औकात: भाग 1- जब तन्वी के सामने आई पति की असलियत

‘‘तन्वी… तन्वी… सुनो तो. मैं तुम से बस 1 मिनट बात करना चाहता हूं.’’

‘‘मुझे तुम से कोई बात नहीं करनी,’’ उसी शाम अपनी शादी के लिए दुलहन वेश में सजने के लिए सामने ब्यूटीपार्लर की ओर तेज कदमों से बढ़ती तन्वी ने अपने ऐक्स बौयफ्रैंड पदम से झंझलाते हुए गुस्से से कहा.

‘‘प्लीज तन्वी, एक बार मेरी बात सुन लो. बस एक बार. प्लीज. बस यह सामने रैस्टौरैंट में बैठ कर थोड़ी बात करते हैं. प्रौमिस, 10 मिनट से ज्यादा तुम्हारा समय नहीं लूंगा.’’

‘‘उफ… मुझे तुम्हारी कोई बात नहीं सुननी. पीछा छोड़ो मेरा,’’ तन्वी ने अपनी चाल तेज करते हुए कहा.

‘‘तन्वी… बस 10 मिनट. आखिरी बार,’’ उस की चिरौरी करते हुए वह तन्वी का रास्ता रोकते हुए उस के एकदम सामने आ गया और फिर बोला, ‘‘चलो, सामने रैस्टौरैंट में बैठते हैं.

विवश तन्वी और उस की बहन बड़े बेमन से उस के साथसाथ चल दीं. रैस्टौरैंट में एक खाली टेबल के सामने खड़ेखड़े तन्वी उस से बोली, ‘‘जल्दी बोलो क्या बोलना है? मेरे पास बिलकुल टाइम नहीं.’’

‘‘तन्वी, तुम मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकती हो? जब से तुम मुझे छोड़ कर गई हो, मैं जैसे अंगारों पर लोट रहा हूं. मैं इतनी तकलीफ मैं हूं कि बता नहीं सकता. मेरी जिंदगी में वापस आ जाओ तन्वी. प्लीज, आई बैग यू.’’

‘‘यह क्या बेहूदगी है पदम? यह क्या टाइम है इन बातों का? हटो मेरे रास्ते से और मुझे जाने दो. मेरे पास तुम्हारी इस बकवास के लिए टाइम नहीं,’’ कहते हुए तन्वी वहां से जाने लगी कि  फिर से उसका रास्ता रोकते हुए पदम उस से बोला, ‘‘तुम मुझे छोड़ कर किसी और की नहीं हो सकती. तुम्हारे बिना मैं मर जाऊंगा.’’

‘‘तो मर जाओ, लेकिन मेरा पीछा छोड़ो. मुझे जाने दो. मुझे तुम से कोई वास्ता नहीं रखना.’’

तभी पदम ने उस का हाथ पकड़ लिया. तन्वी ने डूबते दिल से देखा. अचानक उस के

भावी पति सजल की दोनों बहनें उस के सामने खड़ी थीं.

‘‘यह क्या खिचड़ी पक रही है तुम दोनों में? तन्वी, मुझे तुम से यह उम्मीद नहीं थी. आज  तुम्हारी शादी है और तुम यहां हमारी पीठ पीछे इस लड़के के साथ रासलीला रचा रही हो. मेरे सीधेसादे भाई को धोखा दे रही हो. टू टाइमिंग कर रही हो?’’

सजल की बहनों को यों अनपेक्षित रूप से अपने सामने देख तन्वी के चेहरे से मानो खून निचुड़ गया और पत्ते सी थरथर कांपती बोली, ‘‘नहीं दीदी ऐसी कोई बात नहीं.’’

‘‘बात तो यही है तन्वी. तुम मेरे भोलेभाले भाई की आंखों में धूल झोंक रही हो. वह तो

हम दोनों शादी से पहले तुम्हें अपने खानदानी गहने देने आए थे. यहां नहीं आते तो तुम तो मेरे भाई को अपने जाल में फंसा ही लेती. बस अब और नहीं. यह शादी नहीं हो सकती. मैं अभी

जा कर भाई को सब बताती हूं,’’ कहते हुए सजल की बहनें क्रोधावेश में पैर पटकते हुए वहां से चली गईं.

घटनाक्रम ने जो भयावह मोड़ लिया था, तन्वी समझ नहीं पा रही थी, अब क्या करे? भयाक्रांत तन्वी ने अपने कदम ब्यूटीपार्लर की ओर बढ़ाए. उस की आंखों से आंसुओं का बांध फूट पड़ा. कुछ देर में वह बड़ी मुश्किल से संयत हुई और फिर डूबते मन से पार्लर में मेकअप करवाने लगी.

उस का मेकअप पूरा हुआ ही था कि पापा का फोन आ गया, ‘‘तन्वी, यह मैं क्या सुन रहा हूं? तू पदम से मिली? आज के दिन? तेरी अक्ल तो घास चरने नहीं चली गई? सबकुछ खत्म कर फौरन घर पहुंच. सजल और उस के पापा यहां आने ही वाले हैं. वे तुझ से भी कुछ बात करना चाहते हैं.’’

‘‘जी पापा बस अभी पहुंची,’’ धड़कते मन से तन्वी ने कहा.

सजल और उस के पापा के उन के घर आने पर जो स्यापा फैला, वह कल्पना के परे था. उन्होंने शादी के चंद घंटों पहले ऐक्स बौयफ्रैंड से मिलने के चलते तन्वी पर बेवफाई का आरोप लगाया और उस की कोई बात ढंग से सुने बिना शादी तोड़ दी.

उधर पदम को अपने और तन्वी की एक कौमन फ्रैंड के जरीए तन्वी के घर की 1-1 खबर हर पल मिल रही थी. जैसे ही उस को सजल

और तन्वी की शादी के टूटने की खबर मिली, वह खुद तन्वी के घर जा पहुंचा और उस ने तन्वी के पिता से उसी दिन तन्वी से शादी करने की पेशकश की.

बहुत नानुकुर हुई, ऐतराज हुआ, लेकिन मरता क्या न करता, बदनामी से बचने के लिए तन्वी के पिता ने उस का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया.

सजल और तन्वी के विवाह के तय मुहूर्त

में मात्र दूल्हा बदला और तन्वी की शादी पदम से हो गई.

विवाह के बाद के शुरुआती कुछ महीने तो मानो रुपहलेसुनहरे ख्वाब मानिंद बीते. पदम ने अपनी बेपनाह मुहब्बत से तन्वी को आकंठ भिगो डाला.  लेकिन वर्ष बीततेबीतते नएनए विवाह का खुमार बासी होने पर पदम के चेहरे पर चढ़ा मुलम्मा उतरने लगा और उस की असली फितरत रंग दिखाने लगी.

आधुनिक नारी: भाग 3- अनिता को अनिरुद्ध की खुशी पर शक क्यों हुआ?

अविनाश काफी देर बाद लौटा. आते ही वह फिर आने का वादा कर के अनिता और बेटे के साथ वहां से चल पड़ा. उस से रहा नहीं जा रहा था. वह रास्ते में ही अनिता से पूछ बैठा, ‘‘क्या हुआ, प्रमोशन के लिए कहा कि नहीं?’’

‘‘कहा तो है. कह रहा था कि देखूंगा,’’ अनिता ने पर्याप्त सतर्कता बरतते हुए बताया.

‘‘प्रमोशन हो जाए तो मजा आ जाए,’’ अविनाश अपने सपने में खोया हुआ बोला.

2-3 दिन बाद ही अविनाश को प्रमोशन का और्डर मिल गया, उस की खुशी की कोई सीमा न रही. दफ्तर से लौटते ही उस ने मारे खुशी के अनिता को गोद में उठा लिया और लगा चूमने.

‘‘अरे, क्या हो गया? आज तो बहुत खुश लग रहे हो?’’

‘‘खुशी की बात ही है. जानती हो, आज मेरी प्रमोशन हो गई. पिछले कई सालों से इंतजार कर रहा था मैं. सचमुच, नए मैनेजर साहब बड़े अच्छे आदमी हैं. तुम सोच रही थीं कि पता नहीं सुनेंगे भी कि नहीं, लेकिन उन्होंने मेरी प्रमोशन कर दी. सुनो, छुट्टी के दिन उन के घर चलेंगे, उन्हें धन्यवाद देने,’’ अविनाश खुशी में कहे जा रहा था.

अविनाश को खुश देख कर अनिता की आंखों में भी आंसू छलक आए.

छुट्टी के दिन वे अनिरुद्ध के यहां गए. इस के बाद तो आनेजाने का सिलसिला चल निकला. अनिरुद्ध अविनाश को आर्थिक फायदा दिलाने की गरज से कंपनी के काम से बाहर भी भेजने लगा. अब तो अविनाश हर शाम दफ्तर से आते वक्त अनिरुद्ध के घर हो कर ही आता था. अंजलि को भी मानो मुफ्त का एक नौकर मिल गया था. वह कभी अविनाश को सब्जी लेने भेज देती तो कभी दूध लेने. अविनाश बिजली, पानी, मोबाइल के बिल, पिंकी की फीस आदि भरने का काम भी खुशी से करता.

अनिरुद्ध अगर कंपनी के काम से कहीं बाहर जाता तो वह अविनाश को कह जाता कि मेरे घर का कोई काम हो तो देख लेना. प्रमोद भी पिंकी से घुलमिल गया था, इसलिए वह भी अकसर पिंकी के घर चला जाता और दोनों पिंकी के कमरे में घंटों बातें करते, खेलते.

उधर अनिरुद्ध और अनिता के दिल में प्रेम की पुरानी आग भड़क गई थी. वे अपनी सारी हसरतें पूरी कर लेना चाहते थे, इसलिए वे दोनों अपने में मगन थे. जब भी मौका मिलता अनिता अनिरुद्ध को फोन कर के घर आने के लिए कह देती और दोनों एकदूसरे में खो जाते. कहीं कुछ और भी हो रहा है, यह जानने और सम?ाने की उन्हें मानो फुरसत ही न थी.

उस दिन अनिरुद्ध काम से थक कर रात में लगभग 8 बजे अपने कमरे से बाहर थोड़ी देर के लिए निकला, तो उस ने देखा कि पिंकी के कमरे की लाइट जल रही थी. पिछले कई दिनों की व्यस्तता की वजह से वह अपनी बेटी पिंकी से कायदे से बात तक नहीं कर पाया था. उस के दिल में आया कि पिंकी के कमरे में ही चल

कर बातें करते हैं. अभी पिंकी के कमरे से वह कुछ दूरी पर ही था कि उसे कुछ आवाजें सुनाई पड़ीं. उस ने सोचा कि शायद पिंकी की कोई सहेली आई है और वह उस से बातें कर रही है. यों जाना ठीक नहीं , खिड़की से झंक लेता हूं कि कौन है.

उस ने खिड़की से झंक कर देखा तो मानो उसे चक्कर सा आ गया. उस ने देखा कि पिंकी और प्रमोद अर्धनग्न अवस्था में एकदूसरे से लिपटे हुए हैं. प्रमोद पिंकी से कह रहा था, ‘‘तुम्हारे पापा मेरी मम्मी से रोमांस करते हैं. एक दिन मैं ने देखा कि दोनों बैडरूम में एकदूसरे से लिपटे पड़े हैं.’’

‘‘तेरे पापा का भी मेरी मम्मी से ऐसा ही रिश्ता है. एक दिन मैं ने भी उन्हें सामने वाले कमरे में एकदूसरे से लिपटे देखा,’’ पिंकी बोली.

‘‘क्या मजेदार बात है. तेरे पापा मेरी मम्मी से और मेरी मम्मी तेरे पापा से रोमांस कर रही हैं और हम दोनों एकदूसरे से,’’ कह कर प्रमोद हंस पड़ा.

‘‘लेकिन यार, वे लोग तो शादीशुदा हैं. कुछ गड़बड़ हो गई तो भी किसी को पता नहीं चलेगा. पर हम लोगों के बीच कुछ हो गया तो मैं मुसीबत में पड़ जाऊंगी.’’

‘‘तुम चिंता मत करो, मैं कंडोम लाया

हूं न.’’

‘‘तुम हो बड़े समझदार,’’ कह पिंकी ने खिलखिलाते हुए प्रमोद को भींच लिया.

आगे कुछ सुन पाना अनिरुद्ध के बस में न था. वह किसी तरह हिम्मत बटोर कर अपने कमरे तक आया और बिस्तर पर निढाल पड़ गया. आज वह खुद की निगाहों में ही गिर गया था. वह किसी से कुछ कह भी तो नहीं सकता था. बेटी तक से नहीं. अगर कुछ कहा और पिंकी ने भी पलट कर जवाब दे दिया तो? वह खुद को ही दोषी मान रहा था कि अपने क्षणिक सुख के लिए उस ने जो कुछ किया, अब उसी राह पर बच्चे भी चल पड़े हैं. उस की हरकतों के कारण बच्चों का भविष्य दांव पर लग गया. कितना अंधा हो गया था वह. अंजलि को भी क्या कहे वह. इस सब के लिए वह खुद जिम्मेदार है. शुरुआत तो उस ने ही की.

रात को अनिरुद्ध ने खाना भी नहीं खाया. रात भर वह दुख और पश्चात्ताप की आग में जलता रहा और रो कर खुद को हलका करता रहा. सुबह होने से पहले ही उस ने सोचा कि जो हो गया, रोने से कोई फायदा नहीं. फिर अब क्या किया जाए, इस पर वह सोचताविचारता रहा.

