हमारा घर बन रहा था, गुमानसिंह और रानो नए घर की चौकीदारी भी करते और मजदूरी भी. उन के 3 छोटेछोटे बच्चों के साथ एक कुतिया भी वहीं रहती थी जिसे वे ‘कुकरिया’ के नाम से बुलाते थे. इधर मेरे घर में भी एक पामेरियन पपी ‘पायल’ थी, जब से वह मेरे घर आई तब से मैं कुकरा जाति की बोली, भाषा सीख गई और मुझे इस जाति से लगाव भी हो गया. इन की भावनाएं और सोच भी मनुष्य जैसी होती हैं, यह सब ज्ञान मुझे पायल से मिला इसलिए मैं उसे अपना गुरु भी मानती हूं.
शुरू में पायल कुकरिया को देखते ही भगा देती थी, वह ‘कूंकूं’ कर गुमानसिंह की झोंपड़ी में छिप जाती, लेकिन धीरेधीरे दोनों हिलमिल गए. हमारे घर पहुंचते ही कुकरिया अपने दोनों पंजे आगे फैला कर अपनी गरदन झुका देती और प्यार से वह पांवों में लोट कर अपनी पूंछ हिलाती. मैं अपना थैला उसे दिखा कर कहती, ‘‘हांहां, तेरे लिए भी लाई हूं. चल, पहले मुझे आने तो दे.’’
मैं अपने निर्माणाधीन मकान के पिछवाड़े झोंपड़ी की ओर चल देती. रानो मेरे लिए झटपट खाट बिछा देती. रानो और उस के बच्चे भी कुकरिया के साथ मेरे पास आ कर जमीन पर बैठ जाते. अपनाअपना हिस्सा पा कर बच्चे छीनाझपटी करते, लेकिन पायल अपना अधिकतर हिस्सा छोड़ अपने पापा (मेरे पति) के पास चली जाती. कुकरिया अपना हिस्सा खा कर कभी भी पायल का हिस्सा नहीं खाती थी. बस, गरदन उठा कर पायल की ओर ताकती रहती, मैं 2-3 बार पायल को पुकारती.
‘‘ऐ पायलो, पायलिया…चलो बेटा, मममम खाओ. अच्छा, नहीं आ रही है तो मैं यह भी कुकरिया को दे दूं?’’
इस बीच मेरे पति को यदि मेरी बात सुनाई दे जाती तो वे भी पायल को टोकते, लेकिन पायल आती और अपने अधखाए खाने को सूंघ कर वापस चली जाती. पर कभीकभी तो वह इन के दुलारने पर भी नहीं आती. वे उस की हठीली मुद्रा देख वहीं से पूछते, ‘‘क्या है? पायल पापा के साथ काम करा रही है, उसे नहीं खाना. तुम कुकरिया को दे दो, वह खा लेगी.’’
तब मेरा ध्यान उन दोनों से हट कुकरिया की ओर जाता और मैं उस से कहती, ‘‘चल, ऐ कुकरिया, चल बेटी, यह भी तू ही खा ले. वह एक बार मुझे देखती और फिर पायल को, उस की मौन स्वीकारोक्ति को वह समझ जाती और निश्ंिचत हो उस चीज को खाने लगती. ऐसा रोज ही होता था. अपनी चीज को इतनी आसानी से कुकरिया को देने के पीछे पायल की शायद यह ही मंशा रही होगी कि घर में जो मुझे मिलता है वह इस बेचारी को कहां मिलता है जबकि घर में पायल अपनी मनपसंद वस्तु पाने के लिए मेरे आगेपीछे घूमती या मेरे दोनों बच्चों के पास जा, गरदन को झटका दे तिरछी नजरें कर उन्हें अपने स्वर में बताती कि मुझे और चाहिए. हम शाम 6 बजे वहां से चलते तो कुकरिया हमें गली के नुक्कड़ तक छोड़ने आती और जब हमारी गाड़ी सड़क पर भागने लगती तो पायल और कुकरिया एकदूसरी को नजरों से ओझल होने तक देखती रहतीं.
