Stories : रामलाल की घर वापसी – कौन थी कमला

Stories :  सात आठ घंटे के सफर के बाद बस ने गांव के बाहर ही उतार दिया था . कमला को भी रामलाल ने अपने साथ बस से उतार लिया था.

“देखो कमला तुम्हारा पति जब तुम्हारे साथ इतनी मारपीट करता है तो तुम उसके साथ क्यों रहना चाहती हो ”

कमला थोड़ी देर तक खामोश बनीं रही . उसने कातर भाव से रामलाल की ओर देखा

“पर …….”

“पर कुछ नहीं तुम मेरे साथ चलो”

“तुम्हारे घर के लोग मेरे बारे में पूछेंगे तो क्या कहोगे”

“कह दूंगा  कि तुम मेरी घरवाली हो, जल्द बाजी में ब्याह करना पड़ा”.

कमला कुछ नहीं बोली .दोनों के कदम गांव की ओर बढ़ गये .

रामलाल के सामने विगत एक माह में घटा एक एक घटनाक्रम चलचित्र की भांति सामने आ रहा था .

रामलाल शहर में मजदूरी करता था . ब्याह नहीं हुआ था इसलिए जो मजदूरी मिलती उसमें उसका खर्च आराम से चल जाता . थोड़े बहुत पैसे जोड़कर वह गांव में अपनी मां को भी भैज देता .गांव में एक बहिन और मां ही रहते हैं . एक बीघा जमीन है पर उससे सभी की गुज़र बसर होना संभव नहीं था .गांव में मजदूरी मिलना कठिन था इसलिए उसे शहर आना पड़ा .शहर गांव से तो बहुत दूर था “पर उसे कौन रोज-रोज गांव आना है” सोचकर यही काम करने भी लगा था . एक छोटा सा कमरा किराए पर ले लिया था . एक स्टोव और कुछ बर्तन . शाम को जब काम से लौटता तो दो रोटी बना लेता और का कर सो जाता . दिन भर का थका होता इसलिए नींद भी अच्छी आती . वह ईमानदारी से काम करता था इस कारण से सेठ भी उस पर खुश रहता . वह अपनी मजदूरी से थोड़े पैसे सेठ के पास ही जमा कर देता

” मालिक जब गांव जाऊंगा तो आप से ले लूंगा ‘ .उसे सेठ पर भरोसा था .

साल भर हो गया था उसे शहर में रहते हुए . इस एक साल में वह अपने गांव जा भी नहीं पाया था .उस दिन उसने देर तक काम किया था . वह अपने कमरे पर देर से पहुंचा था .जल्दबाजी में उसे ध्यान ही नहीं रहा कि वो सेठ से कुछ पैसे ले ले . उसने अपनी जेब टटोली दस का सिक्का उसके हाथ में आ गया “चलो आज का खर्चा तो चल जाएगा कल सेठ से पैसे मिल ही जायेंगे” .रामलाल ने गहरी सांस ली . दो रोटी बनाई और खाकर सो गया .

सुबह जब वह नहाकर काम पर जाने के लिए निकला तो पता चला कि पुलिस वाले किसी को घर से निकलने ही नहीं दे रहे हैं . सरकार ने लांकडाउन लगा दिया है . बहुत देर तक ऐ वह इसका मतलब ही नही समझ पाया .केवल यही समझ में आया कि वो आज काम पर नहीं जा पाएगा .वह उदास कदमों से अपने कमरे पर लौट आया . मकान मालिक उसके कमरे के सामने ही मिल गया था.

“देखो रामलाल लाकडाउन लग गया है महिने भर का .कोई वायरस फैल रहा है . तुम एक काम करो कि जल्दी से जल्दी कमरा खाली कर दो”

रामलाल वैसे ही लाकडाउन का मतलब नहीं समझ पाया था उस पर वायरस की बात तो उसे बिल्कुल भी समझ में नहीं आई ।

“कमरा खाली कर दो …. मुझसे कोई गल्ती हो गई क्या ?’

“नहीं पर तुम काम पर जा नहीं पाओगे तो कमरे का किराया कैसे दोगे”

“क्या महिने भर काम बंद रहेगा “?

“हां घर से निकलोगे तो पुलिस वाले डंडा मारेंगे”.

रामलाल के सामने अंधेरा छाने लगा .उसके पास तो केवल दस का सिक्का ही है . वह कुछ नहीं बोला उदास क़दमों से अपने कमरे में आ कर जमीन पर बिछी दरी पर लेट गया .

उसकी नींद जब खुली तब तक शाम का अंधेरा फैलने लगा था . उसने बाहर निकल कर देखा . बाहर सुनसान था . उसे पैसों की चिंता सता रही थी यदि वह कल ही सेठ से पैसे ले लेता तो कम से खाने की जुगाड़ तो हो जाती . यदि वह सेठ के पास चला जाए तो सेठ उसे पैसे अवश्य दे सकते हैं . उसने कमरे से फिर बाहर की ओर झांका बहुत सारे पुलिस वाले खड़े थे. उसकी हिम्मत बाहर निकलने की नहीं हुई .वह फिर से दरी पर लेट गया . उसकी नींद जब खुली उस समय रात के दो बज रहे थे . भूख के कारण उसके पेट में दर्द सा हो रहा था .वह उठा “दो रोटी बना ही लेता हूं दिन भर से कुछ खाया कहां है” .स्टोव जला लिया पर आटा रखने वाले डिब्बे को खोलने की हिम्मत नहीं हो रही थी .वह जानता था कि उसमें थोड़ा सा ही आटा शेष है .यदि अभी रोटी बना ली तो कल के लिए कुछ नहीं बचेगा .उसने निराशा के साथ डिब्बा खोला और सारे आटे को थाली में डाल लिया . दो छोटी छोटी रोटी ही बन पाई . एक रोटी खा ली और दूसरी रोटी को डिब्बे में रख दिया .

सुबह हो गई थी .उसने बाहर झांक कर देखा .पुलिस कहीं दिखाई नहीं दी  . वह कमरे से बाहर निकल आया . उसके कदम सेठ के घर की ओर बढ़ लिए . सेठ का घर बहुत दूर था छिपते छिपाते वह उनके घर के सामने पहुंच गया था .दिन पूरा निकल आया था .यह सोचकर कि सेठ जाग गये होंगे ,उसके हाथ बाहर लगी घंटी पर पहुंच गए थे .उनके नौकर ने दरवाजा खोला था

“जी मैं रामलाल हूं सेठ के ठेके पर काम करता हूं”

“हां तो…..

“मुझे कुछ पैसे चाहिए हैं”

“हां तो ठेके पर जाना वहीं मिलेंगे, सेठजी घर पर नौकरों से नहीं मिलते”

“पर वो लाकडाउन लग गया है न तो काम तो महिने भर बंद रहेगा”

“तभी आना…”

“तुम एक बार उनसे बोलो तो वो मुझे बहुत चाहते हैं ”

“अच्छा रूको मैं पूछता हूं” . नौकर को  शायद दया आ गई थी उस पर .

नौकर के साथ सेठ ही बाहर आ गए थे .उनके चेहरे पर झुंझलाहट के भाव साफ़ झलक रहे थे जिसे रामलाल नहीं पढ़ पाया . सेठ जी को देखते ही उसने झुक कर पैर पड़ने चाहे थे पर सेठ ने उसे दूर से ही झटक दिया .

“अब तुम्हारी हिम्मत इतनी हो गई कि घर पर चले आए”

“वो सेठ जी कल आपसे पैसे ले नहीं पाया था , मेरे पास बिल्कुल भी पैसे नहीं हैं, ऊपर से लाकडाउन हो गया है इसलिए आना पड़ा” . रामलाल ने सकपकाते हुए कहा .

“चल यहां से बड़ा पैसे लेने आया है, मैं घर पर लेन-देन नहीं करता”

सेठ ने उसे खूंखार निगाहों से घूरा तो रामलाल घबरा गया .उसने सेठ जी के पैर पकड़ लिए “मेरे पास बिल्कुल भी पैसे नहीं हैं थोड़े से पैसे मिल जाते हुजूर” .

सेठ ने उसे ठोकर मारते हुए अंदर चला गया .हक्का-बक्का रामलाल थोड़ी देर तक वहीं खड़ा रहा .उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह क्या करे ।.तभी पुलिस की गाड़ियों के आने की आवाज गूंजने लगी . वह भयभीत हो गया और भागने लगा .छिपते छिपाते वह अपने कमरे के नजदीक तक तो पहुंच गया पर यहीं गली में उसे पुलिस वालों ने पकड़ लिया .वह कुछ बोल पाता इसके पहले ही उसके ऊपर डंडे बरसाए जाने लगे थे . रामलाल दर्द से कराह उठा . अबकी बार पुलिस वालों ने गंदी गंदी  गालियां देनी शुरू कर दी थी . तभी एक मोटरसाइकिल पर सवार कुछ नवयुवक आकर रुक गये . उन्होंने ने पुलिस वालों से कुछ बात की . पुलिस ने उन्हें जाने दिया . रामलाल भी इसी का फायदा उठा कर वहां से खिसक लिया . वह हांफते हुए अपने कमरे की दरी पर लेट गया । उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे जिन्हें पौंछने वाला कोई नहीं था . उसे अपनी मां की याद सताने लगी.

“क्या हुआ बेटा रो क्यों रहा है”

“कुछ नहीं मां पीठ पर दर्द हो रहा है”

“अच्छा बता मैं मालिश कर देती हूं”

मां की याद आते ही उसके आंसुओं की रफ्तार बढ़ गई थी . रोते-रोते वह सो गया था . दोपहर का समय ही रहता होगा जब उसकी आंख खुली .उसका सारा बदन दुख रहा था . पुलिस वालों ने उसे बेदर्दी से मारा था  वह कराहता हुआ उठा .बहुत जोर की भूख लगी थी . वह जानता था कि डिब्बे में अभी एक रोटी रखी हुई है .

सूखी और कड़ी रोटी खाने में समय लगा .वह अब क्या करे ? उसके सामने अनेक प्रश्न थे .

मकान मालिक ने दरवाजा भी नहीं खटखटाया था सीधे अंदर घुस आया था ” तुम कमरा कब खाली कर रहे हो”

वह सकपका गया

“मैं इस समय कहां जाऊंगा, आप कुछ दिन रूक जाओ, माहौल शांत हो जाने दो ताकि मैं दूसरा कमरा ढूंढ सकूं”

रामलाल हाथ जोड़कर खड़ा हो गया था .

“नहीं माहौल तो मालूम नहीं कब ठीक होगा तुम तो कमरा कल तक खाली कर दो…. नहीं तो मुझे जबरदस्ती करनी पड़ेंगी” . कहता हुआ वह चला गया . रामलाल को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे .वह चुपचाप बैठा रहा ।.अभी तो उसे शाम के खाने की भी फ़िक्र थी .

सूरज ढलने को था .रामलाल अभी भी वैसे ही बैठा था खामोश और वह करता भी क्या? . उसने कमरे का दरवाजा जरा सा खोलकर देखा . बाहर पुलिस नहीं थी , वह बाहर निकल आया . थोड़ी दूर पर उसे कुछ भीड़ दिखाई दी .वह लड़खड़ाते हुए वहां पहुंच गया .कुछ लोग खाने का पैकेट बांट रहे थे . वह भी लाईन में लग गया .हर पैकेट को देते हुए वो फोटो खींच रहे थे इसलिए समय लग रहा था . उसका नंबर आया एक व्यक्ति ने उसके हाथ में खाने का पैकेट रखा साथ के और लोग उसके चारों ओर खड़े हो गए .कैमरे का फ्लेश चमकने लगा .फोटो खिंचवा कर वो लोग जा चुके थे . रामलाल भी अपने कमरे कीओर लौट पड़ा “चलो ऊपर वाले ने सुन ली आज के खाने का इंतजाम तो हो गया, इसी में से कुछ बचा लेंगे तो सुबह का लेंगे” .

उसे बहुत जोरों से भूख लगी थी इसलिए कमरे में आते ही उसने पैकेट खोल लिया था . पैकेट में केवल दो मोटी सी पुड़ी थीं और जरा सी सब्जी .सब्जी बदबू मार रहीथी ,शायद वह खराब हो गई थी .हक्का-बक्का रामलाल रोटियों को कुछ देर तक यूं ही देखता रहा फिर उसने मोटी पुड़ी को चबाना शुरू कर दिया . दरी पर लेट कर वह भविष्य के बारे में सोचने लगा . वह अब क्या करें । कमरा भी खाली करना है .अपने गांव भी नहीं लौट सकता क्योंकि ट्रेने और बस बंद हो चुकी है, पैसे भी नहीं है . वह समझ ही नहीं पा रहा था कि वह करे तो क्या करें . उसने फिर से ऊपर की ओर देखा कमरे से आसमान दिखाई नहीं दिया पर उसने मन ही मन भगवान को अवश्य याद किया .

‌उसे सुबह ही पता लगा था कि सरकार की ओर से खाने की व्यवस्था की गई है इसलिए वह ढ़ूढ़ते हुए यहां आ गया था . उसके जैसे यहां बहुत सारे लोग लाईन में लगे थे . वे लोग भी मजदूरी करने दूसरी जगह से आए थे . यहीं उसकी मुलाकात मदन से हुई थी जो उसके पास वाले जिले में था .  उसे से ही उसे पता चला कि बहुत सारे मजदूर शाम को पैदल ही अपने अपने गांव लौट रहे हैं मदन भी उनके साथ जा रहा है .रामलाल को लगा कि यही अच्छा मौका है उसे भी इनके साथ गांव चले जाना चाहिए . पर क्या इतनी दूर पैदल चल पायेगा . पर अब उसके पास कोई विकल्प है भी नहीं यदि मकान मालिक ने जबरन उसे कमरे से निकाल दिया तो वह क्या करेगा .गहरी सांस लेकर उसने सभी के साथ गांव लौटने का मन बना लिया .

शाम को वह अपना सामान बोरे में भरकर निर्धारित स्थान पर पहुंच गया जहां मदन उसका इंतज़ार कर रहा था . सैंकड़ों की संख्या में उसके जैसे लोग थे जो अपना अपना सामान सिर पर रखकर पैदल चल रहे थे .इनमें बच्चे भी थे और औरतें भी .रात का अंधकार फैलता जा रहा था पर चलने वालों के कदम नहीं रूक रहे थे .कुछ अखबार वाले और कैमरा वाले सैकड़ों की इस भीड़ की फोटो खींच रहे थे . इसी कारण से पुलिस वालों ने उन्हें घेर लिया था  .वो गालियां बक रहे थे और लौट जाने का कह रहे थे .भीड़ उनकी बात सुन नहीं रही थी . पुलिस ने जबरन उन्हें रोक लिया था “आप सभी की जांच की जाएगी और रूकने की व्यवस्था की जाएगी कोई आगे नहीं बढ़ेगा” लाउडस्पीकर से बोला जा रहा था .सारे लोग रूक गये थे. एक एक कर सभी की जांच की गई .फिर सभी को इकट्ठा कर आग बुझाने वाली मशीन से दवा छिड़क दी गई . दवा की बूंदें पड़ते ही रामलाल की आंखों में जलन होने लगी थी . मदन भी आंख बंद किए कराह रहा था और भी लोगों को परेशानी हो रही थी पर कोई सुनने को तैयार ही नहीं था .दवा झिड़कने वाले कर्मचारी उल्टा सीधा बोल रहे थे . सारे लोगों को एक स्कूल में रोक दिया गया था . सैकड़ों लोग और कमरे कम . बिछाने के लिए केवल दरी थी . पानी के लिए हैंडपंप था . महिलाओं के लिए ज्यादा परेशानी थी . दो रोटी और अचार खाने को दे दिया गया था .

“साले हरामखोरों ने परेशान कर दिया” बड़बड़ाता हुआ एक कर्मचारी जैसे ही निकला एक महिला ने उसे रोक लिया “क्या बोला ….हरामखोर … अरे हम तो अच्छे भले जा रहे थे हमको जबरन रोक लिया और अब गाली दे रहे हैं” .

महिला की आवाज सुनकर और भी लोग इकट्ठा हो गए थे .

“सालों को जमाई जैसी सुविधाएं चाहिए …”

वह फिर बड़बड़या .

“रोकने की व्यवस्था नहीं थी तो काहे को रोका…दो सूखी रोटी देकर अहसान बता रहे हैं” . किसी ने जोर से बोला था ताकि सभी सुन लें . पर साहब को यह पसंद नहीं आया . उन्होंने हाथ में डंडा उठा लिया था “कौन बोला…जरा सामने तो आओ.. यहां मेरी बेटी की बारात लग रही है क्या ….जो तुम्हें छप्पन व्यंजन बनवाकर खिलवायें”.

सारे सकपका गये .वे समझ चुके थे कि उन्हें कुछ दिन ऐसे ही काटना पड़ेंगे .छोटे से कमरे में बहुत सारे लोग जैसे तैसे रात को सो लेते और दिन में बाहर बैठे रहते .बाथरूम तक की व्यवस्था नहीं थी औरतें बहुत परेशान हो रहीं थीं .कोई नेताजी आए थे उनसे मिलने .वहां के कर्मचारियों ने पहले ही बता दिया था कि कोई नेताजी से कोई शिकायत नहीं करेगा इसलिए बाकी  सारे लोग तो खामोश रहे पर एक बुजुर्ग महिला खामोश नहीं रह पाई . जैसे ही नेताजी ने मुस्कुराते हुए पूछा “कैसे हो आप लोग…. हमने आपके लिए बहुत सारी व्यवस्थाएं की है उम्मीद है आप अच्छे से होंगे”

बुजुर्ग महिला भड़क गई

“दो सूखी रोटी और सड़ी दाल देकर अहसान बता रहे हो .”

किसी को उम्मीद नहीं थी .सभी लोग सकपका गये . एक कर्मचारी उस महिला की ओर दोड़ा ,पर महिला खामोश नहीं हुई “हुजूर यहां कोई व्यवस्था नहीं है हम लोग एक कमरे में भेड़ बकरियों की तरह रह रहे हैं ”

नेताजी कुछ नहीं बोले .वे लौट चुके थे . उनके जाने के बाद सारे लोगों पर कहर टूट पड़ा था .

सरकार ने बस भिजवाई थी ताकि सभी लोग अपने अपने गांव लौट सकें . मदन और रामलाल एक ही बस में बैठ रहे थे ,तभी किसी महिला के रोने की आवाज सुनाई दी थी .उत्सुकता वश वो वहां पहुंच गया था .एक आदमी एक औरत के बाल पकड़ पीठ पर मुक्के मार रहा था . वह औरत दर्द से बिलबिला रही थी .

“इसे क्यों मार रहे हो भाई” रामलाल से सहन नहीं हो रहा था .

“ये तू बीच में मत पड़, ये मेरी घरवाली है समझ गया तू”

उसने अकड़ कर कहा

“अच्छा घरवाली है तो ऐसे मारोगे”

“तुझे क्या जा अपना काम कर”

रामलाल का खून खौलने लगा था “पर बता तो सही इसने किया क्या है”

“ये औरत मनहूस है इसके कारण ही मैं परेशान हो रहा हूं” ,कहते हुए उसने जोर से औरत के बाल खीचे .वह दर्द से रो पड़ी . रामलाल सहन नहीं कर सका . उसने औरत का हाथ पकड़ा और अपनी बस में ले आया .

“तुम  मेरे साथ बैठो देखता हूं कौन माई का लाल है जो तुम्हें हाथ लगायेगा”.

औरत बहुत देर तक सुबकती रही थी . कमला नाम बताया था उसने . उसने तो केवल यह सोचा था कि उसके आदमी का गुस्सा जब शांत हो जायेगा तो वो ही उसे ले जायेगा .पर वो उसे लेने नहीं आया “अच्छा ही हुआ उसने उसका जीवन खराब कर रखा था, पर वह यह जायेगी कहां” . प्रश्न तो रामलाल के थे पर उतर उसके पास नहीं था .बस से उतर कर उसने उसे साथ ले जाने का फैसला कर लिया था .

रामलाल के साथ कमला भी सोचती हुई कदम बढ़ा रही थी . उसे नहीं मालूम था कि उसका भविष्य क्या है पर रामलाल उसे अच्छा लगा था . वह जिन यातनाओं से होकर गुजरी है शायद उसे उनसे छुटकारा मिल जाए .

मां बाहर आंगन में बैठी ही मिल गई थी .

वह उनसे लिपट पड़ा ” मां….” उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे . रो तो मां भी रही थी , जब से लाकडाउन लगा था तब से ही मां उसके लिए बैचेन थीं . उन्होंने उसे अपनी बाहों में जकड़ लिया था .दोनों रो रहे थे , कमला चुपचाप मां बेटे को रोता हुआ देख रही थी .अपने आंसू पौंछ कर उसने कमला की ओर इशारा किया “मां आपकी बहु…..”

चौंक गईं मां ” बहु ….. तूने बगैर मुझसे पूछे ब्याह रचा लिया ….?”

“वो मां मजबूरी थी लाकडाउन के कारण…. गांव आना था इसे कहां छोड़ता…. बेसहारा है न मां”

मां ने नजर भर कर कमला को देखा

“चल अच्छा किया”

मां ने कमला का माथा चूम लिया.

Love Story : एक ताजमहल की वापसी – क्या एक हुए रचना और प्रमोद

Love Story : रचना ने प्रमोद के हाथों में ताजमहल का शोपीस वापस रखते हुए कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो प्रमोद, मैं प्यार की कसौटी पर खरी नहीं उतरी. मैं प्यार के इस खेल में बुरी तरह हार गई हूं. मैं तुम्हारे प्यार की इस धरोहर को वापस करने को विवश हो गई हूं. मुझे उम्मीद है कि तुम मेरी इस विवशता को समझोगे और इसे वापस ले कर अपने प्यार की लाज भी रखोगे.’’ प्रमोद हैरान था. उस ने अभी कुछ दिन पहले ही अपने प्यार की मलिका रचना को प्यार का प्रतीक ताजमहल भेंट करते हुए कहा था, ‘यह हमारे प्यार की बेशकीमती निशानी है रचना, इसे संभाल कर रखना. यह तुम्हें हमारे प्यार की याद दिलाता रहेगा. जैसे ही मुझे कोई अच्छी जौब मिलेगी, मैं तुरंत शादी करने आ जाऊंगा. तब तक तुम्हें यह अपने प्यार से भटकने नहीं देगा.’

रचना रोतेरोते बोली, ‘‘मैं स्वार्थी निकली प्रमोद, मुझ से अपने प्यार की रक्षा नहीं हो सकी. मैं कमजोर पड़ गई…मुझे माफ कर दो…मुझे अब इसे अपने पास रखने का कोई अधिकार नहीं रह गया है.’’

प्रमोद असहज हो कर रचना की मजबूरी समझने की कोशिश कर रहा था कि रचना वापस भी चली गई. सबकुछ इतने कम समय में हो गया कि वह कुछ समझ ही नहीं सका. अभी कुछ दिन पहले ही तो उस की रचना से मुलाकात हुई थी. उस का प्यार धीरेधीरे पल्लवित हो रहा था. वह एक के बाद एक मंजिल तय कर रहा था कि प्यार की यह इमारत ही ढह गई. वह निराश हो कर वहीं पास के चबूतरे पर धम से बैठ गया. उस का सिर चकराने लगा मानो वह पूरी तरह कुंठित हो कर रह गया था.