थोड़ी देर में ही वह निर्णय पर पहुंच गया और सुबह होते ही उस ने कंपनी के जीएम से फोन पर अपना स्थानांतरण करने का निवेदन किया. जीएम उस के काम से सदैव खुश रहते थे, इसलिए उन्होंने उस के निवेदन को स्वीकार करने में तनिक भी देर न लगाई. उस का स्थानांतरण उसी पल कोलकाता कर दिया.

4 दिन बाद अनिरुद्ध परिवार सहित कोलकाता की ट्रेन पर सवार हो गया. किसी को भी न पता चला कि क्या हुआ. अनिरुद्ध ने सारा राज अपने सीने में दफन कर लिया.

बर्मा के जंगलों में

मोरे भारत और बर्मा की सीमा पर इम्फाल से 110 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटा सा गांव है जो चारों तरफ पहाडि़यों से घिरा है. रास्ते में मेरी गाड़ी खराब हो गई और मैं काफिले से बिछुड़ गया. मोरे से 10 किलोमीटर पहले एक सैनिक छावनी पर हमें रुकना पड़ा. वहां हमारी तलाशी ली गई. पता चला कि आगे रास्ता अचानक खराब हो गया है. करीब 4 घंटे हमें वहां रुकना पड़ा फिर हम रवाना हुए.

हम अभी कुछ दूर ही चले थे कि बीच रास्ते में बड़ेबड़े पत्थर रखे दिखाई दिए. ड्राइवर और हम सभी यात्री उतर कर पत्थर हटाने लगे. इतने में 10-12 हथियारबंद लोगों ने हमें घेर लिया और बंदूक की नोक पर मुझे साथ चलने को कहा. ड्राइवर और बाकी यात्रियों को उन्होंने छोड़ दिया. मैं हाथ ऊपर कर के उन के साथसाथ चलने लगा.

करीब 2 घंटे तक जंगल में पैदल चलने के बाद, उन के साथ मैं एक पहाड़ी के नीचे पहुंचा तो देखा वहां

3-4 झोपडि़यां बनी हुई थीं. वहीं उन का कैंप था. एक झोंपड़ी में लकड़ी के खंभे के सहारे मुझे बांध दिया गया. थोड़ी देर बाद एक लड़की आई और उस ने मुझे चाय व बिस्कुट खाने को कहा. मेरे हाथ ढीले कर दिए गए. मैं ने चाय पी ली. अगले दिन सुबह उन का नेता आया और मुझ से प्रश्न करने लगा. शुद्ध हिंदी में उसे बात करते देख मुझे बहुत ताज्जुब हुआ.

‘‘आप का नाम क्या है?’’

‘‘मंगल सिंह,’’ मैं ने जवाब में कहा, ‘‘मैं नई दिल्ली स्थित एक अखबार में संवाददाता की हैसियत से काम कर रहा हूं. यहां मैं संसद सदस्यों के दौरे की रिपोर्ट लिखने आया था. मैं पहली बार इस इलाके में आया हूं. यहां मेरा कोई जानपहचान का नहीं है.’’

‘‘लगता है हमारे लोग आप को गलती से उठा लाए हैं. हमारा निशाना तो कृष्णमूर्ति था जो इस इलाके में मादक पदार्थों की तस्करी करता है. आप का चेहरा थोड़ाथोड़ा उस से मिलता है. मुझे खबर मिली थी कि वह आप वाली गाड़ी में ही सफर कर रहा है. फिर भी आप के बारे में तहकीकात की जाएगी. यदि आप की बात सच होगी तो कुछ दिन बाद आप को छोड़ दिया जाएगा. तब तक आप को यहीं रखा जाएगा. आप को जो तकलीफ हुई उस के लिए मैं माफी चाहता हूं’’

‘‘क्या आप मेरे घर या संपादक तक मेरी खबर भिजवा सकते हैं बूढ़े मांबाप मेरी चिंता करेंगे.’’

‘‘आप एक पत्र लिख दें. दिल्ली में मेरे संगठन से जुड़े लोग आप के अखबार तक आप का पत्र पहुंचा देंगे पर पत्र पहले मैं पढूंगा. उस में इन सब बातों का जिक्र नहीं होना चाहिए. आप के हाथपांव मैं खोल देता हूं पर आप भागने की कोशिश न करें, क्योंकि अभी आप बर्मा के जंगलों में हैं. यदि आप भागेंगे तो हम आप को गोली मार देंगे और यदि आप कृष्णमूर्ति नहीं हैं तो आप को आजादी मिल जाएगी.’’

‘‘यदि आप बुरा न मानें तो मैं कृष्णमूर्ति के बारे में और ज्यादा जानना चाहता हूं आखिर यह किस्सा क्या है?’’ मेरा पत्रकार मन एक अनजान व्यक्ति के बारे में जानने को इच्छुक हो उठा था.

‘‘हमारा संगठन हर उस व्यक्ति के खिलाफ है जो मादक पदार्थों की तस्करी में लिप्त है. मैं ने उसे चेतावनी भी दी थी पर वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आता. अत: इस संगठन के कमांडर ने उसे गोली मारने का आदेश दिया है. इस बार फिर वह बच निकला है. लेकिन कब तक बचेगा. हमारे आदमी उसे ढूंढ़ ही लेंगे.’’

‘‘नशीले पदार्थों की तस्करी रोकने के लिए तो पुलिस है, कानूनव्यवस्था है. आप यह काम क्यों कर रहे हैं?’’ मुझ से रहा नहीं गया और पूछ लिया.

‘‘हम एक तरह से कानून की ही मदद कर रहे हैं. हमारे देश के लोग यदि नशे के गुलाम बनेंगे तो देश का भविष्य कैसा होगा. आप तो जानते ही हैं कि एक बार जिस को नशे की लत लग जाए फिर उस की बरबादी निश्चित है. हम अपनी मातृभूमि की सेवा करते हैं. किसी भी बाहरी व्यक्ति को यह हक नहीं है कि हमारे भाईबहनों को पतन के रास्ते पर ले जाए. चूंकि कानून की नजरों में हम बागी हैं इसलिए कानून से हमें भागना पड़ता है. हमारी अपनी न्याय व्यवस्था है जिस में कमांडर का आदेश ही सर्वोपरि है. इस में कोई अपील या सुनवाई नहीं होती. आप के देश के नियमकानून काफी लचीले हैं. कई बार व्यक्ति अपराध कर के साफ बरी हो जाता है और फिर उसी काम को करने लगता है. खैर, इस विषय को यहीं समाप्त करते हैं.’’

इतना कह कर संगठन का वह नेता चला गया और मेरे हाथपैर खोल दिए गए. मैं थोड़ा इधरउधर टहल सकता था. वहां कुल 15 आदमी और 3 लड़कियां थीं. लड़कियों का मुख्य काम खाना बनाना था पर उन्हें हथियार चलाना भी आता था. मैं ने अपने संपादक को एक छोटा सा पत्र लिख दिया था ताकि वह मेरे मांबाप को सांत्वना दे सकें. कुछ देर के बाद एक लड़की आई और मुझे खाना खाने के लिए कहने लगी. वहां जा कर देखा तो पूरा शाकाहारी भोजन का प्रबंध था. मैं खुश हो गया क्योंकि मैं शुद्ध शाकाहारी था. भोजन में चावल, दाल, आलूप्याज की सब्जी, रोटी और सलाद था. मैं ने सब चिंता छोड़ कर भरपेट खाया क्योंकि खाना मुझे काफी स्वादिष्ठ लगा.

अगले दिन सुबह 5 बजे मेरी नींद खुल गई. मैं नित्यकर्म से निबट कर बाहर आ कर  बैठ गया. सूरज धीरेधीरे पहाड़ी के पीछे उदय हो रहा था. इतना सुंदर नजारा मैं ने जीवन में कभी नहीं देखा था. वह जगह प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर थी. दूरदूर तक पेड़ ही पेड़ दिखाई पड़ रहे थे. उन पर तरहतरह के पक्षियों के चहचहाने की आवाजें आ रही थीं. मैं कुछ समय तक इन में खो गया.

मेरी तंद्रा तब टूटी जब एक लड़की चाय, बिस्कुट ले आई और उस ने मुझ से अंगरेजी में पूछा कि इस के अलावा और भी कुछ चाहिए. मैं ने  भी अंगरेजी में उसे जबाब दिया कि यहां और क्या- क्या मिल सकता है. वह बोली कि

ब्रेड, केक, पेस्ट्री आदि सभी चीजों का प्रबंध है और 8 बजे नाश्ता भी मिल जाएगा. नाश्ते में आलू का परांठा और टमाटर की चटनी होगी. उस के बोलने के अंदाज से मुग्ध हो कर मैं एकटक उसे ही देखता रहा तो वह चली गई.

थोड़ी देर बाद देखा कि कुछ बर्मीज औरतें सामान ले कर आ रही हैं. एक के पास बरतन में दूध था. किसी के पास सब्जी थी तो कोई चावल लाई थी. यानी जो भी खानेपीने का सामान चाहिए वह आप खरीद सकते हैं.

मैं भी उन के पास चला गया. कैंप की रसोई प्रमुख का नाम नीना था. उस ने अपनी जरूरत के हिसाब से सामान खरीद लिया. कल क्या लाना है, यह भी बता दिया. यह सब देख कर नीना से मैं ने पूछा, ‘‘क्या सब सामान ये लोग यहां ला कर दे देते हैं?’’

‘‘बर्मीज लोग बड़े शांत, सरल हृदय होते हैं. छल, कपट और झूठ बोलना तो जैसे जानते ही नहीं. यहां काम मुख्य तौर पर औरतें ही करती हैं. सभी तरह का व्यापार इन्हीं के हाथ में है. अभी जो औरतें यहां सामान ले कर आई

हैं, ये करीब 10 किलोमीटर की दूरी तय कर के आई हैं. शाम को फिर एक बार सामान ले कर आएंगी.’’

‘‘ये औरतें रोज इतना पैदल सफर कर लेती हैं.’’

‘‘नहीं,’’ नीना बोली साइकिल पर 50-60 किलो माल ले आती हैं. यहां अभी भी पूरी ईमानदारी से काम होता

है. मिलावट करना ये लोग जानते ही नहीं.’’

अब तक मैं समझ गया था कि नीना से मुझे और भी जानकारी मिल सकती है. बस, इसे बातचीत में लगाना होगा. तब मुझे इस संगठन के बारे में काफी नई बातें जानने को मिल सकती हैं और जितने दिन यहां रहना पड़ेगा थोड़ी परेशानी कम हो सकती है. अत: जब भी मौका मिलता मैं नीना से बातचीत करता रहता.

इस तरह 4-5 दिन गुजर गए. नीना कभीकभी गिटार पर कोई धुन भी बजाने लगती तो मैं भी जा कर साथ में गाने लगता. वह काफी अच्छा गिटार बजाना जानती थी. मुझे भी संगीत का काफी शौक था. मैं हिंदी गाने और भजन गाता और वह उसे गिटार पर बजाने की कोशिश करती. यह देख कर राजन नामक उस के साथी को भी जोश आ गया और वह बगल के किसी गांव से एक ढोलक ले आया. इस तरह हम लोग रोज रात में गानाबजाना करने लगे.

सच ही है, संगीत में कोई भेदभाव नहीं होता, मजहब की दूरी नहीं होती, कोई अमीरगरीब की सोच नहीं होती.

एक रात मैं सो रहा था कि एक बड़े काले सांप ने मुझे काट लिया और भाग कर झोंपड़ी के कोने में छिप गया. मुझे बहुत दर्द हुआ और मैं जोर से चिल्लाया. आवाज सुन कर नीना और 3-4 व्यक्ति दौड़ेदौड़े आए. मैं ने उन्हें बताया कि मुझे सांप ने काटा है और अभी भी वह झोंपड़ी में मौजूद है.

नीना दौड़ कर एक डंडा ले आई और सांप को खोज कर मार दिया. मैं उस का साहस देख कर आश्चर्यचकित रह गया. फिर नीना ने बताया कि यह सांप तो बहुत जहरीला है अब आप लेट जाइए इस का जहर निकालना पड़ेगा वरना यह पूरे शरीर में फैल सकता है. मैं लेट गया. नीना ने जहां सांप ने काटा था वहां चाकू से एक चीरा लगाया और मुंह से चूसचूस कर जहर निकालने लगी. फिर मुझे नींद आ गई. सुबह पता चला कि नीना रात भर मेरे पास बैठी रही. एक अनजान व्यक्तिके लिए इतनी पीड़ा उस ने उठाई.

अब धीरेधीरे नीना मुझ से खुलने लगी. हम आपस में विविध विषयों पर बातचीत करने लगे. उस के व्यक्तित्व के बारे में मुझे और जानकारी मिली. उस के मांबाप की मृत्यु एक सड़क दुर्घटना में हो गई थी. अब उस का दुनिया में कोई नहीं था. मणिपुर विश्व- विद्यालय से उस ने अंगरेजी में एम.ए. किया था और आगे उस का इरादा पीएच.डी. करने का है.

नीना ने बाकायदा संगीत सीखा था. वह बहुत अच्छा खाना बनाती थी. देखने में सुंदर थी. मैं उसे थोड़ीथोड़ी हिंदी भी सिखाने लगा. वह मेरी इस तरह सेवा करने लगी जैसे कोई ममतामयी मां अपने बच्चे की देखभाल करती है. मुझे जीवन- दान तो उस ने दिया ही था. अब तक कैंप के और लोग भी मुझ से थोड़ा खुल गए थे.

