कुकरिया: क्या बेजुबानों से सबक ले पाए मानव?

हमारा घर बन रहा था, गुमानसिंह और रानो नए घर की चौकीदारी भी करते और मजदूरी भी. उन के 3 छोटेछोटे बच्चों के साथ एक कुतिया भी वहीं रहती थी जिसे वे ‘कुकरिया’ के नाम से बुलाते थे. इधर मेरे घर में भी एक पामेरियन पपी ‘पायल’ थी, जब से वह मेरे घर आई तब से मैं कुकरा जाति की बोली, भाषा सीख गई और मुझे इस जाति से लगाव भी हो गया. इन की भावनाएं और सोच भी मनुष्य जैसी होती हैं, यह सब ज्ञान मुझे पायल से मिला इसलिए मैं उसे अपना गुरु भी मानती हूं.

शुरू में पायल कुकरिया को देखते ही भगा देती थी, वह ‘कूंकूं’ कर गुमानसिंह की झोंपड़ी में छिप जाती, लेकिन धीरेधीरे दोनों हिलमिल गए. हमारे घर पहुंचते ही कुकरिया अपने दोनों पंजे आगे फैला कर अपनी गरदन झुका देती और प्यार से वह पांवों में लोट कर अपनी पूंछ हिलाती. मैं अपना थैला उसे दिखा कर कहती, ‘‘हांहां, तेरे लिए भी लाई हूं. चल, पहले मुझे आने तो दे.’’

मैं अपने निर्माणाधीन मकान के पिछवाड़े झोंपड़ी की ओर चल देती. रानो मेरे लिए झटपट खाट बिछा देती. रानो और उस के बच्चे भी कुकरिया के साथ मेरे पास आ कर जमीन पर बैठ जाते. अपनाअपना हिस्सा पा कर बच्चे छीनाझपटी करते, लेकिन पायल अपना अधिकतर हिस्सा छोड़ अपने पापा (मेरे पति) के पास चली जाती. कुकरिया अपना हिस्सा खा कर कभी भी पायल का हिस्सा नहीं खाती थी. बस, गरदन उठा कर पायल की ओर ताकती रहती, मैं 2-3 बार पायल को पुकारती.

‘‘ऐ पायलो, पायलिया…चलो बेटा, मममम खाओ. अच्छा, नहीं आ रही है तो मैं यह भी कुकरिया को दे दूं?’’

इस बीच मेरे पति को यदि मेरी बात सुनाई दे जाती तो वे भी पायल को टोकते, लेकिन पायल आती और अपने अधखाए खाने को सूंघ कर वापस चली जाती. पर कभीकभी तो वह इन के दुलारने पर भी नहीं आती. वे उस की हठीली मुद्रा देख वहीं से पूछते, ‘‘क्या है? पायल पापा के साथ काम करा रही है, उसे नहीं खाना. तुम कुकरिया को दे दो, वह खा लेगी.’’

तब मेरा ध्यान उन दोनों से हट कुकरिया की ओर जाता और मैं उस से कहती, ‘‘चल, ऐ कुकरिया, चल बेटी, यह भी तू ही खा ले. वह एक बार मुझे देखती और फिर पायल को, उस की मौन स्वीकारोक्ति को वह समझ जाती और निश्ंिचत हो उस चीज को खाने लगती. ऐसा रोज ही होता था. अपनी चीज को इतनी आसानी से कुकरिया को देने के पीछे पायल की शायद यह ही मंशा रही होगी कि घर में जो मुझे मिलता है वह इस बेचारी को कहां मिलता है जबकि घर में पायल अपनी मनपसंद वस्तु पाने के लिए मेरे आगेपीछे घूमती या मेरे दोनों बच्चों के पास जा, गरदन को झटका दे तिरछी नजरें कर उन्हें अपने स्वर में बताती कि मुझे और चाहिए. हम शाम 6 बजे वहां से चलते तो कुकरिया हमें गली के नुक्कड़ तक छोड़ने आती और जब हमारी गाड़ी सड़क पर भागने लगती तो पायल और कुकरिया एकदूसरी को नजरों से ओझल होने तक देखती रहतीं.

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एक बार मैं बीमार पड़ गई. 15 दिन तक वहां नहीं गई. जिस दिन गई उस दिन रविवार था. मैं ने देशी घी के परांठे सेंक कर रख दिए, उस दिन मेरे बच्चे भी साथ गए. कुकरिया मुझे देखते ही मेरे पांवों में ऐसी झपटी कि अपने बचाव में मेरा थैला तक हाथ से छूट गया. मेरा एक कदम बढ़ाना भी दूभर हो गया, बारबार उस के पंजे मेरे ऊपर तक आते, वह बारबार मेरी पीठ, कंधे, गरदन तक चढ़ी जा रही थी, मेरे बच्चे भी डर से चीख उठे, ‘‘मां, मां…पापा बचाओ.’’

कुछ मजदूर, गुमानसिंह और मेरे पति मेरी तरफ दौड़े, सब ने उसे अपनेअपने ढंग से धमकाया, फिर न जाने कैसे वह शीघ्र ही मुझे छोड़ अपनी झोंपड़ी में घुस गई. सभी आश्चर्यचकित थे कि आखिर ऐसा उस ने क्यों किया? हम सभी को उस की यह हरकत बड़ी दिल दहला देने वाली लगी, लेकिन मुझे एक खरोंच तक नहीं आई थी, मुझे ठीकठाक देख धीरेधीरे सभी अपने काम में लग गए. मेरी बेटी ने अपने गालों पर हाथ रख कर कहा, ‘‘बाप रे, यह आप को खा जाती तो?’’

कुकरिया मुझे खाट पर बैठा देख बड़ी शालीनता से मेरे पास आई लेकिन अब उस की दशा ऐसी हो गई मानो उस पर घड़ों पानी पड़ा हो, गरदन झुका कर वह तेजी से मेरी खाट के नीचे घुस गई. मेरे बेटे को पायल से बदला लेने का आज अच्छा मौका मिला था, इसलिए उस ने पायल को पुकारा क्योंकि मुझे ले कर उस का और पायल का पहले से ही बैर था. मेरी बेटी के मुझ से चिपक कर लेटने पर पायल भी हमारे बीच घुस कर अपनी जगह बना लेती, लेकिन बेटा कभी पास बैठना भी चाहता तो पायल से सहन नहीं होता, उस के भूंकने पर भी जब वह मुझे नहीं छोड़ता तो पायल उस के पैरों में ऐसे लोटपोट हो जाती कि वह अपने बचाव में दरवाजा पकड़ कर लटक जाता और पैर ऊपर सिकोड़ लेता.

‘‘सौरी पायल, सौरी पायल,’’ कह वह अपनी जान बचाता, कभी वह उसे चिढ़ाने के लिए कहता, ‘‘मां, मेरी मां.’’

तब पायल उसे गुर्रा कर चेतावनी देती, वक्रदृष्टि और मसूढ़ों तक चमके दांतों को दिखा कर वह सावधान कर देती, ऐसी स्थिति में और दरवाजे से कूदने पर वह पैर पटक हट या धत कहता पर इस से अधिक उस का वश नहीं चलता. 3 ईंटों की कच्ची दीवार को पार करते हुए पायल को अपनी ओर आता देख उस ने पायल को डांट लगाई, ‘‘क्यों, यहां उस से डर गई. टीले पर खड़ी तमाशा देखती रही नालायक, मुझ पर तो बड़ी शेरनी बनती है.’’

बेटे की डांट खा वह मेरी खाट के पास मौन हो और कुकरिया खाट के नीचे से एकदूसरे को टुकुरटुकुर देखती रहीं. मैं ने नीचे झांक कर देखा तो कुकरिया की दृष्टि लज्जित और पायल की विवशता उस की भारी हो आई पलकों से झलक रही थी. बायोटैक्नोलौजी और 12वीं में पढ़ने वाले बुद्धिजीवी भाईबहन जिस बात को नहीं समझ सके वह पायल जान गई थी कि कुकरिया ने ऐसा क्यों किया? वह उस का आक्रमण नहीं बल्कि आग्रह था कि इतने दिन आप क्यों नहीं आईं? मैं बोल नहीं सकती वरना जरूर पूछती कि आप कहां थीं?  रानो चाय बना कर लाई थी, मैं ने साथ लाई चीजें ठंडे परांठों सहित सब को बांट दीं. बच्चे उठ कर घर देखने चले गए. तब वह खाट के नीचे से निकली और सहमते हुए एक टुकड़ा मुंह में दबाया, परांठा चबाते हुए थोड़ी गरदन तिरछी कर उस की खुली आंखें मुझ से उस कृत्य के लिए क्षमा याचना कर रही थीं. उस की मनोदशा देख मैं ने उस का सिर सहला दिया.

11 महीने तक हमारा गृहनिर्माण कार्य चला, इस दौरान कई बार ऐसा हुआ कि मैं वहां नियमित रूप से नहीं जा पाई, ये मुझे आ कर बताते, ‘‘मैं उसे खाना देता हूं तो वह खाती नहीं है, तुम्हें ढूंढ़ती है, जब मैं उस से कहता हूं कि मां आज नहीं आई है बेटा, तब वह खाना खाती है.’’ अगले दिन जब मैं वहां पहुंचती तो कुकरिया रिरिया कर अजीब आवाज में अपनी नाराजगी व्यक्त करती.

‘‘तुम्हें मेरी जरा भी चिंता नहीं है मां, मैं तुम्हें रोज याद करती हूं,’’ मैं उसे अपनी भाषा में बता उस का सिर सहलाने लगती, तब वह सामान्य होतेहोते अपना कूंकूंअंऊं का स्वर मंद कर देती और अपनी बात खत्म कर कहती, ‘‘चलो, ठीक है, लेकिन आप से मिले बिना रहा नहीं जाता. एक आप ही तो हैं जो मुझे प्यार करती हैं,’ उस की हांहूंऊंआं को मैं अब अच्छी तरह समझने लगी थी.

घर बन चुका था, पर अभी गृहप्रवेश नहीं हो पाया था. चौकीदार अपना हिसाब कर सप्ताह के अंदर कहीं और जाने वाला था. मुझे कुकरिया से लगाव हो गया था, मैं ने रानो से पूछा, ‘‘क्या तुम इसे भी अपने साथ ले जाओगी?’’ उस ने न में सिर हिलाया और अपनी निमाड़ी मिश्रित हिंदी भाषा में उत्तर दिया, ‘‘इस को वां नईं ले जाइंगे.’’

मैं पल भर के लिए खुश तो हुई लेकिन तुरंत ही व्याकुल हो कर पूछ बैठी, ‘‘तो यह यहां अकेली कैसे रहेगी?’’ रानो उदास हो कर बोली, ‘‘अब किया करेंगे? अम्म जहां बी जाते हैं, ऐसे कुत्ते म्हां आप ही आ जाते हैं.’’

अब मुझे कुकरिया की चिंता सताने लगी क्योंकि यह कालोनी शहर से दूर थी, अभी तक यहां सिर्फ 3 ही घर बने थे, बाकी 2 घरों में भी अभी कोई नहीं आया था, वे बंद पड़े थे और अब हमारे घर में भी ताला लग जाएगा, फिर यहां रोज कौन आएगा. अभी तक वहां पायल और कुकरिया के खौफ से कोई परिंदा भी पर नहीं मारता था, भूलाभटका कोई आ भी जाता तो इन की वजह से दुम दबा कर भागता नजर आता. मेरी दृष्टि में अकेलापन एक अवांछित दंड है, अब मुझे कुकरिया की चिंता सताने लगी, क्योंकि किराए के घर में तो हम उसे ले नहीं जा सकते.

चलते समय बड़ी व्यग्र दृष्टि से कुकरिया ने मुझे देखा. घर पहुंच कर इन्होंने मेरी परेशानी का कारण पूछा तो मैं ने बता दिया. सुन कर ये भी चिंतित हो गए लेकिन जल्दी ही इन्होंने एक रास्ता निकाला और मुझ से कहा, ‘‘गुमानसिंह को हम कुछ समय तक ऐसे ही 200 रुपए सप्ताह देते रहेंगे, वह जहां भी जाएगा उसे यही मजदूरी मिलेगी, यहां हमारे सूने घर की रखवाली भी होती रहेगी और कुकरिया को भी फिलहाल आश्रय मिल जाएगा.’’

दूसरे दिन गुमानसिंह के आगे हम ने यह प्रस्ताव रखा तो वह भी सहज तैयार हो गया. अगले महीने हमारी कालोनी में सड़क किनारे एक होटल, होस्टल और 4 घरों का निर्माण कार्य शुरू हुआ. हमारे घर के पास के 2 घरों का काम भी गुमानसिंह को मिला. ईंटसीमेंट का ट्रक आनेजाने के लिए उन लोगों ने उधर का कच्चा और ऊबड़खाबड़ रास्ता भी ठीक करवा लिया. अब रोज ही वहां पड़ोसी गांव के चरवाहे, उन के पशु हमारी कालोनी में भी घूमते दिख जाते. यह वातावरण देख मुझे बहुत संतोष होता.

