मृगतृष्णा- भाग 3: मंजरी ने क्या किया जीजाजी की सच्चाई जानकर

सच में मृदुला का फोन बंद आ रहा था और राजन का भी. कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं? मां की घबराहट देख कर मैं ने उस के घर जाने का मन बना लिया, ‘‘मां, मैं उस के घर जा कर देखती हूं, आप चिंता मत करो.’’

लेकिन अब मुझे भी घबराहट होने लगी थी, क्योंकि फिर मैं ने उसे कई बार फोन लगाया, पर बंद ही मिलता. किशोर को जब मैं ने सारी बात बताई, तो कहने लगे कि मैं चिंता न करूं. चल कर देखते हैं.

‘‘पर आप का औफिस?’’ जब मैं ने पूछा, तो किशोर बोले कि वे मुझे मृदुला के घर छोड़ कर उधर से ही औफिस निकल जाएंगे और आते वक्त लेते आएंगे.

‘‘हां, यह सही रहेगा,’’ मैं बोली.

वहां पहुंचने पर जो मैं ने देखा, उसे देख स्तब्ध रह गई. मृदुला बिस्तर पर पड़ी कराह रही थी और उस के शरीर पर जगहजगह चोट के निशान थे. चेहरा भी नीला पड़ गया था.

बहन को इस हालत में देख कर मेरी आंखें भर आईं, ‘‘मृदुला, ये सब क्या हुआ? ये चोटें कैसे और राजन जीजाजी कहां हैं?’’ मैं ने पूछा.

वह रो पड़ी. फिर जो बताया उसे सुन कर मुझे अपने कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था.

उस ने रोतेरोते बताया, ‘‘अगर मेरा पति बदसूरत होता, गरीब होता, लेकिन अगर वह मुझे प्यार करता, तो मैं खुद को दुनिया की सब से खुशहाल औरत समझती. मगर राजन का सुंदर होना मेरे लिए अभिशाप बन गया…

‘‘रोज नईनई लड़कियों के साथ रातें बीतती हैं. उन पर दिल खोल कर पैसे लुटाते

हैं. कभीकभी तो लड़की को घर भी ले आते हैं और जब मैं कुछ बोलती हूं तो उस के सामने ही मुझ पर थप्पड़ बरसाने लगते हैं. वह तो अच्छा है कि बच्चे होस्टल में रहते हैं, नहीं तो उन पर क्या असर पड़ता राजन की हरकतों का? जब से ब्याह हुआ है, एक दिन भी ऐसा नहीं गया, जब राजन ने मेरे रूपरंग को ले कर ताने न कसे हों.

‘‘कहते हैं कि उन्हें तो गोरी लड़की चाहिए थी… कैसे कालीकलूटी उन के मत्थे मढ़ दी गई… जानती है मंजरी, हमारा फोटो देख कर राजन को लगा था, उन की शादी तुम्हारे साथ होने वाली है, इसलिए उन्होंने शादी के लिए हां बोल दी थी. लेकिन जब पत्नी के रूप में मुझे देखा, तो आगबबूला हो गए. पतिपत्नी के बीच की बात है, यह सोच कर अब परिवार वालों ने भी मेरा पक्ष लेना छोड़ दिया. लेकिन समाज में अपनी इज्जत के डर के कारण वे मुझे ढो रहे हैं. कहने को तो मैं उन के साथ गोवा, मलयेशिया घूमती हूं, पर वहां होती तो उन के साथ उन की मासूका ही. मैं तो बस पिछली सीट पर बैठे तमाशा देखती हूं.’’

राजन के जो सारे दोष आज तक दबेढके थे उन सभी को मृदुला 1-1 कर मेरे सामने खोलने लगी. आज तक मैं किशोर को संकीर्ण विचारों वाला और खराब इंसान समझती थी, लेकिन आज मुझे पता चला कि किशोर कितने अच्छे और सच्चे इंसान हैं.

एक लंबी सांस छोड़ते हुए फिर मृदुला कहने लगी, ‘‘जरा भी चिंता नहीं है उन्हें अपने बच्चों के भविष्य की. मौजमस्ती में सारे पैसे लुटा रहे हैं. 2 महीनों से मकान का किराया बाकी है. मकानमालिक झिड़क जाता है. कहता है कि आप का मुंह देख कर चुप रह जाता हूं. बहन मानता है वह मुझे. लेकिन घोड़ा कब तक घास से दोस्ती कर सकता है मंजरी? अगर मकानमालिक ने निकाल दिया तो हम कहां जाएंगे? सही कहती हूं, तुम्हारे पति के पैर के धोवन भी नहीं हैं राजन. वे तुम सब के लिए कितना सोचते हैं, देखती नहीं क्या मैं. एकदम सीधेसच्चे इंसान.’’

विश्वास नहीं हो रहा था कि मृदुला जो कह रही है वह सच है. जिस इंसान के लिए मेरे दिल में ढेरों सम्मान था, वह एक पल में खत्म हो गया. कितना अच्छा इंसान समझती थी मैं राजन को. सोचने लगी थी कि काश, इस से मेरा ब्याह हो गया होता तो मैं कितनी सुखी होती. लेकिन मैं कितनी गलत थी. खुद को कोसती रहती थी यह कह कर कि क्यों मेरा किशोर जैसे इंसान से पाला पड़ा. मगर आज उसी किशोर पर मुझे नाज हो रहा है. दिखाते नहीं, पर मुझे प्यार बहुत करते हैं. यह मुझे अब समझ आया.

‘‘लेकिन तुम ये सब क्यों सहती रही अकेली? बताया क्यों नहीं हमें?’’ मैं ने पूछा.

‘‘तो क्या करती और क्या बताती तुम सब से? क्या हालत बदल देते तुम सब? तुम्हें हमेशा लगता था न मंजरी कि मैं बहुत सुखी हूं, तेरे इसी भ्रम को मैं जिंदा रखना चाहती थी. दिखाना चाहती थी उन लोगों को, जो कहते थे, इस कलूटी को कौन पूछेगा. झूठा ही सही, पर लोग तो सही मान रहे हैं न कि मैं बहुत सुखी हूं और मेरे पति मुझे बहुत प्यार करते हैं. मांपापा भी खुश हैं, तो रहने दो. मैं अपना दुख सुन कर उन्हें जीतेजी मौत के मुंह में नहीं धकेलना चाहती. इसलिए जो जैसा चल रहा चलने दे… तू यह बात कभी अपने मुंह से मत निकालना वरना तू मेरा मरा मुंह देखेगी.’’

अब जब उस ने इतनी बड़ी धमकी दे दी, तो फिर कैसे किसी से मैं कुछ कहती. लेकिन लगा, क्या सोचती रही थी मैं मृदुला के बारे में और क्या निकला. शाम को किशोर आ कर मुझे ले गए. रातभर मैं मृदुला के बारे में ही सोचसोच कर रोती रही. मेरा सूजा चेहरा देख कर किशोर को यही लगा कि मैं मृदुला की तबीयत को ले कर परेशान हूं, पर बात तो उस से भी बढ़ कर थी, पर बता नहीं सकती थी किसी को.

सुबह उठ कर रोज की तरह मैं ने एक तरफ चाय और दूसरी तरफ सब्जी बनाने

को कड़ाही चढ़ाई ही था कि पीछे से किशोर ने मुझे अपनी बांहों में घेर लिया और पूछा, ‘‘क्या बना रही हो?’’

‘‘नाश्ता और क्या,’’ मैं ने कहा.

‘‘मत बनाओ.’’

‘‘पर क्यों, मैं ने प्रश्नवाचक नजरों से देखा.’’

ये कहने लगे, ‘‘आज छुट्टी ली है ‘केसरी’ फिल्म देखने चलेंगे.’’

‘‘ज्यादा बातें न बनाओ. कल तक तो तुम्हें फिल्में अच्छी नहीं लगती थीं, फिर आज कैसे…’’

वे मेरे मुंह पर हाथ रख कर बोले, ‘‘तुम्हें अच्छी लगती हैं न अक्षय कुमार की फिल्में? और मुझे तुम,’’ मुसकराते हुए किशोर बोले.

मगर मैं मुंह बनाते हुए बोली, ‘‘अगर छुट्टी ले रखी थी, तो पहले बता देते, जरा देर और सो लेती. बेकार में जल्दी उठना पड़ा.’’

‘‘अच्छा, छोड़ो ये सब. यह बताओ, हमारी शादी की सालगिरह आने वाली है. कहां चलना है सैलिब्रेट करने? किशोर ने पूछा.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब कि गोवा चलें?’’ मेरे गाल पर चुंबन देते हुए किशोर बोले, तो मेरा मन गुदगुदा गया, ‘‘नहीं, कोई जरूरत नहीं फुजूलखर्ची करने की. गांव चलेंगे मांपिता का आशीर्वाद भी मिल जाएगा,’’ कह कर मैं अपनी भी चाय ले कर बालकनी में आ गई और चुसकियां लेने लगी.

पहले कभी सुबह इतनी सुहानी नहीं लगी थी जितनी आज लग रही थी. सोचने लगी, सबकुछ तो है मेरे पास. प्यार करने वाला पति, 2 प्यारेप्यारे बच्चे, अपना घर, जरूरत के सारे सुख. तो फिर किस मृगतृष्णा के पीछे भाग रही थी मैं? देखा, तो किशोर मुझे ही निहार रहे थे. जब मेरी नजरें उन से मिलीं, तो वे मुसकरा पड़े और मैं भी.

उलझे रिश्ते- भाग 2: क्या प्रेमी से बिछड़कर खुश रह पाई रश्मि

रश्मि कुछ नहीं बोल पाई. उसी दिन दिल्ली से लड़का संभव अपने छोटे भाई राजीव और एक रिश्तेदार के साथ रश्मि को देखने आया. रश्मि को देखते ही सब ने पसंद कर लिया. रिश्ता फाइनल हो गया. जब यह बात सुधीर को रश्मि की एक सहेली से पता चली तो उस ने पूरी गली में कुहराम मचा दिया,  ‘‘देखता हूं कैसे शादी करते हैं. रश्मि की शादी होगी तो सिर्फ मेरे साथ. रश्मि मेरी है.’’ पागल सा हो गया सुधीर. इधरउधर बेतहाशा दौड़ा गली में. पत्थर मारमार कर रश्मि के घर की खिड़कियों के शीशे तोड़ डाले. रश्मि के पिता के मन में डर बैठ गया कि कहीं ऐसा न हो कि लड़के वालों को इस बात का पता चल जाए. तब तो इज्जत चली जाएगी. सब हालात देख कर तय हुआ कि रश्मि की शादी किसी दूसरे शहर में जा कर करेंगे. किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होगी. अब एक तरफ प्यार, दूसरी तरफ मांबाप के प्रति जिम्मेदारी. बहुत तड़पी, बहुत रोई रश्मि और एक दिन उस ने अपनी भाभी से कहा, ‘‘मैं अपने प्यार का बलिदान देने को तैयार हूं. परंतु मेरी एक शर्त है. मुझे एक बार सुधीर से मिलने की इजाजत दी जाए. मैं उसे समझाऊंगी. मुझे पूरी उम्मीद है वह मान जाएगा.’’

भाभी ने घर वालों से छिपा कर रश्मि को सुधीर से आखिरी बार मिलने की इजाजत दे दी. रश्मि को अपने करीब पा कर फूटफूट कर रोया सुधीर. उस के पांवों में गिर पड़ा. लिपट गया किसी नादान छोटे बच्चे की तरह,  ‘‘मुझे छोड़ कर मत जाओ रश्मि. मैं नहीं जी  पाऊंगा, तुम्हारे बिना. मर जाऊंगा.’’ यंत्रवत खड़ी रह गई रश्मि. सुधीर की यह हालत देख कर वह खुद को नहीं रोक पाई. लिपट गई सुधीर से और फफक पड़ी, ‘‘नहीं सुधीर, तुम ऐसा मत कहो, तुम बच्चे नहीं हो,’’ रोतेरोते रश्मि ने कहा.

‘‘नहीं रश्मि मैं नहीं रह पाऊंगा, तुम बिन,’’ सुबकते हुए सुधीर ने कहा.

‘‘अगर तुम ने मुझ से सच्चा प्यार किया है तो तुम्हें मुझ से दूर जाना होगा. मुझे भुलाना होगा,’’ यह सब कह कर काफी देर समझाती रही रश्मि और आखिर अपने दिल पर पत्थर रख कर सुधीर को समझाने में सफल रही. सुधीर ने उस से वादा किया कि वह कोई बखेड़ा नहीं करेगा. ‘‘जब भी मायके आऊंगी तुम से मिलूंगी जरूर, यह मेरा भी वादा है,’’ रश्मि यह वादा कर घर लौट आई. पापा किसी तरह का खतरा मोल नहीं लेना चाहते थे, इसलिए एक दिन रात को घर के सब लोग चले गए एक अनजान शहर में. रश्मि की शादी दिल्ली के एक जानेमाने खानदान में हो गई. ससुराल आ कर रश्मि को पता चला कि उस के पति संभव ने शादी तो उस से कर ली पर असली शादी तो उस ने अपने कारोबार से कर रखी है. देर रात तक कारोबार का काम निबटाना संभव की प्राथमिकता थी. रश्मि देर रात तक सीढि़यों में बैठ कर संभव का इंतजार करती. कभीकभी वहीं बैठेबैठे सो जाती. एक तरफ प्यार की टीस, दूसरी तरफ पति की उपेक्षा से रश्मि टूट कर रह गई. ससुराल में पासपड़ोस की हमउम्र लड़कियां आतीं तो रश्मि से मजाक करतीं  ‘‘आज तो भाभी के गालों पर निशान पड़ गए. भइया ने लगता है सारी रात सोने नहीं दिया.’’ रश्मि मुसकरा कर रह जाती. करती भी क्या, अपना दर्द किस से बयां करती? पड़ोस में ही महेशजी का परिवार था. उन के एक कमरे की खिड़की रश्मि के कमरे की तरफ खुलती थी. यदाकदा रात को वह खिड़की खुली रहती तो महेशजी के नवविवाहित पुत्र की प्रणयलीला रश्मि को देखने को मिल जाती. तब सिसक कर रह जाने के सिवा और कोई चारा नहीं रह जाता था रश्मि के पास.