वहां कुछ नेपाली औरतें भी आती थीं जिन्हें हिंदी का ज्ञान था. उन से मैं ने बर्मा के बारे में काफी प्रश्न किए. तो पता चला कि बर्मा में भारत की तरह भ्रष्टाचार नहीं है. लोग घर पर ताला न भी लगाएं तो चोरी नहीं होती. दिन भर मेहनत करते हैं और रात को खाना खा कर सो जाते हैं. सब अनुशासन में रहते हैं. खेती वहां का मुख्य व्यवसाय है.

मेरा मन वहां लग गया था. पर बीचबीच में घर के लोगों की चिंता हो जाती थी. समय अच्छी तरह कट रहा था. इस तरह करीब 20-25 दिन गुजर गए. नीना मेरे साथ एकदम खुल गई थी. उस का संकोच पूरी तरह समाप्त हो गया था. मेरे मन में भी कैंप छोड़ कर दिल्ली लौटने की इच्छा समाप्त हो गई थी पर परिवार के प्रति मेरी जिम्मेदारी थी. जीने के लिए अखबार की नौकरी भी जरूरी थी.

एक दिन अचानक कैंप का वही नेता जो पहले आया था लौट आया. सब बहुत खुश हुए. उस ने मुझे बुलाया और कहा, ‘‘मेरे कमांडर ने आप को छोड़ने का आदेश दे दिया है. 1-2 दिन के बाद आप को मोरे गांव तक पहुंचा देंगे. वहां से आप को इम्फाल की बस मिल जाएगी. आप को जो कष्ट पहुंचा उस के लिए मैं अपने कमांडर की तरफ से क्षमा चाहता हूं.’’

‘‘क्षमा कैसी. मेरा तो जाने का मन ही नहीं कर रहा पर जाना तो पड़ेगा ही क्योंकि आप के कमांडर का आदेश है. आप के साथियों ने मेरा काफी ध्यान रखा जिस के लिए मैं इन सब का आभारी हूं. नीना ने तो मुझे नया जीवन दिया है. मैं उस का ऋणी भी हूं. हां, जाने से पहले मेरी एक शर्त आप को माननी पड़ेगी अन्यथा मैं यहीं पर आमरण अनशन करूंगा,’’ मैं ने कहा.

‘‘वह क्या? आप को तो खुश होना चाहिए कि आप आजाद हो  रहे हैं. हां, कमांडर ने आप के लिए 10  हजार रुपए भेजे हैं. रास्ते के खर्च के लिए और आप के एक मास के वेतन के नुकसान की भरपाई करने के लिए. इम्फाल एअरपोर्ट पर दिल्ली का टिकट आप को मिल जाएगा, इस का प्रबंध हो गया है. दिल्ली में हम ने आप के संपादक और आप के मातापिता तक खबर भेज दी थी और आप की पूरी तहकीकात हम कर चुके हैं. अब आप अपनी शर्त के बारे में बताएं,’’ थाम किशोर ने पूछा.

‘‘मैं नीना से शादी करना चाहता हूं यदि आप को और नीना को कोई एतराज न हो तो. यदि मैं नीना जैसी लड़की को पत्नी के रूप में पा सका तो अपने आप को धन्य समझूंगा. आप सोचविचार कर मुझे जवाब दें और नीना से भी पूछ लें,’’ मैं ने कहा.

पूरे कैंप में खामोशी छा गई. उन     लोगों को मेरी बात पर काफी आश्चर्य हुआ. खामोशी थाम किशोर ने ही तोड़ी.

‘‘भावुकता से भरी बातें न करें. आप की जाति, संप्रदाय, आचारविचार सब अलग हैं. नीना कैसे माहौल में

रह रही है आप देख ही चुके हैं. हम लोग मातृभूमि की सेवा का संकल्प कर चुके हैं. फिर भी मुझे नीना से तथा अपने कमांडर से पूछना होगा. आप

2-4 दिन और रुकें फिर मैं आप को फैसला सुना देता हूं.’’

बाद के दिनों में नीना ने मुझ से थोड़ी दूरी बढ़ानी चाही पर मैं ने उसे ऐसा करने नहीं दिया. नीना ने बताया कि वह भी मुझे पसंद करती है और शादी भी करने को तैयार है लेकिन क्या इस शादी से आप के घर वाले एतराज नहीं करेंगे?

मैं ने उस के मन में उठे संदेह को शांत करने के लिए समझाया कि मेरे मातापिता को ऐसी बहू चाहिए जो उन की सेवा कर सके. तुम्हारा सेवाभाव तो मैं देख चुका हूं. तुम को पा कर मेरा   जीवन सफल हो जाएगा. बस, कमांडर हां कर दे तो बात बन जाए.

3 दिन के बाद संगठन के नेता थाम किशोर सिंह ने यह खुशखबरी दी कि कमांडर ने हां कर दी है और कहा है कि धूमधाम से कैंप में ही शादी का प्रबंध किया जाए. वह भी आने की कोशिश करेंगे.

मेरी और नीना की शादी धूमधाम से वहीं कैंप में कर दी गई और एक झोंपड़ी में सुहागरात मनाने का प्रबंध भी कर दिया गया. अगले दिन सुबह कैंप से विदा होने की तैयारी करने लगे. सभी सदस्यों ने रोते हुए हमें विदा किया.

थाम किशोर ने एक लिफाफा दिया और कहा कि कमांडर ने नीना को एक तोहफा दिया है. वह तो आ नहीं सके. हम लोग मोरे इम्फाल होते हुए दिल्ली पहुंच गए. नीना पूरे सफर में बहुत खुश थी.

घर पहुंच कर थोड़ा विश्राम कर के नीना ने कमांडर का तोहफा खोला.

अपने जैसे लोग: नीरज के मन में कैसी शंका थी

आधुनिक नारी: भाग 2- अनिता को अनिरुद्ध की खुशी पर शक क्यों हुआ?

अनिरुद्ध से मुलाकात होने के बारे में सोच अनिता खुश तो बहुत हुई पर अपनी खुशी छिपा कर उस ने पूछा, ‘‘अरे, अपनी प्रमोशन की बात की कि नहीं?’’

‘‘कहां की. एक तो फुरसत नहीं मिली फिर कोई आ गया. खुद की प्रमोशन की बात मैं कैसे कह दूं, यह मेरी समझ में नहीं आता. ऐसा है, कल चलेंगे न तो मौका देख कर तुम्हीं कहना. तुम्हारी बात शायद मना न कर पाएं. मैं मौका देख कर थोड़ी देर के लिए कहीं इधरउधर चला जाऊंगा.’’

‘‘मुझ से नहीं हो पाएगा,’’ अनिता ने बहाना बनाया.

‘‘अरे, तुम मेरी पत्नी हो. मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकतीं. सोचो, प्रमोशन मिलते ही वेतन बढ़ जाएगा और अन्य सुविधाएं भी मिलेंगी. हमारी जिंदगी आरामदेह हो जाएगी. अभी तुम जिन छोटीछोटी चीजों के लिए तरस जाती हो, वे सब एक झटके में आ जाएंगी. मौके का फायदा उठाना चाहिए. ऐसे मौके बारबार नहीं आते. तुम एक बार कह कर तो देखो, मेरी खातिर.’’

‘‘ठीक है, मौका देख कर जरूर कहूंगी,’’ अनिता समझ गई कि अविनाश प्रमोशन के लिए कुछ भी कर सकता है. यह कायदे से मु?ा से बात नहीं करता, लेकिन प्रमोशन के लिए मुझ से इतनी गुजारिश कर रहा है.

अगले दिन अविनाश, अनिता

अपने 16 वर्षीय बेटे प्रमोद के साथ अनिरुद्ध के घर पहुंचे. अनिरुद्ध का कोठीनुमा घर देख कर अनिता की आंखें चुंधिया गईं. हर कमरे की साजसज्जा देख कर वह आह भर कर रह जाती कि काश मेरा घर भी ऐसा होता… अंजलि ने घर पर सहेलियों की किट्टी पार्टी आयोजित कर रखी थी, इसलिए अनिरुद्ध अपने कमरे में अलगथलग बैठा हुआ था. अंजलि ने अविनाश और अनिता का स्वागत तो किया पर यह कह कर किट्टी पार्टी चल रही है, उन्हें अनिरुद्ध के कमरे में ले जा कर बैठा दिया. हां, जातेजाते उस ने यह जरूर कहा कि जाइएगा नहीं, पार्टी खत्म होते ही मैं आऊंगी.

अविनाश के साथ ही प्रमोद ने भी अनिरुद्ध को नमस्कार किया और अविनाश ने बताया कि यह मेरा बेटा प्रमोद है. बस, यही एक लड़का है.

अनिरुद्ध ने वहीं बैठेबैठे आवाज लगाई, ‘‘पिंकी… पिंकी.’’

थोड़ी ही देर में प्रमोद की समवयस्क एक किशोरी प्रकट हुई और अनिरुद्ध ने उस का परिचय कराते हुए बताया कि यह उन की बेटी है.

फिर कहा, ‘‘पिंकी बेटे, प्रमोद को ले जा कर अपना कमरा दिखाओ, खेलो और कुछ खिलाओपिलाओ,’’ अनिरुद्ध का इतना कहना था कि पिंकी प्रमोद का हाथ पकड़ उसे अपने साथ ले गई. उस का कमरा सब से पीछे था एकदम अलगथलग.

इधर अनिरुद्ध के कमरे में थोड़ी ही देर में नौकर चायनाश्ता ले आया. इधरउधर की औपचारिक बातों के बीच चायनाश्ता शुरू हुआ. अनिता अधिकतर चुप ही रही. वह अविनाश को यह भनक नहीं लगने देना चाहती थी कि उस की कभी अनिरुद्ध के साथ घनिष्ठता थी. वह चुपचाप अनिरुद्ध को देख रही थी कि कितना बदल गया है वह.

इसी बीच अविनाश के मोबाइल की घंटी बजी. वह तो ऐसे ही किसी मौके की तलाश में था. उस ने अनिरुद्ध से कहा, ‘‘सर, बुरा मत मानिएगा. मैं अभी थोड़ी देर में आ रहा हूं, एक जरूरी काम है.’’

अनिरुद्ध के ‘ठीक है’ कहते ही अविनाश तेजी से बाहर निकल गया. एक पल के लिए अनिता का मन यह सोच कर कसैला हो गया कि आदमी अपने स्वार्थ के आगे इतना अंधा हो जाता है कि अपनी बीवी को दूसरे के पास अकेले में छोड़ जाता है. पर अगले ही पल वह अपने पुराने प्यार में खो गई.

अब कमरे में केवल अनिरुद्ध और अनिता रह गए. थोड़ी देर के लिए तो वहां एकदम शांति व्याप्त हो गई. दोनों में से किसी को कुछ सू?ा ही नहीं रहा था कि क्या कहे. वक्त जैसे थम गया था.

बात अनिरुद्ध ने ही शुरू की, ‘‘मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि हम फिर मिलेंगे.’’

‘‘मैं ने भी.’’

अनिरुद्ध खड़ा हो गया था, ‘‘तुम नहीं जानतीं कि मैं ने तुम्हारी याद में कितनी रातें रोरो कर बिताईं. पर क्या करता मजबूर था. पढ़ाई पूरी करने और नौकरी करने के बाद मैं तुम्हारी खोज में एक बार वाराणसी भी गया था. वहां पता लगा तुम्हारी शादी हो गई है. इस के बाद ही मैं ने अपनी शादी के लिए हां की,’’ अनिरुद्ध भावुक हो गया था.

अनिता की आंखों से आंसू झरने लगे थे. उस ने बिना एक शब्द कहे अपने आंसुओं के सहारे कह दिया था कि वह भी उस के लिए कम नहीं रोई है.

अनिरुद्ध ने देखा कि अनिता रो रही है, तो उस ने अपने हाथों से उस के आंसू पोंछ कर उसे सांत्वना दी, ‘‘जो कुछ हुआ उस में तुम्हारा क्या कुसूर है? मैं जानता हूं कि तुम मुझे आज भी इस दुनिया में सब से ज्यादा प्यार करती हो,’’ कहते हुए अनिरुद्ध ने अनिता को गले लगा कर उस के अधरों का एक चुंबन ले लिया.

अनिता चुंबन से रोमांचित हो गई. उस ने प्रतिरोध करने के बजाय बस इतना ही कहा, ‘‘कोई आ गया तो…’’

अनिरुद्ध समझ गया कि अनिता को भी पुराने

प्रेम प्रसंग को चलाए रखने में कोई आपत्ति नहीं है. बस, सब कुछ छिपा कर सावधानीपूर्वक करना पड़ेगा.

‘‘सौरी यार, इतने दिनों बाद तुम्हें अकेले पा कर मैं अपनेआप को रोक नहीं पा रहा हूं.’’

‘‘धीरज रखो, सब हो जाएगा,’’ कह कर अनिता ने अपनी मादक मुसकान बिखेरते हुए हामी भर दी. बदले में अनिरुद्ध भी मुसकरा पड़ा.

अनिता को लग रहा था कि आज उस का पुराना प्रेम उसे वापस मिल गया. पर इस प्रेम प्रसंग को चलाए रखने के लिए यह जरूरी था कि अविनाश की प्रमोशन हो जाए. इसी प्रमोशन के लिए तो अविनाश उसे आज अनिरुद्ध के यहां लाया और उन्हें एकांत में छोड़ कर चला गया. अनिता ने बिना किसी भूमिका के अनिरुद्ध को सब कुछ बता दिया.

‘‘यह प्रमोशन क्या चीज है, तुम्हारे लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं,’’ कहते हुए अनिरुद्ध ने एक बार फिर से अनिता का दीर्घ चुंबन ले डाला.

