वो कमजोर पल: सीमा ने क्या चुना प्यार या परिवार?

वही हुआ जिस का सीमा को डर था. उस के पति को पता चल ही गया कि उस का किसी और के साथ अफेयर चल रहा है. अब क्या होगा? वह सोच रही थी, क्या कहेगा पति? क्यों किया तुम ने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा? क्या कमी थी मेरे प्यार में? क्या नहीं दिया मैं ने तुम्हें? घरपरिवार, सुखी संसार, पैसा, इज्जत, प्यार किस चीज की कमी रह गई थी जो तुम्हें बदचलन होना पड़ा? क्या कारण था कि तुम्हें चरित्रहीन होना पड़ा? मैं ने तुम से प्यार किया. शादी की. हमारे प्यार की निशानी हमारा एक प्यारा बेटा. अब क्या था बाकी? सिवा तुम्हारी शारीरिक भूख के. तुम पत्नी नहीं वेश्या हो, वेश्या.

हां, मैं ने धोखा दिया है अपने पति को, अपने शादीशुदा जीवन के साथ छल किया है मैं ने. मैं एक गिरी हुई औरत हूं. मुझे कोई अधिकार नहीं किसी के नाम का सिंदूर भर कर किसी और के साथ बिस्तर सजाने का. यह बेईमानी है, धोखा है. लेकिन जिस्म के इस इंद्रजाल में फंस ही गई आखिर.

मैं खुश थी अपनी दुनिया में, अपने पति, अपने घर व अपने बच्चे के साथ. फिर क्यों, कब, कैसे राज मेरे अस्तित्व पर छाता गया और मैं उस के प्रेमजाल में उलझती चली गई. हां, मैं एक साधारण नारी, मुझ पर भी किसी का जादू चल सकता है. मैं भी किसी के मोहपाश में बंध सकती हूं, ठीक वैसे ही जैसे कोई बच्चा नया खिलौना देख कर अपने पास के खिलौने को फेंक कर नए खिलौने की तरफ हाथ बढ़ाने लगता है.

नहीं…मैं कोई बच्ची नहीं. पति कोई खिलौना नहीं. घरपरिवार, शादीशुदा जीवन कोई मजाक नहीं कि कल दूसरा मिला तो पहला छोड़ दिया. यदि अहल्या को अपने भ्रष्ट होने पर पत्थर की शिला बनना पड़ा तो मैं क्या चीज हूं. मैं भी एक औरत हूं, मेरे भी कुछ अरमान हैं. इच्छाएं हैं. यदि कोई अच्छा लगने लगे तो इस में मैं क्या कर सकती हूं. मैं मजबूर थी अपने दिल के चलते. राज चमकते सूरज की तरह आया और मुझ पर छा गया.

उन दिनों मेरे पति अकाउंट की ट्रेनिंग पर 9 माह के लिए राजधानी गए हुए थे. फोन पर अकसर बातें होती रहती थीं. बीच में आना संभव नहीं था. हर रात पति के आलिंगन की आदी मैं अपने को रोकती, संभालती रही. अपने को जीवन के अन्य कामों में व्यस्त रखते हुए समझाती रही कि यह तन, यह मन पति के लिए है. किसी की छाया पड़ना, किसी के बारे में सोचना भी गुनाह है. लेकिन यह गुनाह कर गई मैं.

मैं अपनी सहेली रीता के घर बैठने जाती. पति घर पर थे नहीं. बेटा नानानानी के घर गया हुआ था गरमियों की छुट्टी में. रीता के घर कभी पार्टी होती, कभी शेरोशायरी, कभी गीतसंगीत की महफिल सजती, कभी पत्ते खेलते. ऐसी ही पार्टी में एक दिन राज आया. और्केस्ट्रा में गाता था. रीता का चचेरा भाई था. रात का खाना वह अपनी चचेरी बहन के यहां खाता और दिनभर स्ट्रगल करता. एक दिन रीता के कहने पर उस ने कुछ प्रेमभरे, कुछ दर्दभरे गीत सुनाए. खूबसूरत बांका जवान, गोरा रंग, 6 फुट के लगभग हाइट. उस की आंखें जबजब मुझ से टकरातीं, मेरे दिल में तूफान सा उठने लगता.

राज अकसर मुझ से हंसीमजाक करता. मुझे छेड़ता और यही हंसीमजाक, छेड़छाड़ एक दिन मुझे राज के बहुत करीब ले आई. मैं रीता के घर पहुंची. रीता कहीं गई हुई थी काम से. राज मिला. ढेर सारी बातें हुईं और बातों ही बातों में राज ने कह दिया, ‘मैं तुम से प्यार करता हूं.’

मुझे उसे डांटना चाहिए था, मना करना चाहिए था. लेकिन नहीं, मैं भी जैसे बिछने के लिए तैयार बैठी थी. मैं ने कहा, ‘राज, मैं शादीशुदा हूं.’

राज ने तुरंत कहा, ‘क्या शादीशुदा औरत किसी से प्यार नहीं कर सकती? ऐसा कहीं लिखा है? क्या तुम मुझ से प्यार करती हो?’

मैं ने कहा, ‘हां.’ और उस ने मुझे अपनी बांहों में समेट लिया. फिर मैं भूल गई कि मैं एक बच्चे की मां हूं. मैं किसी की ब्याहता हूं. जिस के साथ जीनेमरने की मैं ने अग्नि के समक्ष सौगंध खाई थी. लेकिन यह दिल का बहकना, राज की बांहों में खो जाना, इस ने मुझे सबकुछ भुला कर रख दिया.

मैं और राज अकसर मिलते. प्यारभरी बातें करते. राज ने एक कमरा किराए पर लिया हुआ था. जब रीता ने पूछताछ करनी शुरू की तो मैं राज के साथ बाहर मिलने लगी. कभी उस के घर पर, कभी किसी होटल में तो कभी कहीं हिल स्टेशन पर. और सच कहूं तो मैं उसे अपने घर पर भी ले कर आई थी. यह गुनाह इतना खूबसूरत लग रहा था कि मैं भूल गई कि जिस बिस्तर पर मेरे पति आनंद का हक था, उसी बिस्तर पर मैं ने बेशर्मी के साथ राज के साथ कई रातें गुजारीं. राज की बांहों की कशिश ही ऐसी थी कि आनंद के साथ बंधे विवाह के पवित्र बंधन मुझे बेडि़यों की तरह लगने लगे.

मैं ने एक दिन राज से कहा भी कि क्या वह मुझ से शादी करेगा? उस ने हंस कर कहा, ‘मतलब यह कि तुम मेरे लिए अपने पति को छोड़ सकती हो. इस का मतलब यह भी हुआ कि कल किसी और के लिए मुझे भी.’

मुझे अपने बेवफा होने का एहसास राज ने हंसीहंसी में करा दिया था. एक रात राज के आगोश में मैं ने शादी का जिक्र फिर छेड़ा. उस ने मुझे चूमते हुए कहा, ‘शादी तो तुम्हारी हो चुकी है. दोबारा शादी क्यों? बिना किसी बंधन में बंधे सिर्फ प्यार नहीं कर सकतीं.’

‘मैं एक स्त्री हूं. प्यार के साथ सुरक्षा भी चाहिए और शादी किसी भी स्त्री के लिए सब से सुरक्षित संस्था है.’

राज ने हंसते हुए कहा, ‘क्या तुम अपने पति का सामना कर सकोगी? उस से तलाक मांग सकोगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के वापस आते ही प्यार टूट जाए और शादी जीत जाए?’

मुझ पर तो राज का नशा हावी था. मैं ने कहा, ‘तुम हां तो कहो. मैं सबकुछ छोड़ने को तैयार हूं.’

‘अपना बच्चा भी,’ राज ने मुझे घूरते हुए कहा. उफ यह तो मैं ने सोचा ही नहीं था.

‘राज, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम बच्चे को अपने साथ रख लें?’

राज ने हंसते हुए कहा, ‘क्या तुम्हारा बेटा, मुझे अपना पिता मानेगा? कभी नहीं. क्या मैं उसे उस के बाप जैसा प्यार दे सकूंगा? कभी नहीं. क्या तलाक लेने के बाद अदालत बच्चा तुम्हें सौंपेगी? कभी नहीं. क्या वह बच्चा मुझे हर घड़ी इस बात का एहसास नहीं दिलाएगा कि तुम पहले किसी और के साथ…किसी और की निशानी…क्या उस बच्चे में तुम्हें अपने पति की यादें…देखो सीमा, मैं तुम से प्यार करता हूं. लेकिन शादी करना तुम्हारे लिए तब तक संभव नहीं जब तक तुम अपना अतीत पूरी तरह नहीं भूल जातीं.

‘अपने मातापिता, भाईबहन, सासससुर, देवरननद अपनी शादी, अपनी सुहागरात, अपने पति के साथ बिताए पलपल. यहां तक कि अपना बच्चा भी क्योंकि यह बच्चा सिर्फ तुम्हारा नहीं है. इतना सब भूलना तुम्हारे लिए संभव नहीं है.

‘कल जब तुम्हें मुझ में कोई कमी दिखेगी तो तुम अपने पति के साथ मेरी तुलना करने लगोगी, इसलिए शादी करना संभव नहीं है. प्यार एक अलग बात है. किसी पल में कमजोर हो कर किसी और में खो जाना, उसे अपना सबकुछ मान लेना और बात है लेकिन शादी बहुत बड़ा फैसला है. तुम्हारे प्यार में मैं भी भूल गया कि तुम किसी की पत्नी हो. किसी की मां हो. किसी के साथ कई रातें पत्नी बन कर गुजारी हैं तुम ने. यह मेरा प्यार था जो मैं ने इन बातों की परवा नहीं की. यह भी मेरा प्यार है कि तुम सब छोड़ने को राजी हो जाओ तो मैं तुम से शादी करने को तैयार हूं. लेकिन क्या तुम सबकुछ छोड़ने को, भूलने को राजी हो? कर पाओगी इतना सबकुछ?’ राज कहता रहा और मैं अवाक खड़ी सुनती रही.

‘यह भी ध्यान रखना कि मुझ से शादी के बाद जब तुम कभी अपने पति के बारे में सोचोगी तो वह मुझ से बेवफाई होगी. क्या तुम तैयार हो?’

‘तुम ने मुझे पहले क्यों नहीं समझाया ये सब?’

‘मैं शादीशुदा नहीं हूं, कुंआरा हूं. तुम्हें देख कर दिल मचला. फिसला और सीधा तुम्हारी बांहों में पनाह मिल गई. मैं अब भी तैयार हूं. तुम शादीशुदा हो, तुम्हें सोचना है. तुम सोचो. मेरा प्यार सच्चा है. मुझे नहीं सोचना क्योंकि मैं अकेला हूं. मैं तुम्हारे साथ सारा जीवन गुजारने को तैयार हूं लेकिन वफा के वादे के साथ.’

मैं रो पड़ी. मैं ने राज से कहा, ‘तुम ने पहले ये सब क्यों नहीं कहा.’

‘तुम ने पूछा नहीं.’

‘लेकिन जो जिस्मानी संबंध बने थे?’

‘वह एक कमजोर पल था. वह वह समय था जब तुम कमजोर पड़ गई थीं. मैं कमजोर पड़ गया था. वह पल अब गुजर चुका है. उस कमजोर पल में हम प्यार कर बैठे. इस में न तुम्हारी खता है न मेरी. दिल पर किस का जोर चला है. लेकिन अब बात शादी की है.’

राज की बातों में सचाई थी. वह मुझ से प्यार करता था या मेरे जिस्म से बंध चुका था. जो भी हो, वह कुंआरा था. तनहा था. उसे हमसफर के रूप में कोई और न मिला, मैं मिल गई. मुझे भी उन कमजोर पलों को भूलना चाहिए था जिन में मैं ने अपने विवाह को अपवित्र कर दिया. मैं परपुरुष के साथ सैक्स करने के सुख में, देह की तृप्ति में ऐसी उलझी कि सबकुछ भूल गई. अब एक और सब से बड़ा कदम या सब से बड़ी बेवकूफी कि मैं अपने पति से तलाक ले कर राज से शादी कर लूं. क्या करूं मैं, मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था.  मैं ने राज से पूछा, ‘मेरी जगह तुम होते तो क्या करते?’

राज हंस कर बोला, ‘ये तो दिल की बातें हैं. तुम्हारी तुम जानो. यदि तुम्हारी जगह मैं होता तो शायद मैं तुम्हारे प्यार में ही न पड़ता या अपने कमजोर पड़ने वाले क्षणों के लिए अपनेआप से माफी मांगता. पता नहीं, मैं क्या करता?’

राज ये सब कहीं इसलिए तो नहीं कह रहा कि मैं अपनी गलती मान कर वापस चली जाऊं, सब भूल कर. फिर जो इतना समय इतनी रातें राज की बांहों में बिताईं. वह क्या था? प्यार नहीं मात्र वासना थी? दलदल था शरीर की भूख का? कहीं ऐसा तो नहीं कि राज का दिल भर गया हो मुझ से, अपनी हवस की प्यास बुझा ली और अब विवाह की रीतिनीति समझा रहा हो? यदि ऐसी बात थी तो जब मैं ने कहा था कि मैं ब्याहता हूं तो फिर क्यों कहा था कि किस किताब में लिखा है कि शादीशुदा प्यार नहीं कर सकते?

राज ने आगे कहा, ‘किसी स्त्री के आगोश में किसी कुंआरे पुरुष का पहला संपर्क उस के जीवन का सब से बड़ा रोमांच होता है. मैं न होता कोई और होता तब भी यही होता. हां, यदि लड़की कुंआरी होती, अकेली होती तो इतनी बातें ही न होतीं. तुम उन क्षणों में कमजोर पड़ीं या बहकीं, यह तो मैं नहीं जानता लेकिन जब तुम्हारे साथ का साया पड़ा मन पर, तो प्यार हो गया और जिसे प्यार कहते हैं उसे गलत रास्ता नहीं दिखा सकते.’

मैं रोने लगी, ‘मैं ने तो अपने हाथों अपना सबकुछ बरबाद कर लिया. तुम्हें सौंप दिया. अब तुम मुझे दिल की दुनिया से दूर हकीकत पर ला कर छोड़ रहे हो.’

‘तुम चाहो तो अब भी मैं शादी करने को तैयार हूं. क्या तुम मेरे साथ मेरी वफादार बन कर रह सकती हो, सबकुछ छोड़ कर, सबकुछ भूल कर?’ राज ने फिर दोहराया.

इधर, आनंद, मेरे पति वापस आ गए. मैं अजीब से चक्रव्यूह में फंसी हुई थी. मैं क्या करूं? क्या न करूं? आनंद के आते ही घर के काम की जिम्मेदारी. एक पत्नी बन कर रहना. मेरा बेटा भी वापस आ चुका था. मुझे मां और पत्नी दोनों का फर्ज निभाना था. मैं निभा भी रही थी. और ये निभाना किसी पर कोई एहसान नहीं था. ये तो वे काम थे जो सहज ही हो जाते थे. लेकिन आनंद के दफ्तर और बेटे के स्कूल जाते ही राज आ जाता या मैं उस से मिलने चल पड़ती, दिल के हाथों मजबूर हो कर.

मैं ने राज से कहा, ‘‘मैं तुम्हें भूल नहीं पा रही हूं.’’

‘‘तो छोड़ दो सबकुछ.’’

‘‘मैं ऐसा भी नहीं कर सकती.’’

