना मैं  बेहद महत्त्वपूर्ण मानती हूं.’’

‘‘यह रोहन तुम्हें तंग करता है क्या?’’ अशोकजी की आंखों में गुस्से के भाव उभरे.

‘‘मुझे जैसे ही इस बात का एहसास हुआ कि वह मुझ से अलग तरह का रिश्ता बनाना चाहता है, तो मैं ने उस से बोलचाल बंद ही कर दी. उस ने मेरा इशारा न समझ आप को पत्र भेजा, इस बात से मैं हैरान भी हूं और परेशान भी.’’

‘‘तू बिलकुल परेशान मत हो, अलका. कल ही मैं उस से बात करता हूं. उस ने तुझे परेशान किया तो गोली मार दूंगा उस को,’’ अशोकजी का चेहरा गुस्से से भभक उठा.

‘‘यार, गुस्सा मत कर…नहीं तो तेरा ब्लड प्रेशर बढ़ जाएगा,’’ सोमनाथ ने अशोकजी को समझाया पर वह रोहन को ठीक करने की धमकियां देते ही रहे.

‘‘पापा,’’ अचानक अलका जोर से चिल्ला पड़ी, ‘‘आप शांत क्यों नहीं हो रहे हैं. एक बार हाई ब्लड पे्रशर के कारण नर्सिंग होम में रह आने के बाद भी आप की समझ में नहीं आ रहा है? आप फिर से अस्पताल जाने पर क्यों तुले हैं?’’

अपनी बेटी की डांट सुन कर अशोकजी चुप तो जरूर हो गए पर रोहन के प्रति उन के दिल का गुस्सा जरा भी कम नहीं हुआ था.

रोहन ने उस रात सोने से पहले अपनी मां मीनाक्षी को शर्मीली सी मुसकान होंठों पर ला कर जानकारी दी, ‘‘कल लंच पर मैं ने अलका और उस के पापा को बुलाया है. उन की अच्छी खातिरदारी करने की जिम्मेदारी आप की है.’’

‘‘यह अलका कौन है?’’ खुशी के मारे मीनाक्षी एकदम से उत्तेजित हो उठीं.

‘‘मेरे साथ पढ़ती है, मां.’’

‘‘प्यार करतेहो तुम दोनों एकदूसरे से?’’

रोहन ने गंभीर लहजे में जवाब दिया, ‘‘उस के पापा को तुम ने मना लिया तो रिश्ता पक्का समझो. वह गुस्सैल स्वभाव के हैं और अलका उन से डरती है.’’

‘‘अपने बेटे की खुशी की खातिर मैं उन्हें मनाऊंगी शादी के लिए. तू फिक्र न कर, मुझे अलका के बारे में बता,’’ मीनाक्षी की प्रसन्नता ने उन की नींद को कहीं दूर भगा दिया था.

अशोकजी ने फोन कर के रोहन को अपने घर बुलाया था, पर उस ने सुबह व्यस्तता का बहाना बना कर उन्हें व अलका को दोपहर के समय अपने घर आने को राजी कर लिया था.

‘‘बेटी, किसी के घर में बैठ कर उसे डांटनाडपटना जरा कठिन हो जाता है, पर वह लफंगा आसानी से सीधे रास्ते पर नहीं आया तो आज उस की खैर नहीं,’’ अशोकजी ने अपनी इस धमकी को एक बार फिर दोहरा दिया.

‘‘पापा, अपने गुस्से को जरा काबू में रखना, खासकर रोहन की मम्मी को कुछ उलटासीधा मत कह देना, क्योंकि रोहन उन्हें पूजता है. अपनी मां की हलकी सी बेइज्जती भी उस से बर्दाश्त नहीं होगी,’’ अलका बोली.

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‘‘मैं पागल नहीं हूं जो बिना बात किसी से उलझूंगा. रोहन तुम्हारा नाम अपने दिल से निकालने का वादा कर ले, तो बात खत्म. अगर वह ऐसा नहीं करता है तो मुझे सख्ती बरतनी ही पडे़गी,’’ अशोकजी ने अपनी बेटी की सलाह को पूरी तरह मानने से इनकार कर दिया.

‘‘पापा, समझदारी से काम लोगे तो इस मामले को निबटाना आसान हो जाएगा. हमें रोहन की मां को अपने पक्ष में करना है. बस, एक बार उन्होंने समझ लिया कि यह रिश्ता नहीं हो सकता तो रोहन को सीधे रास्ते पर लाने के लिए उन का एक आदेश ही काफी होगा.’’

‘‘मैं समझ गया.’’

‘‘गुड और गुस्से को काबू में रखना है.’’

‘‘ओके,’’ अपनी बेटी का गाल प्यार से थपथपा कर अशोकजी ने घंटी का बटन दबा दिया था.

मीनाक्षी ने मेहमानों की आवभगत के लिए पड़ोस में रहने वाली गायत्री को भी बुला लिया था.

वह अपनी भावी बहू व समधी की खातिर में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थी. इतने अपनेपन से मीनाक्षी ने अशोकजी व अलका का स्वागत किया कि तनाव, शिकायतों व नाराजगी का माहौल पनपने ही नहीं पाया.

रोहन बाजार से मिठाई लेने चला गया था. वह कुछ ज्यादा ही देर से लौटा और तब तक मीनाक्षी ने मेज पर खाना लगा दिया था.

खाना इतना स्वादिष्ठ बना था कि अशोकजी ने सारी चिंता व परेशानी भुला कर भरपेट भोजन किया. मीनाक्षी के आग्रह के कारण शायद वह जरूरत से ज्यादा ही खा गए थे.

भोजन कर लेने के बाद ही मुद्दे की बात शुरू हो पाई. गायत्री आराम करने के लिए अपने घर चली गई थी.

‘‘मीनाक्षीजी, हम कुछ जरूरी बातें रोहन और आप से करने आए हैं,’’ अशोकजी ने बातचीत आरंभ की.

‘‘भाई साहब, मैं तो इतना कह सकती हूं कि अलका को सिरआंखों पर बिठा कर  रखूंगी मैं,’’ मीनाक्षी ने अलका को बडे़ प्यार से निहारते हुए जवाब दिया.

‘‘आंटी, मैं रोहन से प्यार नहीं करती हूं, इसलिए आप कोई गलतफहमी न पालें,’’ अलका ने कोमल लहजे में अपने दिल की बात उन से कह दी.

