दीयों की चमक- भाग 4: क्यों बदल गया भाभियों का प्यार

अवध का कहना था, ‘तुम्हें खानेपहनने की कोई दिक्कत नहीं  होगी. जैसे  चाहो, रहो लेकिन मैं दिवा को नहीं छोड़ सकता. तुम पत्नी हो और वह प्रेमिका.’

‘क्या केवल खानापहनना और पति के अवैध रिश्ते  को अनदेखा करना ही  ब्याहता का धर्म है?’ रमा इस कठदलीली को कैसे बरदाश्त करती. खूब रोईधोई. अपने सिंदूर,  मुन्ने का वास्ता दिया. सासससुर  से इंसाफ मांगा. उन्होंने उसे  धैर्य रखने की  सलाह दी. बेटे को  ऊंचनीच  समझाया,  डांटा, दुनियादारी का हवाला दिया.

लेकिन अवध पर दिवा के रूपलावण्य का जादू चढ़ा हुआ था. रमा जैसे चाहे, रहे. वह  दिवा को नहीं  छोड़ेगा.

एक  म्यान में  दो तलवारें नहीं  रह सकतीं. रमा को प्यारविश्वास  का खंडित हिस्सा  स्वीकार्य  नहीं.

पतिपत्नी का मनमुटाव,  विश्वासघात शयनकक्ष से बाहर आ चुका था. जब रमा पति को  समझाने  में  नाकामयाब रही तब एक दिन  मुन्ने को गोद में  ले मायके का रास्ता  पकड़ा.

सासससुर ने समझाया. ‘बहू, अपना घर पति को छोड़ कर मत जाओ. अवध की आंखों से  परदा जल्दी ही उठेगा. हम सब तुम्हारे  साथ हैं.’

किंतु रमा का भावुक  हृदय  पति के इस  विश्वासघात  से टूट गया था. व्यावहारिकता से  सर्वथा अपरिचित  वह इस घर में  पलभर भी रुकने के लिए  तैयार न थी जहां उस का पति पराई स्त्री  से  संबंध रखता हो. उस की खुद्दारी ने अपनी मां के  आंचल का सहारा लेना ही उचित समझा, भविष्य की  भयावह स्थिति से अनजान.

‘बहू,  मुन्ने के बगैर हम कैसे  रहेंगे?’ सासुमां ने मनुहार की.

‘पहले अपने  बेटे को  संभालिए, मैं  अपने बेटे पर  उस दुराचारी पुरुष की छाया तक नहीं पड़ने देंगे.’

‘उसे संभालना तो तुम्हें पड़ेगा  बहू. तुम उस की पत्नी  हो, ब्याहता हो. इस प्रकार मैदान  छोड़ने से बात  बिगड़ेगी ही.’

‘मुझे कुछ नहीं सुनना. मुझ में इतनी  सामर्थ्य है कि अपना और अपने मुन्ने का पेट  भर सकूं,’

रमा एक झटके में  पतिगृह छोड़ आई. मां ने  जब सारी बातें सुनीं तो सिर पीट लिया. फूल सी बच्ची पर ऐसा अत्याचार. उन्होंने बेटी को सीने से लगा लिया, ‘मैं अभी  ज़िंदा हूं, जेल की चक्की न पिसवा दी तो कहना.’

भाइयों ने दूसरे दिन ही कोर्ट में  तलाकनामा दायर करवा दिया. भाभियां भी  खूब चटखारे  लेले कर ननदननदोई  के  झगड़ों का वर्णन सुनतीं. रमा अपना सारा आक्रोश, अपमान, कुंठा नमकमिर्च  लगा कर  बयान करते न  थकती.

शुरुआती दिनों में  सभी जोशखरोश से रमा का साथ  देते. मुन्ने का भी  विशेष  ख़याल रखा जाता. फिर  प्रारंभ हुई कोर्टकचहरी की  लंबी प्रक्रिया. तारीख पर  तारीख़. वकीलों की ऊंची  फीस. झूठीसच्ची उबाऊ बयानबाजी. एक ही  बात उलटफेर कर. जगहंसाई. रमा और  मुन्ने का बढ़ता खर्चा. निर्णय की अनिश्चितता.

भाइयों में झुंझलाहट बढ़ने लगी. भाभियां जैसे इसी मौके की  तलाश में थीं. वे रमा और मुन्ने को नीचा दिखाने  का कोई अवसर हाथ से जाने  न देतीं.

बूढ़ी होती मां सिहर उठतीं, ‘मेरे बाद इस लाड़ली बेटी का क्या होगा? बेटेबहुओं का रवैया वे देख रही थीं. उन का चिढ़ना स्वाभाविक था क्योंकि सब की घरगृहस्थी है, बालबच्चे  हैं, बढ़ते खर्चे हैं. इस  भौतिकवादी  युग में  कोई किसी का नहीं. उस पर परित्यक्ता बहन और उस का  बच्चा जो जबरन उन के  गले पड़े हुए हैं.

कानूनी लड़ाई  में ही  महीने का  आखिरी रविवार  कोर्ट ने  मुन्ने को अपने पिता से मिलने का  मुकर्रर किया था. मुन्ने को इस दिन का  बेसब्री से इंतज़ार  रहता. बाकी दिनों की अवहेलना को वह विस्मृत कर देता.

अवध बिना नागा आखिरी रविवार की सुबह आते. रमा मुन्ने को उन के पास  पहुंचा देती. दोनों एकदूसरे की ओर देखते अवश्य, लेकिन  बात नहीं होती. मुन्ना हाथ हिलाता पापा के  स्कूटर पर हवा हो जाता.

अवध ने मुन्ने को अपने संरक्षण में लेने के लिए  कोर्ट से गुहार लगाई है बच्चे के भविष्य के लिए. ठीक  ही है  पापा के पास रहेगा, ऊंची पढ़ाई  कर पाएगा, सुखसुविधाएं पा सकेगा. वह  एक प्राइवेट स्कूल की  टीचर, 2 हजार रुपए  कमाने वाली, उसे क्या दे सकती है.

कोर्ट के आदेश से कहीं मुन्ना उस से  छिन गया, अपने पापा के पास  चला गया तब वह  किस के सहारे जिएगी. किसी निर्धन से उस की  पोटली गुम हो जाए, तो जो पीड़ा उस गरीब को होगी वही ऐंठन रमा के  कलेजे में  होने लगी. ‘न,  न, मैं बेटे को अपने से किसी कीमत पर  अलग नहीं होने दूंगी. वह सिसकने लगी. स्वयं से  जवाबसवाल करते  उसे  झपकी आ गई.

आंखें  खुली, तो पाया मुन्ना आ चुका है. हर बार की तरह खिलौने, मिठाईयों उस के पसंद की चौकलेट से  लदाफंदा.

घरवाले उन सामानों को हिकारत से देखते. यह नफरत की  बीज उस की ही बोई हुई है. रमा सबकुछ छोड़छाड़  भागी न  होती, उस की गृहस्थी यों तहसनहस न  होती. वह  डाल से  टूटे  पत्ते के समान  धूल चाट नहीं रहती.

“मम्मी, तुम्हारे लिए…”

“क्या?”

लाल पैकेट में  2 जोड़ी कीमती चप्पलें. रमा भौंचक, “यह क्या, तुम ने  पापा से कहा?”

“नहीं, नहीं,  पापा ने अपने मन से खरीदा. पापा अच्छे हैं,  बहुत अच्छे.  मम्मा, हम लोग पापा के साथ क्यों नहीं  रहते?”

रमा निरूत्तर थी. रमा ने चप्पलों की जोड़ी झट से छिपा दी. अगर  पहनती है तो घर वालों की कटुक्तियां और न पहने तब मुन्ने की  जिज्ञासा.

दिवाली का त्योहार  आ गया. भाईभाभी सपरिवार  खरीदारी में  व्यस्त. वह सूखे होंठ, गंदे कपड़ों में  घर की  सफाई में  लगी थी.

दरवाजे की  घंटी बजी. शायद, घर वाले लौट आए. इतनी  जल्दी…

रमा ने  दरवाजा खोला, सामने  अवध. रमा स्तब्ध. घर  में कोई नहीं  था.  उस की  जबान पर जैसे  ताला लग गया.

“भीतर आने के लिए नहीं कहोगी?” अवध के  प्रश्न पर वह संभल चुकी थी.

“हां, हां, आइए परंतु इस समय घर में कोई नहीं है.”

“मुन्ना कहां है? ”

“वह अपनी नानी के साथ पार्क  गया है.”

“अच्छा,  दीवाली की सफाई हो रही है.”

रमा समझ नहीं पा रही थी,  वह क्या  कहे.  इस विषम परिस्थिति के लिए वह कतई तैयार  न थी. जिस व्यक्ति पर कभी उस ने अपना  सर्वस्व नयोछावर किया था, उस के बच्चे की मां  बनी थी, उस से  ऐसी झिझक. थोड़ी सी बेवफाई और  कानूनी  दांवपेंच ने  दोनों के बीच  गहरी खाई खोद दी थी.

“रमा, तुम  मुझ से बहुत नाराज हो, होना भी चाहिए. मैं तुम्हारा  अपराधी हूं. मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिए. दिवारुपी मृगतृष्णा के पीछे  भागता रहा. अपनी पत्नी के निश्च्छल प्रेम के सागर को पहचान नहीं पाया. अब  मैं तुम्हें और  मुन्ने को लेने आया हूं. मुझे  माफ कर दो.”

“मैं आप के साथ कैसे जाऊंगी, दिवा के साथ नहीं रह सकती. मुझे  मेरे हाल पर  छोड़ दीजिए,” आक्रोश आंखों से बह निकला.

“दिवा…दिवा से मेरा कोई लेनादेना नहीं  है, मैं ने उस से  सारे रिश्ते तोड़ लिए हैं. पहले ही काफी  देर हो चुकी है, अब अपनी पत्नी और बच्चे से  दूर नहीं रह सकता.”

“किंतु  मेरी मां, भाई, कोर्टकचहरी… ” उसे  अपने कानों पर  विश्वास नहीं  हो रहा था.

“मां, भाई को क्यों  एतराज होगा. अपनी पत्नी और बेटे  को लेने आया हूं. और रहा कोर्टकचहरी, लो तुम्हारे सामने ही सारे कागजात फाड़ फेंकता हूं. जब मियांबीवी राजी तो क्या  करेगा  काजी.”

“पर, मैं  कैसे  विश्वास करूं?”

“विश्वास तुम को करना  ही पड़ेगा. भरोसा एवं प्यार पर ही दाम्पत्य की  नींव टिकी होती है. तुम ने मुझ पर पहले ही अपना अधिकार जता बांहों का सहारा दे अपने पास  खींच लिया होता  तो मैं  दिवा  में अपनी खुशियां नहीं  तलाशता. सच है कि मैं  भटक गया था. किंतु  यह न भूलो, भटका हुआ मुसाफिर भी कभी न कभी सही राह  पा लेता है,” अवध ने अपनी बांहें फैला दीं.

