और वक्त बदल गया: भाग 2- क्या हुआ था नीरज के साथ

लेखिका- शकीला एस हुसैन

जिंदगी एक ढर्रे पर चलने लगी. नीता आंटी उस का बहुत खयाल रखतीं. आंटी के यहां रहते हुए उसे कई बातें पता चलीं. आंटी की शादी को 8 साल हो गए थे. उन के यहां औलाद न थी. इसलिए उन्होंने उसे गोद लिया था. जैसेजैसे वह बड़ा होता गया, उसे सारी बातें समझ में आती गईं. कुछ बातें उसे नीता आंटी से पता चलीं. कुछ बातें उन की पुरानी बूआ कमला से पता चलीं. उस के मांबाप की कहानी भी उन्हीं लोगों से मालूम पड़ीं. उस की मम्मी सोनाली बहुत खूबसूरत, चंचल और जहीन थीं. जब वे एमएससी कर रही थीं, उन की मुलाकात उस के पापा रवि से हुई. पहले दोस्ती, फिर मुहब्बत. दोनों के धर्म में फर्क था. दोनों के घरों से शादी का इनकार ही था. पर इश्के जनून कहां रुकावटों से रुकता है. दोनों की पढ़ाई पूरी होते ही उन दोनों ने सोचसमझ कर आपसी सहमति से अपना शहर छोड़ दिया और इस शहर में आ कर बस गए. सोनाली और रवि दोनों ही नए जमाने के साथ चलने वाले, ऊंची उड़ान भरने वाले परिंदे सरीखे थे. पुराने रीतिरिवाजों के विरोधी, नई सोच नई डगर, आजाद खयालों के हामी, उन दोनों ने ‘लिवइन रिलेशन’ में एकसाथ रहना शुरू कर दिया. विवाह उन्हें एक बंधन लगा.

उन का एजुकेशनल रिकौर्ड काफी अच्छा था. जल्द ही उन्हें अच्छी नौकरी मिल गई. जल्द ही उन्होंने जीवन की सारी जरूरी सुविधाएं जुटा लीं. एक साल फूलों की महक की तरह हलकाफुलका खुशगवार गुजर गया. फिर उन की जिंदगी में नीरज आ गया. शुरूशुरू में दोनों ने खुशी से जिम्मेदारी उठाई. दिन पंख लगा कर उड़ने लगे. सोनाली चंचल और आजाद रहने वाली लड़की थी. घर में सासससुर या कोई बड़ा होता तो कुछ दबाव होता, थोड़ा समझौता करने की आदत बनती. पर ऐसा कोई न था. रवि बेहद महत्त्वाकांक्षी और थोड़ा स्वार्थी था. खर्च और काम बढ़ने से दोनों के बीच धीरेधीरे कलह होने लगी. पहले तो कभीकभार लड़ाई होती, फिर अंतराल घटने लगा. दोनों में बरदाश्त और सहनशीलता जरा न थी. फिर हर दूसरे, तीसरे दिन लड़ाई होने लगी. रवि के अपने मांबाप, परिवार से सारे संबंध टूट चुके थे और वे लोग उस से कोई संबंध रखना भी नहीं चाहते थे. उन के रवि के अलावा एक बेटा और एक बेटी थी. उन्हें डर था कि कहीं रवि के व्यवहार का दोनों बच्चों पर बुरा प्रभाव न पड़ जाए. जो लड़का प्यार की खातिर घरपरिवार छोड़ दे, उस से उम्मीद भी क्या रखी जा सकती है.

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रिश्तेदारों से तो रवि पूरी तरह कट चुका था. कभी किसी दोस्त या सहयोगी के यहां कोई समारोह में शामिल होने का मौका मिलता, वहां भी कोई न कोई ऐसी बात हो जाती कि मन खराब हो जाता. कभी कोई इशारा कर के कहता, ‘यही हैं जो लिवइन रिलेशन में रह रहे हैं.’ या कोई कह देता, ‘इन लोगों की शादी नहीं हुई है, ऐसे ही साथ रहते हैं.’ उन दिनों लिवइन रिलेशन बहुत कम चलन में था. लोग इसे बहुत बुरा समझते थे. लोग खूब आलोचना भी करते थे. रवि भी इस बात को महसूस करता था कि अगर समाज में घुलमिल कर रहना है तो समाज के बनाए उसूलों के अनुसार चलना जरूरी है. पर अब इन सब बातों के लिए बहुत देर हो चुकी थी. जो जैसा चल रहा था, वही अच्छा लगने लगा था.

सोनाली अपने परिवार की बड़ी बेटी थी. उस से छोटी 2 बहनें थीं. उस ने घर से भाग कर रवि के साथ रहना शुरू कर दिया. इन सब बातों की उस के मांबाप को खबर हो गई थी. बिना शादी के दोनों साथ रहते हैं, इस बात से उन्हें बहुत धक्का लगा. ऐसी खबरें तो पंख लगा कर उड़ती हैं. उन की 2 बेटियां कुंआरी थीं. कहीं सोनाली की कालीछाया उन दोनों के भविष्य को भी ग्रहण न लगा दे, यह सोच कर उन लोगों ने सोनाली से कोई संबंध नहीं रखा, न उस की कोई खोजखबर ली. वैसे भी, एक आजाद लड़की को क्या समझाना. इस तरह सोनाली भी अपने परिवार से अलग हो गई थी. उस की रिश्ते की एक बहन नीता इसी शहर में रहती थी. उस से मेलमुलाकात होती रहती थी. उस की शादी को 8 साल हो गए थे. उस की कोई औलाद न थी. वह बच्चे के लिए तरसती रहती थी. इधर, रवि और सोनाली के बीच अहं का टकराव होता रहता. दोनों पढ़ेलिखे, सुंदर और जहीन थे. कोई झुकना न चाहता था. एक बात और थी, दोनों ही अपने परिवारों से कटे हुए थे. इस बात का एहसास उन्हें खटकता तो था पर खुल कर इस को कभी स्वीकार नहीं करते थे क्योंकि उन की ही गलती नजर आती. फिर सोशललाइफ भी कुछ खास न थी. इसी घुटन और कुंठा ने दोनों को चिड़चिड़ा बना दिया था.

नीरज की जिम्मेदारी और खर्च दोनों को ही भारी पड़ता. दोनों को अपनाअपना पैसा बचाने की धुन सवार रहती. नतीजा निकला रोजरोज की लड़ाई और अंजाम, रवि घर, नीरज और सोनाली को छोड़ कर चला गया. न कोई बंधन था, न कोई दवाब, न कोई कानूनी रोक. बड़ी आसानी से वह सोनाली और बच्चे को छोड़ चला गया. किसी से पता चला कि वह दुबई चला गया. इधर, सोनाली भी बहुत महत्त्वाकांक्षी थी. उस ने भी दौड़धूप व कोशिश की. उसे मलयेशिया में नौकरी मिल गई. अब सवाल उठा बच्चे का. उस का क्या किया जाए. सोनाली भी अकेले यह जिम्मेदारी उठाना नहीं चाहती थी.

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अभी उस के सामने पूरी जिंदगी पड़ी थी. उस की कजिन नीता ने सुझाव दिया कि उस की कोई औलाद नहीं है, वह नीरज को अपने बेटे की तरह रखेगी. सोनाली ने नीरज को उसे दे दिया. एक मौखिक समझौते के तहत बच्चा उसे मिल गया. कोई कानूनी कार्यवाही की जरूरत ही नहीं समझी गई. इस तरह मासूम नीरज, नीता आंटी के पास आ गया. बिना मांबाप के एक मांगे की जिंदगी गुजारने की खातिर. नीता आंटी उस का खूब खयाल रखती थीं, पढ़ाई भी अच्छी चल रही थी. जो बच्चे बचपन में दुख उठाते हैं, तनहाई और महरूमी झेलते हैं, वे वक्त से पहले सयाने और समझदार हो जाते हैं. नीरज ने अपना सारा ध्यान पढ़ाई में लगा दिया. एक ही धुन थी उसे कि कुछ बन कर दिखाना है. मेहनत और लगन से उस का रिजल्ट भी खूब अच्छा आता था.

दुख और हादसे कह कर नहीं आते. नीता आंटी का रोड ऐक्सिडैंट हो गया. 4-5 दिन मौत से संघर्ष करने के बाद वे चल बसीं. नीरज की तो दुनिया उजड़ गई. अब बूआ एकमात्र सहारा थीं. वे उस का बहुत ध्यान रखतीं. अंकल पहले से ही कटेकटे से रहते थे. अब और तटस्थ हो गए. धीरेधीरे हालात सामान्य हो गए. उस वक्त वह 10वीं में पढ़ रहा था. एक साल गुजर गया. आंटी की कमी तो बहुत महसूस होती पर सहन करने के अलावा कोई रास्ता न था. पहले भी वह अकेला था अब और अकेला हो गया. उस के सिर पर आसमान तो तब टूटा जब अंकल दूसरी शादी कर के दूसरी पत्नी को घर ले आए. दूसरी पत्नी रेनू 30-31 साल की स्मार्ट औरत थी. कुछ अरसे तक वह चुपचाप हालात देखती और समझती रही और जब उसे पता चला, नीरज गोद लिया बच्चा है, तो उस के व्यवहार में फर्क आने लगा.

नीरज ने अपनेआप को अपने कमरे तक सीमित कर लिया. खाने वगैरा का काम बूआ ही देखतीं. डेढ़ साल बाद जब रेनू का बेटा पैदा हुआ तो नीरज के लिए जिंदगी और तंग हो गई. अब तो रेनू उसे बातबेबात डांटनेफटकारने लगी थी. खानेपीने पर भी रोकटोक शुरू हो गई. बासी बचा खाना उस के लिए रखा जाता. वह तो गनीमत थी कि बूआ उसे बहुत प्यार करती थीं, छिपछिपा कर उसे खिला देतीं.

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समय सीमा: भाग 3- क्या हुआ था नमिता के साथ

उस ने जल्दी घर जाना ही बेहतर समझ. आज काम करने की मनोस्थिति तो रही

नहीं थी. पल्लवी ने जो कहा था उसे नकारा नहीं जा सकता था. कुलदीप साफ कह चुका था कि

उसे घरेलू नहीं कैरियर माइंडेड बीवी चाहिए. महज शादी के कारण वह कैरियर बरबाद करे

यह तो उसे स्वीकार नहीं होगा और उस का

शादी स्थगित कर के अमेरिका जाना न उस के अपने परिवार को न ससुराल वालों को मंजूर होगा. दोनों परिवार ही हौल बगैरा बुक करने के लिए काफी अग्रिम पैसा दे चुके हैं और तैयारियां भी जोरों पर हैं. क्या करें? जब वह पर पहुंची तो अमिता और जगदीश तो बाहर गए हुए थे, निखिल अपने कमरे में पढ़ रहा था. नमिता ने उसे सब बताया.

‘‘पल्लवी मैडम को आप की पर्सनल लाइफ से ज्यादा आप के काम की परवाह है और उन के अनुसार कुलदीप को भी आप से ज्यादा आप की नौकरी पसंद है यानी आप की खुशी या भावनाओं की किसी को कद्र या फिक्र नहीं है,’’ निखिल कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘तो फिर आप को क्या जरूरत है ऐसे हृदयहीन लोगों के साथ अपनी जिंदगी खराब करने की दीदी? छोड़ दीजिए नौकरी और अगर कुलदीप इस से नाराज हो कर रिश्ता तोड़ता है तो तोड़ने दीजिए. आज नहीं तो कल दूसरी नौकरी मिल जाएगी और शादी के लिए दूसरा घरवर भी.’’

नमिता ने पूछना चाहा कि क्या यह गारंटी होगी कि दूसरी बार उस की

भावनाओं को वरीयता मिल जाएगी, कहीं वह

इस व्यक्तिगत अहं के चक्कर में ‘एकला चलो रे’ की राह पर तो नहीं चल पड़ेगी? रेणु दीदी के शब्द याद कर के वह सिहर उठी. मम्मीपापा

और सासससुर को तो उस के अमेरिका न जाने और नौकरी छोड़ने के फैसले पर एतराज नहीं होगा, एतराज होगा तो केवल कुलदीप को तो क्यों न पहले उस से बात की जाए. अत: उस ने कुलदीप को फोन पर सब बता कर मिलने को कहा.

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‘‘शादी तो स्थगित नहीं करवा सकता,’’ कुलदीप ने साफ कहा, ‘‘न ही तुम से यह कहूंगा कि शादी के लिए नौकरी छोड़ दो या नौकरी के लिए शादी और फिर अपने फैसले पर उम्रभर पछताती रहो क्योंकि जिंदगी में हमेशा सबकुछ तो अपनी मनमरजी का होता नहीं और तब यह खयाल कि उस समय वैसा न किया होता तो ऐसा नहीं होता, हालात को और भी असहनीय बना देता है.’’

‘‘तो फिर मैं करूं क्या?’’ नमिता ने असहाय भाव से पूछा.

‘‘शादी कर के मुझे अपने साथ अमेरिका

ले चलो. हनीमून के लिए कहीं तो जाना ही है

सो अमेरिका सही. तुम अपना काम करना मैं अपने बिजनैस संबंधी काम कर लूंगा. जब तक यहां की फैक्टरी से दूर रह सकूंगा रह लूंगा, फिर लौट आऊंगा और तुम्हारे लौटने की इंतजार करूंगा.’’

