खोखली होती जड़ें: किस चीज ने सत्यम को आसमान पर चढ़ा दिया

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सही पकड़े हैं: भाग 3- कामवाली रत्ना पर क्यों सुशीला की आंखें लगी थीं

रत्ना उन की हालत देख कर हंसने लगी, ‘‘ठीक है, नहीं कहूंगी बाबूजी, पर एक शर्त है, अम्माजी को तो आप समझाओ कैसे भी कर के, हर वक्त वे मेरे पीछे पड़ी रहती हैं.’’ ‘‘तू चिंता मत कर उस का बंदोबस्त हो जाएगा.’’

उन के दिमाग में शरारती योजना घूम ही रही थी पर अब बच्चों को नहीं शामिल कर सकते, बच्चे तो सब को ही बता देंगे. फिर मैं सुशीला बहन को ब्लैकमेल कैसे कर पाऊंगा कि रत्ना को इन से बचा सकूं और रत्ना से अपने को. वरना तरुण, अदिति, तारा सब तक मेरी बात पहुंच गई तो मेरा जीना मुहाल हो जाएगा. सिर्फ परहेजी खाना, उफ्फ… क्यों बढि़याबढि़या मिठाईरबड़ी न खाऊं, मरे हुए सा सौ साल जियूं इसलिए… तो जीने का फायदा क्या?’ मनपसंद चीजों का दिमाग में खुला इंसायक्लोपीडिया देशी घी के बेसन के लड्डू, चमचम, रसमलाई… उन्हें बेचैन किए जा रहा था.

‘कुछ भी हो, सुशीला बहन को मुझे जल्दी, अकेले ही रंगेहाथ पकड़ना होगा. वरना रत्ना, बहनजी से तंग आ कर सब को मेरा सच बता देगी और मैं सूक्ष्म फलाहारी, परहेजी बाबा बन कर कहीं का नहीं रहूंगा.’ दिन में खाने के बाद एक घंटे बच्चों का सोने का टाइम और रात के खाने के बाद 9 बजे के बाद का समय, जब सुशीला बहन सब से नजरें बचा, अपना मिर्चखटाईर् का शौक पूरा करती होंगी क्योंकि नाश्ता भले ही साथ कर लेती हैं पर आदत का बहाना बता कर रात के खाने का अपना अलग ही टाइम बना रखा है, तभी पकड़ता हूं. अपने को बचाने का यही एक चारा है,’ तेजप्रकाश दिमाग की धार तेज किए जा रहे थे. आखिरकार दूसरे दिन ही सुशीला जैसे ही अपना खाना परोस कर कमरे में ले गईं, तेजप्रकाश दबेपांव उन के पीछे हो लिए. सुशीला ने पास पड़े स्टूल पर अपना खाना, पानी रखा, दरवाजा भेड़ा और परदा खींच कर तसल्ली से बैग का लौक खोल कर पसंदीदा लालमिर्च का अचार बड़े प्रेम से निकाला और साथ में चटपटी पकी इमली भी. प्लेट में नमक के ऊपर सजी बड़ीबड़ी 2 हरीमिर्चें देख परदे के पीछे खड़े तेजप्रकाश के मुंह से सीसी निकल रही थी, उस पर से यह और कि कैसे खा पाती हैं ये सब.’

सुशीला के खाना शुरू करते ही तेजप्रकाश सामने आ गए, ‘‘सही पकड़े हैं बहनजी, इतना सारा मिर्चखटाई. अदिति सही कहती है इतना मना है आप को पर चुपकेचुपके… बहुत गलत बात है.’’ वे उन का तकियाकलाम बोल कर उन्हीं के अंदाज में आंखें नचा रहे थे. सुशीला उन्हें सामने पा घबरा कर कातर हो उठीं. लिहाजन, तेजप्रकाश उन के कमरे में कभी वैसे आते न थे.

‘‘अअआप भाईसाहब, यहां, कैसे, बब…बैठिए. प्लीज, अदिति को कुछ मत कहिएगा,’’ वे खिसियाई सी बोलीं. ‘‘सही तो नहीं, पर इस उम्र में मन का खाएगा नहीं, तो आदमी करे क्या?’’

इस बात पर सुशीला थोड़ी हैरान हुईं, फिर सहज हो कर मुसकराती हुई बोलीं, ‘‘आप भी ऐसा ही मानते हैं. मैं तो घबरा ही गई थी. आप प्लीज, बताना नहीं किसी को.’’ ‘‘ठीक है, नहीं बोलूंगा, पर एक शर्त है. आप भी मेरे बारे में नहीं कहेंगी किसी से.’’

‘‘पर क्या?’’ वे सोच में पड़ गईं, ऐसा क्या है जो… ‘‘दरअसल, वह जो आप मलाई, मिठाई, चाय, चीनी सब के गायब होने के पीछे रत्ना को कारण समझती हैं, वह रत्ना नहीं, बल्कि मैं हूं.’’

‘‘क्या?’’ सुशीला का मुंह खुला रह गया. फिर वे मुंह दबा कर हंसने लगीं. ‘‘तारा, तरुण, अदिति सब मेरी जान खा जाएंगे, प्लीज.’’

‘‘फिर ठीक.’’ वे चटखारे ले कर अपना खाना खाने लगीं. ‘‘आप खाओगे?’’

‘‘नहीं बहनजी, आप मजे लो, मैं रसोई में जा कर अपनी तलब पूरी करता हूं, खौला कर स्ट्रौंग चाय बनाता हूं.’’ ‘‘इस समय?’’

‘‘आप पियोगी, बहुत बढि़या पकाने वाली मसालेदार मीठी कड़क?’’ उन के चेहरे पर राहत की मुसकान थी. ‘‘अरे नहीं, आप ही मजे लो,’’ कहती हुई उन्होंने लालमिर्च, अचार मुंह में भर लिया और हंसने लगीं.

‘‘यह भी खूब रही. और हां, बच्चों को जो चोर पकड़ने के लिए लगाया है, मना कर देना.’’ मुसकराते हुए तेजप्रकाश राहत से रसोई की ओर बढ़ गए. सोचते जा रहे थे कि ‘मैं भी कल बच्चों को कोई कहानी बना कर बहनजी को पकड़ने से मना कर दूंगा.’

इधर आंखें बंद किए बंटू और मिंकू दादू की स्टोरी से आज सो नहीं पाए थे. दादू उन्हें सोया जान कर अपने रूम में चले गए. काफी देर तक यों ही पड़े रहे. खट से हलकी सी आवाज क्या हुई, आंखें खोल कर दोनों ने एकदूसरे को कोहनी मारी. ‘‘उठ न, नींद नहीं आ रही. कोई है, लगता है.’’

‘‘हां, दादू की कहानी आज बहुत शौर्ट थी.’’ ‘‘दादू तो सोने गए, अब क्या करें?’’

‘‘सब सो गए हैं लगता है, रसोई में छोटी लाइट जल रही है. चल चोर को पकड़ते हैं.’’ दोनों पलंग से उतर कर अपनीअपनी टौयगन थाम लीं और सधे कदमों से कहतेफुसफुसाते हुए नन्हे जासूस मिशन पर चल पड़े. ‘‘तू इधर से जा बंटू, मैं उधर से, अकेला डरेगा तो नहीं?’’