परिस्थितियों की मार से आहत रमा इस अप्रत्याशित  घटनाक्रम से अचंभित  अपने पति के हृदय से जा लगी.

अवध, रमा और मुन्ने  दिवाली के दिन  जब अपने घर पहुंचे, एकसाथ लाखों दीये जल उठे.

दीवाली की खुशी  द्विगुणित हो गई. उन का  उजड़ा संसार  दिवाली की रोशनी में आबाद हो चुका था.

दीयों की चमक- भाग 3: क्यों बदल गया भाभियों का प्यार

गर्भ में मुन्ना के आते ही अवध खुशी से झूम उठा. सासससुर, देवरननद ने रमा की बलैया ली. देखने वाले दंग. इतने वर्षों पश्चात घर में पहला बच्चा. रमा को सभी हथेली पर रखते. ‘बहू यह न करो, वह न करो,’ सासुमां लाड़ लगातीं.

‘लो बहू तुम्हारे लिए,’ ससुर का हाथ फल, मेवों अन्य पौष्टिक पदार्थों से भरा रहता.

और अवध… वह बावला रमा को पलभर के लिए भी आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहता था.

दफ्तर से बारबार फोन करता. रोज बालों के लिए गजरा, उपहार लाता. गोलमटोल शिशुओं की तसवीरों से कमरा जगमगा उठा.

मां व भाई रमा को लाने गयेए. सासससुर ने हाथ जोड़ लिए. बेटी का सुख, मानसम्मान देख मां व भाई गदगद हो उठे.

मां व भाई चाहते थे कि जच्चगी मायके में हो. वहीं सास, ससुर, पति पलभर के लिए बहू को आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहते थे.

रमा दोनों पक्षों के दांवपेंच पर मुसकरा उठती.

रमा ने स्वस्थ सुंदर बेटे को जन्म दिया. बड़ी धूमधाम से जन्मोत्सव मनाया गया.

मां बन कर रमा निहाल हो उठी. जब देखो मुन्ने को छाती से चिपकाए रहती.

घरभर का खिलौना मुन्ना अपने बालसुलभ अदाओं से सब का मन मोह लेता.

‘रमा, बड़ा हो कर मुन्ना मेरी तरह इंजीनियर बनेगा,’ अवध की आंखें चमकने लगतीं.

‘नहीं, मैं इसे डाक्टरी पढ़ाऊंगी. लोगों की सेवा करेगा,’ रमा हंस पड़ती.

‘न डाक्टर न‌ इंजीनियर, यह मेरी तरह बैरिस्टर बनेगा,’ दादाजी कब पीछे रहने वाले थे.

‘कहीं नाना जैसा व्यापारी बना तो…’ नानी बीच में टपक पड़तीं.

सभी होहो कर हंसने लगते. हर्षोल्लास से लबालब थे मायके और ससुराल. किस की नजर लग गई.

आज उसी मुन्ने की जननी की सुध किसी को नहीं.

आखिर इस के पीछे कारण क्या है. मुन्ने के जन्म के बाद तीसरे महीने ही दिवाली का त्योहार और उस मनहूस दिवाली ने रमा व उस के मुन्ने की जीवनधारा पलट कर रख दी.

उस दिन घरबाहर खूब रंगरोशन  हुआ था. नाना प्रकार के पकवान, मिठाईयां, मेवों, उपहारों का ढेर लग गया था. रेशमी साड़ी और कीमती आभूषणों से लदीफंदी रमा पति का बेसब्री से इंतजार कर रही थी.

अवध देर से लौटे, साथ में एक सुंदर युवती थी. ‘रमा, यह मेरी कालेज की सहपाठी दिवा है.’

रमा ने हाथ जोड़ दिए, ‘नमस्ते.’

‌दिवा ने चुभती नजर रमा पर डाली, ‘कहां ढूंढा इतनी खूबसूरत पत्नी.’

‘अरे, तुम से कम ही,’ अवध का मजाकिया स्वभाव था.

किंतु रमा झेंप गई. अवध के इस बेतुके मजाक ने सीधे उस के दिल को टीस दी. दिवा जितनी देर रही, अवध से चिपकी रही. सुंदर वह थी ही, उस की दिलकश अदाएं, बात करने का अंदाज, बेवजह खिलखिलाना रमा को जरा भी नहीं सुहाया.

 

दिवाली पूजन, हंसीमजाक, शोरशराबा, भोजनपानी करतेकरते आधी रात बीत गई.

‘अब, मैं चलूंगी,’ दिवा बोली थी.

‘चलो, मैं तुम्हें छोड़ आता हूं,’ अवध  की आंखों की चमक रमा आज तक भूल नहीं पाई है. अगर वह पुरुष मनोविज्ञान की ज्ञाता होती तो कभी भी अपने पति को उस मायावी के संग न भेजती.

… पति जब तक घर लौटे, वह मुन्ने को सीने से चिपकाए सो ग‌ई थी. फिर तो अवध रमा और मुन्ने की ओर से उदासीन होता चला गया. उस की शामें दिवा के साथ बीतने लगीं.

पत्नी से उस की औपचारिक बातचीत ही होती. मुन्ने में भी खास दिलचस्पी नहीं रह गई थी उस की. भोली रमा पति के इस परिवर्तन को भांप नहीं पाई. दिनरात मुन्ने में खोई रहती. वह  मुन्ने को कलेजे से लगाए सुखस्वप्न में खोई थी.

एक दिन उस की सहेली ने फोन पर जानकारी दी, ‘आजकल तुम्हारे मियां जी बहुत उड़ रहे हैं.’

‘क्या मतलब?’

‘अब इतनी अनजान न बनो. तुम्हारे अवध का दिवा के साथ क्या चक्कर चल रहा है, तुम्हें मालूम नहीं? कैसी पत्नी हो तुम? दोनों स्कूटर पर साथसाथ घुमते हैं, सिनेमा व होटल जाते हैं और तुम पूछती हो, क्या मतलब,’ सहेली ने स्पष्ट किया.

‘देख, मुझे झूठीसच्ची कहानियां न सुना, वह अवध के साथ पढ़ती थी,’ रमा चिहुंक उठी.

‘पढ़ती थी न, अब अवध के साथ क्या गुल खिला रही है? मुझ पर विश्वास नहीं है, पूछ कर देख ले. फिर न कहना, मुझे आगाह नहीं किया. तुम इन मर्दों को  नहीं जानतीं. लगाम खींच कर  रख, वरना पछताएगी,’ सहेली ने फोन रख दिया.

अब रमा का दिल किसी काम में नहीं लग रहा था. मुन्ना भी आज उसे बहला नहीं सका. वह छटपटा उठी. सहेली की बात किस से कहे- मांजी से, पिताजी से… ना-ना उस की हिम्मत जवाब दे गई. वह सीधे अपने पति से ही बात करेगी, अवध ऐसा नहीं है.

अवध सदा से ही अपने रखरखाव, पहिरावे का विशेष ध्यान रखते थे. इधर कुछ ज्यादा ही सजग, सचेत रहने लगे हैं. हरदम खिलेखिले, प्रसन्न अपनेआप में मग्न. घर में पांव टिकते नहीं थे. भूल कर भी रमा को कहीं साथ घुमाने नहीं ले गए. मुन्ना एक अच्छा बहाना था. रमा को कोई शिकवा भी नहीं था. वह अपनी छोटी सी दुनिया में मस्त थी. जहां उस का प्यारा पति एवं जिगर का टुकड़ा मुन्ना था, वहीं उस की  खुशियों में उस की सहेली ने सेंधमारी की थी. वह बेसब्री से अवध की राह देखने लगी.

रात गए अवध लौटा, गुनगुनाता, सीटी बजाता बिलकुल आशिकाने मूड में.

‘खाना,’ रमा को अपने इंतजार में देख उसे आश्चर्य हुआ.

‘खा लिया है,’ वह बेफिक्री से कोट का बटन खोलने लगा.

रमा ने लपक कर कोट थाम लिया. लेडीज परफ्यूम का तेज भभका.

रमा को यों कोट थामते, अपने लिए जागते देख अवध चौंका.  क्योंकि मुन्ने के जन्म के बाद से वह बच्चे में ही खोई रहती. वह रात में लौटता, उस समय वह मुन्ने के साथ गहरी नींद में खर्राटे लेती मिलती. आज ऐसे तत्पर देख आश्चर्य चकित होना स्वाभाविक है.

परफ्यूम की महक ने रमा को दिवाली की रात की याद दिला दी. यही खुशबू दिवा के कपड़ों से उस दिन आ रही थी. सहेली ठीक कह  रही थी. रमा उत्तेजित हो उठी, ‘कहां खाए?

‘पार्टी थी.’

‘कहां?’

‘होटल में, कुछ क्लांइट आए थे.’

‘सच बोल रहे हो?’

‘तुम कहना क्या चाहती हो?’

‘यही कि तुम दिवा के साथ समय बिता कर, खा कर आ रहे हो.’

अवध का चेहरा  क्षणभर के लिए   फक पड़ गया. फिर  ढिठाई से बोला, ‘तुम्हें कोई आपत्ति है, मेरी बातों का विश्वास नहीं?’

‘दिवा के साथ  गुलछर्रे उड़ाते तुम्हें  शर्म नहीं आती एक बच्चे के पिता हो कर.  छि:,’ रमा क्रोध से कांपने लगी.

‘दिवा पराई नहीं, मेरी पहली पसंद है. वह तो  मां ने तुम्हारे नाम की माला न जपी होती, तुम्हारी  जगह पर  दिवा होती.’

‘उस ने  मेरे चलते  विवाह  नहीं किया. वह आज भी मुझे उतना ही चाहती है  जितना  कालेज के  दिनों में. फिर मैं उस का साथ क्यों न दूं. एक  वह  है  जो  मेरे लिए  पलक बिछाए रहती है  और एक तुम हो जिसे अपने  बच्चे से  फुरसत नहीं है,’ पति बेहयाई पर उतर आया.

रमा के पांवतले जमीन खिसक गई. आरोपप्रत्यारोप का सिलसिला  चलने लगा.

दीयों की चमक- भाग 1: क्यों बदल गया भाभियों का प्यार

रमा तिलमिला उठी. परिस्थिति ने उसे कठोर व असहिष्णु बना दिया था. बड़ी भाभी की तीखी बातें नश्तर सी चुभो रही थीं. कैसे इतनी कड़वी बातें कह जाते हैं वे लोग, वह भी मुन्ने के सामने. उन की तीखीकड़वी बातों का मुन्ने के बालमन पर कितना दुष्प्रभाव पड़ेगा, यह वे जरा भी नहीं सोचतीं.

क्यों सोचेंगी वे जब मां हो कर वे अपनी नन्ही सी संतान की भलाईबुराई समझ नहीं पाईं, भला उन्हें क्या गरज है.