‘‘उस में समय लगेगा, शादी के तुरंत बाद ऐसे अलग होना मुनासिब होगा?’’

‘‘हां, अगर हम परिस्थितियों और समय सीमा को ध्यान में रखें तो तुम्हें पहले स्वयं को एक समय सीमा देनी होगी कि तुम कितने दिनों में क्या कर सकती हो और फिर वह समय सीमा तुम्हें अपनी कंपनी को बताती होगी कि तुम इतने दिनों में यह काम कर दोगी और यह काम करने के बाद वहां नहीं रुकोगी.

‘‘इस के साथ ही हमें इस दौरान पैसे का मोह छोड़ना होगा, जब मुझे फुरसत होगी मैं

कुछ दिनों के लिए तुम्हारे पास आ जाऊंगा, तुम्हें मौका लगे तुम आ जाना अपने खर्चे पर. यह सम?ौते का युग है नमिता,’’ कुलदीप ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘परिस्थितियों को समझ कर उन के साथ तालमेल बैठाने का, व्यक्तिगत अहं या मान्यताओं को वरीयता देने का नहीं. समय

की सीमा को समझे तो समय हमेशा तुम्हारे अनुकूल चलेगा.’’

‘‘आप का कहना बिलकुल ठीक है,’’ नमिता के स्वर में सराहना थी और शंका भी, ‘‘लेकिन और सब भी इस से सहमत होंगे?’’

‘‘और सब से अगर तुम्हारा मतलब परिवार और औफिस वालों से है तो दोनों परिवारों को तो मैं संभाल लूंगा और तुम्हारा पति अगर अपने खर्च पर तुम्हारे साथ जा रहा  है तो औफिस वालों की तरफ से भी कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, यह समाधान पल्लवी मैडम को बता दो. उन की प्रतिक्रिया जानने के बाद आगे की सोचेंगे,’’ कह कर कुलदीप उठ खड़ा हुआ, ‘‘फैक्टरी में काम बीच में छोड़ कर आया हूं.’’

पल्लवी ने उस की बात बड़े ध्यान से सुनी.

‘‘औफिस में इस से पहले ऐसा कुछ हुआ नहीं है सो इस के लिए कोई प्रावधान तो है नहीं और इस पर मैनेजमैंट की क्या प्रतिक्रिया होगी यह मैं नहीं जानती, लेकिन कुलदीप ने जो सुझया है उस की मैं सराहना करती हूं और उस से पूर्णतया सहमत भी हूं,’’ पल्लवी बोली, ‘‘मैं तुम्हें आश्वासन देती हूं कि मैं भरसक तुम्हारा साथ दूंगी. सब को समझऊंगी कि कुलदीप जैसे सुलझे हुए जीवनसाथी को नौकरी के लिए नकारना तुम्हारी बेवकूफी होगी और तुम्हारे ऐसा न करने पर कंपनी का तुम्हें नकारना, कंपनी का तुम्हारे प्रति अन्याय होगा. तुम्हें चांस तो मिलना ही चाहिए.’’

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पल्लवी के प्रयास से नमिता को पहली जून के बजाय 1 सप्ताह बाद

पति के साथ आने की इजाजत मिल गई, लेकिन यह बौंड भरने के बाद कि न्यूयौर्क औफिस को सुचारु रूप से संचालित करने से पहले वह छुट्टी नहीं लेगी और भारत लौटने के बाद भी एक निश्चित अवधि तक कंपनी में काम करेगी.

‘‘नौकरी तो करनी है ही नमिता, सो बौंड भर दो लेकिन एक शर्त के साथ कि भारत

लौटने पर तुम्हें मैटरनिटी लीव लेने का अधिकार होगा,’’ कुलदीप ने कहा, ‘‘जब शादी होगी तो बच्चे भी होंगे ही और उन्हें भी सही समय पर होना चाहिए.’’

नमिता ने यह शर्त पल्लवी को बताई.

‘‘मैटरनिटी लीव तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है नमिता,’’ पल्लवी हंसी, ‘‘उस के मिलने में कोई परेशानी नहीं होगी. बस इस अधिकार का दुरुपयोग अमेरिका प्रवास के दौरान मत करना.’’

दोनों परिवारों में नमिता और कुलदीप के फैसले को ले कर चखचख तो बहुत हुई, लेकिन कुलदीप के इस तर्क को कि जो कुछ भी समय की मांग और समय सीमा को ध्यान में रख कर किया जाए वह गलत नहीं होगा, कोई काट

नहीं सका.

अब 5 साल बाद दोनों परिवार अपने

तब तक फैसले  से बहुत संतुष्ट हैं. नमिता कोविड के पहले भारत मैटरनिटी लीव पर

आई थी और उन लौकडाउन के दिनों में वह लगातार औनलाइन वर्क फ्रौम होम करती रही. कुछ को तो पता भी न चला कि वह भारत में है या न्यूयौर्क में.

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समय सीमा: भाग 1- क्या हुआ था नमिता के साथ

‘‘नमिता,मैं अपनी कंपनी के उत्पादनों के लिए अमेरिका के बाजार में संभावनाएं तलाश करने जा रही हूं और तुम्हें मेरे साथ चलना है,’’ बिक्री निर्देशक पल्लवी ने कहा, ‘‘परेशानी बस इतनी है कि जिन शहरों में हम जाएंगे वहां मेरे

तो अपने रहते हैं और मैं उन्हीं के साथ रहूंगी, तुम्हारा प्रबंध होटल में करवा दूंगी. अकेले रह लोगी न?’’

यह बात 2016 की थी.

‘‘उस की जरूरत नहीं पड़ेगी मैडम,’’ नमिता ने जहां जाना था उन शहरों की लिस्ट पढ़ते हुए कहा, ‘‘संयोग से इन सभी जगहों पर मेरे भी करीबी लोग हैं जो अकसर मुझे बुलाते रहते हैं तो मैं भी उन के साथ रह लूंगी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा है, वैसे आजकल शायद ही कोई ऐसा मिले जिस का अमेरिका में कोई अपना न हो,’’ पल्लवी हंसी.

अमेरिका की यात्रा व्यावसायिक दृष्टिकोण से अपेक्षा से अधिक लाभदायक रही सो पल्लवी और नमिता बहुत खुश थीं.

‘‘आप को नहीं लगता मैडम कि हमारा न्यूयौर्क में स्थाई औफिस होना चाहिए?’’ वापसी की उड़ान के दौरान नमिता ने पूछा.

‘‘होना तो चाहिए मगर भारत से यहां स्थाई सीनियर मैनेजर और स्टाफ भेजना बहुत महंगा पड़ेगा,’’ पल्लवी ने कहा.

‘‘स्थाई स्टाफ भेजने की क्या जरूरत है, मैडम? कुछ अरसे के लिए एक सीनियर मैनेजर को 2-3 सहायकों के साथ लोकल लोगों को ट्रेनिंग देने के लिए भेज दीजिए.’’

‘‘बढि़या सुझव है, नमिता,’’ पल्लवी मुसकराई, ‘‘ऐसे ही सोचती रहो. जिंदगी में बहुत आगे बढ़ोगी. अमेरिका प्रवास कैसा रहा?’’

‘‘उम्मीद से ज्यादा अच्छा. जानपहचान वालों के साथ रहने से घूमने में बहुम मजा आया. आप का कैसा रहा, मैडम?’’

‘‘व्यावसायिक सफलता, सब से मिलने और उन के साथ घूमने तक तो बढि़या ही रहा, मगर मैं बराबर बच्चों और उन के पापा को मिस करती थी,’’ पल्लवी ने उसांस ले कर कहा, ‘‘सो मजा नहीं उठा सकी यानी व्यक्तिगतरूप से अच्छा नहीं रहा.’’

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नमिता ने कहना चाहा कि उस का तो व्यक्तिगतरूप से बहुत अच्छा रहा. भविष्य के जिस अनदेखे लेकिन अनिवार्य पहलू के बारे में उस ने कभी सोचने की जरूरत ही नहीं समझ थी, उस से रेणु दीदी ने उसे अनजाने में अवगत करा कर उस के प्रति जागरूक कर दिया.

रेणु दीदी उस से कई वर्र्ष बड़ी चचेरी बहन थीं. वह स्कूल में थी तभी रेणु दीदी अमेरिका चली गई थीं और उन की उपलब्धियों की कहानियां सुनने को मिलने लगी थीं. चाचाचाची उन के लिए आए दिन आने वाले शादी के प्रस्तावों से परेशान हो गए थे, लेकिन रेणु दीदी फिलहाल न तो शादी के लिए तैयार थीं न घर आने को.

चाची के बहुत कहने पर कि वह उन्हें देखने को तड़प रही हैं, रेणु दीदी ने उन के और चाचा के लिए टिकट भेज दिए थे.

अगले साल छोटी बहन कनु और भाई रवि को बुला लिया था. कनु को वहीं पड़ोस में रहने वाले एक इंजीनियर ने पसंद कर लिया और रवि के लिए अगले सत्र में एमबीए में प्रवेश की व्यवस्था हो गई. बच्चे के वहां जाने के बाद धीरेधीरे चाचाचाची भी भारत से उखड़ कर वहीं चले गए. परिवार के आ जाने से रेणु दीदी और भी लग्न से काम करने लगीं. आज वह अग्रणी और मशहूर सौफ्टवेयर कंपनी में प्रैसिडैंट थी. सुसज्जित बंगला, बड़ी गाड़ी और अमेरिका की दुर्लभ सुविधा नौकरानी उन के पास थी. कनु और रवि के अपने घर थे. चाचाचाची अधिकतर उन के पास रहते थे.

‘‘काम से थक कर आने पर आप के घर में बहुत सुकून और शांति मिलती है, दीदी,’’ नमिता ने कहा.

‘‘कुछ रोज को, उस के बाद सन्नाटा काटने लगता है.’’

‘‘ऐसा क्या?’’

‘‘हां नमिता, निरर्थक लगने लगता है यह सब तामझम… अकेले कितना आनंद लो इस सब का. कभी अपने लगने वाले दूसरे सब अपनी अलग दुनिया बसाने के बाद उस में मस्त हो

जाते हैं. उन्हें आने की फुरसत ही नहीं रहती. यदाकदा आप का स्वागत जरूरत है उन की दुनिया में जिस की रौनक अब आप को अधिक रास नहीं आती,’’ रेणु ने उमांस ले कर कहा, ‘‘जीवन में कुछ भी करने की एक समय सीमा होती है. अगर आप ने उसे नकार दिया तो बस जीवनभर ‘एकला चलो रे’ ही अलापना पड़ता है जो आसान नहीं है. अगर आप में योग्यता और क्षमता है तो जब भी मौका लगेगा आप को आप का लक्ष्य तो मिल ही जाएगा, लेकिन किसी का सान्निध्य जब चाहो तब मिल जाएगा, ऐसा सोचना महज एक खुशफहमी है.’’

रेणु दीदी ने बगैर उस से उस की भविष्य की योजना पूछे या प्रवचन दिए बहुत कुछ समझ दिया था जिसे नकारना मुश्किल था. उस ने सोचा कि अब जब कभी मां इस विषय में बात करेंगी तो वह हमेशा की तरह मना नहीं करेगी. अमेरिका से लौटने के कुछ रोज बाद ही पापा के दोस्त खुशालचंद अपने किसी रिश्तेदार का रिश्ता ले कर आ गए उस के लिए.

‘‘कुलदीप की अपनी ग्लास फैक्टरी है, बहुत अच्छी चल रही है. वह शादी करना चाह रहा है, लेकिन उसे लड़की बढि़या नौकरी

वाली चाहिए…’’

‘‘वह क्यों चाचाजी?’’ नमिता के छोटे भाई निखिल ने बात काटी.

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‘‘दूरदर्शिता,’’ खुशालचंद बोले, ‘‘कुलदीप का कहना है कि बिजनैस कभी भी डुबकी मार सकता है सो सिर को पानी से ऊपर रखने के लिए सैकंड लाइन औफ डिफैंस यानी स्थाई कमाई का जरीया होना जरूरी है और प्रोफैशनली क्वालीफाइड लड़की से शादी इस समस्या का स्थाई हल है. मुझे लगा कि यह कुलदीप की

ही नहीं तुम लोगों की समस्या का भी स्थाई हल हो सकता है क्योंकि नमिता भी तो इसीलिए

शादी नहीं कर रही कि वह अपनी नौकरी नहीं छोड़ना चाहती और कुलदीप छुड़वाएगा नहीं.

मेरे खयाल में जगदीश, तुम लोग एक बार इस लड़के से मिल तो लो. आप क्या कहती हैं अमिता भाभी?’’

‘‘मैं ने क्या कहना है भाईर् साहब, होगा तो वही जो नमिता कहेगीं,’’ अमिता बोली.

‘‘नमिता यहीं बैठी सब सुन रही है. बता बेटी क्या करें?’’ जगदीश ने पूछा.

‘‘जैसा आप ठीक समझें,’’ नमिता ने सिर झका कर कहा.

‘‘मैं उन लोगों से मिलने का समय तय

कर के तुम्हें बताऊंगा,’’ कह कर खुशालचंद

चले गए.

‘‘आप ने ऐसे कैसे हां कर दी, दीदी?’’ निखिल ने मौका लगते ही पूछा, ‘‘साफ जाहिर है कि या तो लड़के में आत्मविश्वास की कमी है या फिर वह बीवी की कमाई खाने वाला है. आप ऐसे आदमी से मिल कर क्यों अपना समय व्यर्थ कर रही हैं?’’