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एक बार दीवाली की छुट्टियों में हम लोग पूरे 1 महीने बाद मथुरा से लौट कर आए. मैं मिठाई ले वहां पहुंची, तब रानो ने बताया, ‘‘तुम्हारे जाने के बाद कुकरिया ने बच्चे दिए हैं.’’ इतने में कुकरिया भी भीतर से निकली और मुझे देखते ही मेरे पैरों में लिपट गई. मैं उसे खाने की चीजें डाल पुलिया में झांक कर उस के बच्चे देखने लगी. पूरे 6 बच्चों की मां कुकरिया फिर मेरे पैर चाट अपने बच्चों को दूध पिलाने बैठ गई.

यह देख रानो ने कहा, ‘‘यहां ये किसी को नईं आने देती. बूंकती है, तुम्म पर नईं बूंकी.’’

कुछ दिन बाद हम ने भी अपने नए घर में प्रवेश किया, वहां जा कर हम सब ने कुकरिया का भी खयाल रखा. लेकिन तब तक वहां बाहर के और भी बड़े कुत्ते आने लगे थे, वे कुकरिया और उस के बच्चों की रोटी झपट कर खा जाते, 10-10 रोटियों में से भी कुकरिया को कभी एक टुकड़ा तक नहीं मिल पाता. उन आवारा कुत्तों को भगाने के सारे प्रयास विफल हो रहे थे. मेरा डंडा देख वे बरामदे पर नहीं चढ़ते लेकिन उन छोटे पिल्लों और कुकरिया को ऐसे डराते कि उन की खाई रोटी अंग नहीं लगती.

हम सब में प्रचंड शक्ति है, लेकिन पारिवारिक दायित्वों के बोझ तले मनुष्य तो क्या पशुपक्षी भी कमजोर पड़ जाते हैं, कुकरिया जब तक अकेली रही, शेरनी की तरह रही, लेकिन अब अपने बच्चों की खातिर वह भी कमजोर पड़ी. उसे अपनी चिंता नहीं थी, पर जब उस के निर्बल, अबोध बच्चों को बड़े कुत्ते काटते तो उन के बचाव में वह बेचारी भी लहूलुहान हो जाती, पायल भी कुकरिया का जम कर साथ देती, लेकिन आखिर जान सब को प्यारी होती है.

उन के रहनेखाने को तो हमारा घर था, लेकिन जब पायल, कुकरिया और पिल्ले कभी बाहर निकलते तब हमारी रखवाली में भी वे सहमे रहते. एक दिन मैं इसी चिंता में रसोई का द्वार खोल बरामदे में कुरसी पर बैठी थी. शाम के 6 बजे होंगे, मौसम सुहावना था. कुकरिया पहले से ही वहां उदास बैठी थी. आज मजूदरों ने बाहर के कुत्तों को इस ओर फटकने तक नहीं दिया था. पायल और पिल्ले आज बहुत दिन बाद चैन की सांस ले कर बाहर सड़क पर खेल रहे थे, मैं ने झुक कर कुकरिया के सिर पर हाथ फेरा और कहा, ‘‘जाओ बेटा, तुम भी खेलो, छोटे पिल्ले तो पायल मौसी के साथ खेल रहे हैं, अब कोई डर नहीं, पापा ने सब को कह दिया है, अब यहां कोई नहीं आएगा.’’

लेकिन वह अपने आगे फैले पंजों पर मुंह रखे बैठी ही रही. मैं एक परांठा ले कर दोबारा आई, एक टुकड़ा डाला, फिर धीरेधीरे पूरा परांठा उस के आगे रख दिया, पर उस ने उन टुकड़ों को सूंघा तक नहीं. वह यों ही गहरी सोच में डूबी अपने पंजों को पनीली आंखों से निहारती रही. मैं ने उसे छू कर देखा, शायद बुखार हो, लेकिन वह सरक कर बिलकुल मेरे पैरों पर आ कर पसर गई. मुझे बैठा देख पिल्ले और पायल भी बरामदे में आ कर उछलकूद करने लगे.

अब पिल्ले 5 महीने के हो चुके थे. उन की भूख भी बढ़ गई. मैं उन का बढ़ता कद देख कर फूली नहीं समाती थी किंतु अपनी नौकरी और घर संभालते हुए उन के लिए दोनों समय रोटी बनाना अब मुझे अखरने लगा. अब तक यहां 5-6 घर बस चुके थे. वे सुरक्षा सब की करते. मैं कभी सोचती कि सब के घर से 2-2 रोटी मांग कर लाऊं और कभी सोचती कि इन्हें एक ही समय खाना दूं, पर ऐसा कर नहीं पाती थी. मैं चाहे कितनी भी थकी होती लेकिन घर वालों से पहले उन की व्यवस्था करती थी.

बचपन में मेरे नानाजी मुझे एक कुत्ते की कहानी सुनाते थे कि वह अपने मालिक के मन की बात जान लेता था और उस की मदद भी करता था, शायद कुकरिया भी मेरे मन की बात जान गई थी. एक दिन शाम को मैं पक्षियों का कलरव सुन रही थी, बरामदे के दक्षिणी छोर पर पायल और कुकरिया की गहरी मंत्रणा चल रही थी, मैं भी अपनी कुरसी वहीं ले आई. दोनों के चेहरे गंभीर थे. मैं ने उन के पास बैठते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा? तू खाने की चिंता मत कर, मम्मी थक जाती हैं न इसलिए ऐसा सोचती है. बस और कोई बात नहीं है.’’

पायल एक मूकदृष्टि मुझ पर डाल पांचों सीढि़यों पर पसरे उस के पिल्लों के पास जा बैठी और कुकरिया अपनी अश्रुपूरित नजरों से मुझे एकटक देखती रही. यह देख कर मेरा दिल दुखी हो गया. वातावरण शांत हो चला था, मैं अनमनी हो पढ़ने को एक किताब ले आई कि अचानक मुझे सुनाई दिया, ‘‘अब मैं चली जाऊंगी मां, आप पर बोझ नहीं बनूंगी.’’  किताब एक झटके से मेरे हाथ से छूट गई. मैं ने हड़बड़ा कर अपने चारों ओर देखा, मेरे आसपास पायल, कुकरिया और उन पिल्लों के अतिरिक्त कोई भी नहीं था, मैं तत्काल कुरसी छोड़ खड़ी हो गई, नीचेऊपर, आगेपीछे ताकझांक करने लगी और दोबारा कुरसी पर आ कर बैठ गई.

कुकरिया गरदन झुकाए मेरे पैरों के पास सरक आई, मैं ने स्थिर हो फिर उसे गौर से देखा. पायल मेरी ओर पीठ कर के बैठी थी, बाकी पिल्ले भी कभी अपनी बोझिल पलकें झपकाते और कभी बिलकुल ही बंद कर लेते. इस बीच मुझे दोबारा कुछ और सुनाई दिया, ‘‘मैं जानती हूं कि आप मेरे बच्चों का पूरा ध्यान रखेंगी. आप हैं न इन के पास, बस, अब मुझे इन की कोई चिंता नहीं है. अब मैं हमेशा के लिए चली जाऊंगी,’’ दूसरी बार के झटके से मैं बुरी तरह कांप गई.

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बड़बड़ाती हुई मैं एक सांस में खड़ी हो गई और चहलकदमी करने लगी. दिमाग तेजी से चल रहा था क्योंकि सही में मैं ने एक के बाद एक ये बातें सुनी थीं. इसी दम पर कि इस बार तो मैं उसे पकड़ ही लूंगी, लेकिन जब कोई हाथ नहीं लगा तो मैं घबरा गई. मैं लपकती सी भीतर घुस आई, अपनी बेटी को साथ ले फिर वहीं आ गई.  कुकरिया बारीबारी से अपने सोए पिल्लों को चाट रही थी. किसी का कीड़ा मुंह से निकालती तो किसी को मुंह से ऐसे स्पर्श करती जैसे हम अपने बच्चों के सिर पर हाथ फेरते हैं. कुकरिया की ये गतिविधियां बड़ी लुभावनी थीं किंतु मेरा मन अनगिनत आशंकाओं से भर गया था.

अचानक फोन की घंटी बज उठी, मैं भीतर आ कर घरेलू कार्यों में व्यस्त हो गई. दूसरे दिन सुबह 6 बजे के बाद द्वार खुलते ही सारे पिल्ले लपकझपक दौड़े आए, पर कुकरिया नहीं आई. मैं पुकारती रही.

‘‘कुकरिया, ओ कुकरिया.’’ उस की 2 रोटियां हाथ में दबा घर की परिक्रमा करते दूरदूर तक नजर दौड़ाई, फिर दोनों रोटियां कटोरे में रख दीं. 3 बजे के बाद मैं बचा भोजन एकत्र कर बाहर आई तब कुकरिया मुझे बरामदे की सीढि़यां चढ़ती दिखाई दी. मैं खुशी से चिल्ला उठी, ‘‘मेरी कुकरिया आ गई…तू कहां चली गई थी बेटी?’’

मैं ने अपने हाथों से एकएक कौर कुकरिया को खिलाया, उस की मनपसंद खीर भी. इस के बाद वह पायल और अपने बच्चों के साथ खूब खेली. कई बार गले मिली. कई बार वह मेरे आगेपीछे घूमी. मैं मगन और निश्ंिचत हो कर भीतर आ रही थी कि कुकरिया अपने बच्चों को छोड़ कर मेरे पैरों से लिपट गई. अपना माथा और मुंह कई बार आड़ीटेढ़ी हो मेरे पैरों से रगड़ा, कई बार मुझे चाटा.  इस के बाद वह सीधी सीढि़यों से नीचे उतरी और फिर उस ने पलट कर भी किसी को नहीं देखा, अपनी पीठ और पूंछ पर चढ़ते अपने बच्चों तक को भी नहीं और फिर वह सदासदा के लिए कहीं चली गई.

कुछ दिन हम सब उसे ढूंढ़ते रहे. मेरे पति और बच्चे अपनी बाइक और स्कूटी से जाते, लेकिन निराश हो दूर से मुझे ‘न’ में हाथ हिला आ जाते. उस के पिल्लों ने भी उसे 4-5 दिन ढूंढ़ा, मैं घंटों बाहर बैठी उस की राह देखती, तब पायल की आंखों में मुझे बहुत से भाव दिखाई देते, जैसे वह कह रही हो, ‘‘मां, वह अब नहीं आएगी, आप से कह कर तो गई है. उस के बच्चों का अब हमें ही खयाल रखना है.’’

पायल उन पिल्लों को अपने कटोरे में से दूधपानी पिलाती और बाद में खुद पीती. एक मां की तरह वह एक छोटी सी आहट पर उन के पास दौड़ी चली आती.

कालोनी की आबादी अब और बढ़ गई. ये मूक जानवर आदर और स्नेह की भाषा ही नहीं, मनुष्य की दृष्टि को भी समझते हैं. आज हम अपनी संस्कृति भूल भावनाविहीन हो गए हैं, मानव का निष्कपट आचरण और शुद्ध मन उसे सभ्य बनाता है, उच्च ज्ञान और उच्च पद पा कर भी यदि हम में संवेदना नहीं है, दूसरों के प्रति समझ नहीं है, तो हम क्या हैं?  हम सब सदियों से कुत्ते के साथ रह रहे हैं. यह कुकरा जाति की उदारता ही है कि वह नित्य हमेशा द्वार पर एकटूक आशा में बैठा मानवता की पशुता को मौन ही झेलता रहता है, यह सोच कर कि शायद कभी इसे मेरी याद आ जाए. पर मनुष्य है कि सोचता है, ‘मेरा पेट भर गया तो संसार में सब का पेट भर गया.’ अपने कुकरामोह के कारण मैं ने बहुत से बुद्धिजीवियों की चुभती निगाहों और व्यंग्यबाणों का अपनी पीठ पीछे कई बार सामना किया है, पर मुझे उन की कोई परवा नहीं क्योंकि मैं जानती हूं कि यदि मुझे मानवता का निर्वाह सही अर्थों में करना है तो पशुपक्षियों के बच्चों का खयाल भी अपने बच्चों की तरह रखना होगा.

एक दिन अचानक कुकरिया का सब से हृष्टपुष्ट पिल्ला कलुवा चल बसा, पड़ोस से कहीं हड्डी खा आया था. हम लोग उस दिन शहर से बाहर गए थे, शाम को घर आए, उस को बचाने के अनेक जतन किए पर डाक्टर भी कुछ न कर सके. 3 दिन की भूखप्यास से निढाल उसे अपनी ही चौखट पर पड़े देख हम आंसू बहाते रहे और अपने बच्चे की तरह हम ने उसे विदा किया. कलुवा के सभी साथी और पायल मेरे पास सिमट आए, कलुवा को जमीन में गाड़ते देख मेरे बेटे ने सिसकते हुए कहा, ‘‘इस की मां कितनी अच्छी थी, रसोई में रखी चीजों को भी कभी मुंह नहीं मारती थी.’’