अनिता ने कोई प्रतिरोध नहीं किया और बनावटी नाराजगी दिखाते हुए बोली, ‘‘मैं ने कहा न सब कुछ हो जाएगा. मैं तो शुरू से ही तुम्हारी हूं, थोड़ा धीरज रखो,’’ और अपने पर्स से रूमाल निकाल कर अनिरुद्ध के मुंह पर लगी लिपस्टिक पोंछने लगी. फिर यह कहते हुए अंजलि के कमरे की तरफ मुड़ गई, ‘‘यहां बैठना ठीक नहीं. पता नहीं तुम क्या कर बैठो.’’

उपलब्धि: शादीशुदा होने के बावजूद क्यों अलग थे सुनयना और सुशांत?

कभी कभीहालात इनसान को ऐसे मोड़ पर ले आते हैं कि वह समझ ही नहीं पाता कि अब क्या करे, किस ओर जाए? कुछ ऐसा ही हुआ था सुनयना के साथ. एक पल में कितना कुछ बदल गया था उस की जिंदगी में.

काश, आज उस ने सुबह चुपके से सुशांत की बातें न सुनी होतीं. वह किसी से मोबाइल पर कह रहा था, ‘‘हांहां डियर, मैं ठीक 5 बजे पहुंच जाऊंगा नक्षत्र होटल. वैसे भी अब तो सारा वक्त आप के खयालों में गुजरेगा,’’ कहते हुए ही सुशांत ने फोन पर ही किस किया तो सुनयना का दिल तड़प उठा.

सुनयना मानती थी कि सुशांत ने उसे साधारण मध्यवर्गीय परिवार से निकाल कर शानोशौकत की पूरी दुनिया दी. गाड़ी, बंगला, नौकरचाकर, कपड़े, जेवर… भला किस चीज की कमी रखी? फिर भी वह आज स्वयं को बहुत बेबस, लाचार और टूटा हुआ महसूस कर रही थी. वह बेसब्री से 5 बजने का इंतजार करने लगी ताकि नक्षत्र होटल पहुंच कर हकीकत का पता लगा सके. खुद को एतबार दिला सके कि यह सब यथार्थ है, महज वहम नहीं, जिस के आधार पर वह अपनी खुशियां दांव पर लगाने चली है.

पौने 5 बजे ही वह होटल के गेट से दूर गाड़ी खड़ी कर के अंदर रिसैप्शन में बैठ गई. दुपट्टे से अपना चेहरा ढक लिया और काला चश्मा भी लगा लिया ताकि सुशांत उसे पहचान न सके.

ठीक 5 बजे सुशांत की गाड़ी गेट पर रुकी. स्मार्ट नीली टीशर्ट व जींस में वह

गाड़ी से उतरा और रिसैप्शन की तरफ बढ़ गया. वहां पहले से ही एक लड़की उस का इंतजार कर रही थी. दोनों पुराने प्रेमियों की तरह गले मिले, फिर हाथों में हाथ डाले लिफ्ट की तरफ बढ़ गए.

सुनयना की आंखें भर आईं. उस का कंठ सूखने लगा. उसे महसूस हुआ जैसे वह फूटफूट कर रो पड़ेगी. थोड़ी देर डाल से टूटे पत्ते की तरह वहीं बैठी रही. फिर तुरंत स्वयं को संभालती हुई उठी और गाड़ी में बैठ गई. घर आ कर औंधे मुंह बिस्तर पर गिर पड़ी. देर तक रोती हुई सोचती रही कि किस मोड़ पर उस से क्या गलती हो गई जो सुशांत को यह बेवफाई करनी पड़ी? वह स्वस्थ है, खूबसूरत है, अपने साथसाथ सुशांत का भी पूरा खयाल रखती है, इतना प्यार करती है उसे, फिर सुशांत ने ऐसा क्यों किया?

हमेशा की तरह सुनयना ने स्वयं को संभालने और दिल की बातें करने के लिए सुप्रिया को फोन लगाया जो उस की सब से प्रिय सहेली थी. उस से वह हर बात शेयर करती. सुनयना की आवाज में झलकते दुख व कंपन को एक पल में सुप्रिया ने महसूस कर लिया. फिर घबराए स्वर में बोली, ‘‘सुनयना सब ठीक तो है? परेशान क्यों लग रही है?’’

सुनयना ने रुंधे गले से उसे सारी बातें बताईं, तो सुप्रिया ठंडी सांस लेती हुई बोली, ‘‘हिम्मत न हार. मैं मानती हूं, जिंदगी कई दफा हमें ऐसी स्थितियों से रूबरू कराती है, जहां हम दूसरों पर क्या, खुद पर भी विश्वास खो बैठते हैं. तू नहीं जानती, मैं खुद इस खौफ में रहती हूं कि कहीं मेरी जिंदगी में भी कोई ऐसा शख्स न आ जाए, जिस के लिए प्रेम की कोई कीमत न हो. मैं घबराती हूं, ठगे जाने से. प्यार में कहीं पछतावा हाथ न लगे, शायद इसलिए अपने काम के प्रति ही समर्पित रहती हूं.’’

‘‘शायद तू ठीक कह रही है, सुप्रिया मगर मैं क्या करूं? मैं ने तो अपनी जिंदगी सुशांत के  नाम समर्पित की थी.’’

‘‘ऐसा सिर्फ  तेरे साथ ही नहीं हुआ है सुनयना. तुझे याद है, स्कूल में हमारे साथ पढ़ने वाली नेहा?’’ सुप्रिया बोली.

‘‘कौन वह जिस की मां हमारे स्कूल में क्लर्क थीं?’’

‘‘हांहां, वही. अब वह भी किसी स्कूल में छोटीमोटी नौकरी करने लगी है. कभीकभी मां को किसी काम में मदद की जरूरत होती है, तो मैं उसे बुला लेती हूं. अटैच हो गई है हम से. पास में ही उस का घर है. अपने बारे में सब कुछ बताती रहती है. उस ने लव मैरिज की थी, पर उस के साथ भी यही कुछ हुआ.’’

‘‘उफ, फिर तो वह भी परेशान होगी. आ कर रो रही होगी, तेरे पास. अंदर ही अंदर घुट रही होगी, जैसे मैं…’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं. उस का रिऐक्शन बहुत अलग रहा. उस ने उसी वक्त खुल कर इस विषय पर अपने पति से बात की. जलीकटी सुना कर अपनी भड़ास निकाली. फिर अल्टीमेटम भी दे दिया कि यदि आइंदा इस घटना की पुनरावृत्ति हुई, तो वह घर में एक पल के लिए भी नहीं रुकेगी.’’

‘‘उस ने ठीक किया. मगर मैं ऐसा नहीं कर सकती. समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं?’’ बुझे स्वर में सुनयना ने कहा.

‘‘यार, कभीकभी ऐसा होता है, जब दिमाग कुछ कहता है और दिल कुछ. तब समझ नहीं आता कि क्या किया जाए. बहुत असमंजस की स्थिति होती है खासकर जब धोखा देने वाला वही हो, जिसे आप सब से ज्यादा प्यार करते हैं. मेरी बात मान अभी तू आराम कर. सुबह ठंडे दिमाग से सोचना और वैसे भी छोटीछोटी बातों पर परेशान होना उचित नहीं.’’

‘‘यह बात छोटी नहीं प्रिया, मेरी पूरी जिंदगी का सवाल है. फिर भी चल, रिसीवर रखती हूं मैं,’’ कह कर सुनयना ने रिसीवर रख दिया और कमरे में आ कर सोने का प्रयास करने लगी. मगर मन था कि लौटलौट कर उसी लमहे को याद करने लगता, जब दिल को गहरी चोट लगी थी.

और फिर यह पहली दफा नहीं है जब सुशांत ने उस का दिल तोड़ा हो. इस से पहले भी रीवा के साथ सुशांत का बेहद करीबी रिश्ता होने का एहसास हुआ था उसे. मगर तब सुशांत ने यह  कह कर माफी मांग ली थी कि रीवा उस की बहुत पुरानी दोस्त है और उस से एकतरफा प्यार करती है. वह उस का दिल नहीं तोड़ना चाहता.

सुनयना यह सुन कर खामोश रह गई थी, क्योंकि प्रेम शब्द और उस से जुड़े एहसास का   बहुत सम्मान करती है वह. आखिर उस ने भी तो सुशांत से मुहब्बत की है. यह बात अलग है कि सुशांत के व्यक्तित्व व संपन्नता के आगे वह स्वयं को कमतर महसूस करती है और जबरन उसे स्वयं से बांधे रखना नहीं चाहती थी. आज जो कुछ भी उस ने देखा, उसे वह मुहब्बत तो कतई नहीं मान सकती थी. यह तो सिर्फ और सिर्फ वासना थी.

देर रात जब सुशांत लौटा तो हमेशा की तरह बहुत ही सामान्य व्यवहार कर रहा था. उस का यह रुख देख कर सुनयना के दिल में कांटे की तरह कुछ चुभा. मगर वह कुछ बोली नहीं. कहती भी क्या, जिंदगी तो स्वयं ही उस के साथ खेल खेल रही थी. पिछले साल उसे पता चला था कि सुशांत ड्रग ऐडिक्ट है, मगर तब उसे इतना अधिक दुख नहीं हुआ, जितना आज हुआ था. उस समय विश्वास टूटा था और आज तो दिल ही टूट गया था.

इस बात को बीते 2 माह गुजर चुके थे, मगर स्थितियां वैसी ही थीं. सुनयना खामोशी से सुशांत की हरकतों पर नजर रख रही थी. सुशांत पहले की तरह अपनी नई दुनिया में मगन था. कई दफा सुनयना ने उसे रंगे हाथों पकड़ा भी, मगर वह पूरी तरह बेशर्म हो चुका था. उस की एक नहीं 2-2, 3-3 महिलाओं से दोस्ती थी.

सुनयना अंदर ही अंदर इस गम से घुटती जा रही थी. एक बार अपनी मां से फोन पर इस बारे में बात करनी चाही तो मां ने पहले ही उसे रोक दिया. वे अपने रईस दामाद के खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थीं, उलटा उसे ही समझाने लगीं, ‘‘इतनी छोटीछोटी बातों पर घर तोड़ने की बात सोचते भी नहीं.’’

सुनयना कभीकभी यह सोच कर परेशान होती कि आगे क्या करे? क्या सुशांत को तलाक देना या घर छोड़ने की धमकी देना उचित रहेगा? मगर वह ऐसा करे भी तो किस आधार पर? यह सारा ऐशोआराम छोड़ कर वह कहां जाएगी? मां के 2 बैडरूम के छोटे से घर में? उस ने ज्यादा पढ़ाई भी नहीं की है, जो अच्छी नौकरी हासिल कर चैन से दिन गुजार सके. भाईभाभी का चेहरा यों ही बनता रहता है. तो क्या दूसरी शादी कर ले? मगर कौन कह सकता है कि दूसरा पति उस के हिसाब का ही मिलेगा? उस के विचारों की उथलपुथल यहीं समाप्त नहीं होती. घंटों बिस्तर पर पड़ेपड़े वह अपनेआप को सांत्वना देती रहती और सोचती कि पति का प्यार भले ही बंट गया हो, पर घरपरिवार और समाज में इज्जत तो बरकरार है.

धीरेधीरे सुनयना ने स्वयं को समझा लिया कि अब यही उस की जिंदगी की हकीकत है. उसे इसी तरह सुशांत की बेवफाइयों के साथ जिंदगी जीनी है.

फिर एक दिन सुबहसुबह सुप्रिया का फोन आया. वह बड़ी उत्साहित थी. बोली, ‘‘सुनयना, जानती है अपनी नेहा ने पति को तलाक देने का फैसला कर लिया है? वह पति का घर छोड़ कर आ गई है.’’

सुनयना चौंक उठी, ‘‘यह क्या कह रही है तू? उस ने इतनी जल्दी इतना बड़ा फैसला कैसे ले लिया?’’

‘‘मेरे खयाल से उस ने कुछ गलत नहीं किया सुनयना. आखिर फैसला तो लेना ही था उसे. मैं तो कहती हूं, तुझे भी यही करना चाहिए. उस ने सही कदम उठाया है.’’

‘‘हूं,’’ कह रिसीवर रखती हुई सुनयना सोच में पड़ गई. दिन भर बेचैन रही. रात भर करवटें बदलती रही. दिल में लगातार विचारों का भंवर चलता रहा. आखिर सुबह वह एक फैसले के साथ उठी और स्वयं से ही बोल पड़ी कि ठीक है, मैं भी नेहा की तरह ही कठोर कदम उठाऊंगी. तभी सुशांत को पता चलेगा कि उस ने मेरा दिल दुखा कर अच्छा नहीं किया. बहुत प्यार किया था मैं ने उसे, मगर वह कभी मेरी कद्र नहीं कर सका. फिर सब कुछ छोड़ कर वह बिना कुछ कहे घर से निकल पड़ी. वह नहीं चाहती थी कि सुशांत फिर से उस से माफी मांगे और वह कमजोर पड़ जाए. न ही वह अब सुशांत की बेवफाई के साथ जीना चाहती थी, न ही अपना दर्द दिल में छिपा कर टूटे दिल के साथ ऐसी शादीशुदा जिंदगी जीना चाहती थी.

मायके वाले उस के काम नहीं आएंगे, यह एहसास था उसे, मगर इस खौफ की वजह से अपनी मुहब्बत का गला घुटते देखना भी मंजूर नहीं था. वह निकल तो आई थी, मगर अब सब से बड़ा सवाल यह था कि वह आगे क्या करे? कहां जाए? बहुत देर तक मैट्रो स्टेशन पर बैठी सोचती रही.