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एक बार मैं बीमार पड़ गई. 15 दिन तक वहां नहीं गई. जिस दिन गई उस दिन रविवार था. मैं ने देशी घी के परांठे सेंक कर रख दिए, उस दिन मेरे बच्चे भी साथ गए. कुकरिया मुझे देखते ही मेरे पांवों में ऐसी झपटी कि अपने बचाव में मेरा थैला तक हाथ से छूट गया. मेरा एक कदम बढ़ाना भी दूभर हो गया, बारबार उस के पंजे मेरे ऊपर तक आते, वह बारबार मेरी पीठ, कंधे, गरदन तक चढ़ी जा रही थी, मेरे बच्चे भी डर से चीख उठे, ‘‘मां, मां…पापा बचाओ.’’
कुछ मजदूर, गुमानसिंह और मेरे पति मेरी तरफ दौड़े, सब ने उसे अपनेअपने ढंग से धमकाया, फिर न जाने कैसे वह शीघ्र ही मुझे छोड़ अपनी झोंपड़ी में घुस गई. सभी आश्चर्यचकित थे कि आखिर ऐसा उस ने क्यों किया? हम सभी को उस की यह हरकत बड़ी दिल दहला देने वाली लगी, लेकिन मुझे एक खरोंच तक नहीं आई थी, मुझे ठीकठाक देख धीरेधीरे सभी अपने काम में लग गए. मेरी बेटी ने अपने गालों पर हाथ रख कर कहा, ‘‘बाप रे, यह आप को खा जाती तो?’’
कुकरिया मुझे खाट पर बैठा देख बड़ी शालीनता से मेरे पास आई लेकिन अब उस की दशा ऐसी हो गई मानो उस पर घड़ों पानी पड़ा हो, गरदन झुका कर वह तेजी से मेरी खाट के नीचे घुस गई. मेरे बेटे को पायल से बदला लेने का आज अच्छा मौका मिला था, इसलिए उस ने पायल को पुकारा क्योंकि मुझे ले कर उस का और पायल का पहले से ही बैर था. मेरी बेटी के मुझ से चिपक कर लेटने पर पायल भी हमारे बीच घुस कर अपनी जगह बना लेती, लेकिन बेटा कभी पास बैठना भी चाहता तो पायल से सहन नहीं होता, उस के भूंकने पर भी जब वह मुझे नहीं छोड़ता तो पायल उस के पैरों में ऐसे लोटपोट हो जाती कि वह अपने बचाव में दरवाजा पकड़ कर लटक जाता और पैर ऊपर सिकोड़ लेता.
‘‘सौरी पायल, सौरी पायल,’’ कह वह अपनी जान बचाता, कभी वह उसे चिढ़ाने के लिए कहता, ‘‘मां, मेरी मां.’’
तब पायल उसे गुर्रा कर चेतावनी देती, वक्रदृष्टि और मसूढ़ों तक चमके दांतों को दिखा कर वह सावधान कर देती, ऐसी स्थिति में और दरवाजे से कूदने पर वह पैर पटक हट या धत कहता पर इस से अधिक उस का वश नहीं चलता. 3 ईंटों की कच्ची दीवार को पार करते हुए पायल को अपनी ओर आता देख उस ने पायल को डांट लगाई, ‘‘क्यों, यहां उस से डर गई. टीले पर खड़ी तमाशा देखती रही नालायक, मुझ पर तो बड़ी शेरनी बनती है.’’
बेटे की डांट खा वह मेरी खाट के पास मौन हो और कुकरिया खाट के नीचे से एकदूसरे को टुकुरटुकुर देखती रहीं. मैं ने नीचे झांक कर देखा तो कुकरिया की दृष्टि लज्जित और पायल की विवशता उस की भारी हो आई पलकों से झलक रही थी. बायोटैक्नोलौजी और 12वीं में पढ़ने वाले बुद्धिजीवी भाईबहन जिस बात को नहीं समझ सके वह पायल जान गई थी कि कुकरिया ने ऐसा क्यों किया? वह उस का आक्रमण नहीं बल्कि आग्रह था कि इतने दिन आप क्यों नहीं आईं? मैं बोल नहीं सकती वरना जरूर पूछती कि आप कहां थीं? रानो चाय बना कर लाई थी, मैं ने साथ लाई चीजें ठंडे परांठों सहित सब को बांट दीं. बच्चे उठ कर घर देखने चले गए. तब वह खाट के नीचे से निकली और सहमते हुए एक टुकड़ा मुंह में दबाया, परांठा चबाते हुए थोड़ी गरदन तिरछी कर उस की खुली आंखें मुझ से उस कृत्य के लिए क्षमा याचना कर रही थीं. उस की मनोदशा देख मैं ने उस का सिर सहला दिया.