संभव जब कभी रात में अपने कामकाज से जल्दी फ्री हो जाता तो रश्मि के पास चला आता. लेकिन तब तक संभव इतना थक चुका होता कि बिस्तर पर आते ही खर्राटे भरने लगता. एक दिन संभव कारोबार के सिलसिले में बाहर गया था और रश्मि तपती दोपहर में  फर्स्ट फ्लोर पर बने अपने कमरे में सो रही थी. अचानक उसे एहसास हुआ कोई उस के बगल में आ कर लेट गया है. रश्मि को अपनी पीठ पर किसी मर्दाना हाथ का स्पर्श महसूस हुआ. वह आंखें मूंदे पड़ी रही. वह स्पर्श उसे अच्छा लगा. उस की धड़कनें तेज हो गईं. सांसें धौंकनी की तरह चलने लगीं. उसे लगा शायद संभव है, लेकिन यह उस का देवर राजीव था. उसे कोई एतराज न करता देख राजीव का हौसला बढ़ गया तो रश्मि को कुछ अजीब लगा. उस ने पलट कर देखा तो एक झटके से बिस्तर पर उठ बैठी और कड़े स्वर में राजीव से कहा कि जाओ अपने रूम में, नहीं तो तुम्हारे भैया को सारी बात बता दूंगी, तो वह तुरंत उठा और चला गया. उधर सुधीर ने एक दिन कहीं से रश्मि की ससुराल का फोन नंबर ले कर रश्मि को फोन किया तो उस ने उस से कहा कि सुधीर, तुम्हें मैं ने मना किया था न कि अब कभी मुझ से संपर्क नहीं करना. मैं ने तुम से प्यार किया था. मैं उन यादों को खत्म नहीं करना चाहती. प्लीज, अब फिर कभी मुझ से संपर्क न करना. तब उम्मीद के विपरीत रश्मि के इस तरह के बरताव के बाद सुधीर ने फिर कभी रश्मि से संपर्क नहीं किया.

रश्मि अपने पति के रूखे और ठंडे व्यवहार से तो परेशान थी ही उस की सास भी कम नहीं थीं. रश्मि ने फिल्मों में ललिता पंवार को सास के रूप में देखा था. उसे लगा वही फिल्मी चरित्र उस की लाइफ में आ गया है. हसीन ख्वाबों को लिए उड़ने वाली रश्मि धरातल पर आ गई. संभव के साथ जैसेतैसे ऐडजस्ट किया उस ने परंतु सास से उस की पटरी नहीं बैठ पाई. संभव को भी लगा अब सासबहू का एकसाथ रहना मुश्किल है. तब सब ने मिल कर तय किया कि संभव रश्मि को ले कर अलग घर में रहेगा. कुछ ही दूरी पर किराए का मकान तलाशा गया और रश्मि नए घर में आ गई. अब तक उस के 2 प्यारेप्यारे बच्चे भी हो चुके थे. शादी के 12 साल कब बीत गए पता ही नहीं चला. नए घर में आ कर रश्मि के सपने फिर से जाग उठे. उमंगें जवां हो गईं. उस ने कार चलाना सीख लिया. पेंटिंग का उसे शौक था. उस ने एक से बढ़ कर एक पोट्रेट तैयार किए. जो देखता वह देखता ही रह जाता. अपने बेटे साहिल को पढ़ाने के लिए रश्मि ने हिमेश को ट्यूटर रख लिया. वह साहिल को पढ़ाने के लिए अकसर दोपहर बाद आता था जब संभव घर होता था. 28-30 वर्षीय हिमेश बहुत आकर्षक और तहजीब वाला अध्यापक था. रश्मि को उस का व्यक्तित्व बेहद आकर्षक लगता था. खुले विचारों की रश्मि हिमेश से हंसबोल लेती. हिमेश अविवाहित था. उस ने रश्मि के हंसीमजाक को अलग रूप में देखा. उसे लगा कि रश्मि उसे पसंद करती है. लेकिन रश्मि के मन में ऐसा दूरदूर तक न था. वह उसे एक शिक्षक के रूप में देखती और इज्जत देती. एक दिन रश्मि घर पर अकेली थी. साहिल अपने दोस्त के घर गया था. हिमेश आया तो रश्मि ने कहा कि कोई बात नहीं, आप बैठिए. हम बातें करते हैं. कुछ देर में साहिल आ जाएगा.

सैलिब्रेशन- भाग 3: क्या सही था रसिका का प्यार

कालेज में आने के बाद मान्या की समझ में आ गया कि रोने से कुछ नहीं होगा. अब उसे बिंदास हो कर जीना होगा.

मान्या को कुकिंग का शौक हो गया था. एक दिन खाने के शौकीन वैभव अंकल के लिए यूट्यूब पर देख कर मलाईकोफ्ते बनाए. अंकल ने खुश हो कर उस की जरूरत को समझते हुए उसे स्कूटी दिलवा दी.

वैभव ने उसे अपना एटीएम कार्ड भी दे दिया. अब तो उस के पंख निकल आए थे. कालेज कैंटीन और लड़कों के साथ दोस्ती के कारण उस का तो लाइफस्टाइल ही बदल गया था. एटीएम कार्ड से औनलाइन शौपिंग, फैशनेबल ड्रैसेज, नएनए हेयर कट में उस की दुनिया बदल गई.

वैभव को खुश रखने में उस का फायदा था. इसलिए वह उस के लिए हर संडे

कुछ स्पैशल बनाती और वह प्यार से उस के सिर पर हाथ फेर कर अपने पास बैठा लेता और फिर खुश हो कर खाता. लेकिन मां को यह पसंद नहीं आता.

वह उसे कोई काम बता कर वहां से उठा देती.

कालेज में ढेरों दोस्त बन गए थे. वह सब को कैफेटेरिया में अकसर ट्रीट देती. उस की कुंठा पैसों के रास्ते बह गई थी.

वंश की बड़ी सी गाड़ी और उस के आकर्षक व्यक्तित्व में वह खो गई. उस का फाइनल ईयर था.

उधर काव्या इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने बैंगलुरु चली गई थी.

अब मान्या वैभव का काम आगे बढ़ कर देती. फिर चाहे वह सुबह की बैड टी हो या ब्रेकफास्ट. वह प्यार से उसे अपनी बांहों में भर लेता. रसिका ये सब देख कर सुलग उठती. लेकिन वैभव के सामने कुछ बोल नहीं पाती. दोनों के बीच वैभव का काम करने के लिए कंपीटिशन सा रहता.

रसिका मान्या को घूर कर देखती और फिर बोलती, ‘‘क्यों, किचन में घुसी रहती है? अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे. काम करने के लिए विमला है तो?’’

मान्या वैभव की प्लेट में प्यार से पिज्जा रखते हुए बोली, ‘‘अंकल खा कर बताइए कैसा बना है? मैं ने यूट्यूब से देख कर टौपिंग करी है.’’

पिज्जा का एक टुकड़ा खुद खाने से पहले वैभव ने मान्या को खिलाया. फिर रसिका की घूरती आंखों से डर कर उस के मुंह में भी रखा और फिर खुश हो कर बोला, ‘‘लाजवाब, वैरी टेस्टी. मान्या कमाल है.’’

जबकि रसिका को पिज्जा स्वादहीन लग रहा था.

कुछ दिनों से रसिका देख रही थी कि वैभव औफिस में रोशनी को अपने कैबिन में बारबार बुलाता था कई बार उस ने झांक कर भी देखा. दोनों ठहाके लगाते हुए कौफी की चुसकियां ले रहे होते.

रसिका ने महसूस किया कि वैभव उस के हाथ से फिसलता जा रहा है. एक क्षण को उस के हाथपैर ठंडे हो गए. अब वह हैरानपरेशान रहने लगी थी. डिप्रैशन होने लगता था… आत्मविश्वास कम होता जा रहा था.

उन की मेड विमला अपने गुरूजी की महिमा का दिनभर बखान करती थी.

रसिका पति से तलाक लेने के बाद उसे पूरी तरह भूल चुका थी, क्योंकि वैभव ने उस के जीवन में रंग भर दिए थे. उसे पति जैसा ही सहारा मिल गया था.

रसिका ने जीजान से वैभव को खुश करने के लिए, उस के बेटे को भी अपने पास रखा, उसे पढ़ायालिखाया, उस की सारी सुखसुविधाओं का खयाल रखा. बीमार पड़ने पर पूरी देखभाल की. फिर भी वैभव उस से निगाहें फेर कर कभी रोशनी, तो कभी पूर्वा को प्यार भरी निगाहों से देखते हुए कौफी पीता, लौंग ड्राइव पर जाता है. रसिका के लिए ये सब जीतेजी मरने वाली बात हो गई थी, इसलिए वह गुरू की शरण में जाने के बारे में बारबार सोचती रहती.

विमला अपनी मालकिन से संवेदना रखती थी. वह उस की कशमकश को देखसमझ रही थी.

रोजरोज उस का महिमामंडन सुनतेसुनते वह विमला के साथ उस के

गुरू के पास जाने को तैयार हो गई.

विमला अपनी मालकिन को अपने गुरू के पास ले जाने से पहले ही उस की पूरी कहानी सुना चुकी थी.

गुरू ने विमला को आशीर्वाद दिया था कि इस साल यकीनन उस के बेटा पैदा होगा. वह खुशी से कल्पनालोक में बेटे को गोद में खिलाती हुई महसूस कर रही थी.

रसिका के पहुंचने की खबर मिलते ही गुरू ने आंखें बंद कर ध्यान में लीन होने का नाटक किया.

आधे घंटे के इंतजार के बाद रसिका को अंदर बुलाया गया. वह कुछ कहती, उस से पहले ही गुरू ने उस की जन्मपत्रिका पढ़ कर सुना डाली.

गुरूजी पर अंधभक्ति के लिए उस का एक नाटक ही काफी था. रसिका की आंखों से धाराप्रवाह अश्रु बह निकले थे और उस ने आगे बढ़ कर गुरू के चरणों पर झुकना चाहा.

‘‘नहीं… नहीं… बेटी मेरा ब्रह्मचर्य मत भंग करो. मैं तो बालब्रह्मचारी हूं. मैं तो इस दुनिया में लोगों को कष्ट और संकट दूर करने के लिए ही आया हूं.

‘‘मैं तो हिमालय की कंदरा में जाने कितने बरसों से तपस्या करता रहा हूं. न ही मेरा कोई नाम है, न ही मुझे अपने जन्म का पता है.’’

रसिका नतमस्तक थी. बोली, ‘‘गुरूजी, अब आप ही मुझे बचाइए… वैभव दूसरी स्त्री के चक्कर में न पड़े.’’

‘‘बच्चा, मैं ने दिव्य दृष्टि से देख लिया है. वह रोशनी तुम्हारी जिंदगी में अंधेरा करना चाहती है.

‘‘यह भभूत ले जाओ… वैभव को खिलाती रहना. वह रोशनी की ओर अपनी नजरें भी नहीं उठाएगा.’’

रसिका खुशीखुशी क्व4 हजार का नोट उस के चरणों में रख कर ऐसा महसूस कर रही थी जैसे सारा जहां उस की मुट्ठी में आ गया हो.

फिर तो कभी कलावा, कभी ताबीज तो कभी हवनपूजा. धीरेधीरे उस का विश्वास गुरूजी पर बढ़ता गया क्योंकि रोशनी यह कंपनी छोड़ दूसरी में चली गई थी और वैभव फिर से उस के पास लौट आया था.

रसिका खुश हो कर गुरू की सेवा में अपनी तनख्वाह का 40वां भाग तो निश्चित रूप से देने लगी थी. उस के अतिरिक्त समयसमय पर अलग से चढ़ावा चढ़ाती.

रसिका अपना भविष्य सुधारने में व्यस्त थी. उधर बेटी मान्या और वंश की दोस्ती प्यार में बदल गई थी.

वंश रईस परिवार का इकलौता चिराग था. वह रंगबिरंगी तितलियों की खोज में रहता था. वह देखने में स्मार्ट था. उस के पिता का लंबाचौड़ा डायमंड का बिजनैस था. कनाट प्लेस में बड़ा शोरूम था. इसलिए उस के डिगरी का कोई खास माने नहीं था. कालेज तो लिए मौजमस्ती की जगह थी. वह फाइनल ईयर में थी और कैंपस भी हो गया था.

माधवीलता खुश हैं: क्या मिनी के लिए सही था वह रिश्ता

बहुत देर से ऐसी अस्तव्यस्त गतिविधियों को देख रही हूं. वे शीशे की मेज पर पेपरवेट नचा रही हैं. कभी पिनकुशन से पिन निकाल कर नाखूनों का मैल साफ करती हैं. अब नाखून ही कुतरना शुरू कर दिया. हैरानी होती है. होनी ठीक भी है. कोई और ऐसे करे तो समझ भी आए. ये सब बातें कोई संसार का 8वां आश्चर्य नहीं. अकसर लोग करते हैं. पर माधवीलता ऐसा करेंगी, यह नहीं सोचा जा सकता. फिर जब उन्होंने शून्य में ताकते हुए उंगली नाक में डाल कर घुमानी शुरू की तो सचमुच हैरानी अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई. ऐसी असभ्य, अशिष्ट हरकत माधवीलता तो कतई नहीं कर सकतीं.

