भारत के बाजार में चीन

राहुल गांधी ने अपने गुजरात के चुनावी दौरों में चीन व भारत के व्यापार पर काफी तंज कसे हैं. उन्हें इस बात के लिए गलत नहीं कहा जा सकता. चीन की मेजबानी में शियामेन में हाल ही में संपन्न हुए ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका) देशों के 9वें सम्मेलन में भारत और चीन के संबंधों के बीच नए तेवर देखने को मिल चुके हैं. भारत और चीन दोनों देश आर्थिक विकास पर ध्यान देने की पुरजोर वकालत करते नजर आए. इस के पीछे जहां एक तरफ भारत की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था जिम्मेदार है तो वहीं दूसरी तरफ चीन अपने पुनर्गठन के दौर से गुजर रहा है.

ये दोनों देश बखूबी जानते हैं कि शांति के बिना आर्थिक विकास संभव नहीं है. इसी कारण पाकिस्तान के आतंकी रुख को ले कर भी चीन में परिवर्तन आया है. भारत की कूटनीति काम आई कि एक तरफ डोकलाम विवाद पर घिरे बादल छंटने लगे, वहीं दूसरी तरफ चीन, भारत के साथ आतंकवाद को मिटाने के लिए मंच साझा करता नजर आया.

ब्रिक्स सम्मेलन के घोषणापत्र में न केवल आतंकवाद की निंदा की गई है, बल्कि हिंसा और असुरक्षा के लिए जिम्मेदार आतंकी समूहों की एक बड़ी सूची में पाकिस्तान के हक्कानी नैटवर्क, अलकायदा, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे 4 आतंकी समूहों का नाम लिया गया.

भले ही ब्रिक्स सम्मेलन में सरकार ने चीन पर राजनीतिक जीत मान ली हो पर आर्थिक क्षेत्र में चीन अपनी अर्थव्यवस्था के साम्राज्य को बढ़ाने में ही लगा है, और राजनीतिक विश्लेषक तो यहां तक कहते हैं कि आतंकवाद विरोध पर साझा बयान दे कर चीन भारत में अपनी आर्थिक दखलंदाजी बढ़ाने की मंशा रखता है.

चीन का भारत के साथ आना सोचीसमझी रणनीति की तरफ इशारा करता है. चीन भारत को निवेश के सब से बड़े बाजार के रूप में देखता है और यहां समयसमय पर उठते स्वदेशी आंदोलन को असफल कर सरकार को बताना भी चाह रहा है कि बिना चीन की आर्थिक मदद के भारत का विकास संभव नहीं है.

माना कि सरकार अपनी अर्थव्यवस्था को एक बढ़ते दायरे में स्थापित करने की कोशिश कर रही है लेकिन क्या यह सरकार दकियानूसी सोच और विश्वबाजार में अपने को स्थापित करने के बीच संतुलन बना पाएगी. आज इस का सब से बड़ा और जीताजागता उदाहरण है देश के छोटेछोटे गलीमहल्लों में चीनी राखियों, खिलौनों और दीवाली में मिट्टी के दीयों व झालरों के विरोध का. समझ में नहीं आता कि स्वदेशी का बहाना ले कर इस फूहड़ और सस्ती राजनीतिक करने वालों की आवाज संसद के गलियारों में क्यों नहीं सुनाई देती?

सत्तारूढ़ भाजपा के कुछ आनुषंगिक संगठन जहां एक तरफ स्वदेशी की बात कर चीनी राखी के धागों का विरोध कर रहे हैं वहीं केंद्र पर बैठी आम आदमी की दुहाई देने वाली सरकार चीन का ही दामन थाम कर देश के विकास की नैया को खेना चाह रही है.

सरकार ने गरीबों के घर में गैसचूल्हे वितरित करने का प्रचारप्रसार तो बहुत कर दिया पर शायद यह ध्यान नहीं दिया कि उस चूल्हे पर जो बरतन रखा जाएगा, उस में जो पकेगा वह कहां से आएगा. आज यही गरीब किसी तरह 1,000 रुपए का चीनी सामान ले कर दिहाड़ी का ठेला लगा कर या फुटपाथ पर बैठ कर 100 रुपए का मुनाफा कमा कर जिंदा हैं. जब तक डोकलाम का मामला हल नहीं हुआ, मोदी ब्रिगेड के सिपाही छद्म और झूठे देशप्रेम का हल्लाबोल करने वाले इन छोटेछोटे मेहनतकश लोगों का स्वदेशी के माध्यम से गला घोंटने में लगे थे, जिन का देशप्रेम से कोई लेनादेना नहीं. आज यही स्वदेशी आंदोलन करने वाले अपनी जेब में चीन का ही बना मोबाइल रखे रहे हैं. सोशल मीडिया में अपनी बात रखने और कहने के लिए वे उसी चाइनीज फोन का इस्तेमाल करते रहे हैं.

चीन का भारत में निवेश

हम निर्भर से आत्मनिर्भर बने और आज पारस्परिक निर्भरता के दौर से गुजर रहे हैं. कहने का आशय यह है कि यह जमाना ग्लोबलाइजेशन के उत्कर्ष में है. क्या कारण है कि चीन का सामान आज भारत के आम आदमी की जरूरत दो तरह से बन गया है. पहला तो यह कि फुटपाथिया और दैनिक सामान बेचने वाले चीन का बना सामान बेच कर अपना गुजरबसर कर रहे हैं और दूसरी तरफ आम आदमी सस्ता सामान खरीद कर अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने में लगा हुआ है.

मिसाल के तौर पर, जब उतनी रोशनी देने वाला एक चीनी बल्ब, भारत में बने बल्ब से काफी सस्ता मिलता है तो क्यों न वह खरीदें. इस के पीछे के सिद्धांत को शायद सरकार को समझने में कुछ देर लगे पर आम आदमी उपभोक्तावादी युग में निश्चित ही प्रतियोगी बाजार में उपलब्ध चीजों के मूल्यों को तरजीह देता है.

आज सरकार कई क्षेत्रों में चीन के सहयोग से अपना काम करने का दंभ भर रही है और ज्यादातर निवेश तो उस जगह हो रहा है जहां पर स्वदेशी का समर्थन करने वाली सरकार है.

हद तो तब हो गई जब स्वदेशी का राग अलापने वालों की नाक के नीचे चीन की एक कंपनी, चाइना रेलवे रोलिंग स्टौक को नागपुर मैट्रो के लिए 851 करोड़ रुपए का ठेका मिला. हैरानी यह भी है कि नागपुर में स्वदेशी का झंडा बुलंद करने वाले मौन क्यों हो गए? क्या यह केवल धर्मप्रचार की तरह का पर उपदेश कुशल बहुतेरे का मामला है.

इतना ही नहीं, कई चीनी कंपनियों के क्षेत्रीय कार्यालय अहमदाबाद में हैं. अब, वे महाराष्ट्र व हरियाणा की तरफ जाने लगे हैं. यह किस बात की तरफ इशारा कर रहे हैं, हमें समझना होगा. बात यहीं तक नहीं रुकी है. अब तो चीन बनाबनाया माल ही नहीं, बल्कि फरवरी 2017 की चीनी मीडिया रिपोर्ट ‘राइज ऐंड क्यूएस्टिस्ट’ के मुताबिक, चीन की 7 स्मार्टफोन कंपनियां भारत में या तो कारखाने शुरू कर चुकी हैं या शुरू करने की योजना बना रही हैं.

भारत की धरती पर चीन अपनी फैक्टरी लगा कर उत्पादन भी शुरू करेगा. इस के पीछे चीन की मंशा साफ है कि भारतीय उद्योग परिसंघ यानी सीआईआई और एवलोन कंसल्टिंग ने 2015-16 में अपनी संयुक्त रपट में अनुमान जाहिर किया था कि चीन में श्रम लागत भारत के मुकाबले 1.5 से तीनगुणा अधिक है, सो भारत में उपलब्ध कम श्रम लागत का फायदा भी चीन उठाएगा. साथ ही वह भारत में सामान बना कर पूरे विश्व में सप्लाई करेगा और ये उत्पाद ‘मेड इन इंडिया बाय चाइना’ के नाम से आएंगे.