‘‘बिलकुल भी नहीं.’’ ‘‘अच्छा, तो यह मम्मी का स्टौल पकड़, अगर चोरी करते कोई दिखे, पीठ पर गन लगाना और झट से स्टौल में फंसा कर चिल्लाना. सही पकड़े हैं नानी के जैसे. खूब मजा आएगा.’’

‘‘रात के एक बज रहे थे. ताली मार कर दोनों अलगअलग दिशाओं में चल पड़े.

तेजप्रकाश और सुशीला स्वाद व खुशबू का पूरा मजा ले भी न पाए कि बच्चों ने अलगअलग पर लगभग एकसाथ उन्हें धर पकड़ा और खुशी से चिल्लाए, ‘‘सही पकड़े हैं दादू…, पापा…, मम्मी…सही पकड़े हैं नानी…, मम्मी… पापा…, सब जल्दी आओ.’’

घबराए से तेजप्रकाश किचन में मलाई की चोरी बयान करती अपनी मूंछों के साथ खौलती मसालेदार कड़क चाय को देख रहे थे तो कभी सामने गुस्से में खड़े तरुण को और सुशीला अपने खुले हुए बैग से झांकती लालमिर्च, अचार और मसालेदार इमली की खुली शीशियों को, तो कभी आगबबूला हुई नजरों से उन्हें देखती अदिति को देख कर नजरें चुरा रही थीं. ‘‘अदिति, देखो अपने लाड़ले पापाजी क्या कर रहे हैं, बड़ा विश्वास है न तुम्हें इन पर?’’

‘‘शांत हो जाओ तरु, आगे से ऐसा नहीं होगा.’’ ‘‘और तुम अपनी चहेती मम्मीजी को देखो, डाक्टर ने सख्त मना किया है पर मानना ही नहीं, बच्ची बनी हुई हैं, मुझ से छिपा कर रखा था, छिपा कर, देखो ये…’’ वह एक हाथ में शीशी दूसरे से मम्मीजी को थामे रसोई में आ गई.

‘‘अदिति, सुन तो, अब ऐसा नहीं होगा.’’ तेजप्रकाश और सुशीला के हाथ बरबस अपनेअपने कानों तक चले गए, ‘‘देखो, इस बार हम सही पकड़े हैं… पर अपनेअपने कान…’’ सुशीला ने गोलगोल आंखें नचा कर कुछ यों कहा कि तरुण, अदिति की हंसी छूट गई.

‘‘कोई हमें भी तो बताए क्या हुआ,’’ दादी तारा की आवाज सुन बंटू, मिंकू भागे कि उन्हें कौन पहले बताएगा कि आज वे कैसे दादू, नानी की चोरी सही पकड़े हैं.

अंतर्भास: भाग 3- आखिर क्या चाहती थी कुमुद

बदले में कुमुद के लिए उस अफसर से उस ने सरकारी दफ्तर में कंप्यूटर क्लर्क की नौकरी मांग ली. इस तरह कुमुद को वहां फिट करवा दिया. इस अहसान के बदले कुमुद की मां से अपने लिए उस का हाथ मांग लिया. जयेंद्र कहां गलत है इस में? सौदों की दुनिया में हर कोई नफा का सौदा करना चाहता है. तुम ठहरे नासमझ और कल्पनाओं की दुनिया में जीने वाले.’’ इतना कह कर वह बेशर्मी से मुसकराया और बोला, ‘‘जिस दिन तुम कुमुद के लिए कंप्यूटर ले जा रहे थे, उस दिन मैं तुम से कहना चाहता था कि कुमुद तुम्हारे हाथ नहीं आएगी, बेकार उस पर अपना वक्त और पैसा बहा रहे हो पर तुम्हें बुरा लगेगा, इसलिए चुप रह गया था. आखिर तुम हमारे साइबर कैफे को पुलिस से बचाने में मेरी मदद करते हो, मैं तुम्हें नाराज क्यों करता?’’

‘‘तुम्हारी इस सिलसिले में कुमुद से कभी बात हुई क्या?’’ मैं ने कुछ सोच कर पूछा. मैं जानना चाहता था, आखिर कुमुद ने उस बदसूरत आदमी को क्यों पसंद कर लिया, जबकि मैं अपनेआप को उस से हजार गुना बेहतर समझता हूं. ‘‘वह तुम्हें सिर्फ एक अच्छा दोस्त मानती है. तुम्हारी इज्जत करती है. एक भला और सही आदमी मानती है. पढ़ालिखा और समझदार व्यक्ति भी मानती है. पर इस का मतलब यह तो नहीं कि वह तुम्हें अपना जीवनसाथी भी मान ले? वह जानती है कि तुम्हारा अर्थतंत्र टूटा हुआ है. तुम इस शहर को छोड़ कर कहीं बाहर जाने का जोखिम नहीं लेना चाहते. कुछ नया और अच्छा करने का हौसला तुम में नहीं है. आजकल पैसा बनाने के लिए आदमी क्या नहीं कर रहा? गलाकाट प्रतिस्पर्धा का जमाना है मित्र. लोग अपने हित के लिए दूसरे का गला बेहिचक काट रहे हैं.’’

मैं कसमसाता चुप बना रहा तो कंप्यूटर मालिक कुछ संभल कर फिर बोला, ‘‘चींटियां वहीं जाती हैं जहां गुड़ होता है. जरा सोच कर देखो, उस का फैसला कहां गलत है? तुम्हारे साथ जुड़ कर उसे क्या वह सबकुछ मिलता जो जयेंद्र से जुड़ कर मिला है…सरकारी नौकरी, 10 लाख उस के नाम बैंक में जमा. अच्छा- खासा सारी सुखसुविधाओं से युक्त मकान…तुम उसे क्या दे पाते यह सब?’’

एक दिन अचानक कुमुद मेरे चबूतरे पर चढ़ आई. उस के स्वागत में मुसकरा कर खड़ा हो गया, ‘‘आओ, कुमुद…अब तो तुम ने इधर आना ही छोड़ दिया,’’ स्वर में शिकायत भी उभर आई. ‘‘नौकरी की व्यस्तता समझिए इसे और कुछ नई जिम्मेदारियां भी,’’ उस का इशारा संभवत: अपने विवाह की तरफ था. उस के बैठने के लिए भीतर से कुरसी ले आया. ‘‘चाय पीना पसंद करोगी मेरे साथ?’’ मुसकरा रहा था. पता नहीं चेहरे पर व्यंग्य था या रोष.

‘‘चाय पीना ही पसंद नहीं करती बल्कि आप से बातचीत करना भी बहुत पसंद करती हूं पर आज चाय आप नहीं, मैं बनाऊंगी आप के किचन में चल कर,’’ वह बेहिचक घर में आई. उसे किचन बताना पड़ा. सारा सामान चाय के लिए निकाल कर उस के सामने रखना पड़ा. चाय के दौरान उस ने सधे स्वर में कहा, ‘‘मेरी एक बात मानेंगे?’’ ‘‘तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैं तुम्हारी किसी बात को इनकार नहीं कर सकता,’’ मैं ने सिर झुका लिया. ‘‘हां, इस का एहसास है मुझे. इसी विश्वास के बल पर आज आई हूं आप से कुछ कहने के लिए,’’ उस ने कहा. ‘‘कहो,’’ मैं ने उस की तरफ देखा.

