अहंकार के दायरे- भाग 1: क्या बेटे की खुशियां लौटा सके पिताजी

सुबह से ही नीरा का मन बेहद उदास था. यतीन को घर से गए हुए पूरे 2 माह बीत चुके थे. इस अवधि में कोई दिन ऐसा न था जब उस ने यतीन के घर लौट आने की बात न सोची हो, वक्त की आंधी के थपेड़ों से बिखर गए इस घर को सहेजने की न सोची हो किंतु उसे प्रतीक्षा थी सही वक्त की.

सुबह जब नीरा नाश्ते के लिए बाबूजी को बुलाने गई तो देखा, वे यतीन की फोटो के समक्ष खड़े चुपचाप उसे निहार रहे हैं. यद्यपि उसे देखते ही वे वहां से हट गए किंतु अश्रुपूर्ण नेत्रों में उतर आई व्यथा को उस से न छिपा पाए. नीरा ने एक बार गहरी दृष्टि से उन्हें देखा, फिर रसोई में चली गई.

नीरा का विवाह हुए 5 वर्ष बीत गए थे. सुहागरात को उस के पति नरेन ने कहा था, ‘बचपन में मेरी मां चल बसी थीं. बाबूजी, यतीन और मैं ने अत्यंत कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत किया है. घर में एक स्त्री का अभाव सदैव खटका है. मैं चाहता हूं, अपने स्नेह एवं अपनत्व के बल पर तुम इस अभाव की पूरक बनो. इस घर के प्रति तुम्हारी निष्ठा में कभी कमी न आए.’

नीरा ने अपना कांपता हुआ हाथ पति के हाथ पर रख कर उसे अपनी मौन स्वीकृति दी थी. अगले दिन नरेन ने हनीमून के लिए नैनीताल चलने का प्रस्ताव रखा तो नीरा ने इनकार कर दिया और कहा था,  ‘नहीं, नरेन, नए जीवन की शुरुआत के लिए स्वजनों को छोड़ कर इधरउधर भटकने की आवश्यकता नहीं. हनीमून हम अपने घर पर रह कर मनाएंगे. यतीन की परीक्षाओं के बाद हम सब इकट्ठे नैनीताल चलेंगे.’

यतीन तो बिलकुल अपनी भाभी का दीवाना था. भाभी के रूप में मानो उस ने अपनी मां को पा लिया था. छोटेबड़े हर काम में वह भाभी पर निर्भर हो गया था. यहां तक कि अकसर वह अपने नोट्स तैयार करने में भी नीरा की सहायता लेने लगा था. परीक्षाओं के बाद वे तीनों नैनीताल चले गए. वहां के प्राकृतिक सौंदर्य ने उन के मन को बांध लिया था. ऐसा प्रतीत होता था मानो सारे संसार से अलगथलग यह छोटा सा शहर अपनेआप में कोई रहस्य समेटे हुए हो.ताल के किनारे बने हुए होटल में वे ठहरे थे. लगभग नित्य ही शाम को वे बोटिंग करते थे. उस समय नरेन और यतीन ताल की लहरों के साथ कोई न कोई गीत छेड़ देते. दोनों भाइयों को संगीत से बेहद लगाव था.

एक दिन वे बहुत सवेरे  स्नोव्यू और  चाइना पीक के लिए रवाना हो गए. मार्ग में चीड़ व देवदार के वृक्ष और उन से छन कर आती हुई सूर्य की किरणों का नृत्य सम्मोहित कर रहा था. बीचबीच में रुकते, हंसते, बातें करते हुए वे तीनों चाइना पीक तक पहुंच गए. वहां से समूचे नैनीताल का विहंगम दृश्य दिखाई दे रहा था. समय मानो वहां आ कर थम गया था. वातावरण में एक गहरी निस्तब्धता रचीबसी हुई थी.

कुछ देर के लिए नीरा प्राकृतिक सौंदर्य में खो गई. उस समय वह स्वयं को प्रकृति के काफी निकट महसूस कर रही थी. उसे पता नहीं चला कब नरेन पास बने हुए रेस्तरां में चाय का और्डर देने चले गए. उस समय चौंकी जब यतीन ने उस से खोईखोई आवाज में कहा, ‘कभीकभी ऐसा क्यों होता है भाभी, किसी विशेष इंसान की स्मृतिमात्र ही वातावरण में खुशियों का उजाला भर देती है?’

नीरा ने एक गहरी दृष्टि यतीन की ओर डाली, ‘आखिर कौन है वह विशेष इंसान, मैं भी तो सुनूं?’

यतीन खामोश रहा. नीरा समझ गई, वह उस से संकोच कर रहा है. तब उस ने कहा, ‘अपनी भाभी को भी नहीं बताओगे.’

यतीन कुछ पल खामोश रहा, फिर बोला, ‘उस का नाम अर्चना है. वह मेरे साथ कालेज में पढ़ती थी. बहुत अच्छी लड़की है. तुम मिलोगी, अवश्य पसंद करोगी.’

‘अच्छा, तो कब मिलवा रहे हो?’

‘जब तुम चाहो, परंतु भैया को इस विषय में तभी कुछ बताना जब तुम लड़की पसंद कर लो और मैं अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊं,’ यतीन यह बात कह ही रहा था तभी नरेन वहां आ गए और वह खामोश हो गया.

चाय पी कर वे लोग वहां से लौट पड़े. अगले दिन नैनीताल से वे वापस आ गए थे. कुछ दिन नीरा को घर व्यवस्थित करने में लगे. यतीन नौकरी के लिए जगहजगह इंटरव्यू दे रहा था. 2-3 जगह उसे आशा भी थी. दीवाली में 15 दिन शेष थे. नीरा के घर से उस के पिताजी का पत्र आया कि वे उसे दीवाली पर लेने आ रहे हैं. पत्र पढ़ने के बाद उस के ससुर ने बुला कर कहा,  ‘बेटी, अपने जाने की तैयारी कर लो. तुम्हारे पिताजी तुम्हें लेने आ रहे हैं.’

सुन कर नीरा खामोश खड़ी रही. बाबूजी ने उसे देखा और बोले,  ‘क्या बात है, बेटी, किस सोच में डूब गईं?’

‘बाबूजी, आप पिताजी को पत्र लिख दीजिए, वे दीवाली के बाद ही मुझे लेने के लिए आएं.’

‘क्यों?’ बाबूजी अचंभित रह गए.

‘बात यह कि वहां पिताजी के पास अन्य बच्चे भी हैं. मेरे न जाने से कोई विशेष अंतर नहीं पड़ने वाला. किंतु यहां मेरे जाने से आप लोग अकेले पड़ जाएंगे. नहीं, बाबूजी, अपने घर की रोशनी फीकी कर के मैं कहीं नहीं जाऊंगी. आप पिताजी को

दीवाली के बाद आने के लिए लिख दें,’ इतना कह कर नीरा चली गई.

दीवाली से 2 दिन पहले यतीन का नियुक्तिपत्र आ गया तो दीवाली की खुशी दोगुनी हो गई. उसे एचएएल में बहुत अच्छी नौकरी मिली थी.

एक दिन दोपहर के समय नीरा घर पर अकेली थी. सब अपनेअपने काम पर गए हुए थे. तभी दरवाजे की घंटी बजी. उस ने उठ कर दरवाजा खोला तो देखा सामने एक लड़की खड़ी थी. उस के हाथ में एक ब्रीफकेस था. वह नीरा से बोली, ‘नमस्ते दीदी. मैं एक साबुन कंपनी की तरफ से आई हूं. आप अपने घर में कौन सा साबुन इस्तेमाल करती हैं?’

नीरा उस समय गाजर का हलवा बना रही थी. वह बोर सी होती हुई बोली, ‘देखो, फिर कभी आना. इस समय मैं बहुत व्यस्त हूं. वैसे भी हमारे घर में साबुन और अन्य वस्तुएं कैंटीन से आती हैं.’

‘मैं आप का अधिक समय नहीं लूंगी. आप बस एक नजर देख लीजिए.’

‘नहींनहीं, अभी तो बिलकुल समय नहीं है,’ कह कर नीरा अंदर जाने को मुड़ी कि तभी न जाने कहां से यतीन प्रकट हो गया. वह हंसते हुए नीरा की बांह पकड़ कर बोला, ‘2 मिनट तो ठहरो भाभी, ऐसी भी क्या जल्दी है. साबुन न भी देखो, अर्चना को तो देख लो.’

अहंकार के दायरे- भाग 3: क्या बेटे की खुशियां लौटा सके पिताजी

नीरा ने उस का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘बाबूजी, यह मेरी सहेली पूजा है. हम दोनों एक ही साथ पढ़ती थीं. इस का इस शहर में विवाह हुआ है. आज मुझे अचानक बाजार में मिल गई तो मैं इसे घर ले आई.’’

पूजा ने आगे बढ़ कर बाबूजी के पांव छू लिए. बाबूजी ने उस के सिर पर हाथ रख कर पास पड़ी कुरसी पर बैठ जाने का इशारा करते हुए कहा, ‘‘बैठो बेटी, कहां काम करते हैं तुम्हारे पति?’’

‘‘जी, एचएएल हैदराबाद में.’’

‘‘अभी पूजा यहां अकेली है, बाबूजी. जब इस के पति को वहां कोई अच्छा मकान मिल जाएगा, वे इसे ले जाएंगे,’’ नीरा ने कहा.

बाबूजी एचएएल का नाम सुन कर खामोश हो गए. यतीन भी तो यहां इसी फैक्टरी में  काम करता था. दर्द की एक परछाईं उन के चेहरे पर से आ कर गुजर गई किंतु शीघ्र ही उन्हें पूजा की उपस्थिति का भान हो गया और उन्होंने स्वयं को संभाल लिया. इस के बाद वे, पूजा और नीरा काफी देर तक बातचीत करते रहे.

जब पूजा जाने लगी तो बाबूजी ने कहा, ‘‘बेटी, अब तो तुम ने घर देख लिया है, आती रहना.’’

‘‘जी बाबूजी, अब जरूर आया करूंगी. मैं भी घर में अकेली बोर हो जाती हूं.’’

इस के बाद पूजा अकसर नीरा के घर आने लगी. धीरेधीरे वह बाबूजी से खुलने  लगी थी. वे तीनों बैठ कर विभिन्न विषयों पर बातचीत करते, हंसते, कहकहे लगाते और कभीकभी ताश खेलते.

पूजा ने अपने स्वभाव और बातचीत से बाबूजी का मन मोह लिया था. बाबूजी भी उसे बेटी के समान प्यार करने लगे थे. वह 3-4 दिनों तक न आती तो वे उस के बारे में पूछने लगते थे. पूजा नीरा को घर के कामों में भी सहयोग देने लगी थी.

कुछ दिनों बाद न जाने क्यों पूजा एक सप्ताह तक न आई. एक दिन बाबूजी नीरा से बोले, ‘‘पूजा आजकल क्यों नहीं आ रही है?’’

‘‘मैं आप को बताना भूल गई बाबूजी, कल पूजा का फोन आया था. वह बीमार है.’’

‘‘बीमार है? और तुम मुझे बताना भूल गईं. तुम से ऐसी लापरवाही की उम्मीद न थी. जाओ, उसे देख कर आओ. उसे किसी चीज की आवश्यकता हो तो लेती जाना. आखिर हमारा भी तो उस के प्रति कुछ फर्ज बनता है.’’

बाबूजी की पूजा के प्रति इस ममता को देख कर नीरा मुसकरा उठी. पूजा ने बाबूजी के मन में अपना स्थान बना लिया था, फिर भी यतीन का अभाव उन्हें खोखला बना रहा था. नरेन, नीरा और पूजा के अथक प्रयासों के बावजूद उन का स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता जा रहा था.

एक रात बाबूजी को दिल का दौरा पड़ा. वे बेहोश हो गए. नरेन ने यतीन को भी फोन कर दिया था. वह और अर्चना तुरंत अस्पताल पहुंचे. सारी रात आंखों में ही कट गई.

यतीन की दशा सब से खराब थी. वह बारबार रो पड़ता था. नीरा ही उसे तसल्ली दे रही थी. सुबह के समय बाबूजी को होश आया. समय पर डाक्टरी चिकित्सा मिल जाने के कारण खतरा टल गया था. बाबूजी के होश में आने पर यतीन सामने से हट गया. सोचा, हो सकता है उस को देख कर उन के दिल को धक्का लगे और उन की दशा फिर से बिगड़ जाए.

10 दिनों तक बाबूजी अस्पताल में रहे. नरेन और नीरा उन की सेवा में जुटे रहे. घर का सारा काम पूजा ने संभाला. जिस दिन बाबूजी को घर आना था, पूजा ने सारा घर मोमबत्तियों से सजा दिया था. जिस समय वे कार से उतरे, उस ने आगे बढ़ कर बाबूजी के चरण स्पर्श किए. नरेन और नीरा उन्हें अंदर ले आए.

‘‘बाबूजी, पूजा ने आप की बहुत सेवा की है,’’ नीरा ने उन्हें पलंग पर बैठाते हुए कहा.

‘‘हमेशा सुखी रहो बेटी. वे लोग कितने सुखी होंगे जिन्हें तुम्हारे जैसी बहू मिली है,’’ बाबूजी एक क्षण खामोश रहे. फिर आह सी भरते हुए दुखी स्वर में बोले, ‘‘नरेन ने मेरी पसंद से विवाह किया, देखो कितना खुश है. नीरा हजारों में एक है. काश, यतीन ने भी कहा माना होता तो उस की बहू भी तुम दोनों जैसी होती.’’

नीरा को लगा, यदि अब उस ने बाबूजी से अपने मन की बात न कही तो फिर बहुत देर हो जाएगी. जीवन में अनुकूल क्षण बारबार नहीं आते. वह उन के समीप जा बैठी. उस ने आंखों ही आंखों में नरेन से अनुमति मांगी और बोली, ‘‘आप की इस बेटी से बहुत बड़ा अपराध हो गया है बाबूजी. मुझे क्षमा कर दीजिए.’’

‘‘कौन सा अपराध?’’ बाबूजी हैरान हो उठे.

नीरा ने उन के घुटनों पर सिर रख दिया और डरतेडरते बोली, ‘‘पूजा जिस घर की बहू है, वह घर यही है, बाबूजी. यह पूजा नहीं, आप की दूसरी बेटी अर्चना है.’’

‘‘अर्चना यानी यतीन की पत्नी? इतने दिनों तक तुम मुझ से…’’

‘‘बाबूजी, मैं ने यह अपराध आप को धोखा देने या दुख पहुंचाने के उद्देश्य से नहीं किया. मैं और नरेन चाहते हैं, हम सब आप की छत्रछाया में रहें. यह घर एक घोंसले के समान है, बाबूजी. इस के तिनके को बिखरने मत दीजिए, इन्हें समेट लीजिए,’’ कहतेकहते नीरा रोने लगी.

बाबूजी की आंखों में भी आंसू आ गए. कुछ तो नीरा की निष्ठा और कुछ अर्चना का सरल स्वभाव व सेवाभावना उन्हें कमजोर बना रही थी. साथ ही, हालात ने उन के और यतीन के बीच जो दूरी पैदा कर दी थी उस ने उन की हठधर्मिता को कमजोर बना डाला था. उन्होंने स्नेहपूर्वक नीरा को उठाया फिर अर्चना को अपने पास बैठा लिया और अर्चना की तरफ देख कर कहा, ‘‘बेटी, जीवन में यदि किसी को अपना आदर्श बनाना तो नीरा को ही बनाना. इस के प्रयत्नों के फलस्वरूप इस घर की खुशियां वापस आई हैं,’’ फिर उन्होंने नरेन को यतीन को बुलाने भेज दिया.