बेटी ने भी तड़प कर कहा, ‘‘अपना घर बनते समय कुकरिया सारी रात अकेली पहरा देती थी, जरा सा खटका होता तो वह गुमानसिंह को जगा देती थी.’’ आएदिन वह हमें रात में चोर आने की खबर देता था. इन्होंने दोनों बहनभाई को समझाया, ‘‘ऐसे जी छोटा नहीं करते बेटा, प्रकृति बैलेंस करती चलती है.’’

इस तरह कलुवा के साथ कुकरिया को भी हम सब की ओर से उस दिन भावभीनी तरबतर विदाई हुई. कुकरिया आज जीवित है भी या नहीं, मैं नहीं जानती. जाऊं तो किस के पास जाऊं? किसे पता होगा? आज के दौर में तो लोगों के पास अपने सगेसंबंधियों से बात करने तक का समय और फुरसत नहीं है तो कुकरिया की खबर मुझे कौन देगा? किंतु कुकरिया की 2-3 पीढि़यां अभी भी पायल मौसी के साथ धमाचौकड़ी मचाती घूमती रहती हैं.

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मैं कभी गहरे सोच में पड़ जाती हूं कि क्या सचमुच कुकरिया ने उस दिन मुझ से मेरी भाषा में कहा था या वह मेरा भ्रम था? यदि भ्रम ही है तो वह अपने कहे अनुसार चली क्यों गई? अर्थात वह भ्रम नहीं था, अकाट्य सत्य था. एक ऐसा सत्य कि जिस पर कोई विश्वास नहीं करेगा, किंतु मैं, पायल और कुकरिया ही इस सत्य को जानते हैं.  अब जब भी मुझे कुकरिया की याद विचलित करने लगती है तो मैं उस के बच्चों के बीच बैठ अपना मन बहला लेती हूं. उस की ये धरोहर कुकरिया की स्मृतियां बन कर रह गई हैं. पायल और मैं एकदूसरे के हमदर्द होने के नाते व्याकुल क्षणों में एकदूसरे का सहारा बनते हैं.

रिश्ता: अकेले मां-बाप को नए रिश्ते में जोड़ते बच्चों की कहानी

Serial Story: रिश्ता (भाग-1)

अशोकजी शाम को अपने घर की छत पर टहल रहे थे. एक मोटरसाइकिल सवार गेट के सामने आ कर रुका, जिस का चेहरा हैलमेट में ढका हुआ था.

उस ने पहले अपनी जैकट की जेब से एक लिफाफा निकाल कर लैटर बौक्स में डाला, फिर सिर उठा कर अशोकजी की ओर देखा और हाथ हिलाने के बाद चला गया.

उस लिफाफे में अशोकजी को एक पत्र मिला जिस में लिखा था, ‘सर, आप के डर के कारण आप की बेटी अलका मुझ से रिश्ता नहीं जोड़ रही है. उस की तरह मैं भी 2 महीने बाद नौकरी करने अमेरिका जा रहा हूं. वहां मेरा सहारा पा कर वह सुरक्षित रहेगी.

‘मेरी आप से प्रार्थना है कि आप अलका से बात कर उस का भय दूर करें. आप ने हमारे रिश्ते को स्वीकार करने में अड़चनें डालीं तो जो होगा उस के जिम्मेदार सिर्फ आप ही होंगे.

‘मैं अलका का सहपाठी हूं. अपना फोन नंबर मैं ने नीचे लिख दिया है. आप जब चाहेंगे मैं मिलने आ जाऊंगा. आप के आशीर्वाद का इच्छुक-रोहन.’

पत्र पढ़ कर अशोकजी बौखला गए. उन के लिए रोहन नाम पूरी तरह से अपरिचित था. उन की इकलौती संतान अलका ने कभी किसी रोहन की चर्चा नहीं छेड़ी थी.

पत्र में जो धमकी का भाव मौजूद था उस ने अशोकजी को चिंतित कर दिया. अलका का मोबाइल नंबर मिलाने के बजाय उन्होंने अपने हमउम्र मित्र सोमनाथ का नंबर मिलाया.

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अशोकजी के फौरन बुलावे पर सोमनाथ 15 मिनट के अंदर उन के पास पहुंच गए. रोहन का पत्र पढ़ने के बाद उन्होंने चिंतित स्वर में टिप्पणी की, ‘‘यह तो इश्क का मामला लगता है मेरे भाई. अलका बेटी ने कभी इस रोहन के बारे में तुम से कुछ नहीं कहा?’’

‘‘एक शब्द भी नहीं,’’ अशोकजी भड़क उठे, ‘‘मुझे लगता है कि यह मजनू की औलाद मेरी बेटी को जरूर तंग कर रहा है. अलका ने इस के प्यार को ठुकराया होगा तो इस कमीने ने यह धमकी भरी चिट्ठी भेजी है.’’

‘‘दोस्त, यह भी तो हो सकता है कि अलका भी उसे चाहती…’’

सोमनाथ की बात को बीच में काटते हुए अशोकजी बोले, ‘‘अगर ऐसा होता तो मेरी बेटी जरूर मुझ से खुल कर सारी बात कहती. तू तो जानता ही है कि तेरी भाभी की मृत्यु के बाद अपनी बेटी से अच्छे संबंध बनाने के लिए मैं ने अपने स्वभाव को बहुत बदला है. वह मुझ से हर तरह की बात कर लेती है, तो इस महत्त्वपूर्ण बात को क्यों छिपाएगी?’’

‘‘अब क्या करेगा?’’

‘‘तू सलाह दे.’’

‘‘इस रोहन के बारे में जानकारी प्राप्त करनी पड़ेगी. अगर यह गलत किस्म का युवक निकला तो इस का दिमाग ठिकाने लगाने को पुलिस की मदद मैं दिलवाऊंगा.’’

सोमनाथ से हौसला पा कर अशोकजी की आंखों में चिंता के भाव कुछ कम हुए थे.

रोहन के बारे में जानकारी प्राप्त करने की जिम्मेदारी अशोकजी ने अपने भतीजे साहिल को सौंपी. उस की रिपोर्ट मिलने  तक उन्होंने अलका से इस बारे में कोई बात न करने का निर्णय किया था.

‘‘अंकल, रोहन सड़क छाप मजनू नहीं बल्कि बहुत काबिल युवक है,’’ साहिल ने 2 दिन बाद अशोकजी को बताया, ‘‘अलका दी और रोहन कक्षा के सब से होशियार विद्यार्थियों में हैं. तभी दोनों को अमेरिका में अच्छी नौकरी मिली है. पहले इन दोनों के बीच अच्छी दोस्ती थी पर करीब 2 सप्ताह से आपस में बोलचाल बंद है, रोहन के घर का पता इस कागज पर लिखा है.’’

साहिल ने एक कागज का टुकड़ा अशोकजी को पकड़ा दिया था.

‘‘तुम ने मालूम किया कि रोहन के घर में और कौनकौन हैं?’’

‘‘बड़ी बहन की शादी हो चुकी है और वह मुंबई में रहती है. रोहन अपनी विधवा मां के साथ रहता है. उस के पिता की सड़क दुर्घटना में जब मृत्यु हुई थी तब वह सिर्फ 10 साल का था.’’

‘‘और किसी महत्त्वपूर्ण बात की जानकारी मिली?’’ अशोकजी ने साहिल से पूछा.

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‘‘नहीं, चाचाजी, मैं ने जिस से भी पूछताछ की है, उस ने रोहन की तारीफ ही की है. हमारी जातबिरादरी का न सही पर लड़का अच्छा है. मेरी राय में अगर रिश्ते की बात उठे तो आप हां कहने में बिलकुल मत झिझकना,’’ अपनी राय बता कर साहिल चला गया था.

आगे पढ़ें- उस शाम अशोकजी ने जब….

Serial Story: रिश्ता (भाग-3)

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‘‘मीनाक्षीजी, आप के पास सोने का दिल है. मेरी बेटी आप के घर की बहू बन कर आती तो यह मैं उस का सौभाग्य मानता. मुझे पूरा विश्वास है कि वह इस घर में बेहद खुश व सुखी रहेगी. लेकिन अफसोस यह है कि अलका खुद इस रिश्ते में दिलचस्पी नहीं रखती है. मैं उसे राजी करने की कोशिश करूंगा, अगर वह नहीं मानी तो आप रोहन को समझा देना कि वह अलका को तंग न करे,’’ अशोकजी ने भावुक लहजे में मीनाक्षी से प्रार्थना की.

‘‘आप जैसे नेकदिल इनसान को जिस काम से दुख पहुंचे या आप की बेटी परेशान हो, वैसा कोई कार्य मैं अपने बेटे को नहीं करने दूंगी,’’ मीनाक्षी के इस वादे ने अशोकजी के दिल को बहुत राहत पहुंचाई.

अलका और रोहन के वापस लौटने पर इन दोनों ने उलटे सुर में बोलते हुए अपनीअपनी इच्छाएं जाहिर कीं तो उन दोनों को बहुत ही आश्चर्य हुआ.

‘‘अलका, तुम अगर रोहन को अच्छा मित्र बताती हो तो कल को अच्छा जीवनसाथी भी उस में पा लोगी. मीनाक्षीजी के घर में तुम बहुत सुखी और सुरक्षित रहोगी, इस का विश्वास है मुझे. मैं दबाव नहीं डाल रहा हूूं पर अगर तुम ने यह रिश्ता मंजूर कर लिया तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहेगा,’’ अपनी इच्छा बता कर अशोकजी ने बेटी का माथा चूम लिया.

‘‘रोहन, अलका खुशीखुशी ‘हां’ कहे तो ठीक है, नहीं तो तुम इसे किसी भी तरह परेशान कभी मत करना. भाई साहब का ब्लड प्रेशर ऊंचा रहता है. तुम्हारी वजह से इन की तबीयत खराब हो, यह मैं कभी नहीं चाहूंगी,’’ मीनाक्षी ने बड़े भावुक अंदाज में रोहन से अपने मन की इच्छा बताई.

‘‘पापा, क्या आप चाहते हैं कि मैं रोहन से शादी कर लूं?’’ अलका ने हैरान स्वर में पूछा.

‘‘हां, बेटी.’’

‘‘आप की सोच में बदलाव आंटी के कारण आया है न?’’

‘‘हां, यह तुम्हारा बहुत खयाल रखेंगी, इन के पास सोने का दिल है.’’

‘‘गुड,’’ अलका की आंखों में अजीब सी चमक उभरी.

रोहन ने अपनी मां से पूछा, ‘‘मेरी इच्छा को नजरअंदाज कर अब जो आप कह रही हैं, उस के पीछे कारण क्या है, मां?’’

‘‘मैं इन को दुखी और चिंतित नहीं देखना चाहती हूं,’’ मीनाक्षी ने अशोकजी की तरफ इशारा करते हुए जवाब दिया.

‘‘आप की नजरों में यह कैसे इनसान हैं?’’

‘‘बडे़ नेक…बडे़ अच्छे.’’

‘‘गुड, वेरी गुड,’’ ऐसा जवाब दे कर रोहन ने अर्थपूर्ण नजरों से मां की तरफ देखा और बोला, ‘‘इन बदली परिस्थितियों को देखते  हुए हमें सोचविचार के लिए एक बार फिर बाहर चलना चाहिए.’’

‘‘चलो,’’ अलका फौरन उठ कर दरवाजे की तरफ चल पड़ी.

‘‘कहां जा रहे हो दोनों?’’ मीनाक्षी और अशोकजी ने चौंक कर साथसाथ सवाल किए.

‘‘करीब आधे घंटे में आ कर बताते हैं,’’ रोहन ने जवाब दिया और अलका का हाथ पकड़ कर घर से बाहर निकल गया.

कुछ पलों की खामोशी के बाद अशोकजी ने टिप्पणी की, ‘‘इन दोनों का व्यवहार मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है.’’

‘‘अगर दोनों बच्चे शादी के लिए तैयार हो गए तो मजा आ जाएगा,’’ मीनाक्षी की आंखों में आशा के दीप जगमगा उठे.

अलका और रोहन करीब 45 मिनट के बाद जब लौटे तो सोमनाथ और गायत्री उन के साथ थे. इन चारों की आंखों में छाए खुशी व उत्तेजना के भावों को पढ़ कर मीनाक्षी और अशोकजी उलझन में पड़ गए.

‘‘आप दोनों का उचित मार्गदर्शन करने व हौसला बढ़ाने के लिए ही हम इन्हें साथ लाए हैं,’’ रोहन ने रहस्यमयी अंदाज में मुसकराते हुए मीनाक्षी व अशोकजी की आंखों में झलक रहे सवाल का जवाब दिया.

सोमनाथ अपने दोस्त की बगल में उस का हाथ पकड़ कर बैठ गए. गायत्री अपनी सहेली के पीछे उस के कंधों पर हाथ रख कर खड़ी हो गई.