‘‘यह तो दोतरफा बेवफाई होगी और तुम्हारी इस बेवफाई से होगा यह कि मेरा प्रेम किसी अपराधकथा की पत्रिका में अवैध संबंध की कहानी के रूप में छप जाएगा. तुम्हारा पति तुम्हारी या मेरी हत्या कर के जेल चला जाएगा. हमारा प्रेम पुलिस केस बन जाएगा,’’ राज ने गंभीर होते हुए कहा.

मैं भी डर गई और बात सच भी कही थी राज ने. फिर वह मुझ से क्यों मिलता है? यदि मैं पूछूंगी तो हंस कर कहेगा कि तुम आती हो, मैं इनकार कैसे कर दूं. मैं भंवर में फंस चुकी थी. एक तरफ मेरा हंसताखेलता परिवार, मेरी सुखी विवाहित जिंदगी, मेरा पति, मेरा बेटा और दूसरी तरफ उन कमजोर पलों का साथी राज जो आज भी मेरी कमजोरी है.

इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. पति को भनक लगी. उन्होंने दोटूक कहा, ‘‘रहना है तो तरीके से रहो वरना तलाक लो और जहां मुंह काला करना हो करो. दो में से कोई एक चुन लो, प्रेमी या पति. दो नावों की सवारी तुम्हें डुबो देगी और हमें भी.’’

मैं शर्मिंदा थी. मैं गुनाहगार थी. मैं चुप रही. मैं सुनती रही. रोती रही.

मैं फिर राज के पास पहुंची. वह कलाकार था. गायक था. उसे मैं ने बताया कि मेरे पति ने मुझ से क्याक्या कहा है और अपने शर्मसार होने के विषय में भी. उस ने कहा, ‘‘यदि तुम्हें शर्मिंदगी है तो तुम अब तक गुनाह कर रही थीं. तुम्हारा पति सज्जन है. यदि हिंसक होता तो तुम नहीं आतीं, तुम्हारे मरने की खबर आती. अब मेरा निर्णय सुनो. मैं तुम से शादी नहीं कर सकता. मैं एक ऐसी औरत से शादी करने की सोच भी नहीं सकता जो दोहरा जीवन जीए. तुम मेरे लायक नहीं हो. आज के बाद मुझ से मिलने की कोशिश मत करना. वे कमजोर पल मेरी पूरी जिंदगी को कमजोर बना कर गिरा देंगे. आज के बाद आईं तो बेवफा कहलाओगी दोनों तरफ से. उन कमजोर पलों को भूलने में ही भलाई है.’’

मैं चली आई. उस के बाद कभी नहीं मिली राज से. रीता ने ही एक बार बताया कि वह शहर छोड़ कर चला गया है. हां, अपनी बेवफाई, चरित्रहीनता पर अकसर मैं शर्मिंदगी महसूस करती रहती हूं. खासकर तब जब कोई वफा का किस्सा निकले और मैं उस किस्से पर गर्व करने लगूं तो पति की नजरों में कुछ हिकारत सी दिखने लगती है. मानो कह रहे हों, तुम और वफा. पति सभ्य थे, सुशिक्षित थे और परिवार के प्रति समर्पित.

कभी कुलटा, चरित्रहीन, वेश्या नहीं कहा. लेकिन अब शायद उन की नजरों में मेरे लिए वह सम्मान, प्यार न रहा हो. लेकिन उन्होंने कभी एहसास नहीं दिलाया. न ही कभी अपनी जिम्मेदारियों से मुंह छिपाया.

मैं सचमुच आज भी जब उन कमजोर पलों को सोचती हूं तो अपनेआप को कोसती हूं. काश, उस क्षण, जब मैं कमजोर पड़ गई थी, कमजोर न पड़ती तो आज पूरे गर्व से तन कर जीती. लेकिन क्या करूं, हर गुनाह सजा ले कर आता है. मैं यह सजा आत्मग्लानि के रूप में भोग रही थी. राज जैसे पुरुष बहका देते हैं लेकिन बरबाद होने से बचा भी लेते हैं.

स्त्री के लिए सब से महत्त्वपूर्ण होती है घर की दहलीज, अपनी शादी, अपना पति, अपना परिवार, अपने बच्चे. शादीशुदा औरत की जिंदगी में ऐसे मोड़ आते हैं कभीकभी. उन में फंस कर सबकुछ बरबाद करने से अच्छा है कि कमजोर न पड़े और जो भी सुख तलाशना हो, अपने घरपरिवार, पति, बच्चों में ही तलाशे. यही हकीकत है, यही रिवाज, यही उचित भी है.

विरासत: नाजायज संबंध के चलते जब कठघरे में खड़ा हुआ शादीशुदा विनय

कई दिनों से एक बात मन में बारबार उठ रही है कि इनसान को शायद अपने कर्मों का फल इस जीवन में ही भोगना पड़ता है. यह बात नहीं है कि मैं टैलीविजन में आने वाले क्राइम और भक्तिप्रधान कार्यक्रमों से प्रभावित हो गया हूं. यह भी नहीं है कि धर्मग्रंथों का पाठ करने लगा हूं, न ही किसी बाबा का भक्त बना हूं. यह भी नहीं कि पश्चात्ताप की महत्ता नए सिरे में समझ आ गई हो.

दरअसल, बात यह है कि इन दिनों मेरी सुपुत्री राशि का मेलजोल अपने सहकर्मी रमन के साथ काफी बढ़ गया है. मेरी चिंता का विषय रमन का शादीशुदा होना है. राशि एक निजी बैंक में मैनेजर के पद पर कार्यरत है. रमन सीनियर मैनेजर है. मेरी बेटी अपने काम में काफी होशियार है. परंतु रमन के साथ उस की नजदीकी मेरी घबराहट को डर में बदल रही थी. मेरी पत्नी शोभा बेटे के पास न्यू जर्सी गई थी. अब वहां फोन कर के दोनों को क्या बताता. स्थिति का सामना मुझे स्वयं ही करना था. आज मेरा अतीत मुझे अपने सामने खड़ा दिखाई दे रहा था…

मेरा मुजफ्फर नगर में नया नया तबादला हुआ था. परिवार दिल्ली में ही छोड़ दिया था.  वैसे भी शोभा उस समय गर्भवती थी. वरुण भी बहुत छोटा था और शोभा का अपना परिवार भी वहीं था. इसलिए मैं ने उन को यहां लाना उचित नहीं समझा था. वैसे भी 2 साल बाद मुझे दोबारा पोस्टिंग मिल ही जानी थी.

गांधी कालोनी में एक घर किराए पर ले लिया था मैं ने. वहां से मेरा बैंक भी पास पड़ता था.

पड़ोस में भी एक नया परिवार आया था. एक औरत और तीसरी या चौथी में

पढ़ने वाले 2 जुड़वां लड़के. मेरे बैंक में काम करने वाले रमेश बाबू उसी महल्ले में रहते थे. उन से ही पता चला था कि वह औरत विधवा है. हमारे बैंक में ही उस के पति काम करते थे. कुछ साल पहले बीमारी की वजह से उन का देहांत हो गया था. उन्हीं की जगह उस औरत को नौकरी मिली थी. पहले अपनी ससुराल में रहती थी, परंतु पिछले महीने ही उन के तानों से तंग आ कर यहां रहने आई थी.

‘‘बच कर रहना विनयजी, बड़ी चालू औरत है. हाथ भी नहीं रखने देती,’’ जातेजाते रमेश बाबू यह बताना नहीं भूले थे. शायद उन की कोशिश का परिणाम अच्छा नहीं रहा होगा. इसीलिए मुझे सावधान करना उन्होंने अपना परम कर्तव्य समझा.

सौजन्य हमें विरासत में मिला है और पड़ोसियों के प्रति स्नेह और सहयोग की भावना हमारी अपनी कमाई है. इन तीनों गुणों का हम पुरुषवर्ग पूरी ईमानदारी से जतन तब और भी करते हैं जब पड़ोस में एक सुंदर स्त्री रहती हो. इसलिए पहला मौका मिलते ही मैं ने उसे अपने सौजन्य से अभिभूत कर दिया.

औफिस से लौट कर मैं ने देखा वह सीढि़यों पर बैठ हुई थी.

‘‘आप यहां क्यों बैठी हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जी… सर… मेरी चाभी कहीं गिर कई है, बच्चे आने वाले हैं… समझ नहीं आ रहा

क्या करूं?’’

‘‘आप परेशान न हों, आओ मेरे घर में आ जाओ.’’

‘‘जी…?’’

‘‘मेरा मतलब है आप अंदर चल कर बैठिए. तब तक मैं चाभी बनाने वाले को ले कर आता हूं.’’

‘‘जी, मैं यहीं इंतजार कर लूंगी.’’

‘‘जैसी आप की मरजी.’’

थोड़ी देर बाद रचनाजी के घर की चाभी बन गई और मैं उन के घर में बैठ कर चाय पी रहा था. आधे घंटे बाद उन के बच्चे भी आ गए. दोनों मेरे बेटे वरुण की ही उम्र के थे. पल भर में ही मैं ने उन का दिल जीत लिया.

जितना समय मैं ने शायद अपने बेटे को नहीं दिया था उस से कहीं ज्यादा मैं अखिल और निखिल को देने लगा था. उन के साथ क्रिकेट खेलना, पढ़ाई में उन की सहायता करना,

रविवार को उन्हें ले कर मंडी की चाट खाने का तो जैसे नियम बन गया था. रचनाजी अब रचना हो गई थीं. अब किसी भी फैसले में रचना के लिए मेरी अनुमति महत्त्वपूर्ण हो गई थी. इसीलिए मेरे समझाने पर उस ने अपने दोनों बेटों को स्कूल के बाकी बच्चों के साथ पिकनिक पर भेज दिया था.

सरकारी बैंक में काम हो न हो हड़ताल तो होती ही रहती है. हमारे बैंक में भी 2 दिन की हड़ताल थी, इसलिए उस दिन मैं घर पर ही था. अमूमन छुट्टी के दिन मैं रचना के घर ही खाना खाता था. परंतु उस रोज बात कुछ अलग थी. घर में दोनों बच्चे नहीं थे.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं रचना?’’

‘‘अरे विनयजी अब क्या आप को भी आने से पहले इजाजत लेनी पड़ेगी?’’

खाना खा कर दोनों टीवी देखने लगे. थोड़ी देर बाद मुझे लगा रचना कुछ असहज सी है.

‘‘क्या हुआ रचना, तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

‘‘कुछ नहीं, बस थोड़ा सिरदर्द है.’’

अपनी जगह से उठ कर मैं उस का सिर दबाने लगा. सिर दबातेदबाते मेरे हाथ उस के कंधे तक पहुंच गए. उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं. हम किसी और ही दुनिया में खोने लगे. थोड़ी देर बाद रचना ने मना करने के लिए मुंह खोला तो मैं ने आगे बढ़ कर उस के होंठों पर अपने होंठ रख दिए.

उस के बाद रचना ने आंखें नहीं खोलीं. मैं धीरेधीरे उस के करीब आता चला गया. कहीं कोई संकोच नहीं था दोनों के बीच जैसे हमारे शरीर सालों से मिलना चाहते हों. दिल ने दिल की आवाज सुन ली थी, शरीर ने शरीर की भाषा पहचान ली थी.

उस के कानों के पास जा कर मैं धीरे से फुसफुसाया, ‘‘प्लीज, आंखें न खोलना तुम… आज बंद आंखों में मैं समाया हूं…’’

न जाने कितनी देर हम दोनों एकदूसरे की बांहों में बंधे चुपचाप लेटे रहे दोनों के बीच की खामोशी को मैं ने ही तोड़ा, ‘‘मुझ से नाराज तो नहीं हो तुम?’’

‘‘नहीं, परंतु अपनेआप से हूं… आप शादीशुदा हैं और…’’

‘‘रचना, शोभा से मेरी शादी महज एक समझौता है जो हमारे परिवारों के बीच हुआ था. बस उसे ही निभा रहा हूं… प्रेम क्या होता है यह मैं ने तुम से मिलने के बाद ही जाना.’’

‘‘परंतु… विवाह…’’

‘‘रचना… क्या 7 फेरे प्रेम को जन्म दे सकते हैं? 7 फेरों के बाद पतिपत्नी के बीच सैक्स का होना तो तय है, परंतु प्रेम का नहीं. क्या तुम्हें पछतावा हो रहा है रचना?’’

‘‘प्रेम शक्ति देता है, कमजोर नहीं करता. हां, वासना पछतावा उत्पन्न करती है. जिस पुरुष से मैं ने विवाह किया, उसे केवल अपना शरीर दिया. परंतु मेरे दिल तक तो वह कभी पहुंच ही नहीं पाया. फिर जितने भी पुरुष मिले उन की गंदी नजरों ने उन्हें मेरे दिल तक आने ही नहीं दिया. परंतु आप ने मुझे एक शरीर से ज्यादा एक इनसान समझा. इसीलिए वह पुराना संस्कार, जिसे अपने खून में पाला था कि विवाहेतर संबंध नहीं बनाना, आज टूट गया. शायद आज मैं समाज के अनुसार चरित्रहीन हो गई.’’

फिर कई दिन बीत गए, हम दोनों के संबंध और प्रगाढ़ होते जा रहे थे. मौका मिलते ही हम काफी समय साथ बिताते. एकसाथ घूमनाफिरना, शौपिंग करना, फिल्म देखना और फिर घर आ कर अखिल और निखिल के सोने के बाद एकदूसरे की बांहों में खो जाना दिनचर्या में शामिल हो गया था. औफिस में भी दोनों के बीच आंखों ही आंखों में प्रेम की बातें होती रहती थीं.

बीचबीच में मैं अपने घर आ जाता और शोभा के लिए और दोनों बच्चों के लिए ढेर सारे उपहार भी ले जाता. राशि का भी जन्म हो चुका था. देखते ही देखते 2 साल बीत गए. अब शोभा मुझ पर तबादला करवा लेने का दबाव डालने लगी थी. इधर रचना भी हमारे रिश्ते का नाम तलाशने लगी थी. मैं अब इन दोनों औरतों को नहीं संभाल पा रहा था. 2 नावों की सवारी में डूबने का खतरा लगातार बना रहता है. अब समय आ गया था किसी एक नाव में उतर जाने का.

रचना से मुझे वह मिला जो मुझे शोभा से कभी नहीं मिल पाया था, परंतु यह भी सत्य था कि जो मुझे शोभा के साथ रहने में मिलता वह मुझे रचना के साथ कभी नहीं मिल पाता और वह था मेरे बच्चे और सामाजिक सम्मान. यह सब कुछ सोच कर मैं ने तबादले के लिए आवेदन कर दिया.

‘‘तुम दिल्ली जा रहे हो?’’

रचना को पता चल गया था, हालांकि मैं ने पूरी कोशिश की थी उस से यह बात छिपाने की. बोला, ‘‘हां. वह जाना तो था ही…’’

‘‘और मुझे बताने की जरूरत भी नहीं समझी…’’

‘‘देखो रचना मैं इस रिश्ते को खत्म करना चाहता हूं.’’

‘‘पर तुम तो कहते थे कि तुम मुझ से प्रेम करते हो?’’

‘‘हां करता था, परंतु अब…’’

‘‘अब नहीं करते?’’

‘‘तब मैं होश में नहीं था, अब हूं.’’

‘‘तुम कहते थे शोभा मान जाएगी… तुम मुझ से भी शादी करोगे… अब क्या हो गया?’’

‘‘तुम पागल हो गई हो क्या? एक पत्नी के रहते क्या मैं दूसरी शादी कर सकता हूं?’’

‘‘मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगी? क्या जो हमारे बीच था वह महज.’’

‘‘रचना… देखो मैं ने तुम्हारे साथ कोई जबरदस्ती नहीं की, जो भी हुआ उस में तुम्हारी भी मरजी शामिल थी.’’