8 जुलाई, 2015 के ‘द हिंदू’ अखबार में खबर छपी है कि कर्नाटक सरकार चीनी कंपनियों के लिए 100 एकड़ जमीन देने के लिए सहमत हो गई है.

5 जनवरी, 2016 के इंडियन ऐक्सप्रैस की खबर कहती है कि महाराष्ट्र इंडस्ट्रियल डैवलपमैंट कौर्पोरेशन ने चीन की 2 मैन्यूफैक्चरिंग कंपनियों को 75 एकड़ जमीन देने का फैसला किया है. ये कंपनियां 450 करोड़ रुपए का निवेश ले कर आएंगी.

22 जनवरी, 2016 की ट्रिब्यून की खबर है कि हरियाणा सरकार ने चीनी कंपनियों के साथ 8 सहमतिपत्र पर दस्तखत किए हैं. ये कंपनियां 10 बिलियन डौलर का इंडस्ट्रियल पार्क बनाएंगी, स्मार्ट सिटी बनाएंगी. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस की तरह हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर भी चीन का दौरा कर चुके हैं.

24 जनवरी, 2016 की डीएनए की खबर है कि चीन का सब से अमीर आदमी हरियाणा में 60 हजार करोड़ रुपए निवेश करेगा.

अभी कुछ ही महीनों पहले डिमोनेटाइजेशन के बाद डिजिटल पेमैंट की वकालत करने वाली सरकार भी पेटीएम की तरफ मुंह ताकने लगी और भारत की सब से बड़ी डिजिटल पेमैंट कंपनी पेटीएम का 40 फीसदी का स्वामित्व चीनी ईकौमर्स फर्म अलीबाबा के ही पास है और कथिततौर पर अलीबाबा अपनी हिस्सेदारी बढ़ा कर 62 फीसदी कर रही है. चीन की चौथी सब से बड़ी मोबाइल फोन कंपनी जियोमी भारत में अपने नए कारखाने में हर सैकंड एक फोन कर निर्माण करती है.

चीन का भारत में निर्यात पिछले वर्षों में 39,765 करोड़ रुपए था. 2015 के मुकाबले निर्यात में 0.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी. दूसरी तरफ भारत का चीन में निर्यात 12 प्रतिशत से गिर कर 8,017 करोड़ रुपए जा पहुंचा. यह 2 देशों के मध्य आर्थिक निर्भरता को दर्शाता है. आशय साफ है कि भारत चीन से आने वाले सामान पर ज्यादा निर्भर है. सोच सकते हैं कि कितना असंतुलन है दोनों के बीच व्यापार में.

चीन सालों से लगातार भारत के बाजार में सामान डाल कमाई कर रहा है और उस सब की अनुमति भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय की नीतियों से है. मतलब, सचमुच भारत का आम आदमी झोला ले कर चीनी सामान खरीदने नहीं जाता है बल्कि सरकार ने चीन के लिए बाजार खोला हुआ है. सो, दोषी कौन – जनता या सरकार? सरकार को राष्ट्रधर्म पढ़ाना चाहिए या जनता को? कांग्रेस की सरकार के वक्त भी चीन का धंधा बढ़ा और मोदी सरकार में भी चीनी सामान पर हमारी निर्भरता साल दर साल बढ़ी है.

साथ ही, भारत का फार्मा उद्योग चीन से आयात होने वाले ड्रग्स पर बहुत अधिक निर्भर है. अब सवाल यह है कि अगर भारत में चीनी सामान का बहिष्कार हो जाता है तो उस से चीन के कुल निर्यात पर क्या असर पड़ेगा. चीन के कुल निर्यात में भारत की हिस्सेदारी 2 प्रतिशत है. साफ है कि अगर चीनी माल का भारत में बहिष्कार हो भी जाता है तो उस से चीन की अर्थव्यवस्था पर इतना असर नहीं पड़ेगा. ऐसे में अगर एकदम से भारत के बाजारों से चीनी माल गायब हो जाता है तो उस का असर भारत के आम आदमी पर ही पड़ेगा क्योंकि सस्ते चीनी सामान का सब से बड़ा उपभोक्ता वर्ग वही है.

हालांकि इस से इनकार नहीं किया जा सकता कि चीन भारत जैसा बाजार खोना नहीं चाहेगा. चीन ने भारत को अपने ऊपर निर्भर बना लिया है. वह हम पर निर्भर नहीं है, हम उस पर निर्भर हैं. हम यदि उस से सामान खरीदना बंद कर देंगे तो उस की सेहत पर ज्यादा असर नहीं पड़ेगा मगर एक तरफ भारत में लोगों को सस्ता सामान मिलना बंद होगा तो दूसरी तरफ सरकार के इंफ्रास्ट्रक्चर, पावर के बड़े प्रोजैक्टों में मुश्किल होगी.

सरकार का चीन प्रेम

देशप्रेम का दंभ भरने वाली सरकार गुजरात में लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल को भी मेड इन चाइना बनाने में तुली है और अपने ही मेक इन इंडिया के मिशन की खुलेआम धज्जियां उड़ाने में लगी है. क्या देश अपने लौहपुरुष की मूर्ति नहीं बना सकता?

देशभर से लौहपुरुष के लिए लोहा मंगाया गया था और भारत के नागरिकों ने बड़ी शिद्दत से लोहा भेजा था जिस से उस विशाल मूर्ति का निर्माण होना था, पर आज 3 हजार करोड़ रुपए का ठेका एल ऐंड टी कंपनी को दिया गया और प्रतिमा का वह हिस्सा जो कांसे का होगा, चीन के एक कारखाने टीक्यू आर्ट फाउंड्री में बनवाया गया है.

टीक्यू आर्ट फाउंड्री चीन के नैनचंग में स्थित जियांग्जी टोक्वाइन कंपनी का हिस्सा है. इस बात को कहने में कोई गुरेज नहीं है कि इंडिया मेड बाई पटेल को सरकार अब पटेल मेड बाई चायना बना कर ही छोड़ेगी और पूरे देश से भेजा गया देशप्रेम की मुहर लगा हुआ लोहा चाइना प्रेम के आगे जंग खा कर अपने को ही समाप्त कर लेगा.

न दृष्टि है न इरादा

दोहरा मापदंड अपना रही भारत सरकार क्या चाहती है, समझना होगा. चीन के साथ कारोबारी रिश्तों को सरकार और अर्थव्यवस्था की कामयाबी के रूप में पेश किया जाता है लेकिन कुछ मुट्ठीभर लोगों के माध्यम से अपना निहित साधने के लिए सरकार गलियों में जा कर चीनी लडि़योंफुलझडि़यों का स्वदेशी के नाम पर विरोध शुरू करवा कर आम जनता का ध्यान खींचने की कोशिश करती है. वह जानती है कि राष्ट्र और स्वदेशी का नशा किसी भांग के नशे से कम नहीं जिस का सहारा ले कर आम आदमी को असली उद्देश्यों के लिए किए जाने वाले आंदोलनों से बेखबर किया जाए.

विरोध कीजिए पर उन का लक्ष्य और दायरा बढ़ाना होगा, स्पष्ट और सटीक राष्ट्रप्रेम को परिभाषित करने वाले आंदोलनों को समर्थन देना होगा, न कि ऐसे छद्म देशप्रेम के साथ बंध कर अपने ही देश के आम आदमी पर कुठाराघात करना. ऐसे वैश्विक सिनैरिओ में चीनी सामान के बहिष्कारों की भारत में जो बातें हो रही हैं उन का रत्तीभर असर चीन पर इसलिए नहीं होना है क्योंकि न सरकार के पास दृष्टि है, न इरादा.

हां, सकारात्मक रूप में यदि आम आदमी के लिए कुछ किया जा सकता है तो सरकार को उस की क्रयशक्ति को बढ़ाना पड़ेगा जिस से कि आने वाले समय में गुणवत्तापरक वस्तुओं की खरीद आसान हो सके.

क्या चीनी सामान का विरोध करने वाले स्वदेशप्रेमी भारत में चीन के निवेश का विरोध करेंगे? आम आदमी की दो जून की रोटी को तो कम से कम अपने आंदोलनों से दूर रखें. आखिरकार, सरकार को भी इस बात की तसदीक करनी होगी कि आर्थिक विकास के लिए चीन से हाथ मिलाने में कोई गुरेज नहीं. यदि सरकार ऐसा मुखर हो कर नहीं बोलती, तो क्या फर्क पड़ता है, चीन के भारत में निवेश के आंकड़े तो गवाही दे ही रहे हैं.