‘‘मुझे रोहन ने सब बता दिया है, अलका. अपने पापा से डर कर तुम अपनी इच्छा को मारो मत. मुझे विश्वास है कि भाई साहब आज इस रिश्ते के लिए ‘हां’ कर देंगे,’’ अपनी बात समाप्त कर मीनाक्षी ने प्रार्थना करने वाले अंदाज में अशोकजी के सामने हाथ जोड़ दिए.

‘‘आप बात को समझ नहीं रही हैं, मीनाक्षीजी. मेरी बेटी आप के बेटे से शादी करना ही नहीं चाहती है, तो फिर  मेरी ‘हां’ या ‘ना’ का सवाल ही पैदा नहीं होता,’’ अशोकजी चिढ़ उठे.

‘‘पापा, डोंट बिकम एंग्री,’’ अलका ने अपने पिता को शांत रहने की बात याद दिलाई.

‘‘अंकल, आप इस रिश्ते  के लिए ‘हां’ कह दीजिए. अलका को राजी करना फिर मेरी जिम्मेदारी है,’’ रोहन ने विनती की.

‘‘कैसी बेहूदा बात कर रहे हो तुम भी,’’ अशोकजी को अपना गुस्सा काबू में रखने में काफी कठिनाई हो रही थी, ‘‘जब अलका की दिलचस्पी नहीं है तो मैं कैसे और क्यों ‘हां’ कर दूं?’’

‘‘वह तो आप से डरती है, अंकल.’’

‘‘शटअप.’’

‘‘पापा, प्लीज,’’ अलका ने फिर अशोकजी को शांत रहने की याद दिलाई.

‘‘लेकिन यह इनसान हमारी बात समझ क्यों नहीं रहा है?’’

‘‘अलका के दिल की इच्छा मैं अच्छी तरह से जानता हूं, अंकल.’’

‘‘तो क्या वह झूठमूठ इस वक्त ‘ना’ कह रही है?’’

‘‘जी हां, मुझे आप के घर से रिश्ता जोड़ना है और वैसा हो कर रहेगा, अंकल.’’

‘‘मैं तुम्हें जेल भिजवा दूंगा, मिस्टर रोहन,’’ अशोकजी ने धमकी दी.

‘‘भाई साहब, ऐसी अशुभ बातें मत कहिए. आप की बेटी इस घर में बहुत सुखी रहेगी, इस की गारंटी मैं देती हूं,’’ मीनाक्षी की आंखों में आंसू छलक आए तो अशोकजी चुप रह कर रोहन को क्रोधित नजरों से घूरने लगे.

‘‘पापा, आप इन्हें समझाइए और मैं रोहन को बाहर ले जा कर समझाती हूं,’’ अलका झटके से खड़ी हुई और बिना  जवाब का इंतजार किए दरवाजे की तरफ चल पड़ी.

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रोहन उस के पीछेपीछे घर से बाहर चला गया. मीनाक्षी और अशोकजी के बीच कुछ देर खामोशी छाई रही. सामने बैठी स्त्री की आंखों में छलक आए आंसुओं के चलते अशोकजी की समझ में  नहीं आ रहा था कि वह उस के मन को चोट  पहुंचाने वाली चर्चा को कैसे शुरू करें.

लेकिन एक बार उन के बीच बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ तो दोनों को वक्त का एहसास ही नहीं रहा. अपनेअपने खट्टेमीठे अनुभवों को एकदूसरे के साथ उन्होंने बांटना जो शुरू किया तो 2 घंटे का समय कब बीत गया पता ही नहीं चला.

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बेवजह: दूसरे का अंतर्मन टटोलना आसान है क्या?

‘‘तू ने वह डायरी पढ़ी?’’ प्राची ने नताशा से पूछा.

‘‘हां, बस 2 पन्ने,’’ नताशा ने जवाब दिया.

‘‘क्या लिखा था उस में?’’

’’ज्यादा कुछ नहीं. अभी तो बस 2 पन्ने ही पढ़े हैं. शायद किसी लड़के के लिए अपनी फीलिंग्स लिखी हैं उस ने.’’

‘‘फीलिंग्स? फीलिंग्स हैं भी उस में?‘‘ प्राची ने हंसते हुए पूछा.

‘‘छोड़ न यार, हमें क्या करना. वैसे भी डायरी एक साल पुरानी है. क्या पता तब वह ऐसी न हो,’’ नताशा ने कुछ सोचते हुए कहा.

‘‘अबे रहने दे. एक साल में कौन सी कयामत आ गई जो वह ऐसी बन गई. तू ने भी सुना न कि उस के और विवान के बीच क्या हुआ था. और अब उस की नजर तेरे अमन पर है. मैं बता रही हूं उसे तान्या के साए से भी दूर रख, तेरे लिए अच्छा होगा.’’

‘‘हां,’’ नताशा ने हामी भरी.

‘‘चल तू यह डायरी जल्दी पढ़ ले इस से पहले कि उसे डायरी गायब होने का पता चले. कुछ चटपटा हो तो मु झे भी बताना,’’ कहते हुए प्राची वहां से निकल गई.

नताशा कुछ सोचतेसोचते लाइब्रेरी में जा कर बैठ गई. 2 मिनट बैठ कर वह तान्या के बारे में सोचने लगी. उस के मन में तान्या को ले कर कई बातें उमड़ रही थीं. आखिर तान्या की डायरी में जो कुछ लिखा था उस की आज की सचाई से मिलताजुलता क्यों नहीं था? क्यों तान्या उसे कभी भी अच्छी नहीं लगी. वह एक शांत स्वभाव की लड़की है जो किसी से ज्यादा मतलब नहीं रखती. लेकिन, विवान के साथ उस का जो सीन था वह क्या था फिर.

पिछले साल कालेज में हर तरफ तान्या और विवान के किस्से थे. तान्या और विवान एकदूसरे के काफी अच्छे दोस्त थे. हालांकि, हमेशा साथ नहीं रहते थे पर जब भी साथ होते, खुश ही लगते थे. पर कुछ महीनों बाद तान्या और विवान का व्यवहार काफी बदल गया था. दोनों एकदूसरे से कम मिलने लगे. जबतब एकदूसरे के सामने आते, यहांवहां का बहाना बना कर निकल जाया करते थे. किसी को सम झ नहीं आया असल में हो क्या रहा है. फिर 2 महीने बाद नताशा को प्राची ने बताया कि तान्या और विवान असल में एकदूसरे के फ्रैंड्स विद बैनिफिट्स थे. उन दोनों ने कानोंकान किसी को खबर नहीं होने दी थी, लेकिन उसे खुद विवान ने एक दिन यह सब बताया था. उन दोनों के बीच यह सब तब खत्म हुआ जब तान्या ने ड्रामा करना शुरू कर दिया. ड्रामा यह कि वह हर किसी को यह दिखाती थी कि वह बहुत दुखी है और इस की वजह विवान है. वह तो बिलकुल पीछे ही पड़ गई थी विवान के.

