Sad Story 2025 : पति की बेवफाई

Sad Story 2025 : पति की बेवफाईशादी का जब वह निमंत्रण आया था, पूरे घर में हंगामा मच गया था. मां बोली थीं, ‘‘अब यह नया खेल खेला है कम्बख्त ने. पता नहीं क्या गुल खिलाने जा रही है. जरूर इस के पीछे कोई राज है वरना 2 बेटों के रहते कोई इतना बड़ा बेटा गोद लेता है? अब उस की शादी रचाने जा रही है.’’

बड़े भैया राकेश बोले थे, ‘‘आप की और वीरेश की सहमति होगी तभी तो उस ने बाप की जगह वीरेश का नाम छपवाया है.’’

मां ने प्रतिवाद किया, ‘‘अरे कैसी सहमति? तुम्हारे पापा की तेरहवीं पर बताया था कि राहुल को बेटे जैसा मानने लगी है. हम तो उसे ड्राइवर समझते थे. बरामदे में ही चाय भिजवा दिया करते थे.’’

‘‘क्या बात करती हैं?’’ राकेश बोले, ‘‘राहुल हर वक्त साथसाथ रहता है नीरू के. सारा बिजनैस देखता है. बैंक अकाउंट तक उस के नाम है. आप ने ही तो बताया था.’’

‘‘अरे कहती थी कि भागदौड़ के लिए ही रखा है उसे. अकेली औरत क्याक्या करे. अब क्या पता था कि बाकायदा बेटा बना लेगी उसे.’’

‘‘तो नुकसान क्या है? आप समझ लीजिए 3 पोते हैं आप के,’’ बड़े भैया ने बात को हलका करना चाहा, ‘‘वीरेश आए तो उस से पूछिएगा.’’

महत्त्वाकांक्षी नीरू को घर से गए

8 साल हो गए थे. 14 और 10 साल के सुधांशु और हिमांशु को छोड़ कर जब उसे जाना पड़ा था तब घर का वातावरण काफी विषाक्त हो चुका था. लगने लगा था कि कभी भी कुछ अवांछनीय घट सकता है.

वीरेश शुरू से ही मस्तमौला किस्म का इंसान रहा है. घूमनाफिरना, सजनासंवरना, नाचनागाना यही शौक थे बचपन से. घर का लाड़ला, मां का दुलारा. मस्तीमस्ती में एमए कर के गाजियाबाद में ही नौकरी भी ढूंढ़ ली. जबकि बड़ा बेटा राकेश सरकारी नौकरी में गाजियाबाद से बाहर ही रहा.

इस से भी मां का लाड़ वीरेश पर कुछ ज्यादा बरसा. पैसे की कमी नहीं थी. पिताजी की पैंशन और पैतृक मकान के 2 हिस्सों का किराया नियमित आमदनी थी. वीरेश धीरेधीरे लापरवाह होने लगा. एक नौकरी छूटी, दूसरी ढूंढ़ी. कभी इस सिलसिले में घर भी बैठना पड़ता. पिताजी भुनभुनाते, ‘कहीं बाहर  क्यों नहीं एप्लाई करते हो?’

मां फौरन बोलतीं, ‘एक बेटा तो  बाहर ही रहता है. यह यहीं रहेगा. नौकरियों की कमी है क्या?’

पिताजी चिल्लाते, ‘घरघुस्सा होता जा रहा है. जाहिल भी हो गया है. 9 बजे से पहले सो कर नहीं उठता. 3-4 कप चाय पीता है, तब इस की सुबह होती है. 11 बजे नौकरी पर जाएगा तो कौन रखेगा इसे? कितनी अच्छीअच्छी नौकरियां छोड़ दीं. मैं कब तक खिलाऊंगा इसे?’

पर वीरेश पर असर नहीं होता. मां बचाव करतीं, ‘शादी हो जाएगी तो सब ठीक हो जाएगा.’

‘कौन देगा इस निखट्टू को अपनी लड़की?’ पिताजी हथियार डाल देते.

लेकिन सुंदर चेहरेमोहरे वाला निखट्टू वीरेश प्रेम विवाह कर पत्नी ले आया. नीरू सुंदर थी. शादी के बाद वीरेश और लाटसाहब हो गया. अब शाम को कभीकभार डिं्रक्स भी लेने लगा. शुरूशुरू में तो नीरू को अच्छा लगा पर जब वीरेश घूमनेफिरने, पिक्चर वगैरह के लिए भी मां से रुपए मांगता तो उसे बुरा लगता. वीरेश नौकरी करता पर 6 महीने या साल भर से ज्यादा नहीं. कभी निकाल दिया जाता, कभी खुद छोड़ आता. कभी नौकरी जाने के गम में, कभी नौकरी मिलने की खुशी में, कभी किसी की सालगिरह पर, मतलब यह कि बेमतलब के बहानों से शराब पीना बढ़ता गया. 5 साल में 2 बेटे भी हो गए.

बड़े भैया होलीदीवाली आते भी तो मेहमान की तरह. कभी वीरेश को समझाने की कोशिश करते तो बीच में फौरन मां आ जातीं, ‘तुम सभी उस बेचारे के पीछे क्यों पड़े रहते हो? अब उस का समय ही खराब है तो कोई क्या करे? कोई ढंग की नौकरी मिलती ही नहीं उसे. तेरी तरह सरकारी नौकरी में होता तो यह सब क्यों सुनना पड़ता उसे?’

‘क्यों, सरकारी नौकरी में काम नहीं करना पड़ता है क्या? मेरा हर 3 साल में ट्रांसफर होता है. कितनी परेशानी होती है. मकान ढूंढ़ो, बच्चों का नए स्कूल में ऐडमिशन करवाओ. बदलता परिवेश, बदलते लोग. आसान नहीं है सरकारी नौकरी. इन का क्या है? ठाट से घर में रहते हैं. खिलाने को आप लोग हैं. जब बैठेबैठे खाने को मिले तो कोई क्यों करे नौकरी?’

‘बसबस, रहने दे. जब देखो तब जलीकटी सुनाता रहता है. कोई अच्छी सी नौकरी ढूंढ़ इस के लिए.’

‘अच्छी सी माने? जहां काम न हो? हुकम बजाने के लिए नौकर हो? घूमने के लिए गाड़ी हो? शाम के लिए दारू हो?’

‘देखा मां,’ अब वीरेश बोला, ‘इसीलिए मैं इन के साथ नहीं बैठता हूं.

4 दिन के लिए आते हैं और चिल्लाते रहते हैं.’

वीरेश गुस्से से बाहर चला जाता. मां बड़बड़ातीं. पिताजी कभी राकेश का साथ देते तो कभी मां का.

बच्चे बड़े हो रहे थे. खर्चे बढ़ रहे थे पर वीरेश में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. पिताजी अकसर बड़बड़ाते. खासकर जब राकेश आते छुट्टियों में, ‘मैं पैंशन से 2-2 परिवार कैसे पालूं? तुम्हीं कुछ भेजा करो. बच्चे स्कूल जाने लगे हैं. कम से कम उन की फीस तो दे ही सकते हो.’

राकेश झुंझलाते, ‘मेरे खर्चे नहीं हैं क्या? तनख्वाह से मेरा भी बस गुजारा ही हो रहा है. आप जानते हैं कि

कोई ऊपरी आमदनी भी नहीं है मेरी. चलाने दीजिए इस को अपनी गृहस्थी किराए से या कैसे भी. अपनेआप

ठीक हो जाएगा. आप लोग चलिए मेरे साथ इलाहाबाद.’

‘बेटे, भूखा मरते तू देख सकता है भाई को. मांबाप नहीं देख सकते. हम तो करेंगे जितना हो सकेगा. तुझे मदद नहीं करनी, मत कर. किराए से बेचारे वीरेश का खर्च कैसे चलेगा?’ मां आ जातीं बीच में.

‘बेचारा, बेचारा, क्यों है बेचारा वह? लूलालंगड़ा है? दिमाग से कमजोर है? क्या कमी है उस में? अच्छीखासी नौकरियां छोड़ीं उस ने. किस वजह से? अपनी काहिली की वजह से न? गाजियाबाद छोड़ कर कहीं बाहर नहीं जाएंगे, क्यों? घर बैठे हलुआपरांठा मिले तो कोई काम क्यों करे? आप लोगों ने ही बिगाड़ा है उसे. कभी सख्ती से नहीं कहा कि पालो अपना परिवार,’ राकेश के सब्र का बांध टूट गया.

‘कहा है बेटा, कई बार कहा,’ अब पिताजी ने सफाई दी, ‘पहले कहता था कि मैं कोशिश करता हूं पर अच्छी नौकरी नहीं मिलती. अब कहता है कि घर छोड़ दूंगा, साधु बन जाऊंगा, आत्महत्या कर लूंगा. एक बार चला भी गया था. 2 दिन तक नहीं आया. तुम्हारी मां का रोरो कर बुरा हाल हो गया था.’

‘इसे क्या? यह तो आराम से बाहर नौकरी करता है. वह तो मेरी ममता थी जो उसे खींच लाई वरना वह साधु बन गया था,’ मां ने कहा.

‘मां की ममता नहीं थी, भूख के थपेड़े थे. पैसे खत्म हो गए होंगे लाटसाहब के,’ राकेश चिल्लाए.

‘ठीक है, यह बहस, अब बंद करो,’ हमेशा की तरह मां बड़बड़ाती हुई चली गईं.

वीरेश और नीरू के झगड़े बढ़ने लगे. अकसर मारपीट तक नौबत आ जाती. बच्चों के कोमल मन पर असर पड़ने लगा था.

बड़ा बेटा सुधांशु गुमसुम हो गया था. छोटा बेटा हिमांशु जिद्दी और मनमौजी. नीरू ने खुद काम करना शुरू किया. कभी छोटी नौकरी की, कभी घर में अचारमुरब्बे बना कर बेचे. इस के लिए उसे घर से बाहर निकलना पड़ता तब भी वीरेश चिल्लाता, ‘देखो, कैसे नखरे दिखा रही है  कामकाजी बन कर, जैसे घर में भूखी मरती है. अरे, इस का मन ही नहीं लगता घर में. बाहर 10 लोगों से मिलती है, रंगरेलियां मनाती है. मां, जरा पूछो इस से, कितनी कमाई कर के लाती है?’

नीरू जवाब देती तो झगड़ा और बढ़ता. मां अकसर वीरेश का पक्ष लेतीं और बहस मारपीट तक पहुंच जाती. बच्चे सहमे हुए होमवर्क करने का नाटक करने लगते. यह झगड़ा तब जरूर होता जब वीरेश नशे में होता.

तभी वीरेश को एक अच्छी एडवरटाइजिंग कंपनी में स्थानीय प्रतिनिधि की नौकरी मिल गई. लगा अब सब ठीक हो जाएगा. वीरेश को अपनी कंपनी के लिए विज्ञापन लाने का काम करना था. पर उस के आलसी स्वभाव के कारण उसे विज्ञापन नहीं मिल पाते थे.

नीरू ने वीरेश की मदद की और विज्ञापन मिलने लगे. अब होता यह कि जाना वीरेश को होता पर वह नीरू को भेज देता. कभी नीरू को विज्ञापनों के सिलसिले में कंपनी के जीएम से सीधे बात करनी पड़ जाती. नतीजा यह हुआ कि कंपनी ने कुछ ही दिनों में वीरेश की जगह नीरू को प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया.

इस पर घर में महाभारत हो गया और नीरू ने नियुक्ति अस्वीकार कर दी, पर कंपनी ने वीरेश को फिर नियुक्त नहीं किया. मां ने वीरेश की नौकरी जाने का सारा दोष नीरू के सिर मढ़ दिया और वीरेश फिर शराब में डूब गया.

बच्चों के बढ़ते खर्चे और वीरेश के तानों से तंग आ कर नीरू ने एक बार फिर प्रयास किया और खुद ही भागदौड़ कर सरकार की महिला स्वरोजगार योजना के तहत बैंक से लोन लिया और फल संरक्षण केंद्र खोल लिया. पर उस के लिए भी उसे घर से बाहर जाना पड़ता.

कुछ दिनों बाद यह काम भी बंद हो गया. बैंक से ऋण वसूली का नोटिस आया. वीरेश ने जवाब भिजवाया कि यहां कोई नीरू नहीं रहती. पर बैंक के रिकौर्ड्स में नीरू के पति वीरेश और पारिवारिक मकान के सत्यापन प्रमाण थे. इसलिए रिकवरी नोटिस ले कर बैंक अधिकारी पुलिस के साथ पहुंच गए.

वीरेश के हाथपांव फूल गए और वह नीरू को उस के मायके छोड़ आया. पिताजी ने सरकारी नौकरी का वास्ता दिखा कर समय मांगा और बैंक की ऋण अदायगी की. इस में नीरू के और कुछ मां के भी जेवर बिक गए. राकेश ने भी काफी रुपए भिजवाए. मां ने ऐलान कर दिया कि वह कम्बख्त अब इस घर में दोबारा नहीं आएगी और भला वीरेश को इस में क्या ऐतराज हो सकता था?

बाद में नीरू ने एक पत्र राकेश को भी लिखा. उस का सारा आक्रोश मां के ऊपर था पर वीरेश को भी कभी माफ न करने की कसम खाई थी. इतना ही नहीं, उस ने आरोप लगाया था कि वीरेश ने एडवरटाइजिंग कंपनी में अपनी स्टैनो से अवैध संबंध भी बना लिए थे. सुबूत के तौर पर एक पत्र भी संलग्न था जो किसी किरन ने वीरेश को लिखा था.

राकेश सन्न रह गए थे. ऐसी स्थिति में मां को या वीरेश को समझाना व्यर्थ था. उन्होंने नीरू को ही समझाया कि इस स्थिति में समझौते से अच्छा है अपने पैरों पर खड़ा होना. बाद में पता चला कि नीरू ने दिल्ली जा कर पहले ऐडवरटाइजिंग एजेंसी में काम किया. फिर प्रौपर्टी डीलर बन गई. फ्लैट लिया, गाड़ी ली. घर तो कभी नहीं आई पर बच्चों से उन के स्कूलों में मिलती रही. जन्मदिन पर, त्योहारों पर बच्चों को तोहफे भी भिजवाती रही.

साल दर साल बीतते गए. मांपिताजी ने कोशिश की कि तलाक दिलवा कर वीरेश की दूसरी शादी करवाएं पर नीरू का संदेश आया कि भूल कर भी ऐसा नहीं करिएगा वरना शारीरिक प्रताड़ना के बाद घर से निकालने का केस बन जाएगा. वीरेश संन्यासी सा हो गया.

बढ़ती उम्र और शराब ने एक अजीब दयनीयता पोत दी थी उस के चेहरे पर. न किसी से मिलना न कहीं जाना. बस, शाम को किसी बहाने से मां से पैसे ले कर निकल जाता और देर रात झूमताझामता आता और सो जाता. तरस आने लगा उसे देख कर.

करीब 8 साल बाद नीरू घर आई जब पिताजी की मृत्यु हुई. शोक के अवसर पर किसी ने उस से कुछ नहीं कहा. तभी पहली बार सब ने राहुल को देखा था. 25-26 वर्ष का हट्टाकट्टा लड़का, चुपचाप बरामदे में बैठा था. सब ने उसे ड्राइवर ही समझा था. संवेदना व्यक्त कर के नीरू चली गई पर उस के बाद वह अकसर आने लगी. मां और वीरेश के व्यवहार से लगा कि उन्होंने उसे अपनाने का मन बना लिया.

एक बार जिद कर के अपनी कार से वह उन्हें नोएडा भी ले गई जहां उस ने शानदार फ्लैट लिया था. सुधांशु को नौकरी दिलवाने में मदद की और हिमांशु को इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला दिलवाया. वीरेश अकसर नोएडा जाने लगा. गाड़ी पटरी पर आ ही रही थी कि यह धमाका हो गया.

राहुल की शादी का कार्ड आया. मां की जगह नीरू, पिता की जगह वीरेश और दादी की जगह मां का नाम छपा था.

सुगबुगाहट थमी भी नहीं थी कि एक शाम नीरू आई, मिठाई के डब्बे और उपहारों के साथ. राहुल की सगाई में उस की ससुराल से मिले थे उपहार. कार्ड के बारे में पूछने पर नीरू ने कहा कि उस ने वीरेश को बता दिया था कि उस ने बाकायदा राहुल को गोद लिया है और वीरेश ने कोई आपत्ति नहीं की थी.

अब नीरू उस की मां हो गई तो वीरेश स्वत: ही पिता हो गया और मां दादी. वीरेश ने ही उस का बचाव किया, ‘अपने बेटों से इतने साल अलग रही तो राहुल को देख कर मातृत्व जागा और जब बेटा बना ही लिया तो शादी भी करनी थी.’ सब ने इस पर मौन सहमति दे दी.

राहुल की शादी में सब सम्मिलित हुए. सुधांशु और हिमांशु भी भैया की शादी में खूब नाचे. मां तो गद्गद थीं. नीरू ने उन्हें कई कीमती साडि़यों के साथ हीरे के टौप्स दिए थे. राहुल की ससुराल से भी दादीमां के लिए साड़ी मिली थी. शादी के बाद नीरू बहू को ले कर जब गाजियाबाद गई तब मां ने मुंहदिखाई में साड़ी दी बहू को. इसी हंसीखुशी के माहौल में मां ने नीरू से कहा कि अब वह भी लौट आए और अपनी गृहस्थी संभाले.

नीरू 1 मिनट तो चुप रही फिर जैसे फट पड़ी, ‘‘आप अपने लड़के की फिक्र कीजिए मांजी. मेरी गृहस्थी तो उजड़ी भी और बस भी गई. उजड़ी तब थी जब मुझे धोखे से मायके पहुंचा दिया गया था कि मामला ठंडा होने पर ले आएंगे. और ये शायद खुद सौत लाने की फिराक में थे. सब ने इन्हीं का साथ दिया था तब. जैसे सारी गलती मेरी ही हो. मेरा कसूर यही था न कि मैं आप के बेटे को उस के पैरों पर खड़ा देखना चाहती थी. तब उजड़ी थी मेरी गृहस्थी और बसी तब जब मैं अपने पैरों पर खड़ी हो गई. हां, तब मुझे भी गैर मर्दों का सहारा लेना पड़ा था. पर अब मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं.

‘‘पता नहीं मेरे बेटे मेरे रह पाते या नहीं इसलिए एक बेटा अपनाया. अब मैं भी सासू मां हूं. मेरा भरापूरा परिवार है. अब जिसे मेरा साथ चाहिए वह आए मेरे पास. इस घर से मैं ने अपना संबंध टूटने नहीं दिया. पर वह संबंध अब आप की शर्तों पर नहीं, मेरी शर्तों पर रहेगा. पूछिए अपने बेटे से, क्या वे रह सकते हैं मेरे साथ, मेरी शर्तों पर या यों ही मां की पैंशन पर जिंदगी गुजारने का इरादा रखते हैं?’’

सब हैरान थे पर वीरेश के मौन आंसू उस की सहमति बयान कर रहे थे.

लेखक- सतीश चंद्र माथुर

Love Story 2025 : तेरी मेरी कहानी

Love Story 2025 : नींद कोसों दूर थी. कुछ देर बिस्तर पर करवटें बदलने के बाद वह उठ खड़ा हुआ और अपने कमरे के आगे की छोटी सी बालकनी में जा खड़ा हुआ. पूरा चांद साफ आसमान में चुपड़ी रोटी की तरह दमक रहा था… कुछ फूला सा कुछ चकत्तों वाला, लेकिन बेहद खूबसूरत, दूरदूर तक चांदनी छिटकाता… धुले हुए से आसमान में तारे बिखरे हुए थे, बहुत चमकीले, हवा के संग झिलमिलाते. मंद बयार उस के कपोलों को सहला गई थी, आज हवा की उस छुअन में एक मादकता थी जो उसे कई बरस पीछे धकेल गई थी.

