अभिनेत्री: क्यों उसे प्यार में धोखा मिला?

सैकड़ों आंखें उसे एकटक निहार रही थीं. उन सभी आंखों से छलकते खारे पानी को वह अपनी आंखों में महसूस कर रही थी. रुलाई फूटने से पहले उस का गला भर आया. वह बोलना चाह रही थी पर शब्द उस के गले में बर्फ की तरह जम गए थे. जमे हुए वे शब्द ही तरल हो कर जब आंखों की राह बहने लगे तो फिर उन्हें थामना मुश्किल हो गया.

अपने आंसुओं को रोकने के लिए उस ने पूरी ताकत लगा दी. वह चाह रही थी कि अपना आखिरी संवाद पूरा कहे. अक्षर उस के मस्तिष्क में पालतू कबूतरों के झुंड की तरह उड़ रहे थे. उसे महसूस हो रहा था कि वह उन्हें पकड़ सकती है पर वह बोल क्यों नहीं पा रही? बस 5-7 पंक्तियां ही तो हैं. उसे बोलना ही होगा, यह बहुत जरूरी है.

अभिनेत्री ने पूरी शिद्दत से अपनी रुलाई रोकी. एक बार जो शब्दों को हवा में उछालना शुरू किया तो फिर वह बोलती ही गई. वह समझ नहीं पा रही थी कि जो संवाद उस के लिए तय थे, वही बोल रही है या दूसरे. बस, वह बोले जा रही थी.

अपनी भूमिका समाप्त होते ही वह चित्रवत खड़ी हो गई. धीरेधीरे प्रकाश उस पर कम से कमतर होता चला गया और पूरी रंगशाला में अंधकार छा गया. वह मंच से भागी. अब वह जी भर कर रोना चाह रही थी, सचमुच रोना. दौड़ कर वह रंगमंच के पिछले हिस्से में चली गई. दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

कुछ पल के बाद उसे लगा कि तालियों की गूंज से सारी रंगशाला हिल उठी हो. वहां बेतहाशा शोर मच रहा था और रंगमंच के परदे के पीछे की एक कोने में बैठी अभिनेत्री की आंखों का पानी रुक नहीं पा रहा था.

अचानक दरवाजे पर थापें पड़ने लगीं, ‘‘प्रीताजी…प्रीताजी बाहर आइए, दर्शक आप से मिलने को बेताब हैं.’’

वह उठना नहीं चाह रही थी. दरवाजा लगातार भड़भड़ाए जाने से झुंझला सी गई. जोर से चीखी, ‘‘क्या है, मैं पोशाक तो बदल लूं.’’

‘‘बस, कुछ देर की ही बात है, कृपया आप जल्द बाहर आइए.’’

हार कर उसे दरवाजा खोलना पड़ा और अचानक उस छोटे से कमरे में भीड़ का सैलाब उमड़ आया. लोग उसे बधाइयां देने लगे, ‘‘क्या बात है, कैसा स्वाभाविक अभिनय था! आप ने तो सभी को रुला ही दिया.’’

‘‘क्या आप नाटक में सचमुच रोती हैं?’’ एक बच्चे ने जब उस से पूछा तो उस ने मुसकरा कर बच्चे का गाल थपथपा दिया.

‘कैसी अजीब जिंदगी है, उस का मन तो अब भी रोना चाह रहा है पर उसे जबरन मुसकराना पड़ रहा है,’ वह सोच रही थी.

‘रोना और हंसना तो अभिनय के बड़े स्थूल रूप हैं. सूक्ष्म मनोभावों को सहजता से चेहरे पर लाना उतना ही मुश्किल है जितना आंधी में उड़ते हुए पत्तों को बटोरना.’ इसी तरह की बहुत सारी बातें रविशेखर उस से किया करता था. उसे याद आया कि कितना तनावग्रस्त रहता था वह हर समय. रिहर्सल, पटकथा, पोस्टर, लाल रंग, सौंदर्यशास्त्र, वेशभूषा और न जाने क्याक्या? बस, हमेशा नाटक के बारे में ही सोचता रहता था.

घनी दाढ़ी, खादी का कुरता, अधघिसी जींस, गले में रुद्राक्ष की माला, कंधे पर खादी का थैला यानी विचित्र सा स्वरूप था रविशेखर का. बोलता तो बोलता ही जाता और चुप रहता तो घंटों ‘हूंहां’ ही करता रहता. अपनेआप को कुछ अधिक समझने की आदत तो थी ही उसे.

प्रीता नाटकों में अभिनय करेगी, यह तो उस ने कभी सोचा भी न था. सब कुछ अचानक ही हुआ.

उसे याद आया, एक दिन सांझ को रविशेखर उस की मां के सामने आ खड़ा हुआ था. कहने लगा, ‘चाचीजी, आप के पास बड़ी उम्मीदों से आया हूं. 4 दिन बाद हमारे नाटक का मंचन होना है. जो लड़की उस की हीरोइन थी, परसों उसे लड़के वाले देखने आए. जब उन्हें पता चला कि लड़की नाटकों में हिस्सा लेती है तो कहने लगे कि हम नहीं चाहेंगे कि हमारी होने वाली बहू नाटकवाटक करे. बस, उस के घर वालों ने उसी वक्त से उस के थिएटर आने पर रोक लगा दी. 2 दिन जब वह रिहर्सल में नहीं आई तब मुझे पता लगा. अब आप के पास आया हूं. मेरे जीवन का यह महत्त्वपूर्ण नाटक है. निमंत्रणपत्र बंट चुके हैं. अब सबकुछ आप के हाथों में है. अगर प्रीताजी को आप आज्ञा दे दें तो मैं आप का एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूंगा,’ कहतेकहते वह भावुक हो उठा था.

प्रीता जब चाय बना कर लाई तब यही बातें चल रही थीं. रविशेखर का प्रस्ताव सुन कर वह एकदम ठंडी पड़ गई. ठीक है, कालेज में वह गाना गाती रही है, पर नाटक. गाने और अभिनय करने में तो बेहद फर्क है.

मां ने तो यह कह कर पल्लू झाड़ लिया कि अगर प्रीता चाहे तो मुझे कोई एतराज नहीं. उस ने भी रविशेखर से साफ कह दिया था कि न तो उस ने कभी अभिनय किया है और न ही वह कर सकती है. तब कैसा रोंआसा हो गया था वह. कहने लगा, ‘यह सब आप मेरे ऊपर छोड़ दीजिए.’

उस के बाद बचे 4 दिनों में 5-5, 6-6 घंटे रिहर्सल चलती रही. एक से संवादों को बारबार बोलतेबोलते वह तो उकता सी गई.

शुरूशुरू में तो वह समझ ही नहीं पाई कि नाटक के प्रदर्शन के बाद जो तालियां बजी थीं उन में से आधी उसी के लिए थीं. लोग लगातार उसे मुबारकबाद दे रहे थे. रविशेखर की आंखों में सफलता के आंसू चमक रहे थे. परंतु प्रीता स्वयं समझ नहीं पा रही थी कि आखिर उस ने किया क्या है? नाटक ही कुछ ऐसा था जो उस की जिंदगी से बेहद मेल खाता था.

इस नाटक में एक ऐसी युवती की कहानी थी जो अपने पिता और मां के अहं के टकराव में ‘शटलकौक’ बनी हुई थी. इस पाले से उस पाले में उसे फेंका जा रहा था. कुछ तमाशबीन उस खेल को देख रहे थे और एक निर्णायक उस तमाशे का फैसला दे रहा था. जिंदगी के असली नाटक में शटलकौक प्रीता स्वयं थी और दर्शक के रूप में उस के रिश्तेदार व मातापिता के पारिवारिक मित्र थे.

अंतर सिर्फ यह था कि मंच पर खेले गए नाटक का अंत सुखद था. जिस युवती का अभिनय उस ने किया था वह अपने प्रयासों से अपने मातापिता को मिला देती है. पर वास्तविक जिंदगी में कितनी ही कोशिशों के बाद प्रीता अपने मातापिता को एक नहीं कर पाई थी.

कभीकभी वह सोचती कि ये लेखक यथार्थ पर नाटक लिखते हैं तो फिर उस का अपना यथार्थ और उस नाटक का अंत इतना उलट क्यों? कहां खुशी के आंसू और कहां जीवन भर का अवसाद. कभी प्रीता को लगता कि यह जीवन रंगमंच ही तो है. इतने सारे पात्र, हरेक पात्र की अपनी पीड़ा, हरेक पीड़ा की अपनी कहानी, हर कहानी का अपना अंत और हर अंत के अपने परिणाम.

पर कितना खुदगर्ज निकला रविशेखर. जब तक उसे प्रीता की जरूरत थी, कैसा भावुक बना रहा. रिहर्सल में वह अकसर पहले आ जाती थी क्योंकि उस का रोल हमेशा बड़ा रहता था. वह उस के दोनों हाथों को अपनी हथेलियों में भर कर थरथराते स्वर में कहता, ‘प्रीता, तुम्हारा संग रहा तो हम राष्ट्रीय स्तर पर जा पहुंचेंगे.’

उस नितांत भावुक व्यक्ति की बातें शुरूशुरू में तो प्रीता को बेहद सतही लगतीं पर धीरेधीरे ये संवाद उसे भले लगने लगे. रवि के संग प्रीता ने कई नाटक किए. वह निर्देशक रहता और प्रीता नायिका. बूढ़ी, ब्याहता, पागल युवती, विधवा, अभिसारिका, तनावग्रस्त प्रौढ़ा, हंसोड़, बिंदास आदि न जाने कितनेकितने चरित्रों को उस ने मंच पर जिया.

एक दिन रविशेखर खुशी में झूमता हुआ मिठाई का बड़ा सा डब्बा ले कर उन के घर आया और बोला कि उसे फाउंडेशन की छात्रवृत्ति मिल गई है. फिर वह उस बेमुरव्वत हवाईजहाज की तरह अमेरिका उड़ गया, जिसे ‘रनवे’ पर लगी उन बत्तियों से कोई सरोकार ही नहीं होता,  जिन की मदद से वह आसमान में परवान चढ़ता है.

रविशेखर के अमेरिका जाने के बाद उसे सहारा देने को कई हाथ बढ़े. पर तब तक प्रीता तरहतरह की भूमिकाएं और विभिन्न कलाकारों के संग रिहर्सल और शो करतेकरते जान चुकी थी कि हाथों की थरथराहट का मतलब क्या होता है. उंगलियों के दबाव और हथेली की उष्णता के विभिन्न अर्थ उस की समझ में आ चुके थे. एक कुशल अदाकारा की तरह मंच पर हीर बन कर प्रेमरस में डूबी नायिका रहती तो नेपथ्य में उसी रांझा को न पहचानने का अभ्यास भी उसे हो गया था.

पर बारबार उसे लगता कि उसे पुरुष की जरूरत है. ऐसे पुरुष की जो उस के मस्तिष्क में उमड़ते विचारों को बांध सके, ऐसे पुरुष की जो उस की अभिव्यक्ति के सैलाब को सही दिशा दे सके. वह बिजली बन कर उस पुरुष के आकाश में चमकना चाहती थी. वह चाहती थी कि एक ऐसा संपूर्ण पुरुष जो उसे नारीत्व की गरिमा प्रदान कर सके.

उन्हीं दिनों सुकांत आया. अचानक धूमकेतु की तरह मंच पर वह प्रकट हुआ. सुदर्शन, चमकीली आंखें, लंबी नाक, खिला हुआ रंग. बोलता तो बोलता ही चला जाता, फ्रायड से राधाकृष्णन तक, यूजीन ओ नील से अब्दुल बिस्मिल्लाह तक और अंडे की सब्जी से अरहर की दाल तक. पर इस का अर्थ यह नहीं कि उसे इन सब बातों के बारे में जानकारी थी.

शुरूशुरू में जब इतने सारे भारीभारी नाम सुकांत ने उस के सामने बोलने शुरू किए तो वह सहम सी गई. इतना पढ़ालिखा, इतना प्रखर. पर धीरेधीरे वह जान गई कि जैसे कुछ लोगों को दुनिया के सारे देशों की राजधानियों के नाम रटे होते हैं, पर उन से पूछा जाए कि एफिल टावर कहां है तो जवाब नहीं बनता, सुकांत भी कुछकुछ इसी किस्म का था. पर वह उसे अच्छा लगने लगा. शायद इसलिए कि सुकांत की बातों से उसे एहसास होता कि वह बहुत भोला है.

रविशेखर प्रतिभाशाली था, पर उतना ही खुदगर्ज. कभीकभी वह रविशेखर और सुकांत की तुलना करने लगती तो सुकांत उसे भोला, सुंदर और थोड़ाथोड़ा मूर्ख लगता. अभिनय का शौक सुकांत को भी था, पर वह फिल्मी दुनिया में जाने को उतावला था. उस के मनोहर रूप और लंबेचौड़े व्यक्तित्व से उसे लगने लगा कि सुकांत जरूर हीरो बनेगा.

एक दिन नवंबर की एक शाम की हलकीहलकी ठंड में सुकांत ने उस के दोनों हाथों को अपनी गरम हथेलियों में भर के विवाह का प्रस्ताव रख ही दिया तो वह इनकार न कर सकी.

दूर के ढोल सुहावने होते हैं. सुकांत की जो बेवकूफियां विवाह से पहले उसे हंसातीं और गुदगुदाती थीं, अब वही असहनीय होने लगीं. बातबात में वह उस से अपनी तुलना करने लगता. सुकांत को मंच पर नाटक करने में कोई रुचि नहीं थी. वह थिएटर का इस्तेमाल सीढ़ी की तरह करना चाहता था.