रोहन ने बातचीत शुरू की, ‘‘अलका के पापा का दिल न दुखे इस के लिए मां ने मेरी इच्छा को नजरअंदाज कर मुझ से यह वादा मांगा है कि मैं अलका को कभी तंग नहीं करूंगा. लेकिन मैं अभी भी इस घर से रिश्ता जोड़ना चाहता हूूं.’’

मीनाक्षी या अशोकजी के कुछ बोलने से पहले ही अलका ने कहा, ‘‘मैं रोहन से प्रेम नहीं करती पर फिर भी दिल से चाहती हूं कि हमारे बीच मजबूत रिश्ता कायम हो.’’

‘‘तुम शादी से मना करोगी तो ऐसा कैसे संभव होगा?’’ अशोकजी ने उलझन भरे लहजे में पूछा.

‘‘एक तरीका है, पापा.’’

‘‘कौन सा तरीका?’’

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‘‘वह मैं बताता हूं,’’ सोमनाथजी ने खुलासा करना शुरू किया, ‘‘मुझे बताया गया है कि ़तुम मीनाक्षीजी से इतने प्रभावित हो कि अलका से इस घर की बहू बनने की इच्छा जाहिर की है तुम ने.’’

‘‘मीनाक्षीजी बहुत अच्छी और सहृदय महिला हैं और अलका…’’

‘‘मीनाक्षीजी, आप की मेरे दोस्त के बारे में क्या राय बनी है?’’ सोमनाथ ने अपने दोस्त को टोक कर चुप किया और मीनाक्षी से सवाल पूछा.

‘‘इन का दिल बहुत भावुक है और मैं नहीं चाहती कि इन का स्वास्थ्य रोहन की किसी हरकत के कारण बिगड़े. तभी मैं ने अपने बेटे से कहा कि अलका अगर शादी के लिए मना करती है तो…’’

‘‘यानी कि आप दोनों एकदूसरे को अच्छा इनसान मानते हैं और यही बात आधार बनेगी दोनों परिवारों के बीच मजबूत रिश्ता कायम करने में.’’

‘‘मतलब यह कि जीवनसाथी अलका और मैं नहीं बल्कि आप दोनों बनो,’’ रोहन ने साफ शब्दों में सारी बात कह दी.

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है?’’ अशोकजी चौंक पड़े.

‘‘यह क्या कह रहा है तू?’’ मीनाक्षी घबरा उठीं.

‘‘रोहन और मेरी यही इच्छा रही है,’’ अलका बोली, ‘‘आंटी और पापा को मिलाने के लिए हमें कुछ नाटक करना पड़ा. हम दोनों ही विदेश जाने के इच्छुक हैं. मेरे पापा की देखभाल की जिम्मेदारी आप संभालिए, प्लीज.’’

‘‘अंकल, विदेश में मैं अलका का खयाल रखूंगा और आप यहां मां का सहारा बन कर हमें चिंता से मुक्ति दिलाइए.’’

‘‘लेकिन…’’ अशोकजी की समझ में नहीं आया कि आगे क्या कहें और मीनाक्षी भी आगे एक शब्द नहीं बोल पाईं.

‘‘प्लीज, अंकल,’’ रोहन ने अशोकजी से विनती की.

‘‘आंटी, प्लीज, मुझे वह खुशी भरा अवसर दीजिए कि मैं आप को ‘मम्मी’ बुला सकूं,’’ अलका ने मीनाक्षी के दोनों हाथ अपने हाथों में ले कर विनती की.

‘‘हां कह दे मेरे यार,’’ सोमनाथ ने अपने दोस्त पर दबाव डाला, ‘‘अपनी अकेलेपन की पीड़ा तू ने कई बार मेरे साथ बांटी है. अच्छे जीवनसाथी के प्रेम व सहारे की जरूरत तो उम्र के इसी मुकाम पर ज्यादा महसूस होती है जहां तुम हो. इस रिश्ते को हां कह कर बच्चों को चिंतामुक्त कर इन्हें पंख फैला कर ऊंचे आकाश में उड़ने को स्वतंत्र कर मेरे भाई.’’

गायत्री ने अपनी सहेली को समझाया, ‘‘मीनू, हम स्त्रियों को जिंदगी के हर मोड़ पर पुरुष का सहारा किसी न किसी रूप में लेना ही पड़ता है. बेटा विदेश चला जाएगा तो तू कितनी अकेली पड़ जाएगी, जरा सोच. तुझे ये पसंद हों तो फौरन हां कह दे. मुझे इन्हें ‘जीजाजी’ बुला कर खुशी होगी.’’

‘‘चुप कर,’’ मीनाक्षी के गाल शर्म से गुलाबी हो गए तो सब को उन का जवाब मालूम पड़ गया.

अशोकजी पक्के निर्णय पर पहुंचने की चमक आंखों में ला कर बोले, ‘‘मैं इस पल अपने दिल में जो खुशी व गुदगुदी महसूस कर रहा हूं, सिर्फ उसी के आधार पर मैं इस रिश्ते के लिए हां कह रहा हूं.’’

‘‘थैंक यू, अंकल,’’ रोहन ने हाथ जोड़ कर उन्हें धन्यवाद दिया.

‘‘थैंक यू, मेरी नई मम्मी,’’ अलका, मीनाक्षी के गले से लग गई.

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सोमनाथ और गायत्री ने तालियां बजा कर इस रिश्ते के मंगलमय होने की प्रार्थना मन ही मन की.

‘‘मेरी छोटी बहना, बधाई हो. हमारी योजना इतनी जल्दी और इस अंदाज में सफल होगी, मैं ने सोचा भी न था,’’ रोहन ने शरारती अंदाज में अलका की चोटी खींची तो मीनाक्षी और अशोकजी एकदूसरे की तरफ देख बडे़ प्रसन्न व संतोषपूर्ण ढंग से मुस्कुराए.

मौन प्रेम: जब भावना को पता चली प्रसून की सचाई

Serial Story: मौन प्रेम (भाग-2)

पिछला भाग पढ़ने के लिए- मौन प्रेम: भाग-1

तभी एक लड़का मोटरसाइकिल को स्लो कर मेरे पास आ कर बोला, ‘‘उठा परदा, दिखा जलवा.’’

मैं ने जल्दी से साड़ी नीचे कर ली, पर मेरा पैर फिसल पड़ा और गिरने लगी. मगर इस के पहले कि मैं सड़क पर गिरती पीछे से किसी के हाथों ने मुझे संभाल लिया वरना मैं पूरी तरह कीचड़ से सन जाती. जब मैं पूरी तरह सहज हुई तो देखा वे हाथ प्रसून के थे.

इसी बीच मोटरसाइकिल वाले लड़के की बाइक कुछ दूर आगे जा कर स्लिप हुई और वह गिर पड़ा. उस के कपड़ों और चेहरे पर कीचड़ पुता था.

प्रसून ने जोर से कहा, ‘‘बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला.’’

वह लड़का उठा और गुस्से से हमें देखने लगा. प्रसून बोला, ‘‘ऐसे क्यों घूर रहा है. वह देख तेरे सामने जो ट्रक गया है उस के पीछे यही लिखा है.’’

इस बार मैं भी खुल कर हंस पड़ी थी. फिर पूछा, ‘‘आज आप पैदल चल रहे हैं? आप के दोस्त मधुर नहीं हैं?’’

‘‘नहीं, आज वह मेरे साथ नहीं आया है.’’

मैं ने प्रसून को हिस्टरी पेपर में उस की मदद के लिए धन्यवाद दिया. वह मेरे साथसाथ चौराहे तक गया. वहां मुझे रिकशा मिल गया. प्रसून अपने घर की तरफ चल पड़ा. उस के घर का पता मुझे अभी तक मालूम नहीं था न ही मैं ने जानने की जरूरत समझी या कोशिश की.

कुछ दिनों बाद कालेज लाइब्रेरी में प्रसून मुझे मिला. मैं ने गुड मौर्निंग कह कर पूछा, ‘‘आप कैसे हैं?’’

‘‘बिलकुल ठीक नहीं हूं और तुम कैसी हो? ओह सौरी, मेरा मतलब आप कैसी हैं?’’

‘‘इट्स ओक विद तुम, पर क्या हुआ आप को?’’

‘‘यह आपआप कब तक चलेगा हमारे बीच. आप मैं औपचारिकता है, वह अपनापन नहीं जो तुम में है. अगर अब मुझ से बात करनी है तो हम दोनों को आप छोड़ कर तुम पर आना पड़ेगा… समझ गईं?’’

‘‘समझ गईं नहीं, समझ गई,’’ और फिर हम दोनों हंस पड़े.

प्रसून बड़ा हंसमुख लड़का था. किसी ने उस के चेहरे पर उदासी नहीं देखी थी. पढ़नेलिखने में भी टौप था और उतना ही स्मार्ट भी. किसी भी लड़की या लड़के से बेखौफ, बेतकल्लुफ मिल कर बातें करता, हंसनाहंसाना उस की फितरत में था. किसी की नि:स्वार्थ मदद करने को हमेशा तैयार रहता. कालेज के फंक्शंस में भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेता. अनेक लड़के और लड़कियां उस के प्रशंसक थे और उस से नजदीकियां बढ़ाना चाहते थे. मैं भी उस की प्रशंसा सुन प्रभावित हुई और उस की ओर आकर्षित हुई. मेरे मन में उस के लिए एक मौन प्यार जाग उठा था.

हम दोनों अब लाइब्रेरी के अतिरिक्त कभी कैंटीन तो कभी मार्केट में मिलने लगे और कभी मूवी हौल में भी. पर बीच में कोई न कोई कबाब में हड्डी जरूर बनता. कभी मधुर तो कभी कोई अन्य लड़का या फिर लड़की.

उस की ओर से कभी प्यारमुहब्बत की बातें सुनने के लिए मैं तरस रही थी, प्रोपोज

करना तो बहुत दूर की बात थी.

फाइनल ईयर तक जातेजाते मैं ने अनुभव किया कि जब कभी वह एकांत में होता फोन पर किसी लड़की से बात करता होता. यह देख मुझे ईर्ष्या होती. 2-3 दिन की छुट्टियों में वह बिना बताए लापता हो जाता. कहां जाता, किसी को नहीं बताता था.

प्रसून कुछ अन्य विषयों में भी मेरी काफी सहायता करता. मुझे उस समय तक पता नहीं था कि कालेज में कुछ मनचली लड़कियां भी हैं जो पौकेट मनी के लिए मौजमस्ती करने से बाज नहीं आतीं.

एक बार ऐसी ही एक लड़की मंजुला मुझे कौफी पिलाने के लिए एक कैफेटेरिया में ले गई. उस कैफेटेरिया के ऊपर ही एक गैस्ट हाउस था. पर कौफी पीने के बाद मेरा सिर चकराने लगा और हलकीहलकी नींद सी आने लगी. मंजुला मुझे गैस्टहाउस में एक कमरे में ले गई और मुझे एक बैड पर लिटा दिया. कुछ देर आराम करने को कह बोली, ‘‘मैं थोड़ी देर में कोई दवा ले कर आती हूं.’’

इस के बाद जब मेरी आंखें खुलीं तो मैं ने देखा कि मेरे पास प्रसून और मधुर दोनों बैठे थे. मधुर ने कहा, ‘‘तुम्हें मंजुला के बारे में पता नहीं था? तुम उस के साथ कालेज से बाहर क्यों गई थीं?’’

‘‘मैं बस उसे कालेज का स्टूडैंट समझती थी और 2 पीरियड फ्री थे तो थोड़ी देर के लिए कौफी पीने चली गई उस के साथ.’’

‘‘अपने कालेज की कैंटीन में भी कौफी मिलती है या नहीं? फिर बाहर जाने का क्या मतलब था?’’

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‘‘मंजुला बोली कि कैंटीन में तो रोज ही पीते हैं. आज कौफी टाइम है, बाहर चल कर पीते हैं.’’

‘‘और तुम भोली बच्ची की तरह उस के पीछेपीछे चल दी. बेवकूफ लड़की,’’ उस ने डांटते हुए कहा.

प्रसून ने बीच में रोक कर कहा, ‘‘तुम भावना को क्यों इतना डांट रहे हो? उसे जब मंजुला के बारे कुछ पता नहीं है तो उस की क्या गलती है?’’

‘‘पर मंजुला के बारे में तुम लोग क्या कहना चाहते हो?’’

मधुर बोला, ‘‘मंजुला मौजमस्ती और पौकेटमनी के लिए खुद तो अपना चरित्र खो चुकी है और अब दूसरी लड़कियों के लिए दलाली करने लगी है. प्रसून उस कैफे की तरफ से गुजर रहा था और उस ने तुम्हें मंजुला के साथ अंदर जाते देखा तो उस ने तुरंत फोन कर मुझे भी यहां आने को कहा और स्वयं तुम्हें खोजते हुए ऊपर गैस्टहाउस तक पहुंचा. अगर थोड़ी भी देर होती तो तुम्हारी इज्जत मिट्टी में मिल गई होती.’’

