एक बार फिर: नवीन से दुखी विनीता आशीष से मिलते ही क्यों मचल उठी?

शाम ढलने लगी थी. तालाब के हिलते पानी में पेड़ों की लंबी छाया भी नाचने लगी थी. तालाब के किनारे बैठी विनीता अपनी सोच में गुम थी. वह 2 दिन पहले ही लखनऊ से वाराणसी अपनी मां से मिलने आई थी, तो आज शाम होते ही अपनी इस प्रिय जगह की ओर पैर अपनेआप बढ़ गए थे.

‘‘अरे, वीनू…’’ इस आवाज को विनीता पीछे मुड़ कर देखे बिना पहचान सकती थी कि कौन है. वह एक झटके से उठ खड़ी हुई. पलटी तो सामने आशीष ही था.

आशीष बोला, ‘‘कैसी हो? कब आईं?’’

‘‘2 दिन पहले,’’ वह स्वयं को संभालती हुई बोली, ‘‘तुम कैसे हो?’’

आशीष ने अपनी चिरपरिचित मुसकराहट के साथ पूछा, ‘‘कैसा दिख रहा हूं?’’

विनीता मुसकरा दी.

‘‘अभी रहोगी न?’’

‘‘परसों जाना है, अब चलती हूं.’’

‘‘थोड़ा रुको.’’

‘‘मां इंतजार कर रही होंगी.’’

‘‘कल इसी समय आओगी यहां?’’

‘‘हां, आऊंगी.’’

‘‘तो फिर कल मिलेंगे.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर विनीता घर चल दी.

घर आते समय विनीता का मन उत्साह से भर उठा. वही एहसास, वही चाहत, वही आकर्षण… यह सब सालों बाद महसूस किया था उस ने. रात को सोने लेटी तो पहला प्यार, जो आशीष के रूप में जीवन में आया था,

याद आ गया. याद आया वह दिन जिस दिन आशीष के दहेजलोभी पिता के कारण उन का पहला प्यार खो गया था. इस के बिना विनीता ने एक लंबा सफर तय कर लिया था. कैसे जी लिया जाता है पहले प्यार के बिना भी, यह वही जान सकता है, जिस ने यह सब झेला हो.

विनीता का मन अतीत में कुलांचें भरने लगा… आशीष के पिता ने एक धनी परिवार की एकमात्र संतान दिव्या से आशीष का विवाह करा कर अपनी जिद पूरी कर ली थी और फिर अपने मातापिता की इच्छा के आगे विनीता ने भी एक आज्ञाकारी बेटी की तरह सिर झुका दिया था.

विवाह की रात विनीता ने जितने आंसू थे आशीष की याद में बहा दिए थे, फिर वह पूरी ईमानदारी के साथ पति नवीन के जीवन में शामिल हो गई थी और आज विवाह के 8 सालों के बाद भी पूरी तरह नवीन और बेटी सिद्धि के साथ गृहस्थी के लिए समर्पित थी. इतने सालों में मायके आने पर 1-2 बार ही आशीष से सामना हुआ था और बात बस औपचारिक हालचाल पर ही खत्म हो गई थी.

कई दिनों से विनीता बहुत उदास थी. घर, पति, बेटी, रिश्तेनाते इन सब में उलझी खुद समय के किस फंदे में उलझी, जान नहीं सकी. अब जान सकी है कि दिलदिमाग के स्तर में समानता न हो तो प्यार की बेल जल्दी सूख जाती है… उसे लगता है दिन ब दिन तरक्की की सीढि़यां चढ़ता नवीन घर में भी अपने को अधिकारी समझने लगा है और पत्नी को अधीनस्थ कर्मचारी… उस की हर बात आदेशात्मक लहजा लिए होती है, फिर चाहे वे अंतरंग पल ही क्यों न हों. आज तक उस के और नवीन के बीच भावनात्मक तालमेल नहीं बैठा था.

नवीन के साथ तो तसल्ली से बैठ कर 2 बातें करने के लिए भी तरस जाती है वह. उसे लगता है जैसे उन का ढीला पड़ गया प्रेमसूत्र बस औपचारिकताओं पर ही टिका रह गया है. नवीन मन की कोमल भावनाओं को व्यक्त करना नहीं जानता. पत्नी की तारीफ करना शायद उस के अहं को चोट पहुंचाता है. विनीता को अब नवीन की हृदयहीनता की आदत सी हो गई थी. अतीत और वर्तमान में विचरते हुए विनीता की कब आंख लग गई, पता ही न चला.

कुछ दिन पहले विनीता के पिता का देहांत हो गया था. अगले दिन सिद्धि को मां के पास छोड़ कर विनीता ‘थोड़ी देर में आती हूं’ कह कर तालाब के किनारे पहुंच गई. आशीष वहां पहले से ही उस की प्रतीक्षा कर रहा था. उस के हाथ में विनीता का मनपसंद नाश्ता था.

विनीता हैरान रह गई, पूछ बैठी, ‘‘तुम्हें आज भी याद है?’’

आशीष कुछ नहीं बोला, बस मुसकरा कर रह गया.

विनीता चुपचाप गंभीर मुद्रा में एक पत्थर पर बैठ गई. आशीष ने विनीता को गंभीर मुद्रा में देखा, तो सोच में पड़ गया कि वह तो हर समय, हर जगह हंसी की फुहार में भीगती रहती थी, सपनों की तितलियां, चाहतों के जुगनू उस के साथ होते थे, फिर आज वह इतनी गंभीर क्यों लग रही है? क्या इन सालों में उस की हंसी, वे सपने, वे तितलियां, सब कहीं उड़ गए हैं? फिर आशीष ने उसे नाश्ता पकड़ाते हुए पूछा, ‘‘लाइफ कैसी चल रही है?’’

‘‘ठीक ही है,’’ कह कर विनीता ने गहरी सांस ली.

‘‘ठीक ही है या ठीक है? दोनों में फर्क होता है, जानती हो न? उदास क्यों लग रही हो?’’

विनीता ने आशीष की आंखों में झांका, कितनी सचाई है, कोई छल नहीं, कितनी सहजता से वह उस के मन के भावों को पढ़ उस की उदासी को समझ कर बांटने की कोशिश कर रहा है. अचानक विनीता को लगा कि वह एक घने, मजबूत बरगद के साए में निश्चिंत और सुरक्षित बैठी है.

‘‘तुम बताओ, तुम्हारी पत्नी और बच्चे कैसे हैं?’’

‘‘दिव्या ठीक है, क्लब, पार्टियों में व्यस्त रहती है, बेटा सार्थक 6 साल का है. तुम्हारे पति और बच्चे नहीं आए?’’

‘‘नवीन को काम से छुट्टी लेना अच्छा नहीं लगता और सिद्धि को मां के पास छोड़ कर आई हूं.’’

‘‘तो क्या नवीन बहुत व्यस्त रहते हैं?’’

विनीता ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘क्या सोच रही हो वीनू?’’

विनीता को आशीष के मुंह से ‘वीनू’ सुन कर अच्छा लगा. फिर बोली, ‘‘यही, बंद मुट्ठी की फिसलती रेत की तरह तुम जीवन से निकल गए थे और फिर न जाने कैसे आज हम दोनों यों बैठे हैं.’’

‘‘तुम खुश तो हो न वीनू?’’

‘‘जिस के साथ मन जुड़ा होता है उस का साथ हमेशा के लिए क्यों नहीं मिलता आशू?’’ कहतेकहते विनीता ने आशीष को अपलक देखा, अभी भी कुछ था, जो उसे अतीत से जोड़ रहा था… वही सम्मोहक मुसकराहट, आंखों में वही स्नेहिल, विश्वसनीय भाव.

‘‘तुम आज भी बहुत भावुक हो वीनू.’’

‘‘हम कितनी ही ईमानदार कोशिश क्यों न करें पर फिर भी कभीकभी बहुत गहरी चोट लग ही जाती है.’’

‘‘लेकिन तुम्हारा और नवीन का रिश्ता दुनिया का सब से मजबूत रिश्ता है, यह क्यों भूल रही हो?’’

‘‘रिश्ते मन के होते हैं पर नवीन के मामले में न जाने कहां सब चुक सा रहा है,’’ आज विनीता आशीष से मिल कर स्वयं पर नियंत्रण न रख सकी. उस ने अपने मन की पीड़ा आशीष के सामने व्यक्त कर ही दी, ‘‘आशू, नवीन बहुत प्रैक्टिकल इंसान है. हमारे घर में सुखसुविधाओं का कोई अभाव नहीं है, लेकिन नवीन भावनाओं के प्रदर्शन में एकदम अनुदार है… एक रूटीन सा नीरस जीवन है हमारा.

‘‘हम दोनों के साथ बैठे होने पर भी कभीकभी दोनों के बीच कोई बात नहीं होती. वैसे जीवन में साथ रहना, सोना, खाना पारिवारिक कार्यक्रमों में जाना सब कुछ है पर हमारे रिश्ते की गरमी न जाने कहां खो गई है. मैं नवीन को अपने मन से बहुत दूर महसूस करती हूं. अब तो लगता है नवीन और मैं नदी के 2 किनारे हैं, जो अपने बीच के फासले को समेट नहीं पाएंगे… आज पता नहीं क्यों तुम से कुछ छिपा नहीं पाई.’’

‘‘पर हमें फिर भी उस फासले को पाट कर उन के पास जाने की कोशिश करनी होगी वीनू. मुझे अब तकलीफ नहीं होती, क्योंकि दिव्या के अहं के आगे मैं ने हथियार डाल दिए हैं. उसे अपने पिता के पैसों का बहुत घमंड है और उस की नजरों में मेरी कोई हैसियत नहीं है, लेकिन इस में मैं कुछ नहीं कर सकता. इन स्थितियों को बदला नहीं जा सकता. हमारा विवाह, जिस से हुआ है, इस सच को हम नकार नहीं सकते… नवीन और दिव्या जैसे हैं हमें उन्हें वैसे ही स्वीकार करना होगा. उन्हें बदलने की कोशिश करना मूर्खता है… बेहतर होगा कि हम उन के अनुसार स्वयं को ढाल लें वरना सारा जीवन कुढ़ते, खीजते और बहस में ही गुजर जाएगा.’’

‘‘लेकिन क्या यह समझौता करने जैसा नहीं हुआ? समझौते में खुशी व प्यार कहां होता है?’’

आशीष से विनीता की उदासी देखी नहीं जा रही थी. अत: उसे समझाते हुए बोला, ‘‘समझौता हम कहां नहीं करते वीनू? औफिस से ले कर अपने मित्रों, पड़ोसियों, रिश्तेदारों के साथ हर जगह, हर मोड़ पर हम ऐडजस्ट करने के लिए तैयार रहते हैं और वह भी खुशीखुशी, तो फिर इस रिश्ते में समझौता करने में कैसी तकलीफ जिसे जीवन भर जीना है?’’

आशीष की बात सुनतेसुनते विनीता इसी सोच में डूब गई कि सुना था पहला प्यार ऐसी महक लिए आता है, जो संजीवनी और विष दोनों का काम करता है, मगर उन्हें अमृत नहीं विष मिला जिस के घूंट वे आज तक पी रहे हैं. निर्मल प्रेम का सागर दोनों के दिलों में हिलोरें ले रहा था. आशीष भी शायद ऐसी ही मनोस्थिति से गुजर रहा था.

विनीता ने आशीष को अपनी तरफ देखते पाया तो मुसकराने का भरसक प्रयत्न करती हुई बोली, ‘‘क्या हुआ, एकदम चुप्पी क्यों साध ली? क्या तुम भी ऐडजस्ट करतेकरते मानसिक रूप से थक चुके हो?’’

‘‘नहींनहीं, मैं आज भी यही सोचता हूं कि विवाह जीवन का बेहद खूबसूरत मोड़ है, जहां संयम और धैर्य बनाए रखने की जरूरत होती है. केवल समझौतावादी स्वभाव से ही इस मोड़ के सुंदर दृश्यों का आनंद लिया जा सकता है. मेरी बात पर यकीन कर के देखो वीनू, जीना कुछ आसान हो जाएगा… तुम स्वयं को संभालो, हम दोनों कहीं भी रहें, मन से हमेशा साथ रहेंगे. भला मन से जुड़े रिश्ते को कौन तोड़ सकता है? हमें तो एकदूसरे को विश्वास का वह आधार देना है, जिस से हमारे वैवाहिक जीवन की नींव खोखली न हो. हम अगली बार मिलें तो तुम्हारे चेहरे पर वही हंसी हो, जिसे इस बार तुम लखनऊ में छोड़ आई हो,’’ कहतेकहते आशीष के होंठों पर हंसी फैल गई, तो विनीता भी मुसकरा दी.

‘‘अब चलें, तुम्हारी बेटी इंतजार कर रही होगी? अगली बार आओ तो बिना मिले मत जाना,’’ आशीष हंसा.

दोनों अपनेअपने घर लौट गए. आशीष के निश्छल, निर्मल प्रेम के प्रति विनीता का मन श्रद्धा से भर उठा.

घर लौटते विनीता ने फैसला कर लिया कि वह नए सिरे से नवीन को अपनाएगी, वह जैसा है वैसा ही. प्रेम करने, समर्पण करने से कोई छोटा नहीं हो जाता. वह एक बार फिर से अप?ने बिखरे सपनों को इकट्ठा करने की कोशिश करेगी… मन में नवीन के प्रति जो रोष था, वह अब खत्म हो गया था.

अरेबियन दूल्हा : नसीबन और शकील के दिलों पर क्या बीती

दीवान का भतीजा शकील 5-6 साल की उम्र से ही दीवान के साथ बंगले पर रोज हाजिरी देता. मैडम उसे कुछ अच्छा खाने के लिए या कभीकभी अठन्नी दे देती थीं जिस के लालच में वह अपने नन्हेमुन्हे हाथों से मैडम के पैर दबाने का काम बड़ी मुस्तैदी से करता था.