माधवीलता हमारे कार्यालय में निदेशिका हैं. सुशिक्षित, उच्च अधिकारी. पति भी भारत सरकार में उच्चाधिकारी हैं. सुखी, संपन्न, सद्गृहस्थ. अब उम्र हो चली है, पर अभी खंडहर नहीं हुईं. उम्र 50-52 के करीब. बालों में सफेदी की झलक है, जिसे उन्होंने काला करने की कोशिश नहीं की. वे सुंदर हैं. अच्छी कदकाठी की हैं. पहननेओढ़ने का सलीका है उन में.

वे माथे पर बिंदी सजाती हैं. मांग में सिंदूर की हलकी सी छुअन. कार स्वयं चला कर आती हैं. 2 बच्चे हैं. बेटा आईपीएस में चुना गया है और आजकल प्रशिक्षण पर है. बेटी की हाल ही में  धनीमानी व्यापारी परिवार में शादी की है. लड़का इकलौता है. उस के मांबाप अशिक्षित, आढ़तिए नहीं हैं, खूब पढ़ेलिखे हैं.

व्यापारी वर्ग के लोग भी अब जब बहू की तलाश करते हैं तो सुंदर, सुशील, कौनवैंट में पढ़ी, भले घर की कन्या चाहते हैं. व्यापारी घराने की न हो तो उच्च अधिकारी परिवार की कन्या की जोड़ी भी ठीक मानी जाती है. शायद सोचते होंगे कि सरकारी अधिकारी रिश्तेदार हो तो शायद कुछ न कुछ सरकारी काम निकाल सकें.

सरकारी अधिकारी सोचते हैं कि नौकरीपेशा क्यों, मिल सके तो व्यापारी परिवार बेटी को मिले. नौकरी में रखा क्या है. हमेशा पैसों की किल्लत. मन का खर्च कर सको, मन का खापी सको, ऐसा कम ही होता है.

‘‘पैसे तो बस इतने ही होने चाहिए कि न खर्च करने से पहले सोचना पड़े और न पर्स के पैसे गिनने पड़ें,’’ माधवीलता ने अपनी बेटी की बात सुनाई थी.

मौका था उन की बेटी की सगाई की पार्टी का. वे बेटी की इच्छा को पूरा कर पा रही हैं, ऐसा संतोष आवाज से छलक रहा था. सचमुच सफलता की चमक होती ही कुछ और है, कहनी नहीं पड़ती, खुदबखुद बोलती है. उन की बेटी की शादी के मौके पर ही पहली बार पंचतारा होटल अंदर से देखने का सुअवसर मिला था. क्या शान, क्या ठाटबाट, क्या कहने.

जो गया सो ‘वाहवाह’ करता लौटा. इसे कहते हैं खानदानी आदमी. ‘फलों से लदे वृक्ष खुदबखुद झुक जाते हैं.’ होगा मुहावरा, माधवीलता के रूप में हम ने उन्हें इंसानी रूप धारण करते देखा है. शील, शिष्टाचार, सौंदर्य, संपन्नता, शोभा, सुखसंतोष आदि का अर्थ क्या होता है, वही माधवीलता के चेहरे पर वर्षों से देखा है.

वही माधवीलता आज अनमनी सी बैठी उंगली से नाक साफ कर रही हैं. अपनेआप होंठों ही होंठों में कुछ बुदबुदा रही हैं.

माधवीलता अपनेआप से खफा मालूम पड़ती हैं. कभी तो न ऐसे चिड़चिड़ाती थीं, न ऐसी अशिष्ट हरकतें करती थीं. क्या हुआ? प्रत्यक्षतया कोई कारण दिखाई न दे रहा था. हमेशा की मृदुभाषिणी, सुभाषिणी माधवीलता का ऐसा आचरण?

रहस्य ज्यादा दिन रहस्य न रहा. आदमी की फितरत ही ऐसी है कि न सुख पी सकता है अकेले, न दुख. दोनों में ही कहने को अपना साथी तलाश करता है. घरबाहर की अपनी बातें आमतौर पर वे करती नहीं हैं, पर उस दिन माधवीलता ने स्वयं बुला भेजा. दोचार इधरउधर की बातें हुईं, फिर बोलीं, ‘‘दिल्ली में अच्छा मनोचिकित्सक बताइए कोई.’’

मैं ने 5-6 नाम सुझाए. बात साफ न हुई. मन में खटक गया कि अंदर कुछ और तूफान है. बेटी को ले कर कुछ परेशानी हो सकती है. लेकिन कहें कैसे. बेटी की बात, मुंह से निकली और पराई हुई.

पूछने की जरूरत न हुई. 3-4 दिन बाद फिर बुला भेजा. ज्यादा उद्वेलित दिखीं. बोलीं, ‘‘दांपत्य असमंजस्य पर आप का भी तो बहुत काम है, आप ने शायद कुछ कार्यक्रम भी किए हैं…’’

‘‘जी, कार्यक्रम भी किए हैं और एक किताब भी छपी है.’’

फिर वे गोलगोल बात न कर थोड़ी ही देर में खुल गईं. शक साफ था. बात उन की विवाहित बेटी की उलझन को ले कर ही निकली. पता चला कि दामाद बेटी की नहीं सुनता, मां का आज्ञाकारी पुत्र है. मांबाप और बेटा तीनों ही लड़की को तंग करते हैं.

हमारा फर्ज था कि लड़की को भरपूर सहानुभूति दें और आजकल जैसे दुलहनों को दहेज के लिए सताया जा रहा है, उस पर अपने सुनेदेखे किस्से भी सुना दिए जाएं. पर क्या ऐसे किस्सों का पठनपाठन किसी के घर को बसा सकता है?

‘‘पुलिस में रिपोर्ट करें?’’ उन्होंने सलाह चाही.

‘‘थाने, कचहरी से घर नहीं बसते,’’ मैं जानती थी कि उन्हें सलाह नहीं, सहायता की आवश्यकता है. किंतु सलाह हमेशा सही देनी चाहिए.

मैं ने अपनी सहायता स्पष्ट की और फिर पूछा, ‘‘क्या आप ने विश्लेषण किया है कि वे बेटी को तंग क्यों कर रहे हैं?’’

‘‘वे हैं ही बुरे. गलत जगह रिश्ता हो गया,’’ वे दोटूक फैसला दे बैठीं.

‘‘बुरे होते तो आप उन्हें पसंद ही क्यों करतीं. अपनी प्यारीदुलारी बेटी को गलत जगह आप ने दिया ही क्यों होता? आइए, सोचें कि गलती क्या है. हो सकता है, कोई गलती न हो, सिर्फ गलतफहमी ही हो,’’ मैं ने उन्हें स्थिति पर साफसाफ सोचने पर आमंत्रित किया.

वे बहुत अनमनी सी मानीं, ‘‘दरअसल, वह मिन्नी को कुछ समझता नहीं. जो कुछ है, उस की मां है. वह जो कहती है, चाहती है, वही होता है.’’

‘‘घर उस का है.’’

‘‘घर मिन्नी का भी तो है.’’

‘‘उस का है. मिन्नी को बनाना है. ऐसा तो है नहीं कि बेटी इधर डोली से उतरी, उधर घर की चाबी सास ने उस के हवाले की. ऐसा तो सिर्फ सिनेमा में होता है. घर बनता है आपसी प्यार से, सद्भाव से, अधिकार से नहीं. सद्भावना अर्जित करनी पड़ती है, कहीं से अनुदान में नहीं मिलती.’’

‘‘ये सब मिन्नी की ससुराल वाले नहीं समझते.’’

‘‘यह ससुराल वालों को नहीं, मिन्नी को समझना है.’’

‘‘आप का मतलब है कि उन लोगों के साथ एडजस्ट करने के लिए मिन्नी खुद को मिट्टी में मिला ले?’’ उन के चेहरे पर साफसाफ नाराजगी दिखी.

मैं ने सोचा, ‘अपनी सलाह की गठरी बांध कर चुपचाप उठ जाऊं. मैं क्यों बेवजह माधवीलता की नाराजगी मोल लूं. उन की बेटी है, वे उस के बारे में जो सोचें. शायद ऐसा ही कुछ उन्होंने सोचा होगा कि ये क्यों मुख्तार बन रही हैं.’

बात वहीं थमी. शायद 20-25 दिन बीते होंगे. फुरसत के क्षणों में मैं ने पूछा, ‘‘मिन्नी कैसी है?’’

‘‘हम उसे ले आए हैं. वहां तो वे लोग उसे मार ही देते.’’

‘‘आप ने फैसला कुछ जल्दी में नहीं किया?’’

‘‘नहीं, बहुत सोचसमझ कर किया है.’’

‘‘क्या सोचा? मिन्नी का क्या करोगे?’’

‘‘हम तलाक का केस दायर करेंगे. इन लोगों से पीछा छूटे तो फिर दूसरी जगह बात चलाएंगे.’’

‘‘मिन्नी से पूछा?’’

‘‘उस से क्या पूछना. वह तो बहुत परेशान है. उस की हालत देख कर मुझे बहुत दुख होता है.’’

सुन कर दुख तो मुझे भी हुआ. पर लगा, हाथ पर हाथ धर कर बैठना भी ठीक नहीं. यह कोई तमाशा नहीं कि दूर बैठे ताकते रहो.

एक समारोह में अचानक मिन्नी से  भेंट हो गई. उतरा चेहरा, सूनी

मांग, सूना माथा, सूनी आंखें… देख कर धक्का सा लगा. ब्याह के दिन कैसी सुंदर लगी थी. कुछ लड़कियों पर रूप चढ़ता भी बहुत है. अब वही लुटे शृंगार सी खड़ी थी. कंधे पर पत्रकारों वाला झोला लटक रहा था.

‘‘क्या कर रही हो आजकल?’’ मैं ने सहज भाव से पूछा.

‘‘स्वतंत्र पत्रकारिता,’’ उस का संक्षिप्त उत्तर था. माधवीलता की कही बात फिर याद हो आई, ‘पर्स में पैसे गिनने न पड़ें, खर्च करने से पहले सोचना न पड़े,’ यह इसी मिन्नी की इच्छा थी. जब वही मिला जो चाहा था तो फिर गड़बड़ कहां हुई?

संयोग से मिन्नी से छिटपुट मुलाकातें होती रहीं. लड़की टूटी सी मालूम होती थी. वह दृढ़ता न दिखाती जो ऐसा कड़ा निर्णय लेने के बाद चेहरे पर होनी चाहिए थी. पता नहीं, शायद कुछ तार कांपते थे जो टूटने से रह गए थे. मैं उस की सखी नहीं, उस की मां की सखी नहीं, उस की ताईचाची नहीं, फिर किस हक से पूछूं.

‘‘क्या कुछ हो रहा है?’’ आखिर एक दिन पूछ ही बैठी.

‘‘किस बारे में?’’

‘‘केस के संबंध में,’’ सहज भाव से कहा.

लड़की हतप्रभ. मां ने दफ्तर में बताया होगा, यह नहीं समझ सकी. झट से पूछा, ‘‘उन्होंने कहा आप से?’’

‘‘हां,’’ मैं जानती थी कि यह सच न था. पर मैं ने माना कि ‘उन्होंने’ का अर्थ मेरे लिए माधवीलता हैं और उस के लिए उस  का पति. उस ने चेहरे पर उत्सुकता छिपाई नहीं, सरलता से बोली, ‘‘मिले थे वे?’’

रेखांकित करने को इतना ही काफी था कि मन में कहीं कोई आकर्षण शेष है, वरना कहा होता, ‘मिला था क्या?’

मैं ने उसे कौफी के लिए आमंत्रित किया तो वह मना न कर सकी. मैं उस के ‘मिले थे’ वाले सूत्र को पकड़े बैठी थी. वहीं से कुरेदा. लड़की अपनी रौ में बोलती गई, ‘‘बहुत खराब लोग हैं. पता नहीं कैसे पढ़ेलिखे जानवर हैं. उन्होंने मेरा जीना दूभर कर दिया है.’’

‘‘क्या उस घर में सभी तुम से बुरा व्यवहार करते हैं?’’

‘‘जी.’’

‘‘अच्छा चलो, सोचें कि क्या बुरा बरताव करते हैं?’’

‘‘मैं आप को बता ही नहीं सकती. कल्पना ही नहीं की जा सकती. वे लोग एकदम आदिमकाल के हैं. औरतों को कुछ समझते ही नहीं. वे समझते हैं कि औरतें सिर्फ उन की जिंदगी को आसान बनाने के लिए हैं. उन को अपनेआप कुछ सोचनासमझना नहीं चाहिए, उन्हें देखने के लिए उन की आंखें इस्तेमाल करनी चाहिए, सुनने के लिए उन के कान. उस को उन की मरजी के बिना कुछ नहीं करना चाहिए.’’

‘‘कुछ ठोस बात? ये तो सब बड़ी अस्पष्ट सी बातें हैं. ऐसा तो आम हिंदुस्तानी घरों में होता ही है. शादी से पहले भी तो सारे फैसले पिता करते हैं, बाद में पति को यह अधिकार मिल जाता है.’’

‘‘आप इसे कम समझती हैं? क्या औरत होने का मतलब मन, कर्म और वचन के स्वातंत्र्य को पति के चरणों में समर्पित कर निरे शून्य में बदल जाना ही है? मिट्टी में मिल जाएं?’’ उस का गोरा चेहरा लाल हो गया.