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नताशा को यह सब सुन कर तान्या पर बहुत गुस्सा आया था. उस जैसी शरीफ सी दिखने वाली लड़की किसी के साथ फ्रैंड्स विद बैनिफिट्स में रहेगी और फिर पीछे भी पड़ जाएगी, यह उस ने कभी नहीं सोचा था. जब क्लासरूम में डैस्क के नीचे उसे तान्या की डायरी पड़ी मिली तो वह उसे पढ़ने से खुद को रोक नहीं पाई. वह बस यह जानना चाहती थी कि आखिर यह तान्या डायरी में क्या लिखती होगी, अपने और लड़कों के किस्से या कुछ और.

लाइब्रेरी में बैठेबैठे ही नताशा ने वह डायरी पढ़ ली. डायरी पूरी पढ़ते ही उस ने अपना फोन उठाया और प्राची को कौल मिला दी.

‘‘हैलो,’’ प्राची के फोन उठाते ही नताशा ने कहा.

‘‘हां, बोल क्या हुआ,’’ प्राची ने पूछा.

‘‘जल्दी से लाइब्रेरी आ.’’

‘‘हां, पर हुआ क्या?’’

‘‘अरे यार, आ तो जा, फिर बताती हूं न.’’

‘‘अच्छा, रुक, आई,’’ प्राची कहते हुए लाइब्रेरी की तरफ बढ़ गई.

प्राची नताशा के पास पहुंची तो देखा कि वह किसी सोच में डूबी हुई है. प्राची उस की बगल में रखी कुरसी पर बैठ गई.

‘‘बता, क्या हुआ,’’ प्राची ने कहा.

‘‘यार, हम ने शायद तान्या को कुछ ज्यादा ही गलत सम झ लिया.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि तू यह डायरी पढ़. तू खुद सम झ जाएगी कि मैं क्या कहना चाहती हूं और यह भी कि तान्या के बारे में हम जो कुछ सोचते हैं, सचाई उस से बहुत अलग है. तू बस यह डायरी पढ़, अभी इसी वक्त,’’ नताशा ने प्राची को डायरी थमाते हुए कहा.

‘‘हां, ठीक है,’’ प्राची ने कहा और डायरी हाथ में ले कर पढ़ना शुरू किया.

5/9/18

कितना कुछ है जो मैं तुम से कहना चाहती हूं, कितना कुछ है जो तुम्हें बताना चाहती हूं, तुम से बांट लेना चाहती हूं. पर तुम कुछ सम झना नहीं चाहते, सुनना नहीं चाहते, कुछ कहना नहीं चाहते. मैं खुद को बहुत छोटा महसूस करने लगी हूं तुम्हारे आगे. ऐसा लगने लगा है कि मेरी सारी सम झ कहीं खो गई है. मेरी उम्र उतनी नहीं जिस में मु झे बच्चा कहा जा सके. बस, 18  ही तो है. उतनी भी नहीं कि मु झे बड़ा ही कहा जाए. इस उम्र में कुछ दीनदुनिया भुला कर जी रहे हैं, कुछ नौकरी कर रहे हैं, कुछ पढ़ रहे हैं तो कुछ प्यारव्यार में पड़े हैं.

मैं किस कैटेगरी की हूं, मु झे खुद को सम झ नहीं आ रहा. शायद उस कैटेगरी में हूं जिस में सम झ नहीं आता कि जिंदगी जा किस तरफ रही है. ऐसा लग रहा है कि बस चल रही है किसी तरह, किसी तरफ. मेरे 2 रूप बन चुके हैं, एक जिस में मैं अच्छीखासी सम झदार लड़की हूं और अपने कैरियर के लिए दिनरात मेहनत कर रही हूं. दूसरा, जहां मैं किसी को पाने की चाह में खुद को खो रही हूं और ऐसा लगने लगा है कि मेरा दिमाग दिनबदिन खराब हुआ जा रहा है.

कैसी फिलोसफर सी बातें करने लगी हूं मैं, है न? तुम हमेशा कहते रहते हो कि मैं इस प्यार और दोस्ती जैसी चीजों में माथा खपा रही हूं, यह सब मोहमाया है जिस में मैं जकड़ी जा रही हूं. पर तुम यह क्यों नहीं देखते कि मैं अपने कैरियर पर भी तो ध्यान दे रही हूं, पढ़ती रहती हूं, हर समय कुछ नया करने की कोशिश करती हूं. तुम्हारी हर काम में मदद भी तो करती हूं मैं, अपने खुले विचार भी तो रखती हूं तुम्हारे सामने. यह सबकुछ नजर क्यों नहीं आता तुम्हें?

शायद तुम सिर्फ वही देखते हो जो देखना चाहते हो. लेकिन, अगर मेरे इस प्यारव्यार से तुम्हें कोई मतलब ही नहीं है, फिर मु झ में तुम्हें बस यही क्यों नजर आता है, और कुछ क्यों नहीं?

13/9/18

मैं सम झ चुकी हूं कि तुम्हें मु झ से कोई फर्क नहीं पड़ता. अच्छी बात है. मैं ही बेवकूफ थी जो तुम्हारे साथ पता नहीं क्याक्या ही सोचने लगी थी. जो कुछ भी था हमारे बीच उसे मैं हमारी दोस्ती के बीच में नहीं लाऊंगी. लेकिन, तुम्हें नहीं लगता कि उस बारे में अगर हम कुछ बात कर लेंगे तो हमारा कुछ नहीं बिगड़ेगा. मु झे ऐसा लगने लगा है जैसे तुम ने मु झे खुद को छूने दिया, लेकिन मन से हमेशा दूर रखा. मैं तुम्हारे करीब हो कर भी इतना दूर क्यों महसूस करती हूं. जो सब मैं लिखती हूं, वह कह क्यों नहीं सकती तुम से आ कर.

5/10/18

हां, मैं ने हां कहा तुम्हें बारबार, पर सिर्फ तुम्हें ही कहा, यह तो पता है न तुम्हें. मैं तुम्हें तब गलत क्यों नहीं लगी जब मैं ने यह कहा था कि मैं तुम्हें चाहने लगी हूं, लेकिन तुम्हें मजबूर नहीं करना चाहती कि तुम मु झ से जबरदस्ती रिश्ते में बंधो. याद है तब तुम ने क्या कहा था कि तुम भी मु झ में इंटरेस्टेड हो लेकिन किसी रिश्ते में पड़ कर मु झे खोना नहीं चाहते. मैं इतना सुन कर भी बहुत खुश हुई थी. मु झे लगा था अगर 2 लोग एकदूसरे में इंटरैस्ट रखते हों, तो फिर तो कोई परेशानी ही नहीं है.