दीवान के जिम्मे फैक्टरी पर ड्यूटी देने के अलावा कई घरेलू काम भी थे जैसे मैडम के आदेश पर किसी महिला को बुलवाना या कोई सामान लाना आदि. जिस के बदले में वे दीवान को हर महीने फैक्टरी की तनख्वाह के अलावा 1 हजार रुपए किसी बहाने से पकड़ा देतीं. चूंकि वह मैडम का करीबी था इसलिए फैक्टरी के कर्मचारियों में उस की इज्जत थी. वह फैक्टरी के लोगों के छोटेमोटे काम साहब से करवाने में अकसर कामयाब हो जाता था.

दीवान के रास्ते पर चलतेचलते शकील भी जब 18 साल का हुआ तो मैडम ने खाली जगह पर उसे दिहाड़ी मजदूर के रूप में रखवा दिया. गांव वालों में वह भी अब हैसियत वाला माना जाने लगा. पहली वजह फैक्टरी में 2,500 रुपए का मुलाजिम, दूसरी, बड़े साहब के बंगले तक पहुंच. हर किसी को पक्का विश्वास था कि जल्द ही उसे पक्की नौकरी मिल जाएगी.

करीमन की इकलौती बेटी नसीबन 10वीं पास थी. 16 वसंत पार करतेकरते उस का झुकाव शकील की तरफ होने लगा. दोनों की जाति एक थी और उन में 2 साल का फर्क था. बिना कुछ लिएदिए काम चल जाए तो क्या हर्ज. उस की मां ने तो उसे उल्टे ढील दे रखी थी. हालांकि दीवान कभीकभी शकील को दिखावे के लिए डांटता.

नसीबन बड़ी समझदार थी. लड़के गांव में बहुत थे. झुकी तो सोचसमझ कर, हमउम्र, फैक्टरी का मुलाजिम, बचपन से मैडम का मुंहचढ़ा, गजब की कदकाठी. शकील का चौड़ा सीना…जब देखो, दिल सटने को चाहे. ताकत इतनी कि दीवान का एक बैल मर गया तो दूसरे का तब तक हल में साथ दिया जब तक कि उस ने दूसरा बैल खरीद न लिया. नसीबन को इस बात से कुछ लेना न था कि शकील सिर्फ चौथी तक पढ़ा है.

नसीबन के पिता कभी फरीदाबाद में राजमिस्त्री का काम कर के अच्छा पैसा कमा लेते थे. इकलौती बेटी को अच्छा पढ़ाते व पहनाते थे. फालिज की मार ऐसी पड़ी की वे चल बसे. आमदनी का जरिया जाता रहा तो मजबूर हो कर नसीबन की मां को खेतों में काम कर के गुजारा करना पड़ा.

एक दिन शकील के घर के सामने वाले आम के पेड़ से कईकई बार कूद कर भी नसीबन सिर्फ 2 कच्चे आम तोड़ पाई थी कि शकील ने उस की कलाई पकड़ कर कहा, ‘‘मांग के आम नहीं ले सकती थी. सिर्फ 2 आम के लिए अपनी प्यारीप्यारी टांगें तुड़वाती. ला, दबा दूं… चोट तो नहीं लगी.’’

नसीबन ने हाथ छुड़ाना जरूरी नहीं समझा. उसे शकील के पकड़ते ही करंट लग चुका था. फटी कमीज में यों ही नसीबन की जवानी फूट रही थी. धीरे से बोली, ‘‘टांगें दबानी हैं तो पहले निकाह पढ़.’’

उपयुक्त वातावरण देख कर शकील ने अंधेरे का फायदा उठा कर कहा, ‘‘आम क्या चीज है तू मेरी जान मांग के तो देख.’’

‘‘देख शकील, आगे न बढ़ना,’’ नसीबन के इतना कहते ही शकील ने पकड़ ढीली कर दी. फिर बोला, ‘‘किसी से कहना नहीं, मैं तेरे लिए आम लाता हूं. 2 मिनट चैन से यहीं बैठ कर दिल की बातें करेंगे,’’ उस के बाद शकील ने उसे गोद में लिटा कर एक आम खुद खाया और एक उसे अपने हाथ से खिलाया.

काफी देर दोनों अंधेरे में एकदूसरे में खोए रहे. वह शकील के बालों में उंगलियां फिराती बोली, ‘‘चचा से कहो न, मां से मेरा हाथ मांगें.’’

‘‘जल्दी क्या पड़ी है. देख, पहली पगार से तेरे लिए सोने की अंगूठी लाया हूं,’’ अंगूठी पहना कर शकील ने उस का गाल चूमा तो उस ने फटी कमीज की तरफ इशारा कर के कहा, ‘‘यहां.’’

शकील ने अपने होंठ उस के सीने के उभार पर रख दिए.

तभी नसीबन की मां की आवाज आई, ‘‘नसीबन? कहां है?’’

कपड़े ठीक कर के वह बोली, ‘‘मां, अभी आई.’’

सुबह बेटी की उंगली में सोने की अंगूठी देख कर मां बोलीं. ‘‘यह तुझे किस ने दी.’’

‘‘शकील ने,’’ खुश हो कर वह बोली.

‘‘4-5 हजार से कम की नहीं होगी. बेटी, लेकिन निकाह के पहले कमर के नीचे न छूने देना.’’

‘‘मां,’’ कह कर वह करीमन से लिपट गई.

शकील के प्रस्ताव पर दीवान ने भतीजे को समझा दिया कि वह करीमन से कहेगा कि वह बेटी की अभी कहीं जबान न दे. तुम्हारी पक्की नौकरी हो जाए. 1-2 कमरे बन जाएं तो निकाह पढ़वा लेंगे. शकील तब खुश हो गया.

दीवान ने अगले ही दिन करीमन से बात की, ‘‘करीमन, 4-6 महीने अपनी लौंडिया नहीं रोक सकती. शकील की पक्की नौकरी होने दे. 1-2 कमरे पक्के बनवा दूं. आखिर कहां रखेंगे. क्या शकील को घरदामाद बनाने का इरादा है और साफसाफ सुन ले, रात में बेटी को बगीचे में भेजेगी तो तू समझना, जवान लड़का है, मैं नहीं रोक पाऊंगा. कुछ ऊंचनीच हो गई तो, मुझे मत कहना.’’

‘‘दीवान भाई, मैं क्यों घरदामाद बनाती. मेरे बाद तो यह घर उसी का है. बात पक्की समझूं.’’

‘‘हां, पक्की.’’

एक बार किसी जरूरी काम से शकील को बुलाने के लिए मैडम  गाड़ी से खुद आई. गाड़ी की आवाज सुन कर नसीबन भी दरवाजे से बाहर निकल आई. शकील को मोटर की तरफ जाते देख कर नसीबन जोर से बोली, ‘‘शकील, सुन तो जरा, इधर आ.’’

वह गर्व से गरदन उठाए अपनी प्रेमिका के पास आया जैसे मोटर उसी की हो, ‘‘क्या है?’’

‘‘क्या मुझे भी अपने साहब का बंगला दिखाएगा?’’ नसीबन बोली.

‘‘आ चल,’’ इतना कह कर शकील ने बांह को इतने ऊपर से पकड़ा कि उस के हाथ नसीबन के वक्षों से छू गए.

‘‘हाथ छोड़, सीधा चल. मैं कोई अंधीलंगड़ी हूं.’’

‘‘मेम साहब, यह करीमन की बेटी नसीबन है. 10वीं पास है. कहने लगी तेरे साहब का बंगला देखूंगी तो साथ ले आया. मैडम ने मुसकराकर नसीबन के सिर पर हाथ रखा और बोली, ‘‘जा घुमा दे.’’

‘‘यह फ्रिज है,’’ खोल कर शकील ने उसे रसगुल्ला खिलाया और ठंडा पानी पिलाया.

‘‘यह ए.सी. है,’’ बैडरूम में ले गया. पलंग के गद्दे पर नसीबन बैठी तो धंस गई और कूद कर बोली, ‘‘शकील, तेरी मैडम तो रोज यहां धंस जाती होंगी.’’ नसीबन को बागबगीचा दिखा कर शकील वापस लाया तो मैडम ने उसे 500 रुपए कपड़े सिलवाने को दिए और बोलीं, ‘‘नसीबन भी खजूरी की?’’

‘‘जी मैडम, हम दोनों के घर पासपास हैं.’’

‘‘कभीकभी आ जाया कर,’’ मैडम बोलीं.

अब नसीबन का भी बंगले पर आनाजाना शुरू हो गया. मैडम के पांव दबाना और बाल सेट करना उस की खास ड्यूटी थी. उसे भी 1 हजार रुपए महीने के मिलने लगे थे. मां खुश थीं कि शकील ने बड़े घर की शरीफ औरत के पास काम दिला दिया, जहां किसी तरह का कोई खतरा न था.

साहब ने एक बार मैडम से कहा भी, ‘‘तुम अजीबअजीब हरकतें करती हो. यह आग और घी एकसाथ क्यों इकट्ठे कर लिए हैं?’’

‘‘शकील की हिम्मत है कि मेरी बिटिया की तरफ आंख भी उठा सके,’’ यह सच है कि सब पर मैडम का खौफ था.

एक दिन नसीबन ने लौन से गुलाब का फूल तोड़ लिया तो माली नातीराम ने डांटा, ‘‘मैडम, पता नहीं कहां से जंगली चिडि़या पकड़ लाई हैं.’’

नसीबन ड्राइंगरूम के सोफे पर बैठी तो नौकरानी ने हाथ पकड़ कर उठा दिया. मैडम के लिए तेल लगे हाथ से गाड़ी का दरवाजा खोला तो ड्राइवर ने डांटा, ‘‘हाथ धो कर गाड़ी छू.’’ वह कुछ ही दिन में बंगले के तौरतरीकों से वाकिफ हो गई.

मैडम की सख्त हिदायत थी कि उसे सूरज डूबने से पहले कार से रोज घर पहुंचवा दिया जाए और यह कि शकील को अगर जाना है तो साइकिल से जाए, साथ न बैठे.

वक्त गुजरता गया मैडम ने नसीबन को प्राइवेट इंटर और बी.ए. करवा कर कालोनी के प्राइमरी स्कूल में टीचर रखवा दिया. शकील की भी पक्की नौकरी हो गई. उसे ग्रेड भी मिलने लगा था. दोनों ही मैडम के कृतज्ञ थे और हमेशा की तरह उन की खिदमत में लगे रहते.

नसीबन पर जवानी क्या चढ़ी कि आईने के सामने अंगड़ाई लेते समय हाथ उठाते ही वह शर्मा जाती. उस का दिल चाहता कि वह शकील के पेड़ से आम चुराए और वह सजा के तौर पर उसे अपनी बाजुओं में भींच ले. शकील पढ़ालिखा न होने की वजह से हीनभावना में रहता और नसीबन से कटाकटा रहता.

मैडम ने बंगले पर रहने के लिए उसे अलग कमरा दिया था. बेचारा रातदिन मेहनत कर के खुद को नसीबन के योग्य बनाने की कोशिश करता उस ने भी हाई- स्कूल पास कर लिया था.

एक शाम मां ने यह कह कर नसीबन का चैन छीन लिया कि अरब से शमीम आया है. मुझ से भी मिलने यहां आया था. 50-60 हजार महीना कमाता है. तुझे देख कर मुझ से बोला कि नसीबन जवान हो गई है. जबरदस्ती 1 लाख की गड्डी आंचल में डाल गया और बोला 3 दिन में जाना है निकाह जल्दी पढ़वा दो.

‘‘मां, उन्हें शायद यह मालूम नहीं होगा कि हमारे ऊपर मैडम का हाथ है.’’

‘‘बेटी क्या हर्ज है. ऐश करेगी और यों भी ज्यादा उम्र के मर्द कम उम्र लड़कियों को सिर पर बिठाते हैं.’’

‘‘मां, साफ सुन लो, जितनी लड़कियां अरेबियन दूल्हों के साथ गईं, सब कैसे अपनी रात गुजारती हैं तुम्हें बताने की जरूरत नहीं. तुम उस के रुपए वापस कर दो वरना मैं जहर खा लूंगी. मैं शकील के अलावा किसी मर्द को अपना बदन नहीं छूने दूंगी. अगर तुम ने रुपए वापस नहीं किए तो मैं नोटों की इस गड्डी में आग लगा दूंगी.’’

मां समझ गईं कि बेटी के सिर पर शकील के इश्क का जनून सवार है. शमीम को 4 आदमियों के साथ तीसरे दिन उस ने नसीबन को ले जाने की इजाजत दे दी.

आधी पैंट और आधी शर्ट में शकील को अपने कमरे की ओर जाता देख कर नसीबन बोली, ‘‘शकील, मैडम से इजाजत ले कर अभी आती हूं. कुछ जरूरी बातें करनी हैं. प्लीज, कमरे ही में कुछ देर रहना.’’

‘‘आओ बेटी, बैठो,’’ मैडम बोलीं.

‘‘मैडम, गुस्ताखी माफ हो तो कुछ अर्ज करूं.’’ नसीबन बोली, ‘‘मैं बहुत सालों से आप के साथ हूं, आप मुझे अच्छी तरह जानती और मानती हैं. जब से मैं जवान हुई मुझे शकील से लगाव है. मेरी मां मुझ से 20 साल बड़े मर्द से, जो अरब में काम करता है, मेरी शादी के नाम पर 1 लाख रुपए ले चुकी हैं. जो लड़कियां इस तरह के लोगों से ब्याही गई हैं उन की हालत आप को मालूम है. मेरी मां रुपए देख कर अंधी हो गई हैं. मेरी जवानी का सौदा करना चाहती हैं. मेरी मदद कीजिए वरना मेरी जिंदगी खराब हो जाएगी. आप शकील के साथ मेरी शादी करवा दीजिए.’’