‘‘अपने अफसर को राजी किया है. वह आप को अखबार के कारण जानता है. हालांकि हिचक रहा था, अखबार में काम करते हो, कहीं सरकारी दफ्तर के जो ऊंचेनीचे काम होते हैं उन की पोल तुम कभी अखबार में न खोल डालो. पर मैं ने उन्हें तुम्हारी तरफ से विश्वास दिला दिया है कि तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे, चुपचाप अपनी नौकरी करोगे.’’

‘‘मतलब यह कि तुम ने मेरी नौकरी की बात पक्की कर ली वहां. वह भी बिना मुझ से पूछे? बिना यह सूचना दिए कि मुझे वह नौकरी रास भी आएगी या नहीं? मैं कर भी पाऊंगा या नहीं? निभा भी सकूंगा सरकारी दफ्तरों के भ्रष्टाचार के साथ या नहीं?’’ मैं सवाल पर सवाल दागता चला था. ‘‘हां, बिना आप से पूछे. बिना आप को सूचित किए ही यह बात कर ली मैं ने, और मुझे इस के लिए उस अफसर को थोड़ीबहुत छूटें भी देनी पड़ीं, इतनी नहीं कि मेरी अस्मिता पर आंच आती पर किसी से हंसबोल लेना, दिखावटी थोड़ाबहुत फ्लर्ट कर लेना…अपना काम निकालने के लिए बुरा नहीं मान पाई मैं… और वह भी अपने इतने अच्छे दोस्त के लिए, अपनी दोस्ती के लिए इतना तो कर ही सकती थी न मैं,’’ वह मुसकरा रही थी.

फिर बोली, ‘‘मेरा मन कह रहा था कि मैं तुम से कहूंगी तो तुम मना नहीं करोगे. मैं जानती हूं तुम्हारे मन को…और न जाने क्यों, इतना हक भी मानती हूं तुम पर अपना कि मैं कहूंगी तो तुम मेरी बात मानोगे ही.’’ चुप रह गया मैं और दंग भी. अपलक उस के मुसकराते और गर्व से चमकते चेहरे की तरफ देखता रहा. ‘‘सरकारी दफ्तरों में हर काम गलत नहीं होता जनाब, हर आदमी भ्रष्ट नहीं होता. ऐसे बहुत से लोग हैं जो पूरी ईमानदारी और मेहनत से अपना काम करते हैं. इतने दिन काम कर के मैं भी कुछ समझ पाई हूं उस तिलिस्म में घुस कर,’’ वह बोलती जा रही थी

‘‘क्या करना होगा मुझे?’’ मैं ने उस से पूछा. ‘‘टे्रजरी दफ्तर में तमाम बिल कंप्यूटरों पर तैयार होते हैं. वेतन बिल, पेंशन बिल, सरकारी खर्चों के लेनदेन के हिसाबकिताब…उन की टे्रनिंग चलेगी आप की 6 महीने…उस के बाद स्थायी पद दिया जाएगा. शुरू में 10 हजार रुपए मिलेंगे, इस के बाद क्षमता के आधार पर संविदा पर नियुक्ति की जाएगी.’’

‘‘संविदा का मतलब हुआ, अगर काम ठीक से नहीं कर पाया तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा,’’ मैं ने शंका जाहिर की. ‘‘हमेशा हर काम को करने से पहले आप उस के बुरे पक्ष के बारे में ही क्यों सोचते हैं? यह क्यों नहीं मानते कि 6 महीने की टे्रनिंग में आप जैसा प्रतिभावान और होनहार व्यक्ति बहुतकुछ सीख लेगा और संविदा पर ही सही, अच्छा काम कर के अफसरों को अपनी उपयोगिता सिद्ध करा देगा…आप की 2 हजार रुपए की नौकरी से तो यह हजारगुनी बेहतर नौकरी रहेगी…अगर नहीं कर पाएंगे तो अखबार तो आप के लिए हमेशा रहेंगे. पत्रकारिता आप को आती है, वह कहीं भी कर लेंगे आप…परेशान क्यों हैं?’’

उम्मीद नहीं थी कि कुमुद इतनी समझदार और संवेदनशील होगी. मैं चकित, अचंभित उस के चेहरे को देखता रह गया, उसे इनकार करता तो किस मुंह से और क्यों?

लौट जाओ सुमित्रा: भाग 3- उसे मुक्ति की चाह थी पर मुक्ति मिलती कहां है

‘‘लेकिन विवाद के बाद मैं ने तो जानबूझ कर अपने अंदर की प्रतिभा को दफना दिया ताकि दोनों के अहं का टकराव न हो और पुरुषत्व हीनभावना का शिकार न हो जाए. अकसर पढ़ीलिखी बीवी की कामयाबी पति को चुभती है.’’

‘‘सही कह रही हो, ऐसा हो सकता है पर सब के साथ एक ही पैमाना लागू नहीं होता है. वह तुम्हें कामयाब देखना चाहता था, इसलिए छोटीछोटी अड़चनों से तुम्हें दूर रखना चाहा होगा और तुम स्वामित्व व अधिकार में ऐसी उलझी कि न सिर्फ अपनों से दूर होती चली गईं बल्कि यह भी मान लिया कि तुम्हारी वहां कोई जरूरत नहीं है. भूल तेरी ही है.’’

‘‘लेकिन संवेदनाओं को साझा करना क्या स्वामित्व के दायरे में आता है?’’

‘‘नहीं, वह तो जीवन का हिस्सा है, पर शायद शुरुआत ही कहीं से गलत हुई है. एक बार फिर शुरू कर के देख, तू तो कभी इतने उल्लास से भरी थी, फिर जीने की कोशिश कर.’’ समझाने की प्रक्रिया जारी थी.

‘‘कोशिशकोशिश, पर कब तक?’’ सुमित्रा त्रस्त हो उठी थी.

‘‘तू ने कभी कोशिश की?’’

‘‘बहुत की, तभी तो पराजय का अनुभव होता है.’’ सुमित्रा का मन हो रहा था कि वह झ्ंिझोड़ डाले उन्हें, क्यों बारबार उसी से समस्त उम्मीदें रखीं उन्होंने.

‘‘वह तो होगा ही, जब तब प्यार नहीं करती अपने पति से.’’

उथलपुथल सी मच गई उस के भीतर. कहीं यही तो ठीक नहीं है, पति को प्यार नहीं करती पर उस ने बेहद कोशिश की थी पूर्ण समर्पण करने की. बस, एक बार उसे यह एहसास करा दिया जाता कि वह घर की छोटीछोटी बातों का निर्णय ले सकती है. उसे चाबी का वह गुच्छा थमा दिया जाता जो हर पत्नी का अधिकार होता है तो वह उस आत्मसंतोष की तृप्ति से परिपूर्ण हो खुद ही प्यार कर बैठती. पर उसे उस तृप्ति से वंचित रखा गया जो मन को कांतिमय कर एक दीप्ति से भर देती है चेहरे को.