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मैं ने बस इतना सोचा कि तुम्हें मेरी फिक्र है, तुम मु झे खोना नहीं चाहते और इतना शायद दोस्ती से बढ़ कर कुछ सम झने के लिए काफी है. फिर, जब तुम मु झे अचानक से ही नजरअंदाज करने लगे, मु झ से नजरें चुराने लगे, और मैं ने गुस्से में तुम्हें यह कहा कि तुम ने मु झे तकलीफ पहुंचाई है, तो तुम मु झे ही गलत क्यों कहने लगे?

23/10/18

एक दोस्त हो कर अगर तुम एक दोस्त के साथ सैक्स करने को गलत नहीं मानते, तो मैं क्यों मानूं? नहीं लगा मु झे कुछ गलत इस में, तो नहीं लगा. पर मैं ने यह भी तो नहीं कहा था न कि मेरे लिए तुम सिर्फ एक दोस्त हो. यह तो बताया था मैं ने कि तुम्हारे लिए बहुतकुछ महसूस करने लगी हूं मैं. फिर तुम ने यह क्यों कहा कि मेरी गलती है जो मैं तुम से उम्मीदें लगाने लगी हूं.

26/10/18

नहीं, तुम सही थे. ऐसा कुछ था ही नहीं जिसे ले कर मु झे दुखी होना चाहिए. आखिर हां तो मैं ने ही कहा था. फैं्रड्स विद बैनिफिट्स ही था वह. अगर कुछ दिन पहले पूछते तुम मु झ से कि मैं दुखी हूं या नहीं तो मैं कहती कि मैं बहुत दुखी हूं, मर रही हूं तुम्हारे लिए. लेकिन अब मैं ऐसा नहीं कहूंगी. बल्कि कुछ नहीं कहूंगी. और कहूं भी क्यों जब मु झे पता है कि तुम्हें फर्क नहीं पड़ेगा. मैं भी कोशिश कर रही हूं कि मु झे भी फर्क न पड़े.

हां, जब भी कालेज की कैंटीन में तुम्हें किसी और से उसी तरह बात करते देखती हूं जिस तरह खुद से करते हुए देखा करती थी तो बुरा लगता है मु झे. वह हंसी जो तुम मेरे सामने हंसा करते थे. सब याद आता है मु झे, बहुत याद आता है. पर यह सब मैं तुम्हें नहीं बताना चाहती, अब नहीं.

2/11/18

तुम्हारी गलती नहीं थी, मु झे सम झ आ गया है. तुम मु झे नहीं चाहते और इस में तुम्हारी गलती नहीं है और न ही मेरी है. उस वक्त हम एकदूसरे को छूना चाहते थे, महसूस करना चाहते थे, सीधे शब्दों में सैक्स करना चाहते थे, जो हम ने किया. मैं न तुम्हें सफाई देना चाहती हूं कोई और न किसी और को. अब अगर तुम ने या किसी ने भी मु झ से यह पूछा कि मैं ने हां क्यों की थी तो मेरा जवाब यह नहीं होगा कि मैं तुम्हें चाहने लगी थी.  मेरा जवाब होगा कि मैं तुम्हारे साथ सैक्स करना चाहती थी, जो मैं ने किया, और मु झे नहीं लगता कि इस में कुछ भी गलत है.

तुम किसी को बताना चाहो तो बता दो, अब मु झे फर्क पड़ना बंद हो चुका है. मु झे अगर अपनी इच्छाओं और  झूठी शान में से कुछ चुनना हो तो मैं अपनी इच्छाएं ही चुनूंगी, हमेशा. लेकिन, मैं तुम से अब कभी उस तरह नहीं मिलूंगी जिस तरह कभी मिलती थी. उस तरह बातें नहीं करूंगी जिस तरह किया करती थी. तुम्हारे लिए वैसा कुछ फील नहीं करूंगी जो कभी करती थी. सब बेवजह था, मैं सम झ चुकी हूं.

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कुकरिया: क्या बेजुबानों से सबक ले पाए मानव?

हमारा घर बन रहा था, गुमानसिंह और रानो नए घर की चौकीदारी भी करते और मजदूरी भी. उन के 3 छोटेछोटे बच्चों के साथ एक कुतिया भी वहीं रहती थी जिसे वे ‘कुकरिया’ के नाम से बुलाते थे. इधर मेरे घर में भी एक पामेरियन पपी ‘पायल’ थी, जब से वह मेरे घर आई तब से मैं कुकरा जाति की बोली, भाषा सीख गई और मुझे इस जाति से लगाव भी हो गया. इन की भावनाएं और सोच भी मनुष्य जैसी होती हैं, यह सब ज्ञान मुझे पायल से मिला इसलिए मैं उसे अपना गुरु भी मानती हूं.

शुरू में पायल कुकरिया को देखते ही भगा देती थी, वह ‘कूंकूं’ कर गुमानसिंह की झोंपड़ी में छिप जाती, लेकिन धीरेधीरे दोनों हिलमिल गए. हमारे घर पहुंचते ही कुकरिया अपने दोनों पंजे आगे फैला कर अपनी गरदन झुका देती और प्यार से वह पांवों में लोट कर अपनी पूंछ हिलाती. मैं अपना थैला उसे दिखा कर कहती, ‘‘हांहां, तेरे लिए भी लाई हूं. चल, पहले मुझे आने तो दे.’’

मैं अपने निर्माणाधीन मकान के पिछवाड़े झोंपड़ी की ओर चल देती. रानो मेरे लिए झटपट खाट बिछा देती. रानो और उस के बच्चे भी कुकरिया के साथ मेरे पास आ कर जमीन पर बैठ जाते. अपनाअपना हिस्सा पा कर बच्चे छीनाझपटी करते, लेकिन पायल अपना अधिकतर हिस्सा छोड़ अपने पापा (मेरे पति) के पास चली जाती. कुकरिया अपना हिस्सा खा कर कभी भी पायल का हिस्सा नहीं खाती थी. बस, गरदन उठा कर पायल की ओर ताकती रहती, मैं 2-3 बार पायल को पुकारती.