हां, हां, सारा कुसूर उस का है…  घरपरिवार, भैयाभाभी यहां तक कि मां भी उसे ही दोषी करार देती हैं. सोने सी गृहस्थी तोड़ने की जिम्मेदार उसे ही ठहराया जाता है.
घर टूटा उस का जिसे सभी ने देखा और दिल, हृदय पर जो चोट लगी, उस पर किसी की नजर नहीं ग‌ई.

“बेटी, मर्द को वश में रखना सीख. इस तरह अपना घर छोड़ कर आने से तुम्हारा जीवन कैसे पार लगेगा,” मां के समझाने पर रमा बिफर उठी थी, “मां, किस मर्द की बात करती हो, उस की जो बातबात पर अकड़ता है. अपनी मांबहन के इशारे पर नाचता है या फिर उस की जो शादीशुदा, एक बच्चे का पिता होते हुए भी…छि:..” आगे के शब्द आंसुओं में डूब गए.

“रमा, होश से काम लो. अब तुम अकेली नहीं, एक नन्ही सी जान है तुम्हारे साथ,” मां ने धीरे से कहा.”इसी नन्ही सी जान की खातिर ही अपनी जान नहीं दी मैं ने. नहीं तो किसी कुएंतालाब में कूद जाती.”
“ना बेटी, ऐसी अशुभ बातें मुंह से मत निकालो,” मातृहृदय पिघल उठा.

“तुम्हारे दरवाजे नहीं आती, तुम लोगों के उलाहने नहीं सुनती. मेरे लिए इधर कुआं, उधर खाई है,” रमा रोती जाती, बीचबीच में अपनी वेदना मां के आंचल में डालती जाती.

अभी भी बड़ी भाभी की जबान कैंची की तरह चल रही थी, “दोनों में से एक काम हो- या उस मरदुए की आवभगत की जाए या फिर कोर्ट में केस लड़ा जाए.” “सच में दोनों बातें एकसाथ संभव नहीं लगतीं. उधर कोर्टकचहरी के चक्कर लगाओ और इधर हंसहंस कर पकवान खिलाओ,” छोटी भाभी भला कब पीछे रहने वाली थी. “ओह, तो एक कप चाय और 2 सूखे बिस्कुट को पकवान कहा जाता है,” परिस्थिति ने रमा को मुंहफट बना दिया था.

“खिलाओ पकवान, कोर्टकचहरी की क्या जरूरत है. एक ओर गालियां देती हो, दुनियाजहान से उस की बुराई करते नहीं थकती और दूसरी ओर उस को एंटरटेन करती हो. दुनिया क्या समझेगी,” बड़ी भाभी, छोटी भाभी एकबार शुरू हो जाती हैं, उन्हें चुप कराना मुश्किल हो जाता है.

उस का कुसूर यही था कि शिष्टाचारवश अपने पति अवध को एक कप चाय बना कर दिया था, साथ में 2 बिस्कुट भी. अवध से उस का  कोर्ट में तलाक का मुकदमा चल रहा है. कोर्ट के आदेश से वह महीने में एकबार अपने 4 वर्षीय बेटे से मिलने आता है. उसे घुमाताफिराता और तय समय पर वापस पहुंचा जाता.

वैसे भी दुखी हृदय, कमजोर काया, दुर्बल पक्ष ले कर कब तक बहस की जा सकती है, रमा रोने लगी.  हैरानपरेशान मुन्ना कभी बिलखती मां को देखता, कभी रणचंडिका बनी दोनों मामियों को. वह किस का पक्ष ले. झगड़ा अकसर उसे ही ले कर होता है. इस तथ्य को वह समझने लगा है. लेकिन क्यों इसे समझ  नहीं पाता. इस घर में और भी बच्चे रहते हैं, लड़ते हैं, झगड़ते हैं, खाते हैं, खेलते हैं, स्कूल पढ़ने जाते हैं उसी की तरह. लेकिन किसी को ले कर ऐसी लड़ाई नहीं होती, न हायतोबा. किसी की मम्मी उस की मम्मी की तरह नहीं बिसूरती रहती.

मामियां रेशमी साड़ियों में बनसंवर कर अपने पतिबच्चों के साथ सैरसपाटे पर जाती हैं, हंसतीखिलखिलाती. एक उस की मम्मी है…बदरंग कपड़ों, सूखे होंठ, उलझे बाल…किचन में रहेगी या पीछे बालकनी में उदास खड़ी आंखें पोंछती रहेगी.

30 वर्ष की युवावस्था में 60  वर्ष की गंभीरता ओढ़े मम्मी नानी के पास बैठेगी. उन की खुसुरफुसुर मुन्ने के समझ में नहीं आती. कुछ रोनेधोने की ही बात होगी, तभी मम्मी का गला रुंधा रहता है, आवाज फंसीफंसी निकलती है. नानी भी एक ही टौपिक से  ऊबी  हुई प्रतीत होती है, सो मुन्ने को झिड़क देती है, “जा, बाहर खेल, जब देखो मां से चिपका रहता है.”कहां जाएगा मां. इसे कोई साथ नहीं खेलाता,” मम्मी तुनक जाती.

“ढंग से खेलेगा, सभी खेलाएंगे,” नानी उकताई हुई सी बोली.”मां, तुम क्यों नहीं समझतीं. बच्चे इस के साथ सौतेला व्यवहार करते हैं. बिना कारण मुन्ने से झगड़ते हैं, मारते व चिढ़ाते हैं,” रमा का दबा आक्रोश मुखर हो गया.

नानी चुप रही. रमा का बातबात पर उत्तेजित हो जाना उन्हें नागवार गुजरता है क्योंकि घर में तेजतर्रार बहुएं हैं. मांबेटी का यों  बातें करना दोनों भाभियों को जरा भी नहीं सुहाता.
“आज हमारी खैर नहीं. छोटी, खूब लगाईबुझाई हो रही है.””होने दो दीदी, हम नहीं डरतीं किसी से; अपने पति की कमाई खाती हैं. कोई आंखें उठा कर देखे तो सही, नोच डालूंगी.” बहुओं के तानेतिश्ने से मां घबरा जाती, मन ही मन उस घड़ी को कोसती जब रमा हाथ में अटैची  और गोद में 10 माह का बच्चा लिए उस की देहरी पर आई थी.

5 वर्ष पहले ही कितनी धूमधाम से बिटिया का विवाह किया था. दोनों भाइयों से छोटी, सब की लाडली. पिता थे नहीं.  उन की जगह दोनों भाइयों ने रमा को पूर्ण संरक्षण दिया. दोनों भाभियां भी प्यारदुलार की वर्षा करते नहीं थकती थीं. आज वही भाभियां तलवार की धार बनी उस पर हर घड़ी वार करने के लिए बेचैन रहती हैं.शायद बदली हुई स्थिति  के कारण. रहिमन चुप हो बैठिए देख दिनन के फेर…

आज मुन्ने को कोर्ट के निर्देशानुसार अपने पापा के पास 8 घंटे के लिए जाना था. वह उतावला हो रहा था, “जल्दी, मम्मी जल्दी…”अर्द्धविक्षिप्त सी रमा गिरतेगिरते बची, “ओह, चप्पल टूट गई. इसे भी अभी ही धोखा देना था.” दो कदम चलना दूभर हो गया. पुरानी घिसी हुई चप्पल. वह लाचार इधर‌उधर  देखने लगी.

“मम्मी, जल्दी चलो, पापा आ गए होंगे.” उस की मनोस्थिति से अनजान मुन्ने की बेसब्री बढ़ती जा रही थी.

“मैं क्या करूं. तेरी जान को रोऊं. जब देखो सिर पर सवार रहता है. दो मिनट की चैन नहीं. कभी यह तो कभी वह. महीनेभर मैं खटतीपिटती रहती हूं, उस की कोई कीमत नहीं. तेरे पापा को क्या, महीने में एक दिन  लाड़चाव लगाना रहता है. और तू, उन्हीं का माला  जपता  रहता है. सब की नजरों में मैं खटकती हूं. अब इस चप्पल को भी कब का बैर था मुझ से. इसे अभी ही टूटना था. मुझ से चला नहीं जाता,” रमा बिफर उठी. मुन्ना सहम गया. उस ने मां की पांव की ओर देखा, “सच्ची मम्मी, इन टूटी चप्पलों में कैसे चलेंगी?”

चप्पल मम्मी के गोरे पैरों का सहारा भर थीं वरना वह कब की  घिस चुकी थीं- बदरंग, पुरानी…

मुन्ना की आंखों के समक्ष मामियों की ऊंची एड़ी की मौडर्न, चमचमाती जूतियों का जोड़ा घूम गया. कितनी जोड़ी होंगी उन के पास. जब वे उन्हें धारण कर खटखटाती चलती हैं, कितनी स्मार्ट लगती हैं, किसी फिल्म तारिका जैसी. और उस की मम्मी, घरबाहर यही एक जोड़ी चप्पल… और आज वह भी टूट गया.

सफर की हमसफर- भाग 1: प्रिया की कहानी

दिल्ली के प्रेमी युगलों के लिए सब से मुफीद और लोकप्रिय जगह यानी लोधी गार्डन में स्वरूप और प्रिया हमेशा की तरह कुछ प्यार भरे पल गुजारने आए थे. रविवार की सुबह थी. पार्क में हैल्थ कोंशस लोग मॉर्निंग वाक के लिए आए हुए थे. कोई भाग रहा था तो कोई ब्रिस्क वाक कर रहा था. कुछ लोग तरहतरह के व्यायाम करने में व्यस्त थे तो कुछ दूसरों को देखने में. झील के सामने पड़ी लोहे की बेंच पर बैठे प्रिया और स्वरुप एकदूसरे में खोए हुए थे. प्रिया की बड़ीबड़ी शरारत भरी निगाहें स्वरूप पर टिकी थी. वह उसे अपलक निहारे जा रही थी. स्वरूप ने उस के हाथों को थामते हुए कहा, “प्रिया, आज तो तुम्हारे इरादे बड़े खतरनाक लग रहे हैं. ”

वह हंस पड़ी,” बिल्कुल जानेमन. इरादा यह है कि तुम्हे अब हमेशा के लिए मेरा हाथ थामना होगा. अब मैं तुम से दूर नहीं रह सकती. तुम ही मेरे होठों की हंसी हो. भला हम कब तक ऐसे छिपछिप कर मिलते रहेंगे? और फिर प्रिया गंभीर हो गई.

स्वरूप ने बेबस स्वर में कहा,” अब मैं क्या कहूं? तुम तो जानती ही हो मेरी मां को. उन्हें तो वैसे ही कोई लड़की पसंद नहीं आती उस पर हमारी जाति भी अलग है.”

“यदि उन के राजपूती खून वाले इकलौते बेटे को सुनार की गरीब बेटी से इश्क हो गया है तो अब तुम या मैं क्या कर सकते हैं? उन को मुझे अपनी बहू स्वीकार करना ही पड़ेगा. पिछले 3 साल से कह रही हूँ. एक बार बात कर के तो देखो.”