मैं ने उसे समझाया, ‘‘अगर बीज अपने बीजत्व को ही संभाले रहे तो भरेपूरे वृक्ष का विस्तार कभी नहीं पा सकता. अगर अपने अंदर समाए उस विस्तार का एहसास है तो बीज का स्वरूप भी बदलना ही होता है. उसे मिट्टी में मिलना कहो या विस्तार पाना, मरजी तुम्हारी है.’’

पहले वह झिझकी. फिर बोली, ‘‘अगर मिट्टी में ही मिलना था तो फिर इस पढ़ाईलिखाई का मतलब क्या हुआ?’’

‘‘आम पढ़ीलिखी प्रतिभाशाली कन्याओं के सपनों में एक ऐसा घर बसा होता है जिस में रांझा, फरहाद या मजनूं से भी अधिक प्रेम करने वाला पति होता है, जिस का काम केवल प्यार करना है. वह कमाता है, धनी है, सुंदर है, शिष्ट है और शक्तिशाली भी है. सपनों में कोई लड़नेझगड़ने वाला, कुरूप, दुर्बल, कायर, व्यसनी व्यक्ति को तो नहीं देखता.

‘‘लेकिन जिंदगी सपनों से नहीं चलती. सच तो यह है कि संपूर्ण कोई नहीं होता. अगर पति में कमियां हैं तो कमियां पत्नी में भी हो सकती हैं, बल्कि होती हैं. उन की ओर कोई लड़की नहीं देखती. लड़की ही क्यों, कोई भी नहीं देखता. सपनों के इस घर में केवल एक पति, पत्नी और बस.

‘‘हां, कल्पना के शिशु जरूर होते हैं, लेकिन गोरे, गुदकारे, हंसते हुए. बच्चे रोते हैं, बीमार होते हैं, यह तो नहीं सोचा जाता. सपनों का महल होता है, जिस में शहजादा होता है और वह बालिका उस की रानी होती है. क्या इस घर में एक सासससुर, देवरजेठ, ननद, देवरानी, जेठानी होती हैं? जी नहीं, सपनों में खलनायिकाओं का क्या काम?

‘‘जिंदगी में ये सब होते हैं, अपने समस्त मानवीय गुणों और अवगुणों के साथ. संगसाथ रहने का मतलब यह है कि दूसरों के गुणों को बढ़ा कर देखा जाए और अवगुणों को नजरअंदाज किया जाए.’’

‘‘फिर सारी पढ़ाईलिखाई का मतलब?’’ मिन्नी बोली.

‘‘पढ़ाईलिखाई का मतलब यह है कि वह आप के व्यक्तित्व को कितना निखारती है. डिगरी का मतलब रास्ते का रोड़ा बनना नहीं, पथ को सुगम बनाना है. कितने बेहतर ढंग से आप चीजों को सुलझा सकती हैं…न कि आप डिगरी ले कर खुद अपने अहंकार में ऐसे कैद हो जाएं कि दूसरों को कम आंकना शुरू कर दें. जिन में सौ अवगुण हैं उन का एक गुण याद करने की कोशिश करो. हो सकता है उस में 99 अवगुण हों, लेकिन एक तो गुण होगा?’’

वह चुप रह गई. मैं ने फिर कुरेदा. उस के होंठ कुछ कहने को फड़के, पर शायद शब्द न मिले. मैं ने पकड़ने को तिनका सा दिया, ‘‘वे लोग तुम्हें प्यार करते हैं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘वे लोग तुम्हें पसंद करते हैं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘करते थे, न करते होते तो अपने प्यारे बेटे का ब्याह तुम से क्यों करते?’’

सचमुच उस के पास जवाब न था.

‘‘पति प्यार करता है?’’ मैं ने पूछा.

उस ने इनकार में सिर हिलाया.

‘‘कभी किसी दिन…?’’

मिन्नी की पलकें न उठीं. सचमुच सही नब्ज पकड़ी थी. कितना ही बुरा आदमी हो, एक क्षण को कभी तो अच्छा होता है. सीधे म्यान से तलवार निकाल कर कोई विवाह मंडप में नहीं पहुंचता. चीजें धीरेधीरे बिगड़ती हैं. अपनी नासमझी से उन्हें और बिगाड़ते हैं, लड़की के मातापिता अपनी बेटी के प्यार में और लड़के के मातापिता अपने बेटे के प्यार में.

हर कोई गिरह पर हाथ रखता है, सिरा कोई नहीं देता. स्नेह की डोर है कि उलझती चली जाती है. ज्यादा उलझी हो तो सुलझाने का समय और सब्र कम पड़ जाता है. ताकत से वह तोड़ी जाती है और तोड़ कर वहीं जोड़ो या कहीं और, गांठ तो पड़ती ही है.

मिन्नी की पलकें झुकी थीं. यादों में प्यार का कोई क्षण तो रहा होगा ही. लेकिन कैसे माने. जिसे शत्रु घोषित किया है उसी के लिए इस कोमल संवेदन को कैसे स्वीकारे, यह संकोच है और अहं भी है. उधर लड़का भी अकड़ा बैठा होगा. यह उस के ऐब गिनाती है, लेकिन गिनाने के लिए ऐब उस के पास भी कम न होंगे. ऐसे में कोई किसी को दूसरे के गुण नहीं गिनाता.

माधवीलता से बात की, ‘‘आप बेटी को ससुराल भेज दें.’’

‘‘कैसे? वे लोग कैसा व्यवहार करेंगे? कहीं मार ही न दें?’’ उन की बीसियों शंकाएं थीं.

‘‘बिगड़ तो रही है, बनाने की कोशिश एक बार करने में हर्ज ही क्या है? फिर मिन्नी भी चाहती है पति को. प्रयास करने में नुकसान क्या है?’’

‘‘सास ताने मारेगी कि आ गई,’’ मिन्नी को शंका थी.

‘‘अपने ही घर तो जाओगी. वह भड़केगी, उबलेगी, लेकिन फिर धीरेधीरे शांत हो जाएगी. पति के सामने सिर उठा लो तो बाहर वालों के सामने झुकता है. अच्छा तो यही है कि नजर उठने से पहले ही सिर झुका लेती. पहले नजरें उठेंगी फिर उंगलियां. दूसरी जगह क्या सबकुछ तुम्हारे मनमुताबिक का होगा? कोई भी बिंदी अतीत के इस दाग को नहीं छिपा सकती. घाव सब भर जाते हैं, दाग रह जाते हैं.

‘‘बाकी जिंदगी में भी तो समझौते करने पड़ेंगे. इस से अच्छा है कि पहली बार ही समझौता कर लो. बाद में बाहर वालों की हजार बातें सुनने से अच्छा है कि चार बातें घर वालों की ही सुन ली जाएं. चाहो तो सद्भावना अर्जित करने के लिए इसे सद्भावना निवेश मान लो. बिना किए तो प्रतिदान नहीं मिलता. अभी अहं का टकराव है और असल में अहं से भी अधिक सपनों का टकराव है.

‘‘अगर तुम्हारा पति तुम्हारा स्वप्नपुरुष नहीं निकला तो इस की भी उतनी ही संभावना है कि तुम भी अपने पति की स्वप्नसुंदरी न निकली हो. उस ने भी तो ऐसी छवि मन में बसाई होगी जिस की गरदन केवल स्वीकृति में ही हिलती होगी. एकदूसरे के सपनों को समझो और सपनों को अलगअलग देखने के बजाय साझे सपने देखने की कोशिश करो.’’

‘‘हम कोर्ट में चले गए हैं. अब लोग क्या कहेंगे?’’ उस की झिझक वाजिब थी.

‘‘लोग तो कहेंगे, जो चाहेंगे. लेकिन सब प्रसन्न ही होंगे कि एक घर टूटने से बच गया. इस पर बधाई ही देंगे. कोई अफसोस प्रकट करने नहीं आएगा. तुम्हारा फैसला क्यों बदल गया, यह भी कोई नहीं पूछेगा. जाओगी तो वह अकड़ेगा जरूर, फिर? सारी हायतौबा के बाद क्या करने को बचेगा?

‘‘तृप्ति के क्षण का यह मोल ज्यादा नहीं है. हो सकता है कि कुछ भी न कहे. तब लगेगा न कि अपनेआप इधर इतने दिन न आ कर भूल ही की. हो सकता है कि वह भी अपने मन के अंदर स्वीकारे कि तुम हार कर जीत गई हो और वह जीत कर हार गया है. दरअसल, जिंदगी में जीतहार कुछ होती ही नहीं है. जीतता वही है जो हार जाता है. जब दोनों जीतते हैं, तो दोनों ही हार जाते हैं, अपने सामने भी और जग के सामने भी. हार का आनंद कह कर नहीं समझाया जा सकता, उसे भुक्तभोगी ही समझ सकता है.’’

माधवीलता को झिझक थी कि पता नहीं बेटी को क्याक्या झेलना पड़ेगा. उन्हें भी लगा कि बाद में जो झेलना पड़ेगा, उस से तो कम ही होगा.

कहानी होती तो शायद यों होती कि उस के बाद दोनों सुख से रहने लगे. पर यह कहानी नहीं है, जिंदगी है. इस का अंत कुछ यों है कि माधवीलता हैं वही सभ्य, शिष्ट, सुसंस्कृत, शालीन महिला. वे चिड़चिड़ाती नहीं हैं. वही सौम्य, मृदु मुसकान उन के अधरों पर है.

आज उन्होंने सवाल उठाया है कि नवजात शिशुओं के पालनपोषण पर विशेष अभियान की आवश्यकता है ताकि नई माताएं लाभान्वित हो सकें. बच्चों का अच्छा पालनपोषण राष्ट्रीय आवश्यकता है.

सभा में हम सब सहज भाव से मुसकराए हैं, अफसरों के सुंदर प्रस्तावों की सब से सहज और सरल प्रतिक्रिया यही है.

माधवीलता खुश हैं और साथ ही हम सब भी.

बहू-बेटी: क्या सास को जया ने कैसे समझाया

घर क्या था, अच्छाखासा कुरुक्षेत्र का मैदान बना हुआ था. सुबह की ट्र्र्रेन से बेटी और दामाद आए थे. सारा सामान बिखरा हुआ था. दयावती ने महरी से कितना कहा था कि मेहमान आ रहे हैं, जरा जल्दी आ कर घर साफ कर जाए. 10 बज रहे थे, पर महरी का कुछ पता नहीं था. झाड़ ूबुहारु तो दूर, अभी तो रात भर के बरतन भी पड़े थे. 2-2 बार चाय बन चुकी थी, नाश्ता कब निबटेगा, कुछ पता नहीं था.

रमेश तो एक प्याला चाय पी कर ही दफ्तर चला गया था. उस की पत्नी जया अपनी 3 महीने की बच्ची को गोद में लिए बैठी थी. उस को रात भर तंग किया था उस बच्ची ने, और वह अभी भी सोने का नाम नहीं ले रही थी, जहां गोद से अलग किया नहीं कि रोने लगती थी.

इधर कमलनाथ हैं कि अवकाश प्राप्त करने के बाद से बरताव ऐसा हो गया है जैसे कहीं के लाटसाहब हो गए हों. सब काम समय पर और एकदम ठीक होना चाहिए. कहीं कोई कमी नहीं रहनी चाहिए. उन के घर के काम में मदद करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था.

गंदे बरतनों को देख कर दयावती खीज ही रही थी कि रश्मि बेटी ने आ कर मां को बांहों में प्यार से कस ही नहीं लिया बल्कि अपने पुराने स्कूली अंदाज से उस के गालों पर कई चुंबन भी जड़ दिए.

दयावती ने मुसकरा कर कहा, ‘‘चल हट, रही न वही बच्ची की बच्ची.’’

‘‘क्या हो रहा है, मां? पहले यह बताओ?’’

मां ने रश्मि को सारा दुखड़ा रो दिया.

‘‘तो इस में क्या बात है? तुम अपने दामाद का दिल बहलाओ. मैं थोड़ी देर में सब ठीक किए देती हूं.’’

‘‘पगली कहीं की,’’ मां ने प्यार से झिड़क कर कहा, ‘‘2 दिन के लिए तो आई है. क्या तुझ से घर का काम करवाऊंगी?’’

‘‘क्यों, क्या अब तुम्हारी बेटी नहीं रही मैं? डांटडांट कर क्या मुझ से घर का काम नहीं करवाया तुम ने? यह घर क्या अब पराया हो गया है मेरे लिए?’’ बेटी ने उलाहना दिया.

‘‘तब बात और थी, अब तुझे ब्याह जो दिया है. अपने घर में तो सबकुछ करती ही है. यहां तो तू बैठ और दो घड़ी हंसबोल कर मां का दिल बहला.’’

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं सुनूंगी. तुम अब यहां से जाओ. या तो इन के पास जा कर बैठो या छुटकी को संभाल लो और भाभी को यहां भेज दो. हम दोनों मिल कर काम निबटा देंगे.’’

‘‘अरे, बहू को क्या भेजूं, उसे तो छुटकी से ही फुरसत नहीं है. यह बच्ची भी ऐसी है कि दूसरे के पास जाते ही रोने लगती है. रोता बच्चा किसे अच्छा लगता है?’’

रश्मि को मां की बात में कुछ गहराई का एहसास हुआ. कहीं कुछ गड़बड़ लगती है, पर उस ने कुरेदना ठीक नहीं समझा. वह भी किसी की बहू है और उसे भी अपनी सास से निबटना पड़ता है. तालमेल बिठाने में कहीं न कहीं किसी को दबना ही पड़ता है. बिना समझौते के कहीं काम चलता है?