11 महीने तक हमारा गृहनिर्माण कार्य चला, इस दौरान कई बार ऐसा हुआ कि मैं वहां नियमित रूप से नहीं जा पाई, ये मुझे आ कर बताते, ‘‘मैं उसे खाना देता हूं तो वह खाती नहीं है, तुम्हें ढूंढ़ती है, जब मैं उस से कहता हूं कि मां आज नहीं आई है बेटा, तब वह खाना खाती है.’’ अगले दिन जब मैं वहां पहुंचती तो कुकरिया रिरिया कर अजीब आवाज में अपनी नाराजगी व्यक्त करती.
‘‘तुम्हें मेरी जरा भी चिंता नहीं है मां, मैं तुम्हें रोज याद करती हूं,’’ मैं उसे अपनी भाषा में बता उस का सिर सहलाने लगती, तब वह सामान्य होतेहोते अपना कूंकूंअंऊं का स्वर मंद कर देती और अपनी बात खत्म कर कहती, ‘‘चलो, ठीक है, लेकिन आप से मिले बिना रहा नहीं जाता. एक आप ही तो हैं जो मुझे प्यार करती हैं,’ उस की हांहूंऊंआं को मैं अब अच्छी तरह समझने लगी थी.
घर बन चुका था, पर अभी गृहप्रवेश नहीं हो पाया था. चौकीदार अपना हिसाब कर सप्ताह के अंदर कहीं और जाने वाला था. मुझे कुकरिया से लगाव हो गया था, मैं ने रानो से पूछा, ‘‘क्या तुम इसे भी अपने साथ ले जाओगी?’’ उस ने न में सिर हिलाया और अपनी निमाड़ी मिश्रित हिंदी भाषा में उत्तर दिया, ‘‘इस को वां नईं ले जाइंगे.’’
मैं पल भर के लिए खुश तो हुई लेकिन तुरंत ही व्याकुल हो कर पूछ बैठी, ‘‘तो यह यहां अकेली कैसे रहेगी?’’ रानो उदास हो कर बोली, ‘‘अब किया करेंगे? अम्म जहां बी जाते हैं, ऐसे कुत्ते म्हां आप ही आ जाते हैं.’’
अब मुझे कुकरिया की चिंता सताने लगी क्योंकि यह कालोनी शहर से दूर थी, अभी तक यहां सिर्फ 3 ही घर बने थे, बाकी 2 घरों में भी अभी कोई नहीं आया था, वे बंद पड़े थे और अब हमारे घर में भी ताला लग जाएगा, फिर यहां रोज कौन आएगा. अभी तक वहां पायल और कुकरिया के खौफ से कोई परिंदा भी पर नहीं मारता था, भूलाभटका कोई आ भी जाता तो इन की वजह से दुम दबा कर भागता नजर आता. मेरी दृष्टि में अकेलापन एक अवांछित दंड है, अब मुझे कुकरिया की चिंता सताने लगी, क्योंकि किराए के घर में तो हम उसे ले नहीं जा सकते.
चलते समय बड़ी व्यग्र दृष्टि से कुकरिया ने मुझे देखा. घर पहुंच कर इन्होंने मेरी परेशानी का कारण पूछा तो मैं ने बता दिया. सुन कर ये भी चिंतित हो गए लेकिन जल्दी ही इन्होंने एक रास्ता निकाला और मुझ से कहा, ‘‘गुमानसिंह को हम कुछ समय तक ऐसे ही 200 रुपए सप्ताह देते रहेंगे, वह जहां भी जाएगा उसे यही मजदूरी मिलेगी, यहां हमारे सूने घर की रखवाली भी होती रहेगी और कुकरिया को भी फिलहाल आश्रय मिल जाएगा.’’
