Short Story 2025 : बिगड़ी बात बनानी है

Short Story 2025 : रातभर नंदना की आंखों में नींद नहीं थी. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उस के साथ क्या हो रहा है. पूरा शरीर टूट रहा था. सुबह उठी तो ऐसे लगा चक्कर खा कर गिर जाएगी. गिरने से बचने के लिए बैड पर बैठ गई. नंदना चुपचाप अपने बैड पर बैठी थी कि तभी उसे अपनी भाभी तनुजा की आवाज सुनाई दी,’’ क्या बात है नंदू आज तुम्हें औफिस नहीं जाना है क्या?

नंदना ने किसी तरह भाभी को जवाब दिया कि हां भाभी जाना है… अभी तैयार हो रही हूं.

नंदना की आवाज की सुस्ती को महसूस कर तनुजा अपना काम छोड़ कर उस के कमरे में चली आई. पूछा, ‘‘क्या बात है नंदू तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?

‘‘हां, भाभी,’’ नंदू ने जवाब दिया.

‘‘देखकर तो नहीं लगता,’’ तनुजा उस का माथा छूते हुए बोली, ‘‘अरे तुम्हें तो बहुत तेज बुखार है.’’

‘‘हां भाभी,’’ कहते हुए नंदना बाथरूम की तरफ भागी, उसे बहुत तेज उबकाई आई. तनुजा भी उस के पीछेपीछे गई. नंदना उलटी कर रही थी.

तनुजा चिंतित हो गई कि पता नहीं क्या हो गया नंदू को. इस के भैया भी शहर से बाहर गए हुए हैं. समझ नहीं आ रहा क्या करे. तनुजा नंदना को सहारा दे कर बिस्तर तक ले आई और फिर बिस्तर पर लेटाते हुए सख्त आवाज में बोली, ‘‘कोई जरूरत नहीं है तुम्हें औफिस जाने की… तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है.’’

नंदना बिना कोई जवाब दिए चुपचाप लेट गई.

तनुजा नंदना के लिए चाय लेने किचन में चली गई. जब वह चाय ले कर आई, तो देखा कि नंदना की आंखों से आंसू टपक रहे हैं.

तनुजा उस के आंसू पोंछते हुए बोली, ‘‘रो क्यों रही है पगली. ठीक हो जाएगी.’’

‘‘आप मेरा कितना ध्यान रखती हो भाभी. आप ने कभी मुझे मां की कमी महसूस नहीं होने दी. हमेशा अपने स्नेह तले रखा. मेरी हर गलती को माफ किया… पता नहीं भाभी मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है.’’

‘‘क्या हो गया है तुझे? चायनाश्ता कर ले, फिर डाक्टर के पास ले चलती हूं.’’

तनुजा के कहने पर नंदना डाक्टर के पास चलने को तैयार हो गई. तनुजा की सहेली माधवी बहुत अच्छी डाक्टर हैं. वह नंदना को उसी के पास ले गई.

माधवी ने नंदना का चैकअप करने के बाद तनुजा को अपने कैबिन में बुलाया और बोली, ‘‘तनुजा, नंदना की शादी हो गई है क्या?’’

‘‘नहीं माधवी, अभी तो नहीं हुई. हां, उस के रिश्ते की बात जरूर चल रही है. पर तू ये सब क्यों पूछ रही है? कुछ सीरियस है क्या?’’

‘‘हां तनुजा, बात तो सीरियस ही है. नंदना प्रैगनैंट है… लगभग 4 महीने हो चुके हैं.’’

माधवी की बात सुनते ही तनुजा के पैरों तले से जमीन ही निकल गई. वह मन ही मन बुदबुदाने लगी कि नंदना तूने यह क्या किया, 4 महीने हो गए और मुझे बताया तक नहीं.

और फिर तनुजा नंदना को ले कर घर आ गई. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि उस से इस बारे में कैसे पूछे.

तनुजा ने नंदना को दवा और खाना दे कर सुला दिया. फिर सोचा शाम तक इस की तबीयत ठीक हो जाएगी तब इस से तसल्ली से पूछेगी कि ये सब कैसे हुआ.

शाम को 5 बजे चाय ले कर तनुजा नंदना के कमरे में पहुंची तो देखा वह रो रही है.

नंदना के सिरहाने बैठते हुए तनुजा बोली, ‘‘नंदू उठो चाय पी लो. फिर मुझे तुम से कुछ जरूरी बातें करनी हैं.’’

‘‘जी भाभी, मुझे भी आप से एक बात करनी है,’’ कह कर नंदना चाय पीने लगी.

चाय पीने के बाद दोनों एकदूसरे का मुंह देखने लगीं कि बात की शुरुआत कौन पहले करे.

आखिर मौन को तोड़ते हुए तनुजा बोली, ‘‘नंदना तुम्हें पता है कि तुम प्रैगनैंट हो?’’

‘‘नहीं भाभी, पर मुझे कुछ अजीब सा महसूस हो रहा है.’’

नंदना की बात पर तनुजा को गुस्सा आ गया, तुम 30 साल की होने वाली हो नंदना और तुम्हें यह पता नहीं कि तुम प्रैगनैंट हो… 4 महीने हो चुके हैं.. कैसे इतनी बड़ी बात तुम ने मुझ से बताने की जरूरत नहीं समझी? तुम्हारे भैया को और पापाजी को क्या जवाब दूंगी मैं? दोनों ने तुम्हारी जिम्मेदारी मुझ पर छोड़ी है और तुम ने ऐसा कर दिया कि मैं उन्हें मुंह दिखाने लायक नहीं रही.’’

नंदना रोते हुए बोली, ‘‘आप को तो पता है न भाभी मेरे पीरियड्स अनियमित हैं… मुझे नहीं पता चला कि  ये सब कैसे हो गया.’’

तनुजा अपने गुस्से पर काबू रखते हुए बोली, ‘‘कौन है वह जिसे तुम प्यार करती हो? किस के साथ रह कर तुम ने अपनी मर्यादा की सारी हदें लांघ दीं? अगर तुम्हें कोई पसंद था तो मुझे बताती न, मैं बात करती तुम्हारी शादी की.’’

‘‘भाभी, मैं और भैया के बौस वीरेंद्र,’’ इतना कह कर नंदना रोने लगी.

‘‘सत्यानाश नंदना… वीरेंद्र तो शादीशुदा है और उस के बच्चे भी हैं… वह तुम से शादी करेगा?’’

‘‘पता नहीं भाभी,’’ वंदना धीरे से बोली.

‘‘जब भैया ने मुझे उन से पार्टी में मिलाया था, तो मुझे नहीं पता था कि वह शादीशुदा हैं. उन्होंने तो मुझे अभी भी नहीं बताया.. यह आप बता रही हैं.’’

नंदना की बात सुन कर तनुजा गुस्से से पगला सी गई. फिर नंदना के कंधे झंझोड़ते हुए बोली, ‘‘अब मैं क्या करूं नंदना, तुम्हीं बताओ? मुझे तो समझ में नहीं आ रहा है. 4 दिनों में पापाजी औैर तुम्हारे भैया आ जाएंगे… कैसे उन का सामना करोगी तुम?’’

‘‘मुझे बचा लो भाभी.. भैया और पापा को पता चल गया तो मैं कहीं की नहीं रहूंगी… भैया तो मार ही डालेंगे मुझे.’’

‘‘कुछ सोचने दो मुझे,’’ कह कर तनुजा अपने कमरे में चली गई. सारी रात सोचते रहने के बाद उस ने यही तय किया कि उसे रजत को बताना ही होगा कि नंदना प्रैगनैंट है, भले ही गुस्सा होंगे, लेकिन कोई हल तो निकलेगा.’’

सुबह ही तनुजा ने पति रजत को फोन कर के सारी बात बता दी. सब कुछ सुनने के बाद रजत सन्न रह गया. फिर बोला, ‘‘मैं दोपहर की फ्लाइट से घर आ रहा हूं. तब तक तुम अपनी सहेली माधवी से बात कर लो. अगर अबौर्शन हो जाए तो अच्छा है… बाकी बातें बाद में देखेंगे. मुझे नहीं पता था कि वीरेंद्र मुझे इतना बड़ा धोखा देगा,’’ कह कर रजत ने फोन रख दिया.

घर का काम निबटाने के बाद तनुजा नंदना के कमरे में गई. वह घुटनों पर मुंह रखे रो रही थी.

तनुजा उस के कंधे पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘अब रोने से कुछ नहीं होगा. नंदू चलो हम डाक्टर के पास चलते हैं, और दोनों तैयार हो कर माधवी के पास पहुंचीं.

तनुजा माधवी से बोली, ‘‘अबौर्शन कराना है नंदना का.’’

‘‘ठीक है, चैकअप करती हूं कि हो सकता है या नहीं.’’

नंदना का चैकअप करने के बाद माधवी बोली, ‘‘आईर्एम सौरी तनु यह अबौर्शन नहीं हो पाएगा. इस से नंदना की जिंदगी को खतरा हो सकता है. साढ़े 4 महीने हो चुके हैं.’’

माधवी की बात सुन कर तनुजा परेशान हो उठी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करे. थोड़े दिनों में तो सब को पता चल जाएगा नंदना के बारे में. फिर क्या होगा इस की जिंदगी का? कौन करेगा इस से शादी? अपनी नासमझी में नंदू ने इतनी बड़ी गलती कर दी है कि जिस की कीमत उसे जिंदगी भर चुकानी पड़ेगी. नंदू की हालत के बारे में सोच कर तनुजा की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘क्या करूं… कैसे संवारूं मैं नंदू की जिंदगी को,’’ तनुजा अपना सिर हाथों में दबाए सोच ही रही थी कि तभी रजत की आवाज सुनाई दी, ‘‘क्या हुआ तनु? सब ठीक है न?

रजत को देखते ही तनुजा उस से लिपट गई, ‘‘कुछ भी ठीक नहीं है रजत, इस बेवकूफ लड़की ने अपनी जिंदगी बरबाद कर ली… माधवी कह रही है अगर अबौर्र्शन हुआ, तो उस की जान चली जाएगी.’’

रजत झल्लाते हुए बोला, ‘‘चली जाए जान इस की… क्या मुंह दिखाएंगे हम लोगों को?

‘‘कैसी बातें कर रहे हो आप? आखिर नंदू हमारी बेटी जैसी है… उस ने गलती की है, तो उसे सुधारना हमारी जिम्मेदारी है न? आप हिम्मत न हारें कोई न कोई रास्ता निकलेगा ही… फिलहाल हम नंदू को घर ले चलते हैं.’’

रजत और तनुजा नंदना को ले कर घर आ गए. गुस्से की अधिकता के चलते रजत ने नंदना की तरफ न तो देखा न ही उस से एक शब्द बोला. उसे अपनेआप पर भी गुस्सा आ रहा था कि क्यों उस ने नंदू से वीरेंद्र का परिचय कराया.. उसे पता तो था ही कि साला एक नंबर का कमीना है. रजत ने कभी सोचा भी नहीं था कि वीरेंद्र उस की बहन के साथ ऐसा करेगा.

घर पहुंच कर नंदू रजत के पैरों पर गिर कर बोली, ‘‘भैया मुझे माफ कर दो… आप बचपन से मेरी गलतियां माफ करते आए हो.. भले ही आप मुझे पीट लो, लेकिन मुझ पर गुस्सा न करो.’’

रजत उस का माथा थपक कर अपने कमरे में चला गया.

उस दिन तीनों में से किसी ने भी खाना नहीं खाया. सब परेशान थे. किसी को भी कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए.

तनुजा बोली, ‘‘3-4 दिन में पापाजी आ जाएंगे, उन से क्या कहेंगे? नंदना के बारे में सुन कर तो उन्हें हार्टअटैक ही आ जाएगा.’’

रजत बोला, ‘‘मैं पापा से कह देता हूं कि वे अभी कुछ दिन और चाचा के यहां रह लें. तब तक हम कुछ सोच लेंगे.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर तनुजा अपने कमरे में चली गई औैर नंदना भी सोने चली गई.

जब रजत कमरे में आया तो तनुजा उन से बोली, ‘‘मैं सोच रही थी कि कुछ दिनों के लिए शिमला वाले भैया के पास चली जाऊं नंदना को ले कर.’’

‘‘वहां जा कर क्या करोगी? तुम्हारे भैया तो अकेले रहते हैं न,’’ रजत ने कहा.

‘‘हां,’’ तनुजा ने जवाब दिया, ‘‘शादी नहीं की है उन्होंने… सोच रही हूं उन से नंदना से शादी करने की बात कहूं. वे मेरी बात नहीं काटेंगे.’’

‘‘यह तो ठीक नहीं है तनुजा कि तुम नंदना को जबरदस्ती उन से बांध दो. वैसे उन्होंने शादी क्यों नहीं की अभी तक 37-38 साल के तो हो ही गए होंगे न?’’

‘‘दरअसल, वे जिस लड़की से प्यार करते थे उस ने उन्हीं के दोस्त के साथ अपना घर बसा लिया. तब से भैया का मन उचट गया. बहुत सारी लड़कियां बताईं पर उन्हें कोई भी नहीं जंची. मुझे लग रहा है नंदना और उन की जोड़ी ठीक रहेगी. मैं एक बार नंदना से भी पूछ लेती हूं.’’

‘‘जैसा तुम्हें ठीक लगे वैसा करो. अब तो दूसरा रास्ता भी नजर नहीं आ रहा… शहर में जा कर नंदना भी धीरेधीरे सब कुछ भूल जाएगी.’’

अगले ही दिन तनुजा नंदना को ले कर शिमला चली गई. रजत ने अपने पापा को कुछ दिनों तक मुंबई चाचा के पास ही रुकने को कह दिया.

शिमला पहुंच कर तनुजा ने अपने भैया विमलेश को सारी बात बताई, तो वे बोले, ‘‘तनु, मुझे कोई ऐतराज नहीं है. मुझे नंदना पसंद है, लेकिन तू पहले उस से पूछ ले.’’

तनुजा ने नंदना से इस बारे में पूछा तो उस ने अपनी स्वीकृति दे दी.

तनुजा ने रजत को फोन कर के सारी बात बताई. रजत बहुत खुश हुआ. बोला, ‘‘समझ नहीं आ रहा तुम्हें कैसे धन्यवाद दूं. तनुजा तुम सही मानों में मेरी जीवनसंगिनी हो… तुम्हारी जगह कोई और होती तो बात का बतंगड़ बना देती, लेकिन तुम ने बिगड़ी बात को अपनी समझ से बना दिया… मैं सारी जिंदगी तुम्हारा आभारी रहूंगा.’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हो आप? क्या नंदना मेरी कुछ नहीं है? उसे मैं ने हमेशा अपनी छोटी बहन की तरह माना है.’’

रजत ने पापा को फोन कर के बुला लिया और उन्हें सारी बात बता दी, साथ ही यह भी बता दिया कि परेशान होने की जरूरत नहीं है. तनुजा के भैया विमलेश को नंदना बहुत पसंद है और उन्होंने उस से विवाह करने की इच्छा जताई है. फिर दोनों परिवारों की रजामंदी से नंदना का विमलेश के साथ विवाह हो गया. विदाई के समय नंदना अपनी भाभी तनुजा के गले लग कर खूब रोई. वह बस यही बोले जा रही थी कि आप ने मेरी जिंदगी फिर से संवार दी भाभी… आप जैसी भाभी सभी को मिले.

Special Story 2025 : अनोखा पाने की चाह में

Special Story 2025 : पहली नजर में वह मुझे कोई खास आकर्षक नहीं लगी थी. एक तरह से इतने दिनों का इंतजार खत्म हुआ था.

2 महीने से हमारे ऊपर वाला फ्लैट खाली पड़ा था. उस में किराए पर रहने के लिए नया परिवार आ रहा है, इस की खबर हमें काफी पहले मिल चुकी थी. उस परिवार में एक लड़की भी है, यह जान कर मुझे बड़ी खुशी हुई थी, पर जब देखा तो उस में कोई विशेष रुचि नहीं जागी थी मेरी.

उन्हें रहते हुए 1 महीना हो गया था, पर मेरी उस से कभी कोई बात नहीं हुई थी, न ही मैं ने कभी ऐसी कोशिश की थी.

एक दिन अप्रत्याशित रूप से उस से बातचीत करने का मौका मिला था. मेरे एक दोस्त की शादी में वे लोग भी आमंत्रित थे. उस ने गुलाबी रंग का सलवारकुरता पहन रखा था. माथे पर साधारण सी बिंदी थी और बाल कंधों पर झूल रहे थे. चेहरे पर कोई खास मेकअप नहीं था. न जाने क्यों उस का नाम जानने की इच्छा हुई तो मैं ने पूछा, ‘‘मैं आप के नीचे वाले फ्लैट में रहता हूं. क्या आप का नाम जान सकता हूं?’’

‘‘अनु. और आप का?’’ उस ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘अंकित,’’ मैं ने धीरे से कहा.

‘‘अंकित? मेरे चाचा के लड़के का भी यही नाम है, मुझे बहुत पसंद है यह नाम,’’ उस ने हंसते हुए कहा.

उस के खुले व्यवहार को देख कर उस से बातें करने की इच्छा हुई, पर तभी उस की सहेलियों का बुलावा आ गया और वह दूसरी ओर चली गई.

पहली मुलाकात के बाद ऐसा नहीं लगा कि मैं उसे पसंद कर सकता हूं.

दूसरे दिन जब मैं दफ्तर जाने के लिए घर से बाहर आया तो देखा कि वह सीढि़यां उतर रही है. वह मुसकराई, ‘‘हैलो.’’

‘‘हैलो,’’ मैं ने भी उस के अभिवादन का संक्षिप्त सा उत्तर दिया. बस, इस से अधिक कोई बात नहीं हुई थी.

इस के बाद बहुत दिनों तक हमारा आमनासामना ही नहीं हुआ. इस बीच मैं ने उस के बारे में सोचा भी नहीं. मैं सुबह 9 बजे ही दफ्तर चला जाता और शाम को 7 बजे तक घर आता था.

एक ही इमारत में रहने के कारण धीरेधीरे मेरे और उस के परिवार वालों का एकदूसरे के यहां आनाजाना शुरू हो गया. खानेपीने की चीजों का आदानप्रदान भी होने लगा, पर मैं ने किसी बहाने से कभी भी उस के घर जाने की कोशिश नहीं की थी.

एक दिन मां को तेज बुखार था. पिताजी दौरे पर गए हुए थे. मेरे दफ्तर में एक जरूरी मीटिंग थी इसलिए छुट्टी लेना असंभव था. मैं परेशान हो गया कि क्या करूं, मां को किस के हवाले छोड़ कर जाऊं? तभी मुझे अनु की मां का ध्यान आया. शायद वे मेरी कुछ मदद कर सकें. यह सोच कर मैं उन के घर पहुंचा.