शरीर की तृप्ति ही काफी होती है, क्या, बस. वहीं तक होता है पत्नी का दायरा, उस के आगे और कुछ नहीं. फिर वह तो बलात्कार हुआ. इच्छा, अनिच्छा का प्रश्न कब उस के समक्ष रखा गया है. प्यार कोई निर्जीव वस्तु तो नहीं जिसे एक जगह से उठा कर दूसरी जगह फिट कर दिया जाए.

‘‘मैं ने बहुत कोशिश की और साथ रहतेरहते एक लगाव भी उत्पन्न हो जाता है, पर दूसरा इंसान अगर दूरी बनाए रखे तो कैसे पनपेगा प्यार?’’

‘‘फिर बच्चे?’’ उन्होंने तय कर लिया था कि चाहे आज सारी रात बीत जाए पर वे सुमित्रा के मन की सारी गांठें खोल कर ही दम लेंगे, चाहे उन के ध्यान का समय भी क्यों न बीत जाए.

यह कैसा प्रश्न पूछा? स्वयं इतने ज्ञानी होते हुए भी नहीं जानते कि बच्चे पैदा करने के लिए शारीरिक सान्निध्य की जरूरत होती है, प्यार की नहीं. उस के लिए मन मिलना जरूरी नहीं होता. क्या बलात्कार से बच्चे पैदा नहीं होते? मन का मिलाप न हो तो अग्नि के समक्ष लिए हुए फेरे भी बेमानी हो जाते हैं. गठजोड़ पल्लू बांधने से नहीं होता. दोनों प्राणियों को ही बराबर से प्रयास कर मेल करना होता है. एक ज्यादा करे, दूसरा कम, ऐसा नहीं होता. फिर विवाह सामंजस्य न हो कर बोझ बन जाता है जिसे मजबूरी में हम ढोते रहते हैं.

बस, बहुत हो चुका, अब चली जाएगी यहां से वह. कितना उघाड़ेगी वह अपनेआप को. नग्नता उसे लज्जित कर रही है और वे अनजान बने हुए हैं. उसे क्या पता था कि जिन से वह मुक्ति का मार्ग पूछने आई है, वे उन्हें हराने पर तुले हुए हैं.

‘‘मैं जानती हूं कि बड़ा व्यर्थ सा लगेगा यह सुनना कि मेरा पति मुझे रसोई तक का स्वामित्व नहीं देता, वहां भी उस का दखल है, दीवारों से ले कर फर्नीचर के समक्ष मैं बौनी हूं. दीवारें जब मैली हो जाती हैं तो नए रंगरोशन की इच्छा करती हैं, फर्नीचर टूट जाता है तो उसे मरम्मत की जरूरत पड़ती है, पर मैं तो उन निर्जीव वस्तुओं से भी बेकार हूं. मुझे केवल दायित्व निभाने हैं, अधिकार की मांग मेरे लिए अवांछनीय है. हैं न ये छोटीछोटी व नगण्य बातें?’’

‘‘हूं.’’ वे गहन सोच में डूब गए. ‘समस्या साफ है कि वह स्वामित्व की भूखी है ताकि घर को अपनी तरह से परिभाषित कर उसे अपना कह सके. हर किसी को अपनी छोटी सी उपलब्धि की चाह होती है. चाहे स्त्री कितनी ही सुरक्षित व आधुनिक क्यों न हो, वह भी छोटेछोटे सुख और उन से प्राप्त संतोष से युक्त साधारण जिंदगी की अपेक्षा करती है, चाहे वह दूसरों को बाहर से देखने पर कितनी ही सामान्य क्यों न लगे.’

‘‘फिर भी बेटी…’’ इतने लंबे संवाद के बाद अब उन्होंने इस संबोधन का प्रयोग किया था. वे तो समझ रहे थे कि बेकार ही घबरा कर यह पलायन करने निकल पड़ी है वरना सुखसाधनों के जिस अंबार पर वह बैठी है, वहां आत्मसंतुष्टि की कैसी कमी…सुशिक्षित, विवेकी पति, आचरण भी मर्यादित है…फिर दुख का सवाल कहां उठता है.

‘‘लौटना तो तुझे होगा ही, धैर्य रख और अपने आत्मविश्वास को बल दे. किसी रचनात्मक कार्य को आधार बना ले. ध्यान बंटा नहीं कि सबकुछ सहज हो जाएगा. तूने भी खुद को केंचुल में बंद कर के रखा हुआ है. अध्ययन, अध्यापन सब चुक गए हैं तेरे. उन्हें फिर आत्मसात कर,’’ कहते हुए शब्दों में कुछ अवरोध सा था.

पश्चात्ताप तो नहीं कहीं…

चलो बेटी तो कहा, यह सोच कर सुमित्रा थोड़ी आश्वस्त हुई. ‘‘मैं चाहती हूं आप एक बार फिर पिता बन कर देखें, तभी पुत्री की मनोव्यथा का आभास होगा. ज्ञानी, महात्मा का चोला कुछ क्षणों के लिए उतार फेंकें, बाबूजी,’’ सुमित्रा समुद्र में पत्थर मार उफान लाने की कोशिश कर रही थी, ‘‘ध्यान मग्न हो सबकुछ भुला बैठे, पलायन तो आप ने किया है, बाबूजी. माना मैं ही एकमात्र आप की जिम्मेदारी थी जिसे ब्याह कर आप अपने को मुक्त मान संसार से खुद को काट बैठे थे.

‘‘12 वर्षों तक आप ने सुध भी न ली यह सोच कर कि धनसंपत्ति के जिस अथाह भंडार पर आप ने अपनी बेटी को बैठा दिया है, उसे पाने के बाद दुख कैसा. ज्ञानी होते हुए भी यह कैसे मान लिया कि आप ने सुखों का भंडार भी बेटी को सौंप दिया है. यह निश्चितता भ्रमित करने वाली है, बाबूजी.’’ सुमित्रा का स्वर बीतती रात की भयावहता को निगलने को आतुर था. बवंडर सा मचा है. हाहाकार, सिर्फ हाहाकार.

‘‘अब इतने सालों बाद क्यों चली आई हो मेरी तपस्या भंग करने, क्या मुझे दोषी ठहराने के लिए…मैं नियति को आधार बना दोषमुक्त नहीं होना चाहता. हो भी नहीं सकता कोई पिता, जिस की बेटी संताप लिए उस के पास आई हो. लौट जाओ सुमित्रा और संचित करो अपनेआप को, अपने भीतर छिपे बुद्धिजीवी से मिलो, जिसे तुम ने 12 सालों से कैद कर के रखा है. वापस अध्यापन कार्य शुरू करो. पर दायित्व निभाते रहना, अधिकार तुम से कोई नहीं छीन पाएगा. समय लग सकता है. उस के लिए तुम्हें अपने प्रति निष्ठावान होना पड़ेगा.

‘‘संबल अंदरूनी इच्छाओं से पनपता है. यहांवहां ढूंढ़ने से नहीं. तुम्हें लौटना ही होगा, सुमित्रा. अपने घर को मंजिल समझना ही उचित है वरना कहीं और पड़ाव नहीं मिलता. तुम कहोगी कि बाबूजी आप भी घर छोड़ आए, लेकिन मेरे पीछे कोई नहीं था, सो, चिंतन करने को एकांत में आ बसा. ध्यान कर अकेलेपन से लड़ना सहज हो जाता है. संघर्ष कर हम एक तरह से स्वयं को टूटने से बचाते हैं, तभी तो रचनाक्रम में जुटते हैं, इसी से गतिशीलता बनी रहती है.’’