तभी प्रिया का फोन आया, ‘‘कहां है यार? घर पर फोन किया तो सुशांत ने कहा कि तू घर पर नहीं. फोन भी नहीं उठा रही है. सब ठीक तो है?’’

‘‘हां यार, मैं ने घर छोड़ दिया,’’ रुंधे गले से सुनयना ने कहा तो यह सुन प्रिया सकते में आ गई. बोली, ‘‘यह बता कि अब जा कहां रही है तू?’’

‘‘यही सवाल तो लगातार मेरे भी जेहन में कौंध रहा है. जवाब जानने को ही मैट्रो स्टेशन पर रुकी हुई हूं.’’

‘‘ज्यादा सवालजवाब में मत उलझ. चुपचाप मेरे घर आ जा,’’ प्रिया ने कहा तो सुनयना के दिल में तसल्ली सी हुई. उस को प्रिया का प्रस्ताव उचित लगा. आखिर प्रिया भी तो अकेली रहती है. 2 सिंगल महिलाएं एकसाथ रहेंगी तो एकदूसरे का सहारा ही बनेंगी.

सारी बातें सोच कर सुनयना चुपचाप प्रिया के घर चली गई. प्रिया ने उसे सीने से लगा लिया. देर तक सुनयना से सारी बातें सुनती रही. फिर बोली, ‘‘सुनयना, आज जी भर कर रो ले. मगर आज के बाद तेरे जीवन से रोनेधोने या दुखी रहने का अध्याय समाप्त. मैं हूं न. हम दोनों एकदूसरे का सहारा बनेंगी.’’

सुनयना की आंखें भर आईं. रहने की समस्या तो सहेली ने दूर कर दी थी, पर कमाने का मसला बाकी था. अगले दिन से ही उस ने अपने लिए नौकरी ढूंढ़नी शुरू कर दी. जल्दी ही नौकरी भी मिल गई. वेतन कम था, मगर गुजारे लायक तो था ही.

नई जिंदगी ने धीरेधीरे रफ्तार पकड़नी शुरू की ही थी कि सुनयना को महसूस हुआ कि उस के शरीर के अंदर कोई और जीव भी पल रहा है. इस हकीकत को डाक्टर ने भी कन्फर्म कर दिया यानी सुशांत से जुदा हो कर भी वह पूरी तरह उस से अलग नहीं हो सकी थी. सुशांत का अंश उस की कोख में था. भले ही इस खबर को सुन कर चंद पलों को सुनयना हतप्रभ रह गई, मगर फिर उसे महसूस हुआ जैसे उसे जीने का नया मकसद मिल गया हो.

इस बीच सुनयना की मां का देहांत हो गया. सुनयना अपने भाईभाभी से वैसे भी कोईर् संबंध रखना नहीं चाहती थी. प्रिया और सुनयना ने दूसरे इलाके में एक सुंदर घर खरीदा और पुराने रिश्तों व सुशांत से बिलकुल दूर चली आई.

बच्ची थोड़ी बड़ी हुई तो दोनों ने उस का एडमिशन एक अच्छे स्कूल में करा दिया. अब सुनयना की दुनिया बदल चुकी थी. वह अपनी नई दुनिया में बेहद खुश थी. जबकि सुशांत की दुनिया उजड़ चुकी थी. जिन लड़कियों के साथ उस के गलत संबंध थे, वे गलत तरीकों से उस के रुपए डुबोती चली गईं. बिजनैस ठप्प होने लगा. वह चिड़चिड़ा और क्षुब्ध रहने लगा. इतने बड़े घर में बिलकुल अकेला रह गया था. लड़कियों के साथसाथ दोस्तों ने भी साथ छोड़ दिया. घर काटने को दौड़ता.

एक्र दिन वह यों ही टीवी चला कर बैठा था कि अचानक एक चैनल पर उस की निगाहें टिकी रह गईं. दरअसल, इस चैनल पर ‘सुपर चाइल्ड रिऐलिटी शो’ आ रहा था और दर्शकदीर्घा के पहली पंक्ति में उसे सुनयना बैठी नजर आ गई. वह टकटकी लगाए प्रोग्राम देखने लगा.

स्टेज पर एक प्यारी सी बच्ची परफौर्म कर रही थी. वह डांस के साथसाथ बड़ा मीठा गाना भी गा रही थी. उस के चुप होते ही शो के सारे जज खड़े हो कर तालियां बजाने लगे. सब ने खूब तारीफ की. जजों ने बच्ची से उस के मांबाप के बारे पूछा तो सारा फोकस सुनयना पर हुआ यानी यह सुनयना की बेटी है? सुशांत हैरान देखता रह गया. जजों के आग्रह पर सुनयना के साथ उस की सहेली प्रिया स्टेज पर आई. बच्ची ने विश्वास के साथ दोनों का हाथ पकड़ा और बोली, ‘‘मेरे पापा नहीं हैं, मगर मांएं 2-2 हैं. यही दोनों मेरे पापा भी हैं.’’

सिंगल मदर और सुपर चाइल्ड की उपलब्धि पर सारे दर्शक तालियां बजा रहे थे. इधर सुशांत अपने ही सवालों में घिरा था कि क्या यह मेरी बच्ची है? या किसी और की? नहींनहीं, मेरी ही है, तभी तो इस ने कहा कि पापा नहीं हैं, 2-2 मांएं हैं. पर किस से पूछे? कैसे पता चले कि सुनयना कहां रहती है? अपनी बच्ची को गोद में ले कर वह प्यार करना चाहता था. मगर यह मुमकिन नहीं था. बच्ची उस की पहुंच से बहुत दूर थी. वह बस उसे देख सकता था. मगर उस के पास कोई चौइस नहीं थी.

सुशांत तो ऐसा बेचारा बाप था, जो अपने अरमानों के साथ केवल सिसक सकता था. सुनयना बड़े गर्व से बेटी को सीने से लगाए रो रही थी. सुशांत हसरत भरी निगाहों से उन्हें निहार रहा था.

पश्चात्ताप: प्रिया अपना मां के प्रति इतनी कठोर क्यों हो गई?

‘‘मां,   मां, कहां चली गईं?’’?  रेणु की आवाज सुन कर मैं

पीछे मुड़ी.

‘‘तो यहां हैं आप. सारे घर में ढूंढ़ रही हूं और आप हैं कि यहां अंधेरे कमरे में अकेली बैठी हैं. अब तक तैयार भी नहीं हुईं. हद हो गई. हर साल आज के दिन आप के दिल पर न जाने क्यों इतनी उदासी छा जाती है,’’ रेणु अपनी धुन में बोलती जा रही थी.

आज पहली अप्रैल है. आज भला मैं

कैसे खुश रह सकती हूं? आज मेरी मृत बेटी प्रिया का जन्मदिन है. 25 वर्ष पूर्व आज ही के दिन मैं ने ‘प्रियाज हैप्पी होम’ की स्थापना की थी. आज उस की रजत जयंती का समारोह आयोजित किया गया है.

‘‘चलिए, जल्दी तैयार हो जाइए. पापा सीधे समारोह में ही पहुंच रहे हैं. अनाथाश्रम

से 2-3 बार फोन आ चुका है कि हम घर से निकले हैं या नहीं.’’

‘‘कितनी बार कहा है तुम से कि अनाथाश्रम मत कहा करो. वह भी तो अपना ही घर है, प्रिया की याद में बनाया हुआ छोटा सा आशियाना,’’ मैं खीज उठी.

‘‘अच्छा, सौरी. अब जल्दी तैयार हो जाइए. आकाश भैया भी आ गए.’’

हैप्पी होम की सहायक संचालिका

रुचि तिवारी मुझे अपने साथ स्टेज पर ले गई.

समारोह की शुरुआत मुख्य अतिथि ने दीप प्रज्वलित कर के की. प्रिया की बड़ी तसवीर पर माला पहनाते वक्त मेरी आंखें नम हो गईं.

समारोह के समापन से पहले मुझ से दो शब्द

कहने के लिए कहा गया, तो मैं ने सब का अभिवादन करने के पश्चात एक संक्षिप्त सा भाषण दिया, ‘देवियो और सज्जनो, 25 वर्ष पूर्व मैं ने जब अपने पति की सहमति से इस हैप्पी होम की नींव रख कर एक छोटा सा कदम उठाया था तब मैं ने सोचा भी न था कि इस राह पर चलतेचलते इतने लोगों का साथ मुझे मिलेगा और कारवां बनता जाएगा. आज हमारे हैप्पी होम में अलगअलग आयु के 500 से भी अधिक बच्चे हैं. 3 छात्राएं स्कालरशिप हासिल कर के डाक्टर बन चुकी हैं. 10 से अधिक छात्र इंजीनियर बन गए हैं और अच्छे पदों पर नौकरी कर रहे हैं. इस से अधिक गर्व की बात हमारे लिए और क्या हो सकती है? हैप्पी होम में पलने वाले हर बच्चे के होंठों पर मुसकान हमेशा बनी रहे, हमारी यही कोशिश आगे भी जारी रहेगी. धन्यवाद.’

समारोह में जिस तरह मेरी प्रशंसा के पुल बांधे गए, क्या मैं वाकई उस की हकदार हूं? क्या मैं अपनी प्रिया की उतनी ही ममतामयी मां बन पाई, जितना हैप्पी होम के बच्चों की हूं?

इन प्रश्नों के मेरे पास सकारात्मक उत्तर नहीं होते. अपने गरीबान में झांक कर देखने पर मैं खुद को कितना घृणित महसूस करती हूं, यह मैं ही जानती हूं.

मेरा मन पुरानी यादों के गलियारों में भटकने लगता है, जब मैं ने प्रिया को खो

दिया था. प्रिया को जब पहली बार देखा था, वह तो और भी पुरानी बात है. तब वह अपने पिता रवि और दादी के साथ हमारे पड़ोस में रहने आई थी.

पड़ोस में जब कोई नया परिवार आता है तो स्वाभाविक रूप से हर किसी को उस के बारे में जानने की उत्सुकता होती है. मां, इस का अपवाद न थीं. पहले टैक्सी से रवि, प्रिया और अपनी बूढ़ी मां के साथ आए. पीछे से उन का सामान ट्रक से पहुंचा.

शिष्टाचारवश मां और पिताजी ने उन के घर जा कर अपना परिचय दिया. घर आ कर मां  पहले उन लोगों के लिए चाय, फिर सारा खाना बना कर ले गईं. घर आ कर मां बोलीं, ‘‘बेचारे बहुत भले लोग हैं. नन्ही बिटिया का नाम प्रिया है. बेचारी बिन मां की बच्ची. 3 महीने पहले उस की मां गुजर गईं.’’

‘‘अच्छा. क्या हुआ था उन्हें, इतनी छोटी उम्र में?’’ मैं ने स्वेटर बुनते हुए पूछा.

‘‘गर्भाशय का कैंसर था. पहले बहुत रक्तस्राव हुआ. फिर डाक्टरों ने आपरेशन कर के गर्भाशय निकाल दिया, परंतु तब तक कैंसर बहुत फैल गया था,’’ मां ने बताया.

इतने में प्रिया के रोने की आवाज आई, तभी मैं ने बाहर दालान में जा कर देखा तो प्रिया की दादी उसे गोद मेें लिए हुए चिडि़या आदि दिखा कर उस का दिल बहलाने का असफल प्रयास कर रही थीं. प्रिया की रुलाई रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी.

नन्ही प्रिया ने हलके गुलाबी रंग का झालरों

वाला फ्राक पहना था. घुंघराले बालों की लट माथे पर बारबार आ रही थी, जिसे उस की दादी हाथ से पीछे कर देती थीं. मुझ से प्रिया का रोना देखा न गया. मैं ने अपने घर के बगीचे से एक गुलाब का फूल लिया और रास्ता पार कर के प्रिया के घर पहुंच गई. गेट खुलने की आवाज सुन कर प्रिया की दादी ने पीछे मुड़ कर मुझे देखा और हौले से मुसकरा दीं.

‘‘नमस्ते, आंटीजी,’’ मैं ने हाथ जोड़ते हुए कहा. मेरे पीछे मां भी आ गई थीं.

‘‘बिटिया, क्यों रो रही है? नया घर

पसंद नहीं आया क्या?’’ मां ने हंसते हुए प्रिया के गाल की चिकोटी काटी.

प्रिया ने रोना बंद कर दिया और मुंह फुला कर हमें देखने लगी. मैं ने उसे अपने पास बुलाया तो उस ने सिर हिला कर आने से इनकार किया. मैं ने गुलाब का फूल उस की ओर बढ़ाया. वह उसे लेने के लिए आगे बढ़ी, तो मैं ने उसे लपक कर पकड़ लिया. फिर मैं उसे ले कर अपने बगीचे में आ गई और उसे तरहतरह के फूल दिखाने लगी. प्रिया अब रोना बंद कर हंसने लगी.

‘‘3-4 महीने बाद पहली बार बच्ची इतना खुल कर हंसी है,’’ यह निर्मला देवी का स्वर था. उन्होंने प्रिया को पास बुला कर खाना खिलाने का आग्रह किया, परंतु उस ने अपनी बांहें मेरे गले में डाल दीं.

मैं ने निर्मला देवी के हाथ से प्लेट ले ली. वह मेरे हाथ से खुशीखुशी खाना खाने लगी. रात तक प्रिया मुझ से इतनी घुलमिल गई कि बड़ी मुश्किल से रवि के बहुत पुचकारने पर अपने घर जाने के लिए तैयार हुई.