वास्तव में व्यक्ति अपने झूठे अहंकार के दायरे में कैद रह कर स्वयं ही अपने जीवन में दुखों का समावेश कर लेता है. बाबूजी ने सोचा, यदि वे अपने इस अहं के दायरे से बाहर आ कर भावनाओं के साथसाथ विवेक से भी काम लेते तो उन बीते दिनों को भी आनंदमय बना सकते थे जो उन्होंने और उन के परिवार ने दुखी रह कर गुजारे थे. उन्होंने खिड़की में से देखा, यतीन नरेन के साथ कार से उतर रहा है. बाहर मोमबत्तियों की झिलमिलाती लौ भविष्य को अपने प्रकाश से आलोकित कर रही थी.

सुख का संसार: कौन से कर्तव्य से बंधी थी शिखा

अभय डाक्टर बन गया तो घर में उस के लिए रिश्तों की बाढ़ आ गई. किसीकिसी दिन तो एकसाथ 2-2 लड़की वाले आ कर बैठ जाते. अपनीअपनी बेटियों की प्रशंसा के पुल बांधते, लड़की की योग्यता के प्रमाणपत्रों की फोटोस्टेट कापियां दिखलाते, लड़की दिखाने का प्रस्ताव रखते और विभिन्न कोणों से खींची गई लड़की की दोचार रंगीन तसवीरें थमा कर, बारबार नमस्कार कर के, उम्मीदें बांध कर चले जाते थे.

शिखा की समझ में नहीं आ रहा था, इन रंगीन तसवीरों के समूह में से किस लड़की को अपनी देवरानी बनाए. किसे पसंद करे. सभी तसवीरें एक से बढ़ कर एक फिल्म अभिनेत्रियों जैसे अंदाज व लुभावने परिधानों में थीं.

शिखा ने अपने पति दिनेश से पूछा. उस ने कह दिया, ‘‘अभय से पूछो, विवाह उसे करना?है. लड़की उस की पसंद की होनी चाहिए.’’

शिखा ने सभी तसवीरें और प्रमाणपत्रों की फोटोस्टेट कापियां अभय के सामने रख दीं. अभय ने उड़ती सी निगाह डाल कर सभी तसवीरें सामने से हटा दीं और बोला, ‘‘जो लड़की तुम्हें पसंद आए उसी को बहू बना कर ले आओ, भाभी. मुझे लडकी के रंगरूप से क्या लेनादेना. जो लड़की मेरी मां समान भाभी की सेवा व सम्मान कर सके, दोनों भाइयों में फूट न डलवाए, सुख का नया संसार बनाने में मदद करे, वही मुझे स्वीकार होगी.’’

‘लेकिन तसवीर से कैसे पता लग सकता?है कि लड़की का स्वभाव कैसा है? गुणों के साथ सुंदरता भी तो चाहिए. बहू घर की शोभा होती है,’ शिखा सोचती रह गई थी.

दिनेश व अभय ने गृहस्थी के अन्य कामों की तरह लड़की पसंद करने की जिम्मेदारी भी शिखा के कंधों पर डाल दी थी.

उस ने सभी तसवीरों में से एक तसवीर छांट कर, अभय को जबरदस्ती लड़की देखने भेज दिया. अभय ने लौट कर बतलाया कि लड़की के सामने के दांत काफी उभरे, चौड़ेचौड़े लग रहे थे. हंसने पर पूरी बत्तीसी बाहर आ जाती थी.

2 जगह दिनेश को भेजा. वह दोनों लड़कियां भी पसंद नहीं आईं. फिर दोचार जगह शिखा भी अभय व दिनेश को साथ ले कर लड़की देख आई. पर जो बात तसवीरों में थी, वह लड़कियों में नहीं थी.

तसवीरों व प्रमाणपत्रों के आधार पर कोई लड़की कैसे पसंद की जा सकती थी? झुंझला कर शिखा ने तसवीरें वापस भेज दीं. अकारण जगहजगह लड़की देखने जा कर लड़की वालों को परेशान करना उचित नहीं था. अपना वक्त भी बरबाद होता?था. घर में अकेले बच्चे भी दुखी हो जाते?थे.

शिखा को लड़की पसंद करने का काम पहाड़ पर चढ़ने जैसा लग रहा था. फिर भी लड़की तो पसंद करनी ही थी. इकलौते देवर के गले में कोई ऐसीवैसी थोड़े ही बांधी जा सकती थी?

एक दिन एक सज्जन अपनी भांजी का रिश्ता ले कर आए. एक सीधीसादी तसवीर, बस. न प्रमाणपत्रों की गठरी न प्रशंसा के पुल और न दहेज का लालच.

लड़की इसी शहर में डाक्टरी पढ़ रही थी. लड़की डाक्टरी पढ़ती है, सुन कर दिनेश भी दिलचस्पी लेने लगा. अभय से पूछा तो उस ने वही वाक्य दोहरा दिया, ‘‘लड़की?भाभी की पसंद की होनी चाहिए.’’

दिनेश व शिखा लड़की देखने चले गए. शिल्पी ने अपने व्यवहार, सुघड़ता व भोलेपन से दोनों का मन मोह लिया. दिनेश के इशारे पर शिखा शिल्पी को अंगूठी भेंट कर रिश्ता पक्का कर आई.

सूचना पा कर अन्य शहर में रहने वाले शिल्पी के पिता, सौतेली मां, सौतेले भाईबहन आ गए. सादे समारोह में विवाह संपन्न हो गया.

शिल्पी का मधुर स्वभाव व अच्छा व्यवहार देख कर अभय शिखा की प्रशंसा करता रहता, ‘‘मैं जानता था, भाभी मेरे लिए लाखों में एक छांट कर लाएंगी. शिल्पी मेरी उम्मीदों से बढ़ कर है.’’

शिखा खुश थी. देवर ने उस का मान तो रखा ही, सराहना भी की.

अभय जब से चिकित्सा के क्षेत्र में आया था तभी से निजी नर्सिंग होम खोलने का सपना देखता रहता था. अब शिल्पी के आ जाने से उस की यह इच्छा और बलवती हो उठी थी. घर में 2 डाक्टर हो गए. अपना नर्सिंग होम होता तो प्रतिभा दिखलाने के अधिक अवसर मिलते. अधिक लाभ उठाया जा सकता था.

लेकिन नर्सिंग होम दूर की चीज थी. दिनेश के पास इतने भी रुपए नहीं थे कि इकलौते भाई के लिए कोई अच्छा सा दवाखाना खुलवा दे. न उस की पहुंच कहीं ऊपर तक थी कि अभय को नौकरी दिलवा पाता.

किसी अच्छी सिफारिश के अभाव में काफी भागदौड़ कर के भी अभय किसी अस्पताल में नौकरी नहीं पा सका तो उस ने एक किराए की दुकान ले कर प्रैक्टिस शुरू कर दी.

अनुभव व आवश्यक डाक्टरी उपकरण पास में न होने के कारण अभय का चिकित्सालय कम चलता था. जो आमदनी होती वह दुकान का किराया, कंपाउंडर की तनख्वाह व स्कूटर के पेट्रोल में खर्च हो जाती थी. इतनी बचत नहीं थी कि वह कुछ रुपए घर में दे पाता.

शिल्पी ने पढ़ाई पूरी की. नौकरी पाने का प्रयास किया तो उस की नौकरी एक स्थानीय अस्पताल में लग गई.

शिल्पी ने अपना पहला वेतन ला कर शिखा के हाथ में रखा तो शिखा ने नम्रता से इनकार कर दिया, ‘‘क्या यह अच्छा लगता है कि घर की बहू से खानेरहने के पैसे लिए जाएं? तुम इस घर की बहू हो. तुम्हें घर में रहनेखाने का पूरा अधिकार है.’’

अभय ने भी शिल्पी के वेतन को हाथ नहीं लगाया. भारी स्वर में बोला, ‘‘पत्नी की कमाई खा कर क्या मैं मर्दों की जमात में सिर नीचा कर लूं? कायदे से तो मुझे तुम्हारा खर्च उठाना चाहिए था.’’

दिनेश ने शिल्पी को समझाया, ‘‘देखो बहू, तुम बचपन से अपने मामा के घर में पली हो. उन्होंने तुम्हारे पालनपोषण, शिक्षा आदि का भार उठाया है. तुम्हारे मामा की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं है. अपने वेतन से तुम्हें उन की सहायता करनी चाहिए.’’

‘‘लेकिन भैया, मेरा इस घर के लिए भी तो कुछ फर्ज है?’’ उलझन में पड़ी शिल्पी ने पूछा.

‘‘इस घर के खर्चे की चिंता मत करो. मैं इतना तो कमा लेता हूं, जिस से सब का खानापीना चलता रहे.’’

दिनेश ने शिल्पी के नाम से बैंक में खाता खुलवा दिया और कह दिया, ‘‘जो रुपए बचें वे नर्सिंग होम बनवाने के लिए जमा करती जाओ.’’

धीरेधीरे अभय की डाक्टरी चल निकली. उस ने घर में रुपए देने चाहे तो दिनेश ने मना कर दिया. अभय को अपने लिए नर्सिंग होम कोठी बनवाने व कार खरीदने के लिए भी तो रुपए चाहिए. डाक्टर हो कर इस पुराने छोटे से घर में रहेगा तो लोग क्या कहेंगे. अभी से रुपए जोड़ना शुरू करेगा तो वर्षों में जुड़ पाएंगे.

शिल्पी की तरह फिर अभय ने भी चुप लगा ली. दोनों पतिपत्नी कभीकभार कुछ नाश्ते का सामान, फल, सब्जी वगैरा खरीद कर ले आते थे.

शिल्पी के पांव भारी हुए तो शिखा ने उसे सुबह का नाश्ता बनाने से भी रोक दिया. अस्पताल में तो सुबह से शाम तक मरीजों से सिर मारना ही पड़ता है. घर में तो आराम मिल जाए.

शिल्पी मां बनी तो शिखा ने उस के बेटे डब्बू को पालने का पूरा भार अपने कंधों पर ले लिया. वह डब्बू के पोतड़े भी हंसीखुशी धोती थी.

शिल्पी व अभय दोनों ने डब्बू की देखरेख के लिए कोई आया रखने की पेशकश की तो शिखा ने मना कर दिया. क्या यह उचित लगता है कि उस के रहते डब्बू आया की गोद में पले? नवजात शिशु के लालनपालन के लिए आया पर विश्वास भी तो नहीं किया जा सकता. जरा सी असावधानी शिशु के लिए जानलेवा बन सकती है.

शिल्पी 2 माह के डब्बू को जेठानी की गोद में सौंप कर निश्चिंत हो कर पुन: अस्पताल जाने लगी.

शिखा के तीनों बच्चे हर वक्त डब्बू के इर्दगिर्द मंडराते रहते. डब्बू सभी के हाथों का खिलौना बन गया था. दिनेश भी रात को दुकान से आ कर डब्बू को उछालउछाल कर खूब हंसाता और अपने पूरे दिन की थकावट भूल जाता था.

अब तक अभय अपनी डाक्टरी में इतना अधिक व्यस्त हो चुका था कि अपने बेटे को गोद में ले कर पुचकारनेदुलारने का वक्त भी नहीं निकाल पाता था.

शिखा का बड़ा बेटा गौरव 3 वर्ष से लगातार इंजीनियरिंग की प्रतियोगिता में बैठता आ रहा था. गौरव की योग्यता देख कर सभी को उस के प्रतियोगिता में आ जाने की उम्मीद थी. पर पता नहीं क्यों गौरव को इस बार भी असफलता ही मिली.

तीसरी बार असफल हो कर गौरव पूरी तरह से निराश हो उठा. इंजीनियर बनने की इच्छा पूरी होने के आसार नजर नहीं आए तो गौरव का मन क्षुब्ध हो उठा. पढ़ाई से जी उचटने लगा.

गौरव को दुखी देख कर शिखा व दिनेश का मन भी बेचैन रहने लगा. दोनों वर्षों से बेटे को इंजीनियर बनाने के सपने देखते आए थे.

लेकिन सपने क्या आसानी से सच हुआ करते हैं? घर में आर्थिक अभाव हो तो छोटेछोटे खर्चे भी पहाड़ मालूम पड़ने लगते हैं.

गौरव के एक मित्र ने चंदा दे कर किसी इंजीनियरिंग कालिज में दाखिला करा देने का प्रस्ताव रखा तो पहली बार दिनेश को अपनी आर्थिक अक्षमता का बोध हुआ.

कहां से लाए वह 30-35 हजार रुपए? फिर गौरव की पढ़ाई और छात्रावास का खर्चा. कैसे पूरा कर सकेगा वह?

दोनों बेटियां भी तो विवाह योग्य होती जा रही थीं और घर का दिनप्रतिदिन बढ़ता हुआ हजारों का खर्चा.

गौरव ने पहले तो चंदा दे कर दाखिला लेने से इनकार कर दिया. उस की नजरों में चंदा देना रिश्वत देने के समान था.

लेकिन जब उस ने अपने मित्रों को चंदा दे कर, दाखिला लेते देखा तो वह तैयार हो गया.

दिनेश ने जब शिखा को बतलाया कि वह गौरव की पढ़ाई का खर्चा उठाने में असमर्थ है तो चिंता के कारण शिखा की भूखप्यास मिट गई. उस ने पहली बार पति के सामने जबान खोली, ‘‘जब भाई को डाक्टरी पढ़ाई थी, तब उस का हजारों का खर्च भारी नहीं लगा था. आज मेरे बेटे की पढ़ाई बोझ लगने लगी है.’’

‘‘गौरव अकेला तुम्हारा ही नहीं, मेरा भी तो बेटा है, शिखा. मेरी बात समझने की कोशिश करो. जब अभय पढ़ रहा था तब घर में अधिक खर्चा नहीं था. मेरी दुकान में उस वक्त अधिक आमदनी हुआ करती थी,’’ दिनेश के स्वर में विवशता थी.

‘‘तो अभय से मांग लो. उस की डाक्टरी तो अब खूब चलने लगी है.’’

‘‘अभय के पास इस वक्त इतने रुपए नहीं होंगे. कुछ दिन पहले उस ने नए डाक्टरी उपकरण खरीदे हैं, दुकान का फर्नीचर बनवाया है.’’

‘‘शिल्पी से मांग लो.’’

‘‘मुझे किसी से कुछ मांगना अच्छा नहीं लगता, शिखा. शिल्पी क्या सोचेगी? जेठजेठानी दो वक्त का साधारण भोजन खिलाते हैं और बदले में हजारों रुपए मांग रहे हैं. हो सकता?है नाराज हो कर वह अलग घर में रहना शुरू कर दे.’’

‘‘तुम्हें दूसरों की चिंता अधिक है. अपने इकलौते बेटे का बिलकुल खयाल नहीं है. आखिर गौरव की पढ़ाई का क्या होगा?’’

दिनेश के पास शिखा की बात का कोई उत्तर नहीं था.

आक्रोश से भरी शिखा अंदर ही अंदर गीली लकड़ी की भांति सुलगती. उस के मन में बारबार एक ही विचार पनप रहा था. क्या अभय व शिल्पी का कोई फर्ज नहीं है? दोनों अपनेअपने पैरों पर खड़े हैं. आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं. क्या अपना खुद का खर्चा भी नहीं उठा सकते?

उसे अपने ऊपर भी बेहद क्रोध आ रहा था. उस की अक्ल पर पत्थर पड़ गए थे जब उस ने शिल्पी को घर में खर्चा देने से रोक दिया था?