‘‘तुम मुझे छोड़ने का निर्णय ले रहे हो… ठीक है मैं समझ सकती हूं… तुम्हारी पत्नी है, बच्चे हैं. दुख मुझे इस बात का है कि तुम ने मुझे एक बार भी बताना जरूरी नहीं समझा. अगर मुझे पता नहीं चलता तो तुम शायद मुझे बिना बताए ही चले जाते. क्या मेरे प्रेम को इतने सम्मान की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी?’’

‘‘तुम्हें मुझ से किसी तरह की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी.’’

‘‘मतलब तुम ने मेरा इस्तेमाल किया और अब मन भर जाने पर मुझे…’’

‘‘हां किया जाओ क्या कर लोगी… मैं ने मजा किया तो क्या तुम ने नहीं किया? पूरी कीमत चुकाई है मैं ने. बताऊं तुम्हें कितना खर्चा किया है मैं ने तुम्हारे ऊपर?’’

कितना नीचे गिर गया था मैं… कैसे बोल गया था मैं वह सब. यह मैं भी जानता था कि रचना ने कभी खुद पर या अपने बच्चों पर ज्यादा खर्च नहीं करने दिया था. उस के अकेलेपन को भरने का दिखावा करतेकरते मैं ने उसी का फायदा उठा लिया था.

‘‘मैं तुम्हें बताऊंगी कि मैं क्या कर सकती हूं… आज जो तुम ने मेरे साथ किया है वह किसी और लड़की के साथ न करो, इस के लिए तुम्हें सजा मिलनी जरूरी है… तुम जैसा इनसान कभी नहीं सुधरेगा… मुझे शर्म आ रही है कि मैं ने तुम से प्यार किया.’’

उस के बाद रचना ने मुझ पर रेप का केस कर दिया. केस की बात सुनते ही शोभा और मेरी ससुराल वाले और परिवार वाले सभी मुजफ्फर नगर आ गए. मैं ने रोरो कर शोभा से माफी मांगी.

‘‘अगर मैं किसी और पुरुष के साथ संबंध बना कर तुम से माफी की उम्मीद करती तो क्या तुम मुझे माफ कर देते विनय?’’

मैं एकदम चुप रहा. क्या जवाब देता.

‘‘चुप क्यों हो बोलो?’’

‘‘शायद नहीं.’’

‘‘शायद… हा… हा… हा… यकीनन तुम मुझे माफ नहीं करते. पुरुष जब बेवफाई करता है तो समाज स्त्री से उसे माफ कर आगे बढ़ने की उम्मीद करता है. परंतु जब यही गलती एक स्त्री से होती है, तो समाज उसे कईर् नाम दे डालता है. जिस स्त्री से मुझे नफरत होनी चाहिए थी. मुझे उस पर दया भी आ रही थी और गर्व भी हो रहा था, क्योंकि इस पुरुष दंभी समाज को चुनौती देने की कोशिश उस ने की थी.’’

‘‘तो तुम मुझे माफ नहीं…’’

‘‘मैं उस के जैसी साहसी नहीं हूं… लेकिन एक बात याद रखना तुम्हें माफ एक मां कर रही है एक पत्नी और एक स्त्री के अपराधी तुम हमेशा रहोगे.’’

शर्म से गरदन झुक गई थी मेरी.

पूरा महल्ला रचना पर थूथू कर रहा था. वैसे भी हमारा समाज कमजोर को हमेशा दबाता रहा है… फिर एक अकेली, जवान विधवा के चरित्र पर उंगली उठाना बहुत आसान था. उन सभी लोगों ने रचना के खिलाफ गवाही दी जिन के प्रस्ताव को उस ने कभी न कभी ठुकराया था.

अदालतमें रचना केस हार गई थी. जज ने उस पर मुझे बदनाम करने का इलजाम लगाया. अपने शरीर को स्वयं परपुरुष को सौंपने वाली स्त्री सही कैसे हो सकती थी और वह भी तब जब वह गरीब हो?

रचना के पास न शक्ति बची थी और न पैसे, जो वह केस हाई कोर्ट ले जाती. उस शहर में भी उस का कुछ नहीं बचा था. अपने बेटों को ले कर वह शहर छोड़ कर चली गई. जिस दिन वह जा रही थी मुझ से मिलने आई थी.

‘‘आज जो भी मेरे साथ हुआ है वह एक मृगतृष्णा के पीछे भागने की सजा है. मुझे तो मेरी मूर्खता की सजा मिल गई है और मैं जा रही हूं, परंतु तुम से एक ही प्रार्थना है कि अपने इस फरेब की विरासत अपने बच्चों में मत बांटना.’’

चली गई थी वह. मैं भी अपने परिवार के साथ दिल्ली आ गया था. मेरे और शोभा के बीच जो खालीपन आया था वह कभी नहीं भर पाया. सही कहा था उस ने एक पत्नी ने मुझे कभी माफ नहीं किया था. मैं भी कहां स्वयं को माफ कर पाया और न ही भुला पाया था रचना को.

किसी भी रिश्ते में मैं वफादारी नहीं निभा पाया था. और आज मेरा अतीत मेरे सामने खड़ा हो कर मुझ पर हंस रहा था. जो मैं ने आज से कई साल पहले एक स्त्री के साथ किया था वही मेरी बेटी के साथ होने जा रहा था.

नहीं मैं राशि के साथ ऐसा नहीं होने दूंगा. उस से बात करूंगा, उसे समझाऊंगा. वह मेरी बेटी है समझ जाएगी. नहीं मानी तो उस रमन से मिलूंगा, उस के परिवार से मिलूंगा, परंतु मुझे पूरा यकीन था ऐसी नौबत नहीं आएगी… राशि समझदार है मेरी बात समझ जाएगी.

उस के कमरे के पास पहुंचा ही था तो देखा वह अपने किसी दोस्त से वीडियो चैट कर रही थी. उन की बातों में रमन का जिक्र सुन कर मैं वहीं ठिठक गया.

‘‘तेरे और रमन सर के बीच क्या चल रहा है?’’

‘‘वही जो इस उम्र में चलता है… हा… हा… हा…’’

‘‘तुझे शायद पता नहीं कि वे शादीशुदा हैं?’’

‘‘पता है.’’

‘‘फिर भी…’’

‘‘राशि, देख यार जो इनसान अपनी पत्नी के साथ वफादार नहीं है वह तेरे साथ क्या होगा? क्या पता कल तुझे छोड़ कर…’’

‘‘ही… ही… मुझे लड़के नहीं, मैं लड़कों को छोड़ती हूं.’’

‘‘तू समझ नहीं रही…’’

‘‘यार अब वह मुरगा खुद कटने को तैयार बैठा है तो फिर मेरी क्या गलती? उसे लगता है कि मैं उस के प्यार में डूब गई हूं, परंतु उसे यह नहीं पता कि वह सिर्फ मेरे लिए एक सीढ़ी है, जिस का इस्तेमाल कर के मुझे आगे बढ़ना है. जिस दिन उस ने मेरे और मेरे सपने के बीच आने की सोची उसी दिन उस पर रेप का केस ठोक दूंगी और तुझे तो पता है ऐसे केसेज में कोर्ट भी लड़की के पक्ष में फैसला सुनाता है,’’ और फिर हंसी का सम्मिलित स्वर सुनाई दिया.

सीने में तेज दर्द के साथ मैं वहीं गिर पड़ा. मेरे कानों में रचना की आवाज गूंज रही थी कि अपने फरेब की विरासत अपने बच्चों में मत बांटना… अपने फरेब की विरासत अपने बच्चों में मत बांटना, परंतु विरासत तो बंट चुकी थी.

उपाय: आखिर क्या थी नीला के बदले व्यवहार की वजह?

‘‘सुनिए, इस बार दशहरे की छुट्टियां 4-5 दिन की हो रही हैं,’’ नीला ने चाय का कप पकड़ाते हुए बड़ी शोखी से कहा.

‘‘तो क्या?’’ रणवीर तल्खी से बोला.

‘‘दशहरा में मुझे झांसी जाना है,’’ नीला बोली.

‘‘फिर तो मम्मी से पूछ लो न,’’ रणवीर लापरवाही से बोला.

‘‘पूछना है तो तुम्हीं पूछो, मुझे उलटेसीधे बहाने नहीं सुनने हैं,’’ झुंझलाते हुए नीला बोली.

रणवीर जानता है कि सासबहू की पटती नहीं है. दोनों को एकदूसरे के विचार पसंद नहीं हैं. नीला बहुत तेज स्वभाव वाली है. उसे अपने कामों में किसी की दखलंदाजी पसंद नहीं है. यदि किसी ने जरा सा भी किसी बात के लिए टोका तो वह बड़ाछोटा नहीं देखती और ऐसीऐसी बातें सुनाती है कि फिर बोलने वाला आगे बोलने की हिम्मत न करे. उस के दिमाग में यह बात अच्छी तरह बैठी है कि ससुराल में सब को दबा कर रखो. सासससुर का वह बिलकुल लिहाज नहीं करती. मामूली सी बात पर भी खूब खरीखोटी सुना देती है. इसीलिए सब उस से थोड़ा अलग रहते हैं और इसी वजह से घर का वातावरण बड़ा बोझिल हो चला है, क्योंकि यहां न अनुशासन है और न बड़ों का आदरसम्मान.

‘‘ठीक है, मैं ही पूछ लेता हूं,’’ रणवीर ने रुख बदल कर कहा. फिर बोला, ‘‘चलो, अब की बार मैं भी वहीं अपनी छुट्टियां बिताऊंगा.’’

नीला कुछ चकित सी हुई, ‘‘क्यों, अब की बार क्या बात है? हर बार तो मुझे पहुंचा कर चले आते थे.’’

‘‘बस मन हो गया. फोन कर दो कि दामादजी भी इस बार वहीं दशहरा मनाने की सोच रहे हैं.’’

‘‘नहीं नहीं, तुम मुझे पहुंचा कर चले आना. नहीं तो तुम्हारी मां मुझे ताना देंगी.’’

‘‘अब छोड़ो भी, मैं भी चल रहा हूं, बस,’’ गंभीर स्वर में रणवीर बोला.

रणवीर के वहीं छुट्टी बिताने की बात सुन जैसे कि आशा थी, मां खुश नहीं हुईं. उन्हें बिना मतलब ससुराल में रहना पसंद नहीं था. उन्होंने समझाने की कोशिश की पर रणवीर अड़ा रहा, बोला, ‘‘मां, तुम चिंता न करो, सब ठीक रहेगा.’’

नीला जब भी मायके से लौट कर आती थी, तकरार के नएनए नुसखे सीख कर आती थी. यह बात रणवीर भी जानता था और मां भी. इसीलिए नीला के मायके जाने को ले कर मां हमेशा अप्रसन्नता जताती थीं.

रणवीर के आने की खबर मिलते ही ससुराल में सभी स्वागतसत्कार के लिए तत्पर हो उठे. टैक्सी दरवाजे पर रुकी तो छोटा साला अरविंद, जो बाहर क्रिकेट खेलने जाने के लिए किसी साथी का इंतजार कर रहा था, लपक कर आया और सभी को नमस्ते कर सामान उठा कर अंदर ले गया. सास रसोईघर में कुछ बनाने में व्यस्त थीं और ससुरजी कुरसी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे.

ससुरजी को नमस्ते कर उन का आशीर्वाद ले कर रणवीर रसोईघर में चला गया और अपनी सासूमां को नमस्कार कर बोला, ‘‘अरे, क्या बना रही हैं, मांजी, बड़ी अच्छी सुगंध आ रही है. आप के बनाए नाश्ते का मजा ही कुछ और है.’’

सासूमां अपनी प्रशंसा सुन कर मुसकरा दीं. बोलीं, ‘‘बैठो बेटा, मैं अभी नाश्ता ले कर आती हूं.’’

रणवीर ससुरजी के पास बैठ गया. थोड़ी देर में नाश्ता आ गया. चाय पीते हुए वह सब का हालचाल पूछता रहा. फिर वह अपना बैग उठा लाया और उस में से कुरतापाजामा का एक सैट जोकि चिकन का था, निकाल कर ससुरजी को दिखाया और बोला, ‘‘बताइए पापा, यह सैट कैसा है?’’

ससुरजी ने हाथ में ले कर कहा, ‘‘बढि़या है. इस की कढ़ाई, डिजाइन सोबर और महीन है.’’

‘‘यह आप के लिए है,’’ रणवीर ने हंस कर कहा, ‘‘इस बार लखनऊ गया था, तो 2 सैट लाया था, एक आप के लिए और एक पिताजी के लिए.’’

‘‘अरे भाई, मेरे लिए तुम्हें लाने की क्या जरूरत थी,’’ और पत्नी शारदा की तरफ मुखातिब होते हुए बोले, ‘‘देखो, रणवीर मेरे लिए क्या लाए हैं.’’

सासूमां चहक कर बोलीं, ‘‘इस का रंग और डिजाइन तो बहुत अच्छा है. क्या दाम है?’’

‘‘अब आप दाम वाम की बात मत करिए. मुझे अच्छा लगा तो मैं ने ले लिया, बस.’’

फिर रणवीर ने बैग से चिकन की एक साड़ी निकालते हुए कहा, ‘‘यह आप के लिए.’’

सासूमां पुलकित हो उठीं, ‘‘अरे बेटा, इतना खर्च करने की क्यों तकलीफ की.’’

‘‘मम्मीजी, फिर वही बात. मैं भी तो आप का बेटा ही हूं.’’

‘‘अरे बेटा, यह बात नहीं. तुम्हारे व्यवहार और विचार से हम वैसे ही प्रसन्न हैं.’’

रणवीर ने सालेसालियों को भी कुछ न कुछ दिया.

नीला यह सब चकित सी देख रही थी. उस से रहा न गया. जैसे ही एकांत मिला, उस ने रूठे अंदाज में रणवीर से कहा, ‘‘तुम ने यह सब कब खरीदा? मुझे बताया नहीं.’’

‘‘कोई जरूरी नहीं कि सब कुछ तुम्हें बताया ही जाए.’’

नीला मुंह बना कर चुप हो गई.

रणवीर ने खाना खाते समय खाने की खूब तारीफ की. बीचबीच में हंसी की फुलझडि़यां भी छोड़ रहा था वह. सभी लोग बड़े खुश लग रहे थे.

खाना खाने के बाद रणवीर साले व सालियों के साथ गपशप करने लगा और नीला मां के पास बैठ गई.

रणवीर ने अरविंद को पास बुला कर बैठा लिया और उस की पढ़ाई आदि के बारे में काफी दिलचस्पी दिखाई.

‘‘बातें तो बहुत हो गईं

अब ये बताओ तुम लोग कभी पिकनिक के लिए जाते हो?’’ रणवीर ने अरविंद से मुसकरा कर पूछा.

‘‘हम 1-2 बार कालेज से ही गए हैं, पर वैसा मजा नहीं आया, जो अपने परिवार के साथ आता है,’’ अरविंद और रिंकी मुंह बनाते हुए बोले.

‘‘ठीक है, कल पिकनिक का प्रोग्राम रहेगा,’’ रणवीर बड़े दोस्ताने ढंग से बोला.

अरविंद व रिंकी को जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. उन्होंने सारी प्लानिंग झटपट कर डाली. दामाद के इस मिलनसार व्यवहार से पूरा घर बहुत खुश था.

दूसरे दिन किराए की टैक्सी कर ली गई. सभी लोग बैठ कर चल दिए. शहर से बाहर एक झील थी और पास में ही अमराई थी. नीला ने मां के साथ मिल कर पूरियां आदि बना ली थीं. रणवीर पास की दुकान से कुछ मीठा ले आया.