दूसरे दिन गुमानसिंह के आगे हम ने यह प्रस्ताव रखा तो वह भी सहज तैयार हो गया. अगले महीने हमारी कालोनी में सड़क किनारे एक होटल, होस्टल और 4 घरों का निर्माण कार्य शुरू हुआ. हमारे घर के पास के 2 घरों का काम भी गुमानसिंह को मिला. ईंटसीमेंट का ट्रक आनेजाने के लिए उन लोगों ने उधर का कच्चा और ऊबड़खाबड़ रास्ता भी ठीक करवा लिया. अब रोज ही वहां पड़ोसी गांव के चरवाहे, उन के पशु हमारी कालोनी में भी घूमते दिख जाते. यह वातावरण देख मुझे बहुत संतोष होता.
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एक बार दीवाली की छुट्टियों में हम लोग पूरे 1 महीने बाद मथुरा से लौट कर आए. मैं मिठाई ले वहां पहुंची, तब रानो ने बताया, ‘‘तुम्हारे जाने के बाद कुकरिया ने बच्चे दिए हैं.’’ इतने में कुकरिया भी भीतर से निकली और मुझे देखते ही मेरे पैरों में लिपट गई. मैं उसे खाने की चीजें डाल पुलिया में झांक कर उस के बच्चे देखने लगी. पूरे 6 बच्चों की मां कुकरिया फिर मेरे पैर चाट अपने बच्चों को दूध पिलाने बैठ गई.
यह देख रानो ने कहा, ‘‘यहां ये किसी को नईं आने देती. बूंकती है, तुम्म पर नईं बूंकी.’’
कुछ दिन बाद हम ने भी अपने नए घर में प्रवेश किया, वहां जा कर हम सब ने कुकरिया का भी खयाल रखा. लेकिन तब तक वहां बाहर के और भी बड़े कुत्ते आने लगे थे, वे कुकरिया और उस के बच्चों की रोटी झपट कर खा जाते, 10-10 रोटियों में से भी कुकरिया को कभी एक टुकड़ा तक नहीं मिल पाता. उन आवारा कुत्तों को भगाने के सारे प्रयास विफल हो रहे थे. मेरा डंडा देख वे बरामदे पर नहीं चढ़ते लेकिन उन छोटे पिल्लों और कुकरिया को ऐसे डराते कि उन की खाई रोटी अंग नहीं लगती.
हम सब में प्रचंड शक्ति है, लेकिन पारिवारिक दायित्वों के बोझ तले मनुष्य तो क्या पशुपक्षी भी कमजोर पड़ जाते हैं, कुकरिया जब तक अकेली रही, शेरनी की तरह रही, लेकिन अब अपने बच्चों की खातिर वह भी कमजोर पड़ी. उसे अपनी चिंता नहीं थी, पर जब उस के निर्बल, अबोध बच्चों को बड़े कुत्ते काटते तो उन के बचाव में वह बेचारी भी लहूलुहान हो जाती, पायल भी कुकरिया का जम कर साथ देती, लेकिन आखिर जान सब को प्यारी होती है.
उन के रहनेखाने को तो हमारा घर था, लेकिन जब पायल, कुकरिया और पिल्ले कभी बाहर निकलते तब हमारी रखवाली में भी वे सहमे रहते. एक दिन मैं इसी चिंता में रसोई का द्वार खोल बरामदे में कुरसी पर बैठी थी. शाम के 6 बजे होंगे, मौसम सुहावना था. कुकरिया पहले से ही वहां उदास बैठी थी. आज मजूदरों ने बाहर के कुत्तों को इस ओर फटकने तक नहीं दिया था. पायल और पिल्ले आज बहुत दिन बाद चैन की सांस ले कर बाहर सड़क पर खेल रहे थे, मैं ने झुक कर कुकरिया के सिर पर हाथ फेरा और कहा, ‘‘जाओ बेटा, तुम भी खेलो, छोटे पिल्ले तो पायल मौसी के साथ खेल रहे हैं, अब कोई डर नहीं, पापा ने सब को कह दिया है, अब यहां कोई नहीं आएगा.’’