“एक बार कहा था तो उन्होंने सिरे से नकार दिया था. तुम तो जानती ही हो कि मां के सिवा मेरा कोई है भी नहीं. कितनी मुश्किलों से पाला है उन्होंने मुझे. बस एक बार वे तुम्हें पसंद कर लें फिर कोई बाधा नहीं. तुम उन से मिलने गई और उन्होंने नापसंद कर दिया तो फिर तुम तो मुझ से मिलना भी बंद कर दोगी. इसी डर से तुम्हे उन से मिलवाने नहीं ले जाता. बस यही सोचता रहता हूं कि उन्हें कैसे पटाऊं.”

“देखो अब मैं तुम से तो मिलना बंद नहीं कर सकती तो फिर तुम्हारी मां को पटाना ही अंतिम रास्ता है.”

“पर मेरी मां को पटाना ऐसी चुनौती है जैसे रेगिस्तान में पानी खोजना.”

“ओके तो मैं यह चुनौती स्वीकार करती हूं. वैसे भी मुझे चुनौतियों से खेलना बहुत पसंद है. “बड़ी अदा के साथ अपने घुंघराले बालों को पीछे की तरफ झटकते हुए प्रिया ने कहा और उठ खड़ी हुई.

“मगर तुम यह सब करोगी कैसे?” स्वरूप ने उठते हुए पूछा.

“एक बात बताओ. तुम्हारी मां इसी वीक मुंबई जाने वाली हैं न किसी ऑफिसिअल मीटिंग के लिए. तुम ने कहा था उस दिन.

“हां, वह अगले मंगल को निकल रही हैं. आजकल में रिजर्वेशन भी कराना है मुझे.”

“तो ऐसा करो, एक के बजाए दो टिकट करा लो. इस सफर में मैं उन की हमसफर बनूंगी. पर उन्हें बताना नहीं,” आंखे नचाते हुए प्रिया ने कहा तो स्वरूप की प्रश्नवाचक निगाहें उस पर टिक गईं.

प्रिया को भरोसा था अपने पर. वह जानती थी कि सफर के दौरान आप सामने वाले को बेहतर ढंग से समझ पाते हैं. जब हम इतने घंटे साथ बिताएंगे तो हर तरह की बातें होंगी. उन्हें एक दूसरे को इंप्रेस करने का मौका मिलेगा. उन में दोस्ती हो सकेगी. कहने की जरुरत भी नहीं पड़ेगी. यह तय हो जाएगा कि वह स्वरूप की बहू बन सकती है. उस ने मन ही मन फैसला कर लिया था कि यह उस की आखिरी परीक्षा है.

स्वरूप ने मुस्कुराते हुए सर हिला तो दिया था पर उसे भरोसा नहीं था. उसे प्रिया का आइडिया बहुत पसंद आया था पर वह मां के जिद्दी, धार्मिक व्यवहार को जानता था. फिर भी उस ने हाँ कर दिया.

उसी दिन शाम में उस ने मुंबई राजधानी एक्सप्रेस (गाड़ी संख्या 12952 ) के एसी 2 टियर श्रेणी में 2 टिकट (एक लोअर और दूसरा अपर बर्थ )रिज़र्व कर दिया. जानबूझ कर मां को अपर बर्थ दिलाई और प्रिया को लोअर.

जिस दिन प्रिया को मुंबई के लिए निकलना था, उस से 2 दिन पहले से वह अपनी तैयारी में लगी थी. यह उस की जिंदगी का बहुत अहम सफर था. उस की ख़ुशियों की चाबी यानी स्वरुप का मिलना या न मिलना इसी पर टिका था. प्रिया ने वह सारी चीज़ें रख लीं जिन के जरिये उसे स्वरुप की मां पर इम्प्रैशन जमाने का मौका मिल सकता था.

ट्रेन शाम 4.35 पर नई दिल्ली स्टेशन से छूटनी थी. अगले दिन सुबह 8.35 ट्रेन का मुंबई अराइवल था. कुल 1385 किलोमीटर की दूरी और 16 घंटों का सफर था. इन 16 घंटों में उसे स्वरुप की मां को जानना था और अपना पूरा परिचय देना था.

वह समय से पहले ही स्टेशन पहुँच गई और बहुत बेसब्री से स्वरुप और उस की मां के आने का इंतजार करने लगी. कुछ ही देर में उसे स्वरुप आता दिखा. साथ में मां भी थी. दोनों ने दूर से ही एकदूसरे को आल द बेस्ट कहा.

ट्रेन के आते ही प्रिया सामान ले कर अपने बर्थ की तरफ बढ़ गई.  सही समय पर ट्रेन चल पड़ी. आरंभिक बातचीत के साथ ही प्रिया ने अपनी लोअर बर्थ मां को ऑफर कर दी. उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया क्यों कि उन्हें घुटनों में दर्द रहने लगा था. वैसे भी बारबार ऊपर चढ़ना उन्हें पसंद नहीं था. उन की नजरों में प्रिया के प्रति स्नेह के भाव झलक उठे. प्रिया एक नजर में उन्हें काफी शालीन लगी थी. दोनों बैठ कर दुनिया जहान की बातें करने लगे. मौका देख कर प्रिया ने उन्हें अपने बारे में सारी बेसिक जानकारी दे दी कि कैसे वह दिल्ली में रह कर जॉब कर रही है और इस तरह अपने मांबाप का सपना पूरा कर रही है. दोनों ने साथ ही खाना खाया। प्रिया का खाना चखते हुए मां ने पूछा,” किस ने बनाया? तुम ने या कामवाली रखी है?”

दीयों की चमक- भाग 2: क्यों बदल गया भाभियों का प्यार

मुन्ना उदास हो गया. उस का बालसुलभ मन इन विसंगतियों को समझ नहीं सका. रमा किसी प्रकार अपना पैर संभालसंभाल मंजिल तक पहुंची. सामने खड़े अवध उसे एकटक देख रहे थे. नज़रें मिलते ही उन्होंने आंखें  झुका लीं.

कितने स्मार्ट लग रहे हैं अवध. लगता है नया सूट सिलवाया है- रौयल ब्लू पर लाल टाई, कार भी न‌ई खरीदी है. अरे वाह, क्षणभर के लिए ही सही उस की आंखें चमक उठीं.

मुन्ना पापा को देखते ही दौड़ पड़ा, “बाय मम्मी.”

“बाय.”

“पापा, न‌ई गाड़ी किस की है?” पापा को पा कर मुन्ना  सारे जग को भूल जाता है, शायद मां को भी.

“तुम्हारी है. तुम्हें कार की सवारी पसंद है न.”

“सच्ची, मेरे लिए, मेरी है,” उसे विश्वास नहीं हो रहा था.

पिछले सप्ताह वह मामा के कार में ताकझांक कर रहा था. उसे मामा के बेटे ने हाथ पकड़  कर ढकेल दिया था.

“मैं भी गाड़ी में बैठूंगा,” मुन्ने का मन कार से निकलने का नहीं कर रहा था.

मामा का  बेटा उसे परास्त करने का तरीका सोच ही रहा था, उसी समय बड़ी मामी सजीधजी कहीं जाने के लिए निकली. मुन्ने को कार में ढिठाई करते देख सुलग पड़ी, “पहले घर, अब कार. सब में इस को हिस्सा चाहिए. इन मांबेटा ने जीना दूभर कर दिया है, सांप का बेटा संपोला.”

मामी की कटुक्तियां  वह समझा या नहीं, लेकिन इतना अवश्य समझ गया कि इस खूबसूरत कार पर उस का कोई अधिकार नहीं है.

उसे, उस की मम्मी, उस के पापा से कोई प्यार नहीं करता. उस ने कार से उतरने में ही अपनी भलाई समझी. अभी जा कर मम्मी से सब की शिकायत करता हूं.

लेकिन मम्मी है कहां? वह रसोई में शाम की पार्टी की तैयारी में जुटी थी. बड़े मामा का प्रमोशन हुआ था और उन के शादी की सालगिरह भी थी. सभी व्यस्त थे, खरीदारी, घर की सजावट, रंगरोगन में. फ़ालतू तो वह और उस की मम्मी.

वह मम्मी के पास जा पहुंचा. आग की लपटों में मम्मी का गोरा रंग  ताम्ब‌ई हो रहा था. वह एक के बाद एक स्वादिष्ठ व्यंजन बनाने में हलकान हो रही थी. इस स्थिति में उन्हें परेशान करना सही नहीं.

“मम्मी, एक ले लूं.” लाल सुर्ख कचौड़ी की खुशबू उसे सदैव आकर्षित करती है.

मम्मी ने उंगली के इशारे से मना किया. उस के बढ़ते हाथ रुक गए.

“पूजा के बाद मिलेगा न, मम्मी?”

“हां मेरे लाल,” मम्मी ने लाड़ले को सीने से लगा लिया. मां का शरीर कितना गरम है. सीने में उबलते हुए जज़्बात चक्षु से भाप बन निकलने लगे.

“मेरा राजा बेटा, अपना होमवर्क करो. मैं थोड़ी देर में आती हूं.” वह जानता है मम्मी रात्रि के 12 बजे से पहले नहीं आने वाली. तब तक  वह  दुबक कर सो जाएगा.

मम्मी पार्टी समाप्त होने पर बचाखुचा काम समेटेंगी. 2 निवाले खाएंगी या ‘भूख नहीं है,’ कह कर छुट्टी पा लेंगी.  उसे एकबार मम्मी ने इसी तरह किसी पार्टी में एक मिठाई खाने के लिए दे दी थी. उस दिन कितना शोर मचा था. यों अपने बेटे को कुछ खाने के लिए देना दोनों मामियों को  कितना नागवार गुजरा था. उस दिन से मम्मी ने जैसे कसम खा ली थी. न कुछ उठा कर बेटे को देती थीं न खुद लेती थीं. अपने ही मांबाप के घर में; अपने लोगों के बीच दोनों मांबेटे किरकिरी बने हुए हैं.

सिर्फ मांग में सिंदूर पड़ जाने से, एक बच्चे की मां बन जाने से कोई इतना पराया हो जाता है. यही भाभियां रमा की एक‌एक अदा पर नयोछावर होती थीं. उस को खिलानेपिलाने में आगे रहती थीं. उन्हीं की नजरों में वह ऐसा गिर चुकी है.

“मम्मी, देखो, न‌ई गाड़ी मेरे लिए. तुम भी चलो, खूब घूमेंगे, पिकनिक पर जाएंगे. अपने दोस्तों को भी ले जाऊंगा,” मुन्ना खुशी से बावला हो रहा था.

अवध अपने बेटे का चमकता मुखड़ा निरेख रहे थे और रमा, बापबेटे के इस मिलन को किस प्रकार ले- हंसे या रोए. हंसना वह भूल चुकी है और रोना…इस आदमी के सामने जो उस के बेटे का बाप है.