‘‘खुशालचंदजी के सामने जब यह सब कहने की तेरी ही हिम्मत नहीं हुई तो मेरी कैसे होती?’’ नमिता ने टालने के स्वर में कहा.

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सही वसीयत: भाग 3- हरीश बाबू क्या था आखिरी हथियार

हरीश बाबू लेटेलेटे सोचने लगे, अच्छा होता अगर वे अनाथालय से कोई बच्चा गोद ले लेते. कम से कम एक बच्चे का तो जीवन सुधर जाता. करीबी संबंधी को गोद ले कर उन्हें क्या मिला? सुमंत तब तक उन का दुलारा रहा जब तक उसे उन की जरूरत थी. जैसे ही अपने पैरों पर खड़ा हुआ, अपने मांबाप का हो गया. आज की तारीख में उस को मेरी जरूरत नहीं. तभी तो बेगानों जैसा व्यवहार करने लगा. सोचतेसोचते कब उन की आंख लग गई, उन्हें पता ही न चला. अगली सुबह एक ठोस नतीजे के साथ फोन कर के उन्होंने अपने वकील को बुलाया.

‘‘क्या गोदनामा बदल सकता है?’’ एकाएक उन के फैसले से वकील को भी आश्चर्य हुआ.

‘‘यह तो नहीं हो सकता? पर आप ऐसा चाहते क्यों है?’’ वकील ने प्रश्न किया. हरीश बाबू ने सारा वाकेआ बयां कर दिया.

‘‘आप ही बताइए सुमंत को मैं ने अपना बेटा माना, बदले में उस ने मुझे क्या समझा. वह अच्छी तरह जानता है कि मैं ने उस के लिए क्याकुछ नहीं किया. तिस पर उस ने मेरी उपेक्षा की. क्यों? या तो उसे मेरी अब जरूरत नहीं या फिर वह यह सोच कर बैठा है कि भावनात्मक रूप से जुड़े होने के नाते मैं उस के खिलाफ कोई ऐक्शन नहीं लूंगा?’’

कुछ सोच कर वकील बोला, ‘‘आप चाहेंगे तो वसीयत बदल  सकते हैं और सुमंत को कुछ भी न दें.’’

‘‘आप वसीयत बदल दीजिए, ताकि उसे सबक मिले. इस तरह मुझे भी अपनी गलती सुधारने का मौका मिलेगा.’’

वकील ने वही किया जो हरीश बाबू चाहते थे. यानी वसीयत बदलवा दी. यह खबर किसी को कानोंकान न लगी. नटवर जब भी आता, यही रट लगाता कि आप गोदनामा बदल दें. मैं आप का सगा भाई हूं, जब तक जीवित रहूंगा, आप की सेवा करता रहूंगा. आप की संपत्ति गैर को मिले, यह बड़े शर्म की बात होगी. हरीश बाबू उस का मन टटोलने की नीयत से बोले, ‘‘क्या तुम लालच में मेरी सेवा करोगे?’’

‘‘नहीं भैया, ऐसी बात नहीं है,’’ नटवर सकपकाया.

‘‘मैं सिर्फ आप को राय दे रहा हूं. खुदगर्ज को देने से क्या फायदा? सुधीर को दे कर आप ने देख लिया.’’

‘‘तुम मुझे खून के रिश्ते का वास्ता दे रहे हो. मान लिया जाए कि मैं तुम्हें फूटी कौड़ी भी न दूं तो भी क्या तुम मेरी ऐसी ही देखभाल करते रहोगे?’’ नटवर ने बेमन से हामी भर तो दी मगर हरीश बाबू उसे अच्छी तरह से जानते थे कि उस के मन में क्या है?

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एक रोज हरीश बाबू अकेले पैंशन ले कर लौट रहे थे. रिकशे से गिर पड़े. टांग की हड्डी टूट गई. किसी तरह कुछ हमदर्द लोगों की मदद से अस्पताल ले जाए गए. जहां उन के प्लास्टर लगा. एक महीने से ज्यादा तक वे किसी काम के नहीं रहे. सुधीर को खबर दी तो भी वह नहीं आया, ‘सुमंत को दिक्कत होगी,’ बहाना बना दिया. सुमंत तो कहीं भी खापी सकता था. पर वे कैसे रहेंगे, वह भी इस हालत में? उस ने यह नहीं सोचा. नौकरानी ही उन्हें डंडे के सहारे उठातीबैठाती, उन की देखभाल करती व खाना बना कर देती. बुढ़ापे का शरीर एक बार झटका तो उबर न सका. एक सुबह खुदगर्ज दुनिया में उन्होंने अंतिम सांस ली. उस समय उन के पास कोई नहीं था.

मौत की खबर लगी तो नटवर भी भागेभागे आया. उस समय सगे में वही था. हरीश बाबू का एक और साला किशन भी आ चुका था. नटवर भाई का क्रियाकर्म करने का इंतजाम करने लगा. उसे ऐसा करते देख किशन बोला, ‘‘आप को परेशान होने की कोई जरूरत नहीं. उन का दत्तक पुत्र सुमंत बेंगलुरु से चल चुका है.’’

‘‘बेटा, कैसा बेटा, उन के कोई औलाद नहीं थी,’’ नटवर बोला.

‘‘आप अच्छी तरह जानते हैं कि उन्होंने सुमंत को गोद लिया था. कानूनन वही उन का बेटा है,’’ किशन को क्रोध आया.

‘‘मैं किसी सुमंत को नहीं जानता. मैं उन का क्रियाकर्म करूंगा क्योंकि वे मेरे सगे भाई थे. उन पर हमारा हक है. इस से हमें कोई नहीं रोक सकता,’’ नटवर हरीश बाबू के शरीर पर से कपड़ा हटाने लगा.

‘‘रुक जाइए,’’ किशन बिगड़ा, ‘‘अपनी हद में रहिए वरना मुझे पुलिस बुलानी पड़ेगी.’’

‘‘पुलिस, वह क्या करेगी? हम ने इन की हत्या तो की नहीं, जो लाश चोरी से जलाने जा रहे रहे हैं. भाई का क्रियाकर्म भाई नहीं करेगा, तो कौन करेगा?’’ नटवर ने भी उसी अंदाज में जवाब दिया. जब नटवर नहीं माना तो किशन ने थाने में जा कर शिकायत की. पुलिस मामले की तहकीकात में जुट गई.

‘‘उन का कोई बेटा नहीं था,’’ नटवर बोला.

‘‘क्या यह सच है?’’ थानेदार ने किशन से पूछा.

‘‘हां, पर उन्होंने अपने साले के बेटे सुमंत को बाकायदा गोद लिया था. गोदनामा न्यायालय में रजिस्टर्ड है.’’

‘‘क्या आप मुझे वे कागजात दिखा सकते हैं?’’

‘‘क्यों नहीं? परंतु आप को 1-2 दिन इंतजार करना होगा. कागज उन्हीं के पास हैं.’’ थानेदार को किशन की बात में सचाई नजर आई. लाश का क्रियाकर्म उन के आने तक रुक गया.

प्लेन से आने में सुधीर, सुनीता व सुमंत को ज्यादा समय नहीं लगा. नटवर तो जानता ही था कि हरीश बाबू ने सुमंत को गोद लिया था. मगर जिस तरह से उस ने जल्दबाजी की वह सब की समझ से परे था. अंतिम संस्कार करने के बाद जब सब लौटे तो सुनीता हरीश बाबू के फोटो के सामने टेसुए बहाते हुए बोली, ‘‘कितना तो कहा, बेंगलुरु चलिए पर नहीं गए. कहने लगे इस शहर से न जाने कितनी यादें जुड़ी हैं. बेगाने शहर में एक पल जी नहीं सकूंगा.’’

तेरहवीं के बाद सुधीर वकील के पास गया. वह मकान पर जल्द से जल्द सुमंत का नाम चढ़वा देना चाहता था ताकि भविष्य में मकान बेच कर अच्छी रकम प्राप्त की जा सके.

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‘‘वसीयत में सुमंत के नाम कुछ नहीं है,’’ वकील बोला.

‘‘यह आप क्या कह रहे हैं. गोदनामा तो बाकायदा रजिस्टर्ड है,’’ सुधीर को पैरों तले जमीन सिखकती नजर आई.

‘‘हरीश बाबू अपने जीतेजी अपनी संपत्ति के बारे में कुछ भी कर सकते थे,’’ वकील ने कहा.

‘‘मैं नहीं मान सकता. जरूर उन की मानसिक दशा ठीक नहीं होगी. किसी ने उन्हें बरगलाया है,’’ सुधीर की त्योरियां चढ़ गईं.

‘‘आप जो समझें.’’

‘‘फिर यह मकान किस का होगा?’’ सुधीर ने सवाल किया.

‘‘उन के भाई के बेटों का,’’ वकील कुछ छिपा रहा था जो सुधीर समझ न सका. नटवर को पता चला कि हरीश बाबू ने वसीयत में उस का नाम लिखा है तो मकान पर अपना मालिकाना हक जमाने चला आया.

‘‘मैं मकान खाली नहीं करूंगा. वे मेरे पिता थे,’’ सुमंत तैश में बोला.

‘‘करना तो पड़ेगा ही, क्योंकि वसीयत में तुम्हारा हक रद्द हो चुका है. सुना नहीं वकील ने क्या कहा,’’ नटवर ने कहा कि अब यह मकान मेरे बेटों का होगा. जाहिर सी बात है कि मुझ से ज्यादा करीबी कौन होगा? नटवर के चेहरे पर विजय की मुसकान बिखर गई.

‘‘अगर ऐसा है तो मैं इसे अदालत में चुनौती दूंगा. उन्होंने यह सब अपने मन से नहीं किया होगा,’’ सुमंत के तर्क को नटवर ने नहीं माना.

‘‘क्या इस वसीयत को अदालत में चुनौती दी जा सकती है?’’ सुधीर ने वकील से पूछा.

‘‘क्या सिद्ध करना चाहेंगे?’’

‘‘यही कि उन की मानसिक दशा ठीक नहीं थी. लिहाजा, यह वसीयत गैरकानूनी है.’’

उन की नई वसीयत में बाकायदा 2 प्रतिष्ठित लोगों के हस्ताक्षर हैं जिस पर साफसाफ लिखा है कि मैं पूरे होशोहवास में अपनी वसीयत बदल रहा हूं.

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सुधीर हताश था. वकील के चेहरे पर स्मित की हलकी रेखा खिंच गई. अब क्या किया जा सकता है? सुधीर इस उधेड़बुन में था. वह भारी कदमों से वकील के चैंबर से अपने घर जाने के लिए निकला ही था तभी वकील ने कहा, ‘‘जनाब, आप ने क्या सोचा था कि बिना जिम्मेदारी निभाए करोड़ों की संपत्ति पर कब्जा कर लेंगे?’’

‘‘इसी बात का अफसोस है.’’

‘‘अब अफसोस करने से क्या फायदा. वैसे, हरीश बाबू ने एक ट्रस्ट बना दिया है. न सुमंत को दिया है न भाई के बेटों को. उन्होंने इस मकान को गरीबों की शिक्षा के लिए स्कूल बनवाने के लिए दे दिया है,’’ वकील के कथन पर सुधीर का चेहरा देखने लायक था.

सुनीता ने सुना तो लगा वह बेहोश हो जाएगी. उसे विश्वास था कि किन्हीं भी परिस्थितियों में हरीश बाबू गोदनामा नहीं बदलेंगे, इसलिए वह उन के प्रति लापरवाह हो गई थी. उसी का फल उसे अब मिला. अब सिवा पछताने के, उन के पास कुछ नहीं रहा. हरीश बाबू ने सही वसीयत कर के लालची बिलौटों को सही जवाब दे दिया था.

सही वसीयत: भाग 1- हरीश बाबू क्या था आखिरी हथियार

हरीश बाबू और उन की पत्नी सावित्री सरकारी मुलाजिम थे. रुपए पैसों की कोई कमी नहीं थी, मगर निसंतान होने की कसक दोनों को हमेशा रहती. हरीश बाबू का साला सुधीर उन के करीब ही किराए के मकान में रहता था. उस की माली हालत ठीक न थी. उस का 4 वर्षीय बेटा सुमंत हरीश बाबू से घुलामिला था. एक तरह से दोनों की जिंदगी में निसंतान न होने के चलते जो शून्यता थी वह काफी हद तक सुमंत से भर जाती. हरीश बाबू अकसर सुमंत को अपने घर ले आते. कंधे पर बिठा कर बाजार ले जाते. उस की हर फरमाइश पूरी करते. उस की हर खुशी में वे अपनी खुशी तलाशते. सावित्री भी सुमंत के बगैर एक पल न रह पाती. दोनों सुमंत की थका देने वाली धमाचौकड़ी पर जरा भी उफ न करते. वहीं सुधीर व सुनीता, उस की बेजा हरकतों के लिए उसे डांटते, ‘‘जाओ फूफाजी के पास. वही तुम्हारी शैतानी बरदाश्त करेंगे.’’ एक दिन सुनीता सुमंत पर चिल्ला रही थी कि तभी हरीश बाबू उन के घर में घुसे. उन्हें देख कर सुमंत लपक कर उन की गोद में चढ़ गया.

‘‘बच्चे को डांट क्यों रही हो?’’ हरीश बाबू रोष से बोले.