दरवाजा अनु ने ही खोला. वह शायद कालेज के लिए निकलने ही वाली थी. उस के चेहरे पर खुशी व आश्चर्य के भाव दिखाई दिए, ‘‘आप, आइएआइए. आज सूरज पश्चिम से कैसे निकल आया है? बैठिए न.’’

‘‘नहीं, अभी बैठूंगा नहीं, जल्दी में हूं, चाचीजी कहां हैं?’’

‘‘मां? वे तो दफ्तर चली गईं.’’

‘‘ओह, तो वे नौकरी करती हैं?’’

‘‘हां, आप को कुछ काम था?’’

‘‘असल में मां को तेज बुखार है और मैं छुट्टी ले नहीं सकता क्योंकि आज मेरी बहुत जरूरी मीटिंग है. मैं सोच रहा था कि अगर चाचीजी होतीं तो मैं उन से थोड़ी देर मां के पास बैठने के लिए निवेदन करता, फिर मैं दफ्तर से जल्दी आता. खैर, मैं चलता हूं.’’

अनु कुछ सोच कर बोली, ‘‘ऐसा है तो मैं बैठती हूं चाचीजी के पास, आप दफ्तर चले जाइए.’’

‘‘पर, आप को तो कालेज जाना होगा?’’

‘‘कोई बात नहीं, एक दिन नहीं जाऊंगी तो कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा.’’

‘‘लेकिन…’’

‘‘आप निश्चिंत हो कर जाइए. मैं 2 मिनट में ताला लगा कर आती हूं.’’

मैं आश्वस्त हो कर दफ्तर चला गया. 3 बजे मैं घर आ गया. अनु मां के पास बैठी एक पत्रिका में डूबी हुई थी. मां उस समय सो रही थीं.

‘‘मां कैसी हैं अब?’’ मैं ने धीरे से पूछा.

‘‘ठीक हैं, बुखार नहीं है, उन से पूछ कर मैं ने दवा दे दी थी.’’

‘‘मैं आप का शुक्रिया किन शब्दों में अदा करूं,’’ मैं ने औपचारिकता निभाते हुए कहा.

‘‘अब वे शब्द भी मैं ही आप को बताऊं?’’ वह हंसते हुए बोली, ‘‘देखिए, मुझे कोई फिल्मी संवाद सुनाने की जरूरत नहीं है. कोई बहुत बड़ा काम नहीं किया है मैं ने,’’ कह कर वह खड़ी हो गई.

लेकिन मैं ने उसे जबरदस्ती बैठा दिया, ‘‘नहीं, ऐसे नहीं, चाय पी कर जाइएगा.’’

मैं चाय बनाने रसोई में चला गया. तब तक मां भी जाग गई थीं. हम तीनों ने एकसाथ चाय पी.

उस दिन अनु मुझे बहुत अच्छी लगी थी. अनु के जाने के बाद मैं देर तक उसी के बारे में सोचता रहा.

हमारा आनाजाना अब बढ़ गया था. वह भी कभीकभी आती. मैं भी उस के घर जाने लगा था.

फिर यह कभीकभी का आनाजाना रोज में तबदील होने लगा. जिस दिन वह नहीं मिलती थी, कुछ अधूरा सा लगता था.

धीरेधीरे मेरे मन में अनु के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा था. क्या मैं वास्तव में उसे चाहने लगा था? इस का निश्चय मैं स्वयं नहीं कर पा रहा था. उस का आना, उसे देखना, उस से बातें करना आदि अच्छा लगता था. पर एक बात जो मेरे मन में शुरू से ही बैठ गई थी कि वह बहुत सुंदर नहीं है, हमेशा मेरा निश्चय डगमगा देती.

अपनी कल्पना में शादी के लिए जैसी लड़की मैं ने सोच रखी थी, वह बहुत ही सुंदर होनी चाहिए थी. लंबा कद, दुबलीपतली, गोरी, तीखे नैननक्श. मेरे खींचे गए काल्पनिक खाके में अनु फिट नहीं बैठती थी. केवल यही बात उस से मुझे कुछ भी कहने से रोक लेती थी.

अनु ने भी कभी कुछ नहीं कहा मुझ से पर उसे भी मेरी मौजूदगी पसंद थी, इस का एहसास मुझे कभीकभी होता था. पर मैं ने कभी आजमाना नहीं चाहा. मैं स्वयं ही इस संबंध में कोई निर्णय नहीं ले पा रहा था और न ही मैं कुछ कह पाया था.

एक दिन अनु पिकनिक से लौट कर मुझे वहां के किस्से सुनाने लगी. बातों ही बातों में उस ने बताया, ‘‘आज हम लोग पिकनिक पर गए थे. वहां एक ज्योतिषी बाबा थे. सब लड़कियां उन्हें हाथ दिखा रही थीं. मैं ने भी अपना हाथ दिखा दिया. वैसे मुझे इन बातों पर कोई विश्वास नहीं है, फिर भी न जाने क्यों दिखा ही दिया. जानते हैं उस ने क्या कहा?’’

‘‘क्या?’’ मैं ने उत्सुकतावश पूछा.

अनु ज्योतिषी की नकल करते हुए बोली, ‘‘बेटी, तुम्हारे भाग्य में 2 शादियां लिखी हैं. पहली शादी के 2 महीने बाद तुम्हारा पति मर जाएगा लेकिन दूसरी शादी के बाद तुम्हारा जीवन सुखी हो जाएगा.’’

कह कर अनु खिलखिला कर हंस पड़ी लेकिन मैं सन्न रह गया. इस बात को कोई तूल न देते हुए वह आगे भी कई बातें बताती गई, पर मैं कुछ न सुन सका.

बचपन से ही दादादादी, मां और पिताजी को ज्योतिषियों पर विश्वास करते देखा था. हमारे घर सुखेश्वर स्वामी हर महीने आया करते थे. वे ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति देख कर जैसा करने को कहते थे, हम वैसा ही करते. ज्योतिष पर मेरा दृढ़ विश्वास था.

अनु की कही बात इतनी गहराई से मेरे मन में उतर गई कि उस रात मैं सो नहीं सका. करवटें बदलते हुए सोचता रहा कि मैं तो अनु के साथ जीना चाहता हूं, मरना नहीं. फिर क्या उस की दूसरी शादी मुझ से होगी? मगर मैं तो शादी ही नहीं करना चाहता था. फिर कैसा तनाव हो गया था, मेरे मस्तिष्क में.

मैं अगले कई दिनों तक अनु का सामना नहीं कर सका. किसी न किसी बहाने उस से दूर रहने की कोशिश करने लगा. मगर 2-3 दिनों में ही वह सबकुछ समझ गई.

एक शाम मैं अपनी बालकनी में बैठा था कि तभी अनु आई और मेरे पास ही चुपचाप खड़ी हो गई. मैं कुछ नहीं बोल पाया. वह काफी देर तक खड़ी रही. फिर पलट कर वापस जाने लगी तो मैं ने पुकारा, ‘‘अनु.’’

‘‘हूं,’’ वह मेरी ओर मुड़ी. उस की भीगी पलकें देख कर मैं भावविह्वल हो उठा, ‘‘अनु, क्या हुआ? तुम…?’’

‘‘मुझ से ऐसी क्या गलती हो गई जो आप मुझ से नाराज हो गए. ये 3 दिन बरसों के समान भारी थे मुझ पर. यों तो एक पल भी आप के बिना…’’ वाक्य पूरा करने से पहले ही उस की आवाज रुंध गई और वह भाग कर बाहर चली गई.

मैं अवाक् सा कुरसी पर बैठा रह गया. मेरे हाथपैरों में इतनी हिम्मत नहीं रह गई थी कि उठ कर उसे रोकता और उस से कह देता, ‘हां अनु, मैं भी तुम्हारे बिना नहीं रह सकता.’

अनु चली गई थी. उस की बातें सुन कर मैं बेचैन हो उठा. वह वास्तव में मुझे चाहती थी, इस बात का मुझे यकीन नहीं हो रहा था.

मैं खानापीना, सोना सब भूल गया. निर्णय लेने की शक्ति जैसे समाप्त हो चुकी थी. अनु के इजहार के बाद मैं भी उस से मिलने का साहस नहीं कर पा रहा था.

इस के बाद अनु मुझे बहुत दिनों तक दिखाई नहीं दी. एक दिन अचानक पता चला कि उसे कुछ लोग देखने आ रहे हैं. एकाएक मैं बहुत परेशान हो गया. इस बारे में तो मैं ने सोचा ही नहीं था. लड़का खुद भी अनु को देखने आ रहा था. अनु बहुत गंभीर थी. मेरा उस से सामना हुआ, पर वह कुछ नहीं बोली.

दूसरे दिन पता चला कि उन्होंने अनु को पसंद कर लिया है. अब सगाई की तारीख पक्की करने फिर आएंगे.

सुन कर मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी कोई बहुत प्रिय चीज मुझ से छीनी जा रही हो, लेकिन उस वक्त मैं बिलकुल बेजान सा हो गया था, जैसे कुछ सोचने और करने की हिम्मत ही न रह गई हो. सारा दिन अकेले बैठ कर सोचता कि अगर अनु सचमुच मुझे पसंद करती है तो उस ने किसी और से शादी के लिए हां क्यों कर दी. फिर वह इतनी सुंदर भी नहीं जितनी कि मैं चाहता हूं. उस से ज्यादा खूबसूरत लड़की भी मुझे मिल सकती है. फिर अनु ही क्यों? और वह ज्योतिषी वाली बात… 2 शादियां… विधवा…यह सब सोचसोच कर मैं पागल सा हो जाता.

एक हफ्ता यों ही बीत गया. इस बीच अनु जब भी दिखती मैं उस से नजरें चुरा लेता. 7-8 दिन बाद लड़के वाले फिर आए और आगामी माह को सगाई की कोई तारीख पक्की कर के चले गए.

मैं खोयाखोया सा रहने लगा. सगाई की तारीख पक्की होने के बाद अनु फिर मेरे घर आनेजाने लगी. जब भी आती, मुझ से पहले की तरह बातें करती, पर मैं असामान्य हो चला था. शादी के विषय में न मैं ने उस से कोई बात की थी और न ही बधाई दी थी.

अनु के घर सगाई की तैयारियां शुरू हो गई थीं. सगाई व शादी में

10 दिनों का अंतर था. मैं अपना मानसिक तनाव कम करने के लिए दूसरे शहर अपनी बूआ के घर चला गया था. वहीं पर 20-25 दिनों तक रुका रहा क्योंकि अनु की शादी देख पाना असह्य था मेरे लिए.

जब मैं वापस आया, अनु ससुराल जा चुकी थी. मैं अपना मन काम में लगाने लगा. मगर मेरे दिलोदिमाग पर अनु का खयाल इस कदर हावी था कि उस के अलावा मैं कुछ सोच ही नहीं पाता था.

कुछ दिनों के बाद मेरे घर में भी मेरी शादी की बात छिड़ गई. मां ने कहा, ‘‘अब तेरे लिए लड़की देखनी शुरू कर दी है मैं ने.’’

‘‘नहींनहीं, अभी रुक जाइए. 2-3 महीने…’’ मैं ने मां से कहा.

‘‘क्यों? 27 वर्ष का तो हो गया है. अधेड़ हो कर शादी करेगा क्या? फिर यह 2-3 महीने का क्या चक्कर है? मैं यह सब नहीं जानती. यह देख 3 फोटो हैं. इन में से कोई पसंद हो तो बता दे.’’

मां का मन रखने के लिए मैं ने तीनों फोटो देखी थीं.

‘‘देख, इस के नैननक्श काफी आकर्षक लग रहे हैं. रंग भी गोरा है. कद 5 फुट 4 इंच है.’’

पर मुझे उस में कोई सुंदरता नजर नहीं आ रही थी. फोटो में मुझे अनु ही दिखाई दे रही थी. मैं ने मां से कहा, ‘‘नहीं मां, अभी थोड़ा रुक जाओ.’’

‘‘क्यों? क्या तू ने कोई लड़की पसंद कर रखी है? देर करने का कोई कारण भी तो होना चाहिए?’’

मैं चुप रह गया. क्या जवाब देता, पर मैं सचमुच इंतजार कर रहा था कि कब अनु विधवा हो और कब मैं अपने मन की बात उस से कहूं.

शादी के 2 महीने बाद अनु पहली बार मायके आई तो हमारे घर भी आई. शादी के बाद वह बहुत बदल गई थी. साड़ी में उसे देख कर मन में हूक सी उठी कि अनु तो मेरी थी, मैं ने इसे किसी और की कैसे हो जाने दिया.

‘‘कैसी हो, अनु?’’ मैं ने पूछा था.

‘‘अच्छी हूं.’’

‘‘खुश हो?’’

‘‘हां, बहुत खुश हूं. आप कैसे हैं?’’

‘‘ठीक हूं. तुम्हारे पति का स्वास्थ्य कैसा है?’’ अचानक ही मैं यह अटपटा सा प्रश्न कर बैठा था.

वह आश्चर्य से मेरी ओर देखते

हुए बोली, ‘‘क्यों, क्या हुआ है,

उन्हें?’’

‘‘नहीं, यों ही पूछा था,’’ मैं ने हड़बड़ा कर बात को संभाला, ‘‘वे तुम्हारे साथ नहीं दिखे. इसलिए…’’

‘‘ओह, लेकिन वे तो मेरे साथ ही आए हैं. घर पर आराम कर रहे हैं.’’

‘‘अच्छा.’’

अनु चली गई. उसे खुश देख कर मेरा मन बुझ गया. मुझ से दूर जा कर जब उसे कुछ महसूस नहीं हुआ तो मैं ही क्यों पागलों के समान उस की राह देखता हूं. अनु के खयाल को मैं ने दिमाग से झटक देना चाहा.

इस बीच मां रोज ही किसी न किसी लड़की का जिक्र मेरे सामने छेड़ देतीं, लेकिन मैं टालता रहता क्योंकि मन में एक आशा बंधी थी कि शायद ज्योतिषी की बात सच हो जाए.

वक्त धीरेधीरे सरकता रहा. देखते ही देखते 4 साल बीत गए. मैं इंतजार करता रहा, पर ज्योतिषी की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध नहीं हुई. अनु अपने पति के साथ हंसीखुशी जीवन व्यतीत कर रही थी.

मैं अपना सबकुछ खो चुका था. ये

4 साल मुझ पर एक सदी से भी भारी थे. एकएक पल मैं ने किसी मनचाही खबर के इंतजार में गुजारा था. लेकिन वह समाचार मुझ तक कभी नहीं पहुंचा. मैं बहुत स्थायी हो गया था. स्वार्थ इंसान को इस कदर नीचे गिरा देता है, आज सोचता हूं तो आत्मग्लानि से भर उठता हूं.

मां बहुत बीमार थीं. उस दिन वे मुझ से रोते हुए बोलीं, ‘‘अंकित, तू मुझे चैन से मरने भी देगा या नहीं?’’

एक दिन उन्होंने मुझे शादी के लिए मजबूर कर दिया. मैं मन से अनु का था, यह बात मैं उन्हें कैसे बताता. मां से तो क्या, यह बात मैं किसी से भी नहीं कह पाया था, अनु से भी नहीं. काश, मैं ने उस से इस संबंध में कुछ कह दिया होता.

मैं ने मां की बात मान ली. वक्त का महत्त्व मुझे अच्छी तरह समझ आ चुका था कि जो लोग वक्त के साथ नहीं चलते, वक्त भी उन का साथ छोड़ देता है.

अकसर मैं सोचता कि अनु की शादी तय होने के वक्त मैं कहां था. सड़क के किनारे धूनी रमाए किसी ज्योतिषी ने अनु से यों ही कुछ कह दिया और मैं ने आंखें मूंद कर उस पर विश्वास कर लिया, जबकि अनु ने खुद उस का विश्वास कभी नहीं किया.

न जाने क्यों उस वक्त मैं अपार सुंदरता को पाना चाहता था. आत्मविश्वास की कमी या निर्णय ले पाने की अक्षमता में मैं ने खुद ही वह सुनहरा अवसर खो दिया था. कुछ अनोखा पाने की चाह में जो कुछ सामने था, उसे स्वीकार नहीं कर सका और भटकता रहा. मगर मेरी तलाश कभी खत्म नहीं हुई क्योंकि मन का रिश्ता सुंदरता के सारे आयामों से ऊपर होता है और मन ने जो कुछ कहा मैं ने उसे कभी नहीं सुना. महज एक ज्योतिषी की बात मान कर अपनी जिंदगी की सब से अनमोल चीज खो दी थी.

मां की बात मान कर मैं ने उन्हें लड़की पसंद करने के लिए कहा क्योंकि पसंदनापसंद करने की और दोष निकालने की मेरी उम्र बीत चुकी थी.

पर मां बोलीं, ‘‘नहीं, ऐसे नहीं, तू खुद ही पहले लड़की देख ले. बाद का झंझट मुझे पसंद नहीं.’’

‘‘नहीं मां, मैं वादा करता हूं, ऐसा कभी नहीं होगा,’’ मैं ने धीरे से कहा.

मां ने श्रद्धा को पसंद किया. एक साधारण सा सगाई समारोह हुआ. श्रद्धा को उसी दिन देखा था. एक उड़ती सी दृष्टि डाली थी मैं ने उस पर, पर उस ने मुझे कुछ ऐसे देखा था जैसे बरसों से जानती हो.

एक पल में अनु की तुलना मैं ने श्रद्धा से कर डाली. सगाई की अंगूठी पहनाते वक्त भी मैं अनु के बारे में ही सोच रहा था. श्रद्धा से मेरी कोई बात ही नहीं हो पाई.

फिर हमारी शादी हो गई. शादी में अनु भी अपने पति के साथ आई थी. उसे देख कर जख्म फिर ताजा हो गया. फेरों से पहले तक मन में एक उम्मीद बंधी थी.

मां से वादा किया था. फिर श्रद्धा अब मेरी पत्नी थी. अनु को अब मुझे भूलना ही होगा, यह सोच कर मैं ने श्रद्धा से कहा था, ‘‘आज हमारी शादी की पहली रात है. वादा करो कि हर कदम पर मेरा साथ दोगी. अगर कभी मैं कहीं कमजोर पड़ गया तो सहारा दे कर मुझे संभाल लोगी.’’

‘‘आप जैसा चाहेंगे मैं वैसे ही बन कर रहूंगी. अब तो मेरा जीवन ही आप का है. पर यह कमजोर पड़ने वाली बात आप ने क्यों कही?’’

‘‘ऐसे ही. कभीकभी जीवन में कुछ पल ऐसे आते हैं जब इंसान किसी गलत इच्छा या गलत भावना के वशीभूत हो कर कोई गलत काम कर बैठता है. बस, उस समय तुम मुझे संभाल लेना.’’

अनु के बारे में कुछ बताने की मैं ने आवश्यकता नहीं समझी. मैं नए सिरे से जिंदगी शुरू करना चाहता था.