‘‘उफ, मैं तो अपने कालेज की लड़कियों के बारे में ऐसा सोच भी नहीं सकती थी. तुम लोगों ने पुलिस में सूचना दी है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मैं तो देने जा रहा था, पर प्रसून ने मना किया, क्योंकि फिर तुम्हें बारबार पुलिस थाने और कोर्ट जाना पड़ता गवाही के लिए. फिर तुम जान सकती हो कि कुछ दिनों के लिए शहर में तुम ब्रेकिंग न्यूज का विषय रहती.’’

‘‘तो क्या मंजुला और उस बदमाश लड़के को यों ही छोड़ दिया जाए?’’

‘‘उस लड़के की अच्छी पिटाई की गई है. पता नहीं अच्छा किया या बुरा, पर 2-4 चांटे मैं ने मंजुला को भी जड़ दिए. प्रिंसिपल से उस की शिकायत कर दी है. शायद वह रैस्टीकेट हो जाए. वह लड़का तो अपने कालेज का नहीं था,’’ मधुर बोला.

‘‘पर मुझे तुम लोग यहां क्यों लाए हो? यह किस का घर है?’’

‘‘यह प्रसून का कमरा है. इस छोटे से कमरे में वह किराए पर रहता है. इस के बारे में बाद में बात करेंगे. अब तुम देर नहीं करो, शाम होने को है. तुम्हें घर छोड़ देते हैं.’’

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मैं कृतज्ञतापूर्ण नजरों से प्रसून को देख कर बोली, ‘‘तुम मेरे लिए आज मसीहा बन कर आए मैं तुम्हारे उपकार का बदला नहीं चुका पाऊंगी प्रसून,’’ बोल कर मैं उस का हाथ पकड़ कर रो पड़ी.

उन दोनों की मदद से मैं सहीसलामत घर लौट आई. उस दिन मेरे मन में प्रसून के लिए बहुत प्यार उमड़ आया पर प्रसून के बरताव से मैं नहीं समझ पा रही थी कि मेरे लिए उस के मन में क्या है.

आगे पढ़ें- मैं ने बीए कर लिया और प्रसून पीसीएस में कंपीट कर…

Serial Story: मौन प्रेम (भाग-1)

मेरा12वीं कक्षा का रिजल्ट आने वाला था. मुझे उम्मीद थी कि मैं अच्छे मार्क्स ले आऊंगी. इस के बाद मेरी इच्छा कालेज जौइन करने की थी. उस समय घर में दादी सब से बुजुर्ग सदस्या थीं और पापा भी उन का कहा हमेशा मानते थे.

जब मेरे कालेज जाने की चर्र्चा हुई तो दादी ने पापा से कहा, ‘‘और कितना पढ़ाओगे? अपनी बिरादरी में फिर लड़का मिलना मुश्किल हो जाएगा और अगर मिला भी तो उतना तिलक देने की हिम्मत है तुझ में?’’

‘‘मां, जब लड़की पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी तो तिलक नहीं देना पड़ेगा.’’

‘‘लड़कियां कितनी भी पढ़लिख जाएंअपने समाज में बिना तिलक की शादी तो मैं ने नहीं सुनी है.’’

‘‘तुम चिंता न करो मां… पोती का आगे पढ़ने का मन है… उसे आशीर्वाद दो कि अच्छे मार्क्स आएं… स्कौलरशिप मिल जाए तो उस की पढ़ाई पर खर्च भी नहीं आएगा.’’

‘‘ठीक है, अगर तेरी समझ में आगे पढ़ने से भावना बेटी का भला है तो पढ़ा. पर मेरी एक बात तुम लोगों को माननी होगी… कालेज में भावना को साड़ी पहननी होगी. स्कूल वाला सलवारकुरता, स्कर्टटौप या जींस में मैं भावना को कालेज नहीं जाने दूंगी,’’ दादी ने फरमान सुनाया.

‘‘ठीक है दादी, जींस नहीं पहनूंगी पर सलवारकुरते में क्या बुराई है? उस में भी तो पूरा शरीर ढका रहता है?’’

‘‘जो भी हो, अगर कालेज में पढ़ना है तो तुम्हें साड़ी पहननी होगी?’’

मेरा रिजल्ट आया. मुझे मार्क्स भी अच्छे मिले, पर इतने अच्छे नहीं कि स्कौलरशिप मिले. फिर भी अच्छे कालेज में दाखिला मिल गया. पर मेरा साड़ी पहन कर जाना अनिवार्य था. मम्मी ने मुझे साड़ी पहनना सिखाया और मेरे लिए उन्होंने 6 नई साडि़यां और उन से मैचिंग ब्लाउज व पेटीकोट भी बनवा दिए ताकि मैं रोज अलग साड़ी पहन सकूं.

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जुलाई मध्य से मेरी क्लासेज शुरू हुईं. नईर् किताबें और स्टडी मैटीरियल लेतेलेते जुलाई बीत गया पर इस साल सिलेबस में कुछ बदलाव हुआ थे, जिस के चलते इतिहास की एक किताब अभी मार्केट में उपलब्ध नहीं थी. प्रोफैसर अपने नोट्स से पढ़ाते थे. कभी 1-2 प्रिंटआउट किसी एक स्टूडैंट को देते थे और उस का फोटोकौपी कर हमें आपस में बांटनी होती थीं.

ऐसे कुछ नोट्स मेरे अलावा बहुतों को नहीं मिल सके थे और सितंबर में पहला टर्मिनल ऐग्जाम होना था. लाइब्रेरी में सिर्फ एक ही रिफरैंस बुक थी, जिसे हम घर ले जाने के लिए इशू नहीं करा सकते थे. वहीं बैठ कर पढ़नी होती थी. मैं जब भी लाइब्रेरी जाती उस किताब पर किसी न किसी का कब्जा होता.

एक दिन मैं उस किताब के लिए लाइब्रेरी गई. उस दिन भी वह किताब किसी ने पढ़ने के लिए इशू करा रखी थी. इत्तफाक से उस किताब पर मेरी नजर पड़ी. मेरी बगल में बैठे एक लड़के ने इशू करा कर टेबल पर रखी थी और वह खुद दूसरी किताब पढ़ रहा था. मैं ने हिम्मत कर उस से कहा, ‘‘ऐक्सक्यूज मी, अगर इस किताब को आप अभी नहीं पढ़ रहे हैं तो थोड़ी देर के लिए मुझे दे दें. मैं इस में से कुछ नोट कर वापस कर दूंगी.’’

उस ने किताब को मेरी तरफ सरकाते हुए कहा, ‘‘श्योर, आप इसे ले सकती हैं. वैसे हिस्टरी तो मेरा सब्जैक्ट भी नहीं है. मैं ने अपने एक फ्रैंड के लिए इशू कराई है. जब तक वह आएगा तब तक आप इसे पढ़ सकती हैं.’’

‘‘थैंक्स,’’ कह कर मैं ने किताब ले ली.

करीब 20 मिनट के अंदर एक  लड़का आया और बगल वाले लड़के से बोला, ‘‘प्रसून, तुम ने मेरी किताब इशू कराई है न?’’

‘‘मधुर, आ बैठ. किताब है, तू नहीं आया था तो मैं ने इन्हें दे दी है. थोड़ी देर मेंतुम्हें मिल जाएगी.’’

मैं अपना नोट्स लिखना बंद कर किताब उसे देने जाने लगी तभी प्रसून बोला, ‘‘अरे नहीं, आप कुछ देर और रख कर अपने नोट्स बना लें. है न मधुर?’’

मुझे अच्छा नहीं लग रहा था. 5 मिनट बाद मैं ने किताब प्रसून को लौटा दी.

वह बोला, ‘‘आप मेरे सैक्शन में तो नहीं हैं… क्या मैं आप का नाम जान सकता हूं?’’

‘‘मुझे भावना कहते हैं.’’

मैं उठ कर चलने लगी तो वह बोला, ‘‘मुझे लगता है कि आप को किताब से और नोट्स बनाने बाकी रह गए हैं. आप एक काम करें मुझे सिर्फ पेज नंबर बता दें. मैं आप को वे पन्ने दे सकता हूं.’’

‘‘तो आप क्या किताब में से उन पन्नों को फाड़ कर मुझे देंगे?’’

‘‘क्या मैं आप को ऐसा बेहूदा लड़का लगता हूं?’’

‘‘नहीं, मेरा मतलब वह नहीं था. सौरी, पर आप उन पन्नों को मुझे कैसे देंगे?’’

‘‘पहले आप अपना मोबाइल नंबर मुझे बताएं. फिर यह काम चुटकियों में हो जाएगा.’’

मुझे लगा कहीं मेरा फोन नंबर ले कर यह मुझे परेशान न करने लगे. अत: बोली, ‘‘नो थैंक्स.’’

तब दूसरे लड़के मधुर ने कहा, ‘‘भावनाजी, मैं समझ सकता हूं कि कोई भी लड़की किसी अनजान लड़के को अपना फोन नंबर नहीं देना चाहेगी, पर आप यकीन करें, प्रसून कोई ऐसावैसा लड़का नहीं है. यह तो उन पेजों का फोटो अपने मोबाइल से ले कर आप को मैसेज या व्हाटसऐप अथवा मेल कर सकता है. ऐसा इस ने क्लास की और लड़कियों के लिए भी किया है और उन लड़कियों से इस से ज्यादा कोई मतलब भी नहीं रहा इसे.’’

मैं कुछ देर सोचती रही, फिर अपनी नोटबुक से एक स्लिप फाड़ कर अपना फोन नंबर प्रसून को दे दिया.

वह बोला, ‘‘भावना, आप कहें तो मैं इन के प्रिंट निकाल कर आप को दे दूंगा.’’

‘‘नहीं, इतनी तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं है. आप बस व्हाइटऐप कर दें.’’

उसी रात प्रसून की व्हाट्सऐप पर रिक्वैस्ट आई जिसे मैं ने ऐक्सैप्ट किया और चंद

मिनटों के अंदर वे सारे पेज, जिन की मुझे जरूरत थी, मेरे पास आ गए. मैं ने प्रसून को ‘मैनीमैनी थैंक्स’ टैक्स्ट किया. उस दिन से उस के प्रति मेरे मन में अच्छी भावनाएं आने लगीं.

इस के बाद कुछ दिनों तक मेरी प्रसून या मधुर किसी से भेंट नहीं हुई. उन के सैक्शन भी अलग थे और प्रसून अकसर मधुर के स्कूटर से आता था. मैं कुछ दूर पैदल और कुछ दूर रिकशे से आतीजाती थी.

उस दिन मेरा हिस्टरी का पेपर था. सुबह से ही तेज बारिश हो रही थी. ऐग्जाम तो देना ही था. मैं किसी तरह रिकशे से कालेज गई, पर रिकशे पर भी भीगने से बच नहीं सकी थी. प्रसून की मदद से मेरा पेपर बहुत अच्छा गया. कालेज के गेट से निकली तो बारिश पूरी थमी नहीं थी, बूंदाबांदी हो रही थी.

उस दिन गेट पर कोई रिकशा नहीं मिला, क्योंकि उस दिन जिन्हें आमतौर पर जरूरत नहीं होती थी, भीगने से बचने के लिए वे भी रिकशा ले रहे थे.

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मैं सड़क पर एक किनारे धीरेधीरे चौराहे की ओर आगे बढ़ रही थी जहां से रिकशा मिलने की उम्मीद थी पर लगातार बारिश के चलते सड़क पर पानी जमा हो गया था. मुझे महसूस हुआ कि मेरे पीछेपीछे कोई चल रहा है, पर मैं ने मुड़ कर देखने की कोशिश नहीं की. साड़ी को भीगने से बचाने के लिए एक हाथ से थोड़ा ऊपर कर चल रही थी.

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Short Story: सबको साथ चाहिए

सुधीर के औफिस के एक सहकर्मी   रवि के विवाह की 25वीं वर्षगांठ थी. उस ने एक होटल में भव्य पार्टी का आयोजन किया था तथा बड़े आग्रह से सभी को सपरिवार आमंत्रित किया था. सुधीर भी अपनी पत्नी माधुरी और बच्चों के साथ ठीक समय पर पार्टी में पहुंच गए. सुधीर और माधुरी ने मेजबान दंपती को बधाई और उपहार दिया. रविजी ने अपनी पत्नी विमला से माधुरी का और उन के चारों बच्चों का परिचय करवाया, ‘‘विमला, इन से मिलो. ये हैं सुधीरजी, इन की पत्नी माधुरी और चारों बच्चे सुकेश, मधुर, प्रिया और स्नेहा.’’  ‘‘नमस्ते,’’ कह कर विमला आश्चर्य से चारों को देखने लगी. आजकल तो हम दो हमारे दो का जमाना है. भला, आज के दौर में 4-4 बच्चे कौन करता है? माधुरी विमला के चेहरे से उन के मन के भावों को समझ गई पर क्या कहती.

तभी प्रिया ने सुकेश की बांह पकड़ी और मचल कर बोली, ‘‘भैया, मुझे पानीपूरी खानी है. भूख लगी है. चलो न.’’