सिर्फ एक ही बार तो रोका था. शिल्पी ने दोबारा खर्चा देने की पेशकश क्यों नहीं की? वह घर की स्थिति से अनजान तो नहीं है. रुपयों की कमी के कारण त्योहारों पर भी बच्चों के कपड़े नहीं बन पाते. वर्षों से शिखा मामूली साडि़यों में गुजारा कर रही है. क्या शिल्पी को यह सब दिखाई नहीं देता?

शिखा के जी में आ रहा था, शिल्पी को खूब खरीखोटी सुना कर मन की भड़ास निकाल ले. रूठ कर शिल्पी अलग हो जाएगी तो हो जाए. साथ में रह कर ही वह किसी का क्या भला कर रही है. कभी यह भी नहीं सोचती, जेठानी को थकान लग रही होगी. चाय बना कर पिला दे. थोड़ाबहुत घर के कामों में हाथ बंटा दे. आते ही बिस्तर पर पसर जाती है.

अभय ही कौन सा दूध का धुला है? घर के खर्चे का बोझ हलका करना चाहता तो क्या कोई उस का हाथ पकड़ लेता? सिर्फ झूठमूठ का खर्चा देने का नाटक किया था. परंतु डब्बू का?भोला चेहरा देखते ही शिखा के विचार बदल गए. मांबाप के स्वार्थ की सजा डब्बू को क्यों मिले?

अगर अभय, शिल्पी अलग रहने लगे तो यह मासूम नौकरों का मुहताज बन जाएगा. इस की परवरिश कैसे हो पाएगी? जैसे गौरव उस का बेटा है, वैसे डब्बू भी है. शिल्पी ने उसे जन्म दिया है तो क्या हुआ. ममता, स्नेह, दुलार दे कर तो वह ही पाल रही है.

शिखा ने देवरदेवरानी को इस बारे में अनभिज्ञ रखना ही उचित समझा. अकारण घर में कलह हो या वे दोनों कुछ गलत अर्थ लगा बैठें इसलिए उस ने रुपयों की कमी की या गौरव की पढ़ाई की किसी प्रकार की चर्चा घर में नहीं की.

लेकिन रुपयों की कमी की वजह से गौरव के मन को ठेस पहुंचाना भी उचित नहीं था. उत्साह भंग हो जाने से महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति न हो पाने के कारण गौरव का मानसिक संतुलन भी बिगड़ सकता था.

शिखा को अपने दोचार सोने के आभूषणों का खयाल हो आया. आभूषण बेटे से अधिक कीमती थोड़े ही थे? बेटे की खुशियों के लिए शिखा अपना जीवन तक बलिदान करने को तत्पर थी. फिर बेजान आभूषण क्या माने रखते थे?

वह घर में सब से छिपा कर आभूषण बेच रुपए ले आई. चंदे का, किराए का, इंतजाम तो हो ही चुका था. गौरव के मासिक खर्चे की इतनी फिक्र नहीं थी. जिस तरह से पेट काट कर अभय को डाक्टर बनाया था उसी प्रकार गौरव की पढ़ाई चल सकती थी.

शिखा तरहतरह की गुडि़या बनाने में पारंगत थी. घर के कामों से अवकाश पा कर व वक्त का सदुपयोग कर आसानी से वह 200-300 रुपए महावार कमा सकती थी.

दिनेश चकित रह गया. शिखा के पास इतना रुपया कहां से आ गया? हकीकत जानने, समझने का वक्त नहीं था. गौरव के जाने में सिर्फ एक दिन का वक्त ही तो बाकी बचा था.

बड़े उत्साह से शिखा गौरव के साथ रखने के लिए मठरी, पापड़ी तल रही थी. बेटे से लंबे अर्से तक अलग रहने के खयाल से उस की आंखें बारबार भर आती थीं. दोनों बेटियां भी बारबार आंखें पोंछ रही थीं.

शिल्पी आज कुछ देर से घर लौटी. बड़ी परेशान, गंभीर लग रही थी. आते ही सिर थाम कर कुरसी पर बैठ गई.

कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई? शिखा का दिल आशंकाओं से धड़क उठा. उस ने प्रतिदिन की भांति चाय बना कर शिल्पी को दी तो वह फूट पड़ी, ‘‘भाभी, तुम मुझे कब तक पराया समझती रहोगी? क्या मैं इस घर की बहू नहीं हूं?’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘भाभी, घर में रुपए की कमी थी तो अभय से या मुझ से क्यों नहीं कहा? चुपचाप बाजार जा कर अपने आभूषण क्यों बेच दिए?’’

शिखा घबरा गई. आभूषण बेचने की बात कानों में पड़ने से कहीं गौरव इंजीनियरिंग पढ़ने का इरादा न बदल डाले. उस ने शीघ्रता से कमरे का दरवाजा बंद कर लिया. फिर शिल्पी से चुप हो जाने का आग्रह करने लगी.

शिल्पा कहे जा रही?थी, ‘‘यह तो अच्छा हुआ, वह सर्राफ मामाजी का परिचित था. वह आप को जानता था. उस ने मामाजी से यह बात बतला दी. मामाजी घबराए हुए अस्पताल में मेरे पास पहुंचे, मुझे खूब लताड़ा. ऊंचनीच समझाई कि मैं बहुत लापरवाह हूं, घर का ध्यान नहीं रखती, जेठजेठानी को सता रही हूं, घर में डाक्टर बहू लाने का उन्हें क्या लाभ रहा. मुझे माफ कर दो भाभी. सचमुच मुझ से बहुत भारी भूल हो चुकी है.’’

शिल्पी की आंखों से पश्चात्ताप के आंसू बहने लगे थे. ‘‘अरेअरे, यह क्या करती है? बच्चों की तरह रोने बैठ गई. थकीहारी आई है, ले चाय पी, ठंडी हुई जा रही है,’’ शिखा द्रवित हो कर शिल्पी के आंसू पोंछने लगी.

‘‘मैं आप के सभी आभूषण वापस ले आई हूं, भाभी. मेरे खाते में जितने रुपए जमा थे वे भी निकाल कर ले आई हूं. आप ने कभी कुछ नहीं मांगा, न कभी रुपए लिए. मामाजी ने भी मुझ से कोई आर्थिक सहायता स्वीकार नहीं की. उलटे डांट पिलाई. बताओ भाभी, आखिर मैं इन रुपयों का क्या करूं?’’

‘‘इतने ढेर सारे रुपए निकाल कर ले आई. यह क्या नादानी की तू ने? रास्ते में कोई गुंडा पर्स पार कर देता तो? इन रुपयों को वापस बैंक में जमा कर आना. तुम दोनों को नर्सिंग होम और अपनी कोठी भी तो बनवानी है. मेरे आभूषण ले आई, तेरा यह एहसान ही क्या कम है, मेरे ऊपर?’’

‘‘भाभी, पराएपन की बातें करोगी तो मैं फिर से रोना शुरू कर दूंगी. जिस तरह से डब्बू आप का बेटा है, क्या गौरव मेरा बेटा नहीं है? गौरव को लिखानेपढ़ाने की जिम्मेदारी मेरी है, आप की नहीं.’’

एहसानों के भार से शिखा का सिर झुका जा रहा था. वह भरे गले से बोली, ‘‘तुम्हें भी तो रुपए चाहिए. अपने गाढ़े परिश्रम की कमाई हमारे ऊपर खर्च कर डालोगी तो तुम्हारी कोठी कैसे बनेगी? यह गंदा महल्ला, पुराना मकान किसी डाक्टर के रहने के योग्य कहां है?’’

‘‘आप को छोड़ कर हम कहीं नहीं जाएंगे, भाभी. हमारा मन नहीं लगेगा. डब्बू भी आप के बिना नहीं रह पाएगा. अगर कभी कोठी बनेगी तो सभी के लिए बनेगी. सब इकट्ठे रहेंगे.’’

शिखा को लगा, इस पुराने मकान की दीवारें अब और अधिक मजबूत हो उठी हैं. उस ने शिल्पी को समझने में बहुत बड़ी भूल की थी.

अगर वह सहनशीलता से काम न ले कर शिल्पी से तकरार कर बैठती तो? वर्षों से एकसूत्र में बंधा परिवार तिनकेतिनके हो कर बिखर जाता.

पर शिखा के धैर्य, संयम व गुणवती शिल्पी की बुद्धिमता, साथ ही दोनों के आपसी प्यार ने सुख के नए संसार का सृजन कर डाला.

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वो कोना: नीरा के मन में क्या थी कड़वाहट

कामवाली बाई चंदा से गैस्टरूम की सफाई कराते समय जैसे ही नीरा ने डस्टबिन खोला, उस में पड़ी बीयर की बोतलों से आ रही शराब की बदबू उस के नथुनों में जा घुसी. इस से उस का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा. वह तमतमाती हुई कमरे से बाहर निकली और जोर से चिल्लाई, ‘‘रोहन…रोहन, जल्दी नीचे आओ. मुझे अभी तुम से बात करनी है.’’ उस का तमतमाया चेहरा देख कर चंदा डर के कारण एक कोने में खड़ी हो गई. रोहन के साथसाथ दोनों बेटियां 9 वर्षीया इरा और 12 वर्षीया इला भी हड़बड़ाती सी कमरे से बाहर आ गईं. ‘‘ये बीयर की बोतलें घर में कहां से आईं रोहन?’’ नीरा ने क्रोध से पूछा.

‘‘आशीष लाया था, पर तुम इतने गुस्से में क्यों हो? आखिर हुआ क्या?’’ हमेशा शांत और खुश रहने वाली नीरा को इतना आक्रोशित देख कर रोहन ने हैरान होते हुए पूछा. ‘‘ये बीयर की बोतलें मेरे घर में क्यों आईं और किस ने डिं्रक की?’’ नीरा ने फिर गुस्से से चीखते हुए पूछा.

‘‘अरे, कल तुम मम्मी के यहां गई थीं न, तब मेरे कुछ दोस्त यहां आ गए. उन में से एक का जन्मदिन था. तो खापी कर चले गए. पर इस में इतना आसमान सिर पर उठाने की क्या बात है?’’ रोहन ने तनिक झुंझलाते हुए कहा. ‘‘रोहन, तुम्हें पता है कि मुझे ये सब बिलकुल भी पसंद नहीं है. और मेरे ही घर में, मेरा ही पति.’’ नीरा चीखती हुई बोली और जोरजोर से रोने लगी. नीरा का रौद्र रूप देख कर सभी हैरान थे. थोड़ी देर बाद इरा और इला चुपचाप तैयार हो कर अपने स्कूल चली गईं. नाश्ता कर के रोहन औफिस जाने से पहले नीरा से बोला, ‘‘चंदा के जाने के बाद तुम थोड़ा आराम कर लेना, तुम्हारी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही.’’

नीरा बिना कोई उत्तर दिए शांत बैठी रही. चंदा के जाने के साथ ही घर का काम भी खत्म हो गया. डायनिंग टेबल पर खाना लगा कर नीरा आंखें बंद कर के लेटी ही थी कि बड़ी बेटी इला स्कूल से आ गई. दरवाजा खोल कर वह फिर बिस्तर पर आ लेटी. इला अपना खाना ले कर मां के पास ही आ कर बैठ गई.

नीरा का मूड कुछ ठीक देख कर वह धीरे से बोली, ‘‘मां, सुबह आप को इतना गुस्सा क्यों आ गया था. इतना गुस्सा होते मैं ने आप को कभी नहीं देखा.’’

‘‘तो इस से पहले तुम्हारे पापा ने भी तो ऐसा काम नहीं किया था,’’ नीरा दुखी होती हुई बोली. ‘‘मम्मा, पापा तो कभी नहीं पीते, हो सकता है कोई और ले कर आ गया हो. आजकल तो यह फैशन माना जाता है, मां.’’

‘‘फैशन को स्थायी आदत बनते देर नहीं लगती, बेटा. अब तू जा और अपनी पढ़ाई कर. तेरी इस सब में पड़ने की उम्र नहीं है,’’ नीरा ने इला को टालने की गरज से कहा. ‘‘मां, आप भी न,’’ इला ने तुनक कर कहा और अपने रूम में चली गई.

नीरा सोचने लगी, इला को तो उस ने समझा दिया, वह बहल भी गई पर अपने मन के उस कोने को वह कहां ले जाए जहां सिर्फ दुख ही दुख था. वह अपने बचपन में बहुत कुछ देख चुकी थी. उस के पापा रेलवे में थे और कभीकभार पीना उन के शौक में शामिल था. वे जब भी पी कर आते, मम्मीपापा दोनों में जम कर लड़ाई होती. 7 साल की बच्ची नीरा डर कर एक कोने में खड़ी हो कर दोनों को झगड़ते देखती और फिर सो जाती. अगली सुबह मांपापा को प्यार से बातें करते देखती तो फिर खुश हो जाती. धीरेधीरे नीरा को समझ आने लगा था कि मां को पापा का शराब पीना बिलकुल भी पसंद नहीं था. पापा मां से कभी न पीने का प्रौमिस करते और कुछ दिनों बाद फिर पी कर आ जाते और मां गुस्से से पागल हो जातीं.

उस समय वह 10 साल की थी जब मामा की शादी में वे लोग आगरा गए थे. पापा उस दिन कुछ ज्यादा ही पी कर आ गए थे, इतनी कि उन से ठीक से खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था. नाना के घर में ये सब मना था. मामा और नाना की आंखों से मानो क्रोध के अंगारे निकल रहे थे. मां एक कोने में खड़ी आंसू बहा रही थीं. आज तक उन्होंने मायके में किसी को पापा के शराब पीने के बारे में नहीं बताया था. पर आज पापा ने उन्हें सब के सामने बेइज्जत कर दिया था. मामा किसी तरह उन्हें बैड पर लिटा कर आ गए थे. तब से उस के मन में भी शराब के प्रति नफरत भर गई थी.

अचानक इला की आवाज से वह पुरानी बातों से बाहर निकली. ‘‘मां, पापा आ गए हैं, चाय बना दी है, आप भी आ कर पी लीजिए.’’

वह उठ कर डायनिंग टेबल पर आ कर बैठ गई और खामोशी से चाय पीने लगी.

‘‘कैसी तबीयत है अब नीरा?’’ रोहन ने प्यार से पूछा. ‘‘मेरी तबीयत को क्या हुआ है?’’ नीरा तुनक कर बोली.

‘‘वह सुबह, तुम…’’ रोहन कुछ बोलता उस से पहले ही नीरा ने रोहन का हाथ अपने हाथ में ले लिया और बोली, ‘‘रोहन, प्लीज दोबारा ऐसा मत करना. तुम तो कभी नहीं पीते थे, फिर अब ये दोस्तों को घर ला कर पीनापिलाना कैसे शुरू कर दिया?’’ ‘‘अरे, मैं कहां पीता हूं. आज शादी को 15 साल हो गए, तुम्हें कभी शिकायत का मौका मिला? पर हां, परहेज भी नहीं है. कालेज में कभीकभार पी लेता था. तुम्हें तो पता ही है कि पिछले महीने मेरा कालेज का दोस्त आशीष तबादला हो कर यहीं आ गया है. उसे लगा कि मैं अभी भी…सो, वही ले कर आ गया. कुछ और मित्र भी थे उस के साथ. तुम थीं नहीं तो यहीं खापी कर चले गए. झूठ नहीं कहूंगा, उन के साथ मैं ने भी थोड़ी सी ली थी. पर मुझे नहीं लगता कि वह इतनी बड़ी बात है जिस के लिए तुम इतनी ज्यादा परेशान हो,’’ रोहन ने प्यार से नीरा को समझाने की कोशिश करते हुए यह कहा तो नीरा की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे.