बेटी, अच्छा किया बता दिया. मैं खुद भी तुझ से यही कहना चाहती थी. हरगिज अरब की मुलाजमत देख कर शादी पर राजी न होना. ये लोग अकसर ऐयाश होते हैं. औरतों को इस्तेमाल कर के बेच देते हैं. यों भी 5-6 साल में लड़कियों की दिमागी और जिस्मानी हालत बदल जाती है. बेटी, मैं तेरी हर मुमकिन मदद करूंगी. जा तू खुल के शकील से बात कर ले.

अब नसीबन शकील के कमरे में गई और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. वह अभी भी फैक्टरी के कपड़ों  में उस के इंतजार में बैठा हुआ था.

वह पलंग पर उस से सट कर बैठ गई. अपना एक हाथ उस के हाथ पर रख कर बोली, ‘‘मैं जब से जवान हुई, तुम्हारे सिवा किसी मर्द का हाथ अपने बदन को नहीं लगने दिया. तुम्हारी ही मेहरबानी से यह दरवाजा देखा. मुझ से ख्ंिचेख्ंिचे क्यों रहते हो. आज भी मेरा दिल होता है कि तुम मेरे बाल खींचो, मुझे मारो, अपनी बांहों में कैद कर के मुझे सीने से सटाओ.’’

‘‘नसीबन, वह और वक्त था.’’ शकील बोला, ‘‘उस वक्त तुम्हें 2 आम दरकार थे, आज तुम पढ़ीलिखी हैसियतदार औरत हो. 50-60 हजार कमाने वाले अरेबियन दूल्हे का रिश्ता आ रहा है. सुना है शमीन तुम्हें लाखों के जेवर दे रहा है. 6,500 रुपए प्रतिमाह पाने वाला मैं कहां? क्या मैं तुम्हारी मां को रातोंरात दौलतमंद बनाने योग्य हूं.’’

‘‘शकील, आज मैं कल से ज्यादा गरीब हूं. अपना प्यार मुझे भीख में दे दो मैं तुम्हारे बगैर जिंदा नहीं रह सकती. पढ़ाईलिखाई अगर मेरेतुम्हारे बीच दीवार है तो मैं अपने प्रमाणपत्र अभी जलाने को तैयार हूं,’’ कह कर नसीबन उस के सीने पर सिर रख कर काफी देर तक रोती रही.

शकील ने उस के चेहरे को अपनी हथेलियों के बीच में ले कर पहली बार उस के होंठों को चूमा तो वह आंखें बंद कर के उस से लिपट गई और तेजतेज सांसें लेने लगी. शकील को पहली बार उस के बदन की गरमी का एहसास हुआ और उस के हाथ नसीबन के अंगों को आजाद करने में व्यस्त हो गए. नसीबन के सीने में मुंह धंसा कर शकील बोला कि तू मेरे दिल पर राज करेगी.

इस बीच नसीबन ने अपनेआप को पूरी तरह उसे सौंप दिया और जल्द ही नसीबन को यह एहसास हो गया कि क्यों औरत मर्द पर अपनी जान तक निछावर करने के लिए तैयार रहती है. शकील उस के लिए जो था वह वही जानती थी. वह सारी रात शकील को सीने से चिपटाए रही.

नसीबन के बालों में उंगलियां फिरा कर शकील बोला, ‘‘नसीबन, यह हम क्या कर बैठे.’’

वह मदहोश थी. गरदन में बाहें डाल कर बोली, ‘‘जानी, तौबा कर लेंगे और निकाह पढ़ लेंगे. मेरी जान, तू तो पूरा लोहा निकला. मुझे कहीं ले चल शकील जहां तू और मैं हों. मुझे सिर्फ तेरी नौकरी करनी है.’’

शारीरिक संबंध के बाद नसीबन को जाने शकील ने ऐसा क्या दे दिया, एक ही रात में वह उस की गुलाम और दीवानी हो गई.

‘‘मां, शमीम से मेरी शादी को साफ मना कर दो,’’ नसीबन बोली, ‘‘1 लाख रुपए शकील देने को तैयार है.’’

‘‘क्या कहीं डकैती डाल आया.’

‘‘उस ने कुछ भी किया हो पर कान खोल कर सुन लो मां, मैं रात भर शकील के साथ रह कर आ रही हूं.’’

मां बोलीं, ‘‘क्या शकील की जूठन शमीम 1 लाख रुपए में लेगा.’’

उत्तेजना के चलते नसीबन अपने आपे से बाहर थी. सामने किस से क्या बात कर रही थी उसे कुछ पता नहीं था. उस के दिमाग में 42 वर्षीय शमीम का थुलथुल शरीर घूम रहा था.

‘‘परसों निकाह है और आज गैर मर्द के साथ मुंह काला कर के आ रही है. किस बेशरमी से उस का बयान कर रही है. हाय, यह सब करने से पहले तू मर क्यों न गई?’’ मां बोली.

‘‘जिंदा रहने के लिए यह काम किया है,’’ नसीबन बोली.

‘‘आखिर तुम भी तो इसी काम के लिए 42 साल के अरबी दूल्हे से लाख रुपए लेने को मचल रही हो.’’

अब मां कुछ धीमी पड़ीं. ‘‘बेटा, और किसी को न बतलाना. चल डाक्टर को दिखा दूं. बेटी, मैं उसे राजी कर लूंगी. वह तुझे ले जाएगा.’’

‘‘और किसी अरब शेख को 10 लाख में बेच कर 9 लाख कमा लेगा फिर कोई दूसरी कुंआरी 2 लाख में खोजेगा जिस की मां घर पक्का कराने और लड़की को जेवर पहनाने की गरज से अरब के शेखों की खिदमत के लिए भेजने को तैयार हो जाएगी.’’

गुंडे जैसे 4-5 लोगों को साथ ले कर किराए की गाड़ी से शमीम आया. उन में से एक टोपी वाला काजी भी था. नसीबन ने शमीम को निकाह से पहले अंदर बुलाया और बोली, ‘‘आप मुझ से निकाह करने जा रहे हैं. मैं आप को धोखे में नहीं रखना चाहती. साफ कह दूं तो बेहतर है. मैं शकील के साथ रातभर सो चुकी हूं. अगर आप को यह गुमान हो कि आप का निकाह किसी कुंआरी लड़की से हो रहा है तो मेहरबानी कर के पैसा वापस ले सकते हैं.’’

‘‘बेगम आप कैसी बातें करती हैं,’’ उस ने बेहयायी से उस के गाल चूमे और जो होना था वही हुआ. नसीबन उस की दुलहन बनी मगर उस रात वह लाश की तरह पड़ी रही. उस का खयाल था कि लड़की की मां ने धोखा दिया. लड़की ठंडी है. यों शमीम भी उसे बीवी बनाने योग्य साबित न हो सका था.

शकील ने नसीबन से शादी का इरादा छोड़ दिया था. वह अपने काम में मगन था. कमरे में नसीबन की तसवीर लगी थी मगर उस ने उस पर परदा डाल दिया था. नसीबन से बहुत कम बात करता और मिसेज शमीम कह कर उस से मुखातिब होता.

नसीबन ने मां को सही हालात बतला दिए थे और यह कि अगले 6 महीने में पासपोर्ट बनाने की जिद होगी और वही हुआ. सबकुछ बताए अनुसार होता देख मां रास्ते पर आ गईं. मां की भी आंखें खुलीं, जब उन्हें सचाई पता चली.

‘‘बेटी, ‘खुला’ ले ले. जमीर भाई के 3 बेटे सऊदी में हैं. उन्होंने बताया कि शमीम के साथ दरभंगा की एक औरत भी रहती है. अरब शेख के बरतन धोने के लिए शौहर व 4 बच्चों को छोड़ कर आई थी. बाद में उस की रखैल बन गई. हुकूमत ने वीजा खत्म होने पर निकालना चाहा तो शमीम से निकाह पढ़ कर वहीं की हो ली.’’

शमीम के बारे में सबकुछ सुन कर नसीबन बोली, ‘‘तुम ने मुझे किस दलदल में फेंक दिया. मेरी और शकील दोनों की जिंदगी खराब कर दी. सच बतलाओ मां, मैं तुम्हारे पेट से हूं भी या नहीं.’’

मां के आंसू निकल पड़े. गले लगा कर बोली, ‘‘बेटी, माफ कर दे.’’

मां जी.एम. साहब के पास ‘तलाक’ दिलाने में मदद के लिए गई थीं. बेटी को कहा कि किसी तरह शकील को राजी कर ले.

नसीबन तड़प कर बोली, ‘‘मां तुम्हारी ख्वाहिश के लिए मेरी जवानी का सौदा हुआ था. अगर दोबारा शकील से शादी के लिए मुझे मजबूर किया गया तो मैं जहर खा लूंगी.’’

उसे रोज उदास देख कर साहब ने नसीबन के मना करने के बावजूद सऊदी अरब दूतावास के प्रथम सेके्रटरी से मुलाकात की और हालात बतला कर शमीम का सऊदी से देश निकाला करवा के ‘खुला’ लिखवाया. जिस पर सब से ज्यादा शकील खुश था. बंगले के खास लोगों को छिप कर उस ने मिठाई भी बांटी थी. नसीबन को घर जा कर दी तो वह बोली, ‘‘इतने दिनों बाद खुशीखुशी  लड्डू खिला रहे हो, किस बात के हैं? क्या कहीं शादी तय हो गई?’’

‘‘यों ही समझ लो.’’

उस ने लड्डू खा तो लिया मगर चेहरा उदास हो गया.

मांसिर पर हाथ फिरा कर कमरे से यह कह कर चली गईं, ‘‘शकील बेटा, रात का खाना खा कर जाना. बहुत दिनों के बाद आए हो.’’

‘‘बोलो न, आज बड़े खुश हो, कोई खास बात हो गई?’’ नसीबन ने उत्सुकता के चलते पूछा.

‘‘पहले एक लड्डू मेरे हाथ से खाने का वादा करो तो बताऊंगा.’’

नसीबन समझ तो गई मगर अनजान बन कर बोली, ‘‘बहुत खुश हो तो तुम्हारी खुशी में शरीक होना भी जरूरी है, आखिर जिंदगी के बेहतरीन क्षण तुम्हारे साथ ही तो गुजारे थे.’’

शकील एक हाथ से नसीबन के बालों में उंगलियां फिरा रहा था दूसरे से लड्डू खिला रहा था. नसीबन के आंसू जारी थे फिर भी उस के हाथ का लड्डू शौक से खा रही थी.

नसीबन को पलंग पर लिटा कर अपना सीना उस के सीने पर रख कर शकील बोला, ‘‘अच्छा, एक बात बतलाओ कि तुम्हारे साथ मेरी शादी हो गई होती और कोई डाकू तुम्हारी इज्जत जबरदस्ती लूट लेता तो क्या तुम मेरे योग्य न रहतीं?’’

वह उत्तर न दे सकी.

‘‘जान, खामोशी को रजामंदी समझूं और कल बरात ले कर आऊं.’’

नसीबन ने शकील के गले में बांहें डाल कर उसे सख्ती से भींच लिया. लिपट कर दिल से दिल मिला और सारे शिकवे- शिकायतें गायब.

‘‘मां, शकील का खाना.’’

यह आवाज नसीबन के मुंह से रात के 3 बजे निकली. वह अब भी उस के ऊपर लेटी, उसे प्यार भरी नजरों से देखे जा रही थी.

‘‘बेटी, 4 बार गरम कर चुकी हूं.’’

दोनों ने एकदूसरे को निवाले खिलाए. सुबह मसजिद के इमाम साहब ने निकाह पढ़ा दिया.

गांव के लोगों ने करीमन के दरवाजे पर जम कर बकरे के मांस की दावत की.

…रात हसीन थी.

‘‘अब हटो, मेरी हड्डीपसली तोड़ दी. कौन सी दुश्मनी निकाल रहे हो. सुबह हो गई, अब तो पीछा छोड़ो.’’

सुन कर शकील ने हटना चाहा तो नसीबन ने फिर उसे सीने से लिपटा लिया.

सोने की सास: भाग 3- क्यों बदल गई सास की प्रशंसा करने वाली चंद्रा

मुझे लगा, अब उस का सास शिकायतनामा भी धीरेधीरे बंद हो जाएगा, लेकिन इस बार बड़े दिनों की छुट्टियों में वह ससुराल जा कर लौटी, तो शिकायत का एक नया सूत्र मिल गया था. फोन उठाते ही बोली, ‘‘जानती हो मम्मी, मेरी देवरानी भी पढ़ीलिखी है. चाहे तो वह भी घर से बाहर कहीं कोई काम कर सकती है. पर उसे कोई घर से बाहर कुछ नहीं करने देगा. वह बाहर जाएगी, तो मम्मीजी की गृहस्थी का बोझ भला कौन ढोएगा.’’

मैं ने हांहूं कर के फोन रख दिया. सोचा, अब तो उस गृहस्थी में देवरदेवरानी के बच्चों का ही अधिक काम रहता है, जिस में अपर्णाजी भी दिन भर छोटी बहू के साथ घर के कामों में लगी रहती हैं. चंद्रा के ससुरजी बच्चों का होमवर्क ही नहीं करवाते, अपितु उन्हें स्कूल बस तक पहुंचाने और वापस लाने का काम भी वे ही करते हैं. साथ ही, सब्जी, राशन आदि लाने का बाहरी काम भी तो वे ही किया करते हैं. लेकिन मेरी बिटिया रानी कहां कुछ सुननेसमझने के लिए तैयार थी?