उस के बहुत कहने पर एक बार उन दोनों ने एक नाटक में अभिनय किया. सुकांत ने उस नाटक में अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ अभिनय किया, पर बधाई देने वाले प्रीता के इर्दगिर्द ही ज्यादा थे. उस दिन से सुकांत कुछ अधिक ही उखड़ाउखड़ा रहने लगा. उस के बाद वह जानबूझ कर उन अवसरों को टालने लगी, जब उसे और सुकांत को एकसाथ अभिनय करना होता.

एक बार थिएटर में उस के नए नाटक का प्रदर्शन था. एक गूंगी लड़की की भूमिका उसे करनी थी. उस के हिस्से में संवाद नहीं थे, पर इतने दिनों के अनुभव से वह जान गई थी कि आंखों और चेहरे की भावभंगिमा से कैसे मन की बात कही जाती है. संयोग ही था कि यह सब उस ने एक गूंगी लड़की से ही सीखा था. उस की पड़ोसन रजनी की एक ननद सुनबोल नहीं पाती थी. कितनी प्यारी लड़की थी वह. उस के संग वह घंटों बातें करती रहती, पर बात जबान से नहीं, आंखों और हाथों से होती थी.

गूंगी लड़की के अद्भुत किरदार को निभाने के बाद तो वह मंच की रानी ही बन गई. कितनी सारी तालियां, कितना सम्मान, कितना स्नेह उसे एकसाथ मिल गया था. उस ने सोचा, सुकांत आज बेहद खुश होगा, पर नेपथ्यशाला से निकल कर वह बाहर आई तो सुकांत उसे कहीं नहीं दिखा. हार कर नाटक के निर्देशक विनय उसे स्कूटर से घर छोड़ने आए थे.

घर में अंधेरा था. घंटी बजाने पर सुकांत ने दरवाजा खोला. चढ़ी आंखें, बिखरे बाल.

‘‘क्या तुम्हारी तबीयत खराब है, सुकांत?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तुम ने नाटक देखा?’’

‘‘हां, आधा.’’

‘‘पूरा क्यों नहीं?’’

‘‘प्रीता, मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं.’’

सुकांत की आवाज सुन कर वह सहम गई. वह कुछ बोल नहीं पाई.

‘‘प्रीता, क्या तुम थिएटर छोड़ नहीं सकतीं?’’

वह हतप्रभ रह गई कि सुकांत उस से कह क्या रहा है. उसे अपने कानों पर अविश्वास हो रहा था कि क्या सुकांत ने जो शब्द कहे वे उस ने सही सुने थे. वह फटीफटी आंखों से सुकांत को देख रही थी. उसे लगा कि सुकांत की आंखों में भी वही भाव हैं जो तब रविशेखर की आंखों में रहे थे, जब उस ने छात्रवृत्ति मिलने पर अमेरिका जाने की खबर सुनाई थी.

जानते हुए भी कि सुकांत का उत्तर क्या होगा, वह उस से पूछना चाह रही थी कि क्यों, आखिर क्यों? पर शब्द उस के कंठ में फंस गए. वह न उन्हें उगल सकती थी और न निगल सकती थी. एक दर्द का गोला उस के दिल से उठा और चेतना पर छाता चला गया.

बंद कमरे में फंसी, खुले आकाश में उड़ने को छटपटाती, तेज घूमते पंखे से टकराई चिडि़या सी वह धड़ाम से फर्श पर गिर कर तड़पने लगी.

नीली आंखों के गहरे रहस्य: भाग-1

नीली आंखें मैं ने फिल्मों में नायक और नायिकाओं की देखी थीं. वास्तविक जीवन में पहली बार उस की नीली आंखें देखीं जब वह बैंक में मुझे पहली बार मिली थी.

‘‘सर, मैं ब्यूटीपार्लर खोलना चाहती हूं, आप के बैंक से लोन चाहिए.’’ अपने केबिन में बैठा, मैं एक जरूरी फाइल देख रहा था. यह स्वर सुन कर मैं ने अपना चेहरा ऊपर उठाया तो उस 24-25 वर्षीया युवती को देख कर ठगा सा रह गया. टाइट जींस, चुस्त टौप, खुले लहराते बाल, देखने में अति सुंदर, साथ ही, उस की नीली आंखें जिन में न जाने कैसी कशिश और सम्मोहन था कि मैं उन के गहरे समंदर में गोते लगाने लगा.

‘‘सर,’’ उस ने कुछ जोर दे कर लेकिन कोमल स्वर में कहा तो मैं सचेत हो गया, ‘‘हां, कहिए, कैसे?’’

‘‘जी, मेरा नाम मीठी है. मैं ब्यूटीपार्लर खोलना चाहती हूं, आप के बैंक से लोन चाहिए.’’

‘‘कितना लोन चाहिए?’’

‘‘5 लाख रुपए. इस के लिए मुझे क्या औपचारिकताएं पूरी करनी होंगी,’’ बहुत ही गंभीर और सधे स्वर में उस ने पूछा.

‘‘इस के लिए आप को अपनी किसी प्रौपर्टी के कागजात देने होंगे. एक गारंटर की भी जरूरत पड़ेगी. और हां, वह प्रौपर्टी मुझे देखनी भी पड़ेगी तभी उस के आधार पर कार्यवाही आगे बढ़ेगी.’’

‘‘ठीक है सर, हमारा घर है जो कि मां के नाम है. ऊपरी हिस्से में हम रहते हैं. नीचे के हिस्से में ब्यूटीपार्लर खोलने की सोची है. आप जब चाहें हमारा घर देख सकते हैं,’’ उस ने उत्साहित स्वर में कहा, ‘‘तो सर, आप कब आ रहे हैं हमारा घर देखने?’’

उस का उत्साह, खुशी, लगन, रूपसौंदर्य और नीली आंखें देख कर मन में आया कह दूं कि आज शाम को ही, लेकिन मेरी छठी इंद्रिय ने मुझे सचेत किया कि मैं एक बैंक मैनेजर हूं और मुझे बैंक संबंधी, खासतौर से लोन संबंधी, मामलों में बहुत सूझबूझ, चतुराई, सतर्कता व दूरदर्शिता से काम लेना होगा क्योंकि आजकल बहुत फ्रौड हो रहे हैं.

बैंक में कोई भी जालसाजी या धोखाधड़ी होती है तो पहले बैंक मैनेजर पर ही शक की सूई ठहरती है चाहे उस का कुसूर हो या न हो. इसलिए हर कदम फूंकफूंक कर रखना पड़ता है. यह लड़की अपने यौवन और सौंदर्य के जाल में उलझा कर कहीं मुझ से कोई ऐसा गलत काम न करवा दे कि मैं फंस जाऊं.

‘‘सर, क्या सोचने लगे आप?’’ उस ने मुझे टोका तो मैं अपनी विचारयात्रा को विराम दे कर बोला, ‘‘देखिए, अभी 2-4 दिन मेरे पास वक्त नहीं है, काम ज्यादा है. आप अपना मोबाइल नंबर दे दीजिए, जिस दिन भी फ्री होऊंगा, आप को फोन पर बता दूंगा.’’

‘‘थैंक्यू सर,’’ कहते हुए उस ने अपना मोबाइल नंबर बता दिया और मैं ने शरारत से उस का नंबर अपने मोबाइल में ‘ब्लू आइज’ नाम से सेव कर लिया.

उस के जाते ही मैं फिर से उस की नीली आंखों की गहराई में उतर गया. अपने से आधी उम्र की लड़की के बारे में सोचना मुझे गलत तो लग रहा था, मेरी बेटी भी लगभग उसी की उम्र की थी, लेकिन पता नहीं क्यों उस की नीली आंखों ने मुझ पर क्या जादू कर दिया था कि मेरा मन उस की तरफ बेलगाम घोड़े की तरह दौड़ा ही जा रहा था और मैं, बेबस व असहाय सा हो गया था.

शाम को घर पहुंचते ही पत्नी चाय बनाने लगी और मैं मुंहहाथ धोने लगा. गरमागरम चाय का कप पकड़ाते हुए वह बोली, ‘‘सुनो, अब खुशी के लिए लड़के देखने शुरू कर दो. पूरे 25 वर्ष की हो गई है. उस का एमबीए भी कंपलीट हो गया है. जौब जब मिलेगी तब मिलती रहेगी लेकिन हमें तो लड़के देखने शुरू कर देने चाहिए.’’

यह सुन कर मुझे लगा कि मैं बूढ़ा हो गया हूं. खुशी की शादी होगी, फिर मैं नाना भी बन जाऊंगा. साथ ही, सोच रहा हूं उस नीली आंखों वाली लड़की के बारे में. मुझे अपने पर शर्म आई.

‘‘पापा, आप कब आए बैंक से?’’ मेरी बेटी ने पूछा.

‘‘बस बेटा, अभी थोड़ी देर पहले.’’ जैसे ही मैं ने उसे बेटा कहा तो उस नीली आंखों वाली की तसवीर मेरे सामने आ गई. अपने मन को हर तरह से काबू किया लेकिन रात को न चाहते हुए भी उंगलियां मोबाइल स्क्रीन पर पहुंच गईं और ‘ब्लू आइज’ पर उंगली का हौले से दबाव पड़ गया.

‘‘हैलो कौन?’’ इतनी जल्दी फोन उठा लेगी, यह तो मैं ने सोचा भी न था, संभलते हुए बोला, ‘‘मीठीजी, मैं बैंक मैनेजर आनंद बोल रहा हूं. असल में, मैं कल शाम को फ्री हूं, अगर आप चाहें तो अपना घर दिखा सकती हैं.’’

‘‘जरूर सर?’’ वह चहक कर बोली, ‘‘यह तो बहुत अच्छा है. मैं तो खुद चाहती हूं कि जल्दी से जल्दी मेरा लोन पास हो जाए और मेरा ब्यूटीपार्लर खोलने का सपना पूरा हो जाए.’’

‘‘तो ठीक है. आप कल शाम को 5 बजे बैंक आ जाना, मैं आप के साथ चलूंगा.’’

‘‘किस के साथ चलोगे और कहां चलोगे?’’ पत्नी ने पूछा.

उस का इस तरह पूछना, मुझे लगा जैसे उस ने किसी शुभ काम में टोक लगा दी है. सो, झुंझला कर बोला, ‘‘कल बैंक के बाद एक पार्टी के साथ विजिट के लिए जाना है. कहीं मौजमस्ती के लिए नहीं जा रहा.’’

‘‘आप तो बेवजह नाराज हो गए. और हां, अकेले मत जाना, साथ में किसी सहकर्मी को ले जाना. जमाना ठीक नहीं है. एक से भले दो रहते हैं,’’ वह मुझे एक बच्चे की तरह समझाती हुई बोली.

उस की इस नसीहत से मेरा पारा और चढ़ गया, ‘‘हद करती हो तुम? बैंक मैनेजर हूं. अनुभव है मुझे. पहचान है आदमी की, कौन भला है कौन बुरा? और, मेरी किसी से रंजिश या दुश्मनी थोड़ी है जो कोई मुझे नुकसान पहुंचाएगा.’’

‘‘आप को कुछ बताना और राय देना बेकार है. आप तो अपने काम के प्रति पूरी तरह समर्पित, ईमानदार बैंक मैनेजर हो. आप जिस संस्था का नमक खाते हो उस के साथ गद्दारी नहीं कर सकते. यह सिर्फ मैं ही जानती हूं लेकिन कोई बाहर वाला नहीं. किसी केस में आप ने नानुकुर की या अपनी असंतुष्टता व असहमति दर्शायी तो सामने वाला आप को प्रलोभन देगा ही और आप पूरी कठोरता से उस निम्न प्रस्ताव को अस्वीकार करोगे. ऐसे में वह आप की इस बात व व्यवहार से चिढ़ जाए व आप को अपना दुश्मन मान ले तब…यही सोच कर डर लगता है और फिर, घर में जवान बेटी है, तो यह डर और सताने लगता है. अब आप ही बताओ, क्या मैं गलत कह रही हूं?’’

‘‘साधना, रिलैक्स यार. मैं बैंक की नौकरी 30 वर्षों से कर रहा हूं. कभी झंझटों या गलत कामों में नहीं फंसा क्योंकि मैं अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले हर काम को पूरी स्पष्टता, सत्यता, पारदर्शिता और ईमानदारी से करता हूं और अपने सामने वाले को पहली मुलाकात में ही अपने व्यवहार, स्वभाव व कार्यशैली से यह दर्शा देता हूं कि मैं गलत नीति और गलत आचरण वाला व्यक्ति नहीं हूं. इज्जत से नौकरी की है, रिटायरमैंट भी पूरे सम्मान के साथ लूंगा.’’

‘‘बस, आप की इसी गांधीवादी विचारधारा पर तो फिदा हूं मैं,’’ कहती हुई वह शरारत से लिपट गई.

जल्दी ही वह गहरी नींद की आगोश में समा गई लेकिन आज नींद मुझ से कोसों दूर थी या यों कहिए नींद मुझ से रूठ कर रात्रिजागरण करवाने पर तुली थी.

शायद, साधना सही कहती है. औरतों की बातें, सलाह पुरुषों को हमेशा गलत लगती हैं. हालांकि ऐसा नहीं है. वे भी सही होती हैं. साधना का डर जायज है. आजकल लोग छोटी सी बात पर ही रंजिश पैदा कर लेते हैं. माना कि मैं बहुत होशियार व समझदार हूं लेकिन फिर भी मुझे और ज्यादा चौकन्ना रहना होगा.