पिकनिक में बड़ा आनंद आया. बच्चों ने खूब खेलकूद किया. खानेपीने के बाद सब ने खूब चुटकुले सुनाए. सभी हंसहंस कर लोटपोट हो रहे थे.

ऐसे ही मौजमस्ती करते छुट्टी के 4-5 दिन कैसे बीत गए, कुछ पता ही नहीं चला. रणवीर घर लौटने का मन बना रहा था. उस दिन शाम को सभी चाय पी रहे थे, तभी रणवीर ने टेप रिकौर्डर निकाला और सब से बोला, ‘‘आप लो यह आवाज पहचानिए तो जरा किस की है?’’

टेप चालू हो गया, सभी लोग ध्यान से सुनने लगे.

अचानक अरविंद चिल्लाया, ‘‘अरे यह तो नीला दीदी की आवाज है. दीदी, तुम किस से डांटडांट कर बोल रही हो? अरे हां, दूसरी आवाज तो तुम्हारी सासूमां की लग रही है. वे धीरेधीरे कुछ कह रही हैं.’’

रिंकी बोली, ‘‘क्यों दीदी, ससुराल में तुम ऐसे ही बोलती हो? यहां हम लोगों से तो तुम कुछ और ही बताया करती हो.’’

नीला के मम्मीपापा हतप्रभ हो नीला का मुंह ताकने लगे. रणवीर मंदमंद मुसकरा रहा था.

रणवीर ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आप की बेटी छोटीछोटी बातों को सुन कर चिल्लाना शुरू कर देती है और सब पर दोष लगाया करती है. ऐसी बात नहीं कि मैं कुछ कहता या समझाता नहीं पर यह माने तब न. इस के दिमाग में यह है कि ससुराल में सब को दबा कर रखना चाहिए.

‘‘मैं तो आए दिन की चिकचिक से परेशान हो गया. फिर मैं ने सोचा आप लोग ऐसे तो समझेंगे नहीं, इसलिए मैं ने यह उपाय अपनाया. अब आप लोग जो समझें…’’

तभी ससुर बोले, ‘‘बेटा, हम इतना नहीं जानते थे. यह तेज तो है, लेकिन यह तो हद हो गई. छोटेबड़े का लिहाज करना ही छोड़ दिया. बेटा, हम बड़े शर्मिंदा हैं.’’

सासूमां ने नीला को डांटा और समझाया. नीला को रणवीर पर रहरह कर क्रोध आ रहा था. मायके आ कर नीला सासससुर की खूब बुराई करती थी. सासूमां ऐसे चिल्लाती हैं, ऐसे बोलती हैं, वगैरहवगैरह. आज पोल खुल गई. वह कुछ शर्मिंदा व क्रोधित भी थी. सासूमां ने रणवीर से माफी मांगी. अकेले में नीला को बड़ी हिदायतें दीं और समझाया. नीला बस रोती रही.

रास्ते भर नीला रणवीर से बोली नहीं. जब वे घर पहुंचे तो मां का मूड कुछ उखड़ा उखड़ा सा था. वे कुछ कहने वाली ही थीं कि नीला ने झुक कर पैर छुए और हालचाल पूछा. सास का मुंह खुला का खुला रह गया. तभी उन्हें ध्यान आया, तो उन्होंने आशीर्वाद दिया. नीला ने ससुर के भी पैर छुए उन्होंने भी आशीर्वाद दिया. जब सास किचन में जाने लगीं तो नीला ने रोक कर कहा, ‘‘आप बैठिए चाय मैं बनाती हूं.’’

स्वर में मिठास व अपनापन था. सास ने अविश्वास से बहू को देखा फिर रणवीर की ओर देखा. वह मंदमंद मुसकरा रहा था. नीला अभी भी मुंह फुलाए थी. बात नहीं कर रही थी, बस अपना काम यंत्रवत करती जा रही थी.

रणवीर बैडरूम में जा कर कपड़े बदल रहा था, तभी नीला ने चाय का प्याला मेज पर रखते हुए कहा, ‘‘यह चाय रखी है.’’

वह जाने के लिए मुड़ी ही थी कि रणवीर ने हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘तुम भी बैठो, अपनी चाय यहीं ले आओ.’’

‘‘नहीं, मुझे नहीं बैठना है,’’ नीला गुस्से में बोली.

परंतु रणवीर ने जाने नहीं दिया. उसे पास में बैठा लिया. फिर बोला, ‘‘तुम्हारी नाराजगी उचित नहीं. मैं तुम्हें समझाता था मगर तुम मानती नहीं थीं. ऐसे में घर की सुखशांति के लिए कोई उपाय तो करना ही था. मेरे मां पिता ने बहुत संघर्ष किया है. आज जब मैं हर तरह से समर्थ हूं, मेरा फर्ज है सब तरह से उन्हें सुखी रखना. उन को दुखी व अपमानित होते देखना मुझे सहन नहीं होता. जरा सा मीठा बोलो, अच्छा व्यवहार करो तो मां कितनी गद्गद हो जाती हैं. यदि वे अपनी तरह से कुछ चाहती हैं तो कर देने में कौन सी मेहनत करनी पड़ती है,’’ रणवीर ने नीला को समझाते हुए कहा.

नीला कुछ सोचती रही, फिर धीरेधीरे सकुचाते हुए बोली, ‘‘मुझे माफ कर दो रणवीर. आज के बाद मैं कभी तुम्हें शिकायत का मौका नहीं दूंगी.’’

‘‘वैरी गुड,’’ रणवीर ने शरारती अंदाज में कहा, ‘‘अब अपनी चाय ले कर यहीं आओ, हम साथ में चाय पिएंगे.’’

‘‘नहीं, हम चाय सब के साथ पिएंगे, चाय ले कर तुम बाहर आओ,’’ नीला ने भी उसी शरारती अंदाज में नकल उतारते हुए मुसकरा कर कहा और पलट कर बाहर चली गई. रणवीर मन ही मन मुसकराया, उपाय काम कर गया.

अंशिका: क्या दोबारा अपने बचपन का प्यार छोड़ पाएगी वो?

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करीपत्ता: भाग 1-आखिर पुष्कर ने ईशिता के साथ क्या किया

अब तो ईशिता को लगता है कि जीवन में कुछ भी अपने वश में नहीं है. ये बड़ीबड़ी बातें करते, अपनी करनी बखानते और डींगें हांकते लोग शायद नहीं जानते कि पलभर में विधिना किसी को भी कहां से कहां ला कर पटक देती है.ईशिता तो जीवनभर अपनेआप पर मान करती आई.

संसार के पंक कीचड़ से बचती आई. संयम, नियम से जीना, कामनाओं को मुट्ठी में बंद रखना ही सीखा था उस ने. उस ने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन वह अपनी भावनाओं के बहाव में यों बह जाएगी कि संयम की बागडोर उस की मुट्ठी से खिसकती चली जाएगी.कहते हैं कि स्त्री के एक ही जन्म में कई जन्म होते हैं. ईशिता के भी हुए.

जो ईशिता अपने पितृगृह में तितली के पंखों सी सुकुमार सम झी गई, प्यारमनुहार जतन से पलकों की छांव में पालीपोसी गई वही ससुराल की देहरी पर पदार्पण करते ही दायित्वों के पहाड़ के नीचे दबा दी गई. उपालंभ, भर्त्सना और उपेक्षा भरे निर्मम व्यवहार के मध्य उस के कान प्यार भरे दो मीठे बोल सुनने को तरस जाते.

पति भोलेभाले थे. पत्नी के अधिक पढे़लिखे और नौकरी करने से भयत्रस्त थे. उस पर से उन की कंडीशनिंग भी ऐसी की गई थी कि प्रशंसा करना तो दूर वे चाह कर भी उस का पक्ष नहीं ले पाते कि कहीं वह सिर ही पर न चढ़ जाए या कोई उन्हें पत्नी का दास न कह दे.

ईशिता नौकरी करती थी. गृहकार्य पूर्ण होते तो औफिस जाने का समय हो आता. औफिस में कार्य कर वहां से थकहार कर घर लौटती तो ससुर कुल के लोग त्योरियां चढ़ाए दिनभर के कार्यों का अंबार पटकते हुए ऐसा दर्शाते मानो वह कहीं से घूमघाम कर, पिकनिक मना कर लौटी हो.

क्लांत ईशिता एक प्याली गरम चाय और विश्रांत के 2 पलों के लिए तरस जाती पर उसे कहीं चैन नहीं दो घड़ी का भी. रोनेबिसूरने का भी नहीं. स्कूलकालेज की परीक्षाओं में प्रथम आने वाली, अपने में व्यस्त रहने वाली ईशिता को सब की प्रशंसा पाने का ही अभ्यास था.

ससुर कुल के समवेत व्यवहार ने जैसे उस का विवेक ही छीन लिया. उसे लगने लगा कि उस में अपार कमियां हैं. ऐसी आत्महीनता में जीए जा रही थी ईशिता कि तभी एक दिन समय ने करवट ली.‘‘आप के हाथ बड़े सुंदर हैं, कलात्मक हाथ हैं आप के.’’ईशिता चौंक उठी.

संकोच से हाथ फाइल से हटा कर अपने आंचल में छिपा लिए. लगा जैसे कोई उपहास कर रहा हो. नित्य की भांति वह आज भी इन हाथों से जूठे बरतनों का ढेर साफ कर,  झाड़ूपोंछा कर के आई है. आज से पहले तो किसी ने उस के हाथों की प्रशंसा नहीं की.

नजर उठा कर सामने देखा, पुष्कर मुसकरा रहे थे. उन की आंखों में प्रशंसा लहलहा रही थी. वह पलभर के लिए उन आंखों में डूब गई.सचमुच मनुष्य सब से अधिक प्यार अपनेआप को करता है, तभी तो वह आकृष्ट हुई उन आंखों के प्रति जिन में उस के प्रति प्रशंसा छलक रही थी.मैं ने कहा, ‘‘आप की उंगलियां कलाकारों जैसी हैं, तराशी लंबी उंगलियां.

इतने सुंदर हाथ मैं ने सचमुच नहीं देखे.’’ वह इस बार हड़बड़ाई. क्या कहे, सम झ नहीं आया. सकुचाते हुए टेबल से फाइल ली और वापस अपनी सीट पर चली आई. गोद में रखे हाथों का छिप कर निरीक्षण किया. वाशरूम जा कर देखा. क्या सचमुच उस के हाथ सुन्दर हैं.

पर किसी ने कभी कहा क्यों नहीं. उस की हथेलियां पसीने से भीग गईं. दिल नगाड़े बजने जैसा इतना तेज धड़कने लगा कि उसे डर हुआ कि उस की धड़कन कोई बाहर से न सुन ले. घर में कोई सीधे मुंह बात तक नहीं करता उस से.

वह एक ऐसा जंतु है जिस से सारे कार्य कराए जाते हैं और कैसा भी व्यवहार.दूसरे दिन पुष्कर ने बुलाया. चर्चा के दौरान चाहकर भी आंखें नहीं उठतीं. लग रहा है जैसे वह सैकड़ों आंखों उसे ही देखती जा रही हैं. वह हीनभावना से सकुचाई जा रही है. एकाएक उन की आंखों में कौंधा भाव पढ़ कर वह ठगी सी रह गई. ढेरों प्रशंसा भरे नयन.

वह सिहर उठी. कोई उस की भी प्रशंसा कर सकता है, विश्वास न हुआ क्योंकि ससुराल में उसे अब तक जो भी मिला वह उस की कमी ही गिनता दिखा. बाहर औफिस में अब तक उस ने सब से दूरी ही बरती.

पुष्कर मन ही मन मुसकराए. अपनी पीठ ठोंकी उन्होंने. जिस ईशिता को सब लोग अलग प्रकृति का और आकाश के सितारे सा अलभ्य सम झते आए, वही कैसे उन की  झोली में गिरी पड़ रही है. ठिगने कद के, अति सामान्य रंगरूप के पुष्कर का मन खुशी से अट्टहास करने का होने लगा.

21 मार्च को जन्मदिन था ईशिता का. ससुराल में किसी को याद नहीं (या जानबू झ कर भूलने का ढोंग). जिस घर में कुत्तेबिल्ली का जन्मदिन भी धूमधाम से मनता हो, वहां उस के जन्मदिन पर एक नन्हा सा फूल भी नहीं, प्यार शुभकामना आशीष भरे बोल तक नहीं.

वचनों में भी दरिद्रता. पति तो और भी रूखेपन से बोले उस दिन. अंदर कुछ छनाक से टूट कर किर्चों में बिखर गया.‘क्यों जन्मी मैं. न जन्मती तो कितना अच्छा होता,’ ऐसे उदास विचारों में घिरी ईशिता जब औफिस पहुंची तो अपनी टेबल पर एक सुंदर कार्ड और फूलों का गुलदस्ता देख कर अभिभूत रह गई पुष्कर ने भेजा यह जान कर कसक हुई कि क्या पति  झूठमूठ भी उसे विश नहीं कर सकते थे.

यदि यही उपहार उन्होंने दिया होता तो कितना अच्छा होता. कार्ड में हाथ से लिखी कुछ पंक्तियां भी थीं-चांदनी रातों मेंसितारों की बरसातों मेंलगता है जैसे तुम साथ होसूने हृदय की देहरी परदीप जलातीमंदमंद मुसकराती तुममेरे जीवन कीअनमोल निधि हो.

अब घर चल: भाग 2- जब रिनी के सपनों पर फिरा पानी

यह सुन कर श्वेता दीदी मुसकराईं, ‘‘मुझे सब पता है आंटी और रिनी कितनी भली हैं, मैं यह भी जानती हूं. मेरे भाई ने शशि भाभी के बाद कभी न शादी करने का फैसला किया था आंटी. बच्चियां उन्हें अपनी जान से भी ज्यादा प्यारी हैं. उन्हें सौतेली मां का रिश्ता नहीं देना चाहता था मेरा भाई पर अब जब उस ने देखा रिनी बिना स्वार्थ मन से इन्हें प्यार करती है तो…’’

सोचने के लिए कुछ वक्त मांग कर अम्मू ने श्वेता दीदी को विदा कर दिया.

फिर रिनी को मनाने लगीं, ‘‘लड़का नेक है, शरीफ भी, खाताकमाता भी अच्छा है, देखने में भी बहुत अच्छा है और सब से बड़ी बात कि उम्र भी तेरे हिसाब से ही है. मना मत करना बेटी.’’

ऐसे कैसे एकदम से हां कह दे. अभी तो पिछले घाव भी नहीं भरे हैं.

रचना दीदी को पता चला तो दौड़ी चली आईं, ‘‘हां न कहना रिनी. और अम्मू आप को हो क्या गया है, जो ऐसी सुंदर, पढ़ीलिखी, गुणी बेटी को 2 बेटियों के विधुर बाप के हवाले करने की ठान बैठी हैं. पहले क्या कम गम उठाए हैं इस ने? अरे, एक से बढ़ कर एक कुंआरा लड़का मिल जाएगा हमारी गुडि़या को. आप पर भारी पड़ रही है तो मैं ले जाती हूं. मैं इस की 2 बेटियों के बाप से शादी नहीं होने दूंगी.’’

जीजाजी भी बेटी की तरह मानते थे उसे. अत: उन्होंने भी पत्नी की बात का समर्थन किया. फिर खूब अच्छी तरह बहन का ब्रेनवाश कर के रचना दीदी चली गईं.

