Valentine’s Day Special : तुम्हारे ये घुंघराले बाल

Valentine’s Day Special :  ‘‘मैंभी चलूंगी कल से तुम्हारे साथ हौस्पिटल. कोरोना की वजह से मरीजों की तादाद कितनी बढ़ रही है. ऐसे में डाक्टर्स के अलावा नर्सों की भी तो जरूरत है न. जब कर सकती हूं मरीजों की सेवा तो क्यों बैठूं घर पर?’’ फोन पर कुशल के हैलो कहते ही गौरी बोल उठी.

‘‘प्लीज गौरी, बात को समझो. तुम्हारी तबीयत ठीक हुए अभी बहुत समय नहीं बीता है और उस से भी बड़ी बात है कि तुम्हारे पास नर्सिंग की डिग्री भी नहीं है.’’

‘‘तुम्हें तो पता है कि डिग्री क्यों नहीं मिली मुझे. फाइनल इयर के एग्जाम्स ही नहीं दे सकी थी. पढ़ाई तो पूरी कर ही ली थी न मैं ने. अपने साथ कल से मुझे ले जाना ही पड़ेगा तुम्हें.’’

‘‘मुझे पता है गौरी सब. अच्छा बताओ

क्या तुम चाहोगी कि कोई गैरकानूनी काम करें हम? बस तुम रोज एक बार फोन पर बात कर लिया करो मुझे और मैं लगा रहूंगा अपने कर्तव्य पालन में.’’ कुशल के मन की मिठास बातों में घुल रही थी.

‘‘डियर डाक्टर साहब, मैं क्या बेवकूफ लगती हूं तुम्हें? आज ही अपने इंस्टिट्यूट में फोन कर नर्स के रूप में काम करने की परमिशन ले ली है मैं ने. कालेज के मेरे पिछले रिकार्ड्स और समय की मांग को देखते हुए वीसी सर की ओर से स्पैशल परमिशन का मेल मिल गया है. मैं

उस मेल का प्रिंट दिखा कर काम कर सकती हूं. तीन महीने के लिए वैलिड होगी यह परमिशन… कुछ समझे?’’ खिलखिला कर हंसते हुए गौरी

ने बताया.

‘‘अरे वाह… ठीक है कल पिक कर लूंगा घर से तुम्हें.’’ कुशल अभिभूत हो उठा.

अगले दिन जाने की तैयारी कर गौरी सोने चली गई, लेकिन नींद तो आंखों के आसपास थी ही नहीं. कुछ था तो यादों का कारवां, जिस के साथ चलतेचलते गौरी पुराने दिनों में पहुंच गई.

यूपी के एक छोटे से कस्बे में कुशल के साथ खेलतेकूदते बीता था गौरी का बचपन. परिवार के नाम पर वह और मां 2 लोग ही थे. सालभर की गौरी को अपनी पत्नी के पास छोड़ उस के पिता शहर में नौकरी करने क्या गए कि आज तक नहीं लौटे. कुछ लोगों का कहना था

कि उन्होंने दूसरी शादी कर ली. गौरी की मां न

तो पढ़ीलिखी थी और न ही उस के पास इतना पैसा था कि घर की गुजरबसर हो पाए. उस का अपना मायका भी प्रदेश के दूसरे छोर पर पहले ही गरीबी की मार झेल रहा था. ऐसे में वह घर पर ही पापड़ और अचार बनाने का काम करने लगी थी.

कुशल के पिता आर्थिक रूप से संपन्न थे, निकट के एक गांव में बड़ेबड़े खेत और रहने को हवेलीनुमा घर भी. अपने पिता की व्यस्तता और मां के एक जानलेवा बीमारी का शिकार हो दुनिया छोड़ देने के बाद कुशल का अकेलापन गौरी की संगति में कम हो गया था. उसे गौरी के सिवाय किसी और का साथ अच्छा भी नहीं लगता था. गौरी को जब वह अपनी सहेलियों के साथ खेलते देखता तो दूर से ही आवाज लगा कर बुला लेता था. गौरी आश्चर्यचकित हो पूछती कि उस ने इतनी दूर से, इतनी सारी लड़कियों के बीच कैसे पहचान लिया उसे? कुशल हंसते हुए जवाब देता, ‘‘तुम्हारे घुंघराले बाल इतने सुंदर हैं कि दूर से ही चमकते हैं गौरी… बस पहचान लेता हूं बालों से तुम्हें.’’ सचमुच गौरी के रेशमी से सुनहरे घुंघराले बाल बहुत सुंदर थे.

गौरी और कुशल दोनों ही पढ़ने में अव्वल थे. कुशल को अपनी मां का बीमारी से छिन

जाना जबतब पीड़ा दे जाता था. कस्बे में अभी भी कोई बड़ा अस्पताल नहीं था. उस की इच्छा थी कि वह डाक्टर बन कर अपने लोगों की सेवा करे. गौरी चाहती थी कि वह भविष्य में कुशल का साथ दे पाए, डाक्टर बन कर न सही नर्स बन कर ही.

10वीं कक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने के बाद कुशल ने कोचिंग सैंटर जाना शुरू कर दिया था. गौरी जानती थी कि किसी अच्छे सरकारी कालेज में जहां फीस कम होगी, नर्सिंग में एडमिशन लेने के लिए उसे भी अपना सारा ध्यान पढ़ने में ही लगाना होगा. खेलनाकूदना कम कर इसलिए ही वह पढ़ाई में जुटी रहती. एक दूसरे के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए खूब परिश्रम कर रहे थे वे रातदिन.

दोनों की इस मेहनत का सुखद परिणाम भी सामने आया. कुशल को मुंबई के एक मैडिकल कालेज ने डाक्टर बनने का अवसर प्रदान कर दिया. गौरी को कुशल के कालेज में प्रवेश तो नहीं मिल सका, लेकिन नर्स बन कर कुशल का साथ निभाने का सपना अवश्य पूरा हो गया. मेरठ के एक इंस्टिट्यूट में नर्सिंग की डिग्री के लिए उस का नाम प्रथम लिस्ट में ही आ गया था. खुशियों को दोनों हाथों से बटोरते हुए वे प्रफुल्लित हुए ही थे कि बिछड़ने का समय भी आ गया.

उस दिन गौरी सामान तैयार कर मेरठ जाने को बस स्टैंड पर खड़ी थी. कुशल घर से निकल ही रहा था कि उस के पिता से मिलने कुछ लोग आ गए. पिता के किसी आवश्यक कार्य में व्यस्त होने के कारण कुशल को उन के साथ बैठना पड़ा. उधर गौरी कुशल की प्रतीक्षा करते हुए व्याकुल हो रही थी. बस से उतर कर नीचे आ वह चारों ओर निगाहें दौड़ाती हुई निराशा से घिरने लगी. कस्बे से मेरठ के लिए बसें लगभग 2 घंटे के अंतराल से चलती थीं.

अगली बस की प्रतीक्षा करती तो मेरठ पहुंचतेपहुंचते देर हो जाती. ‘लगता है जाने से पहले कुशल से मिलना नहीं हो सकेगा… एक तो मां से दूर जाने का दुख, उस पर कुशल से भी बिना मिले जाना होगा क्या मुझे? मां से तो हौस्टल में रहते हुए भी हर महीने मिलने आ सकती हूं. लेकिन कुशल… उस से तो पता नहीं अब कितने दिनों बाद मिलना होगा? वो भी तो अब चला जाएगा बहुत दूर. काश, मैं उस की

बात मान लेती. जिद कर रहा था कि अपने पापा से पैसे ले कर मुझे एक मोबाइल दिला दे, मैं ने क्यों मना कर दिया?’ सोच कर गौरी रुआंसी

हो गई.

कंडक्टर के यात्रियों को पुकारने पर गौरी बस में चढ़ आंखें मूंद कर सीट से सिर टिका कर बैठ गई. सहसा पीछे से किसी ने उस का कंधा थपथपाया. हड़बड़ा कर आंखें खोल गौरी ने पीछे मुड़ कर देखा तो खुशी से चहक उठी, ‘‘अरे, कुशल तुम… कितनी देर कर दी. कब से बाहर खड़ी इंतजार कर रही थी तुम्हारा.’’

‘‘पता है मैं घर से भागता हुआ आ रहा हूं. तुम आज यहां न मिलतीं तो पीछेपीछे तुम्हारे कालेज आ जाता.’’ बिछड़ने से पहले गौरी को हंसते हुए देखना चाहता था कुशल.

‘‘सच्ची? तुम मेरठ तक आ जाते? वैसे… एक बात बताओ मैं तो बस के अंदर आ चुकी थी. तुम्हें कैसे पता लगा कि मैं इस बस में ही हूं? हो सकता था कि मैं अभी घर से निकली ही न होती या पहले ही जा चुकी होती?’’ गौरी ने भौंहें नचाते हुए पूछा.

‘‘हा हा हा… मैं ने कैसे पता लगा लिया कि तुम बस में बैठी हो? तो आज तुम्हें फिर से बता देता हूं कि मुझे दूर से ही दिख जाते हैं तुम्हारे ये रेशमी घुंघराले बाल. पता है, आज भी बस की खिड़की से लहराते हुए दिख रहे थे मुझे. अब कभी मत भूलना कि मैं हमेशा तुम्हें दूर से ही इन बालों से पहचान लेता हूं.’’ कुशल ने बात पूरी की ही थी कि ड्राइवर ने बस स्टार्ट कर दी. भारी मन से एकदूसरे से बिछड़ते हुए दोनों का चेहरा निस्तेज हो गया था. नीचे उतर कर कुशल तब तक हाथ हिलाता रहा जब तक कि बस उस की आंखों से ओझल नहीं हो गई.

बुझे मन से घर की ओर जाते हुए चप्पाचप्पा उसे अपनी दोस्त की याद दिला रहा था.

शाम ढलने लगी थी. मन की तरह ही आसपास अंधेरा घिर आया. भारी कदमों से चलते हुए घर पहुंच वह आज गौरी को याद करते हुए महसूस कर रहा था कि मन एक रेशमी सी डोर में बंधा जैसे उड़ कर गौरी के पास चले जाना चाहता है. यह खिंचाव महज दोस्ती तो नहीं कुछ और है… पर क्या नाम दे इसे? इसी उधेड़बुन में उलझते हुए वह अपने जाने की तैयारी करने लगा.

कुछ दिनों बाद वह भी अपने पिता और गांव से दूर मुंबई चला गया.

वहां पहुंच कर कुशल को लगा जैसे किसी और ही लोक में आ गया है. ‘क्या गौरी भी मुझे ऐसे ही याद कर रही होगी?’ अकसर वह सोचता. उधर गौरी को भी मेरठ का माहौल कस्बे से बहुत अलग लग रहा था. कदमकदम पर उसे कुशल के साथ की कमी महसूस होती. कुशल का हाथ थामने की ख्वाहिश बढ़ने के साथ ही उसे बेहद करीब से महसूस करने की तमन्ना भी अब सिर उठाने लगी थी.

छुट्टियों में गौरी तो अकसर मां के पास चली आती थी, लेकिन कुशल के लिए यह संभव नहीं हो पाता था. गौरी से उस की मुलाकात बहुत दिन बीत जाने पर तब हो सकी जब वह पहला समैस्टर पूरा होने पर घर आया.

दोनों मिले तो खुशियां जैसे पंख लगा कर उड़ान भरने लगीं. पूरा दिन अपनी नई दुनिया की बातें करतेकरते बीत जाता था. एक दिन कुशल के घर बैठे हुए दोनों एकदूसरे को कालेज, वहां की कैंटीन, हौस्टल, मित्रों आदि के विषय में बता रहे थे कि कुशल अचानक बोल उठा, ‘‘गौरी, दिन तो वहां पढ़तेपढ़ाते बीत जाता है, लेकिन रात होने पर मुझे यहां की बहुत याद आती है और सब से ज्यादा… तुम्हारी…!’’ अंतिम वाक्य कुशल के मुंह से न चाहते हुए भी निकल गया. गौरी का दिल इतनी तेजी से धड़क उठा जैसे निकल कर बाहर ही आ जाएगा.

‘‘मैं तो नई सहेलियों से तुम्हारी ही बातें करती हूं… कभीकभी वे कह देती हैं कि इतना याद कर रही हो तो उस के पास ही चली जाओ और मैं बस हंस देती हूं.’’

लाज से भरी गौरी की नम आंखों ने चुगली कर ही दी कि उस के मन में भी प्रेम

कर दरिया बह रहा है.

‘‘गौरी, मैं ने एअरपोर्ट से आते समय एक मोबाइल खरीदा था. मुंबई वापस लौटने से पहले उस में अपना नंबर सेव कर दूंगा. तुम से बात कर लिया करूंगा तो शायद चैन आ जाए मुझे.’’

मोबाइल से बातें कर एकदूसरे से जुड़े रहने की चाह में एक बार फिर दूर हो गए दोनों.

गौरी ने कुशल से मोबाइल पर कुछ दिन ही बात की थी. सोच रही थी कि अगली बार जब घर जाएगी तो किसी पड़ोसी का नंबर ले आएगी और कभीकभी मां से बात कर लिया करेगी, लेकिन बिछड़े हुए अपनों से जोड़ने वाला मोबाइल भी उस से जल्दी ही बिछड़ गया. एक दिन जब वह सहेलियों के साथ बाजार से लौट रही थी तो मोबाइल हाथ में लिए उस के बातों में मग्न होने का लाभ उठाते हुए एक मोटरसाइकिल सवार ने मोबाइल छीन लिया. बहुत रोई थी गौरी. अगले दिन क्लास खत्म होने के बाद उस ने कुशल को फोन छिन जाने की बात कहते हुए एक मेल कर दिया. जवाब में कुशल से सांत्वना पा कर गौरी की उदासी कुछ कम तो हुई लेकिन कुशल से यह जानकर कि अति व्यस्तता के कारण अब उस का घर आना और भी कम हो जाएगा, गौरी बेचैन हो उठी.

कुशल गौरी को मन में बसाए कठोर परिश्रम कर रहा था. लैब में रात देर तक काम करते हुए कभीकभी वह बहुत थक जाया करता था. गौरी को याद करते हुए एक दिन वह कुछ ज्यादा ही परेशान था. कुछ दिनों पहले गौरी का एक मेल आया था, जिस में उस ने अपनी तबीयत ठीक न होने की बात लिखी थी. उस के बाद कुशल ने 2-3 मेल किए, लेकिन किसी का उत्तर नहीं मिला. ‘शायद कालेज में कंप्यूटर के पर्सनल यूज पर रोक लगा दी गई हो’ सोच कर वह स्वयं को बहला रहा था.

सहसा कमरे की घंटी बजी. चपरासी कमरे में आया और रजिस्टर पर हस्ताक्षर ले एक और्डर की कौपी उसे थमा दी. और्डर पढ़ते ही कुशल की सारी थकान उड़न छू हो गई. संदेश था कि अगले सप्ताह उसे डाक्टरों के एक दल के साथ दिल्ली भेजा जा रहा है. वहां के एक कैंसर हौस्पिटल में मरीजों की स्थिति देख कर विशेष रिपोर्ट तैयार करने का काम सौंपा गया था. ‘दिल्ली से कुछ घंटों में मेरठ और फिर वहां से गौरी के कालेज… दिल्ली पहुंच तो जाऊं फिर उसे जबरदस्त सरप्राइज दूंगा.’ सोच कर कुशल का मन बल्लियों उछलने लगा.

निश्चित दिन उत्साहित हो वह टीम के

साथ निकल पड़ा. रात के 2 बजे सब दिल्ली पहुंचे. कुछ घंटे आराम करने के बाद सभी

सुबह अस्पताल के लिए चल दिए. वहां टीम

के एक डाक्टर से बात करते हुए कुशल ने

वार्ड में प्रवेश किया तो लगा कि उस के पैर जैसे वहीं जम गए हों. हिम्मत जुटा कर वह बैड के पास पहुंचा, ‘‘गौरी… तुम यहां?… कैसे… क्या… कब हुआ ये?’’ कुशल कुछ समझ ही नहीं पा रहा था.

गौरी ने कुशल का हाथ कस कर पकड़ लिया, ‘‘पहले बताओ तुम यहां कैसे?’’

‘‘मुझे तो केस स्टडी के लिए टीम के

साथ भेजा गया है… तुम्हारा मेल ही नहीं मिला था, परेशान तो था मैं. लेकिन तुम्हारे साथ ऐसा हुआ… मुझे पता भी नहीं लगा.’’ कुशल भर्राए गले से बोला.

‘‘मैं एग्जाम्स की तैयारी कर रही थी कि एक दिन अचानक चक्कर आ गया, फिर बहुत थकान लगने लगी. मैं ने सोचा कि पढ़ाई के प्रैशर से हो रहा है ऐसा. पर जब हालत ज्यादा खराब होने लगी तो हमारी मैम को कुछ शंका हुई. अस्पताल में दिखाया गया, टैस्ट हुए और पता लगा कि मुझे ब्लड कैंसर है. यह तो अच्छा है कि अभी पहली स्टेज पर है. टीचर ध्यान न देतीं तो जाने क्या होता?’’

‘‘मां जानती हैं इस बारे में?’’

नहीं, पता लगेगा तो तड़प उठेंगी. वे तो मुझे देखने भी नहीं आ सकती यहां. बोलतेबोलते गला रुंध गया गौरी का.

‘‘तुम चिंता मत करो. मैं आ गया हूं न अब. कुछ करता हूं.’’ प्यार से उस के गालों को थपथपाता हुआ कुशल बोला.

मरीजों को देखने के बाद जब सभी डाक्टर एकत्र हुए तो दल के सब से

सीनियर डाक्टर से कुशल ने गौरी के विषय में बात की. उन्होंने कुशल को मुंबई के एक विशेष हौस्पिटल में जाने की सलाह दी और बताया कि वहां पर ऐसे बहुत से मरीज ठीक हो चुके हैं. कुशल ने गौरी को अपने साथ मुंबई ले जाने का निश्चय किया. अपने घर फोन कर उस ने पिता को सारी स्थिति से अवगत करा दिया. गौरी की मां को अपने घर बुलवा कर कुशल के पिता ने गौरी और मां की बात करवा दी. गौरी की बीमारी के विषय में उस की मां को कुछ न बता कर कहा गया कि एक ट्रेनिंग के सिलसिले में गौरी को मुंबई जाना पड़ेगा, लेकिन चिंता की बात नहीं है क्योंकि कुशल उस के साथ होगा.

कुछ दिनों बाद दोनों मुंबई के लिए रवाना हो गए. इलाज शुरू हुआ और गौरी पर उस का असर जल्द ही दिखने लगा. अपनी पढ़ाई के साथसाथ कुशल गौरी का भी पूरा ध्यान रखता था. कीमोथैरेपी के लिए गौरी को जब अंदर ले जाया जाता तो वह बाहर बैठ कर इंतजार करता रहता. गौरी को अस्पताल में टाइम से दवाइयां दी गई या नहीं, गौरी ने ठीक से कुछ खाया या नहीं… इन सब बातों का भी ध्यान रखता था वह. थोड़ेथोड़े दिनों बाद बीमारी का बढ़ना या रुकना देखने के लिए टैस्ट होते तो कुशल पूरी स्थिति अच्छी तरह समझता. लगभग 6-7 महीने बाद गौरी की हालत में काफी सुधार आ गया. अब उसे केवल कुछ दवाइयां ही लेने की आवश्यकता थी.

गौरी को अस्पताल से छुट्टी मिल गई. कुशल गौरी को साथ ले कर घर छोड़ने आया तो मां को उस ने एकएक घटना विस्तार से बताई. उन्हें किसी प्रकार की चिंता न करने को कह अपने पिता से ले कर उन को कुछ रुपए भी दे दिए. जाने से पहले गौरी को हिदायत दे कर गया कि दवाई के साथसाथ खानेपीने में भी कोई कमी नहीं होनी चाहिए.

इधर गौरी का स्वास्थ्य सुधरने लगा था, उधर अपनी डिग्री पूरी कर कुछ समय बाद कुशल भी लौट आया.

वापस आ कर कुशल ने कस्बे से कुछ दूर स्थित एक हौस्पिटल में कार्य करना शुरू कर दिया. उस का लक्ष्य अपने कस्बे के लोगों की सेवा करना था, इस के लिए पुरानी पुश्तैनी हवेली तुड़वा कर अस्पताल बनवाने पर विचार हो रहा था. गौरी अपनी अधूरी डिग्री जल्द ही पूरी करने को बेताब थी, लेकिन कुशल ने एक डाक्टर के दृष्टिकोण से उसे कुछ दिन और रुक जाने की सलाह दी. गौरी को भी कभीकभी कमजोरी सी महसूस होती, इसलिए मन मार कर प्रतीक्षा करने के सिवाय कोई रास्ता भी नहीं दिखाई देता था. आज जब कोरोना महामारी का तांडव चारों ओर फैला है, ऐसे समय में अपनी सेवाएं देने से गौरी स्वयं को रोक नहीं सकी.

अगले दिन से वह अपने काम में पूरे मन से लग गई. कुशल उस की इस लगन को देख जैसे उन्स पर न्योछावर हुआ जा रहा था. लगातार बढ़ते रोगियों की देखभाल करते हुए उन दोनों को अन्य डाक्टर व नर्सों की तरह ही खानेपीने का समय नहीं मिल पाता था.

एक दिन थकेमांदे जब दोनों कैंटीन में चाय पी रहे थे तो कुशल मुसकराते हुए बोला,

‘‘गौरी तुम ने तो अपनी मनपसंद ड्रैस पहन ही ली यह नर्स की यूनिफौर्म, लेकिन मेरी मनपसंद ड्रैस कब पहनोगी? अब मैं देखना चाहता हूं तुम्हें लाल जोड़े में.’’

गौरी सिर झुका कर निराश स्वर में बोली, ‘‘क्या रखा है कुशल अब इस गौरी में? झड़ गए घुंघराले बाल कीमोथैरेपी से… बहुत अच्छे लगते थे न तुम्हें वो… मेरे घुंघराले बालों को देख कर तुम मुझे दूर से ही पहचान लेते थे. अब कहां रही है गौरी तुम्हारी वो घुंघराले बालों वाली लड़की.’’

कुशल प्यार से उस की ओर देखते हुए बोला, ‘‘गौरी… तुम अपने को नहीं जानती शायद… मुझे गर्व है तुम पर, जो दिनरात लोगों की सेवा में लगी हो… अपनी बीमारी से हुई कमजोरी की हालत में भी तुम ने मेरा साथ देने के लिए काम करने की परमिशन ली. बहुत प्यारा है तुम्हारा यह रूप… इसलिए ही तो घुंघराले बालों से कहीं ज्यादा कीमती है वह हैजमैट सूट जो तुम कोरोना मरीजों की सेवा करते हुए पहनती हो. अब जिस गौरी को मैं जानता हूं उस में इतनी खूबियां हैं कि दूर से क्या उसे आंखें बंद कर के भी पहचान सकता हूं.’’

