लड़की- भाग 3 : क्या परिवार की मर्जी ने बर्बाद कर दी बेटी वीणा की जिंदगी

लेखक- रमणी मोटाना

आज उसे लग रहा था कि उस ने व उस के पति ने बेटी के प्रति न्याय नहीं किया. क्या हमारी सोच गलत थी? उस ने अपनेआप से सवाल किया. शायद हां, उस के मन ने कहा. हम जमाने के साथ नहीं चले. हम अपनी परिपाटी से चिपके रहे.

पहली गलती हम से यह हुई कि बेटी के परिपक्व होने के पहले ही उस की शादी कर देनी चाही. अल्हड़ अवस्था में उस के कंधों पर गृहस्थी का बोझ डालना चाहा. हम जल्द से जल्द अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे. और दूसरी भूल हम से तब हुई जब वीणा ने अपनी पसंद का लड़का चुना और हम ने उस की मरजी को नकार कर उस की शादी में हजार रोडे़ अटकाए. अब जब वह अपनी शादी से खुश नहीं थी और पति से तलाक लेना चाह रही थी तो हम दोनों पतिपत्नी ने इस बात का जम कर विरोध किया.

बेटी की खुशी से ज्यादा उन्हें समाज की चिंता थी. लोग क्या कहेंगे, यही बात उन्हें दिनरात खाए जाती थी. उन्हें अपनी मानमर्यादा का खयाल ज्यादा था. वे समाज में अपनी साख बनाए रखना चाहते थे, पर बेटी पर क्या बीत रही है, इस बात की उन्हें फिक्र नहीं थी. बेटी के प्रति वे तनिक भी संवेदनशील न थे. उस के दर्द का उन्हें जरा भी एहसास न था. उन्होंने कभी अपनी बेटी के मन में पैठने की कोशिश नहीं की. कभी उस की अंतरंग भावनाओें को नहीं जानना चाहा. उस के जन्मदाता हो कर भी वे उस के प्रति निष्ठुर रहे, उदासीन रहे.

अहल्या को पिछली बीसियों घटनाएं याद आ गईं जब उस ने वीणा को परे कर बेटों को कलेजे से लगाया था. उस ने हमेशा बेटों को अहमियत दी जबकि बेटी की अवहेलना की. बेटों को परवान चढ़ाया पर बेटी जैसेतैसे पल गई. बेटों को अपनी मनमानी करने की छूट दी पर बेटी पर हजार अंकुश लगाए. बेटों की उपलब्धियों पर हर्षित हुई पर बेटी की खूबियों को नजरअंदाज किया. बेटों की हर इच्छा पूरी की पर बेटी की हर अभिलाषा पर तुषारापात किया. बेटे उस की गोद में चढ़े रहते या उस की बांहों में झूलते पर वीणा के लिए न उस की गोद में जगह थी न उस के हृदय में. बेटे और बेटी में उस ने पक्षपात क्यों किया था? एक औरत हो कर उस ने औरत का मर्म क्यों नहीं जाना? वह क्यों इतनी हृदयहीन हो गई थी?

ये भी पढ़ें- Father’s day Special: चेहरे की चमक- माता-पिता के लिए क्या करना चाहते थे गुंजन व रवि?

बेटी के विवर्ण मुख को याद कर उस के आंसू बह चले. वह मन ही मन रो कर बोली, ‘बेटी, तू जल्दी होश में आ जा. मुझे तुझ से बहुतकुछ कहनासुनना है. तुझ से क्षमा मांगनी है. मैं ने तेरे साथ घोर अन्याय किया. तेरी सारी खुशियां तुझ से छीन लीं. मुझे अपनी गलतियों का पश्चात्ताप करने दे.’

आज उसे इस बात का शिद्दत से एहसास हो रहा था कि जानेअनजाने उस ने और उस के पति ने बेटी के प्रति पक्षपात किया. उस के हिस्से के प्यार में कटौती की. उस की खुशियों के आड़े आए. उस से जरूरत से ज्यादा सख्ती की. उस पर बचपन से बंदिशें लगाईं. उस पर अपनी मरजी लादी.

वीणा ने भी कठपुतली के समान अपने पिता के सामंती फरमानों का पालन किया. अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं का दमन कर उन के इशारों पर चली. ढकोसलों, कुरीतियों और कुसंस्कारों से जकड़े समाज के नियमों के प्रति सिर झुकाया. फिर एक पुरुष के अधीन हो कर उस के आगे घुटने टेक दिए. अपने अस्तित्व को मिटा कर अपना तनमन उसे सौंप दिया. फिर भी उस की पूछ नहीं थी. उस की कद्र नहीं थी. उस की कोई मान्यता न थी.

प्रतीक्षाकक्ष में बैठेबैठे अहल्या की आंख लग गई थी. तभी भास्कर आया. वह उस के लिए घर से चायनाश्ता ले कर आया था. ‘‘मांजी, आप जरा रैस्टरूम में जा कर फ्रैश हो लो, तब तक मैं यहां बैठता हूं.’’

अहल्या नीचे की मंजिल पर गई. वह बाथरूम से हाथमुंह धो कर निकली थी कि एक अनजान औरत उस के पास आई और बोली, ‘‘बहनजी, अंदर जो आईसीयू में मरीज भरती है, क्या वह आप की बेटी है और क्या वह भास्करजी की पत्नी है?’’

‘‘हां, लेकिन आप यह बात क्यों पूछ रही हैं?’’

‘‘एक जमाना था जब मेरी बेटी शोभा भी इसी भास्कर से ब्याही थी.’’

‘‘अरे?’’ अहल्या मुंहबाए उसे एकटक ताकने लगी.

‘‘हां, बहनजी, मेरी बेटी इसी शख्स की पत्नी थी. वह इस के साथ कालेज में पढ़ती थी. दोनों ने भाग कर प्रेमविवाह किया, पर शादी के 2 वर्षों बाद ही उस की मौत हो गई.’’

‘‘ओह, यह सुन कर बहुत अफसोस हुआ.’’

‘‘हां, अगर उस की मौत किसी बीमारी की वजह से होती तो हम अपने कलेजे पर पत्थर रख कर उस का वियोग सह लेते. उस की मौत किसी हादसे में भी नहीं हुई कि हम इसे आकस्मिक दुर्घटना समझ कर मन को समझा लेते. उस ने आत्महत्या की थी.

‘अब आप से क्या बताऊं. यह एक अबूझ पहेली है. मेरी हंसतीखेलती बेटी जो जिजीविषा से भरी थी, जो अपनी जिंदगी भरपूर जीना चाहती थी, जिस के जीवन में कोई गम नहीं था उस ने अचानक अपनी जान क्यों देनी चाही, यह हम मांबाप कभी जान नहीं पाएंगे. मरने के पहले दिन वह हम से फोन पर बातें कर रही थी, खूब हंसबोल रही थी और दूसरे दिन हमें खबर मिली कि वह इस दुनिया से जा चुकी है. उस के बिस्तर पर नींद की गोलियों की खाली शीशी मिली. न कोई चिट्ठी न पत्री, न सुसाइड नोट.’’

‘‘और भास्कर का इस बारे में क्या कहना था?’’

‘‘यही तो रोना है कि भास्कर इस बारे में कुछ भी बता न सका. ‘हम में कोई झगड़ा नहीं हुआ,’ उस ने कहा, ‘छोटीमोटी खिटपिट तो मियांबीवी में होती रहती है पर हमारे बीच ऐसी कोई भीषण समस्या नहीं थी कि जिस की वजह से शोभा को जान देने की नौबत आ पड़े.’ लेकिन हमारे मन में हमेशा यह शक बना रहा कि शोभा को आत्महत्या करने को उकसाया गया.

ये भी पढ़ें- कर्मफल: क्या हुआ था मुनीम के साथ

‘‘बहनजी, हम ने तो पुलिस में भी शिकायत की कि हमें भास्कर पर या उस के घर वालों पर शक है पर कोई नतीजा नहीं निकला. हम ने बहुत भागदौड़ की कि मामले की तह तक पहुंचें पर फिर हार कर, रोधो कर चुप बैठ गए. पतिपत्नी के बीच क्या गुजरती थी, यह कौन जाने. उन के बीच क्या घटा, यह किसी को नहीं पता.

‘‘हमारी बेटी को कौन सा गम खाए जा रहा था, यह भी हम जान न पाए. हम जवान बेटी की असमय मौत के दुख को सहते हुए जीने को बाध्य हैं. पता नहीं वह कौन सी कुघड़ी थी जब भास्कर से मेरी बेटी की मित्रता हुई.’’