ना, वह रोएगी नहीं. कमजोर नहीं पड़ेगी. वहां से भागना चाहती है. टूटी हुई चप्पल…हाय रे, समय का फेर.

पति कार स्टार्ट कर जा चुके थे.  मुन्ने का हिलता हाथ नजरों से ओझल हो गया. वह टूटी चप्पल वहीं फेंक नंगेपांव घर लौट आई.

मां किताब पढ़ रही थीं. भाभियां अपनेआप में मस्त. किसी का ध्यान उस की ओर नहीं. वह बिस्तर पर कटे पेड़ के समान गिर पड़ी. हृदय की पीड़ा आंखों में आंसू बन बह चली. बचपन से ले कर आज तक की घटनाएं क्रमवार याद आने लगीं…

रमा के पिता व्यापारी थे. अच्छा खातापीता परिवार. दोनों भाइयों से छोटी रमा सब की लाड़ली, सुंदर, संस्कारी.

पिता के बाद भाइयों ने कारोबार संभाल लिया. भाभियां उस पर दिलों जान छिड़कतीं. भाईबहन का प्यार देख मां फूली नहीं समातीं. रमा रूपवती, मिलनसार लड़की थी. लेकिन मां के अत्यधिक लाड़प्यार, भाइयों के संरक्षण, भाभियों का दोस्ताना व्यवहार ने उसे कुछ ज्यादा ही भावुक बना दिया था. निर्णय लेने की क्षमता का उस में विकास नहीं हो पाया था. आगापीछा नहीं जानती थी. शायद यही सब उस के सर्वनाश का कारण बना और इसी सब ने उसे आज इस विकट स्थिति में खड़ा कर दिया.

“रमा बड़ी हो गई है, उस के लिए वर ढूंढने की जिम्मेदारी तुम दोनों भाइयों की और विवाह की तैयारी दोनों भाभियों की,” मां बेटी रमा के ब्याह के लिए चिंतित थी.

भाइयों ने इसे गंभीरता से लिया और उसी दिन से शुरू हुआ उचित वर, घर की तलाश. घरवर दोनों मनोनुकूल मिलना आसान नहीं.

कहीं लड़का योग्य तो घर कमजोर. कहीं घर समृद्ध लेकिन वर रमा के योग्य नहीं. इसी बीच गांवघर की बूआ अवध का रिश्ता ले कर आईं. वे कभी अवध के रूपगुण का बखान करतीं, कभी उस के ऊंचे खानदान व धनदौलत का. रमा छिपछिप कर सुनती, अपने भावी जीवन की कल्पना में डूबतीउतराती रहती.

रिश्ता पक्का हो गया. विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ. लेनदेन में कोई कमी नहीं. वरपक्ष से कोई दबाव भी नहीं था. अवध के परिवार वालों को रमा भा गई थी. परिवार पसंद आ गया था.  शुरू में सबकुछ ठीकठाक रहा. अवध रमा पर जान छिड़कता था. मायके की तरह रमा ससुराल में भी सब की लाड़ली बनी हुई थी.

स्वयंसिद्धा- भाग 2: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

धीरे-धीरे आशुतोष के आने का वक्त भी करीब आता जा रहा था, पर इधर उस के फोन काल्स हर हफ्ते 3-4 बार आने के बजाय 10-15 दिन में आने लगे थे. देर से फोन करने का उलाहना देने पर कभी वह बिजी होने की बात बता देता तो कभी झुंझला पड़ता. पर स्मिता इंतजार करने के अतिरिक्त कर भी क्या सकती थी? इंतजार की घडि़यां जब समाप्ति के नजदीक होती हैं तो और लंबी लगने लगती हैं. घर में सब 2-4 दिन में ही आशुतोष के वापस आने की प्रतीक्षा कर रहे थे, पर फोन से बात होने पर उस ने बताया कि उस ने सरकार से अपने लिए फिर 1 वर्ष का ऐक्सटैंशन मांगा है.

‘‘पर क्यों?’’ स्मिता किंचित रोष व उलझन भरे स्वर में पूछे बिना न रह सकी थी.

‘‘स्मिता, मैं तो आना चाहता हूं, पर यहां हर वह सुविधा उपलब्ध है, जो वहां इंडिया में मेरे डिपार्टमैंट में नहीं है. मैं कोशिश कर रहा हूं कि यहां कहीं अच्छी जौब भी ढूंढ़ लूं. इस बीच यदि मुझे ट्रेनिंग का 1 साल और मिल जाता है, तो अच्छा ही है. आगे का बाद में प्लान करेंगे. तुम वहां मांबाबूजी के पास हो ही… कोई चिंता की बात तो है नहीं.’’

इस के बाद थोड़ी देर पलक व घर के अन्य सदस्यों से बात कर के आशुतोष ने फोन काट दिया. स्मिता को लगा मानो उस की किश्ती किनारे आतेआते पुन: लहरों के थपेड़ों से दूसरे किनारे जा पहुंची है. 1 वर्ष और यानी पूरे 365 दिन. उसे समझ नहीं आ रहा था इतना लंबा समय वह कैसे काटेगी. पर हकीकत तो यही थी और उसे स्वीकारना उस की मजबूरी. अनमनी सी वह अपनेआप को कामों में व्यस्त रखने का उपक्रम करती रही.

जिंदगी एक बार फिर उसी पुरानी रफ्तार से चल पड़ी थी. ट्यूशन पढ़ने वालों की संख्या भी बढ़ती गई. एक दिन कालेज के प्रिंसिपल ने स्मिता को कुछ जरूरी बात करने के लिए फोन कर के बुलाया. विज्ञान के अध्यापक के अचानक चले जाने से वह पद रिक्त पड़ा था. वहां के विद्यार्थियों के अनुरोध पर ही उन्होंने स्मिता को कालेज में लैक्चररशिप के लिए प्रस्ताव दिया था. पति के आने में अभी तो पूरा साल पड़ा था. जब घर बैठे ही इतना अच्छा अवसर मिल रहा था, तो उसे गंवाने का कोई औचित्य भी नजर नहीं आता था. घर में बड़ों की अनुमति से उस ने वह औफर स्वीकार कर लिया. फिर जल्दी ही वह सब की प्रिय अध्यापिका बन गई. उस का पढ़ाने का तरीका ही ऐसा था कि किसी को अलग से ट्यूशन की आवश्यकता महसूस ही नहीं होती थी.

स्मिता ने अपने कैरियर व घरेलू जिम्मेदारियों के बीच सही तालमेल बैठाते हुए पलक का भी प्रीनर्सरी में ऐडमिशन करा दिया था. उन्हीं दिनों अभिजीत का इंजीनियरिंग में चयन हो जाने से वह रुड़की चला गया. कालेज का खुशनुमा माहौल, व्यस्त दिनचर्या एवं एक सहअध्यापिका अंजलि से अच्छी जानपहचान हो जाने से स्मिता का वक्त अच्छा कटने लगा था. अंजलि के पति डा. सुनील बहल भी आशुतोष के साथ ही अमेरिका गए थे. वे अवधि पूरी होने पर लौट आए थे. अंजलि व स्मिता अकसर एकदूसरे से अपने दिल की बातें करती रहती थीं. जल्दी ही उन में गहरी दोस्ती हो गई.

एक दिन बातों ही बातों में अंजलि ने झिझकते हुए पूछा, ‘‘स्मिता, एक बात पूछूं… बुरा तो नहीं मानोगी?’’

‘‘अरे पूछो न… भला तुम्हारी बात का क्यों बुरा मानूंगी.’’

‘‘सब लोग वापस आ गए हैं पर डा. राणा वहीं क्यों रुक गए?’’

‘‘दरअसल, वहां उन्हें कुछ और काम करना था. उन्होंने सरकार से 1 साल का ऐक्सटैंशन और मांगा है.’’

स्मिता के सहज ढंग से कहे गए उत्तर से अंजलि आश्वस्त नहीं हुई. स्मिता को लगा वह कुछ कहना चाह रही है, परंतु संकोचवश कह नहीं पा रही.

आखिर उस ने ही पूछा, ‘‘तुम कुछ परेशान लग रही हो? क्या बात है?’’

‘‘पता नहीं मुझे कहनी चाहिए या नहीं… पर तुम तो मेरी दोस्त हो इसलिए तुम्हें अंधेरे में नहीं रखना चाहती हूं,’’ अंजलि हर शब्द तोलतोल कर कह रही थी.

उस के बोलने की संजीदगी से स्मिता का हृदय आशंका से धड़कने लगा था. शंकाएं नागफनी की तरह सिर उठाने लगी थीं. वह धीरे से केवल यही पूछ सकी, ‘‘कुछ कहो तो…’’

‘‘वहां मेरे पति सुनील डा. राणा के रूममेट थे. वे कह रहे थे कि डा. राणा की उसी इंस्टिट्यूट की एक अमेरिकन रिसर्च स्कौलर से कोर्टशिप चल रही थी और शायद जल्दी ही…’’

बीच में ही उस की बात काटती स्मिता बोल उठी, ‘‘नहींनहीं, ऐसा कुछ नहीं हो सकता. जरूर डा. बहल को कोई गलतफहमी हुई होगी. आशु तो हम सब को बहुत प्यार करते हैं… भला वे ऐसा क्यों करेंगे?’’

‘‘हो सकता है तुम्हारी बात ही सच हो. पर तुम्हें आगाह करना मैं ने अपना फर्ज समझा… तुम बुरा न मानना,’’ उस ने पुन: क्षमायाचना करते हुए कहा.

उस दिन स्मिता मन ही मन बेहद चिंतित हो उठी थी. पति द्वारा किए जाने वाले फोन काल्स में बढ़ता समय अंतराल, संक्षिप्त होती जा रही बातचीत, बात करने का ढंग, सभी कुछ कहीं न कहीं अंजलि की बात का ही तो समर्थन करता प्रतीत हो रहा था. मांबाबूजी को वह क्या बताती? अभी तो वही उस बात पर विश्वास नहीं कर पा रही थी. उस ने निश्चय कर लिया था कि रात में वह स्वयं आशुतोष से इस विषय पर बात करेगी. या तो वह पैसा कमाने की धुन छोड़ कर यहीं आ जाए या उसे व पलक को भी वहीं बुला ले. समस्याओं का कुछ हल सूझता दिखा तो मन कुछ शांत हुआ. डा. सुनील को जरूर कोई गलतफहमी हुई होगी. मेरे साथ इतना बड़ा विश्वासघात नहीं हो सकता. व्यर्थ ही मैं मन में शक पाल रही हूं.

सारे काम निबटा कर उस ने कई बार फोन मिला कर बात करनी चाही पर आशंका से कांपती उंगलियों से डायल करना उस दिन उसे अत्यंत दुरूह लग रहा था. यदि अंजलि की बात सच निकली तो…? अजीब ऊहापोह की स्थिति हो रही थी. आखिर दिल कड़ा कर के उस ने आशुतोष का मोबाइल नंबर डायल कर ही दिया. उधर रिंग जा रही थी मगर फोन उठ नहीं रहा था. तभी उसे ध्यान आया यहां तो रात है मगर वहां तो अभी दिन होगा. हो सकता है कि आशुतोष काम पर जाने के लिए तैयार हो रहे हों.