वह भर्राए हुए स्वर में बोली, ‘‘रोहन, आज तक कभी ऐसा अवसर आया ही नहीं जो मैं तुम्हें बताती कि इस शराब के कारण मेरा बचपन, मेरे मातापिता का प्यार सब गुम हो गया और मैं समय से बहुत पहले ही बड़ी हो गई.’’ ‘‘क्या मतलब, पापाजी?’’ रोहन हैरानी से बोला.

‘‘हां रोहन, पापा डिं्रक करते थे, पर कभीकभार. मां ने अपने घर में कभी ऐसा कुछ नहीं देखा था. पर फिर भी शुरू में उन्होंने अनदेखा किया और पापा से शराब छोड़ने के लिए कहा. पहले जब भी पापा पी कर आते थे, तो चुपचाप आ कर सो जाते थे. धीरेधीरे पापा का पीना बढ़ता गया. जब भी पापा पी कर आते, मां का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचता. दोनों में जम कर बहस होती और हमारा घर महाभारत का मैदान बन जाता था,’’ कहते हुए नीरा एक बार फिर अतीत में पहुंच गई. ‘‘तुम्हें पता है रोहन, जब मैं 12वीं की फाइनल परीक्षा दे रही थी तो एक दिन पापा पी कर घर आ गए. मम्मीपापा में उस दिन बात हाथापाई तक पहुंच गई. पापा गुस्से में घर से बाहर चले गए और रातभर वापस नहीं आए. दोनों को याद भी नहीं रहा कि कल उन की बेटी का एग्जाम है. नतीजा यह हुआ कि अगले दिन होने वाला मेरा कैमिस्ट्री का पेपर शराब की भेंट चढ़ गया. मैं पूरी रात रोती ही रही,’’ नीरा ने उदासी भरे स्वर में कहा.

‘‘ओह, तो इसलिए तुम सुबह गुस्से में थीं. पर आज तक तुम ने इस बारे में कभी बताया ही नहीं,’’ रोहन ने गंभीर स्वर में कहा. ‘‘मैं जब शादी के बाद यहां आई तो सब से ज्यादा खुश इसी बात से थी कि तुम्हारे यहां शराब को कोई हाथ भी नहीं लगाता था. मैं तुम्हें ये बातें बता कर अपने पापा की इमेज खराब नहीं करना चाहती थी. पर आज…’’ नीरा ने गहरी सांस लेते हुए बात अधूरी ही छोड़ दी.

‘‘चलो, अब दुख देने वाली यादों को दिल से निकाल दो. ये बंदा तुम्हारा दीवाना है, जो तुम कहोगी वही करेगा. चलो, हम दोनों मिल कर डिनर की तैयारी करते हैं,’’ रोहन ने हंसते हुए कहा और नीरा को ले कर किचन में चला गया. ‘‘रोहन, तुम सच कह रहे हो न?’’ पहले के अनुभवों से डरी नीरा गैस पर कुकर चढ़ाती हुई बोली.

‘‘हां भई, हां. पर एक बात कहूं नीरा, बुरा मत मानना. चूंकि तुम्हारे पापाजी तो हमारी शादी के 6 माह बाद ही गुजर गए थे पर जितना मैं ने उन्हें तुम्हारे बाबत जाना है, उस से लगता है कि वे सुलझे हुए इंसान थे. फिर उन को पीने की इतनी लत कैसे लग गई कि वे छोड़ ही नहीं पाए. जरूर तुम्हारी मम्मी तुम्हारे पापा को अपना दीवाना नहीं बना पाई होंगी. देखो, तुम ने कैसे मुझे अपने प्यार के जाल में बांध रखा है,’’ रोहन ने माहौल को हलका करने की गरज से नीरा को छेड़ते हुए कहा. ‘‘हां, रोहन, तुम काफी हद तक सही हो. मां ने पापा को कभी समझने की कोशिश नहीं की. पापा अपने परिवार को बहुत चाहते थे और मां उन के परिवार से उतनी ही नफरत करती थीं. अकसर इन्हीं मुद्दों पर बहस शुरू होती, जो झगड़े का रूप ले लेती. पापा गुस्से में घर से बाहर चले जाते और शराब का सहारा ले लेते. हमारे घर में रुपयापैसा सबकुछ था. बस, शांति नहीं थी.

‘‘इसीलिए तो मैं कह रही थी रोहन कि कभीकभार पीना कब हमेशा की लत बन जाती है, इंसान को पता ही नहीं चलता. तुम्हें ताज्जुब होगा कि पापा मेरी शादी के दिन भी खुद को कंट्रोल नहीं कर पाए थे और विदाई से पहले पी कर आए थे. उन का अंत भी शराब से ही हुआ. एक रात नशे में गाड़ी चला कर आ रहे थे कि एक ट्रक ने टक्कर मार दी. उस समय चूंकि मेरी नईनई शादी हुई थी, इसलिए उन की मौत को सिर्फ दुर्घटना के रूप में ही प्रस्तुत किया गया. परंतु सचाई यह थी कि वे शराब के नशे में गाड़ी चला रहे थे,’’ बोलतेबोलते नीरा सिसकने लगी. ‘‘बस, अब और दुखी होने की जरूरत नहीं है. खाना खाते हैं चल कर,’’ रोहन ने नीरा का मूड बदलने की कोशिश करते हुए कहा.

‘‘हां, इला और इरा को भी आवाज लगा दो, तब तक मैं खाना लगाती हूं,’’ नीरा ने आंसू पोंछते हुए कहा और टेबल पर खाना लगाने लगी. ‘‘अरे वाह, आलू के परांठे,’’ इरा कैसरोल में आलू के परांठे देख कर खुशी से चहकती हुई बोली.

‘‘वेरी अनएक्सपैक्टिड, वरना मां का सुबह से मूड देख कर तो मुझे लगा था कि आज खाने में खिचड़ी या दलिया ही मिलने वाला है. पापा, आप ने खाना बनाया?’’ इरा ने मुसकराते हुए तिरछी नजरों से रोहन की ओर देखते हुए पूछा. ‘‘अरे, नहीं भाई, तुम्हारी मम्मी ने ही बनाया है. तुम्हारी मम्मी की यही तो खासियत है कि परिस्थितियां कैसी भी हों, यह अपने बच्चों और पति को नहीं भूलती. क्यों, है न नीरा?’’ रोहन ने मुसकराते हुए उस की ओर देखते हुए कहा तो वह भी अपनी मुसकान को नहीं रोक सकी.

दोनों बेटियां खाना खा कर चली गईं तो रोहन ने नीरा का हाथ अपने हाथ में ले लिया और प्यार से बोला, ‘‘मेरे दिल की रानी, इतनी पीड़ा, इतना दुख अपने मन में समेटे थी और मुझे आज तक आभास ही नहीं हुआ. कैसा पति हूं मैं?’’ रोहन ने उस की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘नहीं रोहन, ऐसा मत कहो. खुद को जरा भी दोष मत दो. तुम्हारे जैसा समझदार और प्यार करने वाला पति, फूल सी प्यारी 2 बेटियां और इतने अच्छे सासससुर को पा कर मैं अपनी दुखतकलीफ भूल गई थी. पर आज ये बोतलें देख कर लगा कि अतीत की काली परछाइयां एक बार फिर मुझे घेरने आ गई हैं,’’ नीरा गंभीर स्वर में बोली. ‘‘आज से, बल्कि अभी से ही यह बंदा तुम से प्रौमिस करता है कि शराब या उस से जुड़ी किसी भी चीज को ताउम्र हाथ नहीं लगाएगा. खुश…’’ रोहन ने प्यार से नीरा के गाल थपथपाते हुए कहा, ‘‘दरअसल नीरा, हम पुरुष बड़े अलग मिजाज के होते हैं. हम से जो काम प्यार से करवाया जा सकता है, वह गुस्से और अहं से बिलकुल मुमकिन नहीं है. बस, शायद मम्मीजी से यहीं चूक हो गई. वे प्यार और समझदारी से काम लेतीं तो शायद बात कुछ और होती. वे पापा को समझ नहीं पाईं, पर इस का मतलब यह भी नहीं कि पापा शराब पी कर घर के माहौल को और खराब करते. कभी अच्छे पलों में वे भी तो मां को समझाने की कोशिश कर सकते थे. उन्होंने खुद कभी इसे छोड़ने के बारे में क्यों नहीं सोचा?’’ रोहन बरतन सिंक में रखते हुए धीरे से बोला.

‘‘ऐसा नहीं है रोहन, पापा ने कई बार छोड़ने की कोशिश की पर शायद उन्हें घर में वह कोना ही नहीं मिल पाता था जहां वे सुकून तलाशते थे. दादी, चाचा, बूआ या परिवार के दूसरे सदस्यों के लिए जब भी पापा कुछ करना चाहते, मां बिफर जातीं. पापा घर से दूर और शराब के नजदीक होते गए. न मां खुद को बदल पा रही थीं और न पापा. ऐसा नहीं कि दोनों में प्यार की कोई कमी थी, बस, जैसे ही शराब बीच में आ जाती, घर का पूरा माहौल ही बदल जाता था.’’ ‘‘अरे, बाप रे, 12 बज गए. सुबह मुझे औफिस भी जाना है,’’ कह कर रोहन उसे बैडरूम में ले गया.

जब वह बिस्तर पर लेटी तो रोहन ने उस का सिर अपने सीने पर रख लिया और बोला, ‘‘आज के बाद इस घर में ऐसी कोई चर्चा नहीं होगी.’’ नीरा बरसों से मन में दबी कड़वाहट, दुख, तकलीफ सब भूल कर चैन की नींद सो गई.

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वो अजनबी है: प्रिया ने क्या किया था

मेरेजीवन में तुम वसंत की तरह आए और पतझड़ की तरह चले गए. तुम ने न तो मेरी भीगी आंखों को देखा और न ही मेरी आहों को महसूस किया.

यदि मैं चाहती तो तुम्हें बता देती कि तलाक लेना इतना भी आसान नहीं जितनी आसानी से मैं ने तुम्हारे उन तलाक के कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए, जिन्होंने मेरी वजूद की नींव को ही हिला दिया.

यदि मैं चाहती तो अपनी इस टूटीबिखरी जिंदगी का मुआवजा तुम से जीवनभर वसूलती रहती पर मेरे अंदर की औरत को यह कतई मंजूर नहीं था, क्योंकि जिस रिश्ते को अंजाम तक पहुंचना ही नहीं था उसे एक खूबसूरत मोड़ दे कर छोड़ने में ही मुझे अपनी और तुम्हारी भलाई दिखी थी.

मगर मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ चंद्र? हमतुम प्यार करते थे न? तुम ने मेरी नौकरी के साथ ही मुझे अपनाया था न? फिर शादी के बाद ऐसा क्या हुआ जो तुम आम मर्दों की तरह अपनी जिद को मुझ पर लादने लगे?

अब तुम्हें क्या पता कि यह नौकरी मुझे कितनी मुश्किल से मिली थी पर तुम ने तो बिना सोचेसमझे ही फैसला कर लिया और हुक्म दे दिया कि यह नौकरी छोड़ दो निर्मला.

चंद्र तुम्हें क्या पता कि मुश्किलों से मिली चीज को आसानी से छोड़ा नहीं जा सकता. फिर यह तो मेरी नौकरी थी न. तुम ने मुझे एक बेटी दी. याद है उस के जन्म पर हम दोनों कितने खुश थे पर तुम्हारी जिद ने इस खुशी के एहसास को भी कम कर दिया. तुम्हारा कहना था कि औरत का काम घर और बच्चे संभालना है. मैं हैरान थी. तुम कितने बदल गए थे. धीरेधीरे मुझे लगने लगा था कि तुम्हारे साथ मेरा कोई भविष्य नहीं है. तुम मेरी सोच को दबा कर मुझ पर हुकूमत करना चाहते थे.

आखिर हमारे तलाक का मुकदमा अदालत में आ ही गया. 5 साल तक हर तारीख पर मैं अदालत की सीढि़यां चढ़तीउतरती रही. दिलदिमाग सब सुन्न पड़ गए थे. कभीकभी सोचती पता नहीं कब छुटकारा मिलेगा, पर आखिर छुटकारा मिल ही गया. जब 2 लोग आपसी तालमेल से साथ नहीं रह सकते तो कानून भी आखिर कब तक उन्हें बांध कर रख सकता था. पर जिस दिन तलाक मिल गया उस दिन लगा जैसे सबकुछ टूट कर बिखर गया और एक डर ने धड़कनें बढ़ा दीं. जब एक दिन चंद्र ने कानून के जरीए प्रिया को पाने की कोशिश की.

मगर तुम ने पास आ कर कहा, ‘‘निर्मला प्रिया तुम्हारे पास ही रहेगी, पर कभी यह मत भूलना कि वह मेरी भी बेटी है. मैं उस से मिलने आता रहूंगा, उस की चिंता रहेगी मुझे.’’

मैं क्या कहती. सबकुछ तो टूट गया था. पहले चंद्र से प्यार हुआ, फिर परिवार से बगावत कर के उस से शादी हुई. बच्ची पैदा हुई और फिर अकेली हो गई. नौकरी और चंद्र में से मुझे किसी एक को चुनना था और मैं ने नौकरी को चुन लिया. जानती थी सरकारी नौकरी थी. मरते दम तक साथ देगी पर चंद्र? उस ने तो बीच चौराहे पर अकेला छोड़ दिया था.

जख्म ताजा था, दर्द भी काफी था पर समय के साथसाथ हर जख्म भर जाता है,

ऐसा सुना था और सोचा मेरा भी भर ही जाएगा.

चंद्र और प्रिया के बीच एक डेट फिक्स हो गई थी. हर महीने का एक दिन उस ने प्रिया के नाम किया था. उस दिन का इंतजार प्रिया भी बेसब्री से करती. चंद्र आता और प्रिया को ले जाता. शाम को जब प्रिया वापस आती तो उस के पास ढेर सारे गिफ्ट होते. वह कहती कि मां पापा कितने अच्छे हैं, मेरा कितना खयाल रखते हैं और मैं… मेरे दिल में एक हूक सी उठती. इस बात का जवाब मुझे कभी नहीं मिलता कि मैं कैसी मां हूं.

प्रिया का कहना भी ठीक था. चंद्र ने न तो वह घर मुझ से वापस लिया, न ही अपनी बेटी, फिर मैं उस पर क्या इलजाम लगाऊं.

तलाक के बाद चंद्र ने कहा, ‘‘निर्मला, तुम प्रिया के साथ इसी घर में रहोगी.’’

मगर वह जैसे ही जाने लगा प्रिया उस से लिपट गई. पापा, मैं आप के साथ जाऊंगी.

5 साल की बच्ची की यह जिद मुझे अखर गई और मैं ने उसे कस कर तमाचा जड़ दिया. उसी दिन से हम मांबेटी के बीच एक हलकी सी दरार पैदा हो गई और फिर धीरेधीरे चौड़ी होती गई.

मैं कभीकभी सोचती कि क्या सारी गलती मेरी थी? क्या मुझे अपने पति को उस के दंभ के साथ अपनाए रखना चाहिए था? आखिर चंद्र ने क्यों मेरी नौकरी छुड़ानेकी जिद ठान ली थी? यह तो ठीक था कि नौकरी छोड़ने के बाद मैं चैन की जिंदगी गुजारती, एक आम औरत की तरह औरतों के साथ मेलजोल बढ़ाती, किट्टी पार्टियों में हिस्सेदारी करती और महल्ले में क्याक्या हो रहा है उस की पूरीपूरी जानकारी रखती. रोज पति से गहनों कपड़ों की फरमाइश करती. मगर मैं एक आम औरत से हट कर थी. मैं कैसे अपने अंदर की क्षमता को मार कर एक आम औरत बन जाती? क्या पुरुष की दासी बनने के बाद ही उस की गृहस्थी पर राज करने का अधिकार औरत को मिल सकता है?