अदालतों का वैवाहिक कानूनों में धार्मिक दखल पर अंकुश

सुप्रीम कोर्ट ने अब 18 वर्ष से कम उम्र की पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाने को दुष्कर्म श्रेणी की व्यवस्था दी है. लड़की की शिकायत पर पुलिस पति पर रेप का केस दर्ज कर सकती है. यह फैसला देश के सभी धर्मों व वर्गों पर समानरूप से लागू होगा. मुसलिम पर्सनल ला में 15 वर्ष की लड़की को विवाहयोग्य माना गया है पर लड़की की शिकायत पर अब मामला दर्ज करना होगा. लड़की के विवाह की उम्र अभी तक धर्म तय करता आया है. उसी आधार पर धार्मिक वैवाहिक कानून बना दिए गए. अब उन में संशोधन किए जा रहे हैं.

मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की पीठ ने एक पारसी महिला गूलरोख एम गुप्ता की याचिका पर आदेश दिया है जिसे हिंदू युवक से शादी करने के बाद पारसी समुदाय ने पारसी मानने से इनकार कर दिया था. गूलरोख गुजरात हाईकोर्ट गईं तो वहां भी कहा गया कि जब भी महिला अपने धर्म से बाहर किसी व्यक्ति से शादी करती है तो उस का धर्म वही हो जाता है जो उस के पति का है.

गूलरोख ने 1991 में विशेष विवाह कानून 1954 के तहत हिंदू युवक से विवाह किया था. गूलरोख को उस के पिता के अंतिम संस्कार में यह कह कर रोक दिया गया कि वह विवाह के बाद पारसी नहीं रही. गुजरात हाईकोर्ट ने गूलरोख की याचिका खारिज कर दी और कहा कि उसे पारसी अग्निमंदिर में प्रवेश नहीं देना सही है. इस पर मामला सुप्रीम कोर्ट में गया. यहां गूलरोख की वकील इंदिरा जयसिंह ने कहा कि गुजरात हाईकोर्ट का फैसला संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21 और 25 के खिलाफ है.

इस औरत के सामने समस्या यह है कि वह धर्म को देखे या दांपत्य को? धर्म की वजह से बने ऐसे कानूनों ने दांपत्य की जड़ें खोखली की हैं. परिवारों में जहर घोला है.

धर्म की दखलंदाजी

वैवाहिक कानूनों में धर्म की घुसपैठ के अनगिनत मामले हैं. अगर महिला या पुरुष धर्म बदले बिना शादी करते हैं तो ऐसी शादियां वैध नहीं मानी जाएंगी. ऐसा ही एक मामला मद्रास हाईकोर्ट में आया. कोर्ट ने फैसले में कहा कि एक हिंदू महिला और एक ईसाई पुरुष के बीच शादी तब तक कानूनन वैध नहीं है जब तक दोनों में से कोई एक धर्मपरिवर्तन नहीं करता. महिला के परिजनों द्वारा दाखिल बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को खारिज करते हुए न्यायाधीश पी आर शिवकुमार और वी एस रवि ने कहा कि यदि यह जोड़ा हिंदू रिवाजों के अनुसार शादी करना चाहता है तो पुरुष को हिंदू धर्म अपनाना चाहिए और यदि महिला ईसाई रिवाजों के अनुसार शादी करना चाहती है तो उसे ईसाई धर्म ग्रहण करना चाहिए.

अगर वे दोनों बिना धर्मपरिवर्तन के अपनाअपना धर्म बनाए रखना चाहते थे तो विकल्प के रूप में उन की शादी विशेष विवाह अधिनियम 1954 के तहत पंजीकृत करानी चाहिए थी.

याचिका दाखिल किए जाने के बाद अदालत में पेश की गई महिला ने अदालत को बताया कि उस ने पलानी में एक मंदिर में शादी की थी. इस पर अदालत ने कहा कि यदि पुरुष ने धर्मपरिवर्तन नहीं किया है तो हिंदू कानून के अनुसार, शादी वैध कैसे हो सकती है.

इसी तरह विवाह के ईसाई कानून 1872 के भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम द्वारा शासित मामले में सुप्रीम कोर्ट का एक अहम फैसला आया था. फैसले के अनुसार, पर्सनल ला के तहत चर्च से दिए गए तलाक वैध नहीं होंगे. अदालत ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि क्रिश्चियन पर्सनल ला, इंडियन क्रिश्चियन मैरिज एक्ट 1872 और डायवोर्स एक्ट 1869 को रद्द कर प्रभावी नहीं हो सकता.

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की उस दलील को मान लिया जिस में 1996 के सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का हवाला दिया गया था कि किसी भी धर्र्म के पर्सनल ला देश के वैधानिक कानूनों पर हावी नहीं हो सकते. यानी, कैनन ला के तहत तलाक कानूनी रूप से मान्य नहीं होगा.

सुप्रीम कोर्ट ने उस जनहित याचिका को खारिज कर दिया जिस में चर्च से मिले तलाक को कानूनी मान्यता दिए जाने की मांग की गई थी. याचिका में कहा गया था कि चर्च से मिले तलाक पर सिविल कोर्ट की मुहर लगनी जरूरी न हो.

दरअसल, मंगलौर के रहने वाले क्लेंरैंस पायस की इस जनहित याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने विचारार्थ स्वीकार कर लिया था. ईसाइयों के धर्मविधान के अनुसार, कैथोलिक ईसाइयों को चर्च की धार्मिक अदालत में पादरी द्वारा तलाक या अन्य डिक्रियां दी जाती हैं.

सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता की ओर से कहा गया था कि चर्च द्वारा दी जाने वाली तलाक की डिक्री के बाद कुछ लोगों ने जब दूसरी शादी कर ली तो उन पर बहुविवाह का मुकदमा दर्ज हो गया. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट घोषित करे कि कैनन ला यानी धर्मविधान में चर्च द्वारा दी जा रही तलाक की डिक्री मान्य होगी और उस पर सिविल अदालत से तलाक की मुहर जरूरी नहीं है.

बहुचर्चित शाहबानो को भी धार्मिक कानून की ज्यादती की शिकार बनना पड़ा. तलाकशुदा शाहबानो जब सुप्रीम कोर्ट गई तो उसे निर्वाह राशि मिल गई. सर्वाेच्च न्यायालय ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत अधिकार को मान्यता दी. मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम मामले में इंदौर की रहने वाली 62 वर्षीय शाहबानो को उस के पति मोहम्मद अहमद ने 1972 में तलाक देने के बाद केवल मामूली सी मेहर की रकम वापस की थी. शाहबानो ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई तो कोर्ट ने धारा 125 के तहत फैसला सुनाते हुए मोहम्मद अहमद खान को शाहबानो को खानाखर्च देने का फैसला सुनाया पर कट्टरपंथी मुसलिम संगठनों ने इसे शरीयत कानून में दखल मानते हुए तब की राजीव गांधी सरकार पर दबाव बनाया. परिणामस्वरूप, राइट टू प्रोटैक्शन औन डिवोर्स-1986 कानून बना कर फैसला बदल दिया गया.

 अगर केंद्र सरकार ने दृढ़ता दिखाई होती तो इसलामिक कानूनों के जरिए महिलाओं के शोषण का मामला सालों पहले ही सुलझ गया होता पर सरकार कट्टरपंथियों के आगे झुक गई.

केंद्र सरकार मुसलिम महिलाएं (तलाक के अधिकार) बिल-1986 ले कर आई जो कि सुप्रीम कोर्ट के नियमों को बदल कर मुसलिम महिलाओं को बाकी सभी महिलाओं के अधिकारों से वंचित करता था.

अवैध विवाह

1985 में सरला बनाम यूनियन औफ इंडिया एवं अन्य का मामला सामने आया था. सरला मुद्गल सहित कई अन्य औरतों ने दूसरी शादी करने की मंशा से पुरुषों द्वारा धर्मपरिवर्तन के मामलों को चुनौती दी थी. मीना माथुर के पति जितेंद्र माथुर ने मीना को तलाक दिए बिना इसलाम धर्म स्वीकार कर मुसलिम औरत से शादी कर ली थी. 1992 में गीता रानी के पति प्रदीप कुमार ने भी इसलाम स्वीकार कर दूसरी शादी कर ली थी.