तब वह युवा था, बहुत से सपने लिए हुए… जिंदगी को दिशा न मिली थी पर मन में उत्साह था. आज जिंदा तो था पर जी कहां रहा था… एक आह के साथ वह वहां पड़ी कुरसी पर बैठ गया. सिगरेट बहुत दिन से छोड़ दी थी पर आज बेहद तलब महसूस हो रही थी, कमरे में गया और माचिस व सिगरेट की डिबिया उठा लाया, लौटते हुए दोनों बच्चों और पत्नी पर नजर पड़ी. वे अपनी स्वप्नों की दुनिया में गुम थे. अब वे ही उस की दुनिया थे पर आज जाने क्यों दिल हूक रहा था यह सोच कर कि उस की दुनिया कितनी अलग हो सकती थी…

ऐसी ही दूरदूर तक फैली चांदनी वाली रात तो थी, वह उन दिनों हारमोनियम सीखता था. सभी स्वर सधे हुए न थे पर कर्णप्रिय बजा लेता था. जाने चांदनी ने कुछ जादू किया था या फिर दबी हुई कामना ने पंख फैलाए थे. न जाने क्या सोच कर उस ने हारमोनियम उठाया था और बजाने लगा था… ‘एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है, जिंदगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है…’ गीत का दर्द सुरों में पिघल कर दूर तक फैलता रहा था… रात गहरा चुकी थी, चांदनी को चुनौती देती कोई बिजली कहीं नहीं टिमटिमा रही थी पर शब्द जहां भेजे थे वहां पहुंच गए थे.

उस ने क्यों मान लिया था कि गीत उस के लिए बजाया गया था. चार शब्द कानों में बस गए थे… तेरी मेरी कहानी है और तब से दुनिया उस के लिए अपनी और उस की कहानी हो गई थी. वे बचपन में साथ खेले थे, वह लड़का था हमेशा जीतता पर वह कभी अपनी हार न मानती. वह हंसता हुआ कहता, ‘‘कल देखेंगे…’’ तो वह भी, ‘‘हांहां, कल देखेंगे,’’ कह कर भाग जाती. उसे यकीन था एक दिन वह जीतेगी. लड़की थी लेकिन बड़ेबड़े सपने देखती थी. वह उन दिनों की कुछ फिल्मों की नायिका की तरह बनना चाहती थी जो सबला व आत्मनिर्भर थी, एक ऐसी स्त्री जिस पर उस के आसपास की दुनिया टिकी हो.

कसबे के उस महल्ले में ज्यादातर घर एकमंजिले थे. बड़ेबड़े आंगन, एक ओर लाइन से कुछ कमरे, एक कोने में रसोई व भंडार जिस का प्रयोग सामान रखने के लिए अधिक होता था और खाना रसोई के बाहर अंगीठी रख कर पकाया जाता था, वहीं पतलीपतली दरियां बिछा कर खाना खाया जाता था. कोई मेहमान आता तो आंगन में चारपाई के आगे मेज रख दी जाती, गरमगरम रोटियां सिंकतीं और सीधे थाली में पहुंचतीं.

आंगन के बाहर वाले कोने की ओर 2 छोटे दरवाजे थे, शौच व गुसलखाने के. लगभग सभी घरों का ढांचा एकसा था. उस महल्ले में बस एक एकलौता घर तीनमंजिला था उस का. तीसरी मंजिल पर एक ही कमरा था, जिसे उस की पढ़ाई के लिए सब से उपयुक्त माना गया. आनेजाने वालों के शोर से परे वहां एकांत था. मामा के निर्देश थे कि मन लगा कर पढ़ाई की जाए. उस के और पढ़ाई के बीच कुछ न आए. मामा पुलिस में थे. ड्यूटी के कारण हफ्तों घर न आते थे. मामी और उन के 2 बच्चे उन के साथ रहते थे. घर में कुल मिला कर वह, उस की मां, उस के दादाजी, जिन्हें वह बाबा पुकारता था और मामी व उन के बच्चे रहते थे. वह समझ न पाता था कि मामा ने उस की विधवा मां को अकेले न रहने दे कर उसे सहारा दिया या अपना घोंसला न होने के कारण कोयल का चरित्र अपनाया. खैर जो भी कारण रहा हो, मामा उसे बहुत प्यार करते थे. घर में पित्रात्मक सत्ता प्रदान करते थे पर मामी ऐसी न थीं. मामा न होते तो मां से खूब झगड़तीं, शायद उन के मन में कुछ ग्रंथियां थीं. तीनमंजिला घर के भूतल पर वे रहते थे, बाहर बैठक थी और उस के साथ में एक गलियारा आंगन में ला छोड़ता था जहां एक ओर रसोई, सामने एक कमरा और कमरे के भीतर एक और कमरा था. बैठक में बाबाजी रहते थे, अंदर के कमरों में वे सब. पहली और दूसरी मंजिल के कुल 4 कमरों में कभी 3 किराएदार रहते तो कभी 4. उन कमरों का किराया उस के परिवार के लिए पर्याप्त था.

जब से उसे ऊपर वाला कमरा मिला था वह वहीं पर पढ़ाई करने लगा था. कमरे के बाहर छोटी सी 4 ईंटों की मुंडेर वाले छज्जे पर छोटी मेजकुरसी लगा कर वह पढ़ता… जानता था उसे कोई देख रहा है, पर वह किताब से नजरें न हटाता. बहुत होशियार न था पर पढ़ाई तो पूरी करनी ही थी. वह भटक भी नहीं सकता था, मां को दुख नहीं देना चाहता था. मामा प्रेरणा देते थे पर पिता की कमी को कब कोई पूरा कर पाया है? उस का मन पढ़ने में बहुत न था, उसे डाक्टर इंजीनियर न बनना था. कोई बड़े ख्वाब भी न थे, मामा जैसी नौकरी न करनी थी जिस में महीने के 25 दिन शहर से बाहर काटने पड़ें और बाकी के 5 दिन आप के घर वाले छठे दिन का इंतजार करें. उसे पिता सी पुरोहिताई भी नहीं करनी थी. एक समय इंटर पास बड़े माने रखता था. पर अब ऐसा न था. उस पर घर के गुजारे का बोझ न था पर जिंदगी बिताने को कुछ करना जरूरी था… भविष्य के विषय में संशय ही संशय था.

वह बारबार चबूतरे तक चक्कर लगा आती. चबूतरे से छज्जा साफ दिखाई पड़ता था, लेकिन उसे शाम को 8 से 9 बजे तक का बिजली की कटौती वाला समय पसंद था, क्योंकि मिट्टी के तेल के लैंप की आभा में पढ़ने वाले का चेहरा चमक उठता था. वह स्वयं अनदेखा रह कर उसे देख पाती. अब वे बच्चे न रहे थे, किशोरवय को बड़ी निगरानी में रखा जाता था, कोई बंदिश तो न थी, लेकिन पहले की उन्मुक्तता समाप्त हो गई थी. तब वह 10वीं में थी और वह 12वीं में था. वह अकसर सोचती, ‘काश, दोनों एक ही कक्षा में होते तो वह पढ़ाई और किताबों के आदानप्रदान के बहाने ही एकदूसरे से बात कर पाते. यदाकदा मां के काम से ताईजी के पास जाने में सामना हो जाता, पर बात न हो पाती,’ शायद मन के भीतर जो था, वह सामान्य बातचीत करने से भी रोकता था. संस्कारों में बंधे वे 2 युवामन कभी खुल न पाए. उस दिन भी नहीं जब अम्मां ने उसे गला बुनने की सलाई लेने भेजा था लेकिन ताईजी घर पर नहीं थीं और वह बैठक में अकेला था. वह चाह कर भी कह नहीं पाया कि दो पल रुको और वह मन होते भी रुक नहीं पाई. शायद वह तब भी सोच रहा था, ‘कल देखेंगे.’

दादाजी के गुजर जाने के बाद बहुत दिन तक बैठक खाली रही, फिर मां के कहने पर उस ने उसे अपना कमरा बना लिया. दादाजी के कमरे में आते ही उसे लगा वह बड़ा हो गया है. दोस्त पहले ही बहुत न थे, जो थे वे भी धीरेधीरे छूटते गए. मन बहलाव को कुछ तो चाहिए सो उस ने तीसरी मंजिल के कमरे में कबूतरों के दड़बे रख दिए थे. सुबहशाम वह कबूतरों को दानापानी देने ऊपर चढ़ता, कबूतरों को पंख पसारने के लिए ऊपर छोड़ता… और जब उन्हें वापस बुलाने को पुकारता आ आ आ… तो उसे लगता वह पुकार उस के लिए है. वह किसी न किसी बहाने छत पर चढ़ती, कभी कपड़े सुखाने, कभी छत पर सूख रहे कपड़े इकट्ठे करने तो कभी छोटे भाईबहनों को खेल खिलाने.

वह जिस अंगरेजी स्कूल में पढ़ती थी वह कक्षा 12वीं से आगे न था. वह शुरू से अंगरेजी स्कूल में पढ़ी थी. सरकारी स्कूल में जाने का स्वभाव न था… मौसी दिल्ली रहती थीं, उसे वहीं भेज दिया गया. वह भारी मन से चली थी, जाने से पहले की रात चांद पूरा खिला था, उस के कान हारमोनियम की आवाज को तरसते रहे… काश, एक बार वह सुन पाती पर उस रात कहीं कोई संगीत न था.

रात आंखों में कटी और सुबह तैयार हो गई. मां मौसी के घर छोड़ने गई थी. वह पिता की बात गांठ बांध कर साथ ले गई थी. मन लगा कर पढ़ना और कुछ बन कर लौटना.

वह पढ़ती रही, बढ़ती रही, यह संकल्प लिए कि कुछ बन कर ही लौटेगी. आज 10 बरस बाद लौटी. पिता बहुत खुश, मां बारबार आंख के कोने पोंछतीं, उसे देखती निहाल हो रही हैं. लड़की पढ़लिख कर सरकारी अफसर बन गई, आला अधिकारी. मौका लगते ही वह छत पर जा पहुंची. सब बदल गया था… कहीं कोई न था. महल्ले के ज्यादातर घर दोमंजिले हो गए थे, दूर कुछ तीनचार मंजिले घर भी दिखाई दे रहे थे.

शाम को बाहर चबूतरे पर निकली ही थी कि देखा एक छोटा बालक तीनमंजिले घर की देहरी पार कर बाहर निकल आया था, घुटनों के बल चलते उस बालक को उठाने का लोभ वह संवरण न कर पाई, ‘कहीं यह?’

वह उसे पहुंचाने के बहाने घर के भीतर ले गई थी. तेल चुपड़े बालों की कसी चोटी, सिर पर पल्ला, गोरी, सपाट चेहरे वाली एक महिला सामने आई और अपने मुन्ना को उस की बांहों में झूलते देख सकपका गई.

एक अजब सा क्षण, जब आमनेसामने दोनों के प्रश्न चेहरे पर गढ़े होते हैं किंतु शब्द खो जाते हैं… और एक मसीहा की तरह ताईजी आ गई थीं… ‘अरे, बिट्टो तुम, अभी तो शन्नो की अम्मां से सुना कि तुम आई हो… कितने बरस बाहर रहीं, आंखें तरस गईं तुम्हें देखने को… बहुत बड़ा कलेजा है तुम्हारी मां का जो इत्ती दूर छोड़े रही… बहू, रजनी जीजी के पैर छू कर आशीर्वाद लो, जानो कौन हैं ये?’ हां अम्मां, मैं समझ गई थी. वह अचानक जिज्जी और बूआ बन गई.

तभी वह आया था, सामने के बाल उड़ चुके थे, सुना था किसी दुकान पर सहायक लगा था… खबरें तो कभीकभार मिलती रही थीं, उस के ब्याह की खबर भी मिली थी पर खबर मिलने और प्रत्यक्ष देखने में बड़ा अंतर होता है. इस सच से अब रूबरू हुई. 2 बच्चों का पिता 30-32 वर्ष का वह आदमी उस की कल्पना के पुरुष से बिलकुल अलग था.

पल भर के लिए वह वहां नहीं थी, मानो 10 सदी से लगने वाले 10 बरसों में उसे खोजने का प्रयास कर रही थी, देखना चाह रही थी कि उस के चेहरे की लकीरें इतना कैसे गहरा गईं.

उस ने नाम से संबोधित करते हुए कहा था… ‘‘रजनी, बैठो. खाना खा कर जाना…’’ उफ्फ, वह औपचारिकता भरी आवाज उस का कलेजा चीर गई थी. कसी चोटी वाली एक आत्मीयता भरी नजर भर तुरंत रसोई में चली गई थी, वह समझ नहीं पाई कि वह भोजन लगाने का निमंत्रण था या उस के लिए प्रस्थान करने का संकेत. वह क्षमा याचना सी करती, मां के इंतजार का बहाना कर ताईजी को प्रणाम कर लौट आई थी.

एक गहरी निश्वास के साथ उस के मुंह से निकला… ‘अब कल न होगी.’

वह समझ गया था कि कहीं कुछ चटका है, भीतर या बाहर, यह अंदाजा नहीं कर पा रहा था.

Hindi Kahaniyan 2025 : तेरे बिन

Hindi Kahaniyan 2025 : हर्षा जिस दिन से मायके से लौटी थी उल्लास उसे कुछ बदलाबदला पा रहा था. औफिस जाते समय पहले तो वह उस की हर जरूरत का ध्यान रखती. नाश्ता, टिफिन, घड़ी, मोबाइल, वालेट, पैन, रूमाल कहीं कुछ रह न जाए. वह नहा कर निकलता तो धुले व पै्रस किए कपड़े, पौलिश किए जूते उसे तैयार मिलते. रोज बढि़या डिनर, संडे को स्पैशल लंच, सुंदर सजासंवरा घर, मुसकान से खिलीखिली हर वक्त आंखों में प्यार का सागर लिए उस की सेवा में बिछी रहने वाली हर्षा के रंगढंग उस दिन से कुछ अलग ही नजर आ रहे थे.

अब उसे कोई चीज टाइम पर जगह पर नहीं मिलती. पूछता तो उलटे तुरंत जवाब मिल जाता कि कुछ खुद भी कर लिया करो. अकेली कितना करूं. उल्लास इधरउधर दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगा था.

‘उस दिन औफिस की पुरानी सैक्रेटरी बीमार जान कर उसे देखने घर चली आई. कहीं इस कारण हर्षा को कुछ फील तो नहीं हो गया या  हर्षा की नई भाभी पारुल ने तो कहीं उसे पट्टी पढ़ा कर नहीं भेजा, बहुत तेज लगती है वह या फिर औफिस में बिजी रहने के कारण आजकल कम टाइम दे पाता हूं. घर में अकेले पड़ेपड़े बोर हो जाती होगी शायद. मायके में जौइंट फैमिली जो है… बच्चा भी तो नहीं अभी कोई, जो उसी से मन लग जाता. 2-3 साल बाद बच्चे का प्लान खुद ही तो मिल कर बनाया था. पूछने पर तो सही जवाब भी नहीं देती आजकल,’ उल्लास सोचे जा रहा था.

‘‘उल्लास खाना बना दिया है, निकाल कर खा लेना. बाकी फ्रिज में रख देना. मुझे शायद आने में देर हो जाए. फ्रैंड के घर किट्टी पार्टी है,’’ हर्षा का सपाट स्वर सुनाई दिया.

‘‘संडे को कौन किट्टी पार्टी रखता है? एक ही दिन तो सभी जैंट्स घर पर होते हैं?’’

‘‘और हम जो रोज घर में रहतीं हैं उन का क्या? कल से तुम्हारे कपड़े बैड पर फैले हैं. उन्हें समेट कर रख लेना. मेरी समझ नहीं आता मेरे लिए क्यों छोड़ कर जाते हो?’’ और धड़ाम से दरवाजा बंद कर वह चली गई.

उल्लास सोचने लगा कि वह पहले भी तो यों छोड़ जाता था… तब उस के काम खुशीखुशी कर देती थी, तो अब उस ने ऐसा क्या कर दिया जो हर्षा उस से रूठीरूठी सी रहने लगी है? वह उस पर और बर्डन नहीं डालेगा. अपने काम खुद कर लिया करेगा. उल्लास ने जैसेतैसे बेमन से खाना खा  लिया. हर्षा का खाना बेस्वाद तो कभी नहीं बना, भले ही खिचड़ी बनाए. इसी कारण उस का बाहर का खाना बिलकुल छूट गया था… पर अब तो कभी नमक ज्यादा तो कभी कम. कच्ची सब्जी, जलीजली रोटियां. हुआ क्या है उसे? वह हैरान था. उस की समझ में कुछ नहीं आ रहा था.

फिर मन ही मन बुदबुदाया कि चल बेटा होस्टल डेज याद कर और आज कुछ बना डाल हर्षा को खुश करने के लिए. जब तक वह घर लौटे बढि़या सा डिनर तैयार कर ले उस के लिए… हमेशा वही बनाती है उसे भी तो कभी कुछ करना चाहिए. फिर सोचने लगा कि हर्षा को आमिर खान पसंद है. अत: पहले ‘दंगल’ मूवी के टिकट बुक करा लिए जाएं नाइट शो के. फिर औनलाइन टिकट बुक किए. दोनों की पसंद का खाना तैयार किया. हर्षा आई तो उस का प्रयास देख कर मन ही मन खुश हुई. करी को थोड़ा सा ठीक किया, पर बाहर जाहिर नहीं होने दिया. यही तो चाहने लगी थी कि उल्लास किसी भी बात के लिए उस पर निर्भर न रहे. डिनर भी चुपचाप हो गया. मूवी में भी हर्षा चुपचुप रही.

उस की चुप्पी उल्लास को अखरने लगी थी. अत: बोला, ‘‘कोई बात है हर्षा तो मुझे बताओ… मुझ से कुछ गलत हो गया या मेरा साथ तुम्हें अब अच्छा नहीं लगता?’’ ‘‘जब तुम हिंदी मूवी पसंद नहीं करते हो, तो मेरी पसंद के टिकट नहीं लाने चाहिए थे. प्रत्यूष और धनंजय को ले कर अच्छा होता कोई अपनी पसंद की इंग्लिश मूवी ऐंजौय करते… जबरदस्ती मेरे कारण देखने की क्या जरूरत है?’’ उल्लास देखता रह गया कि जो हर्षा रातदिन उसे दोस्तों के साथ न जाने और अपने साथ ही हिंदी मूवी देखने की जिद करती थी वही आज उलटी बात कर रही है… क्यों उस से कट रही है हर्षा? क्या किसी और के लिए दिल में जगह बना ली है? फिर उस ने सिर झटका कि वह ऐसा सोच भी कैसे सकता है? उसे दीवानों की तरह चाहने वाली हर्षा ऐसा कभी नहीं कर सकती. वह चाहती है न कि वह अपने सारे काम खुद करे तो करेगा. तब तो खुश होगी. उसे पहले वाली हर्षा मिल जाएगी.

2-3 महीने में उल्लास ने अपने को काफी बदल लिया. अपने कपड़े हर संडे धो डालता. कुछ खुद प्रैस करता कुछ को बाहर से करवा लेता. घड़ी, वालेट, मोबाइल, चार्जर वगैरह ध्यान से 1-1 चीज रख लेता. हर्षा को इस के लिए परेशान न करता. पेट भरने लायक खाना भी बनाना आ गया था. औफिस जाने से पहले अपना कमरा ठीक कर जाता. अब तो खुश हो हर्षा? वह पूछता तो हर्षा हौले से मुसकरा देती, पर अंदर से उसे अपने कामों को स्वयं करता देख बहुत दुखता, पर वह ऐसा करने के लिए मजबूर थी.

‘‘उल्लास इंगलिश की नईर् मूवी लगी है, जाओ अपने दोस्तों के साथ देख आओ.’’ ‘‘हर्षा तुम मुझे ऐसे अपने से दूर क्यों कर रही हो. मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि यह कैसी खुशी है तुम्हारी? क्या मुझे अपने लायक नहीं समझती अब?’’

‘‘उल्लास तुम तो लायक हो और तुम्हारे लिए वह लाली मौसी ने सही लड़की चुनी थी उन की ननद की बेटी संजना. बिलकुल तुम्हारे लिए हर तरह से सही मैच… उस ने अभी तक शादी नहीं की. मेरी वजह से उस से रिश्ता होतेहोते रह गया था तुम्हारा… लाली मौसी इसी कारण अभी तक नाराज हैं. उन की नाराजगी तुम दूर कर सकते हो तो बताओ…’’

‘‘कहां इतनी पुरानी बात ले कर बैठ गई तुम… हम दोनों ने एकदूसरे को पसंद किया, प्यार किया, शादी की. अब यह बात कहां से आ गई… अच्छा औफिस को देर हो रही है. मैं निकलता हूं शाम को बात करते हैं रिलैक्स,’’ और फिर हमेशा की तरह बाहर निकलते हुए उस के माथे पर चुंबन जड़ दिया, ‘‘तुम कुछ भी कर लो, कह लो तुम्हें प्यार करता रहूंगा. सी यू हनी.’’