कुछ महीने पहले की ही तो बात है जब उस ने रचना के साथ इसी चबूतरे के पीछे बरगद के पेड़ के सामने वाले मैदान में बैडमिंटन का मैच खेला था. रचना बहुत अच्छा खेल रही थी, जिस से वह खुद भी उस का प्रशंसक बन गया था.

हालांकि वह मैच जीत गया था लेकिन अपनी इस जीत से वह खुश नहीं था. उस के दिमाग में बारबार एक ही खयाल आ रहा था कि यह इनाम उसे नहीं बल्कि रचना को मिलना चाहिए था. बैडमिंटन का कुशल खिलाड़ी प्रमोद उस मैच में रचना को अपना गुरु मान चुका था.

अपनी पूरी ताकत लगाने के बावजूद वह रचना से केवल 1 पौइंट से ही तो जीत पाया था. इस बीच रचना मजे से खेल रही थी. उसे मैच हारने का भी कोई गम न था.

मैच जीतने के बाद भी खुद को वह उस खुशी में शामिल नहीं कर पा रहा था. सोचता, ‘काश, वह रचना के हाथों हार जाता, तो जरूर स्वयं को जीता हुआ पाता.’ यह उस के अपने दिल की बात थी और इस में किसी, क्यों और क्या का कोई भी महत्त्व नहीं था. उसे रचना अपने दिल की गहराइयों में उतरते लग रही थी. किसी खूबसूरत लड़की के हाथों हारने का आनंद भला लोग क्या जानेंगे.

दिन बीतते गए. एक दिन रचना की चचेरी बहन ने बताया कि वह बैडमिंटन मैच खेलने वाली लड़की उस से मिलना चाहती है. वह तुरंत उस से मिलने के लिए चल पड़ा. अपनी चचेरी बहन चंदा के घर पर रचना उस का इंतजार कर रही थी.

‘हैलो,’ मानो कहीं वीणा के तार झंकृत हो गए हों.

उस के सामने रचना मोहक अंदाज में खड़ी मुसकरा रही थी. उस पर नीले रंग का सलवारसूट खूब फब रहा था. वह समझ ही नहीं पाया कि रचना के मोहपाश में बंधा वह कब उस के सामने आ खड़ा हुआ था. हलके मेकअप में उस की नीलीनीली, बड़ीबड़ी आंखें, बहुत गजब लग रही थीं और उस की खूबसूरती में चारचांद लगा रही थीं. रूप के समुद्र में वह इतना खो गया था कि प्रत्युत्तर में हैलो कहना ही भूल गया. वह जरूर उस की कल्पना की दुनिया की एक खूबसूरत झलक थी.

‘कैसे हैं आप?’ फिर एक मधुर स्वर कानों में गूंजा.

वह बिना कुछ बोले उसे निहारता ही रह गया. उस के मुंह से बोल ही नहीं फूट पा रहे थे. चेहरे पर झूलती बालों की लटें उस की खूबसूरती को और अधिक बढ़ा रही थीं. वास्तव में रचना प्रकृति की सुंदरतम रचना ही लग रही थी. वह किंचित स्वप्न से जागा और बोला, ‘मैं अच्छा हूं और आप कैसी हैं?’

‘जी, अच्छी हूं. आप को जीत की बधाई देने के लिए ही मैं ने आप को यहां आने का कष्ट दिया है. माफी चाहती हूं.’

‘महिलाएं तो अब हर क्षेत्र में पुरुषों से एक कदम आगे खड़ी हैं. उन्हें तो अपनेआप ही मास्टरी हासिल है,’ प्रमोद ने हलका सा मजाक किया तो रचना की मुसकराहट दोगुनी हो गई.

‘चंदा कह रही थी कि आप ने कैमिस्ट्री से एमएससी की है. मैं भी कैमिस्ट्री से एमएससी करना चाहती हूं. आप की मदद चाहिए मुझे,’ प्रमोद को लगा, जैसे रचना नहीं कोई सिने तारिका खड़ी थी उस के सामने.

प्रमोद रचना के साथ इस छोटी सी मुलाकात के बाद चला आया, पर रास्ते भर रचना का रूपयौवन उस के दिमाग में छाया रहा. वह जिधर देखता उधर उसे रचना ही खड़ी दिखाई देती. रचना की मुखाकृति और मधुर वाणी का अद्भुत मेल उसे व्याकुल करने के लिए काफी था. यह वह समय था जब वह पूरी तरह रचनामय हो गया था.

दूसरी बार उसे फिर आलोक बिखेरती रचना द्वारा याद किया गया. इस बार रचना जींस में अपना सौंदर्य संजोए थी. चंदा ने उसे आगाह कर दिया था कि रचना शहर के एक बड़े उद्योगपति की बेटी है. इसलिए वह पूरे संयम से काम ले रहा था. उस के मित्रों ने कभी उसे बताया था कि लड़कियों के मामले में बड़े धैर्य की जरूरत होती है. पहल भी लड़कियां ही करें तो और अच्छा, लड़कों की पहल और सतही बोलचाल उन में जल्दी अनाकर्षण पैदा कर सकता है. इसलिए वह भी रचना के सामने बहुत कम बोल कर केवल हांहूं से ही काम चला रहा था. अब की बार रचना ने प्रमोद को शायराना अंदाज में ‘सलाम’ कहा तो उस ने भी हड़बड़ाहट में उसी अंदाज में ‘सलाम’ बजा दिया.

एक तेज खुशबूदार सैंट की महक उस में मादकता भरने के लिए काफी थी. चुंबक के 2 विपरीत ध्रुवों के समान रचना उसे अपनी ओर खींचती प्रतीत हो रही थी. कमरे में वे दोनों थे, जानबूझ कर चंदा उन के एकांत में बाधा नहीं बनना चाहती थी.

‘एक हारे हुए खिलाड़ी की ओर से यह एक छोटी सी भेंट स्वीकार कीजिए,’ कह कर रचना ने एक सुनहरी घड़ी प्रमोद को भेंट की तो वह इतना महंगा तोहफा देख कर हक्काबक्का रह गया.

‘जरा इसे पहन कर तो दिखाइए,’ रचना ने प्रमोद की आंखों में झांक कर उस से आग्रह किया.

‘इसे आप ही अपने करकमलों से बांधें तो…’ प्रमोद ने भी मृदु हास्य बिखेरा.

रचना ने जैसे ही वह सुंदर सी घड़ी प्रमोद की कलाई पर बांधी मानो पूरी फिजा ही सुनहरी हो गई. उसे पहली बार किसी हमउम्र युवती ने छुआ था. शरीर में एक रोमांच सा भर गया था. मन कर रहा था कि घड़ी चूमने के बहाने वह रचना की नाजुक उंगलियों को छू ले और छू कर उन्हें चूम ले. पर ऐसा हुआ नहीं और हो भी नहीं सकता था. प्यार की पहली डगर में ऐसी अधैर्यता शोभा नहीं देती. कहीं वह उसे उस की उच्छृंखलता न समझे. समय की पहचान हर किसी को होनी जरूरी है वरना वक्त का मिजाज बदलते देर नहीं लगती.

अब प्रमोद का भी रचना को कोई सुंदर सा उपहार देना लाजिमी था. प्रमोद की न जाने कितने दिन और कितनी रातें इसी उधेड़बुन में बीत गईं. एक युवती को एक युवक की तरफ से कैसा उपहार दिया जाए यह उस की समझ के परे था. सोतेजागते बस उपहार देने की धुन उस पर सवार रहती. उस के मित्रों ने सलाह दी कि कश्मीर की वादियों से कोई शानदार उपहार खरीद कर लाया जाए तो सोने पर सुहागा हो जाए.

मित्रों के उपहास का जवाब देते हुए प्रमोद बोला, ‘मुझे कुल्लूमनाली या फिर कश्मीर से शिकारे में बैठ कर किसी उपहार को खरीदने की क्या जरूरत है? मेरे लिए तो यहीं सबकुछ है जहां मेरी महबूबा है. मेरा मन कहता है कि रचना बनी ही मेरे लिए है. मैं रचना के लिए हूं और मेरा यह रचनामय संसार मेरे लिए कितना रचनात्मक है, यह मैं भलीभांति जानता हूं.’

यह सुन कर सभी दोस्त हंस पड़े. ऐसे मौके पर दोस्त मजाक बनाने का कोई अवसर नहीं छोड़ते. हासपरिहास के ऐसे क्षण मनोरंजक तो होते हैं, लेकिन ये सब उस प्रेमी किरदार को रास नहीं आते, क्योंकि जिस में उस की लगन लगी होती है. उसे वह अपने से कहीं ज्यादा मूल्यवान समझने लगता है. उसे दरख्तों, झीलों, ऋतुओं और फूलों में अपने महबूब की छवि दिखाई देने लगती है, कामदेव की उन पर महती कृपा जो होती है. कुछ तो था जो उस के मनप्राण में धीरेधीरे जगह बना रहा था. वह खुद से पूछता कि क्या इसी को प्यार कहते हैं. वह कभी घबराता कि कहीं यह मृगतृष्णा तो नहीं है. उस का यह पहलापहला प्यार था.

कहते हैं कि प्यार की पहचान मन को होती है, पर मन हिरण होता है, कभी यहां, कभी वहां उछलकूद करता रहता है. वह ज्यादातर इस मामले में अपने को अनाड़ी ही समझता है.

आजकल वह एकएक पल को जीने की कोशिश कर रहा था. वह मनप्राण को प्यार रूपी खूंटे से बांध रहा था. प्रेमरस में भीगी इस कहानी को वह आगे बढ़ाना चाह रहा था. इस कहानी को वह अपने मन के परदे पर उतार कर प्रेम की एक सजीव मूर्ति बनना चाहता था.

धीरेधीरे रचना से मुलाकातें बढ़ रही थीं. अब तो रचना उस के ख्वाबों में भी आने लगी थी. वह उस के साथ एक फिल्म भी देख आया था और अब अपने प्यार में उसे दृढ़ता दिखाई देने लगी थी. अब उसे पूरा भरोसा हो गया था कि रचना बस उस की है.

प्रमोद मन से जरूर कुछ परेशान था. वह अपने मन पर जितना काबू करता वह उसे और तड़पा जाता. वह अकसर अपने मन से पूछता कि प्यार बता दुश्मन का हाल भी क्या मेरे जैसा है? ‘हाल कैसा है जनाब का…’ इस पंक्ति को वह मन ही मन गुनगुनाता और प्रेमरस में डूबता चला जाता. प्रेम का दरिया किसी गहरे समुद्र से भी ज्यादा गहरा होता है. आजकल प्रमोद के पास केवल 2 ही काम रह गए थे. नौकरी की तलाश और रचना का रचना पाठ.

रचना…रचना…रचना…यह कैसी रचना थी जिसे वह जितनी बार भी भजता, वह उतनी ही त्वरित गति से हृदय के द्वार पर आ खड़ी होती. हृदय धड़कने लगता, खुमार छाने लगता, दीवानापन बढ़ जाता, वह लड़खड़ाने लगता, जैसे मधुशाला से चल कर आ रहा हो.

इसी तरह हरिवंश राय बच्चन की ‘मधुशाला’ उसे पूरी तरह याद हो गई थी, जरूर ऐसे दीवाने को मधुशाला ही थाम सकती है, जिस के कणकण में मधु व्याप्त हो, रसामृत हो, अधरामृत हो, प्रेमी अपने प्रेमी के साथ भावनात्मक आत्मसात हो.

आत्मसात हो कर वह दीनदुनिया में खो जाए. तनमन के बीच कोई फासला न रह जाए. प्रकृति के गूढ़ रहस्य को इतनी आसानी से पा लिया जाए कि प्यार की तलब के आगे सबकुछ खत्म हो जाए, मन भ्रमर बस एक ही पुष्प पर बैठे और उसी में बंद हो जाए. वह अपनी आंखें खोले तो उसे महबूब नजर आए.

अपनी चचेरी बहन चंदा पर प्रेम प्रसंग उजागर न हो इसलिए रचना प्रमोद से बाहर बरगद के पेड़ के नीचे मिलने लगी. वे शंकित नजरों से इधरउधर देखते हुए एकदूसरे में अपने प्यार को तलाश रहे थे. प्रेम भरी नजरों से देख कर अघा नहीं रहे थे. यह प्रेममिलन उन्हें किसी अमूल्य वस्तु से कम नहीं लग रहा था.

उस ने रचना के लिए अपना मनपसंद गिफ्ट खरीद लिया. उसे लग रहा था कि इस से अच्छा कोई और गिफ्ट हो ही नहीं सकता. रंगीन कागज में लिपटा यह गिफ्ट जैसे ही धड़कते दिल से प्रमोद ने रचना को दिया, तो उस की महबूबा भी रोमांच से भर उठी.

‘इसे खोल कर देखूं क्या?’ अपनी बड़ीबड़ी पलकें झपका कर रचना बोली.

‘जैसा आप उचित समझें. यह गिफ्ट आप का है, दिल आप का है. हम भी आप के हैं,’ प्रमोद बोला.

‘वाऊ,’ रचना के मुंह से एकाएक निकला.

उस ने रंगीन कागज के भीतर से ताजमहल की अनुकृति को झांकते पाया. उस के चेहरे पर रक्ताभा की एक परत सी छा गई. यह वह क्षण था जब वे दोनों आनंद के अतिरेक में आलिंगनबद्ध हो गए थे. एकदूसरे में समा गए थे.

न जाने कितनी देर तक वे उसी अवस्था में एकदूसरे के दिल की धड़कनों को सुन रहे थे. इस एक क्षण में उन्होंने मानो एक युग जी लिया था, प्यार का युग तो अनंतकाल से प्रेमीप्रेमिका को मिलने के लिए उकसाता रहता है.

अपने घर आ कर प्रमोद ने रचना का दिया हुआ उपन्यास खोल कर देखा. उस में एक पत्र रखा मिला. रचना ने बड़े सुंदर और सुडौल अक्षरों में लिखा था, ‘प्रमोद, मैं तुम्हें हृदय की गहराइयों में पाती हूं. यह प्यार रूपी अमृत का प्याला मैं रोज पीती हूं, पर प्यासी की प्यासी रह जाती हूं. यह तृप्तता आखिर क्या है? कैसी है? कब पूरी होगी. इस का उत्तर मैं किस से पूछूं. यदि आप को पता हो तो मुझे जरूर बताएं…रचना…’

प्रमोद को मानो दीवानगी का दौरा पड़ गया. उसे लगा कि ऐसा पत्र शायद ही किसी प्रेमिका ने अपने प्रेमी को लिखा होगा. वह संसार का सब से अच्छा प्रेमी है, जिस की प्रेमिका इतने उदात्त विचारों की है. वह एक अत्यंत सुंदरी और विदुषी प्रेमिका का प्रेमी है. इस मामले में वह संसार का सब से धनी प्रेमी है.

उसे नित्य नईनई अनुभूतियां होतीं. वह प्यार के खुमार में सदैव डूबा रहता. कभी खुद को चांद तो रचना को चांदनी कहता. कभी रचना हीर होती तो वह रांझा बन जाता. कभी वह किसी फिल्म का हीरो, तो रचना उस की हीरोइन. वह प्यार के अनंत सागर में डुबकियां लगाता लेकिन इस पर भी उस के मन को चैन न आता.

‘चैन आए मेरे दिल को दुआ कीजिए…’ अकसर वह इस फिल्मी गीत को गुनगुनाता और बेचैन रहता.

कभीकभी उसे लगता कि यह ठीक नहीं है. देवदास बन जाना कहां तक उचित है. दूसरे ही क्षण वह सोचता कि कोई बनता नहीं है, बस, अपनेआप ही देवदास बन जाने की प्रक्रिया चालू हो जाती है जो एक दिन उसे देवदास बना कर ही छोड़ती है. ‘वह भी देवदास बन गया है,’ यह सोच कर उसे अच्छा लगता. लगेहाथ ‘देवदास’ फिल्म देखने की उत्कंठा  भी उस में जागृत हो उठी.

विचारों की इसी शृंखला में सोतेजागते रहना उस की नियति बन गई, जिस दिन रचना उसे दिखाई नहीं देती तो उस के ख्वाबों में आ पहुंचती. उसे ख्वाबों से दूर करना भी उस के वश में नहीं रहता. यदि आंखें बंद करता तो वह उसे अपने एकदम करीब पाता. आंखें खोलने पर रचनाकृति गायब हो जाती और दुखद क्षणों की अनुभूति बन जाती.

इस बीच, प्रमोद को अचानक अपने मामा के यहां जाना पड़ गया. मामा कई दिन से बीमार चल रहे थे और एक दिन उन का निधन हो गया. उन की तेरहवीं तक प्रमोद का वहां रुकना जरूरी हो गया था.

एक दिन चंदा ने रचना को फोन किया तो पता चला कि रचना के उद्योगपति पिता ने उस का विवाह मुंबई के एक हीरा व्यापारी के बेटे के साथ तय कर दिया है. इस बात पर उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था. चंदा ने जब इस दुखद सामाचार को प्रमोद तक पहुंचाया तो फोन सुनते ही उसे लगा कि उस का गला सूख गया है. अमृत कलश खाली हो गया है. रचना इतनी जल्दी किसी और की अमानत हो जाएगी, उस की कल्पना से बाहर की बात थी. वह रोंआसा हो गया और तनमन दोनों से स्तब्ध हो कर रह गया था.

‘अपने को संभालो भाई, यह अनहोनी होनी थी सो हो गई, एक सप्ताह बाद ही उस का विवाह है. वह विवाह से पहले एक बार आप से मिलना चाहती है,’ चंदा ने फोन पर जो सूचना दी थी. उस से प्रमोद का सिर चकराने लगा. इस दुखद समाचार को सुन कर उस का भविष्य ही चरमरा गया था. उस ने तुरंत रचना से मिलने के लिए वापसी की ट्रेन पकड़ी.

दूसरे दिन प्रमोद उसी बरगद के पेड़ के नीचे खड़ा था जहां उस का प्रेममिलन हुआ था. रचना भी छिपतेछिपाते वहां आई और प्रमोद से लिपट कर जोरजोर से रोने लगी. वह प्रमोद को पिताजी के सामने हार कर शादी के लिए तैयार होने की दास्तान सुना रही थी. उस ने अपनी मां से भी प्रमोद के प्यार की बातें कही थीं, पर उन्होंने उस के मुंह पर अपनी उंगली रख दी.

तब से अब तक मां की उंगली मानो उस के होंठों से चिपकी हुई थी. वह न तो ठीक से रो सकती थी, न हंस सकती थी. उस ने अपने पास संभाल कर रखा ताजमहल का शोपीस प्रमोद को वापस देते हुए कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो प्रमोद, मैं तुम्हारे प्यार की कसौटी पर खरी नहीं उतरी. मैं प्यार के इस खेल में बुरी तरह हार गई हूं. मैं तुम्हारे प्यार की इस धरोहर को वापस करने के लिए विवश भी हो गई हूं. मुझे उम्मीद है कि तुम मेरी इस विवशता को समझोगे और इसे वापस ले कर अपने प्यार की लाज भी रखोगे.’’

रचना इतना कह कर वापस चली गई और वह उसे जाते देख स्तब्ध रह गया. अब रचना पर उस का कोई अधिकार ही कहां रह गया था. एक धनवान ने फिर एक पाकसाफ मुहब्बत का मजाक उड़ाया था. प्रमोद के हाथों में ताजमहल जरूर था पर उस की मुमताज महल तो कब की जा चुकी थी. उस के प्यार का ताजमहल तो कब का धराशायी हो गया था.

वह अपने अश्रुपूरित नेत्रों से बारबार उस ताजमहल की अनुकृति को देखता और ‘हाय रचना’ कह कर दिल थाम लेता. प्रमोद को ऐसा अहसास हो रहा था कि आज मानो संसार के सारे दुखों ने मिल कर उस पर भीषण हमला कर दिया हो. उस ने ताजमहल के शोपीस को यह कहते हुए उसी चबूतरे पर रख दिया कि जिन प्रेमियों का प्यार सफल और सच्चा होगा वही इसे रखने के अधिकारी होंगे उसे अपने पास रखने की पात्रता अब उस के पास नहीं थी. उस के प्यार की झोली खाली हो गई थी और उस में उसे रखने का अवसर उस ने खो दिया था.

Family Drama : एक और अध्याय – आखिर क्या थी दादी मां की कहानी

Family Drama :  वृद्धाश्रम के गेट से सटी पक्की सड़क है, भीड़भाड़ ज्यादा नहीं है. मैं ने निकट से देखा, दादीमां सफेद पट्टेदार धोती पहने हुए वृद्धाश्रम के गेट का सहारा लिए खड़ी हैं. चेहरे पर  झुर्रियां और सिर के बाल सफेद हो गए हैं. आंखों में बेसब्री और बेबसी है. अंगप्रत्यंग ढीले हो चुके हैं किंतु तृष्णा उन की धड़कनों को कायम रखे हुए है.

तभी दूसरी तरफ से एक लड़का दौड़ता हुआ आया. कागज में लिपटी टौफियां दादीमां के कांपते हाथों में थमा कर चला गया. दादीमां टौफियों को पल्लू के छोर में बांधने लगीं. जैसे ही कोई औटोरिकशा पास से गुजरता, दादीमां उत्साह से गेट के सहारे कमर सीधी करने की चेष्टा करतीं, उस के जाते ही पहले की तरह हो जातीं.

मैं ने औटोरिकशा गेट के सामने रोक दिया. दादीमां के चेहरे से खुशी छलक पड़ी. वे गेट से हाथ हटा कर लाठी टेकती हुई आगे बढ़ चलीं.

‘‘दादीमां, दादीमां,’’ औटोरिकशा से सिर बाहर निकालते हुए बच्चे चिल्लाए.

‘‘आती हूं मेरे बच्चो,’’ दादीमां उत्साह से भर कर बोलीं, औटोरिकशा में उन के पोतापोती हैं, यही समय होता है जब दादीमां उन से मिलती हैं. दादीमां बच्चों से बारीबारी लिपटीं, सिर सहलाया और माथा चूमने लगीं. अब वे तृप्त थीं. मैं इस अनोखे मिलन को देखता रहता. बच्चों की स्कूल से छुट्टी होती और मैं औटोरिकशा लिए इसी मार्ग से ही निकलता. दादीमां इन अमूल्य पलों को खोना नहीं चाहतीं. उन की खुशी मेरी खुशी से कहीं अधिक थी और यही मुझे संतुष्टि दे जाती. दादीमां मुझे देखे बिना पूछ बैठीं, ‘‘तू ने कभी अपना नाम नहीं बताया?’’

‘‘मेरा नाम रमेश है, दादी मां,’’ मैं ने कहा.

‘‘अब तुझे नाम से पुकारूंगी मैं,’’ बिना मेरी तरफ देखे ही दादीमां ने कहा.

स्कूल जिस दिन बंद रहता, दादीमां के लिए एकएक पल कठिन हो जाता. कभीकभी तो वे गेट तक आ जातीं छुट्टी के दिन. तब गेटकीपर उन्हें समझ बुझा कर वापस भेज देता. दादीमां ने धोती की गांठ खोली. याददाश्त कमजोर हो चली थी, लेकिन रोज 10 रुपए की टौफियां खरीदना नहीं भूलतीं. जब वे गेट के पास होतीं, पास की दुकान वाला टौफियां लड़के से भेज देता और तब तक मुझे रुकना पड़ता.