वह फोन काटने ही वाली थी कि तभी उधर से किसी स्त्री का अमेरिकन लहजे में स्वर उभरा, ‘‘येस… रिया फर्नांडिस हियर…’’

‘‘सौरी,’’ कह कर स्मिता ने तुरंत फोन काट दिया. शायद घबराहट में वह गलत नंबर डायल कर गई थी. पर चैक किया तो देखा नंबर तो सही डायल हुआ था. पर यह रिया फर्नांडिस कौन है? इतनी सुबह आशुतोष के पास क्या कर रही होगी? उस ने फिर फोन किया. इस बार उसे अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा.

उधर से आशुतोष की आवाज आई, ‘‘हैलो… कौन स्मिता?’’

‘‘हां… मैं ने पहले भी मिलाया था. किसी रिया ने…’’

‘‘ओ हां, उसी के यहां तो मैं पेइंग गैस्ट की तरह रह रहा हूं. तुम्हें बताने ही वाला था आजकल में…’’

‘‘मगर बिजी होंगे… है न? 15-20 दिन हो गए हैं आप का फोन आए. क्या बात है? पुराना होस्टल क्यों छोड़ दिया?’’

‘‘असल में मैं ने इंडियन गवर्नमैंट से जो

1 साल का ऐक्सटैंशन मांगा था वह उन्होंने मंजूर नहीं किया है. इसलिए मैं ने वह नौकरी छोड़ दी और यहां पार्ट टाइम जौब ढूंढ़ ली है. वह होस्टल छूटा तो अपने ही साथ रिसर्च कर रही एक दोस्त के यहां मैं बतौर पेइंग गैस्ट रहने लगा हूं.’’

‘‘तो मुझे व पलक को भी वहीं बुला लीजिए,’’ स्मिता से रहा न गया, अधीरतावश वह यह कह ही बैठी.

‘‘कम औन स्मिता… यहां मेरे रहने का ठिकाना नहीं है, तुम दोनों को कहां रखूंगा? थोड़ा सब्र करो… तुम दोनों को बाद में बुलाऊंगा,’’ उधर से झुंझलाया हुआ स्वर स्मिता के कानों से टकराया. पर वह भी आसानी से मानने वाली नहीं थी.

‘‘मैं भी वहां पार्ट टाइम जौब कर लूंगी फिर कोई दिक्कत नहीं होगी. हम लोग किस्तों पर कोई छोटा सा मकान ले लेंगे. आप अपना पता बता दें, मैं स्वयं आ जाऊंगी… या आप बुलाना ही नहीं चाहते?’’

‘‘कोई खेल है अमेरिका चले आना? वीजा बनवाना पड़ता है, पासपोर्ट बनता है… फिर पैसा चाहिए टिकट के लिए.’’

‘‘आप उस की चिंता न करो. मैं ने सब चीजें अपटूडेट करा रखी हैं. टूरिस्ट वीजा भी बन जाएगा. आप के भेजे पैसों में से भी मैं ने काफी बचत की हुई है और मैं भी अब डिग्री कालेज में लैक्चरार हो गई हूं,’’ फिर उस ने संक्षेप में पूरी बात आशुतोष को बता दी, मगर उस से कोई उत्साहजनक प्रतिक्रिया न पा कर उसे आश्चर्य नहीं हुआ.

‘‘ठीक है, फिर तुम अपनी जौब में ध्यान लगाओ. मैं बाद में तुम्हें फोन करूंगा, अभी तो मुझे अस्पताल पहुंचने की जल्दी है,’’ कह कर बगैर प्रतीक्षा किए उस ने फोन काट दिया.

स्मिता चाह कर भी आशुतोष से कुछ नहीं पूछ सकी. रिश्तों की नजाकत उस के होंठ सिए थी पर मन था कि शक के थपेड़ों से लहूलुहान हुआ जा रहा था. मानव स्वभाव है कि अंत तक आशा का दमन नहीं छोड़ना चाहता. उस ने भी खुद को समझा कर शांत करने का प्रयास किया कि लोगों का क्या है, दूसरों को हंसताबोलता देख कर कुछ भी अनुमान लगा लेते हैं. आशुतोष एक अच्छे, पढ़ेलिखे व जिम्मेदार व्यक्ति हैं. वे ऐसा कोई अशोभनीय कदम नहीं उठाएंगे. उसे खुद पर मन ही मन कुछ ग्लानि भी हुई. वह तो फिर भी यहां पूरे परिवार के साथ है, वहां परदेश में उन का कौन है… यदि दोस्त से हंसबोल लेते हैं तो कौन सा गुनाह कर दिया? उसे मन में संदेह नहीं लाना चाहिए था. जरूर डा. सुनील गलत समझे हैं. यही सब सोचते, पलक को थपकियां दे कर सुलाते वह स्वयं भी निद्रा के आगोश में चली गई.

सुबह सो कर उठी तो मन फूल सा हलका लग रहा था. अंजलि की बातों से उपजी चिंता पति से बात करने पर काफी हद तक दूर हो गई थी. व्यर्थ के विचार मन से झटक वह स्वयं को अधिक तरोताजा महसूस कर रही थी और सोच रही थी कि अंजलि को भी सब कुछ ठीक होने का विश्वास दिला देगी.

क्लास में लैक्चर देने के बाद वह स्टाफ रूम में जब थोड़ी फुरसत में अंजलि से मिली, तो उस के कुछ कहने से पहले ही अंजलि ने एक पता लिखा कागज उस की तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘स्मिता, यह पता उसी दोस्त का है, जहां डा. राणा अकसर होस्टल छोड़ कर रहने चले जाते थे. सुनील वहां से आते समय पता ले आए थे.’’

धड़कते दिल से स्मिता ने कागज ले लिया. पता रिया फर्नांडिस का ही था. उस ने कागज संभाल कर पर्स में रख लिया. आशुतोष तो अपना पता बताना टाल गया था पर आखिर स्मिता को वह कहीं न कहीं से मिल ही गया. उस ने पिछली रात पति से हुई बातचीत अंजलि को बताई कि उन्होंने रिया के घर शिफ्ट कर लेने की बात स्वयं फोन पर बताई थी. मन में चोर होता तो क्यों बताते? वह तरहतरह से अंजलि को विश्वास दिलाती रही कि वैसा कुछ नहीं होगा, जैसा कि वे लोग सोच रहे हैं. अगले वर्ष वे लौट ही आएंगे या उसे ही वहां बुला लेंगे. पर शायद अंजलि से ज्यादा वह स्वयं को सब कुछ सामान्य होने का विश्वास दिलाना चाह रही थी.

आशुतोष से बात हुए पूरा महीना निकल गया. स्मिता व घर वालों ने कई बार फोन मिलाया पर हर बार ‘मोबाइल का स्विच औफ है’ की कंप्यूटर टोन आती रही या फोन मिलते ही काट दिया जाता था. आशुतोष ने पलट कर कभी फोन नहीं किया, जिस से स्मिता के मन में पुन: शक की नागफनी उगने लगी. उस ने दबी जबान से अपनी सास को सारी बातें बता दीं. घर में मां व बाबूजी भी आशुतोष में आए परिवर्तन को महसूस कर रहे थे. आखिर इस विषय में विचारविमर्र्श कर के सर्वसम्मति से तय किया गया कि स्मिता व पलक के लिए टिकट व वीजा वगैरह का इंतजाम वे लोग करवा देंगे. पता मिल ही गया है, अत: अब अधिक देर न कर उन दोनों को वहां चले जाना चाहिए. फिर सब धीरेधीरे ठीक ही हो जाएगा. शायद बेटी का मुंह देख कर उन के बेटे के बहकते कदम ठीक राह पर आ जाएं. अभिजीत ने बाबूजी के साथ दौड़धूप कर के सारे पेपर्स पूरे करा टिकट स्मिता के हाथों में थमा दिया.

दीप दीवाली के- भाग 1: जब बहू ने दिखाएं अपने रंग-ढंग

‘‘बहू, बाथरूम में 2 दिन से तुम्हारे कपड़े पड़े हैं, उन्हें धो कर फैला तो दो,’’ सुनयना ने आंगन में झाड़ू लगाते हुए कहा.

‘‘अच्छा, फैला दूंगी, आप तो मेरे पीछे ही पड़ जाती हैं,’’ बहू ने अपने कमरे से तेज आवाज में उत्तर दिया.

‘‘इस में चिल्लाने की क्या बात है?’’

‘‘चिल्लाने की बात क्यों नहीं है. कपड़े मेरे हैं, फट जाएंगे तो मैं आप से मांगने नहीं आऊंगी. जिस ने मेरा हाथ पकड़ा है वह खरीद कर भी लाएगा. आप के सिर में क्यों दर्द होने लगा?’’

बहू अपने कमरे से बोलती हुई बाहर निकली और तेज कदमों से चलती हुई बाथरूम में घुस गई और अपना सारा गुस्सा उन बेजान कपड़ों पर उतारती हुई बोलती जा रही थी, ‘‘अब इस घर में रहना मुश्किल हो गया है. मेरा थोड़ी देर आराम करना भी किसी को नहीं सुहाता. इस घर के लोग चाहते हैं कि मैं नौकरानी बन कर सारे मकान की सफाई करूं, सब की सेवा करूं जैसे मेरा शरीर हाड़मांस का नहीं पत्थर का है.’’

अपने इकलौते बेटे अखिलेश के लिए सुनयना ने बहुत सी लड़कियों को देखने के बाद रितु का चुनाव किया था. दूध की तरह गोरी और बी.काम. तक पढ़ी सर्वांग सुंदरी रितु को देखते ही सुनयना उस पर मोहित सी हो गई थीं और घर आते ही घोषणा कर दी थी कि मेरी बहू बनेगी तो रितु ही अन्यथा अखिलेश भले ही कुंआरा रह जाए.

इस तरह सुनयना ने 2 साल पहले अपने बेटे का विवाह रितु से कर दिया था.

रितु अपने पूरे परिवार की लाड़ली थी, विशेषकर अपनी मां की. इसलिए वह थोड़ी जिद्दी, अहंकारी और स्वार्थी थी. उस के घर मेें उस की मां का ही शासन था.

बचपन से रितु को मां ने यही पाठ पढ़ाया था कि ससुराल जाने के बाद जितनी जल्दी हो सके अपना अलग घर बना लेना. संयुक्त परिवार में रहेगी तो सासससुर की सेवा करनी पड़ेगी.