सुबह आंख देर से खुली. साधना ने नाश्ता तैयार कर दिया था और लंच की तैयारी में जुटी थी. फ्रैश हो कर आया तो मोबाइल घनघना उठा. स्क्रीन पर‘ब्लू आइज’ देख कर मन सुहावने मौसम की तरह मदमस्त हो गया.

‘‘हैलो सर, मैं मीठी बोल रही हूं. आज शाम को आप मेरे घर आ रहे हैं न. तो प्लीज सर, डिनर मेरे यहां ही कीजिए. मेरी नानी कहती थीं कि मैं खीर बहुत स्वादिष्ठ बनाती हूं, इसलिए प्लीज…’’

निवेदनभरे मीठे स्वर में उस का आग्रह न ठुकरा सका मैं.

‘‘ठीक है, मैं डिनर आप के यहां ही कर लूंगा.’’

‘‘कहां डिनर कर लेंगे आप?’’ कहते हुए साधना ने कौफी का मग मेरे सामने बढ़ा दिया.

जब भी कोई अच्छी शुरुआत करने की सोचो, यह जरूरी बीच में आ टपकती है. औरत है या बिन मौसम बरसात, मन ही मन कुढ़ गया मैं क्योंकि मैं नीली आंखों वाली के साथ डिनर और खीर का आनंद लेने की सोच रहा था.

‘‘क्या सोचने लगे? और मेरी बात का जवाब भी नहीं दिया.’’

‘‘सोच रहा हूं आज शाम मुंबई के लिए उड़ जाऊं और वहां किसी नीली आंखों वाली हीरोइन के साथ डिनर करूं,’’ अपनी खीझ और कुढ़न को हास्यपरिहास से पेश कर दिया.

यह सुन कर वह खुल कर हंस पड़ी, ‘‘इस उम्र में कोई भूरी, काली, पीली, हरी और नीली आंखों वाली घास भी न डालेगी आप को, डिनर तो बहुत दूर की बात है.’’ उस ने भी मेरी तरह व्यंग्य से जवाब दिया.

‘‘छोड़ो भी यह हंसीमजाक. मैं आज डिनर बाहर ही करूंगा. एक पार्टी के साथ, उस के घर पर ही. बहुत आग्रह किया उस ने, इसलिए मना न कर सका,’’ अपना टिफिन हाथ में लेते हुए बड़ी सफाई से झूठ बोला मैं.

‘‘यह पार्टी जानकारी की है या अपरिचित?’’ उस ने फिर जासूसी की.

‘‘बस, एक बार बैंक में लोन के सिलसिले में मुलाकात हुई है,’’ इस बार सच बोला.

‘‘तो आप उन के यहां डिनर मत करो. जब तक जानपहचान गहरी न हो तो किसी के यहां डिनर पर नहीं जाना चाहिए.’’

‘‘क्यों नहीं जाना चाहिए?’’ मैं ने चिढ़ कर पूछा.

‘‘जमाना ठीक नहीं है. अपना काम निकलवाने के लिए सामने वाला आप के खाने में कुछ ऐसावैसा मिला दे और आप को अपने वश में कर के कुछ आप से गलत काम करा बैठे तो?’’ उस ने चिंता व्यक्त की.

अब मेरा क्रोध सातवें आसमान पर था, ‘‘जमाना तो ठीक है लेकिन तुम मानसिक रूप से ठीक नहीं हो. तभी तो ऐसे वाहियात विचार तुम्हारे मन में आते रहते हैं. खाने में कुछ मिला कर वश में करने की बात तुम्हें बताई किस ने? इतनी पढ़ीलिखी होने के बावजूद यह अंधविश्वास? मेरी तो समझ से परे है. अगर खिलानेपिलाने से वश में करने के नुसखे कामयाब होते तो आज हर सास अपनी बहू की गुलाम होती, पति अपनी पत्नी का सेवक और हर बौस अपने मातहतों के हाथों की कठपुतली बन जाता.

‘‘साधना, अपने दिमाग का इस्तेमाल करो, ये सब पाखंडी बाबाओं और मौलवियों के पैसा कमाने के साधन हैं. वे अपनी दुकानें चलाने के लिए अपने एजेंटों को ग्राहक फंसाने का काम सौंपते हैं. सब का अपनाअपना कमीशन होता है. अपने दिमाग का न इस्तेमाल करने वाली जनता से ही इन का खुराफाती बिजनैस फलफूल रहा है.’’

क्रोध और झुंझलाहट से बड़बड़ाता हुआ मैं बाहर आ गया और स्कूटी स्टार्ट कर के बैंक के लिए चल पड़ा.

साधना की बेतुकी बातों से मूड चौपट हो चुका था. बैंक में घुसते ही केबिन में रखा लैंडलाइन फोन बज उठा. जोनल औफिस से आने वाला बैंक में इस समय का नियमित फोन था. मैं ने ‘‘हैलो, गुडमौर्निंग सर’’ कहा और उधर से भी हैलो हुई, थोड़ी औपचारिक बातें हुईं और मेरी बैंक उपस्थिति दर्ज हो गई.

मैं अपने कार्य में लग गया. तभी मेरे मोबाइल की घंटी बजी. स्क्रीन पर ब्लू आइज देख कर लगा, अब मूड औन हो जाएगा.

‘‘सर…’’

‘‘आज शाम को तुम्हारे घर चलूंगा और डिनर भी करूंगा,’’ उस की पूरी बात सुने बिना मैं बोल पड़ा.

‘‘लेकिन सर, आज…’’

उस के घबराए स्वर को भांप कर मैं ने पूछा, ‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘सर, आज सुबह ही मम्मी को हार्टअटैक आया है. वे अस्पताल में भरती हैं,’’ कहती हुई वह लगभग रो पड़ी.

‘‘कौन से अस्पताल में हैं?’’ लेकिन उस के जवाब देने से पहले ही फोन कट गया. मेरे मिलाने पर वह उठा नहीं रही थी. शायद, अस्पताल में परेशान और व्यस्त होगी, यह सोच कर मैं ने फिर फोन नहीं किया.

अधूरे प्यार की टीस: भाग 1-क्यों बिखर गई सीमा की गृहस्थी

आज सुबह राकेशजी की मुसकराहट में डा. खन्ना को नए जोश, ताजगी और खुशी के भाव नजर आए तो उन्होंने हंसते हुए पूछा, ‘‘लगता है, अमेरिका से आप का बेटा और वाइफ आ गए हैं, मिस्टर राकेश?’’

‘‘वाइफ तो नहीं आ पाई पर बेटा रवि जरूर पहुंच गया है. अभी थोड़ी देर में यहां आता ही होगा,’’ राकेशजी की आवाज में प्रसन्नता के भाव झलक रहे थे.

‘‘आप की वाइफ को भी आना चाहिए था. बीमारी में जैसी देखभाल लाइफपार्टनर करता है वैसी कोई दूसरा नहीं कर सकता.’’

‘‘यू आर राइट, डाक्टर, पर सीमा ने हमारे पोते की देखभाल करने के लिए अमेरिका में रुकना ज्यादा जरूरी समझा होगा.’’

‘‘कितना बड़ा हो गया है आप का पोता?’’

‘‘अभी 10 महीने का है.’’

‘‘आप की वाइफ कब से अमेरिका में हैं?’’

‘‘बहू की डिलीवरी के 2 महीने पहले वह चली गई थी.’’

‘‘यानी कि वे साल भर से आप के साथ नहीं हैं. हार्ट पेशेंट अगर अपने जीवनसाथी से यों दूर और अकेला रहेगा तो उस की तबीयत कैसे सुधरेगी? मैं आप के बेटे से इस बारे में बात करूंगा. आप की पत्नी को इस वक्त आप के पास होना चाहिए,’’ अपनी राय संजीदा लहजे में जाहिर करने के बाद डा. खन्ना ने राकेशजी का चैकअप करना शुरू कर दिया.

डाक्टर के जाने से पहले ही नीरज राकेशजी के लिए खाना ले कर आ गया.

‘‘तुम हमेशा सही समय से यहां पहुंच जाते हो, यंग मैन. आज क्या बना कर भेजा है अंजुजी ने?’’ डा. खन्ना ने प्यार से रवि की कमर थपथपा कर पूछा.

‘‘घीया की सब्जी, चपाती और सलाद भेजा है मम्मी ने,’’ नीरज ने आदरपूर्ण लहजे में जवाब दिया.

‘‘गुड, इन्हें तलाभुना खाना नहीं देना है.’’

‘‘जी, डाक्टर साहब.’’

‘‘आज तुम्हारे अंकल काफी खुश दिख रहे हैं पर इन्हें ज्यादा बोलने मत देना.’’

‘‘ठीक है, डाक्टर साहब.’’

‘‘मैं चलता हूं, मिस्टर राकेश. आप की तबीयत में अच्छा सुधार हो रहा है.’’

‘‘थैंक यू, डा. खन्ना. गुड डे.’’

डाक्टर के जाने के बाद हाथ में पकड़ा टिफिनबौक्स साइड टेबल पर रखने के बाद नीरज ने राकेशजी के पैर छू कर उन का आशीर्वाद पाया. फिर वह उन की तबीयत के बारे में सवाल पूछने लगा. नीरज के हावभाव से साफ जाहिर हो रहा था कि वह राकेशजी को बहुत मानसम्मान देता था.

करीब 10 मिनट बाद राकेशजी का बेटा रवि भी वहां आ पहुंचा. नीरज को अपने पापा के पास बैठा देख कर उस की आंखों में खिं चाव के भाव पैदा हो गए.

‘‘हाय, डैड,’’ नीरज की उपेक्षा करते हुए रवि ने अपने पिता के पैर छुए और फिर उन के पास बैठ गया.

‘‘कैसे हालचाल हैं, रवि?’’ राकेशजी ने बेटे के सिर पर प्यार से हाथ रख कर उसे आशीर्वाद दिया.

‘‘फाइन, डैड. आप की तबीयत के बारे में डाक्टर क्या कहते हैं?’’

‘‘बाईपास सर्जरी की सलाह दे रहे हैं.’’

‘‘उन की सलाह तो आप को माननी होगी, डैड. अपोलो अस्पताल में बाईपास करवा लेते हैं.’’

‘‘पर, मुझे आपरेशन के नाम से डर लगता है.’’

‘‘इस में डरने वाली क्या बात है, पापा? जो काम होना जरूरी है, उस का सामना करने में डर कैसा?’’

‘‘तुम कितने दिन रुकने का कार्यक्रम बना कर आए हो?’’ राकेशजी ने विषय परिवर्तन करते हुए पूछा.

‘‘वन वीक, डैड. इतनी छुट्टियां भी बड़ी मुश्किल से मिली हैं.’’

‘‘अगर मैं ने आपरेशन कराया तब तुम तो उस वक्त यहां नहीं रह पाओगे.’’

‘‘डैड, अंजु आंटी और नीरज के होते हुए आप को अपनी देखभाल के बारे में चिंता करने की क्या जरूरत है? मम्मी और मेरी कमी को ये दोनों पूरा कर देंगे, डैड,’’ रवि के स्वर में मौजूद कटाक्ष के भाव राकेशजी ने साफ पकड़ लिए थे.

‘‘पिछले 5 दिन से इन दोनों ने ही मेरी सेवा में रातदिन एक किया हुआ है, रवि. इन का यह एहसान मैं कभी नहीं उतार सकूंगा,’’ बेटे की आवाज के तीखेपन को नजरअंदाज कर राकेशजी एकदम से भावुक हो उठे.

‘‘आप के एहसान भी तो ये दोनों कभी नहीं उतार पाएंगे, डैड. आप ने कब इन की सहायता के लिए पैसा खर्च करने से हाथ खींचा है. क्या मैं गलत कह रहा हूं, नीरज?’’

‘‘नहीं, रवि भैया. आज मैं इंजीनियर बना हूं तो इन के आशीर्वाद और इन से मिली आर्थिक सहायता से. मां के पास कहां पैसे थे मुझे पढ़ाने के लिए? सचमुच अंकल के एहसानों का कर्ज हम मांबेटे कभी नहीं उतार पाएंगे,’’ नीरज ने यह जवाब राकेशजी की आंखों में श्रद्धा से झांकते हुए दिया और यह तथ्य रवि की नजरों से छिपा नहीं रहा था.

‘‘पापा, अब तो आप शांत मन से आपरेशन के लिए ‘हां’ कह दीजिए. मैं डाक्टर से मिल कर आता हूं,’’ व्यंग्य भरी मुसकान अपने होंठों पर सजाए रवि कमरे से बाहर चला गया था.

‘‘अब तुम भी जाओ, नीरज, नहीं तो तुम्हें आफिस पहुंचने में देर हो जाएगी.’’

राकेशजी की इजाजत पा कर नीरज भी जाने को उठ खड़ा हुआ था.

‘‘आप मन में किसी तरह की टेंशन न लाना, अंकल. मैं ने रवि भैया की बातों का कभी बुरा नहीं माना है,’’ राकेशजी का हाथ भावुक अंदाज में दबा कर नीरज भी बाहर चला गया.

नीरज के चले जाने के बाद राकेशजी ने थके से अंदाज में आंखें मूंद लीं. कुछ ही देर बाद अतीत की यादें उन के स्मृति पटल पर उभरने लगी थीं, लेकिन आज इतना फर्क जरूर था कि ये यादें उन को परेशान, उदास या दुखी नहीं कर रही थीं.

अपनी पत्नी सीमा के साथ राकेशजी की कभी ढंग से नहीं निभी थी. पहले महीने से ही उन दोनों के बीच झगड़े होने लगे थे. झगड़ने का नया कारण तलाशने में सीमा को कोई परेशानी नहीं होती थी.