बातें करतेकरते रश्मि ने एक प्याला चाय बना ली थी. मां के हाथों में चाय का प्याला देते हुए उस ने कहा, ‘‘तुम जाओ, मां, उन्हें चाय दे आओ. उन को तो दिन भर चाय मिलती रहे, फिर कुछ नहीं चाहिए.’’

मां ने झिझकते हुए कहा, ‘‘अब तू ही दे आ न.’’

‘‘ओहो, कहा न, मां, तुम जाओ और दो घड़ी उन के पास बैठ कर बातें करो. आखिर उन को भी पता लगना चाहिए कि उन की सास यानी कि मेरी मां कितनी अच्छी हैं.’’

रश्मि ने मां को जबरदस्ती रसोई से बाहर निकाल दिया और साड़ी को कमर से कस कर काम में लग गई. फुरती से काम करने की आदत उस की शुरू से ही थी. देखतेदेखते उस ने सारी रसोई साफ कर दी.

फिर भाभी के पास जा कर बच्ची को गोद में ले लिया और हंसते हुए बोली, ‘‘यह तो है ही इतनी प्यारी कि बस, गोद में ले कर इस का मुंह निहारते रहो.’’

भाभी को लगा जैसे ननद ताना दे रही हो, पर उस ने तीखा उत्तर न देना ही ठीक समझा. हंस कर बोली, ‘‘लगता है सब के सिर चढ़ जाएगी.’’

‘‘भाभी, इसे तो मैं ले जाऊंगी.’’

‘‘हांहां, ले जाना. रोतेरोते सब के दिमाग ठिकाने लगा देगी.’’

‘‘बेचारी को बदनाम कर रखा है सब ने. कहां रो रही है मेरे पास?’’

‘‘यह तो नाटक है. लो, लगी न रोने?’’

‘‘लो, बाबा लो,’’ रश्मि ने हंस कर कहा, ‘‘संभालो अपनी बिटिया को. अच्छा, अब यह बताओ नाश्ता क्या बनेगा? मैं जल्दी से तैयार कर देती हूं.’’

भाभी ने जबरन हंसते हुए कहा, ‘‘क्यों, तुम क्यों बनाओगी? क्या दामादजी को किसी दूसरे के हाथ का खाना अच्छा नहीं लगता?’’

हंस कर रश्मि ने कहा, ‘‘यह बात नहीं, मुझे तो खुद ही खाना बनाना अच्छा लगता है. वैसे वह बोल रहे थे कि भाभी के हाथ से बने कबाब जरूर खाऊंगा.’’

‘‘बना दूंगी. अच्छा, तुम इसे जरा गोदी में ले कर बैठ जाओ, सो गई है. मैं झटपट नाश्ता बना देती हूं.’’

‘‘ओहो, लिटा दो न बिस्तर पर.’’

‘‘यही तो मुश्किल है. बस गोदी में ही सोती रहती है.’’

‘‘अच्छा ठहरो, मां को बुलाती हूं. वह ले कर बैठी रहेंगी. हम दोनों घर का काम कर लेंगे.’’

‘‘नहींनहीं, मांजी को तंग मत करो.’’

जया को मालूम था कि एक तो छुटकी मांजी की गोद में ज्यादा देर टिकती नहीं, दूसरे जहां उस ने कपड़े गंदे किए कि वह बहू को आवाज देने लगती हैं. स्वयं गंदे कपड़े नहीं छूतीं.

रश्मि को लगा, यहां भी कुछ गड़बड़ है. चुपचाप धीरे से छुटकी को गोद में ले कर बैठ गई और प्यार से उस का सुंदर मुख निहारने लगी. कुछ ही महीने की तो बात है, उस के घर भी मेहमान आने वाला है. वह भी ऐसे ही व्यस्त हो जाएगी. घर का पूरा काम न कर पाएगी तो उस की सास क्या कर लेगी, पर उस की सास तो सैलानी है, वह तो घर में ही नहीं टिकती. उस का सामाजिक दायरा बहुत बड़ा है. गरदन को झटका दे कर रश्मि मन ही मन बोली, ‘देखा जाएगा.’

मुश्किल से 15 मिनट हुए थे कि बच्ची रो पड़ी. हाथ से टटोल कर देखा तो पोतड़ा गीला था. उस ने जल्दी से कपड़ा बदल दिया, पर बच्ची चुप न हुई. शायद भूखी है. अब तो भाभी को बुलाना ही पड़ेगा. भाभी ने टोस्ट सेंक दिए थे, आमलेट बनाने जा रही थी. पिताजी अभी गरमगरम जलेबियां ले कर आए थे.

भाभी को जबरदस्ती बाहर कर दिया. बच्ची की देखभाल आवश्यक थी. फुरती से आमलेट बना कर ट्रे में रख कर मेज पर पहुंचा दिए. कांटेचम्मच, प्यालेप्लेट सब सही तरह से सजा कर पिताजी और अपने पति को बुला लाई. मां अभी नहा रही थीं. उस ने सोचा वह मां और भाभी के साथ खाएगी बाद में.

नाश्ते के बाद रश्मि ने कुछ काम बता कर पति को बाजार भेज दिया. अब मैदान खाली था. झट से झाड़ ू उठा ली. सोचा कि पति के वापस आने से पहले ही सारा घर साफसुथरा कर देगी. वह नहीं चाहती थी कि पति के ऊपर उस के मायके का बुरा प्रभाव पड़े. घर का मानअपमान उस का मानअपमान था. पति को इस से क्या मतलब कि महरी आई या नहीं.

जैसे ही उस ने झाड़ ू उठाई कि जया आ गई. दोनों में खींचातानी होने लगी.

‘‘ननद रानी, यह क्या कर रही हो? लोग क्या कहेंगे कि 2 दिन के लिए मायके आई और झाड़ ूबुहारु, चौकाबरतन सब करवा लिए. चलो हटो, जा कर नहाधो लो.’’

‘‘नहीं जाती, क्या कर लोगी?’’ रश्मि ने मुसकरा कर कहा, ‘‘मेरा घर है, मैं कुछ भी करूं, तुम्हें मतलब?’’

‘‘है, मतलब है. तुम तो 2 दिन बाद चली जाओगी, पर मुझे तो सारा जीवन यहां बिताना है.’’

रश्मि ने इशारा समझा, फिर भी कहा, ‘‘अच्छा चलो, काम बांट लेते हैं. तुम उधर सफाई कर लो और मैं इधर.’’

‘‘बिलकुल नहीं,’’ जया ने दृढ़ता से कहा, ‘‘ऐसा नहीं होगा.’’

भाभी और ननद झगड़ ही रही थीं कि बच्ची ने रो कर फैसला सुना दिया. भाभी मैदान से हट गई. इधर मां ने दिन के खाने का काम संभाल लिया. छुटकी को नहलानेधुलाने व कपड़े साफ करने में ही बहू को घंटों लग जाते हैं. सास बहू की मजबूरी को समझती थी, पर एक अनकही शिकायत दिल में मसोसती रहती थी. बहू के आने से उसे क्या सुख मिला? वह तो जैसे पहले घरबार में फंसी थी वैसे ही अब भी. कैसेकैसे सपनों का अंबार लगा रखा था, पर वह तो ताश के पत्तों से बने घर की तरह बिखर गया.

वह कसक और बढ़ गई थी. नहीं, शायद कसक तो वही थी, केवल उस की चुभन बढ़ गई थी. दयावती के हाथ सब्जी की ओर बढ़ गए. फिर भी उस का मन बारबार कह रहा था, लड़की को देखो, 2 दिन के लिए आई है, पर घर का काम ऐसे कर रही है जैसे अभी विवाह ही न हुआ हो. आखिर लड़की है. मां को समझती है…और बहू…

संध्या हो चुकी थी. रश्मि और उस का पति विजय अभीअभी जनपथ से लौटे थे. कितना सारा सामान खरीद कर लाए थे. कहकहे लग रहे थे. चाय ठंडी हो गई थी, पर उस का ध्यान किसे था? विजय ने पैराशूटनायलोन की एक जाकेट अपने लिए और एक अपनी पत्नी के लिए खरीदी थी. रश्मि के लिए एक जींस भी खरीदी थी. उसे रश्मि दोनों चीजें पहन कर दिखा रही थी. कितनी चुस्त और सुंदर लग रही थी. दयावती का चेहरा खिल उठा था. दिल गर्व से भर गया था.

बहू रश्मि को देख कर हंस रही थी, पर दिल पर एक बोझ सा था. शादी के बाद सास ने उस की जींस व हाउसकोट बकसे में बंद करवा दिए थे, क्योंकि उन्हें पहन कर वह बहू जैसी नहीं लगती थी.

रात को गैस के तंदूर पर रश्मि ने बढि़या स्वादिष्ठ मुर्गा और नान बनाए. इस बार बहू अपने मायके से तंदूर ले कर आई थी, पर वह वैसा का वैसा ही बंद पड़ा था. उस पर खाना बनाने का अवकाश किसे था. सास को आदत न थी और बहू को समय न था. तंदूर का खाना इतना अच्छा लगा कि विजय ने रश्मि से कहा, ‘‘कल हम भी एक तंदूर खरीद लेंगे.’’

दयावती के मुंह से निकल गया, ‘‘क्यों पैसे खराब करोगे? यही ले जाना. यहां किस काम आ रहा है.’’

कमलनाथ ने कहा, ‘‘ठीक तो है, बेटा. तुम यही ले जाओ. हमें जरूरत पड़ेगी तो और ले लेंगे.’’

बहू चुप. उस के दिल पर तो जैसे किसी ने हथौड़ा मार दिया हो. उस ने अपने पति की ओर देखा. बेटे ने मुंह फेर लिया. एक ही इलाज था. कल ही बहन के लिए एक नया तंदूर खरीद कर ले आए. लेकिन इस के लिए पैसे और समय दोनों की आवश्यकता थी.

बेटी को अपना माहौल याद आया. एक बार तंदूर ले गई तो उस के ससुर व पति दोनों जीवन भर उसे तंदूर पर ही बैठा देंगे. दोनों को खाने का बहुत शौक था. इस के अलावा उसे याद था कि जब मां का दिया हुआ शाल सास ने उस की ननद को बिना पूछे पकड़ा दिया था तो उसे कितना मानसिक कष्ट हुआ था. आंखों में आंसू आ गए थे. भाभी की हालत भी वही होगी.

बात बिगड़ने से पहले ही उस ने कहा, ‘‘नहीं मां, यह तंदूर भाभी का है, मैं नहीं ले जाऊंगी. मेरे पड़ोस में एक मेजर रहते हैं. उन्होंने मुझे सस्ते दामों

पर फौजी कैंटीन से तंदूर लाने के

लिए कहा है. 2-2 तंदूर ले कर मैं

क्या करूंगी?’’

बेटी ने तंदूर के लिए मांग नहीं की थी, परंतु उस ने ससुराल लौटते ही मेजर साहब से तंदूर के लिए कहने का इरादा कर लिया था.

अगले दिन बेटी और दामाद चले गए. घर सूनासूना लगने लगा. चहलपहल मानो समाप्त हो गई थी. इस सूनेपन को तोड़ने वाली केवल एक आवाज थी और वह थी बच्ची के रोने की आवाज. वातावरण सामान्य होने में कुछ समय लगा. मां के मुंह से हर समय बेटी का नाम निकलता था. वह क्याक्या करती थी…क्या कर रही होगी…बच्चा ठीक से हो जाए…तुरंत बुला लूंगी. 3 महीने से पहले वापस नहीं भेजूंगी. बहू सोच रही थी, उसे तो पीछे पड़ कर 1 महीने बाद ही बुला लिया था.

दयावती की बहन की लड़की किसी रिश्तेदार के यहां विवाह में आई थी, समय निकाल कर वह मौसी से मिलने भी आ गई.

‘‘क्या हो रहा है, मौसी?’’

‘‘अरे, तू कब आई?’’ दयावती ने चकित हो कर कहा, ‘‘कुछ खबर भी नहीं?’’

‘‘लो, जब खुद ही चली आई तो खबर क्या भेजनी? आई तो कल ही हूं. शादी है एक. कल वापस भी जाना है, पर अपनी प्यारी मौसी से मिले बिना कैसे जा सकती हूं? भाभी कहां हैं? सुना है, छुटकी बड़ी प्यारी है. बस, उसे देखने भर आई हूं.’’

‘‘अरे, बैठ तो सही. सब देखसुन लेना. देख कढ़ी बना रही हूं. खा कर जाना.’’

‘‘ओहो…बस, मौसी, तुम और तुम्हारी कढ़ी. हमेशा चूल्हाचौका. अब भाभी भी तो है, कुछ तो आराम से बैठा करो.’’

दयावती ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘क्या आराम करना. काम तो जिंदगी की अंतिम सांस तक करना ही करना है.’’

‘‘हाय, दीदी, तुम्हारा कितना काम करती थी. सच, तुम्हें रश्मि दीदी की बहुत याद आती होगी, मौसी?’’

‘‘अब फर्क तो होता ही है बहू और बेटी में,’’ दयावती ने फिर गहरी सांस ली.

जया सुन रही थी. उस के दिल पर चोट लगी. क्यों फर्क होता है बहू और बेटी में? एक को तीर तो दूसरे को तमगा. जब सास की बहन की लड़की चली गई तो जया सोचने लगी कि इस स्थिति में बदलाव आना जरूरी है. सास और बहू के बीच औपचारिकता क्यों? वह सास से साफसाफ कह सकती है कि बारबार बेटी की रट न लगाएं. पर ऐसा कहने से सास को अच्छा न लगेगा. अब उसे ही बेटी की भूमिका अदा करनी पड़ेगी. न सास रहेगी, न बहू. हर घर में बस, मांबेटी ही होनी चाहिए.