रिनी घोर असमंजस की स्थिति में थी. एक ओर रुचिशुचि का मोह खींचता तो दूसरी ओर पहली शादी से डरा मन दूसरी शादी की बेडि़यां पहनने से साफ इनकार करता. अम्मू व पापा चाहते थे शेखर से शादी हो जाए पर रचना दीदी और जीजाजी इस के सख्त खिलाफ थे. वह करे तो करे क्या? तभी अचानक उस के दिमाग में बिजली सी कौंधी. शीतल चाची, जो ससुराल की गली की चचिया सास होते हुए भी मां की तरह थीं उस के लिए, जिन से संपर्कसूत्र अब भी नहीं टूटा था. वे हमेशा उसे सही राह सुझाती थीं.

पूरा किस्सा सुन कर शीतल चाची ने कहा, ‘‘यह ठीक है रिनी कि दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है, बल्कि कई बार तो दूध जैसी सफेद चीज को हाथ लगाने से भी इनकार कर देता है और तू ने रंजन से प्यार भी तो किया था. ये 2 बातें ही रोक रही हैं न तु झे. तो सुन रंजन तो दूसरा ब्याह रचा कर घर बसा कर बैठा है और तू?’’

‘‘कब चाची? यह कैसी खबर सुना दी आप ने?’’ वह बुदबुदाई.

‘‘अरे, तू क्यों गम करती है मेरी अच्छी बेटी? उस ने तो तलाक का भी इंतजार नहीं किया. लोग तो कहते हैं ब्याह से बहुत पहले से ही चक्कर चल रहा था रंजन का उस से. रंजन की कंपनी में ही मामूली सी नौकरी करती है. शक्लसूरत भी खास नहीं. नाम शन्नो है, इसी से जान ले किस तबके की है. तू किस के लिए जोग धारे बैठी है? कर ले रानी ब्याह, इसी में कल्याण है तेरा.’’

मन में बगावत जागी या रंजन के प्रति कड़वाहट कि रिनी ने शादी के लिए फौरन हां कर दी. रचना दीदी इतना बरसीं फोन पर, इतनी नाराज हुईं कि शादी में भी नहीं आईं.

जिंदगी के इस नए मोड़ की पहली रात को शेखर ने एक पोटली उस के  हाथ में थमा दी, जिस में 5-7 गहने थे. एक मोटी चैन थी, जिस में पहली वाली के कुछ केश फंसे हुए थे. चूडि़यां धुलाई मांगती थीं और बुंदों के 2-4 नग निकले हुए थे. वितृष्णा सी हो आई रिनी को और उस ने फिर से पोटली बांध कर तकिए के नीचे रख दी.

श्वेता दीदी ने बच्चियों को अपने पास सुला लिया था. शेखर हाथ भर की दूरी पर बैठे थे. न चाहते हुए भी उसे रंजन के साथ की पहली रात याद आ गई और मन में टीस सी उठी. शेखर खिसक कर उस के पास आ बैठे तो वह कांप गई. लेकिन शेखर ने उसे छुआ तक नहीं. बस, मुलायम स्वर में बोले, ‘‘मेरी विनती है ये 2 शर्तें सम झ लो रिनी.’’

रिनी ने सवालिया निगाहें उठाईं, ‘‘एक तो पतिपत्नी वाले संबंध के लिए मु झे कुछ वक्त चाहिए. मैं शशि, मतलब… शुचिरुचि की मां को मन से नहीं निकाल पाया हूं और दूसरे, मु झे कभी कोई बच्चा नहीं चाहिए. मैं नहीं चाहता

मेरी बच्चियों का प्यार किसी के साथ बंटे. सम झ गईं न?’’

हां, सम झ गई थी वह. मन ही मन खुश भी हुई थी कि उस का जो बां झपन पहले पति के लिए श्राप था, इस घर के लिए वरदान बन गया.

अगली सुबह शायद बूआ के सम झाने पर शुचिरुचि  िझ झकते हुए उस के पास आईं और एक सुर में बोलीं, ‘‘गुडमौर्निंग नई मम्मा.’’

रिनी ने दोनों को सीने से लगाते हुए कहा, ‘‘नई नहीं, सिर्फ मम्मा कहो बच्चो. मांमां होती है नई या पुरानी नहीं.’’

‘‘ओके मम्मा,’’ रिनी खिल उठी.

रिनी मातृत्व जैसे उस एक पल में ही तृप्त हो उठा.

4 दिन रह कर श्वेता दीदी भाई और बच्चियों की ओर से बेफिक्र हो कर चली गईं और रिनी की जिंदगी का नया दौर शुरू हुआ. वह बच्चियों के साथ ही स्कूल जाती और उन्हीं के साथ लौटती.

एक दिन शेखर ने कहा भी, ‘‘ये बच्चियां और घर तुम्हारे हवाले है रिनी. इस घर में किसी चीज की कमी नहीं पाओगी तुम. तुम्हारा मन चाहे तो नौकरी करो नहीं तो छोड़ दो. जैसा तुम ठीक सम झो.’’

रिनी ने विश्वास दिलाया कि वह घर, नौकरी, बच्चे, सब ठीक से निभा लेगी. बच्चियां उस से इतना घुलमिल गई थीं कि उस के बिना सांस भी नहीं लेती थीं. शेखर अलग सोते थे

और वह अलग बच्चियों के कमरे में. बड़ी मस्त और व्यस्त जिंदगी गुजर रही थी. शेखर भी दिल के बहुत अच्छे और सहयोगी प्रवृत्ति के थे. शुचिरुचि उस के अम्मू व पापा से भी खूब हिलमिल गई थीं.

शेखर की आंखों में एक गहरा संतोष नजर आने लगा था उसे और एक रात उन्होंने पत्नी का दर्जा दे ही डाला रिनी को, लेकिन बड़ा असहज और कष्टप्रद लगा था उसे वह सब. कहते हैं, वर्जित फल जब तक न खाया जाए तब तक ही वर्जित लगता है. एक बार चखने के बाद उस

की लालसा बढ़ती ही जाती है. यही बात शेखर पर ही लागू हुई, पर रिनी के दिल पर चोट लगती जब हर तरह से उस का पूरी तरह उपयोग करने के बाद भी शेखर जबतब उसे सुना ही देते कि यह शादी उन्होंने अपनी बेटियों की खुशी के लिए की है.

एक दोपहर बच्चों को सुला कर पड़ोस वाली राधा अम्मां के घर दही का जामन लेने गई तो लौटते हुए आंखों के आगे अंधेरा छा गया और हाथ से दही की कटोरी छूट गई. राधा अम्मां ने आगे बढ़ कर उसे संभाला. उन की अनुभवी आंखें फौरन ताड़ गईं, ‘‘तुम मां बनने वाली हो बहू.’’

यह सुन कर रिनी जैसे आकाश से गिरी, ‘‘यह कैसे हो सकता है अम्मांजी? ऐसा तो हो ही नहीं सकता.’’

‘‘क्यों नहीं हो सकता? तुम दोनों जवान हो, तंदुरुस्त हो.’’

‘‘यह बात नहीं अम्मांजी? मैं आप को कैसे बताऊं? कैसे सम झाऊं?’’ आंसू भरी आंखों से कह कर वह चली आई.

लेकिन अम्मां की बात की पुष्टि जब डाक्टर ने भी की तो रिनी अवाक सी खड़ी रह गई थी. उसे ऐसी सुखद अनुभूति इस से पहले कभी नहीं हुई थी. जी चाह रहा था कि वह डाक्टर की बात ‘आप मां बनने वाली हैं’ बारबार दोहराएं. मन खुशी से चिल्लाने को चाहा कि मैं बां झ नहीं हूं. मैं मां बनने वाली हूं… रंजन. सुना तुम ने. मैं बंजर खेत नहीं हूं… मेरे भीतर भी एक अंकुर फूटा है.

यह सुन कर श्वेता दीदी मुसकराईं, ‘‘मु झे सब पता है आंटी और रिनी कितनी भली हैं, मैं यह भी जानती हूं. मेरे भाई ने शशि भाभी के बाद कभी न शादी करने का फैसला किया था आंटी. बच्चियां उन्हें अपनी जान से भी ज्यादा प्यारी हैं. उन्हें सौतेली मां का रिश्ता नहीं देना चाहता था मेरा भाई पर अब जब उस ने देखा रिनी बिना स्वार्थ मन से इन्हें प्यार करती है तो…’’

सोचने के लिए कुछ वक्त मांग कर अम्मू ने श्वेता दीदी को विदा कर दिया.

फिर रिनी को मनाने लगीं, ‘‘लड़का नेक है, शरीफ भी, खाताकमाता भी अच्छा है, देखने में भी बहुत अच्छा है और सब से बड़ी बात कि उम्र भी तेरे हिसाब से ही है. मना मत करना बेटी.’’

ऐसे कैसे एकदम से हां कह दे. अभी तो पिछले घाव भी नहीं भरे हैं.

रचना दीदी को पता चला तो दौड़ी चली आईं, ‘‘हां न कहना रिनी. और अम्मू आप को हो क्या गया है, जो ऐसी सुंदर, पढ़ीलिखी, गुणी बेटी को 2 बेटियों के विधुर बाप के हवाले करने की ठान बैठी हैं. पहले क्या कम गम उठाए हैं इस ने? अरे, एक से बढ़ कर एक कुंआरा लड़का मिल जाएगा हमारी गुडि़या को. आप पर भारी पड़ रही है तो मैं ले जाती हूं. मैं इस की 2 बेटियों के बाप से शादी नहीं होने दूंगी.’’

जीजाजी भी बेटी की तरह मानते थे उसे. अत: उन्होंने भी पत्नी की बात का समर्थन किया. फिर खूब अच्छी तरह बहन का ब्रेनवाश कर के रचना दीदी चली गईं.

रिनी घोर असमंजस की स्थिति में थी. एक ओर रुचिशुचि का मोह खींचता तो दूसरी ओर पहली शादी से डरा मन दूसरी शादी की बेडि़यां पहनने से साफ इनकार करता. अम्मू व पापा चाहते थे शेखर से शादी हो जाए पर रचना दीदी और जीजाजी इस के सख्त खिलाफ थे. वह करे तो करे क्या? तभी अचानक उस के दिमाग में बिजली सी कौंधी. शीतल चाची, जो ससुराल की गली की चचिया सास होते हुए भी मां की तरह थीं उस के लिए, जिन से संपर्कसूत्र अब भी नहीं टूटा था. वे हमेशा उसे सही राह सुझाती थीं.

पूरा किस्सा सुन कर शीतल चाची ने कहा, ‘‘यह ठीक है रिनी कि दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है, बल्कि कई बार तो दूध जैसी सफेद चीज को हाथ लगाने से भी इनकार कर देता है और तू ने रंजन से प्यार भी तो किया था. ये 2 बातें ही रोक रही हैं न तु झे. तो सुन रंजन तो दूसरा ब्याह रचा कर घर बसा कर बैठा है और तू?’’

‘‘कब चाची? यह कैसी खबर सुना दी आप ने?’’ वह बुदबुदाई.

‘‘अरे, तू क्यों गम करती है मेरी अच्छी बेटी? उस ने तो तलाक का भी इंतजार नहीं किया. लोग तो कहते हैं ब्याह से बहुत पहले से ही चक्कर चल रहा था रंजन का उस से. रंजन की कंपनी में ही मामूली सी नौकरी करती है. शक्लसूरत भी खास नहीं. नाम शन्नो है, इसी से जान ले किस तबके की है. तू किस के लिए जोग धारे बैठी है? कर ले रानी ब्याह, इसी में कल्याण है तेरा.’’

मन में बगावत जागी या रंजन के प्रति कड़वाहट कि रिनी ने शादी के लिए फौरन हां कर दी. रचना दीदी इतना बरसीं फोन पर, इतनी नाराज हुईं कि शादी में भी नहीं आईं.

जिंदगी के इस नए मोड़ की पहली रात को शेखर ने एक पोटली उस के  हाथ में थमा दी, जिस में 5-7 गहने थे. एक मोटी चैन थी, जिस में पहली वाली के कुछ केश फंसे हुए थे. चूडि़यां धुलाई मांगती थीं और बुंदों के 2-4 नग निकले हुए थे. वितृष्णा सी हो आई रिनी को और उस ने फिर से पोटली बांध कर तकिए के नीचे रख दी.

श्वेता दीदी ने बच्चियों को अपने पास सुला लिया था. शेखर हाथ भर की दूरी पर बैठे थे. न चाहते हुए भी उसे रंजन के साथ की पहली रात याद आ गई और मन में टीस सी उठी. शेखर खिसक कर उस के पास आ बैठे तो वह कांप गई. लेकिन शेखर ने उसे छुआ तक नहीं. बस, मुलायम स्वर में बोले, ‘‘मेरी विनती है ये 2 शर्तें सम झ लो रिनी.’’

रिनी ने सवालिया निगाहें उठाईं, ‘‘एक तो पतिपत्नी वाले संबंध के लिए मु झे कुछ वक्त चाहिए. मैं शशि, मतलब… शुचिरुचि की मां को मन से नहीं निकाल पाया हूं और दूसरे, मु झे कभी कोई बच्चा नहीं चाहिए. मैं नहीं चाहता

मेरी बच्चियों का प्यार किसी के साथ बंटे. सम झ गईं न?’’

हां, सम झ गई थी वह. मन ही मन खुश भी हुई थी कि उस का जो बां झपन पहले पति के लिए श्राप था, इस घर के लिए वरदान बन गया.

अगली सुबह शायद बूआ के सम झाने पर शुचिरुचि  िझ झकते हुए उस के पास आईं और एक सुर में बोलीं, ‘‘गुडमौर्निंग नई मम्मा.’’

रिनी ने दोनों को सीने से लगाते हुए कहा, ‘‘नई नहीं, सिर्फ मम्मा कहो बच्चो. मांमां होती है नई या पुरानी नहीं.’’

‘‘ओके मम्मा,’’ रिनी खिल उठी.

रिनी मातृत्व जैसे उस एक पल में ही तृप्त हो उठा.

4 दिन रह कर श्वेता दीदी भाई और बच्चियों की ओर से बेफिक्र हो कर चली गईं और रिनी की जिंदगी का नया दौर शुरू हुआ. वह बच्चियों के साथ ही स्कूल जाती और उन्हीं के साथ लौटती.

एक दिन शेखर ने कहा भी, ‘‘ये बच्चियां और घर तुम्हारे हवाले है रिनी. इस घर में किसी चीज की कमी नहीं पाओगी तुम. तुम्हारा मन चाहे तो नौकरी करो नहीं तो छोड़ दो. जैसा तुम ठीक सम झो.’’

रिनी ने विश्वास दिलाया कि वह घर, नौकरी, बच्चे, सब ठीक से निभा लेगी. बच्चियां उस से इतना घुलमिल गई थीं कि उस के बिना सांस भी नहीं लेती थीं. शेखर अलग सोते थे

और वह अलग बच्चियों के कमरे में. बड़ी मस्त और व्यस्त जिंदगी गुजर रही थी. शेखर भी दिल के बहुत अच्छे और सहयोगी प्रवृत्ति के थे. शुचिरुचि उस के अम्मू व पापा से भी खूब हिलमिल गई थीं.

शेखर की आंखों में एक गहरा संतोष नजर आने लगा था उसे और एक रात उन्होंने पत्नी का दर्जा दे ही डाला रिनी को, लेकिन बड़ा असहज और कष्टप्रद लगा था उसे वह सब. कहते हैं, वर्जित फल जब तक न खाया जाए तब तक ही वर्जित लगता है. एक बार चखने के बाद उस

की लालसा बढ़ती ही जाती है. यही बात शेखर पर ही लागू हुई, पर रिनी के दिल पर चोट लगती जब हर तरह से उस का पूरी तरह उपयोग करने के बाद भी शेखर जबतब उसे सुना ही देते कि यह शादी उन्होंने अपनी बेटियों की खुशी के लिए की है.