‘‘यही तो मैं अब नहीं चाहती उल्लास… तुम्हें कुछ कह भी तो नहीं सकती,’’ हर्षा देर तक रोती रही. कल ही उसे मुंबई के लिए निकलना था कभी न लौटने के लिए. उस ने अपनेआप को किसी तरह संभाला. छोटे से बैग में सामान पैक कर लिया. उल्लास आया तो उसे बताने की हिम्मत न हुई. रात बेचैनी से करवटें बदलते बीत गई. ‘‘तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं लग रही हर्षा,’’ उल्लास कभी पानी, कभी चाय तो कभी कौफी बना लाता. कभी माथा सहलाता.

‘‘डाक्टर को बुलाऊं क्या?’’

‘‘कुछ नहीं थोड़ा सिरदर्द है. सुबह तक ठीक हो जाएगा. तुम अब सो जाओ.’’

मगर उल्लास माना नहीं तेल की शीशी उठा लाया. ढक्कन खोला तो वह फिसल कर बैड के नीचे पहुंच गया. वह झुका तो पैक्ड बैग नजर आया.

‘‘अरे यह बैग कैसा है? कौन जा रहा है?’’

‘‘हां, उल्लास मुझे कल ही जाना पड़ रहा है मुंबई. अभि मुझे लेने कल सुबह यहां पहुंच जाएगा. वह मेरी सहेली रुचि की बहन की शादी है. उस का कोई है नहीं. घबरा रही है, डिप्रैशन में अस्पताल में दाखिल भी रही. सारी तैयारी करनी है. अत: मां से रिक्वैस्ट की कि अभि को भेज कर मुझे बुला लें. मेरे पास भी तुम से रिक्वैस्ट करने के लिए फोन आया था. मैं ने कह दिया उल्लास मुझे मना नहीं करेंगे… 1 महीना क्या 6 महीने रख लो. सारे काम खुद करने की आदत डाल ली है. अब उल्लास को कोई परेशानी नहीं होगी अकेले. सही है न?’’ वह हलके से मुसकराई. पर इतना प्यार करने वाले पति उल्लास से सब मनगढ़ंत कहने के लिए मजबूर वह अंदर तक हिल गई.

‘‘मगर… कितने दिन… मैं अकेले कैसे… कुछ बताया तो होता?’’

‘‘अकेले की आदत तो डाल ही लेनी चाहिए… आत्मनिर्भर होना चाहिए हर तरह से… अचानक कोई चल पड़े तो रोता ही फिरे दूसरा, कुछ कर ही न पाए,’’ वह हंसी थी.

‘‘चुप करो… कैसी बेसिरपैर की बातें कर रही हो… जा रही हो तो मैं तुम्हें रोक नहीं रहा… कब लौटोगी यह बताओ. शादी के लिए 10 दिन बहुत हैं, 1 महीना जा कर क्या करोगी पर ठीक है जाओ… हर दिन मुझे फोन करोगी. चलो अब सो जाओ.’’

8 बज चुके थे. तभी अभि आ गया, ‘‘कहां हो दीदी?’’

‘‘अभी उठी नहीं. कल तबीयत कुछ ठीक नहीं थी उस की… कुछ अजीब सी बातें कर रही थी, इसलिए अभी उठाया नहीं.’’

‘‘1 बजे की फ्लाइट है जीजू, देर न हो जाए.’’

‘‘हां, मैं उठाने ही जा रहा था. मुझे रात को ही मालूम हुआ… चाय बन गई, तुम उठा दो मैं चाय डाल कर लाता हूं.’’

‘‘दीदी उठो. मैं आ भी गया. चलना नहीं क्या? देर हो जाएगी,’’ अभि ने उसे उठाया.

‘‘जितनी देर होनी थी अभि हो चुकी अब और क्या होगी?’’ कहते हुए हर्षा उठ बैठी.

‘‘क्यों नहीं आप वहां रुकीं इलाज करवाने… कोशिश तो की ही जा सकती थी… क्यों नहीं बताने दिया जीजू को?’’ छोटा भाई अभि उस के कंधे पकड़ लाचारगी से बैठ गया. आंखों में बूंदें झलकने लगीं.

‘‘वक्त बहुत कम था मेरे पास, कितना इलाज हो पाता… तुझे तो पता ही है, तेरे जीजू को तैयार भी तो करना था मेरे बिना रहने के लिए… तू शांत हो जा बस,’’ हर्षा उस के आंसू पोंछने लगी जो रुक ही नहीं रहे थे. उल्लास के कदमों की आहट कमरे की ओर आने लगी, तो अभि ने झट अपने आंसू दोनों हाथों से पोंछ डाले और सामान्य दिखने की कोशिश करने लगा.

हर्षा जातेजाते उल्लास को ठीक से रहनेखाने की तमाम हिदायतें दिए जा रही थी. अधिक फोन मत करना… वहां सब मुझे छेड़ेंगे कि उल्लास तेरे बिना रह ही नहीं पा रहा. अब उदास, परेशान मत हो… तुम्हीं ने तो लंबा प्रोग्राम बनाया है. दोस्त के यहां शादी में जा रही हो. खुशीखुशी जाओ, मेरी चिंता बिलकुल छोड़ दो. मैं सब मैनेज कर लूंगा… ठाट से रहूंगा, देखना.’’

एअरपोर्ट से अंदर जाने के लिए हर्षा ने उल्लास का हाथ छोड़ा तो लगा उस की सारी दुनिया ही छूट गई. उल्लास को आखिरी बार जी भर कर देख लेना चाह रही थी. बड़ी मुश्किल से अपने को संभाला और हौले से बाय कहा. मुसकरा कर हाथ हिलाया और फिर झटके से चेहरा घुमा लिया. आंखों में उमड़ते बादलों को बरसने से रोक पाना उस के लिए असंभव था. 2 दिन ही बीते थे हर्षा को गए हुए औफिस में उल्लास को पता चला उस की अगले फ्राईडे को मुंबई में मीटिंग है. वह खुशी से उछल पड़ा. उस ने 2-3 बार ट्राई किया कि हर्षा को बता दे पर फोन नहीं मिला. फिर सोचा अचानक उसे सरप्राइज देगा.

‘‘फोन ही नहीं मिल रहा हर्षा का. यहां मेरी मीटिंग है आज 3 बजे. सोच रहा हूं हर्षा को सरप्राइज दूं. उस की सहेली रुचि का जल्दी पता बता अभि.’’

अभि उसे हैरानपरेशान सा देख रहा था.

‘‘जीजू आप…’’ उस ने पैर छुए, ‘‘मैं वहीं जा रहा हूं आइए. 1 मिनट रुको. अंदर अम्मांजी से तो मिल लूं.’’

‘‘सब वहीं हैं जीजू,’’ वह धीरे से बोला.

‘‘कहां खोया है तू… लगता है तेरी भी जल्दी शादी करनी पड़ेगी,’’ उल्लास अकेले ही बोले जा रहा था.

‘‘अरे कहां ले आया तू टाटा मैमोरियल… कौन है यहां कुछ तो बोल… अभि कहीं हर्षा…’’ वह आशंका से व्याकुल हो उठा.

अभि बिना कुछ बोले उस का हाथ पकड़ सीधे हर्षा के पास ले आया, ‘‘सौरी दी… मैं आप को दिया प्रौमिस पूरा नहीं कर पाया,’’ और फिर फूटफूट कर रो पड़ा. दिल से न चाहते हुए भी हर्षा की आंखें जैसे उल्लास का ही इंतजार कर रही थीं.

मानो कह रही हों तुम्हें देख अब तसल्ली से जा सकूंगी. उल्लास के हाथ को कस कर थामे उस की हथेलियों की पकड़ ढीली पड़ने लगी. वह बेसुध हो गई.

‘‘हर्षाहर्षा तुम्हें कुछ नहीं होने दूंगा. तुम ने मुझे क्यों नहीं पता लगने दिया? डाक्टर… सिस्टर…’’

‘‘आप बाहर आइए प्लीज, हिम्मत से काम लीजिए… मैं ने इन्हें 2-3 महीने पहले ही बता दिया था… बहुत लेट आए थे… कैंसर की लास्ट स्टेज थी. अब कुछ नहीं हो सकता…’’

‘‘ऐसे कैसे कह सकते हैं डाक्टर? आप लोग नहीं कर पा रहे यह बात और है… मैं अमेरिका ले जाऊंगा… फौरन डिस्चार्ज कर दीजिए. मैं तुम्हें कुछ नहीं होने दूंगा हर्षा मैं अभी आया,’’ और वह बाहर भागा. जी जान लगा कर उल्लास ने आननफानन में अमेरिका जाने की व्यवस्था कर ली. 2 दिन बाद वह हर्षा को ले कर लुफ्थांसा विमान में इसी उम्मीद की उड़ान भर रहा था. ‘‘तेरे बिन नहीं जीना मुझे हर्षा,’’ उस ने उस के कानों में धीरे से कहा और हमेशा की तरह उस के माथे पर चुंबन अंकित कर दिया, परंतु इस बार वह आंसुओं में भीगा था.

Famous Hindi Stories : छाया – वृंदा और विनय जब बन गए प्रेम दीवाने

Famous Hindi Stories :  ‘‘तुम में इतना धैर्य कहां से आ गया. 2 दिन हो गए एक फोन भी नहीं किया,’’ विनय झल्लाहट दबा कर बोला.

‘‘नारी का धैर्य तुम ने अभी देखा ही कहां है. वैसे भी मैं तुम्हारे साथ थी भी कहां. बस, एक भीड़ का हिस्सा थी,’’ वृंदा का स्वर शांत था.

‘‘क्या मतलब है. ऐसे कैसे कह सकती हो. परसों मिले थे तो कोई लड़ाईझगड़ा नहीं हुआ था. मैं ने तुम्हें कुछ कहा भी नहीं जिस से तुम्हें गुस्सा आए.’’

‘‘कहने की जरूरत नहीं होती. पिछले 6 महीने से तुम लगातार मुझे अनदेखा करते आ रहे हो और मैं हमेशा सिर्फ तुम्हारे बारे में सोचती रहती हूं. परसों भी अपनी किसी न किसी महिला मित्र से तुम फोन पर बात करते रहे, मानो मैं तुम्हारे साथ थी ही नहीं.’’

‘‘वह तो मेरी लाइन ही ऐसी है.’’

‘‘पर मैं तो पूरी तरह तुम्हारे सुखदुख में भागीदार बन कर समर्पित रही. जब भी तुम्हें कोई काम पड़ा तुम मुझे कह देते और तुम्हारा वह काम करते हुए मुझे लगता कि मैं प्यार के लिए अपना फर्ज निभा रही हूं.’’

‘‘यार, ऐसा कुछ भी नहीं है. अच्छा तुम कल मिलो. ये बेकार की बातें हैं, इन्हें दिमाग से निकालो. कुछ भी नहीं बदला है.’’

‘‘अभी आफिस में काम है, फिर बात करेंगे,’’ कह कर वृंदा मोबाइल औफ करती हुई दफ्तर में लौट आई.

अपनी कुरसी पर बैठी वृंदा सोचने लगी कि इसी विनय ने 2 साल पहले शुरुआती दौर में कितनी कोशिश कर के उस से संपर्क बढ़ाया था. नौकरी लगने के बाद जब वृंदा ने अपनी कहानी छपवाई तो उस को लगा था कि वह हवा में उड़ रही है. पहली ही कहानी किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छप जाए और प्रशंसा के सैकड़ों पत्र मिलें तो मन तो उड़ेगा ही.

बाद में उस की कुछ और कहानियां छपीं तो कुछ पाठकों के फोन भी आने लगे. कुछ तो प्रशंसा के बहाने अपनी रचना पढ़ने का अनुरोध कर देते. कुछ छपी कहानी की समीक्षा विस्तार से करते.

उन्हीं प्रशंसकों में से एक विनय भी था. किसी भी अखबार में वृंदा का कुछ छप जाता तो सब से पहले उस का फोन आता.

एक दिन उस ने पूछ ही लिया, ‘आप क्या हर महिला लेखिका को फोन करते हैं? मेरे अलावा दूसरे लेखकों को भी पढ़ते हैं क्या?’

‘मैडम, मैं पत्रकार हूं. साहित्यिक पृष्ठ मैं ही तैयार करता हूं. बाकी पत्रपत्रिकाओं में क्या जा रहा है उस की पूरी जानकारी मुझे रहती है.’

‘क्या आप मेरी कहानियों को संभाल कर रखते हैं?’ वृंदा ने झिझकते हुए पूछा.

‘मैं आप का जबरदस्त प्रशंसक हूं. बताइए, क्या सेवा है.’

‘आप के यहां से प्रकाशित पत्रिका के पिछले अंक में मेरी एक कहानी छपी है. उस की एक भी प्रति मेरे पास नहीं है. क्या आप एक प्रति भिजवा देंगे. शायद पोस्टमैन ने रख ली होगी.’

और अगले दिन विनय मेरे आफिस के रिसेप्शन पर बैठा था. हम दोनों चाय पीने के लिए पास के रेस्तरां में बैठे तो विनय का फोन बारबार बज उठता.

‘किसी मित्र का फोन है क्या? सुन लो.’

‘नहीं, बड़ी मुश्किल से आप से मिलना हो पाया है. बाद में फोन सुन लूंगा. मुझे आप की कहानियां सच में बहुत अच्छी लगती हैं और प्रभावित भी करती हैं. बाकी लेखिकाएं नारी विमर्श के नाम पर मीडिया से जुड़ा जो कुछ लिख रही हैं वह पढ़ा नहीं जाता है.’

‘मुझे भी लगता है कि नारी आंदोलन को व्यवसाय बना लिया गया है. ऐसी औरतें नारी मुक्ति का झंडा उठाए हुए हैं जो खुद कब की आजाद हो चुकी हैं.’

‘आप समाज के सभी पात्रों को लेती हैं. हमारे परिवार के ढांचे को तोड़ने वाले साहित्य का क्या फायदा. कुछ लेखिकाएं ‘लिव इन रिलेशन’ को मुद्दा बना कर लिख रही हैं तो कुछ कई पुरुषों के साथ यौन संबंधों पर. हम कह सकते हैं कि आपस में वादा और विश्वास होने की बातें कहीं खोती जा रही हैं.’

‘ये तथाकथित लेखिकाएं महिलाओं के किस वर्ग को चित्रित कर रही हैं. इन की चकाचौंध में समस्याओं का सामना करने वाली निम्न और मध्यम वर्ग की महिलाओं पर ध्यान ही नहीं दिया जाता,’ वृंदा जोश में बहती जा रही थी.

‘मैडम, आज मेरा इंटरव्यू है. अब निकलता हूं. अब तो आप से मिलना- जुलना होता ही रहेगा,’ यह कह कर विनय फटाफट चला गया.

फिर तो वृंदा को मानो बात करने के लिए बेहद सुलझा हुआ अपनी तरह की सोच वाला साथी मिल गया. घर और आफिस के बंधेबंधाए ढांचे में सामाजिक चर्चाओं के लिए कोई भी नहीं था. पर विनय के साथ चर्चाओं का दायरा जल्दी ही टूट गया. बौद्धिक चर्चाएं स्त्रीपुरुष के परस्पर आकर्षण पर आ कर रुक गईं. साहित्य जीवन से ही तो बना है. मगर विनय फ्रीलांसर था. इसलिए उस ने साफ कह दिया कि कहीं पक्की नौकरी लगने तक उसे शादी के लिए रुकना होगा.

विनय ने भी हिंदी और अंगरेजी साहित्य पढ़ा था. पर उसे सरकारी नौकरी से चिढ़ थी. पत्रकार को जो आजादी है, वह और किस को है. फिर पावर भी तो है. सत्ता के साए में रहने वाले बड़ेबड़े लोगों से मिलने और बात करने का मौका जिस सहजता से एक पत्रकार को मिलता है वह दूसरों को कहां मिलता है. विनय को एक न्यूज चैनल में नौकरी मिली तो उस का व्यक्तित्व निखर गया और उसी के साथ उस के संपर्क बढ़ते जा रहे थे.

उस दिन लंच में वे दोनों पार्क में बैठे थे तो विनय फोन सुनने लगा. ग्रुप के मित्रों की आपसी खटपट को ले कर वह नीता से 20 मिनट तक बात करता रहा. धीरेधीरे अलगअलग नामों के फोन आने लगे. विनय फोन काटता तो तुरंत एसएमएस आ जाता. वृंदा के साथ होने पर भी विनय का ध्यान दूर जाने लगा था.

वृंदा को विनय अपने कामों में उलझाए रखता. कभी समीक्षा के लिए लाइब्रेरी से किताब मंगाता तो कभी कोलकाता में अपने घर जाने के लिए रेल का आरक्षण कराने के लिए वृंदा को कह देता. वह लंच में आधाआधा घंटा उस का इंतजार करती रहती और जब विनय आता तो फोन पर कोई न कोई डिस्टर्ब करता रहता.

धीरेधीरे वृंदा को लगने लगा कि वह प्यार किसे करती है विनय को या प्यार की धारणा को. जो आदमी अभी से कई लोगों में बंटा है, शादी के बाद उस से कैसे निष्ठा की उम्मीद की जा सकती है. फिर तो पूरा परिवार और समाज बीच में आ जाएगा. कभी वह विनय को टोकती तो कह देता, ‘तुम्हारा वहम है. वह मेरी महिला मित्र है. सब से काम पड़ता है. फिर हमारा दायरा ऐसा है जिस में पीनेपिलाने के लिए पार्टीज चलती ही रहती हैं.’

‘मुझे इन्हीं से चिढ़ है. जहां तक शराब की बात है तो हमारे यहां इसे कोई पसंद नहीं करता. फिर औरतों का शराब पीना तो हम सोच भी नहीं सकते.’

‘तुम अपनी मध्यवर्गीय सोच से बाहर निकलो. सब की अपनीअपनी जिंदगी है. मैं तो कम ही पीता हूं पर ग्रुप में कुछ लोग मुफ्त की देख कर इतनी पी लेते हैं कि उन के लिए घर लौटना मुश्किल हो जाता है.’

‘देखो विनय, अगर तुम शराब नहीं छोड़ोगे तो हम शादी भी नहीं कर सकते हैं.’

‘रहना तो मुझे पत्रकारिता की दुनिया में ही है. तुम अपने मातापिता को समझाओ न कि शायद पीने वाला हर आदमी बुरा नहीं होता है.’

‘मुझे मत समझाओ. मैं ने शादियों में शराब पी कर लोगों को हुड़दंग करते देखा है. बीवी को पीटते लोग भी देखे हैं. हमारे एक रिश्तेदार की मौत शराब पीने के बाद छत से गिर कर हो गई थी. जब मैं ही तुम से कनविंस नहीं हो पा रही हूं तो मम्मीपापा को कैसे करूं. हम दोनों की जिंदगी और हमारे मूल्यांकन का तौर- तरीका बिलकुल अलग है. जो चीज तुम्हें सामान्य लगती है वह मेरे लिए अजीब हो जाती है. फिर तुम सिर्फ मेरे नहीं हो बल्कि नीता, पिंकी, श्वेता यानी एकसाथ कितनी लड़कियों से दोस्ती की हुई है, जो तुम्हारे करीब आने के लिए एकदूसरे को पछाड़ने में लगी हुई हैं.’

‘उन के साथ काम के सिलसिले में बाहर जाना होता है. फिर मैं हूं ही इतना हैंडसम और वैलबिहेव्ड कि सभी मुझे पसंद करती हैं. पर मैं शादी तो तुम से ही करूंगा.’

वृंदा का फ्रस्ट्रैशन बढ़ने लगा था. विनय का फोन अकसर व्यस्त मिलने लगा. कहीं उस की सरकारी नौकरी के कारण ही तो उस से वह शादी करने के लिए जिद पर अड़ा हुआ है. फिर वृंदा की कहानियों और व्यक्तित्व की जो तारीफ शुरू में होती थी वह क्या था? शायद फ्लर्ट करने का तरीका. जिन सामाजिक महिला कार्यकर्ताओं, लेखिकाओं की शुरू में विनय आलोचना करता था, हमेशा उन्हीं के बीच तो रहता है. वह रिश्ता शायद दोनों के लिए अपरिचित संसार का आकर्षण था. वृंदा मुलाकातों में खुद के लिए विनय के मन में जगह ढूंढ़ती मगर वहां उसे भीड़ नजर आती.

शाम को विनय का फोन फिर आया, ‘‘कल लंच में मिलो न, नाराज क्यों हो?’’