श्रद्धा मेरे लिए बहुत ही अच्छी पत्नी साबित हुई. उस के आते ही मां के स्वास्थ्य में भी सुधार होने लगा. वह मेरा पूरा खयाल रखती थी. दूसरी ओर, मैं भी अपनी ओर से कोई कमी न रखता.

दीवाली नजदीक आ रही थी. अनु मायके आई हुई थी. उस के घर में पुताई हो रही थी. सारा सामान इधरउधर फैला हुआ था. श्रद्धा और मैं अनु से मिलने उस के घर गए. श्रद्धा काम में अनु की मदद कराने लगी, मैं भी मदद कराने के उद्देश्य से इधरउधर फैली हुई किताबें समेटने लगा. अचानक एक डायरी मेरे हाथों से गिर कर खुल गई.

अनु की लिखावट थी, ‘अंकित को…’ मैं अपना नाम पढ़ कर चौंक गया. मैं ने इधरउधर देखा. अनु की पीठ मेरी ओर थी.

मैं ने झुक कर डायरी उठा ली और पढ़ने लगा.

‘जितना मैं अंकित को चाहती हूं. काश, वह भी मुझे उतना ही चाहता. कल मेरी शादी है. मैं किसी और की हो जाऊंगी. काश, मैं अंकित की हो पाती…’

इस के आगे मैं नहीं पढ़ सका. मेरी आंखें नम हो उठीं. अचानक अनु मेरी ओर मुड़ी. फिर चौंक कर बोली, ‘‘अरे, यह तो मेरी डायरी है, आप ने पढ़ी तो नहीं?’’

‘‘नहीं अनु, मैं ने कुछ भी नहीं पढ़ा. यह लो अपनी डायरी.’’

अनु ने मेरे हाथों से डायरी खींच ली. वह पलट कर अंदर जाने लगी तो मैं ने उसे पुकारा, ‘‘अनु.’’

‘‘जी.’’

‘‘सुनो.’’

‘‘क्या बात है?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

फिर न जाने क्यों उस के सिर पर हाथ रख कर बोला, ‘‘सदा सुखी रहो.’’

अनु मेरी ओर देखती रह गई. श्रद्धा भी बाहर आ गई थी. मैं उस से बोला, ‘‘चलो श्रद्धा, घर चलें. मां इंतजार कर रही होंगी.’’

फिर अनु की ओर देखे बिना मैं श्रद्धा को साथ ले कर अपने घर वापस आ गया.

लेखिका- शिखा मिड्ढा

New Story : तारे जमीन पे

New Story :  कालोनी के पार्क से ‘चौक्का’, ‘छक्का’ का शोर गूंजने लगा था. पार्क में अभी धूप पूरी तरह नहीं उतरी थी कि कालोनी के उत्साही किशोर खिलाड़ी नवीन, रजत, सौरभ, रौबिन, अनुराग, शेखर, विलास और सुहास अन्य सभी मित्रों के साथ मैदान में आ जमा हुए. परीक्षा नजदीक थी, पर इन क्रिकेट के दीवानों के सिर पर तो क्रिकेट का जादू सवार था. ऐसे में मम्मीपापा की नसीहतें सूखे पत्तों की तरह हवा में उड़ जाती थीं. कहां रोमांचक खेल कहां नीरस पढ़ाई.

सौरभ अपनी मम्मी की नजरों से बच कर घर से जैसे ही निकला, मम्मी दूध वाले की आवाज सुन कर बाहर आ गईं. सौरभ को चुपके से निकलते देख क्रोधित हो उठीं. फिर तो उसे मम्मी की इतनी फटकार सुननी पड़ी कि रोंआसा हो उठा.  मित्र मंडली में पहुंचते ही सौरभ बोला, ‘‘मम्मीपापा तो हमें कुछ समझते ही नहीं. हमारी पसंदनापसंद से उन्हें कुछ लेनादेना ही नहीं.’’

शेखर भी हाथ नचाते हुए बोला, ‘‘सचिन व गावस्कर के मम्मीपापा का उन के साथ ऐसा व्यवहार रहता तो वे क्रिकेट के सम्राट न बन पाते.’’  नवीन भी बड़े आक्रोश में था. उस के पापा ने तो रात को ही उस का बैट कहीं छिपा दिया था. फिर भी उस के कदम रुके नहीं. सीधे पार्क में पहुंच गया.

दूसरे दिन शनिवार का अवकाश था. आसपास के फ्लैटों में बड़ी रौनक थी. कहीं लजीज नाश्ते की फरमाइश हो रही थी तो कहीं बाहर लंच पर जाने का प्रोग्राम बन रहा था, पर इन सिरफिरे किशोरों पर तो सिर्फ क्रिकेट का भूत सवार था.

पार्क के दूसरी ओर राहुलजी का बंगला दिखाई दे रहा था. वहां की दास्तान और अलग थी. राहुलजी का इकलौता बेटा राजेश भी पार्क में खे रहे बच्चों की ही उम्र का था पर उस की मम्मी रीमा किसी जेलर से कम नहीं थीं. राजेश की दशा भी किसी कैदी सी थी. कड़े अनुशासन में उस की दिनचर्या में सिर्फ पढ़ाई करना ही शामिल था. मौजमस्ती, खेलकूद का उस में कोई स्थान न था. राहुल व रीमा के विचार से चौक्के व छक्के लगाने वाले बच्चे बहुत ही गैरजिम्मेदार एवं बिगड़े होते हैं. वे अपने बेटे राजेश को इन लड़कों से दूर रखते थे. रास्ते में आतेजाते जब कभी राहुल दंपती का सामना इन बच्चों से हो जाता, तो दोनों बड़ी बेरुखी से मुंह फेर कर निकल जाते. बच्चे भी उन्हें देख कर सहम जाते थे.

आज अवकाश के दिन भी राजेश सवेरे से ही किताबी कीड़ा बना था. बच्चों की उत्साह भरी किलकारियां उस के भी कानों तक पहुंच रही थीं. उस का मन मचल उठता पर मम्मी की कड़ी पाबंदी के कारण मन मसोस कर रह जाता. जितना पढ़ाई में मन लगाने की कोशिश करता मन उतना ही पंछी बन खेल के मैदान में उड़ने लगता.  राजेश इसी उधेड़बुन में बैठा था कि तभी अजीब सी गंध महसूस होने लगी. उस के पापा तो बहुत सवेरे ही जरूरी काम से शहर से बाहर गए थे. मम्मी भी किट्टी पार्टी में चली गई थीं. अवसर पा कर रसोइया रामू तथा शंकर भी 1 घंटे की छुट्टी ले कर किसी नेता के दर्शन करने चले गए थे. धीरेधीरे गंध राजेश के दिमाग पर छाने लगी. घरेलू बातों से वह बिलकुल अनजान था. पढ़ाईलिखाई के अलावा मम्मीपापा ने उसे कुछ बताया ही न था.

स्वादिष्ठ लंच व डिनर खाने की मेज पर हो जाता. बाहर जाना होता तो कार दरवाजे पर आ खड़ी होती. अब क्या करे? घबराहट के मारे वह थरथर कांपने लगा. बेहोशी सी आने लगी. सहायता के लिए किसे पुकारे? सामने बच्चे खेल रहे थे पर उन्हें किस मुंह से पुकारे? मम्मी तो उन्हें बिगड़े लड़कों के खिताब से कई बार विभूषित कर चुकी थीं. न जाने कैसे उस के मुंह से नवीन… नवीन… सौरभ… सौरभ… की आवाजें निकलने लगीं.

बच्चों के कानों में जब राजेश की आवाज टकराई तो वे आश्चर्य में डूब गए. खेल वहीं रुक गया. उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था पर रजत ने देखा राजेश सहायता के लिए हाथ से इशारा कर रहा था. फिर क्या था, बैटबौल छोड़ कर सारे बच्चे बंगले की ओर दौड़ पड़े.  राजेश बेहोश हो चुका था. नवीन व सौरभ उसे उठा कर खुले स्थान में ले आए. तब तक रजत, शेखर, सुहास ने घर के सारे दरवाजे, खिड़कियां खोल कर गैस सिलैंडर की नोब बंद कर दी. दरअसल, रसोइया जाने की जल्दी में गैस बंद करना भूल गया था. सौरभ ने तुरंत ऐंबुलैंस के लिए फोन कर दिया.

उसी समय राजेश की मम्मी रीना भी किट्टी पार्टी से लौट आईं. सारी बात जान कर वे बच्चों के सामने ही रो पड़ीं. आज इन बच्चों के कारण एक बड़ी दुर्घटना घटने से टल गई थी. 2 दिन में जब राजेश सामान्य हो गया तो सभी बच्चे उस से मिलने आए. तब राहुलजी ने बारीबारी से सभी बच्चों को गले से लगा लिया. अब वे जान चुके थे कि पढ़ाईलिखाई के साथसाथ खेलकूद भी जरूरी है. इस से सूझबूझ व आपसी सहयोग व मित्रता की भावनाएं पनपती हैं.  अगली शाम को जब क्रिकेट टीम कालोनी के पार्क में इकट्ठी हुई तो अधिक चौक्के व छक्के राजेश ने ही लगाए. सामने खड़ी उस की मम्मी मंदमंद मुसकरा रही थीं. उन्हें मुसकराते देख कर बच्चों को लगा जैसे तपिश भरी शाम के बाद हलकीहलकी बरसात हो रही हो.

Funny Story 2025 : मातम पुराण

Funny Story 2025 :  सब्जीवाले की आवाज सुन कर सुमि सब्जी लेने बाहर निकली तो उस के साथसाथ उस की पड़ोसिन रीमा भी बाहर आई और बोली, ‘‘सुमि, क्या तुझे पता है कि नम्रता की बेटी की डैथ हो गई है?’’

‘‘क्या?’’ सुमि का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘‘कब? कैसे?’’

‘‘कल. कैसे हुई, यह तो मुझे भी पता नहीं… मुझे तो कुछ देर पहले शैली ने फोन किया था तब पता चला,’’ रीमा बोली.

‘‘उफ, नम्रता बेचारी का तो बहुत बुरा हाल होगा,’’ सुमि ने अफसोस प्रकट किया.

रीमा बोली, ‘‘किसी की 18-19 साल की बेटी यों चली जाए तो हाल तो बुरा होगा ही. सुन, अब हमें भी जाना चाहिए वरना अच्छा नहीं लगेगा.’’

सुमि मटर टटोलती हुई बोली, ‘‘हां भई, जाना तो पड़ेगा ही… तू शैली, सोनू, निम्मी, निशि, निक्की सब से पूछ ले. हम सब एकसाथ एक ही गाड़ी में चल पड़ेंगी.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा. तो फिर कब चलें?’’ रीमा ने गोभी तुलवाते हुए पूछा.

‘‘मैं आज नहीं जा सकूंगी, क्योंकि

कल टीनू का पेपर है… मुझे उसे पढ़ाना है,’’ सुमि बोली.

रीमा ने मन ही मन सोचा, ‘इसे बेटे के पेपर की पड़ी है… उस की पलीपलाई बेटी

चली गई…’ पर प्रत्यक्षत: बोली, ‘‘कल मेरे आदि का बर्थडे है, इसलिए कल मैं नहीं जा पाऊंगी.’’

‘किसी की जवान बेटी की मौत हो गई और इसे बर्थडे मनाने की पड़ी है… सांत्वना नाम की तो जैसे कोई चीज ही नहीं रह गई है,’ सुमि ने मन में सोचा. पर फिर वह प्रत्यक्षत: बोली, ‘‘ठीक है, तो फिर परसों चलेंगे.’’

रीमा ने भी हामी भरते हुए कहा, ‘‘ठीक है, शैली, निशि व निक्की से तू बात कर लेना और सोनू व निम्मी से मैं कर लूंगी.’’

सुमि मन ही मन बड़बड़ाई कि किसी दिन 2 फोन ज्यादा कर लेगी तो मर नहीं जाएगी… कंजूस कहीं की. फिर बोली, ‘‘हां, कर लूंगी.’’

नियत दिन नम्रता के घर जाने के लिए सब इकट्ठी हुईं. चूंकि सुमि की कार बड़ी थी, इसलिए उसी में जाना तय हुआ. कार में बैठते ही शैली बोली, ‘‘सच पूछो तो आजकल किसी बात का कोई भरोसा नहीं… पता नहीं कब क्या हो जाए.’’

निक्की बोली, ‘‘हां, ठीक कह रही हो… बताओ किसे पता था कि इस तरह हंसतीबोलती लड़की यों अचानक चली जाएगी.’’

आगे की सीट पर बैठी निशि बोली, ‘‘मेरी मौसी की लड़की के साथ भी ऐसा ही हुआ था. मौसी बेचारी बहुत दिनों तक इस सदमे से नहीं उबर सकी थीं… नम्रता का पता नहीं क्या हाल हो रहा होगा.’’

पीछे बैठी निम्मी बोली, ‘‘क्यों, कहीं लड़केवड़के का चक्कर तो नहीं था… आजकल की जनरेशन… कुछ बोल नहीं सकते बाबा…’’

निक्की ने भी हां में हां मिलाई, ‘‘कुछ भी हो सकता है. आजकल के बच्चे टीवी, इंटरनैट से और कुछ सीखें न सीखें इश्क, प्यार, मुहब्बत की बातें जरूर सीख जाते हैं.’’

शैली बोली, ‘‘क्या कह सकते हैं भई, मैं ने तो यही सुना है कि कुछ प्यारव्यार का चक्कर था. अब पता नहीं उस ने क्या किया पर ये लोग कुछ बताएंगे नहीं,’’ कहतेकहते शैली ने निक्की की

साड़ी छुई, ‘‘साड़ी अच्छी लग रही है… कितने की ली?’’

निक्की गर्व से बोली, ‘‘3 हजार की है. तुझे तो पता ही है ऐसीवैसी चीज मुझे पसंद नहीं… अब कहीं ऐसे में जाना हो तो मेरी बड़ी आफत हो जाती है, क्योंकि ढाईतीन हजार से कम की तो मेरे पास कोई साड़ी है ही नहीं.’’

उस की गर्वोक्ति पर निशि मुसकराती हुई बोली, ‘‘अरे, कुछ नहीं सीरियल ज्यादा देखती है न, इसलिए उन का असर ज्यादा हो रहा है. जब देखो तब सीरियलों की हीरोइनों की तरह बनीठनी घूमती रहती है.’’

यह सुनते ही सब हंस पड़ीं.

तभी ड्राइविंग सीट पर इतनी देर से चुप बैठी सुमि बोली, ‘‘इसीलिए मैं सीरियल नहीं देखती हूं. कुछ थोड़ा अच्छा लगने लगता है कि सीरियल निर्माता इलास्टिक की तरह इतना खींचने लगते हैं कि न ओर का पता चलता है और न छोर का. अपने लिए तो कौमेडी बढि़या है. देखो, हंसो और भूल जाओ.’’

निशि बोली, ‘‘नहीं भई, हम तो जब तक कोई सीरियल नहीं देख लेते हमारा खाना ही हजम नहीं होता है.’’

सब हंसने लगीं. इसी बीच नम्रता का घर आ गया. सभी ने तुरंत चेहरे पर गंभीरता ओढ़ ली और धीरेधीरे घर में प्रवेश किया. नम्रता के पास 2-4 और महिलाएं बैठी थीं. उन्हें देख कर सब ने उन के लिए जगह बनाई.

रीमा नम्रता के पास ऐसे खिसक आई जैसे उस की बेटी के मरने का सब से ज्यादा दुख उसे ही हुआ हो. बोली, ‘‘मुझे तो कल शाम ही शैली ने बताया तो मुझे तो विश्वास ही नहीं हुआ. मैं तो कल ही आने वाली थी पर घर में अचानक मेहमान आ गए.’’

शैली की उदासी टपकी, ‘‘हमारे तो घर में किसी को यह विश्वास ही नहीं हो रहा था. मेरी बेटी तो कल से खाना नहीं खा रही. बस यही पूछे जा रही है कि ऐसा कैसे हो सकता है? वैसे हुआ क्या था?’’

फिर सब वही शुरू हो गया. क्या हुआ? कैसे हुआ? तुम ने देखा नहीं क्या? यह सब सुन कर नम्रता फफकफफक कर रोने लगी तो सभी उस के आसपास ऐसी इकट्ठी हो गईं जैसे उन से बड़ा नम्रता का दुख बांटने वाला और कोई है ही नहीं.

सुमि ने सांत्वना दी, ‘‘सब्र कर नम्रता. अब अपने हाथ में तो कुछ है नहीं. जो होना था हो गया.’’

रोने की कोशिश करते हुए निशि बोली, ‘‘हां, प्रकृति की मरजी के आगे किस की चलती है. अब तो तुझे ही देखना है. तू अगर हिम्मत हार जाएगी तो इसे कौन संभालेगा?’’ उस ने नम्रता के बेटे की तरफ इशारा किया.

रीमा बोली, ‘‘जिस ने दी थी उस ने ले ली. वैसे हुआ क्या था?’’

नम्रता रोतेरोते बोली, ‘‘कुछ नहीं, रात को अच्छीभली खाना खा कर सोई. सुबह थोड़ा जल्दी उठ गई. बोली कि मम्मी, मुझे चक्कर सा आ रहा है. मैं ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया. कहा कि ऐसे ही आया होगा. तू जा कर सो जा. फिर ऐसी सोई कि उठी ही नहीं.’’

शैली बोली, ‘‘कुछ भी कहो भई, ऐसा पलापलाया बच्चा चला जाए तो कौन हिम्मत रख सकेगा? कुदरत को लेना ही था तो पहले ही ले लेता… इतने दिन भी क्यों रखा?’’

उस की इस बात से नम्रता और ज्यादा रोने लगी तो उस की सास बोलीं, ‘‘बस, ऐसे ही रोती रहती है सारा दिन. अब अपने हाथ में होता तो जरूर कुछ करते, पर अब क्या करें? मरने वाले के साथ मरा तो नहीं जाता? रोने से क्या वह वापस आ जाएगी? तुम्हीं लोग समझाओ इसे अब.’’

निक्की बोली, ‘‘सही बात है. रोने से वह वापस नहीं आ जाएगी. यही शुक्र मना कि बेटी थी. बेटा होता तो…’’

निम्मी ने उस का हाथ पकड़ कर दबा दिया तो वह चुप हो गई.

सांत्वना प्रकट कर और नम्रता को रुला कर वे घर से बाहर आ गईं. गाड़ी में बैठतेबैठते रीमा बोली, ‘‘उस की देवरानी को देखा कैसी मटकमटक कर घूम रही थी… लग ही नहीं रहा था कि उसे कोई दुख हुआ है.’’

सुमि बोली, ‘‘हां और उस की सास भी. देखा कैसे मुंह बना रही थी जब नम्रता रो रही थी.’’