‘‘आपस में बांट लेना बच्चो…आज कपड़े बहुत गंदे कर दिए हैं तुम ने. घर जा कर धुलवा लेना,’’ दादीमां के पोपले मुंह से आवाज निकली और तरलता से आंखें भीग गईं.

मैं मुसकराया, ‘‘अब चलूं, दादी मां, बच्चों को छोड़ना है.’’

‘‘हां बेटा, शायद पिछले जनम में कोईर् नेक काम किया होगा मैं ने, तभी तू इतना ध्यान रखता है,’’ कहते हुए दादीमां ने मेरे सिर पर स्नेह से हाथ फेर दिया था.

‘‘कौन सा पिछला जनम, दादी मां? सबकुछ तो यहीं है,’’ मैं मुसकराया.

दादीमां की आंखों में घुमड़ते आंसू कोरों तक आ गए. उन्होंने पल्लू से आंखें पोंछ डालीं. रास्तेभर मैं सोचता रहा कि इन बेचारी के जीवन में कौन सा तूफान आया होगा जिस ने इन्हें यहां ला दिया.

एक दिन फुरसत के पलों में मैं दादीमां के हृदय को टटोलने की चेष्टा करने लगा. मैं था, दादीमां थीं और वृद्धाश्रम. दादीमां मुझे ले कर लाठी टेकतेटेकते वृद्धाश्रम के अपने कमरे में प्रवेश कर गईं. भीतर एक लकड़ी का तख्त था जिस में मोटा सा गद्दा फैला था. ऊपर हलके रंग की भूरी चादर और एक तह किया हुआ कंबल. दूसरी तरफ बक्से के ऊपर तांबे का लोटा और कुछ पुस्तकें. पोतापोती की क्षणिक नजदीकी से तृप्त थीं दादीमां. सांसें तेजतेज चल रही थीं. और वे गहरी सांसें छोड़े जा रही थीं.

लाठी को एक ओर रख कर दादीमां बिस्तर पर बैठ गईं और मुझे भी वहीं बैठने का इशारा किया. देखते ही देखते वे अतीत की परछाइयों के साथसाथ चलने लगीं. पीड़ा की धार सी बह निकली और वे कहती चली गईं.

‘‘कभी मैं घर की बहू थी, मां बनी, फिर दादीमां. भरेपूरे, संपन्न घर की महिला थी. पति के जाते ही सभी चुकने लगा…मान, सम्मान और अतीत. बहू घर में लाई, पढ़ीलिखी और अच्छे घर की. मुझे लगा जैसे जीवन में कोई सुख का पौधा पनप गया है. पासपड़ोसी बहू को देखने आते. मैं खुश हो कर मिलाती. मैं कहती, चांदनी नाम है इस का. चांद सी बहू ढूंढ़ कर लाई हूं, बहन.

‘‘फिर एकाएक परिस्थितियां बदलीं. सोया ज्वालामुखी फटने लगा. बेटा छोटी सी बात पर ? झिड़क देता. छाती फट सी जाती. मन में उद्वेग कभी घटता तो कभी बढ़ने लगता. खुद को टटोला तो कहीं खोट नहीं मिला अपने में.

‘‘इंसान बूढ़ा हो जाता है, लेकिन लालसा बूढ़ी नहीं होती. घर की मुखिया की हैसियत से मैं चाहती थी कि सभी मेरी बातों पर अमल करें. यह किसी को मंजूर न हुआ. न ही मैं अपना अधिकार छोड़ पा रही थी. सब विरोध करते, तो लगता मेरी उपेक्षा की जा रही है. कभीकभी मुझे लगता कि इस की जड़ चांदनी है, कोई और नहीं.

‘‘एक दिन मुझे खुद पर क्रोध आया क्योंकि मैं बच्चों के बीच पड़ गई थी. रात्रि का दूसरा प्रहर बीत रहा था. हर्ष बरामदे में खड़ा चांदनी की राह देख रहा था. झुंझलाहट और बेचैनी से वह बारबार ? झल्ला रहा था. रात गहराई और घड़ी की सुइयां 11 के अंक को छूने लगीं. तभी एक कार घर के सामने आ कर रुकी. चांदनी जब बाहर निकली तब सांस में सांस आई.

‘‘‘ओह, कितनी देर कर दी. मुझे तो टैंशन हो गई थी,’ हर्ष सिर झटकते हुए बोला था. चांदनी बता रही थी देर से आने का कारण जिसे मैं समझ नहीं पाई थी.

‘‘‘यह ठीक है, लेकिन फोन कर देतीं. तुम्हारा फोन स्विचऔफ आ रहा था,’ हर्ष फीके स्वर में बोला था.

‘‘‘इतने लोगों के बीच कैसे फोन करती, अब आ गई हूं न,’ कह कर चांदनी भीतर जाने लगी थी.

‘‘मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने इतना ही कहा कि इतनी रात बाहर रहना भले घर की बहुओं को शोभा नहीं देता और न ही मुझे पसंद है. देखतेदेखते तूफान खड़ा हो गया. चांदनी रूठ कर अपने कमरे में चली गई. हर्र्ष भी उस पर बड़बड़ाता रहा और दोनों ने कुछ नहीं खाया.

‘‘मुझे दुख हुआ, मुझे इस तरह चांदनी को नहीं डांटना चाहिए था. ? झिड़कने के बजाय समझना चाहिए था. लेकिन बहू घर की इज्जत थी, उसे इस तरह सड़क पर नहीं आने देना चाहती थी. एक मुट्ठीभर उपलब्धि के लिए अपने दायित्वों को भूलना क्या ठीक है? नारी को अपनी सुरक्षा और सम्मान के लिए हमेशा ही जूझना पड़ा है.

‘‘हर्ष मेरे व्यवहार से कई दिनों तक उखड़ाउखड़ा सा रहा. लेकिन मैं ने बेटे की परवा नहीं की. हर्ष हर बात पर चांदनी का पक्ष लेता. मां थी मैं उस की, क्या कोई मां अपने बच्चों का बुरा चाहेगी? कई बार मुझे लगता कि बेटा मेरे हाथ से निकला जा रहा है. मैं हर्ष को खोना नहीं चाहती थी.

‘‘यह मेरी कमजोरी थी. मैं हर्ष को समझने की कोशिश करती तो वह अजीब से तर्क देने लग जाता. वह नहीं चाहता कि चांदनी घर में चौकाचूल्हा करे. घर के लिए बाई रखना चाहता था वह, जो मुझे नापसंद था. मैं साफसफाई पसंद थी जबकि सभी अस्तव्यस्त रहने के आदी थे. मूर्ख ही थी मैं कि बच्चों के आगे जो जी में आता, बक देती थी. कभी धैर्य से मैं ने नहीं सोचा कि सामंजस्य किसे कहते हैं.

‘‘चांदनी भी कई दिनों तक गुमसुम रही. बहूबेटा मेरे विरोध में खड़े दिखाई देने लगे थे. एक दिन चांदनी खाना रख कर मेरे सामने बैठ गई. खाना उठाते ही मेरे मुंह से न चाह कर भी अनायास छूट गया, ‘तुम्हारे मायके वालों ने कुछ सिखाया ही नहीं. भूख ही मर जाती है खाना देख कर.’

‘‘चांदनी का मुंह उतर गया, लेकिन कुछ न बोली. आज सोचती हूं कि मैं ने क्यों बहू का दिल दुखाया हर बार. क्यों मेरे मुंह से ऐसे कड़वे बोल निकल जाते थे. अब उस का दंड भुगत रही हूं. आज पश्चात्ताप में जल रही हूं, बहुत पीड़ा होती है, बेटा.’’ दादीमां रोंआसी हो गईं.

‘‘जो हुआ, सो हुआ, दादी मां. इंसान हैं सभी. कुछ गलतियां हो जाती हैं जीवन में,’’ मैं ने अपना नजरिया पेश किया.

दादी आगे कहने लगीं, ‘‘हर्ष को भी न जाने क्या हुआ कि वह मुझ से दूरदूर होता रहा. न जाने मुझ से क्या चूक हो रही थी, वह मैं तब न समझ सकी थी. एक स्त्री होने की वेदना, उस पर वैधव्य. विकट परिस्थिति थी मेरे लिए. लगता था कि मैं दुनिया में अकेली हूं और सभी से बहुत दूर हो चुकी हूं.

‘‘कुछ सालों बाद चांदनी की गोद भर गई. बड़ा संतोष हुआ कि शायद बचीखुची जिंदगी में खुशी आई है. कुछ माह और बीते, चांदनी का समय क्लीनिकों में व्यतीत होता या फिर अपने कमरे में. चांदनी की छोटी बहन नीना आ गई थी. नीना सारा दिन कमरे में ही गुजार देती. देर तक सोना, देर रात तक बतियाते रहना. घर का काफी काम बाई के जिम्मे सौंप दिया गया था.

‘‘एक दिन हर्ष औफिस से जल्दी आया और सीधे रसोई में जा कर डिनर बनाने लगा. इतने में नीना रसोई में आ गई, ‘अरे…अरे जीजू, यह क्या हो रहा है? मुझ से कह दिया होता.’

‘‘मुझ से रहा नहीं गया, सो, बोल पड़ी कि इंसान में समझ हो तो बोलना जरूरी नहीं होता. हर्ष का पारा चढ़ गया और देर तक मुझ पर चीखताचिल्लाता रहा.

‘‘खाना पकाना, कपड़े धोना और छोटेमोटे काम बाई के जिम्मे सौंप कर सभी निश्ंचित थे. मेरे होने न होने से क्या फर्क पड़ता? बाई व्यवहार की अच्छी थी. मेरा भी खयाल रखने लगी. न जाने क्यों मैं सारी भड़ास बाई पर ही निकाल देती. तंग आ कर एक दिन बाई ने काम ही छोड़ दिया. मेरे पास संयम नाम की चीज ही नहीं थी और चांदनी व हर्ष के लिए यह मुश्किल घड़ी थी. यह अब समझ रही हूं.

‘‘समय बीता और चांदनी ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया. बहुत खुशी हुई, जीने की आस बलवती हो गई. चांदनी की बहन नीना कब तक रहती, वह भी चली गई. इस बीच, एक आया रख ली गई. बिस्तर गीला है तो आया, दूध की दरकार है तो आया. हर्ष जब घर में होता, बच्चों की देखभाल में सारा दिन गुजार देता. औफिस का तनाव और घर की जिम्मेदारी ने हर्ष को चिड़चिड़ा बना दिया. हर्ष मेरे सामने छोटीछोटी बात पर भड़क उठता.

‘‘नोक झोक और तकरार में 3 वर्ष बीत गए. मुझ से रहा नहीं गया. एक दिन मैं ने बहू से कह ही दिया कि वह बच्चों को खुद संभाले, दूसरे पर निर्भर होना ठीक नहीं है. हमारे जमाने में यह सब कहां था, सब खुद ही करना पड़ता था.

‘‘जब पता लगा कि चांदनी का स्वास्थ्य कई दिनों से खराब है तो मुझे दुख हुआ. वहीं, इस बात से भी दुख हुआ कि किसी ने मुझे नहीं बताया. क्या मैं सब के लिए पराई हो गई थी?

‘‘पराए होने का एहसास तब हुआ जब एक दिन हर्ष ने मुझे ऐसा आघात दिया जिसे सुन कर मैं तड़प गई थी. वह था, वृद्धाश्रम में रहने का. उस दिन हर्ष मेरे पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘मां, तुम्हें यहां न आराम है और न ही मानसिक शांति. मैं चाहता हूं कि तुम वृद्धाश्रम में सुखशांति से रहो.’

‘‘मेरी आंखें फटी की फटी रह गई थीं. मैं जिस मुगालते में थी, वह एक फरेब निकला. संभावनाओं की घनी तहें मेरी आंखों से उतर गईं. कैसे मैं ने अपनेआप को संभाला, यह मैं ही जानती हूं. विचार ही किसी को भला और बुरा बनाते हैं. मेरे विचारव्यवहार बेटाबहू को रास नहीं आए. मुझे वृद्धाश्रम में छोड़ दिया गया. महीनों तक मैं बिन पानी की मछली सी तड़पती रही. आंसू तो कब के सूख चुके थे.

‘‘वृद्धाश्रम की महिलाएं मुझे समझती रहीं, कहतीं, ‘मोह त्याग कर भक्ति का सहारा ले लो. यही भवसागर पार कराएगा. यहां कुछ अपनों के सताए हुए हैं, कुछ अपने कर्मों से.’ मैं ने तो अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारी थी. बुजुर्गों को आदर अपने व्यवहार से मिलता है जिस की मैं हकदार नहीं थी.’’दादीमां कुछ देर के लिए चुप हो गईं, फिर मेरी ओर कातर दृष्टि से देखती हुई बोलीं, ‘‘बस, यही है कहानी, बेटा.’’

मैं दादीमां की कहानी से कुछ समझने की कोशिश में था. समझ तो एक ही कारण, बुढ़ापा और परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को न ढाल पाना.

‘‘5 महीने वृद्धाश्रम में काट दिए हैं, बेटा. बेटाबहू कभीकभार मिलने आ जाते हैं. मोहमाया से कौन बच पाया है, न ऋषिमुनी, न योगी. मैं भी एक इंसान हूं. बहूबेटे की अपराधिन हूं. बच्चों की जिंदगी में दखल देना बड़ी भूल थी जिस का पश्चात्ताप कर रही हूं.’’

तभी कमरे की कुंडी किसी ने खड़खड़ाई. विचारों के साथसाथ बातों की शृंखला टूट गई. दादीमां के खाने का वक्त हो गया है, मैं उठ खड़ा हुआ. दादीमां का शाम का समय आपसी बातों में कट जाएगा जबकि लंबी रात व्यर्थ के चिंतन और करवटें बदलने में. सुबह का समय व्यायाम को समर्पित है तो दोपहर का बच्चों की प्रतीक्षा में.

3 दिन बीते, तब लगा कि दादीमां से मिलना चाहिए. मैं तैयार हो कर सीधे वृद्धाश्रम जा पहुंचा. दादीमां नहानेधोने से फ्री हो चुकी थीं. मुझे देख कर उत्साह से भर गईं और कमर सीधी करते हुए बोलीं, ‘‘बच्चों की छुट्टियां कब तक हैं, बेटा? राह देखतेदेखते मेरी आंखें पथरा गई हैं.’’

‘‘क्या कहूं दादी मां, उन बच्चों को उन के मातापिता ने बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया, अब वहीं रह कर पढ़ेंगे,’’ मैं ने बु?ो मन से कहा. अब तो मैं वह काम ही नहीं करता. आप को बच्चों से मिलाने के लिए मैं ने यह रूट पकड़ा था.

‘‘क्या? बच्चों को मु?ा से दूर कर दिया. यह अच्छा नहीं किया उन के मातापिता ने. तू ही बता, अब मैं किस के सहारे जिऊंगी? इस से तो अच्छा है कि जीवन को त्याग दूं,’’ दादीमां फूटफूट कर रो पड़ीं.

‘‘दादी मां, मन छोटा मत करो. छुट्टी के दिन बोर्डिंग स्कूल से लाने की जिम्मेदारी मैं ने ले ली है. मैं बच्चों से मिलवा दिया करूंगा,’’ मैं दिलासा देता रहा, जब तक दादीमां शांत न हुईं.

‘‘तू ने बहुत उपकार किए हैं मुझ पर. ऋण नहीं चुका पाऊंगी मैं.’’

‘‘कौन सा?ऋण? क्या आप मेरी दादीमां नहीं हैं, बताइए?’’ मैं ने कहा.

दादीमां ने आंखें पोंछीं और आंखों पर चश्मा चढ़ाते हुए बोलीं, ‘‘हां, तेरी भी दादीमां हूं, मैं धन्य हो गई, बेटा.’’

‘‘फिर ठीक है, कल रविवार है, मैं सुबह आऊंगा आप को लेने.’’

‘‘झूठ तो नहीं कह रहा है, बेटा? अब मुझे डर लगने लगा है,’’ दादीमां ने शंकित भाव से कहा.

‘‘सच, दादी मां, होस्टल से लौट कर रमा से भी मिलवाऊंगा, चलोगी न?’’

‘‘कौन रमा,’’ दादीमां चौंकी.

‘‘मेरी पत्नी, आप की बहू. वह बोली थी कि दोपहर का खाना बना कर रखूंगी, दादीमां को लेते आना.’’

‘‘ना रे, बमुश्किल 2 रोटी खाती हूं,’’ दादीमां थोड़ी देर सोचती रहीं, फिर आंखें बंद कर बुदबुदाईं, ‘‘ठीक है, बहू को नेग देने तो जाना ही पड़ेगा.’’

‘‘कौन सा नेग?’’

‘‘यह तू नहीं समझेगा,’’ दादीमां ने अपने गले में पड़ी सोने की भारी चेन को बिना देखे टटोला, फिर निस्तेज आंखों में एक चमक आ कर ठहर गई.

तभी बाहर कुछ आहट होने लगी. दादीमां ने बिना मुड़े लाठी टटोलतेटटोलते बाहर ?ांका. हर्ष और चांदनी बच्चों के साथ खड़े थे. वे आवाक रह गईं.

‘‘मां, तुम्हें लेने आए हैं हम. बच्चे आप के बिना नहीं रह सकते,’’ हर्ष सिर ?ाकाए बोल रहा था.

घरवालों के बीच मैं क्या करता. अब मेरा क्या काम रह गया था. मैं वहां से चलने लगा, तो दादीमां ने रोक लिया.

‘‘तू कहां जा रहा है,’’ और मुझे हर्ष से मिलवाया. उस ने मुझे धन्यवाद कहा और मां से फिर चलने को कहा.

दादीमां को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था, आतुर हो कर पूछ बैठीं, ‘‘यह सच बोल रहा है न, चांदनी?’’

‘‘सच कह रहे हैं मांजी, हम से जो गलतियां हुईं उन्हें क्षमा कर दीजिए, प्लीज,’’ चांदनी गिड़गिड़ाई.

‘‘क्या गलतियां मुझ से नहीं हुईं, लेकिन अभी एक काम बाकी रह गया है…’’ दादीमां सोच में डूब गईं.

‘‘कौन सा काम, मांजी?’’ चांदनी ने पूछा.

‘‘पहले मैं अपनी छोटी बहू से मिलूंगी. तुम्हें पता है, मुझे एक बेटाबहू और मिले हैं.’’

दादीमां के कहने का मंतव्य सब की समझ में आ गया. सभी की निगाहें मेरी तरफ मुड़ गईं. उधर दादीमां खुशी के मारे बिना लाठी लिए खड़ी थीं मानो कहानी का एक और अध्याय प्रारंभ करने वाली हों. हर्ष बोला, ‘‘ठीक है, हम सब रमेश के यहां चलेंगे. मैं ड्राइवर को कह देता हूं, गाड़ी वहीं ले आए.’’ हर्ष बिना हिचक मां व अपनी पत्नी के साथ मेरी गाड़ी में बैठ गया.

  लेखक: यदु जोशी ‘गढ़देशी’

Stories : स्वीकृति – डिंपल की सोई ममता कैसे जाग उठी

 Stories : आशीष के जाते ही डिंपल दरवाजा बंद कर रसोईघर की ओर भागी. जल्दी से टिफिन अपने बैग में रख शृंगार मेज के समक्ष तैयार होते हुए वह बड़बड़ाती जा रही थी, ‘आज फिर औफिस के लिए देर होगी. एक तो घर का काम, फिर नौकरी और सब से ऊपर वही बहस का मुद्दा…’ 5 वर्ष के गृहस्थ जीवन में पतिपत्नी के बीच पहली बार इतनी गंभीरता से मनमुटाव हुआ था. हर बार कोई न कोई पक्ष हथियार डाल देता था, पर इस बार बात ही कुछ ऐसी थी जिसे यों ही छोड़ना संभव न था.

‘उफ, आशीष, तुम फिर वही बात ले बैठे. मेरा निर्णय तो तुम जानते ही हो, मैं यह नहीं कर पाऊंगी,’ डिंपल आपे से बाहर हो, हाथ मेज पर पटकते हुए बोली थी. ‘अच्छाअच्छा, ठीक है, मैं तो यों ही कह रहा था,’ आखिर आशीष ने आत्मसमर्पण कर ही दिया. फिर कंधे उचकाते हुए बोला, ‘प्रिया मेरी बहन थी और बच्चे भी उसी के हैं, तो क्या उन्हें…’

बीच में ही बात काटती डिंपल बोल पड़ी, ‘मैं यह मानती हूं, पर हमें बच्चे चाहिए ही नहीं. मैं यह झंझट पालना ही नहीं चाहती. हमारी दिनचर्या में बच्चों के लिए वक्त ही कहां है? क्या तुम अपना वादा भूल गए कि मेरे कैरियर के लिए हमेशा साथ दोगे, बच्चे जरूरी नहीं?’ आखिरी शब्दों पर उस की आवाज धीमी पड़ गई थी. डिंपल जानती थी कि आशीष को बच्चों से बहुत लगाव है. जब वह कोई संतान न दे सकी तो उन दोनों ने एक बच्चा गोद लेने का निश्चय भी किया था, पर…

‘ठीक है डिंपी?’ आशीष ने उस की विचारशृंखला भंग करते हुए अखबार को अपने ब्रीफकेस में रख कर कहा, ‘मैं और मां कुछ न कुछ कर लेंगे. तुम इस की चिंता न करना. फिलहाल तो बच्चे पड़ोसी के यहां हैं, कुछ प्रबंध तो करना ही होगा.’ ‘क्या मांजी बच्चों को अपने साथ नहीं रख सकतीं?’ जूठे प्याले उठाते हुए डिंपल ने पूछा.

‘तुम जानती तो हो कि वे कितनी कमजोर हो गई हैं. उन्हें ही सेवा की आवश्यकता है. यहां वे रहना नहीं चाहतीं, उन को अपना गांव ही भाता है. फिर 2 छोटे बच्चे पालना…खैर, मैं चलता हूं. औफिस से फोन कर तुम्हें अपना प्रोग्राम बता दूंगा.’ तैयार होते हुए डिंपल की आंखें भर आईं, ‘ओह प्रिया और रवि, यह क्या हो गया…बेचारे बच्चे…पर मैं भी अब क्या करूं, उन्हें भूल भी नहीं पाती,’ बहते आंसुओं को पोंछ, मेकअप कर वह साड़ी पहनने लगी.

2 दिनों पहले ही कार दुर्घटना में प्रिया तो घटनास्थल पर ही चल बसी थी, जबकि रवि गंभीर हालत में अस्पताल में था. दोनों बच्चे अपने मातापिता की प्रतीक्षा करते डिंपल के विचारों में घूम रहे थे. हालांकि एक लंबे अरसे से उस ने उन्हें देखा नहीं था. 3 वर्ष पूर्व जब वह उन से मिली थी, तब वे बहुत छोटे थे.

वह घर, वह माहौल याद कर डिंपल को कुछ होने लगता. हर जगह अजीब सी गंध, दूध की बोतलें, तारों पर लटकती छोटीछोटी गद्दियां, जिन से अजीब सी गंध आ रही थी. पर वे दोनों तो अपनी उसी दुनिया में डूबे थे. रवि को तो चांद सा बेटा और फूल जैसी बिटिया पा कर और किसी चीज की चाह ही नहीं थी. प्रिया हर समय, बस, उन दोनों को बांहों में लिए मगन रहती. परंतु घर के उस बिखरे वातावरण ने दोनों को हिला दिया. तभी डिंपल बच्चा गोद लेने के विचार मात्र से ही डरती थी और उन्होंने एक निर्णय ले लिया था. ‘तुम ठीक कहती हो डिंपी, मेरे लिए भी यह हड़बड़ी और उलझन असहाय होगी. फिर तुम्हारा कैरियर…’ आशीष ने उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा था.