इन सभी याचिकाओं में ऐसे मामलों में रोक लगाने की सुप्रीम कोर्ट से गुहार की गई. इन मामलों में न्यायाधीश कुलदीप सिंह की पीठ ने भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत फैसला सुनाते हुए पहली बार पत्नी को तलाक दिए बिना विवाह को अवैध करार दिया था. जस्टिस कुलदीप सिंह ने कहा था कि इस तरह के मामलों पर रोक के लिए अनुच्छेद 44 पर विचार करना चाहिए.

एक एडवोकेट लिली थौमस ने वर्ष 2000 में दूसरी शादी के मकसद से इसलाम कुबूल करने को गैरकानूनी करार देने और हिंदू मैरिज एक्ट में ऐसा संशोधन करने के लिए याचिका डाली थी जिस से कि इसलाम को कुबूल कर लोग हिंदू धर्म के अनुसार ब्याहता को धोखा न दे सकें.

कुछ समय पहले हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के बेटे चंद्रमोहन द्वारा इसलाम धर्म अपना कर दूसरी शादी करने का मामला सामने आया था. चंद्रमोहन ने अनुराधा बाली नाम की एक महिला से शादी करने के लिए धर्म बदल लिया और अपना नाम चांद मोहम्मद कर लिया. अनुराधा बाली का नाम फिजा रखा गया. चंद्रमोहन के इस कदम से परिवार के लोग नाराज हुए और उन से रिश्ता तोड़ कर दूरी बना ली. चंद्रमोहन को संपत्ति से वंचित भी कर दिया गया.

बाद में परिवार के बढ़ते दबाव के चलते चंद्रमोहन ने फिजा को तलाक दे दिया और वापस हिंदू धर्म अपना लिया. उधर तलाक दिए जाने से नाराज अनुराधा बाली ने फरवरी 2009 में चंद्रमोहन के खिलाफ बलात्कार, धोखाधड़ी और मानहानि का मामला दर्ज कराया था. हालांकि, बाद में 16 अगस्त, 2012 को फिजा की लाश सड़ीगली अवस्था में उस के घर में मिली थी.

भारत में शादियां सदियों पुरानी धार्मिक किताबों, सड़़ेगले रीतिरिवाजों और रूढि़वादी परंपराओं व उन पर बने कानूनों से होती आ रही हैं. हर धर्म का अपना पर्सनल ला है जिस के अंतर्गत विवाह संपन्न होते हैं. विवाह के इन कानूनों में पतिपत्नी के बीच पंडा, पादरी, मुल्ला और परंपराएं अनिवार्य अंग हैं. विवाह को संस्कार माना गया है, करार नहीं.

पर्सनल धार्मिक कानूनों ने विवाह नाम की संस्था की नींव खोखली कर दी है. विवाह में धर्म की फुजूल उपस्थिति ने औरत की मरजी को हाशिए पर धकेल दिया है. उस के साथ भेदभाव, असमानता, कलह, हिंसा के रास्ते खोल दिए गए. सीधेसीधे 2 मनुष्यों के बीच एक करार के बजाय विवाह को अनावश्यक बाहरी आडंबरों का आवरण ओढ़ा दिया गया.

अब धीरेधीरे कई मामले सामने आ रहे हैं जिन में या तो औैरत ऐसे आवरण को उतार कर फेंक रही है या रूढि़यों से बगावत कर रही है.

साथ ही साथ, सुप्रीम कोर्ट पर्सनल ला को स्त्रियों के लिए अन्याय, शोषण का जरिया नहीं बनने देने के निर्णय सुना रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने हाल में कुछ ऐसे ही फैसले किए हैं या ऐसे मामले संविधान पीठ को सौंपे हैं.

धर्म के नाम पर बने कानून के माध्यम से कैसे एक औरत की जिंदगी न केवल बरबाद की जा सकती है, उसे मरने पर मजबूर भी किया जा सकता है.

तीन तलाक का मामला भी धर्म पर आधारित एकपक्षीय था. इस में औरत का पक्ष सुने बिना उसे त्याग देने का एकतरफा फैसला न्याय के सिद्घांत का खुला उल्लंघन था.

औरतों के साथ भेदभाव को ले कर सुप्रीम कोर्ट ने समयसमय पर न सिर्फ टिप्पणियां की हैं, सरकार को इस दिशा में निर्देश भी दिए हैं. फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि यह बहुत ही आवश्यक है कि सिविल कानूनों से धर्म को बाहर किया जाए.

मई 1995 को एक सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता को अनिवार्य रूप से लागू किए जाने पर जोर दिया था. कोर्ट का कहना था कि इस से एक ओर जहां पीडि़त महिलाओं की सुरक्षा हो सकेगी, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय एकता बढ़ाने के लिए भी यह आवश्यक है.

कोर्ट ने उस वक्त यहां तक कहा था कि इस तरह के किसी समुदाय के निजी कानून स्वायत्तता नहीं, अत्याचार के प्रतीक हैं. भारतीय नेताओं के द्विराष्ट्र अथवा तीन राष्ट्रों के सिद्धांत को कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया. भारत एक राष्ट्र है और कोई समुदाय मजहब के आधार पर स्वतंत्र अस्तित्व का दावा नहीं कर सकता.

जब भी धार्मिक पर्सनल कानूनों में बदलाव की बात उठती है, हर धर्म के ठेकेदार इसे धर्म में दखलंदाजी करार देते हुए धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला बता कर विरोध पर उतर आते हैं. इन कानूनों में महिलाओं के साथ असमानता, भेदभाव व्याप्त हैं.

अलग धर्म, अलग रीतियां

हमारे देश में अलगअलग धर्मों के  लोग रहते हैं. यहां हर समुदाय के अपने पर्सनल ला हैं. हिंदू मैरिज एक्ट, क्रिश्चियन मैरिज एक् ट 1872, इंडियन डिवोर्स एक्ट 1869, भारतीय उत्तराधिकार नियम 1925. इसी तरह पारसी मैरिज ऐंड डिवोर्स एक्ट 1936, यहूदियों का मैरिज एक्ट है. इन के उत्तराधिकार और संपत्ति कानून भी अलग हैं. मुसलमानों के भी ऐसे ही हैं. हालांकि सभी कानूनों में समयसमय पर सुधार होते रहे हैं लेकिन मुसलिमों का शरीयत कानून तो करीब 100 वर्षों से वैसा ही है.

रूढि़वादी समाज में धर्म जीवन के हर पहलू को संचालित करता रहा है. आज भी धार्मिक रीतिरिवाज वैवाहिक कानूनों के आवश्यक हिस्से हैं. हिंदू विवाह में वैवाहिक वेदी, सप्तपदी, कलश, पंडित और मंत्र जरूरी हैं. दूसरे धर्मों में पादरी जैसे धार्मिक बिचौलिए की उपस्थिति आवश्यक है.

पौराणिक काल से हिंदुओं में विवाह को एक पवित्र संस्कार माना गया है और हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में भी इस को इसी रूप में बनाए रखने की कोशिश की गई. हालांकि विवाह पहले पवित्र एवं अटूट बंधन था, अधिनियम के अंतर्गत ऐसा नहीं रह गया. पवित्र एवं अटूट बंधन वाली विचारधारा अब शिथिल पड़ने लगी है. अब यह जन्मजन्मांतर का बंधन नहीं, विशेष परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर वैवाहिक संबंध को तोड़ा भी जा सकता है.

शारीरिक व मानसिक निर्दयता, 2 वर्षों तक त्याग, रतिज रोग, परपुरुष या परस्त्री गमन, धर्मपरिवर्तन, पागलपन, कुष्ठ रोग, संन्यास जैसी दशा में संबंध विच्छेद हो सकता है. स्त्रियों को द्विविवाह, बलात्कार, पशुमैथुन, अप्राकृतिक मैथुन जैसे आधार पर संबंध विच्छेद करने का अधिकार प्राप्त है.