अहल्या के मन में खलबली मच गई. कितना अजीब संयोग था कि भास्कर की पहली पत्नी ने आत्महत्या की. और अब उस की दूसरी पत्नी ने भी अपने प्राण देने चाहे. क्या यह महज इत्तफाक था या भास्कर वास्तव में एक खलनायक था? अहल्या ने मन ही मन तय किया कि अगर वीणा की जान बच गई तो पहला काम वह यह करेगी कि अपनी बेटी को फौरन तलाक दिला कर उसे इस दरिंदे के चंगुल से छुड़ाएगी.

वह अपनी साख बचाने के लिए अपनी बेटी की आहुति नहीं देगी. वीणा अपनी शादी को ले कर जो भी कदम उठाए, उसे मान्य होगा. इस कठिन घड़ी में उस की बेटी को उस का साथ चाहिए. उस का संबल चाहिए. देरसवेर ही सही, वह अपनी बेटी का सहारा बनेगी. उस की ढाल बनेगी. हर तरह की आपदा से उस की रक्षा करेगी.

एक मां होने के नाते वह अपना फर्ज निभाएगी. और वह इस अनजान महिला के साथ मिल कर उस की बेटी की मौत की गुत्थी भी सुलझाने का प्रयास करेगी.

ये भी पढ़ें- ऊपर तक जाएगी : ललन ने कैसे करवाया अपना काम

भास्कर जैसे कई भेडि़ये सज्जनता का मुखौटा ओढ़े अपनी पत्नी को प्रताडि़त करते रहते हैं, उसे तिलतिल कर जलाते हैं और उसे अपने प्राण त्यागने को मजबूर करते हैं. लेकिन वे खुद बेदाग बच जाते हैं क्योंकि बाहर से वे भले बने रहते हैं. घर की चारदीवारी के भीतर उन की करतूतें छिपीढकी रहती हैं.

सपनों की उड़ान: भाग 3- क्या हुआ था शांभवी के साथ

शादी होते ही 15 दिन तो शांभवी ने संयुक्त परिवार में घूंघट के भीतर यह सोच कर बिता दिए कि दिल्ली जाते ही वे इन सब बंधनों से आजाद हो जाएगी. मगर दिल्ली पहुंच कर उस के सारे सपने भरभरा टूट गए.

विजय बेहद लापरवाह और आलसी इंसान निकला. पूरे घर में सामान फैला कर रखता. घरेलू कार्य में मदद करने को अपनी तोहीन समझता. उस की वैस्टर्न ड्रैस को ले कर भी टीकाटिप्पणी करता.

हनीमून के लिए हिल स्टेशन का प्रताव रखने पर बोला, ‘‘हनीमून तो वे जाते हैं जो

अपने परिवार की बंदिशों में रहते हैं. हम तो यहां आजाद पंछी हैं. हमें कहीं जाने की क्या जरूरत? तुम ने तो कभी दिल्ली भी नहीं देखी है. वीकैंड में तुम्हें अलगअलग जगह जैसे इंडिया गेट, कुतुबमीनार, कनाट प्लेस, अक्षरधाम सब आराम से घुमा दूंगा.’’

शांभवी मन मसोस कर रह जाती. इशिता अभी भी उत्सुकता से उस के फोन का इंतजार करती. मगर शांभवी हां हूं, ठीक हैं कह कर बात टाल जाती.

शांभवी की शादी अच्छे से संपन्न होते ही भानुप्रताप ने इशिता की कुंडली रिस्तेदारों के माध्यम से अनेक जगह भिजवा दी. 2-4 जगह से अच्छे प्रस्ताव भी मिल गए. फिर क्या था भानुप्रताप अपनी पत्नी रितिका के पीछे पड़ गए, ‘‘सुनो, तुम इशिता को एक दिन बैठा कर अच्छे से समझओ. इतने अच्छे रिश्ते आसानी से नहीं मिलते. अभी उस की उम्र कम है जैसेजैसे उम्र बढ़ेगी रिश्ते मिलने भी कम हो जाएंगे.’’

‘‘जब इशिता पहले जौब करना चाहती हैं तो उसे कर लेने दो, फिर रिश्ते भी देख लेंगे,’’ रितिका ने समझया.

‘‘तुम ने भी तो शादी के 4 महीने बाद जौइन की थी वैसे ही वह भी कर लेगी,’’ भानुप्रताप लापरवाही से बोले.

‘‘आप ने कभी ध्यान भी दिया कि ससुराल और नौकरी के बीच तालमेल बैठाने में मुझे कितनी मुश्किल होती थी? आप तो हाथ झड़ कर निकल जाते थे सारी बातें मुझे ही सुननी पड़ती थीं,’’ रितिका का मन कड़वाहट से भर गया.

ये भी पढ़ें- सूनापन : जिंदगी में ऋतु को क्या अफसोस रह गया था

‘‘एक लड़का रेलवे में इंजीनियर है दूसरा एमबीए है, सालाना 24 लाख का पैकेज है. कुंडली और फोटो देख कर दोनों परिवार सहमत हैं. तुम बस इसे राजी कर लो तो मैं उन लोगों को अपने घर आमंत्रित करूं,’’ भानुप्रताप ने रितिका को समझया.

‘‘मैं उसे कुछ नहीं कहूंगी जब आप को पता है वह अभी शादी करने को राजी नहीं है तो आप ने बिना बताए उस के फोटो और कुंडली क्यों भेजी?’’

‘‘बेकार बहस न करो. इतना अच्छा रिश्ता घर बैठे नहीं मिलता,’’ भानुप्रताप ऊंची आवाज

में बोले.

रितिका बहस में न पड़ कर वहां से उठ कर रसोई में चली गई. थोड़ी देर

में इशिता भी रसोईघर में आ गई.

‘‘मम्मी मैं क्या सुन रही हूं पापा ने मेरे लिए रिश्ता ढूंढ़ा है? आप ने मुझ से पूछे बिना इतना बड़ा फैसला कैसे ले लिया?’’

‘‘मुझे भी नहीं पता… तुम्हारे पापा हमेशा अपनी मरजी ही तो चलाते आए हैं इस घर में.

‘‘सब आप की वजह से हुआ है आप कभी दमदार आवाज में विरोध नहीं करती हैं न, इसी बात का फायदा पापा को मिल जाता है.’’

इशिता की बात सुन कर रितिका को एक झटका लगा. इशिता सही कह रही है वो कभी भी किसी बात का विरोध ही नहीं करती बस समझता ही करती आई है.

1 हफ्ता तो यही तमाशा चलता रहा. भानुप्रताप और इशिता दोनों ही रितिका से एकदूसरे की शिकायत करते रहते. एक दिन परेशान हो रितिका ने दोनों को आमनेसामने बैठा दिया और बोलीं, ‘‘जो तुम दोनों मुझ से कहते रहते हो कि इसे यह बता दो, उसे यह बता दो. आज फुरसत में हो आमनेसामने बैठ कर बात कर लो कि लड़के वालों को क्या जवाब भिजवाना है.’’

भानुप्रताप ने इशिता से कहा, ‘‘पहले मेरी बात ध्यान से सुनना बीच में बिलकुल नहीं बोलना, फिर मैं तुम्हारी बात सुनूंगा.’’

इशिता सहमत हो गई. भानुप्रताप ने उसे दोनों रिश्तों के विषय में समझया. उन दोनों युवकों का बायोडेटा, फोटोग्राफ, पारिवारिक रहनसहन के विषय में बताया.

इशिता अनमनी सी सुनती रही. पापा की बात समाप्त होते ही बोली, ‘‘आप भाई को अभी कितने साल और तैयारी के लिए देने जा रहे हैं?’’

‘‘कम से कम 3 साल तो देने ही पड़ेंगे. इतना आसान नहीं है आईएएस बनना.’’

‘‘तो ठीक है मुझे बस सालभर का समय दे दीजिए, फिर मैं आप की बात मान जाऊंगी.’’

‘‘सालभर कोई रिश्ता इंतजार नहीं करेगा. नौकरी के लिए आवेदन करती रहना शादी के बाद.’’

‘‘कहा न कि पहले नौकरी करूंगी फिर शादी की सोचूंगी. मन करेगा तो करूंगी नहीं तो खुद कमाऊंगी, खुद पर उड़ाऊंगी,’’ इशिता ने लापरवाही से कहा.