‘‘आज मेरे प्यार की जीत हुई है, कोरोना को अब हारना ही होगा. फिर हमेशा के लिए कुशल की हो जाएगी घुंघराले बालों वाली लड़की,’’ कुशल के प्यार को पा कर गौर अभिभूत हो उठी.

दोनों प्रेम मन में संजोए इस महामारी से लड़ने के लिए कैंटीन से निकल वार्ड की ओर चल दिए.

Storytelling : महापुरुष – किस एहसान को उतारना चाहते थे प्रोफेसर गौतम

Storytelling : रवि प्रोफेसर गौतम के साथ व्यवसाय प्रबंधन कोर्स का शोधपत्र लिख रहा था. उस का पीएच.डी. करने का विचार था. भारत से 15 महीने पहले उच्च शिक्षा के लिए वह मांट्रियल आया था. उस ने मांट्रियल में मेहनत तो बहुत की थी, परंतु परीक्षाओं में अधिक सफलता नहीं मिली.

मांट्रियल की भीषण सर्दी, भिन्न संस्कृति और रहनसहन का ढंग, मातापिता पर अत्यधिक आर्थिक दबाव का एहसास, इन सब कारणों से रवि यहां अधिक जम नहीं पाया था. वैसे उसे असफल भी नहीं कहा जा सकता, परंतु पीएच.डी. में आर्थिक सहायता के साथ प्रवेश पाने के लिए उस के व्यवसाय प्रबंधन की परीक्षा के परिणाम कुछ कम उतरते थे.

रवि ने प्रोफेसर गौतम से पीएच.डी. के लिए प्रवेश पाने और आर्थिक मदद के लिए जब कहा तो उन्होंने उसे कुछ आशा नहीं बंधाई. वे अपने विश्वविद्यालय और बाकी विश्वविद्यालयों के बारे में काफी जानकारी रखते थे. रवि के पास व्यवसाय प्रबंधन कोर्स समाप्त कर के भारत लौटने के सिवा और कोई चारा भी नहीं था.

रवि प्रोफेसर गौतम से जब भी उन के विभाग में मिलता, वे उस को मुश्किल से आधे घंटे का समय ही दे पाते थे, क्योंकि वे काफी व्यस्त रहते थे. रवि को उन को बारबार परेशान करना अच्छा भी नहीं लगता था. कभीकभी सोचता कि कहीं प्रोफेसर यह न सोच लें कि वह उन के भारतीय होने का अनुचित फायदा उठा रहा है.

एक बार रवि ने हिम्मत कर के उन से कह ही दिया, ‘‘साहब, मुझे किसी भी दिन 2 घंटे का समय दे दीजिए. फिर उस के बाद मैं आप को परेशान नहीं करूंगा.’’

‘‘तुम मुझे परेशान थोड़े ही करते हो. यहां तो विभाग में 2 घंटे का एक बार में समय निकालना कठिन है,’’ उन्होंने अपनी डायरी देख कर कहा, ‘‘परंतु ऐसा करो, इस इतवार को दोपहर खाने के समय मेरे घर आ जाओ. फिर जितना समय चाहो, मैं तुम्हें दे पाऊंगा.’’

‘‘मेरा यह मतलब नहीं था. आप क्यों परेशान होते हैं,’’ रवि को प्रोफेसर गौतम से यह आशा नहीं थी कि वे उसे अपने निवास स्थान पर आने के लिए कहेंगे. अगले इतवार को 12 बजे पहुंचने के लिए प्रोफेसर गौतम ने उस से कह दिया था.

प्रोफेसर गौतम का फ्लैट विश्व- विद्यालय के उन के विभाग से मुश्किल से एक फर्लांग की दूरी पर ही था. उन्होंने पिछले साल ही उसे खरीदा था. पिछले 22 सालों में उन के देखतेदेखते मांट्रियल शहर कितना बदल गया था, विभाग में व्याख्याता के रूप में आए थे और अब कई वर्षों से प्राध्यापक हो गए थे. उन के विभाग में उन की बहुत साख थी.

सबकुछ बदल गया था, पर प्रोफेसर गौतम की जिंदगी वैसी की वैसी ही स्थिर थी. अकेले आए थे शहर में और 3 साल पहले उन की पत्नी उन्हें अकेला छोड़ गई थी. वह कैंसर की चपेट में आ गई थी. पत्नी की मृत्यु के पश्चात अकेले बड़े घर में रहना उन्हें बहुत खलता था. घर की मालकिन ही जब चली गई, तब क्या करते उस घर को रख कर.

18 साल से ऊपर बिताए थे उन्होंने उस घर में अपनी पत्नी के साथ. सुखदुख के क्षण अकसर याद आते थे उन को. घर में किसी चीज की कभी कोई कमी नहीं रही, पर उस घर ने कभी किसी बच्चे की किलकारी नहीं सुनी. इस का पतिपत्नी को काफी दुख रहा. अपनी संतान को सीने से लगाने में जो आनंद आता है, उस आनंद से सदा ही दोनों वंचित रहे.

पत्नी के देहांत के बाद 1 साल तक तो प्रोफेसर गौतम उस घर में ही रहे. पर उस के बाद उन्होंने घर बेच दिया और साथ में ही कुछ गैरजरूरी सामान भी. आनेजाने की सुविधा का खयाल कर उन्होंने अपना फ्लैट विभाग के पास ही खरीद लिया. अब तो उन के जीवन में विभाग का काम और शोध ही रह गया था. भारत में भाईबहन थे, पर वे अपनी समस्याओं में ही इतने उलझे हुए थे कि उन के बारे में सोचने की किस को फुरसत थी. हां, बहनें रक्षाबंधन और भैयादूज का टीका जब भेजती थीं तो एक पृष्ठ का पत्र लिख देती थीं.

प्रोफेसर गौतम ने रवि के आने के उपलक्ष्य में सोचा कि उसे भारतीय खाना बना कर खिलाया जाए. वे खुद तो दोपहर और शाम का खाना विश्वविद्यालय की कैंटीन में ही खा लेते थे.

शनिवार को प्रोफेसर भारतीय गल्ले की दुकान से कुछ मसाले और सब्जियां ले कर आए. पत्नी की बीमारी के समय तो वे अकसर खाना बनाया करते थे, पर अब उन का मन ही नहीं करता था अपने लिए कुछ भी झंझट करने को. बस, जिए जा रहे थे, केवल इसलिए कि जीवनज्योति अभी बुझी नहीं थी. उन्होंने एक तरकारी और दाल बनाई थी. कुलचे भी खरीदे थे. उन्हें तो बस, गरम ही करना था. चावल तो सोचा कि रवि के आने पर ही बनाएंगे.

रवि ने जब उन के फ्लैट की घंटी बजाई तो 12 बज कर कुछ सेकंड ही हुए थे. प्रोफेसर गौतम को बड़ा अच्छा लगा, यह सोच कर कि रवि समय का कितना पाबंद है. रवि थोड़ा हिचकिचा रहा था.

प्रोफेसर गौतम ने कहा, ‘‘यह विभाग का मेरा दफ्तर नहीं, घर है. यहां तुम मेरे मेहमान हो, विद्यार्थी नहीं. इस को अपना ही घर समझो.’’

रवि अपनी तरफ से कितनी भी कोशिश करता, पर गुरु और शिष्य का रिश्ता कैसे बदल सकता था. वह प्रोफेसर के साथ रसोई में आ गया. प्रोफेसर ने चावल बनने के लिए रख दिए.

‘‘आप इस फ्लैट में अकेले रहते हैं?’’ रवि ने पूछा.

‘‘हां, मेरी पत्नी का कुछ वर्ष पहले देहांत हो गया,’’ उन्होंने धीमे से कहा.

रवि रसोई में खाने की मेज के साथ रखी कुरसी पर बैठ गया. दोनों ही चुप थे. प्रोफेसर गौतम ने पूछा, ‘‘जब तक चावल तैयार होंगे, तब तक कुछ पिओगे? क्या लोगे?’’

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं लूंगा. हां, अगर हो तो कोई जूस दे दीजिएगा.’’

प्रोफेसर ने रेफ्रिजरेटर से संतरे के रस से भरी एक बोतल और एक बीयर की बोतल निकाली. जूस गिलास में भर कर रवि को दे दिया और बीयर खुद पीने लगे. कुछ देर बाद चावल तैयार हो गए. उन्होंने खाना खाया. कौफी बना कर वे बैठक में आ गए. अब काम करने का समय था.

रवि अपना बैग उठा लाया. उस ने 89 पृष्ठों की रिपोर्ट लिखी थी. प्रोफेसर गौतम रिपोर्ट का कुछ भाग तो पहले ही देख चुके थे, उस में रवि ने जो संशोधन किए थे, वे देखे. रवि उन से अनेक प्रश्न करता जा रहा था. प्रोफेसर जो भी उत्तर दे रहे थे, रवि उन को लिखता जा रहा था.

रवि की रिपोर्ट का जब आखिरी पृष्ठ आ पहुंचा तो उस समय शाम के 5 बज चुके थे. आखिरी पृष्ठ पर रवि ने अपनी रिपोर्ट में प्रयोग में लाए संदर्भ लिख रखे थे. प्रोफेसर को लगा कि रवि ने कुछ संदर्भ छोड़ रखे हैं. वे अपने अध्ययनकक्ष में उन संदर्भों को अपनी किताबों में ढूंढ़ने के लिए गए.

प्रोफेसर को गए हुए 15 मिनट से भी अधिक समय हो गया था. रवि ने सोचा शायद वे भूल गए हैं कि रवि घर में आया हुआ है. वह अध्ययनकक्ष में आ गया. वहां किताबें ही किताबें थीं. एक कंप्यूटर भी रखा था. अध्ययनकक्ष की तुलना में प्रोफेसर के विभाग का दफ्तर कहीं छोटा पड़ता था.

प्रोफेसर ने एक निगाह से रवि को देखा, फिर अपनी खोज में लग गए. दीवार पर प्रोफेसर की डिगरियों के प्रमाणपत्र फ्रेम में लगे थे. प्रोफेसर गौतम ने न्यूयार्क से पीएच.डी. की थी. भारत से उन्होंने एम.एससी. (कानपुर से) की थी.

‘‘साहब, आप ने एम.एससी. कानपुर से की थी? मेरे नानाजी वहीं पर विभागाध्यक्ष थे,’’ रवि ने पूछा.

प्रोफेसर 3-4 किताबें ले कर बैठक में आ गए.

‘‘क्या नाम था तुम्हारे नानाजी का?’’

‘‘रामकुमार,’’ रवि ने कहा.

‘‘उन को तो मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूं. 1 साल मैं ने वहां पढ़ाया भी था.’’

‘‘तब तो शायद आप ने मेरी माताजी को भी देखा होगा,’’ रवि ने पूछा.

‘‘शायद देखा होगा एकाध बार,’’ प्रोफेसर ने बात पलटते हुए कहा, ‘‘देखो, तुम ये पुस्तकें ले जाओ और देखो कि इन में तुम्हारे मतलब का कुछ है कि नहीं.’’

रवि कुछ मिनट और बैठा रहा. 6 बजने को आ रहे थे. लगभग 6 घंटे से वह प्रोफेसर के फ्लैट में बैठा था. पर इस दौरान उस ने लगभग 1 महीने का काम निबटा लिया था. प्रोफेसर का दिल से धन्यवाद कर उस ने विदा ली.

रवि के जाने के बाद प्रोफेसर को बरसों पुरानी भूलीबिसरी बातें याद आने लगीं. वे रवि के नाना को अच्छी तरह जानते थे. उन्हीं के विभाग में एम.एससी. के पश्चात वे व्याख्याता के पद पर काम करने लगे थे. उन्हें दिल्ली में द्वितीय श्रेणी में प्रवेश नहीं मिल पाया था. इसलिए वे कानपुर पढ़ने आ गए थे. उस समय कानपुर में ही उन के चाचाजी रह रहे थे. 1 साल बाद चाचाजी भी कानपुर छोड़ कर चले गए पर उन्हें कानपुर इतना भा गया कि एम.एससी. भी वहीं से कर ली. उन की इच्छा थी कि किसी भी तरह से विदेश उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाएं. एम.एससी. में भी उन का परीक्षा परिणाम बहुत अच्छा नहीं था, जिस के बूते पर उन को आर्थिक सहायता मिल पाती. फिर सोचा, एकदो साल तक भारत में अगर पढ़ाने का अनुभव प्राप्त कर लें तो शायद विदेश में आर्थिक सहायता मिल सकेगी.

उन्हीं दिनों कालेज के एक व्याख्याता को विदेश में पढ़ने के लिए मौका मिला था, जिस के कारण गौतम को अस्थायी रूप से कालेज में ही नौकरी मिल गई. वे पैसे जोड़ने की भी कोशिश कर रहे थे. विदेश जाने के लिए मातापिता की तरफ से कम से कम पैसा मांगने का उन का ध्येय था. विभागाध्यक्ष रामकुमार भी उन से काफी प्रसन्न थे. वे उन के भविष्य को संवारने की पूरी कोशिश कर रहे थे. एक दिन रामकुमार ने गौतम को अपने घर शाम की चाय पर बुलाया.

रवि की मां उमा से गौतम की मुलाकात उसी दिन शाम को हुई थी. उमा उन दिनों बी.ए. कर रही थी. देखने में बहुत ही साधारण थी. रामकुमार उमा की शादी की चिंता में थे. उमा विभागाध्यक्ष की बेटी थी, इसलिए गौतम अपनी ओर से उस में पूरी दिलचस्पी ले रहा था. वह बेचारी तो चुप थी, पर अपनी ओर से ही गौतम प्रश्न किए जा रहा था.

कुछ समय पश्चात उमा और उस की मां उठ कर चली गईं. रामकुमार ने तब गौतम से अपने मन की इच्छा जाहिर की. वे उमा का हाथ गौतम के हाथ में थमाने की सोच रहे थे. उन्होंने कहा था कि अगर गौतम चाहे तो वे उस के मातापिता से बात करने के लिए दिल्ली जाने को तैयार थे.

सुन कर गौतम ने बस यही कहा, ‘आप के घर नाता जोड़ कर मैं अपने जीवन को धन्य समझूंगा. पिताजी और माताजी की यही जिद है कि जब तक मेरी छोटी बहन के हाथ पीले नहीं कर देंगे, तब तक मेरी शादी की सोचेंगे भी नहीं,’ उस ने बात को टालने के लिए कहा, ‘वैसे मेरी हार्दिक इच्छा है कि विदेश जा कर ऊंची शिक्षा प्राप्त करूं, पर आप तो जानते ही हैं कि मेरे एम.एससी. में इतने अच्छे अंक तो आए नहीं कि आर्थिक सहायता मिल जाए.’

‘तुम ने कहा क्यों नहीं. मेरा एक जिगरी दोस्त न्यूयार्क में प्रोफेसर है. अगर मैं उस को लिख दूं तो वह मेरी बात टालेगा नहीं,’ रामकुमार ने कहा.

‘आप मुझे उमाजी का फोटो दे दीजिए, मातापिता को भेज दूंगा. उन से मुझे अनुमति तो लेनी ही होगी. पर वे कभी भी न नहीं करेंगे,’ गौतम ने कहा.

रामकुमार खुशीखुशी घर के अंदर गए. लगता था, जैसे वहां खुशी की लहर दौड़ गई थी. कुछ ही देर में वे अपनी पत्नी के साथ उमा का फोटो ले कर आ गए. उमा तो लाजवश कमरे में नहीं आई. उस की मां ने एक डब्बे में कुछ मिठाई गौतम के लिए रख दी. पतिपत्नी अत्यंत स्नेह भरी नजरों से गौतम को देख रहे थे.

अपने कमरे में पहुंचते ही गौतम ने न्यूयार्क के उस विश्वविद्यालय को प्रवेशपत्र और आर्थिक सहायता के लिए फार्म भेजने के लिए लिखा. दिल्ली जाने से पहले वह एक बार और उमा के घर गया. कुछ समय के लिए उन लोगों ने गौतम और उमा को कमरे में अकेला छोड़ दिया था, परंतु दोनों ही शरमाते रहे.

गौतम जब दिल्ली से वापस आया तो रामकुमार ने उसे विभाग में पहुंचते ही अपने कमरे में बुलाया. गौतम ने उन्हें बताया कि मातापिता दोनों ही राजी थे, इस रिश्ते के लिए. परंतु छोटी बहन की शादी से पहले इस बारे में कुछ भी जिक्र नहीं करना चाहते थे.

गौतम के मातापिता की रजामंदी के बाद तो गौतम का उमा के घर आनाजाना और भी बढ़ गया. उस ने जब एक दिन उमा से सिनेमा चलने के लिए कहा तो वह टाल गई. इन्हीं दिनों न्यूयार्क से फार्म आ गया, जो उस ने तुरंत भर कर भेज दिया. रामकुमार ने अपने दोस्त को न्यूयार्क पत्र लिखा और गौतम की अत्यधिक तारीफ और सिफारिश की.

3 महीने प्रतीक्षा करने के पश्चात वह पत्र न्यूयार्क से आया, जिस की गौतम कल्पना किया करता था. उस को पीएच.डी. में प्रवेश और समुचित आर्थिक सहायता मिल गई थी. वह रामकुमार का आभारी था. उन की सिफारिश के बिना उस को यह आर्थिक सहायता कभी न मिल पाती.

गौतम की छोटी बहन का रिश्ता बनारस में हो गया था. शादी 5 महीने बाद तय हुई. गौतम ने उमा को समझाया कि बस 1 साल की ही तो बात है. अगले साल वह शादी करने भारत आएगा और उस को दुलहन बना कर ले जाएगा.

कुछ ही महीने में गौतम न्यूयार्क आ गया. यहां उसे वह विश्वविद्यालय ज्यादा अच्छा न लगा. इधरउधर दौड़धूप कर के उसे न्यूयार्क में ही दूसरे विश्वविद्यालय में प्रवेश व आर्थिक सहायता मिल गई.

उमा के 2-3 पत्र आए थे, पर गौतम व्यस्तता के कारण उत्तर भी न दे पाया. जब पिताजी का पत्र आया तो उमा का चेहरा उस की आंखों के सामने नाचने लगा. पिताजी ने लिखा था कि रामकुमार दिल्ली किसी काम से आए थे तो उन से भी मिलने आ गए. पिताजी को समझ में नहीं आया कि उन की कौन सी बेटी की शादी बनारस में तय हुई थी.

उन्होंने लिखा था कि अपनी शादी का जिक्र करने के लिए उसे इतना शरमाने की क्या आवश्यकता थी.

गौतम ने पिताजी को लिख भेजा कि मैं उमा से शादी करने का कभी इच्छुक नहीं था. आप रामकुमार को साफसाफ लिख दें कि यह रिश्ता आप को बिलकुल भी मंजूर नहीं है. उन के यहां के किसी को भी अमेरिका में मुझ से पत्रव्यवहार करने की कोई आवश्यकता नहीं.

गौतम के पिताजी ने वही किया जो उन के पुत्र ने लिखा था. वे अपने बेटे की चाल समझ गए थे. वे बेचारे करते भी क्या.

उन का बेटा उन के हाथ से निकल चुका था. गौतम के पास उमा की तरफ से 2-3 पत्र और आए. एक पत्र रामकुमार का भी आया. उन पत्रों को बिना पढ़े ही उस ने फाड़ कर फेंक दिया था.

पीएच.डी. करने के बाद गौतम शादी करवाने भारत गया और एक बहुत ही सुंदर लड़की को पत्नी के रूप में पा कर अपना जीवन सफल समझने लगा. उस के बाद उस ने शायद ही कभी रामकुमार और उमा के बारे में सोचा हो. उमा का तो शायद खयाल कभी आया भी हो, पर उस की याद को अतीत के गहरे गर्त में ही दफना देना उस ने उचित समझा था.

उस दिन रवि ने गौतम की पुरानी स्मृतियों को झकझोर दिया था. प्रोफेसर गौतम सारी रात उमा के बारे में सोचते रहे कि उस बेचारी ने उन का क्या बिगाड़ा था. रामकुमार के एहसान का उस ने कैसे बदला चुकाया था. इन्हीं सब बातों में उलझे, प्रोफेसर को नींद ने आ घेरा.

ठक…ठक की आवाज के साथ विभाग की सचिव सिसिल 9 बजे प्रोफेसर के कमरे में ही आई तो उन की निंद्रा टूटी और वे अतीत से निकल कर वर्तमान में आ गए. प्रोफेसर ने उस को रवि के फ्लैट का फोन नंबर पता करने को कहा.

कुछ ही मिनटों बाद सिसिल ने उन्हें रवि का फोन नंबर ला कर दिया. प्रोफेसर ने रवि को फोन मिलाया. सवेरेसवेरे प्रोफेसर का फोन पा कर रवि चौंक गया, ‘‘मैं तुम्हें इसलिए फोन कर रहा हूं कि तुम यहां पर पीएच.डी. के लिए आर्थिक सहायता की चिंता मत करो. मैं इस विश्वविद्यालय में ही भरसक कोशिश कर के तुम्हें सहायता दिलवा दूंगा.’’

रवि को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. वह धीरे से बोला, ‘‘धन्यवाद… बहुतबहुत धन्यवाद.’’

‘‘बरसों पहले तुम्हारे नानाजी ने मुझ पर बहुत उपकार किया था. उस का बदला तो मैं इस जीवन में कभी नहीं चुका पाऊंगा पर उस उपकार का बोझ भी इस संसार से नहीं ले जा पाऊंगा. तुम्हारी कुछ मदद कर के मेरा कुछ बोझ हलका हो जाएगा,’’ कहने के बाद प्रोफेसर गौतम ने फोन बंद कर दिया.

रवि कुछ देर तक रिसीवर थामे रहा. फिर पेन और कागज निकाल कर अपनी मां को पत्र लिखने लगा.

आदरणीय माताजी,

आप से कभी सुना था कि इस संसार में महापुरुष भी होते हैं परंतु मुझे विश्वास नहीं होता था.

लेकिन अब मुझे यकीन हो गया है कि दूसरों की निस्वार्थ सहायता करने वाले महापुरुष अब भी इस दुनिया में मौजूद हैं. मेरे लिए प्रोफेसर गौतम एक ऐसे ही महापुरुष की तरह हैं. उन्होंने मुझे आर्थिक सहायता दिलवाने का पूरापूरा विश्वास दिलाया है.