‘‘नहीं भैया, कुछ और खाते हैं, यह चटोरी तो हमेशा पहले पानीपूरी खिलाने ही ले जाती है. वहां दहीबड़े का स्टौल है. पहले उधर चलो,’’ स्नेहा और मधुर ने जिद की.

‘‘भई, पहले तो वहीं चला जाएगा जहां हमारी गुडि़या रानी कह रही है. उस के बाद ही किसी दूसरे स्टौल पर चलेंगे,’’ कह कर सुकेश प्रिया का हाथ थाम कर पानीपूरी के स्टौल की तरफ बढ़ गया. मधुर और स्नेहा भी पीछेपीछे बढ़ गए.

‘‘यह अच्छा है, छोटी होने के कारण हमेशा इसी के हिसाब से चलते हैं भैया,’’ मधुर ने कहा तो स्नेहा मुसकरा दी. चाहे ऊपर से कुछ भी कह लें पर अंदर से सभी प्रिया को बेहद प्यार करते थे और सुकेश की बहुत इज्जत करते थे. क्यों न हो वह चारों में सब से बड़ा जो था. चारों जहां भी जाते एकसाथ जाते. मजाल है कि स्नेहा या मधुर अपनी मरजी से अलग कहीं चले जाएं. थोड़ी ही देर में चारों अलगअलग स्टौल पर जा कर खानेपीने की चीजों का आनंद लेने लगे और मस्ती करने लगे.

सुधीर और माधुरी भी अपनेअपने परिचितों से बात करने लगे. किसी काम से माधुरी महिलाओं के एक समूह के पास से गुजरी तो उस के कानों में विमला की आवाज सुनाई दी. वह किसी से कह रही थी, ‘‘पता है, सुधीरजी और माधुरीजी के 4 बच्चे हैं. मुझे तो जान कर बड़ा आश्चर्य हुआ. आजकल के जमाने में तो लोग 2 बच्चे बड़ी मुश्किल से पाल सकते हैं तो इन्होंने 4 कैसे कर लिए.’’

‘‘और नहीं तो क्या, मैं भी आज ही उन लोगों से मिली तो मुझे भी आश्चर्य हुआ. भई, मैं तो 2 बच्चे पालने में ही पस्त हो गई. उन की जरूरतें, पढ़ाई- लिखाई सबकुछ. पता नहीं माधुरीजी 4 बच्चों की परवरिश किस तरह से मैनेज कर पाती होंगी?’’ दूसरी महिला ने जवाब दिया.

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माधुरी चुपचाप वहां से आगे बढ़ गई. यह तो उन्हें हर जगह सुनने को मिलता कि उन के 4 बच्चे हैं. यह जान कर हर कोई आश्चर्य प्रकट करता है. अब वह उन्हें क्या बताए? घर आ कर चारों बच्चे सोने चले गए. सुधीर भी जल्दी ही नींद के आगोश में समा गए. मगर माधुरी की आंखों में नींद नहीं थी. वह तो 6 साल पहले के उस दिन को याद कर रही थी जब माधुरी के लिए सुधीर का रिश्ता आया था. हां, 6 साल ही तो हुए हैं माधुरी और सुधीर की शादी को. 6 साल पहले वह दौर कितना कठिन था. माधुरी को बड़ी घबराहट हो रही थी. पिछले कई दिनों से वह अपने निर्णय को ले कर असमंजस की स्थिति में जी रही थी.

माधुरी का निर्णय अर्थात विवाह का निर्णय. अपने विवाह को ले कर ही वह ऊहापोह में पड़ी हुई थी. घबरा रही थी. क्या होगा? नए घर में सब उसे स्वीकारेंगे या नहीं.

विवाह को ले कर हर लड़की के मन में न जाने कितनी तरह की चिंताएं और घबराहट होती है. स्वाभाविक भी है, जन्म के चिरपरिचित परिवेश और लोगों के बीच से अचानक ही वह सर्वथा अपरिचित परिवेश और लोगों के बीच एक नई ही जमीन पर रोप दी जाती है. अब इस नई जमीन की मिट्टी से परिचय बढ़ा कर इस से अपने रिश्ते को प्रगाढ़ कर यहां अपनी जड़ें जमा कर फलनाफूलना मानो नाजुक सी बेल को अचानक ही रेतीली कठोर भूमि पर उगा दिया जाए.

लेकिन माधुरी की घबराहट अन्य लड़कियों से अलग थी. नई जमीन पर रोपे जाने का अनुभव वह पहले भी देख चुकी थी. उस जमीन पर अपनी जड़ें जमा कर खूब पल्लवित हो कर नाजुक बेल से एक परिपक्व लताकुंज में परिवर्तित भी हो चुकी थी, लेकिन अचानक ही एक आंधी ने उसे वहां से उखाड़ दिया और उस की जड़ों को क्षतविक्षत कर के उस की जमीन ही उस से छीन ली.

2 वर्ष पहले मात्र 43 वर्ष की आयु में ही माधुरी के पति की हृदयगति रुक जाने से आकस्मिक मृत्यु हो गई. कौन सोच सकता था कि रात में पत्नी और बच्चों के साथ खुल कर हंसीमजाक कर के सोने वाला व्यक्ति फिर कभी उठ ही नहीं पाएगा. इतना खुशमिजाज, जिंदादिल इंसान था प्रशांत कि सब के दिलों को मोह लेता था, लेकिन क्या पता था कि उस का खुद का ही दिल इतनी कम उम्र में उस का साथ छोड़ देगा.

माधुरी तो बुरी तरह टूट गई थी. 18 सालों का साथ था उन का. 2 प्यारे बच्चे हैं, प्रशांत की निशानी, प्रिया और मधुर. मधुर तो तब मात्र 16 साल का हुआ ही था और प्रिया अपने पिता की अत्यंत लाडली बस 12 साल की ही थी. सब से बुरा हाल तो प्रिया का ही हुआ था.

एक खुशहाल परिवार एक ही झटके में तहसनहस हो गया. महीनों लगे थे माधुरी को इस सदमे से बाहर आ कर संभलने में. उम्र ही क्या थी उस की. मात्र 37 साल. वह तो उस के मातापिता ने अपना कलेजा मजबूत कर के उसे सांत्वना दे कर इतने बड़े दुख से उबरने में उस की मदद की. प्रिया और मधुर के कुम्हलाए चेहरे देख कर माधुरी ने सोचा था कि अब ये दोनों ही उस का जीवन हैं. अब इन के लिए उसे मजबूत छत बनानी है.

साल भर में ही वह काफी कुछ स्थिर हो गई थी. जीवन आगे बढ़ रहा था. मधुर मैडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहा था. प्रिया भी पढ़ने में तेज थी. स्कूल में अव्वल आती, लेकिन माधुरी की सूनी मांग और माथा देख कर उस की मां के कलेजे में मरोड़ उठती, इतना लंबा जीवन अकेले वह कैसे काट पाएगी?

‘अकेली कहां हूं मां, आप दोनों हो, बच्चे हैं,’ माधुरी जवाब देती.

‘हम कहां सारी उम्र तुम्हारा साथ दे पाएंगे बेटा. बेटी शादी कर के अपने घर चली जाएगी और मधुर पढ़ाई और फिर नौकरी के सिलसिले में न जाने कौन से शहर में रहेगा. फिर उस की भी अपनी दुनिया बस जाएगी. तब तुम्हें किसी के साथ की सब से ज्यादा जरूरत पड़ेगी. यह बात तो मैं अपने अनुभव से कह रही हूं. अपने निजी सुखदुख बांटनेसमझने वाला एक हमउम्र साथी तो सब को चाहिए होता है, बेटी,’ मां उदास आवाज में कहतीं.  माधुरी उस से भी गहरी उदास आवाज में कहती, ‘मेरी जिंदगी में वह साथ लिखा ही नहीं है, मां.’

माधुरी का जवाब सुन कर मां सोच में पड़ जातीं. माधुरी को तो पता ही नहीं था कि उस के मातापिता इस उम्र में उस की शादी फिर से करवाने की सोच रहे हैं. 3 महीने पहले ही उन्हें सुधीर के बारे में पता चला था. सुधीर की उम्र 45 वर्ष थी. 2 वर्ष पूर्व ही ब्रेन ट्यूमर की वजह से उन की पत्नी की मृत्यु हो गई थी. 2 बच्चे 19 वर्ष का बेटा और 15 वर्ष की बेटी है. घर में सुधीर की वृद्ध मां भी है. नौकरचाकरों की मदद से पिछले 2 वर्षों से वह 68 साल की उम्र में जैसेतैसे बेटे की गृहस्थी चला रही थीं.

माधुरी की मां ने सुधीर की मां को माधुरी के बारे में बता कर विवाह का प्रस्ताव रखा. सुधीर की मां ने सहर्ष उसे स्वीकार कर लिया. वयस्क होती बेटी को मां की जरूरत का हवाला दे कर और अपने बुढ़ापे का खयाल करने को उन्होंने सुधीर को विवाह के लिए मना लिया.

‘मैं बूढ़ी आखिर कब तक तेरी गृहस्थी की गाड़ी खींच पाऊंगी. और फिर कुछ सालों बाद तेरे बच्चों का ब्याह होगा. कौन करेगा वह सब भागदौड़ और उन के जाने के बाद तेरा ध्यान रखने को और सुखदुख बांटने को भी तो कोई चाहिए न. अपनी मां की इस बात पर सुधीर निरुत्तर हो गए और वही सब बातें दोहरा कर माधुरी की मां ने जैसेतैसे उसे विवाह के लिए तैयार करवा लिया.

‘बेटी अकेलापन बांटने कोई नहीं आता. यह मत सोच कि लोग क्या कहेंगे? लोग तो अच्छेबुरे समय में बस बोलने आते हैं. साथ देने के लिए आगे कोई नहीं आता. अपना बोझ आदमी को खुद ही ढोना पड़ता है. सुधीर अच्छा इंसान है. वह भी अपने जीवन में एक त्रासदी सह चुका है. मुझे पूरा विश्वास है कि वह तेरा दुख समझ कर तुझे संभाल लेगा. तुम दोनों एकदूसरे का सहारा बन सकोगे.’

माधुरी ने भी मां के तर्कों के आगे निरुत्तर हो कर पुनर्विवाह के लिए मौन स्वीकृति दे दी. वैसे भी वह अब अपनी वजह से मांपिताजी को और अधिक दुख नहीं देना चाहती थी.

लेकिन तब से वह मन ही मन ऊहापोह में जी रही थी. सवाल उस के या सुधीर के आपस में सामंजस्य निभाने का नहीं था. सवाल उन 4 वयस्क होते बच्चों के आपस में तालमेल बिठाने का है. वे आपस में एकदूसरे को अपने परिवार का अंश मान कर एक घर में मिलजुल कर रह पाएंगे? सुधीर और माधुरी को अपना मान पाएंगे?

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यही सारे सवाल कई दिनों से माधुरी के मन में चौबीसों घंटे उमड़तेघुमड़ते रहते. जैसेजैसे विवाह के लिए नियत दिन पास आता जा रहा था ये सवाल उस के मन में विकराल रूप धारण करते जा रहे थे.

माधुरी अभी इन सवालों में उलझी बैठी थी कि मां ने उस के कमरे में आ कर सुधीर की मां के आने की खबर दी. माधुरी पलंग से उठ कर बाहर जाने के लिए खड़ी ही हुई थी कि सुधीर की मां स्वयं ही उस के कमरे में चली आईं. उन के साथ 14-15 साल की एक प्यारी सी लड़की भी थी. माधुरी को समझते देर नहीं लगी कि यह सुधीर की बेटी स्नेहा है. माधुरी ने उठ कर सुधीर की मां को प्रणाम किया. उन्होंने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा और कहा, ‘मैं समझती हूं माधुरी बेटा, इस समय तुम्हारी मनोस्थिति कैसी होगी? मन में अनेक सवाल घुमड़ रहे होंगे. स्वाभाविक भी है.

‘मैं बस इतना ही कहना चाहूंगी कि अपने मन से सारे संशय दूर कर के नए विश्वास और पूर्ण सहजता से नए जीवन में प्रवेश करो. हम सब अपनीअपनी जगह परिस्थिति और नियति के हाथों मजबूर हो कर अधूरे रह गए हैं. अब हमें एकदसूरे को पूरा कर के एक संपूर्ण परिवार का गठन करना है. इस के लिए हम सब को ही प्रयत्न करना है. मेरा विश्वास है कि इस में हम सफल जरूर होंगे. आज मैं अपनी ओर से पहली कड़ी जोड़ने आई हूं. एक बेटी को उस की मां से मिलाने लाई हूं. आओ स्नेहा, मिलो अपनी मां से,’ कह कर उन्होंने स्नेहा का हाथ माधुरी के हाथ में दे दिया.

स्नेहा सकुचा कर सहमी हुई सी माधुरी की बगल में बैठ गई तो माधुरी ने खींच कर उसे गले से लगा लिया. मां के स्नेह को तरस रही स्नेहा ने माधुरी के सीने में मुंह छिपा लिया. दोनों के प्रेम की ऊष्मा ने संशय और सवालों को बहुत कुछ धोपोंछ दिया.