दोनों अपने इस निर्णय पर प्रसन्न थे, जबकि वह जानती थी कि बच्चे पालने का अर्थ घर का बिखरापन ही हो, ऐसी बात नहीं है. यह तो व्यक्तिगत प्रक्रिया है. पर वह अपना भविष्य दांव पर लगाने के पक्ष में कतई न थी. वह अच्छी तरह समझती थी कि यह निर्णय आशीष ने उसे प्रसन्न रखने के लिए ही लिया है. लेकिन इस के विपरीत डिंपल बच्चों के नाम से ही कतराती थी. डिंपल ने भाग कर आटो पकड़ा

और दफ्तर पहुंची. आधे घंटे बाद ही फोन की घंटी घनघना उठी, ‘‘मैं अभी मुरादाबाद जा रहा हूं. मां को भी रास्ते से गांव लेता जाऊंगा,’’ उधर से आशीष की आवाज आई.

‘‘क्या वाकई, मेरा साथ चलना जरूरी न होगा?’’ ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, मांजी तो जाएंगी ही. और कुछ दिनों पहले ही बच्चे नानी से मिले थे. उन्हें वे पहचानते भी हैं. तुम्हें तो वे पहचानेंगे ही नहीं. वैसे तो मैं ही उन से कहां मिला हूं. खैर, तुम चिंता न करना. अच्छा, फोन रखता हूं…’’

2 दिनों बाद थकाटूटा आशीष वहां से लौटा और बोला, ‘‘रवि अभी भी बेहोश है, दोनों बच्चे पड़ोसी के यहां हैं. वे उन्हें बहुत चाहते हैं. पर वे वहां कब तक रहेंगे? बच्चे बारबार मातापिता के बारे में पूछते हैं,’’ अपना मुंह हाथों से ढकते हुए आशीष ने बताया. उस का गला भर आया था. ‘‘मां बच्चों को संभालने गई थीं, पर वे तो रवि की हालत देख अस्पताल में ही गिर पड़ीं,’’ आशीष ने एक लंबी सांस छोड़ी.

‘‘मैं ने आज किशोर साहब से बात की थी, वे एक हफ्ते के अंदर ही डबलबैड भिजवा देंगे.’’ ‘‘एक और डबलबैड क्यों?’’ आशीष की नजरों में अचरजभरे भाव तैर गए.

‘‘उन दोनों के लिए एक और डबलबैड तो चाहिए न. हम उन्हें ऐसे ही तो नहीं छोड़ सकते, उन्हें देखभाल की बहुत आवश्यकता होगी. वे पेड़ से गिरे पत्ते नहीं, जिन्हें वक्त की आंधी में उड़ने के लिए छोड़ दिया जाए,’’ डिंपल की आंखों में पहली बार ममता छलकी थी. उस की इस बात पर आशीष का रोमरोम पुलकित हो उठा और वह कूद कर उस के पास जा पहुंचा, ‘‘सच, डिंपी, क्या तुम उन्हें रखने को तैयार हो? अरे, डिंपी, तुम ने मुझे कितने बड़े मानसिक तनाव से उबारा है, शायद तुम नहीं समझोगी. मैं आजीवन तुम्हारे प्रति कृतज्ञ रहूंगा.’’ पत्नी के कंधों पर हाथ रख उस ने अपनी कृतज्ञता प्रकट की.

डिंपल चुपचाप आशीष को देख रही थी. वह स्वयं भी नहीं जानती थी कि भावावेश में लिया गया यह निर्णय कहां तक निभ पाएगा.

डिंपल सारी तैयारी कर बच्चों के आने की प्रतीक्षा कर रही थी. 10 बजे घंटी बजी. दरवाजे पर आशीष खड़ा था और नीचे सामान रखा था. उस की एक उंगली एक ने तो दूसरी दूसरे बच्चे ने पकड़ रखी थी. उन्हें सामने देख डिंपल खामोश सी हो गई. बच्चों के बारे में उसे कुछ भी तो ज्ञान और अनुभव नहीं था. एक तरफ अपना कैरियर, दूसरी तरफ बच्चे, वह कुछ असमंजस में थी. आशीष और बच्चे उस के बोलने का इंतजार कर रहे थे. ऊपरी हंसी और सूखे मुंह से डिंपल ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘हैलो, कैसा रहा सफर?’’

‘‘बहुत अच्छा, बच्चों ने तंग भी नहीं किया. यह है प्रार्थना और यह प्रांजल. बच्चो, ये हैं, तुम्हारी मामी,’’ आशीष ने हंसते हुए कहा. परंतु चारों आंखें नए वातावरण को चुपचाप निहारती रहीं, कोई कुछ भी

न बोला. डिंपल ने बच्चों का कमरा अपनी पसंद से सजाया था. अलमारी में प्यारा सा कार्टून पिं्रट का कागज बिछा बिस्कुट और टाफियों के डब्बे सजा दिए थे. बिस्तर पर नए खिलौने रखे थे.

प्रांजल खिलौनों से खेलने में मशगूल हो, वातावरण में ढल गया, किंतु प्रार्थना बिस्तर पर तकिए को गोद में रख, मुंह में अंगूठा ले कर गुमसुम बैठी हुई थी. वह मासूम अपनी खोईखोई आंखों में इस नए माहौल को बसा नहीं पा रही थी. पहले 4-5 दिन तो इतनी कठिनाई नहीं हुई क्योंकि आशीष ने दफ्तर से छुट्टी ले रखी थी. दोनों बच्चे आपस में खेलते और खाना खा कर चुपचाप सो जाते. फिर भी डिंपल डरती रहती कि कहीं वे उखड़ न जाएं. शाम को आशीष उन्हें पार्क में घुमाने ले जाता. वहां दोनों झूले झूलते, आइसक्रीम खाते और कभीकभी अपने मामा से कहानियां भी सुनते.

आशीष, बच्चों से स्वाभाविकरूप से घुलमिल गया था और बच्चे भी सारी हिचकिचाहट व संकोच छोड़ चुके थे, जिसे वे डिंपल के समक्ष त्याग न पाते थे. शायद यह डिंपल के अपने स्वभाव की प्रतिक्रिया थी. एक हफ्ते बाद डिंपल ने औफिस से छुट्टी ले ली थी ताकि वह भी बच्चों से घुलमिल सके. यह एक परीक्षा थी, जिस में आशीष उत्तीर्ण हो चुका था. अब डिंपल को अपनी योग्यता दर्शानी थी. हमेशा की भांति आशीष तैयार हो कर 9 बजे दफ्तर चल दिया. दोनों बच्चों ने नाश्ता किया. डिंपल ने उन की पसंद का नाश्ता बनाया था.

‘‘अच्छा बच्चो, तुम जा कर खेलो, मैं कुछ साफसफाई करती हूं,’’ नाश्ते के बाद बच्चों से कहते समय हमेशा की भांति वह अपनी आवाज में प्यार न उड़ेल पाई, बल्कि उस की आवाज में सख्ती और आदेश के भाव उभर आए थे. थालियों को सिंक में रखते समय डिंपल उन मासूम चेहरों को नजरअंदाज कर गई, जो वहां खड़े उसे ही देख रहे थे. ‘‘जाओ, अपने खिलौनों से खेलो. अभी मुझे बहुत काम करना है,’’ और वह दोनों को वहीं छोड़ अपने कमरे की ओर बढ़ गई.

कमरा ठीक कर, किताबों और फाइलों के ढेर में से उस ने कुछ फाइलें निकालीं और उन में डूब गई. कुछ देर बाद उसे महसूस हुआ, जैसे कमरे में कोई आया है. बिना पीछे मुड़े ही वह बोल पड़ी, ‘‘हां, क्या बात है?’’

परंतु कोई उत्तर न पा, पीछे देखा कि प्रार्थना और प्रांजल खड़े हैं. प्रांजल धीरे से बोला, ‘‘प्रार्थना को गाना सुनना है.’’

डिंपल ने एक ठंडी सांस भर कमरे के कोने में रखे स्टीरियो को देखा, फिर अपनी फाइलों को. उसे एक हफ्ते बाद ही नए प्रोजैक्ट की फाइलें तैयार कर के देनी थीं. सोचतेसोचते उस के मुंह से शब्द फिसला, ‘‘नहीं,’’ फिर स्वयं को संभाल उन्हें समझाते हुए बोली, ‘‘अभी मुझे बहुत काम है, कुछ देर बाद सुन लेना.’’ दोनों बच्चे एकदूसरे का मुंह देखने लगे. वे सोचने लगे कि मां तो कभी मना नहीं करती थीं. किंतु यह बात वे कह न पाए और चुपचाप अपने कमरे में चले गए.

डिंपल फिर फाइल में डूब गई. बारबार पढ़ने पर भी जैसे मस्तिष्क में कुछ घुस ही न रहा था. पैन पटक कर डिंपल खड़ी हो गई. बच्चों के कमरे में झांका, वहां एकदम शांति थी. प्रार्थना तकिया गोद में लिए, मुंह में अंगूठा दबाए बैठी थी. प्रांजल अपने सूटकेस में खिलौने जमाने में व्यस्त था. ‘‘यह क्या हो रहा है?’’

‘‘अब हम यहां नहीं रहेंगे,’’ प्रांजल ने फैसला सुना दिया. उस रात डिंपल दुखी स्वर में पति से बोली, ‘‘मैं और क्या कर सकती हूं, आशीष? ये मुझे गहरी आंखों से टुकुरटुकुर देखा करते हैं. मुझ से वह दृष्टि सहन नहीं होती. मैं उन्हें प्रसन्न देखना चाहती हूं, उन्हें समझाया कि अब यही उन का घर है, पर वे नहीं मानते,’’ डिंपल का सारा गुबार आंखों से फूट कर बह गया.

प्रांजल और प्रार्थना के मौन ने उसे हिला दिया था, जिसे वह स्वयं की अस्वीकृति समझ रही थी. उस ने उन्हें अपनाना तो चाहा लेकिन उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया. ‘‘मैं जानता हूं, यह कठिन कार्य है, पर असंभव तो नहीं. मांजी ने भी उन्हें समझाया था कि उन की मां बहुत दूर चली गई है, अब वापस नहीं आएगी और पिता भी बहुत बीमार हैं. पर उन का नन्हा मस्तिष्क यह बात स्वीकार नहीं पाता. लेकिन धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘शायद उन्हें यहां नहीं लाना चाहिए था. कहीं अच्छाई के बदले कुछ बुरा न हो जाए.’’ ‘‘नहीं, डिंपी, हमें ऐसा नहीं सोचना चाहिए. इस समय उन्हें भरपूर लाड़प्यार और ध्यान की आवश्यकता है. हम जितना स्नेह उन्हें देंगे, वे उतने ही समीप आएंगे. वे प्यार दें या न दें, हमें उन्हें प्यार देते रहना होगा.’’

‘‘मेरे लिए शायद ऐसा कर पाना कठिन होगा. मैं उन्हें अपनाना चाहती हूं, पर फिर भी अजीब सा एहसास, अजीब सी दूरी महसूस करती हूं. इन बच्चों के कारण मैं अपना औफिस का कार्य भी नहीं कर पाती जब वे

पास होते हैं तब भी और जब दूर होते हैं तब भी. मेरा मन बड़ी दुविधा में फंसा है.’’ ‘‘मैं ने तो इतना सोचा ही नहीं. अगर तुम को इतनी परेशानी है तो कहीं होस्टल की सोचूंगा. बच्चे अभी तुम से घुलेमिले भी नहीं हैं,’’ आशीष ने डिंपल को आश्वासन देते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं, मैं उन्हें वापस नहीं भेजना चाहती, स्वीकारना चाहती हूं, सच. मेरी इच्छा है कि वे हमारे बन जाएं, हमें उन्हें जीतना होगा, आशू, मैं फिर प्रयत्न करूंगी.’’ अगले दिन सुबह से ही डिंपल ने गाने लगा दिए थे. रसोई में काम करते हुए बच्चों को भी आवाज दी, ‘‘मेरी थोड़ी मदद करोगे, बच्चो?’’

प्रांजल उत्साह से भर मामी को सामान उठाउठा कर देने लगा, किंतु प्रार्थना, बस, जमीन पर बैठी चम्मच मारती रही. उस के भोले और उदास चेहरे पर कोई परिवर्तन नहीं था आंखों के नीचे कालापन छाया था जैसे रातभर सोई न हो. पर डिंपल ने जब भी उन के कमरे में झांका था, वे सोऐ ही नजर आए थे. ‘‘अच्छा, तो प्रार्थना, तुम यह अंडा फेंटो, तब तक प्रांजल ब्रैड के कोने काटेगा और फिर हम बनाएंगे फ्रैंच टोस्ट,’’ डिंपल ने कनखियों से उसे देखा. पहली बार प्रार्थना के चेहरे पर बिजली सी चमकी थी. दोनों तत्परता से अपनेअपने काम में लग गए थे.

उस रात जब डिंपल उन्हें कमरे में देखने गई तो भाईबहन शांत चेहरे लिए एकदूसरे से लिपटे सो रहे थे. एक मिनट चुपचाप उन्हें निहार, वह दबेपांव अपने कमरे में लौट आई थी.

अगला दिन वाकई बहुत अच्छा बीता. दोनों बच्चों को डिंपल ने एकसाथ नहलाया. बाथटब में वे पानी से खूब खेले. फिर सब ने साथ ही नाश्ता किया. खरीदारी के लिए वह उन्हें बाजार साथ ले गई और फिर उन की पसंद से नूडल्स का पैकेट ले कर आई. हालांकि डिंपल को नूडल्स कतई पसंद न थे लेकिन उस दोपहर उस ने नूडल्स ही बनाए. आशीष टूर पर गया हुआ था. बच्चों को बिस्तर पर सुलाने से पूर्व वह उन्हें गले लगा, प्यार करना चाहती थी, पर सोचने लगी, ‘मैं ऐसा क्यों नहीं कर पाती? कौन है जो मुझे पीछे धकेलता है? मैं उन्हें प्यार करूंगी, जरूर करूंगी,’ और जल्दी से एक झटके में दोनों के गालों पर प्यार कर बिस्तर पर लिटा आई.

अपने कमरे में आ कर बिस्तर देख डिंपल का मन किया कि अब चुपचाप सो जाए, पर अभी तो फाइल पूरी करनी थी. मुश्किल से खड़ी हो, पैरों को घसीटती हुई, मेज तक पहुंच वह फाइल के पन्नों में उलझ गई. बाहर वातावरण एकदम शांत था, सिर्फ चौकीदार की सीटी और उस के डंडे की ठकठक गूंज रही थी. डिंपल ने सोचा, कौफी पी जाए. लेकिन जैसे ही मुड़ी तो देखा कि दरवाजे पर एक छोटी सी काया खड़ी है.

‘‘अरे, प्रार्थना तुम? क्या बात है बेटे, सोई नहीं?’’ डिंपल ने पैन मेज पर रखते हुए पूछा. पर प्रार्थना मौन उसे देखती रही. उस की आंखों में कुछ ऐसा था कि डिंपल स्वयं को रोक न सकी और घुटनों के बल जमीन पर बैठ प्रार्थना को गले से लिपटा लिया. बच्ची ने भी स्वयं को उस की गोद में गिरा दिया और फूटफूट कर रोने लगी. डिंपल वहीं बैठ गई और प्रार्थना को सीने से लगा, प्यार करने लगी.

काफी देर तक डिंपल प्रार्थना को यों ही सीने से लगाए बैठी रही और उस के बालों में हाथ फेरती रही. प्रार्थना ने उस के कंधे से सिर लगा दिया, ‘‘क्या सचमुच मां अब नहीं आएंगी?’’ अब डिंपल की बारी थी. अत्यंत कठिनाई से अपने आंसू रोक भारी आवाज में बोली, ‘‘नहीं, बेटा, अब वे कभी नहीं आएंगी. तभी तो हम लोगों को तुम दोनों की देखभाल करने के लिए कहा गया है.

‘‘चलो, अब ऐसा करते हैं कि कुछ खाते हैं. मुझे तो भई भूख लग आई है और तुम्हें भी लग रही होगी. चलो, नूडल्स बना लें. हां, एक बात और, यह मजेदार बात हम किसी को बताएंगे नहीं, मामा को भी नहीं,’’ प्रार्थना के सिर पर हाथ फेरते हुए डिंपल बोली. ‘‘मामी, प्रांजल को भी नहीं बताना,’’ प्रार्थना ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘ठीक है, प्रांजल को भी नहीं. तुम और हम जाग रहे हैं, तो हम ही खाएंगे मजेदार नूडल्स,’’ डिंपल के उत्तर ने प्रार्थना को संतुष्ट कर दिया.

डिंपल नूडल्स खाती प्रार्थना के चेहरे को निहारे जा रही थी. अब उसे स्वीकृति मिल गई थी. उस ने इन नन्हे दिलों पर विजय पा ली थी. इतने दिनों उपरांत प्रार्थना ने उस का प्यार स्वीकार कर उस के नारीत्व को शांति दे दी थी. अब न डिंपल को थकान महसूस हो रही थी और न नींद ही आ रही थी. अचानक उस का ध्यान अपनी फाइलों की ओर गया कि अगर ये अधूरी रहीं तो उस के स्वप्न भी…परंतु डिंपल ने एक ही झटके से इस विचार को अपने दिमाग से बाहर निकाल फेंका. उसे बच्ची का लिपटना, रोना तथा प्यारभरा स्पर्श याद हो आया. वह सोचने लगी, ‘हर वस्तु का अपना स्थान होता है, अपनी आवश्यकता होती है. इस समय फाइलें इतनी आवश्यक नहीं हैं, वे अपनी बारी की प्रतीक्षा कर सकती हैं, पर बच्चे…’

डिंपल ने प्रार्थना को प्यारभरी दृष्टि से निहारते देखा तो वह पूछ बैठी, ‘‘अच्छा, यह बताओ, अब कल की रात क्या करेंगे?’’ ‘‘मामी, फिर नूडल्स खाएंगे,’’ प्रार्थना ने नींद से बोझिल आंखें झपकाते हुए कहा.

‘‘मामी नहीं बेटे, मां कहो, मां,’’ कहते हुए डिंपल ने उसे गोद में उठा लिया.

Best Hindi Story : लव ऐट ट्रैफिक सिगनल

Best Hindi Story : आज फिर वही लड़की साइबर टावर के ट्रैफिक सिगनल पर मुझे मिली. हैदराबाद में माधापुर के पास फ्लाईओवर से दाहिने मुड़ने के ठीक पहले यह सिगनल पड़ता है. एक तरफ मशहूर शिल्पा रामम कलाभवन है. इधर लगातार 3 दिनों से सुबह साढ़े 9 बजे मेरी खटारा कार सिगनल पर रुकती, ठीक उसी समय उस की चमचमाती हुई नई कार बगल में रुकती है.

मेरी कार में तो एसी नहीं है, इसलिए खिड़की खुली रखता हूं. पर उस की कार में एसी है. फिर भी रेड सिगनल पर मेरे रुकते ही बगल में उस की कार रुकती है, और वह शीशा गिरा देती है. वह अपना रंगीन चश्मा आंखों से ऊपर उठा कर अपने बालों के बीच सिर पर ले जाती है, फिर मुसकरा कर मेरी तरफ देखती है. उस के डीवीडी प्लेयर से एब्बा का फेमस गीत ‘आई हैव अ ड्रीम…’ की सुरीली आवाज सुननेको मिलती है.

सिगनल ग्रीन होते ही वह शीशा चढ़ा कर भीड़ में किधर गुम हो जाती है, मैं ने भी जानने की कोशिश नहीं की. पता नहीं इस लड़की की घड़ी, मेरी घड़ी और मेरी खटारा और उस की नई कार सभी में इतना तालमेल कैसे है कि ठीक एक ही समय पर हम दोनों यहां होते हैं.

खैर, मुझे उस लड़की की इतनी परवा नहीं है जितनी समय पर अपने दफ्तर पहुंचने की. आजकल हैदराबाद में भी ट्रैफिक जाम होने लगा है. गनीमत यही है कि इस सिगनल से दाहिने मुड़ने के बाद दफ्तर के रास्ते में कोई खास बाधा नहीं है. मैं 10 बजे के पहले अपनी आईटी कंपनी में होता हूं. अपने क्लाइंट्स से मीटिंग्स और कौल्स ज्यादातर उसी समय होते हैं.

मेरी कंपनी का अधिकतर बिजनैस दुबई, शारजाह, कुवैत, आबूधाबी, ओमान आदि मध्यपूर्व देशों से है. कंपनी नई है. स्टार्टअप शुरू किया था 2 साल पहले. सिर्फ 2 दोस्तों ने इस स्टार्टअप की शुरुआत अपनी कार के गैराज से की थी जो अब देखतेदेखते काफी अच्छी स्थिति में है. 50 से ज्यादा सौफ्टवेयर इंजीनियर हैं इस कंपनी में. बीचबीच में मुझे दुबई का टूर भी मिल जाता है.

वैसे तो आमतौर पर शाम 6 बजे तक मैं वापस अपने फ्लैट में होता हूं. इधर

2-4 दिनों से काम ज्यादा होने से लौटने में देर हो रही थी, पर सुबह जाने का टाइम वही है. आज वह लड़की मुझे सिगनल पर नहीं मिली है.

न जाने क्यों मेरा मन पूछ रहा है कि आज वह क्यों नहीं मिली. मैं ने एकदो बार बाएंदाएं देखा, फिर कार के रियर व्यू मिरर में भी देख कर तसल्ली कर ली थी कि मेरे  पीछे भी नहीं है. खैर, सिगनल ग्रीन हुआ तो फिर मैं आगे बढ़ गया. जब तक काम में व्यस्त था, मुझे उस लड़की के बारे में कुछ सोचने की फुरसत न थी, पर लंचब्रैक में उस की याद आ ही गई.

शाम को लौटते समय मैं केएफसी रैस्टोरैंट में रुका था अपना और्डर पिक करने, और्डर मैं ने औफिस से निकलने के पहले ही फोन पर दे दिया था. वहां वह लड़की मुझे फिर मिल गई. वह भी अपना और्डर पिक करने आई थी. वह अपना पैकेट ले कर जैसे ही मुड़ी, मैं उस के पीछे ही खड़ा था. वह मुसकरा कर ‘हाय’ बोली और कहा, ‘‘आप भी यहां. एक खूबसूरत संयोग. आज सिगनल पर नहीं मिली क्योंकि मुझे आज औफिस जल्दी पहुंचना था. मुंबई से डायरैक्टर आए हैं, तो थोड़ी तैयारी करनी थी.’’

वह मेरे पैकेट मिलने तक बगल में ही खड़ी रही थी. मेरी समझ में नहीं आया कि यह सब मुझे क्यों बता रही है क्योंकि मैं तो उसे ढंग से जानता भी नहीं हूं, यहां तक कि उस का नाम तक नहीं मालूम.