‘‘ऐ पायलो, पायलिया…चलो बेटा, मममम खाओ. अच्छा, नहीं आ रही है तो मैं यह भी कुकरिया को दे दूं?’’

इस बीच मेरे पति को यदि मेरी बात सुनाई दे जाती तो वे भी पायल को टोकते, लेकिन पायल आती और अपने अधखाए खाने को सूंघ कर वापस चली जाती. पर कभीकभी तो वह इन के दुलारने पर भी नहीं आती. वे उस की हठीली मुद्रा देख वहीं से पूछते, ‘‘क्या है? पायल पापा के साथ काम करा रही है, उसे नहीं खाना. तुम कुकरिया को दे दो, वह खा लेगी.’’

तब मेरा ध्यान उन दोनों से हट कुकरिया की ओर जाता और मैं उस से कहती, ‘‘चल, ऐ कुकरिया, चल बेटी, यह भी तू ही खा ले. वह एक बार मुझे देखती और फिर पायल को, उस की मौन स्वीकारोक्ति को वह समझ जाती और निश्ंिचत हो उस चीज को खाने लगती. ऐसा रोज ही होता था. अपनी चीज को इतनी आसानी से कुकरिया को देने के पीछे पायल की शायद यह ही मंशा रही होगी कि घर में जो मुझे मिलता है वह इस बेचारी को कहां मिलता है जबकि घर में पायल अपनी मनपसंद वस्तु पाने के लिए मेरे आगेपीछे घूमती या मेरे दोनों बच्चों के पास जा, गरदन को झटका दे तिरछी नजरें कर उन्हें अपने स्वर में बताती कि मुझे और चाहिए. हम शाम 6 बजे वहां से चलते तो कुकरिया हमें गली के नुक्कड़ तक छोड़ने आती और जब हमारी गाड़ी सड़क पर भागने लगती तो पायल और कुकरिया एकदूसरी को नजरों से ओझल होने तक देखती रहतीं.

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एक बार मैं बीमार पड़ गई. 15 दिन तक वहां नहीं गई. जिस दिन गई उस दिन रविवार था. मैं ने देशी घी के परांठे सेंक कर रख दिए, उस दिन मेरे बच्चे भी साथ गए. कुकरिया मुझे देखते ही मेरे पांवों में ऐसी झपटी कि अपने बचाव में मेरा थैला तक हाथ से छूट गया. मेरा एक कदम बढ़ाना भी दूभर हो गया, बारबार उस के पंजे मेरे ऊपर तक आते, वह बारबार मेरी पीठ, कंधे, गरदन तक चढ़ी जा रही थी, मेरे बच्चे भी डर से चीख उठे, ‘‘मां, मां…पापा बचाओ.’’

कुछ मजदूर, गुमानसिंह और मेरे पति मेरी तरफ दौड़े, सब ने उसे अपनेअपने ढंग से धमकाया, फिर न जाने कैसे वह शीघ्र ही मुझे छोड़ अपनी झोंपड़ी में घुस गई. सभी आश्चर्यचकित थे कि आखिर ऐसा उस ने क्यों किया? हम सभी को उस की यह हरकत बड़ी दिल दहला देने वाली लगी, लेकिन मुझे एक खरोंच तक नहीं आई थी, मुझे ठीकठाक देख धीरेधीरे सभी अपने काम में लग गए. मेरी बेटी ने अपने गालों पर हाथ रख कर कहा, ‘‘बाप रे, यह आप को खा जाती तो?’’

कुकरिया मुझे खाट पर बैठा देख बड़ी शालीनता से मेरे पास आई लेकिन अब उस की दशा ऐसी हो गई मानो उस पर घड़ों पानी पड़ा हो, गरदन झुका कर वह तेजी से मेरी खाट के नीचे घुस गई. मेरे बेटे को पायल से बदला लेने का आज अच्छा मौका मिला था, इसलिए उस ने पायल को पुकारा क्योंकि मुझे ले कर उस का और पायल का पहले से ही बैर था. मेरी बेटी के मुझ से चिपक कर लेटने पर पायल भी हमारे बीच घुस कर अपनी जगह बना लेती, लेकिन बेटा कभी पास बैठना भी चाहता तो पायल से सहन नहीं होता, उस के भूंकने पर भी जब वह मुझे नहीं छोड़ता तो पायल उस के पैरों में ऐसे लोटपोट हो जाती कि वह अपने बचाव में दरवाजा पकड़ कर लटक जाता और पैर ऊपर सिकोड़ लेता.

‘‘सौरी पायल, सौरी पायल,’’ कह वह अपनी जान बचाता, कभी वह उसे चिढ़ाने के लिए कहता, ‘‘मां, मेरी मां.’’

तब पायल उसे गुर्रा कर चेतावनी देती, वक्रदृष्टि और मसूढ़ों तक चमके दांतों को दिखा कर वह सावधान कर देती, ऐसी स्थिति में और दरवाजे से कूदने पर वह पैर पटक हट या धत कहता पर इस से अधिक उस का वश नहीं चलता. 3 ईंटों की कच्ची दीवार को पार करते हुए पायल को अपनी ओर आता देख उस ने पायल को डांट लगाई, ‘‘क्यों, यहां उस से डर गई. टीले पर खड़ी तमाशा देखती रही नालायक, मुझ पर तो बड़ी शेरनी बनती है.’’

बेटे की डांट खा वह मेरी खाट के पास मौन हो और कुकरिया खाट के नीचे से एकदूसरे को टुकुरटुकुर देखती रहीं. मैं ने नीचे झांक कर देखा तो कुकरिया की दृष्टि लज्जित और पायल की विवशता उस की भारी हो आई पलकों से झलक रही थी. बायोटैक्नोलौजी और 12वीं में पढ़ने वाले बुद्धिजीवी भाईबहन जिस बात को नहीं समझ सके वह पायल जान गई थी कि कुकरिया ने ऐसा क्यों किया? वह उस का आक्रमण नहीं बल्कि आग्रह था कि इतने दिन आप क्यों नहीं आईं? मैं बोल नहीं सकती वरना जरूर पूछती कि आप कहां थीं?  रानो चाय बना कर लाई थी, मैं ने साथ लाई चीजें ठंडे परांठों सहित सब को बांट दीं. बच्चे उठ कर घर देखने चले गए. तब वह खाट के नीचे से निकली और सहमते हुए एक टुकड़ा मुंह में दबाया, परांठा चबाते हुए थोड़ी गरदन तिरछी कर उस की खुली आंखें मुझ से उस कृत्य के लिए क्षमा याचना कर रही थीं. उस की मनोदशा देख मैं ने उस का सिर सहला दिया.