प्रोफेसर गौतम बरसों पहले कानपुर में नानाजी के विभाग में ही काम करते थे. उन दिनों कभी शायद आप की भी उन से मुलाकात हुई होगी

आप का रवि

Hindi Story : आइडिया – अपने ही घर में क्यों घुटन महसूस करती थी अनु?

Hindi Story :  ब्लैकबोर्डकी ओर टकटकी लगाए अनु अपनी ही दुनिया में खोई थी. तभी जूही उस की पीठ पर चपत लगाती हुई बोली, ‘‘क्यों घर नहीं चलना क्या और यह तू ब्लैकबोर्ड में आंखें गड़ाए क्या देख रही है? रश्मि मैम ने जो समझाया क्या वह हमारी क्लास की टौपर को समझ नहीं आया?’’

रश्मि मैम अपने छात्रों की चहेती और अपने स्कूल के सभी विद्यार्थियों के बीच सब से लोकप्रिय शिक्षिका थीं. स्कूल की हर छात्रा उन की सुंदरता की कायल थी. रश्मि की सादगी और सौम्यता सभी को आकर्षित करती थी.

रश्मि भी अपने विद्यार्थियों का खूब खयाल रखतीं खासकर अनु का, क्योंकि अनु की मां कनक उस की सहपाठी व अभिन्न सहेली थी. अनु के संग रश्मि का दोस्ताना व्यवहार था. जब भी अनु को कोई दुविधा होती और जो बात वह अपनी मां या अपनी सहेली जूही से नहीं कह पाती रश्मि से साझा करती.

अनु जब अपनी मां कनक से नाराज होती तो सीधे रश्मि के घर आ जाती और जब गुस्सा शांत होता तभी घर वापस जाती. रश्झ्मि भी बड़े लाड़प्यार से उसे रखतीं. रश्मि के पति का देहांत हो चुका था और वे अकेली रहती थीं. इसलिए अनु के इस प्रकार आ कर रहने पर उन्हें कोई ऐतराज भी नहीं होता था.

रश्मि बायोलौजी सब्जैक्ट और 10वीं क्लास की टीचर थीं. अनु और जूही दोनों

रिश्म की ही क्लास की छात्राएं थीं.

अनु थोड़ा हड़बड़ाती हुई बोली, ‘‘हां.’’

‘‘अरे… क्या हां, तुझे घर नहीं चलना?’’

‘‘हां चलना है, चल,’’ कहती हुई अनु ने अपना स्कूल बैग कंधे पर लटका लिया.

अनु और जूही दोनों सहेलियां थीं. दोनों बचपन से साथ पढ़ रही थीं और आसपास ही रहती थीं. जूही को अनु की मां बहुत पसंद थीं और अनु को जूही की मां.

जूही अकसर अनु से कहती, ‘‘हाय… अनु तेरी मम्मी कितनी खूबसूरत हैं. आंटी का वे औफ टौकिंग, आउट लुक कितना इंप्रैसिव है और आंटी वैस्टर्न ड्रैस में किसी मौडल से कम नहीं लगतीं और सब से बड़ी बात आंटी सैल्फ डिपैंड हैं.’’

यह सुनते ही अनु चिढ़ जाती, लेकिन कुछ नहीं कहती.

घर पहुंच अनु अपना बैग एक ओर फेंकती हुई सोफे पर धड़ाम से बैठ गई. कनक अनु को स्कूल से आया देख बोली, ‘‘अरे आ गया मेरा बच्चा. कैसा रहा आज का दिन.’’

अनु कोई जवाब दिए बगैर यों ही पड़ी रही.

कनक कई दिनों से महसूस कर रही थी, अनु काफी परेशान दिख रही है. उस का मन न पढ़ने में लग रहा है और न खानेपीने में, उसे खेलनेकूदने में भी रुचि नहीं रही. गुमसुम और उस से खिंची सी रहती है.

कनक जब भी अनु के इस उदासी का कारण जानना चाहती, वह बुरी तरह से बिगड़ जाती. इसलिए कनक इस वक्त अनु से कुछ पूछना मुनासिब न समझते हुए बोली, ‘‘अनु आज मेरा औफ था इसलिए मैं ने तुम्हारी पसंद की सब्जी कड़ाही पनीर बनाई है. चलो आ कर खा लो. शाम को संजय अंकल आने वाले हैं. तुम तैयार हो जाना हम घूमने चलेंगे और खाना भी बाहर खाएंगे ओके.’’

कनक का इतना कहना था कि अनु तमतमाती हुई पैर पटकती अपने कमरे में जा दरवाजा जोर से बंद कर लिया.

कनन अपनी आंखों में पानी लिए कमरे के बाहर खड़ी रही. अनु के व्यवहार में आया परिवर्तन कनक के लिए पहेली बनता जा रहा था. वह कुछ समझ नहीं पा रही थी कि आखिर अनु ऐसा क्यों कर रही है. कनक को लगता अनु उम्र के  उस पड़ाव से गुजर रही है, जहां शरीर में हो रहे हारमोन चेंज और शारीरिक संरचना में बदलाव होने लगता है. शायद यह उसी का परिणाम है, लेकिन ऐसा नहीं था. इस के अलावा कुछ और बात भी थी, जिस से कनक अनजान थी.

अचानक अनु कमरे का दरवाजा खोल अपनी साइकिल की चाबी उठा यह कहती हुई बाहर निकल गई कि मैं रश्मि मैम के घर जा रही हूं. तेज पैडल मारती हुई वह रश्मि के घर जा पहुंची.

धड़ाम से रश्मि के घर का दरवाजा खोल, सीधे अंदर आ गई. हौल का जो नजारा था उसे देख अनु सन्न रह गई. उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि वह रश्मि को कभी इस रूप में भी देखेगी. रश्मि मैम तो उस की रोल मौडल थीं.

अनु को एकाएक इस प्रकार अंदर आया देख रश्मि असहज हो गई. फिर अपने बाल और साड़ी का पल्लू ठीक करती हुई बोलीं, ‘‘अरे अनु तुम इस वक्त, क्या हुआ? आओ.’’

‘‘नहीं मैम मैं बाद में आती हूं शायद मैं गलत समय पर आ गई.’’

‘‘नहींनहीं ऐसा कुछ नहीं है आओ बैठो. इन से मिलो ये हैं मेरे दोस्त जय गवर्नमैंट कालेज में कैमिस्ट्री के प्रोफैसर हैं. हमारी अगले महीने शादी.’’

अनु थोड़ी सकुचाती अभिवादन में सिर झुकाती हुई बैठ गई.

‘‘बोलो क्या बात है?’’

अनु चुप बैठी रही. यह देख जय उठ खड़ा हुआ और रश्मि को आलिंगन करते हुए बोला, ‘‘रश्मि, मैं चलता हूं फिर आऊंगा.

रश्मि दरवाजे तक जय को छोड़ने गई. अनु को जय का इस प्रकार उस की रश्मि मैम को गले लगाना अच्छा नहीं लगा पर वह कर भी क्या सकती थी.

जय के जाने के पश्चात रश्मि अनु के करीब जा बैठी और उस के सिर पर हाथ फेरती

हुई बोलीं, ‘‘क्या हुआ अनु कहो क्या बात है?’’

रश्मि के इतना कहते ही अनु उन से लिपट कर रोती हुई कहने लगी, ‘‘मैम मैं घर से कहीं दूर भाग जाना चाहती हूं. मैं उस घर में नहीं रहना चाहती. मेरा उस घर में दम घुटता है,’’ अनु एक ही सांस में सब बोल गई.

अनु से ये सब सुन रश्मि अवाक रह गईं. शांत करते हुए बोलीं, ‘‘अच्छा ठीक है पहले तुम ये पानी पीयो फिर बताओ क्या हुआ? तुम्हारी मम्मी ने तुम से कुछ कहा?’’

यह सुनते ही अनु उठ खड़ी हुई और चीखती हुई बोली, ‘‘नहीं… वे क्या कहेंगी. उन्हें तो बस अपने काम और खुद को सजानेसंवारने से फुरसत नहीं. उन की वजह से मुझे अपने पापा का प्यार नहीं मिला. मुझे उन से दूर रहना पड़ता है. मैं कोई बच्ची नहीं हूं कि मुझे कुछ समझ न आए. मैं सब समझती हूं वे… संजय अंकल और मम्मी के बीच में…’’ कहती हुई रुक गई.

‘‘यह क्या कह रही हो? तुम अपनी मां के लिए ऐसा कैसे कह सकती हो?’’

अनु झुंझलाती हुई बोली, ‘‘तो क्या कहूं?’’

अनु अब इतनी छोटी नहीं थी कि कुछ समझ न सके. लेकिन इतनी बड़ी भी नहीं कि सबकुछ समझ सके. उस के किशोर मन में कई सवाल उमड़घुमड़ रहे थे जिसे शांत करना अब जरूरी हो गया था. इसलिए रश्मि प्यार से अनु को अपने समीप बैठाती हुई बोलीं, ‘‘पहले तुम अपने मन से यह गुस्सा, जहर और नफरत निकाल फेंको जो तुम ने अपने अंदर भर रखा है.

‘‘मैं जानती हूं अब तुम कोई बच्ची नहीं रही, बड़ी हो गई हो, इसलिए मैं जो कहने जा रही हूं उसे धैर्य से सुनना उस के बाद हम सोचेंगे कि तुम्हें घर से दूर भाग जाना चाहिए या नहीं.

‘‘तुम बताओ क्या तुम ने कभी अपने पापा की तसवीर के अलावा भी उन्हें देखा है? नहीं देखा है न. क्यों… नहीं देखा? क्या तुम्हारे पापा इस दुनिया में नहीं हैं? क्या तुम्हारी मम्मी ने तुम्हें कभी अपने पापा से मिलने या उन के पास जाने से रोका है? नहीं रोका न. क्या तुम्हारे पापा कभी खुद तुम से मिलने आए? नहीं आए न… क्यों नहीं आए? वे तो इसी शहर में रहते हैं.’’

अनु निरुत्तर चुपचाप सुनती रही.

‘‘अब जो मैं कहने जा रही हूं तुम बड़े ध्यान से सुनना. तुम्हारी मम्मी अपने स्कूल, कालेज के समय से ही सुंदर और स्वतंत्र विचारधारा की रही है. वह शादी से पहले भी जौब करती थी. तुम्हारे पापा ने तुम्हारी मम्मी से शादी उस की खूबसूरती और मौडर्ननैस पर फिदा हो कर की थी.

‘‘उस के बाद तुम्हारे पापा को तुम्हारी मां की वही खूबसूरती, मौडर्ननैस और उस का जौब पर जाना खलने लगा. वे चाहते थे कनक सबकुछ छोड़ घर बैठ जाए. तुम्हारे पापा कनक को अपनी निजी संपत्ति समझने लगे थे. उस के साथ दुर्व्यवहार करने लगे और जब तुम्हारी मम्मी विरोध करने लगी तो इस बात को ले कर दोनों के बीच तनाव बढ़ता गया.

‘‘एक दिन जब तुम्हारी मम्मी औफिस में किसी काम की वजह से देर रात घर लौटी तो तुम्हारे पापा ने बगैर कारण जाने ही तुम्हारी मम्मी को घर से निकाल दिया और तुम्हें भी अपने साथ ले जाने को कह दिया, उस वक्त तुम केवल 1 महीने की थी. उस रात संजय ने ही तुम्हारी मम्मी और तुम्हें अपने घर में पनाह दी.

‘‘तुम्हारी मम्मी और संजय अच्छे दोस्त हैं. तुम्हारे पापा ने तो तुम लोगों को छोड़ कर दूसरी शादी कर ली और फिर कभी उन्होंने तुम लोगों की ओर मुड़ कर नहीं देखा. उस वक्त एक संजय ही था जो तुम्हारी मम्मी के साथ खड़ा था दुनिया की परवाह किए बगैर. अब तुम बताओ क्या गलत था?’’

‘‘इतना सब सुनने के बाद अनु ने अपने कान बंद कर लिए जिस पिता के लिए अब तक वह अपनी मां से नफरत करती आई थी आज सचाई जान कर उसे स्वयं के व्यवहार पर अफसोस होने लगा. फिर वह रश्मि से कहने लगी, ‘‘बस मैम मुझे और कुछ नहीं सुनना.’’

‘‘नहीं अनु अभी मेरी बात पूरी नहीं हुई है. मुझे तुम से अभी बहुत कुछ कहना है. तुम्हारी मम्मी क्यों सजसंवर नहीं सकती, क्योंकि तुम्हें अच्छा नहीं लगता या फिर इसलिए कि वह अपने पति के साथ नहीं रहती या फिर इसलिए कि तुम चाहती हो कि तुम्हारी मम्मी जूही की मम्मी की तरह लगे. क्या तुम्हारी मम्मी की अपनी कोई इच्छा या चाहत नहीं हो सकती? तुम्हारी मम्मी की तरह, मेरी तरह की इस दुनियां में न जाने कितनी ही औरतें होंगी, तो क्या उन सब को बाकी औरतों की तरह खुश रहने का अधिकार नहीं?

‘‘तुम्हारी मम्मी जब भी चाहती संजय से शादी कर सकती थी, लेकिन उस ने ऐसा नहीं किया, क्योंकि उसे अपने सुख से ज्यादा तुम्हारी फिक्र थी. वह तुम्हें अपनेआप से ज्यादा प्यार करती है.

‘‘अनु अब तुम छोटी नहीं हो इसलिए अब जो मैं तुम से कहने जा रही हूं उसे तुम

एक बेटी बन कर नहीं एक आम लड़की बन कर समझने की कोशिश करना जैसे खानापीना हमारे शरीर की जरूरत है वैसे ही एक और जरूरत हमारे शरीर की होती है जिसे काम कहते हैं और इस कामरूपी भूख को शांत करना भी उतना ही आवश्यक है जितना बाकियों को.

‘‘हर इंसान इस भूख की पूर्ति अपनी सुविधानुसार करता है और इस में न तो कुछ गलत है और न ही यह अपराध है. यह केवल हमारी सोच और देखने के नजरिए पर निर्भर करता है, क्योंकि यह हमारे शरीर की मांग है और यदि तुम्हारी मम्मी की यह मांग संजय पूरी करता है तो क्या गलत है? अब तक तो तुम यह भी समझ ही गई होगी कि मेरे और जय के बीच का संबंध क्या है.’’

यह सुनने के बाद अनु ने रश्मि से कहा, ‘‘मैम, क्या मुझे आप का मोबाइल मिलेगा.’’

रश्मि ने अपना मोबाइल अनु की ओर बढ़ा दिया. अनु ने नंबर डायल किया. उधर से फोन उठाते ही अनु बोली, ‘‘आई एम सौरी मम्मी. मैं घर आ रही हूं, आप तैयार रहना. हम शाम को घूमने चलेंगे और खाना भी बाहर ही खाएंगे.’’

लेखिका- प्रेमलता यदु

Kahaniyan : डियर पापा- क्यों श्रेया अपने पिता को माफ नही कर पाई?

Kahaniyan : शाम के 7 बज चुके थे. सुजौय किसी भी वक्त औफिस से घर आते ही होंगे. मैं ने जल्दी से चूल्हे पर चाय चढ़ाई और दरवाजे की घंटी बजने का इंतजार करने लगी.  ज्यों ही घंटी की आवाज घर में गूंजी मेरे दोनों नन्हे शैतान श्यामली और श्रेयस उछलतेकूदते अपने कमरे से बाहर आ गए और दरवाजे की कुंडी खोलते ही पापापापा चिल्लाते हुए सुजौय की टांगों से लिपट गए.  सुजौय ने मुसकरा कर अपना ब्रीफकेस मुझे थमा दिया और दोनों बच्चों को बांहों में भर कर भीतर आ गए. तीनों के कहकहे सुन कर दिल को सुकून सा मिल रहा था. सुजौय को चाय दे कर मैं भी वहीं उन तीनों के पास बैठ गई. दोनों बच्चे बड़े प्यार से अपने पापा को दिन भर की शरारतें और किस्से सुना रहे थे. सुजौय भी बड़े गर्व से चाय पीते हुए उन दोनों की बातें सुन रहे थे. अपने पापा का पूरा ध्यान खुद पर पा कर बच्चों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था.

‘‘पापा, मैं और श्रेयस एक बहुत सुंदर ड्राइंग बना रहे हैं. उसे पूरा कर के आप को दिखाते हैं,’’ कह कर श्यामली ने अपने भाई का हाथ पकड़ा और दोनों भाग कर अपने कमरे में चले गए.

‘‘क्या सोच रही हो मैडम?’’

‘‘कुछ नहीं. आप हाथमुंह धो कर फ्रैश हो जाएं. तब तक मैं खाना गरम कर लेती हूं,’’ सुजौय के टोकने पर मैं ने मुसकरा कर जवाब दिया और फिर उठ कर रसोई की तरफ चल दी.

खाने की मेज पर भी दोनों बच्चे चहकते हुए अपने पापा को न जाने कौनकौन से किस्से सुना रहे थे. खाने के बाद कुछ देर तक सुजौय और मेरे साथ खेल कर बच्चे थक कर सो गए. सारा काम निबटा कपड़े बदलने के बाद जब मैं कमरे में पहुंची तो सुजौय पहले से ही पलंग पर लेटे हुए एकटक छत को निहार रहे थे. बत्ती बुझा कर मैं भी पलंग पर जा कर लेट गई और आंखें बंद कर के सोने की कोशिश करने लगी.

थोड़ी देर बाद सुजौय ने धीमे स्वर में पूछा, ‘‘श्रेया, नींद नहीं आ रही है क्या?’’

‘‘नहीं,’’ मैं ने गहरी सांस भर कर छोड़ते हुए जवाब दिया.

‘‘कोई टैंशन है?’’

‘‘नहीं?’’

‘‘श्यामली बता रही थी आज उस की नानी का फोन आया था.’’

‘‘क्या कहा मां ने? कैसी हैं वे?’’

‘‘ठीक हैं. हम सब का कुशलक्षेम पूछ  रही थीं.’’

‘‘और साकेत कैसा है? उस की परीक्षा कैसी हुई?’’

‘‘वह भी ठीक है. अच्छी हुई.’’

‘‘सिर्फ इतनी ही बात हुई?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो फिर इतनी खोई हुई, उदास सी क्यों हो?’’

मेरे कोई जवाब न देने पर सुजौय ने मुझे आगोश में भर लिया और फिर मेरा सिर सहलाने लगे. अचानक हुई प्रेम और अपनेपन की अनुभूति से मेरी आंखों से आंसू बह निकले. मैं कस कर सुजौय से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगी. सुजौय ने मुझे जी भर कर रोने दिया.  कुछ देर बाद जब आंसू थमे तो मैं ने हिम्मत कर के कहा, ‘‘कल पापा की बरसी है. मां ने हमें घर बुलाया है.’’

‘‘और तुम हमेशा की तरह वहां जाना नहीं चाहतीं,’’ सुजौय ने कहा.

‘‘आप को सब पता तो है. मैं वहां क्यों नहीं जाना चाहती हूं. मां भी सब जानती हैं. फिर भी हर साल मुझ से घर आने की जिद करती हैं,’’ मैं ने भर्राई आवाज में कहा.

‘‘श्रेया, तुम जानती हो न मां बस पूरे परिवार को एकसाथ खुश देखना चाहती हैं, इसलिए हर बार तुम्हारा जवाब जानते हुए भी तुम्हें पापा की बरसी पर घर आने के लिए कहती हैं.’’

‘‘मैं जानती हूं. मैं मां को दुख नहीं पहुंचाना चाहती हूं. उन्हें दुखी देख कर मुझे भी बहुत दुख होता है. अब आप ही बताएं कि मैं क्या करूं?’’ मैं ने निराश स्वर में पूछा.

‘‘अपने पापा को माफ कर दो.’’

इस से पहले कि मैं विरोध कर पाती सुजौय फिर बोल पड़े, ‘‘देखो श्रेया मैं तुम्हारी हर तकलीफ समझता हूं और तुम्हारे हर फैसले का सम्मान भी करता हूं पर इस तरह दिल में गुस्सा और दर्द दबा कर रखने में किसी का भला नहीं है. तुम अनजाने में ही अपने साथ अपनी मां को भी तकलीफ दे रही हो. अपने अंदर से सारा गुस्सा, सारा गुबार निकाल दो और अपने पापा को माफ कर दो.’’  मुझे समझा कर कुछ देर बाद सुजौय तो सो गए पर मेरी आंखों में नींद का नामोनिशान तक  न था. बीते कल की यादें खुली किताब के पन्नों की तरह मेरी आंखों के सामने खुलती चली जा रही थीं…

छोटा सा परिवार था हमारा- पापा, मम्मी, मैं और साकेत. पापा का अच्छाखासा  कारोबार था. घर में किसी सुखसुविधा की कोई कमी नहीं थी. बाहर से देखने पर सब कुछ ठीक ही लगता था. पर मेरी मां की आंखों में हमेशा एक उदासी, एक डर नजर आता था. शुरू में मैं मां के आंसुओं की वजह नहीं समझ पाती थी, पर जैसेजैसे बड़ी होती गई वजह भी समझ आती गई.  वजह थे मेरे पापा जो अकसर छोटीछोटी बातों पर या फिर बिना किसी बात के मां पर हाथ उठाते थे. मुझे कभी पापा का बरताव समझ नहीं आया. जब प्यार जताते थे तो इतना कि जिस की कोई सीमा नहीं होती थी और जब गुस्सा करते थे तो वह भी इतना कि जिस की कोई हद नहीं होती थी.

पहले पापा के गुस्से का शिकार सिर्फ मां होती थीं, पर वक्त बीतने के साथ उन के गुस्से की चपेट में आने वाले लोगों का दायरा भी बढ़ता गया. पापा ने मुझ पर भी हाथ उठाना शुरू कर दिया था.  जब पापा ने पहली बार मुझ पर हाथ उठाया था तब मैं ने 2 दिनों तक बुखार के कारण आंखें नहीं खोली थीं. जब पापा मुझे मारते थे तो मां मुझे बचाने के लिए बीच में आ जाती थीं. न जाने कितनी बार मां ने हम दोनों के हिस्से की मार अकेले खाई होगी. छोटी उम्र में इतनी मार खा कर मेरे शरीर पर से कई दिनों तक मार के निशान नहीं जाते थे.