‘‘यह क्या बकवास है… रितिका तुम इसे कुछ समझती क्यों नहीं?’’

पितापुत्री जब भी आमनेसामने आते बहस शुरू हो जाती. रितिका ने भी उन की बहस के बीच बोलना बंद कर दिया.

ये भी पढ़ें- इंग्लिश रोज: क्या सच्चा था विधि के लिए जौन का प्यार

इशिता ने अपना लक्ष्य केद्रिंत कर लिया. वह हर दिन कम से कम 5-6 कंपनियों में आवेदन करती. उस दिन वह सुबह से साक्षात्कार में व्यस्त थी. शाम को चाय का कप पकड़ कर वह सोच में बैठी थी कि पिछले 15 दिनों में दिए साक्षात्कार के परिणाम भी अब जल्द ही आने शुरू हो जाएंगे. उसे पूरी उम्मीद है कि इस बार उसे नौकरी मिल ही जाएगी.

तभी सामने से पापा को बिस्कुट का डब्बा लाते देख वह समझ गई कि फिर से उसे शादी के लिए फुसलाने को पापा बिस्कुट का सहारा ले कर आ रहे हैं और उसी विषय पर चर्चा करेंगे. उस का सिर अब भारी हो चला था सुबह से लैपटौप पर आंखें गड़ाए वह थक चुकी थी. पापा से बहस कर अपना मूड खराब नहीं करना चाहती थी. अत: वहां से उठ कर बरामदे में रखी कुरसी पर बैठ गई.

भानुप्रताप भी सब समझ गए. अपनी बेटी की जिद देख कर उन्हें बहुत क्रोध आया तो वहीं से जोरजोर से बोलने लगे, ‘‘एक शांभवी है अपनी ससुराल वालों का दिल उस ने जाते ही जीत लिया. अपनी गृहस्थी में रचबस गई है. किसी से उसे कोई शिकायत नहीं. उस के मांपापा भी निश्चिंत हो गए हैं. एक हम हैं इतने अच्छे रिश्ते पकड़ कर बैठे हैं. रोज लड़के वालों से संपर्क कर उन्हें रोके हुए हैं. मगर हमारी बेटी सब से ज्यादा जिद्दी हैं. शांभवी को देखो उसे तो बीएड कर कैरियर बनाने की नहीं पड़ी है. एमबीए कर दिमाग खराब हो गया है इस का…’’

बरामदे तक आ रही बड़बड़ की आवाज से ध्यान हटाने के लिए वह फोन पर मेल चैक करने लगी. एक मेल को पढ़ कर वह उछल पड़ी. उसे एमएलसी में जौब मिल गई थी. उस ने मम्मीपापा को यह खुशखबरी देने के लिए बरामदे से अंदर झंका तो उसे मम्मी सिर पकड़ कर बैठी दिखीं और पापा फोन पर अच्छा, हां, फिर लगातार बोलते हुए दिखे.

‘‘क्या हुआ?’’ उस ने रोआंसा मुंह ले कर बैठी रितिका से पूछा.

‘‘शशश…’’ भानुप्रताप ने उसे चुप रहने को कहा.

वह सोफे पर बैठ गई.

फोन के बंद होते ही भानुप्रताप चुपचाप दूसरे सोफे पर बैठ गए.

‘‘कोई कुछ बोलेगा?’’ उस ने अपने मम्मीपापा से पूछा.

‘‘शांभवी के घर पुलिस आई थी उस के पति की पिटाई कर के गई,’’ मम्मी ने कहा.

‘‘क्या? मगर क्यों? पड़ोसियों से झगड़ा हुआ क्या?’’ इशिता ने पूछा.

‘‘ विजय और शांभवी की बहस हो गई थी तो विजय ने हाथ उठा दिया. शांभवी सामने दीवार से टकरा गई. उस के माथे से खून निकलने लगा. उसी समय दोनों भाई शांभवी से मिलने उस के घर पहुंच गए. शांभवी की यह हालत देख कर दोनों ने पुलिस बुला ली. पुलिस ने आ कर विजय की ठुकाई की. फिर शांभवी के कहने से छोड़ दिया वरना वे विजय को घरेलू हिंसा एक्ट में थाने ले जाने को तैयार थे,’’ भानुप्रताप एक सांस में बोल गए.

‘‘अब शांभवी बता रही है कि वह तो पहले भी 1-2 बार हाथ उठा चुका है मगर इस ने किसी को कानोंकान खबर न होने दी. कह रही थी कि वह ये सब बता कर आप लोगों को परेशान नहीं करना चाह रही थी,’’ रितिका ने कहा.

‘‘बेवकूफ है. वह कहती थी कि शादी के बाद घूमनेफिरने और मनमरजी करने की आजादी मिल जाएगी. मिल गई उसे आजादी? पिता के पहरे से निकली तो पति की बंदिशों में कैद हो गई. मैं ने कहा था बीएड कर लो, जौब पकड़ लो, आर्थिक आजादी तभी मिलेगी. मगर मैडम को तो शादी करनी थी,’’ इशिता ने बौखला कर कहा.

ये भी पढ़ें- New Year 2022: हैप्पी न्यू ईयर- नए साल में आखिर क्या करने जा रही थी मालिनी

रितिका ने उसे चुप रहने का इशारा किया.

‘‘मुझे ग्रेटर नोएडा में जौब मिल गई है. सालाना 7 लाख का पैकेज है. अब आप को मेरी बात सुननी पड़ेगी पापा. जब मेरा मन होगा मैं तभी शादी करूंगी. चाहे 1 साल बाद हो या फिर 4 साल बाद,’’ यह कह कर उस ने पापा की प्रतिक्रिया जाननी चाही.

भानुप्रताप ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘तुम ठीक कहती हो बेटा, खूब तरक्की करो, सदा सुखी रहो.’’

सपनों की उड़ान: भाग 2- क्या हुआ था शांभवी के साथ

सुबह से ही पूरे घर में जैसे भूचाल सा आ गया था. लड़के वाले फर्रुखाबाद से

हरदोई लंच टाइम तक आने वाले थे. दोनों गृहिणीयां भोजन के इंतजाम में व्यस्त हो गईं. शांभवी और इशिता कमरे में कपड़ों के ढेर के सामने खड़े हो एकदूसरे के ऊपर टीकाटिप्पणी में व्यस्त हो गईं.

‘‘यह ड्रैस कैसी है दी?’’ इशिता ने लौंग स्कर्ट और सफेद टौप पहन इठलाते हुए पूछा.

‘‘कुछ भी पहन ले… वैसे भी तुझे सब के सामने आने की मनाही है,’’ शांभवी ने मुंह बिचका कर चिढ़ाया.

‘‘अरे, तुम्हारे विजय के लिए तैयार नहीं हो रही हूं. अपने लिए तैयार हो रही हूं,’’ कह कर उस ने कपड़ों के ढेर से कपड़े निकाल कर सहेजने शुरू कर दिए.

‘‘ मेरा विजय… अभी हमारा रिश्ता तय नहीं हुआ है,’’ शांभवी ने कहा.

‘‘तेरे बौयफ्रैंड को पता है यह?’’ रिश्ता इशिता ने पूछा.

‘‘कालेज फ्रैंड हैं बौयफ्रैंड नहीं… वह जौब करने चंडीगढ़ चला गया है अब ज्यादा बात नहीं होती,’’ शांभवी ने लापरवाही से कहा.

‘‘तब ठीक है मुझे लगा कि तू उसे धोखा दे रही है,’’ इशिता ठंडी सांस भर कर बोली.

‘‘तू सुना, अभी तक कोई बौयफ्रैंड नहीं बना?’’

‘‘नहीं, मुझे बौयफ्रैंड, शादी इन सब में फिलहाल कोई इंटरैस्ट नहीं है. मेरा सारा ध्यान अच्छी नौकरी ढूंढ़ने में लगा है. सच कहूं तो पापा का तानाशाही रवैया देख मेरा तो शादी करने का मन ही नहीं करता है. मम्मी इतनी मेहनत कर कमाती हैं पर पापा 1-1 रुपए का हिसाब रखते हैं. सारी शौपिंग, इनवैस्टमैंट सबकुछ पापा की मरजी से ही होता है.’’

तभी उन के कमरे का दरवाजा खटखटा कर रितिका ने कहा, ‘‘यह साड़ी शांभवी को पहना दो… विजय की दादी भी साथ आ रही हैं.’’