‘‘नाराज नहीं हूं पर मुझे नहीं लगता कि हमें शादी करनी चाहिए. ऐसी जिंदगी का क्या फायदा जिस में मैं तुम्हारे लाइफस्टाइल की आलोचना करती रहूं और तुम मेरे. अपनी लाइफ स्टाइल की ही किसी लड़की से शादी कर लो. मैं भी अपने रिश्ते के बारे में सोचतेसोचते थक गई हूं. कोई रास्ता तो निकलेगा ही.’’

‘‘ध्यान से सोचो. जल्दबाजी में कोई फैसला मत लो.’’

‘‘नहीं, मैं तुम से जितना प्यार करती हूं उतना तुम मुझ से कभी भी नहीं कर पाओगे. हमेशा मैं ही समझौता करती हूं और तुम पूरा ध्यान न दो, ऐसा कब तक चलेगा,’’ कह कर वृंदा ने फोन काट दिया.

अचानक उस ने राहत की सांस ली. रुलाई फूट रही थी मगर प्यार या रिश्ते की छाया के पीछे कब तक भागा जा सकता है. एक कविता की पंक्ति मन में उभरी :

‘मेरा तेरा रिश्ता तू तू मैं मैं का रहा. मैं तू तू करती रही, तू मैं मैं करता रहा.’

Sad Story : क्या यह प्रेम था 

Sad Story : 3बार घंटी बजाने पर भी दरवाजा नहीं खुला तो मोनिका थोड़ा परेशान हुई  क्या बात है, जो कुहू दरवाजा नहीं खोल रही है. उसी ने तो फोन कर के बुलाया था कि मोनिका आ जा, आज मैं फ्री हूं. उमंग कंपनी टूर पर मुंबई गया है. बैठ कर कुछ देर गप्पें मारेंगे.

मैं यहां असम में पति के कार्यालय में काम करने वाले सहकर्मियों की पत्नियों के अलावा किसी और को नहीं जानती थी और कुहू को देखो, उस के जानने वालों की कमी नहीं थी. अपनी बातें कहने के लिए उस के पास दोस्त ही दोस्त थे.

मोनिका और कुहू ने बनारस यूनिवर्सिटी के होस्टल के एक कमरे में 3 साल एकसाथ बिताए थे, इसलिए एकदूसरे पर पूरा विश्वास था. जो

3 साल एक कमरे में एकसाथ रहेगा, वह पक्का मित्र होगा ही. मोनिका और कुहू भी पक्की मित्र थीं. शादी के बाद दोनों फोन और ईमेल से लगातार जुड़ी रहीं. बाद में जब मोनिका के पति की नियुक्ति भी असम में उसी शहर में हो गई, जहां कुहू भी उमंग के साथ रह रही थी, तो…

मोनिका इतना ही सोच पाई थी कि उस के विचारों में विराम लगाते हुए कुहू ने दरवाजा खोला तो उस के चेहरे पर मुसकान खिली थी. मोनिका का हाथ पकड़ कर अंदर खींचते हुए कुहू ने कहा, ‘‘अरे, कब आई तुम? लगता है कई बार बैल बजानी पड़ी होगी. मैं बैडरूम में थी, इसलिए सुनाई नहीं पड़ा.’’

कुहू के चेहरे पर भले मुसकान खिली थी, पर उस की आवाज से मोनिका को समझते देर नहीं लगी कि वह खूब रोई है. उस के चेहरे पर थोड़ी उदासी के साथ एक निश्चित भाव भी था.

मोनिका ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘कुहू, एक बात तो उमंग बिलकुल सच कहता है कि रोने के बाद तुम्हारी आंखें बहुत खूबसूरत हो जाती हैं.’’

कुहू के चेहरे पर हलकी मुसकान के साथ उस की आंखों के कोर हलके भीगते दिखाई दिए, पर उस ने बात को बदलते हुए कहा, ‘‘चलो मोनिका चाय पीते हैं.’’

मोनिका ने उस का हाथ पकड़ कर बैठाते हुए कहा, ‘‘क्या बात है कुहू?’’

‘‘अरे कुछ नहीं यार, आज मैं ने एक वायरस को निबटा दिया है, जो जिंदगी की विंडो को खा रहा था…’’

बात तो कुहू ने पूरे दिलासे के साथ शुरू की थी, पर पूरी करतेकरते उस का दिल भर आया था.

मोनिका ने पूछा, ‘‘कहीं तुम आरव की बात तो नहीं कर रही हो?’’

उस ने धीरे से स्वीकृति में सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘हां.’’

आरव उस का कौन था अथवा वह आरव की कौन थी, दोनों में से यह कोई नहीं जानता था. फिर भी दोनों एकदूसरे से सालों से जुड़े थे और उस की तो बात ही निराली थी. वह बहुत ज्यादा सुंदर तो नहीं थी, पर उस की कालीकाली बड़ीबड़ी आंखों में अनोखा आकर्षण था. कोई भी उसे एक बार देख लेता, तो वह उसी में खो जाता. होंठों पर हमेशा मधुर मुसकान, कभी किसी से कोई लड़ाईझगड़ा नहीं, वह एक अच्छी मददगार थी. उस के मन में दूसरों के लिए दया का विशाल सागर था. वह कभी दूसरों के लिए गलत नहीं सोच सकती थी. वह चंचल और हमेशा खुश रहने वालों में थी.

अपने इसी हंसीमजाक वाले स्वभाव की वजह से एक दिन दोपहर को होस्टल का फोन खाली पड़ा था तो कुहू ने रौंग नंबर लगा दिया. इस के बाद तो उस की आदत सी पड़ गई. जब भी वह फोन खाली पाती, रौंग नंबर लगा कर हंसतीहंसाती रहती.

इसी तरह एक दिन जब उस ने रौंग नंबर लगाया तो दूसरी ओर से ऐसी आवाज आई, जो किसी के भी दिल को भा जाए. उस मनमोहक आवाज में मंत्रमुग्ध हो कर कुहू उस आवाज के स्वामी से इस तरह बातें करने लगी जैसे वह उसे अच्छी तरह जानती हो. थोड़ी देर बातें करने के बाद खुश होते हुए उस ने फोन रखने से पहले कहा, ‘‘तुम से बात कर के अच्छा लगा आरव, तुम से फिर बहुत सारी बातें करूंगी.’’

फोन रख कर कुहू पलटी और मोनिका के गले में बांहें डाल कर कहने लगी, ‘‘आज तो बातें करने में मजा आ गया. आज पहली बार किसी ऐसे लड़के से बात की है, जिस से फिर बात करने का मन हो रहा है.’’

‘‘बस, छोड़ो मुझे जाने दो. मुझे पढ़ना है. मैं तुम्हारी तरह होशियार तो हूं नहीं,’’ मोनिका ने कहा और कमरे में आ गई.

उस के पीछेपीछे कुहू भी आ गई. वह इस तरह खुश थी मानो उस ने आईएएस की परीक्षा पास कर ली हो. कुहू बहुत ज्यादा नहीं पढ़ती थी, फिर भी उस के नंबर बहुत अच्छे आते थे, जबकि मोनिका खूब मेहनत करती थी, तब जा कर उस के अच्छे नंबर आते थे.

उस दिन के बाद कुहू आरव से लगभग रोज बातें करने लगी थी. दिन में कभी 1 बार तो कभी 2 बार उस से बातें जरूर करती थी. उस दिन कुहू कुछ ज्यादा ही खुश थी, जिस दिन आरव उस से मिलने होस्टल आ रहा था, पर मन ही मन वह घबरा भी रही थी, क्योंकि इस से पहले वह किसी लड़के से इस तरह नहीं मिली थी और न आमनेसामने बात की थी. मगर अब तो आरव को आना ही था. उस दिन खुश होने के बावजूद वह काफी बेचैन दिखाई दे रही थी.

11 बजे के आसपास होस्टल के गेट पर बैठने वाली सरला ने आवाज लगाई, ‘‘कुहू, आप से कोई मिलने आया है.’’

मोनिका भी कुहू के पीछेपीछे भागी कि देखे तो कुहू का बौयफ्रैंड कैसा है, क्योंकि वह अकसर मुंह टेढ़ा कर के उस के बारे में बताया करती थी.

आरव काफी सुंदर नौजवान था. दोनों होस्टल के पार्क में एकदूसरे के सामने बैठे थे. मोनिका ने देखा तो शायद आरव सोच रहा था कि वह क्या बात करे. वैसे कुहू के बताए अनुसार वह बातूनी नहीं था. पर किसी लड़की से शायद यह उस की पहली मुलाकात थी, वह भी गर्ल्स हौस्टल में. शायद वह रिस्क ले कर वहां आया था बात करने के लिए.

कुहू भी उत्सुक थी. उस से रहा नहीं गया और उस ने आरव के हाथ के एक काले निशान के बारे में पूछ लिया, ‘‘यह क्या है? स्कूटर की ग्रीस लग गई है या जल गए हैं?’’

आरव मुसकराया. अब उसे बातचीत करने का बहाना मिल गया था. अत: उस ने कहा, ‘‘यह मेरा बर्थ मार्क है.’’

थोड़ी देर तक दोनों इधरउधर की बातें करते रहे. उस के बाद आरव चला गया.

वह गीतसंगीत का बहुत शौकीन था. यह कुहू को पसंद नहीं था. उसे सोना अच्छा लगता था.

एक दिन वह सो रही थी, तभी सरला ने आवाज दी, ‘‘कुहू तुम्हारा फोन आया है.’’

थोड़ी देर बाद कुहू बातचीत कर के लौटी तो जोरजोर से हंसने लगी. मोनिका उस का मुंह ताक रही थी. हंस लेने के बाद कुहू ने कहा, ‘‘यार मोनिका, आज तो आरव ने गाना गाया. उस की आवाज तो बहुत अच्छी है.’’

‘‘कौन सा गाना गाया?’’ मोनिका ने पूछा तो कुहू ने कहा, ‘‘बड़े अच्छे लगते हैं, ये धरती, ये नदियां, ये रैना और तुम. यही नहीं, वह सिनेमा देखने को भी कह रहा था. मैं मना नहीं कर पाई. यार वह कितना भोला है. थोड़ा बुद्धू भी है यार मोनिका. तुम भी साथ चलना. मैं उस के साथ अकेली नहीं जाऊंगी. ठीक नहीं लगता.’’

आरव कुहू को ओपी नैयर की फिल्म दिखाने ले गया, साथ में मोनिका भी थी. लौट कर मोनिका ने मजाक किया, ‘‘अंधेरे में उस ने तेरा हाथ तो नहीं कपड़ लिया था?’’

कुहू एकदम से चौंक कर बोली, ‘‘क्यों? वह कोई डरने वाली फिल्म तो नहीं थी, जो अंधेरे में डर के मारे मेरा हाथ पकड़ लेता.’’

मोनिका को खूब हंसी आई, पर कुहू समझ नहीं पाई. बोली, ‘‘यार मोनिका, आरव की वकालत नहीं चलेगी तो वह अच्छा गायक बन जाएगा. आज उस ने फिर मुझे एक गाना सुनाया था, ‘आप की आंखों में कुछ महके हुए राज हैं, आप से भी खूबसूरत आप के अंदाज हैं…’’

मोनिका ने हंसते हुए उसे झकझोर कर कहा, ‘‘कहीं उसे तुम से प्यार तो नहीं हो गया है?’’

कुहू थोड़ी ढीली पड़ गई. उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘देख मोनिका, यह प्यारव्यार कुछ नहीं होता बस एक कैमिकल असर होता है… यार तू छोड़ इस बात को, चल खाना खाने चलते हैं.’’

इस के बाद हम पढ़ाई और परीक्षा की तैयारी में लग गए.

कुहू के पेपर पहले खत्म हो गए तो वह घर जाने की तैयारी करने लगी. सुबह 7 बजे की उस की बस थी. उसे पहुंचाने के लिए मेरी सहेली बिंदु भी बस स्टाप पर आई थी. उसे बस पर बैठाने आरव भी आया था. जातेजाते उस ने अलग ही हाथ मारा. उस ने आरव से खुद तो हाथ मिलाया ही, पकड़ कर बिंदु का भी हाथ मिलवाया.

‘‘मोनिका, सही बात तो मैं वहां से जा नहीं सकी, अभी भी उस का हाथ पकड़े वहीं खड़ी हूं. जब मैं ने हाथ बढ़ाते हुए उस की आंखों में झांका तो उन में जो दिखाई दिया, उसे उस समय मैं समझ नहीं सकी. उस की बातें, उस के सुनाए गाने कानों में गूंज रहे थे. उस ने मेरी सगाई की बात सुनी थी तो उस का चेहरा उतर गया था. मेरा शरीर कहीं भी रहा हो, मन अभी भी वहीं है,’’ आंसू पोंछते हुए कुहू ने कहा और चाय बनाने किचन में चली गई.

उस के पीछेपीछे मोनिका भी गई. उस ने पूछा, ‘‘उस के बाद तुम फेसबुक पर आरव के संपर्क में आई थी क्या?’’

कुहू ने हां में सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘होस्टल से घर आने के बाद कुछ ही दिनों में उमंग से मेरी शादी हो गई थी. उमंग बहुत ही अच्छे और नेक पति हैं. उन के जीवन का एक ही ध्येय है कि जीयो और जीने दो. पार्टी के शौकीन उमंग को घूमने और घुमाने का शौक था. वे जहां भी जाते, मुझे अपने साथ ले जाते. बेटे की पढ़ाई का नुकसान न हो, इस के लिए उसे होस्टल में डाल दिया, पर मेरा साथ नहीं छोड़ा.’’

बात सच भी थी. कुहू जब भी मोनिका को फोन करती थी, यही कहती थी कि शादी के 15 साल बाद भी उमंग का हनीमून खत्म नहीं हुआ है. कभीकभी हंसती, मस्ती में डूबी कुहू की आंखों के सामने एक जोड़ी थोड़ी भूरी, थोड़ी कोली आंखें आ जातीं तो वह खो जाती.

ऐसे ही एक रोज उमंग ने कहा, ‘‘चलो हम अपना फेसबुक पेज बनाते हैं और अपने पुराने मित्रों को खोजते हैं. अपने पुराने मित्रों से मिलने का यह बहुत बढि़या उपाय है.’’

इस के बाद दोनों ने अपनेअपने मोबाइल फोन में फेसबुक पेज बना लिया.

एक दिन कुहू अकेली थी और अपने मित्रों को खोज रही थी. अचानक उस के मन

में आया, हो सकता है आरव ने भी अपना फेसबुक पेज बनाया हो. वह आरव को खोजने लगी, पर वहां तो तमाम आरव थे. उस का आरव कौन है, कैसे पता चले. तभी उस की नजर एक चेहरे पर पड़ी तो वह चौंकी. शायद यही है उस का आरव. अब उस के पास उस का कोई फोटो तो था नहीं. बस यादें ही थीं. उस ने उस का प्रोफाइल खोल कर देखी. उस की जन्मतिथि और शहर तो वही था. उस ने तुरंत संदेश बौक्स में अपना परिचय दे कर संदेश भेज दिया. अंत में उस ने यह भी लिख दिया था, ‘‘क्या अभी भी मैं तुम्हें याद हूं.’’

बाद में उसे संकोच हुआ कि अगर कोई दूसरा हुआ तो वह उसे कितना गलत समझेगा. कुहू ने एक बार फिर उस का प्रोफाइल चैक किया और उस के फोटो को देखने लगी तो उस का फोटो देख कर उस की आंखें नम हो गईं. यह तो उसी का आरव है. फोटो में उसे उस के हाथ का वह काला निशान यानी ‘बर्थ मार्क’ दिख गया था.

अगले ही दिन आरव का संदेश आया, ‘‘हां.’ अब इस हां का अर्थ 2 तरह से निकाला जा सकता था- एक हां का मतलब मैं आरव ही हूं और दूसरा यह कि तुम मुझे भी याद हो. मगर कुहू को तो दोनों ही अर्थों में हां दिखाई दी.

कुहू ने इस संदेश के जवाब में अपना फोन नंबर दे दिया. थोड़ी देर में आरव औनलाइन दिखाई दिया तो दोनों ही यह भूल गए कि उनकी जिंदगी 15 साल आगे निकल चुकी है. कुहू 1 बच्चे की मां तो आरव 2 बच्चों का बाप बन चुका है. इस के बाद दोनों में बात हुई तो कुहू ने पूछा, ‘‘आरव, तुम ने अपने घर में मेरी बात की

थी क्या?’’

आरव की मां को कुहू के बारे में पता था कि दोनों में खूब बातें होती हैं. जब उस ने अपनी मां से कुहू की सगाई के बारे मं बताया उस ने राहत की सांस ली थी. यह बात आरव ने ही कुहू को बताई थी. इस पर आरव पर क्या असर पड़ा, यह जाने बगैर ही कुहू खूब हंसी थी. आरव सिर्फ उस का मुंह ताकता रह गया था.

हां, तो जब कुहू ने आरव से पूछा कि उस ने उस के बारे में अपने घर में बताया कि नहीं, तो इस पर आरव हंस पड़ा था. हंसी को काबू करते हुए उस ने कहा, ‘‘न बताया है, न बताऊंगा. मां तो अब हैं नहीं, मेरी पत्नी मुझ पर शक करती है. इसलिए उस से कुछ भी बताने की हिम्मत मैं नहीं कर सकता.’’

दोनों की चैटिंग और बातचीत का सिलसिला चलता रहा. आरव हमेशा शिकायत करता कि वह उसे छोड़ कर चली गई. इस पर कुहू को पछतावा होता.

बारबार आरव के शिकायत करने पर एक दिन उस ने नाराज हो कर कहा, ‘‘क्यों न चली जाती? क्या तुम ने मुझे रोका था? किस के भरोसे रुकती?’’

आरव ने कहा, ‘‘एक बात पूछूं, पर अब उस का कोई मतलब नहीं और तुम जो जवाब दोगी वह भी मुझे पता है. फिर भी तुम मुझे बताओ कि अगर मैं तुम्हारी तरफ हाथ बढ़ाता तो तुम मना तो न करतीं? पर आज बात कुछ अलग है.’’

सचमुच इस सवाल का कुहू के पास कोई जवाब नहीं था और कोई भी…

एक दिन आरव ने हंस कर कहा, ‘‘कुहू, कोई समय घटाने की मशीन होती तो हम 15 साल पीछे चले जाते.’’

‘‘अरे मैं तो कब से वहीं हूं, पर तुम कहां हो….’’

‘‘मैं तुम्हारे पीछे खड़ा हूं,’’  आरव ने जोर से हंस कर कहा, ‘‘पर तुम बहुत झूठी हो, मुझे दिखाई ही नहीं दे रही हो,’’ और उस ने एक गाना गाया, ‘बंदा परवर थाम लो जिगर…’’

कुहू भी जोर से हंस कर बोली, ‘‘तुम्हारी यह गाने की आदत अब तक नहीं गई. अब इस आदत का मतलब खूब समझ में आता है, पर अब इस का क्या फायदा.’’

दिल की सच्ची और ईमानदार कुहू को थोड़ी आत्मग्लानि हुई कि वह जो कर रही है वह गलत है. फिर उस ने सबकुछ उमंग से बताने का निर्णय कर लिया और रात में खाने के बाद उस ने सारी सचाई बता दी.

अंत में कहा, ‘‘इस में सारी गलती मेरी ही है. मैं ने ही आरव को ढूंढ़ा और अब मुझ से झूठ नहीं बोला जाता. अब आप को जो सोचना है, सोचिए.’’

पहले तो उमंग थोड़ा परेशान हुआ, पर फिर बोला, ‘‘कुहू, तुम झूठ बोल रही हो. तुम मजाक कर रही हो. सच बोलो… मेरे दिल की धड़कन थम रही है.’’

‘‘नहीं उमंग यह सच है.’’ कुहू ने कहा. उस ने सारी बातें तो उमंग को बता दी थी, पर गाने सुनाने और फिल्म देखने वाली बात नहीं बताई थी. शायद हिम्मत नहीं कर सकी.

उमंग ने इसे गंभीरता से नहीं लिया. कहा, ‘‘जाने दो, कोई प्रौब्लम नहीं है. इस तरह तो होता रहता है. जीवन में यह सब चलता रहता है.’’

अगले दिन कुहू ने सारी बात आरव को बताई तो वह हैरान होते हुए बोला, ‘‘कुहू, तुम बहुत खुशहाल हो, जो तुम्हें ऐसा जीवनसाथी मिला है, जबकि सुरभि ने तो मुझे कैद कर रखा है.’’