‘‘आप के लाड़प्यार ने इसे बिगाड़ दिया है. हर समय कोई न कोई फरमाइश करता रहता है. आप तो जानते हैं कि हमारी आर्थिक स्थिति क्या है. उस की जरूरतों को पूरा करना हमारे वश में नहीं है,’’ सुधीर का भी मूड खराब था. उस रोज हरीश बाबू निराश घर आए. सावित्री से कहा, ‘‘अब वे सुमंत को नहीं लाएंगे.’’

‘‘क्यों, कुछ हो गया,’’ सावित्री आशंकित स्वर में बोली.

‘‘सुधीर को बुरा लगता है.’’

‘‘वह क्यों बुरा मानेगा? आप ही को कोई गलतफहमी हुई है. वह मेरा भाई है. मैं उसे अच्छी तरह से जानती हूं,’’ हंस कर सावित्री ने टाला.

2 दिन सुमंत नहीं आया. दोनों बेचैन हो उठे. उन का किसी काम में मन नहीं लग रहा था. बारबार ध्यान सुमंत पर चला जाता. हरीश बाबू से कहते नहीं बन रहा था, गैर के बेटे पर क्या हक? सावित्री, हरीश बाबू का मुंह देख रही थी. वह उन की पहल का इंतजार कर रही थी. जब उसे लगा कि वे संकोच कर रहे हैं तो उठी, ‘‘मैं सुधीर के घर जा रही हूं.’’

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‘‘जाने की कोई जरूरत नहीं,’’ उन्होंने रोका.

‘‘आप भी बच्चों की तरह रूठ जाते हैं. वह मेरा भाई है. आप न जाएं, मैं तो जा सकती हूं,’’ कह कर वह निकलने लगी.

‘‘सुमंत को लाने की कोई जरूरत नहीं,’’ हरीश बाबू ने बेमन से कहा. पर सावित्री ने उन के भीतर छिपे भावों को पढ़ लिया. वह मंदमंद मुसकराने लगी.

‘‘आप सच कह रहे हैं?’’ सावित्री ने रुक कर पूछा तो हरीश बाबू नजरें चुराने लगे. तभी फाटक पर किसी की आहट हुई. सुमंत, सुधीर की उंगली पकड़ कर अंदर घुसा. जैसे ही उस की नजर हरीश बाबू पर पड़ी, उंगली छुड़ा कर तेजी से भागा. हरीश बाबू उस की बोली सुनते ही भावविभोर हो गए. झट से उठ कर उसे गोद में उठा लिया.

‘‘आप के पास आने की जिद कर रहा था. रोरो कर इस का बुरा हाल था,’’ सुधीर थोड़ा नाराज था.

‘‘तो भेज देता. बच्चों को कोई बांध सकता है,’’ सावित्री रुष्ट स्वर में बोली. सुधीर बिना कोई प्रतिक्रिया जताए चला गया. हरीश बाबू, सुमंत के साथ 2 दिनों की कसर निकालने लगे. खूब मौजमस्ती की दोनों ने. हरीश बाबू ने उस के लिए बाजार से बड़ी मोटर खरीदी. सावित्री ने उसे अपने हाथों से खाना खिलाया. आइसक्रीम की जिद की तो वह भी दिलवाई. थक गया तो अपने सीने से लगा कर थपकी दे कर सुलाया. शाम को सुनीता आई. तब वह अपने घर गया. वह तब भी नहीं जा रहा था, कहने लगा, ‘‘मम्मी, तुम भी यहीं रहो.’’ लेकिन सुनीता किसी तरह से उसे पुचकार कर घर ले गई.

उस के जाते ही फिर वही उदासी, अकेलापन. हरीश बाबू और सावित्री के पास करने को कुछ था नहीं. साफसफाई का काम नौकरानी कर जाती. सिर्फ खाना बनाना भर रह जाता. हरीश बाबू का काम ऐसा था कि वे बहुत कम औफिस जाते. वहीं सावित्री के स्कूल की 2 बजे तक छुट्टी हो जाती. उस के बाद शुरू होती सुमंत की तलब. सुमंत आता, तो घर में चहलपहल हो जाती.

एक दिन हरीश बाबू सावित्री से बोले, ‘‘सावित्री, बुढ़ापे के लिए कुछ सोचा है. 15 साल बाद हम रिटायर हो जाएंगे. फिर कैसे कटेगी बिना औलाद के जिंदगी? अकेला घर काटने को दौड़ेगा?’’

‘‘तब की तब देखी जाएगी. उस के लिए अभी से क्या सोचना?’’ सावित्री ने टालने के अंदाज में कहा.

हरीश बाबू कुछ सोचने लगे. क्षणिक विचारप्रक्रिया से उबरने के बाद बोले, ‘‘क्यों न हम सुमंत को गोद ले लें?’’

‘‘खयाल तो अच्छा है, पर सुधीर तैयार होगा?’’ सावित्री बोली.

‘‘उसे तुम तैयार करोगी,’’ कह कर हरीश बाबू चुप हो गए. सावित्री ने अनुभव किया कि वे कुछ और कहना चाह रहे थे, पर संकोचवश कह नहीं रहे थे. सावित्री ने ही पहल की, ‘‘आप कुछ और कहना चाह रहे थे?’’

‘‘तुम्हें एतराज न हो तो?’’ हरीश बाबू बोले.

‘‘कह कर तो देखिए, हो सकता है न हो,’’ सावित्री मुसकुराई.

‘‘क्यों न सुधीर सपरिवार यहीं आ कर रहे. इतना बड़ा घर है. सब मिलजुल कर रहेंगे तो अकेलापन खलेगा नहीं.’’ हरीश बाबू का प्रस्ताव सावित्री को जंच गया. वैसे भी सुमंत को गोद लेने पर मकान उन्हीं लोगों का होगा. रुपयापैसा क्या कोई अपने साथ ले कर जाएगा. एक दिन मौका पा कर सावित्री ने सुधीर से अपने मन की बात कही. सुधीर तो यही चाहता था. इसी बहाने उसे रहने का स्थायी ठौर मिल जाएगा. साथ में दोनों का लाखों का बैंकबैलेंस. थोड़ी नानुकुर के बाद सुधीर सपरिवार आ कर रहने लगा. घर की रौनक बढ़ गई. घर संभालने का काम सुनीता के कंधों पर आ गया. हरीश बाबू, सावित्री नौकरी पर चले जाते तो सुनीता ही घर का सारा काम निबटाती. उन्हें समय पर खानापीना मिल जाता, साथ में मन बहलाने के लिए सुमंत की घमाचौकड़ी.

हरीश बाबू ने सुमंत की हर जरूरतें पूरी कीं. शहर के अच्छे स्कूल में नाम लिखवाया. जिस चीज की जिद करता, चाहे कितनी ही महंगी हो, अवश्य दिलवाते.

सुधीर के रहते हुए 6 महीने से ज्यादा हो गए. एक रात हरीश बाबू और सावित्री ने फैसला लिया कि जो काम कल करना है उसे अभी करने में क्या हर्ज है.

लिहाजा, आपसी सलाह से सुमंत को गोद लेने के फैसले को एक दिन दोनों ने मूर्तरूप दे दिया. गोदनामे की एक शानदार पार्टी दी. पार्टी में उन्होंने अपने सारे रिश्तेदारों और दोस्तों को बुलाया. उन का सगा भाई नटवर भी आया. वह हरीश बाबू के इस गोदनामे से खुश नहीं था. सो, अपनी नाखुशी जाहिर करने में उस ने कोई कसर नहीं छोड़ी. हरीश बाबू शुरू से अपनी पत्नी की ही करते आए.

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इस की सब से बड़ी वजह थी ससुराल के बगल में उन का स्थायी मकान का होना. नटवर का दोष यह था कि वह एक नंबर का धूर्त और चालबाज था. इसी वजह से हरीश बाबू उस को पसंद नहीं करते थे. उस रोज वह बिना खाएपिए चला गया. लोगों की नाराजगी से बेखबर हरीश बाबू अपने में खोए रहे.

गोदनामे के बाद जब सुधीर, हरीश बाबू के बल पर आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो गया तो अपने कामधंधे से लापरवाह हो गया. आलसी वह शुरू से था. फिर जब बिना मेहनत के मिले तो कोई क्यों हाथपांव मारे. वैसे भी व्यापार में अनिश्चितता बनी रहती है.

कुछ महीनों बाद सुधीर दुकान बंद कर के घर पर ही रहने लगा. हरीश बाबू चुप रहते मगर सावित्री बहन होने के नाते सुधीर को डांटडपट देती. धीरेधीरे हरीश बाबू को भी उस की बेकारी खलने लगी. वे भी मुखर होने लगे. इन्हीं सब वजहों से महीने में एकाध बार दोनों में तूतूमैंमैं हो जाती. एक दिन अचानक सावित्री को ब्रेन हैमरेज हो गया. 2 दिन कोमा में रहने के बाद वह चल बसी. हरीश बाबू का दिल टूट गया. वे गहरी वेदना में डूब गए. उस समय सुमंत न होता, तो निश्चय ही वे जीने की आस छोड़ देते.

सुमंत हाईस्कूल में पहुंच गया तो मोटरसाइकिल की जिद करने लगा. हरीश बाबू ने उसे तुरंत मोटरसाइकिल खरीदवा दी. घरगृहस्थी चलाने के लिए एकमुश्त रुपया वे सुधीर को दे देते. सुधीर उन पैसों में से अपने महीने का खर्च निकाल लेता. एक दिन हरीश बाबू ने पूछा, ‘‘जितना तुम्हें देते हैं, तुम सब खर्च कर देते हो, क्या कुछ बचता नहीं?’’

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समय सीमा: भाग 2- क्या हुआ था नमिता के साथ

अब मनोविज्ञान में शोध कर रहे निखिल को क्या बताती कि अभी समय व्यर्थ न करने के नखरे कर के अब वह जीवन की सांध्य बेला व्यर्थ नहीं करेगी. कुलदीप का सारा परिवार ही उसे बहुत सुलझ हुआ लगा.

निखिल की यह शंका कि उस में आत्मविश्वास की कमी है या वह बीवी की कमाई खाने वाला है, कुलदीप ने यह कह कर निर्मूल सिद्ध कर दी, ‘‘मैरी फैक्टरी सुचारु रूप से चल रही है. अब मैं इस का और विस्तार करना चाहता हूं जिस के लिए मुझे इस में और अधिक समय लगाना पड़ेगा, लेकिन उस के लिए मैं ब्रह्मचारी बनना भी नहीं चाहता और न ही ऐसी पत्नी चाहता हूं जो फैक्टरी को अपनी सौत समझे यानी घरेलू बीवी जिस के लिए त्योहार, रिश्तेदार मेरे काम से ज्यादा जरूरी हों.

‘‘अपने कैरियर के प्रति समर्पित लड़की चाहता हूं जो स्वयं भी व्यस्त रहती हो, फुरसत के क्षणों की अहमियत समझ कर खुद भी उन्हें भरपूर जीए और मुझे भी जीने दे. शादी के

बाद लोग घरगृहस्थी के बारे में सोच कर

रिस्क लेने से डरते हैं, लेकिन कमातीधमाती धर्मपत्नी हो तो कुछ हद तक जोखिम उठाया जा सकता है.’’

इस के बाद कुछ कहनेसुनने को बचा ही नहीं और दोनों की शादी तय हो गई. कुलदीप का छोटा भाई अहमदाबाद में एमबीए के अंतिम वर्ष में था और परीक्षा में कुछ ही सप्ताह शेष थे सो कुलदीप का परिवार चाहता था कि सगाई, शादी उस के आने के बाद ही करें. नमिता के परिवार को तो तैयारी के लिए समय मिल रहा था. कुलदीप और नमिता टीवी देखने या कुछ पढ़ने में बिताती थी. अपनी मित्र मंडली तो थी ही, निखिल और दूसरे कजिन के साथ भी कोई न कोई प्रोग्राम बनता ही रहता था.

लेकिन कुलदीप से मिलने के बाद यह सब क्रियाक्लाप एकदम सतहहीन लगने लगे थे. रिश्ते दोस्ती सब अपनी जगह ठीक थे, लेकिन कुलदीप के साथ कुछ भी करना जैसे भविष्य की नींव डालना था, एक स्थाई रिश्ते का निर्माण जिस में उमंगों के साथ ऊष्मता भी थी और इंद्रधनुष के रंग भी. भविष्य के सपने तो वह पहले भी देखती थी, लेकिन उन में और कुलदीप के साथ देखे सपनों या उस के इर्दगिर्द बुने सपनों में बहुत फर्क था. शादी और सगाई से कुछ दिन पहले नमिता ने कुलदीप से पूछा कि कितने दिन की छुट्टी ले.

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‘‘जितने दिन की आसानी से मिले सके,’’ कुलदीप ने सहजता से कहा, ‘‘तमन्ना तो लंबे हनीमून की है, लेकिन उस के लिए तुम्हारा कैरियर दांव पर नहीं लगाना चाहूंगा.’’

नमिता अभिभूत हो गई, ‘‘मेरी बहुत छुट्टियां जमा हैं, मैं पल्लवी मैडम से बात करूंगी,’’ नमिता ने कहा, ‘‘वे बहुत सहृदता हैं सो स्वयं ही लंबी छुट्टी दे देंगी.’’