शैली ने भी हां में हां मिलाई, ‘‘और क्या, बोल रही थी कि मरने वाले के साथ मरा तो नहीं जाता. बता उस की पलीपलाई बेटी चली गई तो क्या वह रोएगी नहीं? ये ससुराल वाले होते ही ऐसे हैं… पर कुछ भी बोलो मुझे तो कुछ प्यारव्यार का ही चक्कर लगता है. बदनामी के डर से कुछ खा लिया होगा.’’

‘‘हां, इसीलिए ससुराल वाले दुख मनाने का नाटक कर रहे थे. सोच रहे होंगे अच्छा हुआ गई, नहीं तो कौन बदनामी का ठीकरा झेलता. फिर दहेज भी बच गया,’’ निक्की ने भी शैली की हां में हां मिलाई.

रीमा बोली, ‘‘और क्या… ऐसीवैसी कोई बात सामने आती तो शादी करना मुश्किल हो जाता… अब छोड़ो सुमि मुझे मार्केट से कुछ सामान खरीदना है तू गाड़ी उस तरफ घुमा ले न.’’

निक्की भी क्यों पीछे रहती. उसे भी बाजार के कई काम याद आ गए. बोली, ‘‘हां यार सुमि, एकडेढ़ घंटा लगेगा पर कुछ खरीदारी हो जाएगी.’’

सब की सब तैयार थीं. अत: सुमि ने गाड़ी मार्केट की तरफ घुमा ली. शौपिंग, खानापीना और हंसीमजाक के बाद सभी सखियां कच्ची मौत का मातम मना कर घर लौट आईं.

राइटर- ममता मेहता

Hindi Short Stories 2025 : कैक्टस के फूल

Hindi Short Stories 2025 : तीसरी मंजिल पर चढ़ते हुए नए जूते के कसाव से पैर की उंगलियों में दर्द होने लगा था किंतु ममता का सुगठित सौंदर्य सौरभ को चुंबक के समान ऊपर की ओर खींच रहा था.

रास्ते में बस खराब हो गई थी, इस कारण आने में देर हो गई. सौरभ ने एक बार पुन: कलाई घड़ी देखी, रात के साढ़े 8 बज चुके हैं, मीनीचीनी सो गई होंगी. कमरे का सूना सन्नाटा हाथ उचकाउचका कर आमंत्रित कर रहा था. उंगली की टीस ने याद दिलाया कि जब वे इस भवन में मकान देखने आए थे तो नीचे वाला हिस्सा भी खाली था किंतु ममता ने कहा था कि अकेली स्त्री का बच्चों के साथ नीचे रहना सुरक्षित नहीं, इसी कारण वह तिमंजिले पर आ टंगी थी.

बंद दरवाजे के पीछे से आने वाले पुरुष ठहाके ने सौरभ को चौंका दिया. वह गलत द्वार पर तो नहीं आ खड़ा हुआ? अपने अगलबगल के परिवेश को दोबारा हृदयंगम कर के उस ने अपने को आश्वस्त किया और दरवाजे पर धक्का दिया. हलके धक्के से ही द्वार पूरा खुल गया. भीतर से चिटकनी नहीं लगी थी. ट्यूब- लाइट के धवल प्रकाश में सोफे पर बैठे अपरिचित युवक के कंधों पर झूलती मीनीचीनी और सामने बैठी ममता के प्रफुल्लित चेहरे को देख कर वह तिलमिला गया. वह तो वहां पत्नी और बच्चों की याद में बिसूरता रहता है और यहां मसखरी चल रही है.

उसे आया देख कर ममता अचकचा कर उठ खड़ी हुई, ‘‘अरे, तुम.’’

बच्चियां भी ‘पिताजीपिताजी’ कह कर उस के पैरों से लिपट गईं. पल भर को उस के घायल मन पर शीतल लेप लग गया. अपरिचित युवक उठ खड़ा हुआ था, ‘‘अब मैं चलता हूं.’’

‘‘वाह, मैं आया और आप चल दिए,’’ सौरभ की वाणी में व्यंग्य था.

‘‘ये कपिलजी हैं, मेरे स्कूल में अध्यापक हैं,’’ ममता ने परिचय कराया.

‘‘आज ममताजी स्कूल नहीं गई थीं, वहां पता चला कि मीनी की तबीयत खराब है, उसी को देखने आया था,’’ कपिल ने बिना पूछे अपनी सफाई दी.

‘‘क्या हो गया है मीनी को?’’ सौरभ चिंतित हो गया था.‘‘कुछ विशेष नहीं, सर्दीखांसी कई दिनों से है. सोचा, आज छुट्टी ले लूं तो उसे भी आराम मिलेगा और मुझे भी.’’

सौरभ का मन बुझता जा रहा था. वह चाहता है कि ममता अपनी छुट्टी का एकएक दिन उस के लिए बचा कर रखे, यह बात ममता से छिपी नहीं है. न जाने कितनी बार कितनी तरह से वह उसे बता चुका है फिर भी…और बीमार तो कोई नहीं है. अनमनेपन से कुरसी पर बैठ कर वह जूते का फीता खोलने लगा, उंगलियां कुछ अधिक ही टीसने लगी थीं.

‘‘चाय बनाऊं या भोजन ही करोगे,’’ ममता के प्रश्न से उस ने कमरे में चारों ओर देखा, कपिल जा चुका था.

‘‘जिस में तुम्हें सुविधा मिले.’’

पति की नाराजगी स्पष्ट थी किंतु ममता विशेष चिंतित नहीं थी. अपने प्रति उन की आसक्ति को वह भलीभांति जानती है, अधिक देर तक वह रूठे रह ही नहीं सकते.

बरतनों की खटपट से सौरभ की नींद खुली. अभी पूरी तरह उजाला नहीं हुआ था, ‘‘ममता, इतने सवेरे से क्या कर रही हो?’’

‘‘अभी आई.’’

कुछ देर बाद ही 2 प्याले चाय ले कर वह उपस्थित हो गई, ‘‘तुम्हारी पसंद का नाश्ता बना रही हूं, कल रात तो कुछ विशेष बना नहीं पाई थी.’’

‘‘अरे भई, नाश्ता 9 बजे होगा, अभी 6 भी नहीं बजे हैं.’’

‘‘स्कूल भी तो जाना है.’’

‘‘क्यों, आज छुट्टी ले लो.’’

‘‘कल छुट्टी ले ली थी न. आज भी नहीं जाऊंगी तो प्रिंसिपल का पारा चढ़ जाएगा, परीक्षाएं समीप हैं.’’

‘‘तुम्हें मालूम रहता है कि मैं बीचबीच में आता हूं फिर उसी समय छुट्टी लेनी चाहिए ताकि हम सब पूरा दिन साथसाथ बिताएं, कल की छुट्टी लेने की क्या तुक थी, मीनी तो ठीक ही है,’’?सौरभ ने विक्षुब्ध हो कर कहा.

‘‘कल मैं बहुत थकी थी और फिर आज शनिवार है. कल का इतवार तो हम सब साथ ही बिताएंगे.’’

सौरभ चुप हो गया. ममता को वह जानता है, जो ठान लिया तो ठान लिया. उस ने एक बार सामने खड़ी ममता पर भरपूर दृष्टि डाली.

10 वर्ष विवाह को हो गए, 2 बच्चियां हो गईं परंतु वह अभी भी फूलों से भरी चमेली की लता के समान मनमोहिनी है. उस के इस रूप के गुरुत्वाकर्षण से खिंच उस की इच्छाओं के इर्दगिर्द चक्कर काटता रहता है सौरभ. उस की रूपलिप्सा तृप्त ही नहीं होती. इंजीनियरिंग पास करने के बाद विद्युत बोर्ड में सहायक अभियंता के रूप में उस की नियुक्ति हुई थी तो उस के घर विवाह योग्य कन्याओं के संपन्न अभिभावकों का तांता लग गया था. लंबेचौड़े दहेज का प्रलोभन किंतु उस की जिद थी कन्या लक्ष्मी हो न हो, मेनका अवश्य हो.

जब भी छुट्टियों में वह घर जाता उस के आगे चित्रों के ढेर लग जाते और वह उन सब को नकार देता.

उस बार भी ऐसा ही हुआ था. खिसियाई हुई मां ने अंतिम चित्र उस के हाथ में थमा कर कहा था, ‘‘एक फोटो यह भी है किंतु लड़की नौकरी करती है और तुम नौकरी करने वाली लड़की से विवाह करना नहीं चाहते.’’

बेमन से सौरभ ने फोटो को देखा था और जब देखा तो दृष्टि वहीं चिपक कर रह गई, लगा उस की कल्पना प्रत्यक्ष हो आई है.

ममता पटना में केंद्रीय विद्यालय में अध्यापिका थी और सौरभ भी उन दिनों वहीं कार्यरत था. छुट्टियों के बाद पटना जा कर पहला काम जो उस ने किया वह था ममता से मुलाकात. स्कूल के अहाते में अमलतास के पीले गुच्छों वाले फूलों की पृष्ठभूमि में ममता का सौंदर्य और भी दीप्त हो आया था. वह तो ठगा सा रह गया किंतु तब भी ममता ने यथार्थ की खुरदरी बातें ही की थीं, ‘‘वह विवाह के बाद भी नौकरी करना चाहती है क्योंकि इतनी अच्छी स्थायी नौकरी छोड़ना बुद्धिमानी नहीं है.’’

सौरभ तो उस समय भावनाओं के ज्वार में बह रहा था. ममता जो भी शर्त रखती वह उसे मान लेता फिर इस में तो कोई अड़चन नहीं थी. दोनों को पटना में ही रहना था. अड़चन आई 6 वर्ष बाद जब सौरभ का स्थानांतरण बिहार शरीफ के लिए हो गया. उस की हार्दिक इच्छा थी कि ममता नौकरी छोड़ दे और उस के साथ चले. 5 वर्ष की मीनी का उसी वर्ष ममता के स्कूल में पहली कक्षा में प्रवेश हुआ था. चीनी साढ़े 3 वर्ष की थी. वैसे सौरभ नौकरी छोड़ने को न कहता यदि ममता का तबादला हो सकता. वह केंद्रीय विद्यालय में थी और प्रत्येक शहर में तो केंद्रीय विद्यालय होते नहीं. परंतु ममता इस के लिए किसी प्रकार सहमत नहीं थी. उस के तर्क में पर्याप्त बल था. सौरभ के कई सहकर्मियों ने बच्चों की शिक्षा के लिए अपने परिवार को पटना में रख छोड़ा था. उन लोगों की बदली छोटेबड़े शहरों में होती रहती है. सब जगह बढि़या स्कूल तो होते नहीं. फिर आज मीनीचीनी छोटी हैं कल को बड़ी होंगी.

उस ने अपनी नौकरी के संबंध में कुछ नहीं कहा था परंतु सौरभ नादान तो नहीं था. मन मार कर ममता और बच्चों के रहने की समुचित व्यवस्था कर के उसे अकेले आना पड़ा. गरमी की छुट्टियों में पत्नी और बच्चे उस के पास आ जाते, छोटीछोटी छुट्टियों में कभी दौरा बना कर, कभी ऐसे ही सौरभ आ जाता.

गत 4 वर्षों से गृहस्थी की गाड़ी इसी प्रकार धकियाई जा रही थी. अकेले रहते और नौकर के हाथ का खाना खाते उस का स्वास्थ्य गड़बड़ रहने लगा था. 2 जगह गृहस्थी बसाने से खर्च भी बहुत बढ़ गया था. परंतु ममता की एक मुसकान भरी चितवन, एक रूठी हुई भंगिमा उस की सारी झुंझलाहट को धराशायी कर देती थी और वह उस रूपपुंज के इर्दगिर्द घूमने वाला एक सामान्य सा उपग्रह बन कर रह जाता.

9 बजे ममता और बच्चियों के जाने के बाद सौरभ ने स्नान किया, तैयार हो कर सोचा कि सचिवालय का एक चक्कर लगा आए. पटना स्थानांतरण के लिए किए गए प्रयासों में एक प्रयास और जोड़ ले. दरवाजे पर ताला लगा कर चाबी सामने वाले मकान में देने के लिए घंटी बजाई. गृहस्वामिनी निशि गीले हाथों को तौलिए से पोंछती हुई बाहर निकलीं, ‘‘अरे भाईसाहब, आप कब आए?’’

‘‘कल रात,’’ सौरभ ने उन्हें चाबी थमाने का उपक्रम किया. निशि ने चाबी लेने में कोई शीघ्रता नहीं दिखाई, ‘‘अब तो भाईसाहब, आप यहां बदली करवा ही लीजिए. अकेली स्त्री के लिए बच्चों के साथ घर चलाना बहुत कठिन होता है. बच्चे हैं तो हारीबीमारी चलती ही रहती है, यह तो कहिए आप के संबंधी कपिलजी हैं जो आप की अनुपस्थिति में पूरी देखरेख करते हैं, आजकल इतना दूसरों के लिए कौन करता है?’’

सौरभ अचकचा गया, वह तो कपिल को जानता तक नहीं. ममता ने झूठ का आश्रय क्यों लिया? उस ने निशि की ओर देखा, होंठों के कोनों और आंखों से व्यंग्य भरी मुसकान लुकाछिपी कर रही थी.

‘‘हां, बदली का प्रयास कर तो रहा हूं,’’ सौरभ सीढि़यों से नीचे उतर आया. नए जूते के कारण उंगलियों में पड़े छाले उसे कष्ट नहीं दे रहे थे क्योंकि देह में कैक्टस का जंगल उग आया था.

सचिवालय के गलियारे में इधरउधर निरुद्देश्य भटक कर वह सांझ गए लौटा. मीनीचीनी की मीठी बातें, ममता की मधुर मुसकान उस पर पहले जैसा जादू नहीं डाल सकीं. 10 वर्षों की मोहनिद्रा टूट चुकी थी.

ममता ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? तबादले की फाइल आगे बढ़ी?’’

‘‘कुछ होनाहवाना नहीं है, सभी तो यहीं आना चाहते हैं. मैं तो सोचता हूं कि अब हम सब को इकट्ठे रहना चाहिए.’’

‘‘यह कैसे संभव होगा?’’ ममता के माथे पर बल पड़ गए थे.

‘‘संभव क्यों नहीं है? यहां का खर्च तुम्हारे वेतन से तो पूरा पड़ता नहीं. दोनों जनों की कमाई से क्या लाभ ब बचत न हो.’’

‘‘क्या सबकुछ रुपयों के तराजू पर तोला जाएगा? मीनीचीनी को केंद्रीय विद्यालय में शिक्षा मिल रही है, वह क्या कुछ नहीं?’’

‘‘आजकल सब शहरों में कान्वेंट स्कूल खुल गए हैं…फिर तुम स्वयं उन्हें पढ़ाओगी. तुम नौकरी करना ही चाहोगी तो वहां भी तुम्हें मिल जाएगी.’’

‘‘और मेरी 12 वर्षों की स्थायी नौकरी? क्या इस का कुछ महत्त्व नहीं?’’ ममता का क्रोध चरम पर था.

‘‘अब सबकुछ चाहोगी तो कैसे होगा?’’ हथियार डालते हुए सौरभ सोच रहा था. मैं क्यों ममता के तर्ककुतर्कों के सामने झुक जाता हूं? अपनी दुर्बलता से उत्पन्न खीज को दबाते हुए वह मन ही मन योजना बनाने लगा कि कैसे वह अपने क्रोध को अभिव्यक्ति दे.

दूसरे दिन प्रात:काल ही वह जाने के लिए तैयार हो गया. ममता ने आश्चर्य से टोका, ‘‘आज तो छुट्टी है…सुबह से ही क्यों जा रहे हो?’’

‘‘मुझे वहां काम है,’’ उस ने रुखाई से कहा. ममता को जानना चाहिए कि वह भी नाराज हो सकता है.

वापस आने के बाद भी सौरभ को चैन नहीं था. हर समय संदेह के बादलों से विश्वास की धूप कहीं कोने में जा छिपी थी. मन में युद्ध छिड़ा हुआ था, ‘स्त्री की आत्मनिर्भरता तो गलत नहीं, कार्यरत स्त्री की पुरुषों से मैत्री भी अनुचित नहीं फिर उस का सारा अस्तित्व कैक्टस के कांटों से क्यों बिंधा जा रहा है?’

विवेक से देखने पर तो सब ठीक लगता है परंतु भावना का भी तो जीवन में कहीं न कहीं स्थान है. इच्छा होती है कि एक बार उन लोगों के सामने मन की भड़ास पूरी तरह निकाल ले. इसी धुन में 3-4 दिन बाद वह पुन: पटना पहुंचा. उस समय शाम के 7 बज रहे थे. द्वार पर ताला लगा था.

निशि ने भेदभरी मुसकान के साथ बताया, ‘‘कपिलजी के साथ वे लोग बाहर गए हैं.’’

वह उन्हीं की बैठक में बैठ गया. आधे घंटे बाद सीढि़यों पर जूतेचप्पलों के शोर से अनुमान लगा कि वे लोग आ गए हैं. सौरभ बाहर निकल आया. आगेआगे सजीसंवरी ममता, पीछे चीनी को गोद में लिए कपिल और हाथ में गुब्बारे की डोर थामे मीनी. अपने स्थान पर कपिल को देख कर आगबबूला हो उठा.

ममता भी सकपका गई थी, ‘‘सब ठीक है न?’’

‘‘क्यों, कुछ गलत होना चाहिए?’’ अंतर की कटुता से वाणी भी कड़वी हो गई थी.

‘‘नहींनहीं, अभी 3 दिन पहले यहां से गए थे, इसी से पूछा.’’

‘‘मुझे नहीं आना चाहिए था क्या?’’ सौरभ का क्रोध निशि और कपिल की उपस्थिति भी भूल गया था.

बिना कुछ बोले ममता ने ताला खोला, कपिल की गोद से बच्ची को ले कर उसे मूक विदाई दी. सौरभ जब भीतर आ गया तो दरवाजा बंद कर के ममता उन के सम्मुख तन कर खड़ी हो गई. पल भर उस की आंखों में आंखें डाल कर उस के क्रोध को तोला फिर तीखेपन से कहा, ‘‘क्या हो गया है तुम्हें, सब के सामने इस प्रकार बोलते हुए तुम्हें जरा भी झिझक नहीं लगी?’’

‘‘और तुम जो परपुरुष के साथ हीही, ठींठीं करती फिरती हो, घूमने जाती हो, उस में कुछ भी झिझक नहीं?’’

‘‘कपिल के लिए ऐसा कहते तुम्हें लज्जा नहीं आती? सहशिक्षा के स्कूल में पढ़ाती हूं, वहां स्त्रियों से अधिक पुरुष सहकर्मी हैं, उन्हें अछूत मानने से नहीं चलता. मुझे बच्चों की यूनिफार्म लेनी थी. कपिल भी साथ चले गए तो कौन सी आफत आ गई?’’

‘‘कपिल ही क्यों? दूसरा कोई क्यों नहीं?’’