एक ताकत, एक आत्मविश्वास कहां से उपज आए हैं सुमित्रा के अंदर. लौटने को उठे पांवों में न अब डगमगाहट है न ही विरोध. क्षमताएं जीवंत हो उठें तो असंतोष बाहर कर संतोष की सुगंध से सुवासित कर देती हैं मनप्राणों को.

गांठ खुल गई- भाग 2 : क्या कभी जुड़ पाया गौतम का टूटा दिल

पहले छुट्टियों में पिता की दुकान संभालता था. अब पिता के कहने पर भी दुकान पर नहीं जाता था. उसे लगता था कि दुकान पर जाएगा तो महल्ले की लड़कियां उस पर छींटाकशी करेंगी तो वह बरदाश्त नहीं कर पाएगा.

इसी तरह घटना को 2 वर्ष बीत गए. इषिता ने ग्रैजुएशन कर ली. जौब की तलाश की, तो वह भी मिल गई. बैक में जौब मिली थी. पोस्टिंग मालदह में हुई थी.

जाते समय इषिता ने उस से कहा, कोलकाता से जाने की इच्छा तो नहीं है पर सवाल जिंदगी का है. जौब तो करनी ही पड़ेगी, पर 6-7 महीने में ट्रांसफर करा कर आ जाऊंगी. विश्वास है कि तब तक श्रेया को दिल से निकाल फेंकने में सफल हो जाओगे.

इषिता मालदह चली गई तो गौतम पहले से अधिक अवसाद में आ गया. तब उस के मातापिता ने उस की शादी करने का विचार किया.

मौका देख कर मां ने उस से कहा, ‘‘जानती हूं कि इषिता सिर्फ तुम्हारी दोस्त है. इस के बावजूद यह जानना चाहती हूं कि यदि वह तुम्हें पसंद है तो बोलो, उस से शादी की बात करूं?’’

‘‘वह सिर्फ मेरी दोस्त है. हमेशा दोस्त ही रहेगी. रही शादी की बात, तो कभी किसी से भी शादी नहीं करूंगा. यदि किसी ने मुझ पर दबाव डाला तो घर छोड़ कर चला जाऊंगा.’’

गौतम ने अपना फैसला बता दिया तो मां और पापा ने उस से फिर कभी शादी के लिए नहीं कहा. उसे उस के हाल पर छोड़ दिया.

लेकिन एक दोस्त ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘श्रेया से तुम्हारी शादी नहीं हो सकती, यह अच्छी तरह जानते हो. फिर जिंदगी बरबाद क्यों कर रहे हो? किसी से विवाह कर लोगे तो पत्नी का प्यार पा कर अवश्य ही उसे भूल जाओगे.’’

‘‘जानता हूं कि तुम मेरे अच्छे दोस्त हो. इसलिए मेरे भविष्य की चिंता है. परंतु सचाई यह है कि श्रेया को भूल पाना मेरे वश की बात नहीं है.’’

दोस्त ने तरहतरह से समझाया. पर वह किसी से भी शादी करने के लिए राजी नहीं हुआ.

इषिता गौतम को सप्ताह में 2-3 दिन फोन अवश्य करती थी. वह उसे बताता था कि जल्दी ही श्रेया को भूल जाऊंगा. जबकि हकीकत कुछ और ही थी.

हकीकत यह थी कि इषिता के जाने के बाद उस ने कई बार श्रेया को फोन लगाया था. पर लगा नहीं था. घटना के बाद शायद उस ने अपना नंबर बदल लिया था.

न जाने क्यों उस से मिलने के लिए वह बहुत बेचैन था. समझ नहीं पा रहा था कि कैसे मिले. अंजाम की परवा किए बिना उस के घर जा कर मिलने को वह सोचने लगा था.

तभी एक दिन श्रेया का ही फोन आ गया. बहुत देर तक विश्वास नहीं हुआ कि उस का फोन है.

विश्वास हुआ, तो पूछा, ‘‘कैसी हो?’’

‘‘तुम से मिल कर अपना हाल बताना चाहती हूं. आज शाम के 7 बजे साल्ट लेक मौल में आ सकते हो?’’ उधर से श्रेया ने कहा.

खुशी से लबालब हो कर गौतम समय से पहले ही मौल पहुंच गया. श्रेया समय पर आई. वह पहले से अधिक सुंदर दिखाई पड़ रही थी.

उस ने पूछा, ‘‘मेरी याद कभी आई थी?’’

‘‘तुम दिल से गई ही कब थीं जो याद आतीं. तुम तो मेरी धड़कन हो. कई बार फोन किया था, लगा नहीं था. लगता भी कैसे, तुम ने नंबर जो बदल लिया था.’’

उस का हाथ अपने हाथ में ले कर श्रेया बोली, ‘‘पहले तो उस दिन की घटना के लिए माफी चाहती हूं. मुझे इस का अनुमान नहीं था कि मेरे झूठ को पापा और भैया सच मान कर तुम्हारी पिटाई करा देंगे.

‘‘फिर कोई लफड़ा न हो जाए, इस डर से पापा ने मेरा मोबाइल ले लिया. अकेले घर से बाहर जाना बंद कर दिया गया.

‘‘मुंबई से तुम्हें फोन करने की कोशिश की, परंतु तुम्हारा नंबर याद नहीं आया. याद आता तो कैसे? घटना के कारण सदमे में जो थी.

‘‘फिलहाल वहां ग्रैजुएशन करने के बाद 3 महीने पहले ही आई हूं. बहुत कोशिश करने पर तुम्हारे एक दोस्त से तुम्हारा नंबर मिला, तो तुम्हें फोन किया. मेरी सगाई हो गई है. 3 महीने बाद शादी हो जाएगी.

‘‘यह कहने के लिए बुलाया है कि जो होना था वह हो गया. अब मुद्दे की बात करते हैं. सचाई यह है कि हम अब भी एकदूसरे को चाहते हैं. तुम मेरे लिए बेताब हो, मैं तुम्हारे लिए.

‘‘इसलिए शादी होेने तक हम रिश्ता बनाए रख सकते हैं. चाहोगे तो शादी के बाद भी मौका पा कर तुम से मिलती रहूंगी. ससुराल कोलकाता में ही है. इसलिए मिलनेजुलने में कोई परेशानी नहीं होगी.’’

श्रेया का चरित्र देख कर गौतम को इतना गुस्सा आया कि उस का कत्ल कर फांसी पर चढ़ जाने का मन हुआ. लेकिन ऐसा करना उस के वश में नहीं था. क्योंकि वह उसे अथाह प्यार करता था. उसे लगता था कि श्रेया को कुछ हो गया तो वह जीवित नहीं रह पाएगा.

उसे समझाते हुए उस ने कहा, ‘‘मुझे इतना प्यार करती हो तो शादी मुझ से क्यों नहीं कर लेतीं?’’

‘‘इस जमाने में शादी की जिद पकड़ कर क्यों बैठे हो? वह जमाना पीछे छूट गया जब प्रेमीप्रेमिका या पतिपत्नी एकदूसरे से कहते थे कि जिंदगी तुम से शुरू, तुम पर ही खत्म है.