इशिता ने दरवाजा खोल कर पूछा, ‘‘साड़ी?’’

‘‘हां. बिचौलिए से पता चला है कि उस की दादी भी गाड़ी में सवार हो गई हैं… लगता है रिश्ता पक्का करने ही आ रहे हैं.’’

शांभवी सिर पकड़ कर बैठ गई.

‘‘क्या हुआ दी?’’

‘‘मैं ने सोचा था दिखनेदिखाने और रिश्ता पक्का होने के बीच कुछ समय मिल जाएगा, जिस से विजय से खुल कर बातचीत भी हो जाएगी, मगर सब इतनी जल्दी हो रहा है कि मुझे तो कुछ सम?ा में ही नहीं आ रहा?’’

‘‘शादी तो करना चाहती हो न?’’

ये भी पढ़ें- दर्पण: क्या रिश्ते में आई दरार दोबारा ठीक हो सकती है

‘‘हां, विजय दिल्ली में जौब करता है. अच्छा कमाता है. अब पहली बार इस शहर से बाहर निकलने को मिलेगा. बेटों को तो बाहर पढ़ने भेज दिया, मगर हमें जाने को नहीं मिला. सोचती हूं शादी के बाद इस रोकटोक से आजाद हो जाऊंगी. अपनी मरजी का पहनंगी और घूमूंगी.’’

‘‘तो फटाफट तैयार हो जा. साड़ी का पल्लू सिर पर रख ले और सब पर इंप्रैशन जमा देना. मुझे तो सामने आने को मना किया है, शायद रिश्ता पक्का हो जाने के बाद मिलवा दें,’’ इशिता अपनी आंखें मटका कर बोली.

विजय के मम्मीपापा, चाचाचाची, दादी

और बिचौलिए समेत 7 लोग बैठक में मौजूद थे. चायपानी के बाद शांभवी को उस की मम्मी ले कर चली गईं.

इशिता बेचैनी से कमरे के चक्कर काटने लगी. जब न रहा गया तो धीरे से बैठक की ओर बढ़ चली. परदे की ओट से सोफे में बैठे विजय और शांभवी दिखाई दे रहे थे. शांभवी की नजर परदे की ओट से झांकती इशिता के ऊपर पड़ गई. उस ने बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी रोकी और उसे आंखों से वहां से जाने का इशारा किया, जिसे रितिका ने भी देख लिया. वे तुरंत उठ कर खड़ी हो गईं और परदे के पीछे आ कर इशिता का हाथ थाम कर उसे कमरे की ओर खींच ले गईं और बोलीं, ‘‘क्या कर रही हो? उस का रिश्ता पक्का हो जाने दो, फिर मिलना सब से… इतनी बड़ी हो गई हो, मगर बचपना नहीं गया तुम्हारा.’’

उस के पापा भी पूरा माजरा सम?ा कर कमरे में आ गए.

‘‘जब मुझे एमबीए के लिए पूना में एडमिशन मिला तो आप ने नहीं भेजा तब मैं छोटी थी और आज कह रहे हैं कि बड़ी हो गई हो.’’

‘‘देखो यहां मुझे कोई तमाशा नहीं चाहिए. अब तो रिश्ता तय हो जाने के बाद भी तुम्हें बाहर आने की जरूरत नहीं, यहीं बैठी रहना,’’ पापा गुस्से से बोले.

‘‘मैं आऊंगी भी नहीं… मुझे अब बुलाना भी नहीं,’’ कह कर वह अपमानित हो तकिए में सिर रख कर सिसकने लगी. उस के मम्मीपापा उसे वैसे ही छोड़ कर कमरे से बाहर चले गए. कुछ ही देर में वह नींद के आगोश में समा गई.

सारे मेहमानों को विदा कर पूरा परिवार तनावमुक्त हो बैठक में हासपरिहास में व्यस्त हो गया. शांभवी जब कमरे में आई तो इशिता बेसुध सोई हुई थी.

‘‘ कितना सोएगी इशिता, यह मेरे ब्लाउज में फंसी पिन निकाल दे, मेरा हाथ पीठ नहीं पहुंच रहा है… यह पिन कहां लगा दी तूने?’’ उस ने अपनी साड़ी को निकालते हुए कहा.

इशिता आंख मलते हुए उठी सामने शांभवी को साड़ी से उल?ा हुआ देख हंस पड़ी और बोली, ‘‘फाइनल हो गया?’’

‘‘हां, 2 महीने बाद सगाई और शादी साथ ही हैं,’’ कह कर अपने गले में पड़ी सोने की चेन दिखाते हुए कहा, ‘‘यह विजय की दादी ने पहनाई है.’’

‘‘तुझे भी विजय पसंद आया?’’

‘‘पता नहीं… कुछ सम?ा नहीं आ रहा है. घर वालों को तो बहुत पसंद आया. मुझे विजय नहीं अपनी आजादी चाहिए. शादी के बाद घर में मेरी मरजी चलेगी. अपने मन का खाना, पहनना बस इस से ज्यादा मुझे जिंदगी से कुछ नहीं चाहिए.’’

‘‘पता नहीं आप क्या सोचती हैं दी, मगर मेरी नजर में आर्थिक आजादी ज्यादा महत्त्व रखती है. मुझे तो बस एक अच्छी सी नौकरी मिल जाए. फिर मैं आत्मनिर्भर बन जाऊंगी. ध्यान रहे यह सोने की चेन कही खूंटे से बांधने वाली रस्सी में न बदल जाए.’’

‘‘चल हट, पूरा समय बकवास… देखना विजय को मैं कैसे अपने आगेपीछे नचाती हूं,’’ शांभवी ने अपनी ऊंगली में चेन को लपेटते हुए कहा.

शादी की खरीदारी व अन्य तैयारी के लिए शांभवी का परिवार लखनऊ आ गया. उन 15 दिनों में इशिता को शांभवी और विजय की रसभरी बातें, व्हाट्सऐप्प पर पढ़नेसुनने को मिलीं.

‘‘सोच रहा हूं जब तुम मेरे साथ दिल्ली में रहोगी तो मैं रोज तुम्हारे लिए अलगअलग रंग के बुके लाऊंगा.’’

‘‘और मैं हर शाम अलग अंदाज में सज कर तुम्हें चौंका दूंगी कभी मराठी, कभी पंजाबी और कभी…’’

‘‘तुम्हें पता है तुम्हारी आंखें कितनी नशीली हैं… तुम्हें देखते ही मुझे पहली नजर का प्यार हो गया है.’’

‘‘मैं तो बस यही कहूंगी, ‘आए हो मेरी जिंदगी में तुम बहार बन के, मेरे संग यों ही रहना तुम प्यारप्यार बन के.’’’

ये भी पढ़ें- महबूबा के प्यार ने बना दिया बेईमान: पुष्पक ने क्या किया था

‘‘गलत बात इशिता तुझे मैं ने अपना फोन लहंगे की डिजाइन पसंद करने के लिए दिया था न कि मेरी और विजय की चैट पढ़ने के लिए,’’ कह शांभवी ने फोन छीन लिया.

‘‘सौरी दी, पर चैट पढ़ कर बड़ा मजा आ रहा है. क्या आप को वाकई प्यार हो गया है?’’ इशिता ने पूछा.

‘‘अरे वह तो यों ही लिख दिया, अब उस ने इतना कुछ लिखा तो…’’

‘‘यह क्या बात हुई? मैं इसीलिए शादी नहीं करना चाहती. इतना ?ाठ मु?ा से न बोला जाएगा.’’

‘‘मुझे भी बस शादी कर अपने मायके की कैद से बाहर निकलना हैं. विजय कहता है कि उसे नईनई जगह घूमना बहुत पसंद हैं हम हर साल एक नई लोकेशन में फोटोशूट करते मिलेंगे.’’

‘‘और बीएड का क्या?’’

‘‘देखा जाएगा, मन करेगा तो पूरा कर लूंगी.’’

‘‘देखती हूं, अगर आप को अपनी शादी में इतना रोमांस, सैरसपाटा और उन्मुक्तता मिल गई तो शायद शादी के प्रति मेरी धारणा भी बदल जाए.’’