‘‘इस में गलती तुम्हारी है, जो तुम अपने जीवनसाथी को विश्वास में नहीं ले सके.’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. मैं ने बहुत कोशिश की. सुरभि भी मेरे साथ वकील है… वह पता नहीं ऐसा क्यों करती है.’’

इस के बाद एक दिन आरव ने कुहू की बात सुरभि से करा दी. उस ने कुहू से तो खूब मीठीमीठी बातें कीं, पर इस के बाद आरव का जीना मुहाल कर दिया.

उस ने आरव से स्पष्ट कहा, ‘‘तुम कुहू से संबंध तोड़ लो वरना मैं मौत को गले लगा लूंगी.’’

अगले दिन आरव का संदेश था, ‘कुहू मैं तुम से कोई बात नहीं कर सकता. सुरभि ने सख्ती से मना कर दिया है.’

उस समय कुहू और उमंग खाना खा रहे थे. संदेश पढ़ कर कुहू रो पड़ी. उमंग ने पूछा तो उस ने बेटे की याद आने का बहाना बना दिया. कितने दिनों तक वह संताप में रही. फोन भी किया, पर आरव ने बात नहीं की. हार कर कुहू ने संदेश भेजा कि एक बार तो बात करनी ही पड़ेगी, ताकि मुझे पता चल सके कि क्या हुआ है.

इस के बाद आरव का फोन आया. बोला, ‘‘मेरे यहां कुछ ठीक नहीं है. तीन दिन हो गए, हम सोए नहीं हैं. सुरभि को हमारी निस्स्वार्थ दोस्ती से सख्त ऐतराज है. अब मैं आप से प्रार्थना कर रहा हूं कि मुझे माफ कर दो. मुझे पता है, इन बातों से तुम्हें कितनी तकलीफ हो रही है और मुझे ये सब कहते हुए भी. विधि का विधान भी यही है… हम इस से बंधे हुए जो हैं.’’

कुहू बड़ी मुश्किल से सिर्फ इतना कह पाई, ‘‘कोई प्रौब्लम नहीं, अब मैं तुम से मिलने के लिए 15 साल और इंतजार करूंगी.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर आरव ने फोन काट दिया.

कूहू ने भी उस का नंबर डिलीट कर दिया और उसे अपनी फ्रैंडलिस्ट स निकाल दिया. कुहू ने मोनिका का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘यार मोनिका, मैं ने उस का नंबर    तो डिलीट कर दिय, पर जिस नंबर को मैं पिछले 15 सालों से नहीं भूल सकी उसे इस तरह कैसे भूल सकती हूं. वजह मुझे पता नहीं. मुझे उस से प्यार नहीं था, फिर भी मैं उसे नहीं भूल सकी. उस के लिए मेरा दिल दुखी हुआ है और अब मुझे यह पता नहीं कि इस दिल को समझाने के लिए क्या करूं. मेरी समझ में नहीं आता कि उस ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया, जबकि उसे पता था, फिर भी उस ने ऐसा क्यों किया. बस, जब तक उसे अच्छा लगा, मुझ से बातें करता रहा और जब जान पर आ गई तो तुम कौन और मैं कौन वाली बात कह कर किनारा कर लिया.’’

कुहू इसी तरह की बातें कह कर रोती रही और मोनिका ने भी उसे रोने दिया. उसे रोका नहीं. यह समझ कर कि उस के दिल पर जितना बोझ है, वह आंसुओं के रास्ते बह जाए.

अब मोनिका उस से कहती भी क्या, जबकि वह जानती थी कि वह प्यार ही था, जिसे कुहू भुला नहीं सकी थी. एक बार आरव से उस ने खुद कहा था, ‘‘हम औरतों के दिल में 3 कोने होते हैं- एक में उस का घर, दूसरे में उस का मायका और जो दिल का तीसरा कोना होता है उस में उस की अपनी कितनी यादें संजोई रहती हैं, जिन्हें वह फुरसत के क्षणों में निकाल कर धोपोंछ कर रख देती है.’’

मोनिका सोचने लगी, जो लड़की प्यार को कैमिकल रिएक्शन मानती थी और दिल को मात्र रक्त सप्लाई करने का साधन, उस ने दिल की व्याख्या कर दी थी और अब कह रही थी कि उसे आरव से प्यार नहीं है.

मोनिका ने उसे यही समझाया और वह खुद भी समझतीजानती थी कि उसे जो मिला है,

अच्छा ही मिला है, कोई भी विधि का विधान नहीं बदल सकता.    ‘‘दिल की सच्ची और ईमानदार कुहू को थोड़ी आत्मग्लानि हुई

कि वह जो कर रही है वह गलत है.

फिर उस ने सबकुछ उमंग से बताने का निर्णय कर लिया…’

लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह

True Story : वसूली

True Story : जाति के साथ अपने नाम की पुकार सुन कर निरपत चौंका. हड़बड़ा कर घर से बाहर निकला तो देखा, सामने एक व्यक्ति सफेद पायजामा और मोटे कपड़े का लंबा कुरता पहने खड़ा मुसकरा रहा था, जिस के माथे पर लंबा तिलक था. उड़ती धूल व लूलपट से बचाव के लिए उस ने सिर और कानों पर कपड़ा लपेट रखा था. निरपत उसे अचंभे से देख ही रहा था कि उस ने भौंहें उठाते हुए पूछ लिया, ‘‘आप ही निरपतलाल हैं न, दिवंगत सरजू के सुपुत्र?’’

‘‘हां, मगर मैं ने आप को पहचाना नहीं.’’

‘‘अरे, नहीं पहचाना,’’ उस का स्वर व्यंग्यात्मक था.

निरपत अनभिज्ञ सा उसे देखता रह गया. उलझन में पड़ गया कि कौन हो सकता है, जो घर के सामने खड़ा हो कर बड़े अधिकार से उस का और पिताजी का नाम ले रहा है.

‘‘आश्चर्य है निरपतलाल, कि आप इतनी जल्दी भूल गए, प्रयाग जा कर कुछ संकल्प किया था कभी आप ने?’’ तंज सा कसते हुए उस ने सिर पर बांधा कपड़ा खोल दिया.

उस का चेहरा देखते ही निरपत को याद आ गया. पंडे, झंडे, नाई, नावें, श्रद्धानत भीड़ और भी बहुतकुछ. पिछले शुरुआती जाड़े की ही तो बात है, 6 महीने भी नहीं हुए होंगे. वह पिता के फूल विसर्जित करने गया था. साथ में मां के अलावा 2 रिश्तेदार भी थे.

भोर में ट्रेन जैसे ही नैनी स्टेशन पर रुकी तो पुलिस वालों की तरह संदिग्ध की तलाश सी करते हुए कई लोग ट्रेन में चढ़ आए थे और उस का घुटा सिर देखते हुए बारीबारी से पूछ लेते थे कि कहां के रहने वाले हो, किस जाति के हो. यह व्यक्ति जवाब पाने के बाद ठहर गया और सफेद कपड़े में बंधी मटकी देखते हुए बोला, ‘आप हमारे ही यजमान हैं. अब आप को किसी की बातों में आने की जरूरत नहीं और न कहीं भटकने की जरूरत है. अपना सामान समेट लीजिए अगला स्टेशन आने में देर नहीं है.’

अपने पंडे का नाम सुन कर वे आश्वस्त हो गए कि अब कहीं भटकना नहीं पड़ेगा. वरना अनजानी जगह और कर्मकांडी स्थल पर होने वाली ठगी से भयभीत थे. यही व्यक्ति रेलवे स्टेशन से आटोरिकशा में साथ बैठ कर उन्हें रेलपुल के पास यमुना किनारे ले गया था. नाई और नाव वाले से मेहनताना तय करवा दिया, हालांकि इन सब में खासी रकम अदा करनी पड़ी थी. इस ने यह भी बताया कि पंडा महाराज का घर पास में ही है, वे यहीं से आप लोगों के साथ संगम तक नाव में जाएंगे और पूरे विधिविधान से पूजन करवा कर अस्थिविसर्जन करवा देंगे. तब तक जिन्हें बाल बनवाना हो, बनवा लें. शुद्धि के लिए यहां भी बाल बनवाने पड़ते हैं, अन्यथा शुद्धि नहीं होती.

पंडे के आते ही नाव संगम की ओर बढ़ी. नाव ने किनारा छोड़ा तो थोड़ी देर में रेल का पुल दूर होता लगा. पुल के ऊपर गुजरती रेलगाड़ी, बहती यमुना की नीली अथाह जलराशि, आसपास से गुजरती नावें और नावों के पीछे मंडराते सफेद पक्षियों के समूह, सब निरपत को चकित कर रहे थे.

वह नाव में पहली बार बैठा था. अन्य नावों में सवार यात्री नदी में कुछ फेंकते तो पक्षी झपटते हुए जल में क्रीड़ा करने लगते. उस ने भी साथ लाए चने फेंके तो पक्षियों का झुंड उस की नाव के पीछे लग लिया. चढ़ते सूरज की गुनगुनी धूप में छोटी सी जलयात्रा से वह रोमांचित था, यहां तक कि वह पिता के मृत्युशोक को थोड़ी देर के लिए भूल सा गया था.

तभी पंडे ने शुद्ध उच्चारण व मीठी वाणी में संगम की महिमा का गुणगान आरंभ कर दिया. मां ध्यानमग्न हो कर हाथ जोड़े सुनने लगीं. उन्होंने जब यह बताया कि संगम में अस्थि विसर्जित करने से मृतक की आत्मा को मोक्ष मिलता है, आत्मा कहीं भटकती नहीं है तो मां के चेहरे पर गहरा संतोष उभरा था. उन्होंने कुछ और भी बातें बताईं, ‘चूंकि यह धार्मिक स्थान है, फिर भी यहां चोरउचक्कों, लुच्चेलफंगों, ठगों की कमी नहीं है. इसलिए आप सभी को सतर्क रहना है. कोई कितना भी बातें बनाए, आप का हितैषी बने, किसी की बातों में नहीं आना है. कोई भी फूल, पत्ती, प्रसाद, दूध चढ़ाने को दे तो हाथ में नहीं लेना, वरना ठगी के शिकार हो सकते हैं.

‘एक बात बहुत गौर से सुनो, अस्थियां जल में प्रवात करते समय ध्यान रहे कि किसी के हाथ न आने पाएं वरना पानी में क्रीड़ा कर रहे केवट अस्थियों के जलमग्न होने के पहले कठौते में लोप लेते हैं और फिर धन की मांग करते हैं, अन्यथा अस्थियों को कहीं भी फेंक देने की धमकी देते हैं. इस से श्रद्धालुओं का मन खराब हो जाता है.’

साथ आए रिश्तेदार और मां सम्मोहित से हो कर उन की बातें सुन रहे थे. सुन तो निरपत भी रहा था, पर उस का ध्यान इधरउधर के दृश्यों की ओर अधिक था. जब नाव संगम के करीब पहुंचने लगी और पंडितजी आश्वस्त हो गए कि उन की बातों का प्रभाव पड़ रहा है तो अपने हित की बातों पर आए. उन्होंने निरपत की ओर लक्ष्य कर के कहा, ‘आप अपने मन में क्या संकल्प कर के आए हैं?’

निरपत चुप रहा. उसे कोई जवाब नहीं सूझा. पंडितजी ने कुरेदा, ‘अरे, भई, जब कोई किसी धार्मिक स्थान पर धर्मकर्म करने जाता है तो अपने मन में कुछ तो सोच कर जाता है कि कम से कम इतना दानपुण्य करेंगे. आप ने भी तो कुछ सोचा होगा?’

निरपत फिर भी चुप रहा. पंडितजी को उस की चुप्पी भा रही थी. मुसकरा कर बोले, ‘आप शायद संकोच कर रहे हैं. कई लोग यहां आ कर गुप्तदान करते हैं. अगर ऐसी कोई मंशा है तो बताएं.’

निरपत को चुप देख मां ने हस्तक्षेप किया, ‘महाराज, अभी यह बच्चा है. इसे उतनी समझ नहीं है. आप ही ज्ञान दो.’पंडितजी प्रसन्न हो उठे, बोले, ‘कितने भाईबहन हैं?’

‘अकेला लड़का है,’ जवाब मां ने दिया.

हूं…तो इन के पिताजी सब इन्हीं के लिए छोड़ गए हैं. कुछ ले कर तो नहीं गए न. सब को यहीं छोड़ कर जाना पड़ता है, कोई कुछ साथ नहीं ले जाता. न जमीन, न जायदाद और न धनदौलत. लेकिन धर्मकर्म, दानपुण्य साथ जाता है. धर्मकर्म की अधूरी इच्छा को उन की संतानें पूरी करती हैं. इसीलिए यहां बहुत दूरदूर से आ कर श्रद्धालु दानपुण्य करते हैं. आप लोग भी बहुत दूर से आए हैं, कितनी दूर है आप का घरगांव?’

‘कमसेकम 500 मिलोमीटर,’ एक रिश्तेदार ने बताया.

आप सभी के मन में आस्था होगी, तभी इतनी दूर से किरायाभाड़ा लगा कर आए हैं.’

‘हां, महाराज,’ दूसरे रिश्तेदार ने समर्थन किया.

‘तब आप सभी मेरी बातें ध्यान से सुनिए. नियम है कि मृतक को वैतरणी पार करवाने के लिए गौदान करना होता है. उन की आत्मा की शांति के लिए कमसेकम 5 भूखे ब्राह्मणों को भरपेट भोजन, वस्त्र और पूजन के लिए जो भी दक्षिणा आप देना चाहें, यह आप की श्रद्धा पर निर्भर है.’

निरपत उन की चतुराईभरी बातों को समझ रहा था. उस ने एतराज करना चाहा, ‘मगर पंडितजी, हमें यहां से वापस जा कर अपने गांव में गंगभोज करना ही होगा. वहां गौपूजन भी होगा. 5 से अधिक ब्रह्मणों को भरपेट भोजन भी कराया जाएगा और जो भी बन पड़ेगा, दानपुण्य भी किया ही जाएगा.’

‘यह तो अच्छी बात है, परंतु यहां की बात और है. यह तीर्थस्थल है. माघ के महीने में महात्माओं व भक्तों का बड़ा जमघट होता है. कितने धनिक सारी भौतिक सुखसुविधाएं त्याग कर कर महीनेभर यहां कल्पवास करते हैं. विश्वप्रसिद्ध कुंभ का आयोजन यहीं होता है. यहां देवों का निवास है. आप यहां के महत्त्व को जानिए.’

मां उन की बातें बड़े गौर से सुन रही थीं और प्रभावित भी हो रही थीं. उन्होंने हाथ जोड़ते हुए समर्थन ही कर दिया, ‘आप की सब बातें सच्ची हैं, महाराज.’

‘मैं सत्य ही बोलता हूं. ये सब ज्ञान की बातें हैं. बड़बड़े नेता, अभिनेता, पूंजीपति यहां आ कर अपने प्रियजनों के मोक्ष के लिए हम से कर्मकांड करवाते हैं?’

‘मगर पंडितजी हम लोग छोटे किसान हैं, जो विधि आप बता रहे हैं, हमारी सामर्थ्य के बाहर है,’ निरपत ने विनम्रता से कहा.

‘अगर सामर्थ्य नहीं तो कोई बात नहीं, हम तो मृतक की आत्मा के मोक्ष का उचित मार्ग बता रहे हैं. आगे आप की जैसी इच्छा,’ उन्होंने उपेक्षित भाव से मां की ओर देखा.

मां अनुरोध सा कर बैठीं, ‘आप की ऐसी कृपा हो जाए महाराज कि उन की आत्मा को शांति मिले.’

‘जब कोई कार्य नियमधर्म, विधिविधान से होता है, तब ही कृपा बरसती है.’

‘लेकिन, हमारे गांव के लोग बताते हैं कि इतना खर्च नहीं होता है,’ निरपत ने शंका व्यक्त की. ‘उन की बात छोड़ो. अपनी इच्छा बताओ. अगर धन की कमी है तो उस की चिंता छोड़ो. हम ऐसे लालची नहीं हैं कि कर्मकांड में कोई कसर छोड़ दें. आप की माताजी चाहती हैं कि कार्य उचित ढंग से पूर्ण हो.’

‘हां, महाराज,’ मां ने खुले मन से समर्थन किया.

‘तो ठीक है,’ कहते हुए पंडित जी तेजी से मंत्रोच्चारण करने लगे.

वापसी में मां संतुष्ट थीं कि पति की आत्मा की शांति के लिए कोई कोरकसर नहीं छोड़ी गई है. पंडे की मोटी पोथी में दर्ज वंश के अनेक लोगों के नामों को सुन कर उन का विश्वास और बढ़ा था. साथ आए दोनों रिश्तेदार खुश थे कि बिना किसी झंझट के सब निबट गया और सकुशल तीर्थलाभ भी हो गया. लेकिन निरपत ठगा सा महसूस कर रहा था. किराएभर का रुपया छोड़ कर सब तो दक्षिणा के नाम पर धरवा लिया गया था. परेशान था कि गौदान के नाम पर एक बछिया की पूंछ का स्पर्शभर कराया गया और बछिया वाला तुरंत बछिया सहित कहीं गायब हो गया. 5 ब्राह्मणों को तो भोजन करा दिया जाएगा. जबकि गंगा के घटनेघुटने पानी में खड़ा कर के सब स्वीकार करा लिया गया था, सब उधार पर. और कहते हैं कि फसल आने पर उन का आदमी गांव आएगा, तब चुकता कर देना. खीझ सी उस के मन में उठ रही थी, लेकिन मां के कारण चुप रह जाना पड़ा था.

आननफानन पेड़ के नीचे बिछाई गई नंगी चारपाई पर आगंतुक आसन से बैठा था. तगादे की चिट्ठी एक तुड़ेमुड़े कागज के रूप में नोटिस की तरह निरपत को पकड़ा दी थी जिसे पढ़ कर वह अचंभे में था. हिसाब भी समझा दिया था कि 1 गौ का दान, 5 भूखे ब्राह्मणों का उत्तम भोजन, उन के वस्त्र, उधार पर किए गए कर्मकांड पर ब्याज और गांव तक आनेजाने का उस पर हुआ व्यय. यह भी स्पष्ट कर दिया था कि उस ने जो परेशनी व कष्ट गांव तक पहुंचने में उठाए हैं, उन का मूल्य नहीं जोड़ा गया है. उस के लिए जो भी भेंट करेंगे, वह सहर्ष स्वीकार कर लेगा, नानुकुर नहीं करेगा.

आसपास गांव के कुछ फालतू लोग इकट्ठे हो गए थे और उत्सुकता से देख रहे थे. निरपत ने मां की ओर देखा, जो आगंतुक की ओर हाथ जोड़े दया की पात्र बनी खड़ी थी.

‘‘महाराज, हम इतना रुपया नहीं दे सकते और न हमारे पास है,’’ निरपत ने अडिगता से कहा.

‘‘हम जानते हैं, गांव वालों के पास नकद रुपया नहीं होता है, जब फसल बिकती है, तब ही रुपया आता है.’’

‘‘इस बार फसल भी कमजोर हुई है,’’ निरपत ने विनय सी की.

‘‘आप मंडी जा कर अनाज बेचने की तैयारी में हैं. चावल की फसल इस बार ठीक हुई थी. मैं ने सब पता कर लिया है.’’

‘‘अगर मैं आप की मांग पूरी करने से मना कर दूं तो…’’ निरपत ने पलटा खाया.

आगंतुक हंसा, उस ने भीड़ पर नजर घुमाई और मां की ओर देखते हुए बोला, ‘‘आप मना तो कर ही नहीं सकते. जो आदमी श्रद्धा से 500 किलोमीटर दूर जा कर अपनी मां के सामने गंगा में खड़े हो कर संकल्प करता है, वह कर्मकांड की उधारी से कैसे इनकार कर सकता है? कहीं आप यह तो नहीं सोच रहे थे कि वसूली करने आप के गांव कोई आ नहीं सकेगा?’’

निरपत को चुप रह जाना पड़ा. उस के मन में यह विचार आया भी था. उस ने मां की ओर देखा. उन की आंखें डबडबा गई थीं. भीड़ में खुसुरफुसुर होने लगी. वह धीमे से बोला, ‘‘अभी हमारे पास रुपए नहीं हैं.’’

‘‘रुपए की चिंता न करें. ईश्वर की कृपा से आप के पास इतना धनधान्य है कि आप अनाज दे कर पितृऋण से मुक्त हो सकते हैं.’’

‘‘आप अनाज ले कर कैसे जा सकेंगे?’’