अधिनियम द्वारा अब हिंदू विवाह प्रणाली में कई परिवर्तन हुए हैं. अब हर हिंदू स्त्रीपुरुष दूसरे हिंदू स्त्रीपुरुष से विवाह कर सकता है चाहे वह किसी जाति का हो. एक विवाह तय किया गया है, दूसरा विवाह अमान्य एवं दंडनीय है. न्यायिक पृथक्करण, संबंध विच्छेद तथा विवाह शून्यता की डिक्री की घोषणा की  व्यवस्था की गई है. प्रवृत्तिहीन तथा असंगत विवाह के बाद और डिक्री पास होने के बीच उत्पन्न संतान को वैध घोषित कर दिया गया है पर इस के लिए डिक्री का पास होना आवश्यक है.

न्यायालय पर यह वैधानिक कर्तव्य नियत किया गया है कि हर वैवाहिक झगड़े में समाधान कराने का प्रथम प्रयास किया जाए. बाद में संबंध विच्छेद पर निर्वाह व्यय एवं निर्वाह भत्ता की व्यवस्था की गई है. न्यायालय को इस बात का अधिकार दिया गया है कि वह अवयस्क बच्चों की देखरेख एवं भरणपोषण की व्यवस्था करे.

इस के बावजूद हिंदुओं में विवाह को अब भी संस्कार माना जाता है, जन्मजन्मांतर का बंधन माना जाता है. पर अब विवाह में लड़ाई, झगड़ा, शोषण भी दिखता है, हत्याएं भी होती हैं. पतिपत्नी में एकदूसरे को नीचा दिखाने की होड़ भी चलती है. विवाह होने पर युवती अपने पिता का घर छोड़ती है, वह अपने मांपिता को ही नहीं, अपना गोत्र, सरनेम और अपनी तरुणता भी छोड़ती है.

समान नागरिक संहिता की मांग

पर्सनल कानूनों में धर्म के आधार पर भेदभाव की वजह से समयसमय पर समान नागरिक कानून की  मांग की जाती रही है. कई बार सुप्रीम कोर्ट के सामने भी ऐसी स्थिति आई जब सरकार से जवाब मांगना पड़ा. समान नागरिक संहिता के निर्माण की मांग 1930 के दशक में उठाई गई थी और बी एन राव की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई. समिति ने 1944 में हिंदू कोड से संबंधित मसविदा सरकार को सौंपा था पर कोई कार्यवाही नहीं की गई.

आजादी के बाद अंबेडकर की अध्यक्षता वाली समिति ने हिंदू कोड बिल में विवाह की आयु बढ़ाने, औरतों को तलाक का अधिकार देने के साथ दहेज को स्त्रीधन मानने के सुझाव दिए थे.

समान नागरिक संहिता की वकालत करने वालों का दावा है कि यह आधुनिक और प्रगतिशील देश का प्रतीक है. इसे लागू करने से देश धर्म, जाति, वर्ग के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा.

समान नागरिक संहिता के पक्षधर लोगों की दलील है कि एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश में प्रत्येक नागरिक के लिए कानूनी व्यवस्थाएं समान होनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट का बारबार तर्क रहा है कि कानून बनाना सरकार का काम है, इसलिए कोई इस में हस्तक्षेप नहीं कर सकता. न ही सरकार को कानून बनाने का आदेश दिया जा सकता है पर अगर कोई पीडि़त सुप्रीम कोर्ट जाता है तो कोर्ट को उस पर सुनवाई करनी पड़ती है.

हिंदू विवाह कानून 1955 में लागू हुआ था और अब तक इस में कई संशोधन हो चुके हैं.

पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था विवाह नामक संस्था में पत्नी को पति के बराबर आर्थिक अधिकार देने से रोकती रही है. औरतों के प्रति ऐसी सामाजिक जड़ता की कीमत उन्हें ही सब से अधिक चुकानी पड़ती है. दहेज के नाम पर औरतों से उन का संपत्ति से अधिकार छीन लिया गया. ब्रिटिश शासन के दौरान भूमि बंदोबस्त अभियान व संपत्ति संबंधी कानूनों में बहुत से स्त्रीविरोधी फेरबदल किए गए.

इस का मतलब है कि समाज में आज भी यह धारणा मजबूत है कि शादी होने के बाद लड़की पराई हो जाती है. मायके में वह मेहमान बन कर रह जाती है.

पैतृक संपत्ति में भले ही उसे कानूनन हक हासिल हो गया है पर इस का  इस्तेमाल कितनी महिलाएं करती हैं? सामाजिक तानेबाने की जकड़न व अपने हकों को मांगने वाली जागरूकता की कमी बड़ी बाधाएं हैं.

विवाह और भाग्यवाद

धर्म के बिचौलियों को विवाह के ज्यादा अधिकार दे दिए गए. धर्र्म पर आधारित कानूनों की जंजीरों से आजादी का एकमात्र रास्ता यह है कि विवाह धार्मिक बंधनों से मुक्त हों.

विवाह की बात आती है तो अकसर कहा जाता है कि जोड़ी ऊपर से बन कर आती है. वैवाहिक जीवन भाग्य पर छोड़ दिया गया है.

हालांकि पहले नानी, दादी, ताई, चाची सिखाती थीं पर उन बातों में व्यावहारिकता कम जबकि सेवा, पूजा, भक्ति की बातें अधिक होती थीं. मसलन, पति को परमेश्वर बताया गया. पत्नी उस की दासी बन कर सेवा करने का हुक्म दिया गया. बच्चे पैदा करना और गृहस्थ संभालना कर्तव्य माना गया. इस तरह की बातें इसलिए सिखाईर् जाती रही हैं ताकि धर्म के धंधेबाजों का रोजगार चलता रहे.

दिक्क्त यह है कि समाज का बड़ा तबका विवाह, तलाक और उत्तराधिकार जैसे मामलों को धर्म से जोड़ कर देखता है. कानूनों में धार्मिक दखलंदाजी की वजह से महिलाओं के बीच आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा में बढ़ोतरी होती जा रही है.

दरअसल, विवाह एक करार है. पतिपत्नी दोनों एकदूसरे के पूरक हैं, यह बात समाज ने उन्हें नहीं सिखाई. वैवाहिक जीवन को ले कर व्यावहारिक बातें सिखाई जानी बहुत जरूरी हैं. अफसोस यह है कि विवाह संस्था को चलाने के लिए ठोस नियमकायदे और टे्रनिंग देने वाली कोई संस्था नहीं है.           

कन्यादान क्यों

धार्मिक अनुष्ठान के बाद कन्या का पिता विवाह संपन्न होने की कीमत के तौर पर अपनी बेटी को दान कर देता है. क्यों? 

लिंगभेद हर कानून में है. कानूनन वैवाहिक स्थिति में स्त्री की सुरक्षा का विशेष खयाल रखा गया है. वैवाहिक मुकदमों की प्रकृति देखें तो अकसर वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष पर दहेज प्रताड़ना, शारीरिक शोषण और पुरुष के परस्त्री से अवैध संबंध, मानसिक प्रताड़ना जैसे मामले देखे गए हैं.

असल में स्त्री के प्रति जो सामाजिक सोच बनी हुई है उस से उसे बचाने के लिए कानून में सुरक्षा देने का प्रयास किया गया. वैसे, कई बार अदालत में यह भी साबित हुआ है कि वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष को तंग करने के लिए अकसर दहेज के मामले दर्ज कराए जाते हैं. तिहाड़ जेल के महिला सेल में छोटे से बच्चे से ले कर 80-90 साल तक की वृद्धा दहेज प्रताड़ना के आरोपों में बंद हैं.

दहेज का मतलब विवाह के समय वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष को दी जाने वाली संपत्ति से है. दहेज को स्त्रीधन कहा गया है. विवाह के समय सगेसंबंधियों द्वारा दिया गए धन, संपत्ति एवं उपहार दहेज के अंतर्गत आते हैं. अगर विवाह के बाद पति या  उस के परिवार वालों द्वारा दहेज की मांग को ले कर दूसरे पक्ष को किसी प्रकार का कष्ट, संताप या प्रताड़ना दी जाएं तो स्त्री को यह अधिकार है कि वह उस दहेजरूपी संपत्ति को पति पक्ष से वापस ले ले.