‘‘अब तो ऐसा चल रहा है कि जब तक साथ निभे, निभाओ, नहीं तो अपनेअपने रास्ते चले जाओ. तुम खुद ही बोलो, मैं क्या कुछ गलत कह रही हूं? क्या आजकल ऐसा नहीं हो रहा है?

‘‘दरअसल, मैं सिर्फ कपड़ों से ही नहीं, विचारों से भी आधुनिक हूं. जमाने के साथ चलने में विश्वास रखती हूं. मैं चाहती हूं कि तुम भी जमाने के साथ चलो. जो मिल रहा है उस का भरपूर उपभोग करो. फिर अपने रास्ते चलते बनो.’’

श्रेया जैसे ही चुप हुई, गौतम ने कहा, ‘‘लगा था कि तुम्हें गलती का अहसास हो गया है. मुझ से माफी मांगना चाहती हो. पर देख रहा हूं कि आधुनिकता के नाम पर तुम सिर से पैर तक कीचड़ से इस तरह सन चुकी हो कि जिस्म से बदबू आने लगी है.

‘‘यह सच है कि तुम्हें अब भी अथाह प्यार करता हूं. इसलिए तुम्हें भूल जाना मेरे वश की बात नहीं है. लेकिन अब तुम मेरे दिल में शूल बन कर रहोगी, प्यार बन कर नहीं.’’

श्रेया ने गौतम को अपने रंग में रंगने की पूरी कोशिश की, परंतु उस की एक दलील भी उस ने नहीं मानी.

उस दिन से गौतम पहले से भी अधिक गमगीन हो गया.

इस तरह कुछ दिन और बीत गए. अचानक इषिता ने फोन पर बताया कि उस ने कोलकाता में ट्रांसफर करा लिया है. 3-4 दिनों में आ जाएगी.

गांठ खुल गई- भाग 1 : क्या कभी जुड़ पाया गौतम का टूटा दिल

श्रेया से गौतम की मुलाकात सब से पहले कालेज में हुई थी. जिस दिन वह कालेज में दाखिला लेने गया था, उसी दिन वह भी दाखिला लेने आई थी.

वह जितनी सुंदर थी उस से कहीं अधिक स्मार्ट थी. पहली नजर में ही गौतम ने उसे अपना दिल दे दिया था.

गौतम टौपर था. इस के अलावा क्रिकेट भी अच्छा खेलता था. बड़ेबड़े क्लबों के साथ खेल चुका था. उस के व्यक्तित्व से कालेज की कई लड़कियां प्रभावित थीं. कुछ ने तो खुल कर मोहब्बत का इजहार तक कर दिया था.

उस ने किसी का भी प्यार स्वीकार नहीं किया था. करता भी कैसे? श्रेया जो उस के दिल में बसी हुई थी.

श्रेया भी उस से प्रभावित थी. सो, उस ने बगैर देर किए उस से ‘आई लव यू’ कह दिया.

वह कोलकाता के नामजद अमीर परिवार से थी. उस के पिता और भाई राजनीति में थे. उन के कई बिजनैस थे. दौलत की कोई कमी न थी.

गौतम के पिता पंसारी की दुकान चलाते थे. संपत्ति के नाम पर सिर्फ दुकान थी. जिस मकान में रहते थे, वह किराए का था. उन की एक बेटी भी थी. वह गौतम से छोटी थी.

अपनी हैसियत जानते हुए भी गौतम, श्रेया के साथ उस के ही रुपए पर उड़ान भरने लगा था. उस से विवाह करने का ख्वाब देखने लगा था.

कालांतर में दोनों ने आधुनिक रीति से तनमन से प्रेम प्रदर्शन किया. सैरसपाटे, मूवी, होटल कुछ भी उन से नहीं छूटा. मर्यादा की सारी सीमा बेहिचक लांघ गए थे.

2 वर्ष बीत गए तो गौतम ने महसूस किया कि श्रेया उस से दूर होती जा रही है. वह कालेज के ही दूसरे लड़के के साथ घूमने लगी थी. उसे बात करने का भी मौका नहीं देती थी.

बड़ी मुश्किल से एक दिन मौका मिला तो उस से कहा, ‘‘मुझे छोड़ कर गैरों के साथ क्यों घूमती हो? मुझ से शादी करने का इरादा नहीं है क्या?’’

श्रेया ने तपाक से जवाब दिया, ‘‘कभी कहा था कि तुम से शादी करूंगी?’’

वह तिलमिला गया. किसी तरह गुस्से को काबू में कर के बोला, ‘‘कहा तो नहीं था पर खुद सोचो कि हम दोनों में पतिपत्नी वाला रिश्ता बन चुका है तो शादी क्यों नहीं कर सकते हैं?’’

‘‘मैं ऐसा नहीं मानती कि किसी के साथ पतिपत्नी वाला रिश्ता बन जाए तो उसी से विवाह करना चाहिए.

‘‘मेरा मानना है कि संबंध किसी से भी बनाया जा सकता है, पर शादी अपने से बराबर वाले से ही करनी चाहिए. शादी में दोनों परिवारों के आर्थिक व सामाजिक रुतबे पर ध्यान देना अनिवार्य होता है.

‘‘तुम्हारे पास यह सब नहीं है. इसलिए शादी नहीं कर सकती. तुम्हारे लिए यही अच्छा होगा कि अब मेरा पीछा करना बंद कर दो, नहीं तो अंजाम बुरा होगा.’’

श्रेया की बात गौतम को शूल की तरह चुभी. लेकिन उस ने समझदारी से काम लेते हुए उसे समझाने की कोशिश की पर वह नहीं मानी.

आखिरकार, उसे लगा कि श्रेया किसी के बहकावे में आ कर रिश्ता तोड़ना चाहती है. उस ने सोचा, ‘उस के घर वालों को सचाई बता दूंगा तो सब ठीक हो जाएगा. परिजनों के कहने पर उसे मुझ से विवाह करना ही होगा.’

एक दिन वह श्रेया के घर गया. उस के पिता व भाई को अपने और उस के बारे में सबकुछ बताया.

श्रेया अपने कमरे में थी. भाई ने बुलाया. वह आई. भाई ने गौतम की तरफ इंगित कर उस से पूछा, ‘‘इसे पहचानती हो?’’

श्रेया सबकुछ समझ गई. झट से अपने बचाव का रास्ता भी ढूंढ़ लिया. बगैर घबराए कहा, ‘‘यह मेरे कालेज में पढ़ता है. इसे मैं जरा भी पसंद नहीं करती. किंतु यह मेरे पीछे पड़ा रहता है. कहता है कि मुझ से शादी नहीं करोगी तो इस तरह बदनाम कर दूंगा कि मजबूर हो कर शादी करनी ही पड़ेगी.’’

वह कहता रहा कि श्रेया झूठ बोल रही है परंतु उस के भाई और पिता ने एक न सुनी. नौकरों से उस की इतनी पिटाई कराई कि अधमरा हो गया. पैरों की हड्डियां टूट गईं.

किसी पर किसी तरह का इलजाम न आए, इसलिए गौतम को अस्पताल में दाखिल करा दिया गया.