लेकिन वह अपने आगे फैले पंजों पर मुंह रखे बैठी ही रही. मैं एक परांठा ले कर दोबारा आई, एक टुकड़ा डाला, फिर धीरेधीरे पूरा परांठा उस के आगे रख दिया, पर उस ने उन टुकड़ों को सूंघा तक नहीं. वह यों ही गहरी सोच में डूबी अपने पंजों को पनीली आंखों से निहारती रही. मैं ने उसे छू कर देखा, शायद बुखार हो, लेकिन वह सरक कर बिलकुल मेरे पैरों पर आ कर पसर गई. मुझे बैठा देख पिल्ले और पायल भी बरामदे में आ कर उछलकूद करने लगे.
अब पिल्ले 5 महीने के हो चुके थे. उन की भूख भी बढ़ गई. मैं उन का बढ़ता कद देख कर फूली नहीं समाती थी किंतु अपनी नौकरी और घर संभालते हुए उन के लिए दोनों समय रोटी बनाना अब मुझे अखरने लगा. अब तक यहां 5-6 घर बस चुके थे. वे सुरक्षा सब की करते. मैं कभी सोचती कि सब के घर से 2-2 रोटी मांग कर लाऊं और कभी सोचती कि इन्हें एक ही समय खाना दूं, पर ऐसा कर नहीं पाती थी. मैं चाहे कितनी भी थकी होती लेकिन घर वालों से पहले उन की व्यवस्था करती थी.
बचपन में मेरे नानाजी मुझे एक कुत्ते की कहानी सुनाते थे कि वह अपने मालिक के मन की बात जान लेता था और उस की मदद भी करता था, शायद कुकरिया भी मेरे मन की बात जान गई थी. एक दिन शाम को मैं पक्षियों का कलरव सुन रही थी, बरामदे के दक्षिणी छोर पर पायल और कुकरिया की गहरी मंत्रणा चल रही थी, मैं भी अपनी कुरसी वहीं ले आई. दोनों के चेहरे गंभीर थे. मैं ने उन के पास बैठते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा? तू खाने की चिंता मत कर, मम्मी थक जाती हैं न इसलिए ऐसा सोचती है. बस और कोई बात नहीं है.’’
पायल एक मूकदृष्टि मुझ पर डाल पांचों सीढि़यों पर पसरे उस के पिल्लों के पास जा बैठी और कुकरिया अपनी अश्रुपूरित नजरों से मुझे एकटक देखती रही. यह देख कर मेरा दिल दुखी हो गया. वातावरण शांत हो चला था, मैं अनमनी हो पढ़ने को एक किताब ले आई कि अचानक मुझे सुनाई दिया, ‘‘अब मैं चली जाऊंगी मां, आप पर बोझ नहीं बनूंगी.’’ किताब एक झटके से मेरे हाथ से छूट गई. मैं ने हड़बड़ा कर अपने चारों ओर देखा, मेरे आसपास पायल, कुकरिया और उन पिल्लों के अतिरिक्त कोई भी नहीं था, मैं तत्काल कुरसी छोड़ खड़ी हो गई, नीचेऊपर, आगेपीछे ताकझांक करने लगी और दोबारा कुरसी पर आ कर बैठ गई.
कुकरिया गरदन झुकाए मेरे पैरों के पास सरक आई, मैं ने स्थिर हो फिर उसे गौर से देखा. पायल मेरी ओर पीठ कर के बैठी थी, बाकी पिल्ले भी कभी अपनी बोझिल पलकें झपकाते और कभी बिलकुल ही बंद कर लेते. इस बीच मुझे दोबारा कुछ और सुनाई दिया, ‘‘मैं जानती हूं कि आप मेरे बच्चों का पूरा ध्यान रखेंगी. आप हैं न इन के पास, बस, अब मुझे इन की कोई चिंता नहीं है. अब मैं हमेशा के लिए चली जाऊंगी,’’ दूसरी बार के झटके से मैं बुरी तरह कांप गई.