11 महीने तक हमारा गृहनिर्माण कार्य चला, इस दौरान कई बार ऐसा हुआ कि मैं वहां नियमित रूप से नहीं जा पाई, ये मुझे आ कर बताते, ‘‘मैं उसे खाना देता हूं तो वह खाती नहीं है, तुम्हें ढूंढ़ती है, जब मैं उस से कहता हूं कि मां आज नहीं आई है बेटा, तब वह खाना खाती है.’’ अगले दिन जब मैं वहां पहुंचती तो कुकरिया रिरिया कर अजीब आवाज में अपनी नाराजगी व्यक्त करती.

‘‘तुम्हें मेरी जरा भी चिंता नहीं है मां, मैं तुम्हें रोज याद करती हूं,’’ मैं उसे अपनी भाषा में बता उस का सिर सहलाने लगती, तब वह सामान्य होतेहोते अपना कूंकूंअंऊं का स्वर मंद कर देती और अपनी बात खत्म कर कहती, ‘‘चलो, ठीक है, लेकिन आप से मिले बिना रहा नहीं जाता. एक आप ही तो हैं जो मुझे प्यार करती हैं,’ उस की हांहूंऊंआं को मैं अब अच्छी तरह समझने लगी थी.

घर बन चुका था, पर अभी गृहप्रवेश नहीं हो पाया था. चौकीदार अपना हिसाब कर सप्ताह के अंदर कहीं और जाने वाला था. मुझे कुकरिया से लगाव हो गया था, मैं ने रानो से पूछा, ‘‘क्या तुम इसे भी अपने साथ ले जाओगी?’’ उस ने न में सिर हिलाया और अपनी निमाड़ी मिश्रित हिंदी भाषा में उत्तर दिया, ‘‘इस को वां नईं ले जाइंगे.’’

मैं पल भर के लिए खुश तो हुई लेकिन तुरंत ही व्याकुल हो कर पूछ बैठी, ‘‘तो यह यहां अकेली कैसे रहेगी?’’ रानो उदास हो कर बोली, ‘‘अब किया करेंगे? अम्म जहां बी जाते हैं, ऐसे कुत्ते म्हां आप ही आ जाते हैं.’’

अब मुझे कुकरिया की चिंता सताने लगी क्योंकि यह कालोनी शहर से दूर थी, अभी तक यहां सिर्फ 3 ही घर बने थे, बाकी 2 घरों में भी अभी कोई नहीं आया था, वे बंद पड़े थे और अब हमारे घर में भी ताला लग जाएगा, फिर यहां रोज कौन आएगा. अभी तक वहां पायल और कुकरिया के खौफ से कोई परिंदा भी पर नहीं मारता था, भूलाभटका कोई आ भी जाता तो इन की वजह से दुम दबा कर भागता नजर आता. मेरी दृष्टि में अकेलापन एक अवांछित दंड है, अब मुझे कुकरिया की चिंता सताने लगी, क्योंकि किराए के घर में तो हम उसे ले नहीं जा सकते.

चलते समय बड़ी व्यग्र दृष्टि से कुकरिया ने मुझे देखा. घर पहुंच कर इन्होंने मेरी परेशानी का कारण पूछा तो मैं ने बता दिया. सुन कर ये भी चिंतित हो गए लेकिन जल्दी ही इन्होंने एक रास्ता निकाला और मुझ से कहा, ‘‘गुमानसिंह को हम कुछ समय तक ऐसे ही 200 रुपए सप्ताह देते रहेंगे, वह जहां भी जाएगा उसे यही मजदूरी मिलेगी, यहां हमारे सूने घर की रखवाली भी होती रहेगी और कुकरिया को भी फिलहाल आश्रय मिल जाएगा.’’

दूसरे दिन गुमानसिंह के आगे हम ने यह प्रस्ताव रखा तो वह भी सहज तैयार हो गया. अगले महीने हमारी कालोनी में सड़क किनारे एक होटल, होस्टल और 4 घरों का निर्माण कार्य शुरू हुआ. हमारे घर के पास के 2 घरों का काम भी गुमानसिंह को मिला. ईंटसीमेंट का ट्रक आनेजाने के लिए उन लोगों ने उधर का कच्चा और ऊबड़खाबड़ रास्ता भी ठीक करवा लिया. अब रोज ही वहां पड़ोसी गांव के चरवाहे, उन के पशु हमारी कालोनी में भी घूमते दिख जाते. यह वातावरण देख मुझे बहुत संतोष होता.

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एक बार दीवाली की छुट्टियों में हम लोग पूरे 1 महीने बाद मथुरा से लौट कर आए. मैं मिठाई ले वहां पहुंची, तब रानो ने बताया, ‘‘तुम्हारे जाने के बाद कुकरिया ने बच्चे दिए हैं.’’ इतने में कुकरिया भी भीतर से निकली और मुझे देखते ही मेरे पैरों में लिपट गई. मैं उसे खाने की चीजें डाल पुलिया में झांक कर उस के बच्चे देखने लगी. पूरे 6 बच्चों की मां कुकरिया फिर मेरे पैर चाट अपने बच्चों को दूध पिलाने बैठ गई.

यह देख रानो ने कहा, ‘‘यहां ये किसी को नईं आने देती. बूंकती है, तुम्म पर नईं बूंकी.’’

कुछ दिन बाद हम ने भी अपने नए घर में प्रवेश किया, वहां जा कर हम सब ने कुकरिया का भी खयाल रखा. लेकिन तब तक वहां बाहर के और भी बड़े कुत्ते आने लगे थे, वे कुकरिया और उस के बच्चों की रोटी झपट कर खा जाते, 10-10 रोटियों में से भी कुकरिया को कभी एक टुकड़ा तक नहीं मिल पाता. उन आवारा कुत्तों को भगाने के सारे प्रयास विफल हो रहे थे. मेरा डंडा देख वे बरामदे पर नहीं चढ़ते लेकिन उन छोटे पिल्लों और कुकरिया को ऐसे डराते कि उन की खाई रोटी अंग नहीं लगती.

हम सब में प्रचंड शक्ति है, लेकिन पारिवारिक दायित्वों के बोझ तले मनुष्य तो क्या पशुपक्षी भी कमजोर पड़ जाते हैं, कुकरिया जब तक अकेली रही, शेरनी की तरह रही, लेकिन अब अपने बच्चों की खातिर वह भी कमजोर पड़ी. उसे अपनी चिंता नहीं थी, पर जब उस के निर्बल, अबोध बच्चों को बड़े कुत्ते काटते तो उन के बचाव में वह बेचारी भी लहूलुहान हो जाती, पायल भी कुकरिया का जम कर साथ देती, लेकिन आखिर जान सब को प्यारी होती है.