इस से पहले वह पल्लवी से बात करती, पल्लवी ने उसे मैनेजमैंट की मीटिंग में

आने के लिए कहा. मीटिंग में पल्लवी के ससुर कंपनी के चेयरमैन धर्मपाल, पल्लवी के जेठ मैनेजिंग डाइरैक्टर सतपाल और पल्लवी के पति डिप्टी मैनेजिंग डाइरैक्टर यशपा के अतिरिक्त अन्य वरिष्ठ अधिकारी भी थे जिन में अधिकांश परिवार के सदस्य ही थे.

‘‘बधाई हो नमिता, मैनेजमैंट को तुम्हारा न्यूयौर्क में औफिस खोलने का सुझव बहुत

पसंद आया है,’’ धर्मपाल ने कहा, ‘‘चूंकि यह तुम्हारा प्रस्ताव है सो मैनेजमैंट ने फैसला किया

है कि इसे पूरा भी तुम्हीं करो यानी न्यूयौर्क औफिस खोलने के लिए तुम ही जाओ पहली

जून को.’’

नमिता बुरी तरह चौंक पड़ी. 28 मई को तो उस की शादी है.

‘‘थैंक यू सो मच सर, लेकिन मैं यह नहीं कर पाऊंगी.’’

‘‘क्यों नहीं कर पाओगी?’’ पल्लवी ने बात काटी, ‘‘मैं और यश चल रहे हैं न तुम्हारे साथ कुछ सप्ताह के लिए. फिर तुम्हारी कजिन और कई जानपहचान वाले वहां हैं, तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी.’’

‘‘होगी भी तो कंपनी के लोग तुम्हारा पूरा खयाल रखेंगे,’’ धर्मपाल मुसकराए, ‘‘वैसे सफलता की सीढि़यां परेशानियों से भरी होती हैं, मैं भी उन पर गिरतापड़ता यहां तक चढ़ सका हूं. जाओ, जा कर जाने की तैयारी यानी अपना चार्ज अपने सहायक को देना शुरू कर दो.’’

नमिता हैरान रह गई यानी आदेश पारित हो चुका था और यहां कुछ भी कहना मुनासिब नहीं था. पल्लवी की सैक्रेटरी के कहने के बावजूद वह बगैर समय लिए पल्लवी से कैसे मिल सकती है. वह पल्लवी का इंतजार करने उन के कमरे में बैठ गई. कुछ देर के बाद पल्लवी आईं और उसे देख कर बोलीं, ‘‘क्या बात है नमिता, इतनी परेशान क्यों लग रही हो?’’

सब सुनने के बाद सहानुभूति के बजाय पल्लवी ने उस की ओर व्यंग्य से देखा,

‘‘इंटरव्यू के समय तो तुम ने कहा था कि अगले कई वर्ष तक तुम्हारी वरीयता तुम्हारी नौकरी

ही रहेगी और उस बात को तो अभी कुछ ही

वर्ष हुए हैं. इतनी जल्दी दिल कैसे भर गया नौकरी से?’’

‘‘नौकरी से दिल नहीं भरा मैडम, सयोग

से ऐसा साथी मिल गया है जो मुझ से कभी नौकरी छोड़ने या उसे तरजीह देने से मना नहीं करेगा,’’ नमिता ने उसे कुलदीप के बारे में सब बताना बेहतर समझ, ‘‘लेकिन एन शादी के मौके पर मैं यह कह कर शादी टालने या तोड़ने को नहीं कहना चाहती कि मेरा अमेरिका जाना अनिवार्य है.’’

‘‘ठीक समझ नमिता तुम ने, अमेरिका

जाना तो अनिवार्य है ही क्योंकि यह चेयरमैन

का आदेश है और अपने आदेश की अवज्ञा

वे अपना अपमान समझते हैं. उन की बात न

मान कर कंपनी में रहने के बजाय कंपनी

छोड़ना ही बेहतर होगा,’’ पल्लवी ने सपाट स्वर में कहा.

‘‘जैसा आप ठीक समझें, मैडम,’’ नमिता धीरे से बोली, ‘‘कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो पड़ता ही है.’’

पल्लवी इस उत्तर से चौंकी तो जरूर, लेकिन फिर संभल कर नमिता को ऐसे देखने लगीं जैसे उसे पर तरस खा रही हों.

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‘‘लेकिन तुम्हें तो हो सकता है सबकुछ

ही छोड़ना पड़े. जैसाकि तुम ने अभी बताया

उस से तो लगता है कि कुलदीप ने तुम्हें

तुम्हारी नौकरी और उस के प्रति समर्पित होने

के कारण ही पसंद किया है, अब अगर एक

आम लड़की की तरह भावावेश में आकर तुम

ने नौकरी छोड़ दी तो कैरियर के साथसाथ कुलदीप की तुम से शादी करने की वजह भी खत्म हो सकती है. कोई भी कदम उठाने से पहले अच्छी तरह सोच लो. चाहो तो आज जल्दी घर चली जाओ.’’

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ऐसा तो होना ही था: क्या हुआ था ऋचा के साथ

नमिता की बातें सुन कर ऋचा पलंग पर कटी पतंग की तरह गिर पड़ी. दिल इतनी जोरों से धड़क रहा था मानो निकल कर बाहर ही आ जाएगा. आखिर उस के साथ ही ऐसा क्यों होता है कि उस के हर अच्छे काम में बुराई निकाली जाती है. नमिता के कहे शब्द उस के दिलोदिमाग पर प्रहार करते से लग रहे थे :

‘दीदी मंगलसूत्र और हार के एक सेट के साथ विवाह के स्वागत समारोह का खर्च भी उठा रही हैं तो क्या हुआ, दिव्या उन की भी तो बहन है. फिर जीजाजी के पास दो नंबर का पैसा है, उसे  जैसे भी चाहें खर्च करें. हमारी 2 बेटियां हैं, हमें उन के बारे में भी तो सोचना है. सब जमा पूंजी बहन के विवाह में ही खर्च कर दीजिएगा या उन के लिए भी कुछ बचा कर रखिएगा.’

भाई के साथ हो रही नमिता भाभी की बात सुन कर ऋचा अवाक््रह गई थी तथा बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली आई.

नमिता भाभी तो दूसरे घर से आई हैं लेकिन सुरेंद्र तो अपना सगा भाई है. उस को तो प्रतिवाद करना चाहिए था. वह तो अपने जीजा के बारे में जानता है. यह ठीक है कि उस के पति अमरकांत एक ऐसे विभाग में अधीक्षण अभियंता हैं जिस में नियुक्ति पाना, खोया हुआ खजाना पाने जैसा है. लेकिन सब को एक ही रंग में रंग लेना क्या उचित है? क्या आज वास्तव में सच्चे और ईमानदार लोग रह ही नहीं गए हैं?

बाहर वाले इस तरह के आरोप लगाएं तो बात समझ में भी आती है. क्योंकि उन्हें तो खुद को अच्छा साबित करने के लिए दूसरों पर कीचड़ उछालनी ही है पर जब अपने ही अपनों को न समझ पाएं तो बात बरदाश्त से बाहर हो जाती है.

एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है. आज उसे वह कहावत अक्षरश: सत्य प्रतीत हो रही थी. वरना अमर का नाम, उन्हें जानने वाले लोग आज भी श्रद्धा से लेते हैं. स्थानांतरण के साथ ही कभी- कभी उन की शोहरत उन के वहां पहुंचने से पहले ही पहुंच जाया करती है.

ऐसा नहीं है कि अपनी ईमानदारी की वजह से अमर को कोई तकलीफ नहीं उठानी पड़ी. बारबार स्थानांतरण, अपने ही सहयोगियों द्वारा असहयोग सबकुछ तो उन्होंने झेला है. कभीकभी तो उन के सीनियर भी उन से कह देते थे, ‘भाई, तुम्हारे साथ तो काम करना भी कठिन है. स्वयं को कुछ तो हालात के साथ बदलना सीखो.’ पर अमर न जाने किस मिट्टी के बने थे कि उन्होेंने बड़ी से बड़ी परेशानियां सहीं पर हालात से समझौता नहीं किया और न ही सचाई व ईमानदारी के रास्ते से विचलित हुए.

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मर्मांतक पीड़ा सहने के बाद अगर कोई समय की धारा के साथ चलने को मजबूर हो जाए तो उस में उस का नहीं बल्कि परिस्थितियों का दोष होता है. परिस्थितियों को चेतावनी दे कर समय की धारा के विपरीत चलने वाले पुरुष बिरले ही होते हैं. अमर को उस ने हालात से जूझते देखा था. यही कारण था कि अमर जैसे निष्ठावान व्यक्ति के लिए नमिता के वचन ऋचा को असहनीय पीड़ा पहुंचा गए थे तथा उस से भी ज्यादा दुख भाई की मौन सहमति पा कर हुआ था.

एक समय था जब अमर की ईमानदारी पर वह खुद भी चिढ़ जाती थी. खासकर तब जब घर में सरकारी गाड़ी खाली खड़ी हो और उसे रिकशे से या पैदल, बाजार जाना पड़ता था. उस के विरोध करने पर या अपनी दूसरों से तुलना करने पर अमर का एक ही कहना होता, ‘ऋचा, यह मत भूलो कि असली शांति मन की होती है. पैसा तो हाथ का मैल है, जितना भी हो उतना ही कम है. फिर व्यर्थ की आपाधापी क्यों? वैसे भी सरकार से वेतन के रूप में हमें इतना तो मिल ही जाता है कि रोजमर्रा की जरूरत की पूर्ति करने के बाद भी थोड़ा बचा सकें…और इसी बचत से हम किसी जरूरतमंद की सहायता कर सकें तो मन को दुख नहीं प्रसन्नता ही होनी चाहिए. इनसान को दो वक्त की रोटी के अलावा और क्या चाहिए?’

अमर की बातें ऋचा को सदा ही आदर्शवाद से प्रेरित लगती रही थीं. भला अपनी खूनपसीने की कमाई को दूसरों पर लुटाने की क्या जरूरत है. खासकर तब जब वह सहयोगियों की पत्नियों को गहने और कीमती कपड़ों से लदेफदे देखती और किटी पार्टियों में काजूबादाम के साथ शीतल पेय परोसते समय उस की ओर लक्ष्य कर व्यंग्यात्मक मुसकान फेंकतीं. बाद में ऋचा को लगने लगा था कि ऐसी स्त्रियां गलत और सही में भेद नहीं कर पाती हैं. शायद वे यह भी नहीं समझ पातीं कि उन का यह दिखावा उस काली कमाई से है जिसे देखना भी भले लोग पाप समझते हैं.

ऋचा के संस्कारी मन ने सदा अमर की इस ईमानदारी की दाद दी है. अचानक उसे वह घटना याद आ गई जब अमर के विभाग के ही एक अधिकारी के घर छापा पड़ा और तब लाखों रुपए कैश और ज्वैलरी मिलने पर उन की जो फजीहत हुई उसे देखने के बाद तो उसे भी लगने लगा कि ऐसी आपाधापी किस काम की जिस से कि बाद में किसी को मुंह दिखाने के काबिल ही न रहें.

आश्चर्य तो उसे तब हुआ जब उस अधिकारी के बहुत करीबी दोस्त, जो वफादारी का दम भरते थे, उस घटना के बाद उस से कन्नी काटने लगे. शायद उन्हें लगने लगा था कि कहीं उस के साथ वह भी लपेटे में न आ जाएं. उस समय उस की पत्नी को अकेले ही उन की जमानत के लिए भागदौड़ करते देख यही लगा था कि बुरे काम का नतीजा भी अंतत: बुरा ही होता है.

आज नमिता की बातें ऋचा को बेहद व्यथित कर गईं. आज उसे दुख इस बात का था कि बाहर वाले तो बाहर वाले उस के अपने घर वाले ही अमर की ईमानदारी पर शक कर रहे हैं, जिन की जबतब वह सहायता करते रहे हैं. दूसरों से इनसान लड़ भी ले पर जब अपने ही कीचड़ उछालने लगें तो इनसान जाए भी तो कहां जाए. वह तो अच्छा हुआ कि अमर उस के साथ नहीं आए वरना उन के कानों में नमिता के शब्द पड़ते तो.

ऋचा को नींद नहीं आ रही थी. अनायास ही अतीत उस के सामने चलचित्र की भांति गुजरने लगा…

पिताजी एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. अपनी पढ़ाने की कला के कारण वह स्कूल के सभी विद्यार्थियों में लोकप्रिय थे. वह शिक्षा को समाज उत्थान का जरिया मानते थे. यही कारण था कि उन्होंने कभी ट्यूशन नहीं ली पर अपने छात्रों की समस्याओं के लिए उन का द्वार हमेशा खुला रहता था.

अमर भी उन के ही स्कूल में पढ़ते थे. पढ़ने में तेज तथा धीरगंभीर और अन्य छात्रों से अलग पढ़ाई में ही लगे रहते थे. पिताजी का स्नेह पा कर वह कभीकभी अपनी समस्याओं के लिए हमारे के घर आया करते थे. न जाने क्यों अमर का धीरगंभीर स्वभाव मां को बेहद भाता था. कभीकभी वह हम भाईबहनों को उन का उदाहरण भी देती थीं.

एक बार पिताजी घर पर नहीं थे. मां ने उन के परिवार के बारे में पूछ लिया. मां की सहानुभूति पा कर उन के मन का लावा फूटफूट कर बह निकला. पता चला कि उन की मां सौतेली हैं तथा पिताजी अपने व्यवसाय में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि बच्चों की ओर ध्यान ही नहीं दे पाते. सौतेली मां से उन के 2 भाई थे. उन की मां को शायद यह डर था कि उन के कारण उस के पुत्रों को पिता की संपत्ति से पूरा हिस्सा नहीं मिल पाएगा.