‘‘कुछ तो शर्म करो, अपनी पत्नी पर लांछन लगाने से पहले सोचनासमझना चाहिए. मुझ से कम से कम 8 वर्ष छोटे हैं. अपने परिवार से पहली बार अलग हो कर यहां आए हैं, मीनीचीनी को बहुत मानते हैं. इसी से कभीकभी आ जाते हैं, इस में बुरा क्या है?’’

सौरभ को लगा कि वह पुन: पत्नी के सम्मुख हतप्रभ होता जा रहा है. उस ने अंतिम अस्त्र फेंका, ‘‘मेरे समझने न समझने से क्या होगा, दुनिया स्त्रीपुरुष की मित्रता का अर्थ बस एक ही लेती है.’’

‘‘दुनिया के न समझने से मुझे कुछ अंतर नहीं पड़ता, बस, तुम्हें समझना चाहिए.’’

सौरभ बुझ गया था. रात भर करवटें बदलता रहा. बगल में सोई ममता दहकती ज्वाला के समान उसे जला रही थी.

तीसरे दिन स्कूल में दोपहर की छुट्टी में ममता ने मीनीचीनी के साथ परांठे का पहला कौर तोड़ा ही था कि चपरासी ने आ कर कहा, ‘‘प्रिंसिपल साहब ने आप को अभी बुलाया है, बहुत जरूरी काम है.’’

हाथ का कौर चीनी के मुंह में दे कर, वह उठ खड़ी हुई. पिछले कुछ दिनों से वह उलझन में थी, विचारों के सूत्र टूटे और पुराने ऊन के टुकड़ों के समान बदरंग हो गए थे. सबकुछ ठीक चल रहा था. उस दिन सौरभ और कपिल का सामना न होता तो सब ठीक ही रहता. सौरभ को वह दोष नहीं दे पाती. उस की प्रतिक्रिया पुरुषोचित थी.

सौरभ इंजीनियर के अच्छे पद पर है, पैसा और रुतबा पूरा है फिर उस का नौकरी करना कोई माने नहीं रखता किंतु वह क्या करे? अपनी निजता को कैसे तज दे?

जब से होश संभाला, पढ़ना और पढ़ाना जीवन के अविभाज्य अंग बने हुए हैं. अब सब छोड़ कर घर की सीमाओं में आबद्ध रह कर क्या वह संतुष्ट और प्रसन्न रह सकेगी?

कपिल…हां, रूपसी होने के कारण पुरुषों की चाह भरी निगाहों का प्रशंसनीय, उस ने अपना अधिकार समझ कर गौरव के साथ स्वीकारा है. कपिल भी उसी माला की एक कड़ी है. हां, अधिक है तो उस की एकाग्र भक्ति.

वह जानती है कि केवल उस के सान्निध्य के लिए वह बच्चियों के कितने उपद्रव झेल लेता है. अपने प्रति उस के सीमातीत लगाव से कहीं ममता का अहम परितृप्त हो जाता है, इस से अधिक तो कुछ भी नहीं. खिन्न अंतस पर औपचारिक मुसकान ओढ़ कर उस ने प्रिंसिपल के कक्ष में प्रवेश किया.

‘‘ममताजी,’’ पिं्रसिपल का स्वर चिंतायुक्त था, ‘‘अभी बिहारशरीफ से ट्रंककाल आया है, आप के पति अस्पताल में भर्ती हैं.’’

ममता के पैरों तले धरती खिसक गई. किंकर्तव्यविमूढ़ सी उस ने कुरसी को थाम लिया. उसी अर्द्धचेतनावस्था में कपिल के फुसफुसाते हुए शब्द स्वयं उस के कानों में पड़ रहे थे, ‘‘ममताजी, मैं टैक्सी ले कर आता हूं.’’

एक अंतहीन यात्रा की कामना. क्योंकि यात्रा के अंत पर अदृष्ट की क्रूर मुसकान को झेल न सकने की असमर्थता, कपिल की निरंतर सांत्वना तेल से चिकनी धरती पर स्थिर न रहने वाले जल कणों के समान निष्फल हो रही थी. ममता के समूचे अस्तित्व को जैसे लकवा मार गया था.

अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में पीले, निस्तेज सौरभ को सफेद पट्टियों से रहित देख कर पल भर को उसे ढाढ़स मिला, दोबारा देखने पर नाक में नली लगी देख उसे मूर्च्छना सी आ गई, वह वहीं धरती पर बैठ गई.

‘‘ममताजी, धैर्य रखिए, इंजीनियर साहब खतरे से बाहर हैं,’’ ममता की हालत देख कर कपिल व्याकुल हो कर उसे धैर्य बंधाने में अपनी शक्ति लगाए दे रहा था. ममता का सारा शरीर थरथर कांप रहा था, काफी देर बाद अपने को संभाल पाई वह. नहीं दुर्घटना तो नहीं हुई है, जिस की कल्पना कर के वह अधमरी हो गई थी, फिर इन्हें क्या हो गया है? अभी 3 दिन पहले तक तो अच्छेभले थे.

बड़े डाक्टर को एक तरफ पा कर उस ने पूछा, ‘‘इन्हें क्या हुआ है, डाक्टर साहब?’’

‘‘आप इन की पत्नी हैं न. इन्होंने पिछली रात नींद की गोलियां खा ली थीं.’’

डाक्टर का स्वर आरोप भरा था, ‘‘सुखी सद्गृहस्थ आत्महत्या क्यों करेगा?’’ ममता को पुन: चक्कर आ गया, उसे लगा समूचा विश्व उस पर हत्या का आरोप लगा रहा है. यहां तक कि उस की अंतरात्मा भी उसे ही अभियुक्त समझ रही है. उस की सारी दृढ़ता चूरचूर हो कर बिखर गई थी.

कालरात्रि के समान वह रात बीती, भोर की प्रथम किरण के साथ सौरभ ने आंखें खोलीं. ममता और उस के पास खड़े कपिल को देख कर उस ने पुन: आंखें मूंद लीं. कपिल के शब्द बहुत दूर से आते लग रहे थे, ‘‘ममताजी, चाय पी लीजिए, कल से आप ने कुछ खाया नहीं है. इस तरह अपने को क्यों कष्ट दे रही हैं, सब ठीक हो जाएगा.’’

क्षीण देह की भीषण पीड़ा मन को संवेदनशीलता के सामान्य धरातल से ऊंचा उठा देती है, नितांत आत्मीय भी अपरिचितों की भीड़ में ऐसे मिल जाते हैं कि रागद्वेष निस्सार लगते हैं. सत्य की अनुभूति है केवल एक विराट शून्य में तैरती हुई देह और भावनाएं, बाहरी दुनिया के कोलाहल से परे स्थितप्रज्ञ की स्थिति आंखें खुलतीं तो ममता के सूखे मुख पर पल भर को चमक आ जाती.

लगभग एक सप्ताह के उपरांत सौरभ पूरी तरह चैतन्य हुआ. जीवन के अंत को इतने समीप से देख लेने के बाद अपना आवेग, अपनी प्रतिक्रिया सभी कुछ निरर्थक लग रहे थे. मृत्यु के मुख से लौट आने की लज्जा ने उस की वाणी को संकुचित कर दिया था.

अस्पताल से घर आने के बाद ममता से कुछ कहने के लिए पहली बार साहस बटोरा, ‘‘तुम अब पटना चली जाओ, काफी छुट्टी ले चुकी हो.’’

‘‘मैं अब कहीं नहीं जाऊंगी, कपिल से मैं ने इस्तीफा भिजवा दिया है.’’

‘‘इस्तीफा वापस भी लिया जा सकता है, इतने दिनों की तुम्हारी स्थायी नौकरी है…उसे छोड़ना बेवकूफी है,’’ बिना विचलित हुए ठंडेपन से सौरभ ने कहा.

ममता को लगा सौरभ उस के पुराने वाक्य को दोहरा रहा है.

‘‘उन सब बातों को भूल नहीं सकोगे. तुम्हें मेरे ऊपर भरोसा नहीं था तभी तो…और अब मुझे तुम्हारे ऊपर भरोसा नहीं रहा, मैं तुम्हें पल भर को भी अपनी आंखों से ओझल नहीं होने दूंगी…’’

रूपगर्विता के दर्प के हिमखंड वेदना की आंच से पिघल कर आंखों में छलक आए थे और उन जल कणों से सिंचित हो कर सौरभ के अंतस में उगे कैक्टस में फूल खिलने लगे थे.

My Story : अब मैं नहीं आऊंगी पापा

My Story : मैं अपने जीवन में जुड़े नए अध्याय की समीक्षा कर रही थी, जिसे प्रत्यक्ष रूप देने के लिए मैं दिल्ली से मुंबई की यात्रा कर रही थी और इस नए अध्याय के बारे में सोच कर अत्यधिक रोमांचित हो रही थी. दूसरी ओर जीवन की दुखद यादें मेरे दिमाग में तांडव करने लगी थीं.

उफ, मुझे अपने पिता का अहंकारी रौद्र रूप याद आने लगा, स्त्री के किसी भी रूप के लिए उन के मन में सम्मान नहीं था. मुझे पढ़ायालिखाया, लेकिन अपने दिमाग का इस्तेमाल कभी नहीं करने दिया. पढ़ाई के अलावा किसी भी ऐक्टिविटी में मुझे हिस्सा लेने की सख्त मनाही थी. घड़ी की सुई की तरह कालेज से घर और घर से कालेज जाने की ही इजाजत थी.

नीरस जीवन के चलते मेरा मन कई बार कहता कि क्या पैदा करने से बच्चे अपने मातापिता की संपत्ति बन जाते हैं कि जैसे चाहा वैसा उन के साथ व्यवहार करने का उन्हें अधिकार मिल जाता है? लेकिन उन के सामने बोलने की कभी हिम्मत नहीं हुई.

मां भी पति की परंपरा का पालन करते हुए सहमत न होते हुए भी उन की हां में हां मिलाती थीं. ग्रेजुएशन करते ही उन्होंने मेरे विवाह के लिए लड़का ढूंढ़ना शुरू कर दिया था. लेकिन पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद ही मेरा विवाह विवेक से हो पाया. मेरी इच्छा या अनिच्छा का तो सवाल ही नहीं उठता था. गाय की तरह एक खूंटे से खोल कर मुझे दूसरे खूंटे से बांध दिया गया.

मेरे सासससुर आधुनिक विचारधारा के तथा समझदार थे. विवेक उन का इकलौता बेटा था. वह अच्छे व्यक्तित्व का स्वामी तो था ही, पढ़ालिखा, कमाता भी अच्छा था और मिलनसार स्वभाव का था. इकलौती बहू होने के चलते सासससुर ने मुझे भरपूर प्यार दिया. बहुत जल्दी मैं सब से घुलमिल गई. मेरे मायके में पापा की तानाशाही के कारण दमघोंटू माहौल के उलट यहां हरेक के हक का आदर किया जाता था, जिस से पहली बार मुझे पहचान मिली, तो मुझे अपनेआप पर गर्व होने लगा था.

विवाह के बाद कई बार पापा का, पगफेरे की रस्म के लिए, मेरे ससुर के पास मुझे बुलाने के लिए फोन आया. लेकिन मेरे अंदर मायके जाने की कोई उत्सुकता न देख कर उन्होंने कोई न कोई बहाना बना कर उन को टाल दिया. उन के इस तरह के व्यवहार से पापा के अहं को बहुत ठेस पहुंची. सहसा एक दिन वे खुद ही मुझे लेने पहुंच गए और मेरे ससुर से नाराजगी जताते हुए बोले, ‘मैं ने बेटी का विवाह किया है, उस को बेचा नहीं है, क्या मुझे अपनी बेटी को बुलाने का हक नहीं है?’

‘अरे, नहीं समधी साहब, अभी शादी हुई है, दोनों बच्चे आपस में एकदूसरे को समझ लें, यह भी तो जरूरी है. अब हमारा जमाना तो है नहीं…’

‘परंपराओं के मामले में मैं अभी भी पुराने खयालों का हूं,’ पापा ने उन की बात बीच में ही काट कर बोला तो सभी के चेहरे उतर गए.

मुझे पापा के कारण की तह तक गए बिना इस तरह बोलना बिलकुल अच्छा नहीं लगा, लेकिन मैं मूकदर्शक बनी रहने के लिए मजबूर थी. उन के साथ मायके आने के बाद भी उन से मैं कुछ नहीं कह पाई, लेकिन जितने दिन मैं वहां रही, उन के साथ नाराजगी के कारण मेरा उन से अनबोला ही रहा.

परंपरानुसार विवेक मुझे दिल्ली लेने आए, तो पापा ने उन से उन की कमाई और उन के परिवार के बारे में कई सवालजवाब किए. विवेक को अपने परिवार के मामले में पापा का दखल देना बिलकुल नहीं सुहाया. इस से उन के अहं को बहुत चोट पहुंची. पापा से तो उन्होंने कुछ नहीं कहा, लेकिन मुझे सबकुछ बता दिया. मुझे पापा पर बहुत गुस्सा आया कि वे बात करते समय यह भी नहीं सोचते कि कब, किस से, क्या कहना है.

मैं ने जब पापा से इस बारे में चर्चा की तो वे मुझ पर ही बरस पड़े कि ऐसा उन्होंने कुछ नहीं कहा, जिस से विवेक को बुरा लगे. बात बहुत छोटी सी थी, लेकिन इस घटना के बाद दोनों परिवारों के अहं टकराने लगे. उस के बाद, पापा एक बार मुझे मेरी ससुराल से लेने आए, तो विवेक ने उन से बात नहीं की. पापा को बहुत अपमान महसूस हुआ. जब ससुराल लौटने का वक्त आया तो विवेक ने फोन पर मुझ से कहा कि या तो मैं अकेली आ जाऊं वरना पापा ही छोड़ने आएं.

पापा ने साफ मना कर दिया कि वे छोड़ने नहीं जाएंगे. मैं ने हालत की नजाकत को देखते हुए, बात को तूल न देने के लिए पापा से बहुत कहा कि समय बहुत बदल गया है, मैं पढ़ीलिखी हूं, मुझे छोड़ने या लेने आने की किसी को जरूरत ही क्या है? मुझे अकेले जाने दें. मां ने भी उन्हें समझाया कि उन का इस तरह अपनी बात पर अड़ना रिश्ते के लिए नुकसानदेह होगा. लेकिन वे टस से मस नहीं हुए. मेरे ज्यादा जिद करने पर वे अपनी इज्जत की दुहाई देते हुए बोले, ‘तुम्हें मेरे मानसम्मान की बिलकुल चिंता नहीं है.’

मैं अपने पति को भी जानती थी कि जो वे सोच लेते हैं, कर के छोड़ते हैं. न विवेक लेने आए, न मैं गई. कई बार फोन से बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने बात नहीं की.

पापा के अहंकार के कारण मेरा जीवन त्रिशंकु बन कर रह गया. इन हालात को न सह सकने के कारण मां अवसाद में चली गईं और अचानक एक दिन उन की हृदयाघात से मृत्यु हो गई. इस दुखद घटना के बारे में भी पापा ने मेरी ससुराल वालों को सूचित नहीं किया तो मेरा मन उन के लिए वितृष्णा से भर उठा. इन सारी परिस्थितियों के जिम्मेदार मेरे पापा ही तो थे.

मां की मृत्यु की खबर सुन कर आए हुए सभी मेहमानों के वापस जाते ही मैं ने गुस्से के साथ पापा से कहा, ‘क्यों हो गई तसल्ली, अभी मन नहीं भरा हो तो मेरा भी गला घोंट दीजिए. आप तो बहुत आदर्श की बातें करते हैं न, तो आप को पता होना चाहिए कि हमारी परंपरानुसार दामाद को और उस के परिजनों को बहुत आदर दिया जाता है और बेटी का कन्यादान करने के बाद उस के मातापिता से ज्यादा उस के पति और ससुराल वालों का हक रहता है. जिस घर में बेटी की डोली जाती है, उसी घर से अर्थी भी उठती है. आप ने अपने ईगो के कारण बेटी का ससुराल से रिश्ता तुड़वा कर कौन सा आदर्श निभाया है. मेरी सोच से तो परे की बात है, लेकिन मैं अब इन बंधनों से मुक्त हो कर दिखाऊंगी. मेरा विवाह हो चुका है, इसलिए मेरी ससुराल ही अब मेरा घर है. मैं जा रही हूं अपने पति के पास. अब आप रहिए अपने अहंकार के साथ इस घर में अकेले. अब मैं यहां कभी नहीं आऊंगी, पापा.’

इतना कह कर, पापा की प्रतिक्रिया देखे बिना ही, मैं घर से निकल आई और मेरे कदम बढ़ चले उस ओर जहां मेरा ठौर था और वही थी मेरी आखिरी मंजिल.

Hindi Best Stories 2025 : कर्ण

Hindi Best Stories 2025  : न्यू साउथ वेल्स, सिडनी के उस  फोस्टर होम के विजिटिंग रूम में बैठी रम्या बेताबी से इंतजार कर रही थी उस पते का जहां उस की अपनी जिंदगी से मुलाकात होने वाली थी. खिड़की से वह बाहर का नजारा देख रही थी. कुछ छोटे बच्चे लौन में खेल रहे थे. थोड़े बड़े 2-3 बच्चे झूला झूल रहे थे. वह खिड़की के कांच पर हाथ फिराती हुई उन्हें छूने की असफल कोशिश करने लगी. मृगमरीचिका से बच्चे उस की पहुंच से दूर अपनेआप में मगन थे. कमरे के अंदर एक बड़ा सा पोस्टर लगा था, हंसतेखिलखिलाते, छोटेबड़े हर उम्र और रंग के बच्चों का. रम्या अब उस पोस्टर को ध्यान से देखने लगी, कहीं कोई इन में अपना मिल जाए.

‘ज्यों सागर तीर कोई प्यासा, भरी दुनिया में अकेला, खाने को छप्पन भोग पर रुचिकर कोई नहीं.’ रम्या की गति कुछ ऐसी ही हो रखी थी. तड़पतीतरसती जैसे जल बिन मछली. उस ने सोफे पर सिर टिका अपने भटकते मन को कुछ आराम देना चाहा, लेकिन मन थमने की जगह और तेजी से भागने लगा, भविष्य की ओर नहीं, अतीत की ओर. स्याह अतीत के काले पन्ने फड़फड़ाने लगे, बिना अंधड़, बिना पलटे जाने कितने पृष्ठ पलट गए. जिस अतीत से वह भागती रही, आज वही अपने दानवी पंजे उस के मानस पर गड़ा और आंखें तरेर कर गुर्राने लगा.

बात तब की है जब रम्या 14-15 वर्ष की रही होगी. उस के डैडी को 2-3 वर्षों में ही इतने बड़ेबड़े ठेके मिल गए कि वे लोग रातोंरात करोड़पति बन गए. पैसा आ जाने से सभ्यता और संस्कार नहीं आ जाते. ऐसा ही हाल उन लोगों का भी था. पैसों की गरमी से उन में ऐंठन खूब थी. आएदिन घर में बड़ीबड़ी पार्टियां होती थीं. बड़ेबड़े अफसर और नेताओं को खुश करने के लिए घर में शराब की नदियां बहती थीं.