विचारों की यह कशमकश हर पल, हर घड़ी मन में कुहराम मचाए रखती पर समझ में नहीं आता कि गलती किस की थी?

मैं एक मध्यवर्गीय परिवार की बेटी थी. पिता रिटायर्ड अध्यापक थे. उन के पास 2 कमरों का छोटा सा फ्लैट था. एक कमरे में पापामम्मी और दूसरे में भाईभाभी और उन के बच्चे रहते थे. तलाक के मुकदमे के दौरान ही भाभी के तेवर बदलने लगे थे. उस ने एक दिन कह ही डाला, ‘‘तलाक के बाद तुम प्रिया के साथ कहां रहोगी निर्मला?’’

यानी एक तलाकशुदा लड़की को अपने पिता के घर में कोई जगह नहीं थी. आज सोचती हूं तो मन कांप उठता है. यदि चंद्र ने मुझे यह मकान रहने को न दिया होता तो?

पिछले 12 सालों से दिलोदिमाग घटनाओं के चक्रव्यूह में फंसा था कि अचानक जिंदगी में कुछ बदलाव आया. दफ्तर में नया बौस आ गया था. काम के दौरान अकसर फाइलें ले कर बौस के पास जाना पड़ता. बौस का नाम था शेखर.

धीरेधीरे मुझे महसूस होने लगा कि शेखर मुझ में कुछ ज्यादा ही रुचि लेने लगा है.

एक दिन शेखर ने कहा, ‘‘पता चला है कि आप का अपने पति से तलाक हो गया है?’’

‘‘जी हां,’’ मैं ने धीरे से कहा और फिर फाइल उठा कर चलने लगी तो शेखर ने फिर कहा, ‘‘मैं आप की तकलीफ को समझता हूं, क्योंकि मैं भी इस दर्द से गुजर चुका हूं.’’

मेरे दिल की धड़कनें तेज होने लगीं. मैं उन के कैबिन से बार आ गई.

एक लंबे अरसे से मर्द से दूर रहने के बाद मैं पत्थर की शिला सी बन गई थी पर अब आतेजाते शेखर की नजरों का सेंक मेरे अंदर की रूखीसूखी औरत को पिघलाने लगा था.

एक दिन आईने के सामने बैठ कर मैं ने खुद को गौर से देखा. मुझे लगा मेरा खूबसूरत चेहरा अभी भी वैसा ही है. चंद्र अकसर कहा करता था, ‘‘तुम कितनी सुंदर हो निर्मला.’’

बरसों बाद अचानक मेरी सोच ने करवट ली कि निर्मला तू क्यों खुद को मिटा रही है? खुद को संभाल निर्मला.

मैं अगले दिन जब दफ्तर पहुंची तो साथ काम करने वाली महिलाओं ने कहा, ‘‘वाऊ… निर्मला आज तो जंच रही हो.’’

मैं ने पुरुष सहकर्मियों की आंखों में भी अपने लिए प्रशंसा के भाव देखे.

उस दिन शाम को छुट्टी के बाद बस स्टौप पर पहुंची तो अचानक शेखर की गाड़ी पास आ खड़ी हुई, ‘‘निर्मलाजी गाड़ी में बैठिए. मैं ड्रौप कर दूंगा.’’

‘‘नहीं सर मैं चली जाऊंगी.’’

‘‘जानता हूं आप रोज ही जाती हैं बस से, पर देख रही हैं काले बादल कैसे गरज रहे हैं… लगता है जल्दी बारिश शुरू होने लगेगी. फिर आप की बेटी भी तो आप का इंतजार कर रही होगी.’’

प्रिया का खयाल आते ही मैं गाड़ी में बैठ गई. लेकिन घर पहुंचतेपहुंचते तेज बरसात होने लगी थी. घर के सामने शेखर ने गाड़ी रोकी तो मैं ने कहा, ‘‘सर, बारिश तेज हो गई है. आप अंदर आ जाइए. बारिश बंद होने के बाद चले जाना.’’

शेखर मेरे साथ अंदर आ गए. प्रिया मोबाइल पर किसी से बात कर रही थी. उस ने शेखर को हैरानी से देखा तो मैं ने कहा, ‘‘प्रिया, ये शेखर सर हैं हमारी कंपनी के बौस.’’

प्रिया ने शेखर को नमस्ते की और फिर अपने कमरे में चली गई. मैं ने महसूस किया कि प्रिया को शेखर का आना अच्छा नहीं लगा.

मैं ने कौफी बनाई और प्याला शेखर को थमा दिया. कुछ देर तक शेखर हमारे बारे में कुछ पूछते रहे, फिर बरसात के रुकते ही चले गए.

शेखर के जाने के बाद प्रिया मेरे पास आई और बोली, ‘‘मम्मा, मुझे तुम्हारा गैरों से मेलजोल पसंद नहीं है.’’

मेरे मुंह से अचानक निकला, ‘‘कोई अपना भी तो नहीं है.’’

प्रिया ने मुझे घूर कर देखा और फिर चली गई. लेकिन उस दिन के बाद मुझे लगा कि शेखर मुझ में दिलचस्पी लेने लगे हैं. उन्होंने एक दिन अपने बारे में बताया कि न चाहते हुए भी उन्हें अपनी पत्नी से तलाक लेना पड़ा.

अब कभीकभी शेखर मुझे अपनी गाड़ी में खाने पर ले जाते. धीरेधीरे मुझे उन का साथ अच्छा लगने लगा और हम दोनों और करीब आने लगे. मुझे लगने लगा कि मेरे मन का सूना कोना अब भरने लगा है. जबतब शेखर को भी मैं घर खाने पर बुलाने लगी थी. लेकिन मुझे यह बात अच्छी तरह समझ में आ रही थी कि यदि मैं ने शेखर के साथ रिश्ते में एक कदम आगे बढ़ाया तो यह बात प्रिया को कतई मंजूर नहीं होगी.

शेखर अब इस रिश्ते को नाम देना चाहते थे. वे मुझे से शादी करना चाहते थे

पर प्रिया… उस का क्या होगा? वह बहुत संवेदनशील है… इस रिश्ते को कभी नहीं कुबूलेगी. लेकिन शेखर कहते कि माना प्रिया बड़ी संवेदनशील है, पर धीरेधीरे सौतेले पिता को कुबूल कर लेगी मगर मैं जानती थी शेखर के मामले में मैं उसी दो राहे पर आ खड़ी हुई थी जहां 17 साल पहले खड़ी थी. तब मुझे नौकरी और पति दोनों में से एक को चुनना था और अब मुझे शेखर और प्रिया दोनों में से एक को चुनना होगा, क्योंकि प्रिया किसी भी कीमत पर सौतेले पिता को कुबूल नहीं करेगी.

एक दिन प्रिया जब चंद्र से मिल कर आई तो गुस्से में भरी थी. उस ने आते ही अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया. मैं देर तक दरवाजा खुलवाने की कोशिश करती रही, लेकिन प्रिया ने कोई जवाब नहीं दिया. मैं डर गई कि कहीं प्रिया कुछ ऐसावैसा न कर ले. मगर 1 घंटे बाद जब वह बाहर आई तो बहुत उदास थी. मैं उस का हाथ पकड़ अपने कमरे में ले आई और फिर खींच कर अपनी गोद में लिटा लिया और पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा?’’

प्रिया फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘मम्मा, पापा ने शादी कर ली है.’’

उफ, अपने आदर्श पिता की जो तसवीर बेटी के मन में बसी थी वह टूट गईं. मेरे अंदर भी कुछकुछ टूटने लगा. चंद्र काफी दूर था… मेरे और उस के बीच कुछ भी नहीं था पर उस की शादी की बात सुन कर दर्द फिर हिलोरें लेने लगा.

मैं ने प्रिया को अपनी बांहों में बांध कर उस का दर्द कम करने की कोशिश की. फिर उठ कर चाय बना लाई. वह चुपचाप चाय पीने लगी. पर मेरे अंदर एक डर समाया था. शेखर जल्द ही शादी की तारीख तय करने वाले थे… यदि प्रिया ने कोई सीधा सवाल मुझ से पूछ लिया तो?

मैं उठी और आईने के सामने खड़ी हो कर कई सवाल किए. फिर मुझे अपने सवालों के जवाब मिल गए और मैं प्रिया के पास आ गई.

इस से पहले कि प्रिया मुझ से कुछ कहती मैं ने कहा, ‘‘प्रिया, पापा ने शादी कर ली है तो क्या… तुम्हारी ममा है न तुम्हारे साथ… तुम्हारी ममा सिर्फ तुम्हारी है.’’

यह सुनते ही प्रिय मेरे सीने से लग गई.

इस के बाद मैं ने शेखर से कह दिया कि हम केवल दोस्त हो सकते हैं, और किसी रिश्ते में नहीं बंध सकते. शेखर काफी समझदार थे. उन्होंने सहज रूप से इसे स्वीकार लिया.

हर बार की तरह उस दिन भी चंद्र की गाड़ी आ खड़ी हुई और चंद्र हौर्न बजाने लगा. लेकिन प्रिया ने कहा, ‘‘नहीं जाना  ममा मुझे.’’

तब तक चंद्र दरवाजे पर आ गया था.

पिता को देख कर प्रिया भड़क गई. बोली, ‘‘कौन हैं आप?’’

चंद्र ने हैरानी से प्रिया को देखा. उस के तेवरों की तपिश को महसूस किया. फिर चुपचाप सीढि़यां उतर लौट गया.

मैं ने हैरानी से प्रिया को देखा, तो वह बोली, ‘‘वह एक अजनबी है ममा.’’

प्रिया की बात सुन कर एक फीकी सी मुसकराहट मेरे होंठों पर आ गई और फिर मैं किचन में चली गई.

सतही तौर पर तो लगता था कि सबकुछ ठीक हो गया है, पर ऐसा कुछ था नहीं. मैं और प्रिया दोनों ही सहज नहीं हो पा रही थीं.

मैं प्रिया को आश्वस्त करना चाहती थी और इसीलिए शेखर से भी दूरियां बना ली थीं. लेकिन मैं महसूस कर रही थी कि कोई अपराधबोध प्रिया को अंदर ही अंदर खल रहा है.

एक दिन प्रिया कालेज से लौटी तो मुझे घर में देख कर बोली, ‘‘ममा, आप आज औफिस नहीं गईं?’’

‘‘मन कुछ ठीक नहीं था, इसलिए सोचा घर पर ही रह कर कुछ पढूंलिखूं तो शायद…’’

‘‘ममा, क्या मैं बहुत बुरी बेटी हूं?’’ प्रिया ने पूछा.

‘‘ओह नो… तुम तो मेरी प्यारी बेटी हो. ऐसा क्यों सोचती हो तुम?’’

‘‘ममा, पिछले कुछ दिनों से जो कुछ घटित हो रहा है उस ने मुझे कुछ सोचने को मजबूर कर दिया है.’’

प्रिया को मैं ने घूर कर देखा तो लगा कि वह छोटी बच्ची नहीं रही. उस की बातों

से लगने लगा था कि हालात ने उसे गंभीर बना दिया है.

तभी प्रिया बोली, ‘‘ममा, मैं आप की उदासी का कारण समझ सकती हूं कि पापा ने आप को कितना दर्द दिया है.’’

मैं ने टालने की गरज से कहां, ‘‘चलो हाथमुंह धो लो… देखो तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो.’’

‘‘नहीं ममा मैं अब यह समझने लगी हूं कि अकेलापन इंसान को किस कदर आहत कर देता है… शायद इसीलिए पापा ने भी शादी कर ली.’’

मैं ने प्रिया को हैरानी से देखा और समझा कि वह कुछ कहना चाहती है पर शायद संकोच के कारण कह नहीं पा रही. मैं ने चाय का प्याला उस के सामने रखा और खुद भी खोमोशी से चाय पीने लगी.

तभी प्रिया ने कहा, ‘‘ममा, मैं आज आप के औफिस गई थी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘शेखर अंकल से मिलने… सच कहूं तो कभीकभी हम अपनेआप में इतने खो जाते हैं कि सामने वाले को समझ ही नहीं पाते.’’

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’

‘‘यही कि शेखर अंकल अच्छे इंसान हैं.’’ प्रिया ने यह कहा तो मेरे दिल की धड़कने बढ़ने लगीं. मैं उस के अगले किसी भी सवाल के लिए खुद को तैयार नहीं कर पा रही थी.

तभी प्रिया ने कहा, ‘‘क्या आप शेखर अंकल को पसंद करती हैं?’’

शेखर का उदास चेहरा मेरी आंखों के सामने घूम गया और फिर मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया, ‘‘हां.’’

प्रिया खिलखिला कर हंसने लगी. फिर बोली, ‘‘तो फिर आप उन से शादी क्यों नहीं कर लेतीं?’’

‘‘मगर तुम… नहीं प्रिया यह नहीं हो सकता,’’ मैं ने कहा.

‘‘क्यों नहीं हो सकता बल्कि मैं तो कहती हूं यही होगा. आप ने बहुत दुख झेले हैं ममा… अब आप को जीवनसाथी मिलेगा और मुझे अपना पापा.’’

मैं प्रिया के इस बदले मिजाज से हैरान थी.

तभी दरवाजे पर आहट हुई. शेखर थे. उन्होंने अंदर आ कर मेरा हाथ थाम लिया, ‘‘प्रिया बिलकुल ठीक कह रही है निर्मला… सही फैसले सही समय पर ले लेने में ही बुद्धिमत्ता होती है.’’

मैं ने प्रिया की ओर देखा. उस की आंखों में इस रिश्ते के लिए स्वीकृति थी और फिर मैं ने भी शेखर को अपनी स्वीकृति दे दी.

‘‘मुझे यह बात अच्छी तरह समझ में आ रही थी कि यदि मैं ने शेखर के साथ रिश्ते में एक कदम आगे बढ़ाया तो यह बात प्रिया को कतई मंजूर नहीं होगी…’’

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इल्जाम- भाग 3: किसने किए थे गायत्री के गहने चोरी

भवानी प्रसाद पत्नी को चुप कराने लगे फिर समीक्षा से बोले,” असल में इन की भाभी इन्हें देखने आना चाहती थीं पर इन्होने भाभी से मिलने से इंकार कर दिया. अब मुझे समझ नहीं आ रहा कि जो भाभी इन के दिल के इतनी करीब रही हैं उन से ही यह मिलना क्यों नहीं चाहती. रो भी रही है और मिलना भी नहीं है.”

“पिताजी आप मम्मी जी से आराम से बात कर लो, मैं बाहर चली जाती हूं. शायद वह आप से रोने का कारण शेयर कर लें,” कह कर समीक्षा कमरे से बाहर निकल गई.

भवानी प्रसाद ने जब अकेले में पत्नी से वजह पूछी तो कामिनी रोती हुई बोली,”आज मुझे बहुत पछतावा हो रहा है. मैं ने समीक्षा और उस के निर्दोष भाईबहन के साथ जो किया वह माफी योग्य भी नहीं.”

“यानि तुम ने जानबूझ कर….. “”हां मैं ने जानबूझ कर उन पर इल्जाम लगाया था. पर यह सब मेरे दिमाग की उपज नहीं थी. सच मानो मैं ने वह सब अपनी भाभी के कहने पर किया था. उन्होंने ही मुझे सलाह दी थी कि यदि तुम समीक्षा को घर से निकलवाना चाहती हो तो उस के घरवालों पर इल्जाम लगाओ. उन्हें बेइज्जत करो….” कहतेकहते वह फिर से रोने लगीं.