वह मुसकराई. उसे एक तरकीब सूझी. परिणाम बुरा भी हो सकता था, परंतु उस ने खतरा उठाने का निर्णय ले ही लिया. अगले सप्ताह होली का त्योहार था. अगर कुछ बुरा भी लगा तो होली के माहौल में ढक जाएगा. उस ने छुटकी को उठा कर चूम लिया.

प्रात: जब वह कमरे से निकली तो जींस पहने हुए थी और ऊपर से चैक का कुरता डाल रखा था. हाथ में गुलाल था.

‘‘होली मुबारक हो, मांजी,’’ कहते हुए जया ने ननद की नकल करते हुए सास के गालों पर चुंबन जड़ दिए और मुंह पर गुलाल मल दिया. दयावती की तो जैसे बोलती ही बंद हो गई. इस से पहले कि सास संभलती, जया ने खिलखिला कर ‘होली है…होली है’ कहते हुए सास को पकड़ कर नाचना शुरू कर दिया. होहल्ला सुन कर कमलनाथ भी बाहर आ गए और यह दृश्य देख कर हंसे बिना न रह सके.

‘‘यह क्या हो रहा है, बहू?’’ कमलनाथ ने हंसते हुए कहा.

‘‘होली है, पिताजी, और सुनिए, आज से मैं बहू नहीं हूं, बेटी हूं…सौ फीसदी बेटी,’’ यह कहते हुए उस ने ससुर के मुंह पर भी गुलाल पोत दिया.

इस से पहले कि कुछ और हंगामा खड़ा होता, पासपड़ोस के लोग मिलने आने लगे. स्त्रियां तो घर में ही घुस आईं. इसी बीच छुटकी रोने लगी. जया ने दौड़ कर छुटकी को उठा लिया और उस के कपड़े बदल कर सास की गोदी में बैठा दिया.

‘‘मांजी, आप मिलने वालों से निबटिए, मैं चायनाश्ता लगा रही हूं.’’

‘‘पर, बहू…’’

‘‘बहू नहीं, बेटी, मांजी. अब मैं बेटी हूं. देखिए मैं कितनी फुरती से काम निबटाती हूं.’’

लोग आ रहे थे और जा रहे थे. जया फुरती से नाश्ता लगालगा कर दे रही थी. रसोई का काम भी संभाल रही थी. गरमागरम पकौडि़यां बना रही थी, जूठे बरतन इकट्ठा नहीं होने दे रही थी. साथ ही साथ धो कर रखती जाती थी. सास को 2 बार रसोई से बाहर किया. उस का काम केवल छुटकी को रखना और मिलने वालों से बात करना था. सास को मजबूरन 2 बार छुटकी के कपड़े बदलने पड़े. सब से बड़ी बात तो यह थी कि दादी की गोद में छुटकी आज चुप थी, रोने का नाम नहीं. लगता था कि वह भी षडयंत्र में शामिल थी.

जब मेहमानों से छुट्टी मिली तो दयावती ने महसूस किया कि छुटकी कुछ बदल गई है. रोई क्यों नहीं आज? बल्कि शैतान हंस ही रही थी.

कमलनाथ ने आवाज दी, ‘‘बहू, जरा एक दहीबड़ा और दे जाना, बहुत अच्छे बने हैं.’’

रसोई से आवाज आई, ‘‘यहां कोई बहूवहू नहीं है, पिताजी.’’

‘‘बड़ी भूल हो गई बेटी,’’ कमलनाथ ने हंसते हुए कहा, ‘‘अब तो मिलेगा न?’’

‘‘और हां बेटी,’’ सास ने शरमाते हुए कहा, ‘‘अपनी मां का भी ध्यान रखना.’’

सास के गले में बांहें डालते हुए जया ने कहा, ‘‘क्योें नहीं, मां, आप लोगों को पा कर मैं कितनी धन्य हूं.’’

रमेश ने जो यह नाटक देख रहा था, गंभीरता से कहा, ‘‘इन हालात में मेरी क्या स्थिति है?’’ और सब हंस पड़े.

बच्चे को कोरोना: निशानिका ने क्या कदम उठाया था

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उलझे रिश्ते- भाग 1: क्या प्रेमी से बिछड़कर खुश रह पाई रश्मि

दिनभर की भागदौड़. फिर घर लौटने पर पति और बच्चों को डिनर करवा कर रश्मि जब बैडरूम में पहुंची तब तक 10 बज चुके थे. उस ने फटाफट नाइट ड्रैस पहनी और फ्रैश हो कर बिस्तर पर आ गई. वह थक कर चूर हो चुकी थी. उसे लगा कि नींद जल्दी ही आ घेरेगी. लेकिन नींद न आई तो उस ने अनमने मन से लेटेलेटे ही टीवी का रिमोट दबाया. कोई न्यूज चैनल चल रहा था. उस पर अचानक एक न्यूज ने उसे चौंका दिया. वह स्तब्ध रह गई. यह क्या हुआ? सुधीर ने मैट्रो के आगे कूद कर सुसाइड कर लिया. उस की आंखों से अश्रुधारा बह निकली. उस का मन किया कि वह जोरजोर से रोए. लेकिन उसे लगा कि कहीं उस का रोना सुन कर पास के कमरे में सो रहे बच्चे जाग न जाएं. पति संभव भी तो दूसरे कमरे में अपने कारोबार का काम निबटाने में लगे थे. रश्मि ने रुलाई रोकने के लिए अपने मुंह पर हाथ रख लिया, लेकिन काफी देर तक रोती रही. शादी से पूर्व का पूरा जीवन उस की आंखों के सामने घूम गया.

बचपन से ही रश्मि काफी बिंदास, चंचल और खुले मिजाज की लड़की थी. आधुनिकता और फैशन पर वह सब से ज्यादा खर्च करती थी. पिता बड़े उद्योगपति थे. इसलिए घर में रुपयोंपैसों की कमी नहीं थी. तीखे नैननक्श वाली रश्मि ने जब कालेज में प्रवेश लिया तो पहले ही दिन सुधीर से उस की आंखें चार हो गईं.

‘‘हैलो आई एम रश्मि,’’ रश्मि ने खुद आगे बढ़ कर सुधीर की तरफ हाथ बढ़ाया. किसी लड़की को यों अचानक हाथ आगे बढ़ाता देख सुधीर अचकचा गया. शर्माते हुए उस ने कहा, ‘‘हैलो, मैं सुधीर हूं.’’

‘‘कहां रहते हो, कौन सी क्लास में हो?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘अभी इस शहर में नया आया हूं. पापा आर्मी में हैं. बी.कौम प्रथम वर्ष का छात्र हूं.’’ सुधीर ने एक सांस में जवाब दिया.

‘‘ओह तो तुम भी मेरे साथ ही हो. मेरा मतलब हम एक ही क्लास में हैं,’’ रश्मि ने चहकते हुए कहा. उस दिन दोनों क्लास में फ्रंट लाइन में एकदूसरे के आसपास ही बैठे. प्रोफैसर ने पूरी क्लास के विद्यार्थियों का परिचय लिया तो पता चला कि रश्मि पढ़ाई में अव्वल है. कालेज टाइम के बाद सुधीर और रश्मि साथसाथ बाहर निकले तो पता चला कि सुधीर को पापा का ड्राइवर कालेज छोड़ गया था. रश्मि ने अपनी मोपेड बाहर निकाली और कहा, ‘‘चलो मैं तुम्हें घर छोड़ती हूं.’’

‘‘नहींनहीं ड्राइवर आने ही वाला है.’’

‘‘अरे, चलो भई रश्मि खा नहीं जाएगी,’’ रश्मि के कहने का अंदाज कुछ ऐसा था कि सुधीर उस की मोपेड पर बैठ गया. पूरे रास्ते रश्मि की चपरचपर चलती रही. उसे इस बात का खयाल ही नहीं रहा कि वह सुधीर से पूछे कि कहां जाना है. बातोंबातों में रश्मि अपने घर की गली में पहुंची, तो सुधीर ने कहा, ‘‘बस यही छोड़ दो.’’

‘‘ओह सौरी, मैं तो पूछना ही भूल गई कि आप को कहां छोड़ना है. मैं तो बातोंबातों में अपने घर की गली में आ गई.’’

‘‘बस यहीं तो छोड़ना है. वह सामने वाला मकान हमारा है. अभी कुछ दिन पहले ही किराए पर लिया है पापा ने.’’

‘‘अच्छा तो आप लोग आए हो हमारे पड़ोस में,’’ रश्मि ने कहा

‘‘जी हां.’’

‘‘चलो, फिर तो हम दोनों साथसाथ कालेज जायाआया करेंगे.’’ रश्मि और सुधीर के बाद के दिन यों ही गुजरते गए. पहली मुलाकात दोस्ती में और दोस्ती प्यार में जाने कब बदल गई पता ही न चला. रश्मि का सुधीर के घर यों आनाजाना होता जैसे वह घर की ही सदस्य हो. सुधीर की मम्मी रश्मि से खूब प्यार करती थीं. कहती थीं कि तुझे तो अपनी बहू बनाऊंगी. इस प्यार को पा कर रश्मि के मन में भी नई उमंगें पैदा हो गईं. वह सुधीर को अपने जीवनसाथी के रूप में देख कर कल्पनाएं करती. एक दिन सुधीर घर में अकेला था, तो उस ने रश्मि को फोन कर कहा, ‘‘घर आ जाओ कुछ काम है.’’

जब रश्मि पहुंची तो दरवाजे पर मिल गया सुधीर. बोला, ‘‘मैं एक टौपिक पढ़ रहा था, लेकिन कुछ समझ नहीं आ रहा था. सोचा तुम से पूछ लेता हूं.’’

‘‘तो दरवाजा क्यों बंद कर रहे हो? आंटी कहां है?’’

‘‘यहीं हैं, क्यों चिंता कर रही हो? ऐसे डर रही हो जैसे अकेला हूं तो खा जाऊंगा,’’ यह कहते हुए सुधीर ने रश्मि का हाथ थाम उसे अपनी ओर खींच लिया. सुधीर के अचानक इस बरताव से रश्मि सहम गई. वह छुइमुई सी सुधीर की बांहों में समाती चली गई.

‘‘क्या कर रहे हो सुधीर, छोड़ो मुझे,’’ वह बोली लेकिन सुधीर ने एक न सुनी. वह बोला,  ‘‘आई लव यू रश्मि.’’

‘‘जानती हूं पर यह कौन सा तरीका है?’’ रश्मि ने प्यार से समझाने की कोशिश की,  ‘‘कुछ दिन इंतजार करो मिस्टर. रश्मि तुम्हारी है. एक दिन पूरी तरह तुम्हारी हो जाएगी.’’ परंतु सुधीर पर कोई असर नहीं हुआ. हद से आगे बढ़ता देख रश्मि ने सुधीर को धक्का दिया और हिरणी सी कुलांचे भरती हुई घर से बाहर निकल गई. उस रात रश्मि सो नहीं पाई. उसे सुधीर का यों बांहों में लेना अच्छा लगा. कुछ देर और रुक जाती तो…सोच कर सिहरन सी दौड़ गई. और एक दिन ऐसा आया जब पढ़ाई की आड़ में चल रहा प्यार का खेल पकड़ा गया. दोनों अब तक बी.कौम अंतिम वर्ष में प्रवेश कर चुके थे और एकदूजे में इस कदर खो चुके थे कि उन्हें आभास भी नहीं था कि इस रिश्ते को रश्मि के पिता और भाई कतई स्वीकार नहीं करेंगे. उस दिन रश्मि के घर कोई नहीं था. वह अकेली थी कि सुधीर पहुंच गया. उसे देख रश्मि की धड़कनें बढ़ गईं. वह बोली,  ‘‘सुधीर जाओ तुम, पापा आने वाले हैं.’’

‘‘तो क्या हो गया. दामाद अपने ससुराल ही तो आया है,’’ सुधीर ने मजाकिया लहजे में कहा.

‘‘नहीं, तुम जाओ प्लीज.’’

‘‘रुको डार्लिंग यों धक्के मार कर क्यों घर से निकाल रही हो?’’ कहते हुए सुधीर ने रश्मि को अपनी बांहों में भर लिया. तभी जो न होना चाहिए था वह हो गया. रश्मि के पापा ने अचानक घर में प्रवेश किया और दोनों को एकदूसरे की बांहों में समाया देख आगबबूला हो गए. फिर पता नहीं कितने लातघूंसे सुधीर को पड़े. सुधीर कुछ बोल नहीं पाया. बस पिटता रहा. जब होश आया तो अपने घर में लेटा हुआ था. सुधीर और रश्मि के परिवारजनों की बैठक हुई. सुधीर की मम्मी ने प्रस्ताव रखा कि वे रश्मि को बहू बनाने को तैयार हैं. फिर काफी सोचविचार हुआ. रश्मि के पापा ने कहा,  ‘‘बेटी को कुएं में धकेल दूंगा पर इस लड़के से शादी नहीं करूंगा. जब कोई काम नहीं करता तो क्या खाएगाखिलाएगा?’’ आखिर तय हुआ कि रश्मि की शादी जल्द से जल्द किसी अच्छे परिवार के लड़के से कर दी जाए. रश्मि और सुधीर के मिलने पर पाबंदी लग गई पर वे दोनों कहीं न कहीं मिलने का रास्ता निकाल ही लेते. और एक दिन रश्मि के पापा ने घर में बताया कि दिल्ली से लड़के वाले आ रहे हैं रश्मि को देखने. यह सुन कर रश्मि को अपने सपने टूटते नजर आए. उस ने कुछ नहीं खायापीया.

भाभी ने समझाया, ‘‘यह बचपना छोड़ो रश्मि, हम इज्जतदार खानदानी परिवार से हैं. सब की इज्जत चली जाएगी.’’