‘उस की भी चिंता आप न करें.’’

दोनों का वार्त्तालाप एक बहस का रूप लेने लगा तो मां रोने लगी और करुण स्वर में बोली, ‘‘क्यों बहस करते हो निरपत, जब ये अनाज लेने को तैयार हैं तो दे दो और मुक्ति पाओ.’’

‘‘जितने में इन की उधारी चुकता हो जाए. पिता की आत्मा को क्यों कष्ट में डालते हो. सब उन का ही तो है. वे इतनी खेती छोड़ कर मरे हैं.’’

मां के हस्तक्षेप से निरपत को चुप रह जाना पड़ा. मां ने गांव वालों की मदद से 1 बोरा गेहूं निकलवा दिया. पर आगंतुक नहीं माना. उस ने 2 बोरे गेहूं और आधा बोरा चावल पर ही समझौता किया. भीड़ बढ़ गई थी. लोगों में कुतूहल था कि यह व्यक्ति इतना अनाज कैसे ले जाएगा. भीड़ में बच्चे भी थे. उस ने बच्चों से कहा, ‘‘जाओ, गुप्ताजी को बुला लाओ.’’

उन बच्चों में गुप्ताजी का बेटा भी खड़ा था. वह दौड़ कर पिताजी को बुला लाया. आगंतुक तो पहले ही उन से बात कर के आया था. दोनों के बीच कुछ देर मोलभाव का नाटक चलता रहा. गांव के बनिए ने मौके का फायदा उठाया. नोटों की गड्डी जब आगंतुक ने थामी तो निरपत निरीह भाव से देखता रह गया.

Kahaniyan 2025 : मन का घोड़ा

Kahaniyan 2025 :  ‘‘अंकुर की शादी के बाद कौन सा कमरा उन्हें दिया जाए, सभी कमरे मेहमानों से भरे हैं. बस एक कमरा ऊपर वाला खाली है,’’ अपने बड़े बेटे अरुण से चाय पीते हुए सविता बोलीं.

‘‘अरे मां, इस में इतना क्या सोचना? हमारे वाला कमरा न्यूलीवैड के लिए अच्छा रहेगा. हम ऊपर वाले कमरे में शिफ्ट हो जाएंगे,’’ अरुण तुरंत बोला.

यह सुन पास बैठी माला मन ही मन बुदबुदा उठी कि आज तक जो कमरा हमारा था, वह अब श्वेता और अंकुर का हो जाएगा. हद हो गई, अरुण ने मेरी इच्छा जानने की भी जरूरत नहीं समझी और कह दिया कि न्यूलीवैड के लिए यह अच्छा रहेगा. तो क्या 15 दिन पूर्व की हमारी शादी अब पुरानी हो गई?

तभी ताईजी ने अपनी सलाह देते हुए कहा, ‘‘अरुण, तुम अपना कमरा क्यों छोड़ते हो? ऊपर वाला कमरा अच्छाभला है. उसे लड़कियां सजासंवार देंगी. और हां, अपनी दुलहन से भी तो पूछ लो. क्या वह अपना सुहागकक्ष छोड़ने को तैयार है?’’ और फिर हलके से मुसकरा दीं. पर अरुण ने तो त्याग की मूर्ति बन झट से कह डाला, ‘‘अरे, इस में पूछने वाली क्या बात है? ये नए दूल्हादुलहन होंगे और हम 15 दिन पुराने हो गए हैं.’’

ये शब्द माला को उदास कर गए पर गहमागहमी में किसी का उस की ओर ध्यान न गया. ससुराल की रीति अनुसार घर की बड़ी महिलाएं और नई बहू माला बरात में नहीं गए थे. अत: बरात की वापसी पर दुलहन को देखने की बेसब्री हो रही थी. गहनों से लदी छमछम करती श्वेता ने अंकुर के संग जैसे ही घर में प्रवेश किया वैसे ही कई स्वर उभर उठे, वाह, कितनी सुंदर जोड़ी है.

‘‘कैसी दूध सी उजली बहू है, अंकुर की यही तो इच्छा थी कि लड़की चांद सी उजली हो,’’ बूआ सास दूल्हादुलहन पर रुपए वारते हुए बोलीं.

माला चुपचाप एक तरफ खड़ी देखसुन रही थी. तभी सविताजी ने माला को नेग वाली थाली लाने को कहा और इसी बीच कंगन खुलाई की रस्म की तैयारी होने लगी. महिलाओं की हंसीठिठोली और ठहाके गूंज रहे थे पर माला अपनी कंगन खुलाई की यादों में खो गई…

फूल और पानी भरी परात से जब माला ने 3 बार अंगूठी ढूंढ़ निकाली तब सभी ने एलान कर डाला, ‘‘भई, अब तो माला ही राज करेगी और अरुण इस का दीवाना बना घूमेगा.’’

पर माला तो अरुण का चेहरा देखने को भी तरसती रही. भाई की शादी की व्यस्तता व मेहमानों, दोस्तों की गहमागहमी में माला का ध्यान ही नहीं आया. माला के कुंआरे सपने साकार होने को तड़पते और मन में उदासी भर देते, फिर भी माला सब के सामने मुसकराती बैठी रहती.

शाम 4 बजे रीता ने आवाज लगाई, ‘‘जिसे भी चाय पीनी हो वह जल्दी से यहां आ जाए. मैं दोबारा चाय नहीं बनाऊंगी.’’ ‘‘ला, मुझे 1 कप चाय पकड़ा दे. फिर बाहर काम से जाना है,’’ अरुण ने भीतर आते हुए कहा.

‘‘ठहरो भाई, पहले एक बात बताओ. वह आप के हस्तविज्ञान व दावे का क्या रहा जब आप ने कहा था कि मेरी दुलहन एकदम गोरीचिट्टी होगी. यह बात तो अंकुर भाई पर फिट हो गई,’’ कह रीता जोरजोर से हंसने लगी.

‘‘अच्छा, एक बात बता, मन का लड्डू खाने में कोई बंदिश है क्या?’’ अरुण ने हंसते हुए कहा.

तभी ताई सास ने अपनी बेटी रीता को डपट दिया, ‘‘यह क्या बेहूदगी है? नईनवेली बहुएं हैं, सोचसमझ कर बोलना चाहिए… और अरुण तेरी भी मति मारी गई है क्या, जो बेकार की बातों में समय बरबाद कर रहा है?’’

शादी के बाद अंकुर और श्वेता हनीमून पर ऊटी चले गए ताकि अधिकतम समय एकदूसरे के साथ व्यतीत कर सकें, क्योंकि 20 दिनों के बाद ही अंकुर को लंदन लौटना था. श्वेता तो पासपोर्ट और वीजा लगने के बाद ही जा पाएगी. हनीमून पर जाने का प्रबंध अरुण ने ही किया था. ये सब बातें माला को पिछले दिन रीता ने बताई थीं. घर के सभी लोग अरुण की प्रशंसा के पुल बांध रहे थे पर माला के मन में कांटा सा गड़ गया. मन में अरुण के प्रति क्रोध की ज्वाला उठने लगी.

‘हमारा हनीमून कहां गया? अपने लिए इन्होंने क्यों कुछ नहीं सोचा? क्यों? रोऊं, लडं क्या करूं?’ ये सवाल, जिन्हें संकोचवश अरुण से स्पष्ट नहीं कर पा रही थी, उस के मन को लहूलुहान कर रहे थे.

समय का पहिया अंकुर को लंदन ले गया. ऐसे में श्वेता अकेलापन अनुभव न करे, इसलिए घर का हर सदस्य उस का ध्यान रखने लगा था. भानजी गीता तो उसे हर समय घेरे रहती. माला तो जैसे कहीं पीछे ही छूटती जा रही थी. तभी तो माला शाम के धुंधलके में अकेली छत पर खड़ी स्वयं से बतिया रही थी कि मानती हूं कि श्वेता को अंकुर की याद सताती होगी. पर सारा परिवार उसी से चिपका रहे, यह तो कोई बात न हुई. मैं भी तो 2 माह से यहीं रह रही हूं और अरुण भी तो दिल्ली से सप्ताह के अंत में 1 दिन के लिए आते हैं. मुझ से हमदर्दी क्यों नहीं?

तभी किसी के आने की आहट से उस की विचारधारा भंग हो गई.

‘‘माला, तुम यहां अकेली क्यों खड़ी हो? चलो, नीचे मां तुम्हें बुला रही हैं. और हां कल सुबह की ट्रेन से दिल्ली निकल जाऊंगा. तुम श्वेता का ध्यान रखना कि वह उदास न हो. वैसे तो सभी ध्यान रखते हैं पर तुम्हारा ध्यान रखना और अच्छा रहेगा…’’

अरुण आगे कुछ और कहता उस से पहले ही माला गुस्से से चिल्ला पड़ी, ‘‘उफ, सब के लिए आप के मन में कोमल भावनाएं हैं पर मेरे लिए नहीं. क्या मैं इतनी बड़ी हो गई हूं कि मैं सब का ध्यान रखूं और खुद को भूल जाऊं? मेरी इच्छाएं, मेरी कल्पनाएं, मेरा हनीमून उस का क्या?’’

अरुण हैरान सा माला को देखता रह गया, ‘‘आज तुम्हें यह क्या हो गया है माला? तुम श्वेता से अपनी तुलना कर रही हो क्या? उस के नाम से तुम इतना अपसैट क्यों हो गईं?’’

‘‘नहीं, मैं किसी से तुलना क्यों करूंगी? मुझे अपना स्थान चाहिए आप के दिल में… परसों कौशल्या बाई बता रही थी कि अरुण भैया तो ब्याह के लिए तैयार ही नहीं थे. वह तो मांजी 3 सालों से पीछे लगी थीं तब उन्होंने हामी भरी थी. तो क्या आप के साथ शादी की जबरदस्ती हुई है? और उस दिन रीता ने जो हस्तविज्ञान वाली बात कही थी, इस से लगता है कि आप की चाहत शायद कोई और थी पर…’’ माला ने बात अधूरी छोड़ दी.

‘‘उफ, तुम औरतों का दिमागी घोड़ा बिना लगाम के दौड़ता है. तुम इन छोटीछोटी व्यर्थ की बातों का बतंगड़ बनाना छोड़ो और मन शांत करो. अब नीचे चलो. सब खाने पर इंतजार कर रहे हैं.’’

वह दिन भी आ गया जब माला अरुण के साथ दिल्ली आ गई. यहां अपना घर सजातेसंवारते उस के सपने भी संवर रहे थे. अरुण के औफिस से लौटने से पहले वह स्वयं को आकर्षक बनाने के साथ ही कुछ न कुछ नया पकवान, चाय आदि बनाती. फिर दोनों की गप्पों व कुछ टीवी सीरियल देखतेदेखते रात गहरा जाती तो दोनों एकदूसरे के आगोश में समा जाते.

हां, एक बार छुट्टी के दिन माला ने दिल्ली दर्शन की इच्छा भी व्यक्त की थी तो, ‘‘ये रोमानी घडि़यां साथ बिताने के लिए हैं, हमारा हनीमून पीरियड है यह. फिर दिल्ली तो घूमना होता ही रहेगा जानेमन,’’ अरुण का यह जवाब गुदगुदा गया था.

शनिवार की छुट्टी में अरुण अलसाया सा लेटा था कि तभी मोबाइल बज उठा. अरुण फोन उठा कर बोला, ‘‘हैलो… अच्छा ठीक है, मैं कल स्टेशन पहुंच जाऊंगा. ओ.के. बाय.’’

‘‘किस का फोन था?’’ चाय की ट्रे ले कर आती माला ने पूछा.

‘‘श्वेता का. वह कल आ रही है. उसे मैं रिसीव करने जाऊंगा,’’ कह अरुण ने चाय का कप उठा लिया.

श्वेता के आने की खबर से माला का उदास चेहरा अरुण से छिपा न रह सका, ‘‘क्या हुआ? अचानक तुम गुमसुम सी क्यों हो गईं?’’ अरुण ने उस की ओर देखते हुए पूछा.

‘‘अभी दिन ही कितने हुए हैं हमें साथ समय बिताते कि…’’

‘‘अरे यार, उस के आने से रौनक हो जाएगी, कितना हंसतीबोलती है. तुम्हारा भी पूरा दिन मन लगा रहेगा. सारा दिन अकेले बोर होती हो,’’ माला की बात बीच में ही काटते हुए अरुण ने कहा.

माला चुपचाप चाय की ट्रे उठा कर रसोई की ओर बढ़ गई.

‘फिर वही श्वेता. क्या वह अपने मायके या ससुराल में नहीं रह सकती थी कुछ महीने? फिर चली आ रही है दालभात में मूसलचंद. ‘खैर, मुसकराहट तो ओढ़नी ही होगी वरना अरुण न जाने क्या सोचने लगें.’ मन ही मन सोच माला नाश्ते की तैयारी करने लगी.

छुट्टी के दिन अरुण श्वेता और माला को एक मौल में ले गया. वहां की चहलपहल और भीड़ का कोई छोर ही न था. श्वेता की खुशी देखते ही बन रही थी, ‘‘भाभी, आप तो बस जब मन आए यहीं चली आया करो. यहां शौपिंग का मजा ही कुछ और है,’’ माला की ओर देख उस ने कहा.

‘‘मुझे तो अरुण, पहले कभी यहां लाए ही नहीं. यह सब तो तुम्हारे कारण हो रहा है,’’ माला उदासी भरे स्वर से बोली.

‘‘अच्छा,’’ श्वेता का स्वर उत्साहित हो उठा.

वहीं मौल में खाना खाते हुए श्वेता की आंखें चमक रही थीं. बोली, ‘‘वाह, खाना कितना स्वादिष्ठ है.’’

इस पर अरुण ने हंस कर कहा, ‘‘मुझे मालूम था कि श्वेता तुम ऐंजौय करोगी. तभी तो यहां लंच लेने की सोची.’’

‘‘और मैं?’’ माला ने अरुण से पूछ ही लिया.

‘‘अरे, तुम तो मेरी अर्द्धांगिनी हो, जो मुझे पसंद वही तुम्हें भी पसंद आता है, अब तक मैं यह तो जान ही गया हूं. इसलिए तुम्हें भी यहां आना तो अच्छा ही लगा होगा.’’

बुधवार की सुबह अखबार थामे श्वेता बोली, ‘‘बिग बाजार में 50% की बचत पर सेल लगी है. भैया, मुझे 5,000 दे देंगे? 2000 तो हैं मेरे पास. मैं और भाभी ड्रैसेज लाएंगी. ठीक है न भाभी? लंदन में यही ड्रैसेज काम आ जाएंगी.’’

‘‘हांहां, क्रैडिट कार्ड ले लेगी माला… दोनों शौपिंग कर लेना.’’

माला अरुण को मुंह बाए खड़ी देखती रह गई कि क्या ये वही अरुण हैं, जिन्होंने कहा था कि पहले शादी में मिली ड्रैसेज को यूज करो, फिर नई खरीदना. तो क्या श्वेता को ड्रैसेज का ढेर नहीं मिला है शादी में? ये छोटीबड़ी बातें माला का मन कड़वाहट से भरती जा रही थीं.

उस दिन तो माला का मन जोर से चिल्लाना चाहा था जब श्वेता बिस्तर में सुबह 9 बजे तक चैन की नींद ले रही थी और वह रसोई में लगी हुई थी. तभी अरुण ने श्वेता को चाय दे कर जगाने को कह दिया. वह जानती थी कि अरुण को देर तक बिस्तर में पड़े रहना पसंद नहीं. फिर श्वेता से कुछ भी क्यों नहीं कहा जाता? मन में उठता विचारों का ज्वार, सुहागरात की ओर बहा ले गया कि मुझे तो प्रथम मिलन की रात्रि में प्यार के पलों से पहले संस्कार, परिवार के नियमों आदि का पाठ पढ़ाया था अरुण ने… फिर तभी चाय उफनने की आवाज उसे वर्तमान में ले आई.

मैं आज और अभी अरुण से पूछ कर ही रहूंगी, सोच माला बाथरूम में शेव करते अरुण के पास जा खड़ी हुई.

‘‘क्या बात है? कोई काम है क्या?’’ शेविंग रोक अरुण ने पूछा.

‘‘क्या मैं जबरदस्ती आप के गले मढ़ी गई हूं? क्या मुझ में कोई अच्छाई नहीं है?’’

अरुण हाथ में शेविंगब्रश लिए हैरान सा खड़ा रहा. पर माला बोलती रही, ‘‘हर समय बस श्वेताश्वेता. मुझ से तो परंपरा निभाने की बात करते रहे और इस का बिंदासपन अच्छा लगता है. आखिर क्यों?’’ माला का चेहरा लाल होने के साथसाथ आंसुओं से भी भीग चला था.

‘‘तुम्हारा तो दिमाग खराब हो गया है. तुम्हारे मन में इतनी जलन, ईर्ष्या कहां से आ गई? श्वेता के नाम से चिढ़ क्यों हो रही है? देवरानी तो छोटी बहन जैसी होती है और तुम तो न जाने…’’

‘‘बस फिर शुरू हो गया मेरे लिए आप का प्रवचन. उस की हर बात गुणों से भरी होती है और मेरी बुराई से,’’ कह पांव पटकती माला अपने कमरे में चली गई.

अरुण बिना नाश्ता किए व लंच टिफिन लिए औफिस चला गया. उस दिन माला को माइग्रेन का अटैक पड़ गया. सिरदर्द धीरेधीरे बढ़ता उस की सहनशक्ति से बाहर हो गया. उलटियों के साथसाथ चक्कर भी आ रहा था. श्वेता ने मैडिकल किट छान मारी पर दर्द की कोई गोली नहीं मिली. उस ने अरुण को फोन किया तो सैक्रेटरी ने बताया कि वे मीटिंग में व्यस्त हैं.

इधर माला अपना सिर पकड़ रोए जा रही थी. तभी श्वेता 10 मिनट के अंदर औटो द्वारा मैडिकल स्टोर से दर्द की दवा ले आई और कुछ मानमनुहार तथा कुछ जबरदस्ती से माला को दवा खिलाई. माथे पर बाम मल कर धीरेधीरे सिरमाथे को तब तक दबाती रही जब तक माला को नींद नहीं आ गई.

करीब 2 घंटे बाद माला की आंखें खुलीं. तबीयत में काफी सुधार था. सिर हलका लग रहा था. उस ने उठ कर इधरउधर नजर दौड़ाई तो देखा श्वेता 2 कप चाय व स्नैक्स ले कर आ रही है.

‘‘अरे भाभी, आप उठो नहीं… यह लो चाय और कुछ खा लो. शाम के खाने की चिंता मत करना, मैं बना लूंगी. हां, आप जैसा तो नहीं बना पाऊंगी पर ठीकठाक बना लूंगी,’’ कह उस ने चाय का प्याला माला को थमा दिया.

माला श्वेता के इस व्यवहार को देख उसे ठगी सी देखती रह गई.

‘‘क्या हुआ भाभी?’’

‘‘मुझे माफ कर दो श्वेता, मैं ने तो न मालूम क्याक्या सोच लिया था… तुम्हें प्रतिद्वंद्वी के रूप में देख रही थी. और…’’

‘‘नहींनहीं भाभी, और कुछ मत कहिए आप, अब मैं आप से कुछ भी नहीं छिपाऊंगी. सच में ही मुझे अपने रंगरूप पर अभिमान रहा है. मुझ में उतना धैर्य नहीं जितना आप में है. इसीलिए मैं आप को चिढ़ाने के लिए अपने में व्यस्त रही… आप की कोई मदद नहीं करती थी. भाभी, आप मुझे माफ कर दीजिए. आज से हम रिश्ते में भले ही देवरानीजेठानी हैं पर रहेंगी छोटीबड़ी बहनों की तरह,’’ और फिर दोनों एकदूसरे के गले से लग गईं.

‘‘सच श्वेता. मैं आज से अपने मन को गलत दिशा की तरफ भटकने से रोकूंगी और तुम्हारे भैया से माफी भी मांगूंगी.’’

अब श्वेता व माला एकदूसरे को देख कर मुसकरा रही थीं.

Emotional Kahani : दिल की दहलीज पर

Emotional Kahani : ‘‘आहा,चूड़े माशाअल्लाह, क्या जंच रही हो,’’ नवविवाहिता मधुरा की कलाइयों पर सजे चूड़े देख दफ्तर के सहकर्मी, दोस्त आह्लादित थे. मधुरा का चेहरा शर्म से सुर्ख पड़ रहा था. शादी के 15 दिनों में ही उस का रूप सौंदर्य और निखर गया था. गुलाबी रंगत वाले चेहरे पर बड़ीबड़ी कजरारी आंखें और लाल रंगे होंठ… कुछ गहने अवश्य पहने थे मधुरा ने, लेकिन उस के सौंदर्य को किसी कृत्रिम आवरण की आवश्यकता न थी. नए प्यार का खुमार उस की खूबसूरती को चार चांद लगा चुका था.