मेरी 2 बार सगाई टूट चुकी थी. पहली बार तो लड़के वाले सगाई के बाद दहेज की मांग बढ़ाते ही जा रहे थे, इसी कारण रिश्ता टूट गया, क्योंकि पिताजी उन मांगों को पूरा करने में असमर्थ थे. दूसरा रिश्ता जिस लड़के से हुआ था, उस के बारे में पिताजी को पता चला कि वह दुश्चरित्र था.

एक रात प्रिया तेज बुखार से तप रही

थी, पर मुझे सुबह पता चला. मैं उस के घर गई और बोली, ‘‘आंटीजी, आप ने मुझे बुलाया

क्यों नहीं?’’

‘‘आकांक्षा बेटी, सवाल एक रात का नहीं

है. सारी जिंदगी का है. एक बिन मां की बच्ची को तुम ने 1 ही वर्ष में अपनी ममता की शीतल फुहारों से सराबोर कर दिया है. क्या तुम रवि की दुलहन बन कर हमेशा के लिए इस घर में आ सकती हो? बोलो बेटी, कुछ तो बोलो,’’ निर्मला देवी मेरा हाथ पकड़ कर रोने लगीं. अचानक इस प्रस्ताव को सुन कर मुझ से कुछ कहते न बना.

‘‘उफ, मां, तुम भी कमाल करती हो. एक तो इस घर में आने के बाद से आकांक्षा ने प्रिया को कितना संभाला है, तुम उन्हें क्यों किसी अनचाहे बंधन में बांधने का प्रयास कर रही हो?’’

मैं ने पहली बार रवि को इतने गुस्से में देखा था.

‘‘आकांक्षाजी, मां की बातों का बुरा मत

मानिए. मां भी उम्र के साथसाथ  सठिया गई हैं. रात को मैं ने मां से आप को बुलाने को मना किया था. देखिए, प्रिया अपने मन में अपनी मां की जगह आप को रखती है. कल को जब आप की शादी हो जाएगी, तो हमें इसे संभालना फिर से मुश्किल हो जाएगा,’’ रवि मेरी ओर मुखातिब हो कर बोले.

रवि का आशय समझ कर मैं उलटे पांव घर वापस आ गई, पर घर आने के बाद मेरा किसी काम में मन न लगा. मुझे चिंतित देख कर जब मां ने कारण पूछा, तो मैं ने उन्हें सारी बात बता दी.

आखिर एक रोज बिना कोई भूमिका

बांधे पिताजी बोले, ‘‘बेटी, तुम तो जानती हो कि हमें तुम्हारी शादी की कितनी फिक्र है.

तुम हम पर न कभी बोझ थीं, न आगे कभी रहोगी. परंतु पिता के घर कुंआरी जिंदगी में किसी भी बेटी को वह सुख नहीं मिल सकता, जो पति, बच्चों के साथ गृहस्थी में रम कर मिलता है. माना कि रवि दुहाजू है, पर उम्र

में तुम से केवल 3 साल ही बड़ा है. अच्छा कमाता है, केवल 1 ही बेटी है, जिसे तुम दिलोजान से चाहती हो. अगर तुम्हें रवि पसंद हो, तो हम तुम्हारे रिश्ते की बात रवि से

करते हैं. बेटी, सोचसमझ कर कोई फैसला करो. तुम्हारे किसी भी निर्णय में हम तुम्हारे साथ हैं,’’ इतना कह कर पिताजी कमरे से

बाहर चले गए.

सारी रात मैं ने आंखों में गुजारी. पति के रूप में मैं ने रवि जैसे शांत, गंभीर और शालीन व्यक्ति की ही मन में कल्पना की थी. सुबह मैं ने मां को अपना निर्णय बताया, तो मां के चेहरे पर सुकून था. शाम तक बात रवि तक पहुंच गई.

15 दिनों के भीतर मेरी रवि से कोर्ट मैरिज हो गई और मैं उन की दुलहन बन कर उन की जिंदगी में आ गई. प्रिया सब से ज्यादा खुश थी कि अब आंटी हमेशा उस के संग रहेंगी.

‘‘बेटी, अब से यह तुम्हारी आंटी नहीं, बल्कि मम्मी हैं,’’ मेरी सास निर्मला देवी ने प्रिया को समझाया.

‘‘तो अब से मैं इन्हें मम्मी ही कहूंगी. कितनी सुंदर लग रही हो, मम्मी,’’  3 साल की प्रिया ने मेरे गले में अपनी बांहें डाल दीं.

देखते ही देखते 1 वर्ष हंसीखुशी में बीत गया. प्रिया अब स्कूल जाने लगी थी. कुछ दिनों बात पता चला कि मेरे पैर भारी हुए हैं. घर में खुशियों की बहार आ गई.

मांजी प्रिया से कहतीं, ‘‘बिटिया, अब अकेले नहीं रहेगी. बिटिया के संग खेलने कोई आने वाला है.’’

प्रसव के कुछ वक्त बाद मैं अपने मायके आई. प्रिया की परीक्षाएं खत्म हो गई थीं. अत: रवि प्रिया को भी मेरे पास छोड़ गए.

एक दिन मैं बाहर बैठ कर प्रिया के बाल बना रही थी कि 2 महीने का आकाश दूध के लिए रोने लगा. मैं ने मां को आवाज दे कर कहा, ‘‘मां, जरा आकाश को देखना, मैं प्रिया के बाल बना कर अंदर आती हूं.’’

मां के पहुंचने तक आकाश ने रोरो कर

आसमान सिर पर उठा लिया था. मां आकाश को ले कर पुचकारते हुए बाहर आईं और बोलीं, ‘‘अरी, पहले अपने कोख जाए बच्चे का खयाल कर. क्या जिंदगी भर इसे ही सिर चढ़ाए रखेगी?’’

प्रिया, मां की बातों का अर्थ समझ पाई या नहीं, पता नहीं. परंतु मैं तत्काल बोल पड़ी, ‘‘यह क्या कह रही हैं मां? मेरे लिए प्रिया और आकाश दोनों ही बराबर हैं.’’

‘‘अरे, ये सब तो बोलने की बातें हैं. अपना खून अपना ही होता है और पराया, पराया ही होता है. देखो, तुम ने आकाश को लेने में देर कर दी तो बेचारे का रोरो कर गला ही सूख गया. जरा इसे दूध तो पिला दो,’’ कह मां ने आकाश को मेरी गोद में सुला दिया.

मेरा स्पर्श पाते ही वह पल भर में चुप हो कर दूध पीने लगा.

प्रिया का स्कूल शुरू होने के पश्चात मैं उसे व नन्हे आकाश को ले कर भोपाल यानी ससुराल आ गई. अब मैं आकाश के पालनपोषण में इतनी मशगूल हो गई कि प्रिया की ओर से मेरा ध्यान धीरेधीरे कम होता गया. प्रिया रात को मेरे पास सोने की जिद करती तो मैं उसे झिड़क कर रवि के पास भेज देती.

एक बार मैं रसोई में कुछ काम कर रही थी. चादर के झूले में सोए हुए 9 महीने के आकाश को प्रिया कोई कविता सुनाते हुए झूला झुला रही थी. अचानक जोर से कुछ गिरने की आवाज आई, फिर आकाश रोने लगा. एक ही सांस में मैं रसोई से और मांजी बैठक से लपके तो देखा कि आकाश जमीन पर गिर कर रो रहा है और प्रिया हैरान सी खड़ी है.

मैं ने आकाश को उठाया और गरजते हुए प्रिया से बोली, ‘‘यह क्या? तुम ने आकाश को कैसे गिराया?’’

प्रिया डरतेसहमते बोली, ‘‘मम्मी, मैं तो

आकाश को झुला रही थी, न जाने कैसे वह झूले से बाहर गिर पड़ा.’’

‘‘चुप रहो. तुम ने इतने जोर से झुलाया कि वह बाहर गिर पड़ा. तुम्हें इतनी अक्ल नहीं कि धीरे झुलाओ. इस के सिर में गहरी चोट आती तो? खबरदार जो आगे से कभी आकाश को हाथ भी लगाया,’’ कहते हुए तैश में आ कर मैं ने प्रिया के गाल पर एक थप्पड़ जड़ दिया.

इस के बाद मेरे और उस के बीच दूरियां

बढ़ती गईं. मेरी डांटफटकार से प्रिया फिर से उदास और गुमसुम रहने लगी. मांजी को प्रिया की यह दशा बिलकुल अच्छी न लगती. उन की आंखों की विवशता, मौन रह कर भी न जाने कितनी बातें कह जाती, पर मैं जान कर अनजान बनी रहती.

अपने प्रति मेरी अवहेलना सहन न कर पाने के कारण प्रिया चौथी कक्षा में आतेआते पढ़ाई मेें काफी पिछड़ गई थी.

इसी बीच मैं दूसरी बार गर्भवती हो गई. रवि तीसरा बच्चा तो नहीं चाहते थे, पर मेरी इच्छा का मान रखते हुए चुप हो गए. रेणु का जन्म भोपाल में ही हुआ.

7 साल के आकाश और ढाई साल की रेणु के बीच मैं इतनी व्यस्त हो गई कि

12-13 साल की प्रिया की ओर देखने का भी मुझे होश न रहता.

प्रिया के प्रति मेरी बढ़ती नाराजगी सहना जब मांजी के लिए नामुमकिन हुआ तो उन्होंने एक दिन मुंह खोल ही दिया, ‘‘बहू, प्रिया को तुम ही उस वक्त से पाल रही हो, जब वह मात्र 3 साल की थी. उस वक्त मैं ने कभी नहीं सोचा था कि आगे चल कर तुम उस से इतनी सख्ती से पेश आओगी. उसे तुम्हारे जरा से प्यार की जरूरत है, वह तुम से ज्यादा की अपेक्षा नहीं करती. उसे अपना लो, बहू,’’ मांजी के आंसू छलछला उठे.

पर उन की भाषा ने मेरी क्रोधाग्नि को भड़काने का ही काम किया, ‘‘वाह मांजी, यह सिला दिया आप ने मेरी तपस्या का? क्या मैं प्रिया से सौतेला व्यवहार करती हूं? क्या सगी मांएं अपने बच्चों को कभी डांटती नहीं हैं? कभीकभार मैं प्रिया पर गरम हो गई तो आप ने मुझे ‘सौतेला’ करार दे दिया? सौतेली मां तो सौतेली ही होती है, चाहे वह अपनी जान ही क्यों न निछावर कर दे,’’ मैं भुनभुनाती हुई अपने कमरे में चली गई.

इस के बाद प्रिया के प्रति मेरा रवैया तटस्थ हो गया. एक बात को मैं स्वयं भी महसूस करती थी कि प्रिया को तकलीफ में देख कर मैं उफ तक न करती. जबकि आकाश व रेणु को जरा भी कष्ट होता तो मेरे दिल में हायतोबा मच जाती थी.

एक दिन अचानक दिल का दौरा पड़ने से

मांजी का निधन हो गया. 3 बच्चों में प्रिया को अपनी दादी से विशेष प्रेम था. दादी के

जाने के बाद वह स्वयं को और भी अकेला महसूस करने लगी. वह अकसर दादी की तसवीर हाथ में लिए रोती रहती. रवि के बहलाने पर भी न बहलती.

मुझे याद है वह दिन. दोपहर का वक्त

था. आकाश व रेणु छत पर खेल रहे थे. मैं काम में व्यस्त थी. अचानक मुझे रेणु के जोरजोर से रोने की आवाज सुनाई दी. मैं छत पर गई तो देखा, आकाश रेणु के हाथ से पतंग छीन कर खुद उड़ा रहा था. प्रिया एक ओर चुपचाप खड़ी क्षितिज की ओर देख रही थी.

मैं रेणु को गोद में ले कर प्रिया पर बरस

पड़ी, ‘‘छोटी बहन रो रही है, यह नहीं होता

कि उसे चुप कराओ. सब से बड़ी हो, पर

क्या फायदा?’’

तभी आकाश की पतंग कट कर 3-4 घरों के बाद की झाडि़यों में गिर गई. वह पतंग लाने के लिए सीढि़यां उतरने लगा कि उसे मैं ने टोका, ‘‘रुको, प्रिया जा कर पतंग लाएगी. जाओ प्रिया.’’

‘‘पर मम्मी, हर बार मैं ही नीचे जाजा कर पतंग लाती हूं. खेलते ये दोनों हैं, पर घर से बाहर पतंग या बौल कोई भी चीज गिरे तो मुझे लानी पड़ती है. सीढि़यां चढ़तेउतरते मेरे पांवों में दर्द हो रहा है. मैं नहीं लाती.’’

पहली बार प्रिया ने पलट कर जवाब दिया था. मेरे गुस्से का पारावार न रहा, ‘‘तुम्हारी यह मजाल. जबान लड़ाती हो? क्या तुम्हारे भाईबहन तुम से यही सीखेंगे? आज शाम को पापा से तुम्हारी ऐसी शिकायत करूंगी कि देखना. जा कर पतंग लाती हो या नहीं?’’ कहते हुए मैं ने प्रिया के गालों पर तड़ातड़

2-3 झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिए. वह फूटफूट कर रोने लगी और अपने लाल हुए गालों को सहलाते हुए सीढि़यां उतरने लगी. मैं उसे गेट खोल कर रास्ते पर नंगे पैर ही जाते हुए देख रही थी.

2-3 दिन पहले भारी बारिश हुई थी. जैसा कि अकसर होता है, बारिश का पानी सड़क के गड्ढों में जमा हुआ था. दौड़ती हुई प्रिया का एक पैर जैसे ही एक गड्ढे में पड़ा, प्रिया जोर से चिल्ला कर एक ओर लुढ़क गई.