शादी के 2 महीने बाद ही वह ससुराल से अलग होना चाहती थी. पहले साल उन के बीच झगड़े का मुख्य कारण यही रहा. रातदिन के क्लेश से तंग आ कर राकेश ने किराए का मकान ले लिया था.

मृगमरीचिका एक अंतहीन लालसा: भाग 4-मीनू ने कैसे चुकाई कीमत

एक दिन इन्होंने शाम के खाने पर अपने सहयोगी को पत्नी के साथ बुलाया. वे लोग खाना खा कर बैठे. थोड़ी देर हंसीमजाक और मस्ती का दौर चला. बातों ही बातों में जब ऋ षभ ने उन्हें बताया कि मेरी वाइफ बहुत टैलेंटेड हैं व पार्लर चलाती हैं, तो उन के दोस्त की पत्नी ने मेरा पार्लर देखा और सराहा. अगले ही दिन वे अपनी एक फ्रैंड के साथ पार्लर आईं और काफी काम कराया, मैं बहुत उत्साहित थी. उन के जाने के बाद बैठी ही थी कि कुछ दूर रहने वाली नैंसी और ममता भी आ गईं. नैंसी बड़ी ही मुंहफट थी. मैं ने हंस कर दोनों का स्वागत किया. नैंसी को अपने बालों को अलग लुक देना था तथा ममता को वैक्सिंग करवानी थी. नैंसी को अपने बालों की कटिंग बहुत पसंद आई. दोनों ही मेरे काम से खुश दिखीं. इस दौरान हमारे बीच कुछ फौर्मल सी बातचीत भी हुई.

एक दिन सुबहसुबह छुट्टी के दिन खुशी अभी सो कर नहीं उठी थी, ऋ षभ वाशरूम में थे कि तभी किसी ने बैल बजाई. यह सोच कर कि बाई आ गईर् होगी मैं ने दरवाजा खोला तो सामने मयंक को देख कर अचकचा गई. मेरा मन कसैला हो गया और चेहरे पर तनाव आ गया. ‘‘भैया हैं क्या?’’ मयंक धीरे से बोला और आंखों ही आंखों में मुझे कुछ समझाने की कोशिश करने लगा. उस की आंखों के भाव समझ मुझे उस से नफरत हो आई. क्या अब भी उसे मुझ से कुछ उम्मीद है? छि: यह अपनेआप को समझता क्या है? बहुत कड़े शब्दों में कोई जवाब देना चाहती थी कि तभी ऋ षभ ने पीछे से आवाज दी, ‘‘आओआओ मयंक, तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था.

‘‘जी भैया आज्ञा कीजिए,’’ शब्दों में शहद घुली मिठास ले कर वह बेशर्मों की तरह बोला. ‘‘जान, मयंक के लिए कुछ ले कर आओ,’’ मेरे हाथों को थाम ऋ षभ ने मेरी पेशानी को चूमते हुए कहा.

‘‘जी,’’ ऋ षभ की बात का आशय समझ मैं वहां से चली आई. ‘‘मयंक, आप की भाभी यानी हमारी बेगम साहिबा का जन्मदिन आ रहा है 26 सितंबर को, तो एक पार्टी प्लान करने की सोच रहा हूं.’’

‘‘जी भैया बहुत अच्छा, मैं सारा इंतजाम कर दूंगा,’’ मयंक को जैसे इसी मौके की तलाश थी. ऋ षभ के बताए गार्डन में मयंक द्वारा वाकई बहुत खूबसूरत इंतजाम कर दिया गया. हालांकि इस बीच मयंक ने मुझे फिर से बहकाने का एक भी मौका नहीं छोड़ा. जब भी मेरे सामने अपनी जाहिल हरकतें करता और मैं उसे जवाब देने को आतुर होती, न जाने कहां से ऋ षभ हमारे बीच आ जाते. ऐसा लगता कि वे हमेशा मेरे पास ही हैं. लेकिन एक बात तो तय थी कि मयंक के जिन गुणों या हरकतों पर पहले मैं रीझ उठती थी अब उस की उन्हीं हरकतों पर मुझे क्रोध आता था.

शाम को ऋ षभ के पसंदीदा ग्रे शेड गाउन को पहन जब उन का हाथ थाम कर मैं ने गार्डन के हौल में प्रवेश किया, तो सभी ने तारीफ भरी नजरों से तालियां बजा कर हमारा स्वागत किया. पिंक कलर की फ्रौक में खुशी भी किसी परी से कम नहीं लग रही थी. केक कटने के बाद बजती तालियों के बीच सब से पहले मैं ने खुशी को केक खिलाया, फिर ऋ षभ ने मुझे व मैं ने ऋ षभ को खिलाया.

तभी अचानक लाइट के चले जाने से जो जहां था वहीं खड़ा रह गया. किसी को कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. कई लोगों की मिलीजुली आवाजें कानों में आ रही थीं कि सहसा किसी ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे एक ओर ले चला. एक पल को तो मैं समझ नहीं पाई, पर फिर उन हाथों की छुअन का एहसास होते ही मैं ने उस व्यक्ति के गालों पर एक झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद कर दिया. तभी लाइट आ गई. मेरा अंदाजा बिलकुल सही था, यह मयंक ही था, जिस ने लाइट जाने का फायदा उठाने की कोशिश की थी. फिर तो मैं ने मयंक को खूब खरीखोटी सुनाई. मेरे मन में उस के पति जितना आक्रोश था सारा मेरी जबान पर आ गया. उस की कारगुजारियों को बेपरदा करतेकरते मैं स्वयं भी आत्मग्लानि से भर भावुक हो उठी.

तभी किसी ने फिर पीछे से मेरा हाथ थाम लिया. हां ये ऋ षभ ही थे हमेशा की तरह. आगे ऋ षभ ने कहा, ‘‘दोस्तो, हकीकत से आप सभी अच्छी तरह वाकिफ हैं. जो भी कुछ हो चुका है उस में मैं अपनी पत्नी का दोष नहीं मानता. कई बार स्थितियां व निर्णय हमारे बस में नहीं रहते. मेरा मानना है कि मेरी पत्नी आज भी उतनी ही पवित्र है और आज भी मैं उस का उतना ही सम्मान करता हूं जितना पहले करता था, बल्कि अब और ज्यादा. वैसे भी कायदे से सजा उसे मिलनी चाहिए, जो आज भी वही गलती दोहराने की कोशिश में लगा है. आप सभी देख चुके हैं. सचाई आप के सामने है.’’

थप्पड़ खाने के बाद मयंक कुछ गुस्से और चिढ़ से मुझे घूरने लगा. तभी ऋषभ की साफगोई देख कर महल्ले वाले भी हमारे पक्ष में बोलने लगे. बात बढ़ती देख मयंक के मम्मीपापा उसे वहां से ले कर चले गए. पार्टी में आए अचानक इस व्यवधान के लिए ऋ षभ और मैं ने मेहमानों से काफी मांगी. फिर सभी ने उत्साहपूर्वक पूरा प्रोग्राम अटैंड किया. पार्टी में जो कुछ हुआ उस ने मेरे खोए आत्मविश्वास को एक बार फिर लौटा दिया. ऋ षभ के साथ ने मुझ में एक साहस का संचार कर दिया.

मयंक को बारबार बुला कर उस से मेरा सामना कराना भी ऋषभ ने जानबूझ कर कराया था, ताकि मैं समाज के सामने अपने अपराधबोध से मुक्त हो सकूं, क्योंकि वे मयंक को मुझ से बेहतर समझ पाए थे और जानते थे कि मुझ से मिलने पर वह दोबारा अपनी जलील हरकत अवश्य दोहराएगा. बहरहाल, अब मैं बेधड़क बाहर आनेजाने लगी. मेरी झिझक व संकोच दूर हो गया था. मयंक मुझे फिर दिखाई नहीं पड़ा. दूसरे पड़ोसियों से ही मालूम हुआ कि मयंक के मातापिता अपना घर बेच कर कहीं और चले गए हैं. सुन कर मैं ने राहत की सांस ली.

उन के घर बदलने के 7-8 महीने बाद ही पता चला था कि मयंक की शादी हो गई है. अब उड़तीउड़ती खबरें कभीकभार सुनने को मिलती हैं कि वह अपनी पत्नी को बहुत परेशान करता है. मैं खुद को धन्य समझती हूं कि ऋषभ जैसा जीवनसाथी मुझे मिला, जिस ने मुझे मयंक के झूठे मोहपाश के दलदल से बचा लिया. तभी मेरी नजर घड़ी पर गई तो चौंक उठी कि खुशी के आने का वक्त हो गया है. घर का सारा काम जस का तस पड़ा था. खुशी को लेने जाने के लिए ताला लगा कर घर से निकली, रास्ते में ऋ षभ को फोन किया, तो उन्होंने बताया कि उन्हें मालूम हो चुका है, वे भी स्तब्ध हैं यह जान कर कि उस की पत्नी ने आत्महत्या कर ली है.

मैं पूजा के लिए वाकई बहुत दुखी थी. लेकिन मयंक जैसे अवसरपरस्त व बदतमीज इंसान के लिए मेरे मन में कोई संवेदना नहीं थी.

मृगमरीचिका एक अंतहीन लालसा: भाग 3-मीनू ने कैसे चुकाई कीमत

ऐसे ही एक रात अचानक मेरी नींद खुली तो देखा ऋ षभ मेरे पास नहीं हैं, हां खुशी मेरी ही बगल में सोई थी. मैं उठ कर उन्हें पुकारती हुई बाहर निकली ही थी कि बैठक से आती आवाजों ने मुझे ठिठकने को मजबूर कर दिया. ये आवाजें मेरे भाई की थीं. वह कह रहा था, ‘‘जीजाजी मैं आंटीअंकलजी की बात से सहमत हूं. यह रिश्ता अब सामान्य नहीं हो पाएगा. यह दीदी की गलती नहीं शर्मनाक हरकत है, जिस का दंड उस के साथसाथ सारी जिंदगी आप को भी भुगतना पड़ेगा और आगे जा कर खुशी को भी.’’

‘‘मेरी बात तो सुनो,’’ ऋ षभ ने कुछ कहना चाहा.

‘‘नहीं जीजाजी आप सुनो… खुशी अभी छोटी है. बड़ी हो कर जब उसे सब मालूम पड़ेगा तो वह भी अपनी मां को कभी माफ नहीं कर पाएगी और फिर यह तो सोचिए कि ऐसी लड़की से कौन शादी करना चाहेगा जिस की मां भाग…’’ ‘‘बस करो जतिन… तुम बहुत बोल चुके,’’ ऋ षभ ने थोड़ा गुस्से से कहा.

‘‘क्या गलत कह रहा है जतिन… अरे वह तो उस का भाई है उस का अपना खून. जब वह उसे बरदाश्त नहीं कर पा रहा है, तो तू किस मिट्टी का बना है?’’ इस बार ऋ षभ के पापा बोले. ‘‘पापा, आप सभी समझने की कोशिश करें. मैं मीनू को जानता हूं… पत्नी है वह मेरी. अगर उस से कोई गलती हुई है, तो कहीं न कहीं मैं भी कुछ हद तक उस के लिए जिम्मेदार हूं. उस की इच्छाओं और चाहतों को मैं ने भी कहीं नजरअंदाज किया होगा, तभी तो उसे मयंक की जरूरत पड़ी होगी,’’ ऋ षभ के चेहरे पर गहरी संवेदना के भाव थे.

‘‘मैं यह नहीं कहता कि मीनू से गलती नहीं हुई है. लेकिन यही गलती मयंक से भी हुई है और आप का समाज मयंक को तो बाइज्जत बरी कर देगा इस गुनाह से. कल से ही वह फिर आवारागर्दी करता नजर आएगा इसी महल्ले में. फिर मेरी मीनू ही यह सजा क्यों भुगते? पति हूं मैं उस का. जीवन भर साथ निभाने के वादे किए थे तो उस की इस मुश्किल घड़ी में कैसे उस का हाथ छोड़ दूं? और अगर मान लीजिए यही गुनाह मुझ से हो जाता तो उसे यह मशवरा देने के बजाय आप लोग यही समझा रहे होते कि मीनू जाने दे, माफ कर दे ऋ षभ को. अपनी गृहस्थी टूटने से बचा ले, और न जाने क्याक्या? ‘‘सिर्फ इसलिए कि वह एक औरत है, उस के द्वारा की गई भूल के लिए हम उसे सूली पर चढ़ा दें? माफ कीजिए यह सजा मुझे मान्य नहीं है. मीनू के हमारे जीवन में होने से ही हमारी खुशियां हैं, उस के बिना मैं और खुशी दोनों अधूरे हैं. मैं मीनू की जिंदगी बरबाद नहीं कर सकता पापा. यह मेरा अंतिम निर्णय है.’’

ऋ षभ के दिए तर्कों का किसी के पास जवाब नहीं था. सभी चुप हो गए, पर मेरा मन चीत्कार कर उठा. बोली, ‘‘मुझे माफ कर दो ऋ षभ. तुम ने मेरी पीड़ा को समझा, पर मैं आज तक तुम्हें पहचान न सकी. किसी के बाहरी आकर्षण में पड़ कर मैं ने तुम्हारा दिल दुखाया और तुम्हें बहुत गहरा घाव दे बैठी. सचमुच मैं माफी के योग्य नहीं हूं.’’ पर कहते हैं न कि समय बड़े से बड़ा घाव भी कर देता है. इस घटना को 1 महीना हो गया था. ऋ षभ और मेरे बीच सभी कुछ सामान्य हो चला था. मैं अभी भी बाहर निकल कर लोगों का सामना करने से कतराती थी. मयंक के बारे में भी मुझे कोई जानकारी नहीं थी. अगस्त माह शुरू हो चुका था. बारिश का मौसम मुझे सब से सुहावना लगता था.