‘‘तो मैं क्या करूं? इस घर में बच्चों की खुशी का खयाल नहीं रखा जाता. दोनों दीदी कौन सी सुखी हैं अपने पतियों के साथ.’’

‘‘तेरी बात ठीक है रश्मि, लेकिन समाज, परिवार में ये बातें माने नहीं रखतीं. तेरे गम में पापा को कुछ हो गया तो…उन्होंने कुछ कर लिया तो सब खत्म हो जाएगा न.’’

अपना अपना मापदंड- भाग 3: क्या था शुभा का रिश्तों का नजरिया

‘‘मैं हूं न बेटा, मुझ से बात करो, मुझ से बांटो अपना सुख, अपना दुख… हम अच्छे दोस्त हैं.’’

‘‘आप तो मुझ से बड़ी हैं… आप तो सदा देती हैं मुझे, कोई ऐसा हो जो मुझ से मांगे, कोई ऐसा जिसे देख कर मुझे भी बड़े होने का एहसास हो… मैं स्वार्थी बन कर जीना नहीं चाहता… मैं अपनी दादी, अपनी बूआ की तरह इतने छोटे दिल का मालिक नहीं बनना चाहता कि रिश्तों को ले कर निपट कंगाल रह जाऊं, मेरा अपना कौन होगा मां. सुखदुख में मेरे काम कौन आएगा?’’

‘‘तुम्हारे पापा हर सुखदुख में तुम्हारी बूआ के काम आते हैं न. मां की एक आवाज पर भागे चले जाते हैं लेकिन जब उन की पत्नी अस्पताल में पड़ी थी तब कौन आया था उन के काम? क्या दादी या बूआ आई थीं यहां. मुझे किस ने संभाला था? कौन था मेरे पास?

‘‘रिश्तों के होते हुए भी क्या कभी तुम ने हमारे परिवार को सुखदुख बांटते देखा है? उम्मीद करना मनुष्य की सब से बड़ी कमजोरी है, अजय. वही सुखी है जिस ने कभी किसी से कोई उम्मीद नहीं की. जीवन की लड़ाई हमेशा अकेले ही लड़नी पड़ती है और सुखदुख में काम आता है हमारा चरित्र, हमारा व्यवहार. किसी के बन जाओ या किसी को अपना बना लो.

‘‘मैं 15 दिन अस्पताल में रही… कौन हमारा खानापीना देखता रहा, क्या तुम नहीं जानते? हमारा आसपड़ोस, तुम्हारे पापा के मित्र, मेरी सहेलियां. तुम्हारे दोस्त ने तो मुझे खून भी दिया था. जो लोग हमारे काम आए क्या वे हमारे सगेसंबंधी थे? बोलो?

‘‘भाईबहन के न होने से तुम्हारा दिल छोटा कैसे रह जाएगा? रिश्तों के होते हुए हमारा कौन सा काम हो गया जो तुम्हारा नहीं होगा. किसी की तरफ प्यार भरा ईमानदार हाथ बढ़ा कर देखना अजय, वही तुम्हारा हो जाएगा. प्यार बांटोगे तो प्यार मिलेगा.’’

‘‘मुझे एक भाई चाहिए, मां,’’ रोने लगा अजय.

‘‘जिन के भाई हैं क्या उन का झगड़ा नहीं देखा तुम ने? क्या वे सुखी हैं? हर घर का आज यही झगड़ा है… भाई ही भाई को सहना नहीं चाहता. किस मृगतृष्णा में हो… कल अगर तुम्हारा भाई तुम्हारा साथ छोड़ कर चला जाएगा तो तुम्हें अकेले ही तो जीना होगा…अगर हमारी संपत्ति को ले कर ही तुम्हारा भाई तुम से झगड़ा करेगा तब कहां जाएगी रिश्तेदारी, अपनापन जिस के लिए आज तुम रो रहे हो?

‘‘अजय, तुम्हारी अपनी संतान होगी, अपनी पत्नी, अपना घर. तब तुम अपने बच्चों के लिए करोगे या भाई के लिए? तुम से 20 साल छोटा भाई तुम्हारे लिए संतान के बराबर होगा. दोनों के बीच पिस जाओगे, जिस तरह तुम्हारे पापा पिसते हैं, मां की बिना वजह की दुत्कार भी सहते हैं और बहन के ताने भी सहते हैं…अच्छा पुत्र, अच्छा भाई बनने का पूरा प्रयास करते हैं तुम्हारे पापा फिर भी उन्हें खुश नहीं कर सके. उन का दोष सिर्फ इतना है कि उन्हें अपनी पत्नी, अपने बच्चे से भी प्यार है, जो उन की मांबहन के गले नहीं उतरता.

‘‘कल यही सब तुम्हारे साथ भी होगा. जरूरत से ज्यादा प्यार भी इनसान को संकुचित और स्वार्थी बना देता है. तुम्हारी दादी और बूआ का तुम्हारे पापा के साथ हद से ज्यादा प्यार ही सारी पीड़ा की जड़ है और यह सब आज हर तीसरे घर में होता है, सदा से होता आया है. जिस दिन पराया खून प्यारा लगने लगेगा उसी दिन सारे संताप समाप्त हो पाएंगे.

‘‘शायद तुम्हारी पत्नी का खून मुझे पानी जैसा न लगे…शायद मेरी बहू की पीड़ा पर मेरी भी नसें टूटने लगें… शायद वह मुझे तुम से भी ज्यादा प्यारी लगने लगे. इसी शायद के सहारे तो मैं ने अपनी एक ही संतान रखने का निर्णय लिया था ताकि मेरी ममता इतनी स्वार्थी न हो जाए कि बहू को ही नकार दे. मैं अपनी बेटी के सामने अपनी बहू का अपमान कभी न कर पाऊं इसीलिए तो बेटी को जन्म नहीं दिया…क्या तुम मेरे इस प्रयास को नकार दोगे, अजय?’’

आंखें फाड़ कर अजय मेरा मुंह देखने लगा था. उस के पापा भी पता नहीं कब चले आए थे और चुपचाप मेरी बातें सुन कर मेरा चेहरा देख रहे थे.

‘‘जीवन इसी का नाम है, अजय. वे घर भी हैं जहां बहुएं दिनरात बुजुर्गों का अपमान करती हैं और एक हमारा घर है जहां पहले दिन से मेरी सास मेरा अपमान कर रही हैं, जहां बेटी के तो सभी शगुन मनाए जाते हैं और बहू का मानसम्मान घर की नौकरानी से भी कम. बेटी का साम्राज्य घर के चप्पेचप्पे पर है और बहू 22 साल बाद भी अपनी नहीं हो सकी.’’

आवेश में पता नहीं क्याक्या निकल गया मेरे मुंह से. अजय के पापा चुप थे. अजय भी चुप था. मैं नहीं जानती वह क्या सोच रहा है. उस की सोच कुछ ही शब्दों से बदल गई होगी ऐसी उम्मीद भी नहीं की जा सकती लेकिन यह सत्य मेरी समझ में अवश्य आ गया है कि जीवन को नापने का सब का अपनाअपना फीता होता है. जरूरी नहीं किसी के पैमाने में मेरा सच या मेरा झूठ पूरी तरह फिट बैठ जाए.

मैं ने अपने जीवन को उसी फीते से नापा है जो फीता मेरे अपनों ने मुझे दिया है. मैं यह भी नहीं कह सकती कि अगर मेरी कोई बेटी होती तो मैं बहू को उस के सामने सदा अपमानित ही करती. हो सकता है मैं दोनों रिश्तों में एक उचित तालमेल बिठा लेती. हो सकता है मैं यह सत्य पहले से ही समझ जाती कि मेरा बुढ़ापा इसी पराए खून के साथ कटने वाला है, इसलिए प्यार पाने के लिए मुझे प्यार और सम्मान देना भी पड़ेगा.

हो सकता है मैं एक अच्छी सास बन कर बहू को अपने घर और अपने मन में एक प्यारा सा मीठा सा कोना दे देती. हो सकता है मैं बेटी का स्थान बेटी को देती और बहू का लाड़प्यार बहू को. होने को तो ऐसा बहुत कुछ हो सकता था लेकिन जो वास्तव में हुआ वह यह कि मैं ने अपनी दूसरी संतान कभी नहीं चाही, क्योंकि रिश्तों की भीड़ में रह कर भी अकेला रहना कितना तकलीफदेह है यह मुझ से बेहतर कौन समझ सकता है जिस ने ताउम्र रिश्तों को जिया नहीं सिर्फ ढोया है. खून के रिश्ते सिर्फ दाहसंस्कार करने के काम ही नहीं आते जीतेजी भी जलाते हैं.

तो बुरा क्या है अगर मनुष्य खून के रिश्तों से आजाद अकेला रहे, प्यार करे, प्यार बांटे. किसी को अपना बनाए, किसी का बने. बिना किसी पर कोई अधिकार जमाए सिर्फ दोस्त ही बनाए, ऐसे दोस्त जिन से कभी कोई बंटवारा नहीं होता. जिन से कभी अधिकार का रोना नहीं रोया जाता, जो कभी दिल नहीं जलाते, जिन के प्यार और अपनत्व की चाह में जीवन एक मृगतृष्णा नहीं बन जाता.

सैलिब्रेशन- भाग 2: क्या सही था रसिका का प्यार

वैभव की मदद से रसिका की नई गृहस्थी आसानी से जम गई. घरेलू कामों के लिए विमला को भी वैभव ने ही भेजा था. सबकुछ सुचारु रूप से व्यवस्थित हो गया था.

वैभव के सन्निध्य से रसिका के जीवन को पूर्णता मिल गई थी. उस का जीवन पूरी तरह उलटपुलट गया था. वैभव रसिका के साथ ही रहने लगा था.

वैभव का साथ मिलने से रसिका के जीवन में सुरक्षा, खुशी, प्यार और जीवन का जो अधूरापन था, वह सब दूर हो कर खुशियों का एहसास होता. लेकिन यह समाज किसी को जीने नहीं देना चाहता.

मान्या हो या काव्या दोनों की आंखों में प्रश्नचिह्न देख रसिका अपनी आंखें चुराने के लिए मजबूर हो जाती थी.

वैभव ने तो बता ही दिया था कि उस के 2 बेटे हैं और पत्नी गांव में रहती है. उन की जिम्मेदारी उसी की है.

रसिका वैभव को अपना सर्वस्व मान बैठी थी. कब ये सब हुआ, उसे स्वयं मालूम न था.

उस दिन रसिका के सिर में दर्द था, इसलिए औफिस से जल्दी आ गई थी.

काव्या को रोता देख उस ने रोने का कारण पूछा तो काव्या ने बताया, ‘‘मम्मी, मैं सोनी आंटी के घर खेल रही थी, तो उन की दादी बोलीं कि तुम मेरे घर में मत आया करो. तुम्हारी मम्मी पराए मर्द के साथ रहती हैं.’’

रसिका गुस्से से तमतमा उठी, ‘‘तुम क्यों जाती हो उन के घर?’’

बेटी को तो रसिका ने डांट दिया, लेकिन उस की स्वयं की आंखें छलछला उठी थीं.

‘‘मम्मी पराया मर्द क्या होता है?’’

इस मासूम को वह क्या उत्तर देती. वह चुपचाप बाथरूम में जा कर सिसक उठी.

मान्या चुपचुप रहती. पर वैभव अंकल का घर पर रहना उसे भी अच्छा नहीं लगता. इसलिए  न तो वह पार्क में खेलने जाती और न ही पड़ोस में किसी से बात करती.

मगर सुजाता आंटी अकसर आतेजाते उसे बुला कर फालतू पूछताछ करती रहती थीं.

‘‘इधर आओ मान्या,’’ एक बुजुर्ग आंटी ने उसे बुलाया, जिन्हें वह जानती नहीं थी.

‘‘ये तुम्हारे पापा नहीं हैं,’’ उसी आंटी ने कहा.

मान्या आंखों में आंसू भर कर अपने दरवाजे की तरफ दौड़ पड़ी. घर पहुंच कर वह सूने घर में फूटफूट कर रोती रही. तब छोटी काव्या ने उसे गिलास में पानी ला कर दिया और उस के आंसू पोंछ कर बोली, ‘‘क्यों रो रही हो दीदी?’’

उस ने सिसकते हुए कहा, ‘‘तुम नहीं समझोगी काव्या.’’

‘‘दीदी, तुम रोया मत करो. समझ लिया करो मैं ने सुना ही नहीं.’’

मान्या को काव्या पर बहुत प्यार आया. फिर खाना निकाल कर दोनों ने साथ खाया.

काव्या बोली, ‘‘दीदी, वहां नानी अपने हाथों से कैसे प्यार से खाना खिलाती थीं. वहां सब लोग कितना प्यार भी करते थे… दीदी, चलो टीवी देखते हैं.’’

‘‘नहीं काव्या मुझे होमवर्क करना है नहीं तो मम्मी आ कर डांट लगाएंगी.’’

काव्या के बहुत कहने पर दोनों बहनें कार्टून फिल्म लगा कर बैठ गईं. फिर सब भूल गईं.

रसिका 6 बजे औफिस से घर लौट आई. आज उस का मूड खराब था. वैभव ने अपने बेटे पार्थ का कृष्णा कोचिंग में एडमिशन करवा दिया था, इसलिए अब 6 महीने वह यहीं उन के साथ ही रहेगा.

बेटियों को टीवी देखते देख उस का गुस्सा 7वें आसमान पर पहुंच गया, ‘‘तुम लोगों को केवल टीवी देखना है… पढ़नेलिखने से कोई मतलब नहीं है?’’