आगे पढ़ें- विजय बेहद लापरवाह और …

ये भी पढ़ें- ऐसा तो होना ही था: क्या हुआ था ऋचा के साथ

Serial Story: भाभी- क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

एक और बेटे की मां: क्या सही था रूपा का फैसला

आज वह आया भी काम छोड़ कर अपने घर भाग गई कि यहां जरूर कोई साया है, जो इस घर को बीमार कर जाता है. उस ने उसे कितना सम झाया कि ऐसी कोई बात नहीं और उसे उस छोटे बच्चे का वास्ता भी दिया कि वह अकेले कैसे रहेगा? मगर, वह नहीं मानी और चली गई. दोपहर में वही उसे खाना पहुंचा गई और तमाम सावधानियां बरतने की सलाह दे डाली. मगर 6 साल का बच्चा आखिर क्या सम झा होगा. आखिर वह मुन्ना से सालभर छोटा ही है.

मगर, मुन्ने का सवाल अपनी जगह था. कुछ सोचते हुए वह बोली, ‘‘अरे, ऐसा कुछ नहीं है. उस के मम्मीपापा दोनों ही बाहर नौकरी करने वाले ठहरे. शुरू से उस की अकेले रहने की आदत है. तुम्हारी तरह डरपोक थोड़े ही है.’’

‘‘जब किसी के मम्मीपापा नहीं होंगे, तो कोई भी डरेगा मम्मी,’’ वह बोल रहा था, ‘‘आया भी चली गई. अब वह क्या करेगा?’’

‘‘अब ज्यादा सवालजवाब मत करो. मैं उसे खानानाश्ता दे दूंगी. और क्या कर सकती हूं. बहुत हुआ तो उस से फोन पर बात कर लेना.’’

‘‘उसे उस की मम्मी हौर्लिक्स देती थीं. और उसे कौर्नफ्लैक्स बहुत पसंद है.’’

‘‘ठीक है, वह भी उसे दे दूंगी. मगर अभी सवाल पूछपूछ कर मु झे तंग मत करो. और श्वेता को देखो कि वह क्या कर रही है.’’

‘‘वह अपने खिलौनों की बास्केट खोले पापा के पास बैठी खेल रही है.’’

‘‘ठीक है, तो तुम भी वहीं जाओ और उस के साथ खेलो. मु झे किचन में बहुत काम है. कामवाली नहीं आ रही है.’’

‘‘मगर, मु झे खेलने का मन नहीं करता. और पापा टीवी खोलने नहीं देते.’’

‘‘ठीक ही तो करते हैं. टीवी में केवल कोरोना के डरावने समाचार आते हैं. फिर वे कंप्यूटर पर बैठे औफिस का काम कर रहे होंगे,’’ उस ने उसे टालने की गरज से कहा, ‘‘तुम्हें मैं ने जो पत्रिकाएं और किताबें ला कर दी हैं, उन्हें पढ़ो.’’

किचन का सारा काम समेट वह कमरे में जा कर लेट गई, तो उस के सामने किशोर का चेहरा उभर कर आ गया. ओह, इतना छोटा बच्चा, कैसे अकेले रहता होगा? उस के सामने राजेशजी और उन की पत्नी रूपा का अक्स आने लगा था.

पहले राजेशजी ही एक सप्ताह पहले अस्पताल में भरती हुए थे. और 3 दिनों पहले उन की पत्नी रूपा भी अस्पताल में भरती हो गई. अब सुनने में आया है कि वह आईसीयू में है और उसे औक्सीजन दी जा रही है. अगर उस के साथ ऐसा होता, तो मुन्ना और श्वेता का क्या होता. बहुत अच्छा होगा कि वह जल्दी घर लौट आए और अपने बच्चे को देखे. राजेशजी अपने किसी रिश्तेदार को बुला लेते या किसी के यहां किशोर को भेज देते, तो कितना ठीक रहता. मगर अभी के दौर में रखेगा भी कौन? सभी तो इस छूत की बीमारी कोरोना के नाम से ही दूर भागते हैं.

वैसे, राजेशजी भी कम नहीं हैं. उन्हें इस बात का अहंकार है कि वे एक संस्थान में उपनिदेशक हैं. पैसे और रसूख वाले हैं. रूपा भी बैंककर्मी है, तो पैसों की क्या कमी. मगर, इन के पीछे बच्चे का क्या हाल होगा, शायद यह भी उन्हें सोचना चाहिए था. उन के रूखे व्यवहार के कारण ही नीरज भी उन के प्रति तटस्थ ही रहते हैं. किसी एक का अहंकार दूसरे को सहज भी तो नहीं रहने देता.

रूपा भी एक तो अपनी व्यस्तता के चलते, दूसरे अपने पति की सोच की वजह से किसी से कोई खास मतलब नहीं रखती. वह तो उन का बेटा, उसी विद्यालय में पढ़ता है, जिस में मुन्ना पढ़ता है. फिर एक ही अपार्टमैंट में आमनेसामने रहने की वजह से वे मिलतेजुलते भी रहते हैं. इसलिए मुन्ना जरूरत से ज्यादा संवेदनशील हो सोच रहा है. सोच तो वह भी रही है. मगर इस कोरोना की वजह से वह उस घर में चाह कर भी नहीं जा पाती और न ही उसे बुला पाती है.

शाम को उस के घर की घंटी बजी, तो उस ने घर का दरवाजा खोला. उस के सामने हाथ में मोबाइल फोन लिए बदहवास सा किशोर खड़ा था. वह बोला,  ‘‘आंटी, अस्पताल से फोन आया था,’’ घबराए स्वर में किशोर बोलने लगा, ‘‘उधर से कोई कुछ कह रहा था. मैं कुछ सम झा नहीं. बाद में कोई पूछ रहा था कि घर में कोई बड़ा नहीं है क्या?’’

वह असमंजस में पड़ गई. बच्चे को घर के अंदर बुलाऊं कि नहीं. जिस के मांबाप दोनों ही संक्रमित हों, उस के साथ क्या व्यवहार करना चाहिए. फिर भी ममता ने जोर मारा. उस में उसे अपने मुन्ने का अक्स दिखाई दिया, तो उसे घर के अंदर बुला कर बिठाया. और उस से मोबाइल फोन ले कौल बैक किया. मगर वह रिंग हो कर रह जा रहा था. तब तक मुन्ना और नीरज ड्राइंगरूम में आ गए थे. मुन्ना उछल कर उस के पास चला गया. वह अभी कुछ कहती कि नीरज बोले, ‘‘बच्चा है, उसे कुछ हुआ नहीं है. उस का भी आरटीपीसीआर हुआ था. कुछ नहीं निकला है.’’

वह थोड़ी आश्वस्त हुई. उधर मुन्ना बातें करते हुए किशोर के साथ दूसरी ओर चला गया था कि मोबाइल फोन की घंटी बजी. फोन अस्पताल से ही था. नीरज ने कोरोना से पीडि़त पड़े पड़ोसी के भाई को अमेरिका फोन किया तो सरल सा जवाब मिला, ‘‘उन लोगों ने अपने मन की करी, अब खुद भुगतो.’’ और पीछे कहा गया. फोन उठा कर ‘हैलो’ कहा, तो उधर से आवाज आई, ‘‘आप राकेशजी के घर से बोल रही हैं?’’

‘‘नहीं, मैं उन के पड़ोस से बोल रही हूं,’’ वह बोली, ‘‘सब ठीक है न?’’

‘‘सौरी मैम, हम मिसेज रूपा को बचा नहीं सके. एक घंटा पहले ही उन की डैथ

हो गई. आप उन की डैड बौडी लेने और अन्य औपचारिकताएं पूरी करने यहां आ जाएं,’’ यह सुन कर उस का पैर थरथरा सा गया. यह वह क्या सुन रही है…

नीरज ने आ कर उसे संभाला और उस के हाथ से फोन ले कर बातें करने लगा था, ‘‘कहिए, क्या बात है?’’

‘‘अब कहना क्या है?’’ उधर से फिर वही आवाज आई, ‘‘अब डैड बौडी लेने की औपचारिकता रह गई है. आप आ कर उसे पूरा कर दीजिए.’’

‘‘सौरी, हम इस संबंध में कुछ नहीं जानते,’’ नीरज बोल रहे थे, ‘‘मिसेज रूपा के पति राकेशजी आप ही के अस्पताल में कोरोना वार्ड में ऐडमिट हैं. उन से संपर्क कीजिए.’’