‘‘मैं शोभना हूं’’, बोल कर उस ने अपना नाम तो बता दिया. दरअसल, हम दोनों कार पार्किंग तक साथसाथ चल रहे थे. मैं ने  अपना नाम अमित बताया. फिर दोनों अपनीअपनी कार में गुडनाइट कह कर बैठ गए. परंतु वह चलतेचलते ‘सी यू सून’ बोल गई है. जहां एक ओर मुझे खुशी भी हो रही है तो दूसरी ओर सोच रहा था कि यह मुझे से क्यों मिलना चाहती है.

अगले 3-4 दिनों तक फिर शोभना उस सिगनल पर नहीं मिली. एक दिन शाम को मैं शिल्पा रामम में लगी एक प्रदर्शनी में गया तो मेरी नजर शोभना पर पड़ी. गेहुंआ रंग, अच्छे नैननक्श वाली शोभना स्ट्रेचेबल स्किनफिट जींस और टौप में थी. इस बार मैं ही उस के पास गया और बोला, ‘‘हाय शोभना, तुम यहां?’’

उस ने भी मुड़ कर मुझे देखा और उसी परिचित मुसकान के साथ ‘हाय’ कहा. फिर उस ने 4 फोल्ंिडग कुरसियां खरीदीं. मैं ने उस से 2 कुरसियां ले कर कार तक पहुंचा दी थी. कार के पास ही खड़खड़े बातें करने लगे थे हम दोनों. शोभना ने कहा, ‘‘मैं कोंडापुर के शिल्पा पार्क एरिया में रघु रेजीडैंसी में नई आई हूं. 2 रूम का फ्लैट एक और लड़की के साथ शेयर करती हूं और आप अमित?’’

‘‘अरे, मैं भी आप के सामने वाले शिल्पा प्राइड में एक रूम के फ्लैट में रहता हूं. वैसे तुम मुझे तुम बोलोगी तो ज्यादा अपनापन लगेगा. तुम में मैं ज्यादा कंफर्टेबल रहूंगा.’’

शोभना हंसते हुए बोली, ‘‘मुझे पता है. मैं ने अपनी खिड़की से कभीकभी तुम को देखा है. बल्कि मेरे साथ वाली लड़की तो आईने से सूर्य की किरणों को तुम्हारे चेहरे पर चमकाती थी.’’

मैं ने कहा ‘‘मैं कैसे मान लूं कि इस शरारत में तुम शामिल नहीं थीं?’’

‘‘तुम्हारी मरजी, मानो न मानो.’’

दोनों हंस पड़े और ‘बाय’ कह कर विदा हुए.

अगले दिन उसी सिगनल पर फिर हम दोनों मिले, पर सिगनल ग्रीन होने के पहले तय हुआ कि शाम को कौफी शौप में मिलते हैं. शाम को कौफी शौप में मैं ने शोभना से कहा कि एक ब्रेकिंग न्यूज है.

शोभना के पूछने पर मैं ने कहा, ‘‘कल सुबह की फ्लाइट से मैं दुबई जा रहा हूं. कंपनी ने दुबई में एक इंटरनैशनल सैमिनार रखा है. उस में कई देशों के प्रतिनिधि आ रहे हैं. उन के सामने प्रैजेंटेशन देना है.’’

‘‘ग्रेट न्यूज, कितने दिनों का प्रोग्राम है?’’ शोभना ने पूछा. मैं ने उसे बता दिया कि प्रोग्राम तो 2 दिनों का है, पर अगले दिन शाम की फ्लाइट से हैदराबाद लौटना है. तब तक कौफी खत्म कर मैं चलने लगा तो उस ने उठ कर हाथ मिलाया और ‘बाय’ कह कर चली गई.

कंपनी ने दुबई के खूबसूरत जुमेरह बीच पर स्थित पांचसितारा होटल ‘मुवेन पिक’ में प्रोग्राम रखा था. उसी होटल में 2 बैड के एक कमरे में मुझे और मेरे इवैंट मैनेजर के ठहरने का इंतजाम था. होटल तो मैं दोपहर में ही पहुंच गया था, पर शाम को मैं रिसैप्शन पर प्रोग्राम के लिए होने वाली तैयारी की जानकारी लेने आया तो देखा रिसैप्शन पर एक लड़की बहस कर रही है. निकट पहुंचा तो देखा यह शोभना थी.

मैं ने पूछा कि वह दुबई में क्या कर रही है तो उस ने कहा, ‘‘मुझे कंपनी ने भेजा है और कहा कि मेरा कमरा यहां बुक्ड है. पर यह बोल रहा है कि कोई रूम नहीं है. बोल रहा कि कंपनी ने शेयर्ड रूम की बुकिंग की है.’’

मेरे रिसैप्शन से पूछने पर उस ने यही कहा कि शेयर्ड बुकिंग है इन की. मैं ने रूम पूछा तो उस ने चैक कर जो नंबर बताया, वह मेरा था. शोभना भी यह सुन कर चौंक गई थी. मैं ने उसे चैकइन कर मेरे रूम में चलने को कहा और बोला, ‘‘तुम रूम में चलो, मैं थोड़ी देर में इन की तैयारी देख कर आता हूं.’’

थोड़ी देर में जब वापस अपने रूम के दरवाजे पर नौक किया तो आवाज आई, ‘‘खुला है, कम इन.’’ मैं ने सोफे पर बैठते हुए पूछा, ‘‘तुम अचानक दुबई कैसे आई? कल शाम तो तुम साथ में थीं. तुम ने कुछ बताया नहीं था.’’

शोभना बोली, ‘‘तब मुझे पता ही कहां था? मैं हैदराबाद के इवैंट मैनेजमैंट कंपनी में काम करती हूं. मेरी कंपनी को इस इवैंट का कौन्ट्रैक्ट मिला है. मेरा मैनेजर आने वाला था. पर अचानक उस की पत्नी का ऐक्सिडैंट हो गया तो कंपनी ने मुझे भेज दिया. वह तो संयोग से मेरा यूएई का वीजा अभी वैलिड था तो आननफानन कंपनी ने मुझे भेज दिया.’’

तब मेरी समझ में सारी बात आई और मैं ने उस से कहा, ‘‘यह कमरा मुझे तुम्हारे मैनेजर के साथ शेयर करना था. अब उस की जगह तुम आई हो, तो एडजस्ट करना ही है. वैसे, मैं कोशिश करूंगा पास के किसी होटल में रूम लेने को, अगर नहीं मिला तो मैं यहीं सोफे पर सो जाऊंगा.’’

शोभना बोली, ‘‘नहीं, नहीं. सोफे पर क्यों सोना है? दोनों बैड काफी अलगअलग हैं. काम चल जाएगा.’’

खैर, अगले दिन हमारा प्रोग्राम शुरू हुआ. सबकुछ पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार अच्छे से चल रहा था. मेरी कंपनी के प्रौडक्ट की सभी डैलीगेट्स ने प्रशंसा की थी. शोभना भी दिनभर काफी मेहनत कर रही थी. वह काले रंग के बिजनैस सूट में काफी स्मार्ट लग रही थी. सभी विदेशी डैलीगेट्स से एकएक कर मिली और पूछा कि वे संतुष्ट हैं या नहीं. दिनभर एक पैर पर खड़ी रही थी सभी मेहमानों का खयाल रखने के लिए.

पहले दिन का प्रोग्राम खत्म कर हम दोनों अपने रूम में आ गए और डिनर रूम में ही मंगवा लिया था. थोड़ी देर तक दूसरे दिन के प्रोग्राम पर कुछ बातें हुईं और हम अपनेअपने बैड पर जो गिरे तो सुबह ही आंखें खुलीं. जल्दीजल्दी तैयार हो दोनों नीचे हौल में गए जहां यह कार्यक्रम चल रहा था. डैलीगेट्स के आने से पहले पहुंचना था हमें.

इस दिन का प्रोग्राम भी संतोषजनक और उत्साहवर्धक रहा था. हमें कुछ स्पौट और्डर भी मिले, तो कुछ ने अपने देश लौट कर और्डर देने का आश्वासन दिया. शोभना आज गहरे नीले रंग के सूट में और निखर रही थी. वह सभी डैलीगेट्स को एकएक कर कंपनी की ओर से गिफ्ट पैकेट दे कर विदा कर रही थी.

प्रोग्राम समाप्त हुआ तो दोनों अपने रूम में आ गए थे. मैं ने पूछा कि विश्वविख्यात दुबई मौल घूमने का इरादा है तो वह बोली, ‘‘मुझे अकसर ज्यादा देर तक खड़े रहने से दोनों पैरों में घुटनों के नीचे भयंकर दर्द हो जाता है. मैं तो डर रही थी कि कहीं बीच में ही प्रोग्राम छोड़ कर न आना पड़े. अमित, आज का दर्द बरदाश्त नहीं हो रहा. जल्दी में दवा भी लाना भूल गई हूं. और सिर भी दर्द से फटा जा रहा है. प्लीज, मुझे यहीं आराम करने दो, तुम घूम आओ.’’

हालांकि थका तो मैं भी था, अंदर से मेरी भी इच्छा बस आराम करने की थी. मैं ने कहा, ‘‘मैं बाहर जा रहा हूं. दरवाजा बंद कर ‘डौंट डिस्टर्ब’ बोर्ड लगा दूंगा. तब तक तुम थोड़ा आराम कर लो.’’

मैं थोड़ी ही देर में होटल लौट आया था. थोड़ी दूर पर एक दवा दुकान से पेनकिलर, स्प्रे और सिरदर्द वाला बाम खरीद लाया था. धीरे से दरवाजा खोल कर अंदर गया. शोभना नींद में भी दर्द से कराह रही थी. मैं ने धीरे से उस के दोनों पैर सीधे किए. तब तक उस की नींद खुल गई थी. उस ने कहा, ‘‘क्या कर रहे हो?’’

मैं ने थोड़ा हंसते हुए कहा, ‘‘अभी तो कुछ किया ही नहीं, करने जा रहा हूं?’’

तभी उस ने सिरहाने पड़े टेबल से फोन उठा कर कहा, ‘‘मैं होटल मैनेजर को बुलाने जा रही हूं.’’

मैं ने पौकेट से दोनों दवाइयां निकाल कर उसे दिखाते हुए कहा, ‘‘पागल मत बनो. 2 रातों से तुम्हारे बगल के बैड पर सो रहा हूं. मेरे बारे में तुम्हारी यही धारणा है. लाओ अपने पैर दो. स्प्रे कर देता हूं, तुरंत आराम मिलेगा.’’

मैं ने उस के दोनों पैरों पर स्प्रे किया और एक टैबलेट भी खाने को दी.

स्प्रे से कुछ मिनटों में उसे राहत

मिली होगी, सोच कर पूछा, ‘‘कुछ आराम मिला?’’

उस के चेहरे पर कुछ शर्मिंदगी झलक रही थी. वह बोली, ‘‘सौरी अमित. मैं नींद में थी और तुम ने अचानक मेरी टांगें खींचीं तो मैं डर गई. माफ कर दो. पैरों का दर्द तो कम हो रहा है पर सिर अभी भी फटा जा रहा है.’’

मैं सिरदर्द वाला बाम ले कर उस के ललाट पर लगाने जा रहा था तो उस ने मेरे हाथ पकड़ कर रोकते हुए कहा, ‘‘अब और शर्मिंदा नहीं करो. मुझे दो, मैं खुद लगा लूंगी.’’

मैं ने लगभग आदेश देने वाले लहजे में चुपचाप लेटे रहने को कहा और बाम लगाने लगा. वह मेरी ओर विचित्र नजरों से देख रही थी और पता नहीं उसे क्या सूझा, मुझे खींच कर सीने से लगा लिया. हम कुछ पल ऐसे ही रहे थे, फिर मैं ने उस के गाल पर एक चुंबन जड़ दिया. इस पर वह मुझे दूर हटाते हुए बोली, ‘‘मैं ने इस की अनुमति नहीं दी थी.’’

मैं भी बोला ‘‘मैं ने भी तुम्हें सीने से लगने की इजाजत नहीं दी थी.’’

इस बार हम दोनों ही एकसाथ हंस पड़े थे. अगले दिन हम दुबई मौल, अटलांटिस और बुर्ज खलीफा घूमने गए. ये सभी अत्यंत सुंदर व बेमिसाल लगे थे. इसी दिन शाम की फ्लाइट से दोनों हैदराबाद लौट आए हैं. फ्लाइट में उस ने बताया कि पिछले 3 दिन उस की जिंदगी के सब से हसीं दिन रहे हैं. मेरी मां आने वाली हैं, हो सकता है मुझे कोई ब्रेकिंग न्यूज सुनाएं.

इधर 2 दिनों से शोभना नहीं दिखी पर फोन पर बातें हो रही थीं. मन बेचैन हो रहा है उस से मिलने को. शायद उस से प्यार करने लगा था. मैं ने उसे फोन कर मिलने को कहा तो वह बोली कि उस की मां आई हुई हैं. उन्होंने मुझे शाम को घर पर बुलाया है. इस के पहले हम कभी एकदूसरे के घर नहीं गए थे. शाम को शोभना के घर गया तो पहले तो मां से परिचय कराया और उन से मेरी तारीफ करने लगी.

वह चाय और स्नैक्स ले कर आई तो तीनों साथ बैठे थे. मां ने मेरा पूरा नाम और परिवार के बारे में पूछा तो मैं ने कहा कि मेरा नाम अमित रजक है और मेरे मातापिता नहीं हैं. उन्होंने अपना नाम मनोरमा पांडे बताया और कहा कि शोभना के पिता तो बचपन में ही गुजर गए थे. उन्होंने अकेले ही बेटी का पालनपोषण किया है. फिर अचानक पूछ बैठीं, ‘‘तुम्हारे पूर्वज क्या धोबी का काम करते थे?’’

उन का यह प्रश्न तो मुझे बेतुका लगा ही था, मैं ने शोभना की ओर देखा तो वह भी नाराज दिखी थी. खैर, मैं ने कहा, ‘‘आंटी, जहां तक मुझे याद है मेरे दादा तक ने तो ऐसा काम नहीं किया है. दादाजी और पिताजी दोनों ही सरकारी दफ्तर में चपरासी थे और मेरे लिए इस में शर्म की कोई बात नहीं है. और आंटी…’’

शोभना ने मेरी बात बीच में काटते हुए मां से कहा, ‘‘हम ब्राह्मण हैं तो हमारे भी दादापरदादा जजमानों के यहां सत्यानारायण पूजा बांचते होंगे न, मां?  और मैं तो ब्राह्मण हो कर भी मांसाहारी हूं?’’

मैं मां को नमस्कार कर वहां से चल पड़ा. शोभना नीचे तक छोड़ने आई थी. उस ने मुझ से मां के व्यवहार के लिए माफी मांगी. मैं अपने फ्लैट में वापस आ गया था.

दूसरे दिन शोभना ने फोन कर शाम को हुसैन सागर लेक पर मिलने को कहा. हुसैन सागर हैदराबाद की आनबानशान है. वहां शाम को अच्छी रौनक और चहलपहल रहती है. एक तरफ एक लाइन से खेलकूद, बोटिंग का इंतजाम है तो दूसरी ओर खानेपीने के स्टौल्स. और इस बड़ी लेक के बीच में गौतम बुद्घ की विशाल मूर्ति खड़ी है.

शोभना इस बार भी पहले पहुंच गई थी. हम दोनों भीड़ से थोड़ा अलग लेक के किनारे जा बैठे थे. शोभना ने कहा कि उसे मां से ऐसे व्यवहार की आशा नहीं थी.

मैं ने जब पूछा कि मां को जातपात की बात क्यों सूझी, तो उस ने कहा, ‘‘अमित, सच कहूं तो मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं. मैं ने मां को बता दिया है कि मैं तुम से शादी करना चाहती हूं. पर दुख की बात यह है कि सिर्फ जातपात के अंधविश्वास के चलते उन्हें यह स्वीकार नहीं है. मैं तो तुम्हारा पूरा नाम तुम्हारे गले में लटके आईडी पर बारबार पढ़ चुकी हूं.’’

इतना कह उस ने मेरा हाथ पकड़ कर रोते हुए कहा, ‘‘मैं दोराहे पर खड़ी हूं, तुम्हें चुनूं या मां को. मां ने साफ कहा है कि किसी एक को चुनो. बचपन में ही पिताजी की मौत के बाद मां ने अकेले दम पर मुझे पालपोस कर बड़ा किया, पढ़ायालिखाया. अब बुढ़ापे में उन्हें अकेले भी नहीं छोड़ सकती. तुम ही कुछ सुझाव दो.’’

मैं ने कहा, ‘‘शोभना, प्यार तो मैं भी तुम से करता हूं, यह अलग बात है कि मैं पहल नहीं कर सका. तुम्हें मां का साथ देना चाहिए. हर प्यार की मंजिल शादी पर आ कर खत्म हो, यह जरूरी नहीं. जिंदगी में प्यार से भी जरूरी कई काम हैं. तुम निसंकोच मां के साथ रहो. तुम भरोसा करो मुझ पर, मुझे इस बात का कोई दुख न होगा.’’

‘‘जितना प्यार और सुकून थोड़ी देर के लिए ही सही, दुबई में मुझे तुम से मिला है उस की बराबरी आजीवन कोई न कर सकेगा.’’

इतना कह वह मेरे सीने से लग कर रोने लगी और बोली, ‘‘बस, आखिरी बार सीने से लगा रही हूं अपने पहले प्यार को.’’

मैं ने उसे समझाया और अलग करते

हुए कहा, ‘‘बस, इतना समझ लेना हमारा प्यार उसी रैड सिगनल पर रुका रहा. उसे ग्रीन सिगनल नहीं मिला.’’ और दोनों जुदा हो गए.

Hindi Story : मेरी डोर कोई खींचे

Hindi Story :  ट्रक से सामान उतरवातेउतरवाते रचना थक कर चूर हो गई थी. यों तो यह पैकर्स वालों की जिम्मेदारी थी, फिर भी अपने जीवनभर की बसीबसाई गृहस्थी को यों एक ट्रक में समाते देखना और फिर भागते हुए ट्रक में उस का हिचकोले लेना, यह सब झेलना भी कोईर् कम धैर्य का काम नहीं था. उस का मन तब तक ट्रक में ही अटका रहा था जब तक वह सहीसलामत अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच गया था. खैर, रचना के लिए यह कोई नया तजरबा नहीं था. तबादले का दंश तो वह अपने पिता के साथ बचपन से ही झेलती आ रही थी. हां, इसे दंश कहना ही उचित होगा क्योंकि इस की तकलीफ तो वही जानता है जो इसे भुगतता है. रचना को यह बिलकुल पसंद नहीं था क्योंकि स्थानांतरण से होने वाले दुष्परिणामों से वह भलीभांति परिचित थी.

बाकी सब बातों की परवा न कर के जिस बात से रचना सब से ज्यादा विचलित रहती थी वह यही थी कि पुराने साथी एकाएक छूट जाते हैं, सभी दोस्त, साथी गलीमहल्लों के रिश्ते पलक झपकते ही पराए हो जाते हैं और हम खानाबदोशों की तरह अपना तंबू दूसरे शहर में तानने को मजबूर हो जाते हैं. अजनबी शहर, उस के तौरतरीके अपनाने में काफी दिक्कत आती है. नए शहर में कोई परिचित चेहरा नजर नहीं आता. वह दुखसुख की बात करे तो किस से? घर जाए तो किस के और अपने घर बुलाए तो भी किसे? नया शहर, नया घर उसे काटने को दौड़ता था.

सौरभ यानी रचना के पति को इस से विशेष फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि उन को तो आते ही ड्यूटी जौइन करनी होती थी और वे व्यस्त हो जाते थे. यही हाल बेटे पर्व और बेटी पूजा का था. वे भी अपने नए स्कूल व नई कौपीकिताबों में खो जाते थे. रह जाती थी तो रचना घर में बिलकुल अकेली, अपने अकेलेपन से जूझती.

यह तो भला हो नई तकनीक का, जिस ने अकेलेपन को दूर करने के कई साधन निकाल रखे हैं. रचना उठतेबैठते फेसबुक व व्हाट्सऐप के जन्मदाताओं का आभार व्यक्त करना नहीं भूलती थी. उस की नजर में लोगों से जुड़ने के ये साधन अकेलापन तो काटते ही हैं, साथसाथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी प्रदान करते हैं, खासकर स्त्रियों को. घर की चारदीवारी में रह कर भी वह अपने मन की बात इन के जरिए कर सकती है.

दिनचर्या से निवृत्त होने के बाद रोज की तरह रचना अपना स्मार्टफोन ले कर बैठ गई. उस में एक फ्रैंडरिक्वैस्ट थी, नाम पढ़ते ही वह चौंक गई-नीरज सक्सेना. उस ने बड़ी उत्सुकता से उस की प्रोफाइल खोली तो खुशी व आश्चर्य से झूम उठी. ‘अरे, यह तो वही नीरज है जो मेरे साथ पढ़ता था,’ उस के मुंह से निकला. पापा का अचानक से ट्रांसफर हो जाने के कारण वह किसी को अपना पता नहीं दे पाई थी और नतीजा यह था कि फेयरवैल पार्टी के बाद आज तक किसी पुराने सहपाठी से नहीं मिल पाई थी.

उस के अंतर्मन का एक कोना अभी भी खाली था जिस में वह सिर्फ और सिर्फ अपनी पुरानी यादों को समेट कर रखना चाहती थी और आज नीरज की ओर से भेजी गई फ्रैंडरिक्वैस्ट दिल के उसी कोने में उतर गई थी. उस ने फ्रैंडरिक्वैस्ट स्वीकार कर ली.

फिर तो बातों का सिलसिला चल निकला और जब भी मौका मिलता, दोनों पुराने दिनों की बातों में डूब जाया करते थे. बातों ही बातों में उसे पता चला कि नीरज भी इसी शहर में रहता है और यहीं आसपास रहता है.

रचना ने सौरभ को भी यह बात बताई तो सौरभ ने कहा, ‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है, तुम सदा शिकायत करती थी कि आप के तो इतने पुराने दोस्त हैं, मेरा कोई नहीं, अब तो खुश हो न? किसी दिन घर बुलाओ उन्हें.’’

एक दिन रचना ने नीरज को घर आने का न्योता दिया. इस के बाद बातों के साथसाथ मिलनेजुलने का सिलसिला भी शुरू हो गया. नीरज को जब भी फुरसत मिलती, वह रचना से बात कर लेता और घर भी आ जाता था.

नीरज अकसर अकेला ही आता था, तो एक दिन सौरभ बोले, ‘‘भई, क्या बात है, आप एक बार भी भाभीजी व बच्चों को नहीं लाए. उन को भी लाया कीजिए.’’

यह सुन कर नीरज बोला, ‘‘अवश्य लाता, यदि वे होते तो?’’

क्या मतलब, तुम ने अभी तक शादी नहीं की, सौरभ ने चुटकी काटी जबकि  रचना सौरभ को बता चुकी थी कि वह शादीशुदा है और एक बेटे का बाप भी है.

सौरभ की बात सुन कर नीरज झेंप कर बोला, ‘‘मेरा कहने का मतलब था- यदि वे यहां होते. प्रिय व संदीप अभी यहां शिफ्ट नहीं हुए हैं, स्कूल में ऐडमिशन की दिक्कत की वजह से ऐसा करना पड़ा.’’

‘‘ठीक कह रहे हो तुम, बड़े शहरों में किसी अच्छे स्कूल में ऐडमिशन करवाना भी कम टेढ़ी खीर नहीं है. हम ने भी बहुत पापड़ बेले हैं बच्चों के ऐडमिशन के लिए.’’