अमर की आपबीती सुन कर मां द्रवित हो उठी थीं. उस के बाद वह अकसर ही घर आने लगे. अमर के बालमन पर मां की कही बातें इतनी बुरी तरह से बैठ गई थीं कि वह अनजाने ही अपना बचपना खो बैठे तथा उन्होंने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित कर लिया, जिस से कुछ बन कर अपने व्यर्थ हो आए जीवन को नया मकसद दे सकें. पिताजी के रूप में अमर को न केवल गुरु वरन अभिभावक एवं संरक्षक भी मिल गया था. अत: जबतब अपनी समस्याओं को ले कर अमर पिताजी के पास आने लगे थे और पिताजी के द्वारा मार्गदर्शन पा कर उन का खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था.

अमर के बारबार घर आने से हम दोनों में मित्रता हो गई. समय पंख लगा कर उड़ता रहा और समय के साथ ही हमारी मित्रता प्रगाढ़ता में बदलती चली गई. अमर का परिश्रम रंग लाया. प्रथम प्रयास में ही उन का रुड़की इंजीनियरिंग कालिज में चयन हो गया और वह वहां चले गए.

अमर के जाने के बाद मुझे महसूस हुआ कि मेरे मन में उन्होंने ऐसी जगह बना ली है जहां से उन्हें निकाल पाना असंभव है. पिताजी को भी मेरी मनोस्थिति का आभास हो चला था किंतु वह अमर पर दबाव डाल कर कोई फैसला नहीं करवाना चाहते थे और यही मत मेरा भी था.

रुड़की पहुंच कर अमर ने एक छोटा सा पत्र पिताजी को लिखा था जिस में अपनी पढ़ाई के जिक्र के साथ घर भर की कुशलक्षेम पूछी थी. पर पत्र में कहीं भी मेरा कोई जिक्र नहीं था. इस के बाद भी जो पत्र आते मैं ध्यान से पढ़ती पर हर बार मुझे निराशा ही मिलती. मैं ने अमर का यह रुख देख कर अपना ध्यान पढ़ाई में लगा लिया तथा अमर को भूलने का प्रयत्न करने लगी.

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दिन बीतने के साथ यादें भी धुंधली पड़ने लगी थीं. मैं ने भी धुंध हटाने का प्रयत्न न कर पढ़ाई में दिल लगा लिया. हायर सेकंडरी करने के बाद मैं इंटीरियर डेकोरेशन का कोर्स करने लगी थी. एक दिन मैं कालिज से लौटी तो एक लिफाफा छोटी बहन दिव्या ने मुझे दिया.

पत्र पर जानीपहचानी लिखावट देख कर मैं चौंक उठी. धड़कते दिल से लिफाफा खोला. लिखा था, ‘ऋचा इतने सालों बाद मेरा पत्र पा कर आश्चर्य कर रही होगी पर फिर भी आशा करता हूं कि मेरी बेरुखी को तुम अन्यथा नहीं लोगी. यद्यपि हम ने कभी अपने प्रेम का इजहार नहीं किया पर हमारे दिलों में एकदूसरे की चाहत की जो लौ जली थी, उस से मैं अनजान नहीं था. मुझे अपने प्यार पर विश्वास था. बस, समय का इंतजार कर रहा था. आज वह समय आ गया है.

‘तुम सोच रही होगी कि अगर मैं वास्तव में तुम से प्यार करता था तो इतने सालों तक तुम्हें पत्र क्यों नहीं लिखा? तुम्हारा सोचना सच है पर उन दिनों मैं इन सब बातों से हट कर अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाना चाहता था. मैं तुम्हारे योग्य बन कर ही तुम्हारे साथ आगे बढ़ना चाहता था. अब मेरी पढ़ाई समाप्त हो गई है तथा मुझे अच्छी नौकरी भी मिल गई है. आज ही ज्वाइन करने जा रहा हूं अगर तुम कहो तो अगले सप्ताह आ कर गुरुजी से तुम्हारा हाथ मांग लूं. लेकिन विवाह मैं एक साल बाद ही करूंगा. क्योंकि तुम तो जानती ही हो कि मेरे पास कुछ भी नहीं है तथा पिताजी से कुछ भी मांगना या लेना मेरे सिद्धांतों के खिलाफ है.

‘मैं चाहता हूं कि जब तुम घर में कदम रखो तो घर में कुछ तो हो, घरगृहस्थी का थोड़ाबहुत जरूरी सामान जुटाने के बाद ही तुम्हें ले कर आना चाहूंगा. अत: मुझे आशा है कि मेरी भावनाओं का सम्मान करते हुए जहां इतना इंतजार किया है वहीं कुछ दिन और करोगी पर यह कदम मैं तुम्हारी स्वीकृति के बाद ही उठाऊंगा. एक पत्र इसी बारे में गुरुजी को लिख रहा हूं. अगर इस रिश्ते के लिए तुम तैयार हो तो दूसरा पत्र गुरुजी को दे देना. जब वे चाहेंगे मैं आ जाऊंगा.’

पत्र पढ़ने के साथ ही मेरे मन के तार झंकृत हो उठे थे. इंतजार की एकएक घड़ी काटनी कठिन हो रही थी. पिताजी को पत्र दिया तो वह भी खुशी से उछल पडे़. घर में सभी खुश थे. इतने योग्य दामाद की तो शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.

आखिर वह दिन भी आ गया जब सीधेसादे समारोह में मात्र 2 जोड़ी कपड़ों में मैं विदा हो गई. मां को मुझे सिर्फ 2 जोड़ी कपड़ों में विदा करना अच्छा नहीं लगा था लेकिन अमर की जिद के आगे सब विवश थे. हां, पिताजी जरूर अपने दामाद के मनोभावों को जान कर गर्वोन्मुक्त हो उठे थे.

विवाह के कुछ साल बाद ही पिताजी का निधन हो गया. सुरेंद्र उस समय मेडिकल के प्रथम वर्ष में था. दिव्या छोटी थी. मां पर तो जैसे दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था. पेंशन में देरी के साथ पीएफ का पैसा भी नहीं मिल पाया था. घर खर्च के साथ ही सुरेंद्र की पढ़ाई का खर्च चलाना मां के लिए कठिन काम था. तब अमर ने ही मां की सहायता की थी.

अमर से सहायता लेने पर मां झिझकतीं तो अमर कहते, ‘मांजी, क्या मैं आप का बेटा नहीं हूं, जब सुरेंद्र आप के लिए करेगा तो क्या आप को बुरा लगेगा?’

यद्यपि मां ने पिताजी का पैसा मिलने पर जबतब मांगी रकम को लौटाया भी था, पर अमर को उन का ऐसे लौटाना अच्छा नहीं लगा था. उन का कहना था कि ऐसी सहायता से क्या लाभ जिस का हम प्रतिदान चाहें. अत: जबजब भी ऐसा हुआ मैं मां के द्वारा लौटाई राशि को बैंक में दिव्या के नाम से जमा करती गई. यह सुझाव भी अमर का ही था.

दिव्या उस के विवाह के समय केवल 7 वर्ष की थी. अमर ने उसे गोद में खिलाया था. वह उसे अपनी बेटी मानते थे. इसीलिए दिव्या के प्रति अपने कर्तव्यों की पूर्ति करना चाहते थे और साथ ही मां का भार कम करने में अपना योगदान दे कर उन की मदद के साथ गुरुजी के प्रति अपनी श्रद्धा को बनाए रखना चाहते थे. वैसे भी हमारे 2 पुत्र ही हैं. पुत्री की चाह दिल में ही रह गई थी. शायद ऐसा कर के अमर दिव्या के विवाह में बेटी न होने के अपने अरमान को पूरा करना चाहते थे.

मां की लौटाई रकम से मैं ने दिव्या के लिए मंगलसूत्र के साथ हार का एक सेट भी खरीदा था मगर स्वागत समारोह का खर्चा अमर दिव्या को अपनी बेटी मानने के कारण कर रहे हैं. पर यह बात मैं किसकिस को समझाऊं.

आज सुरेंद्र के मौन और नमिता की बातों ने ऋचा को मर्माहत पीड़ा पहुंचाई थी. कितना बड़ा आरोप लगाया है उस ने अमर की ईमानदारी पर. सुनियोजित बचत के कारण जिस धन से आज वह बहन के विवाह में सहायता कर पा रही है उसे दो नंबर का धन कह दिया. वैसे भी 20 साल की नौकरी में क्या इतना भी नहीं बचा सकते कि कुछ गहनों के साथ एक स्वागत समारोह का खर्चा उठा सकें. इस से दो नंबर के पैसे की बात कहां से आ गई. क्या इनसानी रिश्तों का, भावनाओं का कोई महत्त्व नहीं रह गया है.

निज स्वार्थ में लोग इतने अंधे क्यों होते जा रहे हैं कि खुद को सही साबित करने के प्रयास में दूसरों को कठघरे में खड़ा करने में भी उन्हें हिचक नहीं होती. उस का मन किया कि जा कर नमिता की बात का प्रतिवाद करे. लेकिन नमिता के मन में जो संदेह का कीड़ा कुलबुला रहा है, वह क्या उस के प्रतिरोध करने भर से दूर हो पाएगा. नहींनहीं, वह अपनी तरफ से कोई सफाई पेश नहीं करेगी. यदि इनसान सही है और निस्वार्थ भाव से कर्म में लगा है तो देरसबेर सचाई दुनिया के सामने आ ही जाएगी.

अचानक ऋचा ने एक निर्णय लिया कि दिव्या के विवाह के बाद वह इस घर से नाता तोड़ लेगी. जहां उसे तथा उस के पति को मानसम्मान नहीं मिलता वहां आने से क्या लाभ. उस ने बड़ी बहन का कर्तव्य निभा दिया है. भाई पहले ही स्थापित हो चुका है तथा 2 दिन बाद छोटी बहन भी नए जीवन में प्रवेश कर जाएगी. अब उस की या उस की सहायता की किसी को क्या जरूरत? लेकिन क्या जब तक मां है, भाई है, उस का इस घर से रिश्ता टूट सकता है…अंतर्मन ने उसे झकझोरा.

आखिर वह दिन भी आ गया जब दिव्या को दूसरी दुनिया में कदम रखना था. वह भी ऐसे व्यक्ति के साथ जिस को वह पहले से जानती तक नहीं है. जयमाला के बाद दिव्या और दीपेश समस्त स्नेहीजनों से शुभकामनाएं स्वीकार कर रहे थे. समस्त परिवार उन दोनों के साथ सामूहिक फोटोग्राफ के लिए मंच पर जमा हुआ था तभी दीपेश के पिताजी ने एक सज्जन को दीपेश के चाचा के रूप में अमर से परिचय करवाया तो वह एकाएक चौंक कर कह उठे, ‘‘अमर साहब, आप की ईमानदारी के चर्चे तो पूरे विभाग में मशहूर हैं. आज आप से मिलने का भी अवसर प्राप्त हो गया. मुझे खुशी है कि ऐसे परिवार की बेटी हमारे परिवार की शोभा बनने जा रही है.’’

दीपेश के चाचा, जो अमर के विभाग में ही उच्चपदाधिकारी थे, ने यह बात इतनी गर्मजोशी के साथ कही कि अनायास ही मंच पर मौजूद सभी की नजर अमर की ओर उठ गई.

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एकाएक ऋचा के चेहरे पर चमक आ गई. उस ने मुड़ कर नमिता की ओर देखा तो उसे सुरेंद्र की ओर देखते हुए पाया. उस की निगाहों में क्षमा का भाव था या कुछ और वह समझ नहीं पाई लेकिन उन सज्जन के इतना कहने भर से ही उस के दिलोदिमाग पर से पिछले कुछ दिनों से रखा बोझ हट गया. सुखद आश्चर्य तो उसे इस बात का था कि एक अजनबी ने पल भर में ही उस के दिल के उस दंश को कम किया जिसे उस के अपनों ने दिया था.

आखिर सचाई सामने आ ही गई. ऐसा तो एक दिन होना ही था पर इतनी जल्दी और ऐसे होगा ऋचा ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था. वास्तव में जीवन के नैतिक मूल्यों में कभी बदलाव नहीं होता. वह हर काल, परिस्थिति और समाज में हमेशा एक से ही रहे हैं और रहेंगे, यह बात अलग है कि मानव निज स्वार्थ के लिए मूल्यों को तोड़तामरोड़ता रहता है. प्रसन्नता तो उसे इस बात की थी कि आज भी हमारे समाज में ईमानदारी जिंदा है.

सूनापन : जिंदगी में ऋतु को क्या अफसोस रह गया था

सुबह से ही ऋतु उदास थीं. वे बारबार घड़ी की तरफ देखतीं. उन्हें ऐसा महसूस होता कि घड़ी की सूइयां आगे खिसकने का नाम ही नहीं ले रहीं. मानो घर की दीवारें भी घूरघूर कर देख रही हों और फर्श नाक चढ़ा कर चिढ़ाता हुआ कह रहा हो, ‘देखो, हूं न बिलकुल साफसुथरा, चमक रहा हूं न आईने की तरह और तुम देख लो अपना चेहरा मुझ में, शायद तुम्हारे चेहरे के तनाव से बनी झुर्रियां इस में साफ नजर आएं.’ और वे ज्यादा देर घर की काटने को दौड़ती हुई दीवारों के बीच न बैठ पाईं.