इतना कह कर उन्होंने फोन काट कर प्रश्नवाचक दृष्टि से शोभा को देखा. शोभा को जैसे काठ मार गया था. बड़ी मुश्किल से उस ने खुद को संभाला, तो नीरज बोले, ‘‘एक नंबर का अहंकारी है राकेश. ऐसे आदमी की मदद क्या करना. कल को कहीं यह न कह दे कि आप को क्या जरूरत थी कुछ करने की. वैसे भी इस कोरोना महामारी के बीच बाहर कौन निकलता है. वह भी उस अस्पताल में जाना, जहां वैसे पेशेंट भरे पड़े हों.’’

तब तक किशोर उन के पास चला आया और पूछने लगा, ‘‘मम्मीपापा लौट के आ रहे हैं न अंकल?’’

इस नन्हे, अबोध बच्चे को कोई क्या जवाब दे? यह विकट संकट की घड़ी थी. उसे टालने के लिए वह बोली, ‘‘अभी मैं तुम लोगों को कुछ खाने के लिए निकालती हूं. पहले कुछ खा लो.’’

‘‘मु झे भूख नहीं है आंटी. मु झे कुछ नहीं खाना.’’

‘‘कैसे नहीं खाना,’’  नीरज द्रवित से होते हुए बोले, ‘‘मुन्ना और श्वेता के साथ तुम भी कुछ खा लो.’’

फिर वे शोभा से बोले, ‘‘तुम किचन में जाओ. तब तक मैं कुछ सोचता हूं.’’

वह जल्दी में दूध में कौर्नफ्लैक्स डाल कर ले आई और तीनों बच्चों को खाने को दिया. फिर वह किशोर से मुखातिब होती हुई बोली, ‘‘तुम्हारे नानानानी या मामामौसी होंगे न. उन का फोन नंबर दो. मैं उन से बात करती हूं.’’

‘‘मेरी मम्मी का कोई नहीं है. वे इकलौती थीं. मैं ने तो नानानानी को देखा भी नहीं.’’

‘‘कोई बात नहीं, दादादादी, चाचाचाची तो होंगे,’’ नीरज उसे पुचकारते हुए बोले, ‘‘उन का ही फोन नंबर बताओ.’’

‘‘दादादादी का भी देहांत हो गया है. एक चाचा  हैं. लेकिन, वे अमेरिका में रहते हैं. कभीकभी पापा उन से बात करते थे.’’

‘‘तो उन का नंबर निकालो,’’ वह शीघ्रता से बोली, ‘‘हम उन से बात करते हैं.’’

किशोर ने मोबाइल फोन में वह नंबर ढूंढ़ कर निकाला. नीरज ने पहले उसी फोन से उन्हें डायल किया, तो फोन रिंग ही नहीं हुआ.

‘‘यह आईएसडी नंबर है. फोन कहां से  होगा,’’ कह कर वे  झुं झलाए, फिर उस नंबर को अपने मोबाइल में नोट कर फोन लगाया. कई प्रयासों के बाद वह फोन लगा, तो उस ने अपना परिचय दिया, ‘‘आप राकेशजी हैं न, राकेशजी के भाई. मैं उन का पड़ोसी नीरज बोल रहा हूं. आप के भाई और भाभी दोनों ही कोरोना पौजिटिव हैं और अस्पताल में भरती हैं.’’

‘‘तो मैं क्या करूं?’’ उधर से आवाज आई.

‘‘अरे, आप को जानकारी दे रहा हूं. आप उन के रिश्तेदार हैं. उन का बच्चा एक सप्ताह से फ्लैट में अकेला ही रह रहा है.’’

‘‘कहा न कि मैं क्या करूं,’’ उधर से  झल्लाहटभरी आवाज आई, ‘‘उन लोगों ने अपने मन की करी, तो भुगतें भी. अस्पताल में ही भरती हैं न, ठीक हो कर वापस लौट आएंगे.’’

नीरज ने शोभा को इशारा किया, तो वह उन का इशारा सम झ बच्चों को अपने कमरे में ले गई. तो वे फोन पर उन से धीरे से बोले, ‘‘आप की भाभी की डैथ हो गई है.’’

‘‘तो मैं क्या कर सकता हूं? मैं अमेरिका में हूं. यहां भी हजार परेशानियां हैं. मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता.’’

‘‘अरे, कुछ कर नहीं सकते, न सही. मगर बच्चे को फोन पर तसल्ली तो दे लो,’’ मगर तब तक उधर से कनैक्शन कट चुका था.

‘‘यह तो अपने भाई से भी बढ़ कर खड़ूस निकला,’’ नीरज बड़बड़ाए और उस की ओर देखते हुए फोन रख दिया. तब तक किशोर आ गया था, ‘‘आंटी, मैं अपने घर नहीं जाऊंगा. मु झे मेरी मम्मी के पास पहुंचा दो. वहीं मु झे जाना है.’’

‘‘तुम्हारी मम्मी अस्पताल में भरती हैं और वहां कोई नहीं जा सकता.’’

‘‘तो मैं आप ही के पास रहूंगा.’’

‘‘ठीक है, रह लेना,’’ वह उसे पुचकारती हुई बोली, ‘‘मैं तुम्हें कहां भेज रही हूं. तुम खाना खा कर मुन्ने के कमरे में सो जाना.’’

बच्चों के कमरे में एक फोल्ंिडग बिछा, उस पर बिस्तर लगा व उसे सुला कर वह किचन में आ गई. ढेर सारे काम पड़े थे. उन्हें निबटाते रात के 11 बज गए थे. अचानक उस बेसुध सो रहे बच्चे किशोर के पास का मोबाइल घनघनाया, तो उस ने दौड़ कर फोन उठाया. उधर अस्पताल से ही फोन था. कोई रुचिका नामक नर्स उस से पूछ रही थी, ‘‘मिस्टर राकेश ने किन्हीं मिस्टर नीरज का नाम बताया है. वे घर पर हैं?’’

‘‘वे मेरे पति हैं. मगर मेरे पति क्या कर लेंगे?’’

‘‘मिस्टर राकेश बोले हैं कि वे कल उन के कार्यालय में जा कर उन के एक साथी से मिल लें और रुपए ले आएं.’’

‘‘मैं कहीं नहीं जाने वाला,’’ नीरज भड़क कर बोले, ‘‘जानपहचान है नहीं और मैं कहांकहां भटकता फिरूंगा. बच्चे का मुंह क्या देख लिया, सभी हमारे पीछे पड़ गए. इस समय हाल यह है कि लौकडाउन है और बाहर पुलिस डंडे बरसा रही है. और इस समय कोई स्वस्थ आदमी भी अस्पताल जाएगा, तो वह कोरोनाग्रस्त हो जाए.’’

वह एकदम उल झन में पड़ गई. कैसी विषम स्थिति थी. और उन की बात भी सही थी. ‘‘अब जो होगा, कल ही सोचेंगे,’’ कहते हुए उस ने बत्ती बु झा दी.

सुबह किशोर जल्द ही जग गया था. उस ने किशोर से पूछा, ‘‘तुम अपने पापा के औफिस में उन के किन्हीं दोस्त को जानते हो?’’

‘‘हां, वह विनोद अंकल हैं न, उन का फोन नंबर भी है. एकदो बार उन का फोन भी आया था. मगर अभी किसलिए पूछ रही हैं?’’

‘‘ऐसा है किशोर बेटे, तुम्हारी मम्मी के इलाज और औपरेशन के लिए अस्पताल में ज्यादा पैसों की जरूरत आ पड़ी है. और तुम्हारे पापा ने इस के लिए उन के औफिस में बात करने को कहा है.’’

‘‘हां, हां, वे डायरैक्टर हैं न, वे जरूर पैसा दे देंगे,’’ इतना कह कर वह मोबाइल में उन का नंबर ढूंढ़ने लगा. फिर खोज कर बोला, ‘‘यह रहा उन का मोबाइल नंबर,’’ किशोर से फोन ले उस ने उन्हें फोन कर धीमे स्वर में सारी जानकारी दे दी.

‘‘ओह, यह तो बहुत बुरा हुआ. वैसे, मैं एक आदमी द्वारा आप के पास रुपए भिजवाता हूं.’’

‘‘मगर, हम रुपयों का क्या करेंगे?’’ वह बोली, ‘‘अब तो बस मिट्टी को राख में बदलना है. आप ही उस का इंतजाम कर दें. मिस्टर राकेश अस्पताल में भरती हैं. और उन का बेटा अभी बहुत छोटा  है, मासूम है. उसे भेजना तो दूर, यह खबर बता भी नहीं सकती. अभी तो बात यह है कि डैड बौडी को श्मशान पर कैसे ले जाया जाएगा. संक्रामक रोग होने के कारण मेरे पति ने कहीं जाने से साफ मना कर दिया है.’’