एक दोपहर बच्चों को सुला कर पड़ोस वाली राधा अम्मां के घर दही का जामन लेने गई तो लौटते हुए आंखों के आगे अंधेरा छा गया और हाथ से दही की कटोरी छूट गई. राधा अम्मां ने आगे बढ़ कर उसे संभाला. उन की अनुभवी आंखें फौरन ताड़ गईं, ‘‘तुम मां बनने वाली हो बहू.’’

यह सुन कर रिनी जैसे आकाश से गिरी, ‘‘यह कैसे हो सकता है अम्मांजी? ऐसा तो हो ही नहीं सकता.’’

‘‘क्यों नहीं हो सकता? तुम दोनों जवान हो, तंदुरुस्त हो.’’

‘‘यह बात नहीं अम्मांजी? मैं आप को कैसे बताऊं? कैसे सम झाऊं?’’ आंसू भरी आंखों से कह कर वह चली आई.

लेकिन अम्मां की बात की पुष्टि जब डाक्टर ने भी की तो रिनी अवाक सी खड़ी रह गई थी. उसे ऐसी सुखद अनुभूति इस से पहले कभी नहीं हुई थी. जी चाह रहा था कि वह डाक्टर की बात ‘आप मां बनने वाली हैं’ बारबार दोहराएं. मन खुशी से चिल्लाने को चाहा कि मैं बां झ नहीं हूं. मैं मां बनने वाली हूं… रंजन. सुना तुम ने. मैं बंजर खेत नहीं हूं… मेरे भीतर भी एक अंकुर फूटा है.

वक्त बदल रहा है

सुबह-सुबह अखबार के पन्ने पलटते हुए लीना की नजर स्थानीय समाचार वाले पन्ने पर छपी एक खबर पर पड़ी :

‘सुश्री हरिनाक्षी नारायण ने आज जिला कलक्टर व चेयरमैन, शहर विकास प्राधिकार समिति का पदभार ग्रहण किया.’

आगे पढ़ने की जरूरत नहीं थी क्योंकि लीना अपने कालिज और कक्षा की सहपाठी रह चुकी हरिनाक्षी के बारे में सबकुछ जानती थी.

यह अलग बात है कि दोनों की दोस्ती बहुत गहरी कभी नहीं रही थी. बस, एकदूसरे को वे पहचानती भर थीं और कभीकभी वे आपस में बातें कर लिया करती थीं.

मध्यवर्गीय दलित परिवार की हरिनाक्षी शुरू से ही पढ़ाई में काफी होशियार थी. उस के पिताजी डाकखाने में डाकिया के पद पर कार्यरत थे. मां एक साधारण गृहिणी थीं. एक बड़ा भाई बैंक में क्लर्क था. पिता और भाई दोनों की तमन्ना थी कि हरिनाक्षी अपने लक्ष्य को प्राप्त करे. अपनी महत्त्वाकांक्षा को प्राप्त करने के लिए वह जो भी सार्थक कदम उठाएगी, उस में वह पूरा सहयोग करेंगे. इसलिए जब भी वे दोनों बाजार में प्रतियोगिता संबंधी अच्छी पुस्तक या फिर कोई पत्रिका देखते, तुरंत खरीद लेते थे. यही वजह थी कि हरिनाक्षी का कमरा अच्छेखासे पुस्तकालय में बदल चुका था.

हरिनाक्षी भी अपने भाई और पिता को निराश नहीं करना चाहती थी. वह जीजान लगा कर अपनी पढ़ाई कर रही थी. कालिज में भी फुर्सत मिलते ही अपनी तैयारी में जुट जाती थी. लिहाजा, वह पूरे कालिज में ‘पढ़ाकू’ के नाम से मशहूर हो गई थी. उस की सहेलियां कभीकभी उस से चिढ़ जाती थीं क्योंकि हरिनाक्षी अकसर कालिज की किताबों के साथ प्रतियोगी परीक्षा संबंधी किताबें भी ले आती थी और अवकाश के क्षणों में पढ़ने बैठ जाया करती.

लीना, हरिनाक्षी से 1 साल सीनियर थी. कालिज की राजनीतिक गतिविधियों में खुल कर हिस्सा लेने के कारण वह सब से संपर्क बनाए रखती थी. वह विश्वविद्यालय छात्र संघ की सचिव थी. उस के पिता मुखराम चौधरी एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल ‘जनमत मोर्चा’ के अध्यक्ष थे. इस राजनीतिक पृष्ठभूमि का लाभ उठाने में लीना हमेशा आगे रहती थी. यही वजह थी कि कालिज में भी उस की दबंगता कायम थी.

एकमात्र हरिनाक्षी थी जो उस के राजनीतिक रसूख से जरा भी प्रभावित नहीं होती थी. लीना ने उसे कई बार छात्र संघ की राजनीति में खींचने की कोशिश की थी. किंतु हर बार हरिनाक्षी ने उस का प्रस्ताव ठुकरा दिया था. उसे केवल अपनी पढ़ाई से मतलब था. जलीभुनी लीना फिर ओछी हरकतों पर उतर आई और उस के सामने जातिगत फिकरे कसने लगी.

‘अरे, यह लोग तो सरकारी कोटे के मेहमान हैं. थोड़ा भी पढ़ लेगी तो अफसर…डाक्टर…इंजीनियर बन जाएगी. बेकार में आंख फोड़ती है.’

कभी कहती, ‘सरकार तो बस, इन्हें कुरसी देने के लिए बैठी है.’

हरिनाक्षी पर उस के इन फिकरों का जरा भी असर नहीं होता था. वह बस, मुसकरा कर रह जाती थी. तब लीना और भी चिढ़ जाती थी.

लीना के व्यंग्य बाणों से हरिनाक्षी का इरादा दिनोदिन और भी पक्का होता जाता था. कुछ कर दिखाने का जज्बा और भी मजबूत हो जाता.

हरिनाक्षी ने बी.ए. आनर्स की परीक्षा में सर्वोच्च श्रेणी में स्थान प्राप्त किया तो सब ने उसे बधाई दी. एक विशेष समारोह में विश्वविद्यालय के उपकुलपति ने उस का सम्मान किया.

हरिनाक्षी ने उस समारोह में शायद पहली और आखिरी बार अपने उद्गार व्यक्त करते हुए परोक्ष रूप से लीना के कटाक्षों का उत्तर देने की कोशिश की थी :

‘शुक्र है, विश्वविद्यालय में और सब मामलों में भले ही कोटे का उपयोग किया जाता हो, मगर अंक देने के मामले में किसी भी कोटे का इस्तेमाल नहीं किया जाता है.’ यह कहते हुए हरिनाक्षी की आंखों में नमी आ गई थी. सभागार में सन्नाटा छा गया था. सब से आगे बैठी लीना के चेहरे का रंग उड़ गया था.

उस दिन के बाद से लीना ने हरिनाक्षी से बात करना बंद कर दिया था.

इस बीच हरिनाक्षी की एक प्यारी सहेली अनुष्का का दिन दहाडे़ एक चलती कार में बलात्कार किया गया था. बलात्कारी एक प्रतिष्ठित व्यापारी का बिगडै़ल बेटा था. पुलिस उस के खिलाफ सुबूत जुटा नहीं पाई थी. लिहाजा, उसे जमानत मिल गई थी.

क्षुब्ध हरिनाक्षी पहली बार लीना के पास मदद के लिए आई कि बलात्कारी को सजा दिलाने के लिए वह अपने पिता के रसूख का इस्तेमाल करे ताकि उस दरिंदे को उस के किए की सजा मिल सके.

लीना ने साफसाफ उसे इस झमेले में न पड़ने की हिदायत दी थी, क्योंकि वह जानती थी कि उस के पिता उस व्यापारी से मोटी थैली वसूलते थे.

अनुष्का ने आत्महत्या कर ली थी. लीना बुरी तरह निराश हुई थी.

हरिनाक्षी उस के बाद ज्यादा दिनों तक कालिज में रुकी भी नहीं थी. एम.ए. प्रथम वर्ष में पढ़ते हुए ही उस ने ‘भारतीय प्रशासनिक सेवा’ की परीक्षा दी थी और अपनी मेहनत व लगन के बल पर तमाम बाधाओं को पार करते हुए सफल प्रतियोगियों की सूची में देश भर में 7वां स्थान प्राप्त किया था. आरक्षण वृत्त की परिधि से कहीं ऊपर युवतियों के वर्ग में वह प्रथम नंबर पर थी.

उस के बाद लीना के पास हरिनाक्षी की यादों के नाम पर एक प्रतियोगिता पत्रिका के मुखपृष्ठ पर छपी उस की मुसकराती छवि ही रह गई थी. अपनी भविष्य की योजनाओं पर ध्यान केंद्रित करती हुई लीना ने जाने क्या सोच कर उस पत्रिका को सहेज कर रखा था. एक भावना यह भी थी कि कभी तो यह दलित बाला उस की राजनीति की राहों में आएगी.

लीना के पिता अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में हर जगह बेटी को पेश करते थे. लीना की शादी भी उन्होंने एक व्यापारिक घराने में की थी. उस के पति का छोटा भाई वही बलात्कारी था जिस ने लीना के कालिज की लड़की अनुष्का से बलात्कार किया था और सुबूत न मिल पाने के कारण अदालत से बरी हो गया था.

लीना शुरू में इस रिश्ते को स्वीकार करने में थोड़ा हिचकिचाई थी, लेकिन पिता ने जब उसे विवाह और उस के राजनीतिक भविष्य के बारे में विस्तार से समझाया तो वह तैयार हो गई. लीना के पिता ने लड़के के पिता के सामने यह शर्त रख दी थी कि वह अपनी होने वाली बहू को राजनीति में आने से नहीं रोकेंगे.

लीना आज अपनी राष्ट्रीय पार्टी ‘जनमत मोर्चा’ की राज्य इकाई की सचिव है. पूरे शहर के लिए हरदम चर्चा में रहने वाला एक अच्छाखासा नाम है. आम जनता के साथसाथ ब्लाक स्तर से ले कर जिला स्तर तक सभी प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी उसे व्यक्तिगत रूप से जानते हैं. अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल वह अपने पति के भवन निर्माण व्यवसाय की दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति के लिए बखूबी कर रही थी. इन दिनों उस के पति कमलनाथ अपने एक नए प्रोजेक्ट का काम शुरू करने से पहले कई तरह की अड़चनों का सामना कर रहे थे.

लीना को पूरी उम्मीद थी कि हरिनाक्षी पुरानी सहपाठी होने के नाते उस की मदद करेगी और अगर नहीं करेगी तो फिर खमियाजा भुगतने के लिए उसे तैयार रहना होगा. ऐसे दूरदराज के इलाके में तबादला करवा देगी कि फिर कभी कोई महिला दलित अधिकारी उस से पंगा नहीं लेगी. कमलनाथ लीना को बता चुके थे कि इस प्रोजेक्ट में उन के लाखों रुपए फंस चुके थे.

दरअसल, शहर के व्यस्त इलाके में एक पुराना जर्जर मकान था. इस के आसपास काफी खाली जमीन थी. मकान मालिक शिवचरण उस मकान और जमीन को किसी भी कीमत पर बेचने को तैयार नहीं हो रहे थे. अपने बापदादा की निशानी को वह खोना नहीं चाहते थे. उस मकान से उन की बेटी अनुष्का की ढेर सारी यादें जुड़ी हुई थीं.

कमलनाथ ने एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को अपने प्रोजेक्ट में यह कह कर हिस्सेदारी देने की पेशकश की थी कि वह शिवचरण को ‘येन केन प्रकारेण’ जमीन खाली करने पर या तो राजी कर लेंगे या फिर मजबूर कर देंगे.

उस पुलिस अधिकारी ने अपने रोबदाब का इस्तेमाल करना शुरू किया, लेकिन शिवचरण थे कि आसानी से हार मानने को तैयार नहीं हो रहे थे. पहले तो वह पुलिसिया रोब से भयभीत नहीं हुआ बल्कि वह अपनी शिकायत पुलिस थाने में दर्ज कराने जा पहुंचा. यहां उसे बेहद जिल्लत झेलनी पड़ी थी. भला पुलिस अपने ही किसी आला अधिकारी के खिलाफ कैसे मामला दर्ज कर सकती थी? उन्होंने लानतमलामत कर उसे भगा दिया.

शिवचरण ने भी हार नहीं मानी और उन्हें पूरा विश्वास था कि एक न एक दिन उन की फरियाद जरूर सुनी जाएगी.

नई कलक्टर के कार्यभार संभालने की खबर ने उन के दिल में फिर से आस जगाई.

हर तरफ से निराश शिवचरण कलक्टर के दफ्तर पहुंचे.

आज कलक्टर साहिबा से वह मिल कर ही जाएंगे. चाहे कितना भी इंतजार क्यों न करना पडे़.

एक कागज पर शिवचरण ने अपना नाम लिखा और सचिव रामसेवक को दिया. रामसेवक ने कागज पर लिखा नाम पढ़ा तो उस के माथे पर पसीने की बूंदें चमकने लगीं. एक सीनियर पुलिस अधिकारी के मामले में लिप्त होने के कारण उस का नाम जिले के सभी प्रशासनिक अधिकारी जानते थे.

‘‘काम क्या है?’’ रामसेवक ने रूखे स्वर में पूछा.

‘‘वह मैं कलक्टर साहिबा को ही बताऊंगा,’’ शिवचरण ने गंभीरता से उत्तर दिया.

‘‘बिना काम के वह नहीं मिलतीं,’’ रामसेवक ने फिर टालना चाहा.

‘‘आज उन से मिले बगैर मैं नहीं जाऊंगा,’’ शिवचरण की आवाज थोड़ी तेज हो गई.

कलक्टर साहिबा के केबिन के बाहर खड़ा चपरासी यह सब देख रहा था.

अंदर से घंटी बजी.

चपरासी केबिन के अंदर जा कर वापस आया.

‘‘आप अंदर जाइए. मैडम ने बुलाया है,’’ चपरासी ने शिवचरण से कहा.

कुछ ही क्षणों के बाद शिवचरण कलक्टर साहिबा हरिनाक्षी के सामने बैठे थे.

शिवचरण को देख कर कलक्टर साहिबा चौंक पड़ीं, ‘‘चाचाजी, आप अनुष्का के पिता हैं न?’’

‘‘आप अनुष्का को कैसे जानती हैं?’’ शिवचरण थोडे़ हैरान हुए.

‘‘मैं अनुष्का को कैसे भूल सकती हूं. उस के साथ मेरी गहरी दोस्ती थी. उस का कालिज से घर लौटते समय अपहरण कर लिया गया था. 3 दिन बाद उस की विकृत लाश नेशनल हाइवे पर मिली थी. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार दरिंदों ने उस के साथ बलात्कार किया था और फिर गला घोंट कर उस की हत्या कर दी थी. अफसोस इस बात का है कि अपराधी आज भी बेखौफ घूम रहे हैं. खैर, आप बताइए कि आप की समस्या क्या है?’’

शिवचरण की आंखें भर आईं. एक तो बेटी की यादों की कसक और दूसरा अपनी समस्या पूरी तरह खुल कर बताने का अवसर मिलना. वह तुरंत कुछ न कह पाए.

‘‘चाचाजी, आप कहां खो गए?’’ हरिनाक्षी ने उन की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘आप अपना आवेदनपत्र दीजिए.’’

शिवचरण ने अपना आवेदनपत्र हरिनाक्षी की तरफ बढ़ाया तो वह उसे ले कर ध्यानपूर्वक पढ़ने लगी.