स्कूल जाने पर ऐसा महसूस होता था मानो जैसे मेरे सहपाठी मेरी ओर इशारे कर के मेरा मजाक उड़ा रहे हैं. टीचर निशानों के बारे में पूछती थीं तो झूठ बोलना पड़ता था. न जाने कितनी बार साइकिल से गिरने का बहाना बनाया होगा. अब तो गिनती भी याद नहीं है.  शुरूशुरू में मैं मार खाते वक्त बहुत रोती थी, पर वक्त के साथ मेरा रोना भी कम होता गया और कुछ वक्त बाद तो एहसास होना ही बिलकुल बंद सा हो गया था. मां अब बहुत बीमार रहने लगी थीं. मेरी परी, सुंदर मां निढाल सी रहती थीं.

डाक्टरों को भले ही मां की बीमारी की वजह पता न चल पाई हो पर मैं जानती थी. मेरी मां को एक ही बीमारी थी- मेरे पापा. मैं 8 वर्ष की थी जब साकेत का जन्म हुआ था. कितनी प्यारी मुसकान थी मेरे छोटे भाई की. दुनिया की भलाईबुराई, झूठ, फरेब, संघर्षों और तकलीफों से अनजान मासूम हंसी थी उस की. पापा ने साकेत के जन्म का जश्न मनाने में पूरे शहर को दावत दे डाली थी. मुझे लगा कि अब शायद पापा बदल जाएंगे, हम पर हाथ उठाना और गालीगलौच करना छोड़ देंगे. मगर मैं गलत थी. इनसान की फितरत बदलना नामुमकिन है.

पापा के वहशीपन से मेरा भाई भी नहीं बच पाया. मुझे उस के चेहरे पर भोलेपन की जगह खौफ नजर आता था. जब पापा हमें मार चुके होते थे तब मैं ध्यान से उन का चेहरा देखती थी. हमें गालियां देने, मारने कोसने के बाद पापा के चेहरे पर संतोष के भाव होते थे, ग्लानि नहीं. ऐसा लगता था कि हमें रोते, गिड़गिड़ाते, दर्द से कराहते देखने में पापा को खुशी मिलती थी. खुद पर गरूर होता था. कभी मुझे लगता था कि कहीं पापा किसी मानसिक रोग के शिकार तो नहीं वरना यह उन्हें हम से कैसा प्यार था जो हमारी जान का दुश्मन बना हुआ था.  मैं कई बार मां से पूछती थी कि क्या हम पापा से कहीं दूर नहीं जा सकते हैं. इस पर मां रोते हुए इसे हमारी मजबूरी बता देती थीं.  पापा के परिवार वालों ने उन्हें कभी हमें प्रताडि़त करने से नहीं रोका, बल्कि वे

तो पापा को सही बता कर उन का साथ देते थे. पापा कभी अपने परिवार वालों की मानसिकता को समझ ही नहीं पाए. उन के लिए पापा बैंक का वह अकाउंट थे जिस से वे जब चाहें जितने चाहें रुपए निकाल सकते हैं पर अकाउंट कभी खाली नहीं होगा. पापा के भाई और उन के परिवार को मुफ्तखोरी की आदत लग गई थी. पापा को खुश करने के लिए वे लोग हम पर झूठे इलजाम लगाने से भी बाज नहीं आते थे.  मम्मी के परिवार वाले भी कम न थे. वे लोग शुरू से जानते थे कि पापा हमारे साथ क्या करते हैं पर उन्होंने कभी मां का साथ नहीं दिया. वजह मैं जानती थी. मेरे मामा के शौकीन मिजाज के कारण डूबते कारोबार में पापा ही रुपया लगाते थे. पापा की ही तरह उन का पैसा भी हमारा दुश्मन बन गया था.

अब मैं ने किसी से कुछ भी कहनासुनना छोड़ दिया था. पापा के लिए मेरे दिल में गुस्सा और नफरत लावा की तरह बढ़ते जा रहे थे जो अकसर फूट कर बाहर आ जाते थे. मैं अब कामना करती थी कि हमें इस नर्क से मुक्ति मिल जाए.

कुछ सालों तक सब ऐसा ही चलने के बाद अब पापा को शायद उन के कर्मों की सजा मिलनी शुरू हो गई थी. उन के भाई ने उन का सारा कारोबार डुबो दिया. सभी ने पापा का साथ छोड़ दिया था. ऐसे में मां ने अपने सारे गहने और जमापूंजी पापा को दे दिए और दिनरात कोल्हू के बैल की तरह जुत कर काम किया.  इस बीच मारपीट बिलकुल बंद सी ही थी. धीरेधीरे पापा का काम चल निकला. यह मन बड़ा पाजी चोर होता है. बारबार टूटने पर भी उम्मीद नहीं छोड़ना चाहता है. मेरे मन में पापा के बदल जाने की उम्मीद थी जो पापा ने हमेशा की तरह बड़ी बेदर्दी से रौंद डाली थी.

पापा ने फिर से वही रुख अपना लिया था. उन्होंने शायद सांप और बिच्छू की कहानी सुनी ही नहीं थी, इसलिए फिर से अपने धोखेबाज भाई पर भरोसा कर बैठे. बिच्छू ने आदत अनुसार पापा को दोबारा डस लिया और इस बार पापा धोखा बरदाश्त नहीं कर पाए. जब मम्मी एक दिन मुझे और साकेत को स्कूल से ले कर घर लौटीं तो हम ने देखा कि पापा ने आत्महत्या कर ली है. मम्मी बेहोश हो कर गिर गईं. भाई का रोतेरोते बुरा हाल  था पर मेरी आंखों में एक आंसू नहीं आया. पापा हमें रास्ते पर ला कर छोड़ गए थे. जैसा कि मुझे विश्वास था, पापा के घर वालों ने हम से हर नाता तोड़ लिया और मम्मी के घर वाले तो और भी समझदार निकले. उन्हें यह डर सता गया कि कहीं हम उन से वे रुपए न मांग ले जो पापा ने समयसमय पर उन्हें दिए थे.

हर किसी ने हमें देख कर रास्ता बदलना शुरू कर दिया था. मम्मी गहरे अवसाद की गिरफ्त में आती चली गईं. बीमारी के कारण भाई की जान जातेजाते बची.  पाप हम से सब कुछ छीन कर चले गए पर हमारा जीने का हौसला नहीं छीन पाए. बड़ी मुश्किलों से हम ने खुद को संभाला. मां ने दिनरात मेहनत व संघर्ष कर के हमें पाला. हमें कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी. उन की इसी तपस्या का फल बन कर सुजौय मेरे जीवन में आए.  पेशे से अधिकारी सुजौय को मेरे लिए मां ने ही पसंद किया था. मैं शुरूशुरू में उन पर विश्वास करने से डरती थी कि कहीं मेरा पति मेरे पापा जैसा न हो. पहले सुजौय को जीवनसाथी के रूप में पा कर और फिर श्यामली और श्रेयस के मेरी गोद में आने से मेरे सारे दुखों व संघर्षों पर विराम लग गया.

मां भी अब पहले से अच्छी अवस्था में थीं. साकेत भी पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन कर रहा था. ऐसे में दिल में सिर्फ एक कसक थी. मैं अभी तक पापा को माफ नहीं कर पाई थी. मां हर साल पापा की बरसी मनाती थीं. वे हमें भी घर आने को कहती थीं. हमेशा मुझ से कहती थीं कि मैं सब कुछ भुला दूं पर यह मेरे लिए संभव नहीं था. जब मैं सुजौय को अपने बच्चों के साथ देखती हूं तो बहुत खुश होती हूं. लेकिन साथ ही दिल में एक टीस भी उठती है कि क्या मेरे पापा ऐसे नहीं हो सकते थे. सुजौय बहुत अच्छे पति हैं और उस से भी अच्छे पिता हैं. मैं जानती हूं साकेत भी एक दिन अच्छा पति और पिता साबित होगा.

यादों की दुनिया से बाहर निकल कर मैं ने सुजौय की ओर देखा जो गहरी नींद में सो रहे थे. वे ठीक ही तो कहते हैं बीती बातों को दिल में दबाए रख कर खुद को पीड़ा देने से क्या फायदा. मां ने पापा का अत्याचार हम से कहीं ज्यादा सहा. पर फिर भी उन्होंने पापा को माफ कर दिया. अगर माफ नहीं करतीं तो उन के जाने के बाद कभी एक मजबूत चट्टान बन कर हमें सहारा न दे पातीं. सिर्फ एक मां का दिल ही इतना बड़ा हो सकता है.

अब मैं भी तो एक मां हूं फिर मुझ से इतनी बड़ी चूक कैसे हुई. मैं ने यह कैसे नजरअंदाज कर दिया कि मेरे भीतर की घुटन से मेरी मां का दम भी तो घुटता होगा. मैं पापा को सजा देने के नाम पर अनजाने में ही मां को सजा देती आई हूं. कहीं मैं भी पापा की तरह ही तो नहीं बनती जा रही हूं.

फिर मैं ने आंखें बंद कर के गहरी सांस ली और मन में कहा कि डियर पापा, मैं नहीं जानती कि आप ने हमारे साथ वह सब क्यों किया. मैं यह भी नहीं जानती कि आज भी आप को अपने किए का कोई पछतावा है भी या नहीं. मुझे आप से कोई गिलाशिकवा भी नहीं करना. आज मैं पहली और आखिरी बार आप से यह कहना चाहती हूं कि मैं आप से प्यार करती थी, इसलिए आप की मार और गालियां खाने के बाद भी उम्मीद करती थी कि शायद आप बदल जाओगे. खैर, अब इन सब बातों का कोई फायदा नहीं है. मैं बस इतना कहना चाहती हूं कि मैं आप को माफ करती हूं पर आप के लिए नहीं… अपने लिए और अपने परिवार के लिए. गुडबाय. बहुत सालों बाद मैं खुद को इतना हलका महसूस कर के चैन की नींद सोई.

अगली सुबह जब मैं नाश्ता बना रही थी तो सुजौय माथे पर बल डाले रसोई में आए, ‘‘यह क्या श्रेया… तुम ने मुझे जगाया क्यों नहीं… 8 बज चुके हैं. मुझे दफ्तर जाने में देर हो जाएगी… बच्चों को अभी तक स्कूल के लिए तैयार क्यों नहीं किया तुम ने?’’

‘‘आज बच्चे स्कूल नहीं जाएंगे. आप भी दफ्तर में फोन कर के बता दीजिए कि आज आप छुट्टी ले  रहे हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि आज हम सब मम्मी के घर जा रहे हैं. आज पापा की बरसी है न… आप जल्दी से नहा कर तैयार हो जाएं तब तक मैं नाश्ता तैयार कर देती हूं.’’

‘‘श्रेया,’’ सुजौय ने भावुक हो कर मेरे कंधे पर हाथ रखा तो मेरे हाथ रुक गए.

‘‘तुम अपनी इच्छा से यह कररही हो न… देखो कोई जबरदस्ती नहीं है.’’  मैं ने डबडबाई आंखों से सुजौय की ओर देखा, ‘‘नहीं सुजौय, मां ठीक कहती हैं, आप भी  सही हो. अपने भीतर का यह अंधेरा मुझे खुद ही दूर करना होगा. मैं बीते कल की इन कड़वी यादों को भुला कर आप के और अपने परिवार के साथ नई, खूबसूरत यादें बनाना चाहती हूं. मैं पापा की बरसी में जाऊंगी.’’  सुजौय सहमति में सिर हिला कर मुसकरा दिए. उन की आंखों में अपने लिए गर्व और प्रेम की चमक देख कर मुझे विश्वास हो गया कि मैं ने बिलकुल सही निर्णय लिया है.

कुछ ही देर बाद मैं सुजौय और बच्चों के साथ मां के घर पहुंच गई. बच्चे तो नानी और मामा से मिलने की बात सुन कर ही खुशी से उछल रहे थे. मेरे घंटी बजाने के कुछ क्षणों बाद मां ने दरवाजा खोला. मुझे दरवाजे पर खड़ी पा कर मां चौंक गईं. उन्हें तो सपने में भी आज मेरे घर आने की उम्मीद न थी. उन के मुंह से मेरा नाम आश्चर्य से निकला, ‘‘श्रेया… बेटा तू…’’

‘‘मां मुझे तो यहां आना ही था. आज पापा की बरसी है न.’’

मेरे मुंह से यह सुनते ही मां की आंखें भर आईं और उन्होंने आगे बढ़ कर मुझे अपने गले से लगा लिया. आज बरसों बाद हम मांबेटी लिपट कर फूटफूट कर रो रही थीं और हमारे आंसुओं से सारी पुरानी यादों की कालिख धुलती जा रही थी.

Short Story : प्यार में कंजूसी

Short Story : कुछ दिन से मन में बड़ी उथल- पुथल है. मन में कितना कुछ उमड़घुमड़ रहा है जिसे मैं कोई नाम नहीं दे पा रहा हूं. उदासी और खुशी के बीच की अवस्था को क्या कहा जाता है समझ नहीं पा रहा हूं. शायद, स्तब्ध सा हूं, कोई निर्णय लेने की स्थिति में नहीं हूं. चाहूं तो खुश हो सकता हूं क्योंकि उदास होने की भी कोई खास वजह मेरे पास नहीं है.

‘‘क्या बात है पापा, आप चुपचाप से हैं?’’

‘‘नहीं तो, ऐसा तो कुछ नहीं…बस, यही सोच रहा हूं कि पानीपत जाऊं या नहीं.’’

‘‘सवाल ही पैदा नहीं होता. चाचीचाचा ने एक बार भी ढंग से नहीं बुलाया. हम क्या बेकार बैठे हैं जो सारे काम छोड़ कर वहां जा बैठें…इज्जत करना तो उन्हें आता ही नहीं है और बेइज्जती कराने का हमें कोई शौक नहीं है.’’

‘‘मैं उस बेवकूफ के बारे में नहीं सोच रहा. वह तो नासमझ है.’’

‘‘नासमझ हैं तो इतने चुस्त हैं अगर समझदार होते तो पता नहीं क्याक्या कर जाते…पापा, आप मान क्यों नहीं जाते कि आप के भाई ने आप की अच्छाई का पूरापूरा फायदा उठाया है. बच्चों को पढ़ाना था तो आप के पास छोड़ दिया. आज वे चार पैसे कमाने लगे तो उन की आंखें ही पलट गईं.’’

‘‘मुझे खुशी है इस बात की. छोटे से शहर में रह कर वह बच्चों को कैसे पढ़ातालिखाता, सो यहां होस्टल में डाल दिया.’’

‘‘और घर का खाना खाने के लिए महीने में 15 दिन वे हमारे घर पर रहते थे. कभी भी आ धमकते थे.’’

‘‘तो क्या हुआ बेटा, उन के ताऊ का घर था न. उन के पिता का बड़ा भाई हूं मैं. अगर मेरे घर पर मेरे भाई के बच्चे कुछ दिन रह कर खापी गए तो ऐसी क्या कमी आ गई हमारे राशनपानी में? क्या हम गरीब हो गए?’’

‘‘पापा, आप भी जानते हैं कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं. किसी को खिलाने से कोई गरीब नहीं हो जाता, यह आप भी जानते हैं और मैं भी. सवाल यह नहीं है कि वे हमारे घर पर रहे और हमारे घर को पूरे अधिकार से इस्तेमाल करते रहे. सवाल यह है कि दोनों बच्चे लंदन से वापस आए और हम से मिले तक नहीं. दोनों की शादी हो गई, उन्होंने हमें शामिल तक नहीं किया और अब गृहभोज कर रहे हैं तब हमें बुला लिया. यह भी नहीं कहा कि 1-2 दिन पहले चले आएं. बस, कह दिया…रात के 8 बजे पार्टी दे रहे हैं… आप सब आ जाना. पापा, यहां से उन के शहर की दूरी कितने घंटे की है, यह आप जानते हैं न. कहां रहेंगे हम वहां? रात 9 बजे खाना खाने के बाद हम कहां जाएंगे?’’

‘‘उस के घर पर रहेंगे और कहां रहेंगे. कैसे बेमतलब के सवाल कर रहे हो तुम सब. तुम्हारी मां भी इसी सवाल पर अटकी हुई है और तुम भी. हमारे घर पर जब कोई आता है तो रात को कहां रहता है?’’

‘‘हमारे घर पर जो भी आता है, वह हमारे सिरआंखों पर रहता है, हमारे दिल में रहता है और हमारे घर में शादी जैसा उत्सव जब होता है तब हम बड़े प्यार से चाचाचाची को बुला कर अपनी हर रस्म में उन्हें शामिल करते हैं. मां हर काम में चाचीचाचा को स्थान देती हैं. मेहमानों को बिस्तर पर सुलाते हैं और खुद जमीन पर सोेते हैं हम लोग.’’

दनदनाता हुआ चला गया अजय. मैं समझ रहा हूं अजय के मनोभाव. अजय उन्हें अपना भाई समझता था. नरेन और महेन को चचेरा भाई समझा कब था जो उसे तकलीफ न होती. अजय की शादी जब हुई तो नईनवेली भाभी के आगेपीछे हरपल डोलते रहते थे नरेन और महेन.

दोनों बच्चे एमबीए कर के अच्छी कंपनियों में लग गए और वहीं से लंदन चले गए. जब जा चुके थे तब हमें पता चला. विदेश जाते समय मिल कर भी नहीं गए. सुना है वे लाखों रुपए साल का कमा रहे हैं…मुझे भी खुशी होती है सुन कर, पर क्या करूं अपने भाई की अक्ल का जिसे रिश्ते का मान रखना कभी आया ही नहीं.  एकएक पैसा दांत से कैसे पकड़ा जाता है, उस ने पता नहीं कहां से सीखा है. एक ही मां के बच्चे हैं हम, पर उस की और मेरी नीयत में जमीनआसमान का अंतर है. रिश्तों को ताक पर रख कर पैसा बचाना मुझे कभी नहीं आया. सीख भी नहीं पाया क्योंकि मेरी पत्नी ने कभी मुझे ऐसा नहीं करने दिया. नरेनमहेन को अजय जैसा ही मानती रही मेरी पत्नी. पूरे 6 साल वे दोनों हमारे पास रहे और इन 6 सालों में न जाने कितने तीजत्योहार आए. जैसा कपड़ा शुभा अजय के लिए लाती वैसा ही नरेन, महेन का भी लाती. घर का बजट बनता था तो उस में नरेनमहेन का हिस्सा भी होता था. कई बार अजय की जरूरत काट कर हम उन की जरूरत देखा करते थे.

हमारी एक ही औलाद थी लेकिन हम ने सदा 3 बेटों को पालापोसा. वे दोनों इस तरह हमें भूल जाएंगे, सोचा ही नहीं था. भूल जाने से मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि उन्होंने मेरा कर्ज नहीं चुकाया. सदा देने वाले मेरे हाथ आज भी कुछ देते ही उन्हें, पर जरा सा नाता तो रखें वे लोग. इस तरह बिसरा दिया है हमें जैसे हम जिंदा ही नहीं हैं.  शुभा भी दुखी सी लग रही है.   बातबात पर खीज उठती है. जानता हूं उसे बच्चों की याद आ रही है. किसी न किसी बहाने से उन का नाम ले रही है, खुल कर कुछ कहती नहीं है पर जानता हूं नरेनमहेन से मिलने को उस का मन छटपटा रहा है. दोनों ने एक बार फोन पर भी बात नहीं की. अपनी बड़ी मां से कुछ देर बतिया लेते तो क्या फर्क पड़ जाता.

‘‘कितना सफेद हो गया है इन दोनों का खून. विदेश जा कर क्या इंसान इतना पत्थर हो जाता है?’’

‘‘विदेश को दोष क्यों दे रही हो. मेरा अपना भाई तो देशी है न. क्या वह पत्थर नहीं है?’’

‘‘पत्थर नहीं, इसे कहते हैं प्रैक्टिकल होना. आज सब इतने ज्यादा मतलबी हो गए हैं कि हम जैसा भावुक इंसान बस ठगा सा रह जाता है. हम लोग प्रैक्टिकल नहीं हैं न इसीलिए बड़ी जल्दी बेवकूफ बन जाते हैं.’’

‘‘क्या करें हम? हमारा दिल यह कैसे भूल जाए कि रिश्तों के बिना मनुष्य कितना अपाहिज, कितना बेसहारा है. जहां दो हाथ काम आते हैं वहां रुपएपैसे काम नहीं आ सकते.’’

‘‘आप यह ज्ञान मुझे क्यों समझा रहे हैं? रिश्तों को निभाने में मैं ने कभी कोई कंजूसी नहीं की.’’

‘‘इसलिए कि अगर एक इंसान बेवकूफी करे तो जरूरी नहीं कि हम भी वही गलती करें. जीवन के कुछ पल इतने मूल्यवान होते हैं जो बस एक ही बार जीवन में आते हैं. उन्हें दोहराया नहीं जा सकता. गया पल चला जाता है…पीछे यादें रह जाती हैं, कड़वी या मीठी.

‘‘नरेनमहेन हमारे बच्चे हैं. हम यह क्यों न सोचें कि वे मासूम हैं, जिन्हें रिश्ता निभाना ही नहीं आया. हम तो समझदार हैं. उन का सुखी परिवार देखने की मेरी तीव्र इच्छा है जिसे मैं दबा नहीं पा रहा हूं. अजय का गुस्सा भी जायज है. मैं मानता हूं शुभा, पर तुम्हीं सोचो, हफ्ते भर में दोनों लौट भी जाएंगे. फिर मिलें न मिलें. कौन जाने हमारी जीवनयात्रा कब समाप्त हो जाए.’’

मेरा स्वर अचकचा सा गया. मैं दिल का मरीज हूं. आधे से ज्यादा हिस्सा काम ही नहीं कर रहा. कब धड़कना बंद कर दे क्या पता. मैं दोनों बच्चों से बहुत प्यार करता हूं. चाहता हूं उन की नईनई बसी गृहस्थी देख लूं. उन बच्चियों का क्या कुसूर. उन्हें मेरे बारे में क्या पता कि मैं कौन हूं. उन के ताऊताई उन से कितनाममत्व रखते हैं, उन्हें तभी पता चलेगा जब वे देखेंगी हमें और हमारा आशीर्वाद पाएंगी.

‘‘बस, मैं जाना चाहता हूं. वह मेरे भाई का घर है. वहीं रात काट कर सुबह वापस आ जाऊंगा. नहीं रहूंगा वहां अगर उस ने नहीं चाहा तो…फुजूल मानअपमान का सवाल मत उठाओ. मुझे जाने दो. इस उम्र में यह कैसा व्यर्थ का अहं.’’

‘‘रात में सोएंगे कहां. 3 बैडरूम का उन का घर है. 2 में बच्चे और 1 में देवरदेवरानी सो जाएंगे.’’

‘‘शादी में सब लोग नीचे जमीन पर गद्दे बिछा कर सोते हैं. जरूरी नहीं सब को बिस्तर मिलें ही. नीचे कालीन पर सो जाऊंगा. अपने घर में जब शादी थी तो सब कहां सोए थे. हम ने नीचे गद्दे बिछा कर सब को नहीं सुलाया था.’’