अचानक मेरे पति का तबादला चंद्रा की ससुराल के शहर में ही हो गया. अब तो उन के घर आनाजाना लगा ही रहता. एक दिन मैं ने सुष्मिता से पूछा, ‘‘तुम भी तो पढ़ीलिखी हो, क्या तुम्हारा घर से बाहर कोई काम करने का मन नहीं करता?’’

वह हंसी, ‘‘मौसीजी, अभी तो मेरे बच्चे बहुत छोटे हैं, नौकरी करने से ज्यादा जरूरी है उन की देखभाल करना. फिर अभी इन्हें जितना वेतन मिल रहा है, वह काफी है. उस से अधिक की तो अभी दरकार नहीं और फिर ये शाम को अपनी छुट्टी के बाद पापाजी के बिजनैस में भी उन की मदद करते हैं. बच्चों को तो एकदम समय नहीं दे पाते. मैं भी यदि नौकरी में व्यस्त हो जाऊं, तो बच्चों का खयाल कौन रखेगा? यों तो मांजी भी मुझ से कहती रहती हैं कि यदि मेरा भी नौकरी करने का मन हो, तो मैं कर सकती हूं, वे घर और बच्चों को संभाल लेंगी, पर सच कहूं मौसीजी, अभी तो घर से बाहर कुछ करने का मेरा जरा भी मन नहीं है. हां, जब बच्चे बड़े हो जाएंगे, तब अगर मन होगा, तो देखा जाएगा.’’

चंद्रा को मैं ने सुष्मिता की ये बातें बतलाईं, तो वह कुछ मानने को तैयार ही नहीं हुई. बस अपना ही राग अलापती रही. वह तो बस अपनी सास के पीछे पड़ी हुई थी. अपने पति के कान भी उन की मां के विरुद्ध भरने में लगी हुई थी.

धीरेधीरे उसे कामयाबी मिलती गई. श्रीकांतजी उस की झूठी बातों को भी सच्ची समझने लगे और इस संबंध में अपनी मां से भी सवालजवाब करने लगे. चंद्रा की बात पर विश्वास कर के वे यह समझने लगे कि उन की मां बहुओं पर जुल्म ढाया करती है. बिटिया के फोन से मुझे सारी खबरें मिलती रहती थीं, पर मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाती थी.

अपर्णाजी के पेट में दर्द रहता था. जांच के लिए वे अपने पति के साथ कोलकाता गईं. डाक्टर ने पेट दर्द का कारण बतलाया पेट में वायु या गैस बनना. उन्हें कुछ दवा देने के साथ यह निर्देश भी दिया गया कि वे भूखी न रहें और सुबह का नाश्ता तो जितनी जल्दी हो सके कर लिया करें. उन की बात मान कर उन्होंने दूसरे दिन जल्दी नाश्ता कर लिया, तो ठीक रहीं. यह सब उन्होंने मुझे फोन पर बतलाया.

पोतेपोती की जिद के कारण उन्हें वहां कुछ दिन रुकना पड़ा. वे घर के काम में भी चंद्रा की मदद करने लगीं. जो भी विशेष व्यंजन उन्हें बनाने आते थे, वे उन्हें बना कर सब को खिलाना चाहती थीं. एक दिन उन्हें याद आया कि बेटे श्रीकांत को कटहल की सब्जी बचपन से ही बहुत पसंद है. कटहल का मौसम खत्म होने को था, पर दिनेशजी कहीं से कटहल खोज ही लाए. अपर्णाजी ने बड़े मनोयोग से कटहल काटा और सब्जी बना ली. अपने पति को टिफिन देने का काम चंद्रा स्वयं ही करना चाहती थी. 1-2 बार मां ने बेटे के लिए टिफिन तैयार कर दिया, तो चंद्रा नाराज सी लगी, अत: इस काम से दूर ही रहती थीं. उस दिन जब चंद्रा टिफिन तैयार कर रही थी, तो अपर्णाजी ने पास जा कर कहा, ‘‘श्रीकांत को कटहल की सब्जी बचपन से ही बहुत पसंद है, इसे टिफिन में दे देना.’’

चंद्रा बोली, ‘‘पहले की सब्जी भी तो फ्रिज में रखी है. पहले उसे खत्म होने दीजिए,’’ और उस ने श्रीकांत के टिफिन में पहले वाली सब्जी ही डाल दी.

अपर्णाजी ने सोचा, ठीक ही तो कह रही है, पहले की बनी सब्जी पहले खत्म होनी चाहिए. कटहल की सब्जी शाम को खा लेगा, इस में क्या हर्ज है.

शाम को चंद्रा ने दफ्तर से लौट कर कुछ और सब्जियां बना लीं और श्रीकांत को वे ही परोसीं. बाद में उस ने कटहल की सब्जी औरों की थालियों में डाली, पर श्रीकांत को नहीं दी. रोटियां बनाती हुईं अपर्णाजी सब कुछ देख रही थीं, पर बोलीं कुछ नहीं. उन्होंने सोचा, कल टिफिन में दे देगी, इस में क्या है.

दूसरे दिन अपर्णाजी जब रसोई में आईं, तब तक श्रीकांत का टिफिन भरा जा चुका था. उन्होंने दिनेशजी के लिए नाश्ता लगाने के लिए फ्रिज खोला, तो देखा रात वाली सब्जी समाप्त है और कटहल की सब्जी उतनी की उतनी फ्रिज में रखी है. उन्होंने सोचा, हड़बड़ी में शायद बहू श्रीकांत को कटहल की सब्जी देना भूल गई हो. कोई बात नहीं, वे सब्जी बदल देती हैं.

उन्होंने डब्बा खोला ही था कि चंद्रा आ गई और जोर से बोली, ‘‘यह आप क्या कर रही हैं मम्मीजी? मेरी जासूसी कर रही हैं? क्या मैं आप के बेटे को अच्छा खाना नहीं देती? आप सब्जी बदलने की कोशिश कर रही हैं,’’ बोलतेबोलते वह रोने लगी.

शोर सुन कर श्रीकांत आ खड़ा हुआ. बोला, ‘‘चंद्रा ने टिफिन दे तो दिया था, फिर तुम उसे खोल कर क्या देख रही हो? वह मेरी पत्नी है, कोई मेरी दुश्मन नहीं, जो मुझे खराब खाना देगी.’’

अपर्णाजी हैरान सी खड़ी थीं. वे किस से क्या कहें? इतना तो वे समझ चुकी थीं कि बहू को ईर्ष्यारूपी नागिन ने डस लिया है. उसे डर लग रहा है बेटे के प्रति मां के स्नेह से. इसीलिए उस ने श्रीकांत के कान भी मां के विरुद्ध भर दिए हैं, तभी तो वह मां से इस लहजे में बात कर रहा है.

आधे झूठ की चाशनी में डुबो कर चंद्रा ने मुझे यह वाकेआ सुनाया, तो भी सच मेरे सामने आ गया. मैं ने सोचा, अगर चंद्रा की सास शुद्ध सोने की बनी होतीं, तो भी मेरी बेटी उन में कोई न कोई खोट निकाल ही देती.

अब युग उलट गया है. महान वैज्ञानिक न्यूट्रन ने सच ही कहा था कि हर क्रिया की समान और विरोधी प्रतिक्रिया हुआ करती है. पहले बहुओं को उन की सास दबा कर रखती थी, अब बहुएं वही अपनी सास के साथ करना चाहती हैं. पहले मां करती थी कन्यादान, अब चाहेअनचाहे करना होता है उसे पुत्रदान. कल बेटी पराया धन थी और आज बेटा है.

उसकी गली में- भाग 3 : आखिर क्या हुआ उस दिन

इस कोशिश में उसे चोटें भी लगीं. उसे अस्पताल में भरती करना पड़ा. जुलेखा उस की देखरेख के लिए रोज अस्पताल जाती थी. वहीं से यह मुहब्बत शुरू हुई. इस के 4-5 महीने बाद अचानक जुलेखा ने शादी कर ली. शादी के बाद विलायत अली पागल सा हो गया. यह भी पता चला था कि चोरी वाले दिन सेठ अहद का एक नौकर विलायत को उस के घर से बुला कर ले गया था. सेठ अहद ने ही उस पर चोरी का इलजाम लगाया था. थाने में लिखाई गई रिपोर्ट में सेठ अहद ने लिखवाया था कि विलायत उस के घर काम मांगने आया था. सेठ ने चोरी का जो टाइम रिपोर्ट में लिखाया था, उस वक्त वह अपने दोस्तों के साथ पान की दुकान पर था. उस वक्त सुबह के 10 बजे थे.

वक्त बहुत कम था. डीएसपी साहब के दिए टाइम में 2 घंटे बीत चुके थे. मैं ने सेठ अहद और मास्टरनी के पति नजीर से मिलने का फैसला किया. रवाना होते समय मैं ने बलराज से पूछा, ‘‘अगर तुम्हारे दिमाग में कोई प्लान हो तो बताओ, मिल कर काम करते हैं.’’ उस ने तीखे लहजे में कहा, ‘‘नवाज खां, मेरे और तुम्हारे रास्ते अलगअलग हैं. इसलिए तुम अपनी राह जाओ.’’

मैं ने पहले ही 3-4 टीमें बना कर विलायत की तलाश में भेज दी थीं. सेठ अहद की लोहे के सामान बेचने की दुकान थी. 40-45 साल का दुबलापतला आदमी था. पता चला कि वह रंगीनमिजाज था. उस ने दुकान पर एक जवान खूबसूरत लड़की रख रखी थी. मैं ने अहद से पूछताछ की तो उस ने वही बातें बताईं, जो मुझे पहले से पता थीं. कोई काम की बात पता न चलने पर मैं ने उसे शहर न छोड़ने की हिदायत दी. उस पर नजर रखने के लिए मैं ने सादा लिबास में एक सिपाही की ड्यूटी लगा दी. इस के बाद मैं चपरासी नजीर के यहां पहुंचा. दरवाजा उस की खूबसूरत बीवी जुलेखा ने खोला. मुझे देख कर वह सहम गई. मैं ने तेज लहजे में पूछा, ‘‘तेरा शौहर कहां है?’’

‘‘जी…जी, वह अभी औफिस से नहीं आए हैं.’’ मैं ने उसे धमकाते हुए कहा, ‘‘देख लड़की, अगर अपनी खैर चाहती है तो विलायत अली के बारे में सब कुछ सचसच बता दे, वरना तेरा अंजाम बहुत बुरा होगा.’’ मेरी डांट से उस का चेहरा पीला पड़ गया. वह डर गई और चेहरा हाथों से छिपा कर फूटफूट कर रो पड़ी. रोतेरोते ही बोली, ‘‘थानेदार साहब, अगर मैं ने कुछ भी बोल दिया तो वह मुझे जिंदा नहीं छोड़ेगा. जान से मार देगा.’’

मैं गरजा, ‘‘कोई तुझे हाथ नहीं लगा सकता. यह कानूनी मामला है. हम तेरी पूरी मदद करेंगे.’’ मेरी बात पर उस के अंदर जैसे कुछ हिम्मत आई. अपनी बात कहने के लिए मुंह खोलने ही वाली थी कि तभी बाहरी दरवाजे से साइकिल का अगला पहिया अंदर आया और तेज आवाज आई, ‘‘ले साइकिल पकड़, कहां मर गई कमीनी?’’

इस आवाज पर वह डर गई. वह दरवाजे की तरफ जाने को हुई, लेकिन उस के उठने से पहले ही एक सिपाही ने आगे बढ़ कर साइकिल पकड़ ली. यह उस का पति नजीर था. अंदर का हाल देख कर वह हैरान रह गया. मुझे सलाम कर के बोला, ‘‘साहब, यह क्या हो रहा है?’’

मैं ने उस से तेज लहजे में पूछा, ‘‘कितनी तनख्वाह है तेरी?’’

‘‘जी 20 हजार रुपए.’’

‘‘क्या स्मगलिंग करता है, कहां से पैसा कमा कर इतना अच्छा घर खरीदा?’’

‘‘नहीं जनाब, कैसी बातें कर रहे हैं? मैं ईमानदार, शरीफ आदमी हूं.’’

उस ने इतना ही कहा था कि मैं ने एक जोरदार थप्पड़ उस के गाल पर मारा. वह उछल कर साइकिल पर गिरा. उस की कमीज पकड़ कर मैं उसी कमरे में ले गया, जहां उस की बीवी बैठी थी. बीवी के सामने हुई बेइज्जती से वह गुस्से से पगला सा गया. उस ने लपक कर सब्जी काटने वाली छुरी उठा ली और तेजी से घुमा कर मुझ पर वार कर दिया. लेकिन छुरी मेरे पेट से 2 इंच फासले से निकल गई. मैं बच गया. मैं ने लपक कर उस की कलाई थाम ली और एक लात उस के पेट पर मारी. वह धड़ाम से गिरा. इस के बाद एएसआई ने उस पर लातघूंसों की बारिश कर दी. मुझे लगा कि जुलेखा के सिर से शौहर के डर का भूत उतर गया है तो मैं ने कहा, ‘‘देख लड़की, अब किसी से डरने की जरूरत नहीं है. बिना डर के सब कुछ बता दे.’’

‘‘इंसपेक्टर साहब, मुझे और मेरी मां को तो कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा?’’

मैं ने उसे भरोसा दिया और मदद का वायदा किया. मैं उसे दूसरे कमरे में ले गया.