उन के रहनेखाने को तो हमारा घर था, लेकिन जब पायल, कुकरिया और पिल्ले कभी बाहर निकलते तब हमारी रखवाली में भी वे सहमे रहते. एक दिन मैं इसी चिंता में रसोई का द्वार खोल बरामदे में कुरसी पर बैठी थी. शाम के 6 बजे होंगे, मौसम सुहावना था. कुकरिया पहले से ही वहां उदास बैठी थी. आज मजूदरों ने बाहर के कुत्तों को इस ओर फटकने तक नहीं दिया था. पायल और पिल्ले आज बहुत दिन बाद चैन की सांस ले कर बाहर सड़क पर खेल रहे थे, मैं ने झुक कर कुकरिया के सिर पर हाथ फेरा और कहा, ‘‘जाओ बेटा, तुम भी खेलो, छोटे पिल्ले तो पायल मौसी के साथ खेल रहे हैं, अब कोई डर नहीं, पापा ने सब को कह दिया है, अब यहां कोई नहीं आएगा.’’

लेकिन वह अपने आगे फैले पंजों पर मुंह रखे बैठी ही रही. मैं एक परांठा ले कर दोबारा आई, एक टुकड़ा डाला, फिर धीरेधीरे पूरा परांठा उस के आगे रख दिया, पर उस ने उन टुकड़ों को सूंघा तक नहीं. वह यों ही गहरी सोच में डूबी अपने पंजों को पनीली आंखों से निहारती रही. मैं ने उसे छू कर देखा, शायद बुखार हो, लेकिन वह सरक कर बिलकुल मेरे पैरों पर आ कर पसर गई. मुझे बैठा देख पिल्ले और पायल भी बरामदे में आ कर उछलकूद करने लगे.

अब पिल्ले 5 महीने के हो चुके थे. उन की भूख भी बढ़ गई. मैं उन का बढ़ता कद देख कर फूली नहीं समाती थी किंतु अपनी नौकरी और घर संभालते हुए उन के लिए दोनों समय रोटी बनाना अब मुझे अखरने लगा. अब तक यहां 5-6 घर बस चुके थे. वे सुरक्षा सब की करते. मैं कभी सोचती कि सब के घर से 2-2 रोटी मांग कर लाऊं और कभी सोचती कि इन्हें एक ही समय खाना दूं, पर ऐसा कर नहीं पाती थी. मैं चाहे कितनी भी थकी होती लेकिन घर वालों से पहले उन की व्यवस्था करती थी.

बचपन में मेरे नानाजी मुझे एक कुत्ते की कहानी सुनाते थे कि वह अपने मालिक के मन की बात जान लेता था और उस की मदद भी करता था, शायद कुकरिया भी मेरे मन की बात जान गई थी. एक दिन शाम को मैं पक्षियों का कलरव सुन रही थी, बरामदे के दक्षिणी छोर पर पायल और कुकरिया की गहरी मंत्रणा चल रही थी, मैं भी अपनी कुरसी वहीं ले आई. दोनों के चेहरे गंभीर थे. मैं ने उन के पास बैठते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा? तू खाने की चिंता मत कर, मम्मी थक जाती हैं न इसलिए ऐसा सोचती है. बस और कोई बात नहीं है.’’

पायल एक मूकदृष्टि मुझ पर डाल पांचों सीढि़यों पर पसरे उस के पिल्लों के पास जा बैठी और कुकरिया अपनी अश्रुपूरित नजरों से मुझे एकटक देखती रही. यह देख कर मेरा दिल दुखी हो गया. वातावरण शांत हो चला था, मैं अनमनी हो पढ़ने को एक किताब ले आई कि अचानक मुझे सुनाई दिया, ‘‘अब मैं चली जाऊंगी मां, आप पर बोझ नहीं बनूंगी.’’  किताब एक झटके से मेरे हाथ से छूट गई. मैं ने हड़बड़ा कर अपने चारों ओर देखा, मेरे आसपास पायल, कुकरिया और उन पिल्लों के अतिरिक्त कोई भी नहीं था, मैं तत्काल कुरसी छोड़ खड़ी हो गई, नीचेऊपर, आगेपीछे ताकझांक करने लगी और दोबारा कुरसी पर आ कर बैठ गई.

कुकरिया गरदन झुकाए मेरे पैरों के पास सरक आई, मैं ने स्थिर हो फिर उसे गौर से देखा. पायल मेरी ओर पीठ कर के बैठी थी, बाकी पिल्ले भी कभी अपनी बोझिल पलकें झपकाते और कभी बिलकुल ही बंद कर लेते. इस बीच मुझे दोबारा कुछ और सुनाई दिया, ‘‘मैं जानती हूं कि आप मेरे बच्चों का पूरा ध्यान रखेंगी. आप हैं न इन के पास, बस, अब मुझे इन की कोई चिंता नहीं है. अब मैं हमेशा के लिए चली जाऊंगी,’’ दूसरी बार के झटके से मैं बुरी तरह कांप गई.

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बड़बड़ाती हुई मैं एक सांस में खड़ी हो गई और चहलकदमी करने लगी. दिमाग तेजी से चल रहा था क्योंकि सही में मैं ने एक के बाद एक ये बातें सुनी थीं. इसी दम पर कि इस बार तो मैं उसे पकड़ ही लूंगी, लेकिन जब कोई हाथ नहीं लगा तो मैं घबरा गई. मैं लपकती सी भीतर घुस आई, अपनी बेटी को साथ ले फिर वहीं आ गई.  कुकरिया बारीबारी से अपने सोए पिल्लों को चाट रही थी. किसी का कीड़ा मुंह से निकालती तो किसी को मुंह से ऐसे स्पर्श करती जैसे हम अपने बच्चों के सिर पर हाथ फेरते हैं. कुकरिया की ये गतिविधियां बड़ी लुभावनी थीं किंतु मेरा मन अनगिनत आशंकाओं से भर गया था.

अचानक फोन की घंटी बज उठी, मैं भीतर आ कर घरेलू कार्यों में व्यस्त हो गई. दूसरे दिन सुबह 6 बजे के बाद द्वार खुलते ही सारे पिल्ले लपकझपक दौड़े आए, पर कुकरिया नहीं आई. मैं पुकारती रही.