‘‘हमारे घर में कितने मेहमान थे. 30-40 लोग थे. वहां सिर्फ उन्हीं का परिवार है. वे नहीं चाहते वहां कोई जाए… तो क्यों जाएं हम वहां.’’

‘‘उन की चाहत से मुझे कुछ लेनादेना नहीं है. मेरी खुशी है, मैं जाना चाहता हूं, बस. अब कोई बहस नहीं.’’

चुप हो गई थी शुभा. फिर मांबेटे में पता नहीं क्या सुलह हुई कि सुबह तक फैसला मेरे हक में था. बैंगलूरु से पानीपत की दूरी लंबी तो है ही सो तत्काल में 2 सीटों का आरक्षण अजय ने करवा दिया.

जिस दिन रात का भोज था उसी दोपहर हम वहां पहुंच गए. नरेनमहेन को तो पहचान ही नहीं पाया मैं. दोनों बच्चे बड़े प्यारे और सुंदर लग रहे थे. चेहरे पर आत्मविश्वास था जो पहले कभी नजर नहीं आता था. बच्चे कमाने लगें तो रंगत में जमीनआसमान का अंतर आ ही जाता है. दोनों बहुएं भी बहुत अपनीअपनी सी लगीं मुझे, मानो पुरानी जानपहचान हो.

एक ही मंडप में दोनों बहनों को   ब्याह लाया था मेरा भाई. न कोई  नातेरिश्तेदार, न कोई धूमधाम. ‘‘भाईसाहब, मैं फुजूलखर्ची में जरा भी विश्वास नहीं करता. बरात में सिर्फ वही थे जो ज्यादा करीबी थे.’’

‘‘करीबी लोगों में क्या तुम हमें नहीं गिनते?’’

मेरा सवाल सीधा था. भाई जवाब नहीं दे पाया. क्योंकि इतना सीधा नहीं था न मेरे सवाल का जवाब. उस की पत्नी भी मेरा मुंह देखने लगी.

‘‘क्यों छोटी, क्या तुम भी हमारी गिनती ज्यादा करीबी रिश्तेदारों में नहीं करतीं? 6 साल बच्चे हमारे पास रहे. बीमार होते थे तो हम रातरात भर जागते थे. तब हम क्या दूर के रिश्तेदार थे? बच्चों की परीक्षा होती थी तो अजय की पत्नी अपनी नईनई गृहस्थी को अनदेखा कर अपने इन देवरों की सेवाटहल किया करती थी, वह भी क्या दूर की रिश्तेदार थी? वह बेचारी तो इन की शादी देखने की इच्छा ही संजोती रह गई और तुम ने कह दिया…’’

‘‘लेकिन मेरे बच्चे तो होस्टल में रहते थे. मैं ने कभी उन्हें आप पर बोझ नहीं बनने दिया.’’

‘‘अच्छा?’’

अवाक् रह गई शुभा अपनी देवरानी के शब्दों पर. भौचक्की सी. हिसाबकिताब तो बराबर ही था न उन के बहीखाते में. हमारे ममत्व और अनुराग का क्या मोल लगाते वे क्योंकि उस का तो कोई मोल था ही नहीं न उन की नजर में.  नरेनमहेन दोनों वहीं थे. हमारी बातें सुन कर सहसा अपने हाथ का काम छोड़ कर वे पास आ गए. ‘‘मैं ने कहा था न आप से…’’  नरेन ने टोका अपनी मां को. क्षण भर को सब थम गया. महेन ने दरवाजा बंद कर दिया था ताकि हमारी बातें बाहर न जाएं. नईनवेली दुलहनें सब न सुन पाएं.

‘‘कहा था न कि ताऊजीताईजी के बिना हम शादी नहीं करेंगे. हम ने सारे इंतजाम के लिए रुपए भी भेजे थे. लेकिन इन का एक ही जवाब था कि इन्हें तामझाम नहीं चाहिए. ऐसा भी क्या रूखापन. हमारा एक भी शौक आप लोगों ने पूरा नहीं किया. क्या करेंगे आप इतने रुपएपैसे का? गरीब से गरीब आदमी भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार बच्चों के चाव पूरे करते हैं. हमारी शादी इस तरह से कर दी कि पड़ोसी तक नहीं जानता इस घर में 2-2 बच्चों का ब्याह हो गया है…सादगी भी हद में अच्छी लगती है. ऐसी भी क्या सादगी कि पता ही न चले शादी हो रही है या किसी का दाहसंस्कार…’’

‘‘बस करो, नरेन.’’

‘‘ताऊजी, आप नहीं जानते…हमें कितनी शर्म आ रही थी, आप लोगों से.’’

‘‘शर्म आ रही थी तभी लंदन जाते हुए भी बताया नहीं और आ कर एक फोन भी नहीं किया. क्या सारे काम अपने बाप से पूछ कर करते हो, जो हम से बात करना भी मुश्किल था? तुम्हारी मां कह रही हैं तुम होस्टल में रहते थे. क्या सचमुच तुम होस्टल में रहते थे? वह लड़की तुम्हारी क्या लगती थी जो दिनरात भैयाभैया करती तुम्हारी सेवा करती थी…भाभी है या दूर की रिश्तेदार…तुम्हारा खून भी उतना ही सफेद है बेटे, बाप को दोष क्यों दे रहे हो?’’  मैं इतना सब कहना नहीं चाहता था फिर भी कह गया.

‘‘चलो छोड़ो, हमारी अटैची अंदर रख दो. कल शाम की वापसी है हमारी. जरा बच्चियों को बुलाना. कम से कम उन से तो मिल लूं. ऐसा न हो कि वे भी हमें दूर के रिश्तेदार ही समझती रहें.’’

चारों चुप रह गए. चुप न रह जाते तो क्या करते, जिस अधिकार की डोर पकड़ कर मैं उन्हें सुना रहा था उसी अधिकार की ओट में पूरे 6 साल हमारे स्नेह का पूरापूरा लाभ इन लोगों ने उठाया था. सवाल यह नहीं है कि हम बच्चों पर खर्चा करते रहे. खर्चा ही मुद्दा होता तो आज खर्चा कर के मैं बैंगलूरु से पानीपत कभी नहीं आता और पुत्रवधुओं के लिए महंगे उपहार भी नहीं लाता.  छोटेछोटे सोने के टौप्स और साडि़यां उन की गोद में रख कर शुभा ने दोनों बहनों का माथा चूम लिया.

‘‘बेटा, क्या पहचानती हो, हम लोग कौन हैं?’’ चुप थीं वे दोनों. पराए खून को अपना बनाने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती है. इस नई पीढ़ी को अपना बनाने और समझाने की कोशिश में ही तो मैं इतनी दूर चला आया था.

‘‘हम नरेनमहेन के ताईजी और ताऊजी हैं. हम ने एक ही संतान को जन्म दिया है लेकिन सदा अपने को 3 बच्चों की मां समझा है. तुम्हारा एक ससुराल यहां पानीपत में है तो दूसरा बैंगलूरु में भी है. हम तुम्हारे अपने हैं, बेटा. एक सासससुर यहां हैं तो दूसरे वहां भी हैं.’’  दोनों प्यारी सी बच्चियां हमारे सामने झुक गईं, तब सहसा गले से लगा कर दोनों को चूम लिया हम ने. पता चला ये दोनों बहनें भी एमबीए हैं और अच्छी कंपनियों में काम कर रही हैं.

‘‘बेटे, जिस कुशलता से आप अपना औफिस संभालती हो उसी कुशलता से अपने रिश्तों को भी मानसम्मान देना. जीवन में एक संतुलन सदा बनाए रखना. रुपया कमाना अति आवश्यक है लेकिन अपनी खुशियों के लिए उसे खर्च ही न किया तो कमाने का क्या फायदा… रिश्तेदारी में छोटीमोटी रस्में तामझाम नहीं होतीं बल्कि सुख देती हैं. आज किस के पास इतना समय है जो किसी से मिला जाए. बच्चों के पास अपने लिए ही समय नहीं है. फिर भी जब समय मिले और उचित अवसर आए तो खुशी को जीना अवश्य चाहिए.

‘‘लंदन में दोनों भाई सदा पासपास रहना. सुखदुख में साथसाथ रहना. एकदूसरे का सहारा बनना. सदा खुश रहना, बेटा, यही मेरा आशीर्वाद है. रिश्तों को सहेज कर रखना, बहुत बड़ी नेमत है यह हमारे जीवन के लिए.’’

शुभा और मैं देर तक उन से बातें  करते रहे. उन पर अपना स्नेह, अपना प्यार लुटाते रहे. मुझे क्या लेना था अपने भाई या उस की पत्नी से जिन्हें जीवन को जीना ही नहीं आया. मरने के बाद लाखों छोड़ भी जाएंगे तो क्या होगा जबकि जीतेजी वे मात्र कंगाली ओढ़े रहे.  भोज के बाद बच्चों ने हमें अपने कमरों में सुलाया. नरेनमहेन की बहुओं के साथ हम ने अच्छा समय बिताया. दूसरी शाम हमारी वापसी थी. बहुएं हमें स्टेशन तक छोड़ने आईं. घुलमिल गई थीं हम से.

‘‘ताऊजी, हम लंदन जाने से पहले भाभी व भैया से मिलने जरूर आएंगे. आप हमारा इंतजार कीजिएगा.’’

बच्चों के आश्वासन पर मन भीगभीग गया. इस उम्र में मुझे अब और क्या चाहिए. इतना ही बहुत है कि कभीकभार एकदूसरे का हालचाल पूछ कर इंसान आपस में जुड़ा रहे. रोटी तो सब को अपने घर पर खानी है. पता नहीं शब्दों की जरा सी डोर से भी मनुष्य कटने क्यों लगता है आज. शब्द ही तो हैं, मिल पाओ या न मिल पाओ, आ पाओ या न आ पाओ लेकिन होंठों से कहो तो सही. आखिर, इतनी कंजूसी भी किसलिए?

Best Story : सफेद जूते- बसंत ने नंदन को कैसे सही पाठ पढ़ाया?

Best Story :  ‘हा…हा…हा…इस का बाप नहीं है न, कौन लाएगा इस के लिए जूते?’ नंदन और संदीप के ठहाकों के शोर में बसंत की आह दब गई.  बसंत धीरेधीरे बरसात के धुले कंकड़ों की चुभन जसेतैसे सहता हुआ उन के पीछेपीछे चल रहा था.

‘काश, मेरे पिता जीवित होते,’ बसंत सोचने लगा.

‘बसंत भाई, तेरा वह जो पार्ट टाइम बाप है न, जूते ला कर नहीं देता, हा… हा…हा…’ उस के कंधे पर हाथ रख कर नंदन ने कहा.

‘उफ, यह बरसात क्यों इस तरह इन कंकड़ों को नुकीला बना जाती है,’ बसंत मन ही मन बुदबुदाया, ‘मैं इस पगडंडी में एक भी कंकड़ नहीं रहने दूंगा. मेरे घर के आंगन तक कोलतार वाली सड़क होगी. जब मैं कार से उतरूंगा तो कारपेट बिछी सीढि़यों पर चढ़ता हुआ सीधे अपने कमरे में घुस जाऊंगा. तब मेरे सफेद जूतों पर धूल भी नहीं लगेगी,’ एक जबरदस्त ठोकर लगी तो उस के अंगूठे का नाखून बिलकुल खड़ा हो गया. थोड़ी देर के लिए आंखें बंद हो गईं, चेहरा सिकुड़ गया. हाथ खड़े हुए नाखून पर लगा और एक झटके से उस ने नाखून उखाड़ कर दूर फेंक दिया. आंखें खुलीं तो वह अपने घर की टूटी सीढि़यों पर बैठा था.

देहरी पार करते ही देखा, जहांतहां रखे बरतनों में टपटप पानी टपक रहा था. मां गीली लकडि़यों को बारबार फूंक रही थीं.‘मां, आंखें लाल होने तक इन गीली लकडि़यों को क्यों सुलगाती रहती हो? ये नहीं जलेंगी,’’ बसंत झल्लाया.

तभी टप से एक बूंद चूल्हे में टपकी और राख भी गीली कर गई. मां फिर गीली लकडि़यों को सुलगाने लगीं.

‘‘रहने दो मां, ये गीली लकडि़यां नहीं जलेंगी,’’ वह फिर बोला.

‘‘बासी भात गरम कर दूंगी, बेटा,’’ मां चूल्हा फूंकते हुए बोलीं.

‘‘मैं ठंडा ही खा लूंगा, मां,’’ बसंत ने तश्तरी अपनी ओर खिसका ली.

मां टुकुरटुकुर बेटे को देखे जा रही थीं. ‘कितना सुख मिलता है बेटे को पास बैठा कर खिलाने में,’ वे सोचने लगीं.

अंधेरा घिरने लगा था. बसंत खिड़की के पास बैठा सोच रहा था, ‘काश, मेरे पिताजी भी जीवित होते, मैं सफेद जूते पहन कर स्कूल जाता, नंदन व संदीप के साथ खेलता…’

‘‘उदास क्यों बैठा है बेटा, आज पढ़ेगा नहीं क्या?’’

‘‘पढ़ंगा, मां,’’ बसंत ने 2 छिलगे (मशाल जलाने की लकड़ी) जला कर गीली लकडि़यां सुखाईं और छिलगों की रोशनी में पढ़ने लगा. परंतु उस का मन पढ़ने में नहीं लग रहा था. उस के पैरों के तलवों में जलन हो रही थी. वह एकाएक अपनी मां से सवाल कर बैठा, ‘‘वह ड्राइवर चाचा हमारे यहां क्यों आते हैं, मां?’’

‘‘हमारी देखभाल करने आते हैं, बेटा,’’ जवाब दे कर वे अपने काम में व्यस्त हो गईं.

थोड़ी देर तक बसंत अपनी मां की ओर ही ध्यान लगाए बैठा रहा. शायद उसे विस्तृत उत्तर की आशा थी. मां को व्यस्त देख कर वह पुस्तक के पन्नों को उलटपलट करने लगा, लेकिन उस का मन बिलकुल नहीं लग रहा था. मन में कई सवाल कुतूहल मचा रहे थे. नंदन की छींटाकशी उस के कानों में बज रही थी.

‘‘पिताजी को क्या हो गया था?’’ बसंत फिर सवाल कर बैठा.

‘‘तुझे आज क्या हो गया है, बेटा? तू यह सब क्यों पूछ रहा है?’’ मां बोलीं.

‘‘ऐसे ही, मुझे पता होना चाहिए न, मैं अब बड़ा हो गया हूं.’’

‘‘आया बहुत बड़ा…’’ मां उस के गाल पर थपकी देते हुए मुसकरा दीं.

‘‘बताओ न मां?’’

कुछ देर के लिए मौन छा गया और फिर अतीत के उस कभी न भर सकने वाले घाव से टीस सी उठने लगी…  ‘‘बरसात के दिन थे. शाम के वक्त बाहर जोरों से पानी बरस रहा था. नदीनाले सभी उफन रहे थे. मैं इसी खिड़की के पास खड़ी घबरा रही थी. तुम्हारे पिता मवेशियों को लेने गए हुए थे. मुझे उन पर पूरा भरोसा था. फिर भी न जाने क्यों जी घबरा रहा था. बारिश कम हुई तो मैं भी बोरी सिर पर ओढ़ कर निकल पड़ी.  ‘‘अभी नालों का उफान कम नहीं हुआ था. मैं नाले के इस ओर से तुम्हारे पिता को इशारों से बता रही थी कि अभी पानी तेज बह रहा है. थोड़ी देर वहीं रुके रहो, लेकिन वे फिर भी मवेशियों को नाला पार कराने की कोशिश कर रहे थे. एक बैल बहुत ताकतवर था. किसी तरह वे उस की पूंछ पकड़ कर आधे नाले तक पहुंच गए. बैल का केवल सिर ही पानी से बाहर था. वह आगे बढ़ना नहीं चाह रहा था, लेकिन तुम्हारे पिता उस की पूंछ पकड़ कर आगे धकेले जा रहे थे. वह पीछे की ओर बढ़ने लगा तो उन्होंने छाता आगे की ओर झटका. बैल ने बिदक कर छलांग मार दी और पानी में लुप्त हो गया. तुम्हारे पिता उस के पीछे ही थे. बस फिर मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा गया और मैं जमीन पर बैठ गई. थोड़ी देर बाद उन का छाता दूर पानी की हिलोरों के साथ दिखाई दिया और…’’ यह सब बताते हुए मां एकाएक रोआंसी हो गई थीं.

‘‘मां की गोद में सिर टिकाए बसंत की नजरें अतीत में खोई मां की आंसू भरी आंखों को निहार रही थीं. वह एक हाथ से पैरों के तलवों को खुजला रहा था. मां ने पल्लू से आंसू पोंछे और बेटे के सिर पर हाथ फेरने लगीं. कुछ देर के लिए मौन छा गया. बसंत को तलवे खुजलाते देख उन की नजरें बेटे के पैरों पर पड़ीं, ‘‘ओह, यह क्या हुआ, बेटा?’’

‘‘कुछ नहीं मां. जूते नहीं हैं न, बरसात में पैर मसक गए हैं.’’

‘‘जूते ला दूंगी, बेटा,’’ उन्होंने एक असहाय सा आश्वासन अपने बेटे को दे दिया.

‘‘कब ला दोगी, मां?’’ बसंत के माथे पर सलवटें आ गईं.

‘‘बेटा, अब सड़क का काम शुरू हो गया है न, तेरे ड्राइवर चाचा ने कंकड़ तोड़ने का काम दिला दिया है. पैसे मिलेंगे तब ला दूंगी,’’ बेटे के सिर पर थपकियां देदे कर वे अपनेआप को तसल्ली दे रही थीं.

‘‘तब तक तो बरसात खत्म ही हो जाएगी, मां.’’

‘‘बेटा, सर्दियां आ जाएंगी न, उन दिनों स्कूल जाने में पैरों में ठंड लगेगी, इसलिए जूते चाहिए. आजकल तो गरमी है, क्या जरूरत है जूतों की? चल, सो जा, बहुत रात हो गई है.’’

बिस्तर में करवटें लेते हुए उस का कभी मां की असहाय अवस्था के साथ समझौता करने का मन करता तो कभी नंदन व संदीप की ठिठोली पर विद्रोह करने का. वह करवटें बदलते हुए कुछ न कुछ निर्णय करने पर तत्पर था.

‘‘उठो बसंत, सुबह हो गई. स्कूल जाना है कि नहीं?’’ मां घर का काम निबटाते हुए बोले जा रही थीं.  वह उठ कर बैठ गया, उस की उनींदी आंखें भारी हो रही थीं.

‘‘आज मैं स्कूल नहीं जाऊंगा, मां,’’ वह जम्हाई लेते हुए बोला.

‘‘क्यों बेटा, क्या तबीयत ठीक नहीं?’’

‘‘तबीयत तो ठीक है मां, लेकिन मेरा मन नहीं कर रहा है.’’

‘‘ठीक है बेटा, जैसी तेरी इच्छा,’’ मां बसंत को नाश्ता दे कर खेतों की ओर चल दीं.  खेतों से लौट कर आईं तो चूल्हे के पास हुक्के से दबा हुआ एक कागज मिला, जिस में लिखा था :

‘‘मां,

मैं अब बड़ा हो गया हूं. तुम्हारा दुख देखा नहीं जाता. मैं नौकरी करूंगा. मैं नौकरी ढूंढ़ने जा रहा हूं्. मां, मेरी चिंता मत करना. हां, मैं ड्राइवर चाचा से 40 रुपए ले कर जा रहा हूं, घर आ कर लौटा दूंगा. मैं जल्दी लौट आऊंगा. मां, अपना खयाल रखना.
-तुम्हारा बेटा,
बसंत.’’

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मां परेशान हो गईं. 1 महीना बीतने पर भी बसंत की कोई खबर न आई. फिर करीब डेढ़ महीने बाद डाकिए को अपने घर की ओर आता देख कर हाथ का काम छोड़ कर वे आगे बढ़ीं, ‘‘किस की चिट्ठी है, मेरे बसंत की? पढ़ तो…क्या लिखा है?’’

‘‘चाची, पहले मुंह मीठा करवाओ,’’ डाकिया मुसकराते हुए बोला.

‘‘कराऊंगी, जरूर कराऊंगी, पहले चिट्ठी तो पढ़,’’ गीले हाथ पोंछती हुई वे बोलीं.

‘‘चिट्ठी ही नहीं चाची, मनीऔर्डर भी आया है,’’ डाकिया ऊंचे स्वर में बोला.

‘‘मनीऔर्डर?’’ उस के पांव जैसे जमीन पर ही नहीं थे.

बसंत ने 400 रुपए भेजे थे और लिखा था, ‘‘मां, प्रणाम. अपने पहले वेतन में से 400 रुपए भेज रहा हूं. मैं एक दफ्तर में चपरासी बन गया हूं. मुझे बहुत अच्छे साहब मिले हैं. शाम को स्कूल भी जाता हूं. मेरी चिंता मत करना, मैं जल्दी घर आऊंगा.
-बसंत.’’

साल दर साल बीतते गए. मां पास- पड़ोस, रिश्तेदारी में बसंत के मनीऔर्डर की ही बातें बताती रहतीं. वे बसंत की चिट्ठियां गले लगाए रखतीं और सोचती रहतीं, ‘मेरा बसंत घर आएगा तो कितना खुश होगा. गांव में मोटर आ गई, घर की छत भी पक्की बना दी, बिजली लग गई,’ और वे मन ही मन मुसकराती रहतीं.  बसंत 3 साल बाद 1 महीने की छुट्टी बिता कर के शहर जाने की तैयारी कर रहा था. रात भर बरसात होती रही थी.

‘‘मां, सामान उठाने के लिए किस से बोला था, अभी तक आया नहीं?’’ खीजते हुए वह बोला.

‘‘नंदन आता ही होगा बेटा, अभी तो समय है,’’ मां रसोई में खटरपटर करती हुई बोलीं.

‘‘नंदन…कौन नंदन?’’

‘‘अरे, भूल गया? शिकायत तो उस की खूब करता था, बचपन में,’’ मुसकराती हुई वे बोलीं.

‘हां, संदीप, कल्याण, अरुण, पंकज सभी तो मिले थे. बस, एक नंदन ही नहीं मिला. मैं भी कैसा पागल हूं, किसी से पूछा भी नहीं उस के बारे में,’ वह मन ही मन सोचता रहा.

‘‘बड़ी देर कर दी, नंदन बेटा…’’ अचानक कमरे से मां की आवाज सुनाई दी.