शिवचरण ने पूरी बातें विस्तार से लिखी थीं.

कैसे कमलनाथ ने एक पुलिस अधिकारी से मिल कर उन का जीना हराम कर दिया था और पुलिस अधिकारी ने अपनी कुरसी का इस्तेमाल करते हुए उन्हें धमकाने की कोशिश की थी. पत्र में और भी कई नाम थे जिन्हें पढ़ कर हरिनाक्षी हैरान हो रही थी. अनुष्का के बलात्कार के आरोपी निर्मलनाथ का नाम पढ़ कर तो उस के गुस्से का ठिकाना न रहा और लीना का नाम पढ़ कर तो उस ने अविलंब काररवाई करने का फैसला कर लिया.

‘खादी की ताकत का घमंड बढ़ता ही गया है लीना देवी का,’ हरिनाक्षी ने सोचा.

‘‘चाचाजी, आप चिंता न करें. आप की अपनी इच्छा के खिलाफ कोई आप को उस जमीन से, उस घर से निकाल नहीं सकता. आप जाएं,’’ हरिनाक्षी ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा.

‘‘तुम्हारा उपकार मैं जीवन भर नहीं भूल सकता, बेटी,’’ शिवचरण ने भरे गले से कहा.

‘‘इस में उपकार जैसा कुछ भी नहीं, चाचाजी. बस, मैं अपना कर्तव्य निभाऊंगी,’’ हरिनाक्षी की आवाज में दृढ़ता थी.

उस ने घंटी बजाई. चपरासी अंदर आया तो हरिनाक्षी बोली, ‘‘ड्राइवर से कहो इन्हें घर तक छोड़ आए.’’

‘‘चलिए, सर,’’ चपरासी ने शिवचरण से कहा.

चपरासी के साथ शिवचरण को बाहर आता देख कर रामसेवक आश्चर्य- चकित हो उठा और तुरंत अपना मोबाइल निकाला और दोएक नंबरों पर बात की.

इस बीच, अंदर से घंटी बजी तो रामसेवक मोबाइल जेब में रख कर तुरंत उठ कर केबिन में आने के लिए तत्पर हुआ.

‘‘एस.पी. साहब से कहिए कि वह हम से जितनी जल्द हो सके संपर्क करें,’’ हरिनाक्षी ने कहा.

‘‘जी, मैडम,’’ रामसेवक ने तुरंत उत्तर दिया और बाहर आ कर एस.पी. शैलेश कुमार को फोन घुमाने लगा.

‘‘साहब, रामसेवक बोल रहा हूं. मैडम ने फौरन याद किया है.’’

‘‘ठीक है,’’ उधर से आवाज आई.

आधे घंटे बाद एस.पी. शैलेश कुमार हरिनाक्षी के सामने आ कर बैठे नजर आए.

‘‘शैलेशजी, क्या हम जिले के सभी पुलिस अधिकारियों की एक संयुक्त बैठक कल बुला सकते हैं?’’ हरिनाक्षी ने पूछा.

‘‘हां…हां…क्यों नहीं?’’ एस.पी. साहब ने तुरंत उत्तर दिया.

‘‘तो फिर कल ही सर्किट हाउस में यह बैठक रखें,’’ हरिनाक्षी ने आदेशात्मक स्वर में कहा.

‘‘जी, मैडम,’’ एस.पी. साहब ने हामी भरी.

कलक्टर हरिनाक्षी के आदेश के अनुसार संयुक्त बैठक का आयोजन हुआ. जिले के सभी पुलिस थानों के थानेदारों समेत सभी छोटेबडे़ पुलिस अधिकारी बैठक में शामिल हुए.

सभी उत्सुक थे कि प्रशासनिक सेवा में बडे़ ओहदे पर कार्यरत यह सुंदर दलित बाला कितनी कड़कदार बातें कह पाएगी.

हरिनाक्षी ने बोलना शुरू किया :

‘‘साथियो, जिले की कानून व्यवस्था को संतुलित बनाए रखना और आम जनता के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करना 2 अलगअलग चीजें नहीं हैं. आप को यह वरदी आतंक फैलाने या दबंगता बढ़ाने के लिए नहीं दी गई बल्कि आम लोगों के इस विश्वास को जीतने के लिए दी गई है कि हम उन की हिफाजत के लिए हर वक्त तैयार रहें.

‘‘बड़े अफसोस की बात है कि हमारे पुलिस थानों में आम जनता के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता है. इसलिए आम जन पुलिस थाने में जाने से डरते हैं जबकि पैसे वाले और प्रभावशाली लोगों को तरजीह दी जाती है. मेरे पास कई ऐसी शिकायतें लिखित रूप में आई हैं जिन्हें पुलिस स्टेशन में दर्ज होना चाहिए था, लेकिन वहां उन की बात नहीं सुनी गई.

‘‘मेरा सभी पुलिस अधिकारियों से यह आग्रह है कि मेरे पास आए ऐसे सभी आवेदनपत्रों के आधार पर केस संख्या दर्ज की जाए और संबंधित व्यक्तियों को बताया जाए और उन्हें आश्वस्त किया जाए कि उन की शिकायतों पर उचित काररवाई की जाएगी.’’

हमारी सासूमां महान

सुबह हम औफिस जाने की तैयारी कर रहे थे कि अचानक ऐसा लगा मानो तबीयत खराब हो रही है. घबराहट होने लगी, सीने में दर्द भी होने लगा और लगा कि हम चक्कर खा कर गिर पड़ेंगे.

हम ने अपनी श्रीमतीजी को आवाज देनी चाही तो आवाज गले में दब कर रह गई. पसीना आने लगा. हम सोचने लगे कि क्या करें? वहीं धम्म से बैठ गए. श्रीमतीजी किचन में हमारे लिए लंच बना रही थीं. हमें उन के गाने की आवाज सुनाई दे रही थी. अंतिम आवाज श्रीमतीजी की हमारे कानों में यह आई थी, ‘‘औफिस जाओ, लेट हो रहे हो, मैं ने लंच बना दिया है. कब तक इस तरह फर्श पर लेटे रहोगे?’’

उस के बाद क्या हुआ, हमें नहीं मालूम. हमारी श्रीमतीजी ने जो कुछ बखान किया वह कुछ इस तरह है, ‘‘तुम्हें फर्श पर पड़ा देख कर मैं समझी तुम मुझे परेशान करने के लिए लोट रहे हो. मैं ने तुम्हें खूब खरीखरी सुनाई. लेकिन तुम्हारी कोई भी प्रतिक्रिया नहीं हुई तो मुझे हैरानी हुई. मैं ने जब तुम्हारे शरीर को देखा तो बर्फ की तरह ठंडा था. तुम पसीने से नहा चुके थे. मैं ने तुरंत पड़ोस के खड़से भैया और उन की बीवी खड़सी को बुलाया. वे तुरंत आ गए. उन्होंने बताया कि तुम्हें हार्ट अटैक आया है.

‘‘सुन कर मेरे हाथपांव फूल गए. फिर पूरे तीन दिनों तक आप को न जाने कितने इंजैक्शन, न जाने कितनी खून की बोतलें चढ़ाईं तब मेरा सुहाग बच पाया है,’’ कहतेकहते हमारी श्रीमतीजी की आंखों से गंगाजमना बहने लगी.

हम ने बिस्तर पर पड़ेपड़े ही कहा, ‘‘क्यों रोती हो? हमारे नहीं रहने पर तुम्हें अनुकंपा नौकरी मिल जाती, फंड का रुपया रिफंड हो जाता, बीमे के रुपए मिल जाते… अच्छा था तुम्हें चैन मिल जाता…’’

श्रीमतीजी ने साड़ी के पल्लू से अपनी तोते जैसी नाक को पोंछा और फिर कहने लगीं, ‘‘क्यों फालतू की बातें करते हो… अगर तुम ने ऐसी बातें की तो सच कहती हूं खटमल मार दवा पी कर मर जाऊंगी.’’

‘‘यानी मरतेमरते भी खर्च में डाल कर जाओगी,’’ हम ने नाराजगी भरे स्वर में कहा. फिर पूछा, ‘‘यह तो बताओ डाक्टर ने हमें बीमारी क्या बताई?’’

‘‘3 ट्यूब ब्लाकेज हैं, कोलैस्ट्रौल बढ़ गया है. हमेशा कहती थी कि घी, तेल वाली व चटपटी चीजें न खाया करो. लेकिन तुम सुनते कहां थे. हमेशा कहते थे कि उबली सब्जियां बनाती हो… कहो, मैं तुम्हारे अच्छे के लिए बनाती थी न? अब जो कुछ भी बनाऊंगी चुपचाप खा लेना.’’

‘‘ऐसे उबले खाने से तो मरना अच्छा है, हम नहीं खाएंगे,’’ हम ने गुस्से से कहा.

‘‘तुम्हें मैं क्या ठीक करूंगी… तुम्हें तो संसार में एक ही… ठीक कर सकती है…’’ न जाने किस का नाम लिया, हम सुन नहीं पाए और वे चली गईं.

एक शाम श्रीमतीजी ने हंसते हुए हमारे कमरे में प्रवेश किया और बताया, ‘‘शाम को मेरी मम्मी आ रही हैं.’’

‘‘आप की मम्मी आ रही हैं? मगर क्यों?’’

‘‘तुम्हें देखने.’’

‘‘हम ठीक तो हैं.’’

‘‘तो क्या मैं उन्हें आने से मना कर देती?’’

शाम को हमारी सासूमां आ धमकीं. आते ही हमारे पास आईं और फटाफट 1 दर्जन हिदायतें दीं.

अगले दिन सुबह से दूध के गिलास में मलाई बिलकुल नहीं थी. परांठे खाने को बैठे तो 2 फुलके बिना घी के आ गए. हम ने यह देखा तो माथा पीट लिया. यह सब परोसने के लिए हमारी सासूमां मौजूद थीं. खाने से घी गायब था, अंडे नहीं थे और जो फल यानी पपीते, सेब, अनार, आम आदि थे उन में से मात्र 25% हम तक आ रहे थे शेष 75% के छिलके हम ने अपनी सासूमां के बैडरूम में रखी डस्टबिन में देखे.

एक दिन पड़ोसी मिस्टर कैथवास और मिसेज कैथवासनी ने चिकन तंदूर चुपके से भेजने का वचन दिया. हम भी प्रतीक्षा कर रहे थे. श्रीमतीजी को हम ने कसम दे कर अपनी ओर मिला लिया था. रात को हम मुंह में पानी लिए खाने की प्रतीक्षा कर रहे थे कि तभी हमारी थाली में मुरगा नहीं, बल्कि दलिया लिए हमारी सासूमां प्रकट हुईं और आंखें तरेर कर कहने लगीं, ‘‘मैं ने आज आप के दोस्त कैथवास की खूब आरती उतारी है, मुरगा लाया था नालायक आप के लिए…’’

‘‘अरे,’’ हम ने आश्चर्य प्रकट किया, ‘‘मुरगा है कहां?’’ हम ने पूछा.

‘‘हमें आप के मित्र की इज्जत का ध्यान था इसलिए मुरगा रख लिया, आप दलिया जल्दी से खा लो ताकि मैं जा कर मुरगे को निबटाऊं.’’

हम ने आंखें बंद कर के दलिया खाया, पानी पीया और अपनी किस्मत पर बिसूरते हुए सो गए. हमारी सासूमां ने पूरा मुरगा और बटर को निबटाया. यह सिलसिला महीने भर तक चलता रहा.

डाक्टर ने चैकअप किया, रक्त परीक्षण किया और श्रीमतीजी को बधाई दी, ‘‘कोलैस्ट्रौल एकदम 1 महीने में सामान्य हो गया… ऐसा परहेज 3-4 माह और चलने दें, ब्लाकेज भी अपनेआप ठीक हो जाएंगे.’’

श्रीमतीजी प्रसन्न हो गईं, मगर इतना लंबा परहेज सुन कर हम परेशान हो गए. वजन की मशीन पर हमारी सासूमां ने वजन लिया जो पूरा 60 किलोग्राम था.

1 माह में 30 किलोग्राम की बढ़ोतरी हो चुकी थी. सच में हमारी सासूमां के गालों पर लाली आ गई थी, माशा अल्लाह हैल्थ भी अच्छी हो गई थी.

श्रीमतीजी ने कहा, ‘‘जब तक आप पूरी तरह ठीक नहीं हो जाएंगे मम्मी यहीं रहेंगी.’’

हम ने कभी विरोध नहीं किया था इसलिए चुप हो गए. पूरे 3 महीने तक हमें 25% भोजन दिया गया.

एक रोज सुबह श्रीमतीजी रोते हुए बोलीं, ‘‘मम्मीजी के सीने में दर्द है, पसीना आ रहा है, जी घबरा रहा है, बेहोशी आ रही है…’’

हम तेजी से उठे और उन्हें देखा. सच में वे ठीक हमारी तरह ही हो रही थीं. हम उन्हें तुरंत अस्पताल ले गए. डाक्टर ने उन्हें हार्ट अटैक बताया. खानेपीने के परहेज में घी, मक्खन, पनीर, मुरगा, अंडे सब खाने के लिए मना कर दिया. हम इलाज करा कर उन्हें घर ले आए. घर में उन के लिए बिस्तर लगा दिया.

हम उन्हें देखने जब उन के कमरे में गए तो उन्होंने हंसतेमुसकराते हुए हमें देखा और कहा, ‘‘दामादजी, आप की तबीयत ठीक रहे इसलिए नहीं चाहते हुए भी हम ने वह सब खाया, क्योंकि हमें आप की चिंता थी. यदि सामान घर में रहता तो आप भला किसी की सुनते?’’

‘‘हमारे स्वास्थ्य की आप को कितनी चिंता है सासूमां,’’ हम ने बड़े प्यार से कहा.

‘‘क्यों न हो? दामाद बेटे समान होता है.’’

हम प्रेमश्रद्धा से भर उठे और उन के चरण स्पर्श कर लिए. श्रीमतीजी परदे की ओट से सास और दामाद का स्नेह, श्रद्धा से भरा मिलन देख रही थीं. सच में, हमें पहली बार अपनी सास पर गर्व हुआ कि ऐसी महान सास सब को मिले.

बेवफा: एकतरफा प्यार करने वाली प्रिया के साथ क्या हुआ?

‘‘इट्स टू मच यार, लड़के कितने चीप, आई मीन कितने टपोरी होते हैं.’’ कमरे में घुसते ही सीमा ने बैग पटकते हुए झुंझलाए स्वर में कहा तो मैं चौंक पड़ी.

‘‘क्या हुआ यार? कोई बात है क्या? ऐसे क्यों कह रही है?’’

‘‘और क्या कहूं प्रिया? आज विभा मिली थी.’’

‘‘तेरी पहली रूममेट.’’

‘‘हां, यार. उस के साथ जो हुआ मैं तो सोच भी नहीं सकती. कोई ऐसा कैसे कर सकता है?’’

‘‘कुछ बताएगी भी? यह ले पहले पानी पी, शांत हो जा, फिर कुछ कहना,’’ मैं ने बोतल उस की तरफ उछाली.

वह पलंग पर बैठते हुए बोली, ‘‘विभा कह रही थी, उस का बौयफ्रैंड आजकल बड़ी बेशर्मी से किसी दूसरी गर्लफैं्रड के साथ घूम रहा है. जब विभा ने एतराज जताया तो कहता है, तुझ से बोर हो गया हूं. कुछ नया चाहिए. तू भी किसी और को पटा ले. प्रिया, मैं जानती हूं, तेरी तरह विभा भी वन मैन वूमन थी. कितना प्यार करती थी उसे. और वह लफंगा… सच, लड़के होते ही ऐसे हैं.’’