वैसे तो सुनयना के परिवार में भी किसी चीज की कमी नहीं थी, पर रितु के परिवार के मुकाबले उन की स्थिति कुछ कमजोर थी. सुनयना के पति रामअवतार एक कंपनी में हैड अकाउंटेंट थे. वेतन कम था पर उसी कम वेतन में उन की पत्नी सुनयना अपने घर को बड़े ही सलीके से चला रही थीं, साथ ही अपने इकलौते बेटे अखिलेश को भी उन्होंने अच्छी शिक्षा दिलवाई थी. इस समय अखिलेश एक विदेशी कंपनी में प्रोजैक्ट मैनेजर के पद पर कार्य कर रहा था, जिस की शाखाएं देश भर के बड़ेबड़े शहरों में थीं. अखिलेश को अकसर अपनी कंपनी की अलगअलग जगह की शाखाओं का दौरा करना पड़ता था.

अखिलेश जानता था कि कितनी कठिनाई से उस के मम्मीपापा ने उसे अच्छी शिक्षा दिलवाई है, इसलिए उस का झुकाव हमेशा अपने मातापिता और अपने घर की ओर रहता था. वह अपने वेतन में से कुछ रितु को दे कर बाकी पैसा अपनी मम्मी के हाथों में रख देता था.

2-3 महीने तो रितु ने यह सब देख कर सहन किया. यहां की सारी स्थितियों की जानकारी वह अपनी मां को बताना कभी नहीं भूलती थी. हर रात दिनभर की घटनाओं की जानकारी वह अपनी मां को दे दिया करती और मां उसे अपना गुरुमंत्र देना कभी नहीं भूलती थीं.

करीब 3 महीने बाद रितु ने पहले तो अपने पति पर शासन करना शुरू किया और जब वहां बात नहीं बनी तो उस ने अपनी सास सुनयना से बातबात में झगड़ा करना शुरू कर दिया. एक बार जो उस का मुंह खुला तो उस ने सुनयना की हर ईंट का जवाब पत्थर से देना शुरू कर दिया. अब तो इस घर में हर दिन सासबहू में झगड़ा होने लगा. जिस घर में रितु के आने से पहले जो शांति थी, अब उस शांति का वहां नामोनिशान भी न रहा.

अब सुनयना की दोपहर घर से थोड़ी दूर एक कमरे में गरीब बच्चों को पढ़ाने में व्यतीत होने लगी. रामअवतार एक शांतिप्रिय व्यक्ति होने के नाते दोनों को कुछ भी कह नहीं पाते थे. पत्नी को अधिक प्यार करते थे इसलिए उसे अपने तरीके से समझा दिया और बहू के मुंह लगना उचित नहीं समझते थे इसलिए वे अपने आफिस से लेट आने लगे.

अखिलेश की भी यही स्थिति थी. जिस मां ने तमाम मुसीबतें झेल कर उसे पालापोसा, पढ़ालिखा कर इस लायक बनाया कि वह इज्जत की रोटी कमा सके उन से वह कठोर बातें बोल ही नहीं सकता था. लेकिन रितु के सामने उस की हिम्मत ही नहीं होती थी. उधर रितु रातदिन अखिलेश के कान भरने लगी कि अब वह इस घर में नहीं रहेगी. उसे या तो वह उस के मायके पहुंचा दे या दूसरा मकान किराए पर ले कर रहे.

शाम को जब अखिलेश आफिस से आया तो सीधे अपने कमरे में गया. कमरे में रितु बाल बिखेरे, अस्तव्यस्त कपड़ों में गुस्से में बैठी थी. अखिलेश ने उस से पूछा, ‘‘आज क्या हुआ. इस तरह क्यों बैठी हो? आज फिर मां से झगड़ा हुआ क्या?’’

‘‘और क्या? तुम्हारी मां मुझ से प्यार से बात करती हैं?’’ शेरनी की तरह गुर्राते हुए रितु ने कहा और उस की आंखों से आंसू बहने लगे. इसी के साथ दोपहर का सारा वृत्तांत रितु ने नमकमिर्च लगा कर बता दिया. पुरुष सब सह सकता है पर सुंदर स्त्री के आंसू वह सहन नहीं कर सकता. अखिलेश ने फौरन अपना निर्णय सुना दिया कि वह कल ही इस घर को छोड़ देगा. यह बात सुनते ही रितु के आंसू कपूर की भांति उड़ गए.

सोतेजागते रात गुजर गई. सुबह जल्दी उठ कर अखिलेश घर से निकल गया और करीब 2 घंटे बाद घर आ कर मां से बोला कि मैं ने अलग मकान देख लिया है और रितु के साथ दूसरे मकान में जा रहा हूं.

मां ने कहा, ‘‘अपने पापा को आ जाने दो, उन से बात कर के चले जाना.’’

‘‘नहीं, मां. अब मैं किसी का इंतजार नहीं कर सकता. हर दिन कलह से अच्छा है अलग रहना. कम से कम शांति तो रहेगी.’’

‘‘ठीक है. मैं तुम्हें रोकूंगी नहीं क्योंकि अब तुम बच्चे नहीं रहे, जैसा तुम्हें ठीक लगे करो. तुम्हें जिस सामान की जरूरत हो ले जा सकते हो और वैसे भी यह सबकुछ तुम्हारा ही है,’’ कांपती हुई आवाज में अखिलेश से कह कर सुनयना ड्राइंगरूम में जा कर बैठ गईं. उस समय उन की आंखों में आंसू थे, जिन्हें वे अपने आंचल से बारबार पोंछ रही थीं.

थोड़ी देर बाद अखिलेश जा कर एक छोटा ट्रक ले आया, साथ में 2 मजदूर भी थे. मजदूरों ने सामान को ट्रक में चढ़ाना शुरू कर दिया. आधे घंटे बाद उसी ट्रक में दोनों पतिपत्नी भी बैठ कर चले गए.

सुनयना की हिम्मत नहीं हुई कि वे बाहर निकल कर उन दोनों को जाते हुए देखें.

शाम को जब रामअवतारजी आफिस से आए तब उन्हें अपनी पत्नी सुनयना से सारी जानकारी मिली. दुख तो बहुत हुआ पर हर दिन के झगड़े से अच्छा है, दोनों जगह शांति तो रहेगी. यह सोच कर वे चुप रहे. उस रात दोनों पतिपत्नी ने खाना नहीं खाया.

अखिलेश और रितु को गए हुए करीब 1 वर्ष हो गया था. ठीक दीवाली के 10 दिन बाद ही दोनों ने घर छोड़ा था.

स्वयंसिद्धा- भाग 4: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

बड़े भाई के भारत लौट आने का समाचार सुन कर उसे सुखद आश्चर्य हुआ, ‘‘चलिए अच्छा ही हुआ, जो वे वापस आ गए. आप से अनुरोध है कि कोई भी निर्णय लेने से पहले अच्छी तरह सोचविचार कर लीजिएगा.’’

‘‘हां सोचूंगी… अभी कुछ नहीं कह सकती,’’ कह कर स्मिता ने थोड़ी देर कविता व रोहित से बात कर के फोन रख दिया.

पलक के लौटने पर स्मिता ने उसे अभिजीत के फोन के बारे में बताया तो डैक औन करती पलक बोली, ‘‘क्या मां… पढ़ाई पूरी हुई नहीं कि बस शादी की जल्दी पड़ गई आप को.’’

प्यार से बेटी को देखती स्मिता उस का सिर सहलाते हुए बोली, ‘‘बेटा, पढ़ाई जितनी चाहे करो, पर बेटियां तो पराया धन होती हैं. एक न एक दिन तो उन्हें जाना ही होता है. जब अच्छा रिश्ता मिल रहा है तो अभी करने में हरज भी क्या है?’’

‘‘घरजंवाई ढूंढ़ लो मां. मैं कहीं नहीं जा रही हूं आप को छोड़ कर…’’ लापरवाही से पलक बोली.

‘‘धत पगली… इतनी बड़ी हो गई है, पर बचपना नहीं गया,’’ मां ने मीठी झिड़की देते हुए कहा.

कुछ ही दिनों बाद अभिजीत ने फोन पर स्मिता को खुशखबरी दे दी कि उन लोगों को फोटो में पलक बेहद पसंद आई है. बस, 2 दिन बाद विवेक के आने का इंतजार है, ताकि वे दोनों भी एकदूसरे को देखसमझ लें तो रिश्ता पक्का कर दिया जाए. फिर उन के आने का दिन व समय बता कर उस ने फोन रख दिया.

स्मिता ने अतिथियों को सम्मानपूर्वक अंदर ला कर ड्राइंगरूम में बैठाया. आरंभ में औपचारिक वार्त्तालाप चलता रहा पर जल्द ही उन लोगों के सुलझे व्यक्तित्व के कारण वातावरण दोस्ताना हो गया.

आकर्षक एवं सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी विवेक को नापसंद करने का कोई प्रश्न ही नहीं था. स्मिता ने तो मन ही मन पलक के साथ उस की जोड़ी की कामना भी कर डाली.

स्मिता का परिवार सिंह दंपती के साथ बातों में व्यस्त था. पलक और विवेक बाहर लौन में टहल रहे थे. तभी बातों के बीच अचानक पलक ने विवेक से पूछ ही लिया, ‘‘क्या आप हमेशा विदेश में ही रहना चाहेंगे?’’

‘‘डिपैंड करता है इस पर कि आगे क्या परिस्थितियां रहती हैं. वैसे, मैं सोचता हूं कि कुछ वर्षों बाद यहीं लौट आऊं. यहां कुछ सालों में पापा भी रिटायर हो जाएंगे. ये लोग शायद ही वहां जाना चाहें. आप किस तरह के परिवार में विश्वास रखती हैं, एकल या सम्मिलित?’’

‘‘मैं तो यही समझती हूं कि यदि पीढि़यों की शृंखला आपस में प्रतिबद्ध रहे तो परिवार में समृद्धि व खुशहाली स्वयं आ जाती है और अगर परिवार से किसी सदस्य को कभी दूर जाना भी पड़ता है, तो यही दूरी केवल स्थानों की होनी चाहिए, न कि दिलों की.’’

पलक के कथन से विवेक प्रभावित हुए बिना न रह सका, ‘‘बिलकुल सच कह रही हैं आप. आप को विदेश जाना पसंद नहीं, लेकिन अभी मुझे 2-3 साल तो वहां लगेंगे ही.’’

देखते ही देखते पूरा दिन कब कैसे निकल गया, किसी को पता ही नहीं चला. पलक व विवेक की परस्पर सहमति जान कर संबंध पक्का करने के लिए शगुन स्वरूप विवेक के मातापिता ने केवल 1 रुपया स्वीकार किया. विवेक के लौटने से पहले ही शादी की तिथि निकल आई थी, इसलिए दोनों पक्षों ने जोरशोर से विवाह की तैयारियां आरंभ कर दीं.

आशुतोष को इंडिया आए 1 हफ्ता होने को आ रहा था. फोन पर वह रिया का हालचाल भी लेता रहता था, साथ ही शहर के कुछ नर्सिंग होम्स में जौब के लिए भी प्रयासरत था.