‘‘कुकरिया, ओ कुकरिया.’’ उस की 2 रोटियां हाथ में दबा घर की परिक्रमा करते दूरदूर तक नजर दौड़ाई, फिर दोनों रोटियां कटोरे में रख दीं. 3 बजे के बाद मैं बचा भोजन एकत्र कर बाहर आई तब कुकरिया मुझे बरामदे की सीढि़यां चढ़ती दिखाई दी. मैं खुशी से चिल्ला उठी, ‘‘मेरी कुकरिया आ गई…तू कहां चली गई थी बेटी?’’

मैं ने अपने हाथों से एकएक कौर कुकरिया को खिलाया, उस की मनपसंद खीर भी. इस के बाद वह पायल और अपने बच्चों के साथ खूब खेली. कई बार गले मिली. कई बार वह मेरे आगेपीछे घूमी. मैं मगन और निश्ंिचत हो कर भीतर आ रही थी कि कुकरिया अपने बच्चों को छोड़ कर मेरे पैरों से लिपट गई. अपना माथा और मुंह कई बार आड़ीटेढ़ी हो मेरे पैरों से रगड़ा, कई बार मुझे चाटा.  इस के बाद वह सीधी सीढि़यों से नीचे उतरी और फिर उस ने पलट कर भी किसी को नहीं देखा, अपनी पीठ और पूंछ पर चढ़ते अपने बच्चों तक को भी नहीं और फिर वह सदासदा के लिए कहीं चली गई.

कुछ दिन हम सब उसे ढूंढ़ते रहे. मेरे पति और बच्चे अपनी बाइक और स्कूटी से जाते, लेकिन निराश हो दूर से मुझे ‘न’ में हाथ हिला आ जाते. उस के पिल्लों ने भी उसे 4-5 दिन ढूंढ़ा, मैं घंटों बाहर बैठी उस की राह देखती, तब पायल की आंखों में मुझे बहुत से भाव दिखाई देते, जैसे वह कह रही हो, ‘‘मां, वह अब नहीं आएगी, आप से कह कर तो गई है. उस के बच्चों का अब हमें ही खयाल रखना है.’’

पायल उन पिल्लों को अपने कटोरे में से दूधपानी पिलाती और बाद में खुद पीती. एक मां की तरह वह एक छोटी सी आहट पर उन के पास दौड़ी चली आती.

कालोनी की आबादी अब और बढ़ गई. ये मूक जानवर आदर और स्नेह की भाषा ही नहीं, मनुष्य की दृष्टि को भी समझते हैं. आज हम अपनी संस्कृति भूल भावनाविहीन हो गए हैं, मानव का निष्कपट आचरण और शुद्ध मन उसे सभ्य बनाता है, उच्च ज्ञान और उच्च पद पा कर भी यदि हम में संवेदना नहीं है, दूसरों के प्रति समझ नहीं है, तो हम क्या हैं?  हम सब सदियों से कुत्ते के साथ रह रहे हैं. यह कुकरा जाति की उदारता ही है कि वह नित्य हमेशा द्वार पर एकटूक आशा में बैठा मानवता की पशुता को मौन ही झेलता रहता है, यह सोच कर कि शायद कभी इसे मेरी याद आ जाए. पर मनुष्य है कि सोचता है, ‘मेरा पेट भर गया तो संसार में सब का पेट भर गया.’ अपने कुकरामोह के कारण मैं ने बहुत से बुद्धिजीवियों की चुभती निगाहों और व्यंग्यबाणों का अपनी पीठ पीछे कई बार सामना किया है, पर मुझे उन की कोई परवा नहीं क्योंकि मैं जानती हूं कि यदि मुझे मानवता का निर्वाह सही अर्थों में करना है तो पशुपक्षियों के बच्चों का खयाल भी अपने बच्चों की तरह रखना होगा.

एक दिन अचानक कुकरिया का सब से हृष्टपुष्ट पिल्ला कलुवा चल बसा, पड़ोस से कहीं हड्डी खा आया था. हम लोग उस दिन शहर से बाहर गए थे, शाम को घर आए, उस को बचाने के अनेक जतन किए पर डाक्टर भी कुछ न कर सके. 3 दिन की भूखप्यास से निढाल उसे अपनी ही चौखट पर पड़े देख हम आंसू बहाते रहे और अपने बच्चे की तरह हम ने उसे विदा किया. कलुवा के सभी साथी और पायल मेरे पास सिमट आए, कलुवा को जमीन में गाड़ते देख मेरे बेटे ने सिसकते हुए कहा, ‘‘इस की मां कितनी अच्छी थी, रसोई में रखी चीजों को भी कभी मुंह नहीं मारती थी.’’

बेटी ने भी तड़प कर कहा, ‘‘अपना घर बनते समय कुकरिया सारी रात अकेली पहरा देती थी, जरा सा खटका होता तो वह गुमानसिंह को जगा देती थी.’’ आएदिन वह हमें रात में चोर आने की खबर देता था. इन्होंने दोनों बहनभाई को समझाया, ‘‘ऐसे जी छोटा नहीं करते बेटा, प्रकृति बैलेंस करती चलती है.’’

इस तरह कलुवा के साथ कुकरिया को भी हम सब की ओर से उस दिन भावभीनी तरबतर विदाई हुई. कुकरिया आज जीवित है भी या नहीं, मैं नहीं जानती. जाऊं तो किस के पास जाऊं? किसे पता होगा? आज के दौर में तो लोगों के पास अपने सगेसंबंधियों से बात करने तक का समय और फुरसत नहीं है तो कुकरिया की खबर मुझे कौन देगा? किंतु कुकरिया की 2-3 पीढि़यां अभी भी पायल मौसी के साथ धमाचौकड़ी मचाती घूमती रहती हैं.

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मैं कभी गहरे सोच में पड़ जाती हूं कि क्या सचमुच कुकरिया ने उस दिन मुझ से मेरी भाषा में कहा था या वह मेरा भ्रम था? यदि भ्रम ही है तो वह अपने कहे अनुसार चली क्यों गई? अर्थात वह भ्रम नहीं था, अकाट्य सत्य था. एक ऐसा सत्य कि जिस पर कोई विश्वास नहीं करेगा, किंतु मैं, पायल और कुकरिया ही इस सत्य को जानते हैं.  अब जब भी मुझे कुकरिया की याद विचलित करने लगती है तो मैं उस के बच्चों के बीच बैठ अपना मन बहला लेती हूं. उस की ये धरोहर कुकरिया की स्मृतियां बन कर रह गई हैं. पायल और मैं एकदूसरे के हमदर्द होने के नाते व्याकुल क्षणों में एकदूसरे का सहारा बनते हैं.

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