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 27, स्त्री को इस प्रकार की सुरक्षा प्रदान करती है. 1985 में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश फाजिल अली ने अपने एक फैसले में कहा था कि स्त्रीधन एक स्त्री की अपनी संपत्ति है. यह संपत्ति पति पक्ष पर पत्नी की धरोहर है और उस पर उस का पूरा अधिकार है. इस का उल्लंघन करना दफा 406 के तहत अमानत में खयानत का अपराध है.

पर सवाल है कि आखिर लड़की को विवाह के समय यह दहेज क्यों दिया जाए?

मैं 21 वर्षीय लड़की हूं. मेरी समस्या यह है कि मेरा ऊपर वाला होंठ नीचे वाले होंठ से काला है. कृपया बताएं कि मैं क्या करूं.

सवाल

मैं 21 वर्षीय लड़की हूं. मेरी समस्या यह है कि मेरा ऊपर वाला होंठ नीचे वाले होंठ से काला है. कृपया बताएं कि मैं क्या करूं जो ऊपर वाले होंठ का रंग भी नीचे वाले होंठ के जैसा हो जाए?

जवाब

आप अपने होंठों पर गुलाब की पत्तियों को पीस कर शहद के साथ मिला कर लगाएं. होंठों पर प्रतिदिन नारियल तेल भी लगा सकती हैं. इस के अलावा आप लैवेंडर औयल से होंठों पर धीरेधीरे मसाज करें. वैसलीन का प्रयोग भी नियमित करें. कुछ दिन ऐसा करने पर जरूर फायदा होगा.

स्किन टोन के लिए कैसा फाउंडेशन रहेगा परफेक्ट

रंग हमारे जिंदगी के हर पहलुओ से जुड़े होते है, रंग ही तो हैं जो आपको खुशनुमा अहसास दिलाते हैं. आपके फैशन से लेकर मेकअप तक ये रंग बेहद ही खास भूमिका निभाते हैं. त्वचा की रंगत के हिसाब से सही रंग के कास्मेटिक्स का चयन आपके लुक में चार चांद लगा सकता है. खूबसूरत दिखने के लिए कास्मेटिक्स का सही चयन करना उतना ही जरूरी है जितना इन्हें सही तरीके से लगाना. फाउंडेशन के चयन के लिए त्वचा की रंगत एक प्रमुख आधार है तो आइए जानते हैं कि आपके लिए किस तरह का फाउंडेशन सही रहेगा.

फेयर कलर

अगर आप गोरी हैं और आपका गोरापन लालिमा लिए हुए है तो रोजी टिंट युक्त बेज कलर टोन वाला फाउंडेशन आपके ऊपर अच्छा दिखेगा. साथ ही आप आरेंज शेड का फाउंडेशन भी इस्तेमाल कर सकती हैं. वहीं अगर आपका गोरापन सुनहरी यानी कि गोल्डन रंगत लिए हुए है तो बेज या बिस्किट कलर टोन वाले फाउंडेशन का इस्तेमाल करें.

व्हीटिश

ज्यादातर भारतीय महिलाओं की रंगत ऐसी ही होती है. अगर आप भी इसी श्रेणी में आती हैं तो हल्के रंग का फाउंडेशन लगाने से बचें और अपनी त्वचा के रंग से मेल खाते हुए वाटर बेस्ड फाउंडेशन का इस्तेमाल करें.

डस्की/आलिव

ब्राउनिश बेज शेड का फाउंडेशन डस्की रंगत वाली त्वचा पर अच्छा लगता है और यह आपकी त्वचा पर निखार लाता है. डार्क पिंक या ब्राउन शेड्स का ब्लशर आप पर अच्छा लगेगा. इससे आपकी स्किन में ग्लो आएगा. मोव और लाइट पिंक जैसे कलर्स का ब्लशर लगाने से बचें. ब्रान्जर का इस्तेमाल एकदम न करें.

डार्क टोन

इस तरह की रंगत पर लाइट का अत्यधिक रिफ्लेक्शन होता है जिसके चलते यह आयली नजर आती है. इसलिए अगर आपकी त्वचा का टोन डार्क यानि गहरा है तो आप अपनी त्वचा की रंगत से मेल खाता हुआ फाउंडेशन ही चुनें साथ ही क्रीमी की जगह लिक्विड फाउंडेशन का इस्तेमाल करिये.

आपने देखा राधिका आप्टे और सोनम कपूर के साथ अक्षय का ये अलग अंदाज

‘पैडमैन’ अगले साल 26 जनवरी में रिलीज होने वाली है. ट्विंकल खन्ना के प्रोडक्‍शन हाउस की इस पहली फिल्‍म ‘पैडमैन’ में अक्षय कुमार, राधिका आप्‍टे और सोनम कपूर नजर आएंगे. कहा जा रहा है कि इस फिल्म में अक्षय बेहद ही अलग अंदाज मे नजर आने वाले हैं. बता दें कि ‘पैडमैन’ अरुणाचलम मुरुगनंथा नाम के शख्स के जीवन पर आधारित है, जिन्होंने महिलाओं की भलाई के लिए सस्ते दाम पर सैनिटरी नैपकिन बनाए थे.. इस फिल्‍म का निर्देशन, डायरेक्‍टर आर बाल्‍की कर रहे हैं.

ट्विंकल खन्ना और अक्षय ‘पैडमैन’ को लेकर काफी उत्साहित है. फिल्म को अगले साल जनवरी में प्रदर्शित किया जाना है, इससे साफ पता चलता है कि इस फिल्म को रिलीज होने में अब ज्यादा समय शेष नहीं है, ऐसे में अक्षय ने इस फिल्‍म के तीनों किरदारों यानी कि अपनी पत्‍नी का किरदार निभा रही राधिका आप्‍टे और सोनम कपूर के साथ पहला लुक सोशल मीडिया पर जारी किया है.

अक्षय ने सोशल मीडिया पर दो फोटो शेयर किए हैं, जिनमें एक फोटो में वह राधिका आप्‍टे के साथ दिख रहे हैं जो ब्‍लैक एंड वाइट है वहीं अपने दूसरे फोटो में वह सोनम कपूर के साथ दिखाई दे रहे हैं जो कलरफुल फोटो है. इन दोनों ही फोटो में अक्षय दो अलग अलग लुक में दिख रहे हैं. राधिका आप्‍टे के साथ जहां वह देसी अवतार में तो वहीं सोनम कपूर के साथ वह शर्ट-पेंट पहने शहरी लुक में दिखाई दे रहे हैं. इस फोटो में जहां एक ओर राधिका सीधी साधी दिख रहीं है तो वहीं दूसरी तरफ सोनम थोड़ी चंचल स्वभाव की दिख रही हैं. लोग इस फिल्म के पहले लुक को काफी पसंद भी कर रहे हैं.

अक्षय ने अपनी यह फोटो शेयर करते हुए एक कैप्शन भी दिया. इस कैप्शन में उन्होंने लिखा ‘वह कारण, जिसके चलते वह पैडमैन बना.. जानिए 26 जनवरी, 2018 को.’

गौरतलब है कि इसी साल अक्षय की ‘टायलेट: एक प्रेम कथा’ फिल्म  रिलीज हुई है जो काफी सुपरहिट रही. इस फिल्‍म में अक्षय के साथ भूमि पेडणेकर नजर आई थीं. बता दें कि अगले साल अक्षय पैडमैन के अलावा रजनीकांत के साथ फिल्‍म ‘2.0’ में भी नजर आने वाले हैं. इस फिल्‍म में वह पहली बार एक नेगेटिव किरदार में दिखेंगे.

सनी लियोनी बन गईं मर्द, ट्विटर पर शेयर की तस्वीरें

बौलीवुड एक्ट्रेस और मौडल सनी लियोनी के चाहने वालों के लिए एक नई खबर है. उनकी ये चहेती एक्ट्रेस अब खूबसूरत लड़की से लड़का बन गई हैं. लड़का बनने के बाद उन्होंने खुद ही कुछ फोटो और वीडियो को अपने ट्विटर अकाउंट पर शेयर किया है. उनके इस नए लुक को देख आप उन्हें पहचान नहीं सकते हैं.