भवानी प्रसाद आश्चर्य से उस का चेहरा देखते रह गए.”हां भाभी ने ही मुझे कहा था कि बहू को मयंक और अपने पति के मन से उतारने के लिए उस के घरवालों पर चोरी का इल्जाम लगा दो. बहू खुद ही शर्मसार हो कर घर छोड़ देगी. मयंक भी पत्नी से झगड़ा करेगा और समीक्षा के घर वाले भी फिर दोबारा इधर का रुख नहीं करेंगे. ”

“तुम ऐसा कैसे कर सकती हो कामिनी. भाभी के कहने पर तुम ने 2 निर्दोष बच्चों के ऊपर इल्जाम लगा दिया. तुम्हारी योजना पूरी भी हो गई. दोनों बच्चे दोबारा कभी भी हमारे घर नहीं आए. तुम समीक्षा को मयंक और मेरे मन से उतारना चाहती थी, पर क्यों कामिनी? अपने बेटे की खुशियों की दुश्मन क्यों बनना चाहती थी? माना भाभी ने तुम्हें सलाह दी पर खुद भी तो सोचना चाहिए था न,” भवानी प्रसाद ने गुस्से में कहा.

कामिनी फूटफूट कर रोती हुई खुद को कोसने लगी तो उस की खराब हालत देखते हुए भवानी प्रसाद ने जल्द बात खत्म की और उसे सीने से लगा कर कहा,” जो हो गया उसे भूल जाओ कामिनी. अब तुम्हारे आगे जो है उसे देखो. तुम्हारी बहू तुम्हारी दिनरात सेवा कर रही है. बस उसे जी भर कर आशीर्वाद दे लो. तुम ने जो गलत किया उस का पछतावा खत्म हो जाएगा.”

“पछतावा तो तब खत्म होगा जब दोनों बच्चे फिर से इस घर में आएं. प्लीज आप समीक्षा को समझाओ न. वह अपने भाईबहन को फिर से हमारे घर में बुलाए. मैं एक बार उन से माफी मांग लूं.””पहले तो तुम्हें समीक्षा से माफी मांगनी चाहिए कामिनी. मैं समीक्षा को बुला कर लाता हूं.”

भवानी प्रसाद ने समीक्षा को बुलाया तो वह दौड़ी आई,” क्या हुआ पापा जी तबियत तो ठीक है न मम्मी की?” कामिनी समीक्षा के दोनों हाथ पकड़ कर सिर से लगा कर रोती हुई बोलीं,” माफ कर दे बेटा, मैं ने तेरे साथ बहुत गलत किया था. पर तू इस बुढ़िया के लिए अपनी नौकरी, अपना घर, अपने पति और बच्चों को छोड़ कर यहां बैठी हुई है, सेवा में लगी है. अरी पगली इतनी सेवा तो बेटियां भी नहीं करती और तू अपनी कुटिल, दुष्ट सास के लिए इतना कर रही है. ऐसी सास जिस ने कभी भी तुझे दिल से नहीं स्वीकारा. तेरे घर वालों पर चोरी का इल्जाम लगा दिया. उस बुढ़िया के लिए तू इतना क्यों कर रही है मेरी बच्ची? इस बुढ़िया को माफ कर दे,”

“मम्मीजी आप यह क्या कह रही हैं? आप मेरी मां जैसी हैं न. आप की तकलीफ में आप के काम आ सकूं यह तो मेरे लिए खुशी की बात है. पर आप इस तरह रोओ नहीं मम्मी जी प्लीज आप की तबियत खराब हो जाएगी. माफी की कोई बात नहीं. आप मुझे बहू के रूप में देखना नहीं चाहती थीं इसी वजह से आप का यह रिएक्शन हुआ. पर मुझे पता है आप दिल की बहुत अच्छी हैं और पछतावा करने की कोई बात नहीं. मैं मानती हूं मेरे भाईबहन के साथ आप ने बहुत गलत किया था. आप को इल्जाम लगाना था तो मुझ पर लगातीं मगर मेरे भाईबहन ने तो किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ा था, ” समीक्षा ने उन के हाथों को सहलाते हुए कहा.

“इसी बात का तो पछतावा है मुझे मेरी बच्ची. मैं ने तेरे साथ बहुत गलत किया. देख ले इसी बात की सजा मिल रही है मुझे. बिस्तर पर आ गिरी हूं. “”मम्मी जी ऐसा कुछ नहीं है. आप ठीक हो जाओगी.”

“बेटा अब मुझे इस पछतावे से मुक्ति तभी मिलेगी जब तेरे भाईबहन से हाथ जोड़ कर माफी मांग लूंगी.””मम्मी जी आप परेशान न हों. मैं उन से बात करती हूं. मेरी बहन तो अभी अहमदाबाद में है. वहीँ शादी हुई है उस की इसलिए शायद वह नहीं आ सकेगी. पर भाई को बुलाने की पूरी कोशिश करती हूं,” कह कर समीक्षा ने फ़ोन उठा लिया.

उस ने फोन पर भाई को घर बुलाया तो उस ने साफ इंकार कर दिया,” दीदी आप तो जानती हो उस इल्जाम को मैं कितनी मुश्किल से अपने जेहन से दूर कर पाया हूँ.  22 -23 साल की उम्र में चोरी का इल्जाम लग जाए और वह भी अपनी बहन के ससुराल में तो बस एक यही इच्छा होती है कि कहीं जा कर डूब मरो.”

“नहीं दिवेश ऐसा नहीं सोचते. माफ कर दे उन्हें. उन की तबियत सही नहीं बिट्टो, ” समीक्षा ने भाई को समझाने की कोशिश की.तब तक कामिनी जी ने समीक्षा के हाथ से फोन ले लिया और दिवेश के आगे खुद ही गिड़गिड़ाने लगीं,” बेटा प्लीज मान जा. इस बुढ़िया को माफ कर दे. मैं इस दुनिया से ही जाने वाली हूं बेटा, बस अंतिम इच्छा पूरी कर दे. मुझे माफ कर दे. एक बार मेरे पास आ, मैं तेरे पैर छू कर माफी मांगना चाहती हूं,” कहतेकहते कामिनी जी फुटफुट कर रो पड़ीं.

रूपेश का दिल पसीज गया,” अरे नहीं आंटी जी आप जैसा कहोगी वैसा ही करूंगा. प्लीज डोंट वरी मैं आ रहा हूं.”

दिवेश की बात सुन कर रोतेरोते भी कामिनी जी के चेहरे पर सुकून के भाव खिल उठे. उन्होंने आंसू पोंछे और समीक्षा से बोली,” समीक्षा बेटा, दिवेश आ रहा है. अंदर वाला कमरा साफ़ कर दे वहीँ ठहराऊंगी उसे और अपने हाथ से खाना बना कर खिलाऊंगी. उस ने मेरी बात मान ली.”

समीक्षा कामिनी जी की ओर देख कर मुस्कुरा उठी और सहारा दे कर उन्हें बेड पर लिटा दिया. आज कामिनी जी के मन का एक भारी बोझ उतर गया था

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इल्जाम- भाग 1: किसने किए थे गायत्री के गहने चोरी

कामिनी जी के गहने नहीं मिल रहे थे. पूरे घर में हड़कंप मच गया. कम से कम 4 लाख के गहने अचानक चोरी कैसे हो सकते हैं.”कामिनी ध्यान से देखो. तुम ने ही कहीं रख दिए होंगे, ” उन के पति भवानी प्रसाद ने समझाया.

“मैं अभी इतनी भी बूढ़ी नहीं हुई हूं कि गहने कहां रखे यह याद न आए. जल्दीजल्दी में अपनी इसी अलमारी के ऊपर गहने रख कर दमयंती को विदा करने नीचे चली गई थी. मुश्किल से 5 मिनट लगे होंगे और इतनी ही देर में गहने गायब हो गए जैसे कोई ताक में बैठा हुआ हो,” भड़कते हुए कामिनी ने कहा.

“मम्मी जी कोई और पराया तो अब इस घर में बचा नहीं सिवा मेरे भाईबहन के. सीधा कहिए न कि आप उन पर गहने चोरी करने का इल्जाम लगा रही हैं,” कमरे के अंदर से आती समीक्षा ने सीधी बात की.

“बहू मैं किसी पर इल्जाम नहीं लगा रही मगर सच क्या है यह सामने आ ही गया. मैं ने नहीं कहा कि तेरे भाईबहन ने गहने चुराए हैं पर तू अपने मुंह से कह रही है. यदि ऐसा है तो फिर ठीक है. एक बार इन का सामान भी चेक कर लिया जाए तो गलत क्या है?”

“मम्मी यह कैसी बातें कर रही हो आप. समीक्षा के भाईबहन ऐसा कर ही नहीं सकते,” मयंक ने विरोध किया.

“ठीक है फिर मैं ने ही चुरा लिए होंगे अपने गहने या फिर इन पर इल्जाम लगाने के लिए जानबूझ कर छिपा दिए होंगे,” कामिनी जी ने गुस्से में कहा.

“मम्मी प्लीज इस तरह मत बोलो. चलो मैं आप के गहने ढूंढता हूं. हो सकता है अलमारी के पीछे गिर गए हों या हड़बड़ी में गलती से कहीं और रख दिए हों. मम्मी कई दफा इंसान दूसरे काम करतेकरते कोई चीज कहीं रख कर भूल भी जाता है. चलिए पहले आप का कमरा देख लेता हूं.”

पत्नी या सालेसाली को बुरा न लगे यह सोच कर मयंक ने पहले अपनी मां के कमरे में गहनों को अच्छी तरह ढूंढा. एकएक कोना देख लिया पर गहने कहीं नहीं मिले. फिर उस ने पूरे घर में गहनों को तलाश किया. कहीं भी गहने न मिलने पर कामिनी ने समीक्षा के भाईबहन के बैग खोलने का आदेश दे दिया. थक कर मयंक ने उन का बैग खोला और पूरी तरह से तलाशी ली मगर गहने वहां भी नहीं मिले.

कामिनी जी ने फिर भी आरोप वापस नहीं लिया उलटा तीखी बात यह कह दी कि उन्होंने गहने कहीं छिपा दिए होंगे. इधर समीक्षा के साथसाथ उस के भाईबहन अनुज और दिशा को भी इस तरह तलाशी ली जाने की घटना बहुत अखरी. दोनों नाराज होते हुए उसी दिन की ट्रेन ले कर अपने शहर को निकल गए.

जाते समय अनुज ने साफ़ शब्दों में अपनी बहन से कहा था ,” दीदी हम जानते हैं इस सब के पीछे जीजू या आप का कोई हाथ नहीं. हम चाहते हैं आप अपने ससुराल में खुशहाल जीवन जियें पर हम दोनों भाईबहन अब इस घर में कभी भी कदम नहीं रखेंगे.”

भाई की बात सुन कर समीक्षा की आंखों से आंसू बह निकले थे. मयंक ने उसे गले से लगा लिया था. समीक्षा का गुस्सा सातवें आसमान पर था. मयंक भी खुद को दोषी मान कर बुझाबुझा सा समीक्षा के आगेपीछे घूम रहा था. कामिनी जी अभी भी चिढ़ी हुई अपने कमरे में बैठी थी और मयंक समीक्षा को शांत करने के प्रयास में लगा था.

समीक्षा की शादी सहजता से नहीं हुई थी. उसे मयंक को जीवनसाथी बनाने के लिए काफी पापड़ बेलने पड़े थे. दोनों को कॉलेज टाइम में ही एकदूसरे से प्यार हो गया था. पहली नजर के प्यार को दोनों ही उम्र भर के बंधन में बांधना चाहते थे. मगर दोनों के ही घरवाले इस के लिए तैयार नहीं थे. काफी मान मनौवल और इमोशनल ड्रामे के बाद किसी तरह समीक्षा के घरवालों ने तो अपनी सहमति दे दी मगर मयंक के घर वालों की सहमति अभी भी बाकी थी. मयंक की मां कामिनी देवी किसी भी हाल में गैर जाति की बहू को अपने घर में लाने को तैयार नहीं थी. उन का कहना था कि कल को मयंक के छोटे भाईबहन भी फिर इसी तरह का कदम उठाएंगे. इसलिए वह मयंक को लव मैरिज की इजाजत नहीं दे सकतीं.

मयंक के पिता इस मामले में थोड़े उदार विचारों के थे. उन के लिए बेटे की खुशी ज्यादा मायने रखती थी. उन का आदेश पा कर मयंक ने समीक्षा के साथ कोर्ट मैरिज का फैसला लिया. जब कामिनी जी को यह बात पता चली तो उन का मुंह फूल गया. उन्हें इस बात पर गुस्सा आ रहा था कि पति ने उन की इच्छा के विपरीत बेटे को लव मैरिज के लिए हां क्यों बोल दिया. कामिनी जी को इस बात पर भी काफी रोष था कि वह बेटे की शादी का हिस्सा भी नहीं बन पाई. एक मां के लिए बेटे की शादी का मौका बहुत खास होता है.

कुछ दिन इसी तरह बीत गए. समीक्षा घर में बहू बन कर आ गई थी मगर न तो घर में शादी की रौनक हुई और न ही रिश्तेदारों को न्योता मिला. नई बहू का गृहप्रवेश भी हो गया और घर में हंसीखुशी का माहौल भी नहीं बन सका.

कामिनी अलग कमरे में बंद रही आती तो भवानी प्रसाद संकोच में बहू से ज्यादा बातें नहीं करते. मयंक पहले की तरह ऑफिस चला जाता और देवर यानी विक्रांत और ननद दीक्षा का अधिकांश समय कॉलेज में बीतता. समीक्षा समझ नहीं पाती कि वह घर के हालातों को नार्मल कैसे बनाए. उसे पता था कि सास उसे पसंद नहीं करती. फिर भी वह अपनी तरफ से सासससुर का पूरा ख़याल रखती और उन का दिल जीतने का पूरा प्रयास करती.

धीरेधीरे भवानी प्रसाद समीक्षा के बातव्यवहार से काफी प्रभावित रहने लगे. कामिनी जी की नाराजगी भी कम होने लगी थी. मगर उन का मुंह इस बात पर अब भी फूला हुआ था कि बेटे की शादी भी हो गई और घर में कोई रौनक भी नहीं हुई. सब कुछ सूनासूना सा रह गया.

इस का समाधान भी भवानी प्रसाद ने निकाल लिया, “कामिनी क्यों न हम अपने बेटे का रिसेप्शन धूमधाम से करें. उस में सारे रिश्तेदार भी आ जाएंगे और घर में रौनक भी हो जाएगी.”