एक स्वामीजी हर पार्टी में मौजूद

रहते थे. रम्या के डैडी और मौम

उन के आने से बिछबिछ जाते. वे बड़ेबड़े औद्योगिक घरानों में बड़ी पैठ रखते थे. उन घरानों से काम या ठेके पाने के लिए स्वामीजी की अहम भूमिका होती थी.

पार्टी वाले दिन रम्या और उस की दीदी को नीचे आने की इजाजत नहीं होती थी. अपनी केयरटेकर सुफला के साथ दोनों बहनें छत वाले अपने कमरे में ही रहतीं और छिपछिप कर पार्टी का नजारा लेतीं. कुछ महीने से दीदी भी गायब रहने लगीं. वे रातरातभर घर नहीं आती थीं. जब सुबह लौटतीं तो उन की आंखें लाल और उनींदी रहतीं. फिर वे दिनभर सोती ही रहतीं. यों तो मौम और डैड भी रात की पार्टी के बाद देर से उठते, सो, उन्हें दीदी के बारे में पता

ही नहीं था कि वे रातभर घर में नहीं होती हैं.

उस दिन सुबह से ही घर में चहलपहल थी. मौम किसी को फोन पर बता रही थीं कि एक बहुत बड़े ठेके के लिए उस के पापा प्रयासरत हैं. आज वे स्वामीजी भी आने वाले हैं, यदि स्वामीजी चाहें तो उक्त उद्योगपति यह ठेका उस के पापा को ही देंगे.

रम्या उस दिन बहुत परेशान थी, उस के स्कूल टैस्ट में नंबर बहुत कम आए थे और उस का मन कर रहा था कि वह मौम को बताए कि उसे एक ट्यूटर की जरूरत है. वह चुपके से सुफला की नजर बचा कर मौम के कमरे की तरफ चली गई.

अधखुले दरवाजे की ओट से उस ने जो देखा, उस के पांवतले जमीन खिसक गई. मौम और स्वामीजी की अंतरंगता को अपनी खुली आंखों से देख उसे वितृष्णा सी हो गई. वह भागती हुई छत वाले कमरे की तरफ जाने लगी. अब वह इतनी छोटी भी नहीं थी, जो उस ने देखा था वह बारबार उस की आंखों के सामने नाच रहा था. इसी सोच में वह दीदी से टकरा गई.

‘दीदी, मैं ने अभी जो देखा…मौम को छिछि…मैं बोल नहीं सकती,’ रम्या घबरातीअटकती हुई दीदी से बोलने लगी. दीदी ने मुसकराते हुए उसे देखा और कहा, ‘चल, आज तुझे भी एक पार्टी में ले चलती हूं.’

‘कैसी पार्टी, कौन सी पार्टी?’ रम्या ने पूछा.

‘रेव पार्टी,’ दीदी ने आंखें बड़ीबड़ी कर उस से कहा.

‘यह शहर से दूर बंद अंधेरे कमरों में तेज म्यूजिक के बीच होने वाली मस्ती है, चल कोई बढि़या सा हौट ड्रैस पहन ले,’ दीदी ने कहा तो रम्या सब भूल झट तैयार होने लगी.

‘बेबी आप लोग किधर जा रही हैं, साहब, मेमसाहब को पता चला तो मुझे ही डांटेंगे?’ सुफला ने बीच में कहा.

‘चल सुफला, आज की रात तू भी ऐश कर ले,’ दीदी ने उसे 100 रुपए का एक नोट पकड़ा दिया.

उस दिन रम्या पहली बार किसी ऐसी पार्टी में गई. दीदी व दूसरे लड़केलड़कियों को बेतकल्लुफ हो तेज संगीत और लेजर लाइट में नाचते, झूमते, पीते, खाते, सूंघते, सुई लगाते देखा. थोड़ी देर वह आंख फाड़े देखती रही. फिर धीरेधीरे शोर मध्यम लगने लगा, अंधेरा भाने लगा, तेजी से झूमना और जिसतिस की बांहों में गुम होते जाना सुकूनदायक हो गया.

दूसरे दिन जब आंख खुली तो देखा कि वह अपने बिस्तर पर है. घड़ी दोपहर का वक्त बता रही थी यानी आज सारा दिन गुजर गया. वह स्कूल नहीं जा पाई. रात की घटनाएं हलकीहलकी अभी भी जेहन में मौजूद थीं. उसे अब घिन्न सी आने लगी. रम्या को पढ़नेलिखने और कुछ अच्छा बनने का शौक था. बाथरूम में जा कर वह देर तक शौवर में खुद को धोती रही. उसे अपनी भूल का एहसास होने लगा था.

‘क्यों रामी डिअर, कल फुल एंजौयमैंट हुआ न, चल आज भी ले चलती हूं एक नए अड्डे पर,’ दीदी ने मुसकराते हुए पूछा तो रम्या ने साफ इनकार कर दिया. आने वाले दिनों में वह मौमडैड और बहन व आसपास के माहौल सब से कन्नी काट अपनी पढ़ाई व परीक्षा की तैयारी में लगी रही. एक सुफला ही थी जो उसे इस घर से जोड़े हुए थी. बाकी सब से बेहद सामान्य व्यवहार रहा उस का.

कुछ दिनों से उसे बेहद थकान महसूस हो रही थी. उसे लगातार हो रही उलटियां और जी मिचलाते रहना कुछ और ही इशारा कर रहा था.

सुफला की अनुभवी नजरों से वे छिप नहीं पाईं, ‘बेबीजी, यह आप ने क्या कर लिया?’

‘सुफला, क्या मैं तुम पर विश्वास कर सकती हूं, उस एक रात की भूल ने मुझे इस कगार पर ला दिया है. मुझे कोई ऐसी दवाई ला दो जिस से यह मुसीबत खत्म हो जाए और किसी को पता भी न चले. अगले कुछ महीनों में मेरी परीक्षाएं शुरू होंगी. मुझे आस्ट्रेलिया के विश्वविद्यालय से अपनी आगे की पढ़ाई करनी है. मुझे घर के गंदे माहौल से दूर जाना है,’ कहतेकहते रम्या सुफला की गोद में सिर रख कर रोने लगी.

अब सुफला आएदिन कोई दवा, कोई जड़ीबूटी ला कर रम्या को खिलाने लगी. रम्या अपनी पढ़ाई में व्यस्त होती गई और एक जीव उस के अंदर पनपता रहा. इस बीच घर में तेजी से घटनाक्रम घटे. उस की दीदी को एक रेव पार्टी से पुलिस पकड़ कर ले गई और फिर उसे नशामुक्ति केंद्र में पहुंचा दिया गया.

उस दिन मौम अपनी झीनी सी नाइटी पहन सुबह से बेचैन सी घर में घूम रही थीं कि उन की नजर रम्या के उभार पर पड़ी. तेजी से वे उस का हाथ खींचते हुए अपने कमरे में ले गईं. ‘रम्या, यह क्या है? आर यू प्रैग्नैंट? बेबी तुम ने प्रिकौशन नहीं लिया था? तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं?’ मौम ने प्रश्नों की झड़ी सी लगा दी थी.

रम्या खामोश ही रही तो मौम ने आगे कहा, ‘मेरी एक दोस्त है जो तुम्हें इस मुसीबत से छुटकारा दिला देगी. हम आज ही चलते हैं. उफ, सारी मुसीबतें एकसाथ ही आती हैं,’ मौम बड़बड़ा रही थीं.

रम्या ने पास पड़े अखबार में उन स्वामीजी की तसवीर को देखा जिन्हें हथकड़ी लगा ले जाया जा रहा था. अगले कुछ दिन मौम रम्या को ले अपनी दोस्त के क्लिनिक में ही व्यस्त रहीं, लेकिन अबौर्शन का वक्त निकल चुका था और गलत दवाइयों के सेवन से अंदरूनी हिस्से को काफी नुकसान हो चुका था.

इस बीच न्यूज चैनल और अखबारों में स्वामीजी और उस की मौम के रिश्ते भी सुर्खियों में आने लगे. रम्या की तो पहले से ही आस्ट्रेलिया जाने की तैयारियां चल रही थीं. मौम उसे ले अचानक सिडनी चली गईं ताकि कुछ दिन वे मीडिया से बच सकें और रम्या की मुसीबत का हल विदेश में ही हो जाए बिना किसी को बताए.

लाख कोशिशों के बावजूद एक नन्हामुन्ना धरती पर आ ही गया. मौम ने उसे सिडनी के एक फोस्टर होम में रख दिया. रम्या फिर भारत नहीं लौटी. अनचाहे मातृत्व से छुटकारा मिलने के बाद वह वहीं अपनी आगे की पढ़ाई करने लगी. 5 वर्षों बाद उस ने वहीं की नागरिकता हासिल कर अपने साथ ही काम करने वाले यूरोपियन मूल के डेरिक से विवाह कर लिया. रम्या अब 28 वर्ष की हो चुकी थी. शादी के 5 वर्ष बीत गए थे. लेकिन उस के मां बनने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे.

सिडनी के बड़े अस्पताल के चिकित्सकों ने उसे बताया कि पहले गर्भाधान के दौरान ही उस कीबच्चेदानी में अपूर्णीय क्षति हो गई थी और अब वह गर्भधारण करने लायक नहीं है. यह सुन कर रम्या के पैरोंतले जमीन खिसक गई. डेरिक तो सब जानता ही था, उस ने बिलखती रम्या को संभाला. ‘रम्या, किसी दूसरे के बच्चे को अडौप्ट करने से बेहतर है हम तुम्हारे बच्चे को ही अपना लें,’ डेरिक ने कहा. यह सुन कर रम्या एकबारगी सिहर उठी, अतीत फिर फन काढ़ खड़ा हो गया.

‘लेकिन, वह मेरी भूल है, अनचाहा और नफरत का फूल,’ रम्या ने कहा.

जब कोई वस्तु या व्यक्ति दुर्लभ हो जाता है तो उस को हासिल करने की चाह और ज्यादा हो जाती है. अब तक जिस से उदासीन रही और नफरत करती रही, धीरेधीरे अब उस के लिए छाती में दूध उतरने लगा. फिर एक दिन डेरिक के साथ उस फोस्टर होम की तरफ उस के कदम उठ ही गए.

…तभी संचालिका ने रम्या की तंद्रा को भंग किया, ‘‘यह रहा उस बच्चे को अडौप्ट करने वाली लेडी का पता. वे एक सिंगल मदर हैं और मार्टिन प्लेस में रहती हैं. मैं ने उन्हें सूचना दे दी है कि आप उन के बच्चे को जन्म देनेवाली मां हैं और मिलना चाहती हैं.’’ फोस्टर होम की संचालिका ने कार्ड थमाते हुए कहा.

जो भाव आज से 13-14 वर्र्ष पहले अनुभव नहीं हुआ था वह रम्या में उस कार्ड को पकड़ते ही जागृत हो उठा. उसे ऐसा लगा कि उस के बच्चे का पता नहीं, बल्कि वह पता ही खुद बच्चा हो. मातृत्व हिलोरे लेने लगा. डेरिक ने उसे संभाला और अगले कुछ घंटों में वे लोग, नियत समय पर मार्टिन प्लेस, मिस पोर्टर के घर पहुंच चुके थे. 50-55 वर्षीया, थोड़ा घसीटती हुई चलती मिस पोर्टर एक स्नेहिल और मिलनसार महिला लगीं. रम्या के चेहरे के भावों को पढ़ते हुए उन्होंने लौन में लगी कुरसी पर बैठने का इशारा किया.

‘‘क्या मैं अपने बेटे से मिल सकती हूं्? क्या मैं उसे अपने साथ ले जा सकती हूं?’’ रम्या ने छूटते ही पूछा पर आखिरी वाक्य बोलते हुए खुद ही उस की जबान लड़खड़ाने लगी. डेरिक और रम्या ने देखा, मिस पोर्टर की आंखें अचानक छलछला गईं.

‘‘आप उस की जन्म देनेवाली मां हैं, पहला हक आप का ही है. वह अभी स्कूल से आता ही होगा. वह देखिए, आप का बेटा,’’ गेट की तरफ इशारा करते हुए मिस पोर्टर ने कहा.

रम्या अचानक चौंक गई, उसे ऐसा लगा कि उस ने आईना देख लिया. हूबहू उस की ही तरह चेहरा, वही छोटी सी नुकीली नाक, हिरन सी चंचल बड़ी सी आंखें, पतले होंठ, घुंघराले काले बाल और बिलकुल उस की ही रंगत.

‘‘आओ बैठो, मैं ने तुम्हे बताया था न कि तुम्हारी मां आने वाली हैं. ये तुम्हारी मां रम्या हैं,’’ मिस पोर्टर ने प्यार से कहा. 14 वर्षीय उस बच्चे ने गरदन टेढ़ी कर रम्या को ऊपर से नीचे तक देखा और मिस पोर्टर की बगल में बैठ गया, ‘‘मौम, तुम्हारे पैरों का दर्द अब कैसा है, क्या तुम ने दवा खाई?’’

रम्या लालसाभरी नजरों से देख रही थी, जिस के लिए जीवनभर हिकारत और नफरत भाव संजोए रही, आज उसे सामने देख ममता का सागर हिलोरे मारने लगा.

‘‘बेटा, मेरे पास आओ. मैं ने तुम्हें जन्म दिया है. तुम्हें छूना चाहती हूं,’’ दोनों हाथ पसार रम्या ने तड़प के साथ कहा.

बच्चे ने मिस पोर्टर की तरफ सवालिया नजरों से देखा. उन्होंने इशारों से उसे जाने को कहा. पर वह उन के पास ही बैठा रहा.

‘‘यदि आप मेरी जन्मदात्री हैं तो इतने वर्षों तक कहां रहीं? आप के होते हुए मैं अनाथ आश्रम में क्यों रहा?’’ बेटे के सवालों के तीर अब रम्या को आगोश में लेने लगे. बेबसी के आंसू उस की पलकों पर टिकने से विद्रोह करने लगे. उस मासूम के जायज सवालों का वह क्या जवाब दे कि तुम नाजायज थे, पर अब उसी को जायज बनाने, बेशर्म हो, आंचल पसारे खड़ी हूं.

बेटा आगे बोला, ‘‘आप को मालूम है, मैं 5 वर्ष की उम्र तक फोस्टर होम में रहा. मेरी उम्र के सभी बच्चों को किसी न किसी ने गोद लिया था. पर आप के द्वारा बख्शी इस नस्ल और रंग ने मुझे वहीं सड़ने को मजबूर कर दिया था.’’

‘‘मैं वहां हफ्ते में एक बार समाजसेवा करने जाती थी. इस के अकेलेपन और नकारे जाने की हालत मुझे साफ नजर आ रही थी. फोस्टर होम की मदद से मैं ने इंडिया के कुछ एनजीओज से संपर्क साधा, जिन्होंने आश्वासन दिया कि शायद वहां इसे कोई गोद ले लेगा. मैं ले कर गई भी. कुछ लोगों से संपर्क भी हुआ. पर फिर मेरा ही दिल इसे वहां छोड़ने को नहीं हुआ, बच्चे ने मेरा दिल जीत लिया. और मैं इसे कलेजे से लगा कर वापस सिडनी आ गई,’’ मिस पोर्टर ने भर्राए हुए गले से बताया.

‘‘इस के जन्म के वक्त आप की मां ने आप के बारे में जो सूचना दी थी, उस आधार पर मुझे पता चला कि आप यहीं आस्ट्रेलिया में ही कहीं हैं. यह भी एक कारण था कि मैं इसे वापस ले आई और मैं ने अपने कोखजाए की तरह इसे पाला. मन के एक कोने में यह उम्मीद हमेशा पलती रही थी कि आप एक दिन जरूर आएंगी,’’ मिस पोर्टर ने जब यह कहा तो रम्या को लगा कि काश, धरती फट जाती और वह उस में समा जाती. डबडबाई आंखों से उस ने शर्मिंदगी के भार से झुकी पलकों को उठाया.

बच्चा अब मिस पोर्टर से लिपट कर बैठा था. मिस पोर्टर स्नेह से उस के घुंघराले बालों को सहला रही थीं.

‘‘आप ले जाइए अपने बेटे को. मैं इसे भेज, ओल्डएज होम चली जाऊंगी,’’ उन्होंने सरलता से मुसकराते हुए कहा.

रम्या की आंखों में चमक आ गई, उस ने अपनी बांहें पसार दीं.

‘‘आज इतने सालों बाद मुझ से मिलने और मुझे अपनाने का क्या राज है? आप यहीं थीं, जानती थीं कि मैं किस अनाथ आश्रम में हूं, फिर भी आप का दिल नहीं पसीजा? आज क्यों अपना मतलबी प्यार दिखाने मुझ से मिलने चली आईर्ं? लाख तकलीफें सह कर, मुसीबतों के पहाड़ टूटने के बावजूद इन्होंने मुझे नहीं छोड़ा और अब मैं इन्हें नहीं छोडूंगा.’’ बेटे के मुंह से यह सुन रम्या को अपनी खुदगर्जी पर शर्म आने लगी.

‘‘बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?’’ डेरिक ने रम्या का हाथ थाम उठते हुए पूछा.

‘‘कीन, कीन पोर्टर है मेरा नाम.’’

‘‘क्या कहा कर्ण. ‘कर्ण,’ हां यही होगा तुम्हारा नाम, वाकई तुम क्यों छोड़ोगे अपने आश्रयदाता को. पर मैं कुंती नहीं, मैं कुंती होती तो मेरे पांडव भी होते. मेरी भूल माफ करने लायक नहीं…’’

खाली गोद लौटती रम्या बुदबुदा रही थी और डेरिक हैरानी से उस की बातों का मतलब समझने की कोशिश कर रहा था.

Online Hindi Story 2025 : रहने के लिए एक मकान 

Online Hindi Story 2025 : मैं अपने गांव लौटने लगा तो मेरे आंखों में आंसू झिलमिला रहे थे. मेरे दोहेते अपने घर के बालकनी से प्रेम से हाथ हिला रहे थे,”बाय ग्रैंड पा, सी यू नाना…”

धीरेधीरे मैं बस स्टैंड की ओर चल दिया.

मैं मन ही मन सोचने लगा,’बस मिले तो 5 घंटे में मैं अपने गांव पहुंच जाऊंगा. जातेजाते बहुत अंधेरा हो जाएगा, फिर बस स्टैंड पर उतर कर वहां एक होटल है. उस में कुछ खापी कर औटो से अपने घर चला जाऊंगा.’

2 साल पहले मेरी पत्नी बीमार हो कर गुजर गई. तब से मैं अकेला ही हूं. मेरे गांव का मकान पुस्तैनी है. उस की छत टिन की है. पहले घासपूस की छत थी.