‘‘और यार, कैसी चल रही है शादीशुदा जिंदगी कूल या हौट?’’ सहेलियां आंखें मटकामटका कर उसे छेड़ने लगीं. सच में मनचाहा जीवनसाथी पा मानों उसे दुनिया की सारी खुशियां मिल गई थीं. मातापिता के चयन और निर्णय से उस का जीवन खिल उठा था. ‘‘वैसे क्या बढि़या टाइम चुना तुम ने अपनी शादी का. क्रिसमस के समय वैसे भी काम कम रहता है… सभी जैसे त्योहार को पूरी तरह ऐंजौय करने के मूड में होते हैं,’’ सहेलियां बोलीं.

‘‘इसीलिए तो इतनी आसानी से छुट्टी मिल गई 15 दिनों की,’’ मधुरा की हंसी के साथसाथ सभी सहकर्मियों की हंसी के ठहाकों से सारा दफ्तर गुंजायमान हो उठा. तभी बौस आ गए. उन्हें देख सभी चुप हो अपनीअपनी सीट पर चले गए.

‘‘बधाई हो, मधुरा. वैलकम बैक,’’ कहते हुए उन्होंने मधुरा का दफ्तर में पुन: स्वागत किया. सभी अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए.

‘‘मधुरा, शादी की छुट्टी से पहले जो तुम ने टर्न की प्रोजैक्ट किया था कैरी ऐंड संस कंपनी के साथ, उस का क्लोजर करना शेष है. तुम्हें तो पता हैं हमारी कंपनी के नियम… जो रिसोर्स कार्य आरंभ करता है वही कार्य को पूरी तरह समाप्त कर वित्तीय विभाग से उस का पूर्ण भुगतान करवा कर, फाइल क्लोज करता है. लेकिन बीच में ही तुम्हारे छुट्टी पर जाने के कारण उन का भुगतान अटका हुआ है. उस काम को जल्दी पूरा कर देना,’’ कह कर बौस ने फोन काट दिया. मधुरा ने फाइल एक बार फिर से देखी. भुगतान के सिवा और कार्य शेष न था. फाइल पूरी करने हेतु उसे कैरी ऐंड संस कंपनी के प्रबंधक जितेन से एक बार फिर मिलना होगा और फिर वह जितेन के विचारों में खो गई.

शाम को घर लौट कर रात के भोजन की तैयारी कर मधुरा अपने कमरे में हृदय के दफ्तर से लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी. समय काटने के लिए उस ने अपनी डायरी उठा ली. पुराने पन्ने पलटने लगी. पुराने पन्ने उसे स्वत: ही पुरानी यादों में ले गए…

29 जुलाई

आज इंप्लोई मीटिंग में बौस ने मेरे काम की तारीफ की. कितनी खुशी हुई, मेरे परिश्रम का परिणाम दिखने लगा है. नए क्लाइंट कैरी ऐंड संस कंपनी का प्रोजैक्ट भी मुझे मिल गया. इस प्रोजैक्ट को मैं निर्धारित समयसीमा में पूरा कर अपने परफौर्मैंस अप्रेजल में पूरे अंक लाऊंगी.

30 जुलाई

क्या बढि़या दफ्तर है कैरी ऐंड संस कंपनी का. मुझे आज तक अपना दफ्तर कितना एवन लगता था, लेकिन आज उन का दफ्तर देख कर मेरे होश फाख्ता हो गए. इंटीरियर डिजाइनर का काम लाजवाब है. इतने बढि़या दफ्तर में अकसर आनाजाना लगा रहेगा. मजा आ जाएगा.

31 जुलाई

सारे विभाग बहुत अच्छी तरह नियंत्रित हैं और आपस में अच्छा समन्वय स्थापित है. कैरी ऐंड संस कंपनी का आईटी विभाग प्रशंसा के काबिल है. आज अपने काम की शुरुआत की मैं ने. लोगों से मिल ली. किंतु जिन के साथ मिल कर काम करना है यानी जितेन, उन से मिलना रह गया. कल उन से भी मिल लूंगी.

1 अगस्त

मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसे हीरो जैसा बंदा दफ्तर में टकराएगा मुझ से. उफ, कितना खूबसूरत नौजवान है जितेन. लंबाचौड़ा, सुंदर… लगता है सीधे ‘मिल्स ऐंड बून्स’ के उपन्यासों से बाहर आया है… मेरे सपनों का राजकुमार.

6 अगस्त

आज पूरे हफ्ते भर बाद फिर से जितेन से मुलाकात हुई. वे इतना व्यस्त रहते हैं कि मुलाकात ही नहीं हो पाती. इतने ऊंचे पद पर हैं… अभी तक ठीक से बात भी नहीं हो पाई है. पता नहीं कब हम दोनों को बातचीत करने का मौका मिलेगा. अभी तो मैं जितेन को अपने कार्य के बारे में भी ढंग से नहीं बता पाई हूं.

16 अगस्त

जितना देखती हूं उतना ही दीवानी होती जा रही हूं मैं जितेन की. एक बार मेरी ओर देख भर ले वह… मेरी सांस गले में ही अटक जाती है. लगता है जो बोल रही हूं, जो काम कर रही हूं, सब भूल जाऊंगी. इतना स्वप्निल मैं ने स्वयं को कभी नहीं पाया पहले. यह क्या हो जाता है मुझे जितेन के समक्ष. लेकिन वह है कि मुझे समय ही नहीं देता. बस 4-5 मिनट कुछ काम के बारे में पूछ कर चला जाता है. कब समझेगा वह मेरे दिल का हाल? क्या मेरी आंखों में कुछ नहीं दिखता उसे?

3 सितंबर

आज घर लौटते समय एफएम, पर ‘सत्ते पे सत्ता’ मूवी का गाना सुना, ‘प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया. कि दिल करे हाय, कोई तो बताए क्या होगा… गाड़ी चलाते समय पूरा गला खोल कर गाना गाने का मजा ही कुछ और है…’ फिर आज तो गाना भी मेरे दिल का हाल बयां कर रहा था. न जाने जितेन के साथ पल दो पल कब मिलेंगे और मैं अपने दिल का हाल कब कह पाऊंगी.

हृदय के कमरे में आने की आहट से मधुरा अतीत की स्मृतियों से वर्तमान में लौट आई. ‘‘कैसा रहा दफ्तर में शादी के बाद पहला दिन?’’ हृदय ने पूछा.

मधुरा को हृदय की यह बात भी बहुत भाती थी कि वह उस की हर गतिविधि, हर भावना, हर बात का खयाल रखता है. दोनों ने बातचीत की, खाना खाया और अगली सुबह के लिए अलार्म लगा कर सो गए. अगले दिन मधुरा अपने क्लाइंट कैरी ऐंड संस कंपनी पहुंची. आज उस ने फाइल क्लोजर की पूरी तैयारी कर ली थी. फाइनल पेमैंट का चैक देने वह जितेन के कक्ष में पहुंची. उस के हाथों में चूड़े देख जितेन ने उसे बधाई दी, ‘‘मुझे आप की कंपनी से पता चला था कि आप अपनी शादी हेतु छुट्टियों पर गई हैं.’’

कार्य पूरा करने के बाद मधुरा ने अपने दफ्तर लौटने के लिए कैब बुला ली. सारे रास्ते उस के मनमस्तिष्क में जितेन घूमता रहा. किस औपचारिकता से बात कर रहा था आज… उसे याद हो आया वह समय जब जितेन और मधुरा की मित्रता भी हो गई थी और वह ‘सिर्फ अच्छे दोस्त’ की श्रेणी से कुछ आगे भी बढ़ चुके थे. मधुरा तब कैरी ऐंड संस कंपनी जाने के बहाने खोजती रहती. जितेन भी हर शाम उसे उस के दफ्तर से पिक करता और दोनों कहीं कौफी पीते समय व्यतीत करते. दोनों को ही एकदूसरे का साथ बेहद भाता था. मधुरा के चेहरे की चमक बढ़ती रहती और जितेन कुछ गंभीर स्वभाव का होने के बावजूद उसे देख मुसकराता रहता. जितेन आए दिन मधुरा को तोहफे देता रहता. कभी ‘शैनेल’ का परफ्यूम तो कभी ‘हाई डिजाइन’ का हैंडबैग. ‘‘जितेन, क्यों इतने महंगे तोहफे लाते हो मेरे लिए? मैं हर बार घर और दफ्तर में झूठ बोल कर इन की कीमत नहीं छिपा सकती.’’

‘‘तो सच बता दिया करो न… मैं ने कब रोका है तुम्हें?’’ ‘‘तुम तो जानते हो कि हमारी कंपनी में भरती के समय हर मुलाजिम से कौंफिडैंशियलिटी ऐग्रीमैंट भरवाया जाता है. चूंकि तुम एक क्लाइंट हो, मैं तुम्हें न तो डेट कर सकती हूं और न ही तुम से शादी. इतना ही नहीं मैं तुम्हारी कंपनी अगले 2 वर्षों तक भी जौइन नहीं कर सकती हूं… तुम से शादी के बाद मैं नौकरी से त्यागपत्र दे कहीं और नौकरी ढूंढ़ूंगी…’’

‘‘शादी के बाद? हैंग औन,’’ मधुरा की बात को बीच में ही काटते हुए जितेन ने कहा, ‘‘शादी तक कहां पहुंच गईं तुम? हम एक कपल हैं, बस, मैं अभी शादीवादी के बारे में सोच भी नहीं सकता… वैसे भी शादी तो मां अपने सर्कल की किसी लड़की से करवाना चाहेंगी… तुम समझ रही हो न?’’ मधुरा के माथे पर चिंता की लकीरें और चेहरे पर असमंजस के भाव पढ़ कर जितेन ने आगे कहा, ‘‘तुम इस समय का लुत्फ उठाओ न… ये महंगे तोहफे, ये बढि़या रेस्तरां, अथाह शौंपिंग… ये सब तुम्हें खुश करने के लिए ही तो हैं… कूल?’’

उस शाम मधुरा को पता चला कि सामाजिक स्तर का भेदभाव केवल कहानियों में नहीं, अपितु वास्तविक जीवन में भी है. उस ने सोचा न था कि उसे भी इस भेदभाव का सामना करना पड़ेगा. उस के बाद जब कभी जितेन टकराया, बस एक फीकी सी मुसकान मधुरा के पाले में आई. खैर, उस का भी मन नहीं हुआ कि जितेन से बात करे. उस का मन खट्टा हो चुका था.

फिर उस की मम्मी ने उसे रमा आंटी के बेटे से मिलवाया. अच्छा लगा था मधुरा को वह. खास कर उस का नाम-हृदय. शांत, सुशील और विनम्र. घरपरिवार तो देखाभाला था ही, रहता भी इसी शहर में था. चलो, ‘मिल्स ऐंड बून्स’ के हीरो को भी देख लिया और अब वास्तविकता के नायक को भी. पर क्या करें. जीवन तो वास्तविक है. इस में सपनों से अधिक वास्तविकता का पलड़ा भारी रहना स्वाभाविक है.

जब से मधुरा की मुलाकात हृदय से हुई थी तभी से कितने अच्छे और मिठास भरे मैसेज भेजने लगा था वह. हृदय ने उस का मन पिघला दिया था. जल्दी ही हामी भर दी उस ने इस रिश्ते के लिए. उस की मम्मी और आंटी कितनी खुश हुईं. उस का मन भी खुश था. मन की तहों ने जहां एक तरफ जितेन को छाना था वहीं दूसरी तरफ हृदय को भी टटोल कर देखा था. मधुरा जैसी रुचिर, लुभावनी और मेधावी लड़की आगे बढ़ चुकी थी.

हर अनुभव जीवन में कुछ सबक लाता है और कुछ यादें छोड़ जाता है. चलते रहने का नाम ही जीवन है. मधुरा अपने दफ्तर पहुंच चुकी थी. आज वह अपने परफौर्मैंस अप्रेजल में अपने पूरे किए प्रोजैक्ट को भरने वाली थी.

Hindi Online Story : पेइंग गैस्ट

Hindi Online Story : 19 साल का दिलीप शहर में पढ़ाई करने आया था ताकि अपने मांबाप के सपनों को साकार कर सके. कहने को तो यह शहर बहुत बड़ा था, हजारों मकान थे पर दिलीप को रहने के लिए एक छत तक भी न मिल सकी.

एक कुंआरे लड़के को कौन किराएदार रखने का जोखिम उठाता? दरदर भटकने के बाद आखिरकार उसे सिर छिपाने को एक जगह मिल गई, वह भी पेइंग गैस्ट के तौर पर.

मिसेज कल्पना अपनी बहू मिताली के साथ घर में अकेली रहती थीं. उन का बेटा कहने को तो कमाने के लिए परदेस गया हुआ था पर पैसे वह कभीकभार ही भेजता था.

‘‘बेटा, तेरे यहां रहने से हमें दो पैसे की आमदनी भी हो जाएगी और रोहित की कमी भी नहीं खलेगी. जैसा हम खातेपीते हैं वैसा ही तुम भी खा लेना,’’ मिसेज कल्पना ने उसे एक कमरा दिखाते हुए कहा.

‘‘जी अम्मां, मेरी तरफ से आप को किसी तरह की शिकायत नहीं मिलेगी,’’ दिलीप ने कहा.

उस की रहने और खाने की समस्या एकसाथ इतनी आसानी से हल हो जाएगी, यह तो उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. अब वह पूरा ध्यान पढ़ाई में लगा सकता था.

दिलीप को केवल और केवल अपनी पढ़ाई में ध्यान लगाते देख मिसेज कल्पना को बहुत खुशी होती थी. खाना पहुंचाने वे दिलीप के कमरे में खुद आतीं और उसे ढेरों आशीर्वाद भी दे डालतीं.

सबकुछ ठीक चल रहा था. एक दिन अचानक मिसेज कल्पना बीमार पड़ गईं. उन्हें अस्पताल दिलीप ही ले कर गया. एक लायक बेटे की तरह वह मिसेज कल्पना की सेवा कर रहा था.

एक दिन वह अस्पताल से घर लौट रहा था कि बारिश शुरू हो गई. बारिश तेज होती जा रही थी. दिलीप जल्दी से जल्दी घर पहुंचना चाहता था ताकि किताबें भीगने से बच जाएं.

जैसे ही वह घर पहुंचा तो दरवाजा खुला देख चौंक गया. वह घर के भीतर दाखिल हुआ तो आंगन का नजारा देख कर अपनी सुधबुध भूल गया. मिताली लहंगाब्लाउज पहने बरसात के पानी में नहा रही थी. भीगे कपड़ों में उस का सौंदर्य और भी गजब ढा रहा था. यही वजह थी कि दिलीप एकटक मिताली को निहारता रह गया.

इतने करीब से जब दिलीप ने मिताली के आकर्षक बदन को भीगते हुए देखा तो जैसे उस की धमनियों में बह रहा रक्त उबाल खाने लगा हो.

‘‘तुम… तुम कब आए?’’ दिलीप को सामने पा कर मिताली चौंकते हुए बोली.

उस ने कोई जवाब नहीं दिया. एकटक वह अपनी लाललाल आंखों से मिताली की भीगी देह का अमृत पी रहा था. मिताली की नजरें दिलीप की शोले जैसी दहकती आंखों से मिलीं तो उस के बदन में भी झुरझुरी होने लगी.

लज्जावश उस का गोराचिट्टा चेहरा गुलाबी पड़ता गया. न जाने ऐसा क्या हुआ कि मिताली अपनी जगह खड़ी न रह सकी.

दौड़ कर वह दिलीप के चौड़े सीने से जा लगी. दिलीप खुद पर काबू नहीं रख पाया और उस ने बलिष्ठ बांहों के घेरे में मिताली को कस कर जकड़ लिया और अपने तपते होंठ उस के लरजते होंठों पर रख दिए. मिताली ने कोई प्रतिकार नहीं किया.

देह के इस महासंग्राम में दोनों युवा तन देर तक गोते लगाते रहे. जब वासना का ज्वार थमा तो दोनों एकदूसरे से नजरें चुराते हुए अपनेअपने कमरे में चले गए.

‘तू ने यह क्या किया दिलीप? जिस औरत ने तुझे बेटा समझ कर अपने घर में रखा उसी घर की बहू के जिस्म पर तू ने डाका डाल दिया,’ दिलीप अपने ही सवालों में उलझ गया.

‘पहल मैं ने कहां की? मिताली खुद ही मेरी बांहों में आ कर समा गई तो मैं क्या करता? देहसुख के उफान के आगे अच्छेबुरे का सवाल ही कहां रह जाता है?’ दिलीप ने मानो अपना पक्ष रखा.

उधर मिताली अभी भी सामान्य नहीं हो पाई थी. आज एक अनजान पुरुष के संसर्ग में उसे अकल्पनीय सुख की प्राप्ति हुई थी. ऐसा आनंद तो उसे आज तक उस का कारोबारी पति भी नहीं दे पाया था.

उस ने विचारों को झटका और कपड़े बदल लिए. फिर चाय बनाई और टे्र में एक कप रख कर दिलीप को देने चली आई. दिलीप सोने की तैयारी में था. मिताली को सामने खड़ा पा कर वह हड़बड़ा गया.

‘‘लो, चाय पी लो. पानी में इतनी देर भीगने के बाद चाय पीना ठीक रहता है,’’ मिताली ने कप आगे बढ़ाते हुए मुसकरा कर देखा. सचमुच चाय अच्छी बनी थी.

रात के खाने में मिताली ने उस की मनपसंद करेले की सब्जी बनाई थी. न जाने कैसे मिताली को उस की पसंदनापसंद का पता चल गया. यहां तक कि दाल, सब्जी, मिठाई में उसे क्याक्या पसंद है, उस की बाकायदा लिस्ट मिताली ने बना रखी थी.

एक रात वह दूध का गिलास ले कर कमरे में आ गई. दिलीप को गरमी लग रही थी. उस ने ज्यादातर कपड़े खोल रखे थे. अचानक मिताली को सामने पा कर उस ने तौलिया उठा लिया.

यह देख कर मिताली जोर से हंस पड़ी. निर्झर झरने सरीखी हंसी कानों में मिसरी घोल रही थी. पारदर्शी गाउन में मिताली किसी अप्सरा जैसी नजर आ रही थी गिलास मेज पर रख कर वह पलंग पर ही बैठ गई और अपने हाथों से दिलीप के बालों को सहलाने लगी. दिलीप इतना भोला नहीं था जो किसी स्त्री के मनोभावों को न समझ पाता.

उस रात दोनों ने जीभर कर देहसुख भोगा. पूरे घर में वे दोनों अकेले और रात की तनहाई का सहारा, ऐसे में कोई कसर कैसे रह पाती. 2-3 दिन में मिसेज कल्पना अस्पताल से स्वस्थ हो कर घर लौट आईं. ‘‘बेटा, तू तो मेरे सगे बेटे से भी बढ़ कर निकला,’’ अपनी सेवा से खुश मिसेज कल्पना ने उसे ढेरों असीस दे डालीं.

दिलीप और मिताली को लगा कि मांजी के घर लौट आने के बाद वे शायद अब नहीं मिल सकेंगे. पर देह की भाषा जब देश की दूरियां तक लांघ जाती है तो फिर यहां एक ही घर में रजामंदी के साथ मिलने में क्या मुश्किल आती.

अब तो हालत यह थी कि जब दिल करता दिलीप मिताली को अपने कमरे में बुला लेता और उस के साथ  देह की तृष्णा पूरी करता. उधर मिताली भी इस सुख का उपभोग करने में पीछे नहीं थी.

पति की अनुपस्थिति में किसी युवा स्त्री की देह जो सुख चाहती है, दिलीप वह सुख मिताली को प्रदान कर रहा था. देहसुख के भोग में दोनों शायद यह बात भूल गए कि सुख हमेशा अकेला नहीं आता, अपने साथ दुख भी ले कर आता है.

मिताली के समर्पण ने दिलीप को निरंकुश बना दिया. वह हरदम मनमानी करने लगा. मिताली उस के लिए जिस्म की भूख मिटाने वाली महज मशीन बन कर रह गई. भावना की जगह अधिकार हावी होने लगा. दिलीप एक पति की तरह हुक्म दे कर उस से बात करता. एक बार तो उस ने हाथ भी उठा दिया.