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दोषी कौन था- भाग 3: बुआ की चुप्पी का क्या कारण था

‘‘मेरे पास आओ, गीता. सच मानो, तुम्हारी इच्छा के बिना मैं कभी कुछ नहीं मांगूंगा. आओ, यहां आओ, मेरे पास.’’ उसे अपने समीप बिठाया. उस की डबडबाई बड़ीबड़ी आंखों में देखा, ‘‘क्या सोच रही हो, गीता? मैं तुम्हें अच्छा तो लगता हूं न?’’ उस ने नजरें झुका लीं. मैं ने बढ़ कर उस का माथा चूम लिया तो वह तड़प कर मेरे गले से लिपट कर बुरी तरह रोने लगी. ‘‘यह घर तुम्हारा है गीता, मैं भी तुम्हारा हूं. जैसा तुम चाहोगी, वैसा ही होगा. मैं तुम्हारा अपमान कभी नहीं होने दूंगा. बहुत सह लिया है तुम ने. अब कोई भी इंसान तुम्हें किसी तरह की पीड़ा नहीं पहुंचाएगा.’’ सुबकतेसुबकते वह मेरी बांहों में ही सो गई. सुबह वह उठी तो मेरी तरफ एक लजीली सी मुसकान लिए देखा. नए औफिस में मेरा पहला दिन अच्छा बीता. शाम को घर आया तो मेरी तरफ 5 हजार रुपए बढ़ा कर गीता धीरे से बोली, ‘‘यही मेरी जमापूंजी है. यह अब आप की ही है. चलिए, जरूरी सामान ले आएं. मैं ने सूची बना ली है.’’ मुझे उस के हाथ से रुपए लेने में संकोच हुआ. मेरे चेहरे के भाव पढ़ कर वह आगे बढ़ी और रुपए मेरी कमीज की जेब में डाल दिए. फिर अपनी हथेली मेरे हाथ पर रख दी.

उसी दिन हम ने और जरूरी सामान खरीदा और टूटीफूटी गृहस्थी की शुरुआत की. कहां पागल थी गीता? पलपल मेरे घर को सजातीसंवारती, मेरे सुखदुख का खयाल रखती. मुझे तो यह किसी भी कोण से पागल न लगी थी. हां, शरीर अवश्य एक नहीं हो पाए थे, मगर उस के लिए मुझे जरा भी अफसोस नहीं था. वह मुझे अपना समझती थी और मेरे सामीप्य में उसे सुख मिलता था, यही बहुत था. मैं सब को यह दिखा देना चाहता था कि उन्होंने गीता को कितना गलत समझा था. विशेषरूप से उस के पूर्व पति को जिस ने मात्र चंद पलों के शारीरिक सुख के अभाव में हर सुख को ताक पर रख दिया था. गीता मुझे अपने बचपन के खट्टेमीठे अनुभव सुनाती तो मैं बूआ पर खीझ उठता. मामामामी के पास अनाथों की तरह पलतेपलते उस ने क्याक्या नहीं सहा था. सुनातेसुनाते वह कई बार रो भी पड़ती. ऐसे में उसे बांहों में भर कर धीरज बंधाता. ‘‘मेरे पिता ने कभी मुड़ कर मेरी तरफ नहीं देखा. मां के जाते ही मैं अनाथ हो गई. अगर मैं मर गई तो क्या आप मेरे बच्चों को अनाथ कर देंगे? गौतम, क्या आप भी ऐसा करेंगे?’’

एकाएक उस के प्रश्न पर मैं अवाक् रह गया. रुंधे स्वर में उस ने फिर से पूछा, ‘‘क्या आप भी ऐसा ही करेंगे?’’ ‘‘ऐसा मत सोचो, गीता. मैं तुम से प्यार करता हूं, तुम्हारा अनिष्ट कभी नहीं चाहूंगा.’’ ‘‘मैं भी अपने पिता से बहुत प्यार करती हूं, उन का अनिष्ट नहीं चाहती थी, इसलिए कभी उन के पास नहीं आई. मां मुझे पसंद नहीं करतीं. मेरी वजह से उन की गृहस्थी में दरार न पड़े, ऐसा ही सोच सदा अपनी इच्छा मारती रही. लेकिन जब भी आप मेरी तरफ हाथ बढ़ाते हैं तो मेरी इच्छा एकाएक जी सी उठती है.’’ ‘‘मैं तुम्हारी इच्छा का सम्मान करता हूं, गीता. मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है,’’ उस के गाल थपक कर मैं हंस पड़ा. मैं स्वयं हैरान था कि कैसे एक ही रिश्ते में बंधे हुए 2-2 नातों को निभा रहा हूं. मेरे सामीप्य में उस की हर

अतृप्त इच्छा शांत हो रही थी. कभी खिलौने के लिए होशोहवास खो बैठने वाली गीता अब मेरे लिए पागल रहने लगी थी. एक शाम उस ने पूछा, ‘‘आप भी कहीं मेरे पिता की तरह मुझ से आंखें तो नहीं फेर लेंगे? मुझ से मन तो नहीं भर जाएगा?’’ मैं हतप्रभ रह गया. गीता आगे बोली, ‘‘मैं आप की हर स्वाभाविक इच्छा को मार रही हूं. कैसे निभ पाएगा हमारा साथ? अपने पिता के सिवा मुझे कुछ भी नहीं सूझता. आप भी, आप भी पिता जैसे लगते हैं. मैं कुछ और सोचना चाहती हूं, मगर कैसे सोचूं?’’ स्नेह से पास बिठा मैं ने उसे चूमा तो मुझे उस का माथा कुछ गरम लगा, ‘‘तबीयत ठीक नहीं है क्या? मैं अभी दवा ले कर आता हूं.’’

‘‘आप मेरे पास रहिए,’’ गीता ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया. उस ने मुझे जाने नहीं दिया. काफी देर तक पास बैठा उस का सिर सहलाता रहा. हमारी शादी को लगभग 4 महीने हो गए थे. इस अंतराल में मैं ने यह महसूस कर लिया था कि गीता मेरे जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी है. एक दिन उस ने कहा, ‘‘कहीं मैं सचमुच तो पागल नहीं हूं? शायद यही सच हो.’’ ‘‘नहीं, तुम पागल नहीं हो, मैं कहता हूं न,’’ मैं ने दुलार कर उसे शांत कर दिया और उसी रात एक निश्चय ले लिया. दूसरी सुबह फूफाजी को गीता की बीमारी का झूठा तार दे दिया. सोचा, शायद बेटी का मोह उन्हें खींच लाए. तार देने के बाद मैं 2-3 दिन उन का इंतजार करता रहा. रहरह कर रोना आ जाता कि बेचारी गीता का ऐसा अनादर… तीसरे दिन मैं ने एक और तार दे दिया. उस का भी इंतजार किया, मगर कोई भी न आया. इसी तरह एक सप्ताह बीत गया. एक रात मैं बेहद बेचैन रहा. बारबार करवटें बदलता रहा, रहरह कर हर आहट पर उठ बैठता कि शायद मेरी गीता का हालचाल पूछने कोई आ रहा हो.

मैं सोचने लगा कि वे पिता हैं, पुरुष हैं, इतने मजबूर तो नहीं कि बेटी से चाह कर भी न मिल पाएं. आखिर क्यों वे इतने कठोर हो गए? उन दिनों मेरी हालत विचित्र सी हो गई थी. सुबह उठते ही मैं घर से निकल गया. मन में आ रहा था एक बार मुंबई जाऊं और फूफाजी को घसीट कर ले आऊं. स्टेशन पर गया, टिकट खरीदा. गाड़ी में बैठ गया, मगर पहले ही स्टेशन पर उतर गया. सोचा, क्यों जाऊं उन के पास? भटकभटक कर जब थक गया तो घर लौट आया.

‘‘कहां चले गए थे आप, सुबह से भूखेप्यासे?’’ गीता का घबराया स्वर कानों में पड़ा तो जैसे होश आया. मैं चुप ही रहा. नहाधो कर नाश्ता किया. गीता के अपमान पर बहुत गुस्सा आ रहा था. रात को मैं ने गीता को पास बुलाया, पर वह नीचे जमीन पर ही लेटी रही. तब स्वयं ही उठ कर नीचे चला आया और स्नेह से सहला दिया, ‘‘क्यों गीतू, मुझ से नाराज हो?’’ वह न जाने कब से रो रही थी. मैं अवाक् रह गया और उसे अपनी गोद में खींच लिया. ‘‘किसी ने कुछ कह दिया, गीता? क्या हुआ, रो क्यों रही हो?’’ अनायास ही उस के हाथों को पकड़ा तो कागज का एक मुड़ातुड़ा टुकड़ा मेरे हाथ में आ गया. उस के पिता को भेजे गए तार की वह रसीद थी.

‘‘आप ने पिताजी को तार क्यों भेजा? क्या मुझे वापस भेजना…?’’

‘‘नहीं गीता, पागल हो गई हो क्या?’’ एक झटके से उसे बांहों में भींच लिया. उस के भीगे चेहरे पर स्नेह चुंबन जड़ते हुए मुश्किल से मैं बोल पाया, ‘‘तुम्हें वापस भेज दूंगा, तुम ने यह कैसे सोच लिया?’’ फिर मैं उसे अपने पास बिस्तर पर ले आया और जबरदस्ती उस का चेहरा सामने किया, ‘‘तुम्हारे लिए सब को छोड़ दिया है गीता, भला तुम्हें…’’

‘‘तो आप ने उन्हें तार क्यों भेजा?’’ उस के मासूम प्रश्न का मैं ने उत्तर दे दिया. सब साफसाफ बताया तो वह तड़प उठी, क्योंकि उस की बीमारी की बात सुन कर भी पिता के सब्र का प्याला छलका नहीं था. मेरी छाती में समाई वह देर तक सुबकती रही. अपने प्रति अनायास झलक आए अविश्वास ने उस रात अनजाने ही मेरे शरीर की ऊष्मा को भड़का दिया था. मैं उसे कितना चाहता हूं, यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न करने लगा. मैं ने उसे यह एहसास भी दिलाना चाहा कि वह मेरे ही शरीर का एक अभिन्न अंग है. अपने अनछुए, अनकहे भाव रोमरोम से फूटते प्रतीत होने लगे. उन्हीं क्षणों में मेरे सीने में समाईसमाई वह मेरे अस्तित्व में भी कब समा गई, पता ही न चला. वे चंद क्षण आए और हमें पतिपत्नी बना कर चले गए. गीता मुझे एकदम नईनई सी लगने लगी थी. उस रात हम दोनों ने पहली बार महसूस किया कि शारीरिक सुख क्या होता है. यह मेरी विजय ही तो थी कि गीता अपनी कुंठाओं से मुक्त हो कर अभिसारिका बन गई थी. उस के मन की डगर से होता हुआ मैं उस के तन तक जा पहुंचा था.

फिर एक दिन मुझे पता चला कि मैं पिता बनने जा रहा हूं. मैं ने कहा, ‘‘मुझे प्यारी सी तुम्हारी जैसी बेटी चाहिए गीता, मैं उस से बहुत प्यार करूंगा.’’ लेकिन मेरा हर्ष और उत्साह एकाएक ठंडा पड़ गया, जब शून्य में निहारते हुए वह बोली, ‘‘प्यारव्यार सब धरा रह जाएगा. मैं मर गई तो आप भी उस से ऐसे ही आंखें फेर लेंगे, जैसे पिताजी ने मुझ से.’’

‘‘नहीं गीता, ऐसा नहीं सोचते.’’

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दोषी कौन था- भाग 2: बुआ की चुप्पी का क्या कारण था

‘‘रहने दे इसे गौतम, आ, बाहर आ जा,’’ बूआ शायद नहीं चाहती थीं कि मैं उस के समीप रहूं. दूसरे दिन एक निश्चय मन में ले कर मैं गीता के स्कूल जा पहुंचा और जबरदस्ती उसे मनोवैज्ञानिक के पास ले गया. 2 घंटे तक वह अकेले में उस से बातें करता रहा. गीता का पूरा जीवन और उस के कड़वे अनुभव उस के सामने किताब की तरह खुल गए. जब वह वापस आई तब आंखें रोरो कर सूज चुकी थीं. मैं ने समीप जा कर जब उस के सिर पर हाथ रखा तो वह फिर से रो पड़ी. मुझ पर शायद वह कुछकुछ विश्वास करने लगी थी. मैं अपने साथ उसे खाना खिलाने रेस्तरां में ले गया. अपने सामने बिठा कर उसे खाना खिलाया. नन्ही सी बच्ची की तरह वह मेरी हर बात मानती गई. ‘‘मैं कल शाम तुम्हारे घर आऊंगा, गीता. डाक्टर ने क्या कहा, सब के सामने ही बताऊंगा. अब तुम जाओ. बूआ नाराज न हों, इसलिए यह मत बताना कि तुम मेरे साथ थीं.’’ डूबते को जैसे तिनके का सहारा मिला. गरदन झुका कर वह चली गई.

दूसरे दिन डाक्टर से मिला. गीता की पीड़ा और उस के निदान के बारे में सबकुछ जाना. बचपन से यौवन तक पीड़ा और उपेक्षा सहने के कारण वह सामान्य रूप से पनप ही न पाई थी. पति ने छूना चाहा तो चीख उठी, क्योंकि पिता के स्पर्श की भूख ज्यादा बलवान थी. बालसुलभ इच्छाएं परिपक्वता पर हावी हो रही थीं. हृदय की भूख और आयु की मांग में वह सीमारेखा नहीं खींच पाई थी. फिर मैं उस के स्कूल गया. मुझे देख वह धीमे से मुसकरा पड़ी. आधे दिन की छुट्टी दिला कर मैं उसे समुद्र किनारे ले गया. तेज धूप में एक छायादार कोना खोज लिया. अचानक मेरे हाथ में अपना हाथ देख वह सहम गई थी. ‘‘एक बात बताना गीता, क्या तुम शादी के बाद पति के साथ निभा नहीं पाईं या उस का व्यवहार अच्छा नहीं था?’’

‘‘जी…’’ उस ने गरदन झुका ली.

‘‘उस का छूना तुम्हें बुरा क्यों लगता था? वह तो तुम्हारा पति था.’’

‘‘पता नहीं,’’ वह धीरे से बोली.

‘‘मुझे अपना मित्र समझो, अपने मन की बातें सचसच बता दो. मैं चाहता हूं कि तुम्हारा घरसंसार तुम्हें वापस मिल जाए.’’ ‘‘जी,’’ एकाएक उस ने मेरे हाथ से अपना हाथ खींच लिया और अविश्वास से मुझे निहारने लगी. ‘‘तुम पागल नहीं हो, यह बात मैं अच्छी तरह जानता हूं. तुम मुझे अच्छी लगती हो, इसलिए चाहता हूं कि सदा सुखी रहो. जरा सा तुम बदलो, जरा सा तुम्हारा पति. इस तरह घर टूटने से बच जाएगा.’’ ‘‘वह इंसान, जिस ने मेरा अपमान कर मुझे पागल ही बना दिया, वह क्या मुझे मेरा घर देगा?’’

‘‘उस ने तुम्हारा अपमान क्यों किया?’’

‘‘आप ये सब जानने वाले कौन होते हैं. जो कभी मेरा था, जब वही मेरा नहीं हुआ तो आप की इतनी दया मैं क्यों स्वीकार करूं?’’ ‘‘कौन था तुम्हारा, गीता? क्या किसी और से प्यार करती थीं?’’ ‘‘नहीं,’’ वह चौंक गई, शायद उस की चोरी पकड़ी गई थी या जो वह कहना चाह रही थी, उस का अर्थ मैं नहीं समझा था. उस ने गरदन झुका ली. ‘‘मैं तुम्हारी सहायता करूंगा, गीता, मैं ने कहा न, मुझे अपना मित्र समझो.’’ ‘‘मैं जैसी हूं वैसी ही अच्छी हूं. डाक्टर ने क्या कहा, बताइए?’’ ‘‘तुम पागल नहीं हो, डाक्टर ने यही कहा है. अब आगे क्या करना है, मैं तुम से यही पूछना चाहता हूं?’’