जब एक बार बारिश में बहुत परेशानी हुई तब टिन डलवा दिया था. मेरा एक भाई था वह भी कुछ साल पहले ही चल बसा था. अब इस घर में आखिरी पीढ़ी का रहने वाला सिर्फ मैं ही हूं.

मेरी इकलौती बेटी बड़े शहर में है अत: वह यहां नहीं आएगी. जब बारिश होती है तो छत से यहांवहां पानी टपकता है. एक बार इतनी बारिश हुई कि दूर स्थित एक बांध टूट
गया और कमर भर पानी मकान के अंदर तक जा घुसा था. कई बार सोचा घर की मरम्मत करा दूं पर इस के लिए भी एकाध लाख रूपए तो चाहिए ही.

मैं सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हुआ हूं अत: मुझे पैंशन मिलती है. उम्र के साथ दवा भी खाने होते हैं मगर फिर भी इस खर्च के बाद थोड़ाबहुत बच जरूर जाता है.

2 महीने में एक बार मैं शुक्रवार को दोहेतो को देखने की उत्सुकता में बेटी के घर जा कर 2-3 दिन ठहर कर खुशीखुशी दिन बिता कर मैं वापस आ जाता हूं. इस से ज्यादा ठहरना मुझे ठीक नहीं लगता.

मेरे दामाद अपना प्रेम या विरोध कुछ भी नहीं दिखाते. मैं घर में प्रवेश करता तो एक मुसकान छोड़ अपने कमरे में चले जाते.

दामाद शादी के समय बिल्डिंग बनाने वाली बड़ी कंपनी में सीनियर सुपरवाइजर थे. जो मकान बने वे बिक न सके. बैंक से उधार लिए रुपए को न चुकाने के कारण कंपनी बंद हो गई थी. तब से वह रियल ऐस्टेट का ब्रोकर बन गया.

“कुदरत की मरजी से किसी तरह सब ठीकठाक चल रहा है पापा,” ऐसा मेरी बेटी कहती.

पति की नौकरी जब चली गई थी तब मेरी बेटी दोपहर के समय टीवी सीरियल न देख कर सिलाई मशीन से अड़ोसपड़ोस के बच्चों व महिलाओं के कपड़े सिल कर कुछ पैसे बना लेती.

“पापा, आप ने कहा था ना कि बीए कर लिया है तो अब बेकार मत बैठो, कुछ सीखना चाहिए. तब मैं सिलाई सीखी. वह अब मेरे काम आ रही है पापा,” भावविभोर हो कर वह कहती.

पिछली बार जब मैं गया था तो दोहेतो ने जिद्द की, “नानाजी, आप हमारे साथ ही रहो. क्यों जाते हो यहां से?”

बच्चे जब यह कह रहे थे तब मैं ने अपने दामाद के चेहरे को निहारा. उस में कोई बदलाव नहीं.

मेरी बेटी रेनू ही आंखों में आंसू ला कर कहती,”पापा… बच्चों का कहना सही है. अम्मां के जाने के बाद आप अकेले रहते हैं जो ठीक नहीं. आप बीमार भी रहते हो.”

वह कहती,”पापा, हमारे मन में आप के लिए जगह है पर घर में जगह की कमी है. आप को एक कमरा देना हो तो 3 रूम का घर चाहिए. रियल ऐस्टेट के बिजनैस में अभी मंदी है. तकलीफ का जीवन है. इस घर में बहुत दिनों से रहते आए हैं अत: इस का किराया भी कम है. अभी इस को खाली करें तो दोगुना किराया देने के लिए लोग तैयार हैं. क्या करें? इस के अलावा मेरा सिरदर्द जबतब आ कर परेशान करता है.”

मैं बेटी को समझाता,”बेटा रो मत. यह सब कुछ मुझे पता है. अब गांव में भी क्या है? मुझे तुम्हारे साथ ही रहना है ऐसा भी नहीं. पड़ोस में एक कमरे का घर मिल जाए तो भी मैं रह लूंगा. मैं अभी ₹21 हजार पैंशन पाता हूं. ₹6-7 हजार भी किराया दे कर रह लूंगा. अकेला तो हूं. तुम्हारे पड़ोस में रहूं तो मुझे बहुत हिम्मत रहेगी,” यह कह कर मैं ने बेटी का चेहरा देखा.

“अरे, जाओ पापा… अब सिंगलरूम कौन बनाता है? सब 2-3 कमरों का बनाते हैं. मिलें तो भी किराया ₹10 हजार. यह सब हो नहीं सकता पापा,” कह कर बेटी माथे को सहलाने लग जाती.

अगली बार जब मैं बेटी के घर गया, तब एक दिन सुबह सैर के लिए निकला. अगली 2 गलियों को पार कर चलते समय एक नई कई मंजिल मकान को मैं ने देखा जो कुछ ही दिनों में पूरा होने की शक्ल में था.

उस में एक बैनर लगा था,’सिंगल बैडरूम का फ्लैट किराए पर उपलब्ध है.’

मुझे प्रसन्नता हुई और उत्सुकता भी. वहां एक बैंच पर सिक्योरिटी गार्ड बैठा था. मैं ने उस से जा कर पूछताछ की.

“दादाजी, उसे सिंगल बैडरूम बोलते हैं. मतलब एक ही हौल में सब कुछ होता है. 1-2 से ज्यादा नहीं रह सकते. आप कितने लोग हैं?” वह बोला.

“मैं बस अकेला ही हूं. मेरी बेटी पड़ोस में ही रहती है. इसीलिए यहां लेना चाहता हूं.”

“अच्छा फिर तो ठीक है. घर को देखिएगा…” कह कर अंदर जा कर चाबी के गुच्छों के साथ बाहर आया.

दूसरे माले में 4 फ्लैट थे.

“इन चारों के एक ही मालिक हैं. 3 फ्लैटों के पहले ही ऐडवांस दे चुके हैं.”

उस ने दरवाजे को खोला. लगभग 250 फुट चौड़ा और लंबा एक हौल था. उस में एक तरफ खाना बनाने के लिए प्लेटफौर्म आधी दीवार खींची थी. दूसरी तरफ छोटा सा बाथरूम बड़ा अच्छा व कंपैक्ट था.

“किराया कितना है?” मैं ने पूछा.

“मुझे तो कहना नहीं चाहिए फिर भी ₹ 7 हजार होगा क्योंकि इसी रेट में दूसरे फ्लैट भी दिए हैं. ऐडवांस ₹50 हजार है. रखरखाव के लिए ₹500-600 से ज्यादा नहीं होगा. मतलब सबकुछ मिला कर ₹7-8 हजार के अंदर हो जाएगा दादाजी,” वह बोला.

“ठीक है भैया, इसे मुझे दिला दो. मालिक से कब बात करें?”

“अभी बात कर लो. एक फोन लगा कर बुलाता हूं. आप बैठिए,” वह बोला.”

वहां एक प्लास्टिक की कुरसी थी. मैं उस पर बैठ कर इंतजार करने लगा.

सिक्योरिटी गार्ड ने बताया,“वे खाना खा रही हैं. 10-15 मिनट में पहुंच जाएंगी. तब तक आप यह अखबार पढ़िए.”

मालिक से बात कर किराया थोड़ा कम करने के बारे में पूछ लूंगा. फिर एक औटो पकड़ कर घर जा कर लड़की को भी ला कर दिखा कर तय कर लेंगे. बेटी इस मकान को देख कर आश्चर्य करेगी.

ऐडवांस के बारे में कोई बड़ी समस्या नहीं है. मैं पास के एक बैंक में हर महीने जो पैसे जमा कराता हूं उस में ₹30 हजार के करीब तो होंगे ही.बाकी रुपयों के लिए पैंशन वाले बैंक से उधार ले लूंगा. फिर एक दिन शिफ्ट हो जाऊंगा.

यहां आने के बाद एक आदमी का खाना और चाय का क्या खर्चा होगा?

‘आप खाना बनाओगे क्या पापा,’ ऐसा डांट कर बेटी प्यार से खाना तो भिजवा ही देगी.

खाना बनाने का काम भी बच जाएगा. पास में लाइब्रैरी तो होगा ही. वहां जा कर दिन कट जाएगा.

सामने की तरफ थोड़ी दूर पर एक छोटा सा टी स्टौल था. मैं ने सोचा 1 कप चाय पी कर हो आते हैं. तब तक मकानमालकिन भी आ ही जाएगी.

वहां कौफी की खुशबू आ रही थी | मैं ने सोचा कि कौफी पी लूं. यहां रहने आ जाऊंगा तो नाश्ते और चाय की कोई फिकर नहीं रहेगी.

पैसे दे कर वापस आया तो सिक्योरिटी गार्ड बोला,“घर के औनर आ गए हैं. वे ऊपर गए हैं. आप वहीं चले जाइए.”

मैं धीरेधीरे सीढ़ियां चढ़ने लगा. ऊपर पहुंच कर औनर को नमस्कार बोला.

पीठ दिखा कर खड़ी वह महिला धीरे से मुड़ी तो वह मेरी बेटी रेणू थी.

लेखक- एस. भाग्यम शर्मा

Story In Hindi : दो पाटों के बीच

Story In Hindi : मैं लगभग दौड़तीभागती सड़क पार कर औफिस में दाखिल हुई और आधे खुले लिफ्ट के दरवाजे से अंदर घुस कर 5वें नंबर बटन को दबाया. लिफ्ट में और कोई नहीं था. नीचे की मंजिल से 5वीं मंजिल तक लिफ्ट में जाते समय मैं अकेले में खूब रोई.

औफिस के बाथरूम और कभीकभी लिफ्ट के अकेलेपन में ही मैं ने रोने की जगह को खोजा है. इस के अलावा रोने के लिए मुझे एकांत समय और जगह नहीं मिलता.

5वीं मंजिल पर पहुंच कर देखा तो औफिस के लोग काम में लगे हुए थे. मेरे ऊपर की अधिकारी कल्पना मैम ने मुझे खा जाने वाली निगाहों से देखा और कहने लगीं ,“हमेशा की तरह लेट?”

“सौरी कल्पना मैम,” बोल कर मैं अपनी जगह पर जा कर पर्स को रख तुरंत बाथरूम गई ताकि और थोड़ी देर रो कर चेहरे को पोंछ सकूं.

सुबह उठते समय ही मीनू का शरीर गरम था. मीनू ने अपनी 2 साल की उम्र में सिर्फ 2 ही जगह देखी हैं. एक घर, दूसरी बच्चों के डौक्टर सीतारामन का क्लीनिक. क्लीनिक के हरे पेंट हुए दरवाजे को वह पहचानती है. उस के पास जाते ही मीनू जो रोना शुरू करती तो पूरे 1 घंटे तक डाक्टर का इंतजार करते समय वह लगातार रोती रहती है.

डाक्टर जब उसे जांचते तो हाथों से उछलती और जोरजोर से रोती और वापस बाहर आने के बाद ही चुप होती.

डाक्टर ने बताया था कि बच्ची को थोड़ा सा प्राइमेरी कौंप्लैक्स है. इसलिए महीने में 1-2 बार उसे खांसी, जुखाम या बुखार आ जाता है.

आज भी मैं औटो पकङ कर डाक्टर के पास जा कर कर आई और सासूमां को मीनू को देने वाली दवाओं के बारे में बताया. फिर जल्दी से बाथरूम में घुस कर 2 मग पानी डाल, साड़ी पहन, चेहरे पर क्रीम लगा और जल्दीजल्दी नाश्ता निबटा कर रवाना होते समय एक नजर बच्ची को देखा.

तेज बुखार में बच्ची का चेहरा लाल था. मुझे साड़ी पहनते देख वह फिर से रोना शुरू कर दी. उस के हिसाब से मम्मी नाइटी पहने रहेगी तो घर में रहेगी, साड़ी पहनेगी तो बाहर जाएगी.

“मम्मी मत जाओ,” कह कर वह मेरे पैरों में लिपट गई. उसे किसी तरह मना कर औफिस जाने के लिए बस पकड़ी.

“क्यों, बच्ची की तबीयत ठीक नहीं है क्या?” ऐना बोली.

लंच के समय में घर फोन कर बच्ची के बारे में पूछा तो बोला अभी कुछ ठीक है. थोङी तसल्ली के साथ मैं ने खाना शुरू किया.

“ऐना, रोजाना औफिस जाने के लिए साड़ी पहनते समय जब ‘मत जाओ मम्मी’ कह कर मीनू रोती है तो उस की वह आवाज मेरे कानों में हमेशा आती रहती है.”

“दीपा, तुम्हारे पति तो अच्छी नौकरी में हैं. अब तुम चुपचाप घर में रहो. तुम को शांति नहीं है. बच्ची परेशान होती है. तुम्हारा पति इस के लिए राजी नहीं होगा क्या?” ऐना के आवाज में सच और स्नेह का भाव था.

“वह आदमी नाटककार है ऐना. नौकरी छोड़ने की बात करना शुरू करो तो बस यही कहता है कि तुम्हारा फैसला है तुम कुछ भी करो, मैं इस के बीच में नहीं आऊंगा. तुम्हें खुश रहना चाहिए बस. मैं इस सौफ्टवेयर कंपनी में हूं. कब नौकरी चली जाएगी नहीं कह सकते. बाजार ठीकठाक रहा तो सब ठीक, मंदी में कंपनी में कब तालाबंदी हो जाए कह नहीं सकते. तुम्हारी सैलरी से थोड़ी राहत मिलती है.”

“इस बार किसी से भी सलाह मत लो, अभी 2 दिन में बोनस मिलेगा. चुपचाप रुपयों को ले कर तुरंत इस्तीफा दे दो?” ऐना बोली.

मैं ने अपने कंप्यूटर पर ऐक्सैल शीट में जो भी रिकौर्ड भरना था भरा. सीधे व आड़े दोनों तरफ से टोटल सब सही है या नहीं मैं ने मिलान किया. फिर रिपोर्ट पर लेटर तैयार किया. सैक्शन चीफ कल्पना को और एक कल्पना के उच्च अधिकारी को एक प्रति भेज दिया.

इस बार मैं बिना रोए, बिना जल्दबाजी किए कार्यालय से बाहर आ गई. मुझे मेरा फैसला ठीक लगा.

घर आ कर देखा मीनू सो रही थी. सुबह जो पहना था वही कपड़े मीनू ने पहने थे.

‘बच्ची की तबीयत ठीक नहीं तो क्या उस के कपड़े भी नहीं बदलने चाहिए?’ मन ही मन सासूमां पर गुस्सा होते हुए भी मैं उन से बोली “बच्ची ने आप को परेशान तो नहीं किया अम्मां?”

वे बोलीं, “पहले ही से तेरी बेटी बदमाशियों की पुतली है. तबीयत ठीक न हो तो पूछो नहीं?”

मैं उन की बातों पर ध्यान न दे कर मीनू के पीठ को सहलाने लगी.

जब मैं छोटी थी तब मेरी अम्मां मेरे और मेरे छोटे भाई के साथ कितनी देर रहती थीं? हमारी अम्मां को साहित्य से बहुत प्रेम था.

हम कहते,”अम्मां बादल गरज रहे हैं, बिजली चमक रही है. डर लग रहा है.”

वे कहतीं कि वीर रस के कई कवि हैं उन की कविताएं बोलो जबकि दूसरे बच्चों के मांएं हनुमानजी को याद करने को कहतीं.

मेरी मां झांसी की रानी और मीरा की मिलीजुली अवतार थीं. वे अंधविश्वासी भी नहीं थीं. मेरा भाई रोता तो मेरी मां सीता बन जातीं और कहतीं कि चलो हम लवकुश बन कर राम से लड़ाई करें.

चांदनी रात में छत पर हमारी मम्मी मीठा चावल बना अपने हाथों से हम दोनों बच्चों को बिना चम्मच के खिलातीं जिस में केशर, इलायची और घी की वह खुशबू अभी तक ऐसा लगता है जैसे हाथों में आ रही हो.

जब कभी भी कहीं कोई उत्सव होता तो हमारी मम्मी हम दोनों बच्चों को रिकशा में साथ ले जातीं. हम दोनों भाईबहन उस रिकशे में एक सीट के लिए लङ बैठते थे.

हमेशा अम्मां हम दोनों को तेल से मालिश कर के नहलातीं. रात के समय चांदनी में हम अड़ोसपड़ोस के बच्चों के साथ मिल कर बरामदे में लुकाछिपी खेलते.

सोते समय नींद नहीं आ रही कह कर हम रोते तो वे हमें लोरी सुनातीं और तरहतरह के लोकगीत सुना कर सुला देतीं.

‘जब मेरी अम्मां हमारे साथ इस तरह रहीं तो रहीं तो क्या मुझे मीनू के साथ ऐसे नहीं रहना चाहिए क्या?’ यह सोच कर मैं एक योजना के साथ उठी. बच्ची को खाना खिलाने के लिए जगाया.

“मीनू, मम्मी अब औफिस नहीं जाएगी?” मैं धीरे से बोली.

“अब मम्मी तुम हमेशा ही नाइटी पहनोगी?” मीनू तुतला कर बोली.

अगले ही दिन औफिस जाते ही इस्तीफा तैयार कर के ऐना को दिखाया.

“आज तुम्हारे चेहरे पर नईनई शादी हुई लड़की जैसे रौनक दिख रही है,” ऐना बोली.

“अभी मत दे. बोनस का चेक दे दें तब देना. इस्तीफा दे दोगी तो फिर बोनस नहीं देंगे. जोजो लेना है सब को वसूल कर के फिर दे देना इस पत्र को डियर,” वह बोली.

दोपहर को 3 बजे कल्पना मैम मुझे एक अलग कमरे में ले कर गईं और बोलीं,”यह कंपनी तुम्हारी योग्यता का सम्मान करती है. इस कठिन समय में तुम्हारा योगदान बहुत ही सराहनीय रहा. सब को ठीक से समझ कर उन लोगों की योग्यता के अनुसार कंपनी ने तुम्हें भी प्रोमोशन दिया है. यह लो प्रोमोशन लेटर.”

उस लेटर को देख मैं ने एक बार फिर पढ़ा. ऐसा ही 2 प्रोमोशन और हो जाएं तो बस फिर वह भी कल्पना जैसे हो सकती है, सैक्शन की हैड.

डाक्टर ने बताया था,”मीनू को जो प्राइमेरी कौंप्लैक्स है उस के लिए 9 महीने लगातार दवा देने से वह ठीक हो जाएगी.”

मैं सोचने लगी,’3 महीने हो गए. 6 महीने ही तो बचे हैं. अगले साल स्कूल में भरती करने तक थोड़ी परेशानी सह ले तो सब ठीक हो जाएगा. अब तो सैलरी भी बढ़ गई है. सासूमां की मदद के लिए एक कामवाली को रख दें तो सब ठीक हो जाएगा. मेरे पति जो कहते हैं कि सौफ्टवेयर कंपनी का भविष्य का कुछ पता नहीं, तो फायदा इसी में है कि अभी कमाएं तो ही कल मीनू के भविष्य के लिए अच्छे दिन होंगे…’

मैं अचानक से वर्तमान में लौटी और बोली,”धन्यवाद कल्पना मैम. मैं ने इस की कल्पना नहीं की थी.”