‘‘मुझे लगता है, मुझे गर्भ ठहर गया है,’’ एक रोज मिताली ने कहा तो दिलीप जैसे आसमान से गिरा. मौजमजे के लिए बनाए गए संबंध में ऐसे मोड़ की कल्पना उसे नहीं थी.

‘‘मैं दवा ला दूंगा. अगर बच्चे के पेट में होने की बात सामने आ गई तो हम कहीं के नहीं रहेंगे,’’ दिलीप झुंझला कर बोला.

इस बार तो गोलियों से बात बन गई पर गर्भ ठहरने का डर हमेशा बना रहा. अब उन के मिलन में वह पहले जैसी गरमाहट भी नहीं रह गई थी. दोनों के लिए संबंध बोझ में तबदील हो चुका था.

कहीं न कहीं मिसेज कल्पना की अनुभवी आंखें भी ताड़ गईं कि घर में उन की नाक के नीचे क्या गुल खिलाए जा रहे हैं. उधर दिलीप जब से इस चक्कर में पड़ा था उस की पढ़ाईलिखाई पूरी तरह चौपट हो गई थी. एक रात जब वह नाइट लैंप की रोशनी में पढ़ रहा था तो मिताली उस के कमरे में आ गई. उस ने लैंप का स्विच औफ किया तो दिलीप चीख पड़ा, ‘‘यह क्या तमाशा है? जा कर अपना काम करो और मुझे पढ़ने दो.’’

मिताली यह सुन कर हक्कीबक्की रह गई. उसे पहली बार महसूस हुआ कि पति की गैरमौजूदगी में किसी गैर मर्द के साथ संबंध बना कर उस ने कितनी बड़ी भूल की है.

‘नहीं, अब वह इस दलदल में और नहीं गिरेगी, जो होना था हो गया. यह संबंध अंधे कुएं में गिरने के समान है. मुझे कुएं में नहीं गिरना,’ मिताली ने मन ही मन निर्णय लिया.

उस ने फोन कर के अपने पति को जल्दी आने को कह दिया ताकि यह किस्सा विराम ले सके. दिलीप भी जितना जल्दी हो सके इस संबंध के बोझ को सिर से हटाने के बारे में सोच चुका था.

मिलने की पहल रजामंदी से हुई तो अलग होने के लिए भी परस्पर रजामंदी काम आई. दिलीप ने बहाना बना कर घर छोड़ दिया. जीवन में घटे इस घटनाक्रम को दोनों पक्ष एक स्वप्न समझ कर भुलाने की कोशिश करने लगे.

Kahani In Hindi : बबूल का पेड़

Kahani In Hindi : कमरे में प्रवेश करते ही नीलम को अपने जेठजी, जिन्हें वह बड़े भैया कहती थी, पलंग पर लेटे हुए दिखाई दिए. नीलम ने आवाज लगाई, ‘‘भैया, कैसे हैं आप?’’

‘‘कौन है?’’ एक धीमी सी आवाज कमरे में गूंजी.

‘‘मैं, नीलम,’’ नीलम ने कहा.

बड़े भैया ने करवट बदली. नीलम उन को देख कर हैरान रह गई. क्या यही हैं वे बड़े भैया, जिन की एक आवाज से सारा घर कांपता था, कपड़े इतने गंदे जैसे महीनों से बदले नहीं गए हों, दाढ़ी बढ़ी हुई, जैसे बरसों से शेव नहीं की हो, शायद कुछ देर पहले कुछ खाया था जो मुंह के पास लगा था और साफ नहीं किया गया था. हाथपैर भी मैलेमैले से लग रहे थे, नाखून बढ़े हुए. उन को देख कर नीलम को उन पर बड़ा तरस आया. तभी नीलम का पति रमन भी कमरे में आ गया. बड़े भाई को इस दशा में देख कर रमन रोने लगा, ‘‘भैया, क्या मैं इतना पराया हो गया कि आप इस हालत में पहुंच गए और मुझे खबर भी नहीं की.’’

भैया से बोला नहीं जा रहा था. उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए और कहने लगे, ‘‘किस मुंह से खबर करता छोटे, क्या नहीं किया मैं ने तेरे साथ. फिर भी तू देखने आ गया, क्या यह कम है.’’

‘‘नहीं भैया, अब मैं आप को यहां नहीं रहने दूंगा. अपने साथ ले जाऊंगा और अच्छी तरह से इलाज करवाऊंगा,’’ रमन सिसकते हुए कह रहा था.

नीलम को याद आ रहे थे वे दिन जब वह दुलहन बन कर इस घर में आई थी. उस के मातापिता ने अपनी सामर्थ्य से ज्यादा दहेज दिया था लेकिन मनोहर भैया हमेशा उस का मजाक उड़ाते थे. उस के दहेज के सामान को देख कर रमन से कहते, ‘क्या सामान दिया है, इस से अच्छा तो हम लड़की को सिर्फ फूलमाला पहना कर ही ले आते.’

उन की शादी अमीर घर में हुई थी, लेकिन रमन की ससुराल उतनी अमीर नहीं थी. इसलिए वे हमेशा उस का मजाक उड़ाते थे. रोजरोज के तानों से नीलम को बहुत गुस्सा आता, पर रमन के समझाने पर वह चुप रह जाती. फिर भी बड़े भैया के लिए उस के दिल में गांठ पड़ ही गई थी. उन से भी ज्यादा तेज उन की पत्नी शालू थी जो बोलती कम थी पर अंदर ही अंदर छुरियां चलाने से बाज नहीं आती थी.

मातापिता की मृत्यु के बाद घर में मनोहर भैया की ही चलती थी. सब कुछ उन से पूछ कर होता था. एक तो मनोहर बड़े थे, दूसरे, वे एक अच्छी कंपनी में अच्छे पद पर थे. उन की शादी भी पैसे वाले घर में हुई थी जबकि रमन न सिर्फ छोटा था बल्कि एक छोटी सी दुकान चलाता था. उस की शादी एक साधारण घर में हुई थी. उस की घरेलू स्थिति ठीक नहीं थी. रमन को इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता था, वह न सिर्फ अपने बड़े भाई को बहुत प्यार करता था बल्कि उन की हर बात को मानना अपना कर्तव्य भी समझता था. मनोहर अपने छोटे भाई को वह प्यार नहीं देते थे जिस का वह हकदार था, बल्कि हमेशा उस की बेइज्जती करने के बहाने ढूंढ़ते रहते. वे हमेशा यह जतलाना चाहते थे कि घर में सिर्फ वे ही श्रेष्ठ हैं और बाकी सब बेवकूफ हैं.

‘‘नीलम, कहां खो गईं. चलो, भैया का सामान पैक करो, इन को हम अपने साथ ले जाएंगे,’’ रमन की आवाज सुन कर नीलम वापस वर्तमान में आ गई.

‘‘भैया, प्रिया नहीं आती क्या आप से मिलने?’’ नीलम ने पूछा.

‘‘आती है कभीकभी, लेकिन वह भी क्या करे. उस की अपनी गृहस्थी है. हमेशा तो मेरे पास नहीं रह सकती न,’’ भैया रुकरुक कर बोल रहे थे.

‘‘और राजू और पल्लवी कहां हैं?’’ नीलम ने पूछा.

‘‘राजू तो औफिस गया होगा और पल्लवी शायद किसी ‘किटी पार्टी’ में गई होगी,’’ भैया शर्मिंदा से लग रहे थे.

नीलम को इसी तरह के किसी जवाब की उम्मीद थी. उसे अच्छी तरह याद है वह दिन जब उस की छोटी बहन सीढि़यों से गिर गई थी तो वह हड़बड़ाहट में बिना किसी को बताए अपनी मां के घर चली गई थी. बस, इतनी सी बात पर मनोहर भैया ने बखेड़ा खड़ा कर दिया था कि ऐसा भी किसी भले घर की बहू करती है क्या कि किसी को बगैर बताए मायके चली जाए.

उन दिनों भैया ही सारा घर संभालते थे. रमन भी अपनी सारी कमाई भैया के हाथ में दे देता था और कभी भी नहीं पूछता था कि भैया उन पैसों का क्या करते हैं जबकि भैया सब से यही कहते फिरते थे कि छोटे का खर्च तो वही चलाते हैं. छोटे की तो बिलकुल भी कमाई नहीं है.

नीलम की सारी अच्छाइयां, सारी पढ़ाईलिखाई, सारे गुण सिर्फ एक कमी के नीचे दब कर रह गए कि एक तो उस का मायका गरीब था, दूसरे, पति की कमाई भी साधारण थी. सारे रिश्तेदारों, दोस्तों में शालू और मनोहर नीलम और रमन को नीचा दिखाने का प्रयास करते. नीलम को अपनी इस स्थिति से बहुत कोफ्त होती पर वह चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती थी क्योंकि रमन उसे कुछ भी बोलने नहीं देता था.

एक बड़े पेड़ के नीचे जिस तरह एक छोटा पौधा पनप नहीं सकता वैसी ही कुछ स्थिति रमन की थी. पिता की मृत्यु के बाद मनोहर घर के मुखिया तो बन गए लेकिन उन्होंने रमन को सिर्फ छोटा भाई समझा, बेटा नहीं. बड़े भाई का छोटे भाई के प्रति जो फर्ज होता है वह उन्होंने कभी नहीं निभाया.

नीलम समझ नहीं पाती थी कि क्या करे? वैसे वह बहुत समझदार और शांत स्वभाव की थी, लेकिन कभीकभी शालू और मनोहर के तानों से इतनी दुखी हो जाती कि उसे लगता कि वह रमन को ही छोड़ दे. रमन का चुप रहना उसे और परेशान कर जाता, लेकिन रमन को छोड़ना तो इस समस्या का हल नहीं था. रमन तो बहुत अच्छा था. बस, उस की एक ही कमजोरी थी कि वह बड़े भाई की हर अच्छी या बुरी बात मानता था और आंख बंद कर उन पर विश्वास भी करता था.

रमन के इसी विश्वास का मनोहर ने हमेशा फायदा उठाया. उस ने पुश्तैनी मकान भी अपने नाम करवा लिया और एक दिन नीलम और रमन को अपने ही घर से जाने को कह दिया.

इतना कुछ होने पर भी रमन कुछ नहीं बोला और अपनी 4 साल की बेटी और पत्नी को ले कर चुपचाप घर से निकल पड़ा. उस दिन नीलम को अपने पति की कायरता पर बहुत गुस्सा आया, लेकिन जब रमन ही कुछ करने को तैयार नहीं था तो वह क्या कर सकती थी, पर मन ही मन उस ने सोच लिया था कि वह इस घर में अब कभी वापस नहीं आएगी और इस घर से बाहर रह कर ही अपनी और अपने परिवार की एक पहचान बनाएगी.

अब नीलम की अग्निपरीक्षा शुरू हो गई थी. घर में पैसों की तंगी बनी रहेगी, यह तो नीलम को मालूम था क्योंकि संयुक्त परिवार में बहुत से ऐसे खर्चे होते हैं जिन का पता नहीं चलता, लेकिन एकल परिवार में उन खर्चों को निकालना मुश्किल हो जाता है. फिर भी नीलम ने हार नहीं मानी और जुट गई अपना एक समर्थ संसार बनाने में. सुबह मुंहअंधेरे उठ कर घर का कामकाज करती, उस के बाद कई बच्चों को घर पर बुला कर ‘ट्यूशन’ पढ़ाती और फिर रमन के साथ दुकान पर चली जाती.

नीलम के अंदर दुकान चलाने की गजब की क्षमता थी जो शायद अभी तक उस के अंदर सुप्त पड़ी थी. उस ने अपने मीठे व्यवहार, ईमानदारी और मेहनत से न सिर्फ अपनी दुकान को बढ़ाया बल्कि रमन का आत्मविश्वास बढ़ाने में भी उस का साथ दिया.

बड़े भाई से अलग रह कर रमन को भी एहसास हो गया था कि वह कितना बुद्धू था और बड़े भाई ने उस का कितना फायदा उठाया.

मनोहर ने सोचा था कि रमन कभी भी घर से नहीं जाएगा और अगर जाता है तो जाते वक्त उस के आगे हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाएगा या फिर नीलम ही कुछ भलाबुरा कहेगी पर वह हैरान था कि दोनों ने कुछ भी नहीं कहा बल्कि चुपचाप एकदूसरे का हाथ पकड़ कर घर से चले गए. वैसे भी वे रमन से चिढ़ते थे कि उस की पत्नी हमेशा उस का कहना मानती थी जबकि वह इतना समर्थ भी नहीं था और एक उन की पत्नी शालू है, जिस ने उन का जीना मुश्किल किया हुआ था. हर वक्त उसे कुछ न कुछ चाहिए. उस की फरमाइशें खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं.

मनोहर ने रमन को घर से तो निकाल दिया पर उन के अंदर आत्मग्लानि का भाव पैदा हो गया था. एक दिन रात को शराब के नशे में धुत्त हो कर मनोहर ने रमन को फोन किया, ‘चल छोटे, घर आजा, भूल जा सब कुछ.’ लेकिन नीलम और रमन ने सोच लिया था कि अब उस घर में वापस नहीं जाना है. अब मनोहर को एक नया बहाना मिल गया था अपनेआप को बहलाने का कि उस ने तो उन दोनों को वापस बुलाया था पर वे ही वापस नहीं आए और गाहेबगाहे वे अपने रिश्तेदारों को कहने लगे कि वे दोनों अपनी मरजी से घर छोड़ कर गए हैं. नीलम तो हमेशा से ही रमन को उन से दूर करना चाहती थी, पर अंदर की बात तो कोई भी नहीं जानता था कि यह सब कियाधरा मनोहर का ही है.

रमन और नीलम ने दिनरात मेहनत की. धीरेधीरे उन की दुकान एक अच्छे ‘स्टोर’ में बदल गई थी. अब उस ‘स्टोर’ की शहर में एक पहचान बन गई थी. रमन और नीलम का जीवनस्तर भी ऊंचा हो गया था. उन के बच्चे शहर के अच्छे स्कूलों में पढ़ने लगे थे. अब मनोहर उन से नजदीकियां बढ़ाने की कोशिश करते पर वे दोनों तटस्थ रहते.

रमन के घर छोड़ने के बाद दोनों भाइयों का आमनासामना बहुत ही कम हुआ था. एक बार मनोहर के बेटे राजू की शादी में वे मिले थे, तब रमन ने महसूस किया था कि बड़े भाई की अब घर में बिलकुल भी नहीं चलती है. जो कुछ भी हो रहा था, वह बच्चों की मरजी से ही हो रहा था. बड़े भाई के बच्चे भी उन पर ही गए थे. वे बिलकुल ही स्वार्थी निकले थे. दूसरी मुलाकात मनोहर की बेटी प्रिया की शादी में हुई थी. बड़े भैया को अनेक रोगों ने घेर लिया था. वे बहुत ही कमजोर हो गए थे. तब भी उन को देख कर रमन को बहुत दुख हुआ था पर उस वक्त वह कुछ नहीं बोला था, लेकिन शालू भाभी के जाने के बाद तो जैसे भैया बिलकुल ही अकेले पड़ गए थे. उन का खयाल रखने वाला कोई भी नहीं था. शालू जैसी भी थी, पर अपने पति का तो खयाल रखती ही थी. राजू को अपने काम और क्लबों से ही फुरसत नहीं थी. वैसे भी उसे पिता के पास बैठ कर उन का हाल जानने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. अगर वह अपने पिता का ध्यान नहीं रख सकता था तो पल्लवी को क्या पड़ी थी इन सब बातों में पड़ने की? वह भी ससुर का बिलकुल ध्यान नहीं रखती थी.

एकएक बात रमन के दिमाग में चलचित्र की तरह घूम रही थी. पुरानी घटनाओं का क्रम जैसे ही खत्म हुआ तो रमन बोला, ‘‘बड़े भैया, कल ही किसी से पता चला था कि आप गुसलखाने में गिर गए हैं. मुझ से रहा नहीं गया और आप का हाल पूछने चला आया.’’

रमन का दिल रोने लगा कि खामखां ही वह इतने दिनों तक भैया से नाराज रहा और उन की खबर नहीं ली, लेकिन अब वह उन को अपने साथ जरूर ले जाएगा, लेकिन बड़े भैया ने जाने से इनकार कर दिया, ‘‘मुझे माफ कर दे छोटे, सारी जिंदगी मैं ने सिर्फ तेरा मजाक उड़ाया है और अब जब मैं बिलकुल ही मुहताज हो चुका हूं और मेरे अपने मुझे बोझ समझने लगे हैं, इस वक्त मैं तेरे ऊपर बोझ नहीं बनना चाहता.’’

‘‘नहीं भैया, ऐसा मत कहो. क्या मैं आप का अपना नहीं, मैं ने आप को अपना भाई नहीं बल्कि पिता माना है और एक बेटे का कर्तव्य है कि वह अपने पिता की सेवा करे, इसलिए आप को मेरे साथ चलना ही पड़ेगा,’’ रमन ने विनती की.

तभी नीलम भी बोल पड़ी, ‘‘भैया, आप को हमारे साथ चलना ही पड़ेगा, हम आप को इस तरह छोड़ कर नहीं जा सकते.’’

अब तक पल्लवी भी घर पहुंच चुकी थी. उस ने चाचा और चाची को देख कर इस तरह व्यवहार किया जैसे वह उन दोनों को जानती ही नहीं. उस को इस बात की भी चिंता नहीं थी कि दुनियादारी के लिए ही कुछ दिखावा कर दे. उस का व्यवहार इस बात की गवाही दे रहा था कि अगर मनोहर को कोई अपने साथ ले जाता है तो उसे कोई परवा नहीं है. अभी तक मनोहर को आशा थी कि शायद पल्लवी उसे कहीं भी जाने नहीं देगी और उसे रोक लेगी, पर उस की बेरुखी देख कर मनोहर भैया उठ खड़े हुए, ‘‘चल छोटे, मैं तेरे साथ ही चलता हूं, लेकिन उस से पहले तुझे मेरा एक काम करना पड़ेगा.’’

‘‘वह क्या, भैया?’’ रमन ने पूछा.

‘‘तुझे एक वकील लाना पड़ेगा क्योंकि मैं यह बंगला तेरे नाम करना चाहता हूं जो धोखे से मैं ने अपने नाम करवा लिया था,’’ मनोहर ने कहा.

‘‘लेकिन मुझे यह घर नहीं चाहिए भैया, मेरे पास सब कुछ है,’’ रमन ने कहा.

‘‘मैं जानता हूं छोटे, तेरे पास सब कुछ है लेकिन जिंदगी ने मुझे यह सबक सिखाया है कि किसी से भी धोखे से ली हुई कोई भी वस्तु सदैव दुख ही देती है. मैं इतने सालों तक चैन से नहीं सो पाया और अब चैन से सोना चाहता हूं इसलिए मुझे मना मत कर और अपना हक वापस ले ले.’’

यह सब सुन कर पल्लवी के तो होश उड़ गए. उसे लगता था कि उस के ससुर का तो कोई अपना है ही नहीं, जो उन्हें अपने साथ ले जाएगा, और इतना बड़ा बंगला सिर्फ उस के हिस्से ही आएगा. लेकिन ससुर की बात सुन कर उसे लगा कि इतना बड़ा घर उस के हाथ से निकल गया है. उस ने फटाफट बहू होने का फर्ज निभाया. उस ने मनोहर को रोकने की कोशिश की, पर मनोहर ने कहा, ‘‘नहीं बहू, अब नहीं, अब मैं नहीं रुक सकता. तुम ने और मेरे बेटे ने मुझे बिलकुल ही पराया कर दिया है. इस बूढ़े और लाचार इंसान को अब अपने मतलब के लिए इस घर में रखना चाहते हो. नहीं, इस घर में तड़पतड़प कर मरने से अच्छा है मैं अपने भाई के साथ कुछ दिन जी लूं, लेकिन फिर भी मैं कहता हूं कि इस में तुम्हारी गलती कम है क्योंकि मैं ने ही बबूल का पेड़ बोया है तो आम की उम्मीद कहां से करूं.’’

कुछ देर बाद नीलम और रमन मनोहर को ले कर अपने घर जा रहे थे और पल्लवी पछता रही थी कि उस ने अपने ससुर को नहीं रोका जिन के जाने से इतना बड़ा घर हाथ से निकल गया.

लेखिका- पिंकी खुराना

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