‘‘मेरा जो होना था, हो चुका. अब कुछ नहीं होगा. चलिए, वापस चलें.’’ उसी शाम मैं गीता के पति से मिला. उसे समझाना चाहा तो वह ठठा कर हंस पड़ा, ‘‘जानते हो, एक बार उस ने क्या कहा? कहने लगी, मेरी सूरत में उसे अपने पिता की सूरत

नजर आती है. बेवकूफ लड़की, मुझे उस में कोई दिलचस्पी नहीं है और अब तो मेरी दूसरी शादी भी पक्की हो गई है.’’ मेरा अंतिम प्रयास भी विफल रहा. उस रात मैं सो नहीं सका. सुबह मां ने बूआ की बताई लड़की देखने की बात की, तब लगा कि मन में कुछ चुभ सा गया है. गीता का शिला समान अस्तित्व मस्तिष्क में उभर आया . मैं सोचने लगा, अगर मेरी शादी गीता से हो जाए तो क्या बुरा है? उस में हर गुण तो हैं. जीवन का एक कोना सूना रह जाने से वह पनप नहीं पाई तो इस में उस का क्या दोष? पति की सूरत में पिता को तलाशती रही, यह इस सत्य का एक और प्रमाण था कि उस का बचपन उस के मन में कहीं सोया पड़ा है. सौतेली मां ने पिता छीन लिया और अब वह जवानी में उस छाया को पकड़ने का प्रयास कर रही है जिस का स्वरूप ही बदल चुका है. दूसरी शाम बूआ ने मुझे बुला भेजा. मैं वहां चला तो गया परंतु गीता के लिए कुछ ले जाना नहीं भूला. फूफाजी भी सामने थे और बूआ के दोनों बेटे भी. गीता सब के लिए चाय ले आई. उस दिन वह मुझे संसार की सब से सुंदर स्त्री लगी. शायद उस के प्रति जाग उठा स्नेह मेरी आंखों में उतर आया था. ‘‘कल लड़की देखने जाएगा न, मैं खबर भिजवा दूं?’’ बूआ ने पूछा.

कुछ देर मैं हिम्मत जुटाता रहा, फिर धीरे से बोला, ‘‘मैं लड़की देख चुका हूं, बूआ.’’

‘‘अच्छा, कहां देखी? मुझे तो उन्होंने नहीं बताया.’’

‘‘तुम्हारी यह सौतेली बेटी मुझे बहुत पसंद है.’’ सामने बैठे फूफाजी अखबार झटक कर खड़े हुए, जैसे उन्हें मुझ पर या अपने कानों पर विश्वास ही न हुआ हो. बोले, ‘‘ये पागल…’’ ‘‘यह पागल नहीं है, फूफाजी. मैं इसे मनोवैज्ञानिक को दिखा चुका हूं. पागल तो आप हैं कि अपनी दूधपीती बच्ची से बाप का साया ही छीन लिया. कभी नहीं सोचा कि यह आप के लिए तड़पती होगी, कितना रोई होगी अपने पिता के लिए. नए जीवन का आरंभ कर आप ने अपने अतीत से ऐसे हाथ झटक लिया कि वह चौराहे का मजाक बन गया. किसी ने इस मासूम लड़की को पागल कह कर छोड़ दिया और किसी ने…’’ ‘‘गौतम,’’ बूआ ने चीख कर विरोध करना चाहा, मगर उस पल जैसे मैं सारा आक्रोश निकाल कर ही दम लेना चाहता था. हक्कीबक्की सी खड़ी गीता सब को यों देख रही थी, मानो मन ही मन मेरी वजह से स्वयं को अपराधी महसूस कर रही थी. ‘‘पागल तो तुम भी हो बूआ, जिस ने संतान से उस का पिता छीन लिया.’’

बूआ के दोनों बेटे मुझे यों घूर रहे थे मानो उन्हें भी मेरे शब्दों पर विश्वास न हो रहा हो. फूफाजी गरदन झुका कर बैठ गए. हाथ में पकड़ा पैकेट गीता को थमा मैं ने फिर से हिम्मत बटोरी, ‘‘फूफाजी, मैं गीता को पसंद करता हूं. आप इजाजत दे दीजिए.’  मेरी मां ने गीता का विरोध किया, मगर मेरी जिद के सामने धीरेधीरे शांत हो गईं और एक दिन गीता मेरी हो गई. लेकिन मां ने मुझे घर छोड़ देने का आदेश दे दिया. उन्होंने कहा, ‘‘क्या कुंआरी लड़कियां मर गई थीं जो तुम ने एक तलाकशुदा, पागल लड़की से शादी करने की जिद पकड़ ली.’’ शादी के 3-4 दिन बाद ही मैं नए स्थान के लिए चल पड़ा. शादी से पहले ही पूना का तबादला करा लिया था. गृहस्थी के नाम पर बस मेरे पास एक अटैची थी. इतना शुक्र था कि क्वार्टर और थोड़ाबहुत फर्नीचर औफिस की तरफ से मिल गया था. कठपुतली सी गीता मेरे साथ चली आई थी. मां नाराज थीं, इसलिए चंद बरतन तक नहीं दिए थे कि जिन में मैं एक वक्त का खाना ही बना पाता. आतेआते अग्रिम तनख्वाह लेता आया था.

गीता को घर छोड़ होटल से खाना और बाजार से जरूरत का सामान ले आया. जैसेतैसे पेट भर कर सोने की तैयारी की तो बिस्तर की समस्या आड़े आ गई. ‘‘आप यहां सो जाइए,’’ गीता ने कहा. सामने अपनी सूती साड़ी बिछा कर उस ने मेरा बिस्तर लगा दिया था. तकिया भी अपनी साड़ी को ही 5-6 मोड़ दे कर बना दिया था. मैं चुपचाप लेट गया. पर दूसरे ही क्षण खाली पलंग की ओर बढ़ती गीता का हाथ पकड़ लिया, ‘‘जो है, उसी को आधाआधा बांटना है गीतू, सुखदुख भी, रोटी भी, तो फिर बिस्तर क्यों नहीं? देखो, यह क्या है, तुम्हारा खिलौना तो वहीं छूट गया था न, यह नया लाया हूं, रबड़ का गुड्डा.’’ जैसे किसी ने उस के रिसते घाव पर हाथ रख दिया हो. वह कभी मुझे और कभी खिलौने को निहारने लगी, जैसे सपना देख रही हो.

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दोषी कौन था- भाग 1: बुआ की चुप्पी का क्या कारण था

मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे हमेशा चहचहाने वाली बूआ कहीं खो सी गई हैं. बातबेबात ठहाका मार कर हंसने वाली बूआ पता नहीं क्यों चुपचुप सी लग रही थीं. सौतेली बेटी के ब्याह के बाद तो उन्हें खुश होना चाहिए था, कहा करती थीं कि इस की शादी कर के तर जाऊंगी. सौतेली बेटी बूआ को सदा बोझ ही लगा करती थी. उन के जीवन में अगर कुछ कड़वाहट थी तो वह यही थी कि वे एक दुहाजू की पत्नी हैं. मगर जहां चाह वहां राह, ससुराल आते ही बूआ ने पति को उंगलियों पर नचाना शुरू कर दिया और समझाबुझा कर सौतेली बेटी को उस के ननिहाल भेज दिया. सौत की निशानी वह बच्ची ही तो थी.

जब वह चली गई तो बूआ ने चैन की सांस ली. फूफा पहलेपहल तो अपनी बेटी के लिए उदास रहे, मगर धीरेधीरे नई पत्नी के मोहपाश में सब भूल गए. बूआ कभी तीजत्योहार पर भी उसे अपने घर नहीं लाती थीं. प्रकृति ने उन की झोली में 2 बेटे डाल दिए थे. अब वे यही चाहती थीं कि पति उन्हीं में उलझे रहें, भूल से भी उन्हें सौतेली बेटी को याद नहीं करने देती थीं. सुनने में आता था कि फूफा की बेटी मेधावी छात्रा है. ननिहाल में सारा काम संभालती है. परंतु नाना की मृत्यु के बाद मामा एक दिन उसे पिता के घर छोड़ गए. 19 बरस की युवा बहन, भाइयों के गले से भी नीचे नहीं उतरी थी. पिता ने भी पितातुल्य स्वागत नहीं किया था. मुझे याद है, उस शाम मैं भी बूआ के घर पर ही था. जैसे बूआ की हंसी पर किसी ने ताला ही लगा दिया था. मैं सोचने लगा, ‘घर की बेटी का ऐसा स्वागत?’ अनमने भाव से बूआ ने उसे अंदर वाले कमरे में बिठाया और आग्नेय दृष्टि से पति को देखा, जो अखबार में मुंह छिपाए यों अनजान बन रहे थे, मानो उन्हें इस बात से कुछ भी लेनादेना न हो. पहली बार मुझे इस सत्य पर विश्वास हुआ था कि सचमुच मां के मरते ही पिता का साया भी सिर से उठ जाता है.

‘सुनो, वे लोग इसे यहां क्यों छोड़ गए, आप ने कुछ कहा था क्या?’ बूआ ने गुस्से से पति से पूछा तो किसी अपराधी की तरह हिम्मत कर के फूफाजी ने सफाई दी, ‘इस के मामा के भी तो बेटियां हैं न… अब नाना की कमाई भी तो नहीं रही. यहीं रहेगी तो क्या बुरा है? तुम्हें काम में इस की मदद मिल जाएगी.’

‘अरे, ब्याहने को लाख, 2 लाख कहां से लाओगे? अपना तो पूरा नहीं पड़ता…’ बूआ मुझ से जब भी मिलतीं, यही कहतीं, ‘अरे गौतम, तू ही बता न कोई अच्छा सा लड़का. दानदहेज नहीं देना मुझे. किसी तरह यह ससुराल चली जाए तो मैं तर जाऊं.’ संयोग से मेरे एक मित्र का चचेरा भाई बिना दहेज के शादी करना चाहता था, आननफानन रिश्ता तय हो गया और जल्दी ही शादी भी हो गई. शादी के लगभग 2 महीने बाद मैं बूआ के घर गया तो पूछा, ‘‘क्या बात है, अब क्या परेशानी है?’’

‘‘बात क्या होगी, देवीजी वापस आ गई हैं मेरे कलेजे पर मूंग दलने. मुझे क्या पता था कि वह पागल है. ससुराल वाले बिठा गए हैं, कहते हैं, पागल को अपने ही पास रखो.’’

‘‘क्या?’’ मैं स्तब्ध रह गया.

‘‘जरा अपने दोस्त से बात तो करना,’’ बूआ का स्वर कानों में पड़ा. फिर उन्होंने सौतेली बेटी को पुकारा, ‘‘गीता, जरा चाय तो लाना, गौतम आया है.’’ गीता सिर झुकाए सामने चली आई. मैं ने तब शायद उसे पहली बार नजर भर कर देखा था. पागलपन जैसी तो कोई बात नहीं लगी. मैं सोचने लगा, ‘बूआ की गृहस्थी का बोझ संभालती, भागभाग कर सब के आदेशों का पालन करती गीता आखिर पागल कहां है?’ रिश्ता मैं ने करवाया था, इसलिए एक दिन उस के पति से मिलने चला गया. पर वह तो मुझे देखते ही भड़क उठा, ‘‘यार गौतम, तुम ने मुझ से किस बात का बदला लिया है?’’

‘‘आखिर ऐसी क्या बात है उस में, अच्छीभली तो है?’’

‘‘उस ने मुझे हाथ तक नहीं लगाने दिया. उसे सजाने के लिए तो यहां नहीं लाया था. पागल लड़की…’’ ‘‘क्या बकते हो? हाथ नहीं लगाने दिया? इस का अर्थ यह तो नहीं कि वह पागल…’’

‘‘बसबस गौतम, तलाक के कागजों पर वह हस्ताक्षर कर गई है. उस की वकालत की अब कोई जरूरत नहीं है. यह शादी तो टूटी ही समझो.’’

‘‘शादीब्याह मजाक है क्या?’’

‘‘मजाक नहीं, मगर कोई तो नाता हो, जो दोनों को बांध सके. उस ने तो कभी मुझे नजर भर कर देखा तक नहीं. बर्फ की शिला जैसी ठंडी. न कोई हावभाव, न कोई उत्साह.’’

‘‘अरे, सारी उम्र सामने है, इतनी जल्दी ऐसा निर्णय मत लो. उस गरीब पर जरा तो तरस खाओ.’’ ‘‘नहीं गौतम, मुझ से अब और इंतजार नहीं होता.’’ सचमुच एक दिन वह नाता टूट गया. एक तो सौतेली और उस पर परित्यक्ता, बूआ का सारा आक्रोश उस गरीब पर ही उतरता. उस के पिता मूक बने सब देखते रहते. मैं अकसर जाता और उस की दशा पर कुढ़ता रहता. जी चाहता कि उस से कुछ बात करूं कि आखिर क्यों वह पति से निभा नहीं पाई. चंद महीनों में ही क्यों सब समाप्त हो गया? मैं उस से बात करने की कोशिश करता, मगर वह कभी मौका ही न देती. एक दिन पता चला कि उस ने किसी स्कूल में नौकरी कर ली है, पर बूआ प्रसन्न नहीं हुईं, क्योंकि अब घर का काम उन्हें करना पड़ता था.

एक शाम औफिस से आतेआते मैं बारिश में घिर गया. स्कूटर भी खराब हो गया, इसलिए उसे मैकेनिक के पास छोड़ा और पैदल ही चल दिया. पर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा, जब बसस्टैंड पर गीता को भी खड़े पाया. थोड़ी देर बाद जब अंधेरा घिर आया तो मैं ने कहा, ‘‘टैक्सी कर लेते हैं गीता, मैं तुम्हें घर छोड़ दूंगा.’’

‘‘जी नहीं, अभी बस आ जाएगी.’’

‘‘आओ न, कहीं चाय पीते हैं, उस के बाद…’’

‘‘इस की जरूरत नहीं. मैं चली जाऊंगी.’’

‘‘गीता, अंधेरा हो रहा है. अच्छा, चाय रहने दो. अब चलो मेरे साथ.’’ अनमनी सी वह टैक्सी में मेरे साथ आ बैठी. घर पहुंचने पर बूआ ने तीखी नजरों से हम दोनों को देखा. तीसरे ही दिन पता चला कि बूआ ने मेरे पिताजी के कानों में अच्छी तरह यह बात भर दी है कि अब मेरी शादी कर देनी चाहिए. साथ ही अपनी सहेली की बेटी भी सुझा दी थी. मां और पिताजी लड़की भी देख आए. मैं सब देखसुन रहा था, मगर पता नहीं क्यों, निर्णय नहीं ले पा रहा था. एक दिन बूआ के घर गया तो उन्हें ऊंचे स्वर में चीखते सुन सहम गया. ‘‘अरी, यही लच्छन वहां भी दिखाए होंगे, तभी तो वह वापस पटक गए तुझे. तेरी उम्र गुड्डेगुडि़यों से खेलने की है क्या?’’ और ‘छनाक’ की आवाज के साथ एक डब्बा मेरे पैरों के पास आ गिरा. तभी आंखों में विचित्र सा भाव लिए गीता ने डब्बा उठा लिया. असमंजस में पड़ा मैं दोनों को निहार रहा था.

‘‘इसे मत फेंको मां, इसे मत फेंको,’’ गीता ने करुण स्वर में कहा.

‘‘खबरदार, जो मुझे मां कहा. पागल कहीं की,’’ एक झटके से बूआ ने उस के हाथ से वह डब्बा झपटा और सामने गली में फेंक दिया. उसी पल एक स्कूटर डब्बे के ऊपर से गुजर गया. टूटे खिलौनों को देख कर गीता वहीं पछाड़ खा कर गिर पड़ी. यह दृश्य मेरे अस्तित्व को पूरी तरह हिला गया. किसी तरह गीता को उठा कर मैं ने बिस्तर पर लिटाया.

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