थाने में श्रेया द्वारा यह रिपोर्ट लिखा दी गई, ‘घर में अकेली थी. अचानक गौतम आया और मेरा रेप करने की कोशिश की. उसी समय घर के नौकर आ गए. उस की पिटाई कर मुझे बचा लिया.’

थाने से खबर पाते ही गौतम के पिता अस्पताल आ गए. गौतम को होश आया तो सारा सच बता दिया.

सिर पीटने के सिवा उस के पिता कर ही क्या सकते थे. श्रेया के परिवार से भिड़ने की हिम्मत नहीं थी.

उन्होंने गौतम को समझाया, ‘‘जो हुआ उसे भूल जाओ. अस्पताल से वापस आ कर पढ़ाई पर ध्यान लगाना. कोशिश करूंगा कि तुम पर जो मामला है, वापस ले लिया जाए.’’

उन्होंने सोर्ससिफारिश की तो श्रेया के पिता ने मामला वापस ले लिया.

अस्पताल में गौतम को 5 माह रहना पड़ा. वे 5 माह 5 युगों से भी लंबे थे. कैलेंडर की तारीखें एकएक कर के उस के सपनों के टूटने का पैगाम लाती रही थीं.

उसे कालेज से निकाल दिया गया तो दोस्तों ने भी किनारा कर लिया. महल्ले में भी वह बुरी तरह बदनाम हो चुका था. कोई उसे देखना नहीं चाहता था.

श्रेया के आरोप पर किसी को विश्वास नहीं हुआ तो वह थी इषिता. वह उसी कालेज में पढ़ती थी और गौतम की दोस्त थी. वह अस्पताल में उस से मिलने बराबर आती रही. उसे हर तरह से हौसला देती रही.

गौतम घर आ गया तो भी इषिता उस से मिलने घर आती रही. शरीर के घाव तो कुछ दिनों में भर गए पर आत्मसम्मान के कुचले जाने से उस का आत्मविश्वास टूट चुका था.

मन और आत्मविश्वास के घावों पर कोई औषधि काम नहीं कर रही थी. गौतम ने फैसला किया कि अब आगे नहीं पढ़ेगा.

परिजनों तथा शुभचिंतकों ने बहुत समझाया लेकिन वह फैसले से टस से मस

नहीं हुआ.

इस मामले में उस ने इषिता की भी नहीं सुनी. इषिता ने कहा था, ‘‘ पढ़ना नहीं चाहते हो तो कोई बात नहीं. क्रिकेट में ही कैरियर बनाओ.’’

‘‘मेरा आत्मविश्वास टूट चुका है. कुछ नहीं कर सकता. इसलिए मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो,’’ उस ने दोटूक जवाब दिया था.

वह दिनभर चुपचाप घर में पड़ा रहता था. घर के लोगों से भी ठीक से बात नहीं करता था. किसी रिश्तेदार या दोस्त के घर भी नहीं जाता था. हर समय चिंता में डूबा रहता.

सोने की सास: भाग 2- क्यों बदल गई सास की प्रशंसा करने वाली चंद्रा

नई ओर बहू सुष्मिता मेरी अचरज से देख रही थी कि मैं मां हो कर भी अपनी ही बेटी के विरुद्ध बोल रही थी.

चंद्रा और श्रीकांतजी को 2 दिनों के बाद कोलकाता लौटना था. उन के लौटने से पहले मैं ने समधनजी से कहा, ‘‘चंद्रा में अभी थोड़ा बचपना है. आप उस की बातों पर ध्यान मत दिया कीजिए.’’

वे हंसती हुई बोलीं, ‘‘वह जैसी भी है, अब मेरी बेटी है. आप उस की चिंता मत कीजिए.’’

मुझे लगा, जैसे मुझ पर से कोई बोझ उतर गया. फिर सोचा, चंद्रा तो कोलकाता जा रही है और उस की सास यहां रहेंगी. धीरेधीरे संबंध खुदबखुद सुधर जाएंगे.

दिन बीत रहे थे. बिटिया ने कोलकाता से फोन किया, ‘‘पापा के साथ आओ न मेरा घर देखने.’’

मैं बोली, ‘‘अभी तेरे पापा को दफ्तर से छुट्टी नहीं मिलेगी. हम फिर कभी आएंगे. पहले तुम अपने सासससुर को बुलाओ न अपना घर देखने के लिए? अब तो वहां का घर संभालने तुम्हारी देवरानी भी आ गई है.’’

‘‘नहीं मां, वे आएंगी तो मेरी गृहस्थी में 100 तरह के नुक्स निकालेंगी. मैं नहीं बुलाऊंगी उन्हें.’’

‘‘अरे, बिटिया रानी, कैसी बात कर रही हो? वे आखिर तुम्हारे पति की मां हैं.’’

‘‘हुंह मां. तुम नहीं जानतीं कैसे पाला है उन्होंने इन को. तुम्हें पता है, वे इन्हें बासी रोटियों का नाश्ता करा कर स्कूल भेजती थीं.’’

‘‘अरे पगली, बासी रोटियों का नाश्ता करने में क्या बुराई है? राजस्थानी घरों में बासी रोटियों का नाश्ता ही किया जाता है. बचपन में हम भाईबहन भी बासी रोटियों का नाश्ता कर के ही स्कूल जाते थे. सच कहूं, तो मुझे तो अभी भी बासी रोटियां खूब अच्छी लगती हैं पर तुम्हारे पापा बासी रोटियां नहीं खाना चाहते, इसीलिए यहां नाश्ते में ताजा रोटियां बनाती हैं.’’

‘‘एक यही बात नहीं और भी बहुत बातें हैं, फोन पर क्याक्या बतलाऊं?’’

‘‘सुनो चंद्रा, कोई भी मांबाप अपनी संतान को अपने जमाने के चलन और अपनी सामर्थ्य के अनुसार बेहतर से बेहतर ढंग से पालना चाहता है.’’

‘‘तुम फिर उन्हीं का पक्ष लेने लगीं.’’

‘‘अच्छा, बाद में मिलने पर सुनूंगी और सब. अभी फोन रखती हूं. श्रीकांतजी के आने का समय हो रहा है, तुम भी चायनाश्ते की तैयारी करो,’’ कह कर मैं ने फोन रख दिया.

समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे समझाऊं अपनी इस नादान बिटिया को. जमाईजी भी ऐसी बातें क्यों बताते हैं इस नासमझ लड़की को.

 

कुछ दिनों बाद आखिर अपर्णाजी अपने बेटेबहू के घर गईं. जितने दिन वे वहां रहीं, शिकायतों का सिलसिला थमा रहा. सासूजी वापस गईं, तब चंद्रा और श्रीकांतजी भी उन के साथ गए, क्योंकि वहां एक चचेरे देवर का विवाह था. उस के बाद जब चंद्रा लौटी, तो फिर उस की शिकायतों का सिलसिला शुरू हो गया. एक दिन कहने लगी, ‘‘मां तुम्हें पता है, मेरी सासूजी मेरी देवरानी को कितना दबा कर रखती हैं?’’

मैं चौंकी, ‘‘लेकिन वे तो फोन पर तुम्हारी और तुम्हारी देवरानी की भी सदा तारीफ ही किया करती हैं.’’