वे एक किताब ले कर बाहर लौन में आ कर बैठ गईं. बाहर चलती हवाएं बालों को जैसे सहला रही थीं किंतु मन था कि पुस्तक से बारबार विचलित हो जाता. वे लगीं शून्य में ताकने और पहुंच गईं 20 वर्ष पीछे. सबकुछ उन की नजरों के सामने घूम रहा था.

बेटा 10 वर्ष और बिटिया मात्र 7 वर्ष की थी उस वक्त. छुट्टी का दिन था और वे चीख रही थीं अपने छोटेछोटे 2 बच्चों पर, सारा घर फैला पड़ा था, इधर खिलौने, उधर किताबें, गीला तौलिया बिस्तर पर और जूते शू रैक से बाहर फर्श पर. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे घर में अलमारियों से बाहर निकल कर सामान की सूनामी आ गई हो. वे थीं बहुत सफाईपसंद. सो, वह दृश्य देख उन से रहा न गया और चीख पड़ीं अपने बच्चों पर, ‘घर है या कूड़ेदान? कहां कदम रख कर चलूं, कुछ समझ नहीं आ रहा. न जाने बच्चे हैं कि शैतान…’

दोनों बच्चे बेचारे उन की चीख सुन कर सहम गए और ‘सौरी मम्मा, सौरी मम्मा’ कह रहे थे. फिर भी वे उन्हें डांट रही थीं, कह रही थीं, ‘क्या मैं तुम्हारी नौकरानी हूं? तुम लोग अपना सामान जगह पर क्यों नहीं रखते?’ बेटी मिन्ना डर कर झटझट सामान जगह पर रखने लगी थी और बेटा अपनी कहानियों की किताबें जमा रहा था.

हां, उन के पति अनूप जरूर नाराज हो गए थे उन के चीखने से. वे कहने लगे थे, ‘ऋतु, यह घर है, होटल नहीं. घर में 4 लोग रहेंगे तो थोड़ा तो बिखरेगा ही. यह सुन कर ऋतु और भी ज्यादा नाराज हो गईं और अपने पति को टोकते हुए कह रही थीं, ‘तुम्हारी स्वयं की ही आदत है घर को फैलाने की. वरना, क्या तुम बच्चों को न टोकते’

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अनूप ने धड़ से अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया था और ऋतु ने छुट्टी का पूरा दिन अलमारियां और बच्चों के खिलौने व किताबें जमाने में बिता दिया था. वे लाख सोचतीं कि छुट्टी के दिन बच्चों को कुछ न कहूंगी, घर बिखरा पड़ा रहे मेरी बला से, किंतु सफाई की आदत से मजबूर हो उन से रहा ही न जाता और अब यह हर छुट्टी के दिन का रूटीन बन गया था. बच्चे भी सुनसुन कर शायद ढीठ हो गए थे और बड़े होते जा रहे थे.

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अनूप कभी कहते कि तुम अपना ध्यान कहीं दूसरी जगह भी लगाओ, बच्चों को करने दो वे जो करना चाहें. किंतु ऋतु को तो घर में हर चीज अपनी जगह पर चाहिए थी और पूरी तरह से व्यवस्थित भी. सो, लगी रहतीं अकेली वे उसी में और अंदर ही अंदर कुढ़ती भी रहतीं. एक तरफ से उन का कहना भी सही था कि हम महंगेमहंगे सामान घर में लाते हैं इसीलिए न कि घर अच्छा लगे, न कि कूड़ेदान सा. किंतु हर बात की एक अपनी सीमा होती है. सो, अनूप चुप रहने में ही अपनी भलाई समझते.

ऋतु अपना दिल मानो घर में ही लगा बैठी थीं. विवाह के बाद एक ही साल में बेटे का जन्म हो गया और ऋतु ने अपना पूरा ध्यान बेटे की परवरिश व गृहस्थी को संभालने में लगा दिया था. उम्र बढ़ती जा रही थी, साथ ही साथ, बच्चे भी. घर पहले की अपेक्षा व्यवस्थित रहने लगा था.

वक्त मानो पंख लगा उड़ता जा रहा था और ऋतु के चेहरे की झुर्रियों की संख्या दिनप्रतिदिन बढ़ती जा रही थी और साथ ही मन में बढ़ती कड़वाहट भी. उन्होंने अपना पूरा ध्यान सिर्फ घर को सजाने, बच्चों को पढ़ाने, उन्हें अच्छे संस्कार देने व अनुशासित करने में ही लगा दिया. इन सब के चलते शायद वे यह भी भूल गईं कि खुशी भी एक शब्द होता है और कई बार हमें दूसरों की खुशियों के लिए अपनी आदतों को छोड़ आपस में सामंजस्य बैठाना पड़ता है.

खैर, जिंदगी ठीक ही चल रही थी. बिलकुल साफसुथरा एवं व्यवस्थित घर, अनुशासित बच्चे और रोज रूटीन से काम करते घर के सभी सदस्य. जब घर में मेहमान आते तो तारीफ किए बिना न रहते उन के घर की व बच्चों की. बस, ऋतु को तो वह तारीफ एक अवार्ड के समान लगती. उन के जाने के बाद वे फूली न समातीं और कहती न थकतीं, ‘देखो, सारा दिन टोकती हूं और लगी रहती हूं घर में, तभी तो सभी तारीफ करते हैं.’

वक्त बीतता गया. बच्चे और बड़े हो गए. बेटा मैडिकल की पढ़ाई पूरी कर अमेरिका चला गया और बेटी विवाह कर विदा हो गई. अब ऋतु रह गईं बिलकुल अकेली. कामवाली एक बार सुबह आ कर घर साफ कर देती तो पूरा दिन वह साफ ही रहता. कोई न बिखेरने वाला, न ही घर की व्यवस्था बिगाड़ने वाला.

सूना घर ऋतु को काटने को दौड़ता. अनूप रिटायर हो गए. वे अपनी किताबों में ही मस्त रहते. ऋतु रह गईं नितांत अकेली. मन भी न लगता, किताबों में अपना ध्यान लगाने की कोशिश करतीं किंतु शांत होते ही एक ही सवाल आता मन में. ‘अब कोई नहीं, घर बिखेरने वाला, क्यों न मैं खेली अपने बच्चों के साथ जब उन्हें मेरी जरूरत थी, क्यों न पढ़ीं कहानियां उन के लिए, घर बिखरा था तो क्यों न रहने दिया, कौन से रोज ही मेहमान आते थे जिन की चिंता में अपने बच्चों के साथ खुशनुमा माहौल न रहने दिया घर का?’

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अब घर में तो चिडि़या भी पर नहीं मारती, क्या करूं इस घर का? कभीकभी परेशान हो अपनी बेटी मिन्ना को फोन करतीं, किंतु वह भी हांहूं में ही बात करती. वह तो खुद अपने बच्चों में व्यस्त होती. बेटा अपनी रिसर्च में व्यस्त होता. ऋतु अपने जिस घर को देख कर फूली न समाती थीं, उसी की सूनी दीवारें उन्हें कोसती थीं और कहतीं, ‘लो, बिता लो हमारे साथ वक्त.’

ये सारी बातें याद कर ऋतु उदास थीं. अब, उन्हें अपनी भूल का एहसास हो रहा था. अब वे छोटे बच्चों की माओं से मिलतीं तो कहतीं, ‘‘वक्त बिताओ अपने बच्चों के साथ, उन्हें कहानियां सुनाओ, बच्चे बन जाओ उन के साथ, आप इस के लिए तैयार रहो कि बच्चों का घर है तो बिखरा ही रहेगा. घर को गंदा भी न रखो, किंतु उसी घर में ही न लगे रहो. घर तो हम बच्चों के बड़े होने पर भी मेंटेन कर सकते हैं किंतु बच्चे एक बार बड़े हो गए तो उन के बचपन का वक्त वापस न आएगा, और रह जाओगी मेरे ही तरह उन कड़वी यादों के साथ, जिन से शायद तुम खुद ही डरोगी.’’ ऋतु अब कहती हैं कि बच्चों को तो बड़े हो कर चिडि़या के बच्चों की तरह उड़ ही जाना है, किंतु उन के साथ बिताए पलों की यादों को तो हम संजो कर खुश हो सकते हैं जो नहीं हैं मेरे पास अब, मुझे काटने को आता है यह सूनापन.

एक भावनात्मक शून्य: भाग 3- क्या हादसे से उबर पाया विजय

मानो आसमान से नीचे गिरा मैं. कानों से सुनी बात पर विश्वास ही नहीं हुआ. क्या विजय अपनी सगी बहन से बात नहीं करता? लेकिन क्यों? ऐसा क्यों?

‘‘एक वक्त था…मुझे बहुत तकलीफ हुई थी जब मेरी बहन ने इतना बड़ा मजाक मेरे साथ किया था. किसी पराई लड़की के साथ शर्त लगाई थी. मेरा दोष सिर्फ इतना था कि मैं ने उसे किसी के साथ दोस्ती करने से रोका था. कोई था जो अच्छा नहीं था. उन दिनों मिन्नी बी.सी.ए. कर रही थी. उस की सुरक्षा चाहता था मैं. उस के मानसम्मान की चिंता थी मुझे. नहीं मानी तो मैं ने मम्मी से बात की. मान गई थी मिन्नी…उस के साथ दोस्ती तोड़ दी…और उस का बदला मुझ से लिया अपनी एक सहेली से मेरी दोस्ती करा कर.’’

मैं टुकुरटुकुर उस का चेहरा पढ़ता रहा.

‘‘मेरी बहन है न मिन्नी. मुझे कैसी लड़कियां पसंद हैं उसे पता था. बिलकुल उसी रूप में ढाल कर उसे घर लाती रही. मुझे सीधीसादी वह मासूम प्यारी सी लड़की भा गई. मम्मीपापा को भी वह घरेलू लगने वाली लड़की इतनी अच्छी लगी कि उसे बहू बना लेने पर उतारू हो गए. हमारा पूरा परिवार उस पर निछावर था. वह मुझे इतनी अच्छी लगती थी कि मेरी समूल भावनाएं उसी पर जा टिकी थीं.

‘‘मैं कोई सड़कछाप आशिक तो नहीं था न सोम, ईमानदारी से अपना सब उस पर वार देने को आतुर था. क्या यही मेरा दोष था? क्या प्रेम की भूख लगना अनैतिक था? पूरी श्रद्धा थी मेरे मन में उस के लिए और जिस दिन मैं ने उसे अपने मन की बात कही उस ने खिलखिला कर हंसना शुरू कर दिया. क्षण भर में उस का रूप ऐसा बदला कि मेरी आंखें विश्वास ही नहीं कर पाईं. वह मिन्नी से शर्त जीत चुकी थी.

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‘‘ ‘तुम्हारी बहन को किसी से प्रेम हो जाए तो गलत. अब तुम्हें मुझ से प्रेम हो गया तो सही. कैसे दोगले इनसान हो तुम.’ ’’

चुप हो गया विजय कहताकहता. धीरेधीरे बच्ची की आंखों के किनारे पोंछने लगा. सोईसोई भी वह रो रही थी. प्रश्न लिए आंखों में मुझे देखा विजय ने.

‘‘यह बेजबान बच्ची देखी है न, इतना रोई मेरे गले को अपने छोटेछोटे हाथों से कस कर कि मैं पत्थर हूं क्या जो समझ ही न पाऊं? मिन्नी तो मेरा खून है. क्या उसे पता नहीं चल सकता था मैं उस से कितना प्यार करता हूं. दुश्मन था क्या मैं? प्यार कोई तमाशा है क्या जिसे जहां चाहो मोड़ लो. उस का भला चाहा क्या यही मेरा दोष था. वह पल और आज का दिन मेरा मन ही मर गया. अब न मिन्नी के लिए दर्द होता है न अपने लिए ही कोई इच्छा जागती है.’’

रो पड़ा था मैं. स्नेह से विजय का हाथ पकड़ लिया, सोच रहा था…मैं भावुक हूं…मैं हूं जो भावना को सब से ऊपर मानता हूं.

‘‘वह लड़का अच्छा होता तो मैं मिन्नी का साथ देता,’’ विजय पुन: बोला, ‘‘उस की पढ़ाई पूरी हो जाती, कुछ तो भविष्य होता दोनों का. मैं तो नौकरी कर रहा था. शादी की उम्र थी मेरी. मांबाप भी सहमत थे. मैं गलत कहां था जो उस लड़की के मुंह से मुझे दोगला इनसान कहला भेजा. उस की हंसी मैं आज भी भूल नहीं पाता.

‘‘उस के बाद कुछ समझ में आया होगा मिन्नी के. मम्मीपापा ने भी डांटा. मुझ से माफी भी मांगी लेकिन दिल से मैं उसे माफ नहीं कर सका. बहन है राखी पर राखी बांध देती है. भाई हूं न, कहीं भाग तो नहीं सकता. मुसाफिर जैसी लगती है वह मुझे, जैसे सफर में कोई साथ हो. अपनी नहीं लगती. मैं मन को समझाता भी हूं. बुरा सपना समझ सब भूल जाना चाहता हूं लेकिन मन का कोना जागता ही नहीं, सदासदा के लिए मर गया.’’