स्मिता के बेरुखी से पेश आने के बाद वह पुन: घर जाने में हिचक रहा था और फोन पर जब भी उस ने बात करने का प्रयास किया, स्मिता ने फोन काट दिया. तब उस ने अभिजीत का नंबर मिलाया तो उसे पता चला कि वे लोग इस समय यहीं आए हुए हैं. सुन कर उसे कुछ ढाढ़स बंधा. आखिर अगले दिन वह फिर से घर पहुंचा. स्मिता उस दिन कविता के साथ शौपिंग के लिए बाजार गई हुई थी. घर पर केवल पलक व अभिजीत ही थे.

कालबैल बजने पर अभिजीत ने ही दरवाजा खोला. इतने वर्षों बाद अचानक भाई को सामने देख कर उसे सुखद एहसास हुआ.

‘‘भैया आप… आइए अंदर आइए…’’ वह बोला.

थोड़ी हिचक के बाद आशुतोष अंदर आ गया. नजरें पलक व स्मिता को ढूंढ़ रही थीं. उस का आशय भांप अभिजीत ने भाई को स्मिता व कविता के शौपिंग के लिए गए होने की बात बताने के साथ ही पलक की शादी तय होने की खुशखबरी भी सुना दी. इतने वर्षों बाद परिवार से मिलने की खुशी आशुतोष की आंखों से साफ झलक रही थी.

तभी उसे भाई का शिकायत भरा स्वर सुनाई दिया, ‘‘आप ने ऐसा क्यों किया भैया? भाभी ने मुझे फोन पर आप के आने की बाबत बताया था. आने में इतनी देर क्यों की?’’

‘‘तुम सब को नाराज होने का पूरा हक है. शायद मेरी मति ही मारी गई थी, जो अच्छेभले परिवार को छोड़ कर वहां की मृगमरीचिका में भटकता रहा. शुरू में जब गया था तब वक्त

की रिक्तता तो रिया के साथ से भर गई, परंतु दिल शांति से खाली होता गया. दिलोदिमाग पर सदैव कुछ गलत कर बैठने का अपराधबोध हावी रहा. पर रोनित से स्मिता की तबीयत के बारे में सुन कर मैं खुद को रोक नहीं सका. आना तो हम दोनों ही चाहते थे पर रिया आ नहीं सकती थी, इसलिए मैं और नहीं रुक पाया. अब मैं यहां आ कर अपने साथ उस की तरफ से भी क्षमा मांगना चाहता हूं. स्मिता का दर्द उस ने और मैं ने साथसाथ ही जिया है. कभीकभी कुछ लमहों की गलती की सजा हम पूरी उम्र भुगतते रहते हैं,’’ कहतेकहते आशुतोष का गला भर आया.

भाई को पश्चात्ताप की अग्नि में जलता देख अभिजीत द्रवित हो उठा. सांत्वनापूर्वक उस का हाथ अपने हाथों में ले कर ढाढ़स बंधाता हुआ बोला, ‘‘दिल छोटा न कीजिए भैया… मैं भाभी से बात करूंगा. पलक भी बहुत समझदार बच्ची है, मैं बुलाता हूं उसे.’’

तभी पलक स्वयं आ कर अपने छोटे पापा के पास बैठ गई. आगंतुक के प्रति अभिवादन की भी उपेक्षा दर्शा उस ने अपने पिता के प्रति दिल में भरी नफरत का स्पष्ट इजहार कर दिया था. परंतु आशुतोष की बेटी से मिलने की खुशी इस तिरस्कार से कहीं अधिक थी. कांपते वात्सल्यपूर्ण स्वर में आशुतोष बोल उठा, ‘‘यहां आओ बेटी… मेरे पास आ कर बैठो… अपने पापा को नहीं पहचाना? मैं तुम से भी क्षमा…’’

एक उपेक्षा भरी निगाह पिता पर डाल वह बीच में ही लापरवाही से बोली, ‘‘क्षमा… मैं कौन होती हूं क्षमा करने या दंड देने वाली? होश संभालने से ले कर अब तक मैं ने अपनों में आप को तो कहीं नहीं पाया और अपने परिवार से मुझे भरपूर प्यार मिला है. कभी आप की कमी महसूस नहीं हुई. मैं नहीं जानती आप कौन हैं और ये कहानियां यहां क्यों सुना रहे हैं?’’

‘‘कह लो बेटी… दिल में भरा सारा गुस्सा निकाल लो. मुझे बुरा नहीं लगेगा…’’ आशुतोष को बेटी की जलीकटी भी फूल झरने जैसी लग रही थी.

तभी अभिजीत को कुछ ध्यान आया, ‘‘भैया, आप ठहरे कहां हैं?’’

‘‘होटल में… क्यों?’’

‘‘आप अपना सामान यहीं ले आइए. अगले हफ्ते ही पलक की शादी है. आप समय से ही आए हैं. अब आप भी भाभी के साथ कन्यादान कर सकेंगे.’’

आशुतोष के कुछ कहने से पहले ही पलक झटके से उठ खड़ी हुई, ‘‘ऐक्स्क्यूजमी, छोटे पापा… मेरे लिए मेरी मां ही मातापिता दोनों हैं. हमें इन की कोई जरूरत नहीं है. हां, इन के लिए गैस्टरूम खुलवा दूंगी, चाहें तो वहां रुक सकते हैं.’’

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करवा चौथ 2022: करवाचौथ- पति अनुज ने क्यों दी व्रत न रखने की सलाह?

‘‘कितनी बार समझाया है तुम्हें इन सब झमेलों से दूर रहने को? तुम्हारी समझ में नहीं आता है क्या?’’ अनुज ने गुस्से से कहा.

‘‘गुस्सा क्यों करते हो? तुम्हारी लंबी उम्र के लिए ही तो रखती हूं यह व्रत. इस में मेरा कौन सा स्वार्थ है?’’ निशा बोली.

‘‘मां भी तो रखती थीं न यह व्रत हर साल. फिर पापा की अचानक क्यों मौत हो गई थी? क्यों नहीं व्रत का प्रभाव उन्हें बचा पाया? मैं ने तो उन्हें अपना खून तक दिया था,’’ अनुज ने अपनी बात समझानी चाही.

‘‘तुम्हें तो हर वक्त झगड़ने का बहाना चाहिए. ऐसा इनसान नहीं देखा जो परंपराएं निभाना भी नहीं जानता,’’ निशा बड़बड़ाती रही.

अनुज ने निशा की आंखों में आंखें डालते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे भूखा रहने से ही मेरी उम्र बढ़ेगी, ऐसा ग्रंथों में लिखा है तो क्या सच ही है? ग्रंथों में तो न जाने क्या अनापशनाप लिखा हुआ है. सब मानोगी तो मुंह दिखाने लायक न रहोगी.’’ निशा बुरा सा मुंह बना कर बोली, ‘‘आप तो बस रहने दो. आप को तो बस मौका चाहिए मुझ पर किसी न किसी बात को ले कर उंगली उठाने का… मौका मिला नहीं तो जाएंगे शुरू सुनाने के लिए.’’

‘‘बात मौके की नहीं अंधविश्वास पर टिकी आस्था की है. ब्राह्मणों द्वारा विभिन्न प्रकार की धार्मिक रूढियों के जरीए स्त्री को ब्राह्मणवादी पित्रसत्ता के अधीन बनाए रखने की है.’’

‘‘बसबस आप तो चुप ही करो. क्यों किसी के लिए अपशब्द कहते हो. इस में ब्राह्मणों का क्या कुसुर… बचपन से सभी औरतों को यह व्रत करते हुए देख रही हूं. हमारे घर में मेरी मां भी यह व्रत करती हैं… यह तो पीढ़ी दर पीढ़ी चल रहा है.’’

अनुज अपने गुस्से को काबू करते हुए बोला, ‘‘व्रत, पूजापाठ ये सब ब्राह्मणों ने ही बनाए ताकि ज्यादा से ज्यादा आम लोगों को ईश्वर और भाग्य का भय दिखा कर अपना उल्लू सीधा कर सकें. उन्हें शारीरिक बल से कमजोर कर उन पर पूरी तरह से कंट्रोल कर के मानसिक बेडि़यां पहनाई जा सकें. तुम तो नहीं मानती थीं ये सब… क्या हो गया शादी के बाद तुम्हारी मानसिकता को? इतना पढ़ने के बाद भी इन दकियानूसी बातों पर विश्वास?’’ यह आस्था, अंधविश्वास सिर्फ इसलिए ही तो है ताकि आस्था में कैद महिलाओं को किसी भी अनहोनी का भय दिखा कर ये ब्राह्मण, ये समाज के ठेकेदार हजारों वर्षों तक इन्हीं रीतिरिवाजों के जरीए गुलाम बनाए रख सकें. यही तो कहती थीं न तुम?’’

‘‘मैं ने करवाचौथ का व्रत आप से प्रेम की वजह से रखा है… आप की लंबी आयु के लिए.’’

‘‘तुम मेरे जीवन में मेरे संग हो यही काफी है. तुम्हें अपना प्यार साबित करने की कोई जरूरत नहीं. हम हमेशा हर तकलीफ में साथ हैं. यह एक दिन का उपवास कुछ साबित नहीं करेगा. वैसे भी तुम्हारे लिए भूखा रहना सही नहीं.’’

मुझे आप से कोई बहस नहीं करनी. हम  जिस समाज में रहते हैं उस के सब कायदेकानून मानने होते हैं. आप जल में रह कर मगर से बैर करने के लिए मत कहो… कल को कोई ऐसीवैसी बात हो गई तो मैं अपनेआप को कभी माफ नहीं कर पाऊंगी. आप चुपचाप घर जल्दी आ जाओ… मैं एक दिन भूखी रहने से मरने वाली नहीं हूं,’’ निशा रोंआसे स्वर में बोली.

पत्नी की जिद्द और करवाचौथ के दिन को महाभारत में बदल जाने की विकट स्थिति के बीच अनुज ने चुप हो जाना ही बेहतर समझा. तभी मां ने आवाज लगाई, ‘‘क्यों बेकार की बहस कर रहा है निशा से… औफिस जा.’’

‘‘अनुज नाराजगी से चला गया. उसे निशा से ऐसी बेवकूफी की आशा नहीं थी पर उस से भी ज्यादा गुस्सा उसे अपनी मां पर आ रहा था, जो इस बेवकूफी में निशा का साथ दे रही थीं. कम से कम उन्हें तो यह समझना चाहिए था. वे खुद 32 साल की उम्र से वैधव्य का जीवन जी रही हैं. सिर्फ 2 साल का ही तो था जब अचानक बाप का साया सिर से उठ गया.

अनुज को आज महसूस हो रहा था कि स्त्री मुक्ति पर कही, लिखी जाने वाली बातों का तब तक कोई औचित्य नहीं जब तक कि वे खुद इस आस्था और अंधविश्वास के मायाजाल से न निकलें. सही कह रहा था संचित (दोस्त) कि शुरुआत अपने घर से करो. गर एक की भी सोच बदल सको तो समझ लेना बदलाव है.

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