‘‘पर तू सारे लड़कों को एक जैसा क्यों समझ रही है? सब एक से तो नहीं होते,’’ मैं ने जिरह की.

‘‘सब एक से होते हैं. लड़कों के लिए प्यार सिर्फ टाइम पास है. वे इसे गंभीरता से नहीं लेते. बस, मस्ती की और आगे बढ़ गए, पर लड़कियां दिल से प्यार करती हैं. अब तुझे ही लें, उस लड़के पर अपनी जिंदगी कुरबान किए बैठी है, जिस लफंगे को यह भी पता नहीं कि तू उसे इतना प्यार करती है. उस ने तो आराम से शादी कर ली और जिंदगी के मजे ले रहा है, पर तू आज तक खुद को शादी के लिए तैयार नहीं कर पाई. आज तक अकेलेपन का दर्द सह रही है और एक वह है जिस की जिंदगी में तू नहीं कोई और है. आखिर ऐसी कुरबानी किस काम की?’’

मैं ने टोका, ‘‘ऐक्सक्यूजमी. मैं ने किसी के लिए जिंदगी कुरबान नहीं की. मैं तो यों भी शादी नहीं करना चाहती थी. बस, जीवन का एक मकसद था, अपने पैरों पर खड़ा होना, क्रिएटिव काम करना. वही कर रही हूं और जहां तक बात प्यार की है, तो हां, मैं ने प्यार किया था, क्योंकि मेरा दिल उसे चाहता था. इस से मुझे खुशी मिली पर मैं ने उस वक्त भी यह जरूरी नहीं समझा कि इस कोमल एहसास को मैं दूसरों के साथ बांटूं, ढोल पीटूं कि मैं प्यार करती हूं. बस, कुछ यादें संजो कर मैं भी आगे बढ़ चुकी हूं.’’

‘‘आगे बढ़ चुकी है? फिर क्यों अब भी कोई पसंद आता है तो कहीं न कहीं तुझे उस में अमर का अक्स नजर आता है. बोल, है या नहीं…’’

‘‘इट्स माई प्रौब्लम, यार. इस में अमर की क्या गलती. मैं ने तो उसे कभी नहीं कहा कि मैं तुम से प्यार करती हूं, शादी करना चाहती हूं. हम दोनों ने ही अपना अलग जहां ढूंढ़ लिया.’’

‘‘अब सोच, फिजिकल रिलेशन की तो बात दूर, तूने कभी उस के साथ रोमांस भी नहीं किया और आज तक उस के प्रति  वफादार है, जबकि वह… तूने ही कहा था न कि वह कालेज की कई लड़कियों के साथ फ्लर्ट करता था. क्या पता आज भी कर रहा हो. घर में बीवी और बाहर…’’

‘‘प्लीज सीमा, वह क्या कर रहा है, मुझे इस में कोई दिलचस्पी नहीं, लेकिन देख उस के बारे में उलटासीधा मत कहना.’’

‘‘हांहां, ऐसा करने पर तुझे तकलीफ जो होती है तो देख ले, यह है लड़की का प्यार. और लड़के, तोबा… मैं आजाद को भी अच्छी तरह पहचानती हूं. हर तीसरी लड़की में अपनी गर्लफ्रैंड ढूंढ़ता है. वह तो मैं ने लगाम कस रखी है, वरना…’’

मैं हंस पड़ी. सीमा भी कभीकभी बड़ी मजेदार बातें करती है, ‘‘चल, अब नहाधो ले और जल्दी से फ्रैश हो कर आ. आज डिनर में मटरपनीर और दालमक्खनी है, तेरी मनपसंद.’’

मुसकराते हुए सीमा चली गई तो मैं खयालों में खो गई. बंद आंखों के आगे फिर से अमर की मुसकराती आंखें आ गईं. मैं ने उसे एक बार कहा था, ‘तुम हंसते हो तो तुम्हारी आंखें भी हंसती हैं.’

वह हंस पड़ा और कहने लगा, ‘तुम ने ही कही है यह बात. और किसी ने तो शायद मुझे इतने ध्यान से कभी देखा ही नहीं.’

सच, प्यार को शब्दों में ढालना कठिन होता है. यह तो एहसास है जो सिर्फ महसूस किया जा सकता है. इस खूबसूरत एहसास ने 2 साल तक मुझे भी अपने रेशमी पहलू में कैद कर रखा था. कालेज जाती, तो बस अमर को एक नजर देखने के लिए. स्मार्ट, हैंडसम अमर को अपनी तरफ देखते ही मेरे अंदर एक अजीब सी सिहरन होती.

वह अकसर जब मेरे करीब आता तो गुनगुनाने लगता. मुझ से बातें करता तो उस की आवाज में कंपन सी महसूस होती. उस की आंखें हर वक्त मुझ से कुछ कहतीं, जिसे मेरा दिल समझता था, पर दिमाग कहता था कि यह सच नहीं है. वह मुझ से प्यार कर ही नहीं सकता. कहां मैं सांवली सी अपने में सिमटी लड़की और कहां वह कालेज की जान. पर अपने दिल पर एतबार तब हुआ जब एक दिन उस के सब से करीबी दोस्त ने कहा कि अमर तो सिर्फ तुम्हें देखने को कालेज आता है.

मैं अजीब सी खुशफहमी में डूब गई. पर फिर खुद को समझाने लगी कि यह सही नहीं होगा. हमारी जोड़ी जमेगी नहीं. और फिर शादी मेरी मंजिल नहीं है. मुझे तो कुछ करना है जीवन में. इसलिए मैं उस से दूरी बढ़ाने की कोशिश करने लगी. घर छोड़ने के लिए कई दफा उस ने लिफ्ट देनी चाही, पर मैं हमेशा इनकार कर देती. वह मुझ से बातें करने आता तो मैं घर जाने की जल्दी दिखाती.

इसी बीच एक दिन आशा, जो हम दोनों की कौमन फ्रैंड थी, मेरे घर आई. काफी देर तक हम दोनों ने बहुत सी बातें कीं. उस ने मेरा अलबम भी देखा, जिस में ग्रुप फोटो में अमर की तसवीरें सब से ज्यादा थीं. उस ने मेरी तरफ शरारत से देख कर कहा, ‘लगता है कुछ बात है तुम दोनों में.’ मैं मुसकरा पड़ी. उस दिन बातचीत से भी उसे एहसास हो गया था कि मैं अमर को चाहती हूं. मुझे यकीन था, आशा अमर से यह बात जरूर कहेगी, पर मुझे आश्चर्य तब हुआ जब उस दिन के बाद से वह मुझ से दूर रहने लगा.

मैं समझ गई कि अमर को यह बात बुरी लगी है, सो मैं ने भी उस दूरी को पाटने की कोशिश नहीं की. हमारे बीच दूरियां बढ़ती गईं. अब अमर मुझ से नजरें चुराने लगा था. कईकई दिन बीत जाने पर भी वह बात करने की कोशिश नहीं करता. मैं कुछ कहती तो शौर्ट में जवाब दे कर आगे बढ़ जाता, जबकि आशा से उस की दोस्ती काफी बढ़ चुकी थी. उस के इस व्यवहार ने मुझे बहुत चोट पहुंचाई. भले ही पहले मैं खुद उस से दूर होना चाहती थी, पर जब उस ने ऐसा किया तो बहुत तकलीफ हुई.

इसी बीच मुझे नौकरी मिल गई और मैं अपना शहर छोड़ कर यहां आ गई. हौस्टल में रहने लगी. बाद में अपनी एक सहेली से खबर मिली की अमर की शादी हो गई है. इस के बाद मेरे और अमर के बीच कोई संपर्क नहीं रहा.

मैं जानती थी, उस ने कभी भी मुझे याद नहीं किया होगा और करेगा भी क्यों? हमारे बीच कोई रिश्ता ही कहां था? यह मेरी दीवानगी है जिस का दर्द मुझे अच्छा लगता है. इस में अमर की कोई गलती नहीं. पर सीमा को लगता है कि अमर ने गलत किया. सीमा ही क्यों मेरे घर वाले भी मेरी दीवानगी से वाकिफ हैं. मेरी बहन ने साफ कहा था, ‘तू पागल है. उस लड़के को याद करती है, जिस ने तुझे कोई अहमियत ही नहीं दी.’

‘‘किस सोच में डूब गई, डियर?’’ नहा कर सीमा आ चुकी थी. मैं हंस पड़ी, ‘‘कुछ नहीं, फेसबुक पर किसी दूसरे नाम से अपना अकाउंट खोल रही थी.’’

‘‘किसी और नाम से? वजह जानती हूं मैं… यह अकाउंट तू सिर्फ और सिर्फ अमर को ढूंढ़ने के लिए खोल रही है.’’

‘‘जी नहीं, मेरे कई दोस्त हैं, जिन्हें ढूंढ़ना है मुझे,’’ मैं ने लैपटौप बंद करते हुए कहा.

‘‘तो ढूंढ़ो… लैपटौप बंद क्यों कर दिया?’’

‘‘पहले भोजन फिर मनोरंजन,’’ मैं ने प्यार से उस की पीठ पर धौल जमाई.

रात 11 बजे जब सीमा सो गई तो मैं ने फिर से फेसबुक पर लौगइन किया और अमर का नाम डाल कर सर्च मारा. 8 साल बाद अमर की तसवीर सामने देख कर यकायक ही होंठों पर मुसकराहट आ गई. जल्दी से मैं ने उस के डिटेल्स पढ़े. अमर ने फेसबुक पर अपना फैमिली फोटो भी डाला हुआ था, जिस में उस की बहन भी थी. कुछ सोच कर मैं ने उस की बहन के डिटेल्स लिए और उस के फेसबुक अकाउंट पर उस से दोस्ती के लिए रिक्वैस्ट डाल दी.

2 दिन बाद मैं ने देखा, उस की बहन निशा ने रिक्वैस्ट स्वीकार कर ली है. फिर क्या था, मैं ने उस से दोस्ती कर ली ताकि अमर के बारे में जानकारी मिलती रहे. वैसे यह बात मैं ने निशा पर जाहिर नहीं की और बिलकुल अजनबी बन कर उस से दोस्ती की.

निशा औनलाइन अपने बारे में ढेर सारी बातें बताती. वह दिल्ली में ही थी और प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी. उस ने लाजपत नगर में कमरा किराए पर ले रखा था. अब तो जानबूझ कर मैं दिन में 2-3 घंटे अवश्य उस से चैटिंग करती ताकि हमारी दोस्ती गहरी हो सके.

एक दिन अपने बर्थडे पर उस ने मुझे घर बुलाया तो मैं ने तुरंत हामी भर दी. शाम को जब तक मैं उस के घर पहुंची तबतक  पार्टी खत्म हो चुकी थी और उस के फ्रैंड्स जा चुके थे. मैं जानबूझ कर देर से पहुंची थी ताकि अकेले में उस से बातें हो सकें. कमरा  खूबसूरती से सजा हुआ था. हम दोनों जिगरी दोस्त की तरह मिले और बातें करने लगे. निशा का स्वभाव बहुत कुछ अमर की तरह ही था, चुलबुली, मजाकिया पर साफ दिल की. वह सुंदर भी काफी थी और बातूनी भी.

मैं अमर के बारे में कुछ जानना चाहती थी जबकि निशा अपने बारे में बताए जा रही थी. उस के कालेज के दोस्तों और बौयफ्रैंड्स की दास्तान सुनतेसुनते मुझे उबासी आ गई. यह देख निशा तुरंत चाय बनाने के लिए उठ गई.

अब मैं चुपचाप निशा के कमरे में रखी चीजों का दूर से ही जायजा लेने लगी, यह सोच कर कि कहीं तो कोई चीज नजर आए, तभी टेबल पर रखी डायरी पर मेरी नजर गई तो मैं खुद को रोक नहीं सकी. डायरी के पन्ने पलटने लगी. ‘निशा ने अच्छा संग्रह कर रखा है,’ सोचती हुई मैं डायरी के पन्ने पलटती रही. तभी एक पृष्ठ पर नजरें टिक गईं. ‘बेवफा’ यह एक कविता थी जिसे मैं पूरा पढ़ गई.

मैं यह कविता पढ़ कर बुत सी बन गई. दिमाग ने काम करना बंद कर दिया. ‘तुम्हारी आंखें भी हंसती हैं…’ यह पंक्ति मेरी आंखों के आगे घूम रही थी. यह बात तो मैं ने अमर से कही थी. एक नहीं 2-3 बार.

तभी चाय ले कर निशा अंदर आ गई. मेरे हाथ में डायरी देख कर उस ने लपकते हुए उसे खींचा. मैं यथार्थ में लौट आई. मैं अजीब सी उलझन में थी, नेहा ने हंसते हुए कहा, ‘‘यार, यह डायरी मेरी सब से अच्छी सहेली है. जहां भी मन को छूती कोई पंक्ति या कविता दिखती है मैं इस में लिख लेती हूं.’’ उस ने फिर से मुझे डायरी पकड़ा दी और बोली, ‘‘पढ़ोपढ़ो, मैं ने तो यों ही छीन ली थी.’’

डायरी के पन्ने पलटती हुई मैं फिर उसी पृष्ठ पर आ गई. ‘‘यह कविता बड़ी अच्छी है. किस ने लिखी,’’ मैं ने पूछा.

‘‘यह कविता…’’ निशा मुसकराई, ‘‘मेरे अमर भैया हैं न, उन्होंने ही लिखी है. पिछली दीवाली के दिन की बात है. वे चुपचाप बैठे कुछ लिख रहे थे. मैं पहुंच गई तो हड़बड़ा गए. दिखाया भी नहीं पर बाद में मैं ने चुपके से देख लिया.’’

‘‘किस पर लिखी है इतनी अच्छी कविता? कौन थी वह?’’ मैं ने कुरेदा.

‘‘थी कोई उन के कालेज में. जहां तक मुझे याद है, प्रिया नाम था उस का. भैया बहुत चाहते थे उसे. पहली दफा उन्होंने किसी को दिल से चाहा था, पर उस ने भैया का दिल तोड़ दिया. आज तक भैया उसे भूल नहीं सके हैं और शायद कभी न भूल पाएं. ऊपर से तो बहुत खुश लगते हैं, परिवार है, पत्नी है, बेटा है, पर अंदर ही अंदर एक दर्द हमेशा उन्हें सालता रहता है.’’

मैं स्तब्ध थी. तो क्या सचमुच अमर ने यह कविता मेरे लिए लिखी है. वह मुझे बेवफा समझता है? मैं ने उस के होंठों की मुसकान छीन ली.

हजारों सवाल हथौड़े की तरह मेरे दिमाग पर चोट कर रहे थे.

मुझ से निशा के घर और नहीं रुका गया. बहाना बना कर मैं बाहर आ गई. सड़क पर चलते वक्त भी बस, यही वाक्य जहर बन कर मेरे सीने को बेध रहा था… ‘बेवफा’… मैं बेवफा हूं…’

तभी भीगी पलकों के बीच मेरे होंठों पर हंसी खेल गई. जो भी हो, मेरा प्यार आज तक मेरे सीने में दहक रहा है. वह मुझ से इतना प्यार करता था तभी तो आज तक भूल नहीं सका है. बेवफा के रूप में ही सही, पर मैं अब भी उस के दिलोदिमाग में हूं. मेरी तड़प बेवजह नहीं थी. मेरी चाहत बेनाम नहीं. बेवफा बन कर ही सही अमर ने आज मेरे प्यार को पूर्ण कर दिया था.

‘आई लव यू अमर ऐंड आई नो… यू लव मी टू…’ मैं ने खुद से कहा और मुसकरा पड़ी.

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