डांट के डर से दोनों ने जल्दी से टीवी बंद कर दिया और अपनीअपनी किताबें खोल कर बैठ गईं.

स्कूल का सालाना फंक्शन था. सब बच्चों के मम्मीपापा अपने बच्चों का प्रोग्राम देखने आए थे. मान्या ने भी डांस में भाग लिया था. उस की आंखें भी दूरदूर तक मां को तलाश रही थीं. लेकिन मम्मी के लिए पार्क का टैस्ट ज्यादा महत्त्वपूर्ण था. वह मायूस हो गई.

दिन बीतते रहे. मौम की प्राथमिकता वैभव अंकल और पार्थ थे. मां के लिए उन दोनों को खुश रखना ज्यादा जरूरी था.

घर की बात स्कूल तक सहेलियों और कैब के ड्राइवर के माध्यम से पहुंच जाती थी. वह स्कूल में अपनी सहेलियों की निगाहों में ही ‘अछूत कन्या’ बन गई थी. उन के मार्मिक प्रश्न कई बार उस के दिल को दुखा देते थे.

‘‘क्यों मान्या, तुम्हें अपने पापा की शक्ल याद है कि नहीं?’’

‘‘ये अंकल तुम्हें मारते होंगे?’’

‘‘प्लीज, घर की बात यहां मत किया करो,’’ वह झुंझला उठी थी.

रसिका ने फ्लैट खरीदने के लिए फंड से रुपए निकाले. कुछ रुपए वैभव ने अपने भी लगाए थे, इसलिए स्वाभाविक था कि रजिस्ट्री में उस का नाम भी हो. अकाउंट भी साझा हो गया था.

मान्या कालेज में पहुंच गई थी. उस का स्वभाव बदलता जा रहा था. अब वह रसिका की एक भी बात सुनने को तैयार नहीं थी. फैशनेबल कपड़े, स्कूटी, कोचिंग और ट्यूशन के बहाने घर से गायब रहती. यदि रसिका कुछ कहती तो तुरंत जवाब देती कि आप अपनी दुनिया में व्यस्त रहो. मेरी अपनी दुनिया है. आप बस अंकल और पार्थ का खयाल रखें.

मान्या ने बचपन में अपने आसपास पड़ोसियों के द्वारा इतना तिरस्कार और अपमान झेला था कि अब वह उस अपमान का बदला अपने पैसे और नित नए फैशन के बलबूते दूसरों को आकर्षित कर के अपना प्रभुत्व बढ़ा कर लेती थी.

मान्या औनलाइन तरहतरह की डिजाइनर ड्रैसें और्डर करती रहती. यदि कभी रसिका उसे टोक दे, तो तुरंत उस के मुंह पर जवाब दे देती, ‘‘आप से तो कम ही खर्च करती हूं… आप को औफिस जाना होता है, तो मुझे भी कालेज जाना होता है.’’

रसिका बेटी के सामने अपनेआप को मजबूर पा रही थी. उसे सुधारने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था.

मान्या ने अपने स्कूल के समय में बहुत अपमान झेला था. लड़कियां उस से दोस्ती नहीं करती थीं. उसे अपने गु्रप में शामिल नहीं करती थीं. उसे अजीब निगाहों से देखती थीं.

सब अपनेअपने पापा के प्यार की बातें करतीं, कोई पिक्चर जाती, कोई घूमने जाती. सब फेसबुक पर फोटो शेयर करतीं. ये सब देखसुन कर मान्या की आंखें छलछला उठतीं. वह दूसरी तरफ मुंह घुमा कर उन की बातें सुनती, क्योंकि यदि उन की तरफ नजरें घुमाती तो वे बोलतीं, ‘‘तुम क्या जानो… तुम्हारे पापा को तो तुम्हारी मम्मी छोड़ कर पराए मर्द के साथ रह रही हैं.’’

यह कड़वा सच था. इस वजह से उस का मन घायल हो उठता था. वह बमुश्किल अपने आंसू रोक पाती थी.

उस के पड़ोस में रहने वाली रेनू उस के घर की 3-3 बात स्कूल में पहुंचा देती और फिर उन लोगों को चटखारे ले कर बातें बनाने का मौका मिल जाता.

बेटा- भाग 2: क्या वक्त रहते समझ पाया सोम

एक दिन दीप टिफिन मेज पर पटक कर बोला, ‘मैं आज से टिफिन नहीं ले जाऊंगा. सब बच्चे पकौड़े, इडली, पुलाव और जाने क्याक्या ले कर आते हैं परंतु तुम तो परांठे के सिवा कुछ बनाना ही नहीं जानतीं.’

मैं चिढ़ते हुए बोली, ‘सुबह इतने सारे काम होते हैं. छप्पन भोग बनाना मेरे वश का नहीं है. अपने बाप से कहो, नौकरानी रख लें, वही रचरच कर बनातीखिलाती रहेगी.’

दीप ने टिफिन गुस्से से जमीन पर फेंक दिया, ‘मु झे नहीं ले जाना यह सड़ा परांठा.’

मैं चीख कर बोली, ‘खाना फेंक रहे हो. 2-4 दिन भूखे रहोगे तो सब सम झ में आ जाएगा.’

सोम दौड़ेदौड़े आए. दीप का हाथ पकड़ कर बाहर ले गए. उन्होंने निश्चय ही उस की मुट्ठी में रुपए रख दिए होंगे. वह हंसताखिलखिलाता साइकिल पर चढ़ कर स्कूल चला गया.

अंदर आते ही सोम बोले, ‘तुम भी कम थोड़े ही हो, जब तुम्हें पता है कि वह परांठा नहीं पसंद करता है तो कुछ और बना दो लेकिन तुम कुत्ते की दुम की तरह हो. चाहे कितनी सीधी करो, टेढ़ी की टेढ़ी रहती है.’

‘आप मत चिल्लाइए, उस को बिगाड़ने में आप ही ज्यादा जिम्मेदार हैं. आप ने उसे रुपए क्यों दिए?’

‘वह भूखा रहता कि नहीं?’

‘तो क्या हुआ? एकाध दिन भूखा रहता तो दिमाग ठिकाने आ जाता. आप खुद खाने की प्लेट फेंकते हो, वही उस ने भी सीख लिया है.’

‘चुप रहो, ज्यादा चबड़चबड़ मत करो.’

मैं रोतेरोते किचन से चली आई. यह सब तो रोज का काम हो गया था.

दीप 9वीं कक्षा में आ गया था. उस की दोस्ती कक्षा के रईस, आवारा टाइप लड़कों से थी न कि पढ़ने में होशियार बच्चों से. एक दिन वह बोला, ‘पापा, यश मैथ्स की कोचिंग कर रहा है. मुझे भी कोचिंग जौइन करनी है.’

सोम दीप की किसी बात के लिए मना करना नहीं जानते थे. वे उस की हर फरमाइश पूरी करते.

‘पापा, आशू हमेशा ब्रैंडेड शर्ट ही पहनता है. मेरे पास तो एक भी नहीं है.’

अगले दिन ही सोम औफिस से लौटते हुए ब्रैंडेड शर्ट ले कर आए थे. शर्ट देख कर वह खुशी से सोम से चिपट कर बोला, ‘मेरे अच्छे पापा, आप बहुत अच्छे हैं.’

उसे सोम के ओवरटाइम की कोई फिक्र नहीं थी.

उसी साल सिया की शादी हो गई थी. दीप आजाद हो गया था. दिया से तो उस की अधिकतर बोलचाल ही बंद रहती थी.

सोम का प्रमोशन हो कर मंगलोर पोस्टिंग हो गई थी. वे दिया और दीप की पढ़ाई के कारण उन्हें श्याम भैया की देखरेख में यहीं छोड़ कर चले गए थे.

दीप घर से बाहर ज्यादा रहता, ‘मैं ट्यूशन पढ़ने जा रहा हूं,’ कह कर वह घंटों के लिए गायब हो जाता. उस पर डांटफटकार का कोई असर नहीं था. 2-3 महीने में सोम आते तो मैं मां होने के नाते शिकायतों का पुलिंदा खोल कर उन्हें सुनाने की कोशिश करती जिसे सोम ध्यान से सुनते भी नहीं थे.

हंस कर लाड़ से इतराते हुए दीप से कहते, ‘क्यों भई दीप, अपनी मम्मी का कहा माना करो. इन्हें परेशान मत किया करो. ये तुम्हारी ढेरों शिकायतें करती रहती हैं. हां, तुम्हारी इस वर्ष बोर्ड की परीक्षा है. तुम्हारी तैयारी कैसी चल रही है?’

‘फर्स्ट क्लास, पापा. मेरे तो सारे सब्जैक्ट्स तैयार हैं. रिवीजन चल रहा है.’

मेरी बातों से ज्यादा उन्हें बेटे की बातों पर विश्वास था. सोम निश्ंिचत थे कि उन की बीवी को तो हमेशा बड़बड़ करने की आदत है.

दीप का हाईस्कूल का रिजल्ट निकलने वाला था. सोम छुट्टी ले कर मंगलोर से आ गए थे. सोम बेटे से लडि़याते हुए बोले थे, ‘दीप, तुम्हारे 80 प्रतिशत अंक तो आ ही जाएंगे.’

दीप बोला था, ‘श्योर, पापा.’

‘भई, फिर तुम क्या इनाम लोगे?’

मेरा मन नहीं माना था, बीच में ही बोल पड़ी थी, ‘सिया ने जब पूरे कालेज में टौप किया था तो आप ने कभी नहीं पूछा था.’

‘अरे, वह तो बेटी थी. यह तो मेरा बेटा है, मेरा नाम रोशन करेगा.’

‘पापा, मुझे अपने दोस्तों को तो होटल में पार्टी देनी पड़ेगी.’

‘देना, जरूर देना. अपना मन मत छोटा करना. मु झे पहले से बता देना कि कितने रुपए चाहिए.’

दीप का रिजल्ट इंटरनैट पर देखा गया. उस के 51 प्रतिशत अंक देख कर सोम ने आव देखा न ताव, उस पर थप्पड़ों की बरसात कर दी थी. बेटे को बचाने के चक्कर में 1-2 हाथ मेरे भी लग गए थे.

घर में मातम का माहौल था, परंतु दीप पर कोई असर नहीं था. वह ढीठ की तरह कह रहा था, ‘मेरे तो सारे पेपर अच्छे हुए थे, जाने कैसे इतने कम अंक आए हैं. जरूर कहीं गड़बड़ है. मैं स्क्रूटनी करवाऊंगा.’

सोम को बहुत बड़ा सदमा लगा था. शर्म के कारण वे 2-3 दिन घर से बाहर नहीं निकले. वे सम झ नहीं पा रहे थे कि दीप को सही रास्ते पर कैसे लाएं.

तमाम दौड़धूप कर के सोम ने दीप का ऐडमिशन कौमर्स में करवाया. बेटे को अपने पास बिठा कर प्यार से खूब सम झाया, ‘बेटा दीप, मेरे पास कोई दौलत नहीं रखी है कि मैं तुम्हें कोई दुकान या व्यापार करवा सकूं. तुम्हें मेहनत से पढ़ना होगा क्योंकि तुम्हें पढ़लिख कर भविष्य में आईएएस औफिसर बनना है.’

‘जी पापा, मैं अब मन लगा कर पढ़ाई करूंगा.’ आंखों में आंसू भर कर सोम मंगलोर चले गए.

दीप फिर पुराने रवैए पर लौट आया था. कोचिंग के बहाने वह दिनभर घर से गायब रहता. जब घर में रहता तो या तो मोबाइल पर बातें करता या इयरफोन कानों में लगा कर गाने सुनता.

श्याम भैया ने एक दिन डांटते हुए कहा, ‘दीप बेटा, पढ़ाई पर ध्यान दो. इस वर्ष तुम्हारी इंटर की बोर्ड परीक्षा है. हाईस्कूल की तरह इस बार रिजल्ट खराब न हो.’

दीप बिगड़ कर बोला, ‘चाचा, मैं अपना भलाबुरा सम झता हूं. आप को उपदेश देने की जरूरत नहीं है.’

श्याम भैया ने उस दिन के बाद से दीप की हरकतों की ओर से अपनी आंखें बंद कर लीं. दीप की शामें दोस्तों के साथ रैस्टोरैंट में पिज्जाबर्गर खाए बिना नहीं बीतती थीं. सब बीयर पार्टी का भी लुत्फ उठाते थे. खर्चे से बचाए हुए जो रुपए अलमारी के कोनों में मैं छिपाए रखती थी, आसानी से उन पर वह हाथ साफ करता रहता. धीरेधीरे उस की हिम्मत बढ़ती जा रही थी. मैं परेशान रहती. परंतु यदि भूल से भी दीप से कुछ कहती तो वह मुझ से लड़ने पर उतारू हो जाता था. मैं मन ही मन घुटती रहती. मेरे दिल के दर्द को कोई सुनने वाला नहीं था. दिनबदिन मैं सूख कर कांटा होती जा रही थी.

एक दिन श्याम भैया मुझे डाक्टर के पास ले कर गए तो डाक्टर ने तमाम टैस्ट कर डाले. ईसीजी करने के बाद उन्होंने दिल की बीमारी बताई. डाक्टर ने ढेर सारी दवाएं और पूरी तरह आराम करने की सलाह दी.

सोम मेरी बीमारी की खबर सुन कर भागे चले आए. मेरी हालत देख उन की आंखों में आंसू आ गए थे. दीप पक्का नाटकबाज था. जब तक सोम थे, उन के सामने कौपीकिताब खोल कर बैठा रहता. सोम का और मेरा भी काम में हाथ बंटाता. मेरी देखभाल भी करता. सोम को लगा कि मेरी बीमारी के कारण वह सुधर गया है.

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