ऐसी ही एक खूबसूरत शाम ऋ षभ को घर जल्दी आया देख मैं चौंक पड़ी, ‘‘आज इतनी जल्दी?’’ मैं ने पूछा. ‘‘हां, तैयार हो जाओ, कहीं घूमने चलते हैं,’’ ऋ षभ ने मुसकरा कर कहा.

‘‘लेकिन खुशी सो रही है,’’ मैं ने बात टालने की गरज से कहा, क्योंकि मैं बाहर जाना ही नहीं चाहती थी. ‘‘मैं ने मौसी को बोल दिया है. आज वे खुशी के साथ यही रुक जाएंगी,’’ ऋ षभ ने कहा.

‘‘ठीक है, फिर मैं तैयार हो जाती हूं,’’ मैं ऋषभ को बिलकुल नाराज नहीं करना चाहती थी. मेरी वजह से उन्होंने पहले ही काफी कुछ सहा था. जब तक हम तैयार हुए, बारिश ने मौसम को और भी खुशगवार बना दिया था.

मौसी आ गई थीं. खुशी को उन्हें सौंप जब मैं बाहर निकली तो मेरी ओर देखते हुए इन्होंने एक प्यारी सी मुसकान बिखेरी. फिर गाड़ी निकालने लगे. मैं भी गेट खोल कर इन की मदद करने लगी. तभी अचानक मयंक के घर पर मेरी नजर पड़ी. ऊपर बालकनी से वह मुझे न जाने कब से निहारे जा रहा था. उस घटना के बाद मेरा और मयंक का पहली बार सामना हो रहा था. मेरा असहज हो जाना स्वाभाविक था.

ऊपर देखते हुए मैं लड़खड़ा सी गई. तभी 2 मजबूत बाजुओं ने मुझे सहारा दे कर थाम लिया. ये ऋ षभ थे जिन्होंने बड़ी ही अदा से मेरा हाथ थाम मुझे कार में बैठाया. आसपास के घरों से भी कई जोड़ी निगाहों ने हमें तब तक कैद में रखा जब तक कि हम उन की आंखों से ओझल नहीं हो गए.

खूबसूरत आलीशान होटल के अंदर एकदूसरे का हाथ थामे हम ने प्रवेश किया. अपनी खोई गरिमा को वापस पा कर मैं तो फूली नहीं समा रही थी. मन ही मन उस एक पल का शुक्रिया अदा कर रही थी, जिस पल मैं ने उन से शादी के लिए हां की थी.

हौल की धीमी रोशनी में ऋ षभ ने मुझे डांस के लिए इनवाइट किया, जिसे मैं ने सहर्ष स्वीकार कर लिया. उन के सीने से लग कर डांस करते हुए मैं खुद को संसार की सब से खुशहाल औरत समझ रही थी. कुछ देर बाद प्यारा सा डिनर कर के हम होटल के उस कमरे में जाने लगे, जो ऋषभ ने पहले से ही बुक किया हुआ था.

‘‘ये सब करने की क्या जरूरत थी ऋ षभ,’’ काफी समय बाद मैं ने उन्हें उन के नाम से पुकारा. ‘‘अंदर तो आओ,’’ कह कर ऋ षभ ने मुझे अपनी बांहों में उठा लिया.

‘‘अरे, यह क्या कर रहे हैं? सब हमें देख रहे हैं,’’ मैं ने शरमाते हुए कहा. ‘‘देखने दो. इन्हें भी तो मालूम हो कि हमारी शरीकेहयात कितनी खूबसूरत हैं,’’ अंदर आ कर इन्होंने मुझे बैड पर लिटाते हुए कहा. उस के बाद अपनी जेब से एक छोटा सा गिफ्ट निकाल कर बड़े ही रोमांटिक अंदाज में मुझे पेश किया. उस में से हार्ट शेप की एक डायमंड रिंग निकाल कर इन्होंने मुझे पहना दी.

‘‘थैंकयू ऋ षभ,’’ कह मैं इन के गले लग गई. मेरी आंखों आंसुओं से भीगी थीं. अपनी पीठ पर गीलेपन का एहसास होते ही इन्होंने मेरा चेहरा हाथों में ले लिया, ‘‘यह क्या? तुम रो रही हो?’’

‘‘मैं ने तुम्हें बहुत दुख पहुंचाया है ऋषभ… किस मुंह से माफी मांगू?’’ ‘‘बस मीनू अब इस टौपिक को आज के बाद यहीं खत्म कर दो. तुम मेरी प्रेयसी, प्रेरणा सभी कुछ हो. तुम्हें घर ला कर मैं ने कोई एहसान नहीं किया है. बस अब वह सब तुम्हें देने की कोशिश कर रहा हूं, जिस की तुम हकदार हो. मेरी एक बात ध्यान से सुनो. जब तक तुम खुद को माफ नहीं कर देतीं, हर कोई तुम्हें गुनहगार बताता रहेगा, इसलिए प्लीज इस तकलीफ से बाहर आओ. मैं तुम्हें इस तरह आत्मग्लानि में जीते नहीं देख सकता,’’ कह कर ऋ षभ ने मुझे अपने सीने से लगा लिया.’’

उस खूबसूरत रात उन पवित्र बांहों के आगोश में जाने कितने समय बाद मुझे चैन की नींद आई. दूसरा पूरा दिन भी हम होटल में ही रुके. आज मुझे मयंक का शारीरिक आकर्षण ऋ षभ के प्यार के आगे बौना नजर आ रहा था. मौसी से फोन कर हम लगातार खुशी के संपर्क में भी रहे. घर आने के बाद हमारी जिंदगी बदल चुकी थी. अपनी उस गलती को नादानी समझ मैं भी भुलाने लगी थी. ऋ षभ के प्यार व विश्वास ने मेरे दिलोदिमाग में मजबूती से अपनी जड़ें जमा ली थीं.

एक दिन ऋ षभ ने मुझे पार्लर की चाबी सौंपते हुए अपना काम दोबारा शुरू करने को कहा. मैं थोड़ा सोच में पड़ गई. एक तो महीनों से पार्लर बंद पड़ा था, दूसरे पार्लर आने वाली औरतों की निगाहों में तैरते प्रश्नों का सामना कैसे करूंगी यह सोच कर मन बैठा जा रहा था. मगर ऋ षभ ने मुझे अपने साथ का भरोसा दिया. उसी दिन कामवाली बाई के साथ जुट कर मैं ने अपना पार्लर साफ किया. कई कौस्टमैटिक जो ऐक्सपायर्ड हो गए थे, उन्हें हटा कर हर चीज व्यवस्थित की. कुछ जरूरी सामान की लिस्ट बनाई. पार्लर खोले 2-3 दिन हो गए थे, उस का बोर्ड भी ऋ षभ ने साफ कर फिर से लगा दिया था, परंतु एक भी क्लाइंट अभी तक नहीं आई थी. अपने सभी काम जल्दी से निबटा कर मैं पार्लर में बैठ जाती. किसी के आने का पूरा दिन बैठेबैठे इंतजार करती रहती. ऋ षभ से मेरे मन की बेचैनी छिपी नहीं थी.

परफैक्ट बैलेंस

‘‘नेहा बहुत थक गया हूं, एक गरमगरम चाय का कप और प्याज के पकौड़े हो जाएं. जरा जल्दी डार्लिंग,’’ राज ने औफिस से आते ही सोफे पर फैलते हुए कहा.

फीकी सी मुसकान बिखेरते नेहा ने पति को पानी का गिलास दिया और फिर उस के पास ही बैठ गई. फिर थकी सी आवाज में बोली, ‘‘चाय और पकौड़े थोड़ी देर में तैयार करती हूं. आज जल्दीजल्दी नहीं हो सकेगा.’’

‘‘क्यों, सब ठीक तो है?’’ राज की आवाज में खिन्नता साफ थी.

‘‘पिछले कुछ दिनों से थोड़ी कमजोरी महसूस कर रही हूं. थकीथकी सी रहती हूं,’’ पति की खिन्नता को भांप कर नेहा ने अपनी बढ़ती कमजोरी को थोड़ी बातों में समेट दिया था. यही तो वह करती आ रही है कई सालों से. कोई भी समस्या हो वह यथासंभव स्वयं ही सुलझा लेती या फिर हलके से उसे राज के सामने रखती ताकि उसे किसी प्रकार का तनाव न हो. ऐसा करने में नेहा को बहुत खुशी मिलती.

‘‘ठीक है पकौड़े न सही चाय के साथ बिस्कुट तो दे सकती हो मेरी नाजुक रानी,’’ राज ताना मारने से नहीं चूका. फिर नेहा की कमजोरी वाली बात को अनसुना कर फ्रैश होने के लिए बाथरूम की ओर बढ़ गया.

नाजुक नेहा के मन रूपी दर्पण पर जैसे किसी ने पत्थर दे मारा हो. कब थी वह नाजुक. 15 सालों की गृहस्थी में उस ने हर छोटेबड़े काम को कुशलता से निभाया था. कब टपटप करता बिगड़ा नल ठीक हो गया, कब पंखा दोबारा चलने लगा, कब बाथरूम की दीवार से रिसता पानी बंद हो गया उस ने राज को पता ही नहीं लगने दिया. बच्चों की देखरेख, पढ़ाईलिखाई, बैंक का काम, कितने ही और घरबाहर से जुड़े काम वह चुपचाप सुचारु रूप से संपन्न करती आ रही थी.

इतना ही नहीं नेहा छोटी कक्षा के 8-10 बच्चों को घर पर ही ट्यूशन भी पढ़ा देती थी. ताकि घर की आमदनी में थोड़ीबहुत वृद्धि हो सके.

पति और अपने बच्चों को प्रसन्न रखने में ही उस ने खुद को भुला दिया था. राज जबजब उसे गुलाबो या झांसी की रानी कह कर छेड़ता तो वह फूली न समाती थी. यही तो उस का प्यारा सा संसार था. यही उस की मनचाही साधना. अपने शौक, अपनी चाहतें सब कुछ उस ने सहर्ष भुला दिए थे. इस बात का नेहा को कभी कोई मलाल नहीं था, कोई गिला नहीं था. पर आज उसे मलाल हुआ कि मेरी कमजोरी, मेरी तकलीफ राज की नजर में कुछ अर्थ नहीं रखती. खुद को ताक पर रख दिया, यही मुझ से गलती हुई.

विचारों की उठतीउफनती लहरों में नेहा ने जैसेतैसे चाय बनाई.

राज फ्रैश हो कर आ गया था. खोईखोई सी नेहा ने उस के सामने चाय और बिस्कुट रख दिए. बस एक रोबोट की तरह यंत्रवत. कहते हैं कि सूखी आंखों से भी आंसू गिरते हैं, पर उन्हें समझने या देखने वाले बिरले ही होते हैं.

‘‘क्या कमाल की चाय बनाई है मेरी गुलाबो ने,’’ चाय की चुसकियां लेते हुए राज ने घाव पर मरहम लगाने की असफल चेष्टा की.

‘गुलाबो, हूं… अब लगे हैं मेरी खुशामद करने. चाय, बिस्कुट मिल गए… मेरी कमजोरी गई भाड़ में. दिल रखने के लिए ही सही कुछ तो पूछते मेरी कमजोरी के बारे में. इन्हें क्या? गलती मेरी ही है जो कभी इन के सामने अपनी तकलीफ नहीं रखी… यही तो सजा मिली है,’ मन ही मन बुदबुदा कर नेहा ने अपनी खीज निकाली.

‘‘नीरू और उमेश कहां हैं?’’ राज के प्रश्न पर नेहा का ध्यान भंग हुआ.

‘‘ट्यूशन वाले बच्चों का कैसा चल रहा है?’’

‘‘अच्छा चल रहा है. उन्हें भी आजकल अधिक समय देना पड़ रहा है. परीक्षा जो नजदीक है,’’ अनमनी सी नेहा बोली.

हर पौधे की तरह मानव हृदय के कोमल पौधे को भी समयसमय पर प्रेमजल से सींचना  पड़ता है, सहृदयता एवं सहानुभूति की खाद को जड़ों में यदाकदा डालना पड़ता है अन्यथा पौधा मुरझा जाता है. विशेषकर नारी का संवेदनशील हृदय जो प्रेम की हलकी सी थाप से छलकछलक जाता है, किंतु अवहेलना की तनिक सी चोट पर मरुस्थल सा शुष्क बन जाता है.

‘‘वह तो है. परीक्षा आ रही है तो समय देना ही पड़ेगा. इतना तो शुक्र है कि घर बैठे ही कमा लेती हो. बाहर नौकरी करती तो आए दिन थक जाती… आनाजाना पड़ता तो पता चलता,’’ घायल मन पर राज ने फिर चोट की.

यह चोट नेहा के लिए असहनीय थी. बोली, ‘‘घर पर ही अंदरबाहर के हजारों काम होते हैं. ये काम आप को दिखते ही नहीं. सब कियाकराया जो मिल जाता है… इतने सालों की गृहस्थी में मैं ने आप पर किसी भी काम का कम से कम बोझ डाला है. इसीलिए मेरी थकान, मेरी कमजोरी आप को पच नहीं रही. आखिर बढ़ती उम्र है… शरीर हमेशा एकजैसा तो नहीं रहता… पर नहीं, मैं तो सदैव गुलाब की तरह खिली रहूं, तरोताजा रहूं… है न?’’ क्रोध और क्षोभ से नेहा की आंखें छलछला आईं.