अब सौरभ और नीरज में भी दोस्ती हो गई थी और स्थिति यह थी कि कई बार नीरज बिना न्योते के भी खाने के समय आ जाता था. नीरज के घर में आने से रचना बहुत खुश रहती थी और बहुत ही मानमनुहार से उस की खातिरदारी भी करती थी.

एक बार खाने के समय जब नीरज के बारबार मना करने पर भी रचना ने एक चपाती परोस दी तो सौरभ से रहा नहीं गया और वे बोले, ‘‘खा लो भैया, इतनी खुशामद तो ये मेरी भी नहीं करती.’’

बात साधारण थी पर रचना को यह चेतावनी सी प्रतीत हुई. पतिपत्नी के नाजुक रिश्ते में कभीकभी ऐसी छोटीछोटी बातें भी नासूर बन जाती हैं, इस का एहसास था उसे. उस दिन के बाद से वह हर वक्त यह खयाल भी रखती कि उस के किसी भी व्यवहार के लिए सौरभ को टोकना न पड़े क्योंकि रिश्तों में पड़ी गांठ सुलझाने में हम अकसर खुद ही उलझ जाते हैं.

एक शाम जब सौरभ औफिस से आए तो बोले, ‘‘आई एम सौरी, रचना, मुझे कंपनी की ओर से 15 दिनों के टूर पर अमेरिका जाना पड़ेगा. मेरा मन तो नहीं है कि मैं तुम्हें इस नए शहर में इस तरह अकेले छोड़ कर जाऊं पर क्या करूं, बहुत जरूरी है, जाना ही पड़ेगा.’’

यह सुन कर रचना को उदासी व चिंता की परछाइयों ने घेर लिया. वह धम्म से पलंग पर बैठ गई और रोंआसा हो कर बोली, ‘‘अभी तो मैं यहां ठीक तरह से सैटल भी नहीं हुई हूं. आप तो जानते ही हैं कि आसपड़ोस वाले सब अपने हाल में मस्त रहते हैं. किसी को किसी की परवा नहीं है यहां. ऐसे में 15 दिन अकेली कैसे रह पाऊंगी.’’

‘‘ओह, डोंट वरी, आई नो यू विल मैनेज इट. मुझे तुम पर पूरा भरोसा है.’’

और फिर दूसरे दिन ही सौरभ अमेरिका चले गए और रचना अकेली रह गई. यों तो रचना घर में रोज अकेली ही रहती थी पर इस उम्मीद के साथ कि शाम को सौरभ आएंगे. आज वह उम्मीद नहीं थी, इसलिए घर में उस सूनेपन का एहसास अधिक हो रहा था.

खैर, वक्त तो काटना ही था. बच्चों के साथ व्यस्त रह कर, कुछ घरेलू कामकाज निबटा कर रचना अपना जी लगाए रखती. पर बच्चे भी पापा के बिना बड़े अनमने हो रहे थे. नन्हीं पूजा ने तो शायद इसे दिल से ही लगा लिया था. सौरभ के जाने के बाद उस का खानापीना काफी कम हो गया था. वह रोज पूछती, ‘पापा कब आएंगे?’ और रचना चाह कर भी उसे खुश नहीं रख पाती थी.

एक शाम पूजा को बुखार आ गया. बुखार मामूली था, इसलिए रचना ने घर पर रखी बुखार की दवा दे दी. फिर समझाबुझा कर कुछ खिला कर सुला दिया. आधी रात को पूजा के कसमसाने से रचना की नींद खुली तो उस ने देखा, पूजा का बदन बुखार से तप रहा था. रचना झट से थर्मामीटर ले आई. बुखार 104 डिगरी था. रचना के होशोहवास उड़ गए. इतना तेज बुखार, वह रोने लगी पर फिर हौसला कर के उस ने सौरभ को फोन मिलाया.

संयोग से सौरभ ने फोन तुरंत रिसीव किया. रचना ने रोतेरोते सौरभ को सारी बात बताई.

सौरभ ने कहा, ‘‘घबराओ मत, पूजा को तुरंत डाक्टर के पास ले कर जाओ.’’

रचना ने कहा, ‘‘आप जानते हैं न, यहां रात के 12 बज रहे हैं. गाड़ी खराब है. एकमात्र पड़ोसी बाहर गए हैं. मैं और किसी को जानती भी तो नहीं इस शहर में.’’

‘‘नीरज, हां, नीरज है न, उसे कौल करो. वह तुम्हारी जरूर मदद करेगा.’’

‘‘पर सौरभ, इतनी रात, मैं अकेली, क्या नीरज को बुलाना ठीक रहेगा?’’

‘‘इस में ठीकगलत क्या है? पूजा बीमार है. उसे डाक्टर को दिखाना जरूरी है. बस, इस समय यही सोचना जरूरी है.’’

‘‘पर फिर भी…’’

‘‘तुम किस असमंजस में पड़ गईं? अरे, नीरज अच्छा इंसान है. 2-4 मुलाकातों में ही मैं उसे जान गया हूं. तुम उसे कौल करो, मुझे किसी की परवा नहीं. तुम इसे मेरी सलाह मानो या आदेश.’’

‘‘ठीक है, मैं कौल करती हूं.’’ रचना ने कह तो दिया पर सोच में पड़ गई. रात को 12 बजे नीरज को कौल कर के बुलाना उसे बड़ा अटपटा लग रहा था. वह सोचती रही, और कुछ देर यों ही बुत बन कर बैठी रही.

पर कौल करना जरूरी था, वह यह भी जानती थी. सो, उस ने फोन हाथ में लिया और नंबर डायल किया. घंटी गई और किसी ने उसे काट दिया. आवाज आई, ‘यह नंबर अभी व्यस्त है…’ उस ने फिर डायल किया. फिर वही आवाज आई.

अब क्या करूं, वह तो फोन ही रिसीव नहीं कर रहा. चलो, एक बार और कोशिश करती हूं, यह सोच कर वह रिडायल कर ही रही थी कि कौलबैल बजी.

इतनी रात, कौन हो सकता है? रचना यह सोच कर घबरा गई, ‘तभी उस के लैंडलाइन फोन की घंटी बजी. उस ने डरतेडरते फोन रिसीव किया.

‘‘हैलो रचना, मैं नीरज, दरवाजा खोलो, मैं बाहर खड़ा हूं.’’

रचना को बड़ा आश्चर्य हुआ. नीरज ने तो मेरा फोन रिसीव ही नहीं किया. फिर यह यहां कैसे आया. पर उस ने दरवाजा खोल दिया.

‘‘कहां है पूजा?’’ नीरज ने अंदर आते ही पूछा. स्तंभित सी रचना ने पूजा के कमरे की ओर इशारा कर दिया.

नीरज ने पूजा को गोद में उठाया और बोला, ‘‘घर को लौक करो. हम पूजा को डाक्टर के पास ले चलते हैं. ज्यादा देर करना ठीक नहीं है.’’

गाड़ी चलातेचलाते नीरज ने कहा, ‘‘यह तो अच्छा हुआ कि आज मैं ने सौरभजी का कौल रिसीव कर लिया वरना रात को तो मैं घोड़े बेच कर सोता हूं और कई बार तो फोन भी स्विच औफ कर देता हूं.’’

अब रहस्य पर से परदा उठ चुका था यानी कि उस के कौल से पहले ही सौरभ का कौल पहुंच चुका था नीरज के पास.

पूजा को डाक्टर को दिखा कर, आवश्यक दवाइयां ले कर रचना ने नीरज को धन्यवाद कह कर विदा कर दिया और फिर सौरभ को फोन लगाया.

इस से पहले कि सौरभ कुछ बोलता, रचना बोली, ‘‘धन्यवाद, हमारा इतना ध्यान रखने के लिए और मुझ पर इतना विश्वास करने के लिए. इतना विश्वास तो शायद मुझे भी खुद पर नहीं है, तभी तो मुझे नीरज को फोन करने के लिए इतना सोचना पड़ा.’’

सौरभ बोले, ‘‘मुझे धन्यवाद कैसा? यह तो आदानप्रदान है. तुम भी तो मुझे परदेश में इसी विश्वास के साथ आने देती हो कि मैं लौट कर तुम्हारे पास अवश्य आऊंगा. तो क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता. यह विश्वास नहीं, प्यार है.’’

Best Hindi Story : विश्वासघात – क्यों लोग करते हैं बुढ़ापे में इमोशन के साथ खिलवाड़

Best Hindi Story :  ‘‘आंटी, आप पिक्चर चलेंगी?’’ अंदर आते हुए शेफाली ने पूछा.

‘‘पिक्चर…’’

‘‘हां आंटी, नावल्टी में ‘परिणीता’ लगी है.’’

‘‘न बेटा, तुम दोनों ही देख आओ. तुम दोनों के साथ मैं बूढ़ी कहां जाऊंगी,’’ कहते हुए अचानक नमिता की आंखों में वह दिन तिर आया जब विशाल के मना करने के बावजूद बहू ईशा और बेटे विभव को पिक्चर जाते देख वह भी उन के साथ पिक्चर जाने की जिद कर बैठी थीं.

उन की पेशकश सुन कर बहू तो कुछ नहीं बोली पर बेटा बोला, ‘मां, तुम कहां जाओगी, हमारे साथ मेरे एक दोस्त की फैमिली भी जा रही है…वहां से हम सब खाना खा कर लौटेंगे.’

विभव के मना करने पर वह तिलमिला उठी थीं पर विशाल के डर से कुछ कह नहीं पाईं क्योंकि उन्हें व्यर्थ की तकरार बिलकुल भी पसंद नहीं थी. बच्चों के जाने के बाद अपने मन का क्रोध विशाल पर उगला तो वह शांत स्वर में बोले, ‘नमिता, गलती तुम्हारी है, अब बच्चे बडे़ हो गए हैं, उन की अपनी जिंदगी है फिर तुम क्यों बेवजह छोटे बच्चों की तरह उन की जिंदगी में हमेशा दखलंदाजी करती रहती हो. तुम्हें पिक्चर देखनी ही है तो हम दोनों किसी और दिन जा कर देख आएंगे.’

विशाल की बात सुन कर वह चुप हो गई थीं…पर दोस्त के लिए बेटे द्वारा नकारे जाने का दंश बारबार चुभ कर उन्हें पीड़ा पहुंचा रहा था. फिर लगा कि विशाल सच ही कह रहे हैं…कल तक उंगली पकड़ कर चलने वाले बच्चे अब सचमुच बडे़ हो गए हैं और उस में बच्चों जैसी जिद पता नहीं क्यों आती जा रही है. उस की सास अकसर कहा करती थीं कि बच्चेबूढे़ एक समान होते हैं लेकिन तब वह इस उक्ति का मजाक बनाया करती थी पर अब वह स्वयं भी जानेअनजाने उन्हीं की तरह बरताव करने लगी है.

यह वही विभव था जिसे बचपन में अगर कुछ खरीदना होता या पिक्चर जाना होता तो खुद पापा से कहने के बजाय उन से सिफारिश करवाता था. सच, समय के साथ सब कितना बदलता जाता है…अब तो उसे उन का साथ भी अच्छा नहीं लगता है क्योंकि अब वह उस की नजरों में ओल्ड फैशन हो गई हैं, जिसे आज के जमाने के तौरतरीके नहीं आते, जबकि वह अपने समय में पार्टियों की जान हुआ करती थीं. लोग उन की जिंदादिली के कायल थे.

‘‘आंटी किस सोच में डूब गईं… प्लीज, चलिए न, ‘परिणीता’ शरतचंद्र के उपन्यास पर आधारित अच्छी मूवी है…आप को अवश्य पसंद आएगी,’’ आग्रह करते हुए शेफाली ने कहा.

शेफाली की आवाज सुन कर नमिता अतीत से वर्तमान में लौट आईं. शरतचंद्र उन के प्रिय लेखक थे. उन्होंने अशोक कुमार और मीना कुमारी की पुरानी ‘परिणीता’ भी देखी थी, उपन्यास भी पढ़ा था फिर भी शेफाली के आग्रह पर पुन: उस पिक्चर को देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाईं तथा उस का आग्रह स्वीकार कर लिया. उन की सहमति पा कर शेफाली उन्हें तैयार होने का निर्देश देती हुई स्वयं भी तैयार होने चली गई.

विशाल अपने एक नजदीकी मित्र के बेटे के विवाह में गए थे. जाना तो वह भी चाहती थी पर उसी समय यहां पर उन की सहेली की बेटी का विवाह पड़ गया अत: विशाल ने कहा कि मैं वहां हो कर आता हूं, तुम यहां सम्मिलित हो जाओ. कम से कम किसी को शिकायत का मौका तो न मिले. वैसे भी उन्होंने हमारे सभी बच्चों के विवाह में आ कर हमारा मान बढ़ाया था, इसीलिए दोनों जगह जाना जरूरी था.

विशाल के न होने के कारण वह अकेली बोर होतीं या व्यर्थ के धारावाहिकों में दिमाग खपातीं, पर अब इस उम्र में समय काटने के लिए इनसान करे भी तो क्या करे…न चाहते हुए टेलीविजन देखना एक मजबूरी सी बन गई है या कहिए मनोरंजन का एक सस्ता और सुलभ साधन यही रह गया है. ऐसी मनोस्थिति में जी रही नमिता के लिए शेफाली का आग्रह सुकून दे गया तथा थोडे़ इनकार के बाद स्वीकर कर ही लिया.

वैसे भी उन की जिंदगी ठहर सी गई थी. 4 बच्चों के रहते वे एकाकी जिंदगी जी रहे हैं…एक बेटा शैलेष और बेटी निशा विदेश में हैं तथा 2 बच्चे विभव और कविता यहां मुंबई और दिल्ली में हैं. 2 बार वे विदेश जा कर शैलेष और निशा के पास रह भी आए थे लेकिन वहां की भागदौड़ वाली जिंदगी उन्हें रास नहीं आई थी. विदेश की बात तो छोडि़ए, अब तो मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों का भी यही हाल है. वहां भी पूरे दिन अकेले रहना पड़ता था. आजकल तो जब तक पतिपत्नी दोनों न कमाएं तब तक किसी का काम ही नहीं चलता…भले ही बच्चों को आया के भरोसे या क्रेच में छोड़ना पडे़.

एक उन का समय था जब बच्चों के लिए मांबाप अपना पूरा जीवन ही अर्पित कर देते थे…पर आजकल तो युवाओं के लिए अपना कैरियर ही मुख्य है…मातापिता की बात तो छोडि़ए कभीकभी तो उन्हें लगता है आज की पीढ़ी को अपने बच्चों की परवा भी नहीं है…पैसों से वे उन्हें सारी दुनिया खरीद कर तो देना चाहते हैं पर उन के पास बैठ कर, प्यार के दो मीठे बोल के लिए समय नहीं है.

बच्चों के पास मन नहीं लगा तो वे लौट कर अपने घर चले आए. विशाल ने इस घर को बनवाने के लिए जब लोन लिया था तब नमिता ने यह कह कर विरोध किया था कि क्यों पैसा बरबाद कर रहे हो, बुढ़ापे में अकेले थोडे़ ही रहेंगे, 4 बच्चे हैं, वे भी हमें अकेले थोडे़ ही रहने देंगे पर पिछले 4 साल इधरउधर भटक कर आखिर उन्होंने अकेले रहने का फैसला कर ही लिया. कभी बेमन से बनवाया गया घर अचानक बहुत अच्छा लगने लगा था.

अकेलेपन की विभीषिका से बचने के लिए अभी 3 महीने पहले ही उन्होंने घर का एक हिस्सा किराए पर दे दिया था…शशांक और शेफाली अच्छे सुसंस्कृत लगे, उन का एक छोटा बच्चा था…इस शहर में नएनए आये थे, शशांक एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था. उन्हें घर की जरूरत थी और विशाल और नमिता को अच्छे पड़ोसी की, अत: रख लिया.

अभी उन्हें आए हुए हफ्ता भर भी नहीं हुआ था कि एक दिन शेफाली आ कर उन से कहने लगी कि ‘आंटी, अगर आप को कोई तकलीफ न हो तो बब्बू को आप के पास छोड़ जाऊं, कुछ जरूरी काम से जाना है, जल्दी ही आ जाएंगे.’

उस का आग्रह देख कर पता नहीं क्यों वह मना नहीं कर पाईं…उस बच्चे के साथ 2 घंटे कैसे बीत गए पता ही नहीं चला. इस बीच न तो वह रोया न ही उस ने विशेष परेशान किया. नमिता ने उस के सामने अपने पोते के छोडे़ हुए खिलौने डाल दिए थे, उन से ही बस खेलता रहा. उस के साथ खेलते और बातें करते हुए उन्हेें अपने पोते विक्की की याद आ गई. वह भी लगभग इसी उम्र का था…उस बच्चे में वह अपने पोते को ढूंढ़ने लगीं.

उस दिन के बाद तो नित्य का क्रम बन गया, जिस दिन वह नहीं आता, नमिता आवाज दे कर उसे बुला लेतीं…बच्चा उन्हें दादी कहता तो उन का मन भावविभोर हो उठता था.

धीरेधीरे शेफाली भी उन के साथ सहज होने लगी थी. कभी कोई अच्छी सब्जी बनाती तो आग्रहपूर्वक दे जाती. उन्हें अपने पैरों में दवा या तेल मलते देखती तो खुद लगा देती, कभीकभी उन के सिर की मालिश भी कर दिया करती थी…कभीकभी तो उन्हें लगता, इतना स्नेह तो उन्हें अपने बहूबेटों से भी नहीं मिला, कभी वे उन के नजदीक आए भी तो सिर्फ इतना जानने के लिए कि उन के पास कितना पैसा है तथा कितना उन्हें हिस्सा मिलेगा.

शशांक भी आफिस जाते समय उन का हालचाल पूछ कर जाता…बिजली, पानी और टेलीफोन का बिल वही जमा करा दिया करता था. यहां तक कि बाजार जाते हुए भी अकसर उन से पूछने आता कि उन्हें कुछ मंगाना तो नहीं है.

उन के रहने से उन की काफी समस्याएं हल हो गई थीं. कभीकभी नमिता को लगता कि अपने बच्चों का सुख तो उन्हें मिला नहीं चलो, दूसरे की औलाद जो सुख दे रही है उसी से झोली भर लो.

विशाल ने उन्हें कई बार चेताया कि किसी पर इतना विश्वास करना ठीक नहीं है पर वह उन को यह कह कर चुप करा देतीं कि आदमी की पहचान उसे भी है. ये संभ्रांत और सुशील हैं. अच्छे परिवार से हैं, अच्छे संस्कार मिले हैं वरना आज के समय में कोई किसी का इतना ध्यान नहीं रखता.

‘‘आंटीजी, आप तैयार हो गईं…ये आटो ले आए हैं,’’ शेफाली की आवाज आई.

शेफाली की आवाज ने नमिता को एक बार फिर विचारों के बवंडर से बाहर निकाला.

‘‘हां, बेटी, बस अभी आई,’’ कहते हुए पर्स में कुछ रुपए यह सोच कर रखे कि मैं बड़ी हूं, आखिर मेरे होते हुए पिक्चर के पैसे वे दें, उचित नहीं लगेगा.

जबरदस्ती पिक्चर के पैसे उन्हें पकड़ाए. पिक्चर अच्छी लग रही थी…कहानी के पात्रों में वह इतना डूब गईं कि समय का पता ही नहीं चला. इंटरवल होने पर उन की ध्यानावस्था भंग हुई. शशांक उठ कर बाहर गया तथा थोड़ी ही देर में पापकार्न तथा कोक ले कर आ गया, शेफाली और उसे पकड़ाते हुए यह कह कर चला गया कि कुछ पैसे बाकी हैं, ले कर आता हूं.

पिक्चर शुरू भी नहीं हो पाई थी कि बच्चा रोने लगा.

‘‘आंटी, मैं अभी आती हूं,’’ कह कर शेफाली भी चली गई…आधा घंटा हुआ, 1 घंटा हुआ पर दोनों में से किसी को भी न लौटते देख कर मन आशंकित होने लगा. थोड़ीथोड़ी देर बाद मुड़ कर देखतीं पर फिर यह सोच कर रह जातीं कि शायद बच्चा चुप न हो रहा हो, इसलिए वे दोनों बाहर ही होंगे.

यही सोच कर नमिता ने पिक्चर में मन लगाने का प्रयत्न किया…अनचाहे विचारों को झटक कर वह फिर पात्रों में खो गईं….अंत सुखद था पर फिर भी आंखें भर आईं….आंखें पोंछ कर इधरउधर देखने लगीं….इस समय भी शशांक और शेफाली को न पा कर वह सहम उठीं.

बहुत दिनों से नमिता अकेले घर से निकली नहीं थीं अत: और भी डर लग रहा था. समझ में नहीं आ रहा था कि वे उन्हें अकेली छोड़ कर कहां गायब हो गए, बच्चा चुप नहीं हो रहा था तो कम से कम एक को तो अब तक उस के पास आ जाना चाहिए…धीरेधीरे हाल खाली होने लगा पर उन दोनों का कोई पता नहीं था.

घबराए मन से वह अकेली ही चल पड़ीं. हाल से बाहर आ कर अपरिचित चेहरों में उन्हें ढूंढ़ने लगीं. धीरेधीरे सब जाने लगे. वह एक ओर खड़ी हो कर सोचने लगीं, अब क्या करूं, उन का इंतजार करूं या आटो कर के चली जाऊं.

‘‘अम्मां, यहां किस का इंतजार कर रही हो?’’ उन को अकेली खड़ी देख कर वाचमैन ने उन से पूछा.

‘‘बेटा, जिन के साथ आई थी, वह नहीं मिल रहे हैं.’’

‘‘आप के बेटाबहू थे?’’

‘‘हां,’’ कुछ और कह कर वह बात का बतंगड़ नहीं बनाना चाहती थीं.

‘‘आजकल सब ऐसे ही होते हैं, बूढे़ मातापिता की तो किसी को चिंता ही नहीं रहती,’’ वह बुदबुदा उठा था.

वह शर्म से पानीपानी हो रही थीं पर और कोई चारा न देख कर तथा उस की सहानुभूति पा कर हिम्मत बटोर कर बोलीं, ‘‘बेटा, एक एहसान करोगे?’’

‘‘कहिए, मांजी.’’

‘‘मुझे एक आटोरिकशा में बिठा दो.’’

उस ने नमिता का हाथ पकड़ कर सड़क पार करवाई और आटो में बिठा दिया. घर पहुंच कर आटो से उतर कर जैसे ही उन्होंने दरवाजे पर लगे ताले को खोलने के लिए हाथ बढ़ाया तो खुला ताला देख कर हैरानी हुई…हड़बड़ा कर अंदर घुसीं तो देखा अलमारी खुली पड़ी है तथा सारा सामान जहांतहां बिखरा पड़ा है. लाखों के गहने और कैश गायब था…मन कर रहा था कि खूब जोरजोर से रोएं पर रो कर भी क्या करतीं.

नमिता को शुरू से ही गहनों का शौक था. जब भी पैसा बचता उस से वह गहने खरीद लातीं…विशाल कभी उन के इस शौक पर हंसते तो कहतीं, ‘मैं पैसा व्यर्थ नहीं गंवा रही हूं…कुछ ठोस चीज ही खरीद रही हूं, वक्त पर काम आएगा,’ पर वक्त पर काम आने के बजाय वह तो कोई और ही ले भागा.’