‘बस, अब आगे की कडि़यां हम मां- बेटी मिल कर जोड़ लेंगी,’ सुधीर की मां ने कहा तो पहली बार माधुरी को लगा कि उस के मन पर पड़े हुए बोझ को मांजी ने कितनी आसानी से उतार दिया.

जल्द ही एक सादे समारोह में माधुरी और सुधीर का विवाह हो गया. माधुरी के मन का बचाखुचा भय और संशय तब पूरी तरह से दूर हो गया, जब सुधीर से मिलने वाले पितृवत स्नेह की छत्रछाया में उस ने प्रिया को प्रशांत के जाने के बाद पहली बार खुल कर हंसते देखा. अपने बच्चों को ले कर माधुरी थोड़ी असहज रहती, मगर सुधीर ने पहले दिन से ही मधुर और प्रिया के साथ एकदम सहज पितृवत व स्नेहपूर्ण व्यवहार किया. सुधीर बहुत परिपक्व और सुलझे हुए इंसान थे और मांजी भी. घर में उन दोनों ने इतना सहज और अनौपचारिक अपनेपन का वातावरण बनाए रखा कि माधुरी को लगा ही नहीं कि वह बाहर से आई है. सुधीर का बेटा सुकेश और मधुर भी जल्दी ही आपस में घुलमिल गए. कुछ ही महीनों में माधुरी को लगने लगा कि जैसे यह उस का जन्मजन्मांतर का परिवार है.

माधुरी के मातापिता भी उसे अपने नए परिवार में खुशी से रचाबसा देख कर संतुष्ट थे. दिन पंख लगा कर उड़ते गए. सुधीर का साथ पा कर माधुरी के मन की मुरझाई लताफिर हरी हो गई. ऐसा नहीं कि माधुरी को प्रशांत की और सुधीर को अपनी पत्नी की याद नहीं आती थी, लेकिन उन दोनों की याद को वे लोग सुखद रूप में लेते थे. उस दुख को उन्होंने वर्तमान पर कभी हावी नहीं होने दिया. उन की याद में रोने के बजाय वे उन के साथ बिताए सुखद पलों को एकदूसरे के साथ बांटते थे.  सोचतेसोचते माधुरी गहरी नींद में खो गई. इस घटना के 10-12 दिन बाद ही सुधीर ने माधुरी को बताया कि रविजी और उन की पत्नी उन के घर आने के इच्छुक हैं. माधुरी उन के आने के पीछे की मंशा समझ गई. उस ने सुधीर से कह दिया कि वे उन्हें रात के खाने पर सपरिवार निमंत्रित कर लें. 2 दिन बाद ही रविजी अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को ले कर डिनर के लिए आ गए. विमला माधुरी की हैल्प करवाने के बहाने किचन में आ गई और माधुरी से बातें करने लगी. माधुरी ने स्नेहा से कहा कि प्रिया को बोल दे, डायनिंग टेबल पर प्लेट्स लगा कर रख देगी.

‘‘उसे आज बहुत सारा होमवर्क मिला है मां. उसे पढ़ने दीजिए. मैं आप की हैल्प करवा देती हूं,’’ स्नेहा ने जवाब दिया.

‘‘पर बेटा, तुम्हारे तो टैस्ट चल रहे हैं. तुम जा कर पढ़ाई करो. मैं मैनेज कर लूंगी,’’ माधुरी ने स्नेहा से कहा.

‘‘कोई बात नहीं मां. कल अंगरेजी का टैस्ट है और मुझे सब आता है,’’ स्नेहा प्लेट पोंछ कर टेबल पर सजाने लगी. तभी सुकेश और मधुर बाजार से आइसक्रीम और सलाद के लिए गाजर और खीरे वगैरह ले आए. सुकेश ने तुरंत आइसक्रीम फ्रीजर में रखी और मां से बोला, ‘‘मां, और कुछ काम है क्या?’’

‘‘नहीं, बेटा. अब तुम आनंद और अमृता को अपने रूम में ले जाओ. वे लोग बाहर अकेले बोर हो रहे हैं,’’ माधुरी ने कहा तो सुकेश बाहर चला गया.

‘‘ठीक है मां, कुछ काम पड़े तो बुला लेना,’’ स्नेहा भी अपना काम खत्म कर के चली गई. अब किचन में सिर्फ मधुरी और विमला ही रह गईं. अब विमला ज्यादा देर तक अपनी उत्सुकता को रोक नहीं पाई और उस ने माधुरी से सवाल किया, ‘‘हम तो 2 ही बच्चों को बड़ी मुश्किल से संभाल पा रहे हैं. आप ने 4-4 बच्चों को कैसे संभाला होगा? चारों में अंतर भी ज्यादा नहीं लगता. स्नेहा और मधुर तो बिलकुल एक ही उम्र के लगते हैं.’’  माधुरी इस सवाल के लिए तैयार ही थी. वह अत्यंत सहज स्वर में बोली, ‘‘हां, स्नेहा और मधुर की उम्र में बस 8 महीनों का ही फर्क है.’’

‘‘क्या?’’ विमला बुरी तरह से चौंक गई, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है?’’

तब माधुरी ने बड़ी सहजता से मुसकराते हुए संक्षेप में अपनी और सुधीर की कहानी सुना दी.  अब तो विमला के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा.

‘‘तब भी आप के चारों बच्चों में इतना प्यार है जबकि वे आपस में सगे भी नहीं हैं. मेरे तो दोनों बच्चे सगे भाईबहन होने के बाद भी आपस में इतना झगड़ते हैं कि बस पूछो मत. एक मिनट भी नहीं पटती है उन में. मैं तो इतनी तंग आ गई हूं कि लगता है इन्हें पैदा ही क्यों किया? लेकिन आप के चारों बच्चों में तो बहुत प्यार और सौहार्द दिखता है. चारों आपस में एकदूसरे पर और आप पर तो मानो जान छिड़कते हैं,’’ विमला बोली.

तभी सुधीर की मां किचन में आईं और विमला से बोलीं, ‘‘बात सगेसौतेले की नहीं, प्यार होता है आपसी सामंजस्य से. दरअसल, हम सब अपने जीवन में कुछ अपनों को खोने का दर्द झेल चुके हैं इसलिए हम सभी अपनों की कीमत समझते हैं. इस दर्द और समझ ने ही मेरे परिवार को प्यार से एकसाथ बांध कर रखा है. चारों बच्चे अपनी मां या पिता को खोने के बाद अकेलेपन का दंश झेल चुके थे, इसलिए जब चारों मिले तो उन्होंने जाना कि घर में जितने ज्यादा भाईबहन हों उतना ही मजा आता है. यही राज है हमारे परिवार की खुशियों का. हम दिल से मानते हैं कि सब को साथ चाहिए.’’

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विमला उन की बातें सुन कर मुग्ध हो गई, ‘‘सचमुच मांजी, आप के परिवार के विचार और सौहार्द तो अनुकरणीय हैं.’

समय बीतता गया. सुकेश पढ़लिख कर इंजीनियर बना तो मधुर डाक्टर बन गया. मधुर ने एमडी किया और सुकेश ने बैंगलुरु से एमटेक. प्रिया और स्नेहा ने भी अपनेअपने पसंदीदा क्षेत्र में कैरियर बना लिया और फिर उन चारों के विवाह, फिर नातीपातों का जन्म, नामकरण मुंडन आदि की भागदौड़ में बरसों बीत गए. फिर एकएक कर सब पखेरू अपनेअपने नीड़ों में बस गए. सुकेश और प्रिया दोनों इंगलैंड चले गए. जहां दोनों भाईबहन पासपास ही रहते थे. मधुर बेंगलुरु में सैटल हो गया और स्नेहा मुंबई में. मांजी और माधुरी के मातापिता का निधन हो गया.

अब इतने बड़े घर में सुधीर और माधुरी अकेले रह गए. जब बच्चे और नातीपोते आते तो घर भर जाता. कभी ये लोग बारीबारी से सारे बच्चों के पास रह आते, लेकिन अधिकांश समय दोनों अपने घर में ही रहते. अपनी दिनचर्या को उन्होंने इस तरह से ढाला कि सुबह की चाय बगीचे की ताजी हवा में साथ बैठ कर पीते, साथ बागबानी करते. साथसाथ घर के सारे काम करने में दिन कब गुजर जाता, पता ही नहीं चलता. दोनों पल भर कभी एकदूसरे से अलग नहीं रह पाते. अब जा कर माधुरी और सुधीर को एहसास होता कि अगर उन्होंने उस समय अपने मातापिता की बात न मान कर विवाह नहीं किया होता तो आज जीवन की इस संध्याबेला में दोनों इतने माधुर्यपूर्ण साथ से वंचित हो कर बिलकुल अकेले रह जाते. जीवन की सुबह मातापिता की छत्रछाया में गुजर जाती है, दोपहर भागदौड़ में बीत जाती है मगर संध्याबेला की इस घड़ी में जब जीवन में अचानक ठहराव आ जाता है तब किसी के साथ की सब से अधिक आवश्यकता होती है. सुधीर के कंधे पर सिर टिकाए हुए माधुरी यही सोच रही थी. सचमुच, बिना साथी के जीवन अत्यंत कठिन और दुखदायक है. साथ सब को चाहिए.

एक अकेली: परिवार के होते हुए भी क्यों अकेली पड़ गई थी सरिता?

सरिता घर से निकलीं तो बाहर बादल घिर आए थे. लग रहा था कि बहुत जोर से बारिश होगी. काश, एक छाता साथ में ले लिया होता पर अपने साथ क्याक्या लातीं. अब लगता है बादलों से घिर गई हैं. कभी सुख के बादल तो कभी दुख के. पता नहीं वे इतना क्यों सोचती हैं? देखा जाए तो उन के पास सबकुछ तो है फिर भी इतनी अकेली. बेटा, बेटी, दामाद, बहन, भाई, बहू, पोतेपोतियां, नाते-रिश्तेदार…क्या नहीं है उन के पास… फिर भी इतनी अकेली. किसी दूसरे के पास इतना कुछ होता तो वह निहाल हो जाता, लेकिन उन को इतनी बेचैनी क्यों? पता नहीं क्या चाहती हैं अपनेआप से या शायद दूसरों से. एक भरापूरा परिवार होना तो किसी के लिए भी गर्व की बात है, ऊपर से पढ़ालिखा होना और फिर इतना आज्ञाकारी.

बहू बात करती है तो लगता है जैसे उस के मुंह से फूल झड़ रहे हों. हमेशा मांमां कह कर इज्जत करना. बेटा भी सिर्फ मांमां करता है.  इधर सरिता खयालों में खो जाती हैं: बेटी कहती थी, ‘मां, तुम अपना ध्यान अब गृहस्थी से हटा लो. अब भाभी आ गई हैं, उन्हें देखने दो अपनी गृहस्थी. तुम्हें तो सिर्फ मस्त रहना चाहिए.’  ‘लेकिन रमा, घर में रह कर मैं अपने कामों से मुंह तो नहीं मोड़ सकती,’ वे कहतीं.  ‘नहींनहीं, मां. तुम गलत समझ रही हो. मेरा मतलब सब काम भाभी को करने दो न…’

ब्याह कर जब वे इस घर में आई थीं तो एक भरापूरा परिवार था. सासससुर के साथ घर में ननद, देवर और प्यार करने वाले पति थे जो उन की सारी बातें मानते थे. घर में किसी चीज की कमी नहीं थी पर बहुत पैसा भी नहीं था. घर का काम और बच्चों की देखभाल करते हुए समय कैसे बीत गया, वे जान ही न सकीं.

कमल शुरू से ही बहुत पैसा कमाना चाहते थे. वे चाहते थे कि उन के घर में सब सुखसुविधाएं हों. वे बहुत महत्त्वा- कांक्षी थे और पैसा कमाने के लिए उन्होंने हर हथकंडे का इस्तेमाल किया.   पैसा सरिता को भी बुरा नहीं लगता था लेकिन पैसा कमाने के कमल के तरीके पर उन्हें एतराज था, वे एक सुकून भरी जिंदगी चाहती थीं. वे चाहती थीं कि कमल उन्हें पूरा समय दें लेकिन उन को सिर्फ पैसा कमाना था, कमल का मानना था कि पैसे से हर वस्तु खरीदी जा सकती है. उन्हें एक पल भी व्यर्थ गंवाना अच्छा नहीं लगता था. जैसेतैसे कमल के पास पैसा बढ़ता गया, उन (सरिता) से उन की दूरी भी बढ़ती गई.

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‘पापा, आज आप मेरे स्कूल में आना ‘पेरैंटटीचर’ मीटिंग है. मां तो एक कोने में खड़ी रहती हैं, किसी से बात भी नहीं करतीं. मेरी मैडम तो कई बार कह चुकी हैं कि अपने पापा को ले कर आया करो, तुम्हारी मम्मी तो कुछ समझती ही नहीं,’ रमा अपनी मां से शर्मिंदा थी क्योंकि उन को अंगरेजी बोलनी नहीं आती थी.