‘‘अब यह भी क्या बात हुई नाराज होने की? तुम तो मेरी झांसी की रानी हो. कुछ भी कहो आज भी तुम मुझे पहले जैसी गुलाबो ही दिखती हो,’’ राज ने बढ़ती कड़वाहट में मिठास घोलनी चाही.

‘‘रहने दो अपने चोंचले. आप का चैक बैंक में जमा करा दिया था और इंश्योरैंस वाले को फोन कर दिया था,’’ नेहा ने मात्र सूचना दी.

‘‘यह हुई न बात. पढ़ीलिखी, मौडर्न बीवी का कितना सुख होता है. मौडर्न औरत वाकई चुस्त और दुरुस्त होती है.’’

‘‘मौडर्न औरत बेमतलब पिसतीघुटती नहीं है और न ही इतनी मूर्ख कि अपने वजूद को भुला दे चाहे कोई कद्र करे या न करे,’’ नेहा के स्वर तीखे हो चले थे.

‘‘तिल का ताड़ मत बनाओ नेहा. तुम ही एकमात्र स्त्री नहीं हो जो घर और बाहर संभाल रही है. इस बढ़ती महंगाई के युग में हर सजग स्त्री कुछ न कुछ कर के पैसा कमा रही है. घर और परिवार में बैलेंस आजकल की स्त्री को बखूबी आता है. तनिक सूझबूझ से सब हो जाता है,’’ राज ने आग में घी डाल ही दिया.

‘‘आप कहना क्या चाहते हैं? क्या मुझ में सूझबूझ नहीं? इतने सालों से क्या मैं झकझोर रही हूं? क्या कमी रखी है किसी भी बात में? बैलेंस ही तो करती आ रही हूं अब तक… पर सच ही कहा है कि घर की मुरगी दाल बराबर,’’ नेहा आपे से बाहर हो चुकी थी.

सच सब से गहरे घाव भी उन्हीं से मिलते हैं जिन्हें हम बहुत चाहते हैं. उसी समय नीरू और उमेश आ गए. तूफान थम सा गया. नेहा ने उन्हें नाश्ता कराया. फिर उन्हें पढ़ाने बैठ गई.

वातावरण बोझिल हो चुका था.

‘‘मैं जरा बाहर घूमने जा रहा हूं,’’ कह कर राज बाहर निकल गया.

राज और नेहा की गृहस्थी सुखी और सामान्य थी. थोड़ी बहुत नोकझोंक होती रहती थी. यह सब तो गृहस्थ जीवन का अभिन्न अंग है. बहुत मिठास भी बनावटी लगती है.

नेहा राज को बहुत परिश्रम करता देखती. महीने में 2-3 टूअर भी हो जाते. देर रात तक राज नएनए प्रोजैक्ट पर काम करता. अपने पति पर नेहा को गर्व था. वह राज को प्रसन्न रखने की भरसक कोशिश करती.

सच तो यह था कि दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते थे. लेकिन प्यार करने और दूसरे के मन की गहराई को समझने में काफी अंतर है. दिल महंगी भेंट नहीं मांगता. 2 शब्द प्रेम, प्रशंसा या सहानुभूति के ही पर्याप्त होते हैं. भावनाओं का स्थान भौतिक पदार्थ कमी नहीं ले सकते.

चूंकि नेहा हमेशा खिलीखिली रहती, इसलिए राज को उसे इसी प्रकार देखने की आदत हो चुकी थी. उस ने कभी इस बात को न जाना न समझा कि नेहा हर कार्य को कैसे कुशलतापूर्वक निबटा लेती. बहुत कम ऐसे अवसर आए जब नेहा ने अपनी परेशानी राज को बताई. प्रेमविभोर नेहा से शायद जानेअनजाने यही गलती हो गई थी. आज झगड़े का मूल कारण भी यही था. रात को डिनर के समय पतिपत्नी चुपचाप से थे. अंदर की पीड़ा जो थी सो थी.

बच्चे स्वभावानुसार चहक रहे थे, ‘‘पापा, मम्मी ने आज दमआलू कितने स्वादिष्ठ बनाए हैं,’’ नीरू ने चटकारे लेते हुए कहा.

‘‘हां बेटा, बहुत स्वादिष्ठ बने हैं,’’ राज ने स्वीकार किया.

उमेश भी नेहा को अपनी विज्ञान शिक्षिका और स्कूल की विज्ञान प्रदर्शिनी के बारे में बता रहा था. नेहा भी जैसेतैसे बेटे के उत्साह में भाग ले रही थी.

बच्चों का भोलापन वास्तव में कलकल करते निर्मल शीतल जलप्रपात सा है, जो पतिपत्नी के गिलेशिकवों के जलतेबुझते अंगारों को शांत कर देता है.

डिनर समाप्त हुआ तो बच्चे अपने बैडरूम में चले गए. नेहा ने जल्दी से बचे काम निबटाए और कपड़े बदल कर राज की तरफ पीठ कर के लेट गई. राज लेटेलेटे कुछ पढ़ रहा था. 11 बज रहे थे. नेहा के लेटते ही राज ने बत्ती बुझा दी.

‘‘नाराज हो क्या?’’ राज की आवाज में मलाई जैसी चिकनाहट थी.

नेहा चुप. कांटा बहुत गहरा चुभा था. पीड़ा हो रही थी.

‘‘डार्लिंग कल शाम मैं टूअर पर निकल जाऊंगा. 2-3 दिन के बाद ही आऊंगा. तुम बात नहीं करोगी तो कैसे चलेगा.’’

‘‘मेरा सिर दुख रहा है. आप सो जाएं,’’ नेहा ने टालना चाहा.

‘‘लाओ मैं तुम्हारा सिर दबा दूं,’’ राज नेहा को मना रहा था.

नेहा अब तक मन ही मन कोई फैसला ले चुकी थी. इसलिए प्रतिकार किए बिना उस ने करवट बदली और राज की ओर देखा. राज ने समझा बिगड़ी बात बनने लगी है. वह नेहा का सिर दबाने लगा.

‘अच्छा है… होने दो सेवा,’ नेहा मन ही मन मुसकराई. मन हलका हुआ तो आंख लग गई. राज भी हलके मन से सो गया.

अगला दिन सामान्य ही रहा. राज औफिस निकल गया. बच्चे स्कूल. नेहा

रोज के कार्यों में व्यस्त हो गई. पर कल रात उस ने जो फैसला लिया था. उसे भूली नहीं थी.

शाम हुई. बच्चे स्कूल से लौटे और राज औफिस से. कुछ खापी कर राज टूअर पर निकल गया. निकलने से पहले नेहा को आलिंगन में लिया. बच्चों को प्यार किया. सब ठीकठाक था. हमेशा की तरह.

3 दिन बाद राज सुबह 9 बजे घर लौटा. बच्चे स्कूल जा चुके थे. नेहा ने हंसते हुए स्वागत किया, ‘‘आप नहाधो लें. तब तक मैं नाश्ता तैयार करती हूं,’’

राज को लगा सब पहले जैसा नौर्मल है. दिल को सुकून मिला.

राज जैसे ही तरोताजा हुआ नेहा ने उस के सामने गरमगरम चाय और प्याज के पकौड़े रख दिए. साथ में पुदीने की चटनी.

‘‘मैं जानता था मेरी गुलाबो कभी बदल नहीं सकती,’’ राज बहुत खुश था.

‘‘कैसा रहा आप का टूअर?’’

‘‘अच्छा रहा. बहुत काम करना पड़ा पर मैं संतुष्ट हूं.’’

‘‘औफिस कितने बजे जाना है?’’

‘‘दोपहर 3 बजे निकलना है. थोड़ा आराम करूंगा. तुम अपनी कहो. क्याक्या किया इन 3 दिनों में?’’ राज ने पकौड़ों का आनंद लेते हुए उत्सुकता से नेहा की ओर देखा.

‘‘बहुत कुछ किया,’’ नेहा के चेहरे पर रहस्यमयी मुसकान थी.

‘‘बताओ तो सही.’’

‘‘एक स्कूल में इंटरव्यू दे कर आई हूं. पार्टटाइम जौब है. छठी और 7वीं कक्षा के बच्चों को अंगरेजी और समाजशास्त्र पढ़ाना है. मेरी ही पसंद के विषय हैं.’’

‘‘इंटरव्यू… यह सब क्या है,’’ राज सकपका गया.

‘‘हां डार्लिंग इंटरव्यू. नौकरी लगभग तय है. अगले महीने से जाना होगा. मेरी 1-2 सहेलियां भी वहां पढ़ा रही हैं. वेतन भी अच्छा है. मेरी सहेली ने ही मेरी सिफारिश की थी. अत: बात बन गई,’’ नेहा ने डट कर अपनी बात कह डाली. वह जानती थी कि राज को यह बात अच्छी नहीं लगेगी. लगे न लगे पर अब पता चलेगा कि परफैक्ट बैलेंस रखना क्या होता है.

‘‘अचानक यह नौकरी की क्या सूझी?’’ राज हैरान और खिन्न था.

‘‘अब इस में सूझने की क्या बात है?

जब हर आधुनिक स्त्री नौकरी कर रही है तो फिर मैं क्यों नहीं,’’ नेहा ने चटनी के चटखारे लेते हुए कहा.

‘‘तुम्हें मेरी उस दिन की बात बुरी लग गई?’’

‘‘बिलकुल नहीं. आप ठीक कहते थे. बैलेंस करने की ही तो बात है,’’ नेहा को मजा आ रहा था.

‘‘तुम्हारी कमजोरी… थकावट का क्या… सेहत भी देखनी पड़ती है.’’

‘‘भई कमाल है. आज आप को मेरी सेहत की बहुत चिंता होने लगी. पर सुन कर अच्छा लगा. चिंता न करें यह सब तो चलता ही है.’’

‘‘नेहा, बात उड़ाओ मत. मैं सीरियस हूं,’’ राज परेशान हो उठा.

‘‘धीरज रखें. मैं डाक्टर से मिल कर आई हूं. ब्लड टैस्ट की रिपोर्ट भी आ गई है.

सब ठीक है हीमोग्लोबिन कम है. डाक्टर की बताई दवा लेनी शुरू कर दी है और खानपान भी डाक्टर के निर्देशानुसार ले रही हूं.’’

‘‘और तुम्हारी ट्यूशनें?’’

‘‘पार्टटाइम नौकरी है. दोपहर 12:30 बजे तक लौट आऊंगी. ट्यूशन तो 3 बजे शुरू होती है. वह भी सप्ताह में 4 बार. महरी फुलटाइम सुबह से शाम तक आ जाया करेगी. बच्चे तो शाम 5 बजे तक ही लौटते हैं. स्कूल मुझे सप्ताह में 5 दिन ही जाना है. शनिर विवार छुट्टी. सब बैलेंस हो जाएगा,’’ नेहा मोरचे पर डटी थी.

‘‘तुम जानती हो अगले महीने बड़े भाईसाहब और भाभी आ रहे हैं,’’ राज ने हारे सिपाही के स्वर में कहा.

‘‘यह तो और भी अच्छी बात है. भाभीजी तो बहुत सुघड़ हैं. मेरी बहुत मदद हो जाएगी. वे भी थोड़ीबहुत घर की देखभाल कर लेंगी और भाईसाहब बच्चों को गणित और विज्ञान पढ़ा दिया करेंगे. इन विषयों में तो वे माहिर हैं,’’ नेहा आज घुटने टेकने वाली नहीं थी.

‘‘तो तुम ने नौकरी करने का निश्चय कर ही लिया है,’’ राज ने हथियार डाल दिए.

‘‘बिलकुल. आप देखना आप की झांसी की रानी घरबाहर को कैसा बैलेंस करती है. आप से ही तो मुझे प्रेरणा मिली है. खैर, छोडि़ए इन बातों को. आप थके हुए हैं. आओ सिर में तेल की मालिश कर देती हूं. आराम मिलेगा,’’ नेहा चाश्नी से सने तीर छोड़ रही थी.

‘‘लंच में क्या है?’’

‘‘सब आप की मनपसंद की चीजें.

लौकी के कोफ्ते, बैगन का भरता और मीठे में बासमती चावल की खीर. आया न मुंह में पानी?’’

‘‘हांहां, ठीक है,’’ राज निरुत्तर हो चुका था.

कहना न होगा कि नेहा परफैक्ट बैलेंस का अंदाज सीख चुकी थी.

सुलझे लोग

सड़क दुर्घटना में हुई मिहिर की आकस्मिक मृत्यु ने सपना के परिवार को बुरी तरह झकझोर दिया था. सब से ज्यादा फिक्र सब लोगों को सपना को ले कर थी. बी.ए. की परीक्षा के तुरंत बाद सपना की सास ने सपना को एक शादी में देख कर अपने बेटे के लिए पसंद कर लिया था और शादी के लिए जल्दी मचा दी थी. सपना के घर वालों ने कहा भी था कि सपना को कोई प्रोफैशनल कोर्स कर लेने दें लेकिन उस की सास ने बड़े दर्प से कहा था, ‘‘हमारे घर की बहू को कभी नौकरी नहीं करनी पड़ेगी. मिहिर सरकारी प्रतिष्ठान में इंजीनियर है, अच्छी तनख्वाह पाता है. घरपरिवार की उस पर कोई जिम्मेदारी नहीं है. वकील बाप ने बढि़या कोठी बनवा ही दी है, इतना कैश भी छोड़ ही जाएंगे कि दोनों बेटे अपने बच्चों को अच्छा भविष्य दे सकें.’’