मैं बच्चों को ले कर नीचे दौड़ी. पासपड़ोस के

लोग जमा हो गए थे. बिजली के खंभे से लाइव करंट का वायर उस गड्ढे में गिर गया था और पानी में करंट फैला हुआ था. प्रिया कीचड़ में लथपथ बेहोश पड़ी थी. किसी ने लकड़ी के डंडे की सहायता से प्रिया को बाहर निकाला और बिजली विभाग को फोन किया. प्रिया का शरीर नीला पड़ गया था. मैं उसे रिकशे में डाल कर अस्पताल ले गई. डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया.

रवि घर आए तो प्रिया की मृत देह देख कर किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर एक ओर बैठ गए. मुझे काटो तो खून नहीं. प्रिया का अंतिम संस्कार तो कर दिया, लेकिन हमारे दिलों में इतनी वीरानी छा गई कि 2 छोटे बच्चे भी हमारे अकेलेपन को कम न कर पाए.

एक रोज आकाश प्रिया की एक कापी ले आया. मैं उसे एक नजर देख कर रखने ही वाली थी कि प्रिया की लिखाई देख कर उत्सुकतावश पढ़ने लगी. पढ़तेपढ़ते मैं बिलखबिलख कर रोने लगी.

हरेक पन्ने पर प्रिया ने अपने दिल का

दर्द बयान किया था. मेरा निष्ठुरता से बारबार उस का दिल तोड़ना, उस के कोमल मन को बर्बरता से रौंदना, उस का अकेलापन, उस की मायूसी, मां की ममता के लिए तड़पता उस

का प्यासा मन सब कुछ मेरे सामने बेपरदा

हो गया था. नन्ही सी बच्ची दिल में कितना

दर्द समाए जीती रही और मैं कितनी पत्थर

दिल बिना किसी गलती के उसे प्रताडि़त

करती रही.

शाम को रवि घर में आए तो कापी उन के हाथ में दे कर मैं बेतहाशा रोने लगी. रवि मौन हो कर पढ़ते हुए अपने आंसू पोंछ रहे थे. काफी समय बाद भी जब वह कुछ न बोले तो मुझ से रहा न गया.

‘‘मुझे मेरा घरसंसार आप जैसा शालीन और सच्चरित्र पति, यह भरीपूरी गृहस्थी जिस बच्ची की वजह से मिला उसे ही भुला कर

मैं अपने सुखों में मग्न हो गई. मैं ने प्रिया को कितना प्रताडि़त किया. मुझे मेरे अपराधों

की कोई तो सजा दीजिए. आप कुछ बोलते

क्यों नहीं? यों चुप न रहिए,’’ मैं लगातार रोती जा रही थी.

काफी समय पश्चात रवि ने मौन तोड़ा

और बोले, ‘‘तुम अपनी बात छोड़ो,

मैं ने उस के साथ कौन सा न्याय किया?

मैं ने भी उस की ओर बिलकुल ध्यान नहीं दिया. उस के अकेलेपन को न समझा. उसे वह प्यार न दिया, जिस की वह हकदार थी. शायद इसी अपराध की सजा देने के लिए कुदरत ने हम से उसे छीन लिया. अब हमारे लाख पछताने से भी क्या प्रिया वापस आ जाएगी? कभी नहीं. जब तक जीएंगे, इस अपराधबोध का भार ढोते हुए ही हमें जीना होगा, यही हमारी सजा है,’’ रवि बिलखबिलख कर रो

रहे थे.

कहते हैं वक्त हर जख्म को भर

देता है. 26-27 वर्ष हो गए हैं प्रिया की मौत को, पर आज तक हमारी आत्मग्लानि कम

नहीं हुई.

प्रिया की मृत्यु के बाद जब मेरा मन पश्चात्ताप की आग में जलने लगा, तब एक दिन पड़ोस की झुग्गी में रहने वाली रमिया

को एक नन्ही सी जान सड़क के किनारे

शाल में लिपटी हुई मिली. रमिया जब मेरे

पास बच्ची को छोड़ गई तो उस की कोमल त्वचा को न जाने कितनी चींटियां काट

चुकी थीं.

उस की प्राथमिक चिकित्सा कराने के दौरान 1 हफ्ते में उस फूल सी बच्ची के साथ

न जाने कब मेरा दिल का रिश्ता जुड़ गया. जब उसे कोई लेने न आया तो मैं ने ही उसे पालने का निर्णय लिया. इस के कुछ महीनों बाद, रिकशा चलाने वाला रामदीन सड़क पर भीख मांग रहे 2 बच्चों को छोड़ गया, जिन का

कोई न था.

देखतेदेखते 1 वर्ष के अंदर बच्चों की

संख्या बढ़तेबढ़ते 15 हो गई, तो मैं ने मदद के लिए 2 आया रख लीं और घर के बाहर ‘प्रियाज हैप्पी होम’ का बोर्ड लगा दिया. बोर्ड लगने की देर थी कि समाज के विभिन्न तबकों की

कुंआरी मांएं ‘हैप्पी होम’ के पालने में अपने बच्चों को छोड़ जातीं. बच्चों की संख्या तो

बढ़ती गई, साथसाथ मुझे अपनी संस्था के लिए विभिन्न लोगों व संस्थाओं (निजी व सरकारी) से डोनेशन भी मिलते गए व आगे का सफर आसान होता गया.

रवि ने इस सफर में मेरा हर कदम पर साथ दिया है. हर बच्चे में मुझे प्रिया का अक्स नजर आता है. पश्चात्ताप की अग्नि में जलते हुए इस मन को हर बच्चे के होंठों पर मुसकान खिलते हुए देख कर सुकून मिलता है.

नाक की लड़ाई

इन दिनों मेरा घर पानीपत का मैदान बना हुआ है. जिस ओर देखो उसी ओर एकदूसरे को चुनौती दी जा रही है. मैं ने पत्नी लक्ष्मी से पूछा, ‘‘मेरी लच्छो, इस छोटे से फ्लैट को घर समझो. यहां आराम से रहने में तुम्हें क्या परेशानी है?’’

‘‘मैं तो शांतिपूर्वक रहना चाहती हूं, मगर मांजी ही सुकून से रहना नहीं चाहतीं. जब देखो तब अपनी नाक चढ़ाए घूमती रहती हैं. आर्डर पे आर्डर देती रहती हैं, यह मत करो, वह मत करो, अपनी नाक का कुछ तो खयाल रखो,’’ लक्ष्मी ने अपनी तोता नाक पर टिका चश्मा ठीक करते हुए कहा.

मैं समझ गया कि सासबहू में नाक को ले कर तकरार हो रही है. दोनों जिद्दी स्वभाव की हैं. दोनों में से कोई भी एक अपनी नाक छोटी करना नहीं चाहतीं. मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि यदि नाक छोटी हो गई तो क्या फर्क पड़ जाएगा. मगर नहीं, लक्ष्मी बता रही थी कि विवाह पर उस की माताश्री ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘बेटी, हमारा परिवार नाक वालों का है. हमारी नाक समाज में प्रतिष्ठित है. ससुराल में अपनी नाक की प्रतिष्ठा बचाए रखना. मर जाना मगर नाक पर आंच मत आने देना.’

बस, तब से अब तक लक्ष्मी चौबीसों घंटे अपनी उंगली नाक पर रखे रहती है. यहां तक कि वह अपनी नाक पर मक्खी तक बैठने नहीं देती. लक्ष्मी का नासिका मोह मुझे भी लुभा गया. जिस नारी को अपनी नाक से एक बार प्रेम हो जाए उस का पति उसे नाक में कम से कम एक बार लौंग पहना कर हमेशा के लिए उस के नखरों से बच जाता है. मैं ने देखा है, जिस संभ्रांत महिला को जब अपनी सुराहीदार गरदन से स्नेह हो जाता है उस समय उस के पति का दिवाला निकलने में देर नहीं लगती. गले के लिए नेकलेस, हार खरीदने के लिए कईकई तोले स्वर्ण भेंट चढ़ जाता है. नारी मूड की तरह ग्रीवा आभूषणों की डिजाइनें बदलती रहती हैं और हर 1-2 वर्ष में पति की नाक में पत्नी अपनी फरमाइशों की नकेल डालती रहती है.

नाक की लड़ाई घरघर में युगों से चली आ रही है और आगे भी निरंतर चलती रहेगी. कोई भी अपनी नाक को कटते हुए नहीं देख सकता. जिस की नाक एक बार कट जाती है वह दोबारा नहीं जुड़ पाती. संभ्रांत समाज में जिस की नाक कट जाती है उसे ‘नक्टा’ की उपाधि से सुशोभित किया जाता है. जिस से वह बेशर्म की तरह कटे नाक का दर्द, पीड़ा, टीस, सूर्पणखा की तरह ढोता रहता है, आत्मग्लानि के बोझ तले अपनी कटी नाक हथेली में लिए रात की नींद व दिन का चैन खोता रहता है. हर कोई चाहता है कि भैया, चाहो तो मेरी गरदन काट लो, मगर मेहरबानी कर के नाक मत काटिए. नाक में ही मेरे प्राण बसते हैं. बिना नाक के जीना, कोई जीना है, लल्लू.

लोगों ने नाक को प्रतिष्ठा का प्रश्न क्यों   बनाया है, कान को क्यों नहीं बनाया, शोध का विषय है. मैं भी नाक के महत्त्व पर चिंतन कर रहा हूं. क्या सचमुच किसी की नाक देख लेने मात्र से ही उस के चरित्र का

पता लगाया जा सकता है? कहा जाता है कि जिन की नाक समकोणी होती है वे उदार, बुद्धिमान, महत्त्वाकांक्षी स्वभाव के होते हैं. मैं ने लक्ष्मी की नाक देखी, वह न्यूनकोण नसिका वाली थी.

मैं ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘लच्छो, तुम्हारे स्वभाव का इस में कोई दोष नहीं है. दोष तो तुम्हारी नाक का है, जो तुम्हारे निराशा, द्वेष, भावुकता से भरे स्वभाव को दर्शाती है.’’

‘‘मेरी नाक ही ऐसी है तो इस में मेरा क्या दोष है. नाक का क्या है, नाक तो नाक है, श्वास लेने का माध्यम,’’ कहते हुए लच्छो ने रूमाल से अपनी नाक ढक ली.

इतिहास गवाह है, इसी नाक को समर्पित नथिनों के लिए कितने ही राजेरजवाड़े समर्पित हो गए, मर गए मिट गए. तभी तो विवाह के समय सास अपने होने वाले दामाद की नाक खींचती है. यह रिवाज क्यों बनाया गया है, विचारणीय है. सच, नाक खिंचाई की रस्म बड़ी ही लुभावनी होती है. सास ने इधर दूल्हे के भाल पर तिलक लगाया, उधर दूल्हा अलर्ट हो जाता है, सावधान हो जाता है कि कहीं उस की नाक न खींच ली जाए. नाक खिंचवाना शर्म की बात होती है. सारे रिश्तेदार, सालेसालियां इस रोमांचक रिवाज का आनंद लेते हैं.

नाक की लड़ाई का प्रभाव राजनीति में जबरदस्त रूप से देखा जा सकता है. वे राष्ट्र की प्रगति के लिए नहीं लड़ते बल्कि दोनों पक्षों के बीच नाक की लड़ाई का ही वर्चस्व होता है.

‘‘चुनाव में उन की नाक न कटवा दी तो मैं सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लूंगा,’’  टाइप की हुई भीष्म प्रतिज्ञा लेने की घोषणा होती रहती है.

यही नाक है जिस ने न जाने कितनों के सिर फुड़वा दिए, टांगें तुड़वा दीं. तब लगता है चुनाव समर में नाक ही अपनी अहम भूमिका निभाती है. नाक की लड़ाई राष्ट्रीय स्तर पर होती है. कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक घरघर में लड़ी जाती है. अब इसे समाजवादी लड़ाई भी कहा जा सकता है. जहां नाक है वहां लड़ाई है. चाहे दफ्तर हो या घर पड़ोसियों में इसी नाक की लड़ाई को ले कर सट्टे खेले जाते हैं कि देखें कि किस की नाक बचती है.

2 की लड़ाई में बेचारी तीसरी नाक ही शहीद होती है.

तब लगता है, जहां प्रतिष्ठा है वहीं नाक की लड़ाई लड़ी जाती है. सब से रोमांचक लड़ाई सासबहू के बीच लड़ी जाती है, जो ड्रा नहीं होती. दोनों ही अपनी नाक के लिए दांवपेच के पासे फें कती हैं. पत्नी, पति के कंधे पर कान भरने की बंदूक रख कर चलती है. सास के खिलाफ बरगलाती है. फिल्मी संवाद उगलती है, ‘‘आखिर कब तक अपनी नाक की लाज बचाओगी? बुढ़ापा तो आ ही गया है, सासूमां 2-4 साल में मजबूरी की बैसाखियां ले कर हमारी चौखट पर ही आओगी, अपनी नाक रगड़ने.’’