सनी लियोनी लड़का बनकर इतनी खुश हैं कि उन्होंने ये खुशी अपने फैन्स के साथ शेयर की है. उन्होंने कल एक वीडियो शेयर किया है जिसमें सनी को धीरे-धीरे लड़का बनते देखा जा सकता है. दरअसल सनी ने ये गैटअप अपनी फिल्म के गाने ‘बार्बी गर्ल’ के लिए लिया है. उन्हें ये लुक थौमस मोका ने दिया है. सनी ने लोका की काफी तारीफ भी की है.

शेयर की गई तस्वीरों में सनी छोटे-छोटे बालों और दाढ़ी मूछ के साथ दिख रही हैं. उन्होंने ब्लैक पैंट, टी-शर्ट और जैकेट पहना है. सनी के इस लुक को देख उन्हें पहचानना काफी मुश्किल है. उन्होंने फोटो शेयर करते हुए लिखा, मैं एक आदमी के रूप में और ये मेरी टीम की वजह से हो सका. अजीब है मैं एकदम अपने भाई और पिता की तरह दिख रही हूं.

बता दें सनी बहुत जल्द अपकमिंग फिल्म ‘तेरा इंतजार’ में दिखाई देंगी. इस फिल्म में वह एक्टर अरबाज खान के साथ रोमांस करती नजर आएंगी. इस फिल्म के अब तक दो गाने रिलीज किए जा चुके हैं. पहला गाना ‘खाली खाली दिल’ है. ये एक रोमांटिक सौन्ग था, जिसमें सनी और अरबाज के बीच केमिस्ट्री दिखाई गई है.

इस गाने को दर्शक काफी पसंद कर रहे हैं, वहीं दूसरा गाना एक डांसिंग नंबर था. जिसका टाइटल ‘बार्बी गर्ल’ है. इसी गाने को रीक्रिएट करने के लिए सनी ने लड़कों का गेटअप लिया है. फिल्म राजीव वालिया के निर्देशन में बनाई गई है. ये 24 नवंबर को सिनेमाघरों में रिलीज होनी है.

इस सीरियल में बबीता फोगाट दिखाएंगी दंगल

पहलवान गीता फोगाट के बाद अब छोटी बहन बबीता ने भी चुन ली है टीवी की राह. जी हां, अब गीता के बाद बबीता भी टीवी पर दंगल दिखलाने को तैयार हैं. जैसा कि आप जानती हैं गीता फोगाट ने टेलीविजन पर ‘खतरों के खिलाड़ी’ से डेब्यू किया था और अब बारी उनकी छोटी बहन यानी बबीता फोगाट की है. कामनवेल्थ चैंपियन बबीता फोगाट जल्द ही एंड टीवी के सीरियल ‘बढ़ो बहू’ के साथ अपना एक्टिंग डेब्यू करने जा रही हैं. वह इस सीरियल में लीड किरदार निभा रही रयताशा राठौर यानी कि इस शो की ‘बढ़ो बहू’ के साथ कुश्ती लड़ेंगी और इस सीरियल में वह अपनी निजी जिंदगी से संबंधित बबीता फोगाट का ही किरदार निभाएंगी.

एंड टीवी के सीरियल ‘बढ़ो बहू’ की कहानी हरियाणा बेस्ड है इसलिए बबीता इस सीरियल में आने के लिए काफी उत्सुक हैं और जल्द ही इस शो से एक्टिंग डेब्यू की शुरुआत करना चाहती हैं. बबीता ने एक इंटरव्यू के दौरान अपनी इस उत्सुकता को जाहिर करते हुए बताया कि “बढ़ो बहू” में अपियरेंस का मैं बहुत ही बेसब्री से इंतजार कर रही हूं. मुझे ससुर के अपनी बेटी के टैलेंट को बढ़ावा देने का कान्सेप्ट बेहद पसंद आया. यह प्रगतिशील है. मैं कुश्ती नहीं छोड़ना चाहती हूं. मेरा मानना है कि लड़कियों को खुद को किसी भी मायने में लड़कों से कम नहीं समझना चाहिए. उन्हें आगे बढ़ना चाहिये और अपने हुनर से खुद की पहचान बनानी चाहिए.”  

“बढ़ो बहू” धारावाहिक के निर्माता गीता फोगाट और बबीता फोगाट दोनों ही बहनो को एक साथ शो में लाना चाहते थे. लेकिन अपनी कुछ व्यस्तताओं की वजह से गीता इस शो के लिए उपलब्ध नहीं हो सकीं.

“बढ़ो बहू” शो की प्रोड्यूसर और क्रिएटर दीप्ति कलवानी भी बबीता फोगाट के आने पर काफी खुश हैं और अपनी इस खुशी को जाहिर करते हुए वो कहती हैं, “यह सपने के सच होने जैसा है जब आपका पसंदीदा कैरेक्टर आपके सामने हो. मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं है. मैं तो बस बबीता फोगाट और बढ़ो बहू को एक अखाड़े में देखने का बेहद ही बेसब्री से इंतजार कर रही हूं. उन्होंने मुझे इस शो को लिखने के लिए प्रेरित किया था.”

गौरतलब है कि आमिर खान की ‘दंगल’ गीता और बबीता फोगाट की जिंदगी पर आधारित फिल्म है. इसमें गीता और बबीता को दिखाया गया था. इस फिल्म को दुनियाभर में पसंद किया गया था और इसने लगभग 2,000 करोड़ रु. का कारोबार किया था.

हिजाब हो बेहिजाब

यूरोप व पश्चिमी देशों में इसलामी बुरके को बैन करने की मांग जोर पकड़ रही है. यह सही है. धार्मिक स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि धर्म अपने अंधभक्तों को अलग किस्म की पोशाकें पहनने को मजबूर करे.  हमारे देश में बुरके पर प्रतिबंध की मांग नहीं उठ रही, क्योंकि इसलाम की तरह हिंदू धर्म भी परदे में गहरा विश्वास रखता है. कट्टर हिंदुओं को तो यह भी बुरा लगता है कि आजकल लड़कियों ने चुन्नी भी छोड़ दी और जींस व टौप में खुलेआम घूम रही हैं.

बदन दिखाना जरूरी नहीं है. बदन की सुरक्षा करना हरेक का फर्ज है. आदमी भी केवल लंगोट पहने नहीं घूमते. वे फैशन या धर्म के लिए नहीं, व्यावहारिकता के लिए कमीजपैंट पहनते हैं. लड़कियां भी, चाहे फैशन की दीवानी हों, न शरीर दिखाना चाहती हैं न बोल्ड अदाएं दिखाना चाहती हैं. वे तो बंधन नहीं चाहतीं जो धर्म उन पर थोपता है, जिन की जरूरत नहीं.

मुसलिम औरतें अकसर धर्र्म के आदेश को अपनी निजी पसंद कहने लगती हैं. यह गलत है. यह छलावा है. यह खुद को धोखा देना है और दूसरों को बहकाना है. यह अंधविश्वास के कीचड़ में डूब जाने का कदम है कि कीचड़ की ठंडक से उन्हें असीम सुख मिल रहा है.  बहुत गरीब ही सादगी का गुणगान करते हैं. वे जबरन अपने को बहलाते हैं. हिजाब या बुरका कोई लड़की मन से नहीं पहनती. जैसे हर सफल युवा अपनी सफलता दिखाना चाहता है, वैसे ही हर लड़की अपना सौंदर्य व व्यक्तित्व लोगों को दिखाना चाहती है. 17-18 साल की लड़की पर बुरके या परदे को लादना उस की आजादी में खलल है.

बुरका व परदा धार्मिक अत्याचार का नतीजा है. यह पुरुषों की साजिश है कि कहीं उन की औरतों को देख कर कोई उन्हें उठा न ले जाए. पर यह समस्या औरतों की नहीं, आदमियों की है. अच्छी चीज को ढक दिया जाएगा तो वह सड़ जाएगी, उस पर जाले लग जाएंगे. यही लड़कियों के साथ होता है जो अपने बदन का पूरा उपयोग अपनी बदन ढकने वाली पोशाकों के कारण नहीं कर पातीं. उन्हें इन बंधनों से आजादी मिलनी ही चाहिए.