‘‘देर हो गई चाची, रात बहुत बारिश हुई न, घर में पानी घुस गया था. बस, इसी से देर हो गई,’’ वह सामान की ओर देखते हुए बोला.

‘‘अरे, नंदन भैया, तुम तो दिखाई ही नहीं दिए, कहां रहे? ठीक तो हो?’’ बसंत उस से गले मिलते हुए बोला.

‘‘ठीक हूं भैया, घरगृहस्थी का जंजाल जो ठहरा, कहीं आनाजाना ही नहीं होता… तुम सुनाओ, कैसे हो?’’

‘‘बस देख ही रहे हो…जा रहा हूं आज.’’

‘‘नंदन बेटा, नाश्ता कर ले, बातें रास्ते में करते रहना. समय हो रहा है, गाड़ी निकल न जाए,’’ मां बोलीं.

‘‘चाची, मैं पहले बसंत भैया को छोड़ कर आता हूं, फिर वापस आ कर नाश्ता कर लूंगा.’’

नंदन सामान उठाए आंगन में बसंत का इंतजार कर रहा था. बसंत ने देखा कि नंदन नंगे पांव है. उसे अपना बचपन याद आने लगा और वह कई वर्ष पीछे चला गया.

‘‘चलो बसंत भैया, समय हो रहा है,’’ नंदन की आवाज से उस की तंद्रा टूटी.

‘‘नहीं, नंदन भैया, बरसाती कंकड़ बहुत नुकीले होते हैं…यह बैग जरा मुझे देना,’’ बसंत गंभीरता से बोला. उस ने बैग से अपने सफेद जूते निकाले और नंदन को पहना दिए.  नंदन बस अड्डे पहुंच कर जूते उतारने लगा तो बसंत ने उस का हाथ रोक दिया, ‘‘नहीं, नंदन भैया, मैं ने उतारने के लिए नहीं दिए हैं, पहने रहो. मेरे पास दूसरी जोड़ी है.’’

नंदन उसे एकटक देखते हुए अतीत में खो गया, ‘इस का बाप नहीं है न, कौन लाएगा इस के लिए जूते…हा…हा…हा…’ उस के कानों में बहुत दूर से गूंज सी सुनाई दी.  बस धीरेधीरे आगे बढ़ने लगी और धूल उड़ाती हुई आंखों से ओझल हो गई. नंदन सफेद जूते पहने खड़ा हुआ शर्म महसूस कर रहा था. जूते उतार कर उस ने बगल में दबाए और घर की ओर चल दिया.

Hindi Kahani 2025 : एक सवाल

Hindi Kahani 2025 : ‘‘आकाश तुम अपनी सेहत का बिलकुल खयाल नहीं रखते हो. शादी के 10 साल बाद भी रिंकू मिंकू से ज्यादा मुझे तुम्हारा खयाल रखना पड़ता है,’’ जल्दीजल्दी टिफिन तैयार करती कोमल बोले जा रही थी और आकाश फोन आने पर बदहवास सा भागने लगा.

‘‘उफ, टिफिन तो लेते जाओ,’’ कहते हुए हाथों में टिफिन पकड़े कोमल उस के पीछे लगभग दौड़ ही पड़ी.

टिफिन लेते ही आकाश की गाड़ी धुआं उड़ाती चली गई.

कोमल को अब जा कर फुरसत से चाय पीने का मौका मिला. शादी के 5 साल तक उन के कोई संतान नहीं थी. तब सुबह की चाय कोमल और आकाश हमेशा साथ पीते थे. पड़ोस में रहने वाली शीला मौसी का जिक्र छिड़ते हुए कोमल उदास हो कर जब कभी बताती कि पता है आकाश, शीला मौसी के दोनों बेटे विदेश में बस गए हैं, पर वे अकेली रहते हुए भी शान से कहती हैं कि साथ नहीं रह सकते तो क्या हुआ. कुदरत ने उन्हें 2-2 बेटे तो दिए. यह बतातेबताते जब कोमल लगभग रोआंसी सी हो जाती. तब आकाश प्यार से उस का हाथ थाम कर कहता, ‘‘डाक्टर ने कहा है न कि जल्द ही हमारे घर भी प्यारा सा बच्चा आ जाएगा. तुम बिलकुल परेशान न हो.’’

यह सुन कोमल शीघ्र ही सहज हो जाती. आकाश का अपनत्वपूर्ण स्पर्श उसे एक नए आत्मविश्वास से भर देता.

कोमल की पड़ोसिन दिव्या रेडियो आर जे की नौकरी करती थी. उस की नन्ही बेटी मिन्नी कोमल को बड़ी प्यारी लगती. एक दिन कोमल दोपहर को बालकनी में खड़ी थी. दिव्या के घर पर नजर पड़ी तो देखा नन्ही मिन्नी अपना स्कूल बैग लिए दरवाजे के बाहर बैठी है. कोमल का दिल ममता से भर आया. अत: मिन्नी को घर बुला कर कुछ स्नैक्स खाने को दिए. फिर दिव्या को फोन किया तो पता चला कि अचानक किसी मीटिंग की वजह से उसे आज आने में देर हो जाएगी. तब कोमल ने उसे मिन्नी का ध्यान रखने का आश्वासन दिया.

दिव्या जब औफिस से आई तो अपनी बेटी का ध्यान रखने के लिए कोमल का आभार व्यक्त किया.

‘‘आगे से तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है. दोबारा कभी ऐसा हुआ तो मैं खुशी से मिन्नी को अपने पास बुला लूंगी.’’

कोमल के यह कहने पर दिव्या बोली, ‘‘धन्यवाद कोमल, लेकिन अब आगे से ऐसा कभी नहीं होगा, क्योंकि मैं ने एक प्ले स्कूल में बात कर ली है. अपने स्कूल से मिन्नी सीधे वहां पहुंच जाया करेगी. फिर शाम को औफिस से लौटते हुए मैं उसे ले आया करूंगी.’’

‘‘तो तुम्हें मिन्नी का मेरे साथ रहना पसंद नहीं,’’ कोमल उदास होते हुए बोली तो दिव्या प्यार से उस के कंधे पर हाथ रखती हुई बोली, ‘‘ऐसा बिलकुल नहीं है कोमल. तुम जब चाहो मिन्नी को अपने साथ ले जा सकती हो. लेकिन मेरा मानना है कि अपनी जरूरतों के लिए हमें स्वयं जिम्मेदारी लेनी चाहिए. मेरे पति के 3-3 फार्महाउस हैं. उन का ज्यादातर समय उन की देखरेख में ही बीत जाता है. मैं चाहूं तो नौकरी छोड़ कर आराम से घर पर रह सकती हूं, लेकिन मैं आत्मनिर्भर बनना चाहती हूं. अपनी कमाई का जो सुख होता है मैं उसे खोना नहीं चाहती.’’

कोमल दिव्या की बातों से बड़ी प्रभावित हुई. उस के मन में भी अपनी कमाई का सुख पाने की इच्छा बलवती होने लगी. फिर उसे जल्द ही इस का मौका भी मिल गया.

दिव्या के औफिस में कोई सहकर्मी अचानक बीमार पड़ गई. दिव्या ने कोमल को अस्थाई तौर पर अपने औफिस में काम करने का प्रस्ताव दिया तो कोमल ने तुरंत स्वीकार लिया.

आत्मविश्वास से भरी कोमल की आवाज से दिव्या के बौस प्रभावित हुए. कुछ ही दिनों में कोमल की आवाज रेडियो पर लोकप्रिय होने लगी. कोमल को जल्द ही स्थाई तौर पर काम करने का प्रस्ताव मिला. वह बेहद खुश थी. आकाश से उसे प्रोत्साहन मिला तो वह रेडियो की दुनिया में अपनी पहचान बनाती चली गई. इसी बीच कोमल की खुशी का तब ठिकाना न रहा जब उसे पता चला कि वह मां बनने वाली है.

कोमल ने अपने परिवार को प्राथमिकता दी. जब उसे पता चला कि उसे जुड़वां बच्चे पैदा होने वाले हैं, तो विनम्रता के साथ अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया. वक्त के साथ 2 नन्हे राजकुमार उस के जीवन में आए, तो वह निहाल हो उठी.

2-2 बच्चों की एकसाथ देखभाल से कोमल थक कर चूर हो जाती. लेकिन आकाश बच्चों की देखभाल में उस की मदद करने के बजाय अपना ज्यादातर समय औफिस को देता था. वह जब कभी आकाश को अपने बच्चों की किलकारियां सुनाने की कोशिश करती, आकाश उसे उतना ही दूर भागता महसूस होता. वह जितना ज्यादा आकाश के करीब जाना चाहती आकाश उस से उतना ही दूर जाता रहा. वह समझ नहीं पाती कि जुड़वां बच्चे पैदा कर के आखिर उस ने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया कि आकाश उसे अपने से दूर करना चाहता है.

धीरेधीरे कोमल समझने लगी कि आकाश को अब उस का स्पर्श पसंद नहीं आता. अब आकाश जबतब औफिस के दौरे पर रहने लगा. अपने दोनों बच्चों की परवरिश की पूरी जिम्मेदारी कोमल के कंधों पर आ पड़ी. कुछ ही दिन पहले तो उस ने अपने बच्चों का चौथा जन्मदिन मनाया था. आकाश उस दिन भी मेहमानों की तरह आखिर में आया था.

उस दिन कोमल ने कुछ लोगों को आकाश के बारे में कुछ कानाफूसी करते सुना. मगर उस ने लोगों की बातों पर ध्यान नहीं दिया. लेकिन कुछ दिनों बाद एक ऐसी घटना घटी कि उस ने कोमल का नजरिया ही बदल दिया.

हुआ यह कि एक दिन अचानक दिव्या उस के लिए एक इन्विटेशन कार्ड ले कर आई. रेडियो स्टेशन के लोग पूर्व कर्मचारियों के लिए एक पार्टी रख रहे थे, जिस में कोमल भी आमंत्रित थी. आकाश औफिस के दौरे पर गया हुआ था. बच्चों को प्ले स्कूल में छोड़ कर कोमल अतिथि होटल में पार्टी में शामिल होने गई. वहां उस ने आकाश को एक लड़की के साथ जाते देखा, तो हैरान हो आकाश के पीछे भागी. उन दोनों ने रूम नं. 512 में जा कर कमरा बंद कर लिया. उस ने होटल की रिसैप्शनिस्ट से कह कर रजिस्टर में देखा तो रूम नं. 512 के आगे ‘मिस्टर ऐंड मिसेज आकाश’ लिखा नाम उसे मुंह चिढ़ा रहा था. कोमल को तो जैसे काटो तो खून नहीं.

इसी बीच दिव्या उसे ढूंढ़ती हुई वहां आ कर उसे पार्टी में ले गई.

दिव्या के पुराने बौस कह रहे थे, ‘‘कोमल, तुम्हारी आवाज को लोग आज भी याद करते हैं. तुम जब चाहो वापस आ सकती हो. यू आर मोस्ट वैलकम.’’

कोमल अन्यमनस्क सी वहां बैठी थी. जैसेतैसे पार्टी से निकल कर वह घर पहुंची. घर पहुंचते ही वह फूटफूट कर रो पड़ी. उसे पलपल छले जाने का एहसास कचोटने लगा. आज पहली बार उसे अपने नारी होने पर दुख हुआ. उस ने आकाश को फोन किया पर उस का फोन बंद मिला.

आकाश अगले दिन आया. कोमल ने उस से दौरे के बारे पूछताछ की तो वह हड़बड़ा गया. कोमल ने अतिथि होटल का नाम लिया तो आकाश गुस्से में कोमल को भलाबुरा कहता हुआ घर से बाहर चला गया.

कोमल को अब समझ में आने लगा कि क्यों आकाश उस से दूर रहना चाहता है. उसे लगता था कि पिता बनने का जो गौरव वह आकाश को दे रही है उस के बाद आकाश उसे पलकों पर बैठा कर रखेगा, लेकिन आकाश ने तो उसे अपनी जिंदगी से ही निकला फेंका. उस ने आकाश से बात करने की कोशिश की, लेकिन आकाश उस की कोई बात सुनने को तैयार ही न हुआ. कोमल ने बहुत मिन्नतें कीं, अपने बच्चों की दुहाई भी दी, लड़ाईझगड़ा भी किया, लेकिन आकाश पर कोई असर न हुआ. उस ने दोटूक जवाब दिया कि वह उसे और बच्चों के खर्च देता रहेगा, लेकिन निजी जीवन में वह क्या करता है, इस से उसे मतलब नहीं होना चाहिए.

कोमल ने मायके वापस जाने की सोची, लेकिन फिर सोचने लगी कि जब उस के मासूम बच्चों पर दुनिया की जबानें तलवार की तरह बरसेंगी तो वह किसकिस का मुंह बंद करती फिरेगी. वह उदासी में डूब गई. अब दिनरात सोच में डूबी रहती. अपनेआप को इतना ज्यादा अपमानित उस ने कभी महसूस नहीं किया था.

अचानक कोमल को अपने बौस का ‘यू आर मोस्ट वैलकम’ कहा वाक्य याद आया तो वह उठ खड़ी हुई. उस ने फोन कर के फिर से औफिस आने की बौस से इजाजत मांगी, तो जवाब में यही सुनने को मिला कि ‘यू आर मोस्ट वैलकम.’

कोमल अपमान की दुनिया से निकलना चाहती थी. वह अपनी जिंदगी के फटतेबिखरते पन्नों को समेट रही थी.

दिल के किसी कोने में आज भी कोमल को यह उम्मीद है कि शायद कभी आकाश को अपनी गलती का एहसास होगा. लेकिन एक सवाल यह भी है कि क्या वह उसे माफ कर पाएगी?

Best Short Story : बिना कुछ कहे

Best Short Story : दिसंबर की वह शायद सब से सर्द रात थी, लेकिन कुछ था जो मुझे अंदर तक जला रहा था और उस तपस के आगे यह सर्द मौसम भी जीत नहीं पा रहा था.

मैं इतना गुस्सा आज से पहले स्नेहा पर कभी नहीं हुआ था, लेकिन उस के ये शब्द, ‘पुनीत, हमारे रास्ते अलगअलग हैं, जो कभी एक नहीं हो सकते,’ अभी भी मेरे कानों में गूंज रहे थे. इन शब्दों की ध्वनि अब भी मेरे कानों में बारबार गूंज रही थी, जो मुझे अंदर तक झिंझोड़ रही थी.

जो कुछ भी हुआ और जो कुछ हो रहा था, अगर इन सब में से मैं कुछ बदल सकता तो सब से पहले उस शाम को बदल देता, जिस शाम आरती का वह फोन आया था.

आरती मेरा पहला प्यार थी. मेरी कालेज लाइफ का प्यार. कोई अलग कहानी नहीं थी, मेरी और उस की. हम दोनों कालेज की फ्रैशर पार्टी में मिले और ऐसे मिले कि परफैक्ट कपल के रूप में कालेज में मशहूर हो गए.

मैं आरती को बहुत प्यार करता था. हमारे प्यार को पूरे 5 साल हो चुके थे, लेकिन अब कुछ ऐसा था, जो मुझे आरती से दूर कर रहा था. मेरी और आरती की नौकरी लग चुकी थी, लेकिन अलगअलग जगह हम दोनों जल्दी ही शादी करने के लिए भी तैयार हो चुके थे. आरती के पापा के दोस्त का बेटा विहान भी आरती की कंपनी में ही काम करता था. वह हाल ही में कनाडा से यहां आया था. मैं उसे बिलकुल पसंद नहीं करता था और उस की नजरें भी साफ बताती थीं कि कुछ ऐसी ही सोच उस की भी मेरे प्रति है.

‘‘देखो आरती, मुझे तुम्हारे पापा के दोस्त का बेटा विहान अच्छा नहीं लगता,‘‘ मैं ने एक दिन आरती को साफसाफ कह दिया.

‘‘तुम्हें वह पसंद क्यों नहीं है?‘‘ आरती ने मुझ से पूछा.

‘‘उस में पसंद करने लायक भी तो कुछ खास नहीं है आरती,‘‘ मैं ने सीधीसपाट बात कह दी.

‘तो तुम्हें उसे पसंद कर के क्या करना है,‘‘ यह कह कर आरती हंस दी.

मेरे मना करने का उस पर खास फर्क नहीं पड़ा, तभी तो एक दिन वह मुझे बिना बताए विहान के साथ फिल्म देखने चली गई और यह बात मुझे उस की बहन से पता चली.

मुझे छोटीछोटी बातों पर बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता है, शायद इसीलिए उस ने यह बात मुझ से छिपाई. उस दिन मेरी और उस की बहुत लड़ाई हुई थी और मैं ने गुस्से में आ कर उस को साफसाफ कह दिया था कि तुम्हें मेरे और अपने उस दोस्त में से किसी एक को चुनना होगा.

‘‘पुनीत, अभी तो हमारी शादी भी नहीं हुई है और तुम ने अभी से मुझ पर अपना हुक्म चलाना शुरू कर दिया है. मैं कोई पुराने जमाने की लड़की नहीं हूं, कि तुम कुछ भी कहोगे और मैं मान लूंगी. मेरी भी खुद की अपनी लाइफ है और खुद के अपने दोस्त, जिन्हें मैं तुम्हारी मरजी से नहीं बदलूंगी.‘‘

सीधे तौर पर न सही, लेकिन कहीं न कहीं उस ने मेरे और विहान में से विहान की तरफदारी कर मुझे एहसास करा दिया कि वह उस से अपनी दोस्ती बनाए रखेगी.

आरती और मैं हमउम्र थे. उस का और मेरा व्यवहार भी बिलकुल एकजैसा था. मुझे लगा कि अगले दिन आरती खुद फोन कर के माफी मांगेगी और जो हुआ उस को भूल जाने को कहेगी, लेकिन मैं गलत था, आरती की उस दिन के बाद से विहान से नजदीकियां और बढ़ गईं.

मैं ने भी अपनी ईगो को आगे रखते हुए कभी उस से बात करने की कोशिश ही नहीं की और उस ने भी बिलकुल ऐसा ही किया. उस को लगता था कि मैं टिपिकल मर्दों की तरह उस पर अपना फैसला थोप रहा हूं, लेकिन मैं उस के लिए अच्छा सोचता था और मैं नहीं चाहता था कि जो लोग अच्छे नहीं हैं, वे उस के साथ रहें. एक दिन उस की सहेली ने बताया कि उस ने साफ कह दिया है कि जो इंसान उस को समझ नहीं सकता, उस की भावनाओं की कद्र नहीं कर सकता, वह उस के साथ अपना जीवन नहीं बिता सकती.

आरती और मेरे रास्ते अब अलगअलग हो चुके थे. मैं उसे कुछ समझाना नहीं चाहता था और वह भी कुछ समझना नहीं चाहती थी.

मुझे बस हमेशा यह उम्मीद रहती थी कि अब उस का फोन आएगा और एक माफी से सबकुछ पहले जैसा हो जाएगा, लेकिन शायद कुछ चीजें बनने के लिए बिगड़ती हैं और कुछ बिगड़ने के लिए बनती हैं.

हमारी कहानी तो शायद बिगड़ने के लिए ही बनी थी. 5 साल का प्यार और साथ सबकुछ खत्म सा हो गया था.

मेरे घर में अब मेरे रिश्ते की बात चलने लगी थी, लेकिन किसी और लड़की से. मां मुझे रोज नएनए रिश्तों के बारे में बताती थीं, लेकिन मैं हर बार कोई न कोई बहाना या कमी निकाल कर मना कर देता था.

मुझे भीड़ में भी अकेलापन महसूस होता था. सब से ज्यादा तकलीफ जीवन के वे पल देते हैं, जो एक समय सब से ज्यादा खूबसूरत होते हैं. वे जितने मीठे पल होते हैं, उन की यादें भी उतनी ही कड़वी होती हैं.

धीरेधीरे वक्त बीतता गया. मेरे साथ आज भी बस, आरती की यादें थीं. मुझे क्या पता था आज मैं किसी से मिलने वाला हूं. आज मैं स्नेहा से मिला. हम दोनों की मुलाकात मेरे दोस्त की शादी में हुई थी.

स्नेहा आरती की चचेरी बहन थी. साधारण नैननक्श वाली स्नेहा शादी में बिना किसी की परवा किए, सब से ज्यादा डांस कर रही थी. 21-22 साल की वह लड़की हरकतों से एकदम 10-12 साल की बच्ची लग रही थी.

‘‘बेटा, तुम्हारी गाड़ी में जगह है?‘‘ मेरे जिस दोस्त की शादी थी, उस की मम्मी ने आ कर मुझ से पूछा.

‘‘हां आंटी, क्यों?‘‘ मैं ने पूछा.

‘‘तो ठीक है, कुछ लड़कियों को तुम अपनी गाड़ी में ले जाना. दरअसल, बस में बहुत लोग हो गए हैं. तुम घर के हो तो तुम से पूछना ठीक समझा.‘‘

सजीधजी 3 लड़कियां मेरी कार में पीछे की सीट पर आ कर बैठ गईं. एक मेरे बराबर वाली सीट पर आ कर बैठ गई.

मेरे यह कहने से पहले कि सीट बैल्ट बांध लो, उस ने बड़ी फुर्ती से बैल्ट बांध ली. वे सब अपनी बातों में मशगूल हो गईं.

मुझे ऐसा एहसास हो रहा था जैसे मैं इस कार का ड्राइवर हूं, जिस से बात करने में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं थी.

तभी स्नेहा ने मुझ से पूछा, ‘‘आप रजत या के दोस्त हैं न.‘‘

‘‘जी,‘‘ मैं ने बस, इतना ही उत्तर दिया.

न तो इस से ज्यादा हमारी कोई बात हुई और  ही मुझे कोई दिलचस्पी थी.

आजकल के हाईटैक युग में जिस से आप आमनेसामने बात करने से हिचकें उस के लिए टैक्नोलौजी ने एक नया नुसखा कायम किया है, जो आज के समय में काफी कारगर है, और वह है चैटिंग. स्नेहा ने मुझे फेसबुक पर रिक्वैस्ट भेजी और मैं ने भी स्वीकार कर ली.

हम दोनों धीरेधीरे अच्छे दोस्त बन गए. बातोंबातों में उस ने मुझे बताया कि उसे अपने कालेज के सैमिनार में एक प्रोजैक्ट बनाना है. मैं ने कहा, ‘‘तो ठीक है, मैं तुम्हारी मदद कर देता हूं.‘‘

इतने सालों बाद मैं ने उस के लिए दोबारा पढ़ाई की थी उस का प्रोजैक्ट बनवाने के लिए. कभी वह मेरे घर आ जाया करती थी तो कभी मैं उस के घर चला जाता. दरअसल, वह अपने कालेज की पढ़ाई की वजह से रजत के घर ही रहती थी. जब भी वह प्रोजैक्ट बनवाने के लिए आती तो बस, बोलती ही जाती थी. मेरे से बिलकुल अलग थी, वह.