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बड़बड़ाती हुई मैं एक सांस में खड़ी हो गई और चहलकदमी करने लगी. दिमाग तेजी से चल रहा था क्योंकि सही में मैं ने एक के बाद एक ये बातें सुनी थीं. इसी दम पर कि इस बार तो मैं उसे पकड़ ही लूंगी, लेकिन जब कोई हाथ नहीं लगा तो मैं घबरा गई. मैं लपकती सी भीतर घुस आई, अपनी बेटी को साथ ले फिर वहीं आ गई. कुकरिया बारीबारी से अपने सोए पिल्लों को चाट रही थी. किसी का कीड़ा मुंह से निकालती तो किसी को मुंह से ऐसे स्पर्श करती जैसे हम अपने बच्चों के सिर पर हाथ फेरते हैं. कुकरिया की ये गतिविधियां बड़ी लुभावनी थीं किंतु मेरा मन अनगिनत आशंकाओं से भर गया था.
अचानक फोन की घंटी बज उठी, मैं भीतर आ कर घरेलू कार्यों में व्यस्त हो गई. दूसरे दिन सुबह 6 बजे के बाद द्वार खुलते ही सारे पिल्ले लपकझपक दौड़े आए, पर कुकरिया नहीं आई. मैं पुकारती रही.
‘‘कुकरिया, ओ कुकरिया.’’ उस की 2 रोटियां हाथ में दबा घर की परिक्रमा करते दूरदूर तक नजर दौड़ाई, फिर दोनों रोटियां कटोरे में रख दीं. 3 बजे के बाद मैं बचा भोजन एकत्र कर बाहर आई तब कुकरिया मुझे बरामदे की सीढि़यां चढ़ती दिखाई दी. मैं खुशी से चिल्ला उठी, ‘‘मेरी कुकरिया आ गई…तू कहां चली गई थी बेटी?’’
मैं ने अपने हाथों से एकएक कौर कुकरिया को खिलाया, उस की मनपसंद खीर भी. इस के बाद वह पायल और अपने बच्चों के साथ खूब खेली. कई बार गले मिली. कई बार वह मेरे आगेपीछे घूमी. मैं मगन और निश्ंिचत हो कर भीतर आ रही थी कि कुकरिया अपने बच्चों को छोड़ कर मेरे पैरों से लिपट गई. अपना माथा और मुंह कई बार आड़ीटेढ़ी हो मेरे पैरों से रगड़ा, कई बार मुझे चाटा. इस के बाद वह सीधी सीढि़यों से नीचे उतरी और फिर उस ने पलट कर भी किसी को नहीं देखा, अपनी पीठ और पूंछ पर चढ़ते अपने बच्चों तक को भी नहीं और फिर वह सदासदा के लिए कहीं चली गई.
कुछ दिन हम सब उसे ढूंढ़ते रहे. मेरे पति और बच्चे अपनी बाइक और स्कूटी से जाते, लेकिन निराश हो दूर से मुझे ‘न’ में हाथ हिला आ जाते. उस के पिल्लों ने भी उसे 4-5 दिन ढूंढ़ा, मैं घंटों बाहर बैठी उस की राह देखती, तब पायल की आंखों में मुझे बहुत से भाव दिखाई देते, जैसे वह कह रही हो, ‘‘मां, वह अब नहीं आएगी, आप से कह कर तो गई है. उस के बच्चों का अब हमें ही खयाल रखना है.’’
पायल उन पिल्लों को अपने कटोरे में से दूधपानी पिलाती और बाद में खुद पीती. एक मां की तरह वह एक छोटी सी आहट पर उन के पास दौड़ी चली आती.