वहां उस ने बताया, ‘‘साहब, मुझ पर बड़ा जुल्म हुआ है, मुझे बुरी तरह लूटा गया है. मैं ने यह जुल्म अपनी मां की खातिर बरदाश्त किया. आज से कोई 9 महीने पहले की बात है. मैं स्कूल में पढ़ाती थी. उसी स्कूल का एक कलर्क पता नहीं मुझ से क्यों दुश्मनी रखता था. उस की वजह से मेरी 4-5 माह की तनख्वाह रुकी हुई थी. मेरी एक सहेली ने मुझे नेताजी गनपतलाल से मिलने की सलाह दी. ‘‘मैं उस से मिलने गई. मैं ने सारी विपदा कही. वह मुझ से बहुत अच्छे से मिला और उस ने मेरा काम करवाने का वायदा किया. इसी सिलसिले में मैं उस से मिलती रही. उसी बीच उस की नीयत मुझ पर खराब हो गई. उस ने मुझे इस तरह अपने जाल में फंसाया कि मुझे अपनी बरबादी साफ नजर आने लगी. मैं होशियार हो गई. जब उसे अंदाजा हुआ कि मैं उस के हाथ नहीं आऊंगी तो उस ने पैंतरा बदला. एक दिन उस ने कहा, ‘जुलेखा, मैं तुम से ब्याह करना चाहता हूं.’

‘‘मैं ने तुरंत इनकार कर दिया. उसे ताज्जुब हुआ कि इतने मशहूर और रईस आदमी से मैं ने शादी से इनकार कर दिया. वह गुस्से में पागल हो गया. मुझे धमकी देने लगा कि वह मुझे ऐसी सजा देगा कि मैं उम्र भर तड़पती रहूंगी. शादी से पहले नजीर उस के यहां चमचागिरी करता था. एक बार उस ने मुझ से बेहूदा मजाक किया तो मैं ने उसी समय उसे एक थप्पड़ जड़ दिया. ‘‘इस घटना के कुछ दिनों बाद नजीर मेरी मां के पास मेरा रिश्ता मांगने पहुंचा. मां ने मेरी शादी उस के साथ करने से मना कर दिया. इस के बाद एक औरत मेरी मां के पास नजीर के लिए मेरा रिश्ता मांगने आई. मां ने फिर इनकार कर दिया. इस के बाद दूसरी औरत रिश्ता मांगने आई. मां ने उसे भी डांट कर भगा दिया.

‘‘दूसरे दिन मेरे छोटे भाई को उस के हौस्टल से किसी ने अगवा कर लिया. जब हमें पता चला कि इस के पीछे गनपतलाल का हाथ है तो हम रिपोर्ट दर्ज कराने थाने पहुंचे. लेकिन उस के खिलाफ रिपोर्ट नहीं लिखी गई. हमें डराधमका कर थाने से भगा दिया गया. उसी रात गनपतलाल की तरफ से एक खत मिला, जिस में लिखा था, ‘तुम्हारा भाई वापस हौस्टल पहुंच गया है. ध्यान रखो, अगली बार गायब होगा तो हौस्टल में नहीं, मुरदाखाने में मिलेगा.’

‘‘उस रात मैं और मेरी मां बहुत रोईं. इस के बाद बेबस और मजबूर हो कर मुझे नजीर से शादी करनी पड़ी. तब से मैं बड़ी जिल्लत के साथ जी रही हूं. मेरी मां से भी नजीर बड़ा बुरा व्यवहार करता है. पिछले दिनों उस ने उन्हें कांच का गिलास फेंक कर मारा था.’’ इतना कह कर वह सिसकने लगी. उस की दुखभरी दास्तान सुन कर मेरा भी दिल भर आया. मैं ने पूछा, ‘‘यह कुल्फी वाले विलायत का क्या किस्सा है?’’

तुम बिन जिया जाए कैसे- भाग 3

अपर्णा अपने पर झल्ला उठती कि आखिर वह यहां आई ही क्यों?

एक शाम अपर्णा पड़ोस की एक औरत से बातें कर रही थी. तभी सुमन बड़बड़ाती हुई आई और कहने लगी, ‘‘दीदीदीदी देखिए तो जरा, कैसे आप के संजू ने मेरे बबलू का खिलौना तोड़ दिया.’’

अपर्णा ने गुस्से से अपने बेटे की तरफ देखा और फिर उसे डांटते हुए बोली, ‘‘क्यों संजू, तुम ने बबलू का खिलौना क्यों तोड़ा? यह तुम्हारा छोटा भाई है न? चलो सौरी बोलो.’’

‘‘मम्मी, मैं ने इस का खिलौना नहीं तोड़ा. मैं ने तो सिर्फ खिलौना देखने के लिए मांगा था और इस ने गुस्से से फेंक दिया… मैं तो खिलौना उठा कर उसे दे रहा था, पर मामी को लगा कि मैं ने इस का खिलौना तोड़ा है,’’ संजू रोते हुए बोला.

‘‘देखो कैसे झूठ बोल रहा है आप का बेटा… मैं बता रही हूं दीदी, संभाल लो इसे नहीं तो बड़ा हो कर और कितना झूठ बोलेगा और क्याक्या करेगा पता नहीं… अब क्या बबलू अपने घर में अपने खिलौने से भी नहीं खेल सकता? यह तो समझना चाहिए लोगों को.’’

सुमन की व्यंग्य भरी बातें सुन कर अपर्णा को लगा जैसे उस के दिल में किसी ने तीर चुभो दिया हो. जब उस ने अपनी मां की तरफ देखा, तो वे भी कहने लगीं, ‘‘सच में अपर्णा, तुम्हारा संजू बड़ा ही जिद्दी हो गया है… जरा संभालो इसे, बेटा.’’

अपर्णा स्तब्ध रह गई. बोली, ‘‘पर मां, आप ने देखेसुने बिना ही कैसे संजू को गलत बोल दिया?’’ उस की समझ में नहीं आ रहा था कि मां अचानक नातेपोते में इतना भेद क्यों करने लगीं.

अपर्णा संजू को ले कर अपने कमरे में जाने  ही लगी थी कि तभी सुमन ने फिर एक व्यंग्यबाण छोड़ा, ‘‘अब जब मांबाप ही आपस में झगड़ेंगे तो बच्चा तो झूठा ही निकलेगा न.’’

सुन कर अपर्णा अपने कमरे में आ कर रो पड़ी. फिर सोचने लगी कि सुमन भाभी ने इतनी बड़ी बात कह दी और मां चुप बैठी रहीं. कल तक मां मेरा संजू मेरा संजू कहते नहीं थकती थीं और आज वही संजू सब की आंखों में खटकने लगा? आज मेरी वजह से मेरे बच्चे को सुनना पड़ रहा है. फिर वह खुद को कोसती रही. संजू कितनी देर तक पापापापा कह कर रोता रहा और फिर बिना खाएपीए ही सो गया.

अपर्णा के आंसू बहे जा रहे थे. सच में कितने घमंड के साथ वह यहां आई थी और कहा था जब तक लेने नहीं आओगे, नहीं आऊंगी. पर अब किस मुंह से वह अपने पति के घर जाएगी… अमन तो यही कहेगा न कि लो निकल गई सारी हेकड़ी… ‘जो भी सुनना पड़े पर जाना तो पड़ेगा यहां से,’ सोच उस ने मन ही मन फैसला कर लिया. बड़ी हिम्मत जुटा कर अपर्णा की मां उस के कमरे में उसे खाने के लिए बुलाने आईं

और कहने लगीं, ‘‘अपर्णा, मुझे माफ कर देना… मैं भी क्या करूं… आखिर रहना तो मुझे इन लोगों के साथ ही है न… बेटा, मेरी बात को दिल से न लगाना,’’ और वे रो पड़ीं.

अपर्णा को अपनी मां की बेबसी पर दया आ गई. कहने लगी, ‘‘मां, आप शर्मिंदा न हों. मैं सब समझती हूं, पर गलती तो मेरी है, जो आज भी मायके को अपना घर समझ कर बड़ी शान से यहां रहने आ गई. सोचती हूं अब किस मुंह से जाऊंगी, पर जाना तो पड़ेगा.’’

रात भर यह सोच कर अपर्णा सिसकती रही कि आखिर क्यों लड़की का अपना कोई घर नहीं होता? आज अपर्णा अपनेआप को बड़ा छोटा महसूस कर रही थी. फिर सोचने लगी कि जो भी हो पर अब वही मेरा अपना घर है. यहां सब की बेइज्जती सहने से तो अच्छा है अपने पति की चार बातें सुन ली जाएं. फिर कहां गलत थे अमन? आखिर वे भी तो मेहनत करते हैं. हमारी सारी सुखसुविधाओं का पूरा खयाल रखते हैं और मैं पागल, बेवजह बातबात पर उन से झगड़ती रहती थी.

सच में बहुत कड़वा बोलती हूं मैं… बहुत बुरी हूं मैं… न जाने खुद से क्याक्या बातें

करती रही. फिर संजू की तरफ देखते हुए बड़बड़ाई कि बेटा मुझे माफ कर देना. अपने घमंड में मैं ने यह भी न सोचा कि तुम अपने पापा के बगैर कैसे रहोगे… पर अब हम अपने घर जरूर जाएंगे बेटा.

सुबह भी अपर्णा काफी देर तक अपने कमरे में ही पड़ी रही. शाम को ट्रेन से जाना

था उन्हें. अपना सारा सामान पैक कर रही थी कि तभी उस की मां आ कर कहने लगीं, ‘‘बेटा, मैं चाह कर भी यह नहीं कह सकती कि बेटा और कुछ दिन रुक जाओ.’’

अपर्णा मां को गले लगाते हुए बोली, ‘‘आप मेरी मां हैं और यही मेरे लिए बहुत बड़ी बात है. रही जाने की बात, तो आज नहीं तो कल मुझे जाना ही था. आप अपने को दोषी न मानें.’’

दोनों बात कर ही रही थीं कि उधर से संजू, पापापापा कहते हुए दौड़ता हुआ आया.

‘‘क्या हुआ संजू? पापापापा चिल्लाता हुआ क्यों दौड़ा आ रहा..’’

अपर्णा अपनी बात पूरी कर पाती उस

से पहले ही उस की नजर सामने से आते अमन पर पड़ी तो वह चौंक उठी. बोली, ‘‘अमन आप?’’

अमन को देख अपर्णा के दिल में उस के लिए फिर वही पहले वाला प्यार उमड़ पड़ा. उस की आंखों से आंसू बह निकले. कहने लगी, ‘‘अमन, हम तो खुद ही आ रहे थे आप के पास.’’

अपर्णा का हाथ अपने हाथों में कस कर दबाते हुए अमन बोला, ‘‘अपर्णा, मुझे माफ कर दो और चलो अपने घर… तुम्हारे बिना हमारा घर घर नहीं लगता… तुम्हारे न होने से मेरे सारे दोस्त भी मुझ से किनारा करने लगे हैं. नहीं अब नहीं जीया जाता तुम बिन… हां मैं बहुत अव्यवस्थित किस्म का इनसान हूं पर जैसा भी हूं… अब तुम ही मुझे संभाल सकती हो. अपर्णा मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं,’’ कहतेकहते अमन की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘अमन, गलत आप नहीं मैं…’’

‘‘नहीं,’’ अमन ने अपना हाथ अपर्णा के होंठों पर रखते हुए कहा, ‘‘कोई गलत नहीं था, बस वक्त गलत था. जितना लड़नाझगड़ना था लड़झगड़ लिए, अब और नहीं,’’ कह कर अमन ने अपर्णा को अपने सीने से लगा लिया.

अपर्णा भी पति की बांहों के घेरे में सिमटते हुए बोली, ‘‘मैं भी तुम बिन नहीं जी सकती.’’

अपनापन: भाग 2-मोनिका को विनय की सेक्रेटरी क्यों पसंद नहीं थी?

आजकल तो मुझे सपने भी बहुत अजीबअजीब आने लगे हैं. मैं विनय को पुकारती हुई उन के पीछेपीछे भागती हूं पर वे मेरी आवाज ही नहीं सुनते. वे किसी लड़की का हाथ थामे मुझ से आगे तेजतेज कदमों से चलते चले जाते हैं.

कई बार मेरा मन हुआ कि मैं मोनिका के बारे में इन से पूछूं लेकिन कभी कुछ पूछ नहीं पाई. शायद अंदर का डर कुछ कहने और पूछने से रोकता है. डरती हूं, अगर पूछने पर विनय ने वह सब कह दिया, जो मैं सुनना नहीं चाहती तो क्या होगा? तब मैं क्या करूंगी? कहां जाऊंगी? क्या होगा अंकित का? इसलिए सोचती हूं जैसा चल रहा है चलने दूं. पतिपत्नी का रिश्ता तो कांच के बरतन समान होता है. कहीं उस की मजबूती जांचने के चक्कर में उसे स्वयं ही चकनाचूर न कर बैठूं. इसलिए गुस्सा या शिकायत करने की अपेक्षा पहले से कहीं विनय का ध्यान रखने लगी हूं. उन पर ज्यादा प्यार लुटाने लगी हूं ताकि उन के दिल में मोनिका अपनी जगह न बना सके.

मेरा ध्यान भले ही फोन पर मोनिका की आवाज सुन कर भटक गया था, लेकिन मैं निरंतर बेटे को हिम्मत बंधाने और उस के बहते खून को रोकने की कोशिश में लगी थी. अंकित इतना नुकसान हो जाने के डर से सहमा बिना आवाज निकाले दर्द सह रहा था और आंसू बहा रहा था.

अब कोई और रास्ता नजर नहीं आ रहा था तो मैं ने फौरन साथ बन रही कोठी के बाहर खड़े ठेकेदार को आवाज दे कर जल्दी से कोई औटो या टैक्सी ले आने के लिए कहा. मेरी घबराहट देख कर उस ने परेशानी का कारण पूछा तो मैं जल्दी से उसे सब बता कर मदद की गुहार लगाई. वह फौरन वाहन का इंतजाम करने के लिए दौड़ गया.

इस बीच मैं ने घर में रखे पैसे उठा कर बाहर के ताले की चाबियां उठाई ही थीं कि दरवाजे की घंटी बज उठी. घंटी की आवाज सुनते ही धैर्य हुआ कि जल्दी ही अस्पताल जाने का इंतजाम हो गया. बाहर का दरवाजा खुला ही था. मुझे एक खूबसूरत, स्मार्ट नौजवान तेज कदमों से अंदर आता दिखाई दिया.

यह टैक्सी या औटो चालक तो नहीं हो सकता यह सोच कर ही मैं घबरा गई. यह कौन सी नई मुसीबत आ गई? मुझे दरवाजा खुला नहीं छोड़ना चाहिए था. इसी तरह सफेदपोश बन कर ही तो आजकल लुटेरे घरों में घुसते हैं. लेकिन इस से पहले कि मैं उस से कुछ कहती या पूछती, उस युवक ने प्रश्न किया, ‘‘आप मिसेज शर्मा हैं न? क्या हुआ अंकित को?’’

यह सुन कर मेरी तो पूरी देह कांप गई. यह तो सब कुछ जानता है, पूरी तैयारी के साथ आया है.

मुझ इतना परेशान देख कर वह बोला, ‘‘घबराइए नहीं, मैं जय हूं, मोनिका का हसबैंड. मेरा औफिस यहां पास ही है, उसी ने मुझे फोन कर के यहां भेजा है.’’

तभी उस की नजर अंकित पर पड़ी, जिस के सारे कपड़े खून से लथपथ थे. जगहजगह चोटें लगी हुई थीं. फर्श पर भी यहांवहां खून के छींटे और खून से सनी रुई बिखरी पड़ी थी. डिटौल की गंध से पूरा घर भरा था. यह सब देख कर वह भी घबरा गया. अब तक अंकित भी लगभग बेहोशी की हालत में आ गया था.

‘‘ओहो, इसे तो बहुत चोट आई है. मैं इसे बाहर गाड़ी में बैठाता हूं. आप जल्दी से ताला बंद कर के आ जाइए,’’ इतना कहते हुए उस ने अंकित को पकड़ कर ले जाना चाहा, लेकिन अंकित खड़ा होते ही उस की बांहों में झूल गया. उस ने तुरंत 10 साल के अंकित को गोद में उठाया और गाड़ी की तरफ दौड़ पड़ा.

जय को सब पता था. वह तुरंत ही पास के नर्सिंग होम के इमरजैंसी वार्ड में हमें ले गया. वहां पहुंचते ही डाक्टरों ने अंकित का तुरंत इलाज शुरू कर दिया. एक डाक्टर का कहना था कि खून बहुत बह गया है फिर भी घबराने की बात नहीं, जल्दी सब ठीक हो जाएगा.

अंदर डाक्टर अंकित का इलाज कर रहे थे और जय भागभाग कर उन के कहे अनुसार जरूरी कार्यवाही पूरी कर रहा था. मेरे पास उस के धन्यवाद के लिए शब्द ही नहीं थे. मुझे पता ही नहीं लगा कब एक युवती मेरे पास आ कर मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘अब अंकित कैसा है?’’  मेरे उत्तर देने से पहले ही कमरे से बाहर आते हुए जय ने बताया, ‘‘अंकित अब

ठीक है. ट्रीटमैंट शुरू हो गया है. घबराने की कोई बात नहीं.’’

मुझे समझते देर नहीं लगी कि युवती मोनिका है. इतना सौम्य रूप, इतना सादा पहनावा,

इतना आकर्षक व्यक्तित्व, इतनी मधुरवाणी, मैं तो उसे देखती ही रह गई. पासपास खड़े जय और मोनिका की जोड़ी इतनी अच्छी लग रही थी मानों बने ही एक दूसरे के लिए हों.

‘‘सर की बहुत ही महत्त्वपूर्ण मीटिंग चल रही थी, इसलिए मैं ने उन्हें कुछ नहीं बताया. मीटिंग से जुड़ी जरूरी जानकारियां और पेपर अपनी साथी को दे कर ही मैं यहां आ पाई हूं. लेकिन इस सब में मुझे समय तो लगना ही था, इसलिए मैं ने जय को फोन पर बता कर आप के पास भेज दिया था,’’ मोनिका मुझे बता रही थी.

आशा है सब सुखद होगा

बहुतसमय बाद दीदी के घर जाना हुआ. सोम का केरल तबादला हो गया था इसलिए इतनी दूर से जम्मू आना आसान नहीं था. जब दीदी के बेटे की शादी हुई थी तब बच्चों की सालाना परीक्षा चल रही थी. मैं तब नहीं आ पाई थी और फिर सोम को भी छुट्टी नहीं थी. मौसी के बिना ही उस के भानजे की शादी हो गई थी. मैं इस बार बहुत सारा चाव मन में लिए मायके, ससुराल और दीदी के घर आई. मन में नई बहू से मिलने की चाह सब से ज्यादा थी.

हम ने बड़े जोश और उत्साह से दीदी के घर में पैर रखा. सुना था बड़ी प्यारी है दीदी की बहूरानी. मांबाप की लाडली और एक ही भाई की अकेली बहन. दीदी सास बन कर कैसी लगती होंगी, यह देखने की भी मन में बड़ी चाह थी.

अकसर ऐसा होता है कि सास बन कर

एक नारी सहज नहीं रह पाती. कहींकहीं कुछ सख्त हो जाती है मानो अपनी सास के प्रति दबीघुटी कड़वाहट बहू से बदला ले कर निकालना चाहती हो.

बड़ा लाड़प्यार किया दीदी ने, सिरआंखों पर बैठाया. मगर बहू कहीं नहीं नजर आई मुझे.

‘‘अरे दीदी बहुत हो गई आवभगत… यह बताओ हमारी बहू कहां है?’’

मु?ो दीदी आंखें चुराती सी लगीं. मेरा और सोम का चेहरा देख कर भी अनदेखा करती हुई सी दीदी पुन: इधरउधर की ही बातें करने लगीं, तो सोम से न रहा गया. उन्होंने कहा, ‘‘दीदी, आप कुछ छिपा तो नहीं रहीं… कहां हैं बहू और राजू?’’

‘‘वे हमारे साथ नहीं रहते… बड़े घर की लड़की का हमारे घर में मन नहीं लगा.’’

यह सुन कर हम दोनों अवाक रह गए.

‘‘बड़े घर की लड़की है, मतलब?’’ मैं ने कहा, ‘‘रिश्ता बराबर वालों के साथ नहीं किया

था क्या?’’

दीदी चुप थीं. जीजाजी की नजरों में दीदी के लिए नाराजगी साफ नजर आने लगी थी मुझे

अफसोस हुआ सब जान कर. मध्यवर्गीय

परिवार है जीजाजी का जहां 1-1 पैसा सोचसम?ा कर खर्च किया जाता है.

जिस लड़की ने कभी पानी का गिलास उठा कर खुद नहीं पीया, दीदी उस से सुबह 4 बजे उठ कर सारा घर संभालने की उम्मीद कर रही थीं.

‘‘हम भी तो करते थे,’’ की तर्ज पर दीदी का तुनकना जीजाजी को और भड़का गया.

‘‘तुम टाटाबिरला की बेटी नहीं थीं, जिस के घर में नौकरों की फौज होती है. तुम्हारी मां भी दिन चढ़ते ही घर की चक्की में पिसना शुरू करती थीं और मेरी मां भी. नौकरानी के नाम पर दोनों घरों में एक बरतन मांजने वाली होती थी. तुम्हारा जीवनस्तर हम से मेल खाता था. पाईपाई बचा कर खर्च करना दोनों ही घरों की आदत भी थी और जरूरत भी. इसीलिए तुम ने निभा लिया.

‘‘और वह बच्ची भी तो किसी तरह निभा ही रही थी. दबी आवाज में उस ने मुझ से कहा भी था कि पापा मुझे रसोई के काम की आदत नहीं है… रसोइया और फुलटाइम नौकर रख लीजिए.’’

‘‘क्व4-5 हजार हर महीने मैं कहां से लाती?’’

‘‘तो उस घर की लड़की इस घर में क्यों लाईं जहां नौकरों के नाम पर क्व20-25 हजार हर महीने खर्च किए जाते हैं. रिश्ता और दोस्ती सदा बराबर वालों में करनी चाहिए. मैं सदा समझता रहा, मगर तब तुम्हें लालच था अमीर घर का.’’

‘‘तो लड़की न देते हमारे घर में… वही पड़ताल कर लेते हमारे

घर की.’’

‘‘उन्हें लायक समझदार लड़का मिल रहा था, जिस ने शादी के

6 महीने बाद ही उन का कारोबार संभाल लिया था. उन की पड़ताल तो सही थी. उन की इच्छा पूर्ण हो गई. वे खुश हैं. दुखी तुम हो,’’ कह दनदनाते हुए जीजाजी उठ कर घर से बाहर चले गए.

पता चला शादी के 2-3 महीने बाद ही राजू मेधा को ले कर अलग घर में चला गया था. क्या करता वह? पहले ही दिन से दीदी की बहू से इतनी अपेक्षाएं हो गई थीं. जराजरा बात पर अपमानित होना उसे नागवार गुजर रहा था.

राजू ने समझाया था मां को, ‘‘क्या बात है मां अपनी पसंद की बहू लाईं और अब वही तुम्हें पसंद नहीं… इस तरह क्यों बात करती हो उस से जैसे वह नासमझ बच्ची हो. 26-27 साल की एमबीए लड़की बहू बना कर लाई हो और उस से उम्मीद करती हो 4-5 साल बच्ची की तरह जराजरा बात तुम से पूछ कर करे… अब तुम्हारा जमाना नहीं रहा जब घर वाले जहां बैठा देते थे बेबस बहू वहीं बैठ जाती थी.’’

‘‘नहीं बेटा, बेबस वह क्यों होने लगी. बेबस तो मैं हूं, जिस ने बेटा पालपोस कर किसी को सौंप दिया.’’

‘‘मां, कैसी बेसिरपैर की बातें कर रही हो?’’

जीजाजी पलपल जलती में पानी डालने का अथक प्रयास करते रहे थे, मगर आग दिनप्रतिदिन प्रचंड होती चली गई.

‘‘तुम पीछे की ओर देख कर आगे नहीं बढ़ सकती हो दीदी. जिस काम की उम्मीद तुम बहू से करती रही हो वही तो तुम कम पढ़ीलिखी भी करती रही हो न. उस का एमबीए करना किस काम आया जरा सोचो न? बच्चे कमाते हैं. अगर क्व5 हजार का नौकर अपनी जेब से रख सकते हैं तो तुम्हें क्या एतराज है?’’

दीदी चुपचाप सुनतीं मुंह फुलाए बैठी रहीं.

‘‘राजू और बहू को फोन करो. हम उन से मिलना चाहते हैं. या तो वे यहां चले आएं या फिर हमें

अपना पता बता दें हम उन के घर चले जाते हैं,’’ सोम ने अपना निर्णय सुना दिया.

यह सुनते ही दीदी का पारा सातवें आसमान जा पहुंचा. बोलीं, ‘‘कोई नहीं जाएगा उन के घर और न ही वह लड़की यहां आएगी.’’

‘‘देखा शोभा इस का रवैया? राजू बेचारा 2 पाटों में पिस रहा है. अरे, जैसा घर, जैसी लड़की तुम ने पसंद की राजू ने हां कर दी… अब चाहती हो बच्चे साथसाथ भी न रहें… यह कैसे संभव है? जीना हराम कर दिया है तुम ने सब का… न मुझे उन से मिलने देती हो न उन्हें यहां आने देती हो.’’

जीजाजी इकलौती संतान के वियोग में पागल से होते जा रहे थे. सदा अपनी ही चलाने वाली दीदी सम?ा नहीं पा रही थीं कि वे बबूल की फसल बो कर आम नहीं खा सकतीं. पिछले 7-8 महीने से लगातार इस तनाव ने जीजाजी की सेहत पर भी बुरा असर डाला था. मेज पर दवाओं का ढेर लगा था.

‘‘मैं अपने घर की समस्या किसकिस के पास ले जाऊं? कौन समझएगा इस औरत को जब मैं ही न सम?ा सका? मेधा हर रोज फोन कर के हमारा हालचाल पूछती है. राजू ने तो अपना घर भी ले लिया है.’’

दीदी का तमतमाया चेहरा देख सोम और मैं सम?ा नहीं पा रहे थे कि क्या करें. आज के परिवेश में इतनी सहनशीलता किसी में नहीं रही जो तनाव को पी जाए.

तभी सोम ने इशारा कर के मुझे बाहर बुलाया और कुछ सम?ाया. फिर जीजाजी को भी बाहर बुला लिया.

दीदी अंदर बरतन समेट रही थीं.

10 मिनट के बाद मैं अंदर चली आई और सोम जीजाजी के साथ राजू के घर चले गए.

‘‘कहां गए दोनों?’’ विचित्र सा भाव था दीदी की आंखों में.

‘‘जीजाजी की छाती में दर्द होने लगा है… कितना परेशान हो गए हैं राजू की वजह से. सोम उन्हें डाक्टर के पास ले गए हैं,’’ मैं ने झूठ बोला.

सुन कर दीदी घबरा गईं. मगर बोली कुछ भी नहीं.

‘‘हर वक्त कलहक्लेश हो घर में तो ऐसा होता ही है. इस में नया क्या है… सहने की भी एक हद होती है. तुम तो रोपीट लेती हो, जीजाजी तो रो भी नहीं सकते फिर बीमार नहीं होंगे तो क्या होगा? अगर कुछ ऊंचनीच हो गई तो क्या होगा, जानती हो? जवानी में भी आजकल लोगों में सहनशीलता नहीं रही और तुम 60 साल के आदमी से यह आस लगाए बैठी. क्या तुम्हारी जिद पर अपना बुढ़ापा खराब कर लें वे?’’

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’

‘‘मतलब यह है कि बेकार की जिद छोड़ो और बच्चों से मिलनाजुलना शुरू करो. तुम नहीं मिलना चाहतीं तो जीजाजी को तो मत रोको. अगर दिल का रोग लग गया तो हाथ मलती रह जाओगी दीदी… अकेली रह जाओगी. तब पछतावे के सिवा कुछ हाथ नहीं लगेगा. बहू अमीर घर की है उस का रहनसहन वैसा है तो क्या यह उस का दोष हो गया? अपने जैसे घर की कोई क्यों नहीं ले आईं, जिस का जीवनस्तर तुम से मिलताजुलता होता और तुम्हारे मन में भी कोई हीनभावना न आती.

‘‘दीदी, क्या यही सच नहीं है कि तुम बड़े घर की बच्ची को पचा नहीं पाई हो. जो लड़की अपने पिता के काम में सहयोग कर के इतना कमा रही थी उस ने तुम जैसे मध्यवर्गीय परिवार में शादी को हां कर दी सिर्फ इसलिए कि इस घर की सादगी और संस्कार उसे पसंद आ गए थे. राजू उसे अच्छा लगा था और…’’

‘‘बस करो शुभा… तुम भी राजू की बोली मत बोलो,’’ दीदी बीच ही में बोल पड़ीं.

‘‘इस का मतलब मैं ने भी वही समझ है, जो राजू को समझ में आया है… मेधा एक अच्छी लड़की है… वह तो तुम्हें अपनाना चाहती है. बस, तुम्हीं उस की नहीं बनना चाहती हो.’’

दीदी कुछ बोलीं नहीं.

‘‘तुम दोनों अब बूढ़े हो रहे हो… शरीर कमजोर होगा तब बच्चों का सहारा चाहिए… बच्चे न बुलाएं तो भी समझ में आता है. तुम्हारे बच्चे सिरआंखों पर बैठाते हैं.’’

आधा घंटा चुप्पी छाई रही. सोम का फोन आया. उन्होंने कुछ और समझाया मुझे.

‘‘जीजाजी की छाती में बहुत दर्द हो रहा है क्या? राजू को बुला लिया क्या आप ने? अच्छा किया. हम भला इस शहर में किसे जानते हैं,’’ मेरा स्वर कुछ ऊंचा हो गया तो दीदी के भी कान खड़े हो गए.

‘‘राजू को बुला लिया… क्या मतलब? उसे बुलाने की क्या जरूरत थी,’’ दीदी ने पूछा.

मैं अवाक रह गई कि दीदी को जीजाजी की तबीयत की चिंता नहीं. राजू को क्यों बुला लिया बस यही प्रश्न किया. मैं हैरान थी कि एक औरत इतनी भी जिद कर सकती है. बहू से नफरत इतनी ज्यादा कि पति जाए तो जाए बेटा घर न आए. मैं ने उसी पल यह निर्णय ले लिया कि दीदी की जिद को खादपानी डाल कर एक विशालकाय पेड़ नहीं बनने देना. एक स्त्री का त्रियाहठ इतना नहीं बढ़ने देना कि घर ही तबाह हो जाए.

दीदी को जीजाजी की पीड़ा समझ में नहीं आ रही तो वही भाषा बोलनी पड़ेगी जिसे दीदी समझे. 2 घंटे बाद स्थिति बदल चुकी थी. राजू और मेधा हमारे सामने थे. आते ही उस ने मेरे और दीदी के पांव छुए.

‘‘पापा को हलका दिल का दौरा पड़ा है मम्मी… मौसाजी और डाक्टर साहब उधर हैं… चलिए, आप भी वहां.’’

दीदी को हम पर शक था तभी तो वे यह सुन कर भी इतनी परेशान नहीं हुई थीं.

‘‘हांहां, चलो दीदी राजू के घर,’’ मैं ने झट से कहा.

राजू और मेधा अंदर कमरे में चले गए और जब बाहर आए तब उन के हाथ दीदी और जीजाजी के अटैची थे.

‘‘चलिए मम्मी… पापा को पूरा आराम चाहिए और पूरी देखभाल… जो आप अकेली नहीं कर पाएंगी… चलिए उठिए न मम्मी क्या सोच रही हैं पापा को आप की जरूरत है… जल्दी उठिए.’’

राजू ने हाथ पकड़ कर उठाया और फिर हम सब बाहर खड़ी गाड़ी में आ बैठे. लगभग आधे घंटे के बाद हम राजू के घर के बाहर खड़े थे. खुशी के अतिरेक में मेरी आंखें भर आईं कि राजू इतना बड़ा हो गया है कि अपने घर के बाहर खड़ा हमारा गृहप्रवेश करा रहा है. बड़े स्नेह और सम्मान से मेधा दीदी को उन के कमरे में ले गई.

‘‘मम्मी, यह रहा आप का कमरा,’’ मेधा का चेहरा संतोष से दमक रहा था, ‘‘यह आप की अलमारी, यह बाथरूम, सामने दीवार पर टीवी… और भी आप जो चाहेंगी आ जाएगा.’’

‘‘तेरे पापा कहां हैं?’’ दीदी का स्वर कड़वा ही था.

‘‘वह उधर कमरे में लेटे हैं… डाक्टर और मौसाजी भी वहीं हैं.’’

तनिक सी चिंता उभर आई दीदी के माथे पर. फिर तुरंत वह उन के पास पहुंच गईं. वास्तव में जीजाजी लेटे हुए थे.

डाक्टर उन्हें समझ रहे थे, ‘‘तनाव से बचिए आप. खुश रहने की कोशिश कीजिए… क्या परेशानी है आप को जरा बताइए न? आप का बेटा होनहार है. बहू भी इतनी अच्छी है. आप की कोई जिम्मेदारी भी नहीं है तो फिर क्यों दिल का रोग लगाने जा रहे हैं आप?’’

जीजाजी चुप थे. दीदी की आंखें भर आई थीं. शायद अब दीदी को बीमारी का विश्वास हो गया था. सोम मुझे देख कर मंदमंद मुसकराए. मेधा सब के लिए चाय और नाश्ता ले आई. जीजाजी के लिए सूप और ब्रैड. चैन दिख रहा था अब जीजाजी के चेहरे पर… आंखें मूंदे चुपचाप लेटे थे. शुरुआत हो चुकी थी. आशा है, परिणाम भी सुखद ही होगा.

विमोहिता: कैसे बदल गई अनिता की जिंदगी

सोने की सास: भाग 2- क्यों बदल गई सास की प्रशंसा करने वाली चंद्रा

नई ओर बहू सुष्मिता मेरी अचरज से देख रही थी कि मैं मां हो कर भी अपनी ही बेटी के विरुद्ध बोल रही थी.

चंद्रा और श्रीकांतजी को 2 दिनों के बाद कोलकाता लौटना था. उन के लौटने से पहले मैं ने समधनजी से कहा, ‘‘चंद्रा में अभी थोड़ा बचपना है. आप उस की बातों पर ध्यान मत दिया कीजिए.’’

वे हंसती हुई बोलीं, ‘‘वह जैसी भी है, अब मेरी बेटी है. आप उस की चिंता मत कीजिए.’’

मुझे लगा, जैसे मुझ पर से कोई बोझ उतर गया. फिर सोचा, चंद्रा तो कोलकाता जा रही है और उस की सास यहां रहेंगी. धीरेधीरे संबंध खुदबखुद सुधर जाएंगे.

दिन बीत रहे थे. बिटिया ने कोलकाता से फोन किया, ‘‘पापा के साथ आओ न मेरा घर देखने.’’

मैं बोली, ‘‘अभी तेरे पापा को दफ्तर से छुट्टी नहीं मिलेगी. हम फिर कभी आएंगे. पहले तुम अपने सासससुर को बुलाओ न अपना घर देखने के लिए? अब तो वहां का घर संभालने तुम्हारी देवरानी भी आ गई है.’’

‘‘नहीं मां, वे आएंगी तो मेरी गृहस्थी में 100 तरह के नुक्स निकालेंगी. मैं नहीं बुलाऊंगी उन्हें.’’

‘‘अरे, बिटिया रानी, कैसी बात कर रही हो? वे आखिर तुम्हारे पति की मां हैं.’’

‘‘हुंह मां. तुम नहीं जानतीं कैसे पाला है उन्होंने इन को. तुम्हें पता है, वे इन्हें बासी रोटियों का नाश्ता करा कर स्कूल भेजती थीं.’’

‘‘अरे पगली, बासी रोटियों का नाश्ता करने में क्या बुराई है? राजस्थानी घरों में बासी रोटियों का नाश्ता ही किया जाता है. बचपन में हम भाईबहन भी बासी रोटियों का नाश्ता कर के ही स्कूल जाते थे. सच कहूं, तो मुझे तो अभी भी बासी रोटियां खूब अच्छी लगती हैं पर तुम्हारे पापा बासी रोटियां नहीं खाना चाहते, इसीलिए यहां नाश्ते में ताजा रोटियां बनाती हैं.’’

‘‘एक यही बात नहीं और भी बहुत बातें हैं, फोन पर क्याक्या बतलाऊं?’’

‘‘सुनो चंद्रा, कोई भी मांबाप अपनी संतान को अपने जमाने के चलन और अपनी सामर्थ्य के अनुसार बेहतर से बेहतर ढंग से पालना चाहता है.’’

‘‘तुम फिर उन्हीं का पक्ष लेने लगीं.’’

‘‘अच्छा, बाद में मिलने पर सुनूंगी और सब. अभी फोन रखती हूं. श्रीकांतजी के आने का समय हो रहा है, तुम भी चायनाश्ते की तैयारी करो,’’ कह कर मैं ने फोन रख दिया.

समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे समझाऊं अपनी इस नादान बिटिया को. जमाईजी भी ऐसी बातें क्यों बताते हैं इस नासमझ लड़की को.

 

कुछ दिनों बाद आखिर अपर्णाजी अपने बेटेबहू के घर गईं. जितने दिन वे वहां रहीं, शिकायतों का सिलसिला थमा रहा. सासूजी वापस गईं, तब चंद्रा और श्रीकांतजी भी उन के साथ गए, क्योंकि वहां एक चचेरे देवर का विवाह था. उस के बाद जब चंद्रा लौटी, तो फिर उस की शिकायतों का सिलसिला शुरू हो गया. एक दिन कहने लगी, ‘‘मां तुम्हें पता है, मेरी सासूजी मेरी देवरानी को कितना दबा कर रखती हैं?’’

मैं चौंकी, ‘‘लेकिन वे तो फोन पर तुम्हारी और तुम्हारी देवरानी की भी सदा तारीफ ही किया करती हैं.’’

‘‘तारीफ करकर के ही तो उस बेचारी का सारा तेल निकाल लेती हैं.’’

‘‘देखो बिटिया, गृहस्थी में काम तो सभी के घर रहता है. तुम्हारी 2 जनों की गृहस्थी में भी काम तो होंगे ही.’’

वह चिढ़ कर बोली, ‘‘उन्हें प्यारी भी तो वही लगती है. असल में जो पास रहता है, वही  प्यारा भी लगता है. दूर वाला तो मन से भी दूर हो जाता है.’’

‘‘क्या कह रही हो चंद्रा, मांबाप के लिए तो उन के सभी बच्चे बराबर होते हैं. वैसे, मुझे तो लगता है कि दूर रहने वालों की याद मांबाप को अधिक सताती है.’’

उस ने कहा, ‘‘अच्छा, छोड़ो यह सब. अब बतलाओ, तुम लोग कब आ रहे हो?’’

‘‘तुम्हारे पापा से बात करती हूं.’’

आखिर हम ने चंद्रा के यहां जाने का कार्यक्रम बना ही लिया. वहां जा कर 4-5 दिन तो ठीकठाक गुजरे. उस के बाद देखा कि वह हमेशा श्रीकांतजी पर रोब जमाती रहती. जबतब मुंह फुला कर बैठ जाती. वे बेचारे खुशामद करते आगेपीछे घूमते रहते. उसके झगड़े की मुख्य वजह होती थी कि वे दफ्तर देर से लौटते समय उस का बताया सामान लाना क्यों भूल गए या देर से क्यों आए अथवा अमुक काम उस के मनमुताबिक क्यों नहीं किया?

हम लोग उसे समझाने की कोशिश करते कि नौकरी वाले को तो काम अधिक होने की वजह से देर हो ही जाती है, इस में उन का भला क्या दोष. घर आने की हड़बड़ी में कभीकभी बाजार का भी कोई काम छूट सकता है, इस बात के लिए इतना गुस्सा करना भी ठीक नहीं. लेकिन श्रीकांत अपने भुलक्कड़ स्वभाव से मजबूर थे, तो वह अपने गुस्सैल स्वभाव से.

एक दिन मैं ने उसे फिर समझाना चाहा, तो वह बिगड़ कर बोली, ‘‘अब तुम भी मेरी सास की तरह बातें करने लगीं. वे हम दोनों के बीच पड़ती हैं, तो मुझे एकदम अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘जैसे मैं तुम्हारी मां हूं, वैसे ही वे दामादजी की मां हैं. बच्चों को आपस में लड़तेझगड़ते देख कर मांबाप को तकलीफ तो होती ही है. फिर इस झगड़े का तुम दोनों के स्वास्थ्य पर भी तो बुरा असर पड़ सकता है. समझाना हमारा फर्ज है बाकी तुम जानो.’’

मेरी इस बात का चंद्रा पर कुछ प्रभाव तो पड़ा. अब वह जमाईजी पर कम ही नाराज होती है पर सास की बुराई का सिलसिला चलता रहा. श्रीकांतजी के सामने भी वह उन की मां की निंदा करती. जब अपने बारे में कहने को अधिक नहीं बचता, तो अपनी देवरानी को माध्यम बना कर वह सास में खोट निकालती रहती. एक दिन कहने लगी, ‘‘उस बेचारी को तो सब के खाने के बाद अंत में बचाखुचा खाना मिलता है.’’

मैं ने सोचा, इस की हर बात तो झूठ नहीं हो सकती. मैं इस की सास से मिली ही कितना हूं, जो उन्हें पूरी तरह से जान सकूं.

आखिर हमारी छुट्टी पूरी हुई और हम दोनों अपने घर लौट आए.

कुछ ही दिनों बाद सूचना मिली कि बिटिया की सास अपर्णाजी बीमार हैं. चंद्रा और श्रीकांतजी उन्हें देखने गए थे. हमारा कार्यक्रम देर से बना इसलिए जब हम पहुंचे तब तक वे दोनों वापस जा चुके थे. अपर्णाजी की तबीयत भी कुछ सुधर गई थी, पर कमजोरी काफी थी और डाक्टर ने अभी उन्हें कुछ दिन आराम करने की सलाह दी थी.

मैं ने गौर किया, चंद्रा की देवरानी जितनी हंसमुख है, उतनी ही कर्मठ भी. वह बड़े मन से अपनी सास अपर्णाजी की सेवा में लगी रहती. मैं ने यह भी देखा कि वह खाना सब से आखिर में खाती. सास बिस्तर पर पड़ीपड़ी उसे पहले खाने के लिए कहती रहतीं.

एक दिन मैं ने भी टोका, ‘‘सुष्मिता बेटा, तुम भी सब के साथ खा लिया करो न. रोजरोज देर तक भूखे रहना ठीक नहीं है.’’

वह हंसती हुई बोली, ‘‘बच्चे स्कूल से देर से आते हैं इसलिए उन्हें खिलाए बिना मुझ से खाया ही नहीं जाता. कभी ज्यादा भूख लग जाए, तो उन से पहले खाने बैठ जाऊं तो ग्रास मेरे गले से नीचे नहीं उतरता.’’

‘‘हां, मां का मन तो कुछ ऐसा ही होता है,’’ मैं बोली.

बच्चे खाने में देर भी बहुत लगाते. दोनों ही छोटे थे और उन्हें बहलाफुसला कर खिलाने में काफी समय लग जाता था.

बिटिया रानी को यह सब बतलाती, तो वह कहती, ‘‘अरे, तुम नहीं जानतीं मेरी सास का असली रूप. उन के डर से ही तो वह बेचारी दिनरात भूखीप्यासी लगी रहती है और सब से आखिर में खाती है.’’

बहुओं के प्रति उस की सास के निश्छल स्नेह में मुझे तो कोई बनावट नजर नहीं आई थी, लेकिन मेरी बिटिया रानी को कौन समझाए, वह तो अपने पति श्रीकांतजी के कान भी उन की मां के विरुद्ध झूठीसच्ची बातें कह कर भरती रहती. नमकमिर्च लगा कर कही गई उस की झूठी बातों पर धीरेधीरे जमाईजी यकीन भी करने लगे थे.

जमाईजी और बच्चे सुबह के गए शाम को घर लौटते थे. चंद्रा अकेली घर पर ऊबती रहती थी. एक दिन मैं ने उस से कहा, ‘‘तुम भी कहीं कोई काम क्यों नहीं खोज लेतीं. इस से वक्त तो अच्छा कटेगा ही, तुम्हारी पढ़ाईलिखाई भी काम में आ जाएगी.’’

मेरी बात उसे जंच गई. वह अखबारों में विज्ञापन देख कर नौकरी के लिए आवदेन करने लगी. संयोगवश उसे उस की योग्यता के अनुरूप नौकरी मिल गई.

अब वह व्यस्त हो गई. चुगलीचर्चा का वक्त उसे कम ही मिलता था. अपने पति से

भी उस की अच्छी पटने लगी. निंदा के बदले उन की प्रशंसा ही करती कि वे घर के कामों में भी उस की मदद करते हैं, क्योंकि सुबह दोनों को लगभग साथ ही निकलना होता है.

उसकी गली में- भाग 2 : आखिर क्या हुआ उस दिन

इस की वजह यह थी कि केस मेरे पास आने से उस की बेइज्जती हुई थी. थाने में 4-5 सिपाही उस के पक्के चमचे थे. मैं ने विलायत को लौकअप के बजाय अलग कमरे में सुलाया था. जाहिर है, उस के फरार होने से मेरी ही बदनामी होनी थी. मुलजिम तो दीवार तोड़ कर जा नहीं सकता था. मुझे यकीन हो गया कि उसे भगाने में बलराज की ही साजिश थी. मैं विलायत अली के घर पहुंचा. उस के बूढ़े बाप ने दरवाजा खोला. मुझे देख कर वह कांपने लगा. मांबहन भी बाहर आ गईं. सभी बुरी तरह से डरे हुए थे. मां ने पूछा, ‘‘थानेदार साहब, मेरा पुत्तर तो अच्छा है न?’’

उस की बात का जवाब दिए बिना मैं ने फौरन घर की तलाशी ली. पर विलायत अली वहां नहीं था. मैं ने उस की मां से कहा, ‘‘तेरे पुत्तर को मेरी मेहरबानी रास नहीं आई. वह थाने से फरार हो गया है. सचसच बता दे कि वह कहां छिप सकता है? इसी में उस की खैर है.’’ ‘‘मुझे नहीं मालूम वह कहां है. पर मैं तुम से कुछ नहीं छिपाऊंगी. उस की पूरी कहानी बताए देती हूं. साहब मेरा बेटा विलायत स्कूल के सामने ठेली लगा कर कुल्फी बेचता था. पता नहीं कैसे स्कूल की एक मास्टरनी सुलेखा का दिल उस पर आ गया. कुछ दिन तो यह सब चला, फिर उस मास्टरनी ने सब कुछ भुला कर किसी और से शादी कर ली.

‘‘इस से मेरे बेटे को इतनी ठेस पहुंची कि वह फकीरों की तरह मारामारा फिरने लगा. उस ने अपना कामधंधा सब छोड़ दिया. सुबह को घर से जाता तो शाम को ही घर आता. 4-5 दिन पहले पुलिस उसे चोरी के आरोप में पकड़ ले गई. साहब, मैं दावे से कह सकती हूं कि मेरा बेटा चोरी हरगिज नहीं कर सकता. मुझे तो इस में उस मास्टरनी की ही साजिश लगती है.’’

उस की बात सुन कर मैं बाहर आ गया. मेरा इरादा मास्टरनी के घर जाने का था. मास्टरनी की गली में नुक्कड़ पर पान की दुकान थी. वहीं पर मैं ने जीप रुकवा ली. पान वाला मुझे जानता था. मैं ने उस से विलायत अली और मास्टरनी के बारे में पूछा तो उस ने मास्टरनी के बारे में मुझे ढेर सारी जानकारी दी. मैं पान वाले की दुकान पर खड़ा था, तभी मास्टरनी के घर से एक आदमी साइकिल ले कर निकला. पता चला कि वह उस मास्टरनी का पति नजीर था, जो इनकम टैक्स विभाग में चपरासी था. उस के पीछेपीछे मास्टरनी भी दरवाजे तक आ गई. मैं देख कर हैरान रह गया कि अदने और साधारण से आदमी से खूबसूरती की मल्लिका मास्टरनी ने शादी कैसे कर ली?

और तो और, वह उम्र में भी उस से काफी बड़ा था. उस की पहली बीवी मर चुकी थी. यह मकान उस ने 4-5 महीने पहले ही लिया था. इस से पहले वह एक कमरे में किराए पर रहता था. चपरासी की नौकरी में उस ने इतना आलीशान मकान कैसे खरीद लिया, इस बात की मुझे हैरानी हो रही थी. अभी मैं सोच ही रहा था कि गनपतलाल लपक कर मेरे पास आया. मैं उसे अच्छी तरह से जानता था. उस का अपनी पार्टी में अच्छा रसूख था. हाथ मिला कर वह मुझ से घर चलने का अनुरोध करने लगा. मैं ने उस से कहा कि मैं नजीर के बारे में मालूम करने आया था. इस पर उस ने कहा, ‘‘फिर तो आप मेरे साथ चलिए. उस के बारे में मुझ से ज्यादा कौन बता सकता है.’’

मेरा मकसद विलायत तक पहुंचना था. सोचा कि शायद गनपतलाल से ही उस के बारे में कोई जानकारी मिल जाए, इसलिए मैं उस के साथ उस की कोठी में चला गया. मेरे पूछने पर उस ने बताया, ‘‘नजीर काफी तेज बंदा है. वह मेरे पास अकसर आताजाता रहता है. इनकम टैक्स में चपरासी है, पर उस की काफी पैठ है. शायद उस ने अभी कोई लंबा हाथ मारा है, जो कोठी खरीद ली है. खान साहब, इस की बीवी बड़ी खूबसूरत है. पता नहीं इस ने क्या चक्कर चलाया कि उस ने इस से शादी कर ली.’’ मैं ने पूछा, ‘‘आप इस की बीवी के बारे में कुछ जानते हों तो बताएं.’’

वह कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘खान साहब, मैं उस की मां को ही बुलवा लेता हूं. आप जो चाहें, उसी से पूछ लेना.’’ कह कर उस ने अपने एक आदमी को कुछ कह कर भेज दिया. करीब 10 मिनट में उस का आदमी एक बूढ़ी औरत को बुला लाया. वह औरत डरीसहमी थी. उस के माथे पर पट्टी बंधी थी. मैं ने पूछा, ‘‘अम्मा, कल रात एक मुलजिम थाने से फरार हुआ है. मैं ने सुना है कि तुम्हारी बेटी का उस से नाम जोड़ा जाता रहा है.’’

मेरी इस बात से उस का चेहरा उतर गया, वह दुखी हो कर बोली, ‘‘साहब, मेरी बेटी का उस से कोई ताल्लुक नहीं था, वह लड़का ही उस के पीछे पड़ा था. अब शादी के बाद वह बात भी खत्म हो गई,’’

उस की बात से मैं संतुष्ट नहीं था. इसलिए वहां से 12 बजे के करीब मैं थाने आ गया. थाने में सब के मुंह पर हवाइयां उड़ रही थीं. मैं डीएसपी साहब के कमरे में पहुंचा. बलराज मुंह फुलाए एक कोने में खड़ा था. डीएसपी साहब काफी गुस्से में थे. मेरे सैल्यूट के जवाब में बोले, ‘‘क्या रिपोर्ट है नवाज?’’

मैं ने कहा, ‘‘सर, सुबह से उसी कोशिश में लगा हुआ हूं, पर अभी कुछ पता नहीं चला.’’

‘‘नवाज खां, कोशिश नहीं, मुझे रिजल्ट चाहिए और मुलजिम मिलना चाहिए. तुम्हें पता नहीं कि यहां क्या हुआ? आधे घंटे पहले थाने के सामने 2 हजार आदमी जमा हो गए थे. वे मांग कर रहे थे कि पुलिस के जुल्म से जो आदमी मरा है, उस की मौत की जिम्मेदार पुलिस है. मरने वाले की लाश हमें दो.’’ डीएसपी साहब ने गुस्से में कहा.

बलराज तीखे स्वर में बोला, ‘‘यह सब नवाज खान की नरमी की वजह से हुआ.’’

‘‘खामोश रहो,’’ मैं डीएसपी साहब की मौजूदगी में चिल्ला पड़ा, ‘‘यह मेरी नरमी की वजह से नहीं, तुम्हारी सख्ती का नतीजा है. तुम ने उसे जानवरों की तरह मारा. तुम ने उस से पैसे वसूल किए. तुम्हारे मातहत ने उस की मांबहन को तंग किया. सिर्फ तुम्हारी वजह से वह छत से कूद कर खुदकुशी कर रहा था. गनीमत समझो कि टाहम पर पहुंच कर मैं ने उसे बचा लिया, वरना तुम्हारी तो बेल्ट उतर चुकी होती.’’ मेरा गुस्सा देख कर बलराज चुप हो गया. इस बार डीएसपी साहब नरमी से बोले, ‘‘देखो, आपस में अंगुलियां उठाने से कोई फायदा नहीं. यह हमारी इज्जत का सवाल बन गया है. कुछ सियासी लोग मामले को हवा दे रहे हैं. इस वक्त साढ़े 12 बजे हैं. कल सुबह साढ़े 10 बजे तक मुलजिम मिल जाना चाहिए. हमारे पास 22 घंटे हैं. उसे ढूंढ़ कर लाना तुम दोनों की जिम्मेदारी है. इस बारे में जो मदद चाहिए, वह मिलेगी. एसपी साहब भी कौन्टैक्ट में हैं.’’

मैं अपने कमरे में गया. एएसआई विलायत अली के 4 दोस्तों को पकड़ लाया था, पर उन से कोई खास बात मालूम नहीं हो सकी थी. बस यही पता चला कि विलायत स्कूल के सामने कुल्फी बेचता था. मास्टरनी जुलेखा उसी स्कूल में पढ़ाती थी. एक दिन वह स्कूल से निकल कर तांगे में बैठी तो घोड़ा बिदक कर भागा. विलायत अली फौरन तांगे के पीछे भागा. कुछ दूर दौड़ कर वह उस पर चढ़ गया. तांगा एक पुलिया से टकराया और नहर में गिर गया. जुलेखा पानी के तेज बहाव में बहने लगी. बड़ी मुश्किल से विलायत ने उसे बचा कर बाहर निकाला.

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