तब टेप से सास अपनी नाक का नाप लेते हुए

कहती हैं, ‘‘बहू, गलतफहमी में मत रहना. मैं भी लंबी नाक वाली हूं. अपनी शादी में दहेज के साथ लंबी, तीखी नाक साथ ले कर आई हूं. तुम्हारी चौखट पर नाक रगड़ने जाए मेरी जूती. बहू, अब तुम भी नाक चिंतन करना शुरू कर दो. तुम भी सास बन रही हो. जितना तुम नाक का मुद्दा उछालोगी उतना ही घाटे में रहोगी. नाक तो राजा रावण की बहन की भी नहीं रही थी. जिधर देखो उधर जेबकतरों की तरह नाक काटने वाले उस्तरा हाथ में लिए घूम रहे हैं. ध्यान बंटा व नाक कटी. अब तुम ही कहो, बहू, नाक की लड़ाई में भला कौन सुखी रहा है. अपनी नाक वही बचा पाता है, जो दूसरे की नाक का सम्मान करता है. तुम्हारी यही सोच तुम्हें अपनी महफिलों, पड़ोस, क्लब, परिवार में नाक वाली बनाए रखेगी, बहू.’’

लक्ष्मी को सासूमां का नाक प्रवचन व्यावहारिक लगा. प्रसन्न मुद्रा में लच्छो ने कहा, ‘‘मांजी, सच में आप लंबी नाक वाली हैं. आप का तो हक बनता है कि परिवार को नाक की लड़ाई से बचाएं,’’ कहते हुए लक्ष्मी ने वार्डरोब में से लेडीज रूमाल निकाल कर कहा, ‘‘सासूमां, लीजिए रूमाल और पोंछ डालिए अपनी नाक का गुस्सा.’’

मैं ने संतोष की सांस ली. मेरा घर नाक की लड़ाई होने से एक बार फिर बच गया. मगर ऐसा रहेगा कब तक?

आधुनिक नारी: भाग 1- अनिता को अनिरुद्ध की खुशी पर शक क्यों हुआ?

उस दिन जब अविनाश अपने दफ्तर से लौटा तो बहुत खुश दिख रहा था. उसे इतना खुश देख कर अनिता को कुछ आश्चर्य हुआ, क्योंकि वह दफ्तर से लौटे अविनाश को थकाहारा, परेशान और दुखी देखने की आदी हो चुकी थी.

अविनाश का इस कदर परेशान होना बिना वजह भी नहीं था. सब से बड़ी वजह तो यही थी कि पिछले 10 सालों से वह इस कंपनी में काम कर रहा था, पर उसे आज तक एक भी प्रमोशन न मिला था. वह कंपनी के मैनेजर को अपने काम से खुश करने की पूरी कोशिश करता, पर उसे आज तक असफलता ही मिली थी.

प्रमोशन न होने के कारण उसे वेतन इतना कम मिलता था कि मुश्किल से घर का खर्च चल पाता था. उस की कंपनी बहुत मशहूर थी और वह अपना काम अच्छी तरह से सम?ा गया था, इसलिए वह कंपनी छोड़ना भी नहीं चाहता था.

अनिता अविनाश के दुखी और परेशान रहने की वजह जानती थी, पर वह कर ही क्या सकती थी.

उस दिन अविनाश को खुश देख कर उस से रहा नहीं गया. वह चाय का कप अविनाश को पकड़ा कर अपना कप ले कर बगल में बैठ गई और उस से पूछा, ‘‘क्या बात है, आज बहुत खुश लग रहे हो?’’

‘‘बात ही खुश होने की है. तुम सुनोगी तो तुम भी खुश होगी.’’

‘‘अरे, ऐसी क्या बात हो गई है? जल्दी बताओ.’’

‘‘कंपनी का मैनेजर बदल गया. आज नए मैनेजर ने कंपनी का काम संभाल लिया. बड़ा भला आदमी है. उम्र भी ज्यादा नहीं है. मेरी ही उम्र का है. पर इतनी छोटी उम्र में मैनेजर बन जाने के बाद भी घमंड उसे छू तक नहीं गया है. आज उस ने सभी कर्मचारियों की एक मीटिंग ली. उस में सभी विभागों के हैड भी थे. उस ने कहा कि यह कंपनी हम सभी लोगों की है. इसे आगे बढ़ाने में हम सभी का योगदान है. हम सब एक परिवार के सदस्यों की तरह हैं. हमें एकदूसरे की मदद करनी चाहिए. कंपनी के किसी भी सदस्य को कोई परेशानी हो तो वह मेरे पास आए. मैं वादा करता हूं सभी की बातें सुनी जाएंगी और जो सही होगा वह किया जाएगा.

‘‘आखिर में उस ने कहा कि इस इतवार को मेरे घर पर कंपनी के सभी कर्मचारियों की पार्टी है. आप सभी अपनी पत्नियों के साथ आएं ताकि हम सब लोग एकदूसरे को अच्छी तरह से जान और सम?ा सकें. लगता है अब मेरे दिन भी बदलेंगे. तुम चलोगी न?’’

‘‘तुम ले चलोगे तो क्यों नहीं चलूंगी?’’ कह कर मुसकराते हुए अनिता वापस रसोई में चली गई.

कंपनी के कर्मचारियों की

संख्या 100 से अधिक थी, जिन के रात के खाने का प्रबंध था. मैनेजर ने अपने घर के सामने एक बड़ा सा शामियाना लगवाया था. मैनेजर अपनी पत्नी के साथ शामियाने के दरवाजे पर ही उपस्थित था और आने वाले मेहमानों का स्वागत कर रहा था. मेहमान एकएक कर के आ रहे

थे और मैनेजर से अपना परिचय नाम और काम के जिक्र के साथ दे रहे थे.

अविनाश ने भी मैनेजर से हाथ मिलाया और अनिता ने उन की पत्नी को नमस्कार किया. अचानक मैनेजर की निगाह अनिता पर पड़ी तो उस के मुंह से निकला, ‘‘अरे, अनिता तुम? तुम यहां कैसे?’’

अनिता भी चौंक उठी. उस के मुंह से बोल तक न फूटे.

‘‘पहचाना नहीं? मैं अनिरुद्ध…’’

‘‘पहचान गई, तुम काफी बदल गए हो.’’

‘‘हर आदमी बदल जाता है, पर तुम नहीं बदलीं. आज भी वैसी ही दिख रही हो,’’ कहते हुए अनिरुद्ध ने अपनी पत्नी की तरफ संकेत किया, ‘‘अनिता, यह है अंजलि मेरी पत्नी और तुम्हारे पति कहां हैं?’’

अनिता ने अविनाश को आगे कर के इशारा किया और अंजलि को अभिवादन कर उस से बातें करने लगी.

अब तक सिमटा हुआ अविनाश सामने आ कर बोला, ‘‘सर, मैं हूं अविनाश. आप की कंपनी के ऐड विभाग में सहायक.’’

‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है,’’ कहते हुए अनिरुद्ध ने अंजलि से कहा, ‘‘अंजलि, यह है अनिता. बचपन में हम दोनों एक ही सरकारी कालोनी में रहते थे और एक ही स्कूल में एक ही क्लास में पढ़ते थे. इन के पिताजी पापा के बौस थे.’’

‘‘पर आज उलटा है. आप अविनाश के बौस के भी बौस हैं,’’ कह कर अनिता हंस पड़ी.

‘‘नहीं, हम लोग आज से बौस और मातहत के बजाय एक दोस्त के रूप में काम करेंगे. क्यों अविनाश, ठीक है न? खैर, और बातें किसी और दिन करेंगे, आज तो बड़ी भीड़भाड़ है,’’ कहते हुए अनिरुद्ध अन्य मेहमानों की तरफ मुखातिब हुआ, क्योंकि अब तक कई मेहमान आ कर खड़े हो चुके थे.

पार्टी समाप्त होने पर अन्य लोगों की तरह अविनाश और अनिता भी वापस अपने घर लौट आए. अविनाश बहुत खुश था. उस से अपनी खुशी संभाले नहीं संभल रही थी. सोते समय अविनाश ने अनिता से पूछा, ‘‘क्या यह सच है कि मैनेजर साहब तुम्हारी कालोनी में रहते थे और तुम्हारी क्लास में पढ़ते थे?’’

‘‘इस में  झूठ की क्या बात है? जब पिताजी की नियुक्ति जौनपुर में थी तो हमारी कोठी की बगल में ही अनिरुद्ध का क्वार्टर था और अनिरुद्ध मेरी ही क्लास में पढ़ता था. अनिरुद्ध पढ़ने में तेज था, इसलिए वह आज तुम्हारी कंपनी में मैनेजर बन गया और मैं पढ़ने में कमजोर थी, इसलिए तुम्हारी बीवी बन कर रह गई,’’ कह कर अनिता मुसकरा तो पड़ी पर यह मुसकराहट जीवन की दौड़ में पिछड़ जाने की कसक को भुलाने के लिए थी.

अविनाश तो किसी और दुनिया में मशगूल था. उसे इस बात की बड़ी खुशी थी कि मैनेजर साहब उस की पत्नी के पुराने परिचितों में से हैं.

‘‘मैनेजर साहब इतना तो सोचेंगे ही कि मेरा प्रमोशन हो जाए.’’

‘‘पता नहीं, लोग बड़े आदमी बन कर अपना अतीत भूल जाते हैं.’’

‘‘नहीं अनिता, मैनेजर साहब ऐसे आदमी नहीं लगते. देखा नहीं, कितनी आत्मीयता से हम लोगोें से वे मिले और यह बताने में भी नहीं चूके कि तुम्हारे पिता उन के पिता के बौस थे.’’

‘‘मुझे नींद आ रही है. वैसे भी कल सुबह उठ कर प्रमोद को तैयार कर के स्कूल भेजना है,’’ कह कर अनिता ने नींद का बहाना बना कर करवट बदल ली. थोड़ी ही देर में अविनाश भी खर्राटे भरने लगा.

नींद अनिता की आंखों से कोसों दूर थी. उस ने कुशल स्त्री की भांति अविनाश को सिर्फ इतना ही बताया था कि वह अनिरुद्ध से परिचित है. वह बड़ी कुशलता से यह छिपा गई कि दोनों एकसाथ पढ़तेपढ़ते एकदूसरे को चाहने लगे थे. 12वीं कक्षा में तो दोनों ने अपने प्यार का इजहार भी कर दिया था. पर दोनों जानते थे कि उन दोनों की आर्थिक स्थिति में बहुत अंतर है और दोनों की जाति भी अलग है, इसलिए घर वाले दोनों को विवाह करने की अनुमति कभी नहीं देंगे. दोनों ने यह तय किया था कि पढ़ाई पूरी करने के बाद वे दोनों नौकरी तलाशेंगे और उस के बाद अपनी मरजी से विवाह कर लेंगे.

पर आदमी का सोचा हुआ सब कुछ होता

कहां है. 12वीं कक्षा का परीक्षाफल भी नहीं निकला था कि अनिता के पिता का स्थानांतरण वाराणसी हो गया और अनिता और अनिरुद्ध द्वारा बनाया गया सपनों का महल ढह कर चूर हो गया. तब न तो टैलीफोन की इतनी सुविधा थी और न ही आनेजाने के इतने साधन. इसलिए समय बीतने के साथसाथ दोनों को एकदूसरे को भुला भी देना पड़ा.

कहते हैं कि स्त्री अपने पहले प्यार को कभी भुला नहीं पाती. आज इतने दिन बाद अनिरुद्ध को अपने सामने पा कर अनिता के प्यार की आग फिर से भड़क गई. अविनाश जितनी बार अनिरुद्ध को सर कहता अनिता शर्म से मानो गड़ जाती. आज वह अनिरुद्ध के सामने खुद को छोटा महसूस कर रही थी. उस के मन के किसी कोने में यह भी खयाल आया कि अगर उस का पहला प्यार सफल हो गया होता, तो आज वही कंपनी के मैनेजर की पत्नी होती. सभी उस का सम्मान करते और उसे छोटीछोटी चीजों के लिए तरसना न पड़ता. यही सब सोचतेसोचते अनिता की आंख लग गई.

अविनाश का सारा काम विज्ञापन विभाग तक ही सीमित था. विज्ञापन विभाग का प्रमुख उस के सारे काम देखता था. अविनाश को यह उम्मीद थी कि अनिरुद्ध अगले ही दिन उसे बुलाएगा और मौका देख कर वह उस के प्रमोशन की बात कहेगा. अनिता से अपने पुराने परिचय का इतना खयाल तो वह करेगा ही. पर धीरेधीरे 1 सप्ताह बीत गया और अनिरुद्ध का बुलावा नहीं आया तो अविनाश निराश हो गया.

लेकिन एक दिन जब अविनाश को अनिरुद्ध का बुलावा मिला तो उस की खुशी का ठिकाना न रहा. वह तत्काल इजाजत ले कर अनिरुद्ध के कमरे में पहुंच गया. अनिरुद्ध ने उसे बैठने के लिए इशारा किया और बोला, ‘‘उस दिन काफी भीड़ थी, इसलिए कायदे से बात न हो पाई. ऐसा करो, कल छुट्टी है अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आओ, आराम से बातें करेंगे. एक बात और दफ्तर में किसी को भी पता न चले कि हम लोग परिचित हैं. यह जान कर लोग तुम से अपने कामों की सिफारिश के लिए कहेंगे और मुझे दफ्तर चलाने में दिक्कत आएगी. समझ रहे हो न?’’

‘‘जी सर,’’ अविनाश अभी इतना ही कह पाया था कि चपरासी कुछ फाइलें ले कर अनिरुद्ध के कमरे में आ गया. अविनाश वापस अपनी सीट पर लौट आया पर आज वह बहुत खुश था.

घर लौट कर अविनाश अनिता से बोला, ‘‘आज मैनेजर साहब ने मुझे अपने कमरे में बुलाया था. कह रहे थे कि भीड़ के कारण कायदे से बातें नहीं हो पाईं, कल अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आओ, इतमीनान से बातें करेंगे.’’

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