किटी के मिले 20 हजार रुपए उस ने अलग से रख रखे थे. घर में कुछ काम करवाया था, कुछ होना बाकी था, उस के लिए विशाल ने 40 हजार रुपए बैंक से निकलवाए थे पर निश्चित तिथि पर लेने ठेकेदार नहीं आया सो वह पैसे भी अंदर की अलमारी में रख छोडे़ थे…सब एक झटके में चला गया.

जहां कुछ देर पहले तक वह शशांक और शेफाली को ले कर परेशान थीं वहीं अब इस नई मुसीबत के कारण समझ नहीं पा रही थीं कि क्या करें, पर फिर यह सोच कर कि शायद बच्चे के कारण शशांक और शेफाली अधूरी पिक्चर छोड़ कर घर न आ गए हों, उन्हें आवाज लगाई. कोई आवाज न पा कर  वह उस ओर गईं, वहां उन का कोई सामान न पा कर अचकचा गईं…खाली घर पड़ा था…उन का दिया पलंग, एक टेबल और 2 कुरसियां पड़ी थीं.

अब पूरी तसवीर एकदम साफ नजर आ रही थी. कितना शातिर ठग था वह…किसी को शक न हो इसलिए इतनी सफाई से पूरी योजना बनाई…उसे पिक्चर दिखाने ले जाना भी उसी योजना का हिस्सा था, उसे पता था कि विशाल घर पर नहीं हैं, इतनी गरमी में कूलर की आवाज में आसपड़ोस में किसी को कुछ सुनाई नहीं देगा और वह आराम से अपना काम कर लेंगे तथा भागने के लिए भी समय मिल जाएगा.

पिक्चर देखने का आग्रह करना, बीच में उठ कर चले आना…सबकुछ नमिता के सामने चलचित्र की भांति घूम रहा था…कहीं कोई चूक नहीं, शर्मिंदगी या डर नहीं…आश्चर्य तो इस बात का था कि इतने दिन साथ रहने के बावजूद उसे कभी उन पर शक नहीं हुआ.

उन्होंने खुद को संयत कर विशाल को फोन किया और फोन पर बतातेबताते वह रोने लगी थीं. उन्हें रोता देख कर विशाल ने सांत्वना देते हुए पड़ोसी वर्मा के घर जा कर सहायता मांगने को कहा.

वह बदहवास सी बगल में रहने वाली राधा वर्मा के पास गईं. राधा को सारी स्थिति से अवगत कराया तो वह बोलीं, ‘‘कुछ आवाजें तो आ रही थीं पर मुझे लगा शायद आप के घर में कुछ काम हो रहा है, इसलिए ध्यान नहीं दिया.’’

‘‘अब जो हो गया सो हो गया,’’ वर्मा साहब बोले, ‘‘परेशान होने या चिंता करने से कोई फायदा नहीं है. वैसे तो चोरी गया सामान मिलता नहीं है पर कोशिश करने में कोई हर्ज नहीं है. चलिए, एफ.आई.आर. दर्ज करा देते हैं.’’

पुलिस इंस्पेक्टर उन के बयान को सुन कर बोला, ‘‘उस युगल की तलाश तो हमें काफी दिनों से है, कुछ दिन पहले हम ने अखबार में भी निकलवाया था तथा लोगों से सावधान रहने के लिए कहा था पर शायद आप ने इस खबर की ओर ध्यान नहीं दिया…यह युगल कई जगह ऐसी वारदातें कर चुका है…पर किसी का भी बताया हुलिया किसी से मैच नहीं करता. शायद वह विभिन्न जगहों पर, विभिन्न नाम का व्यक्ति बन कर रहता है. क्या आप उस का हुलिया बता सकेंगी…कब से वह आप के साथ रह रहा था?’’

जोजो उन्हें पता था उन्होंने सारी जानकारी दे दी…जिस आफिस में वह काम करता था वहां पता लगाया तो पता चला कि इस नाम का कोई आदमी उन के यहां काम ही नहीं करता…उन की बताई जानकारी के आधार पर बस अड्डे और रेलवे स्टेशन पर भी उन्होंने अपने आदमी भेज दिए. पुलिस ने घर आ कर जांच की पर कहीं कोई सुराग नहीं था…यहां तक कि कहीं उन की उंगलियों के निशान भी नहीं पाए गए.

‘‘लगता है शातिर चोर था,’’ इंस्पेक्टर बोला, ‘‘हम लोग कई बार आप जैसे नागरिकों से निवेदन करते हैं कि नौकर और किराएदार रखते समय पूरी सावधानी बरतें, उस के बारे में पूरी जानकारी रखें, मसलन, वह कहां काम करता है, उस का स्थायी पता, फोटोग्राफ आदि…पर आप लोग तो समझते ही नहीं हैं,’’ इंस्पेक्टर थोड़ा रुका फिर बोला, ‘‘वह आप का किराएदार था, इस का कोई प्रमाण है आप के पास?’’

‘‘किराएदार…इस का तो हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है. आयकर की पेचीदगी से बचने के लिए कोई सेटलमेंट ही नहीं किया था…सच, थोड़ी सी परेशानी से बचने के लिए हम ने स्वयं को अपराधियों के हवाले कर दिया…हां, शुरू में कुछ एडवांस देने के लिए अवश्य कहा था पर जब उन्होंने असमर्थता जताई तो उन की मजबूरी को देख कर मन पिघल गया था. दरअसल, हमें पैसों से अधिक जरूरत सिर्फ अपना सूनापन बांटने या घर की रखवाली के लिए अच्छे व्यक्ति की थी और उन की बातों में कसक टपक रही थी, बच्चों वाला युगल था, सो संदेह की कोई बात ही नजर नहीं आई थी.’’

‘‘यही तो गलती करते हैं आप लोग…कुछ एग्रीमेंट करवाएंगे…तो उस में सबकुछ दर्ज हो जाएगा. अब किसी के चेहरे पर तो लिखा नहीं रहता कि वह शरीफ है या बदमाश…वह तो गनीमत है कि आप सहीसलामत हैं वरना ऐसे लोग अपने मकसद में कामयाब होने के लिए किसी का खून भी करना पडे़ तो पीछे नहीं रहते,’’ उन्हें चुप देख कर इंस्पेक्टर बोला.

दूसरे दिन विशाल भी आ गए…सुमिता को रोते देख कर विशाल बोले, ‘‘जब मैं कहता था कि किसी पर ज्यादा भरोसा नहीं करना चाहिए तब तुम मानती नहीं थीं, उन्हीं के सामने अलमारी खोल कर रुपए निकालना, रखना सब तुम ही तो करती थीं.’’

‘‘मुझे ही क्यों दोष दे रहे हो, आप भी तो बैंक से पैसा निकलवाने के लिए चेक उसी को देते थे,’’ झुंझला कर नमिता ने उत्तर दिया था.

उस घटना को कई दिन बीत गए थे पर उन शातिर चोरों का कोई सुराग नहीं मिला…नमिता कभी सोचतीं तो उन्हें एकाएक विश्वास ही नहीं होता कि वह इतने दिनों तक झूठे और मक्कार लोगों के साथ रह रही थीं…वे ठग थे तभी तो पिछले 2 महीने का किराया यह कह कर नहीं दिया था कि आफिस में कुछ समस्या चल रही है अत: वेतन नहीं मिल रहा है. नमिता ने भी यह सोच कर कुछ नहीं कहा कि लोग अच्छे हैं, पैसा कहां जाएगा. वास्तव में उन का स्वभाव देख कर कभी लगा ही नहीं कि इन का इरादा नेक नहीं है.

इतने सौम्य चेहरों का इतना घिनौना रूप भी हो सकता है, उन्होंने कभी सोचा भी न था. मुंह में राम बगल में छुरी वाला मुहावरा शायद ऐसे लोगों की फितरत देख कर ही किसी ने कहा होगा. आश्चर्य तो इस बात का था कि इतने दिन साथ रहने के बावजूद उन्हें कभी उन पर शक नहीं हुआ.

उन्होंने अखबारों और टेलीविजन में वृद्धों के लुटने और मारे जाने की घटनाएं पढ़ी और सुनी थीं पर उन के साथ भी कभी कुछ ऐसा ही घटित होगा, सोचा भी न था. अपनी आकांक्षा की पूर्ति के लिए किसी हद तक गिर चुके ऐसे लोगों के लिए यह मात्र खेल हो पर किसी की भावनाओं

को कुचलते, तोड़तेमरोड़ते, उन की संवेदनशीलता और सदाशयता का फायदा उठा कर, उन जैसों के वजूद को मिटाते लोगों को जरा भी लज्जा नहीं आती… आखिर हम वृद्ध जाएं तो कहां जाएं? क्या किसी के साथ संबंध बनाना या उस की सहायता करना अनुचित है?

किसी की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते ऐसे लोग यह क्यों नहीं सोचते कि एक दिन बुढ़ापा उन को भी आएगा…वैसे भी उन का यह खेल आखिर चलेगा कब तक? क्या झूठ और मक्कारी से एकत्र की गई दौलत के बल पर वह सुकून से जी पाएंगे…क्या संस्कार दे पाएंगे अपने बच्चों को?

मन में चलता बवंडर नमिता को चैन से रहने नहीं दे रहा था. बारबार एक ही प्रश्न उन के दिल व दिमाग को मथ रहा था…इनसान आखिर भरोसा करे भी तो किस पर..

Kahaniyan : औरत का दर्द

Kahaniyan :  ‘‘मैडम, मेरा क्या कुसूर है जो मैं सजा भुगत रही हूं?’’ रूपा ने मुझ से पूछा. रूपा के पति ने तलाक का केस दायर कर दिया था. उसी का नोटिस ले कर वह मेरे पास केस की पैरवी करवाने आई थी.

उस के पति ने उस पर चरित्रहीनता का आरोप लगाया था. रूपा की मां उस के साथ आई थी. उस ने कहा कि रूपा के ससुराल वालों ने बिना दहेज लिए विवाह किया था. उन्हें सुंदर बहू चाहिए थी.

रूपा नाम के अनुरूप सुंदर थी. जब रूपा छोटी थी तब उस की मां की एक सहेली ने रूपा के गोरे रंग को देख कर शर्त लगाई थी कि यदि तुम्हें इस से गोरा दामाद मिला तो मैं तुम्हें 1 हजार रुपए दूंगी. उस ने जब पांव पखराई के समय रूपेश के गुलाबी पांव देखे तो चुपचाप 1 हजार रुपए का नोट रूपा की मां को पकड़ा दिया.

रूपेश का परिवार संपन्न था. वे ढेर सारे कपड़े और गहने लाए थे. नेग भी बढ़चढ़ कर दिए थे. रूपा के घर से उन्होंने किसी भी तरह का सामान नहीं लिया था. रूपा के मायके वाले इस विवाह की भूरिभूरि प्र्रशंसा कर रहे थे. रूपा की सहेलियां रूपा के भाग्य की सराहना तो कर रही थीं पर अंदर ही अंदर जली जा रही थीं.

हंसीखुशी के वातावरण में रूपा ससुराल चली गई. रूपा अपने सुंदर पति को देखदेख कर उस से बात करने को आकुल हुई जा रही थी, पर रूपेश उस की ओर देख ही नहीं रहा था. ससुराल पहुंच कर ढेर सारे रीतिरिवाजों को निबटातेनिबटाते 2 दिन लग गए. रूपा अपनी सास, ननद व जिठानियों से घिरी रही. उस के खानेपीने का खूब ध्यान रखा गया. फिर सब ने घूमने का कार्यक्रम बनाया. 10-12 दिन इसी में लग गए. इस बीच रूपेश ने भी रूपा से बात करने की कोई उत्सुकता नहीं दिखाई.

घूमफिर कर पूरा काफिला लौट आया. रूपा की सास ने वहीं से रूपा के पिता को फोन कर दिया था कि चौथी की रस्म के अनुसार रूपा को मायके ले जाएं. जैसे ही ये लोग लौटे, रूपा के पिता आ कर रूपा को ले गए. रूपा कोरी की कोरी मायके लौट आई. सास ने उस के पिता को कह दिया था कि वे लोग पुरानी परंपरा में विश्वास रखते हैं, दूसरे ही दिन शुक्र अस्त हो रहा है इसलिए रूपा शुक्रास्त काल में मायके में ही रहेगी.

रूपा 4 माह मायके रही. उस की सास और ननद के लंबेलंबे फोन आते. उन्हीं के साथ रूपेश एकाध बात कर लेता.

4 महीने बाद रूपेश के साथ सासननद आईं और खूब लाड़ जता कर रूपा को बिदा करा कर ले गईं. ननद ने अपना घर छोड़ दिया था और उस का तलाक का केस चल रहा था. वह मायके में ही रहती थी. इस बार रूपेश के कमरे में एक और पलंग लग गया था. डबल बेड पर रूपा अपनी ननद के साथ सोती थी व रूपेश अलग पलंग पर सोता था. रूपेश को उस की मां व बहन अकेला छोड़ती ही नहीं थीं जो रूपा उस से बात कर सके.

1-2 माह तक तो ऐसा ही चला. फिर ननद के दोस्त प्रमोद का घर आनाजाना बढ़ने लगा. धीरेधीरे सासननद ने रूपा को प्रमोद के पास अकेला छोड़ना शुरू कर दिया. रूपेश का तो पहले जैसा ही हाल था.

एक दिन जब रूपा प्रमोद के लिए चाय लाई तो उस ने रूपा का हाथ पकड़ कर अपने पास यह कह कर बिठा लिया, ‘‘अरे, भाभी, देवर का तो भाभी पर अधिकार होता है. मेरे साथ बैठो. जो तुम्हें रूपेश नहीं दे सकता वह मैं तुम्हें दूंगा.’’

रूपा किसी प्रकार हाथ छुड़ा कर भागी और उस ने सास से शिकायत की. सास ने प्रमोद को तो कुछ नहीं कहा, रूपा से ही बोलीं, ‘‘तो इस में हर्ज ही क्या है. देवरभाभी का रिश्ता ही मजाक का होता है.’’

रूपा सन्न रह गई. वह आधुनिक जरूर थी पर उस का परिवार संस्कारी था. और यहां तो संस्कार नाम की कोई चीज ही नहीं थी. प्रमोद की छेड़खानी बढ़ने लगी. उसे सास व ननद का प्रोत्साहन जो था. एक दिन रूपा ने चुपके से पिता को फोन कर दिया. मां की बीमारी का बहाना बना कर वे रूपा को मायके ले आए. रूपा ने रोरो कर अपनी मां जैसी भाभी को सबकुछ बता दिया तो परिवार वालों को संपन्न परिवार के ‘सुदर्शन सुपुत्र’ की नपुंसकता का ज्ञान हुआ. चूंकि यह ऐसी बात थी जिस से दोनों परिवारों की बदनामी थी, इसलिए वे चुप रहे. 1 माह बाद सासननद रूपेश को ले कर रूपा को लेने आईं तो रूपा की मां व भाभी ने उन्हें आड़े हाथों लिया. सास तमतमा कर बोलीं, ‘‘तुम्हारी लड़की का ही चालचलन ठीक नहीं है, हमारे लड़के को दोष देती है.’’

रूपा की मां बोलीं, ‘‘यदि ऐसा ही है तो अपने लड़के की यहीं डाक्टरी जांच करवाओ.’’

इस पर सासननद ने अपना सामान उठाया और गाड़ी में बैठ कर चली गईं. इस बात को लगभग 8-10 माह गुजर गए. रूपा के विवाह को लगभग 2 वर्ष हो चुके थे कि रूपेश की ओर से तलाक का केस दायर कर दिया गया था. रूपा के प्रमोद के साथ संबंधों को आधार बनाया गया था और प्रमोद को भी पक्षकार बनाया था, ताकि प्रमोद रूपा के साथ अपने संबंधों को स्वीकार कर रूपा को बदचलन सिद्घ कर सके.

मेरे लिए रूपा का केस नया नहीं था. इस प्रकार के प्रकरण मैं ने अपने साथी वकीलों से सुने थे और कई मामले सामाजिक संगठनों के माध्यम से सुलझाए भी थे. इस प्रकार के मामलों में 2 ही हल हुआ करते हैं या तो चुपचाप एकपक्षीय तलाक ले लो या विरोध करो. दूसरी स्थिति में औरत को अदालत में विरोधी पक्ष के बेहूदा प्रश्नों को झेलना पड़ता है. मैं ने रूपा से नोटिस ले लिया और उसे दूसरे दिन आने को कहा.

मैं ने प्रत्येक कोण से रूपा के केस पर सोचविचार किया. रूपा का अब ससुराल में रहना संभव नहीं था. वह जाए भी तो कैसे जाए. पति से ही ससुराल होती है और पति का आकर्षण दैहिक सुख होता है. इसी से वह नई लड़की के प्रति आकृष्ट होता है. जब यह आकर्षण ही नहीं तो वह रूपा में क्यों दिलचस्पी दिखाएगा. इसलिए रूपा को तलाक तो दिलवाना है किंतु उस के दुराचरण के आधार पर नहीं. औरत हूं न इसीलिए औरत के दर्द को पहचानती हूं.

सोचविचार कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंची कि अलग से नपुंसकता के आधार पर केस लगाने के बजाय मैं इसी में प्रतिदावा लगा दूं. हिंदू विवाह अधिनियम में इस का प्रावधान भी है. दोनों पक्षकार हिंदू हैं और विवाह भी हिंदू रीतिरिवाजों के अनुसार संपन्न हुआ है.

दूसरे दिन रूपा, उस की मां व भाभी आईं तो मैं ने उन्हें समझा दिया कि हम लोग उन के प्रकरण का विरोध करेंगे. साथ ही उसी प्रकरण में रूपेश की नपुंसकता के आधार पर तलाक लेंगे. इसलिए पहले रूपा की जांच करा कर डाक्टरी प्रमाणपत्र ले लिया जाए.

पूरी तैयारी के साथ मैं ने पेशी के दिन रूपा का प्रतिदावा न्यायालय में प्रस्तुत कर दिया. साथ ही एक आवेदन कैमरा प्रोसिडिंग का भी लगा दिया, जिस में सुनवाई के समय मात्र जज और पक्षकार ही रहें और इस प्रक्रिया का निर्णय कहीं प्रकाशित न हो.

जब प्रतिदावा रूपा की सासननद को मिला तो वे बहुत बौखलाईं. उन्हें अपने लड़के की कमजोरी मालूम थी. प्रमोद को इसीलिए परिचित कराया गया था ताकि रूपा उस से गर्भवती हो जाए तो रूपेश की कमजोरी छिप जाए और परिवार को वारिस मिल जाए.

मैं ने न्यायालय से यह भी आदेश ले लिया कि रूपेश की जांच मेडिकल बोर्ड से कराई जाए. इधरउधर बहुत हाथपैर मारने पर जब रूपा की सासननद थक गईं तो समझौते की बात ले कर मेरे पास आईं. रूपा के पिता भी बदनामी नहीं चाहते थे इसलिए मैं ने विवाह का पूरा खर्च व अदालत का खर्च उन से रूपा को दिलवा कर राजीनामा से तलाक का आवेदन लगवा दिया. विवाह होने से मुकदमा चलने तक लगभग ढाई वर्ष हो गए थे. रूपा को भी मायके आए लगभग डेढ़ वर्ष हो गए थे. इसलिए राजीनामे से तलाक का आवेदन स्वीकार हो गया. दोनों पक्षों की मानमर्यादा भी कायम रही.

इस निर्णय के लगभग 5-6 माह बाद मैं कार्यालय में बैठी थी. तभी रूपा एक सांवले से युवक के साथ आई. उस ने बताया कि वह उस का पति है, स्थानीय कालिज में पढ़ाता है. 2 माह पूर्व उस ने कोर्ट मैरिज की है. उस की मां ने कहा कि हिंदू संस्कार में स्त्री एक बार ही लग्न वेदी के सामने बैठती है इसलिए दोनों परिवारों की सहमति से उन की कोर्ट मैरिज हो गई. रूपा मुझे रात्रि भोज का निमंत्रण देने आई थी.

उस के जाने के बाद मैं सोचने लगी कि यदि मैं ने औरत के दर्द को महसूस कर यह कानूनी रास्ता न अपनाया होता तो बेचारी रूपा की क्या हालत होती. अदालत में दूसरे पक्ष का वकील उस से गंदेगंदे प्रश्न पूछता. वह उत्तर न दे पाती तो रूपेश को उस के दुराचारिणी होने के आधार पर तलाक मिल जाता. फिर उसे जीवन भर के लिए बदनामी की चादर ओढ़नी पड़ती. सासननद की करनी का फल उसे जीवन भर भुगतना पड़ता. जब तक औरत अबला बनी रहेगी उसे दूसरों की करनी का फल भुगतना ही पड़ेगा. समाज में उसे जीना है तो सिर उठा कर जीना होगा.

कहानी- सुधारानी श्रीवास्तव

Hindi Kahaniyan : कलंक

Hindi Kahaniyan : अपनी बेटी गंगा की लाश के पास रधिया पत्थर सी बुत बनी बैठी थी. लोग आते, बैठते और चले जाते. कोई दिलासा दे रहा था तो कोई उलाहना दे रहा था कि पहले ही उस के चालचलन पर नजर रखी होती तो यह दिन तो न देखना पड़ता.

लोगों के यहां झाड़ूबरतन करने वाली रधिया चाहती थी कि गंगा पढ़ेलिखे ताकि उसे अपनी मां की तरह नरक सी जिंदगी न जीनी पड़े, इसीलिए पास के सरकारी स्कूल में उस का दाखिला करवाया था, पर एक दिन भी स्कूल न गई गंगा. मजबूरन उसे अपने साथ ही काम पर ले जाती. सारा दिन नशे में चूर रहने वाले शराबी पति गंगू के सहारे कैसे छोड़ देती नन्ही सी जान को?

गंगू सारा दिन नशे में चूर रहता, फिर शाम को रधिया से पैसे छीन कर ठेके पर जाता, वापस आ कर मारपीट करता और नन्ही गंगा के सामने ही रधिया को अपनी वासना का शिकार बनाता.

यही सब देखदेख कर गंगा बड़ी हो रही थी. अब उसे अपनी मां के साथ काम पर जाना अच्छा नहीं लगता था. बस, गलियों में इधरउधर घूमनाफिरना… काजलबिंदी लगा कर मतवाली चाल चलती गंगा को जब लड़के छेड़ते, तो उसे बहुत मजा आता.

रधिया लाख कहती, ‘अब तू बड़ी हो गई है… मेरे साथ काम पर चलेगी तो मुझे भी थोड़ा सहारा हो जाएगा.’

गंगा तुनक कर कहती, ‘मां, मुझे सारी जिंदगी यही सब करना है. थोड़े दिन तो मुझे मजे करने दे.’

‘अरी कलमुंही, मजे के चक्कर में कहीं मुंह काला मत करवा आना.

मुझे तो तेरे रंगढंग ठीक नहीं लगते.

यह क्या… अभी से बनसंवर कर घूमतीफिरती रहती है?

इस पर गंगा बड़े लाड़ से रधिया के गले में बांहें डाल कर कहती, ‘मां, मेरी सब सहेलियां तो ऐसे ही सजधज कर घूमतीफिरती हैं, फिर मैं ने थोड़ी काजलबिंदी लगा ली, तो कौन सा गुनाह कर दिया? तू चिंता न कर मां, मैं ऐसा कुछ न करूंगी.’