कालोनी की आबादी अब और बढ़ गई. ये मूक जानवर आदर और स्नेह की भाषा ही नहीं, मनुष्य की दृष्टि को भी समझते हैं. आज हम अपनी संस्कृति भूल भावनाविहीन हो गए हैं, मानव का निष्कपट आचरण और शुद्ध मन उसे सभ्य बनाता है, उच्च ज्ञान और उच्च पद पा कर भी यदि हम में संवेदना नहीं है, दूसरों के प्रति समझ नहीं है, तो हम क्या हैं? हम सब सदियों से कुत्ते के साथ रह रहे हैं. यह कुकरा जाति की उदारता ही है कि वह नित्य हमेशा द्वार पर एकटूक आशा में बैठा मानवता की पशुता को मौन ही झेलता रहता है, यह सोच कर कि शायद कभी इसे मेरी याद आ जाए. पर मनुष्य है कि सोचता है, ‘मेरा पेट भर गया तो संसार में सब का पेट भर गया.’ अपने कुकरामोह के कारण मैं ने बहुत से बुद्धिजीवियों की चुभती निगाहों और व्यंग्यबाणों का अपनी पीठ पीछे कई बार सामना किया है, पर मुझे उन की कोई परवा नहीं क्योंकि मैं जानती हूं कि यदि मुझे मानवता का निर्वाह सही अर्थों में करना है तो पशुपक्षियों के बच्चों का खयाल भी अपने बच्चों की तरह रखना होगा.
एक दिन अचानक कुकरिया का सब से हृष्टपुष्ट पिल्ला कलुवा चल बसा, पड़ोस से कहीं हड्डी खा आया था. हम लोग उस दिन शहर से बाहर गए थे, शाम को घर आए, उस को बचाने के अनेक जतन किए पर डाक्टर भी कुछ न कर सके. 3 दिन की भूखप्यास से निढाल उसे अपनी ही चौखट पर पड़े देख हम आंसू बहाते रहे और अपने बच्चे की तरह हम ने उसे विदा किया. कलुवा के सभी साथी और पायल मेरे पास सिमट आए, कलुवा को जमीन में गाड़ते देख मेरे बेटे ने सिसकते हुए कहा, ‘‘इस की मां कितनी अच्छी थी, रसोई में रखी चीजों को भी कभी मुंह नहीं मारती थी.’’
बेटी ने भी तड़प कर कहा, ‘‘अपना घर बनते समय कुकरिया सारी रात अकेली पहरा देती थी, जरा सा खटका होता तो वह गुमानसिंह को जगा देती थी.’’ आएदिन वह हमें रात में चोर आने की खबर देता था. इन्होंने दोनों बहनभाई को समझाया, ‘‘ऐसे जी छोटा नहीं करते बेटा, प्रकृति बैलेंस करती चलती है.’’
इस तरह कलुवा के साथ कुकरिया को भी हम सब की ओर से उस दिन भावभीनी तरबतर विदाई हुई. कुकरिया आज जीवित है भी या नहीं, मैं नहीं जानती. जाऊं तो किस के पास जाऊं? किसे पता होगा? आज के दौर में तो लोगों के पास अपने सगेसंबंधियों से बात करने तक का समय और फुरसत नहीं है तो कुकरिया की खबर मुझे कौन देगा? किंतु कुकरिया की 2-3 पीढि़यां अभी भी पायल मौसी के साथ धमाचौकड़ी मचाती घूमती रहती हैं.
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मैं कभी गहरे सोच में पड़ जाती हूं कि क्या सचमुच कुकरिया ने उस दिन मुझ से मेरी भाषा में कहा था या वह मेरा भ्रम था? यदि भ्रम ही है तो वह अपने कहे अनुसार चली क्यों गई? अर्थात वह भ्रम नहीं था, अकाट्य सत्य था. एक ऐसा सत्य कि जिस पर कोई विश्वास नहीं करेगा, किंतु मैं, पायल और कुकरिया ही इस सत्य को जानते हैं. अब जब भी मुझे कुकरिया की याद विचलित करने लगती है तो मैं उस के बच्चों के बीच बैठ अपना मन बहला लेती हूं. उस की ये धरोहर कुकरिया की स्मृतियां बन कर रह गई हैं. पायल और मैं एकदूसरे के हमदर्द होने के नाते व्याकुल क्षणों में एकदूसरे का सहारा बनते हैं.