उन की बात गलत भी नहीं थी. सपना मिहिर के साथ बहुत खुश थी, पैसे की तो खैर, कमी थी ही नहीं. लेकिन शादी के 7 साल ही के बाद मिहिर उसे 2 बच्चों के साथ यों छोड़ कर चला जाएगा, यह किसी ने नहीं सोचा था. वैसे सपना के सासससुर का व्यवहार उस के साथ बहुत स्नेहपूर्ण और संवेदनशील था. सपना के भाई और पिता आश्वस्त थे कि उस का देवर और सासससुर उस का और बच्चों का पूरा खयाल रखेंगे, मगर सपना की चाची का कहना था कि यह सब मुंह देखी बातें हैं. हम लोगों को अभी सब बातें साफ कर लेनी चाहिए और उठावनी होते ही उन्होंने सपना की मां से कहा कि वह उस की सास से पूछें कि सपना अब कहां रहेगी?

‘‘हमारे साथ दिल्ली में रहेगी, बच्चों की छुट्टियों में आप लोगों के पास मेरठ आ जाया करेगी. मिहिर की बरसी के बाद उस के लिए उपयुक्त घरवर देखना शुरू करेंगे,’’ सास का स्वर कोशिश करने के बावजूद भी भर्रा गया.

‘‘आजकल कुंआरी लड़कियों के लिए तो उपयुक्त घरवर मिलते नहीं, बहनजी, सपना बेचारी के तो 2 बच्चे हैं,’’ चाची बोलीं.

‘‘मनोयोग से चेष्टा करने पर सब मिल जाता है, बहनजी. कोई न कोई विकल्प तो तलाशना ही होगा, क्योंकि सपना को हम ने न तो कभी बेचारी कहलवाना है, न ही उसे एक बेवा की निरीह और बोसीदा जिंदगी जीने देना है,’’ उस की सास ने दृढ़ स्वर में कहा और सपना की मां की ओर मुड़ीं, ‘‘फिलहाल तो हमें यह सोचना है कि अभी सपना के पास कौन रहेगा, आप या मैं? खैर, कोई जल्दी नहीं है, रिश्तेदारों के जाने के बाद तय कर लेंगे.’’

सब ने यही मुनासिब समझा कि सपना की मां उस के साथ रहे. सपना का देवर शिशिर नागपुर के एक कालेज में व्याख्याता था. वह हर दूसरे सप्ताहांत में आ जाता था. उस के आने से बच्चे तो खुश होते ही थे, सपना भी उस की पसंद का खाना बनाने में रुचि लेती थी. देवरभाभी में थोड़ी नोकझोंक भी हो जाती थी. शिशिर उम्र में सपना से कुछ महीने बड़ा था. कहता तो भाभी ही था लेकिन व्यवहार दोस्ती का था.

‘‘तुम्हारे आने से सब का दिल बहल जाता है, शिशिर, लेकिन तुम्हारी छुट्टियां खराब हो जाती हैं,’’ सपना की मां ने कहा.

‘‘यहां आ कर मेरी छुट्टियां भी मजे से गुजर जाती हैं, मांजी. वहां छुट्टी के दिन सोने या पढ़ने के सिवा कुछ नहीं करता.’’

‘‘दोस्तों के साथ समय नहीं गुजारते?’’

‘‘दोस्त हैं ही नहीं. पीएच.डी. करने के दौरान खानेसोने का समय ही नहीं मिला. जो दोस्त थे उन से भी संपर्क नहीं रहा और लड़कियां तो मांजी मुझ जैसे पुस्तक प्रेमी की ओर देखतीं भी नहीं,’’ शिशिर हंसा.

‘‘अब तो पीएच.डी. कर ली है, इसलिए दोस्त बनाओ.’’

‘‘बनाऊंगा मांजी, मगर दिल्ली जा कर. मैं बंटीबन्नी के साथ रहने के लिए दिल्ली में नौकरी की कोशिश कर रहा हूं, उम्मीद है जल्दी ही मिल जाएगी,’’ शिशिर ने बताया.

बच्चों की परीक्षा होने तक सपना भी संभल चुकी थी और बड़ी शांति से अपनी गृहस्थी को समेट रही थी. शिशिर को भी दिल्ली में नौकरी मिल गई थी. जब सपना की मां मेरठ लौट कर आई तो वह सपना की ओर से पूर्णतया निश्चिंत थी. सब के पूछने पर उस ने बताया, ‘‘मिहिर को तो वे वापस नहीं ला सकते, मगर ससुराल वाले बहुत सुलझे हुए लोग हैं और इसी कोशिश में रहते हैं कि सपना को हर तरह सुखी रखें. देवर ने भी बच्चों के साथ रहने की खातिर दिल्ली में नौकरी ढूंढ़ ली है.’’

‘‘बच्चों के साथ रहने को या यह देखने को कि कहीं सारी कोठी पर सपना का कब्जा न हो जाए,’’ चाची ने मुंह बिचकाया.

‘‘चलो, इसीलिए सही, पर उस के रहने से हमारी बेटी और बच्चों का मन तो बहला रहेगा,’’ मां ने कहा.

‘‘तब तक जब तक उस की शादी नहीं होती. अपना घरसंसार बसाने के बाद कौन भाई के उजड़े चमन को सींचने आता है. मेरी मानो, तुम उन लोगों की बातों में न आ कर सपना के सासससुर से कहो कि वे उसे कोई अच्छा सा बिजनेस करा दें. उस का दिल भी लगा रहेगा और निजी आमदनी भी हो जाएगी,’’ चाची ने सलाह दी.

‘‘मगर सपना को तो बिजनेस का क ख ग भी नहीं मालूम,’’ मां ने कहा.

‘‘सपना को न सही, जतिन को तो मालूम है. एम.बी.ए. कर रहा है, बहन की मदद करने को नौकरी के बजाय उस के साथ काम कर लेगा,’’ चाची बोलीं.

एक बार मेरठ आने पर जब वह सब को बता रही थी कि उसे आशंका थी कि भोपाल में पलेबढ़े बच्चे दिल्ली के बच्चों के साथ शायद न चल सकें, मगर बंटी और बन्नी ने तो बड़ी आसानी से नए परिवेश को अपना लिया है तो चाची ने पूछा, ‘‘लेकिन इन्हें संवारने के चक्कर में तुम ने अपने लिए भी कुछ सोचा है या नहीं?’’

‘‘मेरा सर्वस्व या जीवन तो अब ये बच्चे ही हैं, चाची. इन का भविष्य संवारने के अलावा मुझे और क्या सोचना है?’’

इस से पहले कि चाची कुछ और बोलती, बच्चों ने आ कर कहा कि वे वापस दिल्ली जाना चाहते हैं. चाची की वजह पूछने पर बोले, ‘‘यहां हमारा दिल नहीं लग रहा. दिल्ली में तो चाचा के साथ छुट्टी के रोज सुबह घुड़सवारी करने जाते हैं और टैनिस तो रोज ही शाम को खेलते हैं. हम ने चाचा को भी फोन किया था. उन का भी दिल नहीं लग रहा. कहते थे, मम्मी से पूछ लो, अगर वे कहती हैं, तो मैं अभी लेने आ जाता हूं, आप क्या कहती हैं, मम्मी?’’

‘‘तुम्हें और तुम्हारे चाचा को उदास तो कर नहीं सकती. इसलिए चलो, ड्राइवर से कहो, हमें छोड़ आएगा.’’

लेकिन तब तक बन्नी ने शिशिर को आने के लिए फोन कर दिया. शिशिर के आने से बच्चे बहुत खुश हुए.

‘‘बाप की कमी महसूस नहीं होने देता बच्चों को,’’ सब के जाने के बाद सपना के पिता ने कहा.

‘‘जब तक अपनी शादी नहीं हो जाती, भाई साहब. हमें शिशिर की शादी अपने परिवार की लड़की से करवानी चाहिए ताकि अगर वह सपना को कुछ तकलीफ दे तो हम उस की लगाम तो कस सकें,’’ चाची बोलीं.

‘‘मगर अपने परिवार में लड़कियां हैं ही कहां?’’

‘‘मेरे पीहर में हैं. मैं देखती हूं,’’ चाची ने बड़े इतमीनान से कहा.

मिहिर की बरसी के कुछ दिन बाद ही चाची अपनी भांजी का रिश्ता शिशिर के लिए ले कर सपना की ससुराल पहुंच गईं.

‘‘अब घर में कुछ खुशी भी आनी चाहिए.’’

‘‘जरूर आएगी, बहनजी, लेकिन पहले सपना की जिंदगी में,’’ सपना की सास ने कहा, ‘‘उसे व्यवस्थित करने के बाद ही हम शिशिर के बारे में सोचेंगे.’’

‘‘व्यवस्थित करने वाली बात आप सही कह रही हैं. सपना को कोई बिजनेस करा दीजिए. मेरे बेटे ने अभी एम.बी.ए. किया है, वह सपना के अनुकूल अच्छा प्रोजैक्ट सुझा सकता है,’’ चाची उत्साह से बोलीं.

‘‘सपना को रोजीरोटी कमाने की कोई मुसीबत नहीं है. मिहिर ही उस के लिए बहुत कुछ छोड़ गया है और ससुर भी बहुत कमा रहे हैं. लेकिन जीने के लिए पैसा ही सब कुछ नहीं होता. मैं ने पहले भी कहा था कि हम लोग सपना को बेवा की बोसीदा जिंदगी

ज्यादा दिन तक नहीं जीने देंगे. आप लोगों को उस की फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं है,’’ न चाहते हुए भी सपना की सास का स्वर तल्ख हो गया था.

‘‘मगर सपना ने तो बच्चों को अपना सर्वस्व बना लिया है. वह उन की जिम्मेदारी किसी अनजान आदमी से बांटने या शादी करने को तैयार नहीं होगी.’’

सपना की सास कुछ सोचने लगी, ‘‘कहती तो आप सही हैं. फिर भी सपना को अब मैं ज्यादा रोज तक उदास या सादे लिबास में नहीं देख सकती. कोई न कोई विकल्प तो खोजना ही होगा,’’ उस ने दृढ़ स्वर में कहा.

चाची ने उस की ओर देखा. हमेशा ठसके से सजीसंवरी रहने वाली सपना की सास सादी सी शिफौन की साड़ी पहने थी.

‘अगर बहू बेवा की वेशभूषा में रही तो तुम्हार सिंगारपिटार कैसे होगा, महारानी,’ चाची ने विद्रूपता से सोचा.

अगले सप्ताहांत सपना के ससुर ने सपना के पिता को फोन किया कि वे उन लोगों से कुछ विचारविमर्श करना चाहते हैं, इसलिए क्या वह सपरिवार दिल्ली आ सकते हैं?

‘‘मुझे पता है क्या विचारविमर्श करेंगे,’’ चाची ने हाथ नचा कर कहा, ‘‘सपना शादी के लिए तैयार नहीं हो रही होगी, इसलिए चाहते होंगे कि हम उसे अपने पास रख लें ताकि उस की सास फिर सजसंवर सके.’’

‘‘सपना की ससुराल वाले बड़े सुलझे हुए लोग हैं, वे ऐसा सोच भी नहीं सकते. हमें उन की बात सुनने से पहले न अटकल लगानी है, न सलाह देनी है,’’ सपना के पिता ने कहा.

शिशिर और सपना के सासससुर तो सामान्य लग रहे थे, मगर सपना कुछ अनमनी सी थी.

‘‘जैसा कि मैं ने आप को पहले बताया था, हम लोग सपना का पूर्ण विवाह करना चाहते हैं,’’ सपना की सास ने कहते हुए चाची की ओर देखा.

‘‘और इन्होंने ठीक सोचा था कि सपना अपने बच्चों की जिम्मेदारी किसी और के साथ बांटने को तैयार नहीं होगी. सपना ही नहीं, शिशिर भी बन्नीबंटी की जिम्मेदारी किसी गैर को सौंपने को तैयार नहीं है.’’

‘‘शिशिर का कहना है कि वह आजीवन उन्हें संभालेगा और अविवाहित रहेगा, क्योंकि बीवी को उस का दिवंगत भाई के बच्चों पर जान छिड़कना पसंद नहीं आएगा,’’ सपना के ससुर बोले, ‘‘मैं भी उस के विचारों से सहमत हूं, क्योंकि एक अतिरिक्त परिवार की जिम्मेदारी संभालने वाले व्यक्ति का अपना विवाहित जीवन तो कदापि सुखद नहीं हो सकता, वैसे भी शिशिर को लड़कियों या शादी में कोई दिलचस्पी नहीं है.’’

‘‘मगर शादी से एतराज भी नहीं है, अगर सपना से हो तो,’’ सपना की सास ने कहा. ‘‘दोनों ही बच्चों को किसी तीसरे से बांटना नहीं चाहते और उन की परवरिश में जिंदगी गुजारने को कटिबद्ध हैं. जब तक बच्चे छोटे हैं तब तक तो ठीक है, मगर जब ये समझने लायक होंगे कि लोग उन की मां और चाचा को ले कर क्या कहते हैं, तब सोचिए, उन पर क्या बीतेगी? वैसे लोग तो कहेंगे ही, उन का मुंह बंद करने का तो एक ही तरीका है, शिशिर और सपना की शादी. मगर उस के लिए सपना नहीं मान रही.’’

‘‘मगर क्यों? शिशिर में कोई कमी तो है नहीं,’’ सपना की मां ने कहा.

‘‘इसीलिए तो मैं उस से शादी नहीं

करना चाहती, मां. उसे एक से बढि़या एक कुंआरी लड़की मिल सकती है, तो फिर वह 2 बच्चों की मां से शादी क्यों करे?’’ सपना ने पूछा.