कमल बेटी को डांटने के बजाय हंसने लगे, ‘कितनी बार तो तुम्हारी मां से कहा है कि अंगरेजी सीख ले पर उसे फुरसत ही कहां है अपने बेकार के कामों से.’  ‘कौन से बेकार के काम. घर के काम क्या बेकार के होते हैं,’ वे सोचतीं, ‘जब घर में कोई भी नौकर नहीं था और पूरा परिवार साथ रहता था तब तो एक बार भी कमल ने नहीं कहा कि घर के काम बेकार के होते हैं और अब जब वे रसोईघर में जा कर कुछ भी करती हैं तो वह बेकार का काम है,’ लेकिन प्रत्यक्ष में कुछ नहीं कहा.

उस दिन के बाद कमल ही बेटी रमा के स्कूल जाने लगे. पैसा आने के बाद कमल के रहनसहन में भी काफी बदलाव आ गया था. अब वे बड़ेबड़े लोेगों में उठनेबैठने लगे थे और चाहते थे कि पत्नी भी वैसा ही करे. पर उन को ऐसी महफिलों में जा कर अपनी और अपने कीमती वस्त्रों व गहनों की प्रदर्शनी करना अच्छा नहीं लगता था.  एक दिन दोनों कार से कहीं जा रहे थे. एक गरीब आदमी, जिस की दोनों टांगें बेकार थीं फिर भी वह मेहनत कर के कुछ बेच रहा था, उन की गाड़ी के पास आ कर रुक गया और उन से अपनी वस्तु खरीदने का आग्रह करने लगा. सरिता अपना पर्स खोल कर पैसे निकालने लगीं लेकिन कमल ने उन्हें डांट दिया, ‘क्या करती हो, यह सब इन का रोज का काम है. तुम को तो बस पर्स खोलने का बहाना चाहिए. चलो, गाड़ी के शीशे चढ़ाओ.’

उन का दिल भर आया और उन्हें अपना एक जन्मदिन याद आ गया. शादी के बाद जब उन का पहला जन्मदिन आया था. उन दिनों उन के पास गाड़ी नहीं थी. वे दोनों एक पुराने स्कूटर पर चला करते थे. वे लोग एक बेकरी से केक लेने गए थे. कमल के पास ज्यादा पैसे नहीं थे पर फिर भी उन्होंने एक केक लिया और एक फूलों का गुलदस्ता लेना चाहते थे. बेकरी के बाहर एक छोटी बच्ची खड़ी थी. ठंड के दिन थे. बच्ची ने पैरों में कुछ भी नहीं पहना था. ठंड से वह कांप रही थी. उस की हालत देख कर वे रो पड़ी थीं. कमल ने उन को रोते देखा तो फूलों का गुलदस्ता लेने के बजाय उस बच्ची को चप्पलें खरीद कर दे दीं. उस दिन उन को कमल सचमुच सच्चे हमसफर लगे थे. आज के और उस दिन के कमल में कितना फर्क आ गया है, इसे सिर्फ वे ही महसूस कर सकती थीं.

तब उन की आंखें भर गई थीं. उन्होंने कमल से छिपा कर अपनी आंखें पोंछ ली थीं.  सरिता की एक आदत थी कि वे ज्यादा बोलती नहीं थीं लेकिन मिलनसार थीं. उन के घर में जो भी आता था वे उस की खातिरदारी करने में भरोसा रखती थीं पर कमल को सिर्फ अपने स्तर वालों की खातिरदारी में ही विश्वास था. उन्हें लगता था कि एक पल या एक पैसा भी किसी के लिए व्यर्थ गंवाना नहीं चाहिए.

सरिता की वजह से दूरदूर के रिश्तेदार कमल के घर आते थे और उन की तारीफ भी करते थे. ‘सरिता भाभी तो खाना खिलाए बगैर कभी भी आने नहीं देती हैं’ या फिर ‘सरिता भाभी के घर जाओ तो लगता है जैसे वे हमारा ही इंतजार कर रही थीं’, ‘वे इतने अच्छे तरीके से सब से मिलती हैं’ आदि.  लेकिन उन की बेटी ही उन्हें कुछ नहीं समझती है. रमा ने कभी भी मां को अपना हमराज नहीं बनाया. वह तो सिर्फ अपने पापा की बेटी थी. इस में उस का कोई दोष नहीं है. उस के पैदा होने से पहले कमल के पास बहुत पैसा नहीं था लेकिन जिस दिन वह पैदा हुई उसी दिन कमल को एक बहुत बड़ा और्डर मिला था और उस के बाद तो उन के घर में पैसों की रेलमपेल शुरू हो गई.

कमल समझते थे कि यह सब उस की बेटी की वजह से ही हुआ है. इसलिए वे रमा को बहुत मानते थे. उस के मुंह से निकली हर बात पूरा करना अपना धर्म समझते थे. जिस से रमा जिद्दी हो गई थी. सरिता उस की हर जिद पूरी नहीं करती थी, जिस के चलते वह अपने पापा के ज्यादा नजदीक हो गई थी.  धीरेधीरे रमा अपनी ही मां से दूर होती गई. कमल हरदम रमा को सही और सरिता को गलत ठहराते थे. एक बार सरिता ने रमा को किसी गलत बात के लिए डांटा और समझाने की कोशिश की कि ससुराल में यह सब नहीं चलेगा तो कमल बोल पड़े, ‘हम रमा का ससुराल ही यहां ले आएंगे.’

उस के बाद तो सरिता ने रमा को कुछ भी कहना बंद कर दिया. कमल रमा की ससुराल अपने घर नहीं ला सके. हर लड़की की तरह उसे भी अपने घर जाना ही पड़ा. जब रमा ससुराल जा रही थी तो सब रो रहे थे. सरिता को भी दुख हो रहा था. बेटी ससुराल जा रही थी, रोना तो स्वाभाविक ही था.  सरिता को मन के किसी कोने में थोड़ी सी खुशी भी थी क्योंकि अब उन का घर उन का अपना बनने वाला था. अब शायद सरिता अपनी तरह अपने घर को चला सकती थीं. जब से वे इस घर में आई थीं कोई न कोई उन पर अपना हुक्म चलाता था. पहले सास का, ननद का, फिर बेटी का घर पर राज हो गया था, लेकिन अब वे अपना घर अपनी इच्छा से चलाना चाहती थीं.

रमा अपने घर में खुश थी. उस ने अपनी ससुराल में सब के साथ सामंजस्य बना लिया था. जिस बात की सरिता को सब से ज्यादा फिक्र थी वैसी समस्या नहीं खड़ी हुई. सरिता भी खुश थीं, अपना घर अपनी इच्छा से चला कर, लेकिन उन की खुशी में फिर से बाधा पड़ गई. रमा घर आई और कहने लगी, ‘पापा, मां तो बिलकुल अकेली पड़ गई हैं. अब भैया की शादी कर दो.’  सरिता चीख कर कहना चाहती थीं कि अभी नहीं, कुछ दिन तो मुझे जी लेने दो. पर प्रत्यक्ष में कुछ नहीं कह पाईं और कुछ समय बाद रमा माला को ढूंढ़ लाई. माला उस के ससुराल के किसी रिश्तेदार की बेटी थी.

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माला बहुत अच्छी थी. बिलकुल आदर्श बहू, लेकिन ज्यादा मीठा भी सेहत को नुकसान देता है. इसलिए सरिता उस से भी कभीकभी कड़वी हो जाती थी. माला बहुत पढ़ीलिखी थी. वह सरिता की तरह घरघुस्सू नहीं थी. वह मोहित के साथ हर जगह जाती थी और बहुत अच्छी अंगरेजी भी बोल लेती थी, इसलिए मोहित को उसे अपने साथ हर जगह ले जाने में गर्व महसूस होता था. उस ने रमा को भी अपना बना लिया था. रमा उस की बहुत तारीफ करती थी, ‘मां, भाभी बहुत अच्छी हैं. मेरी पसंद की हैं इसलिए न.’

सरिता को हल्के रंग के कपड़े पसंद थे. आज तक वे सिर्फ कपड़ों के मामले में ही अपनी मालकिन थीं लेकिन यहां भी सेंध लग गई. माला सरिता को सलाह देने लगी, ‘मां, आप इतने फीके रंग मत पहना करें, शोख रंग पहनें. आप पर अच्छे लगेंगे.’  कमल कहते, ‘अपनी सास को कुछ मत कहो, वे सिर्फ हल्के रंग के कपड़े ही पहनती हैं. मैं ने कितनी बार कोशिश की थी इसे गहरे रंग के कपड़े पहनाने की पर इसे तो वे पसंद ही नहीं हैं.’

‘कब की थी कोशिश कमल,’ सरिता कहना चाहती थीं, ‘एक बार कह कर तो देखते. मैं कैसे आप के रंग में रंग जाती,’ पर बहू के सामने कुछ नहीं बोलीं.

आज सुबह रमा को घर आना था. उन्होंने रसोई में जा कर कुछ बनाना चाहा. पर माला आ गई, ‘मां, लाइए मैं बना देती हूं.’

‘नहीं, मैं बना लूंगी.’

‘ठीक है. मैं आप की मदद कर देती हूं.’

उन्होंने प्यार से बहू से कहा, ‘नहीं माला, आज मेरा मन कर रहा है तुम सब के लिए कुछ बनाने का. तुम जाओ, मैं बना लूंगी.’

माला चली गई. पता नहीं क्यों खाना बनाते समय उन्हें जोर से खांसी आ गई. मोहित वहां से गुजर रहा था. वह मां को अंदर ले कर आया और माला को डांटने के लिए अपने कमरे में चला गया. सरिता उस के पीछे जाने लगीं ताकि उसे समझा सकें कि इस में माला का कोई दोष नहीं है. वे कमरे के पास गईं तो देखा दोनों भाईबहन बैठे हुए हैं. रमा आ चुकी थी और उन से मिलने के बजाय पहले अपनी भाभी से मिलने चली गई थी.

उन्होंने जैसे ही अपने कदम आगे बढ़ाए, रमा की आवाज उन के कान में पड़ी, ‘मां को भी पता नहीं क्या जरूरत थी किचन में जाने की.’

तभी मोहित बोल पड़ा, ‘पता नहीं क्यों, मां समझती नहीं हैं, हर वक्त घर में कुछ न कुछ करती रहती हैं जिस से घर में कलह बढ़ती है, मेरे और माला के बीच जो खटपट होती है उस का कारण मां ही होती हैं.’

‘क्या मैं माला और मोहित के बीच कलह का कारण हूं,’ सरिता सोचती ही रह गईं.

तभी माला की अवाज सुनाई पड़ी, ‘मैं तो हर वक्त मां का खयाल रखती हूं पर पता नहीं क्यों, मां को तो जैसे मैं अच्छी ही नहीं लगती हूं. अभी भी तो मैं ने कितना कहा मां से कि मैं करती हूं पर वे मुझे करने दें तब न.’

‘मैं समझती हूं, भाभी. मां शुरू से ही ऐसी हैं,’ रमा की आवाज आई.

‘मां को तो बेटी समझ नहीं पाई, भाभी क्या समझेगी,’ सरिता चीखना चाहती थीं पर आवाज जैसे गले में ही दब गई.

‘अच्छा, तुम चिंता मत करो, मैं समझाऊंगा मां को,’ यह मोहित की आवाज थी.

‘कभी मां की भी इतनी चिंता करनी थी बेटे,’ कहना चाहा  सरिता ने पर आदत के अनुसार फिर से चुप ही रहीं.

‘मैं देखती हूं मां को, कहीं ज्यादा तबीयत तो खराब नहीं है,’ माला बोली.

‘जब अपने ही मुझे नहीं समझ रहे तो तू क्या समझेगी जिसे इस घर में आए कुछ ही समय हुआ है,’ सरिता के मन ने कहा.

इधर, आसमान में बिजली के कड़कने की तेज आवाज आई तो वे खयालों की दुनिया से बाहर आ गईं. दरअसल, दोपहर का खाना खाने के बाद जब वे बाजार जाने के लिए घर से निकली थीं तो सिर्फ बादल थे पर जब जोर से बरसात होने लगी तो वे एक बारजे के नीचे खड़ी हो गई थीं. और अब फिर सोचने लगीं कि अगर वे भीग कर घर जाएंगी तो सब क्या कहेंगे? रमा अपनी आदत के अनुसार कहेगी, ‘मां को बस, भीगने का बहाना चाहिए.’

कमल कहेंगे, ‘कितनी बार कहा है कि गाड़ी से जाया करो पर नहीं’.  मोहित कहेगा, ‘मां, मुझे कह दिया होता, मैं आप को लेने पहुंच जाता.’

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बहू कहेगी, ‘मां, कम से कम छाता तो ले ही जातीं.’

सरिता ने सारे खयाल मन से अंतत: निकाल ही दिए और भीगते हुए अकेली ही घर की तरफ चल पड़ीं.

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