एक दिन बातोंबातों में उस ने पूछा, ‘‘आप की कोई गर्लफ्रैंड नहीं है?‘‘

मैं उस को न कह कर बात वहीं पर खत्म भी कर सकता था, लेकिन मैं ने उस को अपने और आरती के बारे में सबकुछ सचसच बता दिया.

‘‘ओह,‘‘ स्नेहा ने दुख जताते हुए कहा, ‘‘मुझे सच में बहुत दुख हुआ यह सब सुन कर. क्या तब से आप दोनों की एक बार भी बात नहीं हुई?‘‘ स्नेहा ने पूछा.

मैं ने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘नहीं, और अब करनी भी नहीं है,‘‘ यह कह कर हम दोनों प्रोजैक्ट बनाने लग गए.

आज जब स्नेहा आई तो कुछ बदलीबदली सी लग रही थी. आते ही न तो उस ने जोर से आवाज लगा कर डराया और न ही हंसी.

मैं ने पूछा, ‘‘सब ठीक तो है न?‘‘

वह बोली, ‘‘कुछ बताना था आप को, आप मुझे बताना कि सही है या गलत.‘‘

हम अच्छे दोस्त बन गए थे. मैं ने उस से कहा, ‘‘हांहां जरूर, क्यों नहीं,‘‘ बोलो.

उस ने एक गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘मुझे किसी से प्यार हो गया है.‘‘

मैं ने कहा, ‘‘कौन है वह और क्या वह भी तुम से प्यार करता है?‘‘

उस ने कहा, ‘‘मालूम नहीं?‘‘

‘‘ओह, तुम्हारे ही कालेज में है क्या?‘‘ मैं ने पूछा.

‘‘नहीं,‘‘ उस ने बस छोटा सा जवाब दिया.

‘‘वह मेरा दोस्त है जो मुझ से 7 साल बड़ा है. उस की पहले एक गर्लफ्रैंड थी, लेकिन अब नहीं है. उस को गुस्सा भी बहुत जल्दी आता है.

‘‘वह मेरे बारे में क्या सोचता है, पता नहीं, लेकिन जब वह मेरी मदद करता है, तो मुझे बहुत अच्छा लगता है. उस का नाम…‘‘ यह कह कर वह रुक गई.

‘‘उस का नाम,‘‘ स्नेहा ने मेरी आंखों में देखते हुए कहा, ‘‘बहुत मजा आ रहा है न आप को. सबकुछ जानते हुए भी पूछ रहे हो और वैसे भी इतने बेवकूफ आप हो नहीं, जितने बनने की कोशिश कर रहे हो.‘‘

मैं बहुत तेज हंसने लगा.

उस ने कहा, ‘‘अब क्या फिल्मों की तरह प्रपोज करना पड़ेगा?‘‘

मैं ने कहा, ‘‘नहींनहीं, उस की कोई जरूरत नहीं है. यह जानते हुए भी कि मैं उम्र में तुम से 7 साल बड़ा हूं और मेरे जीवन में तुम से पहले कोई और थी, तब भी..‘‘

‘‘हां, और वैसे भी प्यार में उम्र, अतीत ये सबकुछ भी माने नहीं रखते.‘‘

मैं ने उस को गले लगा लिया और कहा, ‘‘हमेशा मुझे ऐसे ही प्यार करना.‘‘

वह खुश हो कर मेरी बांहों में आ गई. अब मेरे जीवन में भी कोई आ गया था जो मेरा बहुत खयाल रखता था. कहने को तो उम्र में मुझ से 7 साल छोटी थी, लेकिन मेरा खयाल वह मेरे से भी ज्यादा रखती थी. हम दोनों आपस में सारी बातें शेयर करते थे. अब मैं खुश रहने लगा था.

उस शाम मैं और स्नेहा साथ ही थे, जब मेरा फोन बजा. फोन पर दूसरी तरफ से एक बहुत धीमी लेकिन किसी के रोने की आवाज ने मुझे अंदर तक हिला दिया. वह कोई और नहीं बल्कि आरती थी.

वह आरती जिस को मैं अपना अतीत समझ कर भुला चुका था या फिर स्नेहा के प्यार के आगे उस को भूलने की कोशिश कर रहा था.

‘‘हैलो, कौन?‘‘

‘‘मैं आरती बोल रही हूं पुनीत,‘‘ आरती ने कहा.

‘‘आज इतने दिन बाद तुम्हारा फोन…‘‘ इस से आगे मैं और कुछ कहता, वह बोल पड़ी, ‘‘तुम ने तो मेरा हाल भी जानने की कोशिश नहीं की. क्या तुम्हारा अहंकार हमारे प्यार से बहुत ज्यादा बड़ा हो गया था?‘‘

‘‘तुम ने भी तो एक बार फोन नहीं किया, तुम्हें आजादी चाहिए थी. कर तो दिया था मैं ने तुम्हें आजाद. फिर अब क्या हुआ?‘‘

‘‘तुम यही चाहते थे न कि मैं तुम से माफी मांगू. लो, आज मैं तुम से माफी मांगती हूं. लौट आओ पुनीत, मेरे लिए. मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है.‘‘

मैं बस उस की बातों को सुने जा रहा था बिना कुछ कहे और स्नेहा उतनी ही बेचैनी से मुझे देखे जा रही थी.

‘‘मुझे तुम से मिलना है,‘‘ आरती ने कहा और बस, इतना कह कर आरती ने फोन काट दिया.

‘‘क्या हुआ, किस का फोन था?‘‘ स्नेहा ने फोन कट होते ही पूछा.

कुछ देर के लिए तो मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था. स्नेहा के दोबारा पूछने पर मैं ने धीमी आवाज में कहा, ‘‘आरती का फोन था.‘‘

‘‘ओह, तुम्हारी गर्लफ्रैंड का,‘‘ स्नेहा ने कहा.

मैं ने स्नेहा से अब तक कुछ छिपाया नहीं था और अब भी मैं उस से कुछ छिपाना नहीं चाहता था. मैं ने सबकुछ उस को सचसच बता दिया.

सारी बात सुनने के बाद स्नेहा ने कहा, ‘‘मुझे लगता है आप को एक बार आरती से जरूर मिलना चाहिए. आखिर पता तो करना चाहिए कि अब वह क्या चाहती है.‘‘

यह जानते हुए भी कि वह मेरा पहला प्यार थी. स्नेहा ने मुझे उस से मिल कर आने की इजाजत और सलाह दी.

अगले दिन मैं आरती से मिला और आरती ने मुझे देख कर कहा, ‘‘तुम बिलकुल नहीं बदले, अब भी ऐसे ही लग रहे हो जैसे कालेज में लगा करते थे.‘‘

‘‘आरती अब इन सब बातों का कोई मतलब नहीं है,‘‘ मैं ने जवाब दिया.

‘‘क्यों?‘‘ आरती ने पूछा, ‘‘कोई आ गई है क्या तुम्हारे जीवन में?‘‘

‘‘हां, और उस को सब पता है. उसी के कहने पर मैं यहां तुम से मिलने आया हूं.‘‘

‘‘क्या तुम उसे भी उतना ही प्यार करते हो जितना मुझे करते थे, क्या तुम उस को मेरी जगह दे पाओगे?‘‘

मैं शांत रहा. मैं ने धीरे से कहा, ‘‘हां, वह मुझे बहुत प्यार करती है.‘‘

‘‘ओह, तो इसलिए तुम मुझ से दूर जाना चाहते हो. मुझ से ज्यादा खूबसूरत है क्या वह?‘‘

‘‘आरती,‘‘ मैं गुस्से में वहां से उठ कर चल दिया. मुझे लग रहा था कि अब वह वापस क्यों आई? अब तो सब ठीक होने जा रहा था.

उस रात मुझे नींद नहीं आई. एक तरफ वह थी, जिस को कभी मैं ने बहुत प्यार किया था और दूसरी तरफ वह जो मुझ को बहुत प्यार करती थी.

अगली सुबह मैं स्नेहा के घर गया, तो वह कुछ उदास थी. उस ने मुझ से कहा, ‘‘मुझे लगता है कि हम एकदूसरे के लिए नहीं बने हैं और हमारे रास्ते अलग हैं,‘‘ यह कह कर वह चुपचाप ऊपर अपने कमरे में चली गई.

मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि इतना प्यार करने वाली लड़की इस तरह की बातें कैसे कर सकती है.

आरती का फोन आते ही मैं अपने खयालों से बाहर आया. मुझे स्नेहा पर बहुत गुस्सा आ रहा था.

‘‘आरती, इस समय मेरा बात करने का बिलकुल मन नहीं है. मैं तुम से बाद में बात करता हूं,‘‘ मेरे फोन रखने से पहले ही आरती बोली, ‘‘क्यों, क्या हुआ?‘‘

‘‘आरती, मैं स्नेहा को ले कर पहले से ही बहुत परेशान हूं,‘‘ मैं ने कहा.

‘‘वह अभी भी बच्ची है, शायद इन सब बातों का मतलब नहीं जानती, इसलिए कह दिया होगा.‘‘

उस के इतना कहते ही मैं ने फोन रख दिया और उसी समय स्नेहा के घर के लिए निकल गया.

मैं ने स्नेहा के घर के बाहर पहुंच कर स्नेहा से कहा, ‘‘सिर्फ एक बार मेरी खुशी के लिए बाहर आ जाओ,‘‘ स्नेहा ना नहीं कर पाई और मुझे पता था कि वह ना कर भी नहीं सकती, क्योंकि बात मेरी खुशी की जो थी.

स्नेहा की आंखों में आंसू थे. मैं ने स्नेहा को गले लगा लिया और कहा, ‘‘पगली, मेरे लिए इतना बड़ा बलिदान करने जा रही थी.‘‘

स्नेहा ने चौंक कर मेरी तरफ देखा.

‘‘तुम मुझ से झूठ बोलने की कोशिश भी नहीं कर सकती. अब यह तो बताओ कि आरती ने क्या कहा, तुम से मिल कर.‘‘

स्नेहा ने रोते हुए कहा, ‘‘आरती ने कहा कि अगर मैं तुम से प्यार करती हूं और तुम्हारी खुशी चाहती हूं तो…. मैं तुम से कभी न मिलूं, क्योंकि तुम्हारी खुशी उसी के साथ है,‘‘ यह कह कर स्नेहा फूटफूट कर रोने लगी.

मैं ने उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘ओह, मेरा बच्चा मेरे लिए इतना बड़ा बलिदान करना चाहता था. इतना प्यार करती हो तुम मुझ से.‘‘

उस ने एक छोटे बच्चे की तरह कहा,  ‘‘इस से भी ज्यादा.‘‘

मैं ने उस को हंसाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘कितना ज्यादा?‘‘

वह मुसकरा दी.

‘‘लेकिन तुम्हें कैसे पता चला कि वह मुझ से मिली? क्या उस ने तुम्हें बताया?‘‘

‘‘नहीं,‘‘ मैं ने कहा.

‘‘फिर,‘‘ स्नेहा ने पूछा.

मैं ने जोर से हंसते हुए कहा, ‘‘उस ने तुम्हें बच्ची बोला,‘‘ इसीलिए.

इतने में ही मेरा फोन दोबारा बजा, वह आरती का फोन था. मैं ने अपने फोन को काट कर मोबाइल स्विच औफ कर दिया और स्नेहा को गले लगा लिया. बिना कुछ कहे मेरा फैसला आरती तक पहुंच गया था.

Best Kahani : एक हसीं भूल…

Best Kahani : हर बार की तरह आज भी बड़ी बेसब्री के बाद ये त्योहार वाला दिन आया है. पूरा औफिस खाली है जैसे लगता हो कोई बड़ा सा गुल्लक, लेकिन उस में एक भी चिल्लर न हों.

आज मैं भी बहुत खुश हूं. आखिर पूरे 8 महीने बाद घर जा रहा हूं, जहां मां, पत्नी और अपने ससुराल से अगर दीदी आई होगी तो मेरा इंतजार कर रही होंगी.

सब से प्रमुख बात त्योहार भी दीवाली का ही है. हर तरफ रंगबिरंगी झालर कोई लाल, पीली, हरी, नीली सब अलग ही छटा बिखेरी हुई हैं. हलकी सी हवा में वे हिल कर अजब ही सौंदर्य का बोध कराती हैं और दुकानों पर रंगबिरंगे पटाखों की लड़ी लगी है. कोई छोटा, कोई बड़ा, कोई हलकी आवाज और कोई घर हिला देने वाला सुतली बम.

बच्चों का झुंड भूखे भेड़ के झुंड की तरह पटाखों पर टूट पड़ा है. अद्भुत दृश्य है और मन ही मन में आनंद की लहरें हृदय के सागर में गोता लगा रही हैं. इन सब को देख कर अपना बचपना किसी चलचित्र की तरह सामने चलने लगता है.

ये देखतेदेखते अपने क्वार्टर पर पहुंचा. भागदौड़ के साथ जल्दबाजी में एक बैग में कपड़े, चार्जर, लैपटौप वगैरह रख स्टेशन के लिए आटोरिकशा पकड़ने भागा.

आटो वाला मिला. मैं ने कहा, ‘‘चल भाई, झटपट स्टेशन पहुंचा दे.‘‘

आटो वाला अपने चिरपरिचित रफ्तार में आटो ले कर चलने लगा और हमेशा की तरह मुंबई की सब से तकलीफ ट्रैफिक जाम सुरसा राक्षसी की तरह रास्ते में मुहं फैलाए खड़ी थी.

आज ट्रैफिक जाम बिलकुल वैसे लग रहा है, जैसे किसी प्रेयसी को सावन की ठंडी बूंदें भी तपती ज्वाला की भांति प्रतीत होती हैं. हौलेहौले बढ़ता आटो मानो लग रहा है कि हर सेकंड में 24 घंटे का समय बिता दे.

ट्रैफिक खुला और आटो सरपट भागा. अपने गंतव्य को पा कर ही आटो रुका. मैं ने पैसे पहले ही निकाल कर रखे थे रोज के अनुमान से. मैं ने झट से उसे पैसे थमाए और अंदर की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए, तभी पीछे से आटो वाले की आवाज आई, ‘‘भाई बाकी पैसे ले लो.’’

मैं ने हाथ उठाते हुए कहा, ‘‘भैया दीवाली का शगुन समझ कर रख लो.‘‘

वह मुसकराया और वापस मुड़ गया.

मैं ने स्टेशन के अंदर प्रवेश किया और गाड़ी का पता किया, जो पूरे एक घंटे देरी से थी. चूंकि मेरी वातानुकूलित कंपार्टमैंट में सीट थी, तो कोई समस्या होने से रही.

स्टेशन पर ही बगल की दुकान से मैं ने एक मासिक पत्रिका ली और समय बिताने के लिए वेटिंग रूम में आराम से बैठ गया.

मैं ने पत्रिका खोली और नएनए मुद्दों पर लिखे लंबेचौड़े लेख पढ़ने लगा और बड़ी गूढ़ता से अपने विचारों में उसे आलोचित और समयोजित करने लगा.

खाली बैठने पर अकसर लोग यही करते हैं. वहां मुश्किल से 8 या 10 लोग होंगे और सब अपने फोन में व्यस्त दिख रहे थे. आजकल डिजिटलीकरण के दौर में उम्मीद भी यही की जा सकती है.

मैं डिजिटल मीडिया का प्रयोग कम ही करता हूं. मैं किताबों का बड़ा शौकीन हूं. बचपन से मुझे पढ़ना बहुत पसंद है और समय मिलते ही मैं कोई न कोई पत्रिका या किताब में खो जाता हूं और उसे समझने का प्रयास करता हूं.

मैं काफी देर से ही पत्रिका पढ़ रहा था, तभी मेरी नजर अचानक सामने वाले कौर्नर पर बैठी एक लड़की पर पड़ी. मैं उसे ही देखता रह गया. वह बेहद खूबसूरत थी, जिस की उम्र तकरीबन 25 साल रही होगी. कपूर माफिक गोरा बदन, मृगनयनी, सुंदर होंठ सुर्ख गुलाबी मूंगे जैसे चमक रहे थे. वह अपने फोन में व्यस्त थी. शायद वह कुछ देख रही थी या सुन रही हो, हैडफोन जो लगाया था उस ने.

गुलाबी टौप और नीली जींस उस ने पहनी हुई थी, जो उस के बदन की कसावट में खुद को कसे जा रहे थे. उस के यौवन गुलाबी पंखुड़ियों की भांति आकर्षणयुक्त थे.

मैं किताब से छुपछुप कर उसे देखता रहा, तभी अचानक रेलवे की सूचना ध्वनि ने मेरी तंद्रा तोड़ी. मेरी ट्रेन प्लेटफार्म पर आ गई थी और मैं अपनी सीट पर जा कर बैठ गया. अभी ट्रेन चलने में 15 मिनट बाकी थे. मैं ने उतर कर पानी की बोतल खरीदी और चढ़ने लगा. बोगी में तभी वह लड़की मेरी तरफ आती दिखी. मैं डब्बे में लगे हैंडल को पकड़े उसे निहारने लगा. वह मेरे एकदम करीब आ कर बोली, ‘‘हैलो, रास्ता देंगे आप ‘‘.

मैं अचानक खयालों की दुनिया से बाहर आया और उसे रास्ता दिया. वह मेरे ही कंपार्टमेंट में चढ़ गई और मेरे ही सीट के ठीक सामने वाली सीट पर बैठ गई. सच बताऊं, मैं तो मन ही मन बहुत खुश हुआ.

अब हमारे साथ सिर्फ रात और एक लंबा सा सफर था.

मैं भी अपनी सीट पर आ कर बैठ गया. थोड़ी देर बाद ट्रेन चल दी और मैं ने हिम्मत कर के उस का नाम पूछा. उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘प्रिया.‘‘

उस की मीठी आवाज ने मन को अजब ही सुकून दिया, फिर हमारी औपचारिक बात शुरू हो गई जैसे काम, छुट्टी, मुंबई की आदि. बातों ही बातों में पता चला कि वह यहां फैशन मौडलिंग की पढ़ाई और मौडलिंग दोनों करती है.

मैं ने उस से बोल दिया कि आप बेहद खूबसूरत हो. मन करता है, देखता रहूं.

यह सुन कर वह मुसकरा दी. हमारी बातें आगे बढ़ीं और मुझे ऐसा लग रहा था, वह भी मेरे करीब आ रही है. तभी खाने का और्डर लेने वाला आया और हम ने और्डर दिया.

अब मैं फिर उस से बातें करने लगा और धीरेधीरे हम मुंबई को पीछे छोड़ रहे थे, लेकिन एकदूसरे के करीब आ रहे थे. मैं घरपरिवार, अपनी सीमाओं को दिमाग में न याद आने वाले हिस्से में छोड़ कर पुराने समय में जब मैं कुंआरा था, वहां प्रवेश कर चुका था. उस से पता चला, वह मेरे शहर में उस की दीदी के यहां जा रही है. वह उन से 5 साल बाद मिल रही है, जो उन की बूआ की बेटी हैं.

धीरेधीरे हम दोनों में अच्छी बौंडिंग बन गई. हम ने खुल कर बातें करनी शुरू कर दीं और कई बार मैं ने उसे नौनवेज चुटकुले सुनाए, जिस पर उस ने कंटीली मुसकान दी.

मैं ने मौडलों के बारे में सुना था कि वे बड़ी तेज होती हैं और आज देख भी लिया.

उस ने यह भी बताया कि उस का एक बौयफ्रैंड था, जिस से उस का अब ब्रेकअप हो गया है, क्योंकि वह किसी और को भी डेट कर रहा था.

मैं ने उस से झूठ बोल दिया कि मैं तो सिंगल हूं.

उस की खूबसूरती में इतना डूबा था कि अपना अस्तित्व ही भूल गया था कि मेरा तो सबकुछ वह है, जो घर पर मेरा इंतजार कर रही है.

तभी अचानक बोगी के बाहर आवाज हुई. खाने वाला आया था. हम दोनों ने खाना खाया. उस के बाद हम ने सोने की तैयारी की और अपनीअपनी सीट पर लेटेलेटे हम दोनों बातों में फिर मशगूल हो गए.

बातोंबातों में कभीकभी मैं अपने हाथ पीठ पर छू देता था, लेकिन उस ने कभी बुरा नहीं माना. वह भी मेरे साथ कर रही थी.

धड़धड़ की आवाज से रेल अपने चरम गति में पटरियों को पीछे धकेल रही थी और बाहर कितने गांव, गली, शहर पीछे छूट जा रहे थे.

हम दोनों बाहरी दुनिया में बिलकुल अनभिज्ञ थे. बस अपनीअपनी दुनिया में व्यस्त थे. रात के 1 बज गए थे, लेकिन दिनभर के काम और भागदौड़ के बाद भी आंखों में नींद का अतापता नहीं था. उसे भी नींद नहीं आ रही थी. हम दोनों लेकिन करीब जरूर आ रहे थे.

लगभग एक घंटा और बीता होगा यानी आधी रात कट चुकी थी. रात पूरे शबाब पर थी और रेल की चाल भी.

वह अब अपनी सीट से उठ कर मेरी सीट पर थी. हम दोनों एकदूसरे के अंतर्मन में उतर रहे थे. जैसेजैसे रात बढ़ी हमारी दूरियों में कमी आई.

उस की सांसों की बढ़ती तेजी मेरी सांसों को पूरी तरह से स्पर्श कर रही थी. उस के जिस्म और यौवन का प्रवाह मुझ पर अपनी पूरी ताकत से अधिकार और वार कर रहा था, जैसे समुद्र के किनारे बैठे किसी शख्स को उस की तेज लहरें नहला कर चली जाती हैं. लेकिन वह भीग कर आनंद की प्राप्ति करता है, ठीक वैसे ही मैं भी हर पल आनंद में डूब रहा था. मेरे मन में यही था कि ये वक्त यहीं पर ठहर जाए.

उस के साथ हो रही प्रेम हवन में दोनों के जिस्म अपनीअपनी आहूति पूरे मन से दे रहे थे. न वक्त की परवाह और न ही जगह, न ही सफर. बस अजीब सी मंजिल की तलाश में दो यात्री चल रहे थे.

हम दोनों एकदूसरे में उतर गए थे और अब दोनों के चेहरे पर अलग मुसकान थी. उस ने प्यार से मेरे गालों पर चूमा और फिर मेरे सीने पर सिर रख कर किसी बच्चे की भांति सोने लगी.