‘‘इसलिए सपना कि वे दोनों बच्चे मेरी जिंदगी का अभिन्न अंग हैं, जिन्हें सिर्फ तुम स्वीकार कर सकती हो, कोई कुंआरी लड़की नहीं,’’ शिशिर ने किसी के बोलने से पहले कहा.

‘‘एक बात और सपना, मैं किसी मजबूरी या दयावश तुम से शादी नहीं कर रहा बल्कि इसलिए कि जब शादी करनी ही है तो किसी अनजान लड़की के बजाय जानीपहचानी तुम बेहतर रहोगी. तुम्हें ले कर मेरे मन में कोई पूर्वाग्रह नहीं है, मैं ने तुम्हें भाभी जरूर कहा है लेकिन देखा एक दोस्त की नजर से ही है.’’

‘‘और दोस्त तो अकसर शादी कर लेते हैं,’’ सपना का भाई सुनील बोला.

‘‘खुद हिम्मत न करें तो दोस्त बढ़ कर करवा देते हैं, यार,’’ शिशिर हंसा.

‘‘तो तुम्हारी शादी हम करवा देते हैं,’’ सुनील भी हंसा.

‘‘मगर सपना माने तब न. उसे बेकार का वहम यह भी है कि उसे सुहाग का सुख है ही नहीं, तभी मिहिर की असमय मृत्यु हो गई.’’

‘‘जब उस के घर वाले मान गए हैं तो सपना भी मान जाएगी,’’ सपना के ससुर बोले. ‘‘उस की यह शंका कि दूसरी शादी कर के वह मिहिर की यादों के साथ बेवफाई कर रही है, मैं दूर कर देता हूं. मिहिर तुम्हें बच्चों की जिम्मेदारी सौंप कर गया है, जो तुम अकेले तो निभा नहीं सकतीं. हम तुम्हारा पूर्ण विवाह करना तो चाहते थे लेकिन साथ ही यह सोच कर भी विह्वल हो जाते थे कि किसी अनजान आदमी को अपने मिहिर की निशानियां कैसे सौंपेंगे? लेकिन शिशिर के साथ ऐसी कोई परेशानी नहीं है. दूसरे, मिहिर की जितनी आयु थी वह उतनी जी कर मरा है. शिशिर की जितनी आयु है, वह तुम से शादी करे या न करे, उतनी ही जिएगा और कोई शंका या एतराज?’’

‘‘नहीं, पापाजी,’’ सपना ने सिर झुका कर कहा लेकिन उस के रक्तिम होते गाल बहुत कुछ कह गए.

‘‘आप ठीक कहते थे, भाई साहब, सपना के ससुराल वाले बहुत सुलझे हुए लोग हैं,’’ चाची के स्वर में अपनी हार के बावजूद भी उल्लास था.

गठबंधन: भाग 3- क्यों छिन गया कावेरी से ससुराल का प्यार

कावेरी ससुराल पहुंचने ही वाली थी कि उसे नमन का भेजा हुआ रिपोर्ट का फोटो मिल गया. जब कावेरी ने फोटो डाउनलोड कर देखा तो उसे अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. रिपोर्ट बता रही थी कि वह गर्भवती है. कावेरी का मन बल्लियों उछलने लगा. वह जल्द ही उदित से मिल कर यह सुखद समाचार उसे सुनाना चाहती थी.

उत्साह से भरी कावेरी दौड़ती हुई उदित के पास जा पहुंची. उदित से आंखें बंद करने को कह कर उस ने पर्स से मोबाइल निकाला और रिपोर्ट का फोटो उदित के सामने कर दिया.

उदित ने आंखें खोलीं तो नजरें मोबाइल स्क्रीन पर ठहर गईं. रिपोर्ट में ‘प्रैगनैंसीपौजिटिव’ देखते ही उस के चेहरे का रंग उड़ गया. माथे पर त्योरियां चढ़ाते हुए बोला, ‘‘क्या मजाक है यह?’’

‘‘मजाक नहीं, यह सच है उदित,’’ कावेरी खुशी से चहक उठी.

‘‘लेकिन यह कैसे हो सकता है?’’ उदित आशंका से घिरा था.

‘‘हो गया बस, कैसे? यह तो मु झे भी नहीं पता,’’ अदा से कंधे उचकाती हुई कावेरी उदित से लिपट गई.

कावेरी को अपने से अलग कर उदित आक्रोशित हो लगभग चीख उठा, ‘‘ऐसा नहीं हो सकता… कभी नहीं. हुआ तो हुआ कैसे?’’

‘‘क्या हो गया है आप को?’’ इस बार कावेरी तुनक कर बोली, ‘‘यह क्या अनापशनाप बोले जा रहे हैं आप इतनी देर से? मैं ने तो सोचा था कि आप यह खुशखबरी सुन खुशी से  झूम उठेंगे. लेकिन…’’

‘‘कैसी खुशखबरी? कैसी खुशी? सुन लो तुम आज कि… मैं पिता नहीं बन सकता,’’ उत्तेजना और क्रोध में उदित के मुंह से सच निकल गया.

कावेरी सिर पकड़ कर बैठ गई. उसे लग रहा था कि वह चक्कर खा कर गिर जाएगी.

अपनी रोबीली आवाज में उदित फिर चिल्लाया, ‘‘क्या मैं जान सकता हूं कि यह बच्चा किस का है? शायद उस नमन का ही, जिस ने तुम्हें यह रिपोर्ट भेजी है.’’

कावेरी यह सहन न कर सकी. तैश में आ कर बोली, ‘‘अब सम झी कि आप ने मु झे हमारे टैस्ट की रिपोर्ट्स क्यों नहीं दिखाई थीं. क्यों नहीं जाना चाहते थे डाक्टर के पास. कितना बड़ा धोखा…’’

बौखलाया सा उदित कुछ बोलने की स्थिति में नहीं था. बेचैन हो कर वह कमरे में इधरउधर चक्कर लगाने लगा. असमंजस में पड़ी कावेरी भी आंखों पर हाथ रख बैड पर लेट गई.

कुछ देर बाद कमरे की चुप्पी कावेरी का मोबाइल बजने से टूट गई. कौल नमन का था, ‘‘उखड़ी सी आवाज में हैलो बोल मोबाइल पर बात करते हुए वह कमरे से सटी बालकनी में जा खड़ी हुई.’’

नमन बोला, ‘‘उदित का सिडनी टूर कैसा रहा? तुम्हारी तबीयत कैसी है अब? वैसे मैं ने एक जरूरी बात बताने के लिए किया है फोन. अरे, मैं ने जिस रिपोर्ट का फोटो भेजा था वह तुम्हारी नहीं है. पहले किसी और कावेरी की रिपोर्ट दे दी थी मु झे उन लोगों ने. कुछ देर पहले क्लीनिक से फोन आया तो मैं दोबारा जा कर सही वाली रिपोर्ट लाया हूं. अभी व्हाट्सऐप पर तुम्हारी असली रिपोर्ट भेज रहा हूं. कोई बड़ी बीमारी नहीं बस थोड़ा इन्फैक्शन हो गया था.

‘‘ओह, मैं भी कुछ सम झ नहीं पा रही थी कि आखिर यह हुआ क्या? हां, लेकिन उस गलत रिपोर्ट ने उदित को बेनकाब कर दिया है,’’ कहते हुए कावेरी ने पूरी घटना संक्षेप में बता दी.

अब उदित को बता दो रिपोर्ट का सच, ‘‘सब ठीक हो जाएगा,’’ कह कर नमन ने फोन काट दिया और असली रिपोर्ट कावेरी को भेज दी.

फोन पर कावेरी की हताशा में डूबी आवाज सुनने के बाद नमन चिंतित था, लेकिन उसे इस बात की प्रसन्नता भी थी कि उदित को ले कर उस का अनुमान सही निकला और एक छोटी सी युक्ति लगा कर उस  झूठ से परदा उठाने में वह सफल भी हो गया.

हुआ यों कि शाम को जब नमन कावेरी की रिपोर्ट लेने पहुंचा तो जो रिपोर्ट उसे  मिली उस पर ‘प्रैगनैंसी पौजिटिव’ देख कर वह चौंक गया. फिर रिपोर्ट पर मोबाइल नंबर व घर का पता देखा तो वह कावेरी का नहीं था. नमन सम झ गया कि यह रिपोर्ट किसी और कावेरी की है.

इस से पहले कि वह काउंटर पर जा कर सही रिपोर्ट लेता, उस ने अपने मोबाइल से उस रिपोर्ट की एक फोटो इस तरह खींच कर रख लिया, जिस में एड्रैस और मोबाइल नंबर दिखाई न दे. इस के बाद नमन ने कावेरी की असली रिपोर्ट ले कर अपने पास रख ली. रिपोर्ट नौर्मल थी, इसलिए उसे कावेरी तक पहुंचाने की जल्दी भी महसूस नहीं हुई नमन को.

गलत रिपोर्ट वाला फोटो कावेरी को भेजने के कुछ देर बाद भेजी नमन ने असली रिपोर्ट ताकि कावेरी उदित को गलत रिपोर्ट दिखा सके और इस बारे में कावेरी और उदित की बातचीत भी हो पाए. गलत रिपोर्ट देखने के बाद उदित की प्रतिक्रिया द्वारा सच झूठ की तह तक पहुंचना चाहता था नमन.

सही रिपोर्ट भेजने के बाद नमन आशा कर रहा था कि उदित अब शर्मिंदा हो कर सच छिपाने के लिए कावेरी से क्षमा मांग लेगा और दोनों का वैवाहिक जीवन एक सुखद मोड़ ले लेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

उदित को जब कावेरी ने बताया कि प्रैगनैंसी वाली रिपोर्ट गलत थी तो निर्लज्जता और दोगुने वेग से वह कावेरी पर चिल्ला उठा, ‘‘तो अब अपने दोस्तों के साथ मिल कर मेरा मजाक भी उड़ाना शुरू कर दिया तुम ने. न जाने क्या सम झती हो अपनेआप को… सिडनी में ही खुश था मैं. सोच रहा हूं सब छोड़छाड़ कर वहीं चला जाऊं.’’

कावेरी का मन वितृष्णा से भर उठा. मन के चूरचूर होने की पीड़ा मुख पर साफ  झलक रही थी. मन किया कि जोर से चीख उठे. मुंह से जैसे बोल अपनेआप ही निकल पड़े, ‘‘अपने किए पर शर्मिंदा होने की जगह आप मु झे, मेरे दोस्तों पर कीचड़ उछाल रहे हैं? अब तक आप के व्यवहार को मैं आप का स्वभाव सम झ सहन करती आ रही थी, लेकिन आप तो पहले दिन से ही मु झे नीचा दिखाने के मौके तलाश रहे थे.

‘‘क्या हो गया अगर पतिपत्नी में से कोई भी संतान को जन्म देने में असमर्थ है? वह आप भी हो सकते थे या मैं भी. रिश्तों का घटाजोड़ नहीं जानती मैं, लेकिन इतना सम झती हूं कि प्यार दिमाग से नहीं दिल से होता है. पतिपत्नी का रिश्ता प्रेम पर टिका होता है… दिमाग का खेल नहीं चलता यहां. आप क्या छोड़ेंगे मु झे? मैं आज ही, अभी पतिपत्नी के नाम पर कलंक बन चुके इस रिश्ते से अपने को अलग करती हूं.’’

उदित हक्काबक्का सा देखता रह गया और बैग लिए कावेरी उलटे पांव मायके लौट आई.

सुधांशु भी क्या कहते सब जानने के बाद? कुछ दिनों की जद्दोजहद के बाद तलाक हो गया.

अपनी योग्यता के बल पर स्कूल में टीचर बन कावेरी पूरी हिम्मत से स्वयं को  संभाले थी, लेकिन मन में कहीं न कहीं एक रिक्तता निरंतर अनुभव कर रही थी. धीरेधीरे उस के वजूद पर छा रही वह उदासी उस की उमंगों और खुशियों को लील ही जाती यदि उस दिन नमन अपना दिल उस के सामने खोल न देता.

‘‘कावेरी, तुम्हें कभी कहने का साहस न जुटा सका. हमेशा एक जुड़ाव सा महसूस होता रहा है तुम संग. कुछ कहना भी चाहा कभी तो अपाहिज पांव ने जैसे मेरी सारी हिम्मत छीन ली. तुम्हारी शादी हुई तो सब्र कर लिया और हमेशा तुम्हें खुश देखना चाहा.

‘‘अब भी तुम्हें उदास देखता हूं तो लगता है कहीं से खुशियों की गठरी बांध लाऊं और सब तुम पर निछावर कर दूं,’’ नमन बोला.

‘‘अपाहिज? क्या कह रहे हो नमन? अपाहिज तो उदित था जिस की सोच ही पंगु थी. काश, तुम ने कुछ साल पहले ही बता दी होती मु झे अपने मन की बात,’’ कावेरी का गला रुंध गया.

‘‘तो अब भी क्या बिगड़ा है? कावेरी, क्या तुम मेरी जीवनसंगिनी बन कर खुश रह सकोगी?’’

कावेरी की आंखें ही नहीं मन भी भीग गया. लगा जैसे नमन ने चाहत के दुपट्टे में सम्मान का सिक्का, उमंग सी हलदी, दूर्वा जैसी खुशी, चावल के दानों सा विश्वास तथा आशा के पुष्प रख कस कर गांठ लगा दी हो और उसे कावेरी की कोमल भावनाओं की चूनर से बांध दिया हो.

‘‘गठबंधन तो आज हो गया हमारा,’’ कह कर कावेरी नमन के गले लग गई.

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