‘‘तारीफ करकर के ही तो उस बेचारी का सारा तेल निकाल लेती हैं.’’

‘‘देखो बिटिया, गृहस्थी में काम तो सभी के घर रहता है. तुम्हारी 2 जनों की गृहस्थी में भी काम तो होंगे ही.’’

वह चिढ़ कर बोली, ‘‘उन्हें प्यारी भी तो वही लगती है. असल में जो पास रहता है, वही  प्यारा भी लगता है. दूर वाला तो मन से भी दूर हो जाता है.’’

‘‘क्या कह रही हो चंद्रा, मांबाप के लिए तो उन के सभी बच्चे बराबर होते हैं. वैसे, मुझे तो लगता है कि दूर रहने वालों की याद मांबाप को अधिक सताती है.’’

उस ने कहा, ‘‘अच्छा, छोड़ो यह सब. अब बतलाओ, तुम लोग कब आ रहे हो?’’

‘‘तुम्हारे पापा से बात करती हूं.’’

आखिर हम ने चंद्रा के यहां जाने का कार्यक्रम बना ही लिया. वहां जा कर 4-5 दिन तो ठीकठाक गुजरे. उस के बाद देखा कि वह हमेशा श्रीकांतजी पर रोब जमाती रहती. जबतब मुंह फुला कर बैठ जाती. वे बेचारे खुशामद करते आगेपीछे घूमते रहते. उसके झगड़े की मुख्य वजह होती थी कि वे दफ्तर देर से लौटते समय उस का बताया सामान लाना क्यों भूल गए या देर से क्यों आए अथवा अमुक काम उस के मनमुताबिक क्यों नहीं किया?

हम लोग उसे समझाने की कोशिश करते कि नौकरी वाले को तो काम अधिक होने की वजह से देर हो ही जाती है, इस में उन का भला क्या दोष. घर आने की हड़बड़ी में कभीकभी बाजार का भी कोई काम छूट सकता है, इस बात के लिए इतना गुस्सा करना भी ठीक नहीं. लेकिन श्रीकांत अपने भुलक्कड़ स्वभाव से मजबूर थे, तो वह अपने गुस्सैल स्वभाव से.

एक दिन मैं ने उसे फिर समझाना चाहा, तो वह बिगड़ कर बोली, ‘‘अब तुम भी मेरी सास की तरह बातें करने लगीं. वे हम दोनों के बीच पड़ती हैं, तो मुझे एकदम अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘जैसे मैं तुम्हारी मां हूं, वैसे ही वे दामादजी की मां हैं. बच्चों को आपस में लड़तेझगड़ते देख कर मांबाप को तकलीफ तो होती ही है. फिर इस झगड़े का तुम दोनों के स्वास्थ्य पर भी तो बुरा असर पड़ सकता है. समझाना हमारा फर्ज है बाकी तुम जानो.’’

मेरी इस बात का चंद्रा पर कुछ प्रभाव तो पड़ा. अब वह जमाईजी पर कम ही नाराज होती है पर सास की बुराई का सिलसिला चलता रहा. श्रीकांतजी के सामने भी वह उन की मां की निंदा करती. जब अपने बारे में कहने को अधिक नहीं बचता, तो अपनी देवरानी को माध्यम बना कर वह सास में खोट निकालती रहती. एक दिन कहने लगी, ‘‘उस बेचारी को तो सब के खाने के बाद अंत में बचाखुचा खाना मिलता है.’’

मैं ने सोचा, इस की हर बात तो झूठ नहीं हो सकती. मैं इस की सास से मिली ही कितना हूं, जो उन्हें पूरी तरह से जान सकूं.

आखिर हमारी छुट्टी पूरी हुई और हम दोनों अपने घर लौट आए.

कुछ ही दिनों बाद सूचना मिली कि बिटिया की सास अपर्णाजी बीमार हैं. चंद्रा और श्रीकांतजी उन्हें देखने गए थे. हमारा कार्यक्रम देर से बना इसलिए जब हम पहुंचे तब तक वे दोनों वापस जा चुके थे. अपर्णाजी की तबीयत भी कुछ सुधर गई थी, पर कमजोरी काफी थी और डाक्टर ने अभी उन्हें कुछ दिन आराम करने की सलाह दी थी.

मैं ने गौर किया, चंद्रा की देवरानी जितनी हंसमुख है, उतनी ही कर्मठ भी. वह बड़े मन से अपनी सास अपर्णाजी की सेवा में लगी रहती. मैं ने यह भी देखा कि वह खाना सब से आखिर में खाती. सास बिस्तर पर पड़ीपड़ी उसे पहले खाने के लिए कहती रहतीं.

एक दिन मैं ने भी टोका, ‘‘सुष्मिता बेटा, तुम भी सब के साथ खा लिया करो न. रोजरोज देर तक भूखे रहना ठीक नहीं है.’’

वह हंसती हुई बोली, ‘‘बच्चे स्कूल से देर से आते हैं इसलिए उन्हें खिलाए बिना मुझ से खाया ही नहीं जाता. कभी ज्यादा भूख लग जाए, तो उन से पहले खाने बैठ जाऊं तो ग्रास मेरे गले से नीचे नहीं उतरता.’’

‘‘हां, मां का मन तो कुछ ऐसा ही होता है,’’ मैं बोली.

बच्चे खाने में देर भी बहुत लगाते. दोनों ही छोटे थे और उन्हें बहलाफुसला कर खिलाने में काफी समय लग जाता था.

बिटिया रानी को यह सब बतलाती, तो वह कहती, ‘‘अरे, तुम नहीं जानतीं मेरी सास का असली रूप. उन के डर से ही तो वह बेचारी दिनरात भूखीप्यासी लगी रहती है और सब से आखिर में खाती है.’’

बहुओं के प्रति उस की सास के निश्छल स्नेह में मुझे तो कोई बनावट नजर नहीं आई थी, लेकिन मेरी बिटिया रानी को कौन समझाए, वह तो अपने पति श्रीकांतजी के कान भी उन की मां के विरुद्ध झूठीसच्ची बातें कह कर भरती रहती. नमकमिर्च लगा कर कही गई उस की झूठी बातों पर धीरेधीरे जमाईजी यकीन भी करने लगे थे.

जमाईजी और बच्चे सुबह के गए शाम को घर लौटते थे. चंद्रा अकेली घर पर ऊबती रहती थी. एक दिन मैं ने उस से कहा, ‘‘तुम भी कहीं कोई काम क्यों नहीं खोज लेतीं. इस से वक्त तो अच्छा कटेगा ही, तुम्हारी पढ़ाईलिखाई भी काम में आ जाएगी.’’

मेरी बात उसे जंच गई. वह अखबारों में विज्ञापन देख कर नौकरी के लिए आवदेन करने लगी. संयोगवश उसे उस की योग्यता के अनुरूप नौकरी मिल गई.

अब वह व्यस्त हो गई. चुगलीचर्चा का वक्त उसे कम ही मिलता था. अपने पति से

भी उस की अच्छी पटने लगी. निंदा के बदले उन की प्रशंसा ही करती कि वे घर के कामों में भी उस की मदद करते हैं, क्योंकि सुबह दोनों को लगभग साथ ही निकलना होता है.

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