वे बोलीं,”दीपा, कल तुम ने जो बढ़िया रिपोर्ट तैयार किया उसे और विस्तृत करना होगा. आज ही बौस को भेजना है. हो जाएगा?”

“हां ठीक है कल्पना मैम,” मैं बोली.

मैं ने घर पर फोन कर दिया कि लेट हो जाऊंगी. जो इस्तीफा मैं ने लिखा था उसे टुकड़ेटुकड़े कर डस्टबिन में डाल आई थी.

लेखक- एस. भाग्यम शर्मा

Sachi Kahani : दगाबाज

Sachi Kahani : सरन अपने बेटे विनय की दुलहन आयुषा का परिचय घर के बुजुर्गों और मेहमानों से करवा रही थीं. बरात को लौटे लगभग 2 घंटे बीत चुके थे. आयुषा सब के पैर छूती, बुजुर्ग उसे आशीर्वाद देते व आशीर्वाद स्वरूप कुछ भेंट देते. आयुषा भेंट लेती और आगे बढ़ जाती.

जीत का परिचय करवाते हुए सरन ने जब आयुषा से कहा, ‘‘ये मोहना के पति और तुम्हारे ननदोई हैं,’’ तो एकाएक उस की निगाह जीत पर उठ गई. जीत से निगाह मिलते ही उस के शरीर में झुरझुरी सी छूट गई. जीत उस का पहला प्यार था, लेकिन अब मोहना का पति. जिंदगी कभी उसे ऐसा खेल भी खिलाएगी, आयुषा सोचती ही रह गई. अंतर्द्वंद्व के भंवर में फंसी वह निश्चय नहीं कर पाई कि जीत के पैर छुए या नहीं? अपने मन के भावों को छिपाने का प्रयास करते हुए उस ने बड़े संकोच से उस के पैरों की तरफ अपने हाथ बढ़ाए.

जीत भी उसे अपने साले की पत्नी के रूप में देख कर हैरान था. वह भी नहीं चाहता था कि आयुषा उस के पैर छुए. आयुषा के हाथ अपने पैरों की ओर बढ़ते देख कर वह पीछे खिसक गया. खिसकते हुए उस ने आयुषा के समक्ष अपने हाथ जोड़ दिए. प्रत्युत्तर में आयुषा ने भी वही किया. दोनों के बीच उत्पन्न एक अनचाही स्थिति सहज ही टल गई.

जीत को देखते ही आयुषा के मन का चैन लुट गया था. जीवन में कुछ पल ऐसे भी होते हैं, जिन्हें भुलाने को जी चाहता है. वे पल यदि जीवित रहें तो ताजे घाव सा दर्द देते हैं. ठीक वही दर्द वह इस समय महसूस कर रही थी. सुहागशय्या पर अकेली बैठी वह अतीत में खो गई.

मामा की लड़की रंजना की शादी में पहली बार उस का साक्षात्कार जीत से हुआ था. मामा दिल्ली में रहते हैं. पेशे से वकील हैं. गली सीताराम में पुश्तैनी हवेली के मालिक हैं. तीनमंजिला हवेली की निचली मंजिल में बड़े हौल से सटे 4 कमरे हैं. मुख्य द्वार से सटे एक बड़े कमरे में उन का औफिस चलता है. बाकी कमरे खाली पड़े रहते हैं. बीच की मंजिल में 12 कमरे हैं, जिन में उन का 4 प्राणियों का परिवार रहता है. नानी, वे स्वयं, मामी और रंजना. बेटा प्रमोद भोपाल में सर्विस में है. ऊपरी मंजिल में 6 कमरे हैं, लेकिन सभी खाली हैं.

मैं अपनी मम्मी के साथ शादी अटैंड करने आई थी. पापा 2 दिन बाद आने वाले थे. मेहमानों को रिसीव करने के लिए मामा, मामी और उन के परिवार के कुछ सदस्य ड्योढ़ी पर खड़े थे. हवेली में घुसते हुए अचानक मेरे पैर लड़खड़ा गए थे. इस से पहले कि मैं गिरती, मामी के पास खड़े जीत ने मुझे संभाल लिया था. वह पहला क्षण था जब मेरी निगाहें जीत से टकराई थीं. प्रेम बरसात में उफनती नदियों की तरह पानी बड़े वेग से आता है, उस क्षण भी यही हुआ था. हम दोनों ने उस वेग का एहसास किया था.

उस के बाद शादी के दौरान ऐसा कोई क्षण नहीं आया जब हमारी नजरें एकदूसरे से हटी हों. जीत सा सुंदर और आकर्षक जवान मैं ने इस से पहले कभी नहीं देखा था. मैं मानूं या न मानूं पर सत्य कभी नहीं बदला जा सकता. कोई जब हमारी कल्पना से मिलनेजुलने लगता है, तो हम उसे चाहने लगते हैं. उस की समीपता पाने की कोशिश में लग जाते हैं. उस समय मेरा भी यही हाल था. मैं जीत की समीपता हर कीमत पर पा लेना चाहती थी.

मामा द्वारा रंजना की शादी हवेली से करने का फैसला हमारे लिए फायदेमंद सिद्ध हुआ था. इतनी विशाल हवेली में किसी को पुकार कर बुला लेना या ढूंढ़ पाना दूभर था. रंजना की सगाई वाले दिन सारी गहमागहमी निचली और पहली मंजिल तक ही सीमित थी. जीत ने सीढि़यां चढ़ते हुए जब मुझे आंख के इशारे से अपने पास बुलाया तो न जाने क्यों चाह कर भी मैं अपने कदमों को रोक नहीं पाई थी.

सम्मोहन में बंधी सब की नजरों से बचतीबचाती मैं भी सीढि़यों पर उस के पीछेपीछे चढ़ती चली गई थी. थोड़े समय में ही हम ऊपरी मंजिल की सीढि़यों पर थे. एकाएक उस ने मुझे अपनी बांहों में जकड़ कर अपने तपते होंठों को मेरे होंठों पर रख दिया था. अपने शरीर पर उस के हाथों का दबाव बढ़ते देख कर मैं ने न चाहते हुए भी उस से कहा था, ‘छोड़ो मुझे, कोई ऊपर आ गया तो?’

पर वह कहां सुनने वाला था और मैं भी कहां उस के बंधन से मुक्त होना चाह रही थी. मैं ने अपनी बांहों का दबाव उस के शरीर पर बढ़ा दिया था. न जाने कितनी देर हम दोनों उसी स्थिति में आनंदित होते रहे थे. लौट कर सारी रात मुझे नींद नहीं आई थी. जीत की बांहों का बंधन और तपते होंठों का चुंबन मेरे मनमस्तिष्क से हटाए भी नहीं हटा था.

अगली रात ऊपरी मंजिल का एक कमरा हमारे शारीरिक संगम का गवाह बना था. जीत और मैं एकदूसरे में समाते चले गए थे. दो शरीरों की दूरियां कैसे कम होती जाती हैं, यह मैं ने उसी रात जाना था. कितने सुखमय क्षण थे वे मेरी जवानी के, सिर्फ मैं ही जान सकती हूं. उन क्षणों ने मेरी जिंदगी ही बदल डाली थी.

शादी के बाद हम बिछुड़े जरूर थे पर इंटरनैटहमारे मिलन का एक माध्यम बना रहा था. हम घंटों चैट करते थे. एकदूसरे की समीपता पाने को तरसते रहते थे. हम निश्चय कर चुके थे कि हम शीघ्र ही शादी के बंधन में बंध जाएंगे.

तभी एक दिन मैं ने पापा को मम्मी से कहते हुए सुना था, ‘आयुषा के लिए मैं ने एक सुयोग्य वर तलाश लिया है. लड़का सफल व्यवसायी है. पिता का अलग व्यापार है. लड़के के पिता का कहना है कि वे अपनी लड़की की शादी पहले करना चाहते हैं. उस की शादी होते ही वे बेटे की शादी कर देंगे. तब तक हमारी आयुषा भी एमए कर चुकी होगी.’

मम्मी तो पापा की बात सुन कर प्रसन्न हुई थीं, पर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई थी. उसी शाम जीत से चैट करते हुए मैं ने उसे साफ शब्दों में कहा था, ‘जीत या तो तुम यहां आ कर पापा से मेरा हाथ मांग लो या फिर मैं पापा को स्थिति स्पष्ट कर के उन्हें तुम्हारे डैडी से मिलने के लिए भेज देती हूं.’

जीत ने कहा था, ‘तुम चिंता मत करो. यह सम अब तुम्हारी नहीं बल्कि मेरी है. मैं वादा करता हूं, तुम्हें मुझ से कोई नहीं छीन पाएगा. तुम सिर्फ मेरी हो. मुझे सिर्फ थोड़ा सा समय दो.’ उस ने मुझे आश्वस्त किया था.

उस के बाद जीत ने चैट करना कम कर दिया था. फिर धीरेधीरे मेरे और जीत के बीच दूरियों की खाई इतनी बढ़ती चली गई कि भरी नहीं जा सकी. जीत ने मुझ से अपना संपर्क ही तोड़ लिया. बरबस मुझे पापा की इच्छा के समक्ष झुकना पड़ा था.

सुहागकक्ष का दरवाजा बंद होने की आवाज के साथ मेरी तंद्रा टूट गई. विनय सुहागशय्या पर आ कर बैठ गए, ‘‘परेशान हो,’’ उन्होंने प्रश्न किया.

अपने मन के भावों को छिपाते हुए मैं ने सहज होने की कोशिश की, ‘‘नहीं तो,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘आयुष,’’ मुझे अपनी बांहों में भरते हुए विनय बोले, ‘‘मैं इस पल को समझता हूं. तुम्हें घर वालों की याद आ रही होगी, पर एक बात मेरी भी सच मानो कि मैं तुम्हारी जिंदगी में इतनी खुशियां भर दूंगा कि बीती जिंदगी की हर याद मिट जाएगी.’’

मेरे मन के कोने में हमसफर की एक छवि अंकित थी. विनय का व्यक्तित्व ठीक उस छवि से मिलता था. इसलिए मैं विनय को पा कर धन्य हो गई थी. ऐसे में हर पल मेरा मन यह कहने लगा था कि विनय जैसे सीधेसच्चे इंसान से कुछ भी छिपाना ठीक नहीं होगा. संभव है भविष्य में मेरे और जीत के रिश्तों का पता चलने पर विनय इन्हें किस प्रकार लें? तब पता नहीं हमारी विवाहित जिंदगी का क्या हश्र हो? मैं उस समय कोई भी कुठाराघात नहीं सह पाऊंगी. मुझे आत्मीयों की प्रताड़ना अधिक कष्टकर प्रतीत होती है, पर जबजब मैं ने विनय को सत्य बताने का साहस किया. मेरा अपना मन मुझे ही दगा दे गया. बात जबान पर नहीं आई. दिन बीतते गए. यहां तक कि हम महीने भर का हनीमून ट्रिप कर के यूरोप से लौट भी आए

हनीमून के दौरान विनय ने मेरी उदासी को कई बार नोटिस किया था. उदासी का कारण भी जानना चाहा, पर मैं द्वंद्व में फंसी विनय को कुछ भी नहीं बता पाई. उसे अपने प्यार में उलझा कर मैं ने हर बार बातों का रुख ही बदल दिया था.

हनीमून से लौटते ही विनय 2 महीने के बिजनैस टूर पर फ्रांस और जरमनी चले गए. सासूमां ने उन्हें रोकने का बहुत प्रयास किया पर वे नहीं रुके. जीत और मोहना को उन्होंने जरूर रोक लिया.

उन्होंने जीत से कहा, ‘‘मोहना को तो मैं अभी महीनेदोमहीने और आप के पास नहीं भेजूंगी. आयुषा घर में नई है. उस का मन बहलाने के लिए कोई तो उस का हमउम्र चाहिए. वैसे आप भी यहीं से अपना बिजनैस संभाल सकें, तो मुझे ज्यादा खुशी होगी. कम से कमआयुषा को 2 हमउम्र साथी तो मिल जाएंगे.’’

जीत थोड़ी नानुकर के बाद रुक गया. मैं समझ चुकी थी कि उस के रुकने का आशय क्या है? वह मुझे फिर से पाने का प्रयास करना चाहता है. मैं तभी से सतर्क हो गई थी. उस ने पहले कुछ दिन तो मुझ से दूरियां बनाए रखीं. फिर एक दिन जब सासूमां मोहना के साथ उस के लिए कपड़े और आभूषण खरीदने बाजार गईं तो जीत मेरे कमरे में चला आया. वह अतिप्रसन्न था. ठीक उस शिकारी की तरह जिस के हाथों एक बड़ा सा शिकार आ गया हो.

मेरे समीप आते हुए उस ने कहा, ‘‘हाय, आयुषा. व्हाट ए सरप्राइज? वी आर बैक अगेन. अब हम फिर से एक हो सकते हैं. कम औन बेबी,’’ जीत ने कहते हुए अपने हाथ मुझे बांहों में भरने के लिए बढ़ा दिए.

मेरे सामने अब मेरा संसार था. प्यारा सा पति था. उस का परिवार था. जीत के शब्द मुझे पीड़ा देने लगे. उस के दुस्साहस पर मुझे क्रोध आने लगा. न जाने उस ने मुझे क्या समझ लिया था? अपनी बपौती या बिकाऊ स्त्री? मैं उस पर चिंघाड़ पड़ी, ‘‘जीत, यहां से चले जाओ वरना,’’ गुस्से में मेरे शब्द ही टूट गए.

‘‘वरना क्या?’’

‘‘मैं तुम्हारी करतूत का भंडाफोड़ कर दूंगी.’’

‘‘उस से मेरा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, लेकिन तुम कहीं की नहीं रहोगी. आयुषा, तुम्हारा भला अब सिर्फ इसी में है कि मैं जैसा कहूं तुम करती जाओ.’’

‘‘यह कभी नहीं होगा,’’ क्रोध में मैं ने मेज पर रखा हुआ वास उठा लिया.

मेरे क्रोध की पराकाष्ठा का अंदाजा लगाते हुए उस ने मेरे समक्ष कुछ फोटो पटक दिए और बोला, ‘‘ये मेरे और तुम्हारे कुछ फोटो हैं, जो तुम्हारे विवाहित जीवन को नष्ट करने के लिए काफी हैं. यदि अपना विवाह बचाना चाहती हो तो कल शाम 7 बजे होटल सनराइज में चली आना. मैं वहीं तुम्हारा इंतजार करूंगा,’’ जीत तेजी से मुझ पर एक विजयी मुसकान उछालते हुए कमरे से बाहर निकल गया.

अब मेरा क्रोध पस्त हो गया था. उस के जाते ही मैं फूटफूट कर रो पड़ी. मुझे अपना विवाहित जीवन तारतार होता हुआ लगा. जीत ने मेरी सारी खुशियां छीन ली थीं. बेशुमार आंसू दे डाले थे. मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं? कैसे जीत से छुटकारा पाऊं? मेरी एक जरा सी नादानी ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा था, पर मैं ने यह निश्चय अवश्य कर लिया था कि यह मेरी लड़ाई है, मुझे ही लड़नी है. मैं किसी और को बीच में नहीं लाऊंगी. कैसे लड़ूंगी? यही सोचसोच कर सारी रात मेरी आंखों से अविरल अश्रुधारा बहती रही थी.

सवेरे उठी तो लग रहा था कि तनाव से दिमाग किसी भी समय फट जाएगा. विपरीत परिस्थितियों में कई बार इंसान विचलित हो जाता है और घबरा कर कुछ उलटासीधा कर बैठता है. मुझे यही डर था कि मैं कहीं कुछ गलत न कर बैठूं. दिन यों ही गुजर गया. शाम के 5 बजते ही जीत घर से निकल गया. जाते हुए मुझे देख कर मुसकरा रहा था. अब तक मैं भी यह निश्चय कर चुकी थी कि आज जीत से मेरी आरपार की लड़ाई होगी. अंजाम चाहे जो भी हो.

मैं जब होटल पहुंची तो जीत बड़ी बेताबी से मेरे आने का इंतजार कर रहा था. मुझे देखते ही वह बड़ी अक्कड़ से बोला, ‘‘हाय डियर, आखिर जीता मैं ही, अगर सीधी तरह मेरी बात मान लेती तो मैं तुम्हें परेशान क्यों करता?’’

‘‘जीत,’’ मैं ने उस की बात अनसुनी करते हुए कहा, ‘‘मैं बड़ी मुश्किल से अपनों की इज्जत दांव पर लगा कर तुम्हारी इच्छा पूरी करने आई हूं. मेरे पास ज्यादा समय नहीं है. आओ और जैसे चाहो मेरे शरीर को नोच डालो. मैं उफ तक नहीं करूंगी,’’ कहते हुए मैं ने अपनी साड़ीब्लाउज उतारना शुरू कर दिया, उस के बाद पेटीकोट भी.

अचानक मेरे इस व्यवहार को देख कर जीत चकित रह गया. उस ने इस स्थिति की कल्पना भी नहीं की थी. विचारों के बवंडर ने संभवत: उसे विवेकशून्य कर दिया. आयुषा से क्या कहे, कुछ नहीं सूझा. घबराते हुए उस ने मुझ से पूछा, ‘‘यह तुम्हारे हाथ में क्या है?’’

‘‘जहर की शीशी,’’ मैं ने उत्तर दिया, ‘‘तुम्हें तृप्त कर के इसे पी लूंगी. सारा किस्सा एक बार में खत्म हो जाएगा.’’

‘‘फिर मेरा क्या होगा?’’

‘‘चाहो तो तुम भी इसे पी सकते हो. हमारा प्यार भी अमर हो जाएगा और हम भी.’’

तभी मैं ने देखा उसे अपनी आशाओं पर पानी फिरता हुआ नजर आया था. उस के चेहरे से पसीना चूने लगा था. फिर उस के पैर मुझ से कुछ दूर हुए और दूर होतेहोते कमरे से बाहर हो गए.

सवेरे जब नींद टूटी तो मैं ने देखा कि जीत कहीं बाहर जा रहा था.

सासूमां और मोहना उस के पास दरवाजे पर खड़ी थीं. मुझ पर नजर पड़ते ही मोहना ने मुझे बताया कि आज जीत की एक जरूरी मीटिंग है, उसे 10 बजे की फ्लाइट पकड़नी है. सच क्या था. वह केवल जीत जानता था या मैं. जीत ने जाते समय मुझे देखा तक नहीं, पर मैं उसे जाते हुए देख कर मंदमंद मुसकरा रही थी. मैं अब विनय के प्रति पूरी तरह समर्पित थी.

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