‘‘बिलकुल ठीक किया. मैं भी नहीं जाने वाला. कौन बैठेबिठाए मुसीबत मोल लेगा. मैं देखता हूं, शायद कोई स्वयंसेवी संस्था यह काम संपन्न करा दे.’’

लगभग 12 बजे दिन में एक आदमी शोभा के घर आया और उन्हें 10,000 रुपए देते हुए बोला, ‘‘विनोद साहब ने भिजवाए हैं. शायद बच्चे की परवरिश में इस की आप को जरूरत पड़ सकती है. राकेश साहब कब घर लौटें, पता नहीं. उन्होंने एक एजेंसी के माध्यम से डैड बौडी की अंत्येष्टि करा दी है.’’

‘‘लेकिन, हम पैसे ले कर क्या करेंगे? हमारे पास इतना पैसा है कि एक बच्चे को खिलापिला सकें.’’

‘‘रख लीजिए मैडम. समयसंयोग कोई नहीं जानता,’’ वह बोला, ‘‘कब पैसे की जरूरत आ पड़े, कौन जानता है. फिर उन के पास है, तभी तो दे रहे हैं.’’

‘‘ओह, बेचारा बच्चा अपनी मां का अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाया. यह प्रकृति का कैसा खेल है.’’

‘‘अच्छा है मैडम, कोरोना संक्रमित से जितनी दूर रहा जाए, उतना ही अच्छा. जाने वाला तो चला गया, मगर जो हैं, वे तो बचे रहें.’’

किशोर दोनों बच्चों के साथ हिलमिल गया था. मुन्ना उस के साथ कभी मोबाइल देखता, तो कभी लूडो या कैरम खेलता. 3 साल की श्वेता उस के पीछेपीछे डोलती फिरती थी. और किशोर भी उस का खयाल रखता था.

उसे कभीकभी किशोर पर तरस आता कि देखतेदेखते उस की दुनिया उजड़ गई. बिन मां के बच्चे की हालत क्या होती है, यह वह अनेक जगह देख चुकी है.

रात 10 बजे जब वह सभी को खिलापिला कर निश्ंिचत हो सोने की तैयारी कर रही थी कि अस्पताल से फिर फोन आया, तो पूरे उत्साह के साथ मोबाइल उठा कर किशोर बोला, ‘‘हां भाई, बोलो. मेरी मम्मी कैसी हैं? कब आ रही हैं वे?’’

‘‘घर में कोई बड़ा है, तो उस को फोन दो,’’ उधर से आवाज आई, ‘‘उन से जरूरी बात करनी है.’’

किशोर अनमने भाव से फोन ले कर नीरज के पास गया और बोला, ‘‘अंकल, आप का फोन है.’’

‘‘कहिए, क्या बात है?’’ वे बोले, ‘‘राकेशजी कैसे हैं?’’

‘‘ही इज नो मोर. उन की आधे घंटे पहले डैथ हो चुकी है. मु झे आप को इन्फौर्मेशन देने को कहा गया, सो फोन कर रही हूं.’’

आगे की बात नीरज से सुनी नहीं गई और फोन रख दिया. फोन रख कर वे किचन की ओर बढ़ गए. वह किचन से हाथ पोंछते हुए बाहर निकल ही रही थी कि उस ने मुंह लटकाए नीरज को देखा, तो घबरा गई.

‘‘क्या हुआ, जो घबराए हुए हो?’’ हाथ पोंछते हुए उस ने पूछा, ‘‘फिर कोई बात…?’’

‘‘बैडरूम में चलो, वहीं बताता हूं,’’ कहते हुए वे बैडरूम में चले गए. वह उन के पीछे बैडरूम में आई, तो वे बोले, ‘‘बहुत बुरी खबर है. मिस्टर राकेश की भी डैथ हो गई.’’

‘‘क्या?’’ वह अवाक हो कर बोली, ‘‘उस नन्हे बच्चे पर यह कैसी विपदा आ पड़ी है. अब हम क्या करें?’’

‘‘करना क्या है, ऐसी घड़ी में कोई कुछ चाह कर भी नहीं कर सकता,’’ इतना कह कर वे विनोदजी को फोन लगाने लगे.

‘‘हां, कहिए, क्या हाल है,’’ विनोदजी बोले, ‘‘बच्चा परेशान तो नहीं कर रहा?’’

‘‘बच्चे को तो हम बाद में देखेंगे ही, बल्कि देख ही रहे हैं,’’ वे उदास स्वर में बोले, ‘‘अभीअभी अस्पताल से खबर आई है कि मिस्टर राकेश भी चल बसे.’’

‘‘ओ माय गौड, यह क्या हो रहा है?’’

‘‘अब जो हो रहा है, वह हम भुगत ही रहे हैं. उन की डैडबौडी की आप एजेंसी के माध्यम से अंत्येष्टि करा ही देंगे. सवाल यह है कि इस बच्चे का क्या होगा?’’

‘‘यह बहुत बड़ा सवाल है, सर. फिलहाल तो वह बच्चा आप के घर में सुरक्षित माहौल में रह रहा है, यह बहुत बड़ी बात है.’’

‘‘सवाल यह है कि कब तक ऐसा चलेगा? बच्चा जब जानेगा कि उस के मांबाप इस दुनिया में नहीं हैं, तो उस की कैसी प्रतिक्रिया होगी? अभी तो हमारे पास वह बच्चों के साथ है, तो अपना दुख भूले बैठा है. मैं उसे रख भी लूं, तो वह रहने को तैयार होगा… मेरी पत्नी को  उसे अपने साथ रखने में परेशानी नहीं होगी, बल्कि मैं उस के मनोभावों को सम झते हुए ही यह निर्णय ले पा रहा हूं.

‘‘मान लीजिए कि मेरे साथ ही कुछ ऐसी घटना घटी होती, तो मैं क्या करता. मेरे बच्चे कहां जाते. ऊपर वाले ने मु झे इस लायक सम झा कि मैं एक बच्चे की परवरिश करूं, तो यही सही. यह मेरे लिए चुनौती समान है. और यह चुनौती मु झ को स्वीकार है.’’

‘‘धन्यवाद मिस्टर नीरजजी, आप ने मेरे मन का बो झ हलका कर दिया. लौकडाउन खत्म होने दीजिए, तो मैं आप के पास आऊंगा और बच्चे को राजी करना मेरी जिम्मेदारी होगी.

‘‘मैं उसे बताऊंगा कि अब उस के मातापिता नहीं रहे. और आप लोग उस के अभिभावक हैं. उस की परवरिश और पढ़ाईलिखाई के खर्चों की चिंता नहीं करेंगे. यह हम सभी की जिम्मेदारी होगी, ताकि किसी पर बो झ न पड़े और वह बच्चा एक जिम्मेदार नागरिक बने.’’

नीरज की बातों से शोभा को परम शांति मिल रही थी. उसे लग रहा था कि उस का तनाव घटता जा रहा है और, वह एक और बेटे की मां बन गई है.

बहार: भाग 3- क्या पति की शराब की लत छुड़ाने में कामयाब हो पाई संगीता

लेखिका- रिचा बर्नवाल

पार्क में आरती ने संगीता को कुछ ऐक्सरसाइजें सिखाईं. लौटने के समय संगीता बहुत खुश थी.

‘‘मम्मी, शादी के बाद से मेरा वजन लगातार बढ़ता जा रहा है. क्या व्यायाम से मैं पतली हो जाऊंगी,’’ आंखों में आशा की चमक ला कर संगीता ने अपनी सास से पूछा.

‘‘इन के अलावा वजन कम करने का और क्या तरीका होगा? पर एक समस्या है,’’ आरती की आंखों में उलझन  के भाव पैदा हुए.

‘‘कैसी समस्या?’’

‘‘सुबह पार्क में आने की.’’

‘‘मैं जल्दी उठ जाया करूंगी.’’

अचानक आरती ताली बजाती हुई बोलीं, ‘‘मैं तुम्हारे ससुर को जोश दिलाती हूं कि वे

रवि को नाश्ते की चीजें बनाना सिखाएं. उन दोनों को रसोई में उलझ कर हम पार्क चली आया करेंगी.’’