‘‘मर गया मत कहो विजय, सो गया कहो. जीवन में सब का एक हिस्सा प्रकृति निश्चित कर देती है. जो लड़की उस ने तुम्हारे लिए बनाई है वह अभी तुम्हारी आंखों के सामने आई ही नहीं तो कैसे तुम्हारा सोया कोना जागे. तुम एक अच्छे ईमानदार इनसान हो. कोई भी ऐसीवैसी तुम्हारी साथी नहीं न हो सकती. तुम्हारे समूल भाव बस उसी के लिए हैं जिन्हें तुम टुकड़ाटुकड़ा कर कहीं भी बिखेरना नहीं चाहते, जिसे भी मिलोगे तुम पूरेपूरे मिलोगे.

‘‘यह पूरापूरा, प्यारा सा मेरा भाई जिसे मिलेगा वह खुद भी तो उतनी ही सच्ची और ईमानदार होगी…और ऐसी लड़कियां आजकल बहुत कम मिलती हैं, बहत कम होती हैं ऐसी लड़कियां. इसलिए कीमती होती हैं लेकिन होती हैं यह एक शाश्वत सत्य है. तुम्हारा हिस्सा तुम्हें मिलेगा यह निश्चित है.’’

टपकने लगी थीं विजय की आंखें. मैं कंधा थपका कर कहने लगा, ‘‘क्या इसीलिए सब से दूरदूर भागते हो? चोर या अपराधी हो क्या तुम? मत भागो सब से दूर. मिन्नी तो सब के साथ घुलमिल कर खुश है और तुम व्यर्थ कटे से हो सब से. हादसा था, हुआ, बीत गया. माफ कर दो बहन को. हो सकता है उसे भी वह लड़का बहुत ज्यादा पसंद हो. प्यार की सीमा जरा अलग और ज्यादा विशाल होती है इतना तो मानते हो न. तुम भाई हो, तुम्हारे प्यार की हद उस सीमा से टकरा गई थी…बस, इतना ही हुआ था. इस में इतना गंभीर होने की क्या जरूरत है. जरा सोचो…माफ कर दो मिन्नी को. तुम्हारा हर सोया कोना जाग उठेगा.’’

सुनता रहा विजय. जैसे उस ने भी बरसों बाद अपना मन खोला था किसी के साथ. बच्ची सहसा उठ कर रोने लगी थी. वही टूटेफूटे शब्द थे, ‘पा…पा…’

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‘‘आजा बच्चे मेरे पास.’’

समस्त अनुराग से विजय ने नताशा की मासूम सी गुडि़या बिटिया को पास खींच लिया…चूम कर गले से लिपटा लिया… बड़बड़ाने लगा, ‘क्या होगा इस बच्ची का. हम सब तो परसों चले जाएंगे तब इस का क्या होगा?’

विजय उठ कर कमरे में टहलने लगा था और बच्ची को थपथपा कर सुलाने का प्रयास करने लगा. नताशा भी बच्ची का रोना सुन कर चली आई थी. दोनों मिल कर उसे चुप कराने की कोशिश में थे.

मैं सब सुन कर और देख कर कुछ दुखी था. भावनाओं में जीने वाला इनसान ऐसे ही तो जीता है. कभी अपनी पीड़ा पर परेशान और कभी दूसरे की तकलीफ…दर्द पर दुखी. सत्य है उस की पीड़ा…और यही तो उस की कमाई है. भावुक न हो तो जी ही न पाए. यह भावुकता ही तो है जो मनुष्य को जमीन से जोड़ती है. आज हर तीसरा इनसान आज के तेज युग के साथ भागता हुआ कहीं न कहीं अपनी जमीन से कट रहा है और गहरा अवसाद उस का साथी बनता जा रहा है. सोचा जाए तो आज हम कहां जा रहे हैं, हमें ही पता नहीं. कहीं न कहीं तो हमें जमीन से जुड़ना पड़ेगा न. बिना जुड़े हमारा भविष्य हमें एक भावनात्मक शून्य के सिवा कुछ नहीं दे पाएगा…वह चाहे आप हों चाहे हम.

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एक भावनात्मक शून्य: भाग 2- क्या हादसे से उबर पाया विजय

सुनता रहा विजय सब. बस, जरूरत की बात करता रहा जिस के बिना गुजारा नहीं चल सकता था.

‘‘अब तुम्हारे घर पर ही देख लो. मिन्नी की शादी के बाद तुम भी अकेले रह जाओगे. घरबाहर, मांबाप सब को अकेले ही तो देखना होगा. मिन्नी का पति घुलमिल गया तो ठीक. नहीं तो एक असुरक्षा की भावना तो है ही न. जैसे मुझ में है… किसी अपने को ही खोजता रहता हूं… कोई अपना ऐसा जिस पर भरोसा कर सकूं. तुम्हारी तो एक बहन है भी, मेरे पास तो वह भी नहीं है.’’

मेरे इस वाक्य से उसे एक झटका सा लगा. गाड़ी के स्टेयरिंग पर उस के हाथ घूम गए और पैर बे्रक पर जम गए. बहुत गौर से उस ने मुझे देखा.

‘‘क्या हुआ, विजय? रुक क्यों गए?’’ इतना कह कर मैं सोचने लगा कि सामने कोई वाहन भी नहीं था जिस वजह से उस ने गाड़ी कच्चे पर उतार दी थी. परेशान सा हो गया सहसा जैसे कुछ नया ही सुन लिया हो, कुछ ऐसा जो अविश्वसनीय हो.

विजय स्वयं ही मुसकरा भी पड़ा. हंस कर गरदन हिला दी मानो मैं ने कोई बेवकूफी भरी बात कर दी हो. कहीं वह मुझे ‘इमोशनल फूल’ तो नहीं समझ रहा. अकसर लोग मुझ जैसे इनसान को एक भावुक मूर्ख की संज्ञा भी देते हैं. ऐसा इनसान जिस की जिंदगी में भावना का स्थान सब से ऊपर आता है, ऐसा इनसान जो सोचता है कि एक मानव दूसरे मानव के बिना अधूरा है, ऐसा इनसान जो रिश्तों को तोड़ना नहीं, निभाना चाहता है.

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विजय के व्यवहार से मैं किसी निष्कर्ष तक पहुंचने लगा था, कहीं कुछ ऐसा है अवश्य जिस की वजह से उस में इतना बदलाव है वरना विजय तो ऐसा नहीं था, खुश रहता था, भावुक था, 20 साल की उम्र तक तो हम निरंतर मिले ही थे, वह तो इंजीनियरिंग करने के लिए मुझे इतना दूर जाना पड़ा था, जिस वजह से मेरा ननिहाल छूट गया था. मेरी शादी में मामा अकेले आए थे क्योंकि तब मिन्नी के एम.सी.ए. के इम्तहान थे. विजय तब भी नहीं आया था क्योंकि उस के पास छुट्टी नहीं थी.

घर चले आए थे हम. घर के बाहर पार्क में रात को महिला संगीत का कार्यक्रम था. खासी चहलपहल थी. नताशा की सहेलियां, सीमा की सहेलियां, सभी पढ़ीलिखी, सुंदर, स्मार्ट. मेरी तो भावनाएं अब पत्नी तक सीमित हैं लेकिन विजय तो कुंआरा है, वह एक बार भी बाहर भीड़ में नहीं आया. उस ने एक बार भी किसी चेहरे पर नजर टिकाना नहीं चाहा. कपड़े बदल कर वहीं अपने कमरे में चुपचाप किसी किताब में लीन था.

‘‘आओ विजय, नीचे आ जाओ न. देखो, कितनी रौनक है. इतने पराए से क्यों हो गए हो भाई. क्या हो गया है तुम्हें? तुम तो ऐसे नहीं थे.’’

मेरे होंठों से निकल ही गया. बड़ी चाह से मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया. किताब हाथ से छीन ली.

मेरा मान रख लिया था विजय ने. कोट पहन नीचे चला आया. बहुत सुंदर और शालीन है विजय. लंबा कद और आकर्षक व्यक्तित्व. आंखों पर चश्मा, इंजीनियरिंग कालिज में पढ़ाने वाला एम-टेक नौजवान. क्या कमी है इस में? सुनने में आया था, शादी ही नहीं करना चाहता. चला तो आया था मेरे साथ लेकिन भीड़ से अलग एक तरफ जा बैठा था जहां सोफे पर नताशा की बेटी सो रही थी. प्यारी सी गुडि़या, बुखार में तपती हुई.

‘‘खाना खा ले बेटा.’’

मौसी के अनुरोध पर मैं खाने की तरफ चला आया. आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. नताशा की प्यारी सी गुलाबी कपड़ों वाली बिटिया विजय के गले से लिपटी हुई थी और वह बड़े ममत्व से उस से बातें कर रहा था.

नताशा की सास पास ही खड़ी खाना खा रही थी. पता चला पिछले 2 घंटे से बिटिया ने विजय को इसी तरह पकड़ रखा है. नताशा का पति देखने में ऐसा ही लगता है न, मासूम बच्ची पिता समझ यों लिपट गई थी कि बस. सारा बुखार उड़न छू हो गया था. विजय के हाथ से ही उस ने दूध की बोतल पी थी और विजय के हाथों में ही अब वह सोने भी जा रही थी. नताशा को भी चैन की सांस आई थी.

‘‘विजय भैया ने मेरी बेटी बचा ली,’’ नताशा बोली, ‘‘मुझे तो लगता था यह बुखार इस की जान ही ले लेगा.’’

आंखें गीली थीं नताशा की. मैं ने स्नेह से पास खींच लिया था. उदास थी नताशा. विजय ने भी हाथ बढ़ा कर उदास नताशा का माथा सहला दिया.

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‘‘अब कितनी बार रोएगी पगली, बच्ची तो नासमझ है जो बस, पापापापा ही बोल पाती है. तुम ने मामा कहना सिखाया ही नहीं वरना मुझे मामा कह कर ही पुकारती. बेचारी पापा कहना ही जानती है इसलिए पापा कह कर ही मेरी गोद में आ गई…चल, फोन लगा अमेरिका…अभी इस के पापा से बात कर.’’

जेब से मोबाइल निकाल विजय ने नताशा की तरफ बढ़ा दिया था.

‘‘आज उन का फोन आया था. पूछ रहे थे बिटिया के बारे में. अभी मैं बात नहीं कर…’’

इतना कह नताशा पुन: रोने लगी थी. क्षण भर में फूट पड़ी थी नताशा जिसे विजय ने किसी तरह समझाबुझा कर बहलाया था.

रात अपने कमरे में सोने गए तब बिटिया विजय की बगल में ही थी. मिन्नी पास नहीं थी, वह शायद सीमा के साथ थी. उस की जगह मैं लेट गया. प्यारी सी बच्ची हम दोनों के बीच में सो रही थी. विजय उस का माथा सहला रहा था. ढेर सा प्यार था उस पल विजय की आंखों में, सहसा पूछने लगा, ‘‘भाभी का हाल पूछा कि नहीं. वह ठीक हैं न?’’

हां में सिर हिला दिया मैं ने. ऐसा लग रहा था जैसे विजय किसी खोल में से बाहर आ गया है. बिटिया का नन्हा सा हाथ चूमते हुए मानो भीतर की सारी ममता वह उस पर बरसा रहा था.

‘‘इनसान को भूख हर पल तो नहीं लगती न. इस पल इस जरा सी जान को पिता के प्यार की भूख है. पिता पास नहीं हैं, नताशा को पति का प्यार चाहिए, पति पास नहीं है, मां इस पल यही सोच कर बेचैन हैं…अगर मर गईं तो बेटा आग भी दे पाएगा या नहीं, बुढ़ापे को जवान बेटा चाहिए जो दूर है. आज ये सब लोग उस इनसान के भूखे हैं कल नहीं रहेंगे. आदत पड़ जाएगी इन्हें भी उस के बिना जीने की. इन की भूख धीरेधीरे मर जाएगी. यह जीना सीख जाएंगे. ऐसा ही होता है सोम जब भूख हो तभी कुछ मिले तो संतुष्टि होती है. हर भूख का एक निश्चित समय होता है.’’

सांस रोके मैं उसे सुन रहा था.

‘‘ऐसा ही होगा इस बच्ची के साथ भी. धीरेधीरे पिता को भूल जाएगी. नताशा का भी पति से बस उतना ही मोह रह जाएगा जितना डालर का भाव होगा. आज वह इन के मोह को पीठ दिखा कर चला गया कल जब उसे जरूरत होगी इन लोगों के मन मर चुके होंगे. किसी के प्यार का तिरस्कार कभी नहीं करना चाहिए सोम. बदनसीब है वह पिता जो आज इस बच्ची का प्यार नकार कर चला गया. मैं होता तो इतनी प्यारी बेटी को छोड़ कभी नहीं जाता. रुपया रुपया होता है, सोम. वह भावना का स्थान कभी नहीं ले सकता.’’

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‘‘तुम शादी क्यों नहीं करते विजय. पता चला था तुम ने फैसला ही कर लिया है…क्या मिन्नी का इंतजार कर रहे हो. उस की हो जाए उस के बाद करोगे.’’

‘‘मिन्नी का तो मम्मीपापा जानें… मुझे अपना पता है. बस, शादी नहीं करना चाहता.’’

‘‘मिन्नी के लिए मम्मीपापा क्यों जानें? तुम भाई हो न.’’

‘‘मिन्नी से बात किए मुझे शायद 5-6 साल हो गए. हम आपस में बात ही नहीं करते. तुम तरस रहे हो तुम्हारी कोई बहन होती. मेरी है न, मैं उस से बोलता ही नहीं.’’

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