मैं भी उस के सिर पर हाथ फेरने लगा और दोनों नींद की गोद में आ गए.
सुबह हुई, हमारा स्टेशन आया और हम दोनों आखिरी बार गले मिले और अपनेअपने गंतव्य को निकल लिए.

हम इतने करीब आए, लेकिन मैं ने न उस का फोन नंबर लिया और न ही उस का कोई सोशल मीडिया का पता. शायद ये मेरी मूर्खता भी थी.

मैं स्टेशन से सीधे बाजार गया मिठाई व कुछ अन्य सामान लेने, फिर लगभग 2 घंटे देरी से घर पहुंचा. अमूमन मुझे स्टेशन से घर आने में आधे घंटे का समय लगता है.

घर पहुंचने पर मातापिता के पैर छुए और फिर पत्नी भी मिली. मैं अपने कमरे में आया, तभी मेरी पत्नी ने थोड़ी देर रुक कर कहा, ‘‘सुनोजी, मुझे आप को किसी से मिलाना है. मेरी बहन जो शादी में न आ पाई थी, मैं ने उसे त्योहार पर घर बुलाया है.‘‘

“जी…” मैं ने भी सहमति दी.

तभी उस ने आवाज लगाई. आवाज सुन कर एक लड़की पीले सूट में कमरे में आई. उसे देखते ही मैं चौंक गया, क्योंकि ये कोई और नहीं बल्कि वही थी, जो रातभर मेरी सहयात्री थी.

उस ने मुझे देखा, मुसकराई और नमस्ते बोल कर चली गई.

उसे देख कर मेरी तो जैसे जबान ही बंद थी.

लगभग एक घंटे बाद मैं उस से मिला अकेले में, तब मैं ने उस से कहा, ‘‘सौरी, हम से शायद भूल हो गई.’’

उस ने कहा, ‘‘भूल हम दोनों से हुई जीजाजी और अब भूल को भी भूल कर त्योहार का आनंद लीजिए. एक हसीं सपना समझ कर उसे भूल जाइए और मैं भी. दीदी को कुछ पता न चले, वरना वे बहुत दुखी होंगी.‘‘

इतना कह कर वह अपनी दीदी के पास चली गई.

मैं अकेले बैठ कर उसी हसीं भूल के बारे में सोचता रहा.

लेखक – शुभम पांडेय गगन

Emotional Love Story : थोड़ी सी जमीन, सारा आसमान

Emotional Love Story : फरहा 5 सालों के बाद अपने शहर आ रही थी. प्लेन से बाहर निकलते ही उस ने एक लंबी सांस ली मानों बीते 5 सालों को इस एक सांस में जी लेगी. हवाईअड्डा पूरी तरह बदला दिख रहा था. बाहर निकल उस ने टैक्सी की और पुश्तैनी घर की तरफ चलने को कहा, जो हिंदपीढ़ी महल्ले में था.

5 सालों में शहर ने काफी तरक्की कर ली, यह देख फरहा खुश हो रही थी. रास्ते में कुछ मौल्स और मल्टीप्लैक्स भी दिखे. सड़कें पहले से साफ और चौड़ी दिख रही थीं. जींस और आधुनिक पाश्चात्य कपड़ों में लड़कियों को देख उसे सुखद अनुभूति होने लगी. कितना बदल गया है उस का शहर. उसे रोमांच हो आया.

रेहान सो चुका था. फरहा ने भी पीठ सीट पर टिका टांगों को थोड़ा फैला दिया. लंबी हवाईयात्रा की थकावट महसूस हो रही थी. आज सुबह ही सिडनी, आस्ट्रेलिया से वह अपने बेटे के साथ दिल्ली पहुंची थी. आना भी जरूरी था. 1 हफ्ते पहले ही अब्बू रिटायर हो कर अपने घर लौटे थे. अब सब कुछ एक नए सिरे से शुरू करना था. भले शहर अपना था पर लोग तो वही थे. इसी से फरहा कुछ दिनों के लिए अम्मांअब्बू के पास रहने चली आई थी ताकि घरगृहस्थी को नए सिरे से जमाने में उन की मदद कर सके.

तभी टैक्सी वाले ने जोर से ब्रेक लगाए तो उस की तंद्रा भंग हुई. उस ने देखा कि टैक्सी हिंदपीढ़ी महल्ले में प्रवेश कर चुकी है. बुरी तरह से टूटीफूटी सड़कों पर अब टैक्सी हिचकोले खा रही थी. उस ने खिड़की के शीशे को नीचे किया. एक अजीब सी बू टैक्सी के अंदर पसरने लगी. किसी तरह अपनी उबकाई को रोकते हुए उस ने झट से शीशा चढ़ा दिया. शहर की तरक्की ने अभी इस महल्ले को छुआ भी नहीं है. सड़कें और संकरी लग रही थीं. इन सालों में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए छोटेछोटे घरों ने भूलभुलैया बना दिया था महल्ले को. उस के अब्बा का दोमंजिला मकान अलबत्ता सब से अलग दिख रहा था.

अब्बा और अम्मां बाहर ही खड़े थे.

‘‘तुम ने अपना फोन अभी बंद कर रखा है. राकेश तब से परेशान है कि तुम पहुंची या नहीं?’’ मिलते ही अब्बू ने पहले अपने दामाद की ही बातें कीं.

अचानक महसूस हुआ कि बंद खिड़कियों की दरारों से कई जोड़ी आंखें झांकने लगी हैं.

फ्रैश हो कर फरहा आराम से हाथ में चाय का कप पकड़े घर का, महल्ले का और रिश्तेदारों का मुआयना करने लगी.

एक 22-23 साल की लड़की सलमा फुरती से सारे काम निबटा रही थी.

‘‘कैसा लग रहा है अब्बू अपने घर में आ कर? अम्मां पहले से कमजोर दिख रही हैं. पिछले साल सिडनी आई थीं तो बेहतर थीं,’’ फरहा ने पूछा.

एक लंबी सांस लेते हुए अब्बू ने कहा, ‘‘कुछ भी नहीं बदला यहां. पर हां घर में बच्चे न जाने कितने बढ़ गए हैं… लोफर कुछ ज्यादा दिखने लगे हैं गलियों में. लड़कियां आज भी उन्हीं बेडि़यों में कैद हैं, जिन में उन की मांएं या नानियां जकड़ी रही होंगी. तुम्हारी शादी की बात अलबत्ता लोग अब शायद भूल चले हैं.’’

फरहा ने कमरे में झांका. नानीनाती आपस में व्यस्त दिखे.

‘‘अब्बू, मुझे लग रहा था न जाने रिश्तेदार और महल्ले वाले आप से कैसा व्यवहार करें. मुझे फिक्र हो रही थी आप की, इसलिए मैं चली आई. अगले हफ्ते राकेश भी आ रहे हैं.’’

फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोली, ‘‘फूफी के क्या हाल हैं?’’ और फिर फरहा अब्बू के पास आ कर बैठ गई.

‘‘अब छोड़ो भी बेटा. जो बीत गई सो बात गई. जाओ आराम करो. सफर में थक गई होगी,’’ कह अब्बू उठने लगे.

फरहा जा कर अम्मां के पास लेट गई. बीच में नन्हा रेहान नींद में मुसकरा रहा था.

पर आज नींद आ रही थी. कमरे में चारों तरफ जैसे यादों के फूल और शूल उग आए हों… जहां मीठी यादें दिल को सहलाने लगीं, वहीं कड़वी यादें शूल बन नसनस को बेचैन करने लगीं…

अब्बा सरकारी नौकरी में उच्च पद पर थे. हर कुछ सालों में तबादला निश्चित था. काफी छोटी उम्र से ही फरहा को होस्टल में रख दिया गया था ताकि उस की पढ़ाई निर्बाध चले. अम्मां हमेशा बीमार रहती थीं पर अब्बूअम्मां में मुहब्बत गहरी थी. अब्बू उस वक्त पटना में तैनात थे. उन्हीं दिनों फूफी उन के पास गई थी. अब्बू का रुतबा और इज्जत देख उस के दिल पर सांप लोट गया और फिर फूफी ने शुरू किया अब्बू के दूसरे निकाह का जिक्र, अपनी किसी रिश्ते की ननद के संग. अम्मां की बीमारी का हवाला दे पूरे परिवार ने तब खूब अपनापन दिखा, रजामंदी के लिए दबाव डाला था. अब्बू ने बड़ी मुश्किल से इन जिक्रों से पिंड छुड़ाया था. भला पढ़ालिखा आदमी ऐसा सोच भी कैसे सकता है. ये सारी बातें अम्मां ने फरहा को बड़ी होने पर बताई थीं. उसे फूफी और घर वालों से नफरत हो गई थी कि कैसे वे उस के वालिद और वालिदा का घर उजाड़ने को उतारू थे.

फरहा के घर का माहौल उस के रिश्तेदारों की तुलना में बहुत भिन्न था. उस के अब्बू की सोच प्रगतिशील थी. वह अकेली संतान थी और उस के अब्बू उस के उच्च तालीम के जबरदस्त हिमायती थे. उस से छोटी उस की चचेरी और मौसेरी बहनों का निकाह उस से पहले हो गया था. जब भी कोई पारिवारिक आयोजन होता उस के निकाह के चर्चे ही केंद्र में होते. यह तो अब्बू की ही जिद थी कि उसे इंजीरियरिंग के बाद नौकरी नहीं करने दी, बल्कि मैनेजमैंट की पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित किया.

जब वह इंजीनियरिंग के फाइनल वर्ष में था तो फूफी फिर घर आई थी. आते ही अम्मां से फरहा की बढ़ती उम्र का जिक्र शुरू कर दिया, ‘‘भाभी जान, मैं कहे देती हूं कि फरहा की उम्र इतनी हो गई है कि अब जानपहचान में उस के लायक कोई कुंआरा लड़का नहीं मिलेगा. भाईजान की तो अक्ल ही मारी गई है… भला लड़कियों को इतनी तालीम की क्या जरूरत है? असल मकसद उन की शादी है. अब देखो मेरा बेटा फीरोज कितना खूबसूरत और गोराचिट्टा है. जब से दुबई गया है खूब कमा भी रहा है… दोनों की जोड़ी खूब जमेगी.’’

बेचारी अम्मा रिश्तेदारों की बातों से पहले ही हलकान रहती थीं, फूफी की बातों ने उन के रक्तचाप को और बढ़ा दिया. वह तो अब्बूजी ने जब सुना तो फूफी को खूब खरीखटी सुनाई.

‘‘क्यों रजिया तुम ने क्या मैरिज ब्यूरो खोल रखा है… कभी मेरी तो कभी मेरी बेटी की चिंता करती रहती हो? इतनी चिंता अपने बड़े लाड़ले की की होती तो उसे 10वीं फेल हो दुबई में पैट्रोल पंप पर नौकरी नहीं करनी पड़ती. फरहा की तालीम अभी अधूरी है. मेरी प्राथमिकता उस की शादी नहीं तालीम है.’’

फूफी उस के बाद रुक नहीं पाई थी. हफ्तों रहने की सोच कर आने वाली फूफी शाम की ही बस से लौट गई.

सोचतेसोचते फरहा को कब नींद आ गई उसे पता नहीं चला.

सुबह रेहान की आवाज से उस की नींद खुली.

‘‘फरहा बाजी आप उठ गईं? चाय लाऊं?’’ मुसकराती सलमा ने पूछा.

चाय का कप पकड़े सलमा उस के पास ही बैठ गई. फरहा ने महसूस किया कि वह उसे बड़े ध्यान से देख रही है.

‘‘बाजी, अब तो आप सिंदूर लगाने लगी होंगी और बिंदिया भी? क्या आप अभी भी रोजे रखती हैं? क्या आप ने अपने नाम को भी बदल लिया है?’’

सलमा की इन बातों पर फरहा हंस पड़ी. बोली, ‘‘नहीं, मैं तो बिलकुल वैसी ही हूं जैसी थी. वही करती हूं जो बचपन से करती आ रही… तुम्हें ऐसा क्यों लगा?’’

‘‘जी, कल मैं जब काम कर लौटी तो महल्ले में सब पूछ रहे थे… आप ने काफिर से शादी की है?’’ सलमा ने मासूमियत से पूछा.

फरहा के अब्बू ने फूफी को तो लौटा दिया था. पर विवाद थमा नहीं था. आए दिन उस की तालीम बढ़ती उम्र और निकाह पर चर्चा होने लगी. धीरेधीरे अब्बू ने अपने पुश्तैनी घर आना कम कर दिया. फरहा अपनी मैनेजमैंट की पढ़ाई के लिए देश के सर्वश्रेष्ठ कालेज के लिए चुनी गई. अब्बू के चेहरे का सुकून ही उस का सब से बड़ा पारितोषिक था. कालेज में यों ही काफी कम लड़कियां थीं पर मुसलिम लड़की वह अकेली थी अपने बैच में. फरहा काफी होनहार थी. कालेज में बहुत सारी गतिविधियां होती रहती थीं और वह सब में काफी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती. सब उस के कायल थे.

इसी दौरान राकेश के साथ उसे कई प्रोजैक्ट पर काम करने को मिला. उस की बुद्धिमानी और शालीनता धीरेधीरे फरहा को आकर्षित करने लगी. संयोग से दोनों साथ ही समर इंटर्नशिप के लिए एक ही कंपनी के लिए चुने गए. नए शहर में उन 2 महीनों में दिल की बातें जबान पर आ ही गईं. दुनिया इतनी हसीं कभी न थी.

इंटर्नशिप के बाद फरहा 1 हफ्ते के लिए अब्बूअम्मां से मिलने दिल्ली चली गई. अब्बू की पोस्टिंग उस वक्त वहीं थी. अब्बू काफी खुश दिख रहे थे.

‘‘फरहा कुछ महीनों में तुम्हारी पढ़ाई पूरी हो जाएगी. मेरे मित्र रहमान अपने सुपुत्र के लिए तुम्हारा हाथ मांग रहे हैं. मुझे तो उन का बेटा और परिवार सब बहुत ही पसंद है. पर मैं ने कह रखा है कि फैसला मेरी बेटी ही लेगी.’’

उस एक पल में फरहा की नसनस में तूफान सा गुजर गया. फिर खुद को संयत करते हुए उस ने कहा, ‘‘आप जो फैसला लेंगे वह सही होगा अब्बूजी.’’

‘‘शाबाश बेटा, तुम ने मेरी लाज रख ली. सब कहते थे कि इतना पढ़लिख कर तुम भला मेरी बात क्यों मानोगी. मैं जानता था कि मेरी बेटी मुझ से अलग नहीं है. मैं कल ही रहमान को परिवार के साथ खाने पर बुलाता हूं.’’

सपना देखना अभी शुरू भी नहीं हुआ था कि नींद खुल गई. फरहा रात भर रोती रही.

बहते अश्कों ने बहुत सारे संशय सुलझा लिए. राकेश और वह नदी के 2 किनारे हैं. फरहा ने सोचा कि यह तो अच्छा हुआ कि उस ने अब्बूजी को अपनी भावनाओं के बारे में नहीं बताया. वैसे ही वे घरसमाज से लड़ मुझे उच्च तालीम दिला रहे हैं. अगर मैं ने एक हिंदू काफिर से ब्याह की बात भी की, तो शायद आने वाले वक्त में अपनी बेटीबहन को मेरी मिसाल दे उन से शिक्षा का हक भी छीना जाए. उसे सिर्फ अपने लिए नहीं सोचना चाहिए… फरहा मन को समझाने लगी.

दूसरे दिन ही रहमान साहब अपने सुपुत्र और बीबी के साथ तशरीफ ले आए. ऐसा लग रहा था मानो सिर्फ औपचारिकता ही पूरी हो रही है. सारी बातें पहले से तय थीं.

‘‘समीना, आज मुझे लग रहा है कि मैं ने फरहा के प्रति अपनी सारी जिम्मेदारियों को लगभग पूरा कर लिया है… आज मैं बेहद खुश हूं. निकाह फरहा की पढ़ाई पूरी करने के बाद ही करेंगे. तभी सारे रिश्तेदारों को बताएंगे,’’ अब्बू अम्मां से कह रहे थे.

2 दिन बाद फरहा अपने कालेज अहमदाबाद लौट गई. लग रहा था राकेश मिले तो उस के कंधे पर सिर रख खूब रोए. पर राकेश सामने पड़ा तो वह भी बेहद उदास और उलझा हुआ सा दिखा. फरहा अपना गम भुला राकेश के उतरे चेहरे के लिए परेशान हो गई.

‘‘फरहा, मैं ने घर पर तुम्हारे बारे में बात की. पर तुम्हारा नाम सुनते ही घर में बवाल मच गया. मैं ने भी कह दिया है कि मैं तुम्हें छोड़ किसी और से शादी कर ही नहीं सकता.

इस बार सब से लड़ कर आया हूं,’’ राकेश ने कहा तो फरहा ने भी कहा कि उस की हालत भी बकरीद पर हलाल होने वाले बकरे से बेहतर नहीं.

वक्त गुजरा. फरहा और राकेश दोनों की नौकरी दिल्ली में ही लगी. दोनों अब तक मान चले थे कि एक हिंदू लड़का और मुसलिम लड़की की शादी मुकम्मल हो ही नहीं सकती.

फरहा के निकाह की तारीख कुछ महीनों बाद की ही थी. एक दिन फरहा अपने अब्बू और अम्मां के साथ कार से गुड़गांव की तरफ जा रही थी कि सामने से आते एक बेकाबू ट्रक ने जोर से टक्कर मार दी. तीनों को गंभीर चोटें आईं. बेहोश होने से पहले फरहा ने राकेश को फोन कर दिया था.

अब्बू और अम्मां को तो हलकी चोटें आईं पर फरहा के चेहरे पर काफी चोटें आई थीं. नाक और ठुड्डी की तो हड्डी ही टूट गई थी. पूरे चेहरे पर पट्टियां थीं.

रहमान साहब और उन का परिवार भी आया हौस्पिटल उसे देखने. सब बेहद अफसोस जाहिर कर रहे थे. उस के होने वाले शौहर ने जब सब के सामने ही डाक्टर से पूछा कि क्या फरहा पहले की तरफ ठीक हो जाएगी तो डाक्टर ने कहा कि इस की उम्मीद बहुत कम है कि वह पहले वाला चेहरा वापस पा सकेगी. हां, शरीर का बाकी हिस्सा बिलकुल स्वस्थ हो जाएगा… प्लास्टिक सर्जरी के बाद कुछ बदलावों के साथ वह एक नया चेहरा पा सकेगी, जिस में बहुत वक्त लगेगा.

वह दिन और आज का दिन रहमान परिवार फिर मिलने भी नहीं आया, अलबत्ता निकाह तोड़ने की खबर जरूर फोन पर दे दी.

दुख की घड़ी में उन का यों रिश्ता तोड़ देना बेहद पीड़ादायक था. अब्बू अम्मां उतना दुर्घटना से आहत नहीं हुए थे, जितना उन के व्यवहार से हुए. यह तो अच्छा था कि किसी रिश्तेदार को खबर नहीं हुई थी वरना और भद्द होती. फिलहाल, सवाल फरहा के ठीक होने का था. इस बीच राकेश उन का संबल बना रहा. हौस्पिटल, घर, औफिस और फरहा के अब्बू अम्मां सब को संभालता. वह उन के घर का एक सदस्य सा हो गया.

उस दिन अब्बू ने हौस्पिटल के कमरे के बाहर सुना, ‘‘फरहा प्लीज रो मत. तुम्हारी पट्टियां कल खुल जाएंगी. मैं हूं न. मैं तुम्हारे लिए जमीन आसमान एक कर दूंगा. जल्द ही तुम औफिस जाने लगोगी.’’

‘‘अब मुझ से कौन शादी करेगा?’’ यह फरहा की आवाज थी.

‘‘बंदा सालों से इंतजार कर रहा है. अब तो मां भी हार कर बोलने लगी हैं कि कुंआरा रहने से बेहतर है जिस से मन हो कर लो शादी… पट्टियां खुलने दो… एक दिन मां को ले कर आता हूं.’’

राह के कांटे धीरेधीरे दूर होते गए. राकेश के घर वाले इतनी होनहार और उच्च शिक्षित बहू पा कर निहाल थे. उस के गुणों ने उस के दुर्घटनाग्रस्त चेहरे के ऐब को ढक दिया था. पहले से तय निकाह की तारीख पर ही दोनों की कोर्ट मैरिज हुई और फिर हुआ एक भव्य रिसैप्शन समारोह, जिस में दोनों तरफ के रिश्तेदारों को बुलाया गया. दोनों ही तरफ से लोग न के ही बराबर शामिल हुए. हां, दोस्त कुलीग सब शामिल हुए. कुछ ही दिनों के बाद राकेश की कंपनी ने उसे सिडनी भेज दिया. दोनों वहीं चले गए और खूब तरक्की करने लगे.

फरहा की शादी के बाद अब्बू एक बार अपने शहर, अपने घर गए थे. महल्ले के लोगों ने उन की खूब खबर ली. कुछ बुजुर्ग लोगों ने उन्हें डांटा भी. रात में उन के घर पर पथराव भी किया. किसी तरह पुलिस बुला अब्बू और अम्मां घर से निकल पाए थे.

‘‘अब्बूजी, आप किस से बातें कर रहे थे?’’ फरहा ने पूछा.

‘‘अरे, तुम्हारी फूफी जान थी. बेचारी आती रहती है मुझ से मदद लेने. बेटे तो उस के सारे नालायक हैं. कोई जेल में तो कोई लापता. बेचारी के भूखों मरने वाले दिन आ गए हैं,’’ अब्बूजी ने कहा.

‘‘फरहा उस रात हमारे घर पर इसी ने पथराव करवाया था… अपने लायक बेटों से. हम ने तुम्हारी शादी इस के बेटे से जो नहीं कराई थी. सारे महल्ले वालों को भी इस ने ही उकसाया था. बहुत साजिश की इस ने हिंदू लड़के से तुम्हारी शादी करने के हमारे फैसले के खिलाफ,’’ अम्मा ने हंसते हुए कहा.

‘‘यह जो सलमा है न. इस वर्ष वह 10वीं कक्षा की परीक्षा दे रही है. वह भी तुम्हारी तरह तालीमयाफ्ता होने की चाहत रखती है.’’

‘‘सिर्फ मैं ही क्यों महल्ले की हर लड़की आप के जैसी बनना चाहती है,’’ यह सलमा थी, ‘‘काश, सब के अब्बू आप के अब्बू जितने समझदार होते,’’ कह सलमा फरहा के गले लग गई.

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