‘‘बिलकुल ऐसा ही करेंगे, मम्मी. आम के आम और गुठलियों के दाम. मेरा वजन भी कम होने लगेगा और नाश्ता भी बनाबनाया मिल जाएगा,’’ संगीता प्रसन्न नजर आने लगी.

उधर रसोई में रमाकांत अपने बेटे को समझ रहे थे, ‘‘रवि, मैं ने कुछ चीजें तेरी मां

से बनानी सीखीं क्योंकि अब उस की तबीयत ज्यादा ठीक नहीं रहती. मैं ने देखा है कि तू भी अधिकतर डबलरोटी मक्खन खा कर औफिस जाता है. मैं तुझे ये 5-7 चीजें बनानी सिखा देता हूं. ढंग का नाश्ता घर में बनने लगेगा, तो तेरा और बहू दोनों का फायदा होगा.’’

‘‘पोहा बनाने में आप की सहायता करना मुझे अच्छा लगा, पापा. आप मुझे बाकी की चीजें भी जरूर सिखाना,’’ रवि खुश नजर आ रहा था.

‘‘अब ब्रश कर के आ. फिर हम दोनों साथ बैठ कर नाश्ता करेंगे.’’

‘‘मम्मी और संगीता के आने का इंतजार नहीं करेंगे क्या?’’

‘‘अरे, तेरी बहू जितनी ज्यादा देर घूमे अच्छा है. अपनी मां के साथ उसे रोज पार्क भेज दिया कर. उस का बढ़ता मोटापा उस की सेहत के लिए ठीक नहीं है.’’

रमाकांत की यह सलाह रवि के मन में बैठ गई. उस दिन ही नहीं बल्कि रोज उस ने सुबह उठ कर अपने पिता के मार्गदर्शन में कई नईर् चीजें नाश्ते में बनानी सीखीं.

आरती और संगीता रसोई में आतीं, तो बापबेटा उन्हें फौरन बाहर कर देते. तब आरती अपनी बहू को पार्क में ले जाती.

वहां से सैर और व्यायाम कर के दोनों लौटतीं, तो उन्हें नाश्ता तैयार मिलता. सब बैठ कर नाश्ते की खूबियों व कमियों पर बड़े उत्साह से चर्चा करते. सुबह की शुरुआत अच्छी होने से बाकी का दिन अच्छा गुजरने की संभावना बढ़ जाती.

संगीता अपने सासससुर के आने से अब सचमुच बड़ी प्रसन्न थी. सास के द्वारा काम में मदद करने से उसे बड़ी राहत मिलती. बहुत कुछ नया सीखने को मिला उसे आरती से.

रवि का मन बहुत होता अपने दोस्तों के साथ शराब पीने का, पर हिम्मत नहीं पड़ती. अपनी खराब लत के कारण वह अपने मातापिता को लड़तेझगड़ते नहीं देखना चाहता था.

धीरेधीरे शराब पीने की तलब उठनी बंद हो

गई उस के मन में. उस में आए इस बदलाव के कारण संगीता की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

सप्ताहभर तक नियमित रूप से पार्क जाने का परिणाम यह निकला कि संगीता के पेट का माप पूरा 1 इंच कम हो गया. उस ने यह खबर बड़े खुश अंदाज में सब को सुनाई.

‘‘आज पार्टी होगी मेरी बहू की इस सफलता की खुशी में और सारी चीजें संगीता और मैं घर में बनाएंगे,’’ आरती की इस घोषणा का बाकी तीनों ने तालियां बजा कर स्वागत किया.

उस रविवार के दिन के भोजन में मटरपनीर, दहीभल्ले, बैगन का भरता, सलाद, परांठे और मेवों से भरी खीर सबकुछ संगीता और आरती ने मिल कर तैयार किया.

खाना इतना स्वादिष्ठ बना था कि सभी उंगलियां चाटते रह गए. आरती ने इस का बड़ा श्रेय संगीता को दिया, तो वह फूली न समाई.

‘‘मैं कहता हूं कि किसी होटल में क्व2 हजार रुपए खर्च कर के भी ऐसा शानदार खाना नसीब नहीं हो सकता,’’ रवि ने संतुष्टि भरी डकार लेने के बाद घोषणा करी.

‘‘चाहे वह स्वादिष्ठ खाना हो या दिल को गुदगुदाने वाली खुशियां, इन्हें घर से बाहर ढूंढ़ना मूर्खता है,’’ बोलते

हुए आरती की आंखों में अचानक आंसू छलक आए.

‘‘मम्मी, आप की आंखों में आंसू क्यों आए हैं?’’ रवि

ने अपनी मां का कंधा छू कर भावुक लहजे में पूछा.

‘‘हम से कोई गलती हो गई क्या?’’ संगीता एकदम घबरा उठी.

‘‘नहीं, बहू,’’ आरती ने उस का गाल प्यार से थपथपाया, ‘‘सब को एकसाथ इतना खुश देख कर आंखें भर आईं.’’

‘‘यह तो आप दोनों के आने का आशीर्वाद है मम्मी,’’ संगीता ने उन का हाथ पकड़ कर प्यार से अपने गाल पर रख लिया.

रमाकांत ने गहरी सांस छोड़ कर कहा, ‘‘आज शाम को हम वापस जा रहे हैं. शायद इसीलिए पलकें नम हो उठीं.’’

‘‘यों अचानक जाने का फैसला क्यों कर लिया आप ने?’’ रवि ने उलझन भरे स्वर में पूछा.

‘‘नहीं, आप दोनों को मैं बिलकुल नहीं जाने दूंगी,’’ संगीता ने भरे गले से अपने दिल की इच्छा जाहिर करी.

‘‘हम दोनों तो आज के दिन ही लौटने का कार्यक्रम बना कर आए थे, बहू. तेरे जेठजेठानी व दोनों भतीजे बड़ी बेसब्री से हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं,’’ आरती ने मुसकराने की कोशिश करी, पर जब सफल नहीं हुईं तो उन्होंने संगीता को गले लगा लिया.

संगीता एकाएक सुबकने लगी. रवि की आंखों में भी आंसू ?िलमिलाने लगे.

‘‘मम्मीपापा, आप दोनों अभी मत जाइए. मेरे घर में आई खुशियों की बहार कहीं आप

दोनों के जाने से खो न जाए,’’ रवि उदास नजर आने लगा.

रमाकांत ने उस का माथा चूम कर समझया, ‘‘बेटा, अपने घर की

खुशियों, सुखशांति और मन के संतोष के लिए किसी पर भी निर्भर मत रहना. तुम दोनों समझदारी से काम लोगे, तो यह घर हमारे जाने के बाद भी खुशियों से महकता रहेगा.’’

‘‘बस, सदा हमारी एक ही बात याद रखो तुम दोनों,’’ आरती उन दोनों से प्यारभरे स्वर में बोलीं.

‘‘आपसी मनमुटाव से दिलोदिमाग पर बहुत सा कूड़ाकचड़ा जमा हो जाता है. इंसान को प्यार करने व लड़नेझगड़ने दोनों के लिए ऊर्जा खर्चनी पड़ती है. तुम दोनों चाहे लड़ो चाहे प्यार करो, पर सदा ध्यान रखना कि ऊर्जा के बहाव में दिलोदिमाग पर जमा वह कूड़ाकचरा जरूर बह जाए. बीते पलों की यादों को फालतू ढोने से इंसान कभी भी नए और ताजे जीवन का आनंद नहीं ले पाता.’’

रवि और संगीता ने उन की बात बड़े ध्यान से सुनी. जब उन दोनों की नजरें आपस में मिलीं, तो दोनों के दिलों में एकदूसरे के लिए प्र्रेम की ऊंची लहर उठी.

‘‘आप अगली बार आएंगे, तो मुझे पूरी तरह बदला हुआ पाएंगे,’’ संगीता ने फौरन अपने सासससुर से मजबूत स्वर में वादा किया

‘‘हमारी आंखें खोलने के लिए आप दोनों को धन्यवाद,’’ कह रवि ने अपने मातापिता के हाथों को चूमा.

‘‘मिल कर अपने बच्चों का शुभ सोचना हमारी एकमात्र इच्छा है. हमारे लड़नेझगड़ने को तो तुम दोनों नाटक समझना,’’ आरती बोलीं.

आरती के इस बचन को सुना कर रमाकांत रहस्यमयी अंदाज में मुसकराने लगे.

ये भी पढ़ें- पलटवार : जब स्वरा को दिया बहन और पति ने धोखा

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें