Valentine’s Day 2024: अपनी खातिर- तीन किरदारों की अजब प्रेम की गजब कहानी

जिस शादी समारोह में मैं अपने पति के साथ शामिल होने आई, उस में शिखा भी मौजूद थी. उस का कुछ दूरी से मेरी तरफ नफरत व गुस्से से भरी नजरों से देखना मेरे मन में किसी तरह की बेचैनी या अपराधबोध का भाव पैदा करने में असफल रहा था.

शिखा मेरी कालेज की अच्छी सहेलियों में से एक है. करीब 4 महीने पहले मैं ने मुंबई को विदा कह कर दिल्ली में जब नया जौब शुरू किया, तो शिखा से मुलाकातों का सिलसिला फिर से शुरू हो गया था.

जिस शाम मैं पहली बार उस के औफिस के बाहर उस से मिली, विवेक भी उस के साथ था. वह घंटे भर हम दोनों सहेलियों के साथ रहा और इस पहली मुलाकात में ही मैं उस के शानदार व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुई थी.

‘‘क्या विवेक तुझ से प्यार करता है,’’ उस के जाते ही मैं ने उत्तेजित लहजे में शिखा से यह सवाल पूछा था.

‘‘हां, और मुझ से शादी भी करना चाहता है,’’ ऐसा जवाब देते हुए वह शरमा गई थी.

‘‘यह तो अच्छी खबर है, पर यह बता कि रोहित तेरी जिंदगी से कहां गायब हो गया है?’’ मैं ने उस के उस पुराने प्रेमी के बारे में सवाल किया जिस के साथ घर बसाने की इच्छा वह करीब 6 महीने पहले हुई हमारी मुलाकात तक अपने मन में बसाए हुए थी.

आंतरिक कशमकश दर्शाने वाले भाव फौरन उस की आंखों में उभरे और उस ने संजीदा लहजे में जवाब दिया, ‘‘वह मेरी जिंदगी से निकल गया था, पर…’’

‘‘पर क्यों?’’

‘‘मैं विदेश जा कर बसने में बिलकुल दिलचस्पी नहीं रखती, पर वह मेरे लाख मना करने के बावजूद अपने जीजाजी के साथ बिजनैस करने 3 महीने पहले अमेरिका चला गया था. उस समय मैं ने यह मान लिया था कि हमारा रिश्ता खत्म हो गया है.’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘उस का न वहां काम बना और न ही दिल लगा, तो वह 15 दिन पहले वापस भारत लौट आया.’’

‘‘और रोहित के वापस लौटने तक तू विवेक के प्यार में पड़ चुकी थी.’’

‘‘हां.’’

‘‘तो अब तू रोहित को सारी बातें साफसाफ क्यों नहीं बता देती?’’

‘‘यह मामला इतना सीधा नहीं है, नेहा. मैं आज भी अपने दिल को टटोलने पर पाती हूं कि रोहित के लिए वहां प्यार के भाव मौजूद हैं.’’

‘‘और विवेक से भी तुझे प्यार है?’’

‘‘हां, मैं उस के साथ बहुत खुश रहती हूं. उस का साथ मुझे बहुत पसंद है, पर…’’

‘‘पर कोई कमी है क्या उस में?’’

‘‘तू तो जानती ही है कि रोमांस को मैं कितना ज्यादा महत्त्व देती हूं. मुझे ऐसा जीवनसाथी चाहिए जो मेरे सारे नाजनखरे उठाते हुए मेरे आगेपीछे घूमे, पर विवेक वैसा नहीं करता. उस का कहना है कि वह मेरे साथ तो चल सकता है, पर मेरे आगेपीछे कभी नहीं घूमेगा. वह चाहता है कि मैं अपने बलबूते पर खुश रहने की कला में माहिर बनूं.’’

उस के मन की उलझन को मैं जल्दी ही समझ गई थी. रोहित अमीर बाप का बेटा है और शिखा पर जान छिड़कता है. रोहित उस की जिंदगी से इतनी देर के लिए दूर नहीं हुआ था कि वह उस के दिल से पूरी तरह निकल जाता.

दूसरी तरफ वह विवेक के आकर्षक व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित है, पर उस के साथ जुड़ कर मिलने वाली सुरक्षा के प्रति ज्यादा आश्वस्त नहीं है. वह अपने पुराने प्रेमी को अपनी उंगलियों पर नचा सकती है, पर विवेक के साथ ऐसा करना उस के लिए संभव नहीं.

हम दोनों ने कुछ देर रोहित और विवेक के बारे में बातें की, पर वह किसी एक को भावी जीवनसाथी चुनने का फैसला करने में असफल रही थी.

मेरा ममेरा भाई कपिल प्रैस रिपोर्टर है. उस के बहुत अच्छे कौंटैक्ट हैं. मैं ने उस से कहा कि विवेक की जिंदगी के बारे में खोजबीन करने पर उसे अगर कोई खास बात मालूम पड़े, तो मुझे जरूर बताए.

उस ने अगले दिन शाम को ही मुझे यह चटपटी खबर सुना दी कि विवेक का सविता नाम की इंटीरियर डिजाइनर के साथ पिछले 2 साल से अफेयर चल रहा था, पर फिलहाल दोनों का मिलना कम हो गया था.

मैं ने यह खबर उसी शाम शिखा के घर जा कर उसे सुनाई, तो वह परेशान नजर आती हुई बोली थी, ‘‘यह हो सकता है कि अब उन दोनों के बीच कोई चक्कर न चल रहा हो, पर मैं फिल्मी हीरो से आकर्षक विवेक की वफादारी के ऊपर आंखें मूंद कर विश्वास नहीं कर सकती हूं. क्या गारंटी है कि वह कल को इस पुरानी प्रेमिका के साथ फिर से मिलनाजुलना शुरू नहीं करेगा या कोई नई प्रेमिका नहीं बना लेगा?’’

अगले दिन उस ने विवेक से सविता के बारे में पूछताछ की, तो उस ने किसी तरह की सफाई न देते हुए इतना ही कहा, ‘‘सविता के साथ अब मेरा अफेयर बिलकुल खत्म हो चुका है. मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं, पर अगर तुम्हें मेरे प्यार पर पूरा भरोसा नहीं है, तो मैं तुम्हारी जिंदगी से निकल जाऊंगा. किसी तरह का दबाव बना कर तुम्हें शादी करने के लिए राजी करना मेरी नजरों में गलत होगा.’’

अगले दिन शाम को मुझे लंबे समय बाद रोहित से मिलने का मौका मिला था. इस में कोई शक नहीं कि विवेक के मुकाबले उस का व्यक्तित्व कम आकर्षक था. वह शिखा की सारी बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था, पर उसे विवेक हंसा कर खुश नहीं कर पाया.

उस रात औटोरिकशा से घर लौटते हुए शिखा ने अपने दिल की उलझन मेरे सामने बयान की, ‘‘रोहित के साथ भविष्य सुरक्षित रहेगा और विवेक के साथ हंसतेहंसाते वक्त के गुजरने का पता नहीं चलता. रोहित के साथ की आदत गहरी जड़ें जमा चुकी है और विवेक जीवन भर साथ निभाएगा, ऐसा भरोसा करना कठिन लगता है. मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि किस के हक में फैसला करूं.’’

वैसे उस ने जब भी मेरी राय पूछी, मैं ने उसे रोहित के पक्ष में शादी का फैसला करने की सलाह ही दी थी. उस के हावभाव से मुझे लगा भी कि उस का झुकाव रोहित को जीवनसाथी बनाने की तरफ बढ़ गया था.

करीब 3 दिन बाद शिखा ने फोन पर रोंआसी आवाज में मुझे बताया, ‘‘विवेक को किसी से रोहित के बारे में पता चल गया है. उस ने मुझ पर दो नावों में सवारी करने का आरोप लगाते हुए आज मुझ से सीधेमुंह बात नहीं की. मुझे लगता है कि वह मुझ से दूर जाने का मन बना चुका है.’’

‘‘इस में ज्यादा परेशान होने वाली बात नहीं, क्योंकि तू भी तो रोहित से शादी करने का मन काफी हद तक बना ही चुकी है,’’ मैं ने उसे हौसला दिया.

‘‘अब मेरा मन बदल गया है, नेहा. विवेक के दूर हो जाने की बात सोच कर ही मेरा मन बहुत दुखी हो रहा है. देख, रोहित ने एक बार मुझ से दूर जाने का फैसला कर लिया था, इसी कारण मैं उस के साथ रिश्ता तोड़ने में किसी तरह का अपराधबोध महसूस नहीं करूंगी. विवेक की गलतफहमी दूर करने में तू मेरी हैल्प कर, प्लीज.’’

‘‘ओके, मैं आज शाम उस से मिलूंगी,’’ मैं ने उसे ऐसा आश्वासन दिया था.

आगामी दिनों में विवेक के साथ अकेले मेरा मिलनाजुलना कई बार हुआ और इन्हीं मुलाकातों में मुझे लगा कि उस जैसे ‘जिओ और जीने दो’ के सिद्धांत को मानने वाले खुशमिजाज इंसान के लिए बातबात पर रूठने वाली नखरीली शिखा विवेक के लिए उपयुक्त जीवनसाथी नहीं है. इसी बात को ध्यान में रख इस मामले में मैं ने रोहित की सहायता करने का फैसला मन ही मन किया.

मैं अगले दिन शाम को रोहित से मिली और उसे शिखा का दिल जीत लेने के लिए एक सुझाव दिया, ‘‘मेरी सहेली खूबसूरत सपनों और रोमांस की रंगीन दुनिया में जीती है. अगर तुम उसे हमेशा के लिए अपनी बनाना चाहते हो, तो कुछ ऐसा करो जो उस के दिल को छुए और वह तुम्हारे साथ शादी करने के लिए झटके से हां कहने को मजबूर हो जाए.’’

मेरी सुझाई तरकीब पर चलते हुए अगले सप्ताह अपने जन्मदिन की पार्टी में रोहित ने शिखा को पाने का अपना लक्ष्य पूरा कर लिया.

बड़े भव्य पैमाने पर उस ने बैंकट हाल में अपनी बर्थडे पार्टी का आयोजन किया, जिस में शिखा वीआईपी मेहमान थी. रोहित के कोमल मनोभावों से परिचित होने के कारण उस के परिवार का हर सदस्य शिखा के साथ प्रेम भरा व्यवहार कर रहा था.

बीच पार्टी में रोहित ने पहले सब मेहमानों का ध्यान आकर्षित किया और फिर शिखा के सामने घुटने के बल बैठ कर बड़े रोमांटिक अंदाज में उसे प्रपोज किया, ‘‘तुम जैसी सर्वगुणसंपन्न रूपसी अगर मुझ से शादी करने को ‘हां’ कह देगी, तो मैं खुद को संसार का सब से धन्य इंसान समझूंगा.’’

वहां मौजूद सभी मेहमानों ने बड़े ही जोशीले अंदाज में तालियां बजा कर शिखा पर ‘हां’ कहने का दबाव जरूर बनाया, पर हां कराने में रोहित के हाथ में नजर आ रही उस बेशकीमती हीरे की अंगूठी का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, जिसे मैं ने ही उसे खरीदवाया था.

शिखा ने रोहित के साथ शादी करने का फैसला कर लिया, तो औफिस में बहुत ज्यादा काम होने का बहाना बना कर मैं ने उस से मिलना बंद कर दिया. मैं विवेक के साथ लगातार हो रही अपनी मुलाकातों की चर्चा उस से बिलकुल नहीं करना चाहती थी.

विवेक को मैं अपना दिल पहले ही दे बैठी थी, पर अपनी भावनाओं को दबा कर रखने को मजबूर थी. चूंकि अब शिखा बीच में नहीं थी, इसलिए मुझे उस के साथ दिल का रिश्ता मजबूत बनाने में किसी तरह की झिझक नहीं थी.

विवेक के दिल की रानी बनने के लिए मुझे ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी, क्योंकि मैं उस के मन को समझने लगी थी. मैं जैसी हूं, अगर वैसी ही उस के सामने बनी रहूंगी, तो उसे ज्यादा पसंद आऊंगी, यह महत्त्वपूर्ण बात मैं ने अच्छी तरह समझ ली थी. उसे किसी तरह बदलने की कोशिश मैं ने कभी नहीं की. उस की नाराजगी की चिंता किए बिना जो मन में होता, उसे साफसाफ उस के मुंह पर कह देती. हां, यह जरूर ध्यान रखती कि मेरी नाराजगी बात खत्म होने के साथसाथ ही विदा हो जाए.

मेरी समझदारी जल्दी ही रंग लाई. जब विवेक की भी मुझ में रुचि जागी, तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

एक दिन मैं ने आंखों में शरारत भर कर उस का हाथ पकड़ा और रोमांटिक लहजे में कह ही दिया, ‘‘अब तुम से दूर रहना मेरे लिए संभव नहीं है, विवेक. तुम अगर चाहोगे, तो मैं तुम्हारे साथ शादी किए बिना ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में भी रहने को तैयार हूं.’’

विवेक ने मेरे हाथ को चूम कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘मुझे इतनी अच्छी तरह समझने वाली तुम जैसी लड़की को मैं अपनी जीवनसंगिनी बनाने से बिलकुल नहीं चूकूंगा. बोलो, कब लेने हैं बंदे को तुम्हारे साथ सात फेरे?’’

शादी के लिए उस की हां होते ही मैं ने शिखा वाली मूर्खता नहीं दोहराई. अपने मम्मीपापा को आगामी रविवार को ही उस के मातापिता से मिलवाया और सप्ताह भर के अंदर शादी की तारीख पक्की करवा ली.

शिखा और रोहित की शादी से पहले विवेक और मेरी शादी के कार्ड छपे थे. मैं अपनी शादी का कार्ड देने शिखा के घर गई, तो उस ने सीधे मुंह मुझ से बात नहीं की.

मैं ने उसी दिन मन ही मन फैसला किया कि भविष्य में शिखा के संपर्क में रहना मेरे हित में नहीं रहेगा. मैं ने विवेक को हनीमून के दौरान समझाया, ‘‘शिखा का होने वाला पति रोहित नहीं चाहता है कि कभी वह तुम से कैसा भी संपर्क रखे. उस की खुशियों की खातिर हम उस से नहीं मिला करेंगे.’’

विवेक ने मेरी इस बात को ध्यान में रखते हुए शिखा से कभी, किसी माध्यम से संपर्क बनाने की कोशिश नहीं की.

मैं इस पूरे मामले में न खुद को कुछ गलत करने का दोषी मानती हूं, न किसी तरह के अपराधबोध की शिकार हूं. मेरा मानना है कि अपनी खुशियों की खातिर पूरी ताकत से हाथपैर मारने का हक हमसब को है.

शिखा ने फैसला लेने में जरूरत से ज्यादा देरी की वजह से विवेक को खोया. वह नासमझ चील जो अपने मनपसंद शिकार पर झपट्टा मारने में देरी करे, उस के हाथ से शिकार चुनने का मौका छिन जाना कोई हैरान करने वाली बात नहीं है.

शिखा की दोस्ती को खो कर विवेक जैसे मनपसंद जीवनसाथी को पा लेना मैं अपने लिए बिलकुल भी महंगा सौदा नहीं मानती हूं. तभी उस से ‘हैलोहाय’ किए बिना विवाह समारोह से लौट आने पर मेरे मन ने किसी तरह का मलाल या अपराधबोध महसूस नहीं किया था.

Valentine’s Day 2024: वैलेंटाइन डे- अभिराम क्या कर पाया प्यार का इजहार

अपने देश में विदेशी उत्पाद, पहनावा, विचार, आचारसंहिता आदि का चलन जिस तरह से जोर पकड़ चुका है उस में वेलेंटाइन डे को तो अस्तित्व में आना ही था. वैसे अब यह बताने की जरूरत नहीं है कि वेलेंटाइन डे के दिन होता क्या है. फिर भी बात चली है तो खुलासा कर देते हैं कि चाहने वाले जवान दिलों ने इस दिन को प्रेम जाहिर करने का कारगर माध्यम बना लिया है. इस अवसर पर बाजार सजते हैं, चहकते, इठलाते लड़केलड़कियों की सड़कों पर आवाजाही बढ़ जाती है, वातावरण में खुमार, खनक, खुशी भर जाती है.

सेंट जोंसेफ कानवेंट स्कूल के कक्षा 11 के छात्र अभिराम ने इसी दिन अपनी सहपाठिनी निष्ठा को ग्रीटिंग कार्ड के ऊपर चटक लाल गुलाब रख कर भेंट किया था. निष्ठा ने अंदरूनी खुशी और बाहरी झिझक के साथ भेंट स्वीकार की थी तो कक्षा के छात्रछात्राओं ने ध्वनि मत से उन का स्वागत कर कहा, ‘‘हैप्पी फोर्टीन्थ फैब.’’

विद्यालय का यह पहला इश्क कांड नहीं था. कई छात्रछात्राओं का इश्क चोरीछिपे पहले से ही परवान चढ़ रहा था. आप जानिए, वे पढ़ाई की उम्र में पढ़ाई कम दीगर हरकतें ज्यादा करते हैं. चूंकि यह विद्यालय अपवाद नहीं है इसलिए यहां भी तमाम घटनाएं हुआ करती हैं.

एक छात्रा स्कूल आने और उस के निर्धारित समय का लाभ ले कर किसी के साथ भाग चुकी है. एक छात्रा को रसायन शास्त्र के अध्यापक ने लैब में छेड़ा था. इस के विरोध में विद्यार्थी तब तक हड़ताल पर बैठे रहे जब तक उन को प्रयोगशाला से हटा नहीं दिया गया. इस के बावजूद स्कूल का जो अनुशासन, प्रशासन और नियमितता होती है वह आश्चर्यजनक रूप से यहां भी है.

हां, तो बात निष्ठा की चल रही थी. उस ने दिल की बढ़ी धड़कनों के साथ ग्रीटिंग की इबारत पढ़ी- ‘निष्ठा, सेंट वेलेंटाइन ने कहा था कि प्रेम करना मनुष्य का अधिकार है. मैं संत का बहुत आभारी हूं-अभिराम.’

प्रेम की घोषणा हो गई तो उन के बीच मिलनमुलाकातें भी होने लगीं. दोनों एकदूसरे को मुग्धभाव से देखने लगे. साथसाथ ट्यूशन जाने लगे, फिल्म देखने भी गए.

कक्षा की सहपाठिनें निष्ठा से पूछतीं, ‘‘प्रेम में कैसा महसूस करती हो?’’

‘‘सबकुछ अच्छा लगने लगा है. लगता है, जो चाहूंगी पा लूंगी.’’

‘‘ग्रेट यार.’’

अपने इस पहले प्रेम को ले कर उत्साहित अभिराम कहता, ‘‘निष्ठा, मेरे मम्मीपापा डाक्टर हैं और वे मुझे भी डाक्टर बनाना चाहते हैं. यही नहीं वे बहू भी डाक्टर ही चाहते हैं तो तुम्हें भी डाक्टर बनना होगा.’’

‘‘और न बन सकी तो? क्या यह तुम्हारी भी शर्त है?’’

‘‘शर्त तो नहीं पर मुझे ले कर मम्मीपापा ऐसा सोचते हैं,’’ अभिराम बोला, ‘‘तुम्हारे घरवालों ने भी तो तुम्हें ले कर कुछ सोचा होगा.’’

‘‘यही कि मेरी शादी कैसे होगी, दहेज कितना देना होगा? आदि…’’ सच कहूं अभिराम तो पापामम्मी विचित्र प्राणी होते हैं. एक तरफ तो वे दहेज का दुख मनाएंगे, किंतु लड़की को आजादी नहीं देंगे कि वह अपने लिए किसी को चुन कर उन का काम आसान करे.’’

‘‘यह अचड़न तो विजातीय के लिए है हम तो सजातीय हैं.’’

‘‘देखो अभिराम, धर्म और जाति की बात बाद में आती है, मांबाप को असली बैर प्रेम से होता है.’’

‘‘मैं अपनी मुहब्बत को कुरबान नहीं होने दूंगा,’’ अभिराम ने बहुत भावविह्वल हो कर कहा.

‘‘बहुत विश्वास है तुम्हें अपने पर.’’

‘‘हां, मेरे पापामम्मी ने तो 25 साल पहले प्रेमविवाह किया था तो मैं इस आधुनिक जमाने में तो प्रेमविवाह कर ही सकता हूं.’’

‘‘अभि, तुम्हारी बातें मुझे भरोसा देती हैं.’’

अभिराम और निष्ठा अब फोन पर लंबीलंबी बातें करने लगे. अभि के मातापिता दिनभर नर्सिंग होम में व्यस्त रहते थे अत: उस को फोन करने की पूरी आजादी थी. निष्ठा आजाद नहीं थी. मां घर में होती थीं. फोन मां न उठा लें इसलिए वह रिंग बजते ही रिसीवर उठा लेती थी.

मां एतराज करतीं कि देख निष्ठा तू घंटी बजते ही रिसीवर न उठाया कर. आजकल के लड़के किसी का भी नंबर डायल कर के शरारत करते हैं. अभी कुछ दिन पहले मैं ने एक फोन उठाया तो उधर से आवाज आई, ‘‘पहचाना? मैं ने कहा कौन? तो बोला, तुम्हारा होने वाला.’’

इस तरह अभिराम और निष्ठा का प्रेम अब एक साल पुराना हो गया.

अभिराम ने योजना बनाई कि निष्ठा, वेलेंटाइन डे पर कुछ किया जाए.

निष्ठा ने सवालिया नजरों से अभिराम को देखा, जैसे पूछ रही हो क्या करना है?

‘‘देखो निष्ठा, इस छोटे से शहर में कोई बीच या पहाड़ तो है नहीं,’’ अभिराम बोला. ‘‘अपना पुष्करणी पार्क अमर रहे.’’

‘‘पार्क में हम क्या करेंगे?’’

‘‘अरे यार, कुछ मौजमस्ती करेंगे. और कुछ नहीं तो पार्क में बैठ कर पापकार्न ही खा लेंगे.’’

‘‘नहीं बाबा, मैं वेलेंटाइन डे पर तुम्हारे साथ पार्क में नहीं जा सकती. जानते हो हिंदू संस्कृति के पैरोकार एक संगठन के कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी है, जो लोग वेलेंटाइन डे मनाते हुए मिलेंगे उन्हें परेशान किया जाएगा.’’

‘‘निष्ठा, यही उम्र है जब मजा मार लेना चाहिए. स्कूल में यह हमारा अंतिम साल है. इन दिनों की फिर वापसी नहीं होगी. हम कुछ तो ऐसा करें जिस की याद कर पूरी जिंदगी में रौनक बनी रहे. हम पार्क में मिलेंगे. मैं तुम्हें कुछ गिफ्ट दूंगा, इंतजार करो,’’ अभिराम ने साहबी अंदाज में कहा.

निष्ठा आखिर सहमत हो गई. मामला मुहब्बत का हो तो माशूक की हर अदा माकूल लगती है.

शाम को दोनों पार्क में मिले. निष्ठा खास सजसंवर कर आई थी. पार्क के कोने की एकांत जगह पर बैठ कर अभिराम निष्ठा को वाकमैन उपहार में देते हुए बोला, ‘‘इस में कैसेट भी है जिस पर तुम्हारे लिए कुछ रिकार्ड किया है.’’

‘‘वाह, मुझे इस की बहुत जरूरत थी. अब मैं अपने कमरे में आराम से सोते हुए संगीत सुन सकूंगी.’’

अभिराम ने निष्ठा के गले में बांहें डाल कर कहा, ‘‘भारतीय संस्कृति ही नहीं बल्कि विकसित और आधुनिक देशों की संस्कृति भी प्रेम को बुरा कहती रही है. कैथोलिक ईसाइयों में प्रेम और शादी की मनाही थी. तब वेलेंटाइन ने कहा था कि मनुष्य को प्रेम की अभिव्यक्ति का अधिकार है. तभी से 14 फरवरी के दिन प्रेमी अपने प्रेम का इजहार करते हैं.’’

संगठन के कुछ कार्यकर्ता प्रेमियों को खदेड़ने आ पहुंचे हैं, इस से बेखबर दोनों प्रेम के सागर में हिचकोले ले रहे थे कि अचानक संगठन के कार्यकर्ताओं को लाठी, हाकी, कालारंग आदि लिए देख अभिराम व निष्ठा हड़बड़ा कर खड़े हो गए. कुछ लोग पार्क छोड़ कर भाग रहे थे, तो कुछ तमाशा देख रहे थे.

उधर संगठन के ऐलान को ध्यान में रख स्थानीय मीडिया वाले रोमांचकारी दृश्य को कैमरे में उतारने के लिए शाम को वहां आ डटे थे. उन्होंने कैमरा आन कर लिया. अभिराम व निष्ठा स्थिति को भांपते इस के पहले कार्यकर्ताओं ने दोनों के चेहरे काले रंग से पोत दिए.

निष्ठा ने बचाव में हथेलियां आगे कर ली थीं. अत: चेहरे पर पूरी तरह से कालिख नहीं पुत पाई थी.

‘‘क्या बदतमीजी है,’’ अभिराम चीखा तो एक कार्यकर्ता ने हाकी से उस की पीठ पर वार कर दिया.

हाकी पीठ पर पड़ते ही अभिराम भाग खड़ा हुआ. उसे इस तरह भागते देख निष्ठा असहाय हो गई. वह किस तरह अपमानित हो कर घर पहुंची यह तो वही जानती है. डंडा पड़ते ही भगोड़े का इश्क ठंडा हो गया. वेलेंटाइन डे मना कर चला है क्रांतिकारी बनने. अरे अभिराम, अब तो मेरी जूती भी तुझ से इश्क न करेगी.

निष्ठा देर तक अपने कमरे में छिपी रही. वह जब भी पार्क की घटना के बारे में सोचती उस का मन अभिराम के प्रति गुस्से से भर जाता. बारबार मन में पछतावा आता कि उस ने प्रेम भी किया तो किस कायर पुरुष से. फिल्मों में देखो, हीरो अकेले ही कैसे 10 को पछाड़ देते हैं. वे तो कुल 4 ही थे.

तभी उस के कानों में बड़े भाई विट्ठल की आवाज सुनाई पड़ी जो मां से हंस कर कह रहा था, ‘‘मां, कुछ इश्कमिजाज लड़केलड़कियां पुष्करणी पार्क में वेलेंटाइन डे मना रहे थे. एक संगठन के लोगों ने उन के चेहरे काले किए हैं. रात को लोकल चैनल की खबर जरूर देखना.’’

खबर देख विट्ठल चकित रह गया, जिस का चेहरा पोता गया वह उस की बहन निष्ठा है?

‘‘मां, अपनी दुलारी बेटी की करतूत देखो,’’ विट्ठल गुस्से में भुनभुनाते हुए बोला, ‘‘यह स्कूल में पढ़ने नहीं इश्क लड़ाने जाती है. इस के यार को तो मैं देख लूंगा.’’

मां और बेटा दोनों ही निष्ठा के कमरे में घुस आए. मां गुस्से में निष्ठा को बहुत कुछ उलटासीधा कहती रहीं और वह ग्लानि से भरी चुपचाप सबकुछ सुनती व सहती रही. उस के लिए प्रेम दिवस काला दिवस बन गया था.

उधर अभिराम को पता ही नहीं चला कि वह पार्क से कैसे निकला, कैसे मोटरसाइकिल स्टार्ट की और कैसे भगा. उसे अब लग रहा था जैसे सबकुछ अपने आप हो गया. निष्ठा उस की कायरता पर क्या सोच रही होगी? बारबार यह प्रश्न उसे बेचैन किए जा रहा था.

पिताजी घर में थे, रात को टेलीविजन पर बेटे को देख कर वह चौंके और फौरन उन की आवाज गूंजी, ‘‘अभिराम, इधर तो आना.’’

‘‘जी पापा…’’

‘‘तो तुम पढ़ाई नहीं इश्क कर रहे हो. मैं तुम्हें डाक्टर बनाना चाहता हूं और तुम रोड रोमियो बन रहे हो.’’

‘‘पापा, वो… मैं वेलेंटाइन डे मना रहा था.’’

‘‘बता तो ऐसे गौरव से रहे हो जैसे एक तुम्हीं जवान हुए हो. मैं तो कभी जवान था ही नहीं. देखो, मैं इस शहर का मशहूर सर्जन हूं. क्या कभी तुम ने इस बारे में सोचा कि तुम्हें टेलीविजन पर देख कर लोग क्या कहेंगे कि इतने बड़े सर्जन का बेटा इश्क में मुंह काला करवा कर आ गया. जाओ पढ़ो, चार मार्च से सालाना परीक्षा है और तुम इश्क में निकम्मे बन रहे हो. आज से इश्कबाजी बंद.’’

अभिराम अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर पड़ गया. इन बाप लोगों की चरित्रलीला समझ में नहीं आती. खुद इश्क लड़ाते रहे तो कुछ नहीं अब बेटे की बारी आई तो बड़ा बुरा लग रहा है. फिल्मों में बचपन का इश्क भी शान से चलता है और यहां सिखाया जा रहा है, इश्क में निकम्मे मत बनो. निष्ठा तुम ठीक कहती हो कि इन बड़े लोगों को असली बैर प्रेम से है.

बेचैन अभिराम निष्ठा को फोन करना चाह रहा था पर न साहस था न स्फूर्ति, न स्थिति.

4 मार्च को पहले परचे के दिन दोनों ने एकदूसरे को पत्र थमाए. अभिराम ने लिखा था, ‘निष्ठा, मैं तुम से सच्चा प्रेम करता हूं, साबित कर के रहूंगा.’

निष्ठा ने लिखा था, ‘यह सब प्रेम नहीं छिछोरापन है, और छिछोरेपन में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं.’.

आजादी: भाग 3- अचानक क्यों बदली होस्टल वार्डन

यह सारा कुछ हम ने इस तरह से किया कि ठेले वाले भैया को लगे कि पास की दुकान पर बैठा हुआ वह लड़का हमारा परिचित है.

चाट खाते हुए हम ने ठेले वाले भैया से कहा, ‘‘भैया, आप इस के पैसे उन से ले लेना, वे हमारे पहचान वाले हैं,’’ मैं ने अपनी उंगलियों के इशारे से उस लड़के की ओर इशारे किया. चाट वाले ने  मेरे द्वारा लक्ष्य किए गए उस लड़के की ओर देखा और सिर हिला कर हामी भर दी.

चाय पीने के बाद वह लड़का ठेले के पास खड़ी अपनी बाइक से लग कर खड़ा हो गया और हमारी तरफ ही देखने लगा. मैं ने मुसकरा कर उसे बाय कहा और सरस्वती के साथ तेजतेज कदमों से चलती हुई कालेज के गेट से अंदर दाखिल हो गई. अंदर आते वक्त मैं ने वापस बाहर पलट कर देखा वह लड़का सच में उस ठेले वाले को पैसे दे रहा था.

अचानक मुझे अपने किए पर शर्मिंदगी महसूस हुई. मैं भागती हुई कालेज गेट से बाहर निकली ताकि ठेले वाले को उस लड़के से पैसा लेने से रोक सकूं, लेकिन मेरे वहां पहुंचने से पहले ही वह लड़का पैसे दे कर अपनी बाइक स्टार्ट कर चुका था. जाते हुए उस ने एक बार फिर से मेरी ओर मुसकरा कर देखा था. ऐसा लगा जैसे वह जानबू  झ कर हमारी प्लानिंग का हिस्सा बना था, वह जानबू  झ कर बेवकूफ बना था.

इस घटना के घटे हुए करीब 2 हफ्ते बीत चुके थे. मैं और सरस्वती दोनों इस घटना को भूल कर अपनी आने वाले परीक्षा की तैयारी में जुटे हुए थे कि एक दिन कालेज से लौटने के बाद हम ने वही बाइक होस्टल के गेट पर खड़ी देखी. वही लड़का अंदर डाइनिंग एरिया के साथ लगे कुरसी पर होस्टल वार्डन के पास बैठा था.

‘जरूर यह यहां हमारी शिकायत करने आया होगा,’ मैं ने मन ही मन सोचा और नजरें चुराती हुई धीरेधीरे सीढि़यां चढ़ने लगी. मैं ने डरतेडरते एक बार उस की ओर देखा तो वह लड़का मुसकराते हुए कनखियों से मेरी ओर ही देख रहा था. हमारी हालत तो ऐसी हो रही थी जैसे हम ने कोई भूतप्रेत देख लिया हो. उस दिन के बाद तो वह लड़का अकसर हमें होस्टल वार्डन के पास बैठा दिख जाता था.

एक दिन होस्टल वार्डन ने स्वयं ही हमारा परिचय उस लड़के से कराया और हम ऐसे अनजान बने रहे जैसे हम उसे पहली बार देख रहे हों. हमें मालूम हुआ कि उस लड़के का नाम शैलेंद्र है, वह इंजीनियरिंग प्रथम वर्ष का छात्र है और वह होस्टल वार्डन के भाई का लड़का है. शैलेंद्र अपने इंजीनियरिंग के छात्रावास में रह रहा था जोकि हमारे कालेज के रास्ते से कुछ दूरी पर था.

शैलेंद्र के साथ मेरी मुलाकात धीरेधीरे गहरी दोस्ती में बदल गई थी. मैं अपनी इस आजादी से बहुत खुश थी किसी भी तरह की कोई रिस्ट्रिक्शन नहीं थी. मैं अपनी इस खुशी में इतनी डूबी हुई थी  कि मेरे पीछे, बनारस मेरे घर में, मेरी इस आजादी की कीमत मां किस तरह चुका रही थीं. उस की मु  झे कोई खबर तक नहीं थी.

बनारस से मेरे लखनऊ आए हुए काफी महीने बीत चुके थे. परीक्षा का दिन भी नजदीक आ रहा था. लखनऊ आते वक्त मां ने सख्त हिदायत दी थी कि चाहे कुछ भी हो जाए, पढ़ाई पूरी कर के ही बनारस वापस आना. लखनऊ में मेरे मौसेरे भइया ही मेरे अभिभावक थे. रुपए पैसे से लेकर मेरी सारी जरूरतें वही पूरा करते थे. मु  झे एक बात की हैरानी अवश्य होती थी. मेरे घर से आए हुए इतने महीने बीत जाने के बाद भी मेरे पिता ने मेरी कोई खोजखबर नहीं ली थी.

सत्यम भैया भी बनारस के विषय में मु  झे ज्यादा कुछ नहीं बताते थे, ‘‘बेकार की बातों में ध्यान देने की जगह अपनी बाकी की पढ़ाई और  मैडिकल ऐंटरैंस की तैयारी पर ध्यान दो,’’ बहुत पूछने पर भी उन्होंने कुछ भी बताने से इनकार कर दिया था.

मेरे लखनऊ आने के बाद प्रकाश को चाचाजी से काफी डांट खानी पड़ी थी तो वह भी अब मेरा फोन नहीं उठाता था. लखनऊ पहुंचने पर  प्रकाश से बात हुई थी. उस के बाद उस से बात नहीं हो सकी थी.

‘‘रूपा अपना सामान पैक कर लो तु  झे बनारस चलना होगा आज ही 11 बजे की ट्रेन है. मैं तुझे लेने आ रहा हूं,’’ सुबहसुबह सत्यम भैया का फोन आया. फोन पर उन की कांपती हुई आवाज ने मु  झे चौंका दिया.

‘‘क्यों भैया क्या हुआ? 10 दिन बाद ही तो मेरी परीक्षा है और आप बनारस जाने की बात कर रहे हैं,’’ मेरी आवाज में घबराहट थी.

‘‘रूपा अगर नहीं चली तो मौसी…’’ आगे उन की आवाज सिसकियों में बदल गई.

‘‘अपनी मां के अंतिम दर्शन करने चलेगी न रूपा,’’ भैया का 1-1 शब्द मेरे कानों को छलनी कर गया.

घर के आंगन में मां का शव सफेद कपड़े से ढका रखा था. मां के मृत शरीर से लिपट कर रोती हुई दीदी का बुरा हाल था. दीदी को संभालते हुए चाची भी रोए जा रही थी.

‘‘बड़ी मां गंगा घाट गई थीं नहाने, वहीं पर पैर फिसला और डूबने से उन की मृत्यु हो गई,’’ प्रकाश का यह वाक्य जाने क्यों मु  झे उसे रटाया हुआ सा महसूस हुआ.

आंगन से कुछ ही दूरी पर चाचा चुपचाप खड़े थे. मैं ने चारों तरफ नजर दौड़ाई लेकिन पिताजी मु  झे कहीं नहीं दिखे.

मुझे देखते ही दीदी मु  झ से लिपट कर रोने लगी, ‘‘रूपा मां चली गईं, वे हम दोनों के हिस्से की लड़ाई अकेली ही लड़ रही थीं. देख उन का क्या हश्र हो गया…’’

मैं बुत बनी खड़ी थी… मु  झे ऐसा लग रहा था जैसे मेरे सामने कोई चलचित्र चल रहा हो. मु  झे कुछ भी सम  झ में नहीं आ रहा था, दीदी क्या कहना चाह रही थी. उन के शब्द मेरे कानों से टकरा कर वापस चले जाते थे.

‘‘रूपा तू मां को छू कर वादा कर कि तू जब तक डाक्टर नहीं बनेगी लौट कर नहीं आएगी,’’ दीदी मु  झे आंगन में रखे मां के पार्थिव शरीर के पास ले गई.

‘‘देख ले मेरी बच्ची अपनी मां को आखिरी बार,’’ चाची ने रोते हुए  मां के चेहरे से कपड़ा हटाया.

मां के चेहरे पर चोट के निशान थे. मां की यह हालत देखते ही मेरे मुख से चीख निकल पड़ी, मैं दहाड़ मार कर रोने लगी. दीदी ने मु  झे संभाला, चाची बारबार अपने आंचल से मेरे आंसू पोंछ रही थी.

दीदी ने जिद कर के मु  झे वापस लखनऊ भेज दिया, ‘‘रूपा मां की कुरबानी बेकार नहीं जानी चाहिए. वैसे भी अब यहां क्या रखा है, तू यहां रुक कर भी क्या करेगी, मां तो चली गईं. अब   झूठमूठ के ड्रामे में शामिल होने से अच्छा है तू अपनी परीक्षा की तैयारी कर. इसी से मां की आत्मा को शांति मिलेगी,’’ दीदी मु  झे सम  झती हुई रोती जा रही थी.

मैं बड़े ही भारी मन के साथ वापस लखनऊ आ गई. लेकिन मन में उठते कई सवाल अब भी मौजूद थे.

मां जिन्हें मैं हमेशा कमजोर सम  झती रही, पिताजी के आगे डरतेसहमते देख मेरा मन जिन के प्रति गुस्से से भर उठता था वे वास्तव में अंदर से कितनी मजबूत थीं. खुद घुटघुट कर जीती रहीं फिर भी हम दोनों बहनों के लिए ढाल बन कर खड़ी थीं. वह तो हम दोनों के हिस्से की लड़ाई अकेली लड़ रही थीं.

बनारस से लौटने के बाद मैं बिलकुल बदल गई. जिस आजादी की कीमत मैं ने मां को खो कर चुकाई उस के महत्त्व को मैं कैसे न सम  झती. मेरे अंदर काफी कुछ बदल गया था. नाश्ते और खाने को ले कर मैं होस्टल वार्डन से भी कोई जिरह नहीं करती. जो कुछ मेरे सामने परोसा जाता, उसे चुपचाप खा लेती.

मगर इन दिनों मैं ने होस्टल वार्डन के व्यवहार में काफी बदलाव भी देखा. वह मेरा कुछ ज्यादा ही ध्यान रखने लगी थी. मेरी पसंद न पसंद का खास ध्यान रख रही थी. मु  झ से बड़े ही प्यार और अपनेपन से बातें करती, जिस का मैं पीठ पीछे खड़ूस और न जाने क्याक्या कह कर मजाक उड़ाती थी वह अब मु  झे ममतामयी सी लगने लगी थी.

मेरे बनारस जाने वाले दिन एक और घटना घटी थी, जिस की जानकारी मु  झे बाद में मिली. ज्योत्सना और उस के बौयफ्रैंड की लाश संदिग्ध अवस्था में गोमती नदी से मिली थी, जिस के कारण होस्टल का माहौल काफी दिनों तक तनावपूर्ण बना रहा. सुनने में आया था कि ज्योत्सना घटना वाले दिन होस्टल से कानपुर अपने घर जाने के लिए कह कर निकली थी.

मैं अपना अब सारा समय पढ़नेलिखने में लगाने लगी थी. शैलेंद्र से भी मैं ने दूरी बना ली थी. पढ़ाई के प्रति मेरी लगन और दिनरात की मेहनत ने मेरी सफलता का मार्ग खोल दिया. मैं हर परीक्षा में अव्वल आने लगी थी.

‘‘रूपा आज तेरी स्पीच है न, तूने तैयारी तो ठीक से कर ली है न?’’ सरस्वती ने सुबहसुबह मेरी स्पीच की तैयारी के विषय में पूछा.

‘‘हांहां कर ली है,’’ मैं ने अनमने ढंग से जवाब दिया.

‘‘तू इतनी उखड़ीउखड़ी सी क्यों है? तु  झे तो खुश होना चाहिए, स्वतंत्रता दिवस के मौके पर स्पीच देने के लिए मैम ने तेरा चुनाव किया है.’’

‘‘स्वतंत्रता यानी आजादी?’’

‘‘हां यार आजादी,’’ सरस्वती ने आश्चर्य से मेरी ओर देखा.

‘‘आजादी, मेरे मुख से निकला. लेकिन, मेरी आंखों में कई सवाल ज्योत्सना और मेरी मां की शक्ल में घूमने लगे.

आजादी: भाग 2- अचानक क्यों बदली होस्टल वार्डन

गुस्सा तो मुझे मां की खामोशी पर आता था. क्यों नहीं वे पिताजी की गलत बातों का विरोध करती हैं, क्यों इतनी डरीडरी सी रहती हैं. खुद मां जैसे वर्षों से पिताजी के अत्याचारों को सहती आई हैं. वैसी ही अपेक्षा ये लोग दीदी से भी क्यों कर रहे हैं. अत्याचार के विरुद्ध दीदी ने जो कदम उठाया  है, उस की सराहना करने की जगह ये लोग दीदी को ही गलत साबित करने में क्यों लगे हुए हैं.

मां तो 24 घंटे पिताजी द्वारा रटेरटाए नियमकायदों को ही ढोती रहती हैं. किसी भी विषय पर उन की अपनी स्वतंत्र राय नहीं होती. उन की अपनी कोई विचारधारा नहीं थी. वे तो बस पिताजी द्वारा खींची हुई परिधि में सिर्फ सांस ले रही थीं. मु  झे अपने घर के पालतू तोता मिट्ठू और अपनी मां में कोई खास अंतर नहीं दिखता था. मिट्ठू को सारे दिन जो सिखाया जाता वही रटता रहता. कितनी बार मैं ने उस के पिंजरे का दरवाजा खोल दिया. मिट्ठू उड़ जा, उड़ जा मिट्ठू, लेकिन मेरे लाख कहने पर भी मिट्ठू, पिंजरा छोड़ कर नहीं उड़ता. मिट्ठू बाहर थोड़ी देर के लिए निकलता लेकिन वापस उसी पिंजरे के अंदर चला आता.

पिंजरे के अंदर लौट कर एक ही रट लगाता रहता कि रूपा पिंजरा बंद कर मिट्ठू उड़ जाएगा. यह वाक्य उस ने मेरी चाची से सुना था जिसे वह पिंजरे के अंदर भी रटता रहता. मां की तरह मिट्ठू को भी पिंजरे की कैद का अभ्यास हो गया था.

मिट्ठू तो एक पंछी था. लेकिन मां वह तो इंसान थी. वह क्यों इन  झूठे आडंबरों और आदर्शों की कैद में रहने को विवश और लाचार थीं? वे क्यों पिताजी द्वारा थोपे गए दकियानूसी विचारों और सिद्धांतों को मानने के लिए मजबूर थीं? और अब तो दीदी के लिए भी उन्हीं खोखले आदर्शों की दीवारें खड़ी की जा रही थीं.

मां को हमेशा हम ने पिताजी के आगे  झुकते देखा था, उन के हर सहीगलत फैसले को सिर   झुका कर मानते देखा था. इसीलिए अब उन के इन   झूठे आदर्शों, उन के दकियानूसी विचारों, उन के उन सारे प्रतिबंधों से खुद को मुक्त करा लेने की इच्छा मु  झ में प्रबल हो रही थी. मैं हर कीमत पर अब बनारस को छोड़ कर लखनऊ पढ़ने के लिए जाना चाहती थी.

मां के सिर से जरा सा आंचल सरकता और वे पिताजी की कड़ी निगाहों से ही कांप उठतीं. मेरा कितना मन करता था कि मैं भी शहर की बाकी लड़कियों की तरह आधुनिक ढंग की पोशाके पहनूं लेकिन नहीं, वही सलवारकुरता और दुपट्टा, लेकिन एक दिन मैं ने भी ठान लिया, अब चाहे जो भी करना पड़े, मैं खुद को इस कैद से  आजाद कर के ही रहूंगी, मु  झे आजादी चाहिए थी, सारी बंदिशों से, बेवजह के प्रतिबंधों से. मैं खुल कर सांस लेना चाहती थी. मैं ने सुना था, आजादी के लिए गांधीजी ने भूख हड़ताल की थी, अन्नजल का त्याग किया था. मैं ने भी सोच लिया, मैं भी भूख हड़ताल करूंगी.

उस दिन सुबह से मैं ने पूरा घर सिर पर उठा लिया था. मैं ने अन्नजल का त्याग कर दिया, लेकिन दोपहर बीततेबीतते मारे भूख के जान निकलने लगी. चूहों ने पेट में ऐसा हुड़दंग मचाया कि मजबूर हो कर मैं ने चाची के बेटे प्रकाश को जो मेरे से उम्र में 2 वर्ष छोटा था लेकिन मेरा बड़ा आज्ञाकारी था को इशारे से अपने कमरे की  खिड़की, जोकि बाहर गली की ओर खुलती थी, के पास बुलाया उसे? क्व200 का नोट पकड़ाते हुए बोला कि जा कर लल्लू हलवाई के यहां से कचौड़ी और जलेबी ले आ और देख घर में किसी को भी कानोंकान खबर न लगने पाए कि मैं ने तुम से यह सब मंगवाया है. हां, बाकी बचे पैसों को अपने पास ही रख लेना. ये सारी चीजें मु  झे इसी खिड़की से ला कर दे देना. मैं यहां खिड़की पर तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगी. लेकिन वह बेवकूफ खिड़की के पास न आ कर सीधा मुख्यद्वार से अंदर आया और पिताजी के द्वारा पूछे जाने पर सारा सच उगल दिया. फिर तो पूरे घर में कुहराम मच गया.

एक जरा सी बात के लिए पिताजी ने तूफान खड़ा कर दिया. मां को कठघरे में खड़ा कर उन पर खूब सारी तोहमत लगाई गई, लड़कियों को बिगाड़ कर रख दिया है, कोई संस्कार नहीं सिखाया और भी न जाने क्याक्या. मु  झ से तो बरदाश्त नहीं हुआ. गुस्से में पैर पटकती हुई मैं अपने कमरे में आ गई थी. कमरे में अपने बिस्तर पर लेटी हुई काफी देर तक रोती रही थी मैं. रोतेरोते कब नींद आ गई मुझे पता ही न चला.

अगले दिन भी काफी देर तक सोई रही थी मैं. करीब 10 बजे जब मां ने आ कर जगाया तो जा कर मेरी नींद खुली. मां के सिर पर पट्टी बंधी थी, शायद उन के सिर में चोट लगी थी. मेरे पूछने पर उन्होंने कुछ भी बताने से इनकार कर दिया.

‘‘तुम लखनऊ पढ़ने जाना चाहती हो?’’

मैं आश्चर्यचकित थी.

‘‘बोलो जाना चाहती हो लखनऊ?’’

मैं ने खामोशी के साथ ‘हां’ में  सिर हिला दिया.

मालूम नहीं क्यों मां मु  झे बदलीबदली सी लग रही थीं. आज तक मैं ने कभी भी मां को पिताजी के खिलाफ जा कर इस तरह कोई भी निर्णय लेते नहीं देखा था. अचानक एक रात में ही ऐसा क्या हुआ जो उन्हें बिलकुल ही बदल दिया था. मेरे सम  झ में तो कुछ भी नहीं आ रहा था. आखिर कल रात मेरे रूम में आ जाने के बाद ऐसा क्या हुआ था कि मां पिताजी के खिलाफ जा कर स्वतंत्र निर्णय ले रही थीं.

‘‘लेकिन, पिताजी?’’

‘‘तुम उन की चिंता बिलकुल मत करो, तुम सिर्फ लखनऊ जाने की तयारी करो. मैं प्रकाश से कह कर सारी तैयारी करवा रही हूं.’’

मां ने लखनऊ में रह रहे मेरे मौसेरे भाई सत्यम से बात कर लखनऊ के कालेज में मेरे एडमिशन से ले कर पीजी होस्टल में रहने तक की सारी व्यवस्था अपने बलबूते पर करा दी.

‘‘चल समोसाचाट खाने चलते हैं,’’ कालेज के गेट पर पहुंचते ही हमारी नजर वहां से थोड़ी ही दूरी पर लगे चाट के ठेले पर जा ठहरी थी.

‘‘कहां खोई हुई है तू… मैं ने पूछा, चाट खाने चलते हैं न,’’ सरस्वती ने मेरे कंधे को पकड़ कर हिलाते हुए कहा.

‘‘आज का नाश्ता इतना बकवास था कि जीभ का स्वाद ही बिगड़ गया है.’’

‘‘हांहां सही कह रही है तू,’’ मैं ने हड़बड़ाते हुए कहा, जैसे गहरी नींद से किसी ने जगा दिया हो, ‘‘मैं ने तो ठीक से नाश्ता भी नहीं किया, भूख तो सच में मु  झे भी लग रही है.’’

‘‘भैया जरा हमें 2 प्लेट समोसा चाट देना,’’

ठेले वाला हमारे लिए समोसा चाट बनाने में व्यस्त हो गया.

‘‘वह लड़का देख रही है,’’ मैं ने धीमे से सरस्वती के कानों में फुसफुसाते हुए कहा.

‘‘कौन,  कहां… किस की बात कर रही है तू?’’ सरस्वती ने गरदन घुमा कर अपने चारों ओर देखते हुए पूछा.

‘‘वह, वहां… नीली शर्ट वाला लड़का… अरे यार, इधर नहीं उधर, उस चाय की दुकान पर,’’ मैं ने आहिस्ते से कहा, ‘‘काफी देर से देख रही हूं, एकटक हमें ही देख रहा है. तू देखती जा मैं इसे कैसे बेवकूफ बनाती हूं.’’

‘‘पर तू करने क्या वाली है?’’

‘‘कुछ नहीं, बस तुम मेरी हां में हां मिलाती रहना, खुद को बहुत स्मार्ट सम  झ रहा है आज पता चलेगा इसे कि वह कितना स्मार्ट है.’’

मैं ने मुसकराते हुए उस लड़के की ओर देखा और हवा में हाथ हिलाते हुए उसे हाय कहा. जवाब में वह लड़का भी मुसकराया और हवा में हाथ लहरा दिया.

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आजादी: भाग 1- अचानक क्यों बदली होस्टल वार्डन

‘‘अरे  यार, लगता है यह सरस्वती टंकी का पूरा पानी खाली कर के ही बाहर निकलेगी.’’

‘‘क्यों परेशान हो रही हो रूपा. तुझे तो पता ही है, यह तो इस का रोज का काम है,’’ मेरी हालत पर तरस खाने की जगह ज्योत्सना मंदमंद मुसकरा रही थी.

‘‘हांहां क्यों नहीं, खुश हो ले तू. खुश होने का तु  झे पूरा अधिकार है, आज मु  झ से पहले नहा कर तूने बाजी जो मार ली है,’’ बाथरूम के अंदर से लगातार आने वाली सरस्वती के गाने की आवाज से मैं पहले ही चिढ़ी हुई थी ज्योत्सना की बातों ने मु  झे और भी चिढ़ा दिया.

लखनऊ के गर्ल्स पीजी होस्टल में अपने कमरे के अटैच्ड बाथरूम के बाहर नहाने जाने के लिए काफी देर से इंतजार कर रही थी. गरमी और पसीने से मेरा बुरा हाल हुआ जा रहा था.

‘‘उफ, कितनी गरमी है, ऊपर से बिजली भी नहीं है. गरमी और पसीने से परेशान मैं खिड़की से लगे बिस्तर पर आ बैठी.

‘‘सरस्वती की बच्ची बाहर आ कर गाने का जितना भी रियाज करना है कर लेना. तुम्हारे ‘राग दीपक’ ने पूरे शहर का तापमान बढ़ा दिया है,  सच में कितनी गरमी पड़ रही है यार, अरी ओ  तानसेन की 5वीं औलाद निकलती है या नहीं,’’ गुस्से से मैं ने शैंपू का बोतल दरवाजे पर चला फेंकी.

‘‘शैंपू के लिए थैंक यू… और हां, तुम्हारी जानकारी के लिए बता दूं, तानसेन की बेटी सरस्वती ने राग दीपक नहीं ‘मेघ मल्हार’ गाया था. तौलिए में लिपटी हुई सरस्वती ने   झटके से दरवाजा खोला और मेरे द्वारा फेंकी गई शैंपू की बोतल कैच कर के वापस बाथरूम का दरवाजा बंद कर लिया.

‘‘उफ, इतनी देर से यह बाथरूम में सिर्फ गाना गा रही थी,’’ मैं ने अपना सिर पकड़ लिया, ‘‘सच में, सिरदर्द है यह लड़की.’’

‘‘जस्ट चिल यार, इस की तो रोज की आदत है, जब तक बाथरूम में जीभर के गाना नहीं गा लेती इसे चैन नहीं मिलता, तू तो बस गाना ऐंजौय कर,’’ ज्योत्सना ने हंसते हुए कहा.

ज्योत्सना आईने के सामने बैठी साजशृंगार में व्यस्त थी. मैं ने नोटिस किया, मैडम आज कुछ अलग ही दिख रही है. ग्रीन कलर के प्रिंटेड कुरता सैट और मैचिंग इयररिंग्स में आज तो गजब ढा रही थी मैडम.

‘‘आज कहां बिजली गिराने का इरादा है?’’

‘‘यहीं, इसी कमरे में, बिजली के चले जाने से तू कितनी परेशान है न,’’ उस ने पिंक कलर की लिपस्टिक अपने होंठों पर लगाते हुए कहा.

कमरे से बाहर जाने के लिए ज्योत्सना जैसे ही दरवाजे के पास आई, मेरी नजर उस के सैंडलों पर पड़ी.

‘‘एक मिनट, रुकना तो जरा.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ ज्योत्सना ने बनावटी आश्चर्य दिखाते हुए कहा.

‘‘क्या हुआ की बच्ची,’’ मैं ने गुस्से में तेवर दिखाए.

‘‘क्या मैं जान सकती हूं कि मैडम ने बिना इजाजत मेरे सैंडल किस खुशी में पहने?’’

‘‘प्लीज यार रूपाली, बस आज के लिए अपने सैंडल पहनने दे मु  झे. देख, मेरी ड्रैस से मैच कर रहे हैं ये. तू मेरी वाले पहन लेना, सिर्फ आज के लिए यार,’’ ज्योत्सना ने विनती के स्वर में कहा.

‘‘चल ठीक है पहन ले, तू भी क्या याद रखेगी,’’ मैं ने बड़ा दिल दिखाते हुए कहा.

‘‘वैसे आज क्या खास बात है, जो मैडम ने इतना शृंगार किया हुआ है… अच्छा, अब सम  झी. तेरा लैपटौप फिर से खराब हो गया है, कितने बजे आ रहा है वह, तेरा लैपटौप ठीक करने?’’ मैं ने शरारत में हंसते हुए उस के कमर पर चुटकी काटी.

‘‘कुछ घंटों में, लेकिन क्या फायदा अपनी खड़ूस वार्डन मिस लल्ली है न निगरानी करने के लिए, गजब की खड़ूस है यार, पलभर के लिए भी वह हम दोनों को अकेला नहीं छोड़ती, जब तक वह मेरा लैपटौप ठीक करता है, वहीं बैठ कर हम पर नजर रखती है. सिर्फ नजरें ही चार हो पाती हैं,’’ ज्योत्सना ने ठंडी आह भरते हुए कहा.

‘‘तुम आकाश को मिलने के लिए कहीं बाहर क्यों नहीं बुलाती?’’

‘‘डरती हूं, उस बेचारे पर कहीं कोई मुसीबत न आ जाए, उस के लिए ही तो कानपुर छोड़ कर उस के पीछेपीछे मैं लखनऊ आ गई, मेरी ऊंची जाति का होना हम दोनों के बीच सब से बड़ी दीवार बन गया है. तू ही बता रूपा, आकाश यदि निचली जाति का है तो उस में उस का क्या कुसूर है? कसूर तो समाज का है न जिस ने उच्चनीच की दीवारें खड़ी कीं.’’

‘‘अरी ओ लड़कियो, बस 15 मिनट, ठीक 15 मिनट बाद पानी की सप्लाई बंद कर दी जाएगी. 15 मिनट में जिसे भी नहाना है नहा ले, बिजली की कट औफ के कारण मोटर चालू नहीं हो सकी है, टंकी में पानी कम है,’’ हमारे गर्ल्स पीजी होस्टल की वार्डन ने जब सीढि़यां चढ़ते हुए आवाज लगाई तो मैं बाथरूम की तरफ भागी. सरस्वती बाथरूम से बाहर आ चुकी थी. मैं सरस्वती के साथ ही कालेज के लिए निकलती थी. ज्योत्सना हम से सीनियर थी.

नहाने की बाद जब मैं बाहर आई तो देखा सरस्वती अभी भी अपनी सुरीली आवाज में कोई गीत गुनगुना रही थी.

‘‘कसम से तुम्हारी आवाज में जादू है. यार सरस्वती, जब तु  झे गाने का इतना शौक है तो फिर मैडिकल लाइन में जाने के लिए अपना दिमाग क्यों खपा रही है, ऐसी भी क्या मजबूरी है.’’

‘‘छोड़ो, जाने दो रूपा, फिर कभी बताऊंगी. इस विषय पर मु  झ से अभी कोई चर्चा मत करो,’’ सरस्वती की आंखों में आंसू भर आए.

लखनऊ के कृष्णा नगर में हमारा पीजी होस्टल था. होस्टल की दूसरी मंजिल पर हमारा कमरा था. पहली मंजिल में डाइनिंग एरिया के साथ रसोईघर और होस्टल वार्डन ललिता का बड़ा सा कमरा था. हम लड़कियां उन के पीठ पीछे उन्हें लली कह कर उन का मजाक उड़ाते थे. ललिता ने शादी नहीं की थी. शादी नहीं करने के पीछे उन का अपना व्यक्तिगत कारण था. 45 की उम्र में वह 25 की दिखने की कोशिश करती थी.

‘‘फिर से वही आलू की सब्जी,’’ नाश्ते की प्लेट को देखते ही मैं ने नाकभौं सिकोड़ लिए.

‘‘सिर्फ आलू की सब्जी नहीं है, आलूमटर की सब्जी है, तुम्हें मटर नहीं दिखाई दे रहे?’’ वार्डन ने ऊंचे स्वर में लगभग फटकार लगाते हुए कहा.

‘‘कहां है मटर. हमें तो नहीं दिख रहे,’’ सरस्वती ने चम्मच को कटोरे में गोलगोल घूमते हुए पूछा.

‘‘आलू भी कहां हैं, बस रस दिख रहा है जिस में न तो मिर्च है और न ही मसाला, मु  झ से तो नहीं खाया जा रहा,’’ मैं ने गुस्से में प्लेट को आगे की तरफ सरका दिया.

‘‘यहां और भी लड़कियां रहती हैं उन में से तो किसी ने शिकायत नहीं की. सब ने बड़े चाव से खाना खाया, बस तुम्हीं दोनों के नखरे हैं. खाना है तो खाओ वरना भूखी रहो.’’

‘‘अचार मिल सकता है?’’ मैं ने प्लेट वापस अपनी तरफ खींचते हुए पूछा.

‘‘नहीं मिल सकता है, अचार खत्म हो गया है,’’ लली ने बड़ी बेरुखी से उत्तर दिया. बिना तीखा खाए ही मेरी आंखों में पानी भर आया. बड़े ही दुखी मन से हम दोनों ने नाश्ता जैसेतैसे खत्म किया और कालेज के लिए निकल पड़े.

आंखें भर आई थीं मेरी. आज मां के हाथों के बने लजीज खाने का स्वाद बहुत याद आ रहा था. सोच रही थी यह कैसी आजादी जिस में ढंग का खाना भी नहीं मिलता. इस से अच्छा तो हमारा बनारस ही था.

यह अलग बात है कि वहां मु  झे कैदियों जैसी फीलिंग आती थी. पिताजी की सख्ती और उन के नियमकायदों ने पूरे घर को जेलखाने में तबदील कर दिया था.

मु  झे अकसर मां पर हैरानी होती थी, आखिर वे पिताजी की इतनी अधिक ज्यादतियों को बरदाश्त क्यों करती हैं. मां को कहीं भी अकेले आनेजाने की इजाजत नहीं थी कि जो कुछ पहनतीं पिताजी की पसंद की पहनतीं. यहां तक कि खाना बनाने से ले कर खाने तक में पिताजी की ही पसंद होती. पिताजी के ही सिखाए हुए नियमकायदे को जीवन जीने का ढंग सम  झतीं. मर्यादा के नाम पर उन के इर्दगिर्द ऐसी लक्ष्मण रेखा खींच दी गई थी जिसे पार कर पाने की वे हिम्मत तक नहीं जुटा पाती थीं.

‘‘जरूरत से अधिक शिक्षा लड़कियों का दिमाग खराब कर देती है, अधिक पढ़ीलिखी लड़कियां न तो घर की रहती है न ही घाट की. बड़ेबुजुर्गों ने ऐसे ही नहीं कहा था कि लड़कियों को उतनी ही शिक्षा दो जितने में वे अपनी गृहस्थी संभाल सकें. देख लो पढ़ाने का नतीजा, 1 साल भी नहीं हुआ सुचिता ससुराल को छोड़ कर मायके आ गई, अपने पति से तलाक की मांग कर रही है, सत्यानाश हो ऐसी शिक्षा का. ये संस्कार दिए हैं हम ने,’’ पिताजी का क्रोधपूर्ण भाषण सुन कर मां सहम गई थीं, लेकिन मु  झे बहुत तेज गुस्सा आया था.

 

अपनी राह: 40 की उम्र में जब दीया ने किया मीरा का कायाकल्प

देखतेही देखते मीरा ने अपनी उम्र का 40वां वसंत पार कर लिया. 5 साल पहले तक रिश्तेदार उस के लिए ढंगबेढंग के रिश्ते भेजते रहे थे, पर अब सभी ने किनारा कर लिया था. उस के मम्मीपापा भी उस से छोटी दोनों बहनों और भाई की शादी कर चुके थे.

‘‘अकेले हैं तो क्या गम है,’’ कह कर  15 सालों से मीरा सारे प्रस्तावों को ठुकराती रही थी. लेकिन अपने असफल प्यार के धधकते रेगिस्तान में नंगे पैर दौड़ती भी तो रही.  वह एक पल के लिए भी देव को भूल न सकी थी. मन में बसे देव को वह भूल भी कैसे सकती थी. तनमन को चुरा, वजूद को मिटा कर मीरा के उस गिरधर ने उसे कहीं मुंह दिखाने के काबिल भी नहीं छोड़ा था. मात्र 14 साल की कच्ची उम्र से मीरा ने उसे मन में छिपा लिया था और उस चोर ने भी छिपने में कोई आनाकानी नहीं की थी. मन, क्रम, वचन से उस का हाथ थामे उस के प्रेम रस में भीगती रही, छीजती  रही. सोतेजागते, उठतेबैठते, रोतेहंसते देवदेव उच्चारती रही.

समय के साथ दोनों के प्यार की खुशबू सर्वत्र फैल रही थी पर देव के प्रेम रस बूंदन में मीरा के मन की भीग रही चुनरिया तन को भी भिगो गई थी. होली के दिन भंग चढ़ा कर देव ने उस के तन की याचना क्या की कि गरजती, नाचती दामिनी की तरह वह उस पर बरस गई. फिर बारबार भीगती रही. कभी मोल ली हुई दासी की तरह तो कभी जोगन की तरह. प्रीत की चुनर ओढ़े मीरा नित नई होती गई.  दोनों ने आईआईटी दिल्ली से कंप्यूटर साइंस में बीटैक किया. एमबीए करने के लिए मीरा बैंगलुरु चली गई और देव बोस्टन के हार्वर्ड बिजनैस स्कूल में चला गया. देव तो बारबार जाने से मना कर रहा था पर मीरा ही नहीं मानी. पलक झपकते 2 साल गुजर जाएंगे, फिर हम और हमारा आशियाना. भविष्य के ढेर सारे सपने आंखों में ले कर भरे मन से मीरा ने देव को विदा किया.

कभी फोन पर बातें कर के तो कभी फेसबुक पर प्यारमनुहार करते समय बीतता रहा. न्यूयौर्क की एक बड़ी कंपनी में कैंपस सलैक्शन होने के बाद देव इंडिया आया भी. कन्याकुमारी में 2 हफ्ते तक दोनों एकदूजे में खोए रहे. सभी तरह से आश्वस्त करते हुए देव लौट गया. बैंगलुरु की मल्टीनैशनल कंपनी ने मीरा को भारी पैकेज के साथ सलैक्ट कर लिया था. लेकिन उस की नौकरी भी न्यूयौर्क में हो जाए, इस के लिए देव हर तरह से प्रयत्नशील था. नहीं भी होने से कोई बात नहीं थी. शादी के बाद स्पाउस वीजा पर वह देव के साथ चली जाएगी.  लेकिन ऐसा कहां हो सका.

इधर मीरा प्रीत की धानी चुनर ओढ़े देव की प्रतीक्षा कर रही थी. उधर विषम परिस्थितियों में देव को उसी कंपनी में कार्यरत नैन्सी से शादी करनी पड़ी थी. विरह में डूबे जो दिन पावस और वसंत बने हुए थे, अग्नि बन कर उस पर बरस गए. देव पुरुष था, समाज ने उस के कदम को सराहा. स्त्री तन लिए मीरा ही कलंकित हुई. समय की चट्टान पर लिखित उस की प्रेमगाथा ने जीतेजी उसे सलीब पर टांग दिया. विवश मीरा को विरह की अनंत पीड़ा स्वीकारनी पड़ी पर अपनी प्रेम गठिया को छुआ तक नहीं. छूती भी कैसे? एक ही मन था, एक ही चुनर थी और वह भी देव प्रेम रंग में भीगी. दूसरा रंग कहां से चढ़ता और चढ़ता भी कैसे? चुनर का रंग न तो छीजा था और न सूखा था, वह तो दिनोंदिन गहराता गया था.

कितने रिश्ते आए, कितनों ने साथ के लिए हाथ बढ़ाया पर वह देव की जोगिन  ही बनी रही. मीरा अपने काम में ही अपना सुकून ढूंढ़ने का प्रयास करती रही. देखतेदेखते दोनों बहनों एवं भाई का घर बस गया पर मीरा अकेलेपन की मार भोगती रही.  जब से मीरा को दीया का साथ मिला था जीवन के प्रति उस का नजरिया सकारात्मक हो गया था. दीया का बारबार का समझाना कि जीवन में जो गुजर गया उसे भुला कर जीने का प्रयास कर के खुश रहना है.

‘‘अरे यार, कब तक देव की विरहण बनी रहोगी? वह तो सब कुछ भुला कर मस्ती भरा जीवन जी रहा है और तुम उस की यादों को संजोए हो. चलो, आज ब्यूटीपार्लर चलती हैं. अपने साथ तुम्हारे हुलिए को भी बदलवाऊंगी.’’  मीरा ने हंसते हुए कहा, ‘‘उम्र के 40 वसंत पार कर लिए. अब मुझे देखेगा भी कौन, जो ब्यूटीपार्लर जाऊं?’’  ‘‘यह भी कोई उम्र है जोगिन बनने की… 40 के बाद ही जीवन जीने का मजा रहता है… चुनौतियों से, झंझावातों से, बाधाओं से और अगर कोई साथी न हो तो अकेलेपन से जूझने का जज्बा रहता है. जब जागो तभी सबेरा. आज से अपने जीने का अंदाज बदल डालो… कैसी बहार छा जाती है जीवन में देखना.’’

दीया के शब्दों ने मीरा के अंदर तूफान उठा दिया… वह व्यग्र हो उठी… कितना दम है दीया के कथन में… इस तरह से क्यों न समझाया उस के अपनों ने उसे कभी. फिर मीरा ने कोईर् आनाकानी नहीं की.  ब्यूटीपार्लर से निकलने के बाद एक नई मीरा का जन्म हो गया था, जिस के समक्ष खुशियों का समंदर लहरा उठा था. कोई अकेलापन नहीं, उत्साह, उमंग से भरे नए एहसास के कलश चारों ओर छलक उठे थे.

15 सालों के दुखदर्द, टूटन, चुभन और अकेलेपन के पलों को एकसाथ जी लेना चाहती थी. अपार रूप की स्वामिनी थी ही, ब्यूटीपार्लर से निकलने के बाद हीरे से तरासे उस के सौंदर्य ने न जाने कितनी जोड़ी आंखों को बांध लिया था.  मौल में जा कर आधुनिक पोशाकें खरीदीं. फिर उन से मैच करती ज्वैलरी, सौंदर्य प्रसाधन का सामान, परफ्यूम आदि खरीदा. अगर दीया उसे समय का एहसास नहीं दिलाती तो शायद पल भर में अपनी दुनिया बदल लेने के जनून से बाहर ही न आ पाती.

1 हफ्ते के अंदर ही मीरा ने स्वयं को ही नहीं, अपने फ्लैट के कोनेकोने को भी सजा लिया. वार्डरोब से ले कर किचन तक मुसकरा उठे.  मीरा में आए अचानक परिवर्तन ने अपार्टमैंट से ले कर औफिस तक के लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया था. अकेलेपन में घुटती मीरा हर पल चहकने लगी थी. सभी की अवहेलना करने वाली मीरा नए जोश से भर कर सब के साथ उन्मुक्त हो उठी थी.  देखतेदेखते सभी के साथ उस के दोस्ताना संबंध ही नहीं बने, बल्कि वह सब के दुखसुख के साथी भी बन गई. हर पल कुछ नया करने की उमंग से भरी रहती. प्रत्येक दिन सैंडविच निगलने वाली मीरा के खाने का डब्बा खुलते ही लजीज व्यंजनों की सुगंध से सभी के मुंह में पानी आ जाता. साथियों से अपना खाना भी शेयर करने लगी थी.

फिट और चुस्त रहने के लिए मीरा ने जिम जाना भी शुरू कर दिया था. वहां भी हर उम्र के उस के बहुत सारे दोस्त बन गए थे. पढ़ना तो पहले से ही उस की हौबी थी. प्रसिद्घ लेखकों की किताबों से रैक भर गया था.  आंतरिक प्रसन्नता एवं सुगढ़ मेकअप ने उस की उम्र के 10 साल चुरा लिए थे. अपने डाइरैक्टर अमन से हमेशा चिढ़ी रहने वाली मीरा अब उन से भी हिलमिल गई थी. वे भी मीरा में आए परिवर्तन पर चकित थे. उस की असीमित प्रतिभा और उदासी से भरे सौंदर्य पर वे मोहित तो थे ही, उस के जीने के अनोखे अंदाज से वे उस की निकटता के लिए व्याकुल हो उठे.

आननफानन में किसी बड़े प्रोजैक्ट की रूपरेखा तैयार  करते हुए मीरा को साथ लिए उन्होंने न्यूयौर्क के लिए उड़ान भर ली. 2 कमरों की बुकिंग होते हुए भी मीरा को अपने कमरे में रहने को बाध्य किया तो वह भी इनकार नहीं कर सकी. अमन के आकर्षक व्यक्तित्व पर वह भी मुग्ध थी. अब दोनों के दिन सोने के थे और रातें चांदी की.  दोनों एकदूसरे में समाए हाथों में हाथ लिए दुनिया के उस अनोखे खहर में घूमते रहे. वहां रोकटोक करने वाला भी कौन था. तनमन से वर्षों की प्यासी मीरा आनंद सागर में जी भर कर डुबकियां लगा रही थी.

मौल में घूमते समय किसी की घूरती नजरों को पहचान मीरा और उन्मुक्त हो उठी. वह अमन की बांहों में झूम उठी. वे नजरें थीं देव की.  वह अमन से लिपटी हुई देव के समक्ष जा खड़ी हुई.  ‘‘हाय देव, पहचाना नहीं? मैं मीरा… कभी की तुम्हारी दीवानी… सोचा भी नहीं था कि कभी तुम से कुछ यों मुलाकात होगी… सब कुछ ठीक चल रहा है न? कुछ दुबले हो गए हो.’’

अमन की बांहों में अपनेआप को लपेटते हुए उद्दंडता से बोली मानो देव के किए का सारा लेखाजोखा इसी पल ले लेगी.  ‘‘अमन. ये हैं देव, कभी के मेरे मंगेतर थे. मैं इन से तनमन से जुड़ी रही. इन के विश्वासघात के बाद भी इन की यादों में जीतीमरती रही.’’  ये तो मेरे देव नहीं बने पर मैं ने बेवकूफी में जीवन के कितने अनमोल वर्ष इन की पारो बन कर गुजारा दिए.

‘‘देव, ये हैं अमन,’’ कह कर सब से छिपा कर मीरा ने छलक आए आंसुओं को अमन की हथेलियों में मुंह छिपा कर पोछा और आगे बढ़ गई. अमन को उस पर और भी प्यार उमड़ आया. फिर पीछे मुड़ कर देव को घूरते हुए मीरा को अपनी जैकेट में छिपा लिया.

फटीफटी आंखों से देव तब तक अमन की बांहों में बंधी मीरा को देखता रहा जब तक वह उस की नजरों से ओझल नहीं हो गई.

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