पर सच तो यही था कि गंगा भटक रही थी. एक दिन गली के मोड़ पर अचानक पड़ोस में ही रहने वाले

2 बच्चों के बाप नंदू से टकराई, तो उस के तनबदन में सिहरन सी दौड़ गई. इस के बाद तो वह जानबूझ कर उसी रास्ते से गुजरती और नंदू से टकराने की पूरी कोशिश करती.

नंदू भी उस की नजरों के तीर से खुद को न बचा सका और यह भूल बैठा कि उस की पत्नी और बच्चे भी हैं. अब तो दोनों छिपछिप कर मिलते और उन्होंने सारी सीमाएं तोड़ दी थीं.

पर इश्क और मुश्क कब छिपाए छिपते हैं. एक दिन नंदू की पत्नी जमना के कानों तक यह बात पहुंच ही गई, तो उस ने रधिया की खोली के सामने खड़े हो कर गंगा को खूब खरीखोटी सुनाई, ‘अरी गंगा, बाहर निकल. अरी कलमुंही, तू ने मेरी गृहस्थी क्यों उजाड़ी? इतनी ही आग लगी थी, तो चकला खोल कर बैठ जाती. जरा मेरे बच्चों के बारे में तो सोचा होता. नाम गंगा और काम देखो करमजली के…’

3 दिन के बाद गंगा और नंदू बदनामी के डर से कहीं भाग गए. रोतीपीटती जमना रोज गंगा को कोसती और बद्दुआएं देती रहती. तकरीबन

2 महीने तक तो नंदू और गंगा इधरउधर भटकते रहे, फिर एक दिन मंदिर में दोनों ने फेरे ले लिए और नंदू ने जमना से कह दिया कि अब गंगा भी उस की पत्नी है और अगर उसे पति का साथ चाहिए, तो उसे गंगा को अपनी सौतन के रूप में अपनाना ही होगा.

मरती क्या न करती जमना, उसे गंगा को अपनाना ही पड़ा. पर आखिर तो जमना उस के बच्चों की मां थी और उस के साथ उस ने शादी की थी, इसलिए नंदू पर पहला हक तो उसी का था.

शादी के 3 साल बाद भी गंगा मां नहीं बन सकी, क्योंकि नंदू की पहले ही नसबंदी हो चुकी थी. यह बात पता चलते ही गंगा खूब रोई और खूब झगड़ा भी किया, ‘क्यों रे नंदू, जब तू ने पहले ही नसबंदी करवा रखी थी तो मेरी जिंदगी क्यों बरबाद की?’

नंदू के कुछ कहने से पहले ही जमना बोल पड़ी, ‘आग तो तेरे ही तनबदन में लगी थी. अरी, जिसे खुद ही बरबाद होने का शौक हो उसे कौन बचा सकता है?’

उस दिन के बाद गंगा बौखलाई सी रहती. बारबार नंदू से जमना को छोड़ देने के लिए कहती, ‘नंदू, चल न हम कहीं और चलते हैं. जमना को छोड़ दे. हम दूसरी खोली ले लेंगे.’

इस पर नंदू उसे झिड़क देता, ‘और खोली के पैसे क्या तेरा शराबी बाप देगा? और फिर जमना मेरी पत्नी है. मेरे बच्चों की मां है. मैं उसे नहीं छोड़ सकता.’

इस पर गंगा दांत पीसते हुए कहती, ‘उसे नहीं छोड़ सकता तो मुझे छोड़ दे.’

इस पर गंगू कोई जवाब नहीं देता. आखिर उसे 2-2 औरतों का साथ जो मिल रहा था. यह सुख वह कैसे छोड़ देता. पर गंगा रोज इस बात को ले कर नंदू से झगड़ा करती और मार खाती. जमना के सामने उसे अपना ओहदा बिलकुल अदना सा लगता. आखिर क्या लगती है वह नंदू की… सिर्फ एक रखैल.

जब वह खोली से बाहर निकलती तो लोग ताने मारते और खोली के अंदर जमना की जलती निगाहों का सामना करती. जमना ने बच्चों को भी सिखा रखा था, इसलिए वे भी गंगा की इज्जत नहीं करते थे. बस्ती के सारे मर्द उसे गंदी नजर से देखते थे.

मांबाप ने भी उस से सभी संबंध खत्म कर दिए थे. ऐसे में गंगा का जीना दूभर हो गया और आखिर एक दिन उस ने रेल के आगे छलांग लगा दी और रधिया की बेटी गंगा मैली होने का कलंक लिए दुनिया से चली गई.

Hindi Story : स्वयंवरा – मीता ने आखिर पति के रूप में किस को चुना

Hindi Story : टेक्सटाइल डिजाइनर मीता रोज की तरह उस दिन भी शाम को अकेली अपने फ्लैट में लौटी, परंतु वह रोज जैसी नहीं थी. दोपहर भोजन के बाद से ही उस के भीतर एक कशमकश, एक उथलपुथल, एक अजीब सा द्वंद्व चल पड़ा था और उस द्वंद्व ने उस का पीछा अब तक नहीं छोड़ा था.

सुलभा ने दीपिका के बारे में अचानक यह घोषणा कर दी थी कि उस के मांबाप को बिना किसी परिश्रम और दानदहेज की शर्त के दीपिका के लिए अच्छाखासा चार्टर्ड अकाउंटैंट वर मिल गया है. दीपिका के तो मजे ही मजे हैं. 10 हजार रुपए वह कमाएगा और 4-5 हजार दीपिका, 15 हजार की आमदनी दिल्ली में पतिपत्नी के ऐशोआराम के लिए बहुत है.

दीपिका के बारे में सुलभा की इस घोषणा ने अचानक ही मीता को अपनी बढ़ती उम्र के प्रति सचेत कर दिया. सब के साथ वह हंसीबोली तो जरूर परंतु वह स्वाभाविक हंसी और चहक अचानक ही गायब हो गई और उस के भीतर एक कशमकश सी जारी हो गई.

जब तक मीता इंस्टिट्यूट में पढ़ रही थी और टेक्सटाइल डिजाइनिंग की डिगरी ले रही थी, मातापिता उस की शादी को ले कर बहुत परेशान थे. लेकिन जब वह दिल्ली की इस फैशन डिजाइनिंग कंपनी में 4 हजार रुपए की नौकरी पा गई और अकेली मजे से यहां एक छोटा सा फ्लैट ले कर रहने लगी, तब से वे लोग भी कुछ निश्ंिचत से हो गए.

मीता जानती है, उस के मातापिता बहुत दकियानूसी नहीं हैं. अगर वह किसी उपयुक्त लड़के का स्वयं चुनाव कर लेगी तो वे उन के बीच बाधा बन कर नहीं खड़े होंगे. परंतु यही तो उस के सामने सब से बड़ा संकट था. नौकरी करते हुए उसे यह तीसरा साल था और उस के साथ की कितनी ही लड़कियां शादी कर चुकी थीं. वे अब अपने पतियों के साथ मजे कर रही थीं या शहर छोड़ कर उन के साथ चली गई थीं. एक मीता ही थी जो अब तक इस पसोपेश में थी कि क्या करे, किसे चुने, किसे न चुने.

ऐसा नहीं था कि कहीं गुड़ रखा हो और चींटों को उस की महक न लगे और वे उस की तरफ लपकें नहीं. अपने इस खयाल पर मीता बरबस ही मुसकरा भी दी, हालांकि आज उस का मुसकराने का कतई मन नहीं हो रहा था.

राखाल बाबू प्राय: रोज ही उसे कंपनी बस से रास्ते में लौटते हुए मिलते हैं. एकदम शालीन, सभ्य, शिष्ट, सतर्क, मीता की परवा करने वाले, उस की तकलीफों के प्रति एक प्रकार से जिम्मेदारी अनुभव करने वाले, बुद्धिजीवी किस्म के, कम बोलने वाले, ज्यादा सुननेगुनने वाले. समाज की हर गतिविधि पर पैनी नजर. आंखों पर मोटे लैंस का चश्मा, गंभीर सा चेहरा, ऊंचा ललाट, कुछ कम होते जा रहे बाल. सदैव सफेद कमीज और सफेद पैंट ही पहनने वाले. जेब में लगा कीमती कलम, हाथ में पोर्टफोलियो के साथ दबे कुछ अखबार, पत्रिकाएं, किताबें.

जब तक मीता आ कर उन की सीट के पास खड़ी न हो जाती, वे बेचैन से बाहर की ओर ताकते रहते हैं. जैसे ही वह आ खड़ी होती है, वे एक ओर को खिसक कर उस के बैठने लायक जगह हमेशा बना देते हैं. वह बैठती है और नरम सी मुसकराहट उस के अधरों पर उभर आती है.

ऐसा नहीं है कि वे हमेशा असामान्य सी बातें करते हैं, परंतु मीता ने पाया है, वे अकसर सामान्य लोगों की तरह लंपटतापूर्ण न व्यवहार करते हैं, न बातें. उन के हर व्यवहार में एक गरिमा रहती है. एक श्रेष्ठता और सलीका रहता है. एक प्रकार की बहुत बारीक सी नफासत.

‘‘कहो, आज का दिन कैसा बीता…?’’ वे बिना उस की ओर देखे पूछ लेते हैं और वह बिना उन की ओर देखे जवाब दे देती है, ‘‘रोज जैसा ही…कुछ खास नहीं.’’

‘‘मीता, कैसी अजीब होती है यह जिंदगी. इस में जब तक रोज कुछ नया न हो, जाने क्यों लगता ही नहीं कि आज हम जिए. क्यों?’’ वे उत्तर के लिए मीता के चेहरे की रगरग पर अपनी पैनी नजरों से टटोलने लगते हैं, ‘‘जानती हो, मैं ने अखबारों से जुड़ी जिंदगी क्यों चुनी…? महज इसी नएपन के लिए. हर जगह बासीपन है, सिवा अखबारों के. यहां रोज नई घटनाएं, नए हादसे, नई समस्याएं, नए लोग, नई बातें, नए विचार…हर वक्त एक हलचल, एक उठापटक, एक संशय, संदेह भरा वातावरण, हर वक्त षड्यंत्र, सत्ता का संघर्ष. अपनेआप को बनाए रखने और टिकाए रखने की जीतोड़ कोशिशें… मित्रों के घातप्रतिघात, आघात और आस्तीनों के सांपों का हर वक्त फुफकारना… तुम अंदाजा नहीं लगा सकतीं मीता, जिंदगी में यहां कितना रोमांच, कितनी नवीनता, कितनी अनिश्चितता होती है…’’

‘‘लेकिन आप के धीरगंभीर स्वभाव से आप का यह कैरियर कतई मेल नहीं खाता…कहां आप चीजों पर विभिन्न कोणों से गंभीरता से सोचने वाले और कहां अखबारों में सिर्फ घटनाएं और घटनाएं…इन के अलावा कुछ नहीं. आप को उन घटनाओं में एक प्रकार की विचारशून्यता महसूस नहीं होती…? आप को नहीं लगता कि जो कुछ तेजी से घट रहा है वह बिना किसी सोच के, बिना किसी प्रयोजन के, बेकार और बेमतलब घटता चला जा रहा है?’’

‘‘यहीं मैं तुम से भिन्न सोचता हूं, मीता…’’

‘‘आजकल की पत्रपत्रिकाओं में तुम क्या देख रही हो…? एक प्रकार की विचारशून्यता…मैं इन घटनाओं के पीछे व्याप्त कारणों को तलाशता हूं. इसीलिए मेरी मांग है और मैं अपनी जगह बनाने में सफल हुआ हूं. मेरे लिए कोई घटना महज घटना नहीं है, उस के पीछे कुछ उपयुक्त कारण हैं. उन कारणों की तलाश में ही मुझे बहुत देर तक सोचते रहना पड़ता है.

‘‘तुम आश्चर्य करोगी, कभीकभी चीजों के ऐसे अनछुए और नए पहलू उभर कर सामने आते हैं कि मैं भी और मेरे पाठक भी एवं मेरे संपादक भी, सब चकित रह जाते हैं. आखिर क्यों…? क्यों होता है ऐसा…?

‘‘इस का मतलब है, हम घटनाओं की भीड़ से इतने आतंकित रहते हैं, इतनी हड़बड़ी और जल्दबाजी में रहते हैं कि इन के पीछे के मूल कारणों को अनदेखा, अनसोचा कर जाते हैं जबकि जरूरत उन्हें भी देखने और उन पर भी सोचने की होती है…’’

राखाल बाबू किसी भी घटना के पक्ष में सोच लेते हैं और विपक्ष में भी. वे आरक्षण के जितने पक्ष में विचार प्रस्तुत कर सकते थे, उस से ज्यादा उस के विपक्ष में भी सोच लेते थे. गजरौला के कानवैंट स्कूल की ननों के साथ घटी बलात्कार और लूट की घटना को उन्होंने महज घटना नहीं माना. उस के पीछे सभ्यता और संस्कृति से संपन्न वर्ग के खिलाफ, उजड्ड, वहशी और बर्बर लोगों का वह आदिम व्यवहार जिम्मेदार माना जो आज भी आदमी को जानवर बनाए हुए है.

मीता राखाल बाबू से नित्य मिलती और प्राय: नित्य ही उन के नए विचारों से प्रभावित होती. वह सोचती रह जाती, यह आदमी चलताफिरता विचारपुंज है. इस के साथ जिंदगी जीना कितना स्तरीय, कितना श्रेष्ठ और कितना अच्छा होगा. कितना अर्थपूर्ण जीवन होगा इस आदमी के साथ. वह महीनों से राखाल बाबू की कल्पनाओं में खोई हुई है. कितना अलग होगा उस का पति, सामान्य सहेलियों के साधारण पतियों की तुलना में. एक सोचनेसमझने वाला, चिंतक, श्रेष्ठ पुरुष, जिसे सिर्फ खानेपीने, मौज करने और बिस्तर पर औरत को पा लेने भर से ही मतलब नहीं होगा, जिस की जिंदगी का कुछ और भी अर्थ होगा.

लेकिन दूसरे क्षण ही मीता को अपनी कंपनी के निर्यात प्रबंधक विजय अच्छे लगने लगते. गोरा रंग, आकर्षक व्यक्तित्व, करीने से रखी गई दाढ़ी. चमकदार, तेज आंखें. हर वक्त आगे और आगे ही बढ़ते जाने का हौसला. व्यापार की प्रगति के लिए दिनरात चिंतित. कंपनी के मालिक के बेहद चहेते और विश्वासपात्र. खुला हुआ हाथ. खूब कमाना, खूब खर्चना. जेब में हर वक्त नोटों की गड्डियां और उन्हें हथियाने के लिए हर वक्त मंडराने वाली लड़कियां, जिन में एक वह खुद…

‘‘मीता, चलो आज 12 से 3 वाला शो देखते हैं.’’

‘‘क्यों साहब, फिल्म में कोई नई बात है?’’

मीता के चेहरे पर मुसकराहट उभरती है. जानती है, विजय जैसा व्यस्त व्यक्ति फिल्म देखने व्यर्थ नहीं जाएगा और लड़कियों के साथ वक्त काटना उस की आदत नहीं.

‘‘और क्या समझती हो, मैं बेकार में 3 घंटे खराब करूंगा…? उस में एक फ्रैंच लड़की है, क्या अनोखी पोशाक पहन रखी है, देखोगी तो उछल पड़ोगी. मैं चाहता हूं कि तुम उस में कुछ और नया प्रभाव पैदा कर उसे डिजाइन करो… देखना, यह एक बहुत बड़ी सफलता होगी.’’

कितना फर्क है राखाल बाबू में और विजय में. एक जिंदगी के हर पहलू पर सोचनेविचारने वाला बुद्धिजीवी और एक अलग किस्म का आदमी, जिस के साथ जीवन जीने का मतलब ही कुछ और होगा. नए से नए फैशन का दीवाना. नई से नई पोशाकों की कल्पना करने वाला, हर वक्त पैसे से खेलने वाला…एक बेहद आकर्षक और निरंतर आगे बढ़ते चले जाने वाला नौजवान, जिसे पीछे मुड़ कर देखना गवारा नहीं. जिसे एक पल ठहर कर सोचने की फुरसत नहीं.

तीसरा राकेश है, राजनीति विज्ञान का विद्वान. पड़ोस की चंद्रा का भाई. अकसर जब यहां आता है तो होते हैं उस के साथ उस के ढेर सारे सपने, तमाम तमन्नाएं. अभी भी उस के चेहरे पर न राखाल बाबू वाली गंभीरता है, न विजय वाली व्यस्तता. बस आंखों में तैरते बादलों से सपने हैं. कल्पनाशील चेहरा एकदम मासूम सा.

‘‘अब क्या इरादा है, राकेश?’’ एक दिन उस ने यों ही हंसी में पूछ लिया था.

‘‘इजाजत दो तो कुछ प्रकट करूं…’’ वह सकुचाया.

‘‘इजाजत है,’’ वह कौफी बना लाई थी.

‘‘अपने इरादे हमेशा नेक और स्पष्ट रहे हैं, मीताजी,’’ राकेश ने कौफी पीते हुए कहा, ‘‘पहला इरादा तो आईएएस हो जाना है और वह हो कर रहूंगा, इस बार या अगली बार. दूसरा इरादा आप जैसी लड़की से शादी कर लेने का है…’’

राकेश एकदम ऐसे कह देगा इस की मीता को कतई उम्मीद नहीं थी. एक क्षण को वह अचकचा ही गई, पर दूसरे क्षण ही संभल गई, ‘‘पहले इरादे में तो पूरे उतर जाओगे राकेश, लेकिन दूसरे इरादे में तुम मुझे कच्चे लगते हो. जब आईएएस हो जाओगे और कोरा चैक लिए लड़की वाले जब तुम्हें तलाशते डोलेंगे तो देखने लगोगे कि किस चैक पर कितनी रकम भरी जा सकती है. तब यह 4 हजार रुपल्ली कमाने वाली मीता तुम्हें याद नहीं रहेगी.’’

‘‘आजमा लेना,’’ राकेश कह उठा, ‘‘पहले अपने प्रथम इरादे में पूरा हो लूं, तब बात करूंगा आप से. अभी से खयाली पुलाव पकाने से क्या फायदा?’’

एक दिन दिल्ली में आरक्षण विरोध को ले कर छात्रों का उग्र प्रदर्शन चल रहा था और बसों का आनाजाना रुक गया था. बस स्टाप पर बेतहाशा भीड़ देख कर मीता सकुचाई, पर दूसरे ही क्षण उसे अपनी ओर आते हुए राखाल बाबू दिखाई दिए, ‘‘आ गईं आप…? चलिए, पैदल चलते हैं कुछ दूर…फिर कहीं बैठ कर कौफी पीएंगे तब चलेंगे…’’

एक अच्छे रेस्तरां में कोने की एक मेज पर जा बैठे थे दोनों.

‘‘जीवन में क्या महत्त्वपूर्ण है राखाल बाबू…?’’ उस ने अचानक कौफी का घूंट भर कर प्याले की तरफ देखते हुए उन पर सवाल दागा था, ‘‘एक खूब कमाने वाला आकर्षक पति या एक आला दर्जे का रुतबेदार अफसर अथवा जीवन पर विभिन्न कोणों से हर वक्त विचार करते रहने वाला एक चिंतक…एक औरत इन में से किस के साथ जीवन सुख से बिता सकती है, बताएंगे आप…?’’

एक बहुत ही अहम सवाल मीता ने

राखाल बाबू से पूछ लिया था जिस

सवाल का उत्तर वह स्वयं अपनेआप को कई दिनों से नहीं दे पा रही थी. वह पसोपेश में थी, क्या सही है, क्या गलत? किसे चुने? किसे न चुने?

राखाल बाबू को वह बहुत अच्छी तरह समझ गई थी. जानती थी, अगर वह उन की ओर बढ़ेगी तो वे इनकार नहीं करेंगे बल्कि खुश ही होंगे. विजय ने तो उस दिन सिनेमा हौल में लगभग स्पष्ट ही कर दिया था कि मीता जैसी प्रतिभाशाली फैशन डिजाइनर उसे मिल जाए तो वह अपनी निजी फैक्टरी डाल सकता है और जो काम वह दूसरों के लिए करता है वह अपने लिए कर के लाखों कमा सकता है. और राकेश…? वह लिखित परीक्षा में आ गया है, साक्षात्कार में भी चुन लिया जाएगा, मीता जानती है. लेकिन इन तीनों को ले कर उस के भीतर एक सतत द्वंद्व जारी है. वह तय नहीं कर पा रही, किस के साथ वह सुखी रह सकती है, किस के साथ नहीं…?

बहुत देर तक चुपचाप सोचते रहे राखाल बाबू. अपनी आदत के अनुसार गरम कौफी से उठती भाप ताकते हुए अपने भीतर कहीं डूबे रहे देर तक. जैसे भीतर कहीं शब्द ढूंढ़ रहे हों…

‘‘मीता…महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि इन में से औरत किस के साथ सुखी रह सकती है…महत्त्वपूर्ण यह है कि इन में से कौन है जो औरत को सचमुच प्यार करता है और करता रहेगा. औरत सिर्फ एक उपभोग की वस्तु नहीं है मीता. वह कोई व्यापारिक उत्पादन नहीं है…न वह दफ्तर की महज एक फाइल है, जिसे सरसरी नजर से देख कर आवश्यक कार्रवाई के लिए आगे बढ़ा दिया जाए. जीवन में हर किसी को सबकुछ तो नहीं मिल सकता मीता…अभाव तो बने ही रहेंगे जीवन में…जरूरी नहीं है कि अभाव सिर्फ पैसे का ही हो. दूसरों की थाली में अपनी थाली से हमेशा ज्यादा घी किसी न किसी कोण से आदमी को लगता ही रहेगा…ऐसी मृगतृष्णा के पीछे भागना मेरी समझ से पागलपन है. सब को सब कुछ तो नहीं लेकिन बहुत कुछ अगर मिल जाए तो हमें संतोष करना सीखना चाहिए.

‘‘जहां तक मैं समझता हूं, आदमी के लिए सिर्फ बेतहाशा भागते जाना ही सब कुछ नहीं है…दिशाहीन दौड़ का कोई मतलब नहीं होता. अगर हमारी दौड़ की दिशा सही है तो हम देरसवेर मंजिल तक भी पहुंचेंगे और सहीसलामत व संतुष्ट होते हुए पहुंचेंगे. वरना एक अतृप्ति, एक प्यास, एक छटपटाहट, एक बेचैनी जीवन भर हमारे इर्दगिर्द मंडराती रहेगी और हम सतत तनाव में जीते हुए बेचैन मौत मर जाएंगे.

‘‘मैं नहीं जानता कि तुम मेरी इन बातों से किस सीमा तक सहमत होगी, पर मैं जीवन के बारे में कुछ ऐसे ही सोचता हूं…’’

और मीता को लगा कि वह जीवन के सब से आसन्न संकट से उबर गई है. उसे वह महत्त्वपूर्ण निर्णय मिल गया है जिस की उसे तलाश थी. एक सतत द्वंद्व के बाद उस का मन एक निश्छल झील की तरह शांत हो गया और जब वह रेस्तरां से बाहर निकली तो अनायास ही उस ने अपना हाथ राखाल बाबू के हाथ में पाया. उस ने देखा, वे उसे एक स्कूटर की तरफ खींच रहे हैं, ‘‘चलो, बस तो मिलेगी नहीं, तुम्हें घर छोड़ दूं.’’

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