फैशन के नाम पर अगर बदन दिखाया जाता है तो कपड़े भी तो दिखाए जाते हैं. फिल्मी फैस्टिवलों में ऐक्ट्रैस मीटरों लंबे गाउन पहनती हैं जिन्हें संभालने के लिए  2-2, 3-3 सहायिकाएं चाहिए होती हैं. यह न मूर्खता है न बंदिश. यह आजादी है. बुरका या हिजाब पहनना इस आजादी की हत्या की निशानी है. धर्म और धार्मिक समाज इस तरह हावी हो जाता है कि लड़कियां न केवल इसे पहनती हैं बल्कि इन की हमउम्र न पहनें तो ये हल्ला मचाती भी हैं.  उन्हें रोकने के लिए सरकारी कानून का होना जरूरी है.

यौन संबंध पर बोल्डनैस की जरूरत

गुरमीत राम रहीम सिंह को एक लड़की से लगातार बलात्कार करने पर 20 साल की सजा सुनाई गई है. इस लड़की ने 2002 में एक पत्र लिख कर अधिकारियों, प्रधानमंत्री आदि से गुमनाम शिकायत की थी. उच्च न्यायालय के आदेश पर केंद्रीय जांच ब्यूरो ने उस लड़की को भी खोज लिया और दूसरी अन्य लड़कियों को भी खोज लिया जिन्हें राम रहीम ने बलात्कार का शिकार बनाया था.

लड़कियों का बलात्कार जबरन रात को उठा ले जा कर नहीं किया गया था बल्कि बाबा से माफी मांगने के लिए इन के मातापिता खुद रातरात भर के लिए उन्हें यहां छोड़ जाते थे. ये लड़कियां यौन संबंधों से उस समय खुश होती थीं या नहीं, यह नहीं कह सकते पर बलपूर्वक संबंध बनाए गए, इस के सुबूत नहीं हैं. बहलाफुसला कर, धोखा दे कर, गलत बात कह कर भी यौन संबंध बनाना बलात्कार ही है. हां, जब ऐसा व्यक्ति बलात्कार करने लगे जो लड़की की निगाह में आदर्श है, तो मामला गंभीर हो जाता है.

लड़कियां इतनी आसानी से यौन संबंध बनाने को तैयार क्यों हो जाती हैं, यह एक पहेली ही रहेगी. गुरमीत सिंह ही नहीं, सभी धर्मों के स्वामियों के इर्दगिर्द लड़कियां मंडराती रहती हैं. वे क्या सुख चाहती हैं और कौन सी तुष्टि उन्हें मिलती है?

यौन संबंध बनाना कोई सीखता नहीं है. यह तो प्रकृति की देन है. इस से बच तो कोई नहीं सकता. अफसोस यह है कि सभ्यता के आने के बाद अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी समाज ने लड़कियों पर डाल दी है. अगर वे एक पुरुष का संरक्षण चाहती हैं तो वे खुद एक पुरुष के खूंटे में बंध कर रहें और वह पुरुष, चाहे जितनी कुंआरियों या विवाहिताओं, विधवाओं के साथ संबंध बनाता रहे.

बलात्कार के बारे में लड़कियों को यही शिक्षा दी जाती है कि एक बार कुछ हो गया तो मुंह दिखाने मत आना. इसीलिए यौन संबंध चाहे प्रेम, भक्ति, आत्मसमर्पण, यौनसुख के लिए स्थापित हुए हों या जबरन, लड़कियां इस बारे में घर में चर्चा नहीं करतीं. वे इस बात को छिपाती हैं, क्योंकि समाज के नियमों से बंधे मातापिता सह नहीं पाएंगे.

यह सीख बलात्कार या विवाहपूर्व यौन संबंध को बढ़ावा ही देती है जिस में नुकसान लड़कियों का ही होता है. 21वीं सदी में औरतें आज उसी तरह वर्जिनिटी से सच्चरित्र मानी जाती हैं जैसी 2,500 वर्ष पूर्व. बलात्कार हुआ, इस बात को लड़की अगर अगली सुबह या जब मरजी चाहे खुल कर कह सके तो पुरुषों में इतना बल नहीं रहेगा कि वे लड़कियों को जबरन या फुसला कर बिस्तर तक ले जाएं.

राम रहीम नाम रख कर कोई दूध का धुला नहीं हो जाता, इस बलात्कार के मामले ने यह एक बार और साबित कर दिया है. यह लड़कियों पर है कि वे हिम्मत रखें और यौन संबंध सहर्ष स्वीकारें चाहे वह इच्छा से स्थापित हुए हों या अनिच्छा से.

सपना व्यास ने बताया फैट टू फिट होने का कारण, देखें हौट तस्वीरें

इन दिनों सोशल साइट्स पर कई मौडलों ने अपनी तस्वीरों से तहलका मचाया हुआ है. लेकिन आज हम बात कर रहे हैं उस इन्स्टाग्राम मौडल की जो खुद एक फिटनेस ट्रेनर है और इन दिनों सोशल मीडिया पर अपने हौट फिगर से सनसनी मचाये हुए हैं. जी हां आज हम बात कर रहे हैं सपना व्यास की जो इन दिनों अपनी तस्वीरों की वजह से सुर्खियों में छाई हुई हैं. आपको बता दें की सपना अक्सर ही अपनी कई तस्वीरें अपलोड करती रहती है.

सपना व्यास इतनी ज्यादा खूबसूरत हैं कि इनके सामने अच्छी अच्छी एक्ट्रेस भी फीकी पड़ जाती हैं. इंटरनेट पर इनकी तस्वीरों को लाइक, कमेंट तथा शेयर किया जा रहा है और वो भी तेजी से. लोगों का मानना है कि जल्दी ही सपना किसी बौलीवुड फिल्म में नजर आ सकती हैं.

सपना व्‍यास पटेल गुजरात के पूर्व हेल्‍थ मिनिस्‍टर जयनारायण व्यास की बेटी हैं. तो पूर्व मंत्री जी की इस बेटी की सोशल मीडिया पर धूम है. सपना फिटनेस ट्रेनर है. इंस्‍टाग्राम पर उन्‍हें 10 लाख यानी एक मिलियन से ज्‍यादा लोग फौलो करते हैं. आइये एक नजर डालतें हैं सपना व्यास की कुछ खास तस्वीरों पर और जानतें हैं इनके बारे में कुछ खास बातें.

इसमें कोई दोराय नहीं है कि सपना बेहद खूबसूरत हैं. फिटनेस ट्रेनर हैं, लिहाजा उनकी बौडी टोन्‍ड है. लेकिन उनके फिटनेस फ्रीक होने और दूसरों के लिए आइडल बनने की कहानी किसी फिल्‍म से कम नहीं है. इंस्‍टाग्राम पर आज जिस सपना व्‍यास के फैशन सेंस के चर्चे होते हैं. जिस सपना व्‍यास पटेल के यूट्यूब चैनल को देख लोग जिम और घर में घंटों पसीना बहाते हैं. कभी वह टीवी पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन की तरह ही बेडौल शरीर की मालकिन हुआ करती थीं.

जी हां, शायद आपको यकीन ना हो लेकिन 10 नवंबर 1989 को जन्‍मी सपना कभी 86 किलो की हुआ करती थीं. यही नहीं, तब उनकी उम्र महज 19 साल थी. सपना बताती हैं, ‘मैं लोगों के ताने सुन सुनकर तंग आ चुकी थी. मैं कोई अच्‍छी ड्रेस नहीं पहन पाती थी. लेकिन एक घटना ने मेरी जिंदगी बदल दी. सपना आगे कहती हैं, ‘मैं अपने भतीजे के साथ आइसक्रीम पार्लर गई थी. मैं 19 साल की थी और वहां किसी ने मुझे बच्‍चे की मां समझ लिया. मुझे बहुत दुख हुआ और मैंने खुद को बदलने की ठानी.

गुजरात के अहमदाबाद की रहने वाली सपना अब 55 किलो की हैं. हालांकि जब उन्‍होंने वेट ट्रेनिंग शुरू की थी, तब अपना वजन 33 किलो तक घटाया था. सपना ने डाइट कंट्रोल कर कार्डियो एक्सरसाइज के साथ-साथ वेट ट्रेनिंग और टेनिस खेलकर अपना वजन किया है.

सपना के मुताबिक, वजन कम करने के लिए जिम जाकर पैसे खर्च करने की जरूरत नहीं है. यदि मन में लगन हो और नियमित तौर पर एक्‍सरसाइज किया जाए तो इसे आसानी से